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भगवई
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श.६ : उ.१: सू.१-४
हता मसमसाविज्जति।
हन्त 'मसमसाविज्जति'। एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं अहा- एवमेव गौतम ! श्रमणानां निर्ग्रन्थानां यथा- बायराई कम्माई, सिढिलीकयाई, निट्ठियाइं बादराणि कर्माणि, शिथिलीकृतानि, निष्ठिकयाई, विप्परिणामियाई खिप्पामेव विद्ध- तानि कृतानि विपरिणामितानि क्षिप्रमेव त्थाई भवंति। जावतियं तावतियं पिणं ते विध्वस्तानि भवन्ति । यावतिकां तावतिवेदणं वेदेमाणा महानिज्जरा, महापज्ज- कामपि ते वेदनां वेदयन्त: महानिर्जरा; महावसाणा भवंति।
पर्यवसाना: भवन्ति।
हां, भस्म हो जाता है। गौतम! इसी प्रकार श्रमण-निर्ग्रन्थों के शिथिल रूप में किए हुए, नि:सत्त्व किए हुए और विपरिणमन को प्राप्त किए हुए स्थूल कर्म-पुद्गल शीघ्र ही विध्वस्त हो जाते हैं। वे जिस-तिस मात्रा में भी वेदना का वेदन करते हुए महानिर्जरा वाले और महापर्यवसान वाले होते हैं।
गौतम ! जैसे कोई पुरुष तपे हुए लोहे के तवे पर पानी की बूंद गिराता है। वह तपे हुए लोहे के तवे पर गिराई हुई पानी की बूंद शीघ्र ही विध्वस्त हो जाती है?
से जहानामए केइ पुरिसे तत्तंसि अयकव- तद् यथानाम कोऽपि पुरुष: तप्ते अयस्कपाले ल्लंसि उदगबिंदु पक्खिवेज्जा, से नूणं उदकबिन्दं प्रक्षिपेत्, तन् नूनं गौतम ! स गोयमा! से उदगबिंदू तत्तंसि अयकवल्लंसि उदकबिन्दुः तप्ते अयस्कपाले प्रक्षिप्त: सन् पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव विद्धंसमा- क्षिप्रमेव विध्वंसमागच्छति? गच्छइ? हंता विद्धंसमागच्छइ।
हन्त विध्वंसमागच्छति। एवामेव गोयमा ! समणाणं निगंथाणं अहा- एवमेव गौतम ! श्रमणानां निर्ग्रन्थानां यथा- बायराई कम्माई, सिढिलीकयाई, निट्ठियाई बादराणि कर्माणि, शिथिलीकृतानि, निष्ठि- कयाई, विप्परिणामियाई खिप्पामेव विद्ध- तानिकृतानि, विपरिणामितानि क्षिप्रमेव त्थाई भवंति। जावतियं तावतियं पिणं ते विध्वस्तानि भवन्ति। यावतिका तावति- वेदणं वेदेमाणा महानिज्जरा, महापज्जव- कामपि ते वेदनां वेदयन्त: महानिर्जराः साणा भवंति। से तेणटेणं जे महावेदणे से महापर्यवसाना: भवन्ति। तत् तेनार्थेन य: महानिज्जरे, जे महानिज्जरे से महावेदणे, महावेदन: स महानिर्जरः, य: महानिर्जर: स महावेदणस्स य अप्पवेदणस्स य से सेए जे महावेदनः, महावेदनस्य च अल्पवेदनस्य च पसत्थनिज्जराए।
स: श्रेयान् य: प्रशस्तनिर्जराकः।
हां, विध्वस्त हो जाती है। गौतम ! इसी प्रकार श्रमण-निर्ग्रन्थों के शिथिल रूप में किए हुए, निःसत्त्व किए हुए और विपरिणमन को प्राप्त किए हुए स्थूल कर्म-पुद्गल शीघ्र ही विध्वस्त हो जाते हैं। वे जिस-तिस मात्रा में भी वेदना का वेदन करते हुए महानिर्जरा वाले और महापर्यवसान वाले होते हैं। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है जो महावेदना वाला है, वह महानिर्जरा वाला है, जो महानिर्जरा वाला है, वह महावेदना वाला है। महावेदना वाले और अल्पवेदना वाले में वह श्रेष्ठ है जो प्रशस्त निर्जरा वाला है।
भाष्य
१. सूत्र १-४
प्रस्तुत आलापक में वेदना और निर्जरा के सम्बन्ध पर विमर्श किया गया है। इस विमर्श में तीन सूत्र प्रस्तुत हैं
१. महावेदना और महानिर्जरा। २. वेदना महान हो या अल्प, जो प्रशस्त निर्जरा है, वह श्रेष्ठ है।
३. कर्म गाढीकृत होता है, तो महावेदना होने पर महानिर्जरा नहीं होती, जैसे-छठी और सातवीं पृथ्वियों के नैरयिकों के महावेदना होती है, पर महानिर्जरा नहीं होती। श्रमण-निर्ग्रन्थ के अल्पवेदना होने पर भी महानिर्जरा होती है। इसका हेतु है कर्म का शिथिलीकृत स्वरूप।
___ 'महावेदना और महानिर्जरा'यह सामान्य नियम है। 'अल्पवेदना और महानिर्जरा'यह इसका अपवाद सूत्र है।
निर्जरा का मूल हेतु है-प्रशस्त अध्यवसाय एवं शुभयोगा निर्जरा
की अत्पता या बहुता उसी पर निर्भर है। उमास्वाति ने अध्यवसाय की प्रकर्षता के आधार पर निर्जरा के तारतम्य का प्रतिपादन किया है
१. सम्यग्दृष्टि से श्रावक के असंख्येयगुना निर्जरा २. श्रावक से विरत के असंख्येयगुना निर्जरा ३. विरत से अनन्तवियोजक के असंख्येयगुना निर्जरा ४. अनन्तवियोजक से दर्शनमोहक्षपक के असंख्येयगुना निर्जरा ५. दर्शनमोह क्षपक से मोहोपशमक के असंख्येयगुना निर्जरा ६. मोहोपशमक से उपशान्तमोह के असंख्येयगुना निर्जरा ७. उपशान्तमोह से मोहक्षपक के असंख्येयगुना निर्जरा ८. मोहक्षपक से क्षीणमोह के असंख्येयगुना निर्जरा ९. क्षीणमोह से जिन के असंख्येयगुना निर्जरा।
शान्तमोहक्षपकगणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जरा:।।
१. त.रा.वा. ९/४५-अध्यवसायविशुद्धि प्रकर्षादसंख्येयगुणनिर्जरात्वं दशानाम्। २, त.सू. ९/४७–सम्यगदृष्टि श्रावकविरतानन्तविमोजक-दर्शनमोहक्षपकोपशमकोप
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