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________________ भगवई ३५३ श.७: उ.३:सू.६६-६८ के 'आलू' का वर्णन उपलब्ध है और वे सब डायोस्कोरिया-Dioscoria- वर्ग के अर्थात् रेतालवर्ग के कन्दशाक है। निघण्टुकारों ने अनेक प्रकार के आलूओं का उल्लेख किया है। “आलू जमीन के अन्दर होते हैं, तो भी वस्तुतः इसको कन्द कहना ठीक नहीं है। मूंगफली जमीन के अन्दर होती है, तो भी हम उसे कन्द की गणना में नहीं मानते। इसी प्रकार आलू भी जमीन में होने पर भी कन्द नहीं है। इसके पौधे में से डंडी बनती है, इस डंडी में से शाखायें निकलती हैं और वे शाखायें जमीन में घुस जाती हैं और फिर कन्द के समान फूलती हैं। अर्थात आलू तो Stem tuber स्टेमटयूबर है, Root tuber रूट टयूबर नहीं है। कुछ जैन लोग आलू को कन्द मानकर उसका उपयोग नहीं करते, अतः इतना स्पष्टीकरण उचित प्रतीत हुआ है। खाना न खाना यह उनकी इच्छा का सवाल है। परन्तु आलू कन्दमूल नहीं है।" शब्द-विमर्श क्षीरविदारी-सफेद और अधिक दूध वाली विदारी। कृष्णकन्द-वत्सनामविष। केलुट-कौटुम्बकन्द। भद्रभुस्ता-मोथा, नागरमोथा। पिण्डहरिद्रा-गोल गांठ वाली हरिद्रा। सीहुण्ड-दुधिया थोहर। | भग. ७/६६ । पण्ण. १/४८ गा.१से ७ उत्तर. ३६/६६-६ | आलु आलु आलु मूला मूली मूली अदरक हिरिलि सिरिलि सिस्सिरिली वाराही कंद भूखर्जूर क्षीर विदारी कृष्णकंद वज्रकंद सूरणकंद केलूट भद्रमुस्ता पिण्डहरिद्रा रोहीतक त्रिधाराथूहर अदरक हिरिलि सिरिलि सिस्सिरिली वाराही कंद भूखजूर क्षीर विदारी कृष्णकंद वज्रकंद सूरणकंद केलूट भद्रमुस्ता पिण्डहरिद्रा रोहीतक त्रिधारा थूहर १शैवाल २ काइ ३ सेवार ४ रोहीतक ५तिधाराथोहर ६ थिहु ७ स्तबककंद ८शाल ६अडूसा १० कांटा थूहर ११ काली मसली १२ वन रोहेडा १३ अत्यम्लवर्णी १४ जारुल १५ घोडवेल १६ वाराही कंद १७ हल्दी १८ अदरक १६ आलु २० मूली २१ शंखपुष्पी २२ कटभी २३ कृष्ण पुष्पावली २४ जल महुआ २५ पोवलइ २६ गुडमार २७ तेलिया कंद २८ नाकुली २६ गिलोयपद्म ३० शालिषाष्टिक ३१ पाठा ३२ बडी इद्रायण ३३ मुलहठी ३४ करेली ३५ स्थल कमल ३६ अतिविषा ३७ लघुदंती ३८ शिवलिंगी ३६ दूसरा वाराही ४६ क्षीरकाकोली ४७ भांग ४८ नाही कंद ४६ माजूफल ५० मोथा ५१ कलिकारी ५२ सनजाति का पौधा ५३ किण्ह ५४ बिदारी ५५ जल कुंभी ५६ रेणुका ५७ नोनीशाक ५८ रक्त उत्पल कंद ५६ वज्रकंद ६० सूरणकंद ६१ कौटुम्बकंद अदरक हिरिली कंद सिरिली कंद सिस्सिरिली कंद जावई कंद केद कंदली कंद प्याज लहसुन कन्दली कुस्तुम्बक लोही कंद थीहू थीहू स्तिभु कुहुक कृष्ण वज्र कंद सूरण कंद अश्वकर्णी सिंहकर्णी मुसुंढी शाल ४० जंगली उडद ४१वनमूंग ४२ डोडीशाक ४३ ऋषभक ४४ संभालु के बीज ४५काकोली स्तबक शाल अडूसा कांटा थूहर काली मूसली अडूसा कांटा थूहर काली मूसली हरिद्रा अप्पकम्म-महाकम्म-पदं अल्पकर्म-महाकर्म-पदम् अल्पकर्म-महाकर्म-पद ६७. सिय भंते ! कण्हलेसे नेरइए अप्प- स्याद् भदन्त ! कृष्णलेश्यः नैरयिकः अल्प- ६७.'भन्ते । स्यात् (कदाचित्) कृष्णलेश्या वाला नैरयिक कम्मतराए? नीलेसे नेरइए महाकम्मतराए? कर्मतरकः? नीललेश्यः नैरयिकः महाकर्म- अल्पतर कर्म वाला और नील लेश्या वाला नैरयिक तरकः? महत्तर कर्म वाला हो सकता है? हंता सिय॥ हन्त स्यात्। हां, स्यात् हो सकता है। ६८. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-कण्हलेसे तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते--कृष्ण- ६८. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-कृष्ण Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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