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श.६:उ.४: सू.६४-६९
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भगवई
भाष्य
१. सूत्र ६४-६८
करने की क्षमता उत्पन्न नहीं होती, उसका हेतु प्रत्याख्यानावरण मोह का उदय प्रति+आ+ख्या धातु के अनेक अर्थ होते हैं—परित्याग करना,
अप्रत्याख्यानावरण मोह का क्षयोपशम होने पर अंशत: प्रत्याख्यान सावध आचरण से निवृत्त होना, अस्वीकार करना निषेध करना।
और प्रत्याख्यानावरण मोह का क्षयोपशम होने पर सर्वतः प्रत्याख्यान करने प्रस्तुत प्रकरण में प्रत्याख्यान' पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ
की क्षमता उत्पन्न होती है। इसका तात्पर्यार्थ यह है कि मानसिक विकास है—सर्व सावद्य प्रवृत्ति का परित्यागा इस आधार पर प्रत्याख्यानी का अर्थ
और चारित्र मोह कर्म का क्षयोपशम—दोनों का योग होने पर ही होता है-सर्व सावध प्रवृत्ति का प्रत्याख्यान करने वाला, सर्वविरत अथवा
आंशिक अथवा पूर्ण प्रत्याख्यान की चेतना जागृत होती है। महाव्रती।
सबसमनस्क जीव (नैरयिक, देव, तिर्यंच और मनुष्य) प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानी का अर्थ होगा-अविरत, जिसने कोई भी व्रत
को जान सकते हैं। अमनस्क जीवों में उसे जानने की क्षमता नहीं होती। स्वीकार न किया हो।
प्रत्याख्यान करने की क्षमता कुछ जीवों में होती है, कुछ जीवों में प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी का अर्थ होगा—देश विरत-बारह व्रती
नहीं होती-इसकी वक्तव्यता ऊपर की पंक्तियों में की जा चुकी है। श्रावक-जिसने महाव्रत स्वीकार न किया हो। प्रत्याख्यान की योग्यता सब जीवों में समान नहीं होती, उसके
प्रत्याख्यान आयुष्य-बंध का हेतु भी बनता है। उसकी मीमांसा इस अनेक हेतु हैं। नैरयिकों में असात का संवेदन अधिक होता है; इसलिए उनमें
प्रकार है—सामान्य जीव-पद में प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान की चेतना नहीं जागती।
प्रत्याख्यान-इन तीनों आयुष्य-बंध में हेतु बनते हैं। वैमानिक देव का देवों में सात का संवेदन अधिक होता है, अत: उनमें प्रत्याख्यान
आयुष्य-बंध भी इन तीनों के होता है। शेष तेईस दंडकों (वैमानिक को छोड़ के प्रति आकर्षण उत्पन्न नहीं होता।
कर) के आयुष्य का बंध अप्रत्याख्यानी जीव ही करते हैं। साधु प्रत्याख्यानी निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है—अत्यन्त दु:खी और
और श्रावक प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी होते हैं, इसलिए उनके वैमानिक के अत्यन्त सुखी दोनों ही व्रतस्वीकार करने में सक्षम नहीं होते। व्रत की आराधना
अतिरिक्त किसी अन्य आयुष्य का बंध नहीं होता। जयाचार्य ने इसका
स्पषट उल्लेख किया हैवही व्यक्तिकर सकता है जो अति दुःखी और अति सुखी न हो। एकेन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव अमनस्क होते हैं।
पूर्व कह्या पचखाण, ते आयू बंधण तणां ।
हेतू पिण 8 जाण, आयु-सूत्र कहियै हिवै॥ मानसिक विकास के बिना व्रत स्वीकार कने का संकल्प जागृत नहीं होता।
जीव प्रभु ! पचखाण करै स्यूं आयु बांधै निपजावै? समनस्क पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों में मानसिक चेतना का सीमित विकास होता है; इसलिए उनमें आंशिक प्रत्याख्यान स्वीकार करने की क्षमता उत्पन्न हो
अपचखाण करि आयु बांधै, पचखाणापचखाण स्यूं थावै?
जिन कहै जीवा पचखाण करिकै, अपचखाण करि सोय। जाती है। मनुष्य में मानसिक विकास पर्याप्त मात्रा में होता हैइसलिए
बलि पचखाणापचखाण करिकै, आयु-बंध अवलोय ॥
वैमानिक देवता नो आउखो, पचखाणी पिण बांधै। उसमें आंशिक प्रत्याख्यान तथा पूर्ण प्रत्याख्यान करने का संकल्प हो सकता
अपचखाणवंत पिण बांधै, बलि पचखाणापचखाणी सांधै ।। कर्मशास्त्रीय दृष्टि से अप्रत्याख्यान जीव की एक सामान्य अवस्था
शेष तेवीस दंडक नो आउखो, अपचखाणी बांधै। है। इसका हेतु अप्रत्याख्यान मोह का उदय है। जिन जीवों में पूर्ण प्रत्याख्यान
पचखाणी नै पचखाणापचखाणी नरकादिक आयु न सांधै॥ संगहणी गाहा
संग्रहणी गाथा
संग्रहणी गाथा १. पच्चक्खाणं २. जाणइ,
१. प्रत्याख्यानं २. जानाति,
१. प्रत्याख्यानी २. प्रत्याख्यान को जानना। ३. प्रत्या३. कुव्वइ ४. तिण्णेव आउनिव्वत्ती। ३. करोति ४.त्रीण्येव आयुर्निर्वृत्तिा ख्यान करना और ४. तीनों से आयुष्य का निबन्ध सपएसुद्देसम्मि य, सप्रदेशोद्देशे च,
-इस प्रकार सप्रदेश के उद्देशक में ये चार दण्डक एमेए दंडगा चउरो ॥१॥ एवमेते दण्डकाश्चत्वारः||१॥
और प्रतिपादित हैं।
६९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति।।
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।
६९. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है।
१. आप्टे-प्रत्यारूया-Todeny २. वही, प्रत्याख्या -To decline, refuse, reject ३. भ.वृ. ६/६४-पच्चक्खाणि' त्ति सर्वविरता: 'अपच्चक्खाणि' त्ति अविरताः, 'पच्च
क्खाणापच्चक्खाणि' त्ति देशविरता इतिः। ४. भ. जो. २/१०२/१८-२२॥
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