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आमुख
भागवती का प्रत्येक शतक प्रकीर्ण ज्ञान का पुज है इसकी रचना प्रश्नोत्तर-प्रधान है। यह किसी एक विषय पर लिखा हुआ ग्रंथ नहीं है। प्रस्तुत शतक में तत्त्व-विद्या, लोक-विद्या, आचार- शास्त्र, कर्म-शास्त्र, अनेकांत आदि अनेक विद्या-शाखाओं के विषय में जिज्ञासा और समाधान उपलब्ध हैं।
जिज्ञासा और समाधान के कुछ महत्त्वपूर्ण उल्लेख इस प्रकार हैं:
गति का माध्यम है शरीर। मुक्त जीव अशरीर होकर मोक्ष जाता है। अशरीर की गति कैसे होती है ? और उसका हेतु क्या है? यह दार्शनिक जग बहुत बड़ी समस्या है। इसका समाधान प्रस्तुत शतक और तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में उपलब्ध है। प्रस्तुत शतक में मुक्त जीव की गति के छह हेतु बतलाए गए हैं और उनकी स्पष्टता के लिए कुछ दृष्टान्तों का निर्देश किया गया है । तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में अशरीर की गति के चार हेतुओं का उल्लेख है और स्पष्टता के लिए चार दृष्टांत भी निर्दिष्ट हैं।' जैन दर्शन आत्मा को देह-परिमाण मानता है, इसलिए मुक्त जीव की गति की समस्या पर विचार करना उसके लिए अनिवार्य है। न्याय-वैशेषिक आत्मा को सर्वव्यापी मानते हैं इसलिए मुक्त जीव की गति पर विचार करना उसके लिए अनिवार्य है।"
दार्शनिक जगत में नित्य और अनित्य की प्रतिपतियां भिन्न-भिन्न है।
सांख्य दर्शन के अनुसार जीव कूटस्थ नित्य है बौद्ध दर्शन के अनुसार जीव अनित्य है भगवान् महावीर ने जीव का निरूपण अनेकांत दृष्टि से किया है। इन दोनों की स्वीकृति दो नयों के आधार पर की। द्रव्य अथवा अस्तित्व की दृष्टि से जीव शाश्वत है और परिणमन की दृष्टि से वह अशाश्वत है। इस प्रकार दो नय-दृष्टियों से नित्यवाद और अनित्यवाद का समन्वय कर दार्शनिक जगत् में समन्वय की परंपरा स्थापित की गई है।
वेदान्त का सिद्धान्त है— सारा जगत् ब्रह्म का प्रपञ्च है। प्रत्यग् आत्मा विश्वक आत्मा का विस्तार है। जैन दर्शन ईश्वरवादी, ब्रह्मवादी अथवा एकात्मवादी नहीं है, इसलिए वह सब आत्माओं को किसी एक आत्मा का प्रपंच नहीं मानता, किंतु समन्वय का बिन्दु यह है - मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सब पर्याय हैं, विवर्त हैं, अस्तित्व नहीं हैं। ये सब प्रवाह की दृष्टि से शाश्वत हैं, व्यक्ति की दृष्टि से शाश्वत नहीं है। '
प्रस्तुत शतक में अवसर्पिणी के दुःषम दुःषमा काल के विषय में जो भविष्यवाणी है, वह पर्यावरणीय प्रदूषण से उत्पन्न समस्या की ओर ध्यान आकृष्ट
करती है।
कुंदु बहुत छोटा जंतु हे और हाथी बहुत विशालकाय दोनों में जीव है सहज प्रश्न होता है कुंधु का जीव हाथी के समान है अथवा छोटा है। यह आकार की भिन्नता जीव के परिमाण की भिन्नता का प्रश्न उपस्थित करती है। जैन दर्शन का एक सिद्धांत है- प्रत्येक जीव के असंख्य प्रदेश होते हैं। दूसरा सिद्धांत-संसारी जीव देह-परिमाण है। तीसरा सिद्धांत-जीव के प्रदेशों का संकोच और विस्तार होता है।
कुछ दार्शनिक आत्मा को व्यापक (विभु) मानते हैं। कुछ दार्शनिक अणु अथवा अंगुष्ठप्रमाण वाला मानते हैं। आत्मा का देह-परिमाण होना दार्शनिक चर्चा का विषय रहा है। माध्वाचार्य ने जीव के देह-परिमागत्य की मीमांसा की है। मीमांसा के मुख्य तर्क दो हैं
१. योगी एक साथ अनेक शरीर धारण करते हैं। इस अवस्था में देह - परिमाणत्व का सिद्धांत संगत नहीं है।
२. मनुष्य के शरीर का परिमाण रखने वाला जीव पुनर्जन्म में हाथी के शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता। हाथी के बड़े शरीर को छोड़ कर चींटी के शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता। यदि माध्वाचार्य के सामने वैक्रिय शरीर और समुद्घात" का सिद्धांत होता तो जीव के देह परिमाणत्व का खंडन प्रस्तुत तकों के आधार पर नहीं किया जाता। जीव के प्रदेशों में संकोच और विस्तार की शक्ति है, इसीलिए वह छोटे अथवा बड़े शरीर को अपने आत्म-प्रदेशों से सचित्त बना देता है । "
वैशाली गणतंत्र के प्रमुख महाराज चेटक और कोणिक का युद्ध इतिहास का अछूता पहलू है। इस युद्ध के वर्णन का निष्कर्ष युद्ध को प्रोत्साहन देने वाली अवधारणा के विरोध में है। युद्ध में मरने वाला स्वर्ग में जाता है। इस अवधारणा के स्थान पर प्रस्तुत प्रकरण का वक्तव्य है- 'युद्ध स्वर्ग का हेतु नहीं है। १२ ईश्वरवादी चिन्तन की एक धारणा है मनुष्य के अच्छे या बुरे कर्म का फल ईश्वर देता है। जैन दर्शन ईश्वरवादी नहीं है। उसके सामने समस्या थी— यदि ईश्वर नहीं है तो कर्म का फल कैसे होगा? कोई भी मनुष्य बुरे कर्म का फल स्वयं भुगतना नहीं चाहता। इस प्रश्न का उत्तर है-स्वभाव। आंतरिक क्रिया स्वतः
१. (क) त. सू. भा. वृ. १०/६ - पूर्वप्रयोगात् असंगत्वात् बंधच्छेदात् तथागतिपरिणामाच्च। (ख) त. रा. वा. - १०/ ६, ७ पूर्वप्रयोगात् असंगत्वात् बंधच्छेदात् तथागतिपरिणामाच्च। आविद्धकुलालचक्रवद् व्यपगतले पालाबूवदेरण्डवीजवदग्निशिखावच्च ।
२. द्रष्टव्य भ. ७/१० का भाष्य ।
३. भ. ७/५८-६०।
४. वही, ७/६३-६५।
५. वही, ७/११७-११।
६. ठाणं, ४/४६५ ।
1७ जैन दर्शन मनन और मीमांसा, पृ. २४।
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८. छान्दोग्य उपनिषद्, ५/१८/१
६. सर्वदर्शनसंग्रह, १५८, १५६ तथा जीवस्य देहानुरूप परिमाणस्यांगीकारे योगबलादनेकदेहपरिग्राहकयोगिशरीरेषु प्रतिशरीरं जीवविच्छेदः प्रसज्येत। मनुजशरीरपरिमाणो जीवो मतङ्गजदेहं कृत्सनं प्रवेष्टुं न प्रभवेत्। किं च गजादिशरीरं परित्यज्य पिपीलिका- शरीरं विशतः प्राचीनशरीरसन्निवेशविनाशोपि प्राप्नुयात् ।
१०. भ. २/७४ का भाष्य ।
११. वही, ७ १५८ - १५६ ।
१२ वही ७ / १८१ ।
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