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भगवई
१. उनकी ऊंचाई सात हाथ की थी
द्रष्टव्य भ० १/६ का भाष्य । यह उल्लेखनीय है कि यहां 'हाथ' उत्सेध अंगुल के प्रमाण से बताया गया है। '
२. कितनी महान् ऋद्धि वाला (केमहिडीए)
वृत्तिकार ने केमहिढीए पद की व्युत्पति दो प्रकार से की है— १. किस रूप में महर्द्धिक, २. कैसी महान ऋद्धि वाला एक मतान्तर का उल्लेख भी किया है। उसके अनुसार इसका अर्थ होता है— कितना महर्दिक।"
भाष्य
३. सामानिक
समृद्धि में इन्द्र के समकक्ष देव तत्त्वार्थ भाष्य के अनुसार इन्द्रत्व को छोड़कर शेष सब स्थितियों में वे इन्द्र के तुल्य होते हैं। सिद्धसेनगणी ने लिखा है - उनमें इन्द्रत्व नहीं होता, इन्द्र की भांति वे सम्पूर्ण देवलोक के अधिपति नहीं होते। वे पिता, गुरू, उपाध्याय आदि के समान आदरणीय होते हैं। * वृत्तिकार ने सामानिक का केवल व्युत्पत्तिजन्य अर्थ किया है।
४. तावत्रिंशक
तत्त्वार्थ भाष्य में ' त्रायस्त्रिंश' शब्द का प्रयोग मिलता है। भाष्यानुसारिणी वृत्ति और तत्त्वार्थराजवार्त्तिक में भी वही प्रयोग प्राप्त है।" वे मंत्री और पुरोहित के समान होते हैं। मूलपाठ के अनुसार इसका संस्कृत रूप 'तावत्रिंशक' होना चाहिए। बौद्ध साहित्य में भी तावतिंस का प्रयोग मिलता है।
५. लोकपाल
तत्त्वार्थ भाष्य में लोकपाल की तुलना आरक्षक और अर्थचर से की गई है। अपने देश के सीमारक्षक आरक्षक कहलाते हैं।' चोरों से जनता की रक्षा करने वाले अर्थचर कहलाते हैं।" लोकपाल का विस्तृत वर्णन तीसरे शतक के सातवें उद्देशक में मिलता है।
१. अणु. सू. ४०१1
२. भ. वृ. ३/४ - केन रूपेण महर्द्धिकः ? किंरूपा वा महर्द्धिरस्येति किंमहर्द्धिकः, कियन्महर्द्धिक इत्यन्ये ।
३. त. भा. ४/४ – इन्द्रसमानाः सामानिकाः अमात्यपितृगुरूपाध्यायमहत्तरवत् केवलमिन्द्रत्वहीनाः ।
४. त. भा. ४/४ –सामानिकास्त्विन्द्रतुल्या भवन्त्यायुष्कादिभिः केवलमिन्द्रत्वं सकलकल्पाधिपत्वं नास्ति, शेषंक समानम्। ते चामात्यपितृगुरूपाध्यायमहत्तरवद् द्रष्टव्याः, अमा सहार्थे, सह भवन्तीत्यमात्याः - कार्यालोचनसमर्थाः पिता गुरुरुपाध्यायो महत्तरश्च सर्व एते पूजनीयास्तद्वत् तेऽपि सामानिका इति ।
५. भ. वृ. ३/४ - समानया - इन्द्रतुल्यया ऋद्ध्या चरन्तीति सामानिकाः ।
६. त. भा. ४/४ - त्रयस्त्रिंशा मन्त्रिपुरोहितस्थानीयाः ।
७. (क) त. सू. भा. वृ. ४/४ - त्रयस्त्रिंशाः ।
(ख) त. रा. वा. ४/४ - त्रयस्त्रिंशदेव त्रायस्त्रिंशा इति ।
८. सभी जगह पालि त्रिपिटकों में तावतिंस शब्द का प्रयोग किया गया है। उदाहरणार्थ,
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६. सात सेनाएं, सात सेनापति
इनकी विशद जानकारी के लिए द्रष्टव्य ठाणं, ७/११३-१२६६
श. ३ : उ.१ : सू. ४
७. आत्मरक्षक
इसकी तुलना शिरोरक्षक से की गई है। दे हाथ में शस्व लिये पीछे खड़े रहते हैं। देवजगत में इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, फिर यह क्या अनावश्यक प्रयोग नहीं है? इसका समाधान इस प्रकार किया गया है कि यह व्यवस्था बड़प्पन की मर्यादा है अथवा प्रति प्रकर्ष के लिए की गई है। "
८. आधिपत्य..... सेनापतित्व
प्रस्तुत सूत्र में नेतृत्व के द्योतक पांच शब्द - १. आधिपत्य – अनुशासन
-अग्रगामिता
२. पौरपत्य
३. स्वामित्व - स्वामिभाव
४. भर्तृत्व - संरक्षण और पोषण
५. आज्ञा - ईश्वर - सेनापत्य -- आदेश निर्देश देने में समर्थ सेनापति ।
६. आहत नाट्यों, गीतों
आहत - वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिये हैं - १. आख्यानक ( कथानक ) प्रतिबद्धनाट्य और उसके उपयुक्त गीत २ अहत अव्याहत नाट्य और गीत ।
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प्रथम अर्थ वृद्ध व्याख्या के आधार पर किया गया है और दूसरा वृत्तिकार का अपना अभिमत है।
१०. इतनी महान् ऋद्धि वाला (एमहिडीए)
वृत्तिकार ने इसका रूप एवं महर्द्धिक किया है इवन्महर्द्धिक को मतान्तर माना है। १४
११. युवक युवती का...... युक्त होती है।
देखें दीघनिकाय, महावग्ग, पायसिराजञ्ज सुत्तं तावतिंसदेव उपमा, पृ० २४४ ( नालन्दा
६. त. भा. ४/४ - लोकपाला आरक्षकार्थचरस्थानीयाः ।
१० त. सू. भा. वृ. ४/४ - लोकपाला आरक्षकार्थचरस्थानीयाः स्वविषयसन्धिरक्षणनिरूपिता आरक्षकाः, अर्थचराश्चौरोद्धरणिकराजस्थानीयादयस्तत्सदृशा लोकपालाः । ११. (क) त. भा. ४/४ - आत्मरक्षाः शिरोरक्षास्थानीयाः ।
(ख) त. सू. भा. वृ. ४/४ - आत्मरक्षाः शिरोरक्षस्थानीयाः उद्यतप्रहरणा रौद्राः पृष्ठतोऽवस्थायिनः अपायाभावात् कल्पनावैयर्थ्यमिति चेत् तद् न स्थितिमात्रपरिपालनात् प्रतिप्रकर्षहेतुत्वाच्च ।
१२. भ. वृ. ३८४ तत्राधिपत्यम्-अधिपतिकर्म, पुरोवर्तित्वम् अग्रगामित्व, स्वमिलस्वस्वामित्वम्।
१३. वही, ३/४ - 'आहय'त्ति आख्यानकप्रतिबद्धानीति वृद्धाः, अथवा 'अहय'त्ति अहतानि । १४. वही, ३/४ - एवमहिड्डिए त्ति एवं महर्द्धिक इव महर्द्धिकः, इयन्महर्द्धिक इत्यन्ये।
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