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________________ श. ५ : ३.४ : सू. ११० १११ आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा ओगाहित्ताणं चिट्टित्तए ।। चोदसपुब्बीणं सामत्य-पदं ११२. पभू णं भन्ते ! चोद्दसपुव्वी घडाओ घडसहस्सं, पढाओ पदसहस्सं कडाओ कडसहस्सं, रहाओ रहसहस्सं, छत्ताओ छत्तसहस्सं, दंडाओ दंड सहस्सं अभिनिव्व ट्टेत्ता उवदंसेत्तए ? हंता पभू || १. सूत्र. ११०, १११ प्रस्तुत आलापक में ज्ञान और शक्ति का भेद समझाया गया है। केवली में अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्ति होती है। शक्ति की अभिव्यक्ति का माध्यम शरीर है। शरीर से वीर्य उत्पन्न होता है। वीर्य से योग ( मन, वचन, काया की प्रवृत्ति अथवा चञ्चलता) होता है। योग की प्रवृत्ति काय, वचन और मनोवर्गणा के द्वारा होती है। केवली जिस आकाश-प्रदेश पर हाथ, पैर आदि रखता है, उस स्थान को जानता है फिर भी वीर्य, योग और पौद्गलिक चञ्चलता के कारण दूसरी बार उसी स्थान पर हाथ, पैर आदि नहीं रख सकता हेराक्लाइट्स ने प्रवाह के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। उन्होंने कहा- 'उसी नदी में हम डुबकी लगाते हैं और हम डुबकी नहीं लगाते, क्योंकि कोई भी आदमी दो बार उसी नदी में प्रवेश नहीं कर सकता, वह लगातार अन्दर और बाहर बहती रहती है।'' । ११३. से केणट्टेणं पभू चोद्दसपुब्वी जाव उवदंसेत्तए? गोयमा ! चोट्सपुव्विस्स णं अणताई दव्वाई उक्कारियाभेएवं भिज्यमाणाई लढाई पत्ताई १. भ. १ / १४३, १४४ २. पाश्चात्य दर्शनका ऐतिहासिक विवेचन, पृष्ठ १९ १७० वा ऊरुं वा अवगाह्य स्थातुम् । यह प्रवाह का सिद्धान्त है किन्तु प्रस्तुत आलापक में शारीरिक योग और द्रव्य दोनों के साथ 'स' का प्रयोग प्रासंगिक है। Jain Education International भाष्य 7 चतुर्दशपूर्विणां सामर्थ्य-पदम् प्रभु भदन्त ! चतुर्दशपूर्वी घटात् घट सहस्रं पटात् पटसह कटात् कटसहस्रं रथात रथसहस्रं, छत्रात् छत्रसहस्रं, दण्डात् दण्डसहसम् अभिनित्यं उपदर्शवितुम् ? चञ्चलता का सिद्धान्त प्रतिपादित है। शब्द - विमर्श वीर्यं योग तथा द्रव्य सहित (वीरिय-संजोग सहव्वयाए ) - अभयदेवसूरि ने सदव्वयाए पद के तीन अर्थ किए हैं-१. विद्यमान जीव द्रव्य २. स्वद्रव्य ३. मन आदि की वर्गणा से युक्त । ** औदारिक शरीर प्रयोग बंध की चर्चा में 'वीरियसजोगसद्दव्ययाए' पाठ मिलता है।" वहां अभयदेवसूरि ने द्रव्य का अर्थ 'तथाविध पुद्गल' किया है। प्रस्तुत प्रकरण में द्रव्य का अर्थ पुदगल ही संगत है। तत्त्वार्थ भाव में 'अपायसद्रव्यतया' का प्रयोग मिलता है।' सिद्धसेनगणी ने सद्रव्य का अर्थ 'शोभन द्रव्य' - 'सम्यक्त्व दलिक' किया है। इसमें भी द्रव्य का अर्थ पुद्गल है।" सद्दव्व का अर्थ स द्रव्य भी किया जा सकता है। हन्त प्रभुः । तत् केनार्थेन प्रभुः चतुर्दशपूर्वी याबद् उपदर्शयितुम् ? 'Into the same river we go down and we do not go down, for into the same river no man can enter twice, ever it flows in and flows out."-Heraclitus ३. भ. वृ. ५/ १११ -- वीर्यं वीर्यान्तरायक्षयप्रभवाशक्ति: तत्प्रधानं सयोगं— मानसादिव्यापारयुक्तं यत्सद् — विद्यमानं द्रव्यं जीवद्रव्यं तत्तथा वीर्यसद्भावेऽपि जीवद्रव्यस्य योगान्विना चलनं न स्यादिति, सयोगशब्देन सद्द्रव्यं विशेषितं सदिति विशेषणं च तस्य सदा सत्तावधारणार्थं, अथवा स्वम् आत्मा, तद्रूपं द्रव्यं स्वद्रव्यं ततः कर्मधारयः, अथवा वीर्यप्रधानः गौतम चतुर्दशपूर्विणः अनन्ताणि द्रव्याणि उत्कारिकाभेदेन भिद्यमानानि लब्धानि भगवई में हाथ, पांव, बाहू अथवा सक्थि को अवगाहित कर ठहरने में समर्थ नहीं है। चतुर्दशपूर्वियों का सामर्थ्य-पद ११२. 'भन्ते ! चतुर्दशपूर्वी एक घड़े से हजार घड़े, एक वस्त्र से हजार वस्त्र, एक चटाई से हजार चटाइयां, एक रथ से हजार रथ, एक छत्र से हजार छत्र और एक दण्ड से हजार दण्ड उत्पन्न कर दिखाने में समर्थ हैं? हां समर्थ है। For Private & Personal Use Only ११३. यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है—-चतु देशपूर्वी यावत् एक दण्ड से हजार दण्ड उत्पन्न कर दिखाने में समर्थ है ? गौतम! चतुर्दशपूर्वी को उत्कारिका भेद से भिद्यमान अनन्त द्रव्य लब्ध प्राप्त और अभिसमन्वागत होते सयोगो— योगवान् बीर्यसयोगः स चासौ सद्द्रव्यश्च — मनः प्रभृति वर्गणायुक्तो वीर्यसयोगसद्द्रव्यस्तस्य भावस्तत्ता तया हेतुभूतया । ४. भ. ८/३६९ । ५. भ. वृ. ८ / ३६९ - सन्ति विद्यमानानि द्रव्याणि – तथाविधपुद्गला यस्य जीवस्यासौ सद्द्रव्यः वीर्यप्रधानः सयोगो वीर्यसयोगः । स चासौ सद्रव्यश्चेति विग्रहस्तद्भावस्तत्ता तया वीर्यसयोगसद्द्रव्य तथा, सवीर्यतया सयोगतया सद्द्रव्यतया जीवस्य । ६. त. भा. १ / ११ - निमित्तापेक्षत्वात् अपायसद्द्रव्यतया मतिज्ञानम्। ७. त. सू. १ / ११ -- सद्द्रव्यमिति शोभनानि द्रव्याणि सम्यक्त्वदलिकानि । www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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