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भगवई
२१५
श.५: उ.८: सू.२२५-२३४
से रहित होते हैं? जघन्यत: एक समय, उत्कर्षत: छह मास ।
जहण्णेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं छ मासा ॥ जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण षण्मासान्।
भाष्य
१. सूत्र २२५-२३३
प्रस्तुत आलापक में जीवों के उपचय और अपचय से सम्बन्धित चार विकल्पों का निर्देश है। उपचय का अर्थ है वृद्धि, अपचय का अर्थ है हानि। उपचय, अपचय दोनों का न होना अवस्थिति है। फिर पूर्व आलापक
और इसमें क्या अन्तर है? वृत्तिकार ने यह प्रश्न उपस्थित कर उसका समाधान भी दिया है। उनके अनुसार वृद्धि, हानि का सम्बन्ध परिमाण से है और उपचय, अपचय का सम्बन्ध उत्पाद और उद्वर्तन से है। इसीलिए तृतीय भंग (सोपचय-सापचय) में वृद्धि, हानि और अवस्थिति—ये तीनों समाहित हैं। बहुतर का उत्पाद होने पर वृद्धि, बहुतर का उद्वर्तन होने पर हानि तथा सम उत्पाद और उद्वर्तन होने पर अवस्थिति होती है।
एकेन्द्रिय जीव तृतीय पद में वक्तव्य हैं। उनमें एक साथ उत्पाद और उद्वर्तन होता रहता है। केवल उत्पाद, केवल उद्वर्तन और विरहकाल नहीं होता, इसलिए शेष तीन पद उनमें संभव नहीं हैं।
द्वीन्द्रिय से लेकर सभी जीवों में पण्णवणा में प्रतिपादित विरहकाल (वक्कंति-काल) वक्तव्य है। यह अवस्थिति-काल अथवा निरुपचय-निरपचय-काल है। इस अवस्था में उपचय, अपचय दोनों नहीं होते।
सिद्ध एक समय से लेकर आठ समय तक निरन्तर उत्पन्न हो सकते हैं। उसके पश्चात् उनका विरह-काल होता है। उसकी अवधि जघन्य एक समय, उत्कृष्ट छह मास होती है।
२३४. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति।।
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।
२३४. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है।
१. भ.वृ. ५/२२५--ननूपचयो वृद्धिरपचयस्तु हानि:, युगपवयमद्यं वाऽवस्थित्वं, एवं च शब्दभेदव्यतिरेकेण कोऽनयोः सूत्रयोर्भेद:? उच्यते, पूर्वत्र परिमाणमभिप्रेतम्, इह तु तदन- पेक्षमुत्पादोद्वर्त्तना मात्र ततश्चेह तृतीयभनके पूर्वोक्तवृद्ध्यादि विकल्पानां त्रयमपि स्यात् तथाहि- बहुतरोत्पादे वृद्धिर्बहुतरोद्वर्त्तने च हानि:, समोत्पादोद्वर्तनयोश्चावस्थितत्वमित्येवं भेद इति।
२. वही, ५/२२५ ---'एगिंदियातइयपए' ति सोपचयसापचया इत्यर्थः युगपदुत्पादोद्वर्तनाभ्यां वृद्धिहानिभावात्, शेषभनकेषु तु ते न संभवन्ति, प्रत्येकमुत्पादोद्वर्तनयोस्तद्विरहस्य चाभावादिति। ३. वहीं, ५/२३१-निरुपचयनिरपचयेषु 'वक्तंतिकालो भाणियचो त्ति विरहकालो वाच्यः।
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