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श.६ : उ.५ : सू.७०-११८
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भगवई
है।
होते हैं।
या आकाशीय पिण्ड उसके निकट आएगा तो वह अपनी ओर उसे खींच लेगा ४. आयाम की अपेक्षा से----कृष्णराजि असंख्य हजार योजन और अपने में आत्मसात कर लेगा। वाली होती है। तमस्काय का आयाम निर्दिष्ट नहीं है।
५. वहाँ गृह आदि का अभाव-तमस्काय और कृष्णराजि दोनों कृष्ण विवर की उत्पत्ति रिक्त स्थान हैं-वहां न घर हैं, न दुकानें, न सन्निवेश।
__ वैज्ञानिक मान्यता के अनुसार जब किसी तारे के भीतर का ईंधन
समाप्त हो जाता है, तब उस तारे का ताममान क्रमश: घटता जाता है और विषमताएं
उसके परिमाण का संकुचन होता जाता है। संकुचन के साथ-साथ तारे का १. तमस्काय और कृष्णराजि में मुख्य फर्क यह है कि तमस्काय घनत्व बढ़ता जाता है। उसकी सतह का गुरुत्वाकर्षण-बल भी उसकी घनत्व मुख्य रूप में अप्कायिक (जल) है, जबकि कृष्णराजि मुख्यत: पृथ्वीकायिक की वृद्धि के अनुपात में बढ़ता जाता है। बढ़ते-बढ़ते वह इतना अधिक हो (पृथ्वी) है।
जाता है कि उसकी सतह से किसी भी पदार्थ का मुक्त होना कठिन हो जाता २. तमस्काय में बादर पृथ्वीकाय और बादर अग्निकाय नहीं है, है। अन्ततोगत्वा उसका घनत्व इतना अधिक हो जाता है कि प्रकाश के अणु कृष्णराजि में बादर अप्काय, बादर अग्निकाय एवं बादर वनस्पतिकाय नहीं जैसा सूक्ष्म पदार्थ भी फिर उससे बाहर भाग नहीं सकता। जो भी पदार्थ उसके
गुरुत्व-क्षेत्र की सीमा में आ जाता है, उसे भी वह अपनी ओर लेता है। ३. तमस्काय और कृष्णराजि दोनों में चन्द्रमा, सूर्य, ग्रहगण,
कृष्ण विवर सही अर्थ में पूर्णरूपेण कृष्ण होने से किसी भी साधन नक्षत्र एवं तारा-रूप का पूर्ण अभाव है, किन्तु जहाँ तमस्काय के परिपार्श्व में के द्वारा दिखाई नहीं दे सकता। फिर भी उसके गुरुत्वाकर्षण-बल का अनुभव चन्द्रमा आदि पांचों होते हैं तथा पार्श्ववर्ती चन्द्र, सूर्य की प्रभा तमस्काय में किया जा सकता है। आकाश में विद्यमान तारे आदि प्रकाशित पिण्डों से घिरा आकर धुंधली बन जाती है, वहाँ कृष्णराजि में चन्द्रमा, सूर्य की आभा का हुआ यह पिण्ड एक प्रकार का गड्ढा (विवर) है, जिसमें गिरने वाला पदार्थ सर्वथा अभाव है।
वापिस बाहर नहीं निकल सकता। इस रूप में कृष्ण विवर' की संज्ञा बिल्कुल ४. दोनों में बड़े मेघ संस्विन्न होते हैं, संमूर्च्छित होते हैं और सार्थक है। बरसते हैं तथा वह (संस्वेदन, समूर्च्छन, वर्षण) देव, नाग और असुर भी
वैज्ञानिक धारणा के अनुसार ऐसे कृष्ण विवरों की संख्या अनेक करते हैं; पर तमस्काय में जहां स्थूल गर्जन और विद्युत देव, असुर और नाग हैं। संभवत: इनमें से एक कृष्ण विवर का अस्तित्त्व हमारी आकाश-गंगा तीनों करते हैं, वहां कृष्णराजि में केवल कोई देव करता है, असुर और नाग (गेलेक्सी) के भीतर है, जिसे 'सिग्नसएक्स-१' की संज्ञा दी गई है। नहीं करते।
कृष्ण विवर के साथ तुलना विज्ञान में कृष्ण विवर' (Black Hole)
उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि लोक में नए कृष्ण विवर आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुसार प्रकाश के अणुओं की उत्पत्ति होती रहती हैं, पर तमस्काय, कृष्णराजि के वर्णन से ऐसा लगता है (जिन्हें फोटोन' कहा जाता है) पर भी गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव होता है। कि ये एक रूप में शाश्वत पदार्थ हैं; इनकी नई उत्पत्ति नहीं होती। तात्पर्य यह अत: प्रकाश की गति भी इससे प्रभावित होती है। सामान्य स्थिति में ताराओं हुआ कि यद्यपि कृष्णराजि और कृष्ण विवर में समानताएं हैं, फिर भी दोनों से प्रकाश निकलता रहता है और चारों ओर फैलता है किन्तु कुछ तारे ऐसे एक नहीं है। होते हैं जिनमें द्रव्यमान या सहति (Mass) अत्यन्त अधिक मात्रा में तथा उपर्युक्त वर्णन से यह भी स्पष्ट होता है कि जहां तमस्काय और सघन रूप में होती है। उनका प्रकाश उनके गुरुत्वाकर्षण के कारण उनसे बाहर कृष्णराजि—ये दोनों ही रोमाञ्च उत्पन्न करने वाली, भयंकर, उत्त्रासक निकल कर फैल नहीं सकता। उनकी सतह से जो भी प्रकाश बाहर फैलने की और क्षुब्ध करने वाली हैं जिससे कि देव आदि आकाशगामी जीव उनसे दूर कोशिश करता है, तो उसे भी थोड़ी दूर पहुंचने पर ही तारे के भीतर का रहने की कोशिश करते हैं, वहां कृष्ण विवर के विषय में वैज्ञानिकों की भी गुरुत्वाकर्षण पुन: खींच लेता है। इसकी वजह से वह तारा 'कृष्ण' वर्ण वाला यही धारणा है कि कोई भी आकाशीय पिण्ड या प्रकाश-पिण्ड उसके पास से दिखाई देता है। विज्ञान ने ऐसे तारे को 'कृष्ण विवर' (ब्लैक होल) की संज्ञा दी गुजर नहीं सकता। यदि गुजरता है, तो उस गड्ढे में गिर जाता है, उसमें विलीन है। जब प्रकाश जैसे अति सूक्ष्म अणुओं को भी कृष्ण छिद्र अपने चंगुल से हो जाता है। निकलने नहीं देता, तब यह स्पष्ट है कि यदि कोई भी अन्य भौतिक पदार्थ कृष्णराजि का आकार त्रिकोण, चतुष्कोण अथवा षट्कोण है,
१. यहाँ प्रदत्त कृष्ण-विवर विषयक जानकारी का आधार हैA Brief History of Time by Stephen W. Hawking, 1988, २. किसी भी दो भौतिक पदार्थों के बीच एक आकर्षण का बल विद्यमान रहता है, जिससे हल्का पदार्थ भारी पदार्थ की ओर आकृष्ट होता है, इसे गुरुत्वाकर्षण का बल कहा जाता है।
३. तारे के भीतर रही हुई हाइड्रोजन नामक वायु लगातार आण्विक प्रक्रिया के द्वारा हिलियम नामक वायु में परिणत होती रहती है और उसके परिणाम स्वरूप प्रकाश एवं ताप उत्पन्न होते रहते हैं। जब सुदीर्घ अवधि में सारे हाइड्रोजन का हिलियम में रूपान्तरण हो जाता हे तब यह प्रक्रिया समाप्त हो जाती है, तब कहा जाता है कि ईधन समाप्त हो गया।
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