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श.७ : उ.६ :सू.१०७-११३
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भगवई
।
एवं चेव । एवं जाव वेमाणियाणं ॥
एवं चैव ! एवं यावद् वैमानिकानाम् ।
हां, होते हैं। इसी प्रकार यावत् वैमानिकों के कर्कशवेदनीय कर्म होते हैं।
११०. अत्थि णं भंते ! जीवाणं अकक्कसवे- अस्ति भदन्त ! जीवानाम् अकर्कशवेदनीयानि ११०.भन्ते ! क्या जीवों के अकर्कशवेदनीय कर्म होते हैं ? यणिज्जा कम्मा कज्जति?
कर्माणि क्रियन्ते? हंता अत्थि ॥ हन्त अस्ति।
हां, होते हैं।
१११. कहण्णं भंते ! जीवाणं अकक्कसवेयणिज्जा कथं भदन्त! जीवानाम् अकर्कशवेदनीयानि १११. भन्ते! जीवों के अकर्कशवेदनीय कर्म किस कारण कम्मा कज्जति? कर्माणि क्रियन्ते?
से होते हैं ? गोयमा ! पाणाइवायवेरमणेणं जाव परिग्गह- गौतम ! प्राणातिपातविरमणेन यावत् परिग्रह- गौतम! प्राणतिपात-विरमण यावत् परिग्रह-विरमण और वेरमणेणं, कोहविवेगेणं जाव मिच्छादसण- विरमणेन, क्रोधविवेकेन यावन् मिथ्यादर्शन- क्रोध विवेक यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य-विवेक से होते सल्लविवेगेणं-एवं खलु गोयमा ! जीवाणं शल्यविवेकेन–एवं खलु गौतम ! जीवानाम् हैं। गौतम ! इस प्रकार जीवों के अकर्कशवेदनीय कर्म अक्ककसवेयणिज्जा कम्मा कज्जति ॥ अकर्कशवेदनीयानि कर्माणि क्रियन्ते। होते हैं।
११२. अत्थि णं भंते! नेरइयाणं अकक्कसवेय- णिज्जा कम्मा कज्जति? णो इणढे समढे। एवं जाव वेमाणियाणं, नवरं -मणुस्साणं जहा जीवाणं ॥
अस्ति भदन्त ! नैरयिकाणाम् अकर्कशवेदनी- ११२. भन्ते ! क्या नैरयिकों के अकर्कशवेदनीय कर्म होते यानि कर्माणि क्रियन्ते? नायमर्थः समर्थः । एवं यावद् वैमानिकानाम्, यह अर्थ संगत नहीं है। इसी प्रकार यावत् वैमानिकों नवरं-मनुष्याणां यथा जीवानाम्। के लिए यही नियम है। विशेष यह है-मनुष्यों की
वक्तव्यता जीवों के समान है।
भाष्य १. सूत्र १०७-११२
और असातवेदनीय का बंध सभी दण्डकों के होता है। प्रस्तुत आलापक में कर्म के दो वर्गीकरण किए गए हैं--कर्कशवेदनीय ।
प्राणातिपात कर्म-बंध का हेतु है, यह सही है। किन्तु प्राणातिपात का कर्म और अकर्कशवेदनीय कर्म । इसके अग्रिम आलापक में सातवेदनीय कर्म
विरमण संवर है, कर्म-निरोध का हेतु है। वह अकर्कश वेदनीयकर्म के बन्ध का और असातवेदनीय कर्म का विमर्श किया गया है। कर्कशवेदनीय और
हेतु कैसे बन सकता है ? इस समस्या से एक नया निष्कर्ष निकलता है कि जहां अकर्कशवेदनीय का संबंध केवल वेदनीय कर्म से नहीं है। उनका संबंध अनेक
संवर है, वहां शुभ योग की प्रवृत्ति का नियम है; जहां शुभयोग की प्रवृत्ति है, वहां कर्मों के वेदन से है। सात वेदनीय और असातवेदनीय का सम्बन्ध वेदनीय कर्म
निर्जरा का नियम है; जहां निर्जरा है, वहां तेरहवें गुणस्थान तक पुण्य-बन्ध का से है। कर्कशवेदनीय कर्म बंध के हेतु प्राणातिपात आदि अठारह पाप है।
नियम है।
संयमी के संवर-सहचारी शुभयोग से जो पुण्य-बंध होता है, वह असातवेदनीय कर्म-बन्ध के हेतु दूसरे को दुःख देना, परिताप देना आदि हैं। अकर्कशवेदनीय कर्म-बंध का हेतु अठारह पापों से विरत होना है। सातवेदनीय
अकर्कशवेदनीय होता है।
अकर्कशवेदनीय का संबंध केवल अघात्यकर्म के साथ ही नहीं है, कर्म-बंध का हेतु प्राणी की अनुकम्पा है। इन बंध-हेतुओं की भिन्नता के आधार पर कर्कश-अकर्कश एवं सात-असात का भेद स्पष्ट होता है।
उसका संबंध घात्य कर्म से भी है। संयमी के कषाय-आश्रव के निमित्त से अभयदेवसूरि ने 'विरमण' का अर्थ 'संयम' किया है।' 'अविरमण'
ज्ञानावरण अदि घात्य कर्मों तथा अशुभ अघात्य कर्मत्रिक का निरन्तर बन्ध
होता रहता है, किन्तु प्राणातिपात का विरमण होने के कारण वह अकर्कशवेदनीय का अर्थ है-असमय। असंयम नैरयिक आदि सभी दण्डकों में उपलब्ध होता है, इसलिए कर्कश वेदनीय कर्म का बन्ध सभी जीवों के होता है। संयम (पूर्ण
होता है। अकर्कशवेदनीय पुण्य कर्म पापानुबन्धी नहीं होता, संसार-परिभ्रमण विरति) का अधिकारी केवल मनुष्य ही है, इसलिए अकर्कश वेदनीय कर्म का .
का हेतु नहीं होता । इसी प्रकार अकर्कशवेदनीय पाप कर्म भी संसार-चक्र की बंध केवल मनुष्य के ही होता है, अन्य किसी दण्डक के नहीं होता। सातवेदनीय था
" वृद्धि का हेतु नहीं बनता । वह सरलता से मुक्त होकर निर्जीर्ण हो जाता है।
सायासाय-वेयणीय-पदं
सातासात-वेदनीय-पदम् ११३. अत्थि णं भंते ! जीवाणं सातावेयणिज्जा अस्ति भदन्त ! जीवानां सातावेदनीयानि कम्मा कज्जति?
कर्माणि क्रियन्ते?
सातासात-वेदनीय-पद ११३. ' भन्ते ! क्या जीवों के सात वेदनीय कर्म होते हैं?
१. भ. वृ.७/१०६ 'पाणाइवायवेरमणेणं' ति संयमेनेत्यर्थः।
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