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श.५: उ.७: सू.१५०-१५३
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भगवई
जहा चउप्पएसिओ तहापंचपएसिओ, तहा जाव अणंतपएसिओ।।
यथा चतु:प्रदेशिकः तथा पञ्चप्रदेशिकः, तथा जैसे–चतुःप्रदेशी स्कन्ध की प्ररूपणा है, वैसी ही यावद् अनन्तप्रदेशिकः।
प्ररूपणा पंचप्रदेशी स्कन्ध की करणीय है। यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध की प्ररूपणा भी वैसी ही है।
भाष्य
चलती
१. सूत्र १५०-१५३
जैन दर्शन के अनुसार गतिशील द्रव्य दो हैं—जीव और पुद्गल'; ‘परमाणु में एजन आदि क्रियाएं कदाचित् होती है, कदाचित नहीं इसलिए एजन अथवा प्रकम्पन इन दो ही द्रव्यों में होता है। जीव में एजन होता होती'-यह सापेक्ष वचन है। उत्पाद और व्यय-यह क्रिया इसमें निरन्तर है। इसका निरूपण भगवती ३/१४३-१४८ में किया गया है।
चलती है। इस क्रिया का सम्बन्ध स्वभाव पर्याय से है। एजन आदि क्रियाओं परमाणु पुद्गल की सबसे छोटी इकाई है। उसका स्वरूप का सम्बन्ध विशिष्ट परिणमन से है। परमाणु का स्कन्ध के रूप में परिणमन भगवती २०/२६ में निरूपित है। उसके अनुसार परमाणु में एक वर्ण, एक एजन आदि क्रियाओं से ही होता है। इसका आधारभूत सूत्र है---तीसरे गन्ध, एक रस और दो स्पर्श
शतक का आलापक। उसका प्रतिपाद्य है कि एजन आदि क्रिया करने वाला १. शीत और स्निग्ध
पुरुष विभिन्न अवस्थाओं में परिणत होता है, आरम्भ, सभारम्भ करता है। २. अथवा शीत और रुक्ष
एजन आदि क्रिया नहीं करने वाला पुरुष विभिन्न अवस्थाओं में परिणत नहीं ३. अथवा उष्ण और स्निग्ध
होता, आरम्भ सभारम्भ नहीं करता। ४. अथवा उष्ण और रुक्ष
परमाणु और स्कन्ध का भी यही नियम है—उसमें एजन आदि होते हैं।
क्रियाएं होती हैं, तो वह विभिन्न अवस्थाओं में परिणत होता है—'तं तं परमाणु के योग से स्कन्ध का निर्माण होता है। दो परमाणुओं का भावं परिणमति ।' एजन आदि क्रियाओं के अभाव में वह विभिन्न अवस्थाओं योग द्विप्रदेशी स्कन्ध, तीन परमाणुओ का योग त्रिप्रदेशी स्कन्ध यावत् अनन्त में परिणत नहीं होता- 'नो तं तं भावं परिणमति।' परमाणुओं का योग अनन्तप्रदेशी स्कन्ध कहलाता है। स्कन्ध का कारण है परमाणु और स्कन्ध के अवस्था-परिवर्तन का नियम इसी शतक परमाणु। नयचक्र में परमाणु का कारण' और 'कार्य' दोनों रूपों में निर्देश के १७९ वें सूत्र में प्रतिपादित है। किया गया है। परमाणु के योग से स्कन्ध की उत्पत्ति होती है, अत: परमाणु अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद जैन दर्शन का ध्रुव सिद्धान्त है। स्कन्ध का कारण है। स्कन्ध के टूटने से परमाणु अपने मूल रूप में चला 'सिय' का संस्कृत रूप 'स्यात्' होता है। इसके अनेक अर्थ हैं, जैसे--- जाता है, अत: परमाणु स्कन्ध का कार्य है।
संशय, कथंचित् , कदाचित्, अनेकान्त आदि।' नयचक्र के अनुसार स्यात्' तत्त्वार्थसूत्र में भेद का उल्लेख परमाणु के कारण-रूप में मिलता शब्द एकान्त नियम को अस्वीकार करता है और सापेक्ष को सिद्ध करता है।" है। स्कन्ध की उत्पत्ति भेद और संघात दोनों कारणों से होती है। अभयदेवसूरि ने यहां स्यात्' का अर्थ 'कदाचित्' किया है। उनके अनुसार
चतुःप्रदेशी स्कन्ध का भेद होने पर दो द्विप्रदेशी स्कन्ध बन जाते परमाणु और स्कन्ध में एजन आदि क्रियाएं कादाचित्क होती हैं।' हैं। यह भेद से उत्पन्न है। चार परमाणुओं का योग होने पर चतुःप्रदेशी स्कन्ध १. परमाणु के दो विकल्पबन जाता है। यह संधात से होने वाला स्कन्ध है। स्कन्ध की अवस्था में १. स्यात् एजन परमाणु की संज्ञा प्रदेश हो जाती है।
२.स्यात् अनेजन
१. ठाण, १०/१॥ २. नयचक्र (माइल्ल धवल), श्लोक २९ -
जो खलु अणाइणिहणो, कारणरूबो हु कज्जरूबो वा।
परमाणुपोग्गलाणं सो दल सहावपज्जाओ। ३. त.सू. ५/२७-भेदादणुः। ४. त.सू. ५/२६-भेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्ते । १. भ. ३/५४३-१४८ । ६. (क) त.रा.वा. ४/४२ – स्यात् शब्दोऽनेकान्तार्थस्य द्योतकः।
(ख) आप्तमीमांसा, १०३, १०४ -
वाक्यप्वनेकान्तद्योती गम्य प्रतिविशेषण। स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्तव केवलिनामपि । स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात् किं वृत्तचिद्विधः।
सप्तभंगनयापेक्षो हेयादेयविशेषकः ।। ७. नयचक्र (माइल्ल धवल),२५३
नियमणिसेहनसीलो णिपादणादो,य, जो हु खलु सिद्धो।
सो सियसद्दो भणिओ, जो सावेक्ख पसाहेदि ।। ८. भ.बृ. ५/१५०-कदाचिदेजते, कदाचित्कत्वात्सर्वपुद्ग्लेष्वेजनादिधर्माणाम्।
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