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श.७: उ.३ : सू.६४-६६
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भगवई
भाष्य १. सूत्र ६४,६५
कहां से लेता है ? इस प्रश्न के उत्तर में सूत्रकार ने जो बताया है, वह वृक्ष के दस अंग होते हैं-मूल, कंद, स्कन्ध, छाल, शाखा, प्रवाल,
सामुदायिक जीवन-प्रणाली का महत्त्वपूर्ण मंत्र है। मूल का जीव जो आहार पत्र, पुष्प, फल और बीजा
लेता है, कंद उसमें से अपना आहार ग्रहण कर लेता है। स्कंध कंद से, छाल मूल का संबंध भूमि के साथ है, इसलिए वह भूमि से अपना आहार
स्कन्ध से, शाखा छाल से, प्रवाल शाखा से, पत्र प्रवाल से, पुष्प पत्र से, फल खींच लेता है। किंतु कंद का संबंध सीधा भूमि से नहीं है। वह अपना आहार
पुष्प से और बीज फल से अपना आहार ग्रहण करता है। यह पारस्परिक सहयोग की वृत्ति उनके जीवन का मौलिक आधार है।
अणंतकाय-पदं
अनन्तकाय-पदम्
अनन्तकाय-पद ६६. अह भंते ! आलुए, मूलए, सिंगबेरे, हिरिलि, अथ भदन्त ! आलुकं, मूलक, शृङ्गवेरं, ६६.' भन्ते ! क्या आलु, मूला, अदरक, हिरिलि, सिरिलि, सिरिलि, सिस्सिरिलि, किट्ठिया, छिरिया, 'हिरिली', 'सिरिली', 'सिस्सिरिली', कृष्टिका सिस्सिरिली, वाराही कंद, भूखर्जूर, क्षीरविदारी, कृष्णछीरविरालिया, कण्हकंदे, वज्जकंदे, सूरण- (क्लिष्टिका), क्षीरिका, क्षीरविडालिका, कंद, वज्रकंद, सूरणकंद, केलूट, भद्रमुस्ता, पिण्डहरिद्रा, कंदे, खेलूडे, भद्दमोत्था, पिंडहलिद्दा, लोही, कृष्णकंदः, वज्रकंदः, सूरणकंदः, केलूटः, रोहीतक, त्रिधारा थूहर, थीहू, स्तबक, शाल, अडूसा, णीहू, थीहू, थिभगा, अस्सकण्णी, सीहकण्णी, भद्रमुस्ता, पिण्डहरिद्रा, लोही, ‘णीहू', 'थीहू' कांटा-थूहर, काली मूसली इस प्रकार के अन्य वनसिउंढी, मुसंढी, जेयावण्णे तहप्पगारा सब्वे स्तबकम्, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, 'सिउंढी'; स्पतिकायिक जीव हैं, वे सब अनन्त जीव वाले हैं? ते अणंतजीवा विविहसत्ता?
'मुसंढी', ये चापि अन्ये तथाप्रकाराः सर्वे ते उनका सत्त्व विविध प्रकार का है ?
अनन्तजीवाः विविधसत्त्वाः? हंता गोयमा ! आलुए, मूलए जाव अणंतजीवा हन्त गौतम ! आलुकं, मूलकं यावद् अनन्त- हां, गौतम! आलु, मूला, यावत् अनन्त जीव वाले हैं। विविहसत्ता॥ जीवाः विविधसत्त्वाः ।
उनका सत्त्व विविध प्रकार का है।
भाष्य १. सूत्र ६६
विषयक वर्गीकरण में इनका उल्लेख नहीं है। पण्णवणा में इन्हें प्रत्येक शरीर बादर वनस्पति के दो प्रकार हैं-१. प्रत्येक शरीरवाली, २. साधारण वाले जीवों की कोटि में रखा गया है। शरीरवाली। जिसके एक शरीर में एक जीव होता है वह वनस्पति 'प्रत्येक शरीर इस सूत्र में आया आलुए (आलुकम्) शब्द विमर्शनीय है। इसका वाली' कहलाती है। जिसके एक शरीर में अनन्त जीव होते हैं वह वनस्पति वास्तविक अर्थ 'आलुक' या 'आलु' है, जो आलू या potato नहीं है। क्योंकि'साधारण शरीर वाली' कहलाती है। अनन्त जीव वाली वनस्पति का वर्ग भगवई, १. आलू या potato नामक पौधा भारतीय नहीं है; इसे भारत में पण्णवणा, जीवाजीवाभिगमे और उत्तरज्झयणाणि-इन चार आगमों में पूर्तगाली लोग लाए थे। मूलतः इसे दक्षिणी अमरीका से यूरोप ले गए थे। इसकी मिलता है। देखें तालिका (पृ. २५३ पर)।
मूल उत्पत्ति चिली (द. अमरीका) है। इस स्थिति में इसका संबंध प्रस्तुत सूत्र भगवती के २३ वें शतक में भी अनेक नामों का उल्लेख है- के 'आलुए' के साथ नहीं जोड़ा जा सकता। २३/१-आलुय-मूलग-सिंगबेर-हलिद्दा-रुरु-कंडरिय-जारु-छीरबिराली
२. आप्टेकृत संस्कृत-अंग्रेजी कोष के अनुसार 'आलु-an -किट्ठी-कुंदु-कण्हाकडभु-मधु-पुयलइ-महुसिंगि-निरुहा-सप्पसुगंधा छिण्ण- esculent root (not applied to potato etc.) अर्थात् एक ऐसा खाद्य रुह-बीयरुह।
मूल (जो आलू (potato) का द्योतक नहीं है। २३/२-लोही णीहू-थीहू-थिभगा-अस्सकण्णी-सीहकण्णी-सीउंढी-मुसंढी। ३. निघण्टुआदर्श, पृ० १६४, १६५ में लिखा है२३/४-आय-काय-कुहुण-कुंदुरुक्क-उव्वेहलिया-सफा-सज्जा छत्तावंसाणियकुरा ।
“३७७ आलू (बटाटा) २३/६-पाढा-मियवालुंकि-मधुरसा-रायवल्लि-पउमा-मोढरि-दंति-चंडि। नाम-आलू (हिंदी); बटाटा, बटाटा (गु०); potato पोटेटो (अं०); २३/८-मासपण्णी-मुग्गपण्णी-जीवग-सरिसव-करेणुय-काओलि-खीर- Solanum Tuberosum सोलेनम् टयूबरोजम् (ले०)। काकोलि-भंगि-णहि किमिरासि-भद्दमुत्थ-णंगलइ-पयुय-किण्हा-पउल-हढ- “परिचय-वर्णन और गुण-आलू की जन्मभूमि तो दक्षिण अमेरिका -हरेणुया-लोही।
है। तो भी संस्कृत में आये हुए 'आलूनि' यह शब्द आलू अर्थात् बटाटा के उत्तरज्झयणाणि के वर्गीकरण में प्याज और लहसुन को अनन्त लिये आया है, ऐसा मानकर कुछ लोग इस शाक को भारत की उपज बताने का जीव की कोटि में रखा गया है। भगवई और जीवाजीवाभिगमे के अनन्तजीव- जोरदार शब्दों में प्रतिपादन करते हैं। हमारा मत है कि शास्त्र में अनेक प्रकार
१.पण्ण. १/३२। २. पण्ण. १/४८ गा. ४३ ।
3. See Encyclopaedia Britanica--Potato.
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