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श. ३ : उ.१ : सू.४
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चउन्हं लोगपालाणं, पंचण्डं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिन्हं परिसानं सत्तण्हं अणि याणं, सत्तन्हं अभियाहिवईगं चउन्हं उसट्टीनं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अण्णेसिं व बहूणं चमरच॑चारायहाणिवत्थव्वाणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं आणा ईसर सेगावच्च कारेमाणे पालेमाणे महयाहयनट्ट - गीय-वाइय-तंती- तलताल-तुडिय - घणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ । एमहिडीए, एमजुतीए, एमहाबले एमडायसे एमटासोक्खे, एमहाणुभाने एवतियं च पभू विकुव्वित्तए । से जहानामए – जुवतिं जुवागे हत्येनं हत्थे गेण्डेजा, चक्करस वा नाभी अरगाउत्ता सिया, एवामेव गोयमा चमरे असुरिंदे असुरराया वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहम्मद समोरणिता संखेन्जाई जोगाई दंड निसिरइ तं जहा स्वगाणं वयराणं वेरुलियाणं लोहियक्खाणं मसारगल्लाणं हंसगव्याणं पुलगाणं सोगंधिवानं ओईरसाणं अंजणाणं अंजनपुलगाणं रवयानं जागरूवाणं अंकाण फलिहान रिद्वागं अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ, परिसाडेत्ता अहासुहुमे पोग्गले परियायद, परिवाइत्ता दोच्च पि चेउबिय समुग्धाएणं समोहण्णति ।
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पभू णं गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया केवलकणं जंबुद्दीव दीव बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य आइण्णं वितिकिण्णं उवत्थ संथ फुडं अवगाडावगाढं करेत्तए ।
अदुत्तरं च णं गोयमा । पभू चमरे असुरिंदे असुररावा तिरियमसंखेज्जे दीव-समुद्दे बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य आइण्णे वितिकिण्णे उवत्थडे संथडे फुडे अवगादावगाढे करेत्तए ।
एस णं गोयमा! चमरस्स असुरिंदस्स असुररणो अयया विसए विसयमेते बुझए, णो चैव णं संपत्तीए विकुविसु वा विकुव्वति वा विकुव्विसति वा ॥
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लोकपालानां पञ्चानाम् अग्रमहिषीणां स परिवाराणां तिसृणां परिषदां सप्तानाम् अनीकानां, सप्तानाम् अनीकाधिपतीनां चतुर्णा चतुःषष्टीनाम् आत्मरक्षदेवसाहस्याः अन्येषां व बहूनां चमरचज्वाराजधानी वास्तव्यानां देवानाञ्च देवीनाञ्च आधिपत्यं पौरपत्यं स्वामित्वं भर्तृत्व आज्ञेश्वर सैनापत्यं कारयन् पालयन् महताहतनाट्य गीत - वादित्र-तन्त्री-तल-ताल- त्रुटित धनमृदंगपटु-प्रवादितरवेण दिव्यान् भोग्यभोगान् भुञ्जानः विहरति । इयन्महर्दिकः श्यन्महाद्युतिकः इयन्महावल यन्महायशाः इवमन्यनुभागः ॥ एतावच्च प्रभुः विकर्तुम् । तद् यथानाम - युवतिं युवा हस्तेन हस्ते गृहीयात् चक्र वा नाभिः अरकायुक्ता स्याद् एवमेव गौतम! चमरः अमुरेन्द्रः असुरराजः वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्यते, समवहत्य संख्येयानि योजनानि दण्डं निसृजति, तद्यथा रत्नानां जणां वैर्याणां लोहिताक्षाणां मसारगल्लानां हंसगर्भाणां पुलकानां सौगन्धिकानां ज्योतिरसानाम् अब्जनानाम् अञ्जनपुलकानां रजतानां जातरूपाणाम् अह्कानां स्फटिकानां रिष्टानां यथावादरान् पुद्गलान् परिशाटयति, परिशाट्य यथासूक्ष्मान् पुद्गलान् पर्यादत्ते पर्यायय द्वितीयमपि वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्यते ।
प्रभुः गौतम ! चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः केवलकल्यं जम्बूद्वीप द्वीप बहुभिः असुरकुमारैः देवैः देवीभिश्च आकीर्णं व्यतिकीर्णम् उपस्तृतं संस्तृतं स्पृष्टम् अवगाढावगाढं कर्तुम् ।
'अदुत्तरं ' च गौतम ! प्रभुः चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः तिर्यग असंख्येयान् द्वीप समुद्रान् बहुभिः असुरकुमारैः देवैः देवीभिश्च आकीर्णान् व्यतिकीर्णान् उपस्तृतान् संस्तृतान् स्पृष्टान् अवगाढावगाढान् कर्तुम् । एष गौतम! चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य अयमेव एतद्रूपः विषयः विषयमात्रः उक्तः, नो चैव सम्प्राप्त्या व्यार्थी या विकरोति या विकरिष्यति वा ।
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भगवई
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पटरानियां, सीन परिषद स्वत सेनाएं सात सेनापति, दो लाख छप्पन हजार आत्मरक्षक देव और चमरचञ्चा राजधानी में रहने वाले अन्य अनेक देवों तथा देवियों का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व (पोषण) तथा आज्ञा देने में समर्थ और सेनापतित्व करता हुआ, अन्य देवों से आज्ञा का पालन करवाता हुआ वह आहत नाट्यों, गीतों तथा कुशल वादक के द्वारा बजाए गए वादित्र, तन्त्री, तल, ताल, त्रुटित, घन और मृदंग की महान् ध्वनि से युक्त दिव्य भोगाई भोगों को भोगता हुआ रहता है वह इतनी महान् ऋद्धि वाला, इतनी महान् द्युति वाला, इतने महान् बल वाला, इतने महान यश वाला, इतने महान् सुख वाला, इतनी महान् सामर्थ्य वाला है और इतनी विक्रिया करने में समर्थ है। जैसे कोई युवक युवती का प्रगाढता से हाथ पकड़ता है अथवा गाड़ी के चक्के की नाभि जैसे अरों से युक्त होती है", उसी प्रकार गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर (अपनी विक्रिया से निर्मित एवं अपने शरीर से प्रतिबद्ध रूपों से जम्बूद्वीप को आकीर्ण करने के लिए) वैयि समुद्धात से समस्त होता है। १२ समवहत होकर वह अपने शरीर से संख्येय योजन सम्या दंड निकालता है। उसके पश्चात् वह रत्न, वज्र (हीरा), वैडूर्य (लहसुनिया), लोहिताक्ष ( लोहितक), मसारगल्ल (मसृणपाषाणमणि), हंसगर्भ (पुष्पराग), पुलक, सौगन्धिक (माणिक्य), ज्योतिरस (सफेद और लाल रंग से मिश्रित मणि) अम्जन (समीरक), अञ्जनपुलक, चांदी, स्वर्ण, अंक, स्फटिक और रिष्ट नामक मणि- इन रत्नों से स्कूल (असार) पुद्गलों को झटक देता है और सूक्ष्म (सार) पुद्गलों को ग्रहण करता है। उन्हें ग्रहण कर, वह फिर दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात से समवहत होता है। गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप को अनेक असुरकुमार देवों और देवियों से आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तृत (बिछौना - सा बिछाया हुआ), संस्तृत (भलीभांति बिछौना-सा बिछाया हुआ) स्पृष्ट (छूने) और अवगाढावगाढ (अत्यन्त सघन रूप से व्याप्त) करने में समर्थ है।
और दूसरी बात, गौतम! असुरेन्द्र असुरराज चमर तिरछे लोक के असंख्य द्वीप समुद्रों को अनेक असुरकुमार देवों और देवियों से आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तृत, संस्तृत स्पृष्ट और अवगाढावगाढ करने में समर्थ है।
गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की विक्रिया-शक्ति का यह इतना विषय केवल विषय की दृष्टि से प्रतिपादित है । चमर ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की न करता है और न करेगा।
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