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________________ श.६ : उ.१:सू.४ २३२ भगवई गोयमा ! से जहानामए दुवे वत्था सिया- गौतम ! तद् यथानाम द्वे वस्त्रे स्याताम्- गौतम! जैसे कोई दो वस्त्र हैं—एक वस्त्र कर्दम-राग एगे वत्थे कद्दमरागरत्ते, एगे वत्थे खंजण- एकं वस्त्रं कर्दमरागरक्तम् , एकं वस्त्रं से रंगा हुआ है और एक वस्त्र खंजनराग से रंगा हुआ रागरते। एएसि णं गोयमा ! दोण्हं वत्थाणं खञ्जनरागरक्तम्। एतयो: गौतम ! द्वयोः है। गौतम! इन दोनों वस्त्रों में कौन-सा वस्त्र कठिनता कयरे वत्थे दुद्धोयतराए चेव, दुवामतराए वस्त्रयो: कतरद् वस्त्रं दुर्धीततरकं चैव, सेधुलता है? किस वस्त्रकाधब्बा कठिनता से उतरता चेव, दुपरिकम्मतराए चेव; कयरे वा वत्थे दुर्वाम्यतरकं चैव, दुष्परिकर्मतरकं चैव; है और किस वस्त्र का परिकर्म सम्यक् प्रकार से नहीं सुद्धोयतराए चेव, सुवामतराए चेव, सुपरि- कतरद् वा वस्त्रं सुधौततरकं चैव, होता? कौन-सा वस्त्र सरलता से धुलता है ? किस कम्मतराए चेव; जे वा से वत्थे कद्दमरागरते? सुवाम्यतरकं चैव, सुपरि-कर्मतरकं चैव; यद् । वस्त्र का धब्बा सरलता से उतरता है? और किस जे वा से वत्थे खंजणरागरत्ते? वा तद् वस्त्रं कर्दमरागरक्तम्? यद्वा तद् वस्त्रं वस्त्र का परिकर्म सम्यक् प्रकार से होता है? वह जो खञ्जनरागरक्तम्? वस्त्र कर्दमराग से रंगा हुआ है अथवा वह जो वस्त्र खंजनराग से रंगा हुआ है? भगवं! तत्थ णं जे से कद्दमरागरत्ते, से णं भगवन् ! तत्र यत् तत् कर्दमरागरक्तं, तद् भगवन् ! जो वस्त्र कर्दमराग से रंगा हुआ है, वह वत्थे दुद्धोयतराए चेव, दुवामतराए चेव, वस्त्रं दुर्धीततरकं चैव, दुर्वाम्यतरकं चैव, कठिनता से धुलता है, उसके धब्बे कठिनता से उतरते दुप्परिकम्मतराए चेव, एवामेव गोयमा ! दुष्परिकर्मतरकं चैव, एवमेव गौतम ! हैं और उसका परिकर्म सम्यक् प्रकार से नहीं नेरइयाणं पावाई कम्माई गाढीकयाई, नैरयिकाणां पापानि कर्माणि गाढीकृतानि, होता। गौतम ! इसी प्रकार नैरयिक जीवों के पापकर्म चिक्कणीकयाई, सिलिट्ठीकयाई, खिली- चिक्कणी-कृतानि, श्लिष्टीकृतानि, खिली- गाढ़ रूप में किए हुए होते हैं, चिकने किए हुए होते भूताई भवंति। संपगाढं पि य णं ते वेदणं भूतानि भवन्ति। संप्रगाढामपि च ते वेदनां हैं, संसृष्ट किए हुए होते हैं और अलंघ्य होते हैं। वे वेदेमाणा नो महानिज्जरा, नो महापज्जव- वेदयन्त: नो महानिर्जरा: नो महापर्यवसाना: प्रगाढ़ वेदना का वेदन करते हुए भी महानिर्जरा साणा भवंति। भवन्ति। वाले नहीं होते, महापर्यवसान वाले नहीं होते। से जहा वा केइ पुरिसे अहिगरणिं आउडेमाणे तद् यथा वा कोपि पुरुष: अधिकरणीम् जैसे कोई पुरुष अहरन (निहाई) को तेज शब्द, तेज महया-महया सद्देणं, महया-महया घोसेणं, आकुट्टयन् महता-महता शब्देन, महता- घोष और निरन्तर तेज आघात के साथ हथौडे से महया-महया परंपराघाएणं नो संचाएइ तीसे महता घोषेण, महता-महता परम्पराघातेन पीटता हुआ उस अहरन के स्थूल पुद्गलों का अहिगरणीए के अहाबायरे पोग्गले परि- नो शक्नोति तस्याः अधिकरण्याः कानपि परिशाटन करने में समर्थ नहीं होता, गौतम ! इसी साडित्तए, एवामेव गोयमा! नेरइयाणं पावाई यथाबादरान् पुद्गलान् परिशाटयितुम्, प्रकार नैरयिक जीवों के पापकर्म गाढ़रूप में किए कम्माई गाढीकयाई, चिक्कणीकयाई, एवमेव गौतम ! नैरयिकाणां पापानि कर्माणि ___हुए होते हैं, चिकने किए हुए होते हैं, संसृष्ट किए हुए सिलिट्ठीकयाई, खिलीभूताइं भवंति। संपगाढं गाढीकृतानि, चिक्कणीकृतानि, श्लिष्टी- होते हैं और अलंघ्य होते हैं। वे प्रगाढ़ वेदना का पि य णं ते वेदणं वेदेमाणा नो महानिज्जरा, कृतानि, खिलीभूतानि भवन्ति। संप्रगाढामपि वेदन करते हुए भी महानिर्जरा वाले नहीं होते, नो महापज्जवसाणा भवंति। च ते वेदनां वेदयन्त: नो महानिर्जरा: नो महापर्यवसान वाले नहीं होते। महापर्यवसाना: भवन्ति। भगवं! तत्थ जे से खंजणरागरत्ते, से णं वत्थे भगवन् ! तत्र यत् तत् खञ्जनरागरक्तं, तद् भगवन् ! जो वस्त्र खंजन राग से रंगा हुआ है, वह सुद्धोयतराए चेव, सुवामतराए चेव, सुपरि- वस्त्रं सुधौततरकं चैव, सुवाम्यतरकं ___सरलता से धुलता है। उसके धब्बे सरलता से उतरते कम्मतराए चेव, एवामेव गोयमा! समणाणं चैव,सुपरिकर्मतरकं चैव, एवमेव गौतम ! है, उसका परिकर्म सम्यक् प्रकार से होता है। गौतम! निग्गंथाणं अहाबायराई कम्माई सिढिली- श्रमणानां निर्ग्रन्थानां यथाबादराणि कर्माणि इसी प्रकार श्रमण-निर्ग्रन्थों के शिथिल रूप में किए कयाई, निट्ठियाई कयाई, विप्परिणामियाई शिथिलीकृतानि, निष्ठितानि कृतानि, हुए निःसत्त्व किए हुए और विपरिणमन को प्राप्त खिप्पामेव विद्धत्थाई भवंति। जावतियं विपरिणामितानि क्षिप्रमेव विध्वस्तानि किए हुए स्थूल कर्म-पुद्गल शीघ्र ही विध्वस्त हो तावतियं पिणं ते वेदणं वेदेमाणा महा- भवन्ति। यावतिकां तावतिकामपि ते वेदनां । जाते हैं। वे जिस-तिस मात्रा में भी वेदना का वेदन निज्जरा, महापज्जवसाणा भवंति। वेदयन्त: महानिर्जरा: महापर्यवसाना: करते हुए महानिर्जरा वाले और महापर्यवसान वाले भवन्तिा होते हैं। से जहानामए केइ पुरिसे सुक्कं तणहत्थयं तद् यथानाम कोऽपि पुरुष: शुष्कं तृणहस्तकं । गौतम ! जैसे कोई पुरुष सूखे घास के पूलों को अग्नि जायतेयंसि पक्खिवेज्जा, से नूणं गोयमा ! जाततेजसि प्रक्षिपेत्, तन् नूनं गौतम ! तत् में डालता है। वह अग्नि में डाला हुआ सुखा घास से सुक्के तणहत्थए जायतेयंसि पक्खित्ते शुष्कं तृणहस्तकं जाततेजसि प्रक्षिप्तं सत् का पूल शीघ्र ही भस्म हो जाता है? समाणे खिप्पामेव मसमसाविज्जति? क्षिप्रमेव 'मसमसाविज्जति? Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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