________________
पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
मोक्ष-पद
मोक्ख-पदं
मोक्ष-पदम् ११५. छउमत्थे णं भंते ! मणूसे तीयमणंत सा- छ्दमस्थ: भदन्त ! मनुष्य: अतीतम् अनन्तं
सयं समयं केवलेणं संजमेणं, केवलेणं संव- शाश्वतं समयं केवलेन संयमेन, केवलेन रेणं, केवलेणं बंभचेरवासेणं, केवलाहिं पव- संवरेण, केवलेन ब्रह्मचर्यवासेन, केवला- यणमायाहिं सिन्झिंसु? बुझिंसु? मुच्चिंसु? भि: प्रवचनमातृभिः असैत्सुः? 'बुझिसु? परिणिव्वाइंसु? सव्वदुक्खाणं अंतं करिसु? अमुचन्? परिनिरवासिषुः? सर्वदुःखाना-
मन्तम् अकार्षुः? गोयमा! णो इणद्वे समठे। जहा पढमसए चउ- गौतम ! नायमर्थः समर्थः। यथा प्रथमशते त्थुद्देसे आलावगा तहा नेयन्वा जाव अलम- चतुर्थोद्देशे आलापका: तथा नेतव्या: यावद् त्थु त्ति वत्तव्वं सिया॥
अलमस्तु इति वक्तव्यं स्यात्।
११५. 'भन्ते! क्या छद्मस्थ मनुष्य इस अनन्त, शाश्वत
अतीत काल में केवल संयम, केवल संवर,केवल ब्रह्मचर्यवास और केवल प्रवचनमाता की आराधना से सिद्ध हुआ? बुद्ध हुआ? मुक्त हुआ? परिनिवृत्त हुआ? और उसने सब दुःखों का अन्त किया?
गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। प्रथम शतक के चतुर्थ उद्देशक में जिस प्रकार आलापक हैं उसी प्रकार यहाँ ज्ञातव्य हैं यावत् केवली समर्थ है, ऐसा कहा जा सकता
भाष्य
१. सूत्र ११५
द्रष्टव्य, भ. १/२००-२१० का भाष्या
एवंभूय-अणेवंभूय-वेदणा-पदं एवंभूत-अनेवंभूत-वेदना-पदम् एवंभूत-अनेवंभूत-वेदना-पद ११६. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति अन्ययूथिका: भदन्त ! एवमाख्यान्ति यावत् ११६. 'भन्ते ! अन्ययूथिक इस प्रकार आख्यान करते
जाव परूवेंति-सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे प्ररूपयन्ति–सर्वे प्राणा: सर्वे भूता: सर्वे हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं.-----सब प्राण, सब भूत, जीवा सव्वे सत्ता एवंभूयं वेदण वेदेति।। जीवा: सर्वे सत्त्वा: एवंभूतां वेदनां वेदयन्ति। सब जीव और सब सत्त्व एवंभूत (जिसमें जिस प्रकार
कर्मों का बन्धन होता है उसी प्रकार कर्मों का वेदन करते हैं) वेदना का अनुभव करते हैं।
११७. से कहमेयं भंते! एवं?
तत् कथमेतद् भदन्त ! एवम्? गोयमा ! जण्णं ते अण्णउत्थिया एवमाइ- गौतम ! यत्ते अन्ययूथिका: एवमाख्यान्ति क्खंति जावसव्वे सत्ता एवंभूयं वेदणं वेदेति। यावत् सर्वे सत्त्वा: एवंभूतां वेदनां वेदयन्ति। जे ते एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसु। अहं ये एते एवमाहुः मिथ्या ते एवमाहुः। अहं पुन: पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि गौतम ! एवमाख्यामि यावत् प्ररूपयामि —अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता एवं- अस्त्येकके प्राणा: भूता: जीवा: सत्त्वाः
११७. भन्ते ! यह वक्तव्य कैसा है?
गौतम ! वे अन्ययूथिक इस प्रकार आख्यान करते हैं यावत् सब सत्त्व भूत वेदना का अनुभव करते हैं। जो वे इस प्रकार कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। गौतम! मैं इस प्रकार आख्यान करता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ—कुछ एक प्राण, भूत, जीव और सत्त्व एवंभूत
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org