________________
भगवई
१. सूत्र २५३ शब्द-विमर्श
ग्रहदण्ड- मंगल आदि तीन-चार ग्रहों की तिरछी लम्बी श्रेणी । " ग्रहमुशल- ग्रहों की ऊंची लम्बी श्रेणी ।
ग्रहगर्जित- ग्रहों के संचार से होने वाला शब्द । ग्रहयुद्ध - दो ग्रहों का आमने-सामने समश्रेणी में अवस्थान होना । जीवाजीवाभिगमवृत्ति के अनुसार एक ग्रह का दूसरे ग्रह के मध्य होकर जाना ।
ग्रहशृङ्गाटक - ग्रहों का सिंघाड़े के रूप में अवस्थित होना । ग्रहापसव्य - ग्रहों का प्रतिकूल दिशा में गमन ।
अभ्र - बादल ।
अभ्रवृक्ष-वृक्ष के रूप में परिणत बादल ।
गन्धर्वनगर - आकाश में होने वाले नगर के आकार में प्रतिबिम्व । *
उल्कापात - उल्का (टूटा हुआ तारा) की वृष्टि। यह आकाश में एक प्रकाश-रेखा के रूप में दिखाई देती है।
दिग्दाह - किसी दिशा में नीचे अन्धकार और ऊपर प्रकाश दिखाई दे, जो जलते हुए महानगर के प्रकाश जैसा प्रतीत हो। " यूपक शुक्ल पक्ष के प्रथम तीन दिनों में जिनसे सन्ध्या का विभाग आवृत हो जाता है, वे 'यूपक' कहलाते हैं।" जयाचार्य ने इसे 'सन्ध्या का फूलना' कहा है।
निशीथ - चूर्णि के अनुसार सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रमा की प्रभा दोनों मिश्रित हो जाते हैं, उसका नाम यूपक है।
यक्षोद्दीप्त- आकाश में होने वाला प्रकाश वृत्तिकार के अनुसार आकाश में व्यन्तर द्वारा कृत प्रकाश
धूमिका, महिका - ये दोनों पाला या कुहासा के नाम हैं। इसमें धूमिका धूसर रंगवाली और महिका सफेद वर्णवाली होती है।"
६६
१. भ. वृ. ३/२५३ - दण्डा इव दण्डाः- तिर्यगायताः श्रेणयः ग्रहाणां मंगलादीनां त्रिचतुरादीनां दण्डा ग्रहदण्डाः ।
२. वही, ३/२५३ - ग्रहयुद्धानि ग्रहयोरेकत्र नक्षत्रे दक्षिणांतरेण समश्रेणितयाऽवस्थानानि । ३. जीवा, वृ. प. २८२ - ग्रहयुद्धं यदेको ग्रहोज्न्यस्य ग्रहस्य मध्येन याति ।
४. भ. वृ. ३/२५३- गन्धर्वनगराणि' आकाशे व्यन्तरकृतानि नगराकारप्रतिविम्बानि । ५. वही ३/२५३- 'उल्कापाताः सरेखाः सोद्योता वा तारकस्येव पाताः ।
६. वही ३ / २५३ - दिग्दाहा: ' अन्यतमस्यां दिशि अधोऽन्धकारा उपरि च प्रकाशात्मका दह्यमानमहानगरप्रकाशकल्पाः ।
७. वही ३/२५३- 'जूवय'ति शुक्लपक्षे प्रतिपदादि दिनत्रयं यावयेः सन्ध्याछंदा आब्रियन्ते ते यूपकाः ।
८. (क) भ. जो. १/६६ / ६१
शुक्लपक्ष रे मांय ।
पडवादिक जे दिन तिहुं संध्या फूले रे ते धूप कहाय ॥
Jain Education International
भाष्य
रज-उद्यात दिशाओं का रजोमय होना।
चंद्र- परिवेश - चन्द्रमण्डल, चन्द्र के चारों ओर दिखलाई पड़ने वाला वलयाकार प्रकाश समूह ।
सूर्य परिवेश सूर्यमण्डल, सूर्य के चारों ओर दिखलाई पड़ने
श. ३ : उ.७ सू.२५३
वाला वलयाकार प्रकाश समूह ।
प्रतिचन्द्र- द्वितीय चन्द्र ।
प्रतिसूर्य- द्वितीय सूर्य
उदकमत्स्य- इन्द्रधनुष्य का एक खण्ड ।
कपिहसित - बिना बादलों के आकाश में बिजली का अकस्मात् कोंधना । मतान्तर के अनुसार बानरमुख के समान किसी विकृत मुख वाले का हंसना ।
अमोघा - सूर्य के उदय और अस्त के समय सूर्य की किरणों से होने वाले दण्ड । इनका आकार गाड़ी की 'ओधि' अथवा जूए के आकार के सदृश होता है, जिसका आगे का भाग संकड़ा और पीछे का भाग चौड़ा होता है। विस्तृत जानकारी के लिए द्रष्टव्य दसवे. ५/१/३ का टिप्पण। उनका वर्ण थोड़ा रक्त और श्याम होता है। वातोद्धम अनवस्थित वायु
वातोत्कलिका समुद्र में हर जैसी वायु वातमंडलिका और वातावर्त
उत्कलिकाबात जो वायु लहर बनाती हुई चलती है। मंडलिकावात - जो वायु वर्तुलाकार चलती है। गुज्जाबात जो वायु शब्द करती हुई चलती है। झंझावात वर्षा के साथ चलने वाली वायु वृत्तिकार ने इसका अर्थ अशुभ और निष्ठुर वायु लिया है। T
संवर्तकवात-तृण आदि को उड़ा देने वाली वायु ।
व्यसनभूत- आपदारूप। अनार्य-अनिष्ट ।
अमुय - अस्मृत ।
(ख) स्था. वृ. प. ४५१ - स्थानांग वृत्ति में सन्ध्याप्रभा और चन्द्रप्रभा की युगपत् अवस्थिति को 'यूपक' कहा है। विशेष विस्तार के लिए ठाणं १०:२०, २१ का टिप्पण द्रष्टव्य है।
६. नि. नू. ७०३ - संझप्मभा चंदप्पभा य जेण जेण जुगवं भवति तेण जुगवी। १०. भ. वृ. ३/२५३ - जक्खलित्तय'ति' 'यक्षोद्दीप्तानि आकाशे व्यन्तरकृतज्वलनानि । ११. वही ३/२५३ - धूमिकामहिकयोर्वणकृती विशेषः तत्र धूमिका धूम्रवर्णा धूसरा इत्यर्थः महिका त्यापाण्डुति।
१२. वही ३/२५३ - 'कविहसियत्ति अनश्रेया विद्युत् सहसा तत कपिहसितम् अन्य त्वाहुः - कपिहसितं नाम यदाकाशे वानरमुखसदृशस्य विकृतमुखस्य हसनम् ।
१३. वही, ३/२५३- अमोधा आदित्योदयास्तमययोरादित्यकिरणविकारजनिताः 'आताम्राः ' कृष्णाः श्यामा वा शकटोद्धिसंस्थिता दण्डा इति ।
१४. वही, ३/२५३- 'झञ्झावाता:' अशुभनिष्ठुराः ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org