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________________ भगवई अह ते एवं न भवति तो जं वयासी 'दव्वादेसेण वि सव्वपोग्गला सअड्ढा समज्झा सपएसा, नो अणड्ढा अमज्झा अपएसा, एवं खेत्ता - देसेण वि, कालादेसेण वि, भावादेसेण विं' तं णं मिच्छा ॥ २०४. तएषं से नारयपुते अणगारे नियंठि पुत्तं अणगारं एवं वयासीनो खलु एवं देवा - णुप्पिया ! एयमहं जाणामो- पासामो। जइ णं देवाणुप्पियानो गिलायंति परिक हित्तए, तं इच्छामि णं देवाणुप्पियाणं अंतिए एयमहं सोच्चा निसम्म जाणित्तए । २०५. तए णं से नियंठिपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं अणगारं एवं वयासी - दव्वादेसेण वि मे अज्जो ! सव्वे पोग्गला सपएसा वि, अप्पएसा वि अनंता । खेत्तासेण वि मे अज्जो ! सव्वे पोग्गला सपएसा वि, अप्पएसा वि - अनंता । कालादेसेण वि मे अज्जो ! सव्वे पोग्गला सपएसा वि, अप्पएसा वि अनंता । भावादेसेण वि मे अज्जो ! सव्वे पोग्गला सपएसा वि, अप्पएसा वि अनंता । जे दव्वओ अपएसे से खेत्तओ नियमा अपसे, कालओ सिय सपएसे, सिय अपएसे भावओ सिय सपएसे, सिय अपएसे 7 जे खेत्तओ अपएसे से दव्वओ सिय सपएसे, सिय अपएसे, कालओ भयणाए, भावओ भयणाए । जहा खेत्तओ एवं कालओ, भावओ । Jain Education International २०७ अथ ते एवं न भवति ततो यद् वदसि 'द्रव्यादेशेनापि सर्वपुद्गलाः सार्द्धाः समध्याः सप्रदेशाः, नो अनर्द्धा: अमध्या: अप्रदेशा:, एवं क्षेत्रादेशेनापि, कालादेशेनापि, भावादेशेनापि तन्मिथ्या । ततः स नारदपुत्रः अनगारः निर्ग्रन्धीपुत्रम् अनगारम् एवमवादीद् – नो खलु एवं देवानुप्रिया ! एवमर्थम् जानीमः पश्यामः । यदिदेवानुप्रियाः न ग्लायन्ति परिकथयितुम्, तद् इच्छामि देवानुप्रियाणाम् अन्ति एतमर्थम् श्रुत्वा निशम्य ज्ञातुम् । ततः स निर्ग्रन्थीपुत्रः अनगारः नारदपुत्रम् अनगारम् एवमवादीद् — द्रव्यादेशेनापि मे आर्य ! सर्वे पुद्गलाः सप्रदेशा: अपि, अप्रदेशाः अपि — अनन्ताः । क्षेत्रादेशेनापि मे आर्य ! सर्वे पुद्गला: सप्रदेशाः अपि अप्रदेशाः अपि-अनन्ता: । कालादेशेनापि मे आर्य ! सर्वे पुद्गलाः सप्रदेशाः अपि अप्रदेशाः अपि— अनन्ता: । - भावादेशेनापि मे आर्य ! सर्वे पुद्गलाः सप्रदेशाः अपि, अप्रदेशाः अपि-अनन्ताः । यो द्रव्यत: अप्रदेश : स क्षेत्रत: नियमात् अप्रदेश:, कालतः स्यात् सप्रदेशः, स्याद् अप्रदेश, भावतः स्यात् प्रदेशः स्याद अप्रदेशः ॥ यथा क्षेत्रत: एवं कालतः, , यः क्षेत्रतः अप्रदेश: स द्रव्यत: स्यात् सप्रदेशः, स्याद् अप्रदेशः, कालतः भजनया, भावत: भजनया । भावतः । For Private & Personal Use Only श. ५:३.८ : सू.२०३-२०५ तो तुम सप्रदेश है, (अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं है।) यदि तुम्हारे मत में ऐसा नहीं होता है, जो कहते हो कि द्रव्य की अपेक्षा से भी सब पुद्गल स - अर्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं है, इसी प्रकार क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से सब पुद्गल स-अर्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं, तो तुम्हारा मत मिथ्या है। २०४. अनगार नारदपुत्र ने अनगार निर्ग्रन्थीपुत्र से इस प्रकार कहा— देवानुप्रिय ! यदि आपको यह अर्थ बता में किसी प्रकार की ग्लानि न हो, तो मैं देवानुप्रिय के पास इस अर्थ को सुनकर निश्चयपूर्वक जानना चाहता हूँ। २०५. अनगार निर्ग्रन्थीपुत्र ने अनगार नारदपुत्र से इस प्रकार कहा—आर्य! मेरे मत में द्रव्य की अपेक्षा से भी सब पुद्गल सप्रदेश भी हैं और अप्रदेश भी हैं— ऐसे पुद्गल अनन्त हैं। आर्य! मेरे मत में क्षेत्र की अपेक्षा से भी सब पुद्गल सप्रदेश भी हैं और अप्रदेश भी हैं ऐसे पुद्गल अनन्त हैं। आर्य! मेरे मत में काल की अपेक्षा से भी सब पुद्गल सप्रदेश भी हैं और अप्रदेश भी हैं ऐसे पुद्गल अनन्त हैं। आर्य! मेरे मत में भाव की अपेक्षा से भी सब पुद्गल सप्रदेश भी हैं और अप्रदेश भी हैं ऐसे पुद्गल अनन्त हैं। जो पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा से अप्रदेश है, वह क्षेत्र की अपेक्षा से नियमतः अप्रदेश हैं। काल की अपेक्षा से वह स्वात् सप्रदेश है, स्यात् अप्रदेश है। भाव की अपेक्षा से वह स्यात् सप्रदेश है, स्यात् अप्रदेश है। जो पुद्गल क्षेत्र की अपेक्षा से अप्रदेश है, वह द्रव्य की अपेक्षा से स्यात् सप्रदेश है, स्यात् अप्रदेश है। काल की अपेक्षा से भजना है- - वह स्यात् सप्रदेश है, स्यात् अप्रदेश है। भाव की अपेक्षा से भजना है - वह स्यात् सप्रदेश है, स्यात् अप्रदेश है। जैसे क्षेत्र की दृष्टि से अप्रदेश की वक्तव्यता है, वैसे ही काल और भाव की दृष्टि से भी अप्रदेश की वक्तव्यता है। www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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