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श.५: उ.५: सू.११६-१२३
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भगवई
भाष्य
१. सूत्र ११६-१२१
जैन कर्म-शास्त्र के अनुसार कर्म का वेदन एवंभूत और अनेवंभूत दोनों प्रकार से होता है। अभयदेवसूरि ने एवंभूत वेदना के सिद्धान्त की समीक्षा की है। उनके अनुसार दीर्घकाल में अनुभवनीय आयुष्य कर्म अल्पकाल में भोग लिया जाता है। अकाल मृत्यु सर्वजन-प्रसिद्ध है। यदि अकाल मृत्यु को मान्य न किया जाए तो महा संग्राम आदि में होने वाली लाखों मनुष्यों की मृत्यु की व्याख्या कैसे की जा सकती है? अनेवंभूत
वेदना के समर्थन में उन्होंने आगमिक आधार प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार आगम में कर्म के स्थिति-घात और रस-घात का प्रतिपादन है। स्थितिघात का अर्थ है कर्म की स्थिति में परिवर्तन । रस-घात का अर्थ है कर्म के विपाक में परिवर्तन।
यहाँ 'अन्ययूथिक' पद के द्वारा बौद्ध दर्शन विवक्षित है। उनके अनुसार कर्म का वेदन एवंभूत होता है। द्रष्टव्य भ. १/२३,२४ का भाष्य।
कुलकर आदि-पद
कुलगरादि-पदं १२२. संसारमंडलं नेयव्वं ।।
कुलकरादि-पदम् संसार-मण्डलं नेतव्यम्।
१२२. संसार-मण्डल ज्ञातव्य है।
१. संसार-मंडल
यह सांकेतिक पाठ है। समवाओ में इसका पूरा विवरण मिलता है। द्रष्टव्य-समवाओ, प्रकीर्णक समवाय, सूत्र २१८-२४७ ।
१२३.सेवं भंते! सेवं भंते ! तिजाव विहरइ ॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावद् विहरति।
१२३. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है, इस प्रकार कह भगवान् गौतम यावत् विहार करते हैं।
५. भ.वृ. ५/११६ हि यथा बद्धं तथैव सर्वं कर्मानुभूयते, आयुः कर्मणो व्यभिचारात्, तथाहि---दीर्घकालानुभवनीयस्याप्यायु:कर्मणोऽल्पीयसाऽपि कालेनानुभवो भवति, कथमन्यथाऽपमृत्युल्यपदेश: सर्वजनप्रसिद्धः स्यात्? कथं वा महासंयुगादी जीवलक्षणामत्येक
दैव मत्यरुपपद्यतेति? २. वही. ५/११७-यथा बद्ध कर्म नवभूता अनेवभूता अतस्ता श्रूयन्ते ह्यागमे कर्मण: स्थितिघातरसघातादय इति।
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