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भगवई
मृत्यु हो सकती है। इस अपेक्षा से प्रमत्त संयम की न्यूनतम कालावधि एक समय की मानी गई है।'
उत्कृष्ट कालावधि के विषय में वृतिकार ने एक समीक्षा की है। उसके अनुसार प्रमत्त संयम निरन्तर नहीं रहता। बीच-बीच में अप्रमत्त संयम के क्षण आते रहते हैं। इस प्रकार अप्रमत्त संयम की निरन्तरता विच्छिन्न होती रहती है। उन सब प्रमत्त संयम की अवधियों को मिलाने पर उत्कृष्ट स्थिति बनती है । वृत्तिकार ने मतान्तर का उल्लेख किया है उसके अनुसार उत्कृष्ट कालावधि निरन्तर बने रहने वाले प्रमत्त संयम की अपेक्षा से विवक्षित है। *
अप्रमत्त संयम की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रतिपादित है। वृत्तिकार के अनुसार अप्रमत्त संयम में वर्तमान मुनि की मृत्यु नहीं
१५१. सेवं मंते सेवं भंते ति भगवं मंडिजपुत्ते अणगारे समणं भगवं महावीर वंदs नमस, वंदित्ता नमसित्ता संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति ॥
लवणसमुह- वुटि - हाणि-पदं
१५२. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसंइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं व्यासी- कम्हा णं भंते लवणसमुद्दे चाउदसमुद्विपुण्णमासिणीसु अतिरेगे वड्ढइ वा? हायइ वा?
लवणसमुह्वत्तव्यवा नेया जाय लो भावे ॥
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१५३. सेवं भंते! सेवं भंते ? त्ति जाव विहरति ॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त । इति भगवान् मण्डितपुत्रः अनगारः श्रमण भगवन्तं महावीर यन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्त्विा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति ।
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लवणसमुद्र-वृद्धि-हानि-पदम्
भदन्तेति ! भगवान् गौतमः श्रमण भगवन्तं महावीर वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत् - कस्मात् भदन्त ! लवणसमुद्रः चतुर्दश्यष्टमी उद्दिट्ठ पौर्णमासीषु अतिरेक वर्द्धते वा? हीयते वा?
श.३ : उ. ३ : सू. १४६-१५३ होती इस नियम के आधार पर न्यूनतम कालावधि अन्तर्मुहूर्त की बताई गई है। चूर्णिकार का अभिमत है-प्रमत संयम से उत्तरवर्ती सभी अवस्थाओं में विद्यमान मुनि अप्रमत्त कहलाता है। क्योंकि उसमें प्रमाद नहीं होता । उपशम श्रेणी का आरोहण करने वाला मुहूर्त्त के भीतर मृत्यु को प्राप्त हो सकता है, इस अपेक्षा से अप्रमत्त संयम की न्यूनतम कालावधि अन्तर्मुहूर्त की बतलाई गई है। यहां उपशम श्रेणी का आरोहण करने वाले अप्रमत्त का ग्रहण करना इष्ट है। अन्य अप्रमत्त का ग्रहण इष्ट नहीं - यह जयाचार्य की व्याख्या है। अप्रमत्त संयम की उत्कृष्ट स्थिति केवली की अपेक्षा से प्रतिपादित है । सवा आठ वर्ष का बालक मुनि भी हो सकता है और साथ-साथ केवलज्ञानी भी हो सकता है। इस अपेक्षा से इस स्थिति का निर्देश है।
लवणसमुद्रवक्तव्यता ज्ञातव्या यावत् सोकस्थितिः सोकानुभावतः ।
१. भ. चूर्णि पमत्तस्य जहणणो कालो समओ एसो य अपमत्तद्धाणातो चवमाणो पमत्तसंजतो कालं करेज्जा तस्य लब्भति ।
२. भ. वृ. ३ / १४६ - किल प्रत्येकमन्तर्मुहूर्त्तप्रमाणे एव प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानके, ते च पर्यायेण जायमाने देशोनपूर्वकोटिं यावदुत्कर्षेण भवतः, संयमवतो हि पूर्वकोटिरेव परमायुः, स च संयममष्टासु वर्षेषु गतेष्वेव लभते महान्ति चाप्रमत्तान्तर्मुहूत्तपिक्षया प्रमत्तान्तर्मुहूर्त्तानि कल्प्यन्ते, एवं चान्तर्मुहूर्तप्रमाणानां प्रमत्ताद्धानां सर्वासां मीलनेन देशोना पूर्वकोटी कालमानं भवति ।
३. वही ३ / १४६ - अन्येत्वाहुः - अष्टवर्षोनां पूर्वकोटिं यावदुत्कर्षतः प्रमत्तसंयतता स्यादिति । ४. (क) भ. वृ. ३/१४६ - चूर्णिकारमतं तु प्रमत्तसंयमवर्जः सर्वोऽपि सर्वविरतोऽप्रमत्त
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त इति यावद् १५३ भन्ते वह ऐसा ही है । भन्ते ! वह ऐसा ही विहरति । है- यह कह भगवान् गौतम संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहार कर रहे
१५१. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है एकसा कहकर भगवान् मण्डितपुत्र अनगार श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार करते हैं, वन्दन- लमस्कार कर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विहार कर रहें हैं।
लवणसमुद्र-वृद्धि- हानि-पद
१५२. भन्ते ! इस सम्बोधन से सम्बोधित कर भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार करते हैं। वन्दन- नमस्कार कर इस प्रकार बोले भन्ते! लवणसमुद्र चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या (उद्दिट्ठा) और पूर्णिमा को अतिरिक्त रूप से क्यों बढ़ता है? क्यों घटता है? यहां लवणसमुद्र की वक्तव्यता लोकस्थिति और लोकानुभाव (जीवा. ३ / ७२३-७६५) तक ज्ञातव्य है।
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उच्यते, प्रमादाभावात्, स चोपशम श्रेणी प्रतिपद्यमानो मुहूर्त्ताभ्यन्तरे कालं कुर्वन् जघन्यकालो लभ्यत इति ।
(ख) भ. चू. प ४- अप्पमत्तो जहण्णकालो उवसामगसेढी पडिवज्जमाणो मुहुत्तेभ्यंतरतो कालं करेमाणो होति ।
५. भ. जो. १/६४/६५ का चार्तिक- ए अप्रभादी उपशम-श्रेणि चढे तिको जीव ग्रहिवो, जो आठमैं गुणठाणे उपशम-श्रेणि चढतो प्रथम समय मेरे तो पिण सातमैं गुणठा अप्रमत्तपणे अंतर्मुहूर्त रह्यो ते माटै जघन्य अंतर्मुहूर्त, इहां उपशम श्रेणि चढ़े तिको अप्रमत्त ग्रह्यो । पिण अन्य अप्रमत्त ग्रहण न कियो।
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