________________
श.७: उ.१०:सू.२१८-२२३
४००
भगवई
चिट्ठइत्तए वा? निसीइत्तए वा? तुयट्टित्तए वा? णो तिणढे समटे । कालोदाई ! एगंसि णं नो तदर्थः समर्थः। कालोदायिन् ! एकस्मिन् पोग्गलत्थिकार्यसि रूविकायंसि अजीवकायंसि पुद्गलास्तिकाये रूपिकाये अजीवकाये शक्ताः चक्किया केइ आसइत्तए वा, सइत्तए वा, केऽपि आसितुं वा, शयितुं वा, स्थातुं वा, चिट्ठइत्तए वा, निसीइत्तए वा, तुयट्टित्तए वा॥ निषत्तुं वा, त्वग्वर्तयितुं वा ।
कालोदायी! यह अर्थ संगत नहीं है। केवल एक पुद्गलास्तिकाय, जो रूपीकाय और अजीवकाय है, में कोई प्राणी रुक सकता है, सो सकता है, खड़ा रह सकता है, बैठ सकता है, करवट ले सकता है।
२२०. एयंसि णं भंते ! पोग्गलत्थिकायंसि एतस्मिन् भदन्त ! पुद्गलास्तिकाये रूपिकाये २२०. भन्ते ! इस पुद्गलास्तिकाय, जो रूपीकाय अजीव
रूविकायंसि अजीवकायंसि जीवाणं पावा कम्मा अजीवकाये जीवानां पापानि कर्माणि पाप- काय है, में क्या जीवों के पापकर्म पापफल विपाक पावफलविवागसंजुत्ता कज्जति? फलविपाकसंयुक्तानि क्रियन्ते?
संयुक्त होते हैं ? णो तिणढे समढे। कालोदाई ! एयंसि णं नो तदर्थः समर्थः । कालोदायिन् ! एतस्मिन् । कालोदायी ! यह अर्थ संगत नहीं है। केवल एक जीवत्थिकायंसि अरूविकायंसि जीवाणं पावा जीवास्तिकाये अरूपिकाये जीवानां पापानि जीवास्तिकाय, जो अरूपीकाय है, में जीवों के पापकर्म कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जति । एत्थ कर्माणि पापफलविपाकसंयुक्तानि क्रियन्ते ! पापफल विपाकसंयुक्त होते हैं। इस संवाद से कालोदायी णं से कालोदाई संबुद्धे समणं भगवं महावीरं अत्र सः कालोदायी संबुद्धः श्रमणं भगवन्तं संबुद्ध हो गया; वह श्रमण भगवान महावीर को वन्दनवंदइनमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी- महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा नमस्कार करता है, वन्दन-नमस्कार कर इस प्रकार इच्छामि णं भंते ! तुन्भं अंतियं धम्मं निसा- एवमवादीद्-इच्छामि भदन्त! तव अन्तिके बोला-'भन्ते ! मैं आपके पास धर्म सुनना चाहता मेत्तए । एवं जहा खंदए तहेव पव्वइए, तहेव धर्म निशमितुम् । एवं यथा स्कन्दकः तथैव हूं।' महावीर ने धर्म का उपदेश दिया और वह प्रव्रजित एक्कारस अंगाई अहिज्जइ जाव विचितेहिं । प्रवजितः तथैव एकादश अङ्गानि अध्येति हो गया। स्कन्दक (भ.२/५०-६३) की भांति पूरी तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ॥ यावद् विचित्रैः तपःकर्मभिः आत्मानं भावयन् वक्तव्यता । कालोदायी ने ग्यारह अंगों का अध्ययन विहरति।
किया यावत् वह नाना प्रकार के तपःकर्मों से आत्मा को भावित करता हुआ विहरण कर रहा है।
भाष्य
१. सूत्र २१८-२२०
इस सिद्धान्त को ध्यान में रख कर कालोदायी ने पूछा-क्या पुद्गलास्तिकाय कालोदायी की जिज्ञासा और अधिक प्रबल हो उठी। भगवान महावीर
में पापकर्म का विपाक होता है ? भगवान ने इस जिज्ञासा के समाधान में
कहा-"कालोदायी ! संसारस्थ जीव सर्वथा शुद्ध नहीं होता, बन्ध और मोक्ष के समवसरण में आया और भगवान से पञ्चास्तिकाय के सिद्धान्त का श्रवण ।
जीव में ही घटित होते हैं। पाप कर्म का विपाक जीव में ही होता है।" किया। पञ्चास्तिकाय के सिद्धान्त को समझ कर कर्मविषयक एक प्रश्न उपस्थित किया। सांख्य दर्शन के अनुसार आत्मा के कर्म का बंध और मोक्ष नहीं होता।
२२१. तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ ततः श्रमणः भगवान् महावीरः अन्यदा २२१. श्रमण भगवान महावीर किसी समय राजगृह नगर रायगिहाओ नगराओ, गुणसिलाओ चेइयाओ, कदाचिद् राजगृहान् नगराद्-गुणशिलाच् और गुणशिलक चैत्य से पुनः निष्क्रमण करते हैं, पुनः पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता बहिया चैत्यात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य बहिः निष्क्रमण कर नगर से बाहर जनपद-विहार कर रहे जणवयविहारं विहरइ॥
जनपदविहारं विहरति।
हैं।
कालोदाइस्स कम्मादिविसए पसिण-पदं
कालोदायिनः कर्मादिविषये प्रश्न-पदम् कालोदायी का कर्म आदि के विषय में प्रश्न का
२२२. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरं, नगरे गुणसिलए चेइए। तए णं समणे भगवं गुणशिलकं चैत्यम् । ततः श्रमणः भगवान् महावीरे अण्णया कयाइ जाव समोसढे,परिसा महावीरः अन्यदा कदाचिद् यावत् समवसृतः, जाव पडिगया।
परिषद् यावत् प्रतिगता।
२२२. उस काल और उस समय राजगृह नाम का नगर
और गुणशिलक नाम का चैत्य। श्रमण भगवान महावीर किसी समय वहां समवसृत हुए, परिषद् आई, धर्म सुना और वापिस चली गई।
२२३. तए णं से कालोदाई अणगारे अण्णया कयाइ ततः स कालोदायी अनगारः अन्यदा कदाचिद् २२३. किसी समय अनगार कालोदायी जहां भगवान श्रमण
जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उपा- महावीर हैं वहां आता है, आ कर श्रमण भगवान् उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं बंदइ गच्छति, उपागत्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं महावीर को वन्दन-नमस्कार करता है, वन्दन-नमस्कार
Jain Education Intemational
For Private & Personal use only
www.jainelibrary.org