________________
आमुख
प्रस्तुत शतक का प्रारम्भ दिन-रात के कालमान से होता है। यह ज्योतिश्चक्र का विषय है। दिन और रात की अवधि न्यूनतम १२ मुहूर्त (= ९ घंटा, ३६ मिनट) और अधिकतम १८ मुहूर्त (= १४ घंटा, २४ मिनट) बतलाई गई है, वह क्षेत्र - सापेक्ष है। यह नियम भारत में लागू होता है, किन्तु यूरोप, अमेरिका, दक्षिणी ध्रुव आदि प्रदेशों में लागू नहीं होता।
जैन खगोल के अनुसार मनुष्यलोक में सौरमण्डल गतिशील है। उससे आगे वह अवस्थित है। वहां दिन और रात का परिवर्तन नहीं हैजहां दिन है, वहां दिन है, जहां रात है, वहां रात है।
वैशेषिक दर्शन में सृष्टि और प्रलय का सिद्धान्त मान्य है। सृष्टि और प्रलय का क्रम अनादि है। सृष्टि के पश्चात् प्रलय और प्रलय के पश्चात् सृष्टि होती रहती है। सृष्टि रचना के काल में चार भूतों के परमाणु फिर संहत हो जाते हैं। प्रलयकाल में परमाणु बिखर जाते हैं। आत्मा, परमाणु, काल, दिक और आकाश - ये प्रलयकाल में भी बने रहते हैं।
जैन दर्शन में सृष्टि और प्रलय दोनों मान्य नहीं है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी की सृष्टि और प्रलय से आंशिक रूप में तुलना की जा सकती है। अवसर्पिणी का छठा अर प्रलयकाल जैसा है। उत्सर्पिणी के दूसरे अर से विकास की प्रक्रिया शुरू होती है। यह उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी का क्रम कालचक्र कहलाता है। अवसर्पिणी के पश्चात् उत्सर्पिणी और उत्सर्पिणी के पश्चात् अवसर्पिणी होती रहती है। यह कालचक्रगत परिवर्तन केवल पांच भरत और पांच ऐरावत में होता है। '
जैन दर्शन परिणामि नित्यवादी है। द्रव्य का अस्तित्व समाप्त नहीं होता, इस अर्थ में वह नित्यवादी है। द्रव्य में परिणमन होता रहता है, इस अर्थ में वह परिणामवादी है। द्रव्य और परिणमन को पृथक् नहीं किया जा सकता। अतः उसे परिणामि नित्यवाद का सिद्धान्त मान्य है । इस सिद्धान्त को समझाने के लिए 'किंशरीरत्व' का पाठ' एक निदर्शन है। चावल वनस्पति-जीव का शरीर है। अग्नि पर पका लेने के पश्चात् वह अग्नि-जीव का शरीर हो जाता है। पूर्व परिणाम में वह वनस्पति जीव- शरीर था, उत्तर परिणाम में वह अग्नि जीव शरीर हो गया। उत्तर परिणाम में पूर्व परिणाम नहीं रहता। परिणाम का फल है- - भावान्तर हो जाना। लोहा पृथ्वी - जीव का शरीर है। हो जाते हैं।
हड्डी त्रस जीव का शरीर है।" अग्निस्नात होने पर वे अग्नि- शरीर
--
६
प्रस्तुत शतक में छद्मस्थ और केवली का ज्ञान, आचरण और जीवनचर्या-विषयक अन्तर बहुत सरल पद्धति से समझाया गया है। छदमस्थ और केवली जैनदर्शन के पारिभाषिक शब्द हैं। केवलज्ञान ज्ञान का प्रकर्ष- बिन्दु है। उसकी उपलब्धि होने पर मनुष्य केवली बनता है। छद्मस्थ वीतराग हो सकता है। किन्तु उसका छद्म आवरण विलीन नहीं होता, इसलिए वह ज्ञान के चरमबिन्दु तक नहीं पहुंच सकता। सांख्य दर्शन में कैवल्य शब्द का प्रयोग मिलता है। महर्षि पतञ्जलि के अनुसार केवल चितिशक्ति रहती है, उसका बुद्धि के साथ संबंध शून्य हो जाता है, उस अवस्था का नाम कैवल्य है।"
-
'क्रिया' जैन आचार का प्रमुख विषय है। प्रस्तुत शतक में क्रय-विक्रय आदि अनेक संदर्भों में उसकी चर्चा की गई है।' क्रियावाद के सिद्धान्त पर बहुत सूक्ष्मता से विचार किया गया है। जिन जीवों के शरीर से धनुष्य का निर्माण हुआ, धनुष्य के प्रयोगकाल में वे जीव भी चार क्रिया से पृष्ट होते हैं। यह हिंसाविषयक चिन्तन का अतिसूक्ष्म बिन्दु है।
-
१. भ. ५ / २७ जया णं भंते! दाहिणड्ढे पढमा ओसप्पिणी, तया णं उत्तरड्ढे वि, जया णं उत्तरड्ढे, तया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं पुरत्थिम-पच्चत्थिमे णं नत्थि ओसप्पिणी जाव समणााउसो ?
हंता गोयभा ! जाव समणाउसो ।
द्रष्टव्य - ५ /१९, २९|
२. भ. ५/५११
३. त. सू. भा. वृ. ५/२६ - पूर्वपरिणामोपमर्देन उत्तरपरिणामभवनम् तस्मिंश्चोत्तरपरिणामे
Jain Education International
पूर्वपरिणामस्यासम्भव एव भावान्तरापत्तिफलत्वात् परिणामस्य ।
४. भ. ५/५२१
५. भ. ५/५३|
६. भ. ५/६४-७५, ९४ १०२, १०८ १११ ।
७. पा. यो. द. ४/३४——-पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति ।
८. भ. ५ / १२८-१३५ ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org