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पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक
मल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
तमुक्काय-पदं
तमस्काय-पदम् ७०. किमियं भंते! तमुक्काए त्ति पन्वुच्चति? किमयं भदन्त ! तमस्काय: इति प्रोच्यते? किं किं पुढवी तमुक्काए त्ति पब्बुच्चति? आऊ । पृथिवी तमस्काय: इति प्रोच्यते? किम् आप: तमुक्काए ति पव्वुच्चति?
तमस्काय: इति प्रोच्यते? गोयमा ! नो पुढवि तमुक्काए त्ति पव्वु- गौतम! नो पृथिवी तमस्काय: इति प्रोच्यते, च्चति, आऊ तमुक्काए त्ति पव्वुच्चति।। आप: तमस्काय: इति प्रोच्यते?
तमस्काय-पद ७०.भन्ते! तमस्काय किसे कहा जाता है? क्या पृथ्वी
को तमस्काय कहा जाता है? क्या जल को तमस्काय कहा जाता है? गौतम ! पृथ्वी को तमस्काय नहीं कहा जाता, जल को तमस्काय कहा जाता है।
७१. से केणटेणं? गोयमा ! पुढविकाए णं अत्थेगइए सुभे देसं पकासेइ, अत्थेगइए देसं नो पकासेड़ा से तेणद्वेण ॥
तत् केनार्थेन? गौतम ! पृथिवीकायः अस्त्येकक: शुभः देशं प्रकाशयति, अस्त्येकक: देशं नो प्रकाशयति। तत्तेनार्थेन।
७१. यह किस अपेक्षा से? गौतम ! कुछेक शुभ (भास्वर) पृथ्वीकाय विवक्षित क्षेत्र के देश को प्रकाशित करता है और कुछेक पृथ्वीकाय विवक्षित क्षेत्र के देश को प्रकाशित नहीं करता। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा हैपृथ्वीकाय तमस्काय नहीं है।
७२. तमुक्काए णं भंते ! कहिं समुट्ठिए? कहि तमस्काय: भदन्त! कुत: समुत्थितः? कुत्र संनिट्ठिए?
संनिष्ठित:? गोयमा! जंबूदीवस्स दीवस्स बहिया तिरिय- गौतम! जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य बहिः तिर्यग- मसंखेज्जे दीव-समुद्दे वीईवइत्ता, अरुण- संख्येयान् द्वीप-समुद्रान् व्यतिव्रज्य, अवरस्स दीवस्स बाहिरिल्लाओ वेइयंताओ रुणवरस्य द्वीपस्य बाह्याद् वेदिकान्ताद् अरुणोदयं समुई बायालीसं जोयणसह- अरुणोदयं समुद्र द्विचत्वारिंशद् योजन- स्साणि ओगाहित्ता उवरिल्लाओ जलंताओ सहस्राणि अवगाह्य उपरितनाद् जलान्ताद् एगपएसियाए सेढीए-एत्थ णं तमुक्काए एकप्रदेशिक्या: श्रेण्या:-अत्र तमस्काय: समुट्ठिए। सत्तरस-एक्कवीसे जोयणसए उड्ढे समुत्थितः। सप्तदशैकविंशतियोजनशतानि उप्पइत्ता तओ पच्छा तिरिय पवित्थरमाणे- ऊर्ध्वम् उत्पत्य, तत: पश्चात् तिर्यक् प्र- पवित्थरमाणे सोहम्मीसाण-सणकुमारमाहिंदे विस्तरन्-प्रविस्तरन् सौधर्मेशान-सनत्चत्तारि वि कप्पे आवरित्ता णं उड्ढे पि य णं ___ कुमार-माहेन्द्रान् चतुरोऽपि कल्पान् आवृत्य जाव बंभलोगे कप्पे रिट्ठविमाणपत्थडं संपत्ते ऊर्ध्वमपि च यावद् ब्रह्मलोके कल्पे रिष्ट—एत्थ ण तमुक्काए संनिट्ठिए॥ विमानप्रस्तरं संप्राप्त:-अत्र तमस्काय:
संनिष्ठितः।
७२. भन्ते ! तमस्काय कहां से उठता है? और कहां समाप्त होता है? गौतम ! जम्बुद्वीप से बाहर तिरछी दिशा में असंख्य द्वीप-समुद्रों को पार करने पर अरुणवर द्वीप के बहिर्वर्ती वेदिका के छोर से आगे जो अरुणोदय समुद्र है, उसमें बयालीस हजार योजन अवगाहन करने पर जल के ऊपर के सिरे से एक प्रदेश वाली (सममिति आकार वाली) श्रेणी निकली है। यहां से तमस्काय उठता है। वह सतरह सौ इक्कीस योजन ऊपर जाता है। उसके पश्चात् तिरछा फैलता हुआ सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार और माहेन्द्र-इन चारों कल्पों (स्वर्गलोकों) को घेर कर ऊपर ब्रह्मलोक कल्प के रिष्ट विमान के प्रस्तर तक पहुंच जाता है। यहां तमस्काय समाप्त होता है।
७३. तमुक्काए ण भंते! किंसंठिए पण्णत्ते? गोयमा ! अहे मल्लग-मूलसंठिए, उप्पिं
तमस्काय: भदन्त ! किंसंस्थित: प्रज्ञप्तः? ७३. भन्ते ! तमस्काय का संस्थान कैसा है? गौतम! अध: 'मल्लग'मूलसस्थितः, उपरि गौतम! नीचे से शराव के तल का संस्थान है और
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