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________________ श.६:उ.७: सू.१३२-१३४ २८८ भगवई अवस्था में मुनि बने तो वह कुछ न्यून करोड़ पूर्व तक धर्म की आराधना करता त्रुटित से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक की संख्या का उपयोग नरक, भवनपति और व्यन्तर देवों का आयुष्य-परिमाण करने के लिए किया जाता था। (देखें, इसी शतक के सूत्र १३४ का भाष्य) शब्द-विमर्श समुदय-समिति-समागम होने पर जो कालमान होता है, उसका नाम 'आवलिका' है। हृष्ट-संतुष्ट अनवकल्य-नीरोग, जो वार्धक्य से रहित है।' निरुपक्लिष्ट-मानसिक क्लेश से मुक्त, जो कभी व्याधि से ग्रस्त नहीं हुआ है। ___ मानसिक संताप (Tension), मानसिक क्लेश और रुग्ण अवस्था में श्वास की संख्या बढ़ जाती है. इसलिए वैसे व्यक्ति का श्वास प्रमाण नहीं होता। यह तथ्य काल-गणना और प्रेक्षा-ध्यान दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। समदय-समिति-समागम-समुदय का अर्थ है समूह। अनेक समुदय मिलकर समिति का निर्माण करते हैं। समागम का अर्थ है संयोग। अनेक समितियों का संयोग समागम कहलाता है। असंख्यात समयों का ओवमिय-काल-पदं १३३. से किं तं ओवमिए? ओवमिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पलिओवमे य, सागरोवमे य॥ औपमिक-काल-पदम् अथ किं तद् औपमिकम्? औपमिकं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद् यथापल्योपमं च, सागरोपमं च। औपमिक-काल-पद १३३. वह औपमिक क्या है? औपमिक के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे—पल्योपम और सागरोपम। १३४. वह पल्योपम क्या है? वह सागरोपम क्या है? गाथासुतीक्ष्ण शस्त्र से भी जिसका छेदन-भेदन नहीं किया जा सकता, उस (व्यावहारिक) परमाणु को सिद्ध पुरुष (केवली) प्रमाणों का आदि बतलाते हैं। १३४. से किंतं पलिओवमे? से किं तं साग- अथ किं तत् पल्योपमं? अथ किं तत् रोवमे? सागरोपमम्? गाहा गाथासत्थेण सुतिक्खेण वि, शस्त्रेण सुतीक्ष्णेनापि, छेत्तुं भेत्तुं व जं किर न सका। छेत्तुं भेत्तुं च यं किल न शक्ताः। तं परमाणु सिद्धा, तं परमाणु सिद्धाः, वदंति आदि पमाणाणं ॥१॥ वदन्ति आदि प्रमाणानाम् ॥१॥ अणंताणं परमाणुपोग्गलाणं समुदय-समि- अनन्तानां परमाणुपुद्गलानां समुदय-समिति-समागमेणं सा एगा उस्सण्हसण्हिया इ ति-समागमेन सा एका उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका वा, सहसण्हिया इ दा, उड्ढरेणू इ वा, इति वा, श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका इति वा, ऊर्ध्वतसरेणू इ वा, रहरेणू इ वा, वालग्गे इ वा, रेणुः इति वा, त्रसरेणु: इति वा, रथरेणुः इति लिक्खा इ वा, जूया इ वा, जवमझे इ वा, वा, बालाग्रम् इति वा, लिक्षा इति वा, यूका अंगुले इ वा। अट्ठ उस्सण्हसण्हियाओ सा इति वा, यवमध्यम् इति वा, अङ्गुलः इति एगासण्हसण्हिया, अट्ठसण्हसण्हियाओ सा वा। अष्ट उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिकाः सा एका एगा उड्ढरेणू, अट्ठ उड्ढरेणूओ सा एगा श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका, अष्ट श्लक्ष्णश्लक्ष्णितसरेणू, अट्ठ तसरेणूओ सा एगा रहरेणू, का: सा एका ऊर्ध्वरेणुः, अष्ट ऊर्ध्वरेणव: अट्ठ रहरेणूओ से एगे देवकुरु- उत्तरकुरुगाणं सा एका त्रसरेणुः, अष्ट त्रसरेणव: सा एका मणुस्साणं वालगे; एवं हरिवास-रम्मग- रथरेणुः, अष्ट रथरेणवः तद् एकं देवकुरु-हेमवय-एरन्नवयाणं, पुव्वविदेहाणं मणु- उत्तरकुरुजाणां मनुष्याणां बालाग्रम् एवं स्साणं अट्ठ वालग्गा सा एगा लिक्खा, अठ्ठ हरिवर्ष-रम्यग्-हैमवत-हैरण्यवतां, पूर्व- लिक्खाओ सा एगा जूया, अट्ठ जूयाओ से विदेहानां मनुष्याणां अष्ट बालाग्राणि सा एका अनन्त व्यावहारिक परमाणु-पुद्गलों के समुदय, समिति और समागम से एक उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका, (परिपाटी के अनुसार) श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका, ऊध्र्वरेणु, त्रसरेणु, रथरेणु बालाग्र, लिक्षा, यूका, यवमध्य और अंगुल होता है। आठ उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका की एक श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका, आठ श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका का एक ऊध्वरेणु, आठ ऊध्र्वरेणु का एक त्रसरेणु, आठ त्रसरेणु का एक रथरेणु, आठ रथरेणु का देवकुरु उत्तरकुरु के मनुष्यों का एक बालाग्र, देवकुरु उत्तरकुरु के मनुष्यों के आठ बालाग्र का हरिवर्ष और रम्यक्वर्ष के मनुष्यों का एक बालाग्र, हरिवर्ष और रम्यक् वर्ष के मनुष्यों के आठ बालाग्र का हैमवत और हैरण्यवत के मनुष्यों का एक बालाग्र, हैमवत और हैरण्यवत के मनुष्यों के आठ बालाग्र का पूर्व १. अनु. चू. पृ. ५७ अंतोमुहत्तादिया जाव पुव्वकोडीएत्ति, एतानि धम्मचरणकालं पडुच्च णरतिरियाण आउपरिमाणकरणे उवजुज्जति, णारगभवणवंतराणं दसवरिससहस्सादि उवजुज्जति, आउयचिंताए तुडियादिया सीसपहेलियंता एते पायसो पुबगतेसु जविएसु आउयसेढीए उबजुज्जति। २. भ.वृ. ६/१३२-असंख्यातानां समयानां सम्बन्धिनो ये समुदाया-वृन्दानि तेषां या: समितयो-मीलनानि तासां य: समागमः-संयोगः। समुदयसमितिसमागमस्तेन यद् कालमानं भवतीति गम्यते सैकाऽऽवलिकेति प्रोच्यते। ३. वही, ६/१३२-हष्टस्य-तुष्टस्य। ४. वही, ६/१३२-अनवकल्यस्य जरसाऽनभिभूतस्य । ५. वही, ६/१३२—निरुपक्लिष्टस्य व्याधिना प्राक् साम्प्रतं चानभिभूतस्य । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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