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भगवई
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सिही निस्सीला तहेव जाव कहिं उववज्जि- गुकाः, शिखिनः निश्शीलाः तथैव यावत् कुत्र हिंति ? उपपत्स्यनते ?
गोयमा ! उस्सण्णं नरम-तिरिक्खजोगिएसु गोवमा 'उस्सण्ण' नरक- तिर्यग्योनिकेषु उच्चन्निर्हिति ॥ उपपत्स्यन्ते ।
१. सूत्र ११७- १२३
पत्ती में कालचक्र का विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। प्रस्तुत आगम में यह वर्णन वहीं से उद्धृत प्रतीत होता है। आगम-वाचना के किसी चरण में इस आलापक का प्रक्षेप हुआ-यह स्वीकार करने में कोई बाधक कारण नहीं है। भगवती की संवादात्मक तथा सूत्रात्मक रचना - शैली के साथ इस विवरणात्मक शैली का संगतिपूर्ण संबंध भी नहीं है।
दुःषम- दुःषमा काल में होने वाली पर्यावरणीय परिस्थिति का विवेचन इस प्रकार है
१. प्रलयंकर वायु चलेगी।
२. दिशाएं धूमिल हो जाएंगी।
३. चन्द्रमा से अधिक ठण्ड़ निकलेगी।
४. सूर्य अधिक तपेगा।
५. वर्षा वैसी होगी, जिसका पानी व्याधि पैदा करने वाला होगा एवं पीने योग्य नहीं होगा।
२. बिलो
६. वर्षा तूफानी हवा के साथ इतनी तेज बरसेगी, जिससे ग्राम नगर, पशु-पक्षी तथा वनस्पति जगत् का विध्वंस हो जाएगा।
७. वैतायगिरि को छोड़ शेष पर्वत, डूंगर नष्ट हो जायेंगे। ८. गंगा, सिन्धू को छोड़ शेष नदियां समतल बन जाएंगी। ६. भूमि अंगारे की भांति तप्त, भूति बहुल हो जाएगी एवं निवास योग्य नहीं रहेगी।
१०. मनुष्य सौन्दर्य, सदाचार और शक्ति से हीन हो जाएगा। ११. मनुष्य के शरीर की ऊंचाई एक रत्निप्रमाण' हो जाएगी। १२. कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) प्रबल हो जाएगा। १३. भोजन पोषणहीन होगा और रोग बढ़ जायेंगे।
१४. आयुष्य का कालमान १६ से २० वर्ष जितना होगा।
इन बिलों की संख्या ७२ बताई गई है।
शब्द-विमर्श
सू० ११७
भाष्य
१. भ. ६/१३४ ।
२. भ. जो. २/ १२०/८१-८३
गंगा सिंधु महानदी वेताढनीं नेश्राय । बोहिंतर बिल-वासीनां कुटुंब निगोदा कहाय ॥ ८१ ॥ गंगा नदि जिहां उत्तर दिशि वैताढरे,
नीचे प्रवेश करे तिहां बिहु पासै धरै ।
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पराकाष्ठा पर होगा ) ( उत्तमक पत्ताए ) - पराकाष्ठा को प्राप्त
( होगा ) ।
भ० ६/१३५ में 'उतिमडुपत्ताए' प्रयोग मिलता है। आकार पर्याय का अवतरण - आकार ( बाह्य स्वरूप) और भाव (पर्याय) का अवतरण अथवा आविर्भाव ।
श.७:उ.६ ः सू.११७-१२३
कौए) कंक (सफेद कौआ), बिलक (सुनहरा नील पक्षी या नीलक), जलवायस (पन्नडूबी या बानकी), मोर या कुक्कुट (मुर्गा) यावत् कहां उपपन्न होंगे ?
गौतम ! वे प्रायः नरक और तिर्यञ्च योनि में उत्पन्न होंगे।
अर (समा ) --काल, समय, कालचक्र का एक भाग 'अर' है । काल के प्रभाव से (समानुभाव ) - समा- काल; अनुभव -सामर्थ्य खर परुष - अत्यन्त कठोर
वातुल वातुल और वातूल ये दोनों शब्द संस्कृत कोश- सम्पत हैं। इनका अर्थ है 'वायु का समूह', आंधी, बवण्डर।
वृत्तिकार ने बाउल का अर्थ व्याकुल असमंजस किया है। किंतु यहां व्याकुल का अर्थ संगत नहीं लगता। खर- परुष-धूलिमइला-दुव्विसहाये वाउला के विशेषण हैं।
प्रलयंकारी हवाएं (संवर्तक) तृण, काष्ठ आदि को उड़ा देने
वाली वायु
वाले मेघ ।
'भयंकरा' - यह संवर्त्तक बात का विशेषण है। अंधकारमय (निरालोक) - आलोक -रहित ।
समय की रूक्षता - यहां 'समय' शब्द 'वातावरण' का वाचक है। काल औपचारिक द्रव्य है। वह स्निग्ध अथवा रूक्ष नहीं हो सकता ।
क्षार जल वाले मेघ -सज्जी क्षार के समान रस वाले मेघ । खाद के समान रस वाले मेघ - गोबर की खाद के समान रस
गवेत्तय-गाय, भेड़ आदि पशु वृक्ष (रुख) - आम आदि वृक्ष । गुच्छ - वृन्ताकि आदि पौधा ।
गुल्म - जिसका स्कन्ध छोटा हो और कांड, पत्र, पुष्प तथा फल अधिक हो वह गुल्म है।
लता -- जिसके स्कन्ध प्रदेश से ऊपर एक शाखा के अतिरिक्त दूसरी शाखा न निकले।
वल्ली-बेल, ककडी आदि की बेल
तण - वीरण आदि घास ।
नव नव बिल छै एम अठारै बिल थया, इम गंगा दक्षिण वैताढ कनै कहया ॥८२॥ उत्तर दिशि में अठार अठार दक्षिण दिशे,
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एवं बिल षट तीस तिहां जंतू वसे । इम सिंधू बिहू पास छतीस पिछाणियै बोहितर बिल एम सर्व ही जाणियै ॥८३॥
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