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भगवई
५२. अह पं भंते अड्डी, अडिन्झामे, चम्मे, चम्मज्झामे, रोमे, रोमज्झामे, सिंगे, सिंगज्झामे, खुरे, खुरज्झामे, नखे, नखज्झामे- - एए णं किंसरीरा ति वत्तव्वं सियार
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गोयमा ! अट्टी, चम्मे, रोमे, सिंगे, खुरे, नखे --- एए णं तसपाणजीवसरीरा अट्ठिज्झामे, चम्मज्झामे, रोमज्झामे, सिंगज्झामे, सुरज्झामे, खज्ञामे एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च तसपाणजीवसरीरा । तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया ।।
अथ भदन्त अक्कारः, क्षारकं, दुसं, गोमयम्
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५४. अह णं भंते! इंगाले, छारिए, भुसे, गोमएएए णं किंसरीरा ति वत्तव्वं सिया ? गोयमा इंगाले छारिए, भुसे, गोगए— ! एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च एगिंदियजीवसरीरप्पयोगपरिणामिया वि जाव पंचिदिवजीवसरीरययोगपरिणामिया विन्द्रियजीवशरीर प्रयोगपरिणामिताः अपि ।
एते किंशरीराः इति वक्तव्यं स्यात् ? गौतम! अकारः, क्षारकं, बुसं, गोमयम्एते पूर्वभावप्रज्ञापनां प्रतीत्य एकेन्द्रियजीवशरीरप्रयोगपरिणामिताः अपि यावत् पञ्चे
तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया ।।
१. प्र. सा. ८
परिणमदि जेण दव्वं, तक्कालं तम्मयत्ति पण्णत्तं ।
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अथ भदन्त ! अस्थि, अस्थि'ज्ज्ञामे', चर्म, चर्म 'ज्झामे', रोम, रोम 'ज्झामे', शृंगः, श्रृंग'ज्झामे', खुरं, खुर'ज्झामे', नखः, नख' ज्झामे' एते किंशरीरा: इति वक्तव्यं स्यात् ?
गौतम ! अस्थि, चर्म, रोम, श्रृंगः, क्षुरं, नख:- • एते त्रसप्राणजीवशरीराः । अस्थि'ज्झामे', चर्म 'ज्झामे', रोम 'ज्झामे', श्रृंग ज्झामे', खुर' ज्झामे', नख'ज्झामे' - एतानि पूर्वभाव - प्रज्ञापनां प्रतीत्य त्रस - प्राणजीवशरीराणि ततः पश्चात् शस्त्रातीतानि यावद् अग्निजीव- शरीराणि इति वक्तव्यं स्यात् ।
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२. तवानुशासन, १९०
१. सूत्र ५१-५४
प्रस्तुत आलापक में परिणामवाद अर्थात् तद्रूप अथवा तन्मय पर्यायवाद का निरूपण है। इस सिद्धान्त का प्रयोगदर्शन और ध्यान दोनों क्षेत्रों में होता है। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार द्रव्य जिस भाव में परिणत होता है, तत्काल वह तन्मय बन जाता है।' आत्मा जिस भाव में परिणत होता है, उस भाव के साथ तन्मय हो जाता है। यह ध्यान का सिद्धान्त है।
वह
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पूर्व पर्याय में जो वनस्पति-जीव का शरीर था, वह अग्निरूप में परिणत होकर अग्नि-जीव का शरीर बन जाता है। यह उत्तरवर्ती पर्याय है। यह पर्याय- प्रवाह का एक निदर्शन है। कोई भी द्रव्य एक रूप में नहीं रहता। उसमें पर्याय का प्रवाह सतत् गतिशील है। इसी सिद्धान्त के अनुसार वनस्पतिजीव, अप्काय-जीव, पृथ्वी जीव और त्रसकाय जीव के शरीर अग्नि- जीव के शरीर-रूप में बदल जाते हैं।
ततः पश्चात् शस्त्रातीताः यावद् अग्निजीवशरीराः इति वक्तव्यं स्यात् ।
भाष्य
श. ५ : ३.२ : सू. ५१-५४
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५३. भन्ते । अस्थि, दग्ध अस्थि, चर्म, दग्ध धर्म, रोम, दध रोम, सींग, दग्ध सींग, खुर, दग्ध खुर, नख और दग्ध नख इन्हें किन जीवों का शरीर कहा जा सकता है?
गौतम ! अस्थि, चर्म, रोम, सींग, खुर और नख ये प्राण जीवों के शरीर हैं। दग्ध अस्थि, दग्ध चर्म, दग्ध रोम, दग्ध सींग, और दग्ध दग्ध खुर नख - ये पूर्व पर्याय- प्रज्ञापन की अपेक्षा त्रस-प्राण जीवों के शरीर है। उसके पश्चात् शस्त्रातीत यावत् अपि रूप में परिणत होने पर इन्हें अग्नि-जीवों का शरीर कहा जा सकता है।
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५४. भंते! अंगार, राख, बुसा और गोबर इन्हें किन जीवों का शरीर कहा जा सकता है? गौतम! अंगार, राख, दुसा और गोबर ये पूर्वपर्याय- प्रज्ञापन की अपेक्षा से एकेन्द्रिय जीवों द्वारा भी शरीर प्रयोग में परिणमित भी है, यावत् पंचेन्द्रिय जीवों द्वारा भी शरीर प्रयोग में परिचमित है उसके पश्चात् वे शस्त्रातीत यावत अग्नि रूप में परिणत होने पर उन्हें अग्नि-जीवों का शरीर कहा जा सकता है।
पर्याय- परिवर्तन से होने वाले भावान्तर की चर्चा न्याय और वैशेषिक दर्शन में भी मिलती है। अग्नि के संयोग से पृथ्वी में कुछ गुणविशेष का प्रादुर्भाव होता है। इसे 'पाकजगुण' कहा जाता है। उनके अनुसार जल, वायु और अग्नि में पाकज गुण नहीं होता।
पाकज गुण परमाणुओं के भीतर पैदा होता है या अवयवी द्रव्य में? इस प्रश्न को लेकर नैयायिकों और वैशेषिकों में मतभेद है। वैशेषिकों का मत है कि अग्नि का संयोग होने पर घट के समस्त परमाणु पृथक्-पृथक् हो जाते हैं और फिर नवगुणोपेत होकर (पककर) वे संलग्न होते हैं। इस मत का नाम 'पीलुपाक' है।
नैयायिक इस मत का विरोध करते हैं। उनका कहना है कि यदि घट के सभी परमाणु अलग-अलग हो गये, तब तो घट का विनाश ही हो गया। दुबारा परमाणुओं के जुटने से एक दूसरे ही घट का अस्तित्व माना
परिणमते येनात्मा भावेन सतेन तन्मयो भवति ।
अर्हद् ध्यानाविष्टो भावार्हन् स्यात् स्वयं तस्मात् ॥
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