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श.३ : उ. : सू.२४-२६
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भगवई
वायुभूई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ जाव विहरइ॥
गौतमः वायुभूतिः अनगारः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति यावद् विहरति।
प्रकार तृतीय गौतम वायुभूति अनगार श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं यावत् संयम
और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं।
२५. तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ
मोयाओ नयरीओ नंदणाओ चेइयाओ पडि- निक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ॥
ततः श्रमणः भगवान् महावीरः अन्यदा २५. श्रमण भगवान महावीर ने किसी समय मोका नगरी कदाचित् मोकायाः नगर्याः नन्दनाद् चैत्यात् और नन्दन चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य बहिः जनपद- कर वे बाह्य जनपदों में विहार करने लगे। विहारं विहरति।
तामलिस्स ईसाणिंद-पदं २६. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं
नगरे होत्था–वण्णओ जाव परिसा पज्जु- वासइ॥
तामलेः ईशानेन्द्र-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरम् आसीत्-वर्णकः यावत् परिषद् पर्युपास्ते।
तामलि का ईशानेन्द्र-पद २६. उस काल और उस समय राजगृह नाम का नगर
था-नगर का वर्णन (द्रष्टव्य-भ.१/४ का भाष्य) यावत् परिषद भगवान् की पर्युपासना करती है।
२७. तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविंदे तस्मिन् काले तस्मिन् समये ईशानः देवेन्द्रः २७. उस काल और उस समय ईशान कल्प के ईशानादेवराया ईसाणे कप्पे ईसाणव.सए विमाणे देवराजः ईशाने कल्पे ईशानावतंसके विमाने वतंसक विमान में देवेन्द्र देवराज ईशान भगवान् जहेव रायप्पसेणइज्जे जाव दिव् देविििद यथैव राजप्रश्नीये यावत् दिव्यां देवर्द्धि दिव्यां महावीर की वन्दना के लिए आया (पूरा प्रकरण दिव्वं देवजुतिं दिव्वं देवाणुभागं दिव्वं बत्तीस- देवद्युतिं दिव्यं देवानुभागं दिव्यं द्वात्रिंशत्बद्धं रायपसेणइयं के सूर्याभ देव की तरह ज्ञातव्य है।) इबद्धं नट्टविहिं उवदंसित्ता जाव जामेव दिसिं नाट्यविधिं उपदर्श्य यावत् यस्याः एव दिशः वह गौतम आदि मुनिगण को दिव्य देव-ऋद्धि, दिव्य पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए ॥ प्रादुर्भूतः तस्यामेव दिशि प्रतिगतः। देवधुति, दिव्य देवसामर्थ्य और बत्तीस प्रकार की दिव्य
नाट्य-विधि दिखाकर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में पुनः चला गया।
२८. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं भदन्त! अयि! भगवान गौतमः श्रमणं भगवन्तं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा
-अहो णं भंते ! ईसाणे देविंदे देवराया एवमवादीद्-अहो भदन्त ! ईशानः देवेन्द्रः महिढीए जाव महाणुभागे। ईसाणस्स णं देवराजः महर्द्धिकः यावत् महानुभागः। ईशानभंते ! सा दिव्वा देविड्ढी दिव्या देवज्जुती स्य भदन्त ! सा दिव्या देवर्द्धिः दिव्या देवद्युतिः दिव्वे देवाणुभागे कहिं गते? कहिं अणुपविढे? दिव्यः देवानुभागः कुत्र गतः? कुत्र अनु
प्रविष्टः? गोयमा ! सरीरं गते, सरीरं अणुपवितु ॥ गौतम ! शरीरे गतः, शरीरे अनुप्रविष्टः।
२८. भन्ते ! इस संबोधन से संबोधित कर भगवान् गौतम
श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन नमस्कार करते हैं। वन्दन-नमस्कार कर वे इस प्रकार बोले-आश्चर्य है भन्ते! देवेन्द्र देवराज ईशान महान ऋद्धि वाला है यावत् महान् सामर्थ्य वाला है। भन्ते! ईशान की वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवानुभाग कहां गया? कहां प्रविष्ट हो गया? गौतम ! वह शरीर में गया, शरीर में प्रविष्ट हो गया।
२६. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सरीरं तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-शरीरे २६. भन्ते! यह किसी अपेक्षा से कहा जा रहा है-वह गते, सरीरं अणुपविढे? गतः, शरीरे अनुप्रविष्टः?
शरीर में गया, शरीर में प्रविष्ट हो गया? गोयमा ! से जहानामए कूडागारसाला सिया गौतम ! अथ यथानाम कूटाकारशाला स्यात् गौतम ! जैसे कोई कूटागार (शिखर के आकार दुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा णिवाया णि- द्विधा लिप्ता गुप्ता गुप्तद्वारा निवाता निवात- वाली) शाला' है। वह भीतर और बाहर दोनों ओर से वायगंभीरा। तीसे णं कूडागारसालाए अ- गंभीरा। तस्याः कूटाकारशालायाः अदूर- लिपी हुई, गुप्त, गुप्तद्वार वाली, पवन-रहित और दूरसामंते, एत्थ णं महेगे जणसमूहे एगं महं सामन्ते, अत्र महान् एकः जनसमूहः एक निवात गंभीर है। उस कूटागार शाला के पास एक अब्भवद्दलगं वा वासवद्दलगं वा महावायं वा महद् अभ्रवाईलकं वा वर्षावादलकं वा महावातं महान् जनसमूह है। वह आते हुए एक विशाल अभ्रएज्जमाणं पासति, पासित्ता तं कूडागारसालं वा आयन्तं पश्यति, दृष्ट्वा तां कूटाकारशालां बादल, वर्षा-बादल, महावात को देखता है। देख कर अंतो अणुपविसित्ता णं चिट्ठइ। से तेणटेणं अन्तः अनुप्रविश्य तिष्ठति। तत् तेनाऽर्थेन उस कूटागार शाला के भीतर प्रविष्ट हो कर ठहर गोयमा ! एवं वुच्चति-सरीरं गते, सरीरं गौतम! एवमुच्यते-शरीरे गतः शरीरे अनु- जाता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा अणुपवितु ॥ प्रविष्टः ।
है-वह शरीर में गया, शरीर में प्रविष्ट हो गया।
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