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________________ भगवई करना। क्षोभ-किसी वस्तु में प्रवेश करना। उदीरणा-प्रेरणा। उदीरणा के पश्चात् विभिन्न रूपों में परिणमन की बात कही गई है। इससे यह कल्पना की जा सकती है कि एजन, व्येजन-ये सब परिणमन की पूर्व अवस्थाएं हैं। एजन से परिणमन का प्रारम्भ होता है, वह उदीरणा तक चलता है और इस अवस्था-सप्तक के पश्चात् एक परिणामान्तर होता है। पूर्ववर्ती परिणमन विसर्जित और उत्तरवर्ती परिणमन प्राप्त हो जाता है। यह परिणमन व्यञ्जन पर्याय है, जीव की पुद्गल सहचरित सक्रियता है। उस स्थिति में अन्तक्रिया नहीं होती। आरम्भ-वध अथवा प्रवृत्ति का प्रारम्भ । संरम्भ-वध का संकल्प। समारम्भ-परिताप ।' आरम्भ, संरम्भ और समारम्भ में प्रवृत्त जीव दूसरे जीवों को नाना प्रकार का कष्ट देता है। दुःखापन-मारना अथवा इष्ट का वियोग कर दुःखित करना। शोकापन-शोक या दैन्य की अवस्था में डाल देना। जूरावण-खेदखिन्न कर देना अथवा शरीर को जीर्ण बना देना। संस्कृत में 'जूर' धातु है। उसका अर्थ है वयोहानि, बुढ़ापे की ओर जाना। आचार्य हेमचन्द्र ने 'खिद्' धातु को भी 'जूर' आदेश किया है। इसके आधार पर 'जूर' का अर्थ खेद उत्पन्न करना भी होता है। तिप्पावण-अश्रुमोचन करवाना। पिट्टावण-पीटना। परितावण-परिताप देना। तृण-हस्तक-तृण का पूला। यहां हस्तक शब्द समूह के अर्थ में है। मसमसाविज्जइ-यह देशी क्रियापद है। इसका अर्थ है 'शीघ्र जलाना'। अयकवल्ल-लोहे का तवा अथवा लोहे की कढ़ाई। वोलट्टमाणे वोसट्टमाणे-द्रष्टव्य भ. १३१३ का भाष्य। २. ऐर्यापथिकी क्रिया श.३ : उ.३ : सू.१४३-१४८ प्रस्तुत आगम में 'ऐपिथिकी क्रिया' का प्रयोग पन्द्रह स्थानों पर हुआ है। 'ईपिथबन्ध' का प्रयोग चार स्थानों पर हुआ है। वृत्तिकार ने ईर्यापथ का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ गमनमार्ग किया है। ऐपिथिकी अर्थात् गमन-मार्ग में होने वाली क्रिया। इसका प्रवृत्तिलभ्य अर्थ 'केवल. (कषाय शून्य) योग से होने वाली क्रिया' किया है। इस क्रिया से केवल सात वेदनीय कर्म का बंध होता है। वृत्तिकार के अनुसार-उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगीकेवली क्रमशः ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान के स्वामी (गुणस्थानत्रयवर्ती वीतराग) के ऐपिथिकी क्रिया होती है। वृत्तिकार के इस अर्थ का आधार सूत्र में प्राप्त यह कसौटी है- 'जस्स णं कोहमाणमायालोभा वोच्छिण्णा भवंति, तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, जस्स णं कोहमाणमायालोभा अवोच्छिण्णा भवंति, तस्स णं संपराइया किरिया कज्जइ ॥" व्यवच्छिन्न का अर्थ है-'क्षीण होना।' जयाचार्य ने इसका अर्थ 'उपशान्त होना' भी किया है। ग्यारहवें गुणस्थान में मोह उपशांत होता है। इसलिए वोच्छिण्ण का अर्थ केवल क्षीण होना ही नहीं किया जा सकता। ऐपिथिकी क्रिया का संबंध केवल गमन-मार्ग से नहीं है। चलना, खड़ा होना, बैठना, सोना आदि स्थूल क्रिया और उन्मेष-निमेष अथवा पलक झपकने जैसी सूक्ष्म क्रिया के साथ भी इसका सम्बन्ध है, इसलिए ईर्यापथ का अर्थ व्यापक संदर्भ में करना चाहिए। ईर्यापथ अर्थात् जीवन-व्यवहार के लिए होने वाली क्रिया। उससे जो कर्म का बंध होता है, उसका नाम है ऐर्यापथिकी क्रिया। यह क्रिया विमात्र-विविधमात्रा वाली होती है। वृद्धव्याख्या में विमात्रा का अर्थ अल्पमात्रा किया गया ऐपिथिकी क्रिया में होने वाले कर्म-बन्ध की प्रक्रिया का निर्देश सूत्र में साक्षात् मिलता है-प्रथम समय में कर्म का बंध और स्पर्श होता है। कर्म-प्रायोग्य परमाणु-स्कन्धों का कर्म रूप में परिणमन होना 'बद्ध अवस्था' है। जीव-प्रदेशों के साथ उनका स्पर्श होना 'स्पृष्ट अवस्था' है। द्वितीय समय में बद्ध कर्म का वेदन होता है, तृतीय समय में उसकी निर्जरा हो जाती है। सूत्रकार ने वाक्यान्तर में द्वितीय समय की अवस्था को उदीरिया वेइया इन दो शब्दों के द्वारा निर्दिष्ट किया १. (क) भ. वृ. ३/१४७ आह च 'संकप्पो संरंभो परितावकरी भवे समारंभो। आरंभों उद्दवओ सब्बनयाणं विसुद्धाणं ।' (ख) देखें-ठाणं ७/८४-८६ का टिप्पण। २. आप्टे-जूर-To grow old. ३. हेमशब्दानुशासनम्-८/४/१३२॥ ४. भ. १/४४, १४५: ३/१४८, ७/४, ५, २०, २१, १२५, १२६, १०/११, १४, १८/१५६, १६०। ५. भ. वृ. ३/१४८-'ईरियावहिय'ति ईपिथो-गमनमार्गस्तत्र भवा ऐयापथिकी केवलयोगप्रत्ययेति भावः। ६. वही ३/१४८-उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिलक्षणगुणस्थानकत्रयवर्ती वीतरागोऽपि हि सक्रियत्वात्सातवेद्यं कर्म बघ्नातीति भावः। ७. भ. ७/१२६. ८. भ. जो. १२१/८-क्रोध मान माया लोभ ते, विच्छेद गया हे जास। उपशमन अथवा क्षय थया, इरियावहिया तास ॥ ६. (क) भ. वृ. ३/१४८-एतदेव वाक्यान्तरेणाह-सा बद्धा स्पृष्टा प्रथमे समये, द्वितीये तु 'उदीरिता' उदयमुपनीता, किमुक्तं भवति? वेदिता, न होकस्मिन् समये बन्ध उदयश्च संभवतीत्येवं व्याख्यातं। (ख) उत्तर. २६,७२-पेज्जदोसमिच्छादसणविजएणं भंते! जीवे किं जणयइ? पेज्जदोसमिच्छादसणविजएणं नाणदंसणचरित्ताराहणयाए अब्भुटेइ । अढविहस्स कम्मस्स कम्मगंठिविमीयणयाए तप्पढमयाए जहाणपब्बिं अट्ठबीसइविहं मोहणिज्ज कम्मं उग्धाएइ, पंचविहं नाणावरणिज्जं नवविहं दंसणावरणिज्ज पंचविह अंतराय एए तिन्नि वि कम्मसे जुगवं खवेइ। तओ पच्छा अणुत्तरं अणंतं कसिणं पडिपुण्णं निरावरणं वितिमिरं विसुद्ध लोगालोगप्पभावगं केवलवरनाणदंसणं समप्पाडेड। जाव सजोगी भवइ ताव य इरियावहियं कम्मं बंधइ सुहफरिसं दुसमयठिइयं । तं पढमसमए बद्ध बिइयसमए वेइयं तइयसमए निज्जिण्णं तं बद्धं पुट्ठ उदीरियं वेइयं निजिषण सेयाले य अकम्म चावि भवइ। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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