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श.३:उ.३ :सू.१४३-१५०
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भगवई है। इसका तात्पर्य है कि कर्म का उदय और वेदन ये दोनों अवस्थाएं अकर्म हो जाता है, तब वह निर्जीर्ण होता है। यह निश्चय नय का द्वितीय समय में होती है। जिस समय में बंध होता हैं, उस समय अभिमत है। यहां सूत्रकार ने व्यवहार नय की दृष्टि से चतुर्थ समय में उदय नहीं होता। इसलिए उदय दूसरे समय में होता है। में अकर्म होने की बात कही है।
एष्यत् काल (अगले क्षण) में वह अकर्म हो जाता है, यह ऐपिथिकी क्रिया आत्मसंवृत', संवृतः अवीचिपथ में स्थित सापेक्ष सूत्र है। वृत्तिकार के अनुसार तीसरे समय में कर्म अकर्म हो संवृत तथा भावितात्मा अनगार के होती है। इन सब का वर्णन और जाता है, फिर भी सूत्रकार ने अतीत और भविष्य की सन्निधि में विशेषण-समूह तुलनात्मक दृष्टि से मननीय है। एकता का उपचार कर चौथे समय में अकर्म होने की बात कही है। ऐपिथिकी क्रिया की स्थिति की कालावधि दो समय की है। प्रस्तुत आगम में वेदना और निर्जरा का एक प्रसंग है।
वृत्तिकार ने स्थिति के विषय में कोई चर्चा नहीं की। जयाचार्य ने गौतम ने पूछा-भंते! क्या वेदना और निर्जरा एक है? भगवान् भी दो समय की स्थिति का उल्लेख किया है। तत्त्वार्थ भाष्यकार ने उत्तर में कहा-वेदना और निर्जरा एक नहीं है। वेदना कर्म की । ने इसकी स्थिति एक समय की मानी है। वृत्तिकार के अनुसार वेद्यमान होती है और निर्जरा नोकर्म की होती है। वेदना के पश्चात् कर्म कर्म-समय ही स्थिति-काल है।"
पमत्तापमत्तद्धा-पदं
प्रमत्ताप्रमत्ताद्धा-पदम् १४६. पमत्तसंजयस्स णं भंते! पमत्तसंजमे प्रमत्तसंयतस्य भदन्त! प्रमत्तसंयमे वर्तमानस्य
वट्टमाणस्स सव्वा वि य णं पमत्तद्धा सर्वापि च प्रमत्ताद्धा कालतः कियच्चिरं कालओ केवच्चिरं होइ?
भवति? मंडिअपुत्ता! एगं जीवं पडुच्च जहण्णेणं मण्डितपुत्र! एक जीवं प्रतीत्य जघन्येन एक एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। समयम्, उत्कर्षेण देशोना पूर्वकोटी। नाना नाणाजीवे पडुच्च सव्वद्धं ॥
जीवान् प्रतीत्य सर्वाद्धम्।
प्रमत्त और अप्रमत्त के काल का पद १४६. " भंते! प्रमत्त संयम में वर्तमान प्रमत्त संयत (मुनि) के प्रमत्त अवस्था का काल काल की अपेक्षा कितना लम्बा होता है? मण्डितपुत्र! एक जीव की अपेक्षा जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः कुछ कम करोड़ पूर्व। अनेक जीवों की अपेक्षा सर्वकाल।
१५०. अप्पमत्तसंजयस्स णं भंते! अप्पमत्त- अप्रमत्तसंयतस्य भदन्त! अप्रमत्तसंयमे वर्त- १५०. भंते! अप्रमत्त संयम में वर्तमान अप्रमत्त संयत संजमे वट्टमाणस्स सव्वा वि य णं अप्पमत्तद्धा मानस्य सर्वापि च अप्रमत्ताद्धा कालतः (मुनि) के अप्रमत्त अवस्था का काल काल की कालओ केवच्चिरं होइ? कियच्चिरं भवति?
अपेक्षा कितना लम्बा होता है? मंडिअपुत्ता! एगं जीवं पडुच्च जहण्णेणं मण्डितपुत्र! एक जीवं प्रतीत्य जघन्येन मण्डितपुत्र! एक जीव की अपेक्षा जघन्यतः अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी। अन्तर्मुहूर्त्तम्, उत्कर्षेण देशोना पूर्वकोटी। अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः कुछ कम करोड़ पूर्व । अनेक नाणाजीवे पडुच्च सव्वद्धं ॥
नाना जीवान् प्रतीत्य सर्वाद्धम्। जीवों की अपेक्षा सर्वकाल ।
भाष्य
१. सूत्र १४-१५०
प्रस्तुत आलापक में मुनि की प्रमत्त संयम और अप्रमत्त संयम इन दो अवस्थाओं की कालावधि का विमर्श किया गया है। सातिरेक आठ वर्ष की अवस्था वाले बालक में मुनि बनने की अर्हता स्वीकार की गई है।" मनुष्य की उत्कृष्ट आयु एक करोड़ पूर्व की है, इस आधार पर सामायिकचारित्र की अधिकतम कालावधि देशोन (नव वर्ष कम) एक करोड़ पूर्व की बतलाई गई है। उसकी न्यूनतम कालावधि
एक समय की होती है।
संयम स्वीकार करने के एक समय के अनन्तर मृत्यु होने की स्थिति में ही यह संभव बनती है। यह वृत्तिकार का अभिमत है। कर्मशास्त्रीय दृष्टि से यह सापेक्ष प्रतिपादन है। दीक्षा के प्रारम्भ में अप्रमत्त संयम प्राप्त होता है। उसके पश्चात् प्रमत्त संयम की प्राप्ति होती है। अप्रमत्त संयम से प्रमत्त संयम में आने के पहले समय में
१. भ. वृ. ३/१४८-अकर्माऽपि च भवति इह च यद्यपि तृतीयेऽपि समये कर्माकर्म८. झीणी चर्चा, ढाल १७/२६भवति, तथाऽपि तत्क्षण एवातीतभावकर्मत्वेन द्रव्यकर्मत्वात् तृतीये निर्जीण कर्मति
घणा समय स्थिति संपराय, बे समय इरियावहि...। व्यपदिश्यते, चतुर्थादिसमयेषु त्वकर्मेति।
६. त. भा. ६/६-अकषायस्येर्यापथस्यैवैकसमयस्थितेः। २. भ. ७/७४ ७५।
१०. त. सू. भा. वृ. ६/६-वेद्यमानकर्मसमयो मध्यमः स एव स्थिति-कालः। आयो ३. वही, ३/१४८।
बंधसमयस्तृतीयः परिशाटनसमय इति। ४. वही, ७/१२५, १२६ ॥
११. ववहारो, १०/२२। ५. वही, १०/१३, १४।
१२. भग. २५/५३३। ६. वही, १८/१५६, १६०।
१३. भ. वृ. ३/१४६-'एक्कं समय' ति कथम्? उच्यते-प्रमत्तसंयमप्रतिपत्तिसमय७. उत्तर. २/७२-ताव य इरियाबहियं कम्मं बंधइ, सुहफरिसं दुसमयठिइय। समनन्तरमेव मरणात्।
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