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________________ श.७ : उ.१ : सू.२४ ३३६ भगवई आहारमाहारेमाणे ओमोदरिए, बत्तीसं कुक्कु- मात्रान् कवलान् आहारमाहरन् अवमोदरिकः, डिअंडगपमाणमेते कवले आहारमाहारेमाणे द्वात्रिं-शत् कुक्कुट्यण्डक प्रमाणमात्रान् कवपमाणपत्ते, एत्तो एक्केण वि घासेणं ऊणगं लान् आहारमाहरन् प्रमाणप्राप्तः एतस्माद् आहारमाहारेमाणे समणे निग्गंथे नो पकामर- एकेनापि ग्रासेण ऊनकम् आहारमाहरन् सभोईति वत्तव्वं सिया। श्रमणः निर्ग्रन्थः नो प्रकामरसभोजीति वक्तव्यं स्यात् । एस णं गोयमा ! खेत्तातिक्कंतस्स, काला- एष गौतम ! क्षेत्रातिक्रान्तस्य, कालातितिक्कंतस्स, मग्गातिक्कंतस्स, पमाणा- क्रान्तस्य, मार्गातिक्रान्तस्य, प्रमाणातिक्रान्तस्य तिक्कंतस्स पाण-भोयणस्स अट्ठे पण्णत्ते ॥ पान-भोजनस्य अर्थः प्रज्ञप्तः । करने वाला अवमोदरिक कहलाता है और मुर्गी के अण्डे जितने बत्तीस कवल का आहार करने वाला प्रमाणप्राप्त कहलाता है। इससे एक ग्रास भी कम आहार करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ प्रकामरस-भोजी नहीं कहलाता। गौतम ! क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त, मार्गातिक्रान्त और प्रमाणातिक्रान्त पान-भोजन का यह अर्थ है। भाष्य १. सूत्र २४ की दृष्टि से किया गया है। निशीथ भाष्य में पश्चिम प्रहर का अर्थ 'चरम प्रहर' अतिक्रमण के चार प्रकार बतलाए गए हैं किया गया है। निशीथ चूर्णिकार ने 'चरम' का अर्थ 'चतुर्थ' किया है। वैकल्पिक १. क्षेत्रातिक्रान्त-मूरज उगने के पहले आहार ग्रहण कर सूरज रुप में प्रथम प्रहर की अपेक्षा द्वितीय प्रहर पश्चिम, द्वितीय प्रहर की अपेक्षा उगने के बाद खाना। कप्पो (बृहत्कल्प)' और निसीहज्झयण' में कालातिक्रान्त तृतीय प्रहर पश्चिम और तृतीय प्रहर की अपेक्षा चतुर्थ प्रहर को पश्चिम बतलाया तथा क्षेत्रातिक्रान्त-इन दो पदों का उल्लेख है, मार्गातिक्रान्त का पृथक् उल्लेख गया है। बृहत्कल्प भाष्य और मलयगिरि-वृत्ति में भी इन दोनों मतों का नहीं है। बृहत्कल्प भाष्य में अर्धयोजन की सीमा से आगे लाए गए भोजन को उल्लेख है। क्षेत्रातिक्रान्त बतलाया गया हैं। भगवती तथा कप्पो (बृहत्कल्प) और ३. मार्गातिक्रान्त-अर्ध योजन (यानी २ कोश) से अधिक दूरी निसीहज्झयणं में विद्यमान यह मत-भिन्नता विमर्शनीय है। अभयदेवसरि ने तक आहार ले जा कर वहां उसे खाना, मागातिक्रान्त अतिक्रमण है। क्षेत्र का अर्थ 'तापक्षेत्र'-दिन किया है। सूर्योदय से पहले ले कर सूर्योदय के ४. प्रमाणातिक्रान्त- मनुष्य की प्रकृति भिन्न-भिन्न होती है। पश्चात् आहार करना-इसका संबंध 'कालातिक्रान्त' के साथ होना चाहिए। उसके आधार पर आहार की मात्रा भी भिन्न-भिन्न होती है; सबकी समान नहीं इस विषय में कप्पो (बृहत्कल्प) का रात्रिभोजन का आलापक तथा । होती। फिर भी एक सामान्य अनुपात बतलाया जाता है। बत्तीस कवल खाना निसीहज्झयणं' का 'दिवारात्रि भोजन' आलापक द्रष्टव्य है। आहार का समुचित प्रमाण है। इससे अधिक खाना प्रमाणातिक्रान्त आहार है। २. कालातिक्रान्त-प्रथम प्रहर में ग्रहण किया हुआ आहार पश्चिम कवल का प्रमाण भी स्पष्ट किया गया है। ओवाइयं में आहार के प्रमाण द्रव्य प्रहर में खाना 'कालातिक्रान्त' होता है। कालातिक्रान्त भोजन का निषेद्य संचय अवमोदरिका के प्रसंग में बतलाए गए हैं।१० १ कप्पो, ४/१२, १३ । २. निसीह. १२/३१, ३२ । ३.बृ.क. भा. भाग ५, गा. ५२६३, पृ. १४०० भावस्स उ अतियारो, मा होज्ज इती तु पत्थुते सुत्ते । कालस्स य खेत्तस्स य, दुवे उ सुत्ता अणतियारे ॥ ४. भ. वृ. ७/२४-क्षेत्रं-सूर्यसम्बन्धी तापक्षेत्रं दिनमित्यर्थः । ५. कप्पो, ५/६-६ ६. निसीह०११/७५-७६ । ७. भ. वृ. ७/२४-कालं दिवसस्य प्रहरत्रयलक्षणमतिक्रान्तं कालातिकान्त। ८.नि. भा. चु. गा. ४१४१ ---दिवसस्स पढमपोरिसीए भत्तपाण धेत्तुं चरिमं ति चउत्थपोरिसी तं जो संपावेति तस्स चउलहुं आणादिया य दोसा । चिट्ठतु ताव चउत्थपोरिसी, पढमातो बीया चरिमा, वितियाओ ततिया चरिमा, ततियाओ चउत्थी चरिमा। ९.बृ. क. भा. भाग ५, गा. ५२६४-६५ वितियाउ पढम पुट्विं, उवातिणे चउगुरुं च आणादी। दोसा संचय संसत्त दीह, साणे य गोणे य॥ अगणि गिलाणुच्चारे, अब्भुट्ठाणे य पाहुण णिरोधे। सन्झाय विणय काइय, पयलंत पलोट्टणे पाणा ॥ आस्ता तावत् पश्चिमा चतुर्थी पीरुषी किंतु द्वितीयायाः पीरुष्याः प्रथमाऽपि पूर्वा भाष्यते प्रथमायाश्च द्वितीया पाश्चात्या, एवं तृतीयाया द्वितीया पूर्वा द्वितीयायास्तृतीया पाश्चात्या, चतुर्थ्यास्तृतीया पूर्वा तृतीयस्याश्चतुर्थी पश्चिमा। ततः प्रथमायाः पीरुष्या द्वितीयायामशनादिकमतिकामयतश्चतुर्गरुकम, आज्ञादयश्य दोषाः। १० .ओवा. सू. ३३-से किं तं ओमोदरियाओ ? ओमोदरियाओ दुविहा पण्णत्ताओ, तं जहा- दब्बोमोदरिया य भावोमोदरिया य। से किं तं दब्बोमोदरिया? दब्बोमोदरिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-उवगरणदव्योमोदरिया य भत्तपाणदब्बोमोदरिया य। __से किं तं उदगरणदव्योमोदरिया उवगरणदव्योमोदरिया तिविहा पण्णता, तं जहाएगे बत्थे, एगे पाए, चियत्तोवकरणसाइज्जणया। से तं उवगरणदब्बोमोदरिया। से कि त भत्तपाणदव्योमोदरिया ? भत्तपाणदव्योमोदरिया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहांअठ्ठ कुक्कडअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे अप्पाहारे, दुवालस कुक्कुडअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे अवड्ढोमोदरिए, सोलस कुक्कुडअंडगप्पमाणमेते कवले आहारमाहारेमाणे दुभागपत्तोमोदरिए, चउवीस कुक्कुडअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे पत्तोमोदरिए, एक्कतीसं कुक्कुडअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे किंचूणोमोदरिए, बत्तीस कुक्कुडअंडगणमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे पमाणपत्ते, एत्तो एगेण वि घासेणं ऊणय आहारमाहारेमाणे समणे णिगंथे णो पकामरसभोइ ति बत्तव्व सिया। से तं भत्तपाणदव्योमोदरिया। से तं दव्योमोदरिया। से किं तं भावोमोदरिया ? भावोमोदरिया अणेगविहा पण्णता, तं जहा-अप्पकोहे, अप्पमाणे, अप्पमाए, अप्पलोहे, अप्पसदे, अप्पझंझे। से तं भावोमोदरिया। से तं ओमोदरिया ॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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