SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 331
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवई ३०९ श.६ : उ.९ : सू.१६३-१६८ नील रक्त कृष्ण तिक्त पुद्गल के परिणमन की वक्तव्यता। इसी प्रकार पीत वर्ण वाले पुद्गल से यावत् शुक्ल वर्ण वाले पुद्गल के परिणमन की वक्तव्यता। इसी प्रकार इस परिपाटी से गन्ध-रस और स्पर्श की परिणमन की वक्तव्यता। भाष्य १. सूत्र १६३-१६७ वैक्रिय करने वाला तत्र-स्थित पुद्गलों के ग्रहण कर विक्रिया प्रस्तुत आलापक में वैक्रिय (विविध रूप-निर्माण) की शक्ति और करता है—नाना रूपों का निर्माण करता है। विक्रिया से किए जाने वाले उसके नियमों का वर्णन उपलब्ध है। देवों का शरीर वैक्रिय होता है। वे वैक्रिय विविध रूपों को चार विकल्पों में इस प्रकार रखा जा सकता है.-- शरीर के द्वारा नाना रूपों का निर्माण कर सकते हैं, किन्तु बाहरी पुद्गलों १. एक वर्ण एक रूप (वैक्रिय वर्गणा के पुद्गलों) का ग्रहण किए बिना नहीं कर सकते। द्रष्टव्य भ. २. एक वर्ण अनेक रूप ३/१८६-१९२ का भाष्य। ३. अनेक वर्ण एक रूप बाहरी पुद्गलों के विषय में तीन विकल्प हो सकते हैं ४. अनेक वर्ण अनेक रूप १. इहगत-प्रज्ञापक के पार्श्ववर्ती क्षेत्र में स्थित वैक्रिय वर्गणा परिणमन स्वभाव से भी होता है और प्रयोग से भी होता है। कृष्ण के पुद्गल। वर्ण स्वभाव से नीलवर्ण में परिवर्तित हो जाता है। नील वर्ण रक्त वर्ण में बदल २. तत्रगत-वैक्रिय करने वाले के पार्श्ववर्ती क्षेत्र में स्थित वैक्रिय जाता है। सूर्य-विज्ञान की विद्या में भी वर्ण, गन्ध तथा आकार को बदलने की वर्गणा के पुद्गल। प्रक्रिया निर्दिष्ट है। उसका आधार प्रस्तुत सूत्र में उपलब्ध है। ३. अन्यत्रगत–प्रज्ञापक और वैक्रिय-कर्ता दोनों के स्थान पर्याय-परिवर्तन के विविध विकल्प प्रस्तुत तालिका में दिए गये से किसी अन्य स्थान में स्थित वैक्रिय वर्गणा के पुद्गल। १. कृष्ण - नील, कृष्ण १४. तिक्त - अम्ल, अम्ल - तिक्त २. कृष्ण - १५. तिक्त - मधुर, मधुर - ३. कृष्ण - कृष्ण १६. कटुक - कषाय, कषाय कटुक ४. कृष्ण - शुक्ल, शुक्ल १७. कटुक - अम्ल, अम्ल कटुक ५. नील - रक्त, रक्त नील १८. कटुक मधुर, मधुर कटुक पीत नील १९. कषाय अम्ल, अम्ल कषाय शुक्ल, नील २०. कषाय मधुर, कषाय ८. रक्त - २१. अम्ल - मधुर, मधुर अम्ल शुक्ल, शुक्ल रक्त २२. कर्कश - मृदु, मृदु कर्कश १०. पीत - शुक्ल, शुक्ल पीत २३. गुरु ११. दुर्गन्ध- सुगन्ध, सुगन्ध दुर्गन्ध २४. शीत - उष्ण, उष्ण शीत १२. तिक्त - कटुक, कटुक - २५. स्निग्ध रूक्ष, स्निग्ध १३. तिक्त - कषाय, कषाय - तिक्त २. यावत् यावत् की पूर्ति के लिए भ. ३/४ द्रष्टव्य है। अविसुद्धलेसादि देवाणं जाणणा-पासणा- अविशुद्धलेश्यादि-देवानां ज्ञान-द- अविशद्ध लेश्या आदि वाले देव का ज्ञान र्शन-पदम् -दर्शन-पद १६८. १. अविसुद्धलेसे णं भंते ! देवे असमो- १. अविशुद्धलेश्य: भदन्त ! देव: असम- १६८. 'भन्ते!१. अविशुद्ध लेश्यावाला देव असमवहत हएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं, देविं, वहतेन आत्मना अविशुद्धलेश्यं देवं अण्णयरं जाणइ-पासइ? देवीम्, अन्यतरं जानाति-पश्यति? अथवा अन्य किसी को जानता-देखता है ? णो तिणढे समढे। नायमर्थ: समर्थः। यह अर्थ संगत नहीं है। एवं–२. अविसुद्धलेसे देवे असमोहएणं एवं–२. अविशुद्धलेश्य: देव: असम- इसी प्रकार--२. अविशुद्ध लेश्या वाला देव असमअप्पाणेणं विसद्धलेसं देवं ३. अविसुद्धलेसे वहतेन आत्मना विशुद्धलेश्यं देवम् ३. वहत आत्मा के द्वारा विशुद्ध लेश्या वाले देव को रक्त, पीत, पीत कृष्ण पीत, शुक्ल FF मधुर पीत, पीत अम रक्त । । । । । । । । । । लधु, लघु तिक्त पद Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy