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________________ भगवई ६७ श.३: उ.७: सू.२५०-२७७ सोम-पदं सोम-पदम् सोम-पद २५०. तस्स णं सोहम्मवडेंसयस्स महाविमाणस्स तस्य सौधर्मावतंसकस्य महाविमानस्य पौरस्त्ये २५०. 'उस सौधर्मावतंसक महाविमान के पूर्व में पुरथिमे णं सोहम्मे कप्पे असंखेज्जाइं सौधर्मे कल्पे असंख्येयानि योजनानि व्यति- सौधर्मकल्प में असंख्य योजन जाने पर देवेन्द्र जोयणाई वीइवइत्ता, एत्थ णं सक्कस्स व्रज्य, अत्र शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य देवराज शक्र के लोकपाल महाराज सोम का देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो सोमस्य महाराजस्य सन्ध्याप्रभं नाम महा- सन्ध्याप्रभ नामक महाविमान प्रज्ञप्त है। उसकी संझप्पभे नामं महाविमाणे पण्णत्ते- विमानं प्रज्ञप्तम्-अर्द्धत्रयोदशयोजनशत- लम्बाई-चौड़ाई साढ़ा वारह लाख योजन है और अद्धतेरसजोयणसयसहस्साई आयाम-वि- सहस्राणि आयाम-विष्कम्भेण, एको- परिधि उनचालीस लाख, बावन हजार आठ सो क्खंभेणं, उयालीसं जोयणसयसहस्साई नचत्वारिंशन योजनशतसहस्राणि द्विपञ्चाशच् अड़तालीस योजन से कुछ अधिक है। जो सूर्याभ बावन्नं च सहस्साई अट्ठ य अडयाले च सहस्राणि अष्ट च अष्टचत्वारिंशद्योजन- विमान की वक्तव्यता है, वह रामग्रतया अभिषेक जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं शतानि किञ्चिद् विशेषाधिक परिक्षेपेण तक यहां वक्तव्य है। केवल सूर्याभ के स्थान पण्णते। जा सूरियाभविमाणस्स वतव्वया प्रज्ञप्तम् । या सूर्याभविमानस्य वक्तव्यता सा पर सोमदेव वक्तव्य है। सा अपरिसेसा भाणियव्वा जाव अभिसेओ, अपरिशेषा भणितव्या यावद् अभिषेकः, नवरं-सोमो देवो ॥ नवरं-सोमः देवः। भाष्य १. सू. २५०-२७७ इस आलापक का भाष्य सू. २७७ के बाद दिया गया है। २५१. संझप्पभस्स णं महाविमाणस्स अहे, सन्ध्याप्रभस्य महाविमानस्य अधः सपक्षं, २५१. सन्ध्यप्रभ महाविमान के नीचे ठीक सीधे सपक्खिं, सपडिदिसिं असंखेज्जाइं जोयण- सप्रतिदिशं असंख्येयानि योजनसहस्राणि तिरछे लोक में असंख्येय हजार योजन का सहस्साइं ओगाहित्ता, एत्थ णं सक्कस्स अवगाह्य, अत्र शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अवगाहन करने पर देवेन्द्र देवराज शक्र के देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो सोमा सोमस्य महाराजस्य सोमा नाम राजधानी लोकपाल महाराज सोम की सीमा नाम की नाम रायहाणी पण्णत्ता-एग जोयण- प्रज्ञप्ता-एक योजनशतसहस्रम् आयाम- राजधानी प्रज्ञप्त है। उसका लम्बाई-चौड़ाई, सयसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं जंबु- विष्कम्भेण जम्बूद्वीपप्रमाणा। वैमानिकानां जम्बूद्वीप-प्रमाण एक लाख योजन है। इसके द्दीवप्पमाणा। वेमाणियाणं पमाणस्स अद्धं प्रमाणस्य अर्ध नेतव्यम्-यावद् उपकारि- प्रासाद आदि का प्रमाण सौधर्मवर्ती प्रासाद आदि नेयव्वं जाव ओवारियलेणं सोलस जोयण- कालयनं षोडशयोजनसहस्राणि आयाम- से आधा है यावत् पीठिका लम्बाई-चौड़ाई में सहस्साई आयाम-विक्खंभेणं, पण्णासं विष्कम्भेण, पञ्चाशदु योजनसहस्राणि पञ्च सोलह हजार (१६०००) योजन और परिधि में जोयणसहस्साइं पंच य सत्ताणउए जोयणसते च सप्तनवति योजनशतं किञ्चिद् विशेषांनं पचास हजार पांच सौ सितानये (५०५६७) योजन किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं पण्णत्तं। परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम्। प्रासादानां चतस्रः से कुछ कम है। उसके प्रासादों की चार पंक्तियां पासायाणं चत्तारि परिवाडीओ नेयवाओ, परिपाट्यः नेतव्याः, शेषा नास्ति। हैं। शेष (सुधर्मा सभा) नहीं है। सेसा नत्थि ॥ २५२. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सोमस्य २५२. 'देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज महारण्णो इमे देवा आणा-उववाय-वयण- महाराजस्य इमे देवाः आज्ञा-उपपात-वचन- सोम की आज्ञा, उपपात, वचन और निर्देश में -निद्देसे चिट्ठति, तं जहा-सोमकाइया इ -निर्देश तिष्ठन्ति, तद् यथा-सोमकायिका रहने वाले देव ये हैं-सोमकायिक, सोमदेवकायिक, वा, सोमदेवयकाइया इ वा, विज्जुकुमारा, इति वा, सोमदेवताकायिका इति वा, विद्युत्- विद्युत्कुमार, विद्युत्कुमारियां, अग्निकुमार, अग्निविज्जुकुमारीओ, अग्गिकुमारा, अग्गि- कुमाराः, विद्युत्कुमार्यः, अग्निकुमाराः, कुमारियां, वातकुमार, वातकुमारियां, चन्द्रमा, सूर्य, कुमारीओ, वायकुमारा, वायकुमारीओ, चंदा, अग्निकुमार्यः, वातकुमाराः, वातकुमार्यः, ग्रह, नक्षत्र और तारारूप। इस प्रकार के जितने सूरा, गहा, णक्खत्ता, तारारूवा-जे यावण्णे चन्द्राः, सूराः, ग्रहाः, नक्षत्राणि, तारारूपा:-ये अन्य देव हैं, वे सब देवेन्द्र देवराज शक्र के तहप्पगारा सव्वे ते तब्भत्तिया, तप्पक्खिया, चापि अन्ये तथाप्रकाराः सर्वे ते तद्भक्तिकाः, लोकपाल महाराज सोम के प्रति भक्ति रखते हैं, तब्भारिया सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो तत्पाक्षिकाः, तभार्याः शक्रस्य देवेन्द्रस्य उसके पक्ष में रहते हैं, उसके वशवर्ती रहते हैं सोमस्स महारण्णो आणा-उववाय-वयण- देवराजस्य सोमस्य महाराजस्य आज्ञा- तथा उसकी आज्ञा, उपपात, बचन और निर्देश निद्देसे चिट्ठति ॥ -उपपात-वचन-निर्देश तिष्ठन्ति। में अवस्थित हैं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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