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श. ६ : उ. १: सू. १-७
तत्त्वार्थ भाष्यकार ने निर्जरा के दो भेद किए हैं अबुद्धिपूर्वा ओर कुशलमूला । नरक आदि में जो कर्म-फल विपाकजा निर्जरा होती है, वह अबुद्धिपूर्वा है। 'मैं कर्म का शाटन करूं इस प्रकार की बुद्धि नहीं होती, केवल कर्म का विपाक होने पर उसकी निर्जरा होती है, इसलिए वह अबुद्धिपूर्वा है। इस निर्जरा को अकुशलानुबन्धा कहा गया है। तप और परिषह जय से होने वाली लोह का शलाका-कलाप । निर्जरा कुशलमूला होती है। प्रशस्तनिर्जरा की कुशलमूला निर्जरा से तुलना की जा सकती है। अभयदेवसूरि ने प्रशस्त निर्जरा का अर्थ 'कल्याणानुबन्ध निर्जरा किया है। तत्त्वार्थ भाष्य में कुशलमूला निर्जरा के दो प्रकार बतलाये गए हैं— शुभानुबन्धा और निरनुबन्धा। जिस निर्जरा का फल स्वर्ग आदि सुगति हो वह शुभानुबन्धा निर्जरा है। जो निर्जरा साक्षात् मोक्ष का कारण बने, से ऊपर होने वाली चोट । वह निरनुबन्धा निर्जरा है।'
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प्रस्तुत प्रकरण की विस्तृत व्याख्या इसी शतक के १५, १६ वें सूत्र
में प्राप्त है। शब्द-विमर्श
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करण- पर्द
५. कतिविहे णं भंते करणे पणते? गोयमा ! चउव्विहे करणे पण्णत्ते, तं जहामणकरणे, वइकरणे, कायकरणे, कम्मकरणे ॥
६. नेरइयाणं भंते! कतिविहे करणे पण्णते?
गोयमा! चउब्विहे पण, तं जहा-मणकरणे, वइकरणे, कायकरणे, कम्मकरणे ॥
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जैसे—सन के सूत्र से गाढ रूप में बंधा हुआ सूत्र- कलापा
चिकने किए हुए सूक्ष्म कर्म-स्कन्ध— जो परस्पर गाढ रूप में संबद्ध होने के कारण दुर्भेद्य बन जाएं, जैसे मृत्पिण्ड । संसृष्ट किए हुए — निधत्त, जैसे सूत्र से बंधा हुआ
अनित
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अलंघ्य (खिलीभूताइं ) -- जिस कर्म का निश्चित रूप में विपाकोदय हो वह कर्म, निकाचित कर्म ।
महापर्यवसानवाले जिस निर्जरा का फल निर्वाण हो। निरन्तर तेज आघात (परंपराघाएणं ) — परम्पराघात
अहरन (अहिगरणी ) — निहाई; 'एरण' । ' स्थूलकर्मपुद्गल (अहाबायराई )
कर्दमराग से रंगा हुआ गाढे चिकने पंक से लिप्त ।
खंजनराग से रंगा हुआ-सामान्य पंक से लिप्त ।
गाढरूप में किए हुए -----आत्मप्रदेशों के साथ गाढ रूप में बद्धकर्म, और रसघात में परिवर्तन किया गया हो।
असार पुद्गल ।
१. (क) त.सू. भा. बृ. ९/४७- स द्विविधः इति विपाकाभिसम्बन्धः निर्जरया सहैकार्थत्वाद। तद् दैविध्यप्रदर्शनामाह--अबुद्धीत्यादि। तत्राबुद्धिपूर्वः बुद्धिः पूर्वा यस्य कर्म शाटयामीत्येव लक्षणा बुद्धिः प्रथमं यस्य विपाकस्य स बुद्धिपूर्वः न बुद्धिपूर्वाऽबुद्धिपूर्वः, तत्र तयोर्विपाकयोरयं तावदबुद्धिपूर्वः नरक तिर्यङ्मनुष्यामरेषु कर्म ज्ञानावरणादि । तस्य यत् फलमाच्छादकादिरूपं तद्विपाकः - तदुदयस्तस्मात् कर्मफलाद् विपच्यमानाद् यो विनिर्जरणलक्षणो विपाकः । सति तस्मिन् कर्मफले विपच्यमाने स भवत्यबुद्धिपूर्वकः । ..... तपः परीषहजयकृतः कुशलमूलः ।
(ख) त. रा. वा. ९ / ४५ – सा द्वेधा चेति — अबुद्धिपूर्वी कुशलमूला चेति। तत्र नरकादिषु कर्मफलविपाका अबुद्धिपूर्वा, सा अकुशलानुबन्धा। परीषहजये कृते कुशलमूला, सा शुभानुबन्धा
करण-पदम्
कतिविधं भदन्त ! करणं प्रज्ञप्तम् ? गीतम! चतुर्विधं करणं प्रज्ञप्तं तद्यथामनः करणं, वाक्करण, कायकरणं, कर्मकरणम्।
शिथिल रूप में किए हुए जिसका विपाक मन्द किया गया हो। नि:सत्त्व किए हुए- -जो कर्म निःसत्ताक बना दिया गया हो। विपरिणमन को प्राप्त किए हुए जिस कर्म के स्थितिघात
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नैरयिकाणां भदन्त कतिविधं करणं प्र ज्ञप्तम् ?
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गौतम! चतुर्विधं प्रज्ञप्तं तद्यथा मनः करणं, वाक्करणं, कायकरणं, कर्मकरणम्।
७. एवं पंचिंदियाणं सन्वेसिं चउन्विहे करणे एवं पंचेन्द्रियाणाम् सर्वेषां चतुर्विधं करणं पण्णत्ते । एगिंदियाणं दुविहे - कायकरणे य, कम्म
भगवई
प्रज्ञप्तम्। एकेन्द्रियाणां द्विविधम्- कायकरणं च
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स्थूलतर कर्म- पुद्गल,
करण-पद
५. ' भन्ते ! करण के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! करण के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेमनकरण, वचनकरण, कायकरण और कर्मकरण ।
६. भन्ते ! नैरयिक जीवों के करण कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं?
गौतम ! उनके चारों प्रकार के करण प्रज्ञप्त हैं, , जैसे -मनकरण, वचनकरण, कायकरण और कर्मकरण ।
७. इस प्रकार सब पंचेन्द्रिय जीवों के चारों प्रकार के करण प्रज्ञप्त हैं।
एकेन्द्रिय जीवों के करण दो प्रकार के हैं
निरनुबन्धा चेति ।
२. भ. वृ. ६ / १ - प्रशस्त निर्जराक: कल्याणानुबन्धनिर्जरः ।
३. त.सू.भा.वृ. ९/७, पृ. २२० - तादृशो विपाकः शुभमनुबध्नाति, अमरेषु तावदिन्द्रसामानिकादिस्थानानि अवाप्नोति । मनुष्येषु च चक्रवर्तिबलमहामण्डलिकादिपदानि लब्ध्वा ततः सुखपरम्परया मुक्तिमवाप्स्यतीतिशुभानुबन्धोनिरनुबन्धो वेति । वा शब्दः पूर्वविकल्पापेक्षः । तपः परीषहजयकृतो विपाकः सकलकर्मक्षयलक्षणः साक्षान्मोक्षायैव कारणीभवतीति । ४. आप्टे. खिलीभू— To become impassable. ५. अंग्रेजी में anvil.
६. भ. ६ / ४ की वृत्ति ।
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