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________________ श.६ : उ.८: सू.१३७-१५० ३०० भगवई ति वा? वा? गोयमा ! णो इणढे समढे। गौतम ! नायमर्थः समर्थः। एवं सणंकुमार-माहिंदेसु, नवरं-देवो एगो एवं सनत्कुमार-माहेन्द्रयोः, नवरम्—देवः । पकरेति। एवं बंभलोए वि। एवं बंभलोगस्स एकः प्रकरोति। एवं ब्रह्मलोकेऽपि। एवं उवरिं सव्वेहिं देवो पकरेति। पुच्छियव्वो य ब्रह्मलोकस्य उपरि सर्वेषु देव: प्रकरोति। बादरे आउकाए, बादरे अगणिकाए, बादरे प्रष्टव्यश्च बादर: अप्काय:, बादर: अग्नि- वणस्सइकाए। अण्णं तं चेव।। काय:, बादर: वनस्पतिकाय:। अन्यत् तच्चैव। आभा है? गौतम! यह अर्थ संगत नहीं है। इसी प्रकार सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पों की वक्तव्यता। केवल इतना विशेष है—अकेला देव करता है। इसी प्रकार ब्रह्मलोक की वक्तव्यता। इसी प्रकार ब्रह्मलोक से ऊपर सर्वत्र (अच्युत कल्प तक) देव करता है। बादर अप्काय, बादर अग्निकाय और बादर वनस्पतिकाय प्रष्टव्य है—इनका निषेध है। शेष सब पूर्ववत् वक्तव्य हैं। संगहणी गाहा तमुकाए कप्पपणए, अगणी पुढवी य अगणि पुढवीसु। आऊ तेऊ वणस्सई, कप्पुवरिमकण्हराईस ॥१॥ संग्रहणी गाथा तमस्काये कल्पपञ्चके, अग्निः पृथिवी च अग्निः पृथिवीषु। आपस्तेजो वनस्पति, कल्पोपरिमकृष्णराजीषु ॥१॥ संग्रहणी गाथा तमस्काय और पांच कल्पों-सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्म में बादर अग्निकाय और बादर पृथ्वीकाय का सूत्र विवक्षित है। रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों में बादर अग्निकाय का सूत्र विवक्षित है। उपरितन कल्पों और कृष्णराजियों में बादर अप्काय, बादर तेजस्काय और बादर वनस्पतिकाय का सूत्र विवक्षित नहीं है। भाष्य १. सूत्र १३७-१५० का निषेध भी वक्तव्य है। फिर भी सूत्र में उसका निषेध नहीं किया गया है। रत्नप्रभा पृथ्वी सात पृथ्वियों में पहली पृथ्वी है। उसका बाहल्य अभयदेवसूरि ने इस विषय में लिखा है—जो जहाँ नहीं है, उसके निषेध का (मोटाई) एकलाख अस्सी हजार योजन का है। उसके नीचे गृह और गृहापण प्रतिपादन अनिवार्य नहीं है।' नहीं है, चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारा नहीं है, चन्द्र और सूर्य की सौधर्म और ईशान के प्रकरण में बादर अग्निकाय के साथ बादर आभा भी नहीं है, बादर अग्निकाय नहीं है। इसका अपवाद सूत्र है- पृथ्वीकाय का भी उल्लेख है। अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्विकायिक जीव शर्कराप्रभा पृथ्वी के पूर्ववर्ती ठाणं में अल्पवृष्टि और महावृष्टि के तीन-तीन कारण निर्दिष्ट हैं। चरमान्त में समवहत होकर समयक्षेत्र (मनुष्यलोक) में अपर्याप्त बादर उनमें एक कारण देव, नाग, यक्ष और भूत है। नव ग्रैवेयक और अनुत्तरविमान अग्निकाय के रूप में उत्पन्न होता है। इस अपेक्षा से रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे में वर्षा, स्तनित करने वाले देव भी नहीं जा सकते, इसलिए वहाँ देवकृत वर्षा बादर अग्निकाय का अस्तित्व बतलाया गया है। और स्तनित संभव नहीं है। रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे बादर अग्निकाय की भांति बादर पृथ्वीकाय निम्न प्रदत्त यन्त्र में सात पृथ्वियों के अधोभाग तथा बारह देवलोक, नव ग्रैवेयक तथा पांच अनुत्तर के अधोभाग में होने वाली वर्षा, स्तनित एवं उसके कर्ता के सम्बन्ध में विवरण हैपृथ्वी/स्वर्ग स्तनित कर्ता रत्नप्रभा का अधोभाग देव, असुर, नाग शर्कराप्रभा का अधोभाग देव, असुर, नाग वर्षा I the the १. जीवा. ३/५-इमा णं रयणप्पभा पुढवी असिउत्तरं जोयणसयसहस्सं बाहल्लेण पण्णत्ता। २. भ. ३४/१२–अपज्जतासुहमपुढवीकाइए णं भंते ! सक्करप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए समयखेत्ते अपज्जत्ताबादरतेउक्काइयत्ताए उबब्वज्जित्तए से णं भंते ! कतिसमइएणं-पुच्छा। गोयमा ! दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा ।। ३. भ.वृ. ६/१४२-ननु यथा बादराग्नेर्मनुष्यक्षेत्र एवं सद्भावानिषेध इहोच्यते। एवं बादरपृथिवीकायस्यापि निषेधो वाच्यः स्यात् पृधिव्यादिष्वेव स्वस्थानेष तस्य भावादिति। सत्यं, किन्तु नेह यद्यत्र नास्ति तत्तत्र निषिध्यते मनुष्यादिवत् । विचित्रत्वात् सूत्रगतेरतोऽसतोऽपीह पृथिवीकायस्य न निषेध उक्तः। ४. भ. ६/१४७। ५. ठाण ३/३५९,३६० Jain Education Intenational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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