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________________ श.३ : उ.१ : सू.५-६ भगवई व्विस्संति वा॥ करिष्यन्ति वा। न करेंगे। ६. जइणं भंते! चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो यदि भदन्त! चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुर- ६. भन्ते ! यदि असुरेन्द्र असुरराज चमर के सामानिक सामाणियदेवा एमहिड्ढीया जाव एवतियं च राजस्य सामानिकदेवाः इयन्महर्द्धिकाः यावद् देव इतनी महान् ऋद्धि वाले यावत् इतनी विक्रिया करने णं पभू विकचित्तए, चमरस्स णं भंते! एतावच् च प्रभुः विकर्तुं, चमरस्य भदन्त! में समर्थ हैं, तो भन्ते ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के असुरिंदस्स असुररण्णो तावत्तीसया देवा असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य तावत्त्रिंशकाः देवाः तावत्रिंशक देव कितनी महान ऋद्धि वाले हैं? केमहिड्ढीया? कियन्महर्द्धिकाः? जैसे सामानिक देवों की प्रज्ञापना है, वैसा ही तावत्तावत्तीसया जहा सामाणिया तहा नेयवा। तावत्त्रिंशकाः यथा सामानिकाः तथा नेतव्याः। त्रिंशक देवों के विषय में ज्ञातव्य है। लोकपाल का लोयपाला तहेव, नवरं-संखेज्जा दीव-समुद्दा लोकपालाः तथैव, नवरं-संख्येयाः द्वीप- प्रज्ञापन भी वैसा ही है,केवल इतना अन्तर है यहां भाणियव्वा ॥ समुद्राः भणितव्याः । द्वीप-समुद्र संख्येय कहने चाहिए। ७. जइ णं भंते! चमरस्स असुरिंदस्स असुर- यदि भदन्त ! चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुर- ७. भन्ते! यदि असुरेन्द्र असुरराज चमर के लोकपाल रण्णो लोगपाला देवा एमहिड्ढीया जाव राजस्य लोकपालाः देवाः इयन्महर्द्धिकाः यावद् इतनी महान् ऋद्धि वाले हैं यावत् इतनी विक्रिया करने एवतियं च णं पभू विकुवित्तए, चमरस्स णं एतावच्च प्रभुः विकतुं, चमरस्य असुरेन्द्रस्य में समर्थ हैं, तो असुरेन्द्र असुरराज चमर की असुरिंदस्स असुररण्णो अग्गमहिसीओ असुरराजस्य अग्रमहिष्यः देव्यः कियन्- पटरानियां कितनी महान् ऋद्धि वाली यावत् कितनी देवीओ केमहिड्ढियाओ जाव केवइयं च णं महर्द्धिकाः यावत् कियच्च प्रभुः विकर्तुम्? विक्रिया करने में समर्थ हैं? पभू विकुवित्तए? गोयमा ! चमरस्सणं असुरिंदस्स असुररण्णो गौतम ! चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की पटरानियां महान् अग्गमहिसीओ देवीओ महिढियाओ जाव अग्रमहिष्यः देव्यः महर्द्धिकाः यावन् महानु- ऋद्धि वाली यावत् महान् सामर्थ्य वाली हैं। वे महाणुभागाओ । ताओ णं तत्थ साणं-साणं भागाः । ताः तत्र स्वेषां-स्वेषां भवनानां अपने-अपने भवनों, अपनी-अपनी एक-एक हजार भवणाणं, साणं साणं सामाणिय-साहस्सीणं, सामानिक देवियों, अपनी-अपनी महत्तरिकाओं (प्रधान साणं-साणं महत्तरियाणं, साणं-साणं परिसाणं स्वासां महत्तरिकाणां, स्वासां-स्वासां परिषदां देवियों) और अपनी-अपनी परिषदों का आधिपत्य जाव एमहिड्ढीयाओ। अण्णं जहा लोग- यावद् इयन्महर्द्धिकाः । अन्यद् यथा लोक- करती हुई यावत् इतनी महान् ऋद्धि वाली हैं। उनका पालाणं अपरिसेसं ॥ पालानां अपरिशेषम्। शेष सारा प्रज्ञापन लोकपालों की तरह वक्तव्य है। ८. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं दोच्चे तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त। इति भगवान् गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, द्वितीयः गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव तच्चे गोयमे वायु- नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा यत्रैव तृतीयः भूती अणगारे तेणेव उवागच्छइ,उवागच्छित्ता गौतमः वायुभूतिः अनगारः तत्रैव उपागच्छति, तच्चं गोयमं वायुभूतिं अणगारं एवं वदासि- उपागम्य तृतीयं गौतमं वायुभूतिम् अनगारम् एवं खलु गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया एवमवादीद्-एवं खलु गौतम! चमरः एमहिड्ढीए तं चेव एवं सव् अपुट्ठवागरणं असुरेन्द्रः असुरराजः इयन्महर्द्धिकः तच्चैव नेयव्वं अपरिसेसियं जाव अग्गमहिसीणं एवं सर्वम् अपृष्टव्याकरणं नेतव्यं अपरिशेषितं वत्तव्वया समत्ता॥ यावद् अग्रमहिषीणां व्यक्तव्यता समाप्ता। ८. “भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है," इस प्रकार भगवान् द्वितीय गौतम अग्निभूति श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं। वंदन-नमस्कार कर जहां तीसरे गौतम वायुभूति अनगार हैं, वहां आते हैं। वहां आकर तीसरे गौतम वायुभूति अनगार से इस प्रकार कहते हैं--गौतम! इस प्रकार असुरेन्द्र असुरराज चमर इतनी महान ऋद्धि वाला है-यहां से लेकर पटरानियों की वक्तव्यता समाप्त होती है, वहां तक का समग्र विषय अग्निभूति ने बिना पूछे ही वायुभूति को बतला दिया। ६.तेणं से तच्चे गोयमे वायुभूती अणगारे तेन स तृतीयः गौतमः वायुभूतिः अनगारः ६.तीसरे गौतम वायुभूति अनगार दूसरे गौतम अग्निभूति दोच्चस्स अग्गिभूतिस्स अणगारस्स एवमा- द्वितीयस्य गौतमस्य अग्निभूतेः अनगारस्य अनगार के ऐसे आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण इक्खमाणस्स भासमाणस्स पण्णवेमाणस्स एवमाचक्षतः भाषमाणस्य प्रज्ञापयतः प्ररूपयतः पर न श्रद्धा करते हैं, न प्रतीति करते हैं और न रुचि परूवेमाणस्स एयमढें नो सद्दहइ नो पत्तियइ एतदर्थ नो श्रद्धते नो प्रत्येति नो रोचयति, करते हैं। वह इस तथ्य पर अश्रद्धा, अप्रतीति और नो रोएइ, एयमढे असद्दहमाणे अपित्तयमाणे एतदर्थ अश्रद्दधानः अप्रत्ययन् अरोचयन् अरुचि करते हुए उठने की मुद्रा में उठते हैं, उठ कर अरोएमाणे उठाए उट्टेइ, उद्वेत्ता जेणेव समणे उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय यत्रैव श्रमणः जहां श्रमण भगवान महावीर हैं, वहा आते हैं, यावत् भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ जाव पज्जु- भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति यावत् पर्युपासना करते हुए वे इस प्रकार बोले-भन्ते! दूसरे वासमाणे एवं वयासी-एवं खलु भंते! दोच्चे पर्युपासीनः एवमवादीद्-एवं खलु भदन्त ! गौतम अग्निभूति अनगार मेरे सामने इस प्रकार Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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