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________________ भगवई २६७ श.६ : उ.४ : सू.६४-६८ पच्चक्खाणादि-पदं प्रत्याख्यानादि-पदम् प्रत्याख्यानादि-पद ६४. जीवा णं भंते ! किं पच्चक्खाणी? अ- जीवा: भदन्त ! किं प्रत्याख्यानिन:? अप्र- ६४. भंते ! क्या जीव प्रत्याख्यानी हैं? अप्रत्याख्यानी पच्चखाणी? पच्चक्खाणापच्चक्खाणी? त्याख्यानिनः? प्रत्याख्यानाप्रत्याख्या- हैं? प्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी हैं? निनः? गोयमा ! जीवा पच्चक्खाणी वि, अपच्च- गौतम ! जीवा: प्रत्याख्यानिन: अपि, अप्र- गौतम ! जीव प्रत्याख्यानी भी हैं, अप्रत्याख्यानी भी क्खाणी वि, पच्चक्खाणापच्चक्खाणी वि॥ त्याख्यानिन: अपि, प्रत्याख्यानाप्रत्याख्या- हैं और प्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी भी हैं। निन: अपि। ६५. सव्वजीवाणं एवं पुच्छा। सर्वजीवानाम् एवं पृच्छा। गोयमा ! नेरइया अपच्चक्खाणी जाव चउ- गौतम ! नैरयिका: अप्रत्याख्यानिन: यावच् रिंदिया (सेसा दो पडिसेहेयव्वा)। पंचिंदिय- चतुरिन्द्रिया: (शेषौ द्वौ प्रतिषेद्धव्यौ) पंचेतिरिक्खजोणिया नो पच्चक्खाणी, अपच्च- न्द्रियतिर्यग्योनिका: नो प्रत्याख्यानिन:, क्खाणी वि, पच्चक्खाणापच्चक्खाणी वि। अप्रत्याख्यानिन: अपि, प्रत्याख्यानाप्रत्या- मणूसा तिण्णि वि। सेसा जहा नेरइया। ख्यानिन: अपि। मनुष्या: त्रयोऽपि। शेषा: यथा नैरयिकाः। ६५. इस प्रकार सब जीवों की पृच्छा। गौतम ! नैरयिक जीव अप्रत्याख्यानी हैं यावत् चतुरिन्द्रिय जीव अप्रत्याख्यानी हैं। (इनमें शेष दो प्रत्याख्यानी तथा प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी प्रतिषेधनीय है।) पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक प्रत्याख्यानी नहीं है, अप्रत्याख्यानी भी हैं और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी भी हैं। मनुष्य तीनों ही हैं। शेष सभी जीव नैरयिक जीवों की भांति वक्तव्य हैं। ६६. जीवा णं भंते! किं पच्चक्खाणं जाणंति? जीवा: भदन्त ! किं प्रत्याख्यानं जानन्ति? ६६. भन्ते ! क्या जीव प्रत्याख्यान को जानते हैं? अप्र अपच्चक्खाणं जाणंति? पच्चक्खाणा- अप्रत्याख्यानं जानन्ति ? प्रत्याख्यानाप्रत्या- त्याख्यान को जानते हैं? प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान को पच्चक्खाणं जाणंति? ख्यानं जानन्ति ? जानते हैं? गोयमा! जे पंचिदिया ते तिण्णि वि जाणंति, गौतम! ये पञ्चेन्द्रियाः ते त्रीणि अपि जानन्ति, गौतम ! जो पंचेन्द्रिय जीव हैं, वे तीनों को जानते हैं। अवसेसा पच्चक्खाणं न जाणंति, अप- अवशेषा: प्रत्याख्यानं न जानन्ति, अप्रत्या- अवशेष जीव प्रत्याख्यान को नहीं जानते, अप्रत्याच्चक्खाणं न जाणंति, पच्चक्खाणापच्च- ख्यानं न जानन्ति, प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानं ख्यान को नहीं जानते, प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान को क्खाणं न जाणंति।। न जानन्ति। नहीं जानते। ६७. जीवा णं भंते ! किं पच्चक्खाणं कुव्वंति? जीवा: भदन्त ! किं प्रत्याख्यानं कुर्वन्ति? ६७. भन्ते! क्या जीव प्रत्याख्यान करते हैं? अप्रत्याख्यान अपच्चक्खाणं कुव्वंति? पच्चक्खाणापच्च- अप्रत्याख्यानं कुर्वन्ति ? प्रत्याख्याना- करते हैं? प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान करते हैं? क्खाणं कुव्वंति? प्रत्याख्यानं कुर्वन्ति? जहा ओहिओ तहा कुव्वणा॥ यथा औधिक: तथा करणम्। प्रत्याख्यान करने का औधिक सूत्र (६४, ६५) की भांति वक्तव्य है। ६८. जीवा णं भंते ! किं पच्चक्खाणनिव्व- जीवा: भदन्त ! किं प्रत्याख्याननिर्वर्तिता- ६८. भन्ते! क्या जीव प्रत्याख्यान से बद्ध आयुष्य वाले त्तियाउया? अपच्चक्खानिव्वत्तियाउया? युष्का:? अप्रत्याख्यान-निर्वर्तितायुष्का:? हैं? अप्रत्याख्यान से बद्ध आयुष्य वाले हैं? प्रत्यापच्चक्खाणापच्चक्खाणनिव्वत्तियाउया? प्रत्याख्यानाप्रत्याख्याननिर्वर्तितायुष्का:? ख्यानाप्रत्याख्यान से बद्ध आयुष्य वाले हैं? गोयमा ! जीवा य, वेमाणिया य पच्चक्खा- गौतम ! जीवाश्च वैमानिकाश्च प्रत्याख्या- गौतम ! जीव और वैमानिक देव प्रत्याख्यान से बद्ध णनिव्वत्तियाउया, तिण्णि वि। अवसेसा अप- ननिर्वर्तितायुष्काः, त्रयोऽपि। अवशेषा: अ- आयुष्य वाले हैं, अप्रत्याख्यान से बद्ध आयुष्य वाले च्चखाणनिव्वत्तियाउया। प्रत्याख्याननिर्वर्तितायुष्का:। हैं और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान से बद्ध आयुष्य वाले भी हैं। अवशेष जीव अप्रत्याख्यान से बद्ध आयुष्य वाले हैं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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