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श. ६ : उ. ४ सू. ५४-६३
१७. अनेक जीव अनेक सिद्ध
९८. अनेक जीव, अनेक एकेन्द्रिय
९९. एकेन्द्रिय वर्जित अनेक नारक आदि उन्नीस दंडक
-
१००. अनेक जीव एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय वर्जित सोलह दंडक
१
४७.
४८. आहार - शरीर- इन्द्रिय- आनापान पर्याप्ति प्रतिपन्न जीव
१०१. अनेक जीव, अनेक एकेन्द्रिय १०२. एकेन्द्रिय वर्जित अनेक नारक आदि उन्नीस दंडक
१०३. अनेक जीव अनेक एकेन्द्रिय
१०४. अनेक विकलेन्द्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय
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४९. भाषा - मन पर्याप्ति प्रतिपन्न
भंग
३
7
१०५. अनेक नारक, भवनपति, मनुष्य, व्यंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक
२६६
अशरीर
भंग
५०. आहार अपर्याप्ति वाला
भंग
१०६. अनेक जीव
अनेक एकेन्द्रिय
7
१०७. अनेक जीव अनेक तिर्यच पंचेन्द्रिय
1
१०८. अनेक नारक भवनपति, मनुष्य, व्यंतर, ज्योतिष्क,
वैमानिक
३
-
भंग
५१. शरीर - इन्द्रिय- आनापान अपर्याप्ति वाला
भंग
१. अभयदेवसूरि ने भाषा पर्याप्ति और मनः पर्याप्ति के एकत्व का समर्थन किया है। उनके सामने बहुश्रुत मान्यता की परम्परा रही है। इस आधार पर केवल पंचेन्द्रिय का ग्रहण किया गया है। भाषा और मनः पर्याप्ति को स्वतन्त्र मानने पर भी त्रिभंग की व्यवस्था में कोई फर्क नहीं पड़ता। विकलेन्द्रिय जीवों में भाषा पर्याप्ति है उनमें भी तीन भंग प्राप्त होते हैं और मनः पर्याप्ति वाले जीवों में भी तीन भंग होते हैं। भ. वृ. ६ / ६३ - भाषामनसोः पर्याप्तिर्भाषामन: पर्याप्ति:, भाषामनः पर्याप्त्योस्तु बहुश्रुताभिमतेन केनापि कारणेनैकत्वं विवक्षितं, ततश्च तया पर्याप्तका यथा
३
६
५२. भाषा - मन- अपर्याप्ति वाला
भंग
-
३
६
सप्रदेश भी, अप्रदेश भी
सप्रदेश भी, अप्रदेश भी
सप्रदेश भी, अप्रदेश भी
२
सप्रदेश भी अप्रदेश भी
,
भगवई
सझिनस्तथा सप्रदेशादितया वाच्या, सर्वपदेसु भङ्गकत्रयमित्यर्थः, पंचेन्द्रियपदान्येव चेह वाच्यानि ।
२. अभयदेवसूरि ने भाषा-अपर्याप्ति, मन अपर्याप्ति में एकेन्द्रिय को समाविष्ट करते हुए लिखा है — भ. वृ. ६ / ६३ - भाषामनोऽपर्याप्त्याऽपर्याप्तकास्ते येषां जातितो भाषामनोयोग्यत्वे सति तदसिद्धिः, ते च पञ्चेन्द्रिया एव। यदि पुनर्भाषामनसोरभावमात्रेण तदपर्याप्तका अभविष्यंस्तदैकेन्द्रिया अपि तेऽभविष्यंस्ततश्च जीवपदे तृतीय एव भन्नः स्यात् ।
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