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________________ भगवई १. कूटागार शाला पण्डावागरणाई तथा दसाओ में 'कूटागार' शब्द का प्रयोग मिलता है।' प्रश्नव्याकरण की वृत्ति में कूटागार का अर्थ 'शिखरयुक्त भवन' किया गया है।२ निशीथ चूर्णि में कूटागार का अर्थ 'पर्वत के आकार वाला मकान जो ऊपर की भूमिका में होता है' किया गया है। भगवई और रायपसेणइयं में ''कूटागार शाला' शब्द मिलता है मलयगिरि और अभयदेव सूरि दोनों ने इसका अर्थ 'कूट के आकार वाली' किया है। मलयगिरी ने एक अर्थ और किया है: 'जिस भवन के ऊपर का आच्छादन शिखर के आकार का हो,' उसका नाम है कूटागारशाला । * चरक सूत्रस्थान ( १४ / २७) की व्याख्या में कूटागार का अर्थ ३०. ईसाने नं भंते! देविंदेनं देवरण्णा सा दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवज्जुती दिव्वे देवा - णुभागे किष्णा तद्धे ? किण्णा पत्ते ? किण्णा अभिसमण्णागए? के वा एस आसि पुव्वभते ? किंनामए वा? किंगोत्ते वा ? कयरंसि वा गामंसि वा नगरंसि वा जाव सण्णिवेसंसि वा? किंवा दच्या? किं वा मोच्या? किंवा किच्चा? किं वा समायरित्ता ? कस्स वा तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा निसम्म ? जं णं ईसाणेणं देविंदेणं देवरण्णा सा दिव्वा देविड्ढी दिव्या देवजुती दिव्वे देवाणुभागे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए? ३१. एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेगं समएणं इव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे तामलित्ती नामं नयरी होत्था - वण्णओ ॥ १. (क) पहा. ४/७ । भाष्य १. सूत्र ३० देवराज ईशान को ऐसी दिव्य ऋद्धि कैसे मिली - इस विषयमें पांच प्रश्न पूछे गये हैं- १. क्या दिया? २. क्या खाया ? ३. क्या किया? ४. क्या आचरण किया? ५. क्या सुना? इन प्रश्नों का उत्तर वृत्तिकार ने दिया हैअशन आदि दिया, रुखा सुखा आहार खाया, शुभ ध्यान आदि किया और Jain Education International १६ ईशानेन भदन्त ! देवेन्द्रेण देवराजेन सा दिव्या देवर्द्धिः दिव्या देवद्युतिः दिव्यः देवानुभागः कथं लब्धः ? कथं प्राप्तः कथं अभिसमन्यागतः ? को वा एष आसीत् पूर्वभवे ? किंनामकः वा? किंगोत्रः वा? कतरस्मिन् वा ग्रामे वा नगरे वा यावत् सन्निवेशे वा? किं वा दत्वा ? किं वा क्या? किं वा कृत्वा? किं वा समाचर्य? कस्य वा तथारूपस्य श्रमणस्य वा माहनस्य वा अन्तिके एकमपि आर्यं धार्मिकं सुवचनं श्रुत्वा निशम्य ? यत् ईशानेन देवेन्द्रेण देवराजेन सा दिव्या देवर्द्धिः दिव्या देवद्युतिः दिव्यः देवानुभागः लब्धः प्राप्तः अभिसमन्वागतः ? 'वर्तुलाकार गोल कमरा किया गया है। भगवई में कूटागार शाला का जो वर्णन है उससे इसका अर्थ यह फलित होता है- एक वह शाला जिसका ऊपर का भाग पर्वत के शिखर जैसा है; वह 'दुहओलित्ता' है - भीतर और बाहर दोनों ओर गोबर आदि से लिपी हुई है; वह गुप्त है—उसके बाहर परकोटा बना हुआ है। उसके द्वार गुप्त है, वह निवात है उसमें वायु के प्रवेश का अवकाश नहीं है। वह निवातगम्भीर है वह निवात और ऊंटी या विशाल है। तात्पर्य की भाषा में इसे छद्म गृह कहा जा सकता है जिसके ऊपर का भाग केवल शिखर जैसा प्रतीत होता है और भीतर गहरे में एक बड़ी शाला होती है। (आधुनिक 'बंकर' जैसा?) भाष्य (ख) दसाओ, १०/२४ | २. प्रश्न. वृ. प. ८२ - कूटागारनिभं सशिखरभवनतुल्यम् । ३. निशीथ सूत्रम्, भाग २, पृ. ४३३ - अधो विसालं उवरुवरिं संवह्नितं कूडागारं । ४. (क) रा.वृ. पृ. १५० / १५१ – कूटस्येव – पर्वतशिखरस्येव आकारो यस्याः सा कूटाकारायस्या उपरि आच्छादनं शिखराकारं सा कूटाकारा इति भावः कूटाकारा चासौ शाला च कूटाकारशाला । एवं खलु गीतम । तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे ताम्रलिप्तिः नाम नगरी आसीद्-वर्णकः । श.३ उ. १ सू.२६-३१ सामाचारी का आचरण किया।' इससे पुण्य का उपार्जन कर मनुष्य देव बनता है। तामलि ने तप तपा और वह ईशानेन्द्र बना यह किंकिच्या का निदर्शन है। सुबाहुकुमार की ऋद्धि किंदच्या का निदर्शन है। उसने सुमुख के भव में मुनि को विशुद्ध आहार दिया था। उस दान के कारण उसने मनुष्य-आयु का निबन्ध किया। ३०. ' भन्ते ! देवेन्द्र देवराज ईशान ने वह दिव्या देवर्द्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवानुभाग किस हेतु से उपलब्ध किया? किस हेतु से प्राप्त किया? और किस हेतु से अभिसमन्वागत (विपाकाभिमुख) किया यह पूर्वभव में कौन था? इसका क्या नाम था ? क्या गोत्र था? किस ग्राम, नगर यावत् सन्निवेश में रहता था ? इसने क्या दान दिया? क्या आहार किया? क्या तप किया? क्या आचरण किया तथा किस तथारूप श्रमण या माहन के पास एक भी आर्य धार्मिक सुवचन सुना या अवधारण किया? जिससे देवेन्द्र देवराज ईशान ने यह दिव्या देवद्धिं दिव्य देवयुति और दिव्य देवानुभाग उपलब्ध किया है, प्राप्त किया है और अभिसमन्दागत किया है? For Private & Personal Use Only ३१. गौतम ! उस देश काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप द्वीप के भारतवर्ष में ताम्रलिप्ति नामक नगरी थीनगरी का वर्णन | ५. रा. बृ. पृ. १५१ – बहिर् अन्तश्च गोमयादिना लिप्ता गुप्ता वहिः प्राकारावृता गुप्तद्वारा द्वारस्थगनात् यदि वा गुप्तद्वारा केषांचिद् द्वाराणां स्थगितत्वात् केषांचिद् वा अस्थगितत्वाद् इति । निवाता वायोरप्रवेशात् किल महद् गृहं निवातं प्रायो न भवति, तत आह निवातगंभीरा-निवाता सती विशाला इत्यर्थः । ६. भ. वृ. ३/३० - इह दत्त्वाऽशनादि भुक्त्वाऽन्तप्रान्तादि कृत्वा तपः शुभध्यानादि समाचर्य च प्रत्युपेक्षाप्रमार्जनादि, 'कस्स वे' त्यादि वाक्यस्य चान्ते पुण्यमुपार्जितामिति वाक्यशेषो दृश्यः । ७. विवागसुयं २/१/१५-२३। www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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