SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवई ४१ श.३ : उ.२ : सू.६०-६३ भाष्य १. सूत्र ६० किया है। वैकल्पिक रूप में वृद्धों के मत का उल्लेख किया है। उसके अनुसार विकुब्वेमाणा-असुरकुमार देव सौधर्म कल्प तक जाने के लिए 'अलघु' शब्द है। उसका अर्थ है महान् या वरिष्ठ। लघुस्वक शब्द का प्रयोग वैक्रिय शक्ति का प्रयोग कर विशेष प्रकार के शरीर का निर्माण करते हैं। आगम के अन्य स्थलों में भी छोटे के अर्थ में मिलता है। रत्नद्वीप की देवी छोटे जयाचार्य के अनुसार वे सौधर्म कल्पवासी देवों को डराने के लिए भयानक रूप । से अपराध परकुपित हो जाती थी। का निर्माण करते हैं।' धन सार्थवाह के प्रकरण में भी 'लघूस्वका' का प्रयोग मिलता है।' परियारेमाणा-सौधर्म कल्प में जाने का एक हेतु यह है इसलिए वृत्तिकार का मत संगत है। दूसरे देवों की देवियों के साथ भोग करने की इच्छा से असुरकुमार देव सौधर्म असुरकुमार देवों का सौधर्म कल्पवासी देवों के साथ भवप्रत्ययिक कल्प में चले जाते हैं। (वर्तमान भव में जातिगत) वैरानुबन्ध है-यह वाक्य क्या सुर-असुर के संघर्ष आयरक्खे देवे वित्तासेंति-वे असुरकुमार देव आत्मरक्षक देवों की प्रतिध्वनि नहीं है? परिचारणा और रत्नों की चोरी-ये सब वृत्तियां इस को सन्त्रस्त करते हैं। आत्मरक्षक देव हाथ में शस्त्र लिए शिरोरक्षक के रूप में बात की सूचना है कि मनुष्य और देव दोनों ही आचरण की दृष्टि से बहुत भिन्न सदा पीछे खड़े रहते हैं। उन्हें सन्त्रस्त करने के लिए असुरकुमार देव सौधर्म नहीं हैं। मनुष्य हो चाहे देव-चरित्र का विकास साधना के द्वारा ही किया जा कल्प में जाते हैं। सकता है। अहालहुसगाई-वृत्तिकार ने यथालघुस्वक का अर्थ छोटा किया असुरकुमार देवों के सौधर्म कल्प में जाने के अन्य प्रत्यय की पर्चा है। बड़े रत्नों को वे ले जा नहीं सकते; इसलिए प्रकरणवश इसका अर्थ 'छोटा' भ०३/१३१ में की गई है। उसका भाष्य द्रष्टव्य है। ६१. भन्ते! क्या उन देवों के पास छोटे रत्न हैं? ६१. अत्थि णं भंते! तेसिं देवाणं अहालहुसगाइं रयणाइं? हंता अत्थि॥ अस्ति भदन्त! तेषां देवानां यथालघुस्वकानि रत्नानि? हन्त अस्ति। ६२. से कहमिदाणिं पकरेंति? तत् कथमिदानीं प्रकुर्वन्ति? तओ से पच्छा कायं पव्वहंति॥ ६२. ' असुरकुमार देव छोटे रत्नों को चुरा एकान्त में चले जाते हैं। तब वैमानिक देव क्या करते हैं? वैमानिक देव उन असुरकुमार देवों के शरीर को प्रव्यथित करते हैं-शस्त्र प्रहार से आहतकरडालते हैं। ततः तेषां पश्चात् कायं प्रव्यथन्ते। भाष्य १. सूत्र ६२ देवों के सुख ही होता है और नरक जीवों के दुःख ही होता है-यह सामान्य कथन है, किन्तु वास्तविका इससे भिन्न है। वेदना तीन प्रकार की होती है-सात वेदना, असात वेदना, सातासात वेदना। प्रश्न पूछा गया-भन्ते! नैरयिक जीव क्या सात वेदना का वेदन करते हैं? असात वेदना का वेदन करते हैं अथवा सातासात वेदना का वेदन करते हैं? उत्तर दिया गया-ये तीन ही प्रकार की वेदना का वेदन करते हैं। इससे फलित होता है कि देवों में भी असात या दुःख की वेदना होती है। रत्नों को चुराकर ले जाने वाले असुरकुमारों पर सौधर्मकल्पवासी देव प्रहार करते हैं। उससे उन्हें प्रचुर दुःखद वेदना होती है। वह वेदना जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः छह मास तक रह जाती ६३. पभू णं भंते! असुरकुमारा देवा तत्थ गया प्रभवः भदन्त! असुरकुमाराः देवाः तत्र गता- ६३. भन्ते! सौधर्म कल्प में गए हुए असुरकुमार देव उन चेव समाणा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं दिव्वाइं श्चैव सन्तः ताभिः अप्सरोभिः सार्धं दिव्यान् अप्सराओं के साथ दिव्य भोगार्ह भोग भोगने में समर्थ भोगभोगाइं मुंजमाणा विहरित्तए? भोग्यभोगान् भुजानाः विहर्तुम्? णो इणद्वे समढे। ते णं ततो पडिनियत्तंति, नायमर्थः समर्थः। ते ततः प्रतिनिवर्तन्ते, ततः यह बात संगत नहीं हैं। वे वहां से लौट आते हैं। वहां १. भ. जो. १/५६/२१ जिन कहै असुरवैमानिक सुर रे, भव-प्रत्यय जे वैरो। क्रोध करी महारूप विकुर्वे, तास डरावण केरो॥ २. भ. वृ. ३/९०-'अहालहुस्सगाई'त्ति 'यथेत्ति यथोचितानि लघुस्वकानि-अमहास्वरूपाणि, महतां हि तेषां नेतुं गोपयितुं वाऽशक्यत्वादिति यथालघुस्वकानि, अथा- लघूनि- महान्ति वरिष्ठानीति वृद्धाः। ३. नाया. १/६/२६॥ ४. नाया. १/२/३५॥ ५. पण.३५/-११ ६. भ. वृ. ३/६२- एषां रत्नादातृणामसुराणां 'कार्य' देहं 'प्रव्यथन्ते' प्रहारैर्मथ्नान्ति वैमानिका देवाः, तेषां च प्रव्यथितानां वेदना भवति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कृष्टतः षण्मासान्! यावत्। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy