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________________ आमुख तीसरे शतक में शक्र के लोकपालों का वर्णन किया गया। प्रस्तुत शतक में ईशानेन्द्र के लोकपालों का संक्षिप्त निरूपण है। लोकपाल केवल भवनपति और वैमानिक देवनिकायों में होता है। व्यन्तर और ज्योतिष्क देव-निकायों में वे नहीं होते। शक्र के लोकपालों की भांति ईशानेन्द्र के लोकपालों का भी मनुष्य-लोक से संबंध रहता है। प्रस्तुत शतक का आकार बहुत छोटा है। इसके उद्देशक दस हैं। उनका विषय बहुत ही संक्षिप्त है। प्रथम आठ उद्देशक लोकपालों से संबंधित हैं। शेष दो उद्देशक पण्णवणा के लिए समर्पित हैं। अर्पणा की पद्धति ने कुछ प्रश्न उत्पन्न किए हैं। क्या अर्पित विषय पहले भगवई में थे अथवा पण्णवणा में अथवा दोनों में? यदि भगवई में होते तो उन्हें पण्णवणा के लिए अर्पित नहीं किया जाता। यदि पण्णवणा में थे तो उनका भगवई में प्रक्षेप किया गया है। यदि दोनों में थे तो भगवई का पाठ पण्णवणा के लिए अर्पित क्यों? इन प्रश्नों का निश्चयात्मक उत्तर देना कठिन है। एक अनुमान किया जा सकता है कि भगवई अंगप्रविष्ट सूत्र है, पण्णवणा अंगबाह्य सूत्र है। स्वतः प्रामाण्य अंगप्रविष्ट सूत्रों का होता है। अंगबाह्य सूत्रों का प्रामाण्य परतः होता है। पण्णवणा की रचना श्यामाचार्य ने की। उसकी प्रामाणिकता की पुष्टि के लिए भगवई में उसके विषय संदृब्ध किए गए। जीवाजीवाभिगमे, जुबुद्दीवपण्णत्ती आदि के पाठ भी भगवई में प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं। भगवई पूर्ववर्ती रचना है तथा पण्णवणा, जीवाजीवाभिगमे, जंबुद्दीवपण्णत्ती आदि उत्तरवर्ती रचनाएं हैं। पूर्ववर्ती रचना में उत्तरवर्ती रचना के समर्पण-सूत्र का होना संभव नहीं। देवर्द्धिगणी ने वाचना के समय आगम के संस्करण निर्धारित किए, उस समय भगवई में उत्तरवर्ती आगमों के पाठों का प्रक्षेप किया है। इस संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। 'संसारमंडलं नेयव्वं'२ ----- इस संक्षिप्त पाठ का मूल आधार समवाओ है।' समवाओ में भी यह पाठ प्रथमानुयोग से संग्रहित किया गया प्रतीत होता है। कालकाचार्य ने लोकानुयोग और गण्डिकानुयोग की रचना की थी। नंदी में अनुयोग के दो प्रकार बताए गए हैं—मूलप्रथमानुयोग और गण्डिकानुयोग' । मूलप्रथमानुयोग में तीर्थंकरों का जीवन-चरित वर्णित है। गण्डिकानुयोग में कुलकर आदि का वर्णन है।' कसायपाहुड के अनुसार दृष्टिवाद के पांच अर्थाधिकारों में तीसरा अर्थाधिकार प्रथमानुयोग है। प्रथमानुयोग के चौबीस अर्थाधिकार हैं। तीर्थंकर के पुराणों में सब पुराणों का अन्तर्भाव होता है, इसलिए उसमें गण्डिकानुयोग का पृथक् उल्लेख नहीं है।' मुनि कल्याणविजयी ने नंदी में आए हुए मूल' शब्द के आधार पर दो प्रथमानुयोग की संभावना की-नंदी सूत्र में मूलप्रथमानुयोग और गण्डिकानुयोग का उल्लेख मिल रहा है। वहां प्रथमानुयोग के साथ लगा हुआ 'मूल' शब्द नंदी के रचनाकाल में दो प्रथमानुयोगों के अस्तित्व की गूढ सूचना देता है।" कालकाचार्य ने अनुयोग की रचना की। उज्जैनी के शिष्यों ने उनके अनुयोग को मान्य नहीं किया। तब वे अपने प्रशिष्य सागर नामक श्रमण के पास सुवर्णभूमि में गए। वहां उनके अनुयोग मान्य हुए। उक्त संदर्भो के आधार पर इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता कि 'संसारमंडल' जैसे उत्तरवर्ती अनुयोग-सूत्रों की प्रामाणिकता के लिए अंगप्रविष्ट आगमों में उनका प्रक्षेप किया गया। यह प्रक्षेप क्षमाश्रमण देवर्द्धिगणी ने संकलनकाल में किया अथवा उनके परवर्ती किसी समर्थ आचार्य ने किया, इस विषय में अन्वेषण होना नितान्त आवश्यक है। इस प्रकार भगवई का वर्तमान आकार अनेक आगमों के संग्रहण और संकल्प से समृद्ध बना है। प्रस्तुत शतक को इतना छोटा आकार देने के पीछे आगमकार अथवा संकलनकार का क्या दृष्टिकोण रहा है, यह और अधिक गहराई से अन्वेषणीय है। १.त. सू. ४/५- त्रायविंशलोकपालवर्जा व्यन्तरज्योतिष्काः । २.भ.५/१२२॥ ३. सम.प. २१६-२४७/ ४. पञ्चकल्पभाष्य, सुवर्णभूमि में कालकाचार्य, पृ. ६, ७ ५. नंदी, सू. ११९ ६. नंदी, सू. १२०, १२० ७. क. पा. पृ. १४९, १५०, सू. ११५-दिठिवादे पंच अत्थाहियारा---परियम्म सुत्त पढमाणिओगो पुन्चगयं चूलिया चेदि। पढ़माणिओए चउदीस अत्थहियारा तित्थयरपुराणेसु सन्चपुराणाणमंतभावादो। ८. सुवर्णभूमि में कालकाचार्य, पृ. २५॥ ९.बृ.क. भा. भाग १ (पीठिका), पृ. ७३, भाष्य गाथा १३९--- सागारियमप्पाहण, सुवन्नसुयसिस्सखंतलक्खेण। कहणा सिस्सागमणं, धूली पुजोवमाणं च ।। तथा मलयगिरिवृत्ति, ब, क, भा. भाग १ (पीठिका), पृ. ७३,७४। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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