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। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।।
।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।।
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।।
।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
। चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक :१
जैन आराधना
न
कन्द्र
महावीर
कोबा.
॥
अमर्त
तु विद्या
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355
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-
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भारत भैषज्य रत्नाकर ए (चतुर्थो भाग)
20x2
रसवैद्य नगीनदास छगनलाल शाह.
ऊंझा (गुजरात).
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* सत्यकी रक्षाके लिये *
यह प्रकट कर देना उचित प्रतीत होता है
इस ग्रन्थके तीसरे और चौथे भागकी तैयारीमें
मेरी अर्धाङ्गिनी
yuuildinmuniadimanvitatuns
u
minium
RitadharatnikitmtitlyHIRA IL MENTamilyinuuminiu mium
श्रीमती सुशीलादेवी, विदुषी विशारदा
LOTAMImummunityamire Multin timdimLLINDAR
बहुत अधिक परिश्रम किया है
पुस्तकके टाइटिल पर मेरा अकेले का नाम होना केवल
पुरुष स्वभावकी ज्यादता का द्योतक है ।
वैध गोपीनाथ भिषग्रन
हल्दौरनिवासी
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मङ्गलाचरणम्
भ
(पृ. २ से २८१ तक. )
मकारादि कषाय प्रकरणम् २
२४
३९
५२
५३
६०
६२
९१
१२४
""
"2
" गुग्गुलु
अवलेह
पाक
ܕܕ
"
""
""
,"
"
""
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धूप
,, धूम्र
15
17
33
""
चूर्ण
गुटिका
37
19
घृत
तैल
आसवारिष्ट
लेप
11
अञ्जन
नस्य
रस
कल्प
मिश्र
चूर्ण
गुटिका
" गुग्गुलु
अवलेह
19
"
"
,
"
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17
ܕܕ
"
17
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19
य
(पृ. २८१ से ३२० तक . )
यकारादि कपाय प्रकरणम् २८१
२८६
२९३
२९४
२९९
59
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ܙܕ
""
',
19
"
विषयानुक्रमणिका
यकारादि घृत प्रकरणम् ३००
तैल
३०३
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"
" धूप
"
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"
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22
29
75
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71
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"
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आसवारिष्ट
लेप
31
अञ्जन
नस्य
रस
मिश्र
गुग्गुलु
अवलेइ
घृत
तैल
आसवारिष्ट
लेप
धूप
धूम्र
अञ्जन
नस्य
""
रस
मिश्र
,"
"2
17
77
29
""
19
र
(पृ. ३२१ से ४६३ तक . )
१३२ रकारादि कषाय प्रकरणम् ३२१
१४७
चूर्ण
३३६
१४९
गुटिका
३४२/
१५०
३४७
१५३
३४८
व
१५५
३५१
५६३ से ८२१ तक.
२६८
३५६
३६४ वकारादि कषाय प्रकरणम् ५६३.
२६९
चूर्ण
३६८
३७३
गुटिका
३७४
३७४
३७८
"
ܙܕ
.
79
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""
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""
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99
"
17
,,
39
ल
(पृ. ४६४ से ५६२ तक. )
३०६ लकारादि कषाय प्रकरणम् ४६४
३०७
४६८
३०९
४७७
३१०.
४८१
३१०
४८२
३१०
३१९/
३७९
४५८
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"
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"
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""
39
""
35
"
" रस
22
17
"
39
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चूर्ण
गुटिका
35
गुग्गुल
अवलेह
” गुग्गुलु
"
घृत
तैल
आसवारिष्ट
लेप
अञ्जन
नस्य
मिश्र
• अवलेह
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घृत
तैल
आसवारिष्ट
लेप
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"
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29
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29
17
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11
"
39
17
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४८४
४८९
४९७
५००
५०४
.५०५
५०६
५५८
""
५८५
६०८
६१७
६२१
६३३
६५२
६८१
६८५
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विषयानुक्रमणिका.
" अञ्जन
८८३
वकारादि धूप प्रकरणम् ६९१/१५ कास श्वासहिक्का , ८३८४० मूर्छा
८७४ , धूम्र , ६९१/१६ कुष्ठ वातरक्त रक्तविकार ८४०४१ मूत्रकृच्छ्र मूत्राघात,, ८७४ , ६९२/१७ कृमि रोग ८४४४२ मेद रोग
८७४ , नस्य , ६९५१८ क्षय, राजयक्ष्मा ८४५४३ यकृत्प्लोहा , ६९६/१९ गण्डमाला गलगण्ड ८४७४४ रक्तपित्त
८७७ , ६९७२० गलरोग ८४८४५ रसायन , ८१६/२१ गुल्म
८४९४६ वात व्याधि २२ ग्रहणी रोग ८५०४७ विद्रधि
८८७ चिकित्सापथप्रदर्शिनी २३ छर्दि ८५२४८ विरेचनाधिकार पृ. ८२३ से ९०१ तक २४ ज्वर
८५३४९ विषरोग ८८८ १ अग्निमांद्याजीर्ण २५ ज्वरातिसार ८६१५० विसर्प
८८९ विषूचिका ८२६/२६ तृषा
८६२/५१ व्यधिकार ८८९ २ अतिसार ८२७/२७ दन्त रोग ८६२/५२ व्रण
८९० ३ अपस्मार ८२९२८ दाह ८६३/५३ शिरोरोग ८९२ ४ अम्लपित्त ८३०२९ नासा रोग ८६३५४ शीतपित्त ५ अरोचक ८३०३० निद्रा नाश ८६४५५ शूल ६ अर्बुद ८३१३१ नेत्ररोग ८६४५६ शोथ ७ अर्श ८३१३२ पाण्डु ८६६५७ श्लीपद
८९५ ८ अश्मरि ८३२३३ प्रमेह ८६७५८ स्त्रीरोग ८९५ ९ आमवात ८३३३४ बाल रोग ८६९५९ स्नायुकरोग ८९८ १० उदररोग ८३४३५ भगन्दर ८७१६० हृदयरोग ११ उदावत ८३५३६ भग्नरोग ८७१६१ मिश्राधिकार १२ उपदंश ८३६३७ मदात्यय ८७२६२ धातु तथा विषोपविष१३ उरःक्षत ८३७३८ मलावरोध
शोधन मारण। ८९९ १४ कर्ण रोग ८३७३९ मुख रोग
८९३
८९८
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.
PROD.000000000000000000
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
.........mel
चतुर्थो भागः
॥ श्री धन्वन्तरये नमः ॥
अथ मङ्गलाचरणम्
प्रणम्य परमात्मानं सच्चिदानन्दविग्रहम् । रत्नाकरस्य भागोऽसौ चतुर्थः सम्प्रकाश्यते ॥ दृष्ट्वा गदगृहीतान्हि प्राणिनोऽनुजिघृक्षया । ग्रन्थप्रकाशनपरा प्रवृत्तिरियमादृता ॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
-
अथ मकारादिकषायप्रकरणम् (४९७६) मञ्जिष्ठादिक्वाथः (१) जो कुष्ठी गलरोग, चक्षुरोग और मुख ( वृ. नि. र. त्वग्दो.; वृ. नि. र. वातरक्ता.; रोगादिसे पीड़ित हो या जिनकी नासिका आदि भा. प्र. म. खं. कुष्ठा.; यो. चि. म. अ. ४; गिर गई है। उनको भी इससे शीघ्र ही आराम हो ग. नि. कुष्ठा. ३६)
जाता है । मञ्जिष्ठापिचुमन्दचन्दनघनच्छिन्नागवाक्षीविषा- (४९७७) मनिष्ठादिकाथः (२) प्रायन्तीत्रिवृतासनविरजनीभूनिम्बपाठापैः। (यो. र. आगन्तुकज्वर; ग. नि.' ज्वरा.) गायत्रीत्रिफलापटोलकटुकाकीटद्विषत्पर्पटै- मञ्जिष्ठाशिखिबालबिल्वकशठीशुण्ठीकरअनिशारुपावल्गुजया सवत्सकयुतैःक्वाथं विदध्याद्भिषक् त्रायन्तीबृहतीषोषणकणाकाथस्तु पेपीयते । कण्डूमण्डलपुण्डरीककिटिभैः पामाविचर्चिव्रणैः यः प्रातः प्रणिधाय लक्षितगदैः सद्वैद्यराट् सनिधी सिध्मश्वित्रविसर्पददरकसैाप्ताः प्रसुप्तत्वचः । तस्यापि प्रशमं व्रजन्ति सहसा सर्वाङ्गजा व्याधयः।। ये चान्ये गलरोगचक्षुवदनघ्राणच्युताः कुष्ठिनः मजीठ, चीतामूल, बेलगिरी, कचूर, सेठ, प्राप्येनं तु महाकषायमचिरात्स्युःकामरूपान्विताः। करञ्जकी छाल, हल्दी, त्रायमाना, बनभंटा (बड़ी
मजीठ, नीमको छाल, लालचन्दन, नागर- कटेली), वासा, कालीमिर्च और पोपलका काथ मोथा, गिलोय, इन्द्रायणकी जड़, अतीस, त्रायमाना, पीने से सर्वाङ्गगत रोग (ज्वरादि) नष्ट होते हैं। निसोत, असना वृक्षकी छाल, दोनों प्रकारकी हल्दी
(यह क्वाथ सन्निपात ज्वरके लिये विशिष्ट हैं) ( हल्दी, दारु हल्दी ), चिरायता, पाठा, बासा,
(४९७८) मञ्जिष्ठादिकाथः (३) खैरकी छाल, हर्र, बहेड़ा. आमला, पटोल (परवल,)
(र. का. धे. कुष्ठा. ४०) कुटकी, बायबिडंग, पित्तपापड़ा, बच, बाबची और
मनिष्ठा खदिरं कुठं बाकुची देवदारुकम् । इन्द्रजौ समान भाग लेकर काथ बनावें। यह काथ कण्डू (खाज), मण्डल, पुण्डरीक |
पाठापर्पटयष्टयावकटुकाराजवृक्षकम् ।।
सहदेवी निम्बविम्बा बदरी वृषभोऽमृता । कुष्ठ, किटिभकुष्ठ, पामा, विचर्चिका (खुजली), व्रण,
वचा करआकाकोली मञ्जिष्ठाख्यकषायकः ॥ सिध्म, श्वित्रकुष्ठ, विसर्प, दाद और रकसा तथा सुन्नबहरी ( सुप्तता) आदि समस्त कुष्ठेको नष्ट
___मजीठ, खरसार, कूठ, बाबची, देवदारु,
१. गद निग्रहमें हल्दीका अभाव है
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कषायप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः
पाठा, पित्तपापड़ा, मुलैठी, कुटकी, अमलतास, । (४९८०) मञ्जिष्ठादिकाथः (मध्यम) (५) सहदेवी, नीमकी छाल, कन्दूरी, बेरीकी छाल, वासा, (वृ. यो. त. त. १२०; भा. प्र. म. खं. कुष्ठा.) गिलोय, बच, करञ्जकी छाल और काकोली समान मञ्जिष्ठा वाकुची चक्रमर्दत्वपिचुमन्दकः । भाग लेकर काथ बनावें।
| हरीतकी हरिद्रा च धात्री वासा शतावरी ॥ यह काथ कुष्ठको नष्ट करता है। | बला नागवला यष्टी मधुकं क्षुरकोऽपि च । (४९७९) मञ्जिष्ठादिकाथः (मध्यम) (४) पटोलस्य लतोशीरं गुडूची रक्तचन्दनम् ॥ (यो. त. त. ४१; व. से. कुष्ठा.; वृ. यो. मञ्जिष्ठादिरयं काथः कुष्ठानां नाशनः परः । त. त. ९१)
| वातरक्तस्य संहर्ता कण्डूमण्डलखण्डनः ॥ मञ्जिष्ठारिष्टवासात्रिफलदहनकं द्वे हरिद्रे गुडूची मजीठ, बाबची, पांड, दालचीनी, नीमको भूनिम्बो रक्तसारः सखदिरकटुका बाकुची छाल, हर्र, हल्दी, आमला, बासा, सतावर, बला
व्याधिधातः।। (खरैटो), नागबला ( गुलसकरी), मुलैठी, ताल मूर्वादन्तीविशालाकृमिरिपुजटिलात्रायमाणः । मखाना, पटोल, खस, गिलोय और लाल चन्दन
सपाठा समान भाग लेकर क्वाथ बनावें ।। श्यामानन्तापटोलैः समरिचमगधैः साधितोऽयं
यह काथ वातरक्त, कण्डू, मण्डल और समस्त
कुष्ठांको नष्ट कर देता है।
कवायः॥ पीतो हन्यात्समस्तान्सकल
(४९८१) मञ्जिष्ठादिकाथः (लघु) (६) तनुगतानतजातान्विकारान् ।
(शा. ध. ख. २.; वृ. यो. त. त. १२०;
वृ. नि. र.; भा. प्र. वातरक्ता.) कण्डूविस्फोटकादीनलसक
मभिष्ठा त्रिफला तिक्ता वचा दारु निशाऽमृता। विषमश्चित्रपामादिदोषान् ॥
निम्बश्चैषां कृतः काथः वातरक्तविनाशनः ॥ मजीठ, नीमकी छाल, बासा, हर्र, बहेड़ा, | आमला, चीता, दोनों हल्दी (हल्दी, दारुहल्दी),
पामाकपालिकाकुष्ठरक्तमण्डल जिन्मतः ॥
मजीठ, हर्र, बहेड़ा, आमला, कुटकी, बच, गिलोय, चिरायता, लालचन्दन, खैरसार, कुटकी,
देवदारु, हल्दी, गिलोय और नीमकी छाल समान बाबची, अमलतास, मूर्वा, दन्तीमूल, इन्द्रायणमूल,
भाग लेकर काथ बनावें। बायबिडंग, बालछड़, त्रायमाना, पाठा, काली |
- यह काथ वातरक्त, पामा, कपालिकाकुष्ठ और निसोत, अनन्तमूल, पटोल, काली मिरच और पीपल रक्तमण्डलको नष्ट करता है। समान भाग लेकर काथ बनावें ।
। (४९८२) मञ्जिष्ठादिकाथः (वृद्ध) (७) ___ यह काथ कण्डू, विस्फोटक, अलसक, स्वित्र
( मञ्जिष्ठादिचतुःषष्टिक ) और पामा इत्यादि समस्त रक्तविकारोंको नष्ट (वृ. नि. र. त्वग्दो.; वृ. यो. त. त. १२०; करता है।
यो. चि, म. अ. ४)
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४
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
[ मकारादि
मञ्जिष्ठा त्रिफला प्रियङ्गुरमृता ब्राह्मी वचा भाग लेकर सबको मिट्टी के पात्र में मन्दाग्नि पर itori |पकाकर अष्टमांशावशेष काथ बनावें । यह काथ वातरक्त, वातपित्त और अठारह प्रकारके कुष्ठों को नष्ट करता है ।
भृङ्गाख्यस्त्रिकटुः किरातक विषानिर्गुण्डिकारण्यधाः। त्रायती खदिरं कटुत्वचकीपीताद्वयं रोहिणी तिक्तापर्पटवास केन्द्र फलिनीनन्ताविशालागदम् ।। rous पिचुमन्दचित्रकवरीभार्गीमलेन्द्रीशटी पिल्वानीघवमूलपाडल त्रिवृत्तेजस्विनीवाल कम् दन्तीमूलपलाशचन्दनयुगं मुण्डी विडङ्ग त्वचौ अर्केयोररणी (?) करअध्वयोः पर्णानि मूलानि च क्षुद्राव । द्वयदेवदारुजलदाकहारकं कोलकमेभिःसिद्धमिमं पटोलसहितं क्वाथं चतुषष्टिकम्। अष्टांशेन विपाचयेच्च मतिमान्पक्त्वाऽल्पमृद्भाजने शतावरीत्रायमाणाकृष्णेन्द्रयववासकैः ॥ पीत्वा हन्ति खुडं सपित्तपवनं कुष्ठानि
( ४९८३) मञ्जिष्ठादिकाथः (वृहत् ) (८) (यो. त. त. ६२; वृ. यो. त. त. १२०; यो. र. वात; यो त त. ४१; शा. सं. नं. २ अ. २; वृ. नि. र. वातरक्ता; यो चि. म. अ. ४; भा. प्र. कुष्ठा.)
मञ्जिष्ठामुस्तकुटजगुडूची कुष्ठनागरैः । भार्गी क्षुद्रावचानिम्ब निशाद्वयफलत्रिकैः ॥ पटोलकटुकामूर्वाविडङ्गासनचित्रकैः ।
भृङ्गराजमहादारुपाठाखदिरचन्दनैः : । चाष्टादश || | त्रिद्वरुणकै रातबाकुचीकृतमालकैः ||
मजीठ, हर्र, बहेड़ा, आमला, फूलप्रियङ्गु, शाखोद कम हानिम्बकरअतिविषाजलैः । इन्द्रवारुणिकानन्तासारिवापर्पटैः समैः ॥ एभिः कृतं पिवेत्क्वार्थं कणागुग्गुलुसंयुतम् । अष्टादशसु कुष्ठेषु वातरक्तार्दिते तथा ॥ उपदंशे श्लीपदे च प्रसुतौ पक्षघात के | मेदोदोषे नेत्ररोगे मञ्जिष्ठादिः प्रशस्यते ||
गिलोय, ब्राह्मी, बच, पोखरमूल, भंगरा, सोंठ, मिर्च, पीपल, चिरायता, अतीस, संभालु, अमलतास, त्रायमाना, खैरसार, कुडेकी छाल, पाठा, हल्दी, दारुहल्दी, कुटकी, मूर्वा, पित्तपापड़ा, बासा, इन्द्रजौ, मेंहदी, अनन्तमूल, इन्द्रायनकी जड़, कूठ, अरण्डमूल, नीमकी छाल, चीता, शतावर, भारंगी, मलेन्द्री (?), कचूर, पीलुके फल, धवकी जड़, पाइल, निसोत, मालकंगनी, सुगन्धवाला, दन्तीमूल, ढाक ( पलास) की छाल, सफेद चन्दन, लाल चन्दन, मुण्डी, बायबिडंग, आककी जड़की छाल, अरणीकी छाल, करन और धक्के पत्ते तथा मूल, छोटी और बड़ी कटेली, देवदारु, नागरमोथा, लालकमल, कोल और पित्तपापड़ा ये ६४ ओषधियां समान
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मजीठ, नागरमोथा, कुड़े की छाल, गिलोय, कूठ, सोंठ, भरंगी, कटेली, बच, नीमकी छाल, हल्दी, दारूहल्दी, हर्र, बहेड़ा, आमला, पटोल, कुटकी, मूर्वा, बायबिडंग, असना वृक्षकी छाल, चीतामूल, सतावरे, त्रायमाना, पीपल, इन्द्रजौ, वासा, भंगरा, देवदारु, पाठा, खैरसार, लाल चन्दन, निसोत, धरना, चिरायता, बाबची, अमलतास, शाखोट वृक्ष ( सिहोड़ा ) की छाल, बकायनकी
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चतुर्थी भागः
कंपाप्रकरणम् ]
छाल, करञ्जकी छाल, अतीस, सुगन्धवाला, इन्द्रायगकी जड़, अनन्तमूल, सारिवा और पित्तपापड़ा समान भाग लेकर काथ बनावें ।
इसमें शुद्ध गूगल और पीपलका चूर्ण मिलाकर पीने से अठारह प्रकार के कुष्ठ, वातरक्त, उपदंश, स्लीपद, प्रसुप्ति ( सुन्नबहरी), पक्षाघात, मेदोदोष और नेत्ररोग नष्ट होते हैं ।
मञ्जिष्ठादिन कार्षिककाथः ( वृ. यो त त ९१ )
प्र. सं. ३३४९ “ नवकार्षिक काथ" देखिये (४९८४) मण्डूकपर्ण्यादिकाथः (वै. म. र. पटल १६ ) मण्डूकपर्णीमरिचकुलत्थैः साधु साधितः । कषायः पीनसार्तिनः कोषणाम्बु पिवतां नृणाम्॥
मण्डूकपर्णी (ब्राह्मी), काली मिर्च और कुलथी का मन्दोष्ण काथ पीनेसे पीनस नष्ट होती है । (४९८५) मण्डूकपर्ण्यादि रसायनम् ( च. द. रसायना. ६५ ) मण्डूकपर्ण्याः स्वरसः प्रयोज्यः क्षीरेण यष्टीमधुकस्य चूर्णम् । रसो गुडूच्यास्तु समूलपुष्प्याः
कल्कः प्रयोज्यः खलु शङ्खपुष्ष्याः ॥ आयुःप्रदान्यामयनाशकानि
लग्नवर्णस्वरवर्धनानि । मेध्यानि चैतानि रसायनानि
मेध्या विशेषेण तु शङ्खपुष्पी ॥ मण्डूकपर्णी (ब्राह्मी) का स्वरस अथवा दूधके साथ मुलैठीका चूर्ण या गिलोय का रस अथवा पुष्प और मूल सहित शंख पुष्पीका कल्क सेवन करनेसे
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समस्त रोग नष्ट होते और आयुकी वृद्धि होती है । ये समस्त प्रयोग बल, अग्नि और स्वरकी वृद्धि करने वाले, मेध्य और रसायन हैं । विशेषतः शंखपुष्पी बुद्धिवर्द्धक है ।
(४९८६) मण्डूकीरसयोगः (वै. म.रे. पटल १० )
मधुना निशया धात्र्या क्षीरेण वा मिश्रितः प्रगे पीतः । स्यान्मण्डूकी स्वरसः कामलिनां हितकरो नृणाम् ॥ प्रातःकाल मण्डूकपर्णी के स्वरसमें शहद या हल्दी का चूर्ण अथवा आमला या दूध मिलाकर पीना कामला में हितकारी है ।
(४९८७) मदनफलादियोगः (१) ( व. से. अपस्मारा. ) मदनस्य च वीजानि चूर्णयित्वा तथैव च । पण्डितकस्य चाल्पस्य कषैकं पेषयेज्जले || ततोsस्य पानमात्रेण नश्यतेऽपस्मृतिर्गदः ॥
छोटे मैनफलके १| तोला बीजों को पानी में पीसकर पिलानेसे अपस्मार नष्ट होता है ।
(४९८८) मदनफलादियोगः (२) (व. से. विसर्प ; ग. नि. विसर्पा. ३९ ) मदनं मधुकं निम्बं वत्सकस्य फलानि च । मञ्च विधातव्यं विसर्पे कफसम्भवे ॥
कफज विसर्प रोग में मैनफल, मुलैठी, नीमकी छाल और इन्द्र जौसे वमन करानी चाहिये । (४९८९) मदयन्तिकादिप्रक्षालनम् ( रा. मा. स्त्रीरोगा . ) मदयन्तिकाश्वगन्धामोचरसैः साधितं जलं
स्त्रीणाम् ।
प्रक्षालनेन योनेः सद्यः शैथिल्यमपहरति ॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
मल्लिका (नेवारी), असगन्ध और मोचरसके मूर्वा यष्टिरयं काथो दाहं मूछी तृषां भ्रमम् । काथसे धोनेसे योनिकी शिथिलता नष्ट हो जातो है। रक्तपित्तज्वरं हन्ति निपीतो मधुना सह ।। (४९९०) मदयन्तिकामूलकषायः । मुलैठी, दालचीनी, कूठ, नीलोत्पल, लालच(ग नि. रक्तपित्ता. ८)
| न्दन, बच, हर्र, बहेड़ा, आमला, धमासा, वासा, मदयन्तिकमूलस्य कषायः पूतशीतलः। - मुनक्का, सिरसकी छाल, पद्माक, मूर्वा और मुलैठी शर्करामधुसंयुक्तो रक्तपित्तप्रणाशनः ॥ समान भाग लेकर काथ बनावें। ____ मदयन्तिका ( मल्लिका ) की जड़के काथको । इसमें शहद मिलाकर पीनेसे दाह, मूर्छा, छानकर ठण्डा करके उसमें खांड और शहद मिला- तृषा, भ्रम, रक्तपित्त और ज्यरका नाश होता है । कर पीनेसे रक्तपित्त नष्ट होता है।
(४९९४) मधुकादिक्वाथः (१) (४९९१) मधुकादिकषायः (१)
(भै. र. ज्वरा.) (ग. नि. ज्वरा. १)
| मधुकं गुडूची तिक्ता एला पर्पटकं तथा । मधुकं त्रायमाणां च पिप्पलीमूलमेव च ।।
प्रत्येक शाणमानेन तिक्ताया अर्द्धशाणकम् ॥ किराततिक्तकं मुस्तं पर्पटं सबिभीतकम् ॥
सार्धतोलकमेवश्च स्वर्णपत्र्याच ग्राहयेत् । सशर्कर पीतमेतत्पित्तन्वरनिबर्हणम् ॥
मत्स्याण्डिकायास्तोलश्च प्रक्षिप्य पाययेद्भिषक् ॥ ___मुलैठी, त्रायमाना, पीपलामूल, चिरायता, नाग- वातपित्तज्वरं घोरं नाशयेन्नात्र संशयः । रमोथा, पित्तपापड़ा और बहेड़ा समान भाग लेकर रसायनकते चापि ज्वरो यश्च न हीयते ।। काथ बनावें। इसमें मिश्री डालकर पिलानेसे पित्त- ज्वरं नाशयेदेतद वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥ ज्वर नष्ट होता है।
मुलैठी, गिलोय, कुटकी, इलायची और पित्त(४९९२) मधुकादिकषायः (२) ।
पापड़ा ५-५ माशे; कुटकी २॥ माशे और सनाय ( वृ. नि. र. जीर्णज्वरा.; व. से. ज्वरा.)
| १॥ तोला लेकर काथ बनावें। मधुकारग्वधद्राक्षातिक्ताया सफलत्रिकैः।। सपटोलैर्जलं भेदि ज्वरं इन्ति त्रिदोषजम् ॥
। इसमें १ तोला खांड मिलाकर पिलानेसे मुलैठी, अमलतास, मुनक्का, कुटकी, त्रिफला | भयंकर वातपित्तज्वर अवश्य नष्ट हो जाता है । और पटोल पत्रका काथ पीनेसे मल निकल जाता जो ज्वर रसायन प्रयोगांसे भी नहीं मिटता है और सन्निपातञ्वर नष्ट होता है. वह इससे अवश्य नष्ट हो जाता है। (४९९३) मधुकादिकषायः (३) (४९९५) मधुकादिकाथा (२) (वृ. नि. र. जीर्णज्वर.)
(भै. र. ज्वरा.) मधुकं वल्कलं कुष्ठमुत्पलं चन्दनं वचा। मधुकं चन्दनं मुस्तं धात्री धान्यमुशीरकम् । त्रिफला दुर्लभा वासा द्राक्षा शिरीषं पद्मकम् ॥ छिन्नोद्भवं पटोलश्च क्वाथः समधुशर्करः ।
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चतुर्थो भागः
euroserणम् ]
ज्वरमष्टविधं हन्ति सन्तताद्यं सुदारुणम् । बातिकं पैतिकञ्चैव श्लैष्मिकं सान्निपातिकम् ॥
मुलैठी, लालचन्दन, नागरमोथा, आमला, धनिया, खस, गिलोय और पटोल समानभाग लेकर काथ बनावें ।
इसमें शहद और खांड मिलाकर पीने से सन्ततादि घोर ज्वर तथा वातज पित्तज कफज और सन्निपात आदि आठां प्रकारके ञ्वर नष्ट होते हैं। (४९९६) मधूकादि कल्कः (व. से. रक्तपित्ता.) कल्कं मधूकत्रिफलार्जुनानां निशि स्थितं लोह - मये सुपात्रे । साज्यं विद्यिानुपिवेत्सुशीतं सशर्करं छागपयः क्षुधार्त्तः ॥ महुवा, हर्र, बहेड़ा, आमला और अर्जुनकी छाल समान भाग लेकर सबको पानीमें पीसकर रातको लोहे के स्वच्छ पात्र में रखदें और प्रातःकाल इसमें घी मिलाकर रोगी को चटावें तथा भूख लगनेपर बकरीके ठण्डे दूध में मिश्री मिलाकर पिलावें । इस प्रयोगसे रक्तपित्त नष्ट होता है । ( मात्रा - १ तोला )
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७
(४९९८) मधूकादिफाण्टः [१] ( शा. ध. खं. २ अ. ३; वृ. नि. र. वातपि ज्वरा. भा. प्र. म. खं. ज्वरा.; व. से. ज्वरा. ) मधूकपुष्पं मधुकं चन्दनं सपरूषकम् । मृणालं कमलं लोध्रं गम्भारीं नागकेशरम् ॥ त्रिफलां सारिवां द्राक्षां लाजान् कोष्णे जले क्षिपेत् । सितामधुयुते पेयः फाण्टो वाऽसौ हिमोथ वा ॥ वातपित्तज्वरं दाहं तृष्णामूर्च्छारविभ्रमान् । रक्तपित्तमिदं हन्यान्नात्र कार्या विचारणा ॥
महुवे के फूल, मुलैठी, लाल चन्दन, फालसेकी छाल, कमलनाल, कमलपुष्प, लोध, खम्भारी, नागकेसर, हर्र, बहेड़ा, आमला, सारिवा, मुनक्का और धान की खील समान भाग लेकर सबको (६ गुने) मन्दोष्ण पानी में भिगोदें और थोड़ी देर बाद मलकर छान लें। इसमें अथवा इन ओषधियोंके शीत कषाय में मिश्री और शहद मिलाकर पीनेसे वातपित्तज्वर, दाह, तृष्णा, मूर्च्छा, अरति, भ्रम और रक्तपित्त अवश्य नष्ट हो जाते हैं ।
(४९९९) मधूकादिफाण्ट (२) ( शा. ध. खं. २ अ. ३ ) मधूकपुष्पगम्भारीचन्दनोशीरधान्यकैः । द्राक्षया च कृतः फाण्टः शीतः शर्करया युतः ॥ (भा. प्र. म. खं. योनिरोगा.; व. से. स्त्रीरोगा . ) तृष्णापित्तहरः प्रोक्तो दाहमूर्च्छाभ्रमान् जयेत् ॥ मधूकचन्दनोशीरसारिवापद्मपत्रकैः । शर्करामधुसंयुक्तैः कषायो गर्भिणीज्वरे ॥
(४९९७) मधूकादिकषायः
महुवे फूल, खम्भारी (कुम्हार) की छाल, लालचन्दन, खस, धनिया और मुनक्का समान भाग लेकर फांट बनावें ।
महुवा, लालचन्दन, खस, सारिवा और कमके पत्ते समान भाग लेकर काथ बनाकर उसमें खांड और शहद मिलाकर पिलानेसे गर्भिणीका वर नष्ट होता है ।
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इसे ठण्डा करके खांड मिलाकर पीने से तृष्णा, पित्त, दाह, मूर्च्छा और भ्रमका नाश होता है । ( फाण्ट बनाने की विधि प्रथम भाग में देखिये )
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः .. [मकारादि (५०००) मधकादि शीतकषायः (५००३) मन्थादियोगः (च. सं. चि. अ. ३ ६ रा.; वा. भ. चि. अ. १) (यो. र. मूत्रकृच्छ्रा .) मधुकमुस्तमृद्वीकाकाश्मर्याणि परूषकम् । मन्थं पिबेद्रा ससितं ससर्पिः त्रायमाणमुशीराणि त्रिफलां कटुरोहिणीम् । शृतं पयो वाऽर्धसिताप्रयुक्तम् । पीत्वा निशि स्थितं जन्तुवरात् शीघ्रं विमुच्यते॥ धात्रीरसं चेक्षुरसं पिबेद्वाऽ
महुवा, नागरमोथा, मुनक्का, खम्भारीके फल, भिघातकृच्छ्रे मधुना विमिश्रम् ॥ फालसा [फल], त्रायमाना, खस, त्रिफला और सत्तमें थोड़ासा घी डालकर उसे शीतल जल में कुटकी समानभाग लेकर सबको कूटकर रातको घोल लें इसमें मिश्री मिलाकर पीनेसे अथवा दूधको मिट्टीके बरतनमें पानीमें भिगो दें और दूसरे दिन पका कर उसमें उससे आधी मिश्री मिलामल छान कर पियें।
कर पीनेसे या आमले अथवा ईखके रसमें शहद इसके सेवनसे ज्वर शीघ्र ही नष्ट हो जाता | मिलाकर पीनेसे अभिघातज मूत्रकृच्छ नष्ट होता है। है । ( यह कषाय पत्तवरके लिये है ) __(५००४) मयूरशिखामूलयोगः
(५००१) मधूदकयोगः (ग. नि. । वन्ध्या. ५; रा. मा. । स्त्रीरोगा. ३०)
(रा. मा. क्षुद्ररोगा. २९) शिफा बर्हिशिखायास्तु क्षीरेण परिपेषिताम् । विज्ञाय यः शीतलिकोपसर्ग
पिबेतुमती नारी गर्भधारणहेतवे ।। __ प्रवृत्तमादौ मधुना विमिश्रम् ।
मयूरशिखाकी जड़को दूधमें पीसकर ऋतुपिबेज्जलं पर्युषितं नरस्य
मती (रजस्वला) स्त्रीको पिलानेसे वह गर्भ धारण नो सम्भवन्ति ज्वरदर्शनेऽपि ॥ कर लेती है।
मसूरिका (माता) के निकलनेकी सम्भावना (५००५) मरिचादिकषायः होते ही रातको पानीमें थोड़ा शहद मिलाकर
(ग. नि.। वाता. १९) रखदें और प्रातःकाल वह पानी रोगीको पिलावें ।
कोपिलावें। पिवति कषायं जन्तुर्मरिचमहादारुनागराणां यः। ___ यदि ज्वर हो जाने पर भी यह प्रयोग किया
तैलेनापि च मिश्रं स भवति वातेन निर्मुक्तः जाय तब भी शीतला नहीं निकलती।
काली मिर्च, देवदारु और सेठके काश्रमें (५००२) मध्यादियोगः
तैल मिलाकर पीनेसे वातव्याधि नष्ट होती है । (वै. म. र. पटल १५)
(५००६) मरिचादिकाथः (१) मधुमधूकमागधीनां खजूरशतावरीकशेरुणाम् ।
(भा. प्र. । म. खं. ज्वरा.) सविदारीणां कल्कः पानादुन्मादमपहरति ॥ मरिचं पिप्पलीमूलं नागरं कारवी कणा।
मुलैठी, महुआ, पीपल, खजूर, शतावर, कसेरु, चित्रकं कट्फलं कुष्ठं ससुगन्धि वचा शिवा ।। और बिदारीकन्द को पीसकर शहदमें मिलाकर
कण्टकारीजटा शृङ्गी यवानी पिचुमन्दकः । पीनेसे उन्माद नष्ट होता है ।।
एषां काथो हरत्येव ज्वरं सोपद्रवं कफात् ।।
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कषायप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
काली मिरच, पीपलामूल, सांठ, कालाजीरा, काली मिरच, साँठ, चिरायता, हर्र, पीपल पीपल, चीता, कायफल, कूठ, सुगन्धतृण, बच, और कुटकीके काथमें काला नमक मिलाकर हर्र, कटैलीकी जड़, काकड़ासिंगी, अजवायन और । पीनेसे वातज ज्वर नष्ट होता है। नीमकी छाल समान भाग लेकर काथ बनावें ।
महाद्राक्षादिक्वाथ: इसे सेवन करनेसे उपवयुक्त कफजज्वर नष्ट | (वै. र.; भा. प्र. । म. खं. ज्वरा.) होता है।
"द्राक्षादिक्वाथ" प्रयोग संख्या २९२० (५००७) मरिचादिकाथः (२) देखिये । (वृ. नि. र. । सन्निपात.)
(५०१०) महानिम्बबीजयोगः मरीचदशमूलमगधाफलत्रयनिशामहौषधीतिक्ता। ( यो. त. । त. ५१) अनिम्बसैन्धवयुतः कर्णकहन्ता भवेत्क्वाथः ।। महानिम्बस्य वीजानि पेपयेत्तन्दुलाम्बुना ।
काली मिर्च, दशमूल, पीपल, हर्र, बहेड़ा, सघृतान्यचिराद्धन्युः पानान्मेहांनिरन्तनान् ॥ आमला, हल्दी, सेठ, कुटकी और चिरायता समान बकायनके फलांकी मींग (गिरी) को चावभाग लेकर क्वाथ बनावें।
लेकेि पानीके साथ पीसकर उसमें घृत मिलाकर ___ इसमें सेंधानमक मिलाकर पीनेसे कर्णक सन्नि
सेवन करनेसे पुराने प्रमेह भी शीघ्र ही नष्ट हो पात नष्ट होता है।
जाते हैं। _(५००८) मरिचादिहिमः
(५०११) महानिम्बयोगः (शा, ध. । खं. २ अ. ४) मरीचं मधुष्टिं च काकोदुम्बरपल्लवैः।
(ग. नि. । वात. अ. १९: शा. ध.। नीलोत्पलं हिमस्तज्जस्तृष्णाछर्दिनिवारणः ॥
ख. २ अ. ५) काली मिरच, मुलैठी, कठूमर (क गूलर) के बृहनिम्बतरोमूलं वारिणा परिपेषितम् । पत्ते और नीलोत्पल समान भाग लेकर सबको तत् पीतं नाशयेक्षिप्रमसाध्यामपि गृध्रीसीम् ॥ अधकुटा करके रातको मिट्टीके वरतनमें ६ गने बकायनकी जड़की छालको पानीके साथ पानीमें भिगो दें और दूसरे दिन प्रातःकाल मल- पीसकर पीनेसे असाध्य गृध्रसी भी शीघ्र ही नष्ट छान कर रोगीको पिला दें।
हो जाती है। यह शीत कषाय तृष्णा और छर्दिको नष्ट
( मात्रा-१ तोला ) करता है।
(५०१२) महाबलादिकषायः (५००९) मरीच्यादिक्वाथः । | ( यो. र. । वातव्या.: वृ. नि. र.। जीर्णचर.; ( वृ. नि. र. । वातज्वर.)
भै. र. । ज्वरा.) मरीचं रुचकं शुण्ठी किरातं च हरीतकी। महाबलामूलमहौषधाभ्यां पिप्पली कटुकी चैव वातज्वरविनाशनम् ॥ । क्वार्थ पिबेमिश्रितपिप्पलीकम् ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि शीतं सकम्यं परिदाहयुक्तं
आंखका घाव, पिल्ल और पटल आदि समस्त विनाशयेद् द्वित्रिदिनप्रयुक्तः ॥ रोग नष्ट होते हैं।
महाबलाकी जड़ और सेठिके काथमें पीप- । (५०१४) महौषधादिकाथः (१) लका चूर्ण मिलाकर पीनेसे शीत, कम्प और दाह
(वृ. मा. । आमाधि.) युक्त ज्वर २-३ दिनमें ही नष्ट हो जाता है।
महौषधगुडूच्योस्तु क्वार्थ पिप्पलिसंयुतम् । महारारनादिकाथ:
पिबेदामे सरुक्शोफे कटीशूले विशेषतः ॥ रास्नादिकाथ (महा) देखिये
साठ और गिलोयके क्वाथमें पीपलका चूर्ण (५०१३) महावासादिक्काथ:
मिला कर पीनेसे पीड़ा और शोथ युक्त आमवात ( वृ. यो. त.। त. १३१; वृ. नि. र. नेत्ररोगा.)
और विशेषतः कमरकी पीड़ा शान्त होती है। वासा घनं निम्बपटोलपत्रं
(५०१५) महौषधादिकाथः (२) तिक्तामृता वत्सकचन्दनं च ।
( भै. र. । ज्वरा.; ग. नि. । ज्वरा. १; वृ. कलिङ्गदाव: दहनं च शुण्ठो
नि. र. । विषमज्वर.; वृ. मा. । ज्वरा.) भनिम्बधात्री विजया विभीतम् ॥ महौषधामृतामुस्तचन्दनोशीरधान्यकैः । यवांश्च निष्काथ्य तमष्टशेष
| क्वाथं तृतीयकं हन्ति शर्केरामधुयोजितः॥ पूर्वेऽह्नि संस्थापितपग्रिमेऽसि ।
साँठ, गिलोय, नागरमोथा, लाल चन्दन, प्रातः पिबेदर्बुदशुक्रकण्डू
खस और धनिया समान भाग लेकर काथ तैमियंदाहत्रणपिल्लरोगान् ॥
बनावें । पिण्डोपनाहौ पटलानि नेत्र
इसमें खांड और शहद मिलाकर पीनेसे रोगानशेषानपरांश्च हन्यात् ॥
तृतीयक ( तिजारी ) ज्वर नष्ट होता है । बासा ( अडूसा ), नागरमोथा, नीमकी
__ (५०१६) महौषधादिकाथः (३) छाल, पटोल पत्र, कुटकी, गिलोय, कुड़ेकी छाल, लाल चन्दन, इन्द्रजौ, दारुहल्दी, चीतामूल, सोंठ,
(वृ. मा.। मूर्छा.; ग. नि. मूर्छा. १६) चिरायता, आमला, हर्र, बहेड़ा और जौ समान भाग
महौषधामृता क्षुद्रा पौष्करं ग्रन्थिकोद्भवम । ले कर सबको अधकुटा करके सायंकाल आठ गुने
पिबेत्कणायुतं क्याथं मूर्छायां च मदेषु च ॥ पानीमें पकावें । जब आठवां भाग पानी रह जाय साठ, गिलोय, कटेली, पोखरमूल और पीपतो छान लें।
| लामूल समान भाग ले कर काथ बनावें । इसे दूसरे दिन प्रातःकाल सेवन करने से अर्बुद, इसमें पीपलका चूर्ण मिला कर सेवन करनेत्रशुक्र, आंखकी खुजली, तिमिर, आंखोकी दाह, | नेसे मूर्छा और मदका नाश होता है।
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कषायप्रकरणम्
चतुर्थो भागः
११
(५०१७) मांस्यादिगणः (५०२०) मातुलुङ्गमूलादिपाचनकषायः ( वृ. नि. र. । त्वग्दोषा.)
(ग. नि. । वरा.) मांसीचन्दनशम्पाककरारिष्टसर्षपम् । मूलानां मातुलुङ्गथास्तु पिप्पिलीशृङ्गवेरयोः । यष्टोकुटजदार्वी भिर्हन्ति कण्ड्रमयं गणः॥ अजमोदस्य च काथ: सक्षारः पाचनः कफे ॥ जटामांसी, लाल चन्दन, अमलतास, करञ्जकी
___बिजौरे नीबूकी जड़, पीपल, अदरख (सोंठ) छाल, नीमकी छाल, सरसों, मुलैठी, कुड़ेकी छाल
और अजमोदके काथमें जवाखार मिलाकर पिलावें । और दारुहल्दी समान भाग लेकर क्वाथ
___ यह काथ कफचरपाचक है । बनावें।
(५०२१) मातुलङ्गरसादियोगः (१)
(वृ. मा. । गुल्मा.) इसे सेवन करने से कण्डू (खुजली ) नष्ट
मातुलुङ्गरसो हिङ्गु दाडिमं विडसैन्धवम् । होती है।
सुरामण्डेन पातव्यं वातगुल्मरुजापहम् ॥ (५०१८) मातुलफलयोगः
बिजौरे नीबूके रसमें भुनी हुई हींग, अना(रा, मा. विषरो.) रदाना, बिड नमक और सेंधानमकका चूर्ण मिलाअसनजटाजल पिष्टं
कर चटा और ऊपरसे सुरामण्ड पिलावें । यः खादति मातुलस्य फलमेकम् ।। इस प्रयोगसे वातज गुल्मकी पीड़ा शान्त उन्मत्तसारमेयमभवं
होती है। विषमस्य शममेति ॥
(५०२२) मातुलुङ्गरसादियोगः (२) धतूरे के एक फलको असना वृक्षकी जड़की
| (व. से. । शूलरोगा.; वृ. नि. र. । शूला.) छाल के स्वरस ( या क्वाथ ) में पीस कर पीनेसे
मातुलुङ्गरसः सपिः सहिङ्गुलवणान्वितम् । पागल कुत्ते के काटने का विष नष्ट हो जाता है।
| सुखोष्णं पाययेदेन द्विविवन्धानुलोमनम् ॥
कुक्षिहृत्पार्श्वशूलेषु वेदना चोपशान्य ते ॥ (५०१९) मातुलङ्गबीजयोगः
बिजो रेका रस और घी (२-२ तोले) (रा. मा. अ. ९)
लेकर दोनोंको एकत्र मिलाकर उसमें ज़रा सा मातुलुङ्गस्य बीजानि कुमार्या सह पेषयेत् ।
हींग और सेंधा नमक मिलाकर मन्दोण करके क्षीरेण सह दातव्यं गर्भपामोति न संशयः ॥
| पिलानेसे मलावरोध नष्ट होता, वायु खुलता और बिजौरे नोबूके बीजोंको धीकुमार (ग्वारपाठा)
| 'कोख, हृदय तथा पसलीको पीड़ा शान्त होती है। के रसके साथ पीसकर दूधके साथ पिलानेसे स्त्री
(५०२३) मातुलुङ्गरसादियोगः (३) अवश्य गर्भ धारण कर लेती है ।
(हा. सं. । स्था. ३ अ. ४) ( यह औषध मासिक धर्म होनेके पश्चात् मातुलङ्गरसं ग्राह्यं द्विगुणं तत्र काधिकम् । कई रोज़ सेवन करानी चाहिये ) हिङ्गुसौवर्चलयुतं पानं हन्ति विषूचिकाम् ॥ .
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
बिजौ रेका रस १ भाग (२ तोले ) और बिजौ रे नीबूके (२-३ तोले) रसमें जरासा, काञ्जी २ भाग लेकर दोनोंको एकत्र मिलाकर काला नमक और शहद मिलाकर पीनेसे अथवा उसमें हींग और काला नमक मिलाकर पीनेसे सोंठ, आमला और पीपलके चूर्णको शहदमें मिलाविषूचिका नष्ट होती है।
| कर चाटनेसे हिक्का (हिचकी) नष्ट हो जाती है। (५०२४) मातुलङ्गारसादियोगः (४) (५०२७) मातुलुङ्गादिकल्कः (वृ. मा. । शूला.; यो. र. । शूला;
( हा. सं. । स्था. ३ अ. ५) वृ. नि. र. । शूला.)
मातुलुङ्गस्य मूलानि रसोनः क्रिमिजित् त्रिवत् । मातुलङ्गरसो वाऽपि शिशुक्वाथस्ततः परः।।
। अजमोदा निम्बपत्रं गोमूत्रेण तु पेपयेत् ।। सक्षारो मधुना पीतः पाचहृद्वस्तिशूलनुत् ॥ पानमेतत प्रशंसन्ति क्रिमिदोपनिवारणम् ।
बिजौ रेके रसमें अथवा सहंजनेकी छालके ज्वरमोक्तानि पथ्यानि क्रिमिदोषे प्रदापयेत् ॥ काथमें जवाखार और शहद मिलाकर पीनेसे
बिजौ रेकी जड़, ल्हसन, बायबिडंग, निसोत, पसली, हृदय और बस्तीका शूल नष्ट हो जाता है। अजमोद और नीमके पत्ते समान भाग ले कर सब (५०२५) मातुलुङ्गरसादियोगः (५) को एकत्र मिला कर गोमूत्रके साथ पीस लें। (हा. सं. । स्था. ३ अ. ७)
इसे ( गौमूत्र या उष्ण जल के साथ ) पीने मातुलुङ्गरसं धात्रीरसं सैन्धवसंयुतम् । | से कृमिरोग नष्ट होता है। सौभाअनकमूलस्य रसं च मरिचान्वितम् ॥
कृमि रोगमें ज्वरके समान पथ्य देना सक्षारमधुनोपेतं श्लेश्मशूलनिवारणम् ।।
| चाहिये। यकृत्क्षयोद्भवं शूलं नाशयत्याश्वसंशयम् ॥
(मात्रा-१ तोले तक। बिजौरे नीबूका रस, आमले का रस और (५०२८) मातुलङ्गादिकाथः (१) सहंजनेकी जड़की छालका रस समान भाग (१-१
(वृ. नि. र. । सन्निपाता.) तोले ) लेकर सबको एकत्र मिलाकर उसमें सेंधा. नमक, काली मिर्च और जवाखार तथा शहद
मातुलुङ्गादि भूनिम्बग्रन्थिकं देवदारु च । मिलाकर पीनेसे कफज शूल और यकृत्क्षय-जन्य दशमूलाजमोदे च शुण्ठी शीताङ्गनाशनम् ॥ शूल तुरन्त नष्ट हो जाता है।
। बिजौ रे नीबूकी जड़, चिरायता, पीपलामूल, (५०२६) मातुलुङ्गरसादियोगः (६) । देवदारु, दशमूलकी प्रत्येक ओषधि, अनमोद और
(बृ. मा. | हिक्कावासा.) साठ समान भाग लेकर क्वाथ बनावें । मधुसौवर्चलोपेतं मातुलुङ्गरस पिबेत् ।
यह क्याथ शीताङ्ग सन्निपातको नष्ट हिका? मधुना लियाच्छुण्ठीधात्रीकणान्वितम् ।।। करता है ।
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कषायप्रकरणम्
चतुर्थों भागः
(५०२९) मातुलुङ्गादिकाथः (२) । (५०३२) मालतीमूलयोगः (व. से.। ज्वरा.; वृ. नि. र. । कफवर.) ।
(ग. नि. । अमरो.; रा. मा. । अ. १५) मातुलुङ्गशिफाविश्वकायस्थाग्रन्थिकोद्भवम् । ग्रीष्मोत्खातं मालतीमूलमाजे कफज्वरेषु सक्षारं पाचनं वा कणादिकम् ॥ ___ क्षारे सिद्धं शर्कराचूर्णमिश्रम् ।
___ बिजौ रे नीबूकी जड़, सोंठ, हर्र और पीपला- पीतं सबो मूत्रसंरोधजातां मूलके क्वाथमें जवाखार मिलाकर पिलाने या हन्यात्पीडां पातयेदश्मरों च ॥ कणादि क्वाथ पिलाने से कफज ज्वर नष्ट ग्रीष्मकालमें उखाड़ी हुई मालती को जड़को होता है।
बकरीके दूध में पका कर उसमें मिश्री डाल कर (५०३०) मातुलुङ्गादिकाथः (३) ।
पीनेसे मूत्र रोकनेसे उत्पन्न हुई पीड़ा नष्ट होती (व. से. । ज्वरा.; वृ. नि. र. । सन्निपात.)
और पथरी निकल जाती है। मातुलुङ्गऽश्मभिदिल्यव्याघ्रीपाठारुबूकजः।
( मालती की जड़ २ तोले, दुध १६ तोले, क्वाथो लवणमूत्राढयोऽभिन्यासानाहशूलनुत् ॥
पानी ६४ तोले । एकत्र मिला कर पानी जलने
तक पकावें।) बिजौ रेकी जड़, पखानभेद, बेलको छाल, ..
(५०३३) माषबलादियोगः कटेली, पाठा और अरण्डमूल समान भाग लेकर काथ बनावें ।
(ग. नि. । वातरोगा. १९; वृ. मा. । वाता.; इसमें सेंधा नमक और गोमूत्र मिलाकर पि
च. द. । वातव्या. अ. २२; र. र. । वातव्याः ; लानेसे अभिन्यास सन्निपात, अफारा और शूल
यो. र. । पक्षाघात.) नष्ट होता है।
माषबलाशुकशिम्बीकत्तृणरास्नाश्वगन्धोरुबूकाणाम्
क्याथो नस्यनिपीतो रामठलवणान्वितः कोष्णः (५०३१) मातुलुङ्ग्यादियोगः
अपहरति पक्षवातं मन्यास्तम्भं सकर्णनादरुजम् । (यो. र.; वृ. नि. र. । रक्तपित्त.)
दुर्जयमदितवात सप्ताहाजयति चावश्यम् ।। मूलानि पुष्पाणि च मातुलुङ्ग्याः
__ उड़द, खरैटी, कौंचके बीज, कत्तग, रास्ना, समं पिबेत्तन्दुलधावनेन।
असगन्ध और अरण्डमूल समान भाग लेकर क्वाथ घ्राणप्रवृत्ते जलमाशु देयं
बनावें। सशकरं नासिकयोः पयो वा ॥
इस मन्दोष्ण क्वाथमें जरासा सेंधा नमक बिजौ रेकी जड़की छाल तथा फूलोंके और हींग मिला कर नासिका द्वारा पीनेसे कल्कको चावलों के धोबनके साथ सेवन करनेसे | पक्षाघात (अधरंग), मन्यास्तम्भ, कर्ण पीड़ा, कर्णअथवा खांडके शर्बत या दूधकी नस्य लेनेसे नक- नाद, और कष्ट साध्य अर्दित (लकवा) १ सप्ताहमें सीर बन्द होती है।
अवश्य नष्ट हो जाता है।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
(५०३४) माषादिक्वाथः
__(५०३७) मुद्गयूषयोगः (व. से. । वातघ्या.; भा. प्र. । म. खं. वातव्या.;
(व. से. । स्त्रीरोगा.) वृ. यो. त. त. । ९०; वृ. मा. । वाता.) वह्नौ तप्तेन लोहेन मुद्गयूषं सुवापितम् । मापात्मगुप्तामैरण्डशृतं वाटयालकं तथा ।
पीत्वेवं मूतिका नारी सर्वव्याधीन्व्यपोहति ॥ हिङ्गुसन्धवसंयुक्तं पक्षाघातं विनाशयेत् ॥
___ लोहेको अग्निमें तपाकर मूंगके यूपमें बुझावें उड़द, कौंचके बीज, अरण्डमूल और खरैटी यह यूष प्रसूता स्त्रीको पिलानेसे उसके समस्त समानभाग लेकर काथ बनावें।
| रोग नष्ट हो जाते हैं। इसमें सेंधानमक और हींग मिलाकर पीनेसे
(५०३८) मुद्गादिकषायः
(व. से. । छर्दि.) पक्षाघात का नाश होता है।
विदलानि च मुद्गानां पिप्पल्यश्चैव कुट्टिताः । (५०३५) माहिषक्षीरमूत्रोपयोगः आशु तत्सलिलं पेयं समधुच्छर्दिनाशनम् ॥
(ग. नि. । उदररोगा. १२) ___मूंगकी दालके काथमें पीपलका चूर्ण तथा सक्षीरं माहिषं मूत्रं निराहारः पिबेन्नरः । शहद मिलाकर पीनेसे छर्दि (वमन) तुरन्त रुक शाम्यत्यनेन जठरं सप्ताहादिति निश्चयः ॥
जाती है। प्रातः काल खाली पेट भैसके दूधमें भैंसका । (पीपलका चूर्ण १ माशा शहद २ तोले ।) मूत्र मिलाकर पीनेसे १ सप्ताहमें उदररोग अवश्य
(५०३९) मुद्गादिकषायः नष्ट हो जाता है।
(वृ. नि. र. । छर्दि.; व. से. । अतिसारा., छर्थ.; (इस प्रयोगकालमें अन्न पानादिका त्याग
यो. र. छर्दि.; वृ. यो. त. । त. ८३) करना चाहिये । यह योग शोथोदरमें उपयोगी है)
कषायो भृष्टमुद्गानां सलाजमधुशर्करः। (५०३६) मुण्डितिकायोगः
र्यतीसारदाहन्नो ज्वरघ्नः संप्रकाशितः ॥ (ग. नि. । शिरोरो.)
मूंगको भाड़में भुनवाकर उसका क्वाथ बनावें । पीत्वा मुण्डितिकोत्थं स्वरसं मरीचावचूर्णितं
इस क्वाथमें धानकी खील, शहद और
चोष्णम्। खांड मिलाकर पिलानेसे छर्दि, अतिसार, दाह और भक्तादौ सप्ताहात्सूर्यावर्धिभेदको हन्यात् ॥ । ज्वरका नाश होता है ।
गोरखमुण्डीके स्वरसको गरम करके उसमें काली । (५०४०) मुद्गादिकाथः मिर्च का चूर्ण मिलाकर भोजनके पहले सेवन करनेसे (ग. नि. । ज्वरा.; वृ. नि. र. । पित्तज्वर.; सूर्यावर्त और अविभेदक (आधासीसी) का नाश
ब. से. । ज्वरा.) होता है।
मुद्रानामञ्जलिं पूर्णां यष्टीमधुकसाधिताम् । पथ्य-दूध भात ।
पाक्यं शीतकषायं वा पिबेपित्तज्वरापहम् ॥
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कषायमकरणम् ]
चतुर्थो भागः
मूंग और मुलैठीका क्वाथ या शीत कषाय (५०४४) मुष्ककादिगणः पीनेसे पित्तज्वर नष्ट होता है।
(वा. भ. सू. अ. १५; सु. सं. अ. ३८) (५०४१) मुद्गादिशीतकषायः मुष्ककस्नुग्घराद्वीपिपलाशधवशिंशपाः । ( ग. नि. । रक्तपित्ता. ८: वृ. नि. र. । रक्तपित्ता.: गुल्ममेहाश्मरीपाण्डुमेदोऽर्श:कफशुक्रजित ।। . च. सं. चि. अ. ४ रक्तपित्त.)
____ मोखा ( मुष्कक ) वृक्षकी छाल, थूहर मुद्गाः सलाजाः सयवाः सकृष्णाः
( सेंड-सेहुंड ), हर्र, बहेड़ा, आमला, चीता, ढाककी सोशीरमुस्ताः सह चन्दनेन ।
छाल, धवकी छाल और शीशमका बूरा (चूर्ण); बलाजले पर्युषितः कपायः
यह ओषधिसमूह गुल्म, प्रमेह, अश्मरी, पाण्डु, __स रक्तपित्तं शमयत्युदीर्णम् ॥
मेद, अर्श, कफ और शुक्र-दोषोंको नष्ट करता है। ५ तोले खरैटीको ४० तोले पानीमें पकायें।
(नोट-सुश्रतमें मैनफल अधिक लिखा है।) जब २० तोले पानी शेष रहे तो छानकर उसमें
(५०४५) मुस्तकमूलयोगः रातको मूंग, धानकी खील, इन्द्र जौ, पीपल, खस,
( यो. र.; वृ. नि. र. अपरमारा.) नागरमोथा और .लाल चन्दन समानभाग मिश्रित उत्तरदिग्गतमुस्तकमूलं बुद्धथा समुद्धृतं पेष्य । ३ तोले लेकर कूटकर भिगो दें और दूसरे दिन पीतं पयसा हन्यादपस्मृति गोः सवर्णवत्सायाः प्रातःकाल मलकर छान लें ।
उत्तर दिशामें उत्पन्न हुवे नागरमोथेकी इसे पीनेसे प्रबल रक्तपित्त भी नष्ट हो जाता है। ताजी जड़को समान रंगके बछड़ेवाली गायके दूधमें (५०४२) मुद्गामलकयूषः पीस कर पीनेसे अपस्मार नष्ट होता है। (३. मा. छ.)
(५०४६) मुस्तककाथः मुद्दामलकयूषो वा ससर्पिष्कः ससैन्धवः ॥
( ग. नि. अतिसारा. ३) मूंग और आमलेके क्वाथमें घी तथा सेंधा क्वाथश्च मुस्तककृतः समधुः सुशीतः नमक मिलाकर पीनेसे छर्दि (वमन) रुक जाती है। पीतः प्रवृद्धमतिसारगदं निहन्ति । (५०४३) मुशल्यादियोगः ___ नागरमोथे के क्वाथको अच्छी तरह ठण्डा (भै. र. ग्रहण्य.)
करके उसमें शहद मिला कर पीनेसे प्रवृद्ध अतिमुषली पेषयेत्तकैरथवा तण्डुलोदकैः। सार भी नष्ट हो जाता है। माकं योजयेच्चानु पथ्यं तक्रोदनं हितम् ॥ (५०४७) मुस्तादिकाथः (१)
१ माशा मूसलीको तक या चावलेकि पानीके (रा. मा. घरा. २०) साथ पीसकर पीनेसे ग्रहगीरोग नष्ट होता है। पिवन्ति येऽब्दयवासकबालकान् पथ्य-तकभात ।
सकटुकांश्च महौषधसंयुतान् ।
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१६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
शृतकषायवरान् ज्वरमस्य ते
नागरमोथा, बासा (अडूसा), देवदारु, कूठ, व्यपनयन्त्यनलं च वितन्वते ॥ कटेली, सेठ, काकजंघा, मुनक्का, गिलोय और नागरमोथा, जबासा, सुगन्धबाला, कुटकी पीपल समानभाग लेकर क्वाथ बनावें। और सेंठि इनका क्वाथ पीनेसे ज्वर नष्ट होता यह क्वाथ वातवरको नष्ट करता है । और अग्नि दीप्त होती है।
(५०५१) मुस्तादिकाथः (५) (५०४८) मुस्तादिकाथः (२)
( हा. सं. स्था. ३ अ. २) (हा. सं. स्था. ३ अ. ३१; भै. र. प्रमेहा.) मुस्ता फलत्रिकनिशा सुरदारु मूर्वा
मुस्ता गुडूची सहनागरेण ऐन्द्री च लोधसलिलेन कृतः कषायः ।
_वासाजलं पर्पटकं च पथ्या । पाने हितः सकलमेहभवे गदे च
क्षुद्रा च दुःस्पर्शयुतः कषायः ।। __ मृत्रग्रहेषु सकलेषु नियोजनीयः॥
पाने हितो वातकफज्वरस्य ॥ नागरमोथा, हर्र, बहेड़ा, आमला, हल्दी, नागरमोथा, गिलोय, साँठ, बासा (अडूसा), देवदारु, मूर्वा, इन्द्रायण की जड़ और लोध। पित्तपापड़ा, हर्र, कटेली और धमासा ।
इनका क्याथ पीनेसे समस्त प्रकारके प्रमेह इनका काथ वातकफ-ज्वरको नष्ट करता है। और मूत्राघात नष्ट होते हैं।
(५०५२) मुस्तादिकाथः (६) (५०४९) मुस्तादिकाथः (३)
(भा. प्र. म. खं.; वृ. नि. र. सन्निपाता. ) (ग. नि. ज्वरा.) मुस्तमारग्वधोशीरं हरिद्रा दारुसाहयम् ।
मुस्तैरण्डमाणदावाणेदारुपटोलपिचुमन्दौ च यष्टीमधुकमेव च ॥
च्छिमारास्नाभीरुकचूरतिक्ताः। कषायः एषः सिद्धः स्याद्वातपित्तोद्भवे ज्वरे ।
वासाविश्वापञ्चमूलाऽश्वगन्धा नागरमोथा, अमलतास, खस, हल्दी, देव- हन्युमन्यास्तम्भसन्धिग्रहाः॥ दारु, पटोल, नीमकी छाल और मुलैठी।
नागरमोथा, अरण्डमूल, हर्र, पियाबासा, देवइनका क्वाथ वातपित्तज्वरको नष्ट करता है। दारु, ।गलोय, रास्ना, शतावर, कचूर, कुटकी, (५०५०) मुस्तादिक्काथः (४) बासा (अडूसा), साठ, पञ्चमूल (बेलकी छाल, (ग. नि. ज्वरा.)
सोनापाठाकी छाल, खम्भारीकी छाल, पाढलकी मुस्ताऽऽटरूषः सुरदारु कुष्ठं
छाल, अरणी) और असगन्ध समानभाग लेकर निदिग्धिकानागरकाकजङ्घाः। क्वाथ बनावें । द्राक्षामृतापिप्पलिकाकपायं
यह क्वाथ सन्निपात ज्वर, मन्यास्तम्भ और पिबेच्च वातज्वरयुक्तजन्तुः ॥ सन्धिग्रहको नष्ट करता है।
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कषायप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः (५०५३) मुस्तादिकाथः (७) (५०५६) मुस्तादिकाथः (१०) (भै. र. बालरोगा.)
(यो. र. ज्वराः; वृ. नि. र. ज्वरा. ) .. मुस्तकातिविपाशुण्ठीबालकेन्द्रयवैः कृतम् ।।
| मुस्ता पर्पटको यष्टी गोस्तनी समभागतः। क्वार्थ शिशुः पिबेत्मातः सर्वातीसारनाशनम् ॥
अष्टावशेषतः काथो निपीतो मधुना सह ॥
पित्तभ्रम ज्वरं दाहं हन्ति छदि समन्थराम् ॥ नागरमोथा, अतीस, साठ, सुगन्धबाला और
नागरमोथा, पित्तपापड़ा, मुलैठी और मुनक्का इन्द्रजौ समानभाग लेकर क्वाथ बनावें ।
समान भाग लेकर सबको अधकुटा करके आठगुने यह काथ प्रातःकाल पिलानेसे बच्चांका
पानीमें पकावें और जब आठवां भाग पानी शेष अतिसार नष्ट होता है।
रहे तो उतारकर छान लें। (५०५४) मुस्तादिकाथः (८) ।
इसमें शहद मिलाकर पीनेसे चित्तभ्रम, ( भै. र. ज्वरा.)
ज्वर, दाह, छर्दि और मन्थरज्वर नष्ट होता है। मुस्तपर्पटकोत्पलकिरातोशीरचन्दनात् कर्षः।। (५०५७) मुस्तादिकाथः (११) .. शर्करयाच क्रियते वातपित्तज्वरे बहुधा दृष्टफलः॥ (यो. र. सन्निपाता.)
नागरमोथा, पित्तपापड़ा, नीलोत्पल, चिरायता, जलदाहयपद्मकपर्पटकैखस और लाल चन्दन १०-१। तोला लेकर मलयोद्भवजातिवरीमधुकैः । काथ बनावें ।
मधुनिम्बजलानलचन्दनकैः इसमें खांड मिलाकर पिलानेसे वातपित्तज्वर कथितं मुखरक्तहरं सलिलम् ॥ नष्ट होता है। यह अनेकों बारका अनुभूत नागरमोथा, पद्माक, पित्तपापड़ा, चन्दन, प्रयोग है।
चमेली, शतावर और मुलैठी का अथवा मीठानीम, (५०५५) मुस्तादिकाथः (९) सुगन्धबाला, चीता और चन्दनका क्वाथ पीनेसे
मुंहसे आता हुवा रक्त और सन्निपात (न्यूमोनिया) (भै. र.; वृ. नि. र.; व. से. ज्वरा.)
नष्ट होता है। मुस्तं वत्सकबीजानि त्रिफला कटुरोहिणी ।
(५०५८) मुस्तादिकाथः (१२) परूषकाणि च क्याथः कफज्वरविनाशनः ॥
(यो. २. सन्निपा.) नागरमोथा, इन्द्रजौ, हर्र, बहेड़ा, आमला, जलधरमलयजनागर कुटकी, और फालसेके फल समानभाग लेकर सवालकोशीरपर्पटैः क्वथितम् । क्वाथ बनावें।
यः पिबति पयः शीतं यह क्वाथ कफवरको नष्ट करता है।
शाम्यति रुग्दाहकस्तस्य ॥
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१८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
नागरमोथा, लाल चन्दन, साँठ, सुगन्धवाला, यह क्वाथ कफ, वायु, अरुचि, छर्दि, दाह, खस और पित्तपापड़ा समान भाग लेकर क्वा यबनावें। शोष और ज्वरका नाश करता है ।
इसे ठण्डा करके पीनेसे रुग्दाह सन्निशात (५०६२) मुस्तादिकाथः (१६) नष्ट होता है।
(व. से. अतिसारा.) (५०५९) मुस्तादिकाथः (१३) मुस्तकातिविषाशुण्ठीवत्सकामयतिक्तकैः ।
___(वृ. नि. र. बालरो.) सर्वातिसार हल्लाससर्वशोफज्वरापहः ॥ मुस्तकं चन्दनं वासा हीवेरं यष्टिकामृता । नागरमोथा, अतीस, सेट, इन्द्रजौ, खस और एषां क्वाथस्तु पित्तघ्नस्तृपादाहज्वरापहः ॥ पटोलपत्र समानभाग लेकर क्वाथ बनावें ।
नागरमोथा, लालचन्दन, बासा ( अडूसा), यह क्वाथ समस्त प्रकारके अतिसार, हल्लास सुगन्धबाला, मुलैठी और गिलोय समान भाग लेकर (जी मिचलाना ), समस्त प्रकारके शोथ और क्वाथ बनावें।
ज्वरको नष्ट करता है। यह क्वाथ पित्त, तृषा, दाह और ज्वरको (५०६३) मुस्तादिकाथः (१७) नष्ट करता है।
(भा. प्र. म. खं. वातरक्त. ) (५०६०) मुस्तादिकाथः (१४) मुस्तामलकनिशाभिः काथितं तोयं ( भा. प्र. म. खं. अतिसार.; वृ. नि. र.; वं. से.
समाक्षिकं पेयम् । अतिसारा.)
नयति सदागतिरक्तं सकर्फ वा सततयोगेन ॥ मुस्ता सातिविषा मूर्वा वचा च कुटजः समाः। नागरमोथा, आमला और हल्दी का क्वाथ एषां कषायः सक्षौद्रः पितश्लेष्मातिसारनुत् ॥ बनाकर ठण्डा करके उसमें शहद मिलाकर कुछ
नागरमोथा, अतीस, मूर्वा, बच और इन्द्रजौ दिनों तक निरन्तर सेवन करनेसे कफयुक्त वातरक्त समानभाग लेकर क्वाथ बनावें ।
नष्ट होता है। इस क्वाथमें शहद मिलाकर पीनेसे पित्तकफज
(५०६४) मुस्तादिकाथः (१८) अतिसार नष्ट होता है।
( वृ. नि. र. वातकफज्वर.) ___(५०६१) मुस्तादिकाथः (१५) जलदधान्यकिरातगुडूचिका (ग. नि.; भै. र.; वृ. नि. र. ज्वरा.; यो. चि. म. नियमन कटुकी च पटोलिका । अ. ४; वं. से. ज्वरा.)
कथितमेभिरिदं तु जलं हरेमुस्तपर्पटदुःस्पर्शगुडूचीविश्वभेषजम् ।
त्पवनपित्तभवं ज्वरमुन्नतम् ॥ कफवातारुचिच्छर्दिदाहशोषज्वरापहम् ॥ नागरमोथा, धनिया, चिरायता, गिलोय, ___ नागरमोथा, पित्तपापड़ा, धमासा, गिलोय नीमकी छाल, कुटकी और पटोल समानभाग लेकर और सेठ समानभाग लेकर क्वाथ बनावें । क्वाथ बनावें ।
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कषायकरणम् ]
यह क्वाथ प्रबल वातपित्त - ज्वरको नष्ट करता है ।
चतुर्थो भागः
क्वाथः सकृष्णाकृमिशत्रुकल्कः । मार्गद्वयेनापि चिरप्रवृत्तान्
(५०६६) मुस्तादिकाथ : (२०) ( यो. र.; वृ. मा.; धन्व.; व. से. कृमि ; ग. निं. कृमि . ६ ) मुस्ताखुपर्णीफल शिग्रुदारु
बालकं चन्दनं मुस्तं भूनिम्बं सदुरालभम् । उशीरं चन्दनं लोध्रं नागरं नीलमुत्पलम् || पाठा मुस्तं हरिद्रे द्वे पिप्पली कौटजं फलम् ।
(५०६५) मुस्तादिकाथः (१९)
पडे
(बृ. मा.; यो. र. विसर्पा ; वृ. नि. र. विसर्पा ; फलत्वचं वत्सकस्य शृङ्गवेरं घनं वचा ॥ ग. नि. विसर्पा ४० ) पादिका योगा पित्तातीसारनाशनाः ॥ मुस्तारिष्टपटलानां क्वाथः सर्वविसर्पनुत् । (१) नागरमोथा, इन्द्रजौ, चिरायता और रसौत । धात्री पटोलमुद्गानामथवा घृतसंयुतः ॥ (२) दारूहल्दी धमासा, बेलगिरी, सुगन्धबाला, और लाल चन्दन ।
नागरमोथा, नीमकी छाल और पटोलका क्वाथ पीने से अथवा आमला, पटोल और मूंगके क्वाथमें घी डालकर पीने से हर प्रकारका विसर्प होता है।
कृमीनिहन्ति क्रमिजांश्च रोगान् ॥ नागरमोथा, मूषापर्णी ( चूहा कन्नी), हर्र, बहेड़ा, आमला, सहजनेकी छाल और देवदारु समानभाग लेकर क्वाथ बनावें ।
इसमें पीपल और बायबिड़ंगका चूर्ण मिलाकर पीनेसे दोनों मार्गों (मुख और गुदा) की ओर जाने वाले कृमि और उनसे उत्पन्न होने वाले रोग नष्ट हो जाते हैं।
(५०६७) मुस्तादिकाथः (२१) (व. से. अतिसारा. ) तं वत्सकवीजानि भूनिम्बं सरसाञ्जनम् । दादुरालभा बिल्वं बालकं रक्तचन्दनम् ॥
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१९
(३) सुगन्धवाला, लाल चन्दन, नागरमोथा, चिरायता और धमासा ।
(४) खस, लाल चन्दन, लोध, सांठ और नीलोत्पल (५) पोठा, नागरमोथा, हल्दी, दारूहल्दी, पीपल और इन्द्रजौ ।
(६) इन्द्रजौ, कुड़ेकी छाल, सोंठ, नागरमोथा और वच ।
उपरोक्त ६ प्रयोगों में से किसीका भी क्वाथ बनाकर पिलाने से पित्तातीसार नष्ट होता है । (५०६८) मुस्तादिकाथः (२२) ( वृ. नि. र. वातपित्तज्वर. ) मुस्तादुरालभाशुण्डोक्वाथ एषां समांशतः । हन्ति श्लेष्मज्वरं तीव्रं निपीतः पथ्यभोजने ॥ नागरमोथा, धमासा और सोंठ समानभाग लेकर काथ बनावें ।
इसे पीने और पथ्य पालन करनेसे तीत्र कफजज्वर नष्ट होता है ।
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(५०६९) मुस्तादिकाथ : ( २३ ) ( वा. भ. चि. अ. २२ ) मुस्तद्राक्षाहरिद्राणां पिवेत्क्वायं कफोत्रणे । सक्षौद्रं त्रिफलाया वा गुडूचीं वा यथा तथा ॥
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-भैषज्य रत्नाकरः भारत-
नागरमोथा, मुनक्का और हल्दीका क्वाथ पीने से अथवा त्रिफला या गिलोय के क्वाथमें शहद मिलाकर पीने से कफप्रधान वातरक्तका नाश होता है। (५०७०) मुस्तादिकाथ : (२४) (ग. नि. व. से. रक्तपित्ता. ) मुस्तेन्द्रयवयष्ट्या मदना पयो मधु । शिशिरं वमनं योज्यं रक्तपित्तहरं परम् ॥ नागरमोथा, इन्द्रजौ, मुलैठी और मैनफलके बीज समानभाग लेकर क्वाथ बनावें ।
१
इसे शीतल करके तथा शहद और दूध मिलाकर पीनेसे वमन होकर रक्त पित्त नष्ट हो जाता है। ( यह प्रयोग अधोगत रक्तपित्त में उपयोगी है। ) (५०७१) मुस्तादिकाथ : (२५) ( यो. र. शोफातिसा.; ग. नि. अतिसारा. २ ) मुस्तं सातिविषा दार्वी वचा शुण्ठी च तत्समम् । कषायं क्षौद्रसंयुक्तं पित्तवातातिसारिणे ॥
नागरमोथा, अतीस, दारूहल्दी, बच और सीठ समानभाग लेकर काथ बनावें ।
इसमें शहद मिलाकर पीने से पित्तवातज अतिसार नष्ट होता है ।
(५०७२) मुस्तादिकाथः (२६) (भै. र. यो. र.; च. द.; र. र.; वं. से.; वृ. नि. र; वृ. मा. । ज्वरा. शा. ध. ख. २ अ. २; यो त । त. २०; वृ. यो. त. । त. ९५; ग. नि. । ज्वरा. ) मुस्तामलक गुडूची विश्वौषधकण्टकारिकाक्वाथः । पीतः सकणाचूर्णः समधुर्विषमज्वरं हन्ति ॥ नागरमोथा, आमला, गिलोय, सेंठ और फटेली समानभाग लेकर काथ बनावें ।
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[ मकारादि
इसमें पीपलका चूर्ण और शहद मिलाकर पीने से विषमज्वर नष्ट होता है ।
(५०७३) मुस्ता दिक्काथः (२७) ( वृ. नि. र. विषमज्वर ; ग. नि. । ज्वरा १ ) मुस्तापाठा शिवा क्वाथश्चातुर्थिकज्वरापहः । दुग्धेन त्रिफला पीता हन्ति चातुर्थिकं ज्वरम् ॥
नागरमोथा, पाठा और हरेका काथ पीने से | अथवा दूधके साथ त्रिफलाका चूर्ण सेवन करने से चतुर्थिक ज्वर नष्ट होता है ।
(५०७४) मुस्तादिगणः (सु. सं. । सूत्र अ. ३८ ) मुस्ताहरिद्रादारुहरिद्राहरीतक्यामलकवि भीतक कुष्ठमती वचापाठाकटुरोहिणीशाङ्गेष्टातिविषाद्राविडी भल्लातकानि चित्रकश्चेति ॥ एष मुस्तादिको नाम्ना गणः श्लेष्म निषूदनः । योनिदोषहरस्तन्यशोधनः पाचनस्तथा ॥
नागरमोथा, हल्दी, दारु हल्दी, हर्र, आमला, बहेड़ा, कूठ, चोक, सफेद बच, पाठा, कुटकी, काकमाची (मकोय), अतीस, छोटी इलायची, भिलावा और चीतेकी जड़ । इन ओषधियोंके समूहको " मुस्तादि गण " कहते हैं ।
यह मुस्तादिगण कफनाशक, योनि और दुग्ध शोधक तथा पाचक है।
(५०७५) मुस्तादिपाचनकषायः (ग.नि. । ज्वरा. ) पाक्यं शीतकषायं वा मुस्तपर्पटकं पिबेत् ॥
नागरमोथे और पित्तपापड़े का काढ़ा अथवा शीतकषाय पीनेसे आमज्वर नष्ट होता है । यह का दोष को पकाता है।
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कषायप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
(५०७६) मुस्तादिप्रमथ्या अधकुटा करलें और इसमेंसे १। तोला चूर्णको २
( शा. ध । ख. २ अ. २) सेर पानीमें पकावें। जब १ सेर पानी शेष रह मुस्तकेन्द्रयवैः सिद्धा प्रमथ्या पिप्पलोन्मिता। | जाय तो छान लें। सुशीता मधुसंयुक्ता रक्तातीसारनाशिनी ॥ इसे ठण्डा करके रक्खें और आवश्यकतानुसार ___ नागरमोथा और इन्द्रजौ २॥-२॥ तोले थाड़ा थाड़ा राग
र थोड़ा थोड़ा रोगीको पिलाते रहें। लेकर दोनोंको पानीमें भिगोकर पीस लें और फिर
___ यह पानी पिपासा और ज्वरको नष्ट करता है। ४० तोले पानीमें पकावें । जब १० तोले पानी
(५०७९) मुस्तादिहिमः शेष रहे तो छान लें।
. (वृ. नि. र. । बालरो.) ___इसे ठण्डा करके शहद मिलाकर पीनेसे रक्ता- मुस्तापर्पटकोशीरवारिपद्मकसाधितम् । तिसार नष्ट होता है।
शीतं वारि निहन्त्याशु त्रिधा दाहवमिज्वरान्॥ (५०७७) मुस्तादिषडङ्गपानीयम् (१) नागरमोथा, पित्तपापड़ा, खस, सुगन्धबाला
(भा. प्र. । म. खं. तृष्णा .) और पद्माक समान भाग मिश्रित २ तोले लेकर, मुस्तपर्पटकोदीच्यच्छत्राख्योशीरचन्दनैः। सबको अधकुटा करके रातको १२ तोले पानीमें शृतं शीतं जलं दद्यात्तृड्दाहज्वरशान्तये ॥ मिट्टीके बरतनमें भिगो दें और प्रातःकाल मलकर ___नागरमोथा, पितपापड़ा, सुगन्धवाला, सौंफ, छान ले खस और लाल चन्दन समान भाग-मिश्रित १। इसे पिलानेसे बालकांकी दाह, वमन और तोला लेकर २ सेर पानीमें एकावें और १ सेर पानी रहनेपर छान लें।
(५०८०) मुस्ताद्यष्टादशाङ्गकाथः ___ इस पानीको ठण्डा करके रखें और आव- | (च. द । ज्वरा. १; वृ. नि. र. । सन्निपाता.) श्यकतानुसार थोड़ा थोड़ा रोगीको पिलाते रहें। मुस्तपर्पटकोशीरदेवदारुमहौषधम् ।
इसे पीनेसे तृष्णा, दाह और ज्वरका नाश त्रिफलाधन्वयासश्च नीली कम्पिल्लकं त्रिकृत् ॥ होता है।
किराततिक्तकं पाठा बला कटुकरोहिणी । (५०७८) मुस्तादिषडङ्गपानीयम् (२) | मधुकं पिप्पलीमूलं मुस्तायो गण उच्यते ॥
(वृ. मा.; च. द. । ज्वरो.) अष्टादशाङ्गमुदितमेतद्वा सन्निपातनुत् । मुस्तापर्पटकोशीरचन्दनोदीच्यनागरैः। पित्तोत्तरे सन्निपाते हितं चोक्तं मनीषिभिः । धृतशीतं जलं दद्यात्पिपासाज्वरशान्तये ॥ मन्यास्तम्भे उरोघाते उरः पार्थशिरोग्रहे ॥
नागरमोथा, पित्तपापड़ा, खस, लाल चन्दन, नागरमोथा, पित्तपापड़ा, खस, देवदारु, सेठ, नेत्रबाला और सांठ बराबर बराबर लेकर सबको हर्र, बहेड़ा, आमला, धमासा, नीलका पंचांग, कमीला,
ज्वरक
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
निसोत, चिरायता, पाठा, सुगन्धबाला, कुटकी, (५०८३) मूत्रसंग्रहणीयो दशको मुलैठी और पीपलामूल । सब चीजें समान भाग
महाकषायः लेकर काथ बनावें।
(च. सं. । सू. अ. ४) इसे “ मुस्तादिगण " अथवा " मुस्तादि
जम्ब्बाम्रप्लक्षवटकपीतनोदुम्बराश्वत्थअष्टादशाङ्ग काथ " कहते हैं।
भल्लातकाश्मन्तकसोमवल्का इति दशेमानि • यह पित्तप्रधान सन्निपात, मन्यास्तम्भ, उरः | मूत्रसंग्रहणीयानि भवन्ति । क्षत, उरोग्रह, पार्वग्रह और शिरोमहमें हितकर है। जामन, आम, पिलखन, वट (बड), अम्बाडा (५०८१) मूत्रविरजनीयो दशको गूलर, पीपल वृक्ष, भिलावा, अम्लोट और खैर । महाकषायः।
इनका कषाय मूत्रकी अधिकताको कम (च. सं. । सू. अ. ४)
करता है। पद्मोत्पलनलिनकुमुदसौगन्धिकपुण्डरीक
[५०८४] मूर्वादिकाथः शतपत्रमधुकप्रियङ्गधातकीपुष्पाणीतिदशेमानि
(च. सं. । चि. अ. २७ ऊरुस्तम्भ.) मूत्रविरजनीयानि भवन्ति ।
मूर्वामतिवियां कुष्ठं चित्रकं कटुरोहिणीम् । सफेद कमल, नोल कमल, लाल कमल, कुमुद
| पूर्ववद्वा पिबेत्तोये रात्रिस्थितमथापि वा ॥ (कमलभेद), सौगन्धिक, पुण्डरीक, शतपत्र, मुलैठी,
___मूर्या, अतीस, कूठ, चीता और कुटकी के फूलप्रियङ्गु और धायके फूल।
काथ अथवा शीतकषायमें शहद मिलाकर पीनेसे इनका कषाय पीनेसे मूत्र दोषरहित हो जाता है।
ऊरुस्तम्भ रोग नष्ट होता है।
(५०८५) मूपिकर्णीमूलयोगः [५०८२] मूत्रविरेचनीयो दशको
(ग. नि. । वन्ध्या . ५) __महाकषायः
गर्भाभावकृतान् दोषानेका एव हि नाशयेत् । (च, सं. । सू. अ. ४) योनिमध्यस्थिता स्त्रीणां मूपिकर्णीशिफा वृक्षादनीश्वदंष्ट्रावसुकवशिरपाषाणभेददर्भ
ध्रुवम् ॥ कुशकाशगुन्द्रेत्कटमूलानीति दशेमानिमूत्रवि- मूषाकर्णी की जड़को योनिमें रखनेसे रेचनीयानि भवन्ति ।
वन्ध्यत्व ( बांझपना ) अवश्य नष्ट हो जाता है। बिदारीकन्द, गोखरु, वसुक (अगस्ती), हुल- (५०८६) मृणालादिकाथः (१) हुल, पखानभेद, दाभ, कुश, कांस, गुन्द्रपटेर और (ग. नि. । धरा.; रा. मा. । ज्वरा. २०) इत्कट । इनकी जड़ लेकर कषाय बनाकर प्रयुक्त मृणालधात्रीफलचन्दनैयः करनेसे मूत्र खुलकर होता है ।
__ मृतं गुडूचीघनपर्पटेश्च।
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कषायप्रकरणम्]
चतुर्थों भागः
सधान्यकैरम्बु पिवेत्सिताढयं
___ इसे पीकर ऊपरसे पान चबाना, अग्नि तापना मध्वन्वितं तस्य कुतो ज्वरातिः ॥ और निर्वात स्थानमें रहना चाहिये ।
कमलनाल, आमला, लाल चन्दन, गिलोय, इससे शीघ्र ही अच्छी तरह विरेचन हो नागरमोथा, पितपापड़ा और धनियेके काथमें जाता है । मिश्री तथा शहद मिलाकर पीनेसे ज्वर नष्ट
(५०८९) मृद्राकादिहिमः . होता है।
(ग. नि. । ज्वरा.) ( यह काथ पित्तवरमें उपयोगी है ।)
| मृद्वीका मधुकं निम्बं कटुकारोहिणी समम् । (५०८७) मृणालादिकाथः (२)
अवश्यायस्थितं पेयमेतपित्तज्वरापहम् ॥ (रा. मा. । ज्वरा. २०)
मुनक्का, मुलैठी, नीमकी छाल और कुटकी मृणालमुस्तासहितं कदाचित्
समानभाग मिश्रित २॥ तोले लेकर सबको १५ तदेव हन्ति कथितं ज्वरातिम् ॥
तोले पानीमें भिगोकर ओसमें रख दें और दूसरे कमलनाल और नागरमोथेका काथ सेवन
दिन प्रातः काल मलकर छान लें। करनेसे ज्वर नष्ट होता है। (५०८८) मृद्धीकादिकाथः
इसे पीनेसे पित्तज्वर नष्ट होता है । (यो. त. । त. ६)
(५०९०) मेघनादादिक्वाथः मृद्वीकाकटुरोहिणीजलधरः शम्पाकमज्जाशिवा (वै. म. र. पटल २) कृष्णामलपटोलिके विदेलावृश्चीयपत्रं समम् । मेघनादाभयापद्मकिअल्कैः साधितं जलम् । संक्वाथ्याशु निपीत एष तु गणः संरेचयेदाश्वयं सक्षौद्रं रक्तपित्तनं बीजं वा वास्तुकोद्भवम् ॥ ताम्बुलाशिनमनिसेविनमिलागेह स्थितं मानवम् ।।
कांटे वाली चौलाई, हर्र और कमलकेसर मुनक्का, कुटकी, नागरमोथा, अमलतासका
समान भाग लेकर काथ बनावें। गूदा, हर्र, पीपलामूल, पटोल, निसोत, इलायची और सनायकी पत्ती समान भाग लेकर काथ इसमें शहद डालकर पीनेसे या बथुवेके बनावें ।
। बीज सेवन करनेसे रक्तपित्त नष्ट होता है।
इति मकारादि कषाय प्रकरणम्
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
अथ मकारादिचूर्णप्रकरणम्
(५०९१) मञ्जिष्ठादिचूर्णम्
( यो. र.; वृ. नि. र. | कासा. )
मनतवहिपाठा
कृष्णहरिद्वाविहितं तु चूर्णम् । क्षौद्रेण काasaलित्तोत्थे पिबेद् घृतं चैक्षुरसे विपक्वम् ॥ मजीठ, मूर्वा, तगर, चीता, पाठा, पीपल और हल्दी समान भाग लेकर चूर्ण बनावें
1
इसे शहद में मिलाकर चाटने और ईखके रसके साथ पका हुवा घी सेवन करने से क्षतज खांसी नष्ट होती है ।
( चूर्णकी मात्रा - २ - ३ माशा । ) (५०९२) मदनप्रकाशचूर्णम् ( नपु. मृता । त. ३) कोकिलाक्षस्य बीजानि मुसलीकन्दनागरम् । वाजिगन्धा कपिबीजं शाल्मली पुष्पमेव च ॥ बला शतावरीमूलं मोचाहं च त्रिकण्टकम् । जातीफलं च माषानं मातुलानि तुगा तथा ॥ एतानि समभागानि सिता सर्वसमानिका । पसा हि पिवेद्रात्रौ कर्षयुग्मं च नित्यशः ॥ बलवीर्यकरं पुंसां प्रमेहव्याधिनाशनम् । मदनप्रकाशचूर्ण हि प्रौढानां द्रावणं परम् ॥
तालमखाना, मूसली, बिदारीकन्द, सोंठ, असगन्ध, कौचके बीज, सेंमलके फूल, खरैटी (बीजबन्द), शतावर, मोचरस, गोखरु, जायफल, उड़द की दाल (घीमें भुनी हुई), भांग और बंस
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[ मकारादि
लोचन १-१ भाग तथा खांड सबके बराबर लेकर चूर्ण बनावें ।
इसे नित्य प्रति रात्रि समय २॥ तोलेकी मात्रानुसार दूध के साथ सेवन करनेसे बल वीर्य की वृद्धि और प्रमेहका नाश होता है ।
इसके सेवन से मनुष्य प्रौढा स्त्रियोंको भी द्रावित कर सकता है।
( व्यवहारिक मात्रा - ६ माशेसे ९ माशे तक | )
मदनसन्दीपनचूर्णम् ( रस प्रकरण में देखिये )
(५०९३) मंधुकचूर्णम् (वं. से.; वृ. मा. । वाजीकरणा ; नपुंसकामृता । त. ३ ) कर्षे मधुकचूर्णस्य घृतक्षौद्रसमन्वितम् । पयोनुपानं यो लिह्यन्नित्यवेगः स ना भवेत् ॥
मुलैठीका चूर्ण १। तोलेकी मात्रानुसार घी और शहद में मिलाकर दूधके साथ सेवन करनेसे अत्यन्त कामवृद्धि होती है ।
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( घी ६ माशे । शहद ३ - ४ तोले । ) (५०९४) मधुकादिचूर्णम् (१)
(वृ. नि. र. | कासा. ) मधुकं पिप्पलीमूलं दूर्वा द्राक्षा कणा समम् । घृतेन मधुना युक्तं पित्तकासविनाशनम् ॥
मुलैठी, पीपलामूल, दूर्वा, मुनक्का और पीपल समानभाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इसे शहद और घीके साथ सेवन करने से पित्तज खांसी नष्ट होती है ।
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चूर्णप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः ( मात्रा-३-४ माशे । घी ६ माशे । (५०९७) मधुकादियोगः शहद २ तोले ।)
(ग. नि. । रक्तपित्ता. ८) (५०९५) मधुकादिचूर्णम् (२) | मधुकोत्पलरास्नाभिर्युक्तमुत्पलकन्दकम् । (व. से. । स्त्री.)
पीतं तण्डुलतोयेन सविशं रक्तपित्तजित् ॥ मधुकं त्रिफला लोध्रमुष्टं सौराष्ट्रिकां मधु ।
मुलैठी, नीलोत्पल, रास्ना, नीलोत्पलकी जड़, मद्येनिम्बगुडूच्यौ तु कफजेऽसग्दरे पिबेत् ।।
| और कमलककड़ी (भिसण्डा) समान भाग लेकर
चूर्ण बनावें। मुलैठी, हर्र, बहेड़ा, आमला, लोध, ऊंटक
इसे चावलेोके पानीके साथ सेवन करनेसे टारा,सौराष्ट्री (सोरठ-सौराष्ट्र देशकी मिट्टी विशेष), रक्तपित्त नष्ट होता है । नीमकी छाल और गिलोय समान भाग लेकर चूर्ण
( मात्रा-४-६ माशे।) बनावें ।
(५०९८) मधुकादियोगः इसे शहद में मिलाकर मद्यके साथ सेवन (वृ. नि. र. । पित्तातीसार.; व. से.; करनेसे कफज प्रदर नष्ट होता है।
यो. र. । अतिसारा.) ( मात्रा-६ माशे । ) मधुकं कट्फलं लोभ्रं दाडिमस्य फलत्वचौ । (५०९६) मधुकादिचूर्णम् (३)
पित्तातिसारे मध्वाक्तं पाययेत्तन्दुलाम्बुना ॥
मुलैठी, कायफल. लोध, अनारदाना और (ग. नि. । कासा. १०)
अनारकी छाल समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। मधुकं पिप्पली द्राक्षा शठी शृङ्गी शतावरी ।
___इसे शहद में मिलाकर चावलेांके पानीके साथ द्विगुणा च तुगाक्षीरी सिता सर्वैश्वतुर्गुणा ॥
| सेवन करनेसे पित्तातिसार नष्ट होता है। पलिह्यान्मधुसर्पियो क्षतकासनिवृत्तये॥
(मात्रा-४-६ माशे।) मुलैठी, पीपल, मुनक्का, कचूर, काकड़ासिंगी
(५०९९) मधुत्रिफलागुडाईकयोगः और शतावरका चूर्ण १-१ भाग, बंसलोचनका
(व. से. । मदात्यया.) चूर्ण १२ भाग और खांड ७२ भाग लेकर
| मधुना हन्त्युपयुक्ता त्रिफला रात्रौ गुडाकं प्रातः। सबको एकत्र मिला लें।
सप्ताहात् पथ्यभुजो मदमूछ कामलोन्मादान्।। इसे शहद और घी में मिलाकर सेवन करनेसे
रात्रिको शहद के साथ त्रिफलाका चूर्ण और क्षतज खांसी नष्ट होती है।
प्रातः काल गुड़के साथ अदरक सेवन करने और ( मात्रा-१ तोला । घी ६ माशे । शहद | पथ्य पालन करनेसे १ सप्ताहमें मद, मूर्छा, ३-४ तोले । )
कामला और उन्मादका नाश हो जाता है।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
(५१००) मधुपिप्पलीयोगः (१) क्षतज खांसी और रक्त पित्त तथा विशेषतः राज(भै. र. । ज्वरा.)
यक्ष्माका नाश होता है। क्षौद्रोपकुल्यासंयोगः श्वासकासज्वरापहः।। (मात्रा-६ माशे।) प्लीहानं हन्ति हिक्काञ्च बालानाश्चापि शस्यते॥ (५१०३) मधुयष्टियोगः
पीपलके चूर्णको शहदमें मिलाकर चाटनेसे (ग. नि. । पाण्डु. अ. ७) श्वास, खांसी, ज्वर, तिल्ली और हिचकीका नाश पाण्डुरोगहरं लिह्याच्चूर्ण क्षौद्रविमिश्रितम् । होता है।
यष्टयाहस्य प्रयत्नेन तत्काथं वा पिबेन्नरः ।। यह प्रयोग बच्चेांके लिये भी हितकारी है। मुलैठोके चूर्णको शहदमें मिलाकर चाटनेसे (मात्रा १-१॥ माशा।)
अथवा मुलैठीका काथ पीनेसे पाण्डुका नाश (५१०१) मधुपिप्पलीयोगः(२) होता है।
(वृ. नि. र.; यो. र. अम्लपित्ता.) (मात्रा-६ माशे ।) पिप्पलीमधुसंयुक्ता नाशयेदम्लपित्तकम् ।
(५१०४) मधुवचायोगः जम्बीरस्वरसः पीतः सायं हन्त्यम्लपित्तकम् ॥ (यो. र. । अपस्मारा.)
पीपलके चूर्ण को शहद में मिलाकर चाटनेसे यः खादेक्षीरभक्ताशी माक्षिकेण वचारजः । अथवा सायङ्कालके समय जम्बीरीका स्वरस पीनेसे ! अपस्मार महाघोर सुचिरोत्थं जयेद ध्रुवम् ॥ अम्लपित्त नष्ट होता है।
बचका चूर्ण शहदमें मिलाकर सेवन करने
और दूध भातका आहार करनेसे पुराना घोर अप(चूर्णकी मात्रा-१-१॥ माशा।)
स्मार (मिरगी रोग) भी अवश्य नष्ट हो जाता है । (५१०२) मधुयष्टिकादिचूर्णम् ।
(मात्रा-१ माशा) (हा. सं. । स्था. ३ अ. १२)
नोट--बचका चूर्ण अधिक मात्रामें लेनेसे मधुष्टिकया लाक्षा शताहा कर्कटाद्वयम् । वमन हो जाती है। द्राक्षा शतावरी चैव द्विगुणा वंशरोचना ॥ (५१०५) मधूकादिचूर्णम् (१) सबैः सिता समा योज्या युक्तं च मधुसर्पिषा । (ग. नि. । ज्वरा. १) क्षतकासे रक्तपित्ते राजक्षये विशेषतः ॥
मधूकमथ हीबेरमुत्पलानि मधूलिकाम् ॥ __ मुठो, लाख, सौंफ, काकड़ासिंगी, मुनक्का, लोदवा चूर्णानि मधुना सर्पिपा वा जयेद्वमिम् । और शतावर १-१ भाग, बंसलोचन १२ भाग कफप्रसेकामुक्पित्तहिक्कावासांश्च दारुणान् ॥ और खांड १८ भाग लेकर चूर्ण बनावें । महुवा, सुगन्धबाला, नीलोत्पल और मुलेठी
इसे शहद और घीके साथ सेवन करनेसे | समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
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चूर्णप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः इसे शहद या धीमें मिलाकर चाटनेसे वमन, आककी जड़का चूर्ण अथवा सहदेवी या कफ, मुंहसे लार बहना, रक्तपित्त और दारुण गोकर्णीकी जड़का चूर्ण दूधके साथ सेवन करनेसे श्वास तथा हिचकीका नाश होता है। वातज शूल नष्ट होता है।
( थोड़ा थोड़ा करके दिन भरमें १ तोले (अर्कमल चूर्णकी मात्रा-आधामाशा ।) तक चटा सकते हैं)
(५१०८) मरिचादिचूनम (१) (५१०६) मधूकादिचूर्णम् (२)
(भै. र. । अशो.) (वा. भ. । चि. अ. ३ कास; ग. नि.। मरिचं पिप्पली कुष्ठं सैन्धवं जीरनागरम् । __ कासा. १०)
वचाहिङ्गुविडङ्गानि पथ्या वन्यजमोदकम् ॥ कासी पर्वास्थिशूली च लिह्यात्सघृतमाक्षिकान्। एतेषां कारयेच्चूर्ण चूर्णस्य द्विगुणं गुडम् । मधुकमधुकद्राक्षात्ववक्षीरी पिप्पलीबलान् ॥ खादेन्माषद्वयश्चापि पिबेदुष्णजलं ततः ॥ ___महुवा, मुलैठी, मुनक्का, बंसलोचन, पीपल सर्वाण्यांसि नश्यन्ति वातजानि विशेषतः ॥ और बला (बीजबन्द) समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। । काली मिर्च, पीपल, कूट, सेंधानमक, जीरा,
इसे घी और शहदमें मिलाकर सेवन कर- साठ, बच, हींग, बायबिडंग, हरं, चीता और नेसे खांसी तथा जोड़ी और हड्डियोंकी पीडाका अजमोद १--१ भाग तथा गुड़ सबसे २ गुना नाश होता है।
लेकर चूर्ण बनावें। ( मात्रा २-३ माशे।)
| इसे २ माशेकी मात्रानुसार उष्ण जलके साथ मध्यमगङ्गाधरचूर्णम् सेवन करनेसे समस्त प्रकारकी बवासीर और विशे. प्र. सं. १२३३ "गङ्गाधरचूर्णम् (मध्यम)" षतः वातज बवासीर नष्ट होती है। देखिये।
(५१०९) मरिचादिचूर्णम् (२) मध्यमनायिकाचूर्णम्
( हा. स. । सा. ३ अ. १२) "लाईचूर्णम् (मध्यम) ” देखिये। कर्षमेकं मरीचस्य कवि पिप्पलो तथा । ___ मध्यमलाईचूर्णम्
| दाडिमस्य पलं योज्यं निर्गुण्डोनां पलद्वयम् ॥ " लाई चूर्णम् (मध्यम) ” देखिये । क्षारं तथाकर्षं तु संयोज्य या शूजम । (५१०७) मन्दारमूलिकाद्यं चूर्णम् चूर्ण चोष्णजलेनैव योजयेन्मतिमान् भिषक् ।। (वृ. नि. र. । शूल.)
काली मिर्च १। तोला, पीपल ७॥ माशे, मन्दारमूलिकाचूर्ण भुक्तं दुग्धेन मिश्रितम् । | अनारदाना ५ तोले, संभालुके पत्ते (या मूल) १० वातशूलहरं देवीमूलं वा कर्णगोद्भवम् ॥ तोले और जवाखार ७॥ माशे लेकर चूर्ण बनावें।
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२८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे खांसी (५११२) मरिचादिचूर्णम् (५) नष्ट होती है।
(शा. ध.। खं. २ अ. ६) (मात्रा २-३ माशे ।)
तक्रेण यः पिवेन्नित्यं चूर्ण मरिचसम्भवम् । (५११०) मरिचादिचूर्णम् (३) चित्रसौवर्चलोपेतं ग्रहणी तस्य नश्यति । (च. सं. । चि. अ. १९ ग्रहण्य.)
| उदरप्लीहमन्दाग्निगुल्मा नाशनं भवेत् ।। मरिचः कुश्चिकाम्बष्ठादृक्षाम्लकुडवाः पृथक् ॥
___काली मिर्च, चीतामूल और सञ्चल (काला पलानि दश चाम्लस्य बेनसस्य पलार्दिकम् ।
नमक ) समान भाग लेकर चूर्ण बनार्वे । सौवर्चलं विडम्पाक्यं यवक्षारः ससैन्धवः ॥
इसे तक्रके साथ संवन करनेसे संग्रहणी, शटी पुष्करमूलानि हिङ्ग हिङ्गशिवाटिका। उदररोग, तिल्ली, मन्दाग्नि, गुल्म और अर्शका तत् सर्वमेकतः मूक्ष्मं चूर्णं कृत्वा प्रयोजयेत् ॥ नाश होता है। हितं वाताभिभूतायां ग्रहण्यामरुचौ तथा॥ (मात्रा १॥-२ माशे।)
काली मिर्च, कालाजीरा, पाठा और तिन्त- (५११३) मरिचादिचूर्णम् (६) डीक २०-२० तोले, अम्लवेत ५० तोले तथा (व. से. विष.) सञ्चल, वि नमक, खारी नमक, जवाखार, सेंधा सचतुर्मरिचः कर्षः चाङ्गेाः सह सर्पिषा । नमक, कचूर, पोखरमूल, हींग (भुनी हुई) और हन्ति पानप्रलेपाभ्यां चोग्रसर्पविषं भयम् ॥ हिंगुपत्री २॥-२॥ तोले लेकर चूर्ण बनावें। काली मिरचेोके ५ तोले चूर्णको चूकेके रस
इसको सेवन करनेसे वातज संग्रहणी और और घीमें मिलाकर पिलाने तथा लेप करनेसे उग्र अरुचि नष्ट होती है।
। सर्पविष भी नष्ट हो जाता है । ( मात्रा १-१॥ माशा । अनुपान-धी।) (५११४) मरिचादियोगः (५१११) मरिचादिचूर्णम् (४)
(व. से. । बालरोगा.) (बृ. नि. र.; यो. र. । कासा.) मरिचं नवनीताढयं शोथनं भक्षयेच्छिशूः। सेवितं मधुखण्डाभ्यां चूर्ण मरिच यदि। काली मिर्चके चूर्णको नवनीतमें मिलाकर किमर्थ क्रियते चिन्ता कासश्वासपराजितैः ॥ चटानेसे बच्चोंका शोथ नष्ट होता है।
काली मिर्चका चूर्ण और खांड समानभाग (५११५) मरिचायंचूर्णम् मिलाकर शहदके साथ चाटनेसे खांसी और
(व. से. । अजीर्णा.) श्वासका नाश हो जाता है।
मरिचाग्निकणा पथ्या दाडिमश्च महौषधम् । ( मात्रा-३ माशे।)
हिङ्गुसौवर्चलोपेतं चूर्णमग्निकरं परम् ॥
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चूर्णप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः कालीमिर्च, चीतामूल, पीपल, हर, अनारदाना, (५११८) मलशोधन चूर्णम् सांठ, हींग (भुनी हुई) और सञ्चल (काला नमक)
(यो. त. । त. ७) समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
शिवाकृष्णामूलं त्रिकटुकमजाजीजलधरइसे सेवन करनेसे जठराग्नि तीव्र होती है ।
| स्त्रिद्धात्रीभूमीतरुपटुविडङ्गामरसुमम् । (मात्रा-२-३ माशे । अनुपान-उष्ण जल ।) दलं कुष्ठं हिङ्गचलन इति सम्पिष्य मृदुलं (५११६) मरिचायुडूलनम्
| जलेरावेग्युत्थैर्मलहरमिदं सूष्णपयसा ।। (वै. र. । ज्व; वृ. नि. र. । ज्वरा.)
___हर, पीपलामूल, सोंठ, मिर्च, पीपल, जीरा, मरिचं पिप्पली शुण्ठी पथ्या लोधं सपुष्करम् ।
नागरमोथा, निसोत, आमला, भुई आमला, सेंधा भूनिम्बं कटुका कुष्ठक—रेन्द्रयवासटी॥
नमक, बायबिडंग, लौंग, तेजपात, कूठ, हींग और एतानि समभागानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ।
चीता समानभाग लेकर चूर्ण बनावें । प्रस्वेदे कण्ठरोधे च सन्धिमनमिष्यते ।।
इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे विरेचन एतदुद्धलनं श्रेष्ठं सन्निपातहरं परम् ॥ मरिच, पीपल, साठ, हर्र, लोध, पोखरमूल,
होकर मल निकल जाता है। चिरायता, कुटकी, कूठ, कचूर, इन्द्र जौ और कपूर- (५११९) महाक्षारः (१) कचरी । सब चीजें समान भाग लेकर महीन चूर्ण
( य. से. । ग्रहण्य.) बना लीजिए।
यवक्षारं दशपलं सैन्धवं द्विगुणं भवेत् । ___ सन्निपात रोगमें जब अत्यधिक पसीना आता भल्लातकानि त्रिता चित्रकं त्रिफला त्वचः॥ हो या कण्ठ रुक जाय तब इसकी मालिशसे स्नुह्ययोश्च दुग्धश्च तैलस्य च घृतस्य च । लाभ होता है।
| प्रस्थं प्रस्थं समावाप्य चूर्णैरेतै विमिश्रयेत् ॥ (९११७) मर्कटीवीजयोगः तहाहयेन्महाक्षारं पाययेच सुखाम्बुना। (ग. नि. । हिक्का.; वृ. नि. र. । श्वासा.; ग्रहणीदीपने श्रेष्ठो गुल्मार्शः कृमिनाशनः ॥ यो. र. । श्वासा.)
जवाखार ५० तोले, सेंधा नमक १०० तोले मार्कटानां तु वीजानां चूर्ण माक्षिकसर्पिपा। तथा भिलावा, निसोत, चीता, त्रिफला, दालचीनी पलिह्यात् प्रातरुत्थाय श्वासातः स्वास्थ्यमा- सेंड ( सेहुंड ) का दूध, आकका दूध, तैल और
प्नुयात् ॥ धी ८०-८० तोले लेकर कूटने योग्य चीजेको कौचके बीजेके चूर्णको शहद और घी में | कुटवा लें और फिर सबको कपड़मिट्टी की हुई मिलाकर प्रातः काल सेवन करनेसे श्वास नष्ट | एक हांडीमें भरकर उसका मुख बन्द कर दें और होता है।
उसे चूल्हेपर चढ़ाकर इतना पका कि जिससे ( मात्रा-६ माशेसे १ तोले तक ।) | सब चीजें जलकर भस्म हो जाय ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
तदनन्तर हाण्डीके रवांगशीतल होने पर उस- | सकृमीन्ग्रहणीदोषान्वन्ध्योदावर्तकुण्डलान् । मेंसे क्षारको निकालकर पिसवालें । | मूत्रकृच्छमपस्मारं क्षारोऽयं विनिवर्तयेत् ।।
इसे मन्दोष्ण जलके साथ सेवन करनेसे तिल और सरसोंकी नाल (डण्डी), मक्काकी ग्रहणी दीप्त होती और गुल्म, अर्श तथा कृमि- नाल, थूहर (सेंड) का डंडा, दशमूलकी प्रत्येक रोगका नाश होता है।
| औषधि, अपामार्ग ( चिरचिटा ), दन्तीमूल, चीता( मात्रा-१ माशा।)
मूल, अरहर, महुवा, इन्द्रायण, हर्र, बहेड़ा, आमला, (५१२०) महाक्षारः (२)
निसोत, कनेर, पुनर्नवा (बिसखपरा), वृश्चिकाली,
आक, कमीला और नीमकी छाल १०-१० पल (वृ. यो. त. । त. १०५; वं. से. उदररोगा.)
(५०-५० तोले) लेकर मिट्टीके बरतनमें बन्द तिलसर्पपनालानि यवनालं सुधाऽपि च।।
करके इतना पकावें कि सब चीजें जलकर भस्म दशमूलमपामार्गो दन्तिचित्रकमाढकी ॥
हो जायं । तदनन्तर उस भस्ममें ३२ सेर गोमूत्र मधूकमैन्द्रीं त्रिफला त्रिवृता करवीरकम् ।।
मिलाकर पुनः पकावें और जब गोमूत्र जल जाय पुनर्नवा वृश्चिकाली चार्ककम्पिल्लनिम्बकम् ॥ एषां दश पलान्भागान्युक्त्या दग्ध्वा समावपेत् ।।
तो पुनः उतना ही गोमूत्र और डालकर दुबारा गोमूत्रे द्रोणसंयुक्ते सप्तकृत्वस्तु पाचयेत् ॥
पकावें । इसी प्रकार सात बार पाक करें और
अन्तमें उसमें बच, अतीस, पाठा, हल्दी, दारुअथात्रेमानि चूर्णानि समावाप्य पुनः पचेत् । वचामतिविषां पाठां द्वे हरिद्रे महौषधम् ।।
हल्दी, सोंठ, निसोत, कमीला, जवाखार, पांचों त्रिवृत्कम्पिल्लकं क्षारं तथैव लवणानि च ।
नमक, सोंठ, सहजनेकी फली, कूठ, भिलावा, पीपल, महौषधं शिग्रुफलं कुष्ठं भल्लातकानि च ॥
बायबिडंग, हर्र, बहेड़ा, आमला, देवदारु, कुटकी, पिप्पलीश्च विडङ्गानि त्रिफलां देवदारु च ।
नागरमोथा, दन्तीमूल, हींग और अम्लबेतका चूर्ण कटुकारोहिणीमुस्तं दन्तीहिङ्ग्यम्लवेतसम् ॥
५०-५० तोले तथा दही, सिरका, कांजी, घी दधिशूक्तारनालानामाढकाढकमावपेत् ।।
और तैल ८-८ सेर मिलाकर पकावें । जब समसंज्ञेन भागेन सर्पिस्तैलं विपाचयेत् ॥
समस्त द्रव पदार्थ जलकर बिल्कुल शुष्क चूर्ण हो विगतार्चिर्यथा शान्तमथैनमवतारयेत् ।
जाय तो अग्नि देनी बन्द कर दें और उसके ततो विडालपदकं पिबेदुष्णेन वारिणा॥
स्वांग शीतल होनेपर औषधको निकाल कर पिसवा लें। मद्यैरम्लैश्च लाभेन क्षीरमूत्रेण वा पुनः । इसे ११ तोलेकी मात्रानुसार उण जल या महाक्षार इति ख्यातो जठराणां विनाशनः । मद्य, कांजी, दूध अथवा गोमूत्रके साथ सेवन करप्लीहोऽशासि च गुल्मानि शूलं च हृदयग्रहम् । नेसे समस्त उदररोग, तिल्ली, अर्श, गुल्म, शूल, यक्ष्माणं च प्रमेहं च पाण्डुरोगं भगंदरम् ॥ ! हृद्ग्रह, यक्ष्मा, प्रमेह, पाण्डु, भगन्दर, कृमिरोग,
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चूर्णप्रकरणम्]
चतुर्थों भागः
ग्रहणी विकार, वन्ध्य-व, उदावर्त, मूत्रकृच्छ्र, वात- रोग, २० प्रकारके कफज रोग, ११ प्रकारके गलकुण्डलिका और अपस्मार आदि रोग नष्ट होते हैं। रोग, ज्वर, शूल, अर्श, भगन्दर, शोष, स्वरभंग,
( व्यवहारिक मात्रा-१ से ३ माशे तक।) | ऊरुस्तम्भ और हनुग्रहादि रोगोंको नष्ट करता है। (५१२१) महातालीशादिचूर्ण (मात्रा-९ माशे तक । साधारण अनुपान-शहद) (व. से. । राजयक्ष्मा.)
(५१२२) महानिम्बबीजयोगः तालीशं चित्रकं व्योपं दाडिम तिन्तिडीयकम् । (वृ. नि. र. । अर्शी.) एतेषां पलिकान् भागान् दीप्यको गजपिप्पली। महानिम्बस्य बीजानि षडष्टदशसङ्घयया । यवानी शतभेद्यश्च कृमिघ्नं ग्रन्थिकं तथा। चूणितं सितया सार्द्ध पिबेद् रक्तार्शसां हितम्।। चव्यश्च केसरश्चैव हपुषाचाज्यशान्यकम् ॥ बकायनके ६-८ या १० बीजोंके चूर्णको जातीफलं लवङ्गश्च त्रिसुगन्धं कणा शुभा। समानभाग खांडमें मिलाकर सेवन करनेसे रक्तार्श एतेषां कर्षमेकन्तु द्विगुणा शर्करा भवेत् ॥ का नाश होता है । पीनसं राजयक्ष्माणं हृद्रोगं वातपैत्तिकम् ।। (यह एक मात्रा है।) मूत्रकृच्छान्नेत्ररोगान् पाण्डुरोगं हलीमकम् ॥ (५१२३) महाषाडवं चूर्णम् अशीतिं वातजान् रोगांश्चत्वारिंशच्च पैत्तिकान् । (ग. नि. । चूर्णा.; वं. से.। अरोचका.; विंशति श्लेष्मिकांश्चैव ह्येकादशगलग्रहान् ।।
शा. ध. । ख. २ अ. ६) ज्वराञ्छूलानि चाीसि भगन्दरांश्च शोषकान्। तालीसोषणचव्यनागलवणैस्तुल्यांशकैबिस्ततः वैस्वर्यहननश्चैव ऊरुस्तम्भं हनुग्रहम् ॥ कृष्णाग्रन्थिकतिन्तिडीकहुतभुक्त्वग्जीरकाख्यैमहातालीशमित्येतत् सर्वान् व्याधीन व्यपोहति।।
युतः। ___ तालीस पत्र, चीता, सोंठ, मिर्च, पीपल, अना- विश्वैलोबदराम्लवेतसघनैर्धान्याजमोदायुतरदाना और तिन्तडीक ५-५ तोले तथा अजमोद, स्यशैडिमबीजपादसहितः श्रेष्ठः सिताधीशकः गजपीपल, अजवायन, अमलवेत, बायबिडंग, पीप- कण्ठास्योदरहृद्विकारशमनः कायाग्निसन्दीपनो लामूल, चव, नागकेसर, हाऊबेर, जीरा, धनिया, गुल्माध्मानविचिकागुदरुनाश्वासकृमिच्छजायफल, लौंग, दालचीनी, इलायची, तेजपात,
दिहा। पीपल और बंसलोचन ११-१। तोला एवं खांड कासारुच्यतिसारमूढमरुतां हृद्रोगिणां कीर्तितसबसे दो गुनी ( ११५ तोले ) लेकर चूर्ण बनावें। इचूर्णाऽयंभिषजामतीव दयितः ख्यातो महायह चूर्ण पीनस, राजयक्ष्मा, वातपित्तज
पाडवः ॥ हृद्रोग, मूत्रकृच्छ्, नेत्ररोग, पाण्डुरोग, हलीमक, तालीसपत्र, कालीमिर्च, चव, नागकेसर और ८० प्रकारके वातज रोग, ४० प्रकारके पित्तज सेंधा नमक १-१ भाग तथा पीपल, पीपलामूल,
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३२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
-
तिन्तडीक, चीता, दालचीनी और जीरा २-२ इसके सेवनसे गूंगा व्यक्ति अच्छी तरह भाग; सोंठ, इलायची, बेर, अम्लबेत, नागरमोथा, । बोलने लगता है। धनिया और अजमोद ३-३ भाग एवं अनारदाना यह चूर्ण बुद्धिकी मन्दता में बहुत ही उपसबसे चौथाई ( ९॥ भाग ) तथा खांड सबसे योगी है। आधी (२३॥ भाग) लेकर यथाविधि चूर्ण बनावें। (व्यवहारिक मात्रा-२-३ माशे । ) यह चूर्ण कण्ठरोग, मुखरोग, उदररोग, हृद
महासुदर्शन चूर्णम् यविकार, गुल्म, आध्मान, विषूचिका, अर्श, श्वास, " सुदर्शन चूर्णम् (महा)' देखिये ।। छर्दि, कृमि, खांसी, अरुचि, अतिसार और मूढ
माक्षिकादि चूर्णम् वात को नष्ट तथा जठराग्नि को दीत करता है। (भै. र.; आ. वे. वि. । प्रमेहा.)
(मात्रा-६ माशे तक । अनुपान-शहद) रस प्रकरणमें देखिये। (५१२४) महासरस्वतीचूर्णम् (५१२५) मागध्याद्यं चूर्णम् (र. र. स. । अ. २४)
( ग. नि. । हिकावासा. ११) अश्वगन्धाजमोदा च वचा कुष्ठं कटुत्रयम् । मागधिका त्रिफलाकृतचूर्ण शतपुष्पं ब्रह्मबीजं सैन्धवं च समं समम् ॥ ___ यो मधुना सह भोजनकाले । एतदद्ध वचाद्धं च चूर्णितं मधुसर्पिषा। खादति तस्य विनश्यति हिक्का भक्षयेत्कर्षमात्रं तु जीर्णान्ते क्षीरभोजनः ॥ श्वासकफज्वरपीनसपीडा॥ सहस्रग्रन्थधारी स्यान्मूको वा वाक्पतिर्भवेत् ।। पीपल, हर्र, बहेड़ा और आमला समानभाग महासरस्वतीचूर्ण बुद्धिजाड्ये परं हितम् ॥ | लेकर चूर्ण बनावें ।
असगन्ध, अजमोद, बच, कूठ, सोंठ, मिर्च इसे शहदमें मिलाकर भोजनके समय चाटपीपल, सौंफ, ढाकके बीज (पलासपापड़ा) और नेसे हिचकी, श्वास, कफ, वर और पीनसका सेंधा नमक समान भाग लेकर चूर्ण बनावें और नाश हो जाता है। फिर उसमें उसके बराबर बचका चूर्ण मिला. ( मात्रा-३-४ माशे।) कर रक्खें।
(५१२६) मातुलुङ्गकेसरादियोगः ___ इसमें से नित्य प्रति १। तोला चूर्ण शहद (व. से.; वृ. मा. । ज्वरा.) और घीमें मिलाकर सेवन करने और औषध मातुलङ्गफलकेसरो धृतः सिन्धुजन्ममरिपचने पर दुग्धाहार करनेसे स्मरणशक्ति इतनी प्रबल
चान्वितो मुखे । हो जाती है कि हजारों ग्रन्थ कण्ठस्थ किये जा | हन्ति वातकफरोगमास्यगं शोषमाशु सकते हैं।
जडतामरोचकम् ॥
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चूर्णप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः बिजौ रे नीबूकी केसर, सेंधा नमक और | ( सेंधा नमक, कांच लवण-कचलोना–सामुद्र काली मिर्च के चूर्णको मुखमें रखनेसे वातकफज लवण, बिड लवण तथा संचल नमक) समान भाग मुखरोग, मुखशोष, मुखकी जडता और अरुचि | लेकर चूर्ण बनावें। नष्ट होती है।
इसे मन्दोष्ण जलके साथ सेवन करनेसे बल, (५१२७) मातुलङ्गमूलादियोगः वर्ण और अग्निकी वृद्धि होती है। ( ग. नि. । वन्ध्या . ५)
(मात्रा-१॥ से ३ माशे तक । ) मातुलुङ्गशिफां नारी ऋत्वन्ते पयसा पिबेत् । | (५१३०) मानकमूलादियोगः नागकेसरपूरास्थिचूणे वा गर्भदं परम् ॥
(यो. र. । विद्रधिचि.) बिजौ रे नीबूकी जड़का या नागकेसर और शमयति मानकमूलं क्षौद्रयुतं तण्डुलाम्भसा बिजौरे के बीजोंका चूर्ण स्त्रीको मासिक धर्म
पीतम् । होनेके पश्चात् दूधके साथ पिलानेसे वह गर्भ अन्तभूतं विद्रधिमुद्धतमाश्वेव मनुजस्य । धारण कर लेती है।
___ मानकन्दके चूर्णको शहदमें मिलाकर चाव(५१२८) मातुलुङ्गादिचूर्णम् (१) । लोंके पानीके साथ पीनेसे कष्टसाध्य अन्तर्विद्रधि ( यो. र.; वृ. मा. । स्त्रीरोगा.: वृ. नि. र.। स्त्री.. भी शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। ___व. से. । स्त्रीरो.)
( मात्रा-१ तोला ) मातुलुङ्गस्य मूलं तु मधुकैः संयुतं तथा ।
मानसोल्लासचूर्णम् घृतेन सहितं पीत्वा सुखं नारी प्रसूयते ॥ (रसप्रकरणमें देखिये ।) बिजौ रेकी जड़ और मुलैठी समान भाग लेकर
मार्कण्डेयचूर्णम् चूर्ण बनावें।
(भै. र. । ग्रहण्य.) इसे घृतके साथ पिलानेसे स्त्रीको सुखपूर्वक रस प्रकरणमें देखिये। प्रसव हो जाता है।
मार्कवादिचूर्णम् (५१२९) मातुलगादिचूर्णम् (२)
(वृ. नि. र. । क्षय.) (वा. भ.। चि. अ. १० ग्रहण्य.)
रस प्रकरणमें देखिये। मातुलुङ्गशठीरास्नाकटुत्रयहरीतकी।
(५१३१) मालतीयोगः स्वर्जिकायावशूकाख्यौ क्षारौ पञ्चपटूनि च ॥
(व. से. । स्त्रीरो.) सुखाम्बुपीतं तच्चूर्ण बलवर्णाग्निवर्द्धनम् ॥ मृतायाः कुम्भमुदरं पीतं तक्रेण मालतीमूलम् ।
बिजौ रेकी जड़, कचूर, रास्ना, सोंठ, मिर्च, घृतमधुलीढा सहसा करोति धात्री शमं निशा पीपल, हर, सज्जीखार, जवाखार और पांचों नमक |
चैव ॥
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[मकारादि मालतीकी जड़का चूर्ण तक्रके साथ सेवन | सपियाला कृताश्चूर्ण पृथङ् मध्वाज्यषड्गुणाः ॥ करानेसे अथवा आमले या हल्दीका चूर्ण शहद पादाभ्यामस्पृशन्भूमि लिहन्कोलमितं पुमान् ।
और घीमें मिलाकर चटानेसे प्रसूताका बढ़ा हुवा लभते बलमुत्साहं स्त्रीषु याति कुलिङ्गवत् ॥ पेट घट जाता है।
___ माषपर्णी (बनउडद), माषपर्णीकी जड़, मिश्री, (५१३२) माषचूर्णम् सिंघाड़ा, जौ, कौंचकी जड़, मुलैठी, बिदारीकन्द
(नपुंसकामृता. । त. ३) और तालमखाना तथा चिरौंजी समान भाग लेकर त्रिपलं माषचूर्ण तु तत्समा श्वेतशर्करा ।। चूर्ण बनावें। आलोडय मधुसर्पिभ्यां पलार्द्ध भक्षयेन्नरः॥ इसमें इससे ६ गुना घी और इतना ही बलवीर्यकरं शश्वद्वलीपलितनाशनम् ॥
शहद मिलाकर रात्रिको सोते समय चाटें और (घीमें भुनी हुई छिलके रहित ) उड़दकी |
उसके बाद भूमि पर पांव न रक्खें। दालका चूर्ण और सफेद खांड १५-१५ तोले
___इसे इस प्रकार सेवन करनेसे बल और लेकर एकत्र मिलावें।
उत्साह बढ़ता तथा मनुष्य कुलिङ्गवत् ( बारबार ) इसे २॥ तोलेकी मात्रानुसार शहद और
| स्त्री समागम कर सकता है। घीमें मिलाकर सेवन करनेसे बलवीर्यकी वृद्धि और (मात्रा-१ तोला ।) बलीपलितका नाश होता है।
(५१३५) माषादिचूर्णम् (१) (५१३३) माषचूर्णयोगः
(वृ. यो. त.। त. १४७) (ग. नि. । वाजीकरणा.)
माषपिपलिशालीनां यवगोधूमयोस्तथा । प्रसूति माषचूर्णस्य धात्रीस्वरसभावितम् । शर्करापिप्पलीयुक्तं चूर्णं तदृष्यमिष्यते ॥ घृतक्षौद्रयुतं लीढ़ा प्रमदा दश गच्छति ॥ । उड़द, पीपल और शाली चावल समान भाग
१० तोले उड़दके चूर्णको आमलेके स्वरसकी लेकर चूर्ण बनावें अथवा जौ, गेहूं, खांड और कई भावना देकर सुखा लें।
पीपल बराबर बराबर लेकर चूर्ण बनावें।। इसे घी और शहदमें मिलाकर चाटनेसे
यह दोनों चूर्ण कामशक्तिकी वृद्धि करते हैं। अत्यन्त कामवृद्धि होती है।
(मात्रा-१ से २ तोले तक। अनुपान-घी (व्यवहारिक मात्रा-१ से २ तोले तक ।) और शहद । ) (५१३४) माषपादिचूर्णम्
(५१३६) माषादिचूर्णम् (२) ( ग. नि. । वाजीकरणतन्त्र.)
(यो. र.; वं. से.; भा. प्र. । सोमरो.) समूलिका माषपर्णी सिता शृङ्गाटकं यवाः॥ माषचूर्ण समधुकं विदारीमधुशर्कराम् । स्वगुप्तामूलयष्टयाहविदारीक्षुरकाः समाः। पयसा पाययेत्प्रातः सोमधारणमुत्तमम् ॥
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चूर्णप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः __उड़द, मुलैठी और बिदारीकन्द समान भाग (मात्रा-१॥ माशा। दिनमें ३-४ बार लेकर चूर्ण बनावें।
सेवन करें ।) इसमें खांड और शहद मिलाकर प्रातः काल (५१३९) मुण्डयादिचूर्णम् (२) दूधके साथ सेवन करने से स्त्रियोंका सोमरोग नष्ट
( यो. स. । समुद्दे. ७) होता है।
मुण्डीचूर्ण कानिकेन प्रपीतं ( मात्रा-१ तोला।)
हन्यात्क्षिप्रं वक्तूदुर्गन्धिभावम् । मुक्तादिचूर्णम्
गोरखमुण्डीके चूर्णको काञ्जीमें मिलाकर पीनेसे (च. सं. । चि. अ. २१) मुखकी दुर्गन्धि नष्ट होती है। रसप्रकरणमें देखिये।
(मात्रा-६ माशेसे १ तोले तक) (५१३७) मुखधावनयोगः (५१४०) मुण्डन्यादिचूर्णम् (३) (ग. नि. । ज्वरा.)
(यो. स. । समुहे. ७) हरीतकी प्रियङ्गुश्च पिप्पली रोध्रमेव च । मुण्डी मुशल्यौ शतमूलिका च दावी हरिद्रा तेजोहा सक्षौद्रं मुखधावनम् ॥ भृङ्गार्कः सर्वमिदं समांशम् । एतेन कटुभावाच मुखरोगश्च शाम्यति ।। विचूण्य मुष्टिप्रमितं नराणावक्त्रं विशदतामेति भक्तच्छन्दश्च जायते ॥ मन्त्रप्रवृद्धिं विनिहन्ति सद्यः॥
हर्र. फूलप्रियङ्गु, पीपल, लोध, दारुहल्दी, | गोरखमुण्डी, दोनों मूसली, शतावर और हल्दी और तेजबल समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। भंगरा समान भाग लेकर चूर्ण करके ५ तोलेकी
इसे शहदमें मिलाकर जिह्वा आदिपर मलकर मात्रानुसार सेवन करनेसे अन्त्रवृद्धि रोग नष्ट कुल्ले करनेसे मुखरोगोंका नाश होता तथा | होता है । भोजनमें रुचि उत्पन्न होती है एवं मुख स्वच्छ (व्यवहारिक मात्रा-३ से ६ माशे तक) हो जाता है।
(५१४१) मुद्गपुष्पादियोगः (५१३८) मुण्डयादिचूर्णम् (१) (यो. र. । योनिरोगा.; भा. प्र. । म. खं. योनिरो.)
( यो. स. । समुद्दे. ६) मुद्गपुष्पं सखदिरं पथ्या जातीफलं तथा । मुण्डीकृष्णाभेषजानां रजोभिलीढं क्षौद्रं सुस्वरत्वं वृको पूगं च सञ्चूर्ण्य वस्त्रपूतं क्षिपेद्भगे ॥
करोति । | योनिर्भवति सङ्कीर्णा न स्रवेच्च जलं ततः ॥ गोरखमुण्डी, पीपल और सोंठके चूर्णको | मूंगके फूल, कत्था, हर्र, जायफल, पाठा और शहदमें मिलाकर चाटनेसे स्वर मधुर हो जाता है। सुपारी समानभाग लेकर बारीक चूर्ण बनावें।
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३६
इसे योनि में छिड़कने से योनि संकीर्ण हो जाती है और यदि उससे जलस्राव होता हो तो वह भी बन्द हो जाता है ।
- भैषज्य रत्नाकरः
भारत
(५१४२) मुशल्यादिचूर्णम्
(नपुंसकामृ । त. ३; शा. ध. । ख. २ अ. ६) मुसलीकन्दचूर्ण च गुडूचीसत्वसंयुतम् । वानरीगोक्षुराभ्यां च शाल्मलीशर्करामलः || आलोय घृतदुग्धाभ्यां भक्षयेत्कामहृद्धये ॥
मूसली, बिदारीकन्द, गिलोय का सत, कौंच के बीज, गोखरू, सेमलकी मूसली, खांड और आमला समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इसे धीमें मिलाकर दूधके साथ पीने से कामवृद्धि होती है ।
( मात्रा - २ - ३ माशे । )
(५१४४) मुष्टियोग (भै. र. । मूत्राघाता. ) जलेन खदिरीबीजं मूत्राघाताश्मरीहरम् । मूलं रुद्रजटायास तक्रं पीतं तदर्थकृत् ॥
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[ मकारादि
अशोक के बीजों के चूर्णको जलके साथ सेवन करने अथवा रुद्रजटाकी जड़के चूर्णको तक के साथ पीने से मूत्राघात और अश्मरी नष्ट होता है । (५१४५) मुस्तकादिचूर्णम्
(यो. र.; वॅ. से.; वृ. नि. र. । बालरो . ) मुस्तकातिविषायासैकणाशृङ्गीरजो लिइन् । मधुना मुच्यते बालः कासैः पञ्चभिरुच्छ्रितैः ॥
नागरमोथा, अतीस, धमासा ( पाठ भेदके अनुसार बासा), पीपल और काकड़ासिंगी समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इसे शहद में मिलाकर चटानेसे बालकोंकी ५ प्रकारकी खांसी नष्ट होती है ।
( मात्रा - ३ माशे । ) (५१४३) मुशल्यादियोगः (ग. नि.; यो. र. । अर्शो.) क्रेणाशसि निघ्नन्ति मुशलीकुटजा निकाः । पीता वा कुटजाब्दाग्निमञ्जिष्ठाः सपुनर्नवाः ||
व्याघ्री सपुष्पफलमूलदलैरुपेता । रास्ना विषा मधुरसा सुरसादलानि
काली मूसली, इन्द्रजौ और चीता समान भाग लेकर चूर्ण बनावें अथवा इन्द्रजौ, नागरमोथा, चीता, मजीठ और पुनर्नवा ( बिसखपरा) बराबर बराबर लेकर चूर्ण बना लें ।
चूर्ण निहन्ति कथितेन जलेन कासम् ॥ नागरमोथा, बासा, हर्र, बहेड़ा, आमला, देवदारु, भरंगी, कटेलीका पञ्चाङ्ग, रास्ना, अतीस, इनसे एक चूर्ण कके साथ सेवन मूर्वा (अथवा मुलैठी) और तुलसी के पत्ते समान करनेसे अर्शका नाश हो जाता है ।
भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
(५१४६) मुस्तादिचूर्णम् (१) ( हा. सं. । स्था. ३ अ. १२ ) मुस्ताटरूपकफलत्रिकदारुभार्गी
इसे उष्ण जलके साथ सेवन करने से खांसी नष्ट होती है।
( मात्रा २ - ३ माशे । )
१. यासेति पाठान्तरम् ।
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चूर्णप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
(५१४७) मुस्तादिचूर्णम् (२) पीपल, पद्माख, भरंगी, हर्र, बहेड़ा और आमला ( वृ. नि. र.; व. से.; भा. प्र. । ग्रहणी.; समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। वृ. नि. र. । बालरोगा.)
इसे शहदके साथ चाटनेसे पांच प्रकारको मुस्तकातिविषाविल्वकुटजं सूक्ष्मचूर्णितम् । खांसी नष्ट होती है। मधुना च समालीढं ग्रहणी सर्वजां हरेत् ॥ (मात्रा-३-४ माशे ।) नागरमोथा, अतीस, बेलगिरी और इन्द्रजौ
(५१५०) मुस्तायोगः समान भाग लेकर बारीक चूर्ण बनावें ।
(रा. मा. । अ. ३८) इसे शहदके साथ सेवन करनेसे सर्वदोषज
तन्दुलोदकयुतं परिपिष्टं ग्रहणी नष्ट होती है। ( मात्रा-३-४ माशे।)
मूलमम्बुधरस्य घृताढयम् ।
पीयमानमतिदारुणवेगं (५१४८) मुस्तादिचूर्णम् (३) ।
कृत्रिमं गरलमाशु निहन्ति ॥ (वृ. नि. र. । शूला.)
नागरमोथेकी जड़को पीसकर थोड़ेसे धीमें मुस्तं वचा तिक्तकरोहिणी च
मिलाकर चावलोंके पानीके साथ पीनेसे अति दारुण तथाभया निर्दहनं च तुल्यम्।
कृत्रिम विष नष्ट हो जाता है। पिवेत्तु गोमूत्रयुतं कफोत्थे शूले तथा यस्य च पाचनार्थम् ॥
(५१५१) मूर्वादिचूर्णम्
(भा. प्र.। म. खं. वमना.) नागरमोथा, बच, कुटकी, हर्र और शुद्ध |
सोद्गारायां भृशं छयों मूळया धान्यमुस्तयोः। भिलावा समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। इसे गोमूत्रके साथ सेवन करनेसे कफजशूल
समधुकाअनं चूर्ण लेहयेन्मधुसंयुतम् ॥ नष्ट होता है। यह चूर्ण आमको भी पचाता है।
मूर्वा, धनिया, नागरमोथा, मुलैठी और सुरमा
समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। (५१४९) मुस्ताचं चूर्णम् ( ग. नि. । कासा.)
इसे शहदमें मिलाकर चाटनेसे जिसमें डकार मुस्ताटरूपसुरदारुशिरीषकाक
भी आती हों ऐसी भयङ्कर छदि नष्ट हो जाती है। जङ्घाविडङ्गकटुकत्रयपद्मकानि ।
( मात्रा-१-१॥ माशा ।) भार्गी फलत्रयमिदं सकलं हि चूर्ण
(५१५२) मूर्वाद्यं चूर्णम् (१) मध्वान्वितं हरति पश्वविधं च कासम् ॥
(ग. नि. । पाण्डु.) नागरमोथा, बासे की जड़की छाल, देवदारु, मूर्वाबलान्वितं चूर्ण चित्रकस्योष्णवारिणा । सिरसकी छाल, काकजंघा, बायबिडंग, सोंठ, मिर्च, पाण्डुरोगविनाशाय प्रातरुत्थाय संपिवेत् ॥
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३८
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भारत-भैषज्य - र
मूर्वा, बला (बीजबन्द) और चीता समान
(५१५३) मूर्वाद्यं चूर्णम् (२) (ग. नि. । कासा. ) मूर्वामागधचव्यचित्रकवचापाठाशिरीषं तथा । भार्गी मागधमूलमुस्तमरिचं शुण्ठीविडङ्गानि च ॥ एला सेन्द्रयवानिका सकटुका स्याज्जीरकं रेणुका चैतत्सातिविषं सहिङ्गु कफजे कासे हितं
चूर्णितम् ॥
(५१५५) मूर्वाद्वर्तनम् (२) (ग. नि. । बालग्रहा. )
भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इसे प्रातः काल उष्ण जलके साथ सेवन मूर्वामूलहरिद्रासप्तच्छद् सर्षपैस्तुल्यम् । सर्वशिशुग्रहनाशनमुद्वर्तनमम्बुना पिष्टैः ॥
करनेसे पाण्डु रोग नष्ट होता है । ( मात्रा - ३ माशे । )
मूर्वाकी जड़, हल्दी, सतौनेकी जड़की छाल और सरसों समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे पानी में मिलाकर बच्चों के शरीर पर मलसे ग्रहदोष दूर होते हैं ।
मृतसञ्जीवनचूर्णम्
मूर्वा, पीपल, चव, चीतामूल, बच, पाठा, सिरसकी छाल, भरंगी, पीपलामूल, नागरमोथा, काली मिरच, सोंठ, बायबिडंग, इलायची, इन्द्रजौ, अजवायन, कुटकी, जीरा, रेणुका, अतीस और भुनी हुई हींग समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
यह चूर्ण कफज खांसीको नष्ट करता है । ( मात्रा - ३ माशे । शहद के साथ मिलाकर चाटें ।) (५१५४) मूर्वाद्वर्तनम् (१)
(ग. नि. । बालग्रहा. ) मूर्वावलाश्वगन्धासप्तच्छदमूलचोरकैः सजलैः । उद्वर्तनं प्रदिष्टं शिशुगात्रवर्द्धनं ग्रहनुत् ॥
- रत्नाकरः
मूर्वा, खरैटीकी जड़, असगन्ध, सतौनेकी जड़की छाल और चोरक समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे पानी में मिलाकर बालकोंके शरीरपर मलने से उनका शरीर पुष्ट होता और ग्रहदोष दूर होते हैं ।
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(३) " देखिये ।
[ मकारादि
( धन्व. । ग्रहण्य. )
प्रयोग संख्या ३४२३ " नागरादि चूर्णम
(५१५६) मृदुविरेचनयोगः
(सु. सं. । सूत्र. अ. ४४ ) शर्कराक्षौद्रसंयुक्तं तृवृच्चूर्णावचूर्णितम् । रेचनं सुकुमाराणां त्वक्पत्रमरिचांशकम् ॥
निसोत, दालचीनी, तेजपात और काली मिरच समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इसमें खांड और शहद मिलाकर खाने से सुख पूर्वक विरेचन हो जाता है ।
यह योग सुकुमार व्यक्तियोंके लिये है । (५१५७) मेघनादादिचूर्णम् ( व. से. । रक्तातिसा. ) मेघनादस्य मूलानि मधुना सितया सह । निहन्ति शोणितस्रावं तण्डुलोदकपानतः ॥
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hi वाली चौलाईकी जड़ चूर्ण में शहद और खांड मिलाकर उसे चावलोंके पानीके साथ सेवन करनेसे रक्तातिसार नष्ट होता है ।
( मात्रा - ३ से ६ माशे तक । )
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गुटिकाप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
(५१५८) मेथिकाद्यं चूर्णम्
मेथी, सोया, अजवायन, मुलैठी, सोंठ, मिर्च, ( ग. नि. । परिशि. चूर्णा.) पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, नागरमोथा, तेजपात, मेथिका शतपुष्पा च यवानी मधुयष्टिका ।
दालचीनी, इलायची, पुनर्नवा, शतावर, लज्जावन्ती, त्रिकटु त्रिफला मुस्ता त्रिजातं च पुनर्नवा ।।
सफेद चन्दन, लाल चन्दन, मुनक्का, पोखरमूल ऋष्यमोक्ता समङ्गा च चन्दनं रक्तचन्दनम् ।
और मजीठ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । द्राक्षापुष्करमभिष्ठाः समं चूर्ण प्रकल्पयेत् ॥
इसमें धी और खांड मिलाकर गरम करके घृतखण्डेन पक्तव्यं काले स्त्रीणां च दापयेत् । सेवन करानेसे बन्ध्या स्त्री गर्भ धारण करती है। वन्ध्यानां गर्भजननं स्त्रीणां बलविवर्द्धनम् ॥ इसके अतिरिक्त यह वातरक्त, पित्तविकार रक्तवातप्रशमनं पित्तोपद्रवनाशनम्। | और त्रिदोष जन्य गर्भावरोधको भी नष्ट करता है। त्रिदोषे रुद्धगर्भे च परमं सुखकारकम् ॥ इसके सेवनसे स्त्रियोंकी बलवृद्धि भी होती है।
इति मकारादिचूर्णप्रकरणम्
अथ मकारादिगुटिकाप्रकरणम् मण्डूरवटकः
अजमोदा यवानी च यष्टीमधुकमेव च । रस प्रकरणमें देखिये।
मेथी जीरकयुग्मं च गृहीत्वा श्लक्ष्ण चूर्णितम् ॥ मण्डूरगुटिका
यावन्त्येतानि चूर्णानि तावदेव तदौषधम् । रस प्रकरणमें देखिये।
तावदेव सिता देया यावदायाति बन्धनम् ॥
घृतेन मधुना युक्तं मोदकं परिकल्पयेत् । मदनमञ्जरीगुटिका
त्रिसुगन्धसमायुक्तं कर्पूरेणापि वासयेत् ।। रस प्रकरणमें देखिये।
स्थापयेघृतभाण्डे च श्रीमन्मदनमोदकान् । (५१५९) मदनमोदकः
| भक्षयेत्प्रातरुत्थाय वातश्लेष्मविनाशनम् ॥ (भै. र. । ग्रहण्य.; र. र. ख. । अ. २७) कासनं सर्वशुलनं वलीपलितनाशनम् । त्रैलोक्यविजयापत्रं सबीजं घृतभर्जितम् । आमवातविकारनं संग्रहग्रहणीहरम् ॥ समे शिलातले पश्चाच्चूर्णयेदतिचिक्कणम् ॥ सदा निषेवयेद्धीमान् रुच्यमग्निविवर्धनम् । त्रिकटु त्रिफला शृङ्गी कुष्ठधान्यकसैन्धवम् । एतत्कामविवृद्धयर्थं नारदेन प्रकीर्तितम् ।। शठी तालीसपत्रं च कट्फलं नागकेसरम् ॥ तेन स्त्रीणां सहस्राणि रेमे स यदुनन्दनः ॥
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
में भुनी हुई बीज सहित भांगकी पत्ती २० तोले, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, काकड़ासिंगी, क्ट, धनिया, सेंधा नमक, कचूर, तालीसपत्र, कायफल, नागकेशर, अजमोद, अजवायन, मुलैठी, मेथी, सफेद जीरा और काला ज़ीरा १ - १ तोला ले कर सबका महीन चूर्ण बनावें और फिर ( सबके बराबर ) खांडकी चाशनी बनाकर उसमें यह चूर्ण मिला दें । जब ठण्डा हो जाय तो उसमें (१०-१० तोले) घी और शहद तथा १ - १ तोला तेजपात, दालचीनी, इलायची और कपूरका बारीक चूर्ण मिलाकर छोटे छोटे मोदक बना लें और चिकने पात्र में सुरक्षित रक्खें ।
इन्हें प्रातःकाल सेवन करने से वातज और कफज रोग, खांसी, हरप्रकारका शूल, वलीपलित, आमवात और संग्रहणी का नाश तथा अग्निकी वृद्धि होती है ।
नारद मुनि-कथित यह श्री मदन मोदक बहुत ही अधिक वाजीकरण है ।
[ मकारादि
गोखरु, तालमखाना, असगन्ध, सतावर, मूसली, कौंच के बीज, मुलैठी, नागवला और बला ( बीजबन्द ) समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । तदनन्तर उसे उससे ८ गुने दूध में मिलाकर पकायें । जब खोया (मावा) हो जाय तो उसे चूर्णके बराबर गोघृत में भूनें और फिर सबसे २ गुनी खांडकी चाशनी में मिलाकर (३ -३ तोलेके ) लड्डू बनालें । इन्हें सेवन करनेसे कामशक्तिकी वृद्धि होती है। मदनानन्दमोदकः
( भै. र. । वाजीकरण. ) रस प्रकरण में देखिये ।
(वै. र. । वाजीकरणा. )
गोक्षुरेक्षुरवीजानि वाजिगन्धा शतावरी । मुसली वानरीबीजं यष्टी नागवला बला ॥ एषां चूर्ण दुग्धसिद्धं गव्येनाज्येन भर्जितम् । सितया मोदकं कृत्वा भक्ष्यं वाजीकरं परम् ॥ चूर्णादष्टगुणं क्षीरं घृतं चूर्णसमं स्मृतम् । सर्वतो द्विगुणं खण्डं खादेदग्रिबलं यथा ॥
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(५१६१) मधुकाद्या गुटिका (व. से. । रक्तपित्ता. )
मधुकं मधूकं द्राक्षा त्वक्क्षीरी पिप्पली तथा । त्रिजातस्य त्रयः कर्षाः शर्करायाः पलद्वयम् ॥ द्राक्षामधुकखर्जूरं पलांशं श्लक्ष्णचूर्णितम् । धुना गुटिका बद्धा हन्ति सा पित्तशोणितम् ॥
( मात्रा - ३ से ६ माशे तक । अनुपान गर्म दूध । ) कासश्वासारुचिछर्दिमूच्र्छाहिकामदभ्रमान् । क्षतक्षयं स्वरभ्रंशं प्लीहानं दीर्घमारुतान् ॥ रक्तनिष्ठीवहत्पार्श्वरुपिपासाज्वरानपि ॥
(५१६०) मदनवर्द्धनो मोदकः
मुलैठी, महुवा, मुनक्का, बंसलोचन, पीपल, दालचीनी, तेजपात और इलायची ११-११ तोला, खांड १० तोले तथा मुनक्का, मुलैठी और खजूर ५- ५ तोले लेकर कूटने योग्य चीज़ों को कूट छानकर चूर्ण बनालें और शेत्र चीज़ों को पत्थरपर बारीक पीस लें और फिर सबको शहद में मिलाकर ( १ - १ तोलेके ) मोदक बनालें ।
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गुटिकाप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
४१
इनके सेवनसे रक्तपित्त, खांसी, श्वास, छर्दि, (से. वि.-१-१ गोली मुंहमें रखकर रस अरुचि, मूर्छा, हिचकी, मद, भ्रम, क्षतक्षय, स्वर- चूसें दिन भरमें १२ गोलीसे अधिक न खावें।) भंग, पुरानी वातव्याधि, रक्त थूकना, हृदय और (५१६३) मरिचादिमोदकः पसलीकी पीड़ा, तृष्णा और ज्वरका नाश होता है। ( यो. र. । अर्श.; हा. सं. । स्था. ३ अ. ११; मध्यपानीयभक्तगुटिका
वृ. नि. र. । अर्श.) (रसे. चि. म. । अ. ९) मरिचमहौषधाचत्रकसूरणभागा यथोत्तरं द्विगुणाः। प्रयोग संख्या ४३२४ पानीयभक्तवटी सर्वसमो गुडभागः सेव्योऽयं मोदकः प्रसिद्धफलः।। (मध्यम ) देखिये ।
काली मिरच १ भाग, सोंठ २ भाग, चीता(५१६२) मरिचादिगुटिका | मूल ४ भाग, और जिमीकन्द ( सूरण ) ८ भाग (यो. त. । त. २८; वृ. यो. त.। त. ७८; वै.
लेकर सबका महीन चूर्ण बनाकर उसे १५ र.; च. द.; यो. र.; वृ. मा.; भा. प्र.; ग. नि.: भाग गुड़में मिला कर (१-१ तोलेके ) मोदक र. र.; भै. र.; वं. से. । कासा; शा, ध.।।
| बनालें।
इनके सेवन से अर्श नष्ट होती है। खं. २ अ. ७; वृ. नि. र.। स्वरभेदा.; यो.
(५१६४) मरिचादिवटा चि. म. । अ. ३) । कर्षः कषांशपलं पलद्वयं स्यात्ततोऽर्धकर्षश्च ।
(वृ. नि. र. । अर्श.; धन्व. । अर्श. ) मरिचस्य पिप्पलीनां दाडिमगुडयावशूकानाम् ॥ मार
| मरिचं खदिरं सारं गैरिकं ताय॒जं तथा । सपिधैरसाध्या ये कासाः सर्ववैद्यनिर्मुक्ताः ।
| समभागानि सर्वाणि सूक्ष्मचूर्णीकृतानि च । अपि पूर्य छर्दयतां तेषामिदमौषधं पथ्यम् ॥
कुक्कुरमर्दकरसैस्त्रिदिनं मर्दयेत् दृढम् ।
| त्रिमाषिका वटी कार्या रक्तजाविनाशिनी ॥ काली मिर्च १। तोला, पीपल १। तोला,
___काली मिर्च, कत्था, गेरु और रसौत समान अनारदाना ५ तोले- गुड़ १० तोले और जवा
भाग लेकर सबका महीन चूर्ण बना कर उसे ३ खार ७॥ माशे लेकर गुड़के अतिरिक्त सब
| दिन कुकरौंदे के रसमें घोटें और फिर ३-३ चीज़ोंका महीन चूर्ण करके उसे गुड़में मिलाकर
माशे की गोलियां बना लें । १-१ माशे की गोलियां बनालें।
___ इन्हें सेवन करनेसे रक्तार्श नष्ट हो जाती है । जिस खांसीको अन्य किसी भी औषधसे
| (५१६५) मरिचाद्या गुटिका (१) आराम न होता हो और जिसे वैद्योंने असाध्य
ग, नि.) गुटिका, ४) कह दिया हो तथा जिसमें पीप आता हो वह भी मरिच पिप्पली पाठा यवक्षारं सनागरम् । इन गोलियों के उपयोगसे नष्ट हो जाती है। एला पत्रत्वचं पथ्या सैन्धवं चाम्लवेतसम् ॥
xकिसी किसी ग्रन्थमें अनारदाना २॥ तोले लिखा है। मधुना गुटिका ह्येषा कण्ठरोगविनाशिनी॥
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४२
भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[ मकारादि
काली मिर्च, पीपल, पाठा, जवाखार, सोंठ, मिश्र देश की शुद्ध अफीम, और सेठि तथा इलायची, तेजपात, दालचीनी, हर्र, सेंधा नमक | सफेद चन्दनका महीन चूर्ण समान भाग ले कर
और अम्लबेत समान भाग लेकर चूर्ण बनावें और सबको एकत्र घोट कर पानीकी सहायतासे ३-३ उसे शहद में मिला कर ( ३-३ माशेकी) | रत्ती की गोलियां बना लें। गोलियां बनालें।
इन्हें चावलेोके पानीके साथ सेवन करनेसे यह गोलियां कण्ठरोगांका नाश करती हैं। अतिसार नष्ट होता है। ये गोलियां आमको पचाती (५१६६) मरिचाद्या गुटिका (२) . और मलको दूर करती हैं।
( ग. नि. । गुटिका. ४) (५१६८) मलयूफलमोदकम् मरिचपिप्पलीनागरचित्रकान् । (यो. र. । प्रदर.; वृ. नि. र. । स्त्री रोगा.)
क्रमविवर्धितभागमुचूर्णितान् । मलयूफलचूर्णस्य शर्करासहितस्य च । शिखिचतुर्गुणमूरणयोजितान् मधुना मोदकं कृत्वा खादेत्प्रदरनाशनम् ॥ कुरु गुडेन गुडान् गुदजच्छिदे ॥
| कठूमर ( कठगूलर ) के फलांका चूर्ण और काली मिर्च १ भाग, पीपल २ भाग, | खांड समान भाग ले कर दोनोंको शहदमें मिला सोंठ ३ भाग, चीतामूल ४ भाग और कर ( १-१ तोले के ) मोदक वना लें। जिमीकन्द ( सूरण ) १६ भाग लेकर सबका
सेवन करने से स्त्रियांका पटरोग नए महीन चूर्ण बनावें और उसे ( दो गुने ) गुड़में | हो जाता है। मिला कर (२-२ तोले के ) मोदक बना लें।
महाकल्याणवटी इन्हें सेवन करनेसे अर्श नष्ट हो जाती है ।
रस प्रकरणमें देखिये । (५१६७) मलपाचनी गुटी
महाकामेश्वरमोदकः ( र. प्र. सु. । अ. ८) मिश्रदेशजमतीव शुद्धकं
(धन्व.; र. र.) नागफेनमपि नागरातृतम् ।
रस प्रकरणमें देखिये । घर्पितं तु वरचन्दनैयुतं
(५१६९) महाक्षारवटी कारये वटिकां सुशोभनाम् ॥
(यो. र. । उपदंश) रक्तिकात्रयमितां च भक्षयेत्
महाक्षारमाकल्लकं खादिरं च पाययेत्तदनु तन्दुलोदकम् ।
क्रमाद्वर्धित वारिणा पिष्टमेतत् । हन्ति चैवमतिसारकं सदा
निषेवेत माषप्रमाणं घृतेन चामदोपमलनाशिनी भवेत् ॥ महारोगनिघ्नं व्रणेषु व्रणनम् ॥
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चतुर्थों भागः गोधूमं गोघृतं पथ्यं मन्दं लवणमाचरेत् । शुष्का मुखे विनिहिता विनिवारयन्ति द्विवारं ग्राहयेन्नित्यमुपदंशनिवृत्तये ॥
रोगान् गलोष्ठरसनाद्विजतालुजातान् । __महाक्षार ( शोरा या सावान नामक द्रव्य )| कुन्मुिखे सुरभितां पटुतां रुचिञ्च १ भाग, अकरकरा २ भाग और कत्था ३ भाग
स्थैर्यान्वितञ्च दशनं रसनालघुत्वम् । ले कर सबका महीन चूर्ण करके उसे पानी के ६। सेर खैरसार और १५ सेर ५० तोले साथ घोट कर १-१ माशेकी गोलियां बना लें। दुर्गन्धित खैरकी छाल लेकर उसे अधकुटा करके __इन्हें प्रातः सायं घृत के साथ खाने और | दोनेांको एकत्र मिलाकर १२८ सेर पानीमें पकावें घावों पर लगाने से उपदंश नष्ट हो जाता है। जब ३२ सेर पानी शेष रह जाय तो उसे कप. पथ्य-गेहूं की रोटी और गायका घी खाना डेसे छानकर पुनः मन्दाग्नि पर पकावें और जब चाहिये । नमक कम खाना चाहिये ।
| वह गाढ़ा हो जाय तो उसमें निम्न लिखित
चीजोंका अत्यन्त महीन चूर्ण मिलावें - (५१७०) महाखदिरवटिका
इलायची, खस, सफेद चन्दन और लाल (व. से. । मुखरोगा.)
चन्दन १०-११ तोला तथा पीपल, तेजपात, मजीठ, गायत्रिसारतुलयारिमवल्कलानां चीता, अगर, मुलैठी, लज्जावती, हर्र, बहेड़ा, __ सार्द्ध तुलायुगलमम्बुधटैश्चतुर्भिः।
आमला, रसौत, धायके फूल, सफेदकमल, गेरु, दारुनिकाथ्य पादमवशेषसुवस्त्रपूर्त | हल्दी, कायफल, पद्माक, लोध, बड़के अंकुर, जवासा,
भूयः पचेदथ शनदुपावकेन । | जटामांसी (बालछड़), हल्दी, मौलसिरीकी छाल, तस्मिन् घनत्वमुपगच्छति चूर्णमेषां कंकोल, जायफल, जावत्री और लौग ५-५ तोले।
श्लक्ष्णं क्षिपेच कवलग्रहभागिकानाम् । | इन सब चीजोंका चूर्ण मिलाकर उसे अग्निसे एलामृणालसितचन्दनचन्दनानां नीचे उतार लें और ठण्डा होने पर २० तोले
श्यामा तमालविकसानललोहयष्टी ॥ कपूरका चूर्ण मिलाकर मटरके समान गोलियां लज्जाफलत्रयरसाधनधातकीनां
बनाकर सुखालें । श्रीपुष्पगैरिककटाहयकट्फलानाम् । इन्हें मुख में रखनेसे गले ओष्ठ, जिहा, दांत पद्मावलोधवटरोहयवासकानां
और नालुके रोग नष्ट होते और मुख सुगन्धिमय मांसीनिशासुरभिवल्कलसंयुतानाम् ॥
हो जाता है। रुचि बढ़ती है तथा दांत मजबूत फङ्कोलजातिफलकोशलवङ्गकानां | होते हैं एवं जिह्वामें लघुता आ जाती है। __चूर्णीकृतानि विदधीत पलांशकानाम् ।
महाभक्तपाकवटी शीतेऽवताय धनसारचतुष्पलश्च
प्रयोग संख्या ६९३५ " भक्तविपाकवटी " क्षिप्त्वा कलायसदृशीं गुटिकां प्रकुर्यात् ॥ देखिये ।
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४४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि (५१७१) महामदनमोदकः रजस्त्रिजातानास्तीर्थ कपूरेणाधिवासयेत् ॥
(ध. व.; र. र. । वाजीकरणा) भक्षयेत्प्रातरुत्थाय महामदनमोदकम् । त्रैलोक्य विजयापत्रं सवीजं घृतभर्जितम् । शतावरका चूर्ण १ तोला, विदारीकन्दका समे शिलातलेपश्चाच्चूर्णयेदतिचिकणम् ॥ चूर्ण १ तोला, खरैटी और कंघीकी जड़की छालका शतावरीरजश्चैव विदारीकन्दर्ज रजः । | चूर्ण १-१ तोला, गोखरु, तालमखाना और कौंचके बलातिवलयोश्चैव मूलवल्कलजं रजः ॥ बीजोंका चूर्ण १-१ तोला तथा घीमें भुनी हुई गोक्षुरक्षुरयो/जाद्रजो वानरिवीजतः । बीजयुक्त भांगकी पत्तियोंका चूर्ण २८ तोले लेकर एतदेकीकृतं यावत् शतावादिजं रजः॥ सबको एकत्र मिला और फिर उसमें २८ तोले तस्माच्चतुर्गुणं काय त्रैलोक्य विजयारजः। शतावरका रस, २८ तोले विदारीकंदका रस तथा स्वरसेऽथ शतावर्या विदार्याः स्वरसे तथा ॥ २८ तोले गायका दूध डालकर घोल दें फिर उसमें पयसाथ समे तस्मिन् गोलयेच्चूर्णसञ्चयम् । ११२ तोळे खांड मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । गोलयित्वा सितां चैव शक्रचूर्णाच्चतुर्गुणाम् ॥ जब वह गाढ़ा हो जाय तो उसमें निम्नलिखित पचेदवहितो वैद्यो मन्दमन्देन वह्निना। चीजोंका समान भाग मिश्रित चूर्ण ७ तोले मिलावे ततः पाकक्रमं दृष्ट्वा भृष्ट्वा चैवाऽसितं तिलम् ॥ काले तिल, सोंठ, मिर्च, पीपल, दालचीनी,तेजपात, बुद्धवावतारितं दद्यात् मोदकार्थ भिषग्वरः। | इलायची, सेंधा नमक, धनिया, जायफल, जावित्री, त्रिकटु त्रिसुगन्धं च सैन्धवं सधनीयकम् ॥ सुगंवबाला, सफेद जीरा, कालाजीरा, कचूर, कुन्दरु, जातीकोषफलं चैव बालकं जीरकद्वयम् । नागरमोथा, सौंफ, मुरामांसी, जटामांसी, तालीशटी कुन्दुरुखोटिश्च मुस्ता मधुरिका मुरा ॥ सपत्र, तेजपात, वारेन्द्र (?), गठीवन, हरं, सोया, मांसी तालीसपत्रं च पत्रवारेन्द्रमेव च ।। चव, देवदारु, फूलप्रियङ्गु, लौंग, धूपसरल और ग्रन्थिपर्ण शिवा चैव तथैव शतपुष्पिका ॥ छारछरीला । इनमें से तिल इत्यादि भूनने योग्य चविका देवदारुश्च सप्रियङ्गु लवङ्गकम् । चीजोंको तवे पर भून लेना चाहिए और फिर चूर्ण सरल: शैलजश्चैव सर्वमेतद्विचूर्ण येत् ॥ करके उपरोक्त पकी हुई औषधमें मिला देना अत्र यद्भर्जने युक्तं द्रव्यं तद्गन्धवृद्धये । चाहिये इसे स्वादिष्ट बनानेके लिए उचित मात्रामें भर्जयित्वा कृतं चूर्ण शक्रचूर्णस्य पादिकम् ।। सेंधा नमक और सोंठ, मिर्च, पीपलका चूर्ण भी सैन्धवं स्वादुता योग्यं देयं कटुकमेव च। मिला देना चाहिए तत्पश्चात् मोदक बना कर ततः सुमिलितं कुर्यान्मोदकं परिकल्पयेत् ॥ उन्हें दालचीनी, तेजपात, इलायची, सोंठ, मिर्च भूयस्त्रिजातके चूर्णे चूर्ण ब्यूषणजे तथा । | और पीपलके चूर्णमें आलोडित करें । फिर सोने, लोडयेन्मोदकानेतोन् सिद्धार्थानर्थ सिद्धये ॥ चांदी या कांसीके पात्रमें दालचीनी, तेजपात, काश्चने राजते पात्रे कांस्येसम्पुटके न्यसेत् । । इलायची और कपूरका चूर्ण बिछा कर उसमें इन
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गुटिकाप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
४५
मोदकों को भर कर रख दें एवं सुगंधित हो जाने । मूल पत्र और शाखायुक्त ६। सेर भांगको पर सेवन करें।
ओखली में कूट कर ३२ सेर पानीमें पकावें । मात्रा--१ तोला। समय-प्रातः काल । | जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो छान लें । ( अनुपान-दूध )
तदनन्तर उस क्वाथमें २ सेर दूध, ३ सेर १० इनके सेवनसे कामवृद्धि होती है।
तोले खांड, १ सेर शतावरका रस, आधसेर
पीपलका काथ और २ सेर घी मिला कर पुनः महामृत्युञ्जया गुटिका
पकावें । जब गाढा हो जाय तो निम्न लिखित (र. सं. क. । उल्लास ५)
प्रक्षेप द्रव्योंका चूर्ण मिलाकर १०-११ तोलेके रस प्रकरणमें देखिये।
मोदक बनाकर रक्खे । (५१७२) महारतिवल्लभो मोदकः प्रक्षेप द्रव्य-सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा,
(धन्व.; यो. र. । वाजीक.) आमला, चव्य, इलायची, दालचीनी, तेजपात, समूलपत्रशाखायास्तुलां शक्राशनस्य च । नागकेसर, चीता, पीपलामूल, धनिया, जीरा, मेथी, संरुद्धयोदूखले छित्वाऽपां द्रोणे हि तथा च वै ।। कूठ, नागरमोथा, रेणुका, सोंठ, मिर्च, पीपल, काथं पादावशिष्टन्तु वस्त्रपूतं च कारयेत् । भरंगी, तालीसपत्र, नागकेसर, काली मूसली, क्षीरप्रस्थं समादाय खण्डस्यार्द्धशतं न्यसेत् ॥ | निसोत, दन्तीमूल, गजपीपल, हींग, पोखरमूल, शनावरीरसस्याष्टौ पिप्पल्याः कुडवन्तथा।। लौंग, जावत्री, अजवायन, कालाजीरा, बंसलोचन, सर्वमेतत्समालोडय घृतपस्थेन मेलयेत् ॥ जायफल, कपूर, काकड़ासिंगी, बिदारीकन्द, अष्ट
औषधानान्ततश्चूर्ण दापयेत्पालिकं पृथक् । | वर्ग ( मेदा, महामेदा, जीवक, ऋषभक, ऋद्धि, त्रिकटुत्रिफलाचव्यमेलात्वपत्रकेशरम् ॥ वृद्धि, काकोली, क्षीरकाकोली) और ककोल चित्रकं पिप्पलीमूलं धान्यकाजाजिमेथिकाः । १।-१। तोला। कुष्ठाब्दरेणुकाव्योषभाङ्गीतालीशकेशरम् ॥
इन्हें सेवन करनेसे शुक्रदोष और दारुण तालमूली त्रिदन्ती श्रेयसी हिङ्गपौष्करम्। नपुंसकता दूर होती तथा सौन्दर्य, मेधा और लवङ्गजातिकोपञ्च यमानी कारवी तथा ॥ बुद्धिकी वृद्धि होती है। शुभा जातीफलं चन्द्रं शृङ्गी चैव विदारिका । मात्रा--१ मोदक । अनुपान-शीतलजल अष्टवर्गश्च कङ्कोलं श्लक्ष्णचूर्णञ्च कारयेत ॥ (५१७३) महारसोनपिण्डः गुडवद्विपचेद्यो मोदकं कारयेत्ततः। (भै. र.; 'यो. र.। आमवाता.; यो. त. । त. ४२) अक्षमात्रञ्च जग्वैनं शीतलं पाययेज्जलम् ॥ तुलाक्षुण्णरसोनस्य तदधै लुश्चितास्तिलाः। नाशयेच्छुक्रदोषश्च षण्ढश्चवातिदारुणम् । पात्रे तु गव्यतक्रस्य पिष्टद्रव्यैः समं क्षिपेत् ॥ श्रीकर लाघवकर मेधाबुद्धिप्रवर्द्धनम् ॥
भैषज्य रत्नावलीमें सफेद जीरा ४ पल लिखा
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४६
॥
त्र्यूषणं धान्यकं चं चित्रकं गजपिप्पली । अजमोदा त्वगेला च ग्रन्थिकं च पलांशकम् ॥ शर्करायाः पलान्यष्टौ पञ्चाजाज्याः पलानि च । कृष्णाजाज्याश्च चत्वारि राजिकायास्तथैव च ॥ पलप्रमाणं दातव्यं हिङ्गोलवणपञ्चकम् । आर्द्रकस्य च चत्वारि सर्पिषोऽष्टौ पलानि च तिलतैलस्य तावन्ति शुक्तस्यापि च विंशतिः । सिद्धार्थकस्य चत्वारि द्विगुणं मधुनस्तथा ॥ एकीकृत्य दृढे भाण्डे धान्यराशौ निधापयेत् । द्वादशाहात्समुद्धृत्य प्रातः खादेद्यथाबलम् || सुरां सौवीरकं चाथ मधु वाऽपि पिवेन्नरः । जीर्णे यथेप्सितं भोज्यं दधिपिष्टकवर्जितम् ॥ एकमासोपयोगेन सर्वव्याधिहरो भवेत् । अशीतिर्वाता रोग चत्वारिंशच्च पित्तजाः ॥ विंशतिः श्लेष्मजांस्तद्वन्नश्यन्ते तस्य सेवनात् योनिशूलं प्रमेहां कुष्ठोदर भगन्दरान् ॥ अशे गुल्मक्षयांचापि जयेद्रचिबलप्रदः ॥
।
भारत - भैषज्य - रत्नाकरः
छिला हुवा ल्हसन ६ । सेर, छिलके रहित तिल ३ सेर १० तोले तथा सोंठ, मिर्च, पीपल, धनिया, चव, चीता, गजपीपल, अजमोद, दाल. चीनी, इलायची और पीपलामूल १-१ पल ( ५-५ तोले ); खांड ८ पल, जीरा ५ पल, कालाजीरा ४ पल, राई ४ पल, एवं हींग और पांचों नमक (सेंधा नमक, काला नमक, खारी नमक, कचलोना, और सामुद्र लवण ) ५-५ तोले, अदरक ४ पल, घी ८ पल, तिलकातेल ८
है तथा काले जीरेकी जगह कूठ और १ पल काली मिर्च अधिक लिखी हैं एवं हींग और पंच लवणका परिमाण १-१ कर्ष ( १-११ तोला ) लिखा 1
[मकारादि
पल, सिरका २० पल, सरसों ४ पल और शहद ८ पल लेकर पीसने योग्य चीज़ोंको पत्थर पर पीसलें और कूटने योग्य चीजोंको कूट छानकर चूर्ण बना लें और फिर सब चीज़ों को मिट्टी के चिकने पात्र में भरकर उसमें ४ सेर तक डालकर पात्रका मुख बन्द करके उसे अनाजके ढेर में दबा दें तथा १२ दिन पश्चात् निकालकर काम में लायें ।
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इसे प्रातः काल यथोचित मात्रानुसार सुरा, सौवीरककांजी या शहदके साथ सेवन करना और औषध पचने पर दही तथा पिट्टी के बने पदार्थों के अतिरिक्त यथेच्छ भोजन करना चाहिये ।
इसे १ मास तक सेवन करने से ८० प्रकारके वातज रोग, ४० प्रकारके पित्तज रोग, २० प्रकार के कफरोग, योनिशूल, प्रमेह, कुष्ठ, उदररोग, भगन्दर, अर्श, गुल्म और क्षयादि रोग नष्ट होकर रुचि और बलकी वृद्धि होती है । ( मात्रा - ६ माशेसे १ तोले तक 1 ) नोट १ - समस्त पदार्थों को पात्र में भरकर धूप में रख देना चाहिये और जलांश सूख जाने पर पात्रका मुख बन्द करके अनाजके ढेर में दबाना चाहिये |
२ - ऊपर तक, शहद, घृतादि द्रव पदार्थों का जो परिमाण लिखा है उसे दूना कर लेना चाहिये ।
महाराजवटी
रस प्रकरण में देखिये ।
महाविद्यागुटी
( र. र. स. । उ. खं. अ. १७) प्रकरण देखिये ।
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गुटिकाप्रकरणम् ]
. चतुर्थो भागः
महाशङ्खवटा
। इनमेंसे प्रति दिन १-१ मोदक सेवन कर(भै. र. । अग्निमान्द्या.; र. रा. सु. । अजीर्णा.) नेसे खांसी, क्षय, कुष्ठ, भगन्दर, प्लीहा, जलोदर रस प्रकरणमें देखिये।
और अर्श का नाश होता तथा वृद्ध पुरुष तरुणके
समान हो जाता है। महोदधिवटी
इस पर यथेष्ट आहार विहार करना चाहिये। रस प्रकरणमें देखिये।
किसी विशेष परहेजकी आवश्यकता नहीं है। माक्षिकादिवटी
(व्यवहारिक मात्रा-पावसे आधा मोदक तक । ) रस प्रकरणमें देखिये।
(५१७५) मानकादिगुटिका माणादिगुटिका
__(माणादि गुटिका) मानकादि गुटिका देखिये।
। (भै. र. । प्लीहयकृद्रो.; धन्व. । उदर.; च. द.। (५१७४) माणिभद्रमोदकः
- प्लीहा. ३८; व. से। उदर.) (च. द. । अर्श.; ग. नि. । गुटिका. ४; व. से. । विरेचना.; वा. भ. । अ. १९ कुष्ठा.;
मानमार्गामृता वासा स्थिरा सैन्धवचित्रकम् । भै. र. । अर्श.) .
नागरं तालपुष्पश्च प्रत्येकञ्च त्रिकार्षिकम् ॥ विडङ्गसारामलकाभयानां
| बिडसौवर्चलक्षारपिप्पल्यश्चापि कार्षिकाः। पलं पलं स्यात्रिता त्रयं च ।
एतच्चूर्णीकृतं सर्वं गोमूत्रस्याढके पचेत् ॥ गुडस्य षड् द्वादशभागयुक्ता
सान्द्रीभूते गुडी कुर्याहत्त्वा त्रिपलमाक्षिकम् । __ मासेन त्रिंशद्गुटिका विधेयाः ॥
यकृत्प्लीहोदरहरो गुल्माग्रिहणीहरः॥ निवारणे यक्षवरेण सृष्टः
योगः परिकरो नाम्ना अग्निसन्दीपनः परः ॥ स माणिभद्रः किल शाक्यभिक्षवे ॥ | मानकन्द, लाल अपामार्ग (चिरचिटा), गिलोय, अयं हि कासक्षयकुष्ठनाशनो
बासा (अडूसा) की जड़, शालपर्णी, सेंधा नमक, भगन्दरप्लीहजलोदरार्शसाम् ।।
चीतामूल, सोंठ और ताड़के फूल ३-३ कर्ष तथा यथेष्टचेष्टान्नविहारसेवी
विडनमक, सञ्चल नमक, जवाखार और पोपल अनेन वृद्धस्तरुणो भवेच्च ॥
१-१ कर्ष (१।-१। तोला) लेकर सबका महीन बायबिडंगकी गिरी, आमला और हर्र १-१ चूर्ण बनावें और उसे ८ सेर गोमूत्र में मिलाकर पल ( ५-५ तोले ) तथा निसोत ३ पल लेकर पकावें । जब गाढ़ा हो जाय तो अग्निसे नीचे सबका महीन चूर्ण करके उसे ६ पल गुड़में मिला- उतार लें और ठण्डा होने पर उसमें १५ तोले कर सबके ३० मोदक बना लें।
शहद मिलाकर गोलियां बना लें।
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४८
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
इन्हें सेवन करनेसे यकृत, प्लीहा, उदररोग, गुल्म, अर्श और ग्रहणी विकारका नाश तथा afrost वृद्धि होती है ।
( मात्रा - ३ - ४ माशे । )
(५१७६) मानकादिगुटिका ( वृहत् ) (भै. र. । प्लीहा )
मानमार्ग स्थिरावद्विस्नुहीनागरसैन्धवम् । तालरण्डं क्रिमिन्नञ्च हखुषं चविका वचा ॥ विडसौवर्चलक्षारपिप्पलीशरपुङ्खकम् । जीरकं पारिभद्रञ्च प्रत्येकं कर्षकद्वयम् ॥ सार्द्धाढके गवां मूत्रे पचेत्सर्वं सुचूर्णितम् । सान्द्रीभूते क्षिपेदेषां चूर्णकं कर्षसम्मितम् ॥ अजाजी त्र्यूषणं हिङ्गु यमानी पुष्करं शटी । त्रिवृन्ती विशाला च दत्त्वा त्रिपलमाक्षिकम् ॥ खादेदग्निबलापेक्षी बुद्ध्वा चानुपिवेन्नरः ।
प्लीहोदरानाहगुल्मं पाण्डुं सकामलम् ॥ कुक्षिशूलश्च हृच्छूलं पार्श्वशुलमरोचकम् । शोथञ्च श्लीपदं हन्ति जीर्णञ्च विषमज्वरम् ||
मानकन्द, लाल अपामार्ग ( चिरचिटा ), शालपर्णी, चीता, सेहुंड ( सेंड - थूहर ) की जड़, सोंठ, सेंधा नमक, तालजटा, बायविडंग, हाऊबेर, चव, बच, बिड नमक, काला नमक ( सञ्चल ), जवाखार, पीपल, सरफेांका, जीरा और पारिभद्र ( फरहद ) की जड़की छाल २-२ कर्ष ( २॥ - ३॥ तोले) ले कर सब का महीन चूर्ण बनावें और उसे १२ सेर गोमूत्र में पकावें । जब वह गुड़ के समान गाढ़ा हो जाय तो उसमें जीरा, सोंठ, मिर्च, पीपल, हींग, अजवायन, पोख
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[ मकारादि
रमूल, कचूर, निसोत, दन्तीमूल और इन्द्रायणकी जड़का ११ - ११ तोला चूर्ण मिलाकर अग्नि से नीचे उतार लें और ठण्डा होने पर उसमें ३ पल ( १५ तोले ) शहद मिला कर सुरक्षित रक्खें ।
इसे यथोचित मात्रानुसार उचित अनुपान के साथ सेवन करनेसे यकृत, प्लीहा, उदररोग, अफारा, गुल्म, पाण्डु, कामला, कुक्षिशूल, हृदयका शूल, पसलीकी पीड़ा, अरुचि, शोथ, श्लीपद और पुराने विषम ज्वरका नाश हो जाता है । ( मात्रा - ३ - ४ माशे । ) (५१७७) मार्कण्डीपत्रगुटिका (ग. नि. । राजय. ६ ) मार्कण्डीपत्रचूर्णस्य गुटिकां मधुना कृताम् । Standard कासविष्टम्भशान्तये ||
A
मार्कण्डी (सनाय) के पत्तों के चूर्ण को शहद में मिला कर गोलियां बना लें ।
इन्हें मुखमें रखनेसे खांसी नष्ट होती है । (५१७८) माषादिमोदकः ( शा. ध. । खं. २ अ. ७ ) निस्तुषं माषचूर्ण स्यात्तथा गोधूमसम्भवम् । निस्तुषं यवचूर्णे च शालितन्दुलजं तथा ॥ सूक्ष्मं च पिप्पलीचूर्ग पलिकान्युपकल्पयेत् । एतदेकीकृतं सर्वं भर्जयेद्गोघृतेन च ॥ अर्धमात्रेण सर्वेभ्यस्ततः खण्डं समं क्षिपेत् । जलं च द्विगुणं दत्त्वा पाचयेच्च शनैः शनैः ॥ ततः पक्वं समुद्धृत्य वृत्तान् कुर्वीत मोदकान् । भुक्त्वा सायं पलैकं च पिवेत्क्षीरं चतुर्गुण ||
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गुटिकाप्रकरणम् ]
वर्जनीय विशेषेण क्षाराम्लौ द्वौ रसावपि । कृत्वैत्रं रमयेन्नारीर्वह्निर्न क्षीयते नरः ॥
छिलके रहित उड़दकी दालका चूर्ण, गेहूंका आटा, तुष रहित जौका चूर्ण, शाली चावल का चूर्ण और पीपलका अत्यन्त बारीक चूर्ण ५-५ तोले लेकर सबको एकत्र मिलाकर १२|| तोले घी में भूनें और फिर उसमें २५ तोले खांड तथा ५० तोले पानी मिला कर पकायें । जब पाक तैयार हो जाय तो ५-- ५ तोले के मोदक बना कर रक्खें ।
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इनमें से सायंकालको १ मोदक पावसेर दूध के साथ खाना और क्षार तथा अम्ल पदार्थों से परहेज़ करना चाहिये |
चतुर्थी भागः
मिहिरोदयवटी रस प्रकरण में देखिये ।
( नेट-खांड की पृथकू चाशनी बना कर उसमें ओषधियांका चूर्ण मिलाकर भी मोदक बनाये जा सकते हैं ।)
इन्हें सेवन करके स्त्री समागम करने से कामाग्नि होता है । क्षीण नहीं होती ।
6)
(५१७९) मुण्डादिगुटिका
( वृ. नि. र. | ग्रहण्य ) मुण्डीशतावरीमुस्तावानरी दुग्धिकामृता । यष्टीकं सैन्धवं तुल्यं सूक्ष्मचूर्ण प्रकल्पयेत् ॥ चूर्णस्य द्विगुणा योज्या विजया मृदुभर्जिता । घृतस्निग्ये पचेद्भाण्डे दुग्धं दशगुणं गवाम् ॥ यावत्पिण्डत्वमापन्ना तावन्मृद्वग्निना पचेत् । पिण्डतुल्यं तु सत्क्षौद्रं मिश्री निष्कत्रयं त्रयम् ॥
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भक्षयेद्विजदेव द्वन्द्वजं ग्रहणीगदम् । पित्तवाते श्लेष्मपित्ते सम्यक् पित्ते च योजयेत् ॥
४९
गोरखमुण्डी, शतावर, नागरमोथा, कौचके बीज, दुद्धी, गिलोय, मुलैठी और सेंधा नमक समान भाग लेकर बारीक चूर्ण बनावें, और फिर उसमें उस समस्त चूर्णसे २ गुनी हल्की भुनी हुई भांगका चूर्ण मिलाकर सबको घृतसे चिकनी की हुई कढ़ाई में दश गुने गोदुग्धमें मन्दाग्नि पर पकायें ।
जब गाढ़ा होकर गोला सा हो जाय तो उसमें उसके बराबर शहद मिलाकर १-१ तोले के मोदक बनालें ।
इन्हें सेवन करनेसे द्वन्द्वज ( पित्तवातज, और श्लेष्म पित्तज ) संग्रहणी तथा पित्तका नाश
(५१८०) मुण्डादिगुटिका ( र . र । मुखरोग. )
मुण्डी शुण्ठी वचा कुष्ठं पाठा क्षौद्रविनिश्चितम् । गुटिकां धारयेद्दन्ते कुमिथूलहरं भवेत् ॥
गोरखमुण्डी, सोंठ, बच, कूठ और पाठा समान भाग लेकर चूर्ण बनावें और फिर उसे शहदमें मिलाकर ( बेरकी गुठली के बराबर ) गोलियां बना लें |
इनमें से एक एक गोली पीड़ा वाले दांतके नीचे रखने से दांत कृमि और शूल नष्ट हो जाते हैं।
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. (५१८१) मुस्तकादिमोदकः (भै. र. । ग्रहण्य. )
धान्यकं त्रिफला भृङ्गं त्रुटि: पत्रं लवङ्गकम् । केशरं शैलजं शुण्ठी पिप्पलीमरिचानि च ॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि जीरकं कृष्णजीरश्च यमानी कट्फलं जलम् । मुस्तकं षट्पलं देयं सिता च द्विगुणा मता । धातकीपुष्पकं व्याधिर्जातीकोषफले त्वचम् ॥ ग्रहणीं हन्त्यतीसारं मन्दाग्नित्वमरोचकम् ॥ मधूरिका चाजमोदा हवुष नागपर्णापि । अजीर्णमामदोषश्च विसूचीमपि दारुणाम् । उग्रगन्धा शटी मांसी कुटजस्य फलं शुभा ॥ पुष्टिं देहस्य जनयेद्वलवर्णाग्निद्धिकृत् ॥ एतानि श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् कुशलो भिषक। वलिपलितदर्बिल्यं क्षपयेत् कृशतामपि ॥ सर्वचूर्णसमं देयं जलदस्यापि चूर्णकम् ॥ त्रिकटु, त्रिफला, चित्रक, लौंग, श्वेतजीरा, सिता च द्विगुणा देया मोदकं परिकल्पयेत् ।। काला जीरा, अजवाइन, अजमोद, सौंफ, पान. सोया, महाप्रिजननं ह्येतत्सरक्तां ग्रहणीं तथा ॥
शतावरी, धनिया, दारचीनी, तेजपत्र, छोटी इलाअतीसारं ज्वरं घोरं पाण्डुरोगं हलीमकम् । यची, नागकेसर, वंशलोचन, मेथी, जायफल; प्रत्येक क्रिमिरोग रक्तपित्तशरोगं सुदुर्जयम् ॥ १। तोला, और मोथा ३० तोले, तथा खांड १२० लोकानां गदशान्त्यर्थं भैरवेण प्रकाशितम् ॥ तोले लेकर कूटने योग्य चीजोंका चूर्ण बनाकर उसे
धनिया, त्रिफला, भांगरा, छोटी इलायची, खांडकी चाशनीसें मिलाकर मोदक बनावें । ये तेजपत्र, लौंग, नागकेसर, छारछरीला, सोंठ, पिप्पली, मोदक ग्रहणी, अतिसार, मन्दाग्नि, अरुचि, अजीर्ण, कालीमिर्च, श्वेतजीरा, कालाजीरा, अजवाइन, काय- आमदोष, विसूचिका, वलीपलित, दुर्बलता तथा फल, सुगन्धबाला, धाय के फूल, कूठ, जावित्री, कृशता को दूर करते हैं । तथा देहको पुष्ट और जायफल, दारचीनी, सौंफ, अजमोद, हाऊबेर, पान, | बलवर्ण तथा अग्निकी वृद्धि करते हैं। वच, कचूर, जटामांसी (बालछड़), इन्द्रजौ, वंश
(५१८३) मुस्तादिवटी लोचन; प्रत्येक का चूर्ण १ तोला; मोथा ३२ तोले,
(ग. नि. । मुखरो.; रा. मा. । मुखरो.) खांड १२८ तोले । यथाविधि पाक करके मोदक बनावें । यह मोदक अग्निप्रदीपक हैं तथा सरक्त ग्रहणी,
मुस्तैलवालुमधुकैर्गदधान्यकाभ्यां अतीसार, ज्वर, पाण्डु, हलीमक, क्रिमि, रक्तपित्त,
छुट्या वटी विनिहिता वदनान्तराले अर्श आदि रोगों को नष्ट करते हैं। मात्रा-आधे
स्वभाविकोऽपि मुखमुज्झति पूतिगन्धो तोले से एक तोले तक।
वार्ता तु मधलशुनादिभवस्य कैच ॥ (५१८२) मुस्तकाद्यमोदकः नागरमोथा, एलवालुक, मुलैठी, कूठ, धनिया (भै. र. । ग्रहणी.)
और छोटी इलायची समान भाग लेकर कूट छानत्रिकट त्रिफला चित्रं लवङ्गं जीरकद्वयम। | कर पानीके साथ गोलियां बना ले। यमान्यौ द्वे मधुरिका नागवल्लीदलं तथा ॥ इन्हें मुखमें रखनेसे मुखकी स्वाभाविक दुर्गन्ध शतपुष्पा बरी धान्यं चातुर्जातं तथा तुगा। भी नष्ट हो जाती है फिर मद्य और ल्हसन आदिकी मेथी जातीफलं ग्राह्यं प्रत्येकं कर्षसम्मितम् ॥ । गन्ध की तो बात ही क्या है ।
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गुटिकाप्रकरणम्
चतुर्थो भागः मुस्तादिवटी
सेंधा नमक, बिडनमक, तालीसपत्र, नागकेसर, ( वृ. नि. र.)
तेजपात, दालचीनी, इलायची, जायफल, जावत्री, रस प्रकरणमें देखिये।
लौंग, मुरामांसो, कपूर और सफेद चन्दनका चूर्ण मृतसञ्जीवनीवटी
१-१ भाग तथा मेथीका चूर्ण सबके बराबर और
गुड़ समस्त पदार्थोसे दो गुना लेकर गुड़की चाशनी रस प्रकरणमें देखिये।
बनाकर उसमें कपूरके अतिरिक्त समस्त चीज़ोंका मृदीकादिगुटी
चूर्ण डालकर अच्छी तरह मिलादें एवं जब वह ( वृ. नि. र. रक्तपि.)
ठण्डा हो जाय तो उसमें उपरोक्त कपूरका चूर्ण रस प्रकरण में देखिये।
और थोड़ा थोड़ा घृत तथा शहद मिलाकर मोदक
बना लें। (५१८४) मेथीमोदकः
इन्हें यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे अग्नि (भै. र. । ग्रहणी.; धन्व.; र. र. । वाजीकरणा.)
| दीप्त और बल वर्णकी वृद्धि होती है। त्रिकटुत्रिफलामुस्तजीरकद्वय धान्यकम् ।
यह मोदक मेदरोगमें अत्यन्त गुणकारी हैं। कट्फलं पौष्करं शृङ्गी यमानी सैन्धवं विडम् ॥ तालीशकेशरं पत्रं त्वगेला च फलं तथा।
संग्रहणी, बीस प्रकारके प्रमेह, मूत्राघात, अश्मरी,
पाण्डु, खांसी, राजयक्ष्मा और कामलाको नष्ट तथा जातीकोषं लवङ्गश्च मुरा कपूरचन्दनम् ॥
दृष्टिको स्वच्छ करता है। यावन्त्येतानि चूर्णानि तावदेव तु मेथिका। सञ्चूयं मोदकः कार्यः पुरातनगुडेन च ॥
| इसे सेवन करनेसे स्त्रीके शिथिल स्तन पुनः घृतेन मधुना किञ्चित् खादेदपिवलं प्रति । कठिन तालफलके समान हो जाते हैं तथा उसे अग्निश्च कुरुने दीप्तं सामे मेदे महौषधम् ॥
पुत्र प्राप्ति होती है। बलवर्णकरो ह्येष संग्रहग्रहणीहरः।
(मात्रा-आधेसे १ तोले तक । ) प्रमेहान् विंशति हन्ति मूत्राघातं तथाश्मरीम् ॥ (५१८५) मेथीमोदकः (वृहत्) पाण्डुरोगं तथा कासं यक्ष्माणं हन्ति कामलाम् । ( भै. र. । ग्रहणी.) स्तनौ च पतितौ गाढौ स्यातां तालफलोपमौ॥ त्रिफला धान्यकं मुस्तं शुण्ठी मरिचपिप्पली । दृष्टिप्रसादनश्चैव नारीणाश्चैव पुत्रदः । कटफलं सैन्धवं शृङ्गो जोरकद्वयपुष्करम् ॥ भाषितं कामदेवेन मेथीमोदकसंज्ञकः॥ यमानी केशरं पत्रं तालीश बिडमेव च ।
सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, जातीफलं त्वगेला च जयित्रीन्दुलवङ्गकम् ॥ नागरमोथा, सफेद जीरा, काला जीरा, धनिया, शतपुष्पा मुरामांसी यष्टीमधुकपद्मकम् । कायफल, पोखरमूल, काकड़ा सिंगी, अजवायन, चव्यं मधूरिका दारु सर्वमेतत्समं भवेत् ।।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
यावन्त्येतानि चूर्णानि तावन्मात्रा तु मेथिका । सौंफ और देवदारुका चूर्ण १-१ तोला तथा सितया मोदकं कार्य घृतमाध्वीक संयुतम् ॥ । मेथीका चूर्ण ३२ तोले और खांड १२८ तोले भक्षयेत्मातरुत्थाय यथादोषानुपानतः।। लेकर खांडकी चाशनी बनाकर उसमें कपूरके अतिहन्ति मन्दानलान् सर्वानामदोषं विशेषतः॥ | रिक्त अन्य समस्त चीजोंका चूर्ण मिला दें और महाग्निजननं वृष्यमामवातनिषूदनम् । जब वह ठण्डा हो जाय तो उसमें कपूर तथा ग्रहण्य विकारघ्नं प्लीहपाण्डुगदापहम् ।। थोड़ा थोड़ा घी और शहद मिलाकर मोदक बनालें। प्रमेहान् विंशति हन्ति कासं श्वासश्च दारुणम् । । इन्हें प्रातः काल यथोचित अनुपानके साथ छर्यतीसारशमनं सर्वारुचिविनाशनम् । सेवन करनेसे अग्निमांद्य और विशेषतः आमका मेथीमोदकनामेदं पातअलिमुनेर्मतम् ॥ नाश होता और अग्निकी वृद्धि होती है यह मोदक
हर, बहेड़ा, आमला, धनिया, नागरमोथा, आमवात, ग्रहणी, अर्श, प्लीहा, पाण्डु, २० प्रकासोंठ, काली मिर्च, पीपल, कायफल, सेंधा नमक, रके प्रमेह, भयङ्कर खांसी तथा श्वास, छर्दि, अतिकाकड़ा सिंगी, सफेद जीरा, काला जीरा, पोखरमूल, सार और हरप्रकारकी अरुचिको नष्ट करता है अजवायन, नागकेसर, तेजपात, तालीसपत्र, बायः एवं वृष्य है । ( मात्रा-आधेसे १ तोले तक।) बिडंग, जायफल, दालचीनी, इलायची, जावत्री, मेहमुद्गरवटिका कपूर, लौंग, सोया, मुरामांसी, मुलैठी, पमाक, चव्य, रस प्रकरणमें देखिये।
इतिमकारादिगुटिकाप्रकरणम् ।
अथ मकारादिगुग्गुलुप्रकरणम् । (५१८६) माहिषाख्यो गुग्गुलुः । ततश्चापलं चूर्ण गृहणीयात्तु प्रति प्रति । (वृ. नि. र. । वातरक्त.)
चूर्ण कर्ष त्रिवृत्तायाः सर्व तत्र विनिःक्षिपेत् ।।
तस्मिन्सुसिद्धं विज्ञाय कोष्णं पात्रे विनिःक्षिपेत् । प्रस्थमेकं गुडूच्याश्च सार्धप्रस्थं तु गुग्गुलुः ।
ततश्चाग्निवलं ज्ञात्वा तस्य मात्रां प्रयोजयेत् ।। प्रत्येकं त्रिफलायाच तत्प्रमाणं विनिर्दिशेत् ॥
वातरक्तं तथा कुष्ठं गुदजामग्निसादनम् । सर्वमेकत्र संक्षिप्य क्वाथयेदुल्बणेम्भसि ।
दुष्टवणं प्रमेहं च ह्यामवातं भगन्दरम् ॥ पादशेष परिस्रव्य कषायं ग्राहयेद्भिषक् ।।
नाडयाढयवातान् श्वयथून सर्वान्वातामयान् पुनः पचेत्कषायं वा यावत्सान्द्रत्वमामुयात् ।
जयेत। दन्तीव्योपविडङ्गानि गुडूचीत्रिफलात्वचः ॥ अश्विभ्यां निर्मितः पूर्व माहिषाख्यश्च गुग्गुलुः ॥
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अवलेहप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
गिलोय १ सेर, शुद्ध गूगल १॥ सेर तथा| गिलोय, हर्र, बहेड़ा, आमला और दालचीनीका हर्र, बहेड़ा और आमला डेढ़ डेढ़ सेर लेकर गूग- ! चूर्ण २॥-२॥ तोले तथा निसोतका चूर्ण लको कपड़ेमें बांध लें और शेष चीजोंको अधकुटा | १ तोला । करके ३२ सेर पानी में पकावें पकते समय उसमें
इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे गूगलकी पोटली भी डाल देनी चाहिये।
वातरक्त, कुष्ठ, अर्श, अग्निमांद्य, दुष्टत्रण, प्रमेह, ___ जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो काथको
आमवात, भगन्दर, नाडीव्रण, आढयवात, शोथ छान लें और उसमें पोटलीका बचा हुवा गूगल |
और समस्त वातजरोगोंका नाश हो जाता है। मिलाकर पुनः पकावें जब वह गाढ़ा हो जाय तो
(मात्रा-३ माशे । ) . निम्न लिखित चीज़ाका बारीक चूर्ण मिलाकर चिकने पात्रमें भरकर सुरक्षित रक्खें
महायोगराजगुग्गुलुः दन्तीमूल, सोंठ, मिर्च, पीपल, बायबिडंग, I (योगराज गुग्गुलुः (महा) देखिये ।)
इति मकारादिगुग्गुलुप्रकरणम्
अथ मकाराद्यवलहप्रकरणम् । (५१८७) मञ्जिष्ठाभयायोगः ततः सुस्वादसंपन्नां प्रभाते भक्षयेच्छिवाम् ।।
(यो. र. । विस.) विसर्पान्नाशयेत्सर्वान्कुष्ठान्यष्टादशापि च । मञ्जिष्ठा कुटजो मुस्ता गुडूची रजनीद्वयम् ।। खुडं पामां च कण्डूं च दद्रुविस्फोटविद्रधीन् । कण्टकारी वचा शुण्ठी कुष्ठारिष्टपटोलकम् ॥ अन्यांस्त्वग्दोषजान्रोगांस्तथा रक्तसमुद्भवान्॥ नागी विडङ्गका माची मोरटा प्लक्षदारुकम् । मजीठ, कुड़ेकी छाल, नागरमोथा, गिलोय, कलिङ्गभृङ्गलायन्तीपाठाकाश्मीरिका बलिः ॥ हल्दी, दारुहल्दी, कटेली, बच, सोंठ, कूठ, नीमकी गायत्री त्रिफला तिक्ता सारिवा नक्तमालकः। छाल, परवल, बांझ ककोड़ेकी जड़, बायबिडंग, वासोशीरमहावृक्षसोमराजीप्रिय काः ॥ | मकोय, मूर्वा, पिलखनकी छाल, देवदारु, इन्द्रजौ, चन्दनं पर्पटानन्ता विशाला त्रिता जलम् । भंगरा, त्रायमाना, पाठा, खम्भारीको छाल, अरणी, कटुत्रिकं खुरासानं पलमेकं पृथक्पृथक् ॥ खैरसार, हर्र, बहेड़ा, आमला, कुटकी, सारिवा, द्वाविंशतिपलां पथ्यां जलद्रोणे विपाचयेत् । करंजकी छाल, बासा (अडूसा), खस, सेहुंड अष्टावशेषः कर्तव्यः काथः सद्भिपजा ततः॥ (सेंड-थूहर ) का डंडा, बाबची, फूलप्रियङ्गु, वस्त्रपूता शिवा कार्या तीक्ष्णलोहेन बेधयेत् । लाल चन्दन, पित्तपापड़ा, अनन्तमूल, इन्द्रायणकी मधुमध्ये विनिक्षिप्य दिनत्रिःसप्तसंख्यया ॥ जड़, निसोत, सुगन्धवाला, सोंठ, मिर्च, पीपल विनष्टं मधु संत्यज्य मधु श्रेष्ठ पुनः क्षिपेत्।। और खुरासानी अजवायन ५-५ तोले तथा हर्र
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- भैषज्य - भारत-
५४
चीजें को
११० तोले लेकर हर्रके सिवाय सब अकुटा करके और हरेको साबित ही डालकर ३२ सेर पानी में पकावें जब ४ सेर पानी शेष रहे तो हर्रोको निकालकर उन्हें सुवे या लोहेकी सींखसे बचें और फिर शहद में डाल दें । २१ दिन पश्चात् पुराने शहदको फेंक दें और उनमें नया शहद डाल दें।
इस क्रिया हर्रे अत्यन्त स्वादिष्ट हो जाती हैं। इनमें से नित्य प्रति प्रातः काल १-१ हर्र सेवन करनी चाहिये ।
इन्हें सेवन करनेसे समस्त प्रकारका विसर्प, अठारह प्रकारके कुष्ठ, खुडवात, पामा, खाज, दाद, विस्फोटक, विद्रधि तथा अन्य त्वग्रोग और रक्त विकार नष्ट हो जाते हैं ।
मण्डूराद्यवलेहः प्रकरण में देखिये | (५१८८) मधुकादिलेहः
( वृ. मा. | कासा. ) मधुकं पिप्पली द्राक्षा लाक्षा शृङ्गी शतावरी ॥ द्विगुणो च तुगाक्षीरी सिता सर्वैश्वतुर्गुणा । लेहयेन्मधुसर्पिभ्यां क्षतकासनिवृत्तये ॥
मुलैठी, पीपल, मुनक्का, लाख, काकड़ासिंगी और शतावरे १-१ तोला तथा बंसलोचन १२ तो और खांड ७२ तोले लेकर मुनक्काको पत्थर पर पीसलें और अन्य चीजें को कूट छानकर महीन चूर्ण बनावें तथा उसे घी और शहद में मिलाकर रोगीको सेवन करावें ।
- रत्नाकरः
[ मकारादि
इसे सेवन करने से क्षतज ( उरःक्षतकी)
खांसी नष्ट होती है ।
( मात्रा - १ तोला )
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रसप्रकरण में देखिये |
मधुकाद्यवलेह : (भै. र. प्रदर. )
(५१८९) मधुपक हरीतकी (१) ( वृ. नि. र. । ग्रहण्य. ) कदम्बम्बचिञ्चानां त्वक्चूर्ण पलषोडशम् । अजागोमहिषीसूत्रं त्वक्षोडशगुणोत्तरम् ॥ काथयेत्पादशेषं तु शुद्धं कृत्वा विनिःक्षिपेत् । अभयानां शतैकं तु काथयेच्च कषायकम् || जीर्यते भया पचाद्भित्त्वा अण्डं निवारयेत् । भृङ्गी सुवर्चलं चूर्ण तुल्यं तेन प्रपूरयेत् ॥ अभयां वेष्टयेत्सूत्रैर्मधुमध्ये त्र्यहं क्षिपेत् । नित्यं क्षौद्रसमं भक्ष्या त्रिदोषार्शः प्रशान्तये ॥
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कदम्ब की छाल, नीमकी छाल और इमलीकी छाल समान - भाग- मिश्रित १ सेर लेकर सबको अधकुटा करके बकरी, गाय और भैंसके समान - भाग मिश्रित १६ सेर मूत्रमें पकावें और जब ४ सेर मूत्र शेष रह जाय तो उसे छानकर उसमें १०० हर्र डालकर पुन: पकावें जब हरें उसीज जाये तो उन्हें चाकूसे चीरकर उनके भीतर की गुठली निकाल डालें और उनमें भंग तथा स्वञ्चल ( काले नमक ) का समानभाग - मिश्रित चूर्ण भरकर उन्हें डोरेसे बांध दें और शहद में डाल दें एवं ३ दिन पश्चात् सेवन करावें ।
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अवलेहमकरणम् ]
चतुर्थों भागः
इन्हें सेवन करनेसे त्रिदोषज अर्श का नाश जीरा, हल्दी, दारुहल्दी, आमला, बायबिडंग, चिरहो जाता है।
चिटा, काकड़ासिंगी, देवदारु, पुनर्नवा (बिसखपरा), (से. वि.-नित्य प्रति १-१ हर्र थोडेसे | धनिया, लौंग, अमलतास, गोखरु, विधारामूल, शहदके साथ खानी चाहिये । )
करंज और खस १०--१० तोले लेकर सबको
| एकत्र मिलाकर अधकुटा करलें और सबको ४० (५१९०) मधुपक्वहरीतकी (२)
सेर पानीमें पका तथा पकाते हुवे उसमें ४ सेर (भा. प्र. । वाजीकर.)
हर्र कपड़ेमें बांधकर डाल दें। दशमूलकणावकिपित्थश्च विभीतकम् ॥
___जब हर उसीज जायं तो उनको जगह जगहसे धान्यकं देवकुसुमं राजवृक्षस्त्रिकण्टकम् ।
(लोहेकी सीखसे बींधकर) शहदमें डाल दें। तीन दिन दृद्धदारु कुबेराक्षो मूलं वीरणिकाभवम् ।।
पश्चात् वह शहद निकाल डालें और दूसरा नया एतेषां पलयुग्मन्तु भेषजानां पृथक्पृथक् । शहद भर दें तदनन्तर ५ दिन पश्चात् और फिर दश आढकश्चापि पथ्यायास्तोये पश्चाढके पचेत् ॥ दिन बाद शहद और बदल दें और फिर हरौंको स्विन्ना पथ्या भवेद्यावत्पश्चान्मधु विनिक्षिपेत् । | तैयार समझें । गुरुपदेशाविधिवत्रिदिनश्च ततः परम् ॥
इन्हें सेवन करनेसे श्वास, खांसी, क्षय, पाण्डु, पुनः क्षिपेत्पश्चदिनं तथा च दशवासर ।
हिचकी, वमन, मद, भ्रम, मुखरोग, तृष्णा, अरुचि, संसिद्धा चाभया पश्चाद्धृतभाण्डे निधापयेत् ॥
अग्निमांय, यकृत, प्लीहा, उदररोग, दारुण वातरक्त, विमले सुदृढे क्षौद्रपरिपूर्णे प्रयत्नतः।
शिरशूल, कर्णशूल, नेत्रकी पीड़ा, बद्वगुदोदर, ग्रहणी पश्चात्पूर्वोक्तभाण्डे तु क्षिपेबुद्धिपरायणः॥
और त्रिदोषज शोष आदि अनेक रोग नष्ट होते हैं। एषा हरीतकी चैव धन्वन्तरिकृता शुभा। भक्षयेद्यो नरो नित्यं रोगा नश्यन्ति सर्वशः॥ (५१९१) मधुपक्कहरीतकी (३) श्वासं कासं क्षयं पाण्डं हिक्कां छर्दिमदभ्रमान् । (वृ. नि. र. । संग्रहणी. ) मुखरोगं तथा तृष्णामरुचिं वह्निमन्दताम् ॥ हरीतकीनां च शतं दोलायन्त्रे शनैः पचेत । यकृत्प्लीहोदराणाश्च वातरक्तं सुदारुणम् । | मुस्विनं गोमये नीरे संसृष्टं वा पुनस्ततः ॥ शिरोऽक्षिकर्णजां पीडां तथा बद्धगुदोदरम् ॥ पश्चाक्षुद्रशलाकाभिश्छिद्रितं तत्समन्ततः । ग्रहणीं दुर्विकाराश्च शोषं दोषत्रयोद्भवम् । शतं पलानां मधुनो वस्त्रपूतं विनिःक्षिपेत् ॥ मधुपकेति विख्याता हन्ति रोगाननेकशः॥ | स्निग्धभाण्डे विनिःक्षिप्य क्षौद्रं देयं तथा तथा। ___ दशमूलकी प्रत्येक ओषधि, पीपल, चीता, यथा यथा हि मधुनो जलत्वं याति निश्चितम् ।। कैथ, बहेड़ा, कायफल, काली मिरच, साँठ, पीप- पुनर्देयं मधु तथा यावन्नायाति विक्रियाम् । लामूल, सेंधा नमक, लाल रुहेड़ा, दन्तीमूल, मुनक्का, तिष्ठत्येवं तथा पथ्या कपायगुणवर्जिता ॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
पिप्पली मरिचं शुण्ठी लवङ्ग वंशलोचनम् ।
. श्यामाः कुधात्री करिकुङ्कामं च ॥ प्रत्येकं कर्षमात्रं हि चूर्णितं तत्र निःक्षिपेत् ॥ जम्ब्बाम्रयोरस्थि सवल्कलं च मधुपकभिधा पथ्या बलवर्णाग्निदीपनी।
सर्वाणि चैतानि पलांशकानि। एकैकां भक्षयेत्पातः सर्वरोगनिवारिणीम् ॥
द्रोणे जलस्य प्रपचेत्कषायदुष्टवातं सङ्घहं च तथा दुष्टशोणितम् ।
मष्टावशेष सितवस्त्रपूतम् ॥ जीर्णज्वरं प्रतिश्यायं व्रणं विस्फोटकं तथा ॥ क्षौद्रं क्षिपेदष्टपलप्रमाणं वातशूलं सङ्ग्रहणी सरुजां नाशयत्यपि ॥
पलार्धनागाहयचन्दनैलाः। . १०० हरोको कपड़ेकी पोटलीमें बांधकर
सहैव सम्मी विधाय चूर्ण दोलायन्त्रविधिसे गायके गोबरके रसमें पकावें । जब
.. क्षौद्रान्वितं तच्च पुनर्विपाच्यम् ॥ वे अच्छी तरह उसीज जायं तो उन्हें लोहेकी सला
उत्तार्य लेहं घृतभाजने च ईसे जगह जगहसे बांधकर (कुछ सुखाकर) चिकने बरसनमें सौ पल (१२॥ सेर) कपड़ेसे छने हुवे
निधापयेत्सप्त दिनानि गुप्तम्। शहदमें डाल दें। जब वह शहद पतला हो जाय
तं पाययेद्वयाधिवलं समीक्ष्य तो उसे निकालकर और नया शहद डाल दें। इसी
जयेच्च सर्वान् ग्रहणीविकारान् । प्रकार जब तक शहद बिगड़ना बन्द न हो तब
अरोचकं जीर्णमथातिसारं तक बार बार बदलते रहें और अन्तमें उसमें तृष्णाम्लपित्तं वमिद्ग्रहं च ॥ ११-१। तोला पीपल, काली मिरच, सोंठ, लौंग पाठा, अजमोद, मुलैठी, मजीठ, नागरमोथा, और बंसलोचनका चूर्ण मिलादें ।
सुगन्धबाला, खस, बायबिडंग, धनिया, बेलगिरी, इस विधिसे हर कषाय रस-रहित होजाती हैं चीता, सोंठ, पीपल, लोध, अनन्तमूल, भुई आमला, और इन्हें सेवन करनेसे बल, वर्ण तथा अग्नि की नागकेसर, जामन और आमकी गुठली तथा छाल; वृद्धि होती और दुष्ट वात, आम, रक्तविकार, जीर्ण- हरेक वस्तु ५-५ तोले लेकर सबको अधकुटा ज्वर, प्रतिश्याय, व्रग, विस्फोटक, वातज शूल और । करके ३२ सेर पानीमें पकावें और ४ सेर पानी पीड़ा युक्त संग्रहणी आदि रोगोंका नाश होता है। शेष रहने पर सफेद कपड़ेसे छानकर उसमें १ सेर (मोत्रा-१ हरै।)
शहद तथा २॥२॥ तोले नागकेसर, सफेद (५१९२) मधुपाकविधिः चन्दन और इलायचीका चूर्ण मिलाकर पुनः पकावें । (ग. नि. । लेहा. ५)
जब अवलेहके समान गाढ़ा हो जाय तो उसे - पाठाऽजमोदा मधुकं समझा ठण्डा करके चिकने पात्रमें भरकर उसका मुख
- मुस्ता जलोशीरविडङ्गधान्यकम् । बन्द करके रख दें और सात दिन पश्चात् बिल्वाग्निशुण्ठीमगधाः सरोध काममें लावें।
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अवलेहप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे समस्त । पकाकर शहदके साथ सेवन किया जाए तो भी प्रकारकी ग्रहणी, अरुचि, पुराना अतिसार, तृष्णा, | अतिसार नष्ट हो जाता है। अम्लपित्त, वमन और हृद्ग्रहका नाश होता है। (कांजी समस्त चूर्णसे ४ गुनी लेनी चाहिये (५१९३) मधुहरीतकी (१)
| तथा इतना पकाना चाहिये कि हरड़ें नरम हो
जाएं।) (व. से. । रसायना.)
मध्वादिलेहः दुर्नामश्वासकासज्वरवमथुतृषापाण्डुतानेत्ररोगान् ।
( ग. नि. । रा. य. ९) हिक्काकुष्ठातिसारभ्रममदसदृशाऽजीर्णशूलपदोषान् ।
रसप्रकरणमें देखिये। तृष्णाशूलाखापत्तं ज्वरविगतजरारोचकानाह
मनःशिलादिलेहः
वातान् । हन्यादेतानवश्यं मधुनि परिगता
(व. से.; वृ. मा. । छर्दि.) पूतना चाम्लपित्तम् ।। रस प्रकरणमें देखिये। शहद के साथ हर्र सेवन करनेसे अर्श, श्वास, (५१९५) महाकल्याणको गुडः खांसी, ज्वर, वमन, तृष्णा, पाण्ड, नेत्ररोग, हिचकी, | (ग. नि. । गुटिका; वृ. यो. त. । त. ६७; कुष्ठ, अतिसार, भ्रम, मद, अजीर्ण, शूल, रक्तपित्त, भा. प्र.; वं. से. । ग्रहणी.) जरा. अरुचि, आनाह, वातव्याधि और अम्ल पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रको हस्ति पिप्पली। पित्तादि रोग अवश्य नष्ट हो जाते हैं। धान्यकश्च विडङ्गानि यवानी मरिचानि च ॥
(५१९४) मधुहरीतकी (२) त्रिफला चाजमोदा च नीलिनी जीरकं तथा । (वै. र. । अतिसारा.)
| सौवर्चलं सैन्धवं च सामुद्रं रुचकं विडम् ।।
| आरबधश्च त्वक्पत्रं सूक्ष्मैलामुपकुञ्चिकाम् । त्रिकण्टकैरण्डबिल्वैः साधिता यवकाधिके ।।
| नागरेन्द्रयवांश्चैव षड्वंश येककर्षसम्मिताः ॥ आमातिसार शूलानि जयेत् क्षौदान्विना शिवा । केवला वा तथा स्विन्ना मधुना ग्राहिणी मता ॥
- मृद्वीकाया:पलान्यत्र चत्वारि कथितानि हि ।
त्रितायाः पलान्यष्टौ गुडस्या तुलां तथा ॥ जौकी कांजीमें गोखरु, अरण्डकी जड़, और
तिलतैलपलान्यष्टावामलक्या रसस्य तु । बेलगिरीका समानभाग मिश्रित चूर्ण मिलाकर उसमें प्रस्थत्रयमिदं सर्व शनद्वग्निना पचेत् ॥ सावित हरडेको पकायें।
औदुम्बरं चामलकं वदरश्च यथावलम् । इन्हें यथोचित मात्रानुसार शहदके साथ सेवन तावन्मात्रमिदं खादेद्भक्षयेद्वा यथानलम् ॥ करनेसे आमातिसार और शूल नष्ट होता है। निखिलान्ग्रहणीरोगान्प्रमेहांश्चैव विंशतिम् ।
केवल हरडेको भी जौकी कांजीमें उरोधातं प्रतिश्यायं दौर्बल्यं वह्निसङ्ग्रयम् ॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
ज्वरानपि हरेत्सर्वान्कुर्यात्कान्ति मतिं वलम् ।। (५१९७) माक्षिकाविडवलेहः पाण्डुरोगाभवाद्धन्ति रक्तपित्तश्च विडग्रहम् ॥ (यो. र. । छर्दि; वृ. यो. त. । त. ८३) धातुक्षीणो वयःक्षीणः स्त्रीषु क्षीणः क्षयी च यः। सिताचन्दनमध्वादयं विलिहेन्मक्षिकाशकृत् । तेभ्यो हितश्च वन्ध्याय महाकल्याणको गुडः ॥ सोपद्रवा पित्तभा छदिरेतेन शाम्यति ॥ __पीपल, पीपलामूल, चीता, गजपीपल, धनिया, मक्खीकी बीट (विष्टा) में मिश्री और सफेद बायबिडंग, अजवायन, कालीमिर्च, हर्र, बहेड़ा, चन्दन मिलाकर शहदके साथ चटानेसे उपद्रवयुक्त आमला, अजमोद, नीलकी जड़, जीरा, कालानमक | पित्तज वमन नष्ट हो जाती है । (संचल ), सेंधा नमक, सामुद्र नमक, (५१९८) मागधिकादिलेहः सज्जीखार, बिड नमक (बिरया संचर), (ग. नि. । हिक्काश्वासा. ११) अमलतास, दालचीनी, तेजपात, छोटी इलायची, मागधिका तन्मूलं नागरविभीतकंच सञ्चूण्य । कलौंजी, सोंठ और इन्द्रजौ का चूर्ण १।-१। क्षौद्रयुतोऽवलेहः शमयति कासं त्रिरात्रेण ॥ तोला; (पत्थर पर पिसी हुई) मुनक्का २० तोले; पीपल, पीपलामूल, सोंठ और बहेड़ा समान निसोतका चूर्ण ४० तोले; गुड़ ३ सेर १० तोले; | भाग लेकर चूर्ण बनाकर उसे शहदमें मिलाकर तिलका तेल १ सेर और आमलेका स्वरस ६ सेर चाटनेसे खांसी ३ दिनमें ही नष्ट हो जाती है। लेकर सबको एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें ( मात्रा-१॥ माशा । दिनमें ४-५ बार ।) जब अवलेहके समान गाढ़ा हो जाय तो उतार । (५१९९) मातुलुङ्गादिलेहः कर ठण्डा करके चिकने पात्रमें भरकर रख दें।
( वृ. नि. र. । कासा.) इसे नित्य प्रति अग्निबलानुसार गूलर, मातुलुङ्गरसो हिङ्गत्रिफला मधु शर्करा । आमला या बेरके बराबर सेवन करनेसे समस्त सपिर्मध्वावलेहोयं पित्तकासविनाशकृत् ।। ग्रहणी रोग, बीस प्रकार के प्रमेह, उरःक्षत, प्रति. बिजौ रेका रस, भुनी हुई हींग, हर्र, बहेड़ा, श्याय, निर्बलता, अग्निमांद्य, समस्त ज्वर, पाण्डु, आमला, मुलैठी और मिश्री समान भाग लेकर रक्तपित्त और मलावरोधका नाश होता तथा कूटने योग्य चीज़ोंको कट छानकर चूर्ण बनावें कान्ति, मति और बलकी वृद्धि होती है। और फिर सबको घी और शहदमें मिलाकर
जिनकी धातु क्षीण है, जिनको आयु क्षीण | सेवन करें । हो चुकी है और जिनमें कामशक्ति की कमी है यह अवलेह पित्तज खांसीको नष्ट करता है उनके लिये तथा क्षयी और वन्ध्या स्त्रियों के लिये (५२००) मातुलुङ्गाद्यवलेहः यह गुड़ अत्यन्त उपयोगी है।
(वृ. यो. त. । वातगु.) __ (५१९६) महाभल्लातकावलेहः मातुलुङ्गरसोहिङ्ग दाडिमं विडसैन्धवम् । प्रयोग संख्या ४८६२ “भल्लातकावलेह” देखिये। | सुरामण्डेन पातव्यं वातगुल्मप्रशान्तये ॥
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अवलेहमकरणम् ]
बिजौरे नीबू का रस, हींग, अनारदाना, बिड लवण, और सेंधा नमक का अवलेह बनाकर सुरा मण्डके साथ सेवन करनेसे बातज गुल्म नष्ट होता है ।
चतुर्थी भागः
( बिजौरेका रस अन्य समस्त औषधोंसे चार गुना लेना चाहिये । )
(५२०१) मिश्यादिलेहः
I
(ग. नि. । बालरोगा. ११; वृ. मा. । बाल. ) मिशि कृष्णाञ्जनैर्लाजशृङ्गीमरिचमाक्षिकैः । लेहः शिशोर्विधातव्यश्छर्दिकासज्वरापहः ॥
सौंफ, पीपल, सुरमा, धानकी खील, काकड़ा - सिंगी और काली मिर्च समान भाग लेकर, चूर्ण बनाकर, शहद मिलाकर चटाने से बालकों की वमन, खांसी और ज्वरका नाश होता है।
(५२०२) मुस्तायो लेहः ( ग. नि. । रक्तपित्ता. ८ ) मुस्ताङ्गाटकद्राक्षाला जखर्जूरगैरिकाः । रक्तपित्तहरा लीढाः क्षौद्रेणैक द्विसर्वशः ॥
नागरमोथा, सिंघाड़ा, मुनक्का, धानकी खील, खजूर और गेरु माटी समान भाग लेकर कूटने योग्य चीज़ों को कूट छानकर चूर्ण बनावें और बाकीको पत्थर पर पीसलें फिर सबको एकत्र मिलाकर शहद के साथ सेवन करें ।
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(५२०३) मूर्वाद्यवलेहः (बृ. यो. त. । त. १४४; ग. नि. बालरोगा . ११) मूर्वाव्योपवचा कोलजम्वृत्वग्दारुसर्षपाः । सपाठा मधुना लीढाः स्तन्यदोषनिवर्हणाः ||
मूर्वा, सोंठ, मिर्च, पीपल, बच, बेरकी गुठलीकी मींगी, जामनकी गुठलीकी मींगी, दालचीनी, देवदारु, सरसो और पाठा समान भाग लेकर, चूर्ण बनाकर उसे शहद में मिलाकर चाटने से स्तन्य दोष ( दूध विकार) नष्ट हो जाते हैं । (५२०४) मृगनाभ्यादिलेह: भा. प्र. म. खं. स्वरभेदा. ) मृगनाभिः ससूक्ष्मैला लवङ्गकुसुमानि च । त्वक्क्षीरी चेति लेहोऽयं मधुसर्पिःसमायुतः ।। वास्तम्भमुग्रं जयति स्वरभ्रंशसमन्वितम् ॥
इति मकारावले हमकरणम्
५९
कस्तूरी, छोटी इलायची, लौंग और वंशलो चन समान भाग लेकर, चूर्ण बनाकर, शहद में मिलाकर चाटने से वाक्स्तम्भ ( आवाज बन्द हो जाना) और स्वरभंगका नाश होता है। (५२०५) मृणालाद्यवलेह : ( वृ. नि. र. ! मूर्च्छा. ) शीतेन तोयेन भृशं मृणालं
कृष्णा च पथ्या मधुनावलिह्यात् । कुर्याच्च नामावदनावरोधं
क्षीरं पिबेद्वाप्यथ मानुषीणाम् ॥ मूर्च्छाको नष्ट करनेके लिये कमलताल, पीपल और हर्रको शीतल जल के साथ पीसकर शहद में मिलाकर चटाना; ( क्षणभर के लिये ) रोगी की
यह लेह एक दोषज, द्विदोषज और सन्नि- नासिकाके नथने और मुख बन्द कर देना और
पात रक्तपित्तको नष्ट करता है ।
स्त्रीका दूध पिलाना चाहिये ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
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अथ मकारादिपाकप्रकरणम् (५२०६) मलाईपाक: गुन्दं पलचतुष्कं च मज्जा त्रीणि पलत्रयम् ।
(नपु. मृता. त. ८) जातीफलं लवङ्गं च कुङ्कुमं चैव तूवरम् ॥ सन्तानिकाह्यद्धप्रस्थं सितां प्रस्थां च सम्पचेत् । मांसीमर्कटबीजानि चातुर्जातकटुत्रयम् । चतुष्पलं घृतं दत्त्वा कुर्यात्पाकं विधानतः ॥ जातीपत्रकरम्भा च प्रत्येकं पिचुमात्रकम् ॥ एलाद्वयं जातिपत्रीं काश्मीरं च लवङ्गकम् । द्विकर्षमोदकं कुर्यादेकै भक्षयेन्नरः । प्रत्येककर्षमाचूर्ण्य दलांश्चैव सुवर्णजान् ॥ धातुक्षीणं बलक्षीणं क्षीणवीर्यमन्दानिलम् ॥ राजतान्मेलयित्वा च मोदकान्पलसम्मितान् ।
कासश्वासरुचिं पाण्डुदौर्बल्यं विषमज्वरम् । कारयित्वा विधानेन भक्षयेद्धनवांस्ततः ॥
पण्ढो रमयते नारीशतं वा नात्र संशयः॥ वीर्यवृद्धिकरं शश्वद्वाजीकरणमुत्तमम् ॥
दूधकी मलाई आधासेर, मिश्री १ सेर और शुष्कगात्रं भवेत्पुष्टं मनोज्ञ कान्तिवर्द्धनमा । घी आधासेर (४० तोले ) लेकर सबको एकत्र
वातव्याधिषु सर्वेषु हितोयं नैव संशयः ।। मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें।
प्रमेहं शुष्कगात्रं च वलीपलितनाशनम् । जब पाक तैयार हो जाय तो उसमें छोटी मुशल्यादिरयं पाको वन्ध्या भवति पुत्रिणी ॥ और बड़ी इलायची के दाने, जावत्री, केसर और सफेद मूसलीके ४० तोले चूर्णको ६। सेर लौंगका चूर्ण ११-१। तोला मिलाकर अन्तमें यथा- दूधमें पकावें । जब मावा (खोवा) तैयार हो जाय शक्ति सोने चांदीके वर्क मिलाकर ५-५ तोलेके तो उसे एक सेर घीमें भूनलें और फिर १२५ लडडू बना लें।
तोले (१ सेर ४५ तोले) खांडकी चाशनी बना- ये मोदक वीर्यवर्द्धक और उत्तम वाजीकरण कर उसमें यह मावा तथा घीमें भुना हुवा २० हैं । ( सोने चांदीके वर्क १०० से अधिक न तोले गूंद; गोला (खोपरा), बादामकी गिरी और मिलाने चाहिये ।)
चिरौंजी ५-५ तोले; जायफल, लौंग, केसर, महाकुष्माण्डपाक:
तुम्बरु, बालछड़, कौंचके बीज, दालीचीनी, इला(वृ. यो. त. । त. १४७ )
यची, तेजपात, नागकेसर, सोंठ, काली मीर्च, पीपल, रसप्रकरणमें देखिये ।
जावत्री, और केलेकी मूसली (अथवा फली)का ५-५ (५२०७) मुशलीपाकः (१)
तोले चूर्ण मिलाकर २॥-२॥ तोलेके मोदक ( यो. चि. म. । अ. १)
बना लें। मुशल्यायाः पलान्यष्टौ तुलाक्षीरे विपाचयेत् । इनमेंसे १-१ मोदक नित्यप्रति सेवन करसर्पिविकुडवं देयं सिता फर्षशतं तथा ॥ | नेसे धातुक्षीणता, बलको कमी, अग्निमांद्य, खांसी,
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पाकप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
६१
श्वास, अरुचि, पाण्डु, विषमज्वर, प्रमेह, वात- आमवातं निहन्त्येतत् सर्वांश्च पवनामयान् । व्याधि और बलिपलित का नाश होता तथा दुबले ज्वरांश्च विषमान् हन्ति पाण्डुरोगं सकामलम्।। मनुष्यों का शरीर पुष्ट तथा कान्तिमान् हो हन्त्युन्मादमपस्मारं प्रमेहान्वातशोणितम् । जाता है।
अम्लपित्तं शिरः पीडां नासारोगं दृगामयम् ।। ___ इसके प्रभावसे नपुंसक पुरुषमें अनेक स्त्रियों- प्रदरं मूतिकारोगं हन्यादेतन संशयः । मे रमण करनेकी शक्ति आती और वन्ध्या स्त्रीको वपुषः पुष्टिकृद्धल्यं वीर्यवृद्धिकरं परम् ॥ पुत्रकी प्राप्ति होती है।
मेथी और सोंठके ४०-४० तोले कपड़छन मुशलीपाकः (२)
चूर्णमें १ सेर गोघृत तथा ८ सेर गोदुग्ध मिलाकर (नपुंस्काम. । त. ४ )
मन्दाग्नि पर पकावें । जब दूध गाढ़ा हो जाय तो रसप्रकरणमें देखिये ।
उसमें ४ सेर खांड मिलाकर पुनः पकावे और पाक
तैयार हो जाने पर आगसे नीचे उतार कर उसमें काली (५२०८) मेथीपाकः (१)
मिरच, पीपल, सोंठ, पीपलामूल, चीता, अजवायन, ( वृ. नि. र.; वै. र. । आमवात.)
जीरा, धनिया, काला जीरा, सौंफ, जायफल, कचूर, मेथिकायाः पलान्यष्टौ शुण्ठया अष्टपलानि च । दालचीनी, तेजपात और नागरमोथे का चूर्ण ५-५ तयोचूर्ण पटे पूतं दुग्धे मृद्वग्निना पचेत् ॥ तोले तथा सोंठ और काली मिरचका चूर्ण साढ़े दुग्धाढकयुतं गव्यं घृतमष्टपलं क्षिपेत् । सात सात तोले मिलाकर चिकने पात्रमें भरकर ततावत्सुपचेद्यावद्भवेदतिघनं पयः॥ सुरक्षित रक्खें। पुनः पचेच्छनैस्तत्र दत्त्वाढकमिता सिताम् । इसे ५ तोले या अग्निवलानुसार न्यूनाधिक ततः पाके सुविज्ञाते ज्वलनादवतारयेत् ॥ मात्रामें सेवन करनेसे आमवात, समस्त वातव्याधियां, मरिचं पिप्पली शुण्ठी कणामूलं सचित्रकम् । विषमज्वर, पाण्डु, कामला, उन्माद, अपस्मार, प्रमेह, यवानी जीरको धान्यं कारवी शतपुष्पिका॥ वातरक्त, अम्लपित्त, शिरशूल, नासारोग, नेत्ररोग, जातीफलं शठी त्वक्च पत्रकं भद्रमुस्तकम् । प्रदर और सूतिका रोगोंका नाश होता तथा बल गृह्णीयात्पलमेतेषां सर्वेषां च पृथक् पृथक् ॥ वीर्यको वृद्धि होती है । इसके सेवनसे मुखमण्डल षडक्ष नागरं तत्र मरिचं च षडक्षकम् । पुष्ट हो जाता है। एषां चूर्ण परिक्षिप्य सर्वं सम्मिथ्य रक्षयेत् ॥
मेथीपाकः (२) एतत्तु भेषजं प्रोक्तं मेथिकापाकसंज्ञितम् । (नपुंसकामृतार्णव ) भक्षयेत्पलमात्रं तद्यथा चाग्निबलं तथा ॥ रसप्रकरणमें देखिये ।
इति मकारादिपाकमकरणम् ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
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अथ मकारादिघृतप्रकरणम् । (५२०९) मञ्जिष्ठादिघृतम् प्रमेहान्मधुमेहांश्च कमान् कुष्ठमरोचकम् ॥
(र. र. स. । उ. खं. अ. २५) | कासं शोषमुदावर्तमपस्मारं तथैव च । मञ्जिष्ठा तगरं कुष्ठं त्रिफला शर्करा वचा।
| अशीसि श्वयधुं चैव गण्डमालां प्लिहोदरम् ॥ मेदा यष्टी हरिद्रे द्वे दीप्यकं कटुरोहिणी ॥
कल्कद्रव्य-मजीठ, हल्दी, देवदारु, हर्र, पयस्या हिङ्गु काकोली वाजिगन्धा शतावरी ।
सेोठ या अदरक, अतीस, बच, कुटकी और हींग प्रत्येकं चूर्णयेत्कर्ष द्वात्रिंशत्पलकं घृतम् ।।
१।-१। तोला लेकर चूर्ण बनावें ।
विधि-१ सेर घीमें उपरोक्त कल्क और ४ घृताच्चतुर्गुणं क्षीरं धृतशेषं विपाचयेत् ।।
| सेर पानी मिलाकर मन्दाग्नि पर पकायें जब पानी योनिशूले शुक्रदोषे गर्भिणीनां च पाययेत् ॥
जल जाए तो घीको छान लें। . कल्कद्रव्य-मजीठ, तगर, कूठ, हर्र, बहेड़ा,
गुण-यह घृत हिचकी, श्वास, दुष्ट ज्वर, आमला, खांड, बच, मेदा, मुलैठी, हल्दी, दारु हल्दी,
संग्रहणी, पाण्डु, प्रमेह, मधुमेह, कृमि, कुष्ठ, अरुचि, अजवायन, कुटकी, क्षीरकाकोली, हींग, काकोली,
खांसी, शोष, उदावर्त, अपस्मार, अर्श, शोथ, गण्डअसगन्ध और शतावर १०-११ तोला लेकर
माला और तिल्ली इत्यादि बहुतसे रोगेको नष्ट चूर्ण करलें।
करता है। ४ सेर घृतमें यह कल्क और १६ सेर दूध | मिलाकर पकावें । जब घृतमात्र शेष रह जाय तो
' (५२११) मञ्जिष्ठाद्य घृतम् (२) छान लें।
(ग. नि. । घृता.; व. से.; वृ. नि. र. । ज्वर.) यह घृत योनिशूल और शुक्र दोषांको नष्ट मभिष्ठाऽतिविषा पथ्या वचा नागररोहिणी। करता तथा गर्भिगीके लिये हितकारी है।
देवदारु हरिद्रा च द्रोणेऽपां पलि कान् पचेत् ॥
क्वाथेऽस्मिन् साधयेत् पिष्टैघृतपस्थ पिचून्मितः । (५२१०) मञ्जिष्ठाद्यं घृतम् (१) ।
| शृङ्गवेरकणाहिङ्गुद्विक्षारपटुपञ्चकः ॥ (ग. नि. । घृता.; यो. चि. म. । अ. ५) तत्कफावतप्तवेत्थिचरिणाममृतोपमम् । मभिष्ठा च हरिद्रा च देवदारु हरीतकी। वर्मगुल्मानिलश्वासकासपाण्डुविकारिणाम् ।। शृङ्गवेरं ह्यतिविषा वचा कटुकरोहिणी ॥ गलग्रन्थिप्रमेहाशः प्लीहापस्मारशोफिनाम् । हिङ्गतश्चाक्षमात्रेण तत्सिद्धमवतारयेत् । उदावर्तपरीतानां मन्दाग्निकृमिकुष्ठनाम् ॥ एतन्माभिष्ठकं सर्पिबहून् रोगानियच्छति ॥ काथ-मजीठ, अतीस, हरड़, बच, सोंठ, हिकां वासं ज्वरं दुष्टं ग्रहणीं पाण्डुरोगताम् ।...| कुटकी, देवदार और हल्दी ५-५ तोले लेकर,
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घृतप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः सबको अधकुटा करके ३२ सेर पानीमें पकावें । | पृथगष्टपलं क्षौद्रशर्कराभ्यां विमिश्रयेत् । जब ८ सेर पानी शेष रह जाए तो छान लें। समसक्तुक्षतक्षीणरक्तगुल्मेषु तद्धितम् ॥ ___ फल्क---सोंठ, पीपल, हींग, जवाखार, ४० तोले मुलैठी और ८० तोले बीज रहित सज्जीखार, सेंधा नमक, समुद्र नमक, कांचलवण दाख (मुनक्का) को १६ सेर पानीमें पकावें । जब ( मनोहारी लवण-कचलोना ), विडलवण, सञ्चल ४ सेर पानी शेष रहे तो छान लें। इस क्वाथमें (काला) नमक । प्रत्येक १। तोला लेकर सबको २ सेर (१६० तोले) गायका घी तथा ४० तोले एकत्र पीस लें।
पीपलका चूर्ण मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब विधि--२ सेर गोघृतमें उपरोक्त क्वाथ |
पानी जल जाय तो घृतको छान कर, ठण्डा करके और कल्क मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें । जब पानी
उसमें ४०-४० तोले शहद और खांड मिलाकर जल जाए तो घृतको छान लें।
सुरक्षित रखें। ___ गुण--यह घृत समस्त कफज्वरेमेिं अमृतके |
इसे समान भाग सत्तूमें मिलाकर सेवन करसमान गुणकारी है । तथा वध्मे गुल्म, वायु, श्वास, नेसे क्षतक्षीण और रक्तगुल्ममें लाभ होता है। खांसी, पाण्डु, गलग्रन्थि, प्रमेह, अर्श, प्लीहा,
(५२१४) मधुकादिघृतम् (२) अपस्मार, शोथ, उदावर्त, मन्दाग्नि, कृमि और कुष्ठ
(वा. भ. । चि. अ. ८ अर्श.) रोगमें हितकारी है।
मधुकोत्पलरोधाम्बुसमङ्गाबिल्वचन्दनम् । (५२१२) मञ्जिष्ठाद्यं घृतम् (३) ।
चविकातिविषा मुस्तं पाठा क्षारो यवाग्रजः ॥ (र. र. । सद्योत्रण. चिकि.; च. द. । व्रणशोथा. ४४) दाऊत्वङनागरं मांसी चित्रको देवदारु च । मञ्जिष्ठाचन्दनं मूर्वी पिष्ट्वा सपिवि पाचयेत् । चाङ्गेरीस्वरसे सर्पिः साधितं तैस्त्रिदोषजित ।। सर्वेषामग्निदग्धानामेतद्रोपणमिष्यते ॥
अर्थोऽतिसारग्रहणीपाण्डुरोगज्वरारुवौ। ___मजीठ, सफेद चन्दन और मूर्वा ५-५ तोले |
मूत्रकृच्छे गुदभ्रंशे बस्त्यानाहे प्रवाहणे ॥ लेकर सबको पीसलें और १२० तोले घीमें यह
पिच्छालावेऽर्शसां शूले देयं तत्परमौषधम् ॥ कल्क तथा ६ सेर पानी मिलाकर मन्दाग्निपर पकायें
कल्क-मुलैठी, नीलोफर (नीलोत्पल), लोध, जब पानी जल जाए तो धीको छान लें।
सुगन्धबाला, मजीठ, बेलगिरी, सफेद चन्दन, चव, ___ इसे लगानेसे समस्त अग्निदग्ध ब्रण नष्ट होते हैं।
अतीस, नागरमोथा, पाठा, जवाखार, दारुहल्दी, (५२१३) मधकादिघतम (१) | दालचीनी, सोंठ, जटामांसी, चीता, और देवदारु । (वा. भ. । चि. अ. ३ कास.; च. सं.। | सब समान भाग मिश्रित १० तोले लेकर सबको
चि. अ. १६ क्षतक्षीण.) एकत्र पीसलें । मधुकाष्टपलं द्राक्षाप्रस्थक्वाथे पचेद् घृतम् ।। १ सेर घीमें ४ सेर चाङ्गेरी (तिपतिया)का पिप्पल्यपले कल्के प्रस्थं सिद्धे च शीतले ॥ । स्वरस और उपरोक्त कल्क मिलाकर
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भारत-भ - भैषज्य रत्नाकरः
६४
मन्दाग्नि पर पकायें । जब पानी जल जावे तो घृतको छान
लें 1
यह घृत त्रिदोष जन्य अर्श (बवासीर), अतिसार, संग्रहणी, पाण्डु, ज्वर, अरुचि, मूत्रकृच्छ्र, गुदभ्रंश (कांच निकलना ), अफारा, रक्तातिसार, प्रवाहिका तथा शूल को नष्ट करता है ।
(५२१५) मधुकादिघृतम् (३) (व. से.; वृ. मा. | नेत्ररोगा . ) आज घृतं क्षीरपात्रं मधुकं सोत्पलानि च । taarat मेदा पिट्वा सर्पिर्विपाचयेत् ॥ सर्वनेत्राभिघातेषु सर्पिरेतत्प्रशस्यते ॥
बकरीका घी १ सेर, बकरी का दूध ४ सेर और मुलैठी, नीलोत्पल (नीलोफर), जीवक, ऋषभक तथा मेदाका कल्क २-२ तोले लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकायें जब पानी जल जाए तो घीको छान लें
1
महुवे के फूलों का कल्क (पिट्ठी) १० तोले, आमलेका रस ३२ सेर तथा २ सेर गोघृत लेकर सबको एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर पकायें जब रस जल जाय तो घृतको छान 1
१ वृन्द माधवमें मेदाका अभाव है।
[ मकारादि
यह घृत पित्तापस्मार ( मिरगी ) में अधिक
लाभदायक है ।
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मधूच्छिष्ठाद्यं घृतम् ( व. से., वृ. मा. । व्रग. ) लेपप्रकरण में देखिये | (५२१७) मनःशिलादिघृतम् (च. सं. । चि. अ. २१ हिक्का.) मनःशिलासर्जरसलाक्षारजनिपद्मकैः । मञ्जिष्ठैव कर्षशैः प्रस्थः सिद्धो घृताद्धितः ॥
मनसिल, राल, लाख, हल्दी, पद्माक, मजीठ और इलायची का चूर्ण ११ - ११ तोला तथा गोघृत १ सेर (८० तोले) और पानी ४ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर पकायें एवं पानी जल जाने पर घृतको छानकर सुरक्षित रक्खें ।
यह घृत हिक्का (हिचकी) में लाभ पहुंचाता है। (५२१८) मरिचाद्यं घृतम् (१) ( च. द.; वृ. मा.; व. से. । ग्रहण्य. )
(५२१६) मधूकघृतम्
(व. से.; वृ. नि. र. । अपस्मार . ) मधूपले कल्के द्रोणे चामलकीर से । तस्मिन् सिद्धं घृतप्रस्थं पित्तापस्मारभेषजम् ॥
यह घृत अभिघात जनित समस्त नेत्ररोगों में मरीचं पिप्पलीमूलं नागरं पिप्पली तथा ।। उत्तम गुणकारी है । भल्लातकं यवानीच विडङ्गं हस्तिपिप्पली । हिङ्गु सौवर्चलं चैव विसैन्धवचव्यकम् ॥ सामुद्रं सयवक्षारं चित्रको वचया सह । एतैरभिर्धृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ दशमूली से सिद्धं पयसा द्विगुणेन च । मन्दाग्नीनां घृतं श्रेष्ठं ग्रहणीदोषनाशनम् ॥ विष्टम्भमामदौर्बल्यप्लीहानमपकर्षति । कासं श्वासं क्षयं चापि दुर्नाम सभगन्दरम् ॥ कफजान्हन्ति रोगांच वातजान्कुमिसम्भवान् । तान्सर्वान्नाशयत्याशु शुष्कं दावनलो यथा ॥ १ सैन्धवदाव्यथेति पाठान्तरम् ।
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चतुर्थी भागः
घृतप्रकरणम् ]
कल्क - काली मिर्च, पीपलामूल, सोंठ, पीपल, भिलावा, अजवायन, बायबिड़ङ्ग, गजपीपल, हींग, काला नमक (सञ्चल ), बिड नमक, सैंधा, चव ( पाठान्तर के अनुसार दारूहल्दी), समुद्र नमक, जवाखार, चीता (चित्रक) और बच २ ॥ - २॥ तोले लेकर एकत्र पीस लें ।
२ सेर दशमूलको १६ सेर पानी में पकाकर ४ सेर शेष रहने पर छान लें तत्पश्चात् २ सेर गोघृत में यह क्वाथ, उपरोक्त कल्क और ४ सेर गायका दूध मिलाकर मन्दाग्नि पर पकायें जब पानी जल जाय तो घृतको छान लें।
यह घृत अग्निको दीप्त और ग्रहणी - दोषको नष्ट करता है तथा कब्ज़, दुर्बलता, तिल्ली, खांसी, श्वास, क्षय, अर्श (बवासीर), भगन्दर और कफज, वातज तथा कृमिजन्य रोगोंको अत्यन्त शीघ्र नष्ट कर देता है ।
(५२१९) मरिचाद्यं घृतम् (२) (ग. नि. । गुल्मा. २५ ) रिपिपली शुण्ठी कटुकी वह्निमौ । सुवर्चला वचा क्षारः प्रत्येकं कर्षमात्रकम् ॥ पलानि षोडशाज्यस्य सुपकं मृदु वह्निना । वातगुल्मं कृमीनहन्ति भुक्तं श्वासमसंशयम् ॥
काली मिर्च, पीपल, सोंठ, कुटकी, चीता (चित्रक), धतूरे के बीज, हुलहुल, बच और जवाखार ११-१| तोला लेकर एकत्र पीस लें तथा सबको १ सेर (८० तोले) घीमें डालकर उसमें ४ सेर पानी मिलादें और मन्दाग्नि पर पकायें जब पानी जल जाय तो घृतको छान लें
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इसे सेवन करने से वातज गुल्म, कृमि और श्वास का नाश होता है ।
(मात्रा - १ तोला । दूध में डाल कर पियें ) (५२२०) मसूरघृतम् (व. से. । ग्रहण्य.)
विश्वाजाजी बिल्वपेशी कल्क सिद्धं घृतं हरेत् । मसूरस्य कषायेण सङ्ग्रहग्रहणीगदम् ||
कल्क - सोंठ, जीरा और बेलगिरी प्रत्येक ३। तोले लेकर सबको एकत्र पीस लें ।
क्वाथ - २ सेर मसूरको १६ सेर पानी में पकाकर ४ सेर शेष रहने पर छान 1
१ सेर गोघृत में उपरोक्त क्वाथ और कल्क मिलाकर मन्दाग्नि पर पकायें जब क्वाथ जल जाय तो धोको छान लें ।
यह घृत संग्रहणीको नष्ट करता है । (५२२१) मसूरादिघृतम् (१) (शा. ध. । खं, २ अ. ९; ग. नि.; वृ. मा. | ग्रहण्य.; वॄ. नि. र. । अतिसार ; व. से. । ग्रहण्य.) मसुराणां पलशतं नीरद्रोणे विपाचयेत् । पादशेषं शृतं नीत्वा दवा बिल्वपलाष्टकम् || घृतप्रस्थं पचेत्तेन सर्वातीसारनाशनम् । ग्रहणीं भिन्नविकां च नाशयेच्च प्रवाहिकाम् ।।
क्वाथ - १०० पल ( ६ । सेर) मसूरको ३२ सेर पानी में पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो छान लें ।
२ सेर ( १६० तोले ) गोघृत में उपरोक्त Fare और ४० तोले बेलगिरी का चूर्ण मिलाकर
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
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मन्दाग्निपर पकावें । जब क्वाथ जल जाय तो । कर मन्दाग्निपर पकावें तथा जलांश जल जाने पर घृतको छान लें।
छान लें। यह घृत हर प्रकारके अतिसार, संग्रहणी यह घृत मन्दाग्नि और कफज गुल्मको नष्ट और प्रवाहिकाको नष्ट करता है।
करता है। (मात्रा-१ तोला)
(मात्रा-१ तोला) (५२२२) मसूरादिघृतम् (२) (५२२४) महदग्निघृतम् (व. से. । नेत्ररोगो.)
(व. से. । ग्रहण्य.) दध्यात्ममूरनियुहं चूर्णितं कणसैन्धवम् । चन्यचित्रकपाठानां तेजोवत्यास्तथैव च । तच्छ्रतं सवृतं भूयः पचेत्लौद्रं घने ततः ॥ कणापिप्पलीमूलानां भागान्दद्याचतुष्पलान् ॥ शीते चास्मिन्हितमिदं सर्वजे तिमिरे हितम् ॥ पलानि चाष्टौ मुस्तायाः सुनिशायष्टिकस्त्विह ।
४ सेर मसूरको ३२ सेर पानीमें पकाकर आस्फोतायाः प्रवालानां मालतीकरवीरयोः ॥ ८ सेर शेष रक्खें और फिर उसे छानकर उसमें सप्तपर्णकरआर्कतापसाऽक्षोटकस्य च । २ सेर (१६० नोले) घृत तथा १०-१० तोले एतान् संकुटय विपचेज्जलद्रोणचतुष्टये ॥ पीपल और सेंधा नमकका चूर्ण मिलाकर पुनः चतुर्भागावशेषन्तु कुन्मिन्देन वहिना । पकावें । जब पानी जल जाए तो घृतको छान कटुकातिविषे स्यातां प्रत्येकं त्रिपलोन्मिते ॥ लें। एवं ठण्डा होने पर उसमें (आधा सेर) शहद
पिप्पलीनाश्च कुडवं विडङ्गानां घनस्य च । मिलाकर सुरक्षित रक्खें।
| तथा वत्सकबीजानां कल्काथै सम्प्रदापयेत् ॥ यह घृत समरत प्रकारके तिमिर रोगोंको
क्षारस्य यावशूकस्य स्वर्जिकायास्तथैव च । नष्ट करता है।
। विडसैन्धवयोश्चैव दद्यावे द्वे पले शृते ॥ (५२२३) मस्तुषट्पलघृतम् ततस्तेन करायेण कल्कैरेभिश्च पेषितैः । (व. से. । अजीर्णा.; च. द. । अग्निमान्या. ६) दधिमस्त्वम्लयुक्तैश्च पचेद्वै यो घृताढकम् ॥ पलिकैः पञ्चकोलेस्तु घृतं मस्तु चतुर्गुणम् । साम्बुकल्कं पिबेत्कर्ष विष्टम्भे द्विगुणं पिबेत । सक्षारसिद्धमल्पानि कर्फ गुल्मश्च नाशयेत् ॥ उणोदकानुपानश्च कुर्यःज्जीणऽथ भोजनम् ॥
पीपल, पीपलामूल, चव्य, चीता, सेांठ और अनेन ग्रहणीदोषाः सर्वे नश्यन्ति देहिनाम। जवाखारका चूर्ण ५-५ तोले लेकर सबको २ सेर कफवाताश्रयश्चैव गुल्मांश्चैव चत वियः ॥ घृतमें मिलावें और उसमें ८ सेर मस्तु (दहीमें उससे असि नःशयत्येव प्लीहानं शमयत्यपि । दो गुना पानी डालकर बनाया हुआ तक) मिला- महदग्निघृतं त्वेतद्भिषजा परिचक्ष्यते ॥
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घृतप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः
क्वाथ--चव, चीता, पाठा, ज्योतिष्मती, (५२२५) महाकल्याणघृतम् (१) ( मालकंगनी ), पीपल और पीपलामूल प्रत्येक (च. द.; व. से. । उन्मादा.; च. सं. । चि. अ. २०-२० तोले तथा नागरमोथा, हल्दी, मुलैठी,
१४ उन्माद.) कोयल, चमेली और कनेरके पत्ते एवं सतौना, करञ्ज, एभ्य एव स्थिरादीनि जले पक्त्वैकविंशतिम् । आक, हिङ्गोट और अखरोट ४०-४० तोले लेकर रसे तस्मिन्पचेत्सर्पिष्टिक्षीरे चतुर्गुणे ॥ सबको अधकुटा करके ८ द्रोग (१२८ सेर) पानीमें वीराद्विमाषकाकोलीस्वयं गुप्तर्षभर्द्धिभिः । पकावें और जब ३२ सेर पानी शेष रह जाय तो मेदया च समैः कलकैस्तत्स्यात्कल्याणकं महत्।। छान लें।
बृंहणीयं विशेषेण सन्निपातहरं परम् ॥ कल्क-कुटकी और अतीसका चूर्ण १५-१५
कल्याणघृतोक्त २८ ओषधियोंमें से शालतोले, पीपलका चूर्ण २० तोले, बायबिड़ङ्ग, नाग
पर्णी इत्यादि २१ ओषधियों को ८ गुने पानीमें रमोथा, इन्द्रजौ, जवाखार, सजीवार, बिड लवण
पकाकर चौथा भाग शेष रहने पर छान लें । और सेंधा नमक का चूर्ण १०-१० तोले । xस्थिरा नतं रजन्यौ द्वे सारिवे द्वे प्रियङ्गका ॥
नीलोत्पललामञ्जिष्टादन्तीदाडिमकेसरम् । अन्य द्रव पदार्थ-दही ८ सेर, मस्तु (दहीमें
तालीशपत्रं वृहती मालत्याः कुसुमं नवम् ॥ उससे दो गुना पानी मिलाकर बनाया हुआ तक्र) विडङ्ग पृदिनपर्णी च कुष्ठं चन्दन रायकम् । ८ सेर, तथा काञ्जी ८ सेर।
शालपणी, तगर, हल्दी, दारुहल्दी, दो प्रकारकी
सारिवा, प्रियङ्गु, नीलोफर, छोटी इलायची, मजीठ, दन्ती. विधि- उपरोक्त क्याथ, कल्क तथा समस्त ।
उपराक्त क्याथ, कल्क तथा समस्त मूल, अनारदाना, नागकेशर, तालीस पत्र, बनभण्टा ( बड़ी दव पदार्थ और ८ सेर घी को एकत्र मिलाकर कटेली ), चमेलीकी कलियां, वायबिडंग, पृष्टपर्णी, कूछ, मन्दाग्निपर पकावें जब जलांश जल जाय तो
चन्दन और पद्माख । घृतको छानकर सुरक्षित रक्खें ।
ये सब ओषधियां समान भाग मिश्रित २ सेर
। (प्रत्येक ॥ तोले) लेकर अधकुटा करके १६ सेर इसे ११ तोलेकी मात्रानुसार खाकर ऊपरसे | पानीमें पकावें। जब ४ सेर पानी शेष रह जाय तो छान
लें। तत्पश्चात् १ सेर गोघृतमें यह क्याथ, ४ सेर दूध गरम पानी पीना चाहिये और घृतके पच जाने पर
और उपरोक्त कल्क मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें । जब पथ्य भोजन करना चाहिये।
क्वाथ आदि जल जाय तो घृतको छान लें। ___ यदि कब्ज़ हो तो २॥ तोलेकी मात्रानुसार
यह घृत अपस्मार, ज्वर, खांसी, शोष, मन्दाग्नि,
क्षय, वातरक्त, अतिश्याय, तृतीयक और चातुर्थिक उवर सेवन करना चाहिये । यह घृत सब प्रकारके ग्रहणी
(तिजारी और चौथिया) छर्दि, अर्श, मूत्रकृच्छ्र. खुजली, रोग,
पाण्डु, उन्माद, विष, प्रमेह, भूतोन्माद, गद्गदता करता है।
और वीर्यहास इत्यादि रोगोंम अत्यन्त गुणकारी है ।
का
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फिर इस क्वाथ और निम्नलिखित कल्क तथा एकबारकी ब्याही हुई गायके चार गुने दूध के साथ सिद्ध करें ।
भारत - भैवज्य - रत्नाकरः
कल्क द्रव्य - पृष्टपर्णी, मुद्रपर्णी, माषपर्णी, काकोली, कौंच के बीज, ऋषभक (अभाव में विदारी - कन्द ) वृद्धि (अभाव में बाराही कन्द) और मेदा । सब चीजें ११ - १ तोला लेकर एकत्र पीसलें ।
(५२२६) महाकल्याणघृतम् (२) (वा. भ. । उ. त. अ. ६२ उन्माद ; सु. सं.) विडङ्गत्रिफलास्तमज्जिद्वादाडिमोत्पलैः । श्यामैलवालुकैलाभिश्चन्दनामरदारुभिः ॥ वर्हिष्ठकुष्ठरजनीपर्णिनीशारिवाहयैः । हरेणुका त्रिवृद्दन्तीव चातालीशकेशरैः २ ।। द्विक्षीरं साधितं सर्पमतीकुसुमैः सह । गुल्मका सज्वरश्वासक्षयोन्मादनिवारणम् ॥ एतदेव हि सम्पत्रं जीवनीयोपसम्भृतम् । चतुर्गुणेन दुग्धेन महाकल्याणमुच्यते ॥ अपस्मारं ग्रहदोषं क्लैव्यं काश्यमवीजताम् । घृतमेतन्निहन्त्याशु ये चादौ गदिता गदाः ||
बायबिड़ङ्ग, हर्र, बहेड़ा, आमला, नागरमोथा, मजीठ, अनारदाना, नीलोफर (नीलकमल), फूलप्रियंगु, एलबालुक, इलायची, सफेद चन्दन, देवदारु, सुगन्धवाला, कूठ, हल्दी, पृष्ठपर्णी, शालपर्णी,
१ "द्रयैः" इति पाठान्तरम् ।
२ " नागरैः” इति पाठान्तरम् ।
यह बन्ध्या स्त्रियोंके लिये अत्यन्त हितकारी आयु और वर्द्धक है तथा समस्त गृहदोष को नष्ट करता है । (चरक कल्याणघृत).
[मकारादि
सपत्र,
शारिवा, रेणुका, निसोत, दन्तीमूल, बच, ताली - नागकेसर और चमेली के फूल १-१ तोला लेकर सबको एकत्र पीसलें, फिर २०० तोले (२ ॥ सेर) गायके धीमें यह कल्क और ५-५ सेर गाय और बकरीका दूध मिलाकर मन्दाग्नि पर पकायें । जब दूध जल जाय तो घृतको छानकर सुरक्षित रक्खें ।
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इसका नाम कल्याणघृत है ।
यदि उपरोक्त कल्ककी ओषधियांमें १-१ तोला जीवनीय गणकी ओषधियां और बढ़ा दें तो इसीका नाम महाकल्याण घृत हो जाता है ।
यह घृत गुल्म, खांसी, ज्वर, श्वास, क्षय, उन्माद, अपस्मार, ग्रहदोष, क्लीवता, कृशता और वीर्य की कमी को शीघ्र ही नष्ट कर देता है ।
( जीवनीय गण - जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, मुद्रपर्णी, मापपर्णी, जीवन्ती और मुलैठी 1 )
(५२२७) महाकल्याणघृतम् (३) (सु. सं. । उ. त. अ. ३९ ज्वर. ) एतैरेव यथाद्रव्यैः सर्वगन्धैश्च साधितम् । कपिलाया घृतप्रस्थं सुवर्णमणिसंयुतम् ॥ तत्क्षीरेण सहैकध्यं प्रसाध्य कुसुमैरिमैः । सुमनश्चम्पकाशोकशिरीषकुमुभैर्धृतम् ॥ तथा नलदपद्मानां केशरैर्दाडिमस्य च । तिथौ प्रशस्ते नक्षत्रे साधकस्यातुरस्य च ॥ कृतं मनुष्यदेवाय ब्राह्मगैर भिमन्त्रितम् । दत्तं सर्वज्वरान्हन्ति महाकल्याणकं घृतम् ॥ दर्शनस्पर्शनाभ्यान्तु सर्वरोगहरं शिवम् ।
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घृतप्रकरणम्
चतुर्थों भागः
अधृष्यः सर्वभूतानां बलीपलितवर्जितः ॥ वर्हिष्ठकुष्ठरजनीपर्णिनी शारिवाद्यैः । अस्याभ्यासाद् घृतस्येह जीवेद्वर्षशतत्रयम् ॥ हरेणुकात्रिदन्तीवचातालीशनागरैः॥ महाकल्णाणघृत नं. २ के अनुसार यथा
बलाविशालाबृहती मालती पृश्निपणिभिः । विधि घृत सिद्ध करें परन्तु उसमें जीवनीय गणकी
एतैश्च कार्षिकैः कल्कैधृतरस्य विषाचयेत् ॥ ओषधियां न डाले तथा सर्वगन्ध (दालचीनी, तेज
चतुर्गुणेन पयसा द्विगुणेन जलेन च । पात, इलायची, नागकेसर, कपूर, कोल, अगर,
एतत्कल्याणकं नाम सर्पिः पकं त्रिदोषनुत् ।। केसर और लौंग), चमेलीके फूल, चम्पकके फूल,
विषमज्वरश्वासकासगुल्मोन्मादज्वरापहम् । अशोकके फूल, सिरसके फूल, जटामांसी, कमल
एतदेव हविः पक्वं जीवनीयोपसंस्कृतम् ॥ पुष्प, केसर और अनारके फूल ११-१। तोले का
द्विपञ्चमूलक्याथेन शताव- रसेन च। . कल्क बढ़ादें एवं बकरीका दूध न लेकर केवल
चतुर्गुणेन पयसा महाकल्याणमुच्यते । कपिला गायका १० सेर दूध लें । तथा घृत भी
अपस्मारग्रहं शोषं क्लैव्यं कायमजीवितम् । कपिला गायका ही ग्रहण करें और घृत तैयार
घृतमेतन्निहन्त्याशु ये चापि विषमज्वराः ॥ . होने पर उसमें यथाशक्ति और यथोचित मात्रामें
जीवनीयगणत्वेन काकोल्यादिगणग्रहः । स्वर्ण और मुक्तादि मणियांका चूर्ण मिलाकर सुर
महाकल्याणके कार्यो घृते तु दशकार्षिकः ॥ क्षित रक्खें ।
कल्क-बायबिडंग, नागरमोथा, हर्र, बहेड़ा, यह महाकल्याणघृत समस्त प्रकारके ज्वरोको
आमला, मजीठ, अनारदाना, नीलोफर (नीलकमल),
फूलप्रियङ्गु, एलवालुक, इलायची, सफेद चादन, नष्ट करता है इसे निरन्तर सेवन करनेसे बली.
| देवदारु, सुगन्धबाला, कूठ, हल्दी शालपर्णी, पलित और रोग रहित ३०० वर्षकी आयु प्राप्त
२ प्रकारकी शारिवा, रेणुका, निसोत, दन्तीमूल, होती है।
बच, तालीसपत्र, सोंठ, खरैटी, इन्द्रायणकी जड़, (५२२८) महाकल्याणघृतम् (४)
बनभण्टा (बड़ी कटेली), चमेलीके फूल, पृष्ठपर्णी, (ब. से.; वृ. नि. र. । ज्वर.) जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, काकोलो, क्षीरविडङ्गमुस्तत्रिफलामञ्जिष्ठादाडिमोत्पलैः।।
| काकोली, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, जीवन्ती और मुलेठी।
प्रत्येक १।-१। तोला लेकर सबको एकत्र पीस लें। श्यामैलवालुकलाभिः चन्दनामरदारुभिः ॥
द्रव-पदार्थ-दशमूलका क्वाथ ८ सेर, शता. १ सुश्रुत संहिता उत्तर तन्त्र अ० ३९ में 'महाकवरका रस ८ सेर, गायका दूध ८ सेर और स्याणघृत से पहले 'कल्याणघृत”का पाठ है जिसकी ओर पानी सेर। इस (न० ५२२७ के) प्रयोगमें “एतैरेव” पदसे संकेत | किया गया है | वह (कल्याणघृतका) प्रयोग नं. ५२२६
| विधि-२ सेर गायके धीमें उपरोक्त कल्क
विधि-२ सर ग के समान है परन्तु उसमें जीवनीयगण नहीं है। और द्रवपदार्थ मिलाकर मन्दाग्निपर पकाबें जब
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि क्वाथ आदि जल जाए तो घृतको छानकर विधि-२ सेर गायके घ में उपरोक्त द्रव सुरक्षित रक्खें ।
पदार्थ और कल्क मिलाकर मंदाग्नि पर पकावें यह घृत अपस्मार, शोष, क्लीरता, कृशता ! जब द्रव पदार्थ जल जाएं तो घृतको छान लें। और विषमज्वरको नष्ट करता है।
___ यह घृत बृहण और अत्यन्त पौष्टिक है । (५२२९) महाकल्याणकं घृतम् (५)
अर्दित (लकवा), कर्णशूल, भयंकर नेत्ररोग, दाह,
उन्माद, अपस्मार, वातव्याधि, वातरक्त, उदावत, (र. र. । दाह.)
गुल्म, हृद्रोग, मूत्रकृच्छ, मूत्रावरोध, उपदंश, भयंचतुर्गुणे शतावर्यारसे क्षीरं चतुर्गुणम् । कर संग्रहणी, अर्श (बवासीर), मन्दाग्नि, श्वास, सर्पिः प्रस्थं बलाजाजीमञ्जिष्ठापीवरीनिशा ।। विषमज्वर, हलीमक, शूल, रक्तपित्त, स्वाक्षय, खांसी, काकोल्यौ मधु मेदे द्वे ऋद्धी द्वे देवदारु च। | स्वरभंग, छर्दि, तृष्णा और प्रमेह आदिको नष्ट एषामष्टपलैः कल्कैः पचेत्कल्याणकं महत् ॥ | करता है। धृहणीयं विशेषेण परं पुष्टिकरं मतम् । ___ इनके अतिरिक्त यह घृत स्त्रीरोग, क्षय और अर्दितं कर्णशूलश्च नेत्ररोगं सुदारुणम् ॥ कामलामें विशेष गुणकारी है तथा एकदोपज, द्विदोदाहोन्मादमपस्मारं वातरुवातशोणितम् । पज और सान्निपातिक अनेक रोगोंको नष्ट उदावत गुल्मरोग हृद्रुजं मूत्रकृच्छ्रकम् ।। ।
करता है।
(५२३०) महाकल्याणकं घृतम् (६) मूत्रबद्धोपदंशं च ग्रहणीमतिदुस्तरम् ।
(यो. चि. म. । अ. ५) । गुदाङ्करं मन्दमग्नि श्वासरुग्विषमज्वरौ ॥
त्रिकटु त्रिफला मुस्ता विडङ्गैला निशा द्वयम् । हलीमकं तथा शूलं रक्तपित्तस्वरक्षयम् । कासश्चैव स्वरं भिन्नं छदि तृष्णां प्रमेहकम् ।।
द्वे सारिवे तृदन्त्यनन्तापद्माकवानरी ॥ स्त्रीणां रुजं जयेच्छोघ्रं क्षयरोगं सकामलम् ।
मञ्जिष्ठा मधुकं कुष्ठं ब्राह्मो तालीसबिल्वकम् । एकजं द्वन्द्वजं चैव तथैव सानिपातिकम् ॥
| अष्टवर्गो जीवनीयो गणः स्याचन्दनद्वयम् ।। सर्वरोग निहन्त्येतन्महत्कल्याणकं घृतम् ॥
| द्राक्षामधृकपुष्पाणि बला पर्णीचतुष्टयम् ।
| देवदारु सठी पाठा रेणुका जीरकद्वयम् ॥ व पदार्थ-सतावरका रस या काथ ८ | अश्वगन्धाजमोदा च कटु दाडिमपारिकम् । सेर और गायका दूध ८ सेर ।
| इन्द्रवारुणिका शङ्खपुष्पी च बृहती द्वयम् ।। कल्क-खरैटी, जीरा, मजीठ, सतावर, हल्दी, चातुतिं शुभोशीरं शिरीषं बालकं तथा । काकोली, क्षीरकाकोली, मुलैठी, मेदा, महामेदा, प्रियङ्ग मालती जातीपुष्पं पुष्करमूलकम् ।। ऋद्धि, वृद्धि और देवदारु सब समान भाग मिश्रित विदारी कदलीकन्दं मुशली हस्तिपर्णिका-1 १० तोले लेकर सबको एकत्र पीस लें। तिविषं त्रपुषीबीजं कौन्ती मांस्येलवालुकम् ।।
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घृतप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
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एतैरक्षसमें कल्कैघृतप्रस्थं चतुर्गुणे ।
२ सेर धीमें उपरोक्त कल्क, ८ सेर दूध क्षीरे च द्विगुणे नोरे नप्त्वा तदोमयाग्निना॥ और ४ सेर पानी मिलाकर कण्डोंकी अग्निपर प्राप्ते च तप्तसंयुक्तं पचेत् खादेच नित्यशः। पकावें जब दूध और पानी जल जाएं तो घृतको सर्पिरेतन्नरो नारी पीत्वा कर्ष वृषायते ॥ छानकर सुरक्षित रक्खें । या च वन्ध्या भवेन्नारी या च कन्या प्रसूयते ।। यह घृत स्त्री, पुरुषों में वीर्य और कामशक्तिकी या चैव स्थिरगर्भा स्यात यावा जनयते मृतम् ।। | वृद्धि करता है। अल्पायुषं वा जनयेत् या वा शूलान्वितं पुनः।
जिस स्त्रीको सन्तान न होती हो अथवा इदृशी जनयेत्पुत्रं तस्या दोषो व्यपोहति ॥ जिसके कन्या ही कन्या उत्पन्न होती हो, जिसको एतत्कल्याणकं नामघृतं शम्भुप्रकीर्तितम् ।।
| गर्भ बहुत दिनों तक उदरमें ही स्थित रहता हो जीवद्वत्सैकवर्णाया घृतं तस्या तु गृह्यते ॥
(ठीक समय बीत जाने पर भी प्रसव न होता हो)
अथवा जिसके अल्पायु, रुग्ण या मृतसन्तान कल्क-सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, |
उत्पन्न होती हो उसे यह घृत सेवन कराने से ये आमला, नागरमोथा, बायबिडंग, इलायची, हल्दी,
समस्त दोष नष्ट हो जाते हैं। दारुहल्दी, दोनों प्रकारकी सारिवा, निसोत, दन्ती- | मूल, जवासा, पद्माख, कौंचके बीज, मजीठ, मुलैठी,
इस प्रयोगमें एक रंग वाली ऐसी गायका कूठ, ब्राह्मी, तालीसपत्र, बेलगिररो, जीवक, ऋषभक,
घृत लेना चाहिए जिसका बच्चा जीवित हो । मेदा, महामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, ऋद्धि, | (५२३१) महाखादिरं घृतम् वृद्धि, जीवनीयगण, चन्दन, लाल चन्दन, मुनक्का, | (वृ. यो. त. । त. १२०, च. द.; व. से.; महुवेके फूल, खरैटी, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, मुद्गपर्णी | यो. र. । कुष्ठ.; वृ. नि. र. । त्वग्दोष; च. सं. । माषपर्णी, देवदारु, कचूर, पाठा, रेणुका, सफेद चि. अ. ७ कुष्ठ.) जीरा, काला जीरा, असगन्ध, अजमोद, कुटकी, | अनारदाना, इन्द्रायणकी जड़, शङ्खपुष्पी, कटेली खदिरस्य तुलाः पश्च शिंशपासनयोस्तुले । बड़ी कटेली, दालचीनी, तेजपात, इलायची, नाग- |
तुलार्धाः सर्व एवैते करजारिष्टवेतसाः ॥ केशर, बंसलोचन, खस, सिरसकी छाल, सुगन्धबाला. पर्पटः कुटजश्चैव वृषः कृमिहरस्तथा। फूलप्रियंगु, चमेली के फूल, जावित्री, पोखरमूल, हरिद्रे कृतमालश्च गुडूची त्रिफला त्रित् ।। बिदारीकन्द, केलेको जड़, मूसली, हस्तिपर्णी, सतपर्णश्च संक्षुण्णो दशद्रोणे तु वारिणः । अतीस, खी रेके बीज, रेणुका, जटामांसी और अष्टभागावशेषं तु कषायमवतारयेत् ॥ एलवालुक; प्रत्येक ११-११ तोला लेकर सबको धात्रीरसं च तुल्यांशं सर्पिषश्वाऽऽढकं पचेत् । एकत्र पीस लें।
| महातिक्तककल्कैस्तु यथोक्तैः पलसंमितैः ॥
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७२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि निहन्ति सर्वकुष्ठानि पानाभ्यङ्गनिषेवणात् । (५२३२) महागुडूचीघृतम् महाखादिरमित्येतत्परं कुष्ठविकारनुत् ॥
(भा. प्र.; व. से. । वातरक्ता.)
| अमृतायाः शतं प्राप्य जलद्रोणे विपाचयेत् । खैर ५ तुला (३१। सेर), शीशम (शोशम- चतर्भागावशिष्टन्तु घृतपस्थं विपाचयेत् ॥ का बुरादा) १ तुला (६। सेर), असना (शालभेद) क्षीरं चतुर्गुणं तत्र दापयेन्मतिमान् भिषक् । १ तुला, करञ्जकी छाल ३ तुला (३ सेर १० कल्कचात्र प्रवक्ष्यामि यथावदनुपूर्वशः॥ तोले), नीमकी छाल ३ तुला, बेत ३ तुला, पित्त- काकोली क्षीरकाकोली जीवकर्षभकौ च यत् । पापड़ा, कुडेकी छाल, बासा, बायबिडंग, हल्दी, शतावरी पयस्या च मधुकं नीलमुत्पलम् ॥ दारुहल्दी, लताकरञ्ज, गिलोय, हरी, बहेड़ा, अश्वकन्दस्य मूलानि स्थिरां वा कटुरोहिणीम् । आमला, निसोत और सतौनाकी छाल आधा आधा ऋद्धिं वृद्धि तथा मेदे श्वदंष्ट्रां बृहतीद्वयम् ॥ तुला (प्रत्येक ३ सेर १० तोला) लेकर सबको गुडूचीं पिप्पली रास्नां वासकं चापि संहरेत् । एकत्र कूटकर १० द्रोण (३२० सेर ) पानीमें | तदेकस्थं समैर्भागः पाचयेन्मृदुनामिना ॥ पकावें । जब ४० सेर पानी शेष रहे तो छान लें। पानाभ्यञ्जननस्येषु परिषेके च दापयेत् ।
वातरक्तं सशोपाढयं सदाहं क्रोष्टुशीर्षकम् ॥ कल्क --सतौनेकी छाल, अतीस, अमल
| खओरुस्तम्भवातश्च वातरक्तं सुदारुणम् । तासका गूदा या छाल, कुटकी, पाठा, नागरमोथा,
बहूदितं वातकुच्छं गृध्रसीं वातकण्यकम् ॥ खस, हर्र, बहेड़ा, आमला, पटोल, नीमकी छाल, |
| नाशयेद्योजितं सर्पिर्धन्वन्तरिवचो यथा ॥ पित्तपापड़ा, धमासा, सफेद चन्दन, पीपल,
६। सेर गिलोयको १ द्रोण ( ३२ सेर) पद्माख, हन्दी, दारुहल्दी, वच, इन्द्रायण, सतावर, । पानीमें पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रहे तो दो प्रकारकी सारिवा, इन्द्रजौ, वासा, मूर्वा, गिलोय, छान लें तत्पश्चात् २ सेर धीमें यह क्वाथ और चिरायता, मुलैठी और त्रायमाणा १-१ पल ८ सेर गोदुग्ध तथा निम्नलिखित कल्क मिलाकर (प्रत्येक ५ तोले) लेकर सबको एकत्र पीसलें । पकावें । जब दूध और क्वाथ जल जाए तो घोको
छान लें। विधि--८ सेर धीमें उपरोक्त क्याथ, कल्क
कल्क---काकोली, क्षीरकाकोली, जीवक, और ८ सेर आमलेका रस मिलाकर पकायें । जब
ऋषभक, शतावर, बिदारीकन्द, मुलैठी, नीलोफर, जलांश जल जाय तो घृतको छान लें।
असगन्ध, कुटकी, शालपर्णी, ऋद्धि, वृद्धि, मेदा, इसे पीने और मालिश करनेसे समस्त प्रकारके महामेदा, गोखरु, कटेली, बडी कटेली, गिलोय, कुष्ठ नष्ट होते हैं । यह कुष्ठ विकारों के लिए | पीपल, रास्ना, और वासा सब चीजें समान भाग अत्यन्त उपयोगी औषध है।
मिश्रित २० तोले लेकर सबको एकत्र पीस लें ।
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धृतप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः इसे पीने, मालिश करने और नस्य द्वारा गर्भाधानश्च वन्ध्यानां करोत्य निवारणम् । प्रयुक्त करनेसे वातरक्त, शोष, दाह, कोष्टुशीर्ष, चाङ्गेरीघृतमित्युक्तं ख्यानमर्शनिवारणम् ॥ खञ्जबात, करुस्तम्भ, भयंकर वातरक्त, वातज वलमांस करश्चैतद्रक्तगुल्महरं तथा। मूत्रकृच्छ, गृध्नसी और बातकण्टक आदि रोग अर्शसां पित्त जातानां हितं तद्रक्तजेष्वपि ।। -नष्ट हो जाते हैं।
सन्निपातसमुत्थेषु सर्वतो भिषजः क्रमः ॥ महागौराद्य धृतम् ____ क्याथ-बड़, गूलर, पीपल वृक्ष, बेरी, पिलखन (ग. नि. । घृता.)
और बेंत में से हर एक के कोमल- पत्ते ३-३ पल लेप प्रकरणमें देखिये।
( प्रत्येक १५ तोले), सौंफ ८ पल (४० तोले), (५२३३) महाचाङ्गेरीघृतम् ।
दारुहल्दी २ पल, शालपर्गी २ पल (१० तोले)
और नाडीका शाक १० तोले. लेकर सबको . (व. से, । अर्श.)
२ द्रोग (६४ सेर ) पानीमें पकायें । जब ८ सेर न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थवदरीप्लक्षवेतसाः । | पानी शेष रहे तो छान लें । त पश्चात् ४ सेर धीमें एभ्यः प्रवालास्तरुणांत्रिपलांश्च समाहरेत् ॥ यह क्याथ और ४--3 सेर चांगेरी (चूका) और अवाक्पुष्प्याः पलान्यष्टौ द्वे च दास्तिथैव च । तिन्तडीक (इमली के पतों) का स्वरस एवं निम्नलिशालपाः पले द्वे तु सर्वमेतत्समावपेत् ॥ खित कल्क मिलाकर मन्दाग्निपर पकायें। जब जलांश द्वे पले काल शाकस्य सर्वमेतत्समावपेत् । जल जाए तो धृतको छान लें। द्वि द्रोणे सलिले साध्यमष्टभागावशेषितम् ॥ कल्क-देवदार, नागरमोथा, चीता, बेलगिरी, घृतस्याऽर्धाढ कश्च स्यात्सकपायं मुखाग्निना। कायफल, अदरक (या सोंट), पीपल, सफेद चन्दन, कुचाङ्गाम्लिकाभ्याश्च स्वरसः स्नेह संम्मितः।। सौवीराञ्जन (सुरमा), पीपलामूल, कुटकी, फूलप्रियङ्गु, देवदारु च मुस्तश्च चित्र विल्सपेशिका। संभलके फूल, जी पक, इन्द्रजौ, अंतीम और हरै कट्फलं शृङ्गवेरश्च पिप्पली चन्दनं तथा ॥ प्रत्येक ११-१। तोला लेकर सबको एकत्र सौवीरमञ्जनं मूलं पिप्पल्याः कटुरोहिणी। कूट लें। गन्धप्रियङ्गपुष्पश्च शाल्मली जीवकावया ॥ . यह धृत वातज गुल्म, अतिसार, शूल, ज्वर, पत्तकस्य च बीजानि तथा चातिविषाभया । अरुचि, स्त्रियोंका रक्तप्रदर, रक्तपित्त, पाण्डुरोग, एषामक्षसमा भागाः पृथग्दत्वा विपाचयेत् ॥ प्रवाहिका, खांसी और कृमिदोपांको मष्ट वातगुल्ममतीसारं शूलं ज्वरमरोचकम् । स्त्रीणामप्टग्दरं सर्व रक्तपित्तपवाहिकाम् ॥ इसे सेवन करनेसे वन्ध्या स्त्री गर्भ धारण कर पाण्डुरोगं तथा कासं कृमिदोषांश्च नाशयेत् । . लेती है । इसे शहद के साथ सेवन करनेसे छर्दिका छदि माक्षिकसंयुक्तं शमयेद्दीपनं परम ॥ नाश होता और अग्नि दीम होती है।
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
यह चाङ्गेरी घृत रक्तगुल्म और पित्तार्श तथा रक्ता एवं सन्निपाता में विशेष उपयोगी है । तथा बल मांसकी वृद्धि करता है ।
(५२३४) महाचैतसं घृतम् (१) ( भै र । उन्माद; व से; वृ. मा. । अप; च. द. | अपस्मार. )
शस्त्रिवृत्तथैरण्डो दशमूली शतावरी । रास्ना मागधिका शिग्रुः क्वाथ्यं द्विपलिक भवेत् ॥ विदारीमधुकं मेदे दे काकोल्यौ सिता तथा । एभिः खर्जूरमृद्धीका भी रुयुञ्जातगोक्षुरैः ॥ चैतसस्य घृतस्याङ्गैः पक्तव्यं सर्पिरुत्तमम् । महाचैतससंज्ञं तु सर्वापस्मारनाशनम् || गरोन्मादप्रतिश्यायतृतीयकचतुर्थकान् । पापालक्ष्मी जयेदेतत्सर्वग्रहनिवारकम् ॥ श्वासकासहरञ्चैव शुक्रार्त्तवविशोधनम् । aari का विधिरिह चैतसवन्मतः ॥ कल्कश्चैतसकल्कोक्तद्रव्यैः सार्द्धश्च पादिकः । freiraकाप्राप्तौ तालमस्तकमिष्यते ॥
काथार्थ - शणबीज (सन के बीज ), निसोत, एरण्डमूल (रैंडी की जड ), दशमूल, शतावर, रास्ना, पिप्पली, सहिजने की जड़ प्रत्येक २ पल ( १० तोले ), पाकार्थ जल ३२ सेर । अवशिष्ट क्वाथ ८ सेर । कल्क-विदारीकन्द, मुलहठी, मेदा, महामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, खांड, खजूर, मुनक्का, शतावर, युञ्जातक ( कन्दविशेष), गोखरू, तथा स्वल्पचेतस घृत में कहा कल्क;
૧ इन्द्रायण, हर्र, बहेड़ा, आमला, रेणुका, देवदारु,
[ मकारादि
सम्पूर्ण मिति ४० तोले । इस से २ सेर घृत का पाक कर सेवन करावें । इस के सेवन से अपस्मार, गरदोष, उन्माद, प्रतिश्याय, तृतीयक ज्वर, चातुर्थक ज्वर, श्वास, कास आदि रोग नष्ट होते हैं। यह घृत वीर्य तथा रज का शोधक है । यदि युञ्जातक न प्राप्त हो तो उसके स्थान पर तालमस्तक डाला जाता है । मात्रा - आधा तोला । महाचैतसं घृतम् (२)
( वृ, यो त । त, ८८; भा. प्र. । म. खं. उन्मादा. )
प्र. सं. १७८३ देखिये ।
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" चैतस घृत उसमें और इसमें केवल इतना ही अन्तर है कि इसमें ( महाचैतसमें ) क्वाथ्य द्रव्यों में बेल - छाल, अरलुकी छाल, पादलकी छाल और अरनी अधिक है ।
"
(५२३५) महातिक्तकं घृतम् (१)
( वृ. मा.; च. द.; र. र.; वं. से.; यो. र. । कुष्ठा.; शा. ध. । ख. २ अ. ९; वृ यो त । त. १२०; च. सं. । चि. अ. ७. कुष्ठ; ग. नि. । घृता; वा. भ । चि. अ. १९. सु. स. । चि. अ. ९.)
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सप्तच्छदं प्रतिविषां शम्पाकं तिक्तरोहिणीं पाठाम् । मुस्तमुशीरं त्रिफलां पटोलपिचुमन्दपर्पटकम् ॥ एलवालुक, शालपर्णी, तगर, हल्दी, दारूहल्दी, २ प्रकारकी सारिवा, फूलप्रियंगु, नीलोफर, इलायची, मजीठ, दन्तीमूल, अनारदाना, नागकेसर, तालीसपत्र, बड़ी कटेली, चमेलीकी कलियां, बायबिडंग, पृष्टपर्णी, कुठ, सफेद चन्दन और
पयाक
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घृतपकरणम् ]
चतुर्थों भागः धन्वयवासं चन्दनमुपकुल्यापद्मकं रजन्यौ च । । पर पकावें । जब जलांश जल जाय तो घृतको षड्यन्यां सविशालां शतावरी सारिवे नोभे॥ | छान लें। वत्सकबीजं वासां मूममृतां किराततिक्तं च । यह घृत सब प्रकार के कुष्ठ, रक्तपित्त, कल्कान्कुर्यान्मतिमान्यष्टया त्रायमाणां च ।। भयंकर रक्तार्श, विसर्प, अग्लपित्त, वातरक्त, पाण्डुकल्कस्तु चतुर्भागो जलमष्टगुणं रसोऽमृतफला- रोग, विस्फोटक, पामा, उन्माद, कामला, कण्डू,
नाम् । । ज्वर, हृदोग, गुल्म, पिडिका, स्त्रियोंका रक्तप्रदर द्विगुणो घृतात्पदेयस्तत्सर्पिः पाययेत्सिद्धम् ॥ और गण्डमालाको अत्यन्त शीघ्र नष्ट कर देता है । कुष्ठानि रक्तपित्तं प्रबलान्यशीसि रक्तवाहीनि । उचित मात्रानुसार, यथोचित समय पर सेवन वीसर्पमम्लपित्तं वातामुक्पाण्डुरोगं च ॥ करानेसे यह घृत सैकड़ों प्रयोगोंसे आराम न होने विस्फोटकान्सपामानुन्मादं कामलां ज्वरं कण्डूम्। वाले भयंकर रोगोंको भी नष्ट कर देता है । हृद्रोगगुल्मपिटकानमृग्दरं गण्डमालां च ।। हन्यादेतत्सद्यः पीतं काले यथावलं सर्पिः ।
(५२३६) महातिक्तकं घृतम् (२) योगशतैरप्यजितान्महाविकारान्महातिक्तम् ॥ |
(ग. नि. । घृता.; यो. चि. । अ, ५) कल्क-सतौनेकी छाल, अतीस, अमलतासका करअसप्तच्छदपिप्पलीनां गूदा या छाल, कुटकी, पाठा, नागरमोथा, खस, हर्र, मूलानि कृष्णा मधुकं विशाला । बहेड़ा, आमला, पटोल, नीमकी छाल, पित्तपापड़ा, यवासकं चन्दनमुत्पलं च धमासा, सफेद चन्दन, पीपल, पद्याख, हल्दी, स्यात्रायमाणा कटुका वचा च ।। दारुहल्दी, बेच, इन्द्रायणकी जड़, सतावर, दो | उशीरपाठातिविषारजन्यः प्रकारको सारिवा, इन्द्रजौ, वोसा, मूर्वा, गिलोय, किराततिक्तं कुटजस्य बीजम् । चिरायता, मुलैठी और त्रायमाणाx | प्रत्येक १-१ | निम्बासनारग्वधमालतीनां तोला लेकर सबको एकत्र पीस लें।
पत्राणि मूलानि च कण्टकार्याः ।। २४८ तोले ( ३ सेर ८ तोले ) धीमें शतावरीपद्मकदेवदारु ६ सेर १६ तोले आमलेका रस और २४ शेर ६४ मुस्तानि कालीयककेसराणि । तोले पानी तथा उपरोक्त कल्क मिलाकर मन्दाग्नि
वासागुडूचीनतसारिवाश्च
बला पटोलं त्रिफला च मूर्वा ।। xसुश्रुत संहितामें खस, पीपलामल और दामहल्दीका
नीपं कदम्बो धववेतसौ च अमाव है, सरिवा एक ही प्रकारकी लिखी है तथा
__कर्कोटक पर्पटकं पयस्या। बाराहीकन्द अधिक है। शा. ध. में बच का अभाव है और मजीठ तथा
वाराहकन्दं मदयन्तिका च कचूर अधिक है।
ब्राह्मी समगार्षभकं बला च ॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
एतैः समांशैरथ का पिकेश्च
३२ सेर पानी तथा उपरोक्त कल्क मिलाकर घृतस्य पात्रं विपचेन च । मन्दाग्नि पर पकायें। द्रोणं जलस्याकलुपस्य दद्यात् ।
जब जलांश जल जाय और फेन आने बन्द . पात्रद्वयं चामलकोरसस्य ॥ हो जायं तो वृतको न लें। .. . पक्वं प्रशान्तं गतफेनशब्द
'' यह घृत कुष्ट, रक्तपित्त, वायु, सन्निपातज प्रयोजयेत् कुष्ठहरं प्रशस्तम् । विस्फोटक,विधि, किलासकुष्ट, ग्वांसी, ज्वर, गण्डतद्गतपित्तानिलप्सन्निपात
माला, अन्धि, अबुद, वातरक्त, हृद्रोग, पाण्डविस्फोटपाल्यामयविद्रधीनाम् ॥ रोग, भगन्दर और सब प्रकारके शोथों को नष्ट किलासकासज्वरगण्डमाला
करता है। ग्रन्थ्यर्बुदानि त्वथ वातरक्तम् ।
( मात्रा-- १ तोला. हृत्पाण्डुरोगान सभगन्दरांश्च
(५२३७) महातितकं घृतम् (३) निषेव्यमाणं नियमेन काले ॥
(ग. नि. । परिशि. अ. १.) घृतं महातिक्तमिदं प्रश
निम्बः सप्तच्छदः पाठा गुडूची सशतावरी । - . निहन्ति सर्वान् श्वयथूदिष्टान् । कृतमालः करो द्वौ खदिरोवत्सको धवः॥
कल्फ-करंजकी जड़, सतौनेकी जड़की सपटोलः पर्पटको विशाला चित्रकस्तथा।। छाल, पीपलामूल, पीपल, मुलैपी, इन्द्राया, जबासा, एतानि समभागानि कषायापकल्पयेत् ॥ सफेद चन्दन, नीलोफर (नीलकमल ), त्राथमागा, भेपजानि प्रपेप्याणि तत्रेमानि प्रदापयेत् । - कुटकी, बच, खस, पाठा, अतीस, हल्दी, चिरायता, भूनिम्बः कटुका मुस्ता दनी पर्पटको वचा ।। इन्द्रजौ, नीमके पते, असना वृक्षके पते, अमल- विशालातिविपे मूर्वा यष्टयाई सारिवाद्वयम् । तासके पत्ते, चमेली के पत्ते, कटेलोको जड़, शता. अवलगुजा हरिद्र द्वे दुःस्पर्शा रक्तचन्दनम् ॥ . वरी, पद्माख, देवदारु, नागरमोथा, कृष्णा चन्दन कृमिन्नः पिप्पली पाठा चित्रको देवदारु च । (अगर); नागकेसर, बासा, गिलोय, तगर, सारिवा, भल्लातकान्युशी च सम्पाकः सकलिङ्गकः ॥ खरैटी, पटोल, हर्र, बहेड़ा, आमला, मूर्वा, भृ एतैरक्षप्रमाणैस्तु घृतस्याटिक पचेत् । .. कदम्ब, कदम्ब, धन, स, ककड़ा, पित्तपापड़ा, धत्रीरसस्तु द्विगुणो घृतात्काथश्चतुर्गुणः ।। विदारीकन्द, बाराहीक है, मल्लिका ( चमेली), सपि रेतन्नरः पीत्वा सर्वकुष्ठैविमुच्यते । ब्राह्मी, मजीठ, ऋषभक और खरैटी । प्रत्येक १। वातरक्तं सबीसर्प रक्तस्रावं च दारुणम || १। तोला लेकर एकत्र कूट लें।
पितासकामलोक ड्रगरान् योगशतैरपि । ८ सेर धीमें १६ सेर आमलेका रस और असाधितान महारोगान् महातितं प्रसाधयेत् ।।
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घृतप्रकरणम् ]
क्वाथ - नीम के पत्ते, सतौना, पाठा, गिलोय, शतावर, छोटा अमलतास, लताकरञ्ज, नाटाकरंज, खैर, कुडेकी छाल, धव, पटोल, पित्तपापड़ा, इन्द्रायण और चीता । सब समान भाग मिश्रित ८ सेर लेकर सबको एकत्र कूट कर ६४ सेर पानी में पकावें । जब १६ सेर पानी रह जाय तो छान है।
|
इसकी अपेक्षा कल्क यों में पुनर्नवा और दारुप्र. सं. २४४४ त्रिफलावृत देखिये । उसमें हल्दी अधिक हैं 1
चतुर्थी भागः
कल्क-चिरायता, कुटकी, नागरमोथा, दन्तीमूल, पित्तपापड़ा, बच, इन्द्रायणकी जड़, अतीस, मूर्वा, मुलैठी, २ प्रकारकी सारिवा, बाबची, हल्दी, दारु हल्दी, धमासा, लाल चन्दन, बायबिडंग, पीपल, पाठा, चीता, देवदारु, भिलावा, खस. अमलतास और इन्द्रजौ । प्रत्येक ११--११ तोला लेकर सबको एकत्र पीस लें ।
४ से धीमें उपरोक्त क्वाथ. कल्क और ८ सेर आमलेका रस मिला कर पकायें ।
महाफलघृतम् (१)
( व. से. । नेत्र रोगा. ) प्रयोग संख्या २४५१ देखिये |
यह घृतं समस्त प्रकारके कुष्ट, वातरक्त, विसर्प, भयंकर रक्तस्राव, रक्तपित्त, कामला, कण्डू और विप विकार इत्यादि सैकड़ों औषधोंसे न शान्त होने वाले भयंकर रोगों को भी नष्ट कर देता है ।
महाफलघृतम् (२).
|
नेत्ररो. :
( व. से.; च. द.; वृ. मा.; धन्व. भै. र. । .; वृ यो त । त. १३१; यो तः । त. ७१ )
प्र. सं. २४५७ देखिये ।
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महाफल वृतम् (३) ( ग . नि. | घृता. )
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(५२३८) महादाडिमाद्यं घृतम् ( भै. र. । प्रमेहा. )
दाडिमस्य फलप्रस्थं प्रस्थञ्च यवतण्डुलम् । कुलत्थं प्रस्थमादाय घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ शतावरीरसमस्थं गव्यदुग्धञ्च तत्समम् । कल्कः सार्द्धपिचुद्रक्षा खर्जूरं त्रिफला तथा ॥ रेणुका चाष्टवर्गश्च देवदारु निशाद्वयम् । faraiकुकमेला च विदातिवला तथा ॥ शिला त्वचमुशीरञ्च शुद्धं कृष्णाभ्रचूर्णकम् । प्रमेहान् विंशतिं हन्ति मूत्राघात त्रयोदश ॥ अश्मरीं मूत्रकृच्छ्रञ्च रक्तपित्तं सुदारुणम् । वातजं पित्तजञ्श्चैव श्लेष्मजं सन्निपातजम् ॥ बृंहणञ्च विशेषेण सर्वमेहहरं परम् | अश्विभ्यां निर्मितं सिद्धं दाडिमाद्यमिदं महत् ॥
क्वाथ अनार, छिलके रहित जौ और कुलथी १-१ सेर लेकर सबको कूट कर २४ सेर पानी में पकावें और जब ६ सेर पानी शेष रह जाय तो ले 1
छान
कल्क - मुनक्का, खजूर, हर्र, बहेड़ा, आमला, रेणुका, जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, ऋद्धि, वृद्धि, काकोली, क्षीरकाकोली, देवदारु, हल्दी, दारूहल्दी, कन्दूरी, कूठ, छोटी इलायची, बिदारीकन्द, कंधी (अतिबला), शिलाजीत, दालचीनी, खस
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
और शुद्ध कृष्णाभ्रक प्रत्येक २२॥ माशे लेकर काकोली और दोनों प्रकारकी सारिवा प्रत्येक १।सवको एकत्र पीस लें
१। तोला लेकर सबको एकत्र कूट लें। विधि-२ सेर घीमें उपरोक्त काथ, २ सेर २ सेर घीमें बकरीका दूध २ सेर ५३ तोले, शतावरका रस और २ सेर गायको दूध तथा चावलोंका पानी २ सेर ५३ तोले, दूबका रस कल्क मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब जलांश २ सेर ५३ तोले और उपरोक्त कल्क मिलाकर जल जाय तो घृतको छान लें।
मन्दाग्नि पर पकावें । जब जलांश जल जाए तो यह घृत २० प्रकारके प्रमेह, १३ प्रकारके
घृतको छान लें। मूत्राधात, पथरी, मूत्रकृच्छ, तथा वातज, पित्तज,
इसकी नस्य लेने से नाकसे होने वाला रक्तकफज और सान्निपातिक भयंकर रक्तपित को नष्ट
स्राव नष्ट होता है । इसे पीनेसे रक्तवमन बन्द
होती है। यदि कानोंसे रक्त निकलता हो तो करता और वीर्यको बढ़ाता है।
कानोंमें यह तेल डालना चाहिये । यदि बवासीरके (५२३९) महादूर्वाद्यवृतम्
मस्सोंसे अथवा लिंग और गुदासे रक्तस्राव होता हो ( व. से. । रक्तपित्ता.) तो उन स्थानोंमें इसकी मालिश करनी चाहिए । दुर्वासेन्दीवरं पद्म मनिष्ठा सैलवालुका । यह साधारणतः समस्त पित्त विकारों और रास्ना मुस्ता तथोशीरं चन्दनं मधुकायम् ॥ विस्फोटकादि में तथा विशेषतः कृमिदोय और पद्म लोध्रकुष्ठश्च चन्दनं रजनीद्वयम् । विसर्पमें अत्यन्त गुणकारी है । काकोल्यौ शारिये चेति कल्कैरेभिश्च कार्षिकैः॥ (५२४०) महानीलघृतम् (१) घृतप्रस्थमजाक्षीरं तंडुलोदकसंयुतम् ।
(सु. सं. । चि. अ. ९.) । दुर्वायाः स्वरसेनापि साधितं मृदुनामिना ॥ त्रिफलात्वत्रिकटुकासुरसामदयन्तिका । तत्पानं वमतो रक्तं नावनं नासिकागते । वायस्यारग्वधानाञ्च तुलां कुर्यात् पृथक् पृथक्।। कर्णाभ्यां यस्यगच्छेच तस्य कौँ प्रपूरयेत् ॥ काकमाच्यर्कवरुणदन्तीकुटजचित्रकान् । रक्तस्रावीणि चाशीसि लेपयेत्तेन सर्पिषा। दार्वी निदिग्धिकाभ्यान्तु पृथग्दशपलन्तथा ।। मेदपायुप्रवृत्ते तु तदभ्यङ्गे प्रयोजयेत् ॥ विद्रोणेऽपां पद्यावत् षट्प्रस्थं परिशेषितम् । पित्तजेषु विकारेषु स्फोटादिषु च बुद्धिमान् । शकुद्रसदधिक्षीरमूत्राणां पृथगाढकम् ।। विषेषु कीटदोषेषु विसर्पेषु प्रयोजयेत् ॥ तद्वद्धृतस्य तत्साध्यं भूनिभ्वव्योपचित्रकैः ।
कल्क-दूर्वा ( दूबड़ा घास ), नीलकमल, करअफलनीलिकाश्यामावल्गुजपीलभिः ॥ लालकमल, मजीठ, एलवालुक, रास्ना, नागरमोथा, नीलिनीनिम्बकुसुमैः सिद्धं कुष्ठापहं घृतम् । खस, सफेद चन्दन, मुलैठी, पद्याख, लोध, कूठ, म्रक्षणादङ्गसावये वित्रिणां जयेन्नृणाम् ॥ लाल चन्दन, हल्दी, दारुहल्दी, काकोली, क्षीर- भगन्दरं कृमीनी महानीलं नियच्छति ॥
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चतुर्थों भागः
७९
हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च, पीपल, दधि सपिंश्च दुग्धं च गोमूत्रं च शकुद्रसम् । दालचीनी, तुलसी, मदयन्तिका (चमेली), सफेद एकैकमाढकं दद्यात्प्रत्येकं वस्त्रगालितम् ॥ चौंटली और अमलतास । प्रत्येक ६। सर । मकोय, अवलगुजं त्रिकटुकं नक्तमालफलानि च । आक, बरनेकी छाल, दन्तीमूल, कुडेकी छोल, त्रिफला चित्रको दन्ती मुस्तं कटुकरोहिणी॥ चीता, दारुहल्दी तथा कटेली ५०-५० तोले । पिचुमन्दश्च शिग्रुश्च तथेङ्गुदिफलानि च । सबको कूटकर ९६ सेर पानीमें पकावें जब १२ किराततिक्तकं श्यामा नीलिनी नीलमुत्पलम् ।। सेर पानी शेष रह जाय तो छानलें। कल्कैरेतेधृतं सिद्धं पाययेच्छ्वित्ररोगिणम् ।
८ सेर घीमें उपरोक्त क्वाथ, ८ सेर गायके महानीलमिति ख्यातमेतच्छ्वित्रापरं परम् ॥ गोबरका रस, ८ सेर गायका दही, ८ संर गोदुग्ध भगंदरं तथाऽीसि कुष्ठान्यष्टादशैव तु ।
और ८ सेर गोमूत्र तथा निम्नलिखित कल्क अथर्वविहितो योगो ब्रह्मदण्ड इवाऽऽहितः ॥ मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें । जब जलांश जल वित्रिणां श्वित्ररोगेषु पानाभ्यञ्जनतः स्मृतः॥ जाए तो घृतको छान लें।
____ अमलतास, सफेद चौंटली, तुलसी और कल्क-करनवेकी गिरी (करञ्जफल), सम्भालु, मदयन्तिका (चमेली भेद), प्रत्येक ६। सेर तथा काली निसोत, बावची, पीलु, नीलवृक्षका पञ्चांग हर, बहेड़ा और आमला ४-४ सेर; एवं दन्ती, और नीमके फूल । प्रत्येक ११॥ ताले लेकर दारुहल्दी, कुड़ेकी छाल, बरनेकी छाल, चीतेकी जड़, सबको एकत्र पीस लें।
आककी जड़ मकोय और कटेली प्रत्येक ५०-५० यह घृत कुष्ट, भगन्दर और कृमि तथा
तोले लेकर सबको अधकुटा करके १२८ सेर पानीमें अर्शको नष्ट करता है इसकी मालिश करनेसे श्वेत
पकावें । जब १६ सेर पानी शेष रह जाय तो छान लें कुष्ठके चकतोंका रंग शरीरके रंगके समान हो
और फिर उसमें ८-८ सेर दही, घी, दूध, गोमूत्र जाता है।
और गोवरका रस ( हर एक चीज कपड़ेमें छनी
हुई ) तथा निम्नलिखित कल्क मिलाकर पुनः (५२४१) महानीलघृतम् (२)
पकावें। जब जलांश जल जाय तो घृतको छान लें। (वृ. यो. त. । त. १२०; वं. से. । कुष्ठा.)
कल्क-बाबची, सोंठ, मिर्च, पीपल, करञ्जके आरग्वधं वायपी च सुरसा मदयन्तिका । | फल, हर्र, बहेड़ा, आमला, चीता, दन्तीमूल, नागएकैकस्य तुलाऽऽदेया त्रैफलं चाऽऽढकत्रयम् ॥ रमोथा, कुटकी, नीमकी छाल, सहजनेकी छाल, दन्ती दारुहरिद्रा च कुटजं वरुणत्वचः। हिङ्गोटके फल, चिरायता, निसोत, नीलका पञ्चाङ्ग, चित्रकथा मूलं च काकमाची निदिग्धिका ॥ और नीलोत्पल ( नीलकमल )। सब समान भाग एषां दशपलान्भागांश्चतुणेऽम्भसः पचेत्।। मिश्रित १ सेर (प्रत्येक ४ तोले २।। माशे) लेकर अष्टभागावशिष्टं तु पूतं पुनरधिश्रयेत् ॥ । सबको एकत्र पीस लें ।
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८०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
यह घृत श्वेत कुष्ठके लिए अत्यन्त गुणकारी । कटेली प्रत्येक १० पल (५० तोले) लेकर सबको है तथा भगन्दर, अर्श और १८ प्रकारके कुष्ठ नष्ट अधकुटा करके ९६ सेर पानीमें पकावे और जब करता है। ...
.१२ सेर पानी शेष रह जाय तो छान लें। श्वेत कुष्ठ में इसे पिलाना और इसकी मालिश तत्पश्चात इसमें ८-८ सेर आमलेका रस, करनी चाहिये ।
बासेका रस, चमेलीका रस, दही, घी, दूध, गोमूत्र . (५२४२) महानीलघृतम् (३) ..
और गोबरका रस एवं निम्न लिखित चीजोंका . ( ग. नि. । कुष्ठा.)
कल्क मिलाकर पुनः पकायें। जब जलांश जल
जाए तो घृतको छान लें। आरग्वधं वायसी च वीजकं मदयन्तिका।
कल्क-बाबची, सोंठ, मिर्च, पीपल, करञ्ज. एकैकस्य तुला देथा प्रत्येकं त्रिफलाढकम् ॥ फल, नीमके पत्ते, चमेली के पते, पीलके पत्ते और दन्ती दा: हरिद्रा च वरुणं कुटजत्वचम् । हिङ्गोटके पत्त तथा चिरायता, निसोत, संभाल और चित्रकं चाकै मूलं च काकमाची निदग्धिका ॥ नीलके पत्ते सब समान भाग मिश्रित १ सेर एपां दशपलान् भागान् विद्रोणेऽपां विणचयेत् । (प्रत्येक । तोले) लेकर सबको एकत्र पीस लें । अष्टभागावशिष्टं तु पुनरग्नावधिश्रयेत् ॥ .
. यह घृत १८ प्रकारके कुष्ट, भगन्दर, अर्श धात्रीरसं सुपरसं जाती स्वरसमेव च । -
और कृमि रोगोंको नष्ट करता है। दधि सर्पिपश्च दुग्धं च गोमूत्रं गोशकद्रसः ॥ आढकाढकमे तेषां गर्भ चे समावपेत् ।
महापञ्चगव्यं धृतम् अवल्गुज त्रिकटुकं नक्तमालफलानि च ॥
( ग. नि.; वं. सं. । अपस्मा.; च. सं. । पिचुमर्द च जात्याच पीलुतिल्यकपल्लवाः । चि. अ. १५ अपम्मा.; वा. भ.। उ. अ. ७ किराततिक्तकं श्यामा नीलिकानीलपल्लवाः॥ अपस्मा.) एतैः सिद्धं परिस्राव्य पाययेत्कुष्ठरोगिणम् । प्रयोग संख्या ४ ०५१ देखिये । महानीलमिति प्रोक्तमेतत्कुष्ठापहं घृतम् ॥ (५२४३) महापटोलाचं घृतम् भगन्दरमथासि कृमींश्चापि विनाशयेत् । . (व. से. । नेत्र.) अष्टादशैव कुष्ठानि सपिरेतन्नियच्छति ॥ पटोलं कटुकं दारू निम्बवासाफलत्रिकम । __ अमलतास, सफेद चौटली, विजयसार और दुरालभा पर्पटकं प्रायन्ती घनचन्दनम् ॥ मदयन्तिका ( चमेली भेद ) १००-१०० पल किराततिक्तयष्टचाहे पिप्पलीकौटजं फलम् । ( प्रत्येक ६। सेर ) तथा हर्र, बहेड़ा, और आमला लामज मृणालश्च तत्फलं च समं भवेत् ॥ ४-४ सेर एवं दन्तीमूल, दारुहल्दी, बरनेकी छाल, एवैस्तु कार्पिकैः कल्कैर्विपचेत्सपिरुत्तमम् । कुड़ेकी छाल, चीतामूल, आककी जड़, मकोय और आमलक्या रसं देयं शतावर्याः समन्वितम् ।
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घृतप्रकरणम्
चतुर्थों भागः
८१
सुरदारुकषायश्च भृङ्गराजरसं तथा । नष्ट करता और बल, वर्ण की वृद्धि करता है प्रस्थं प्रस्थश्च गृह्णीयाद्विपस्थं सर्पिषः पचेत् ॥ तथा नेत्र पौष्टिक है । पाने च भोजने दद्यात्सर्वमूर्धामयापहम् । (५२४४) महापद्मकघृतम् विशेषादक्षिरोगनं तिमिरं च त्रिदोषजम् ॥
सिरागन तिामर च त्रिदोषजम् ॥ (र. र; च. द. । विस्फोट.) पटलं रक्तराजिञ्च व्रणशुकहरं तथा ।
प्र. सं. ४०६९ पद्मकाध घृतम् में कल्क काचार्मनाक्तयमान्ध्यञ्च कण्डू पिल्लामयान्हरेत् ॥ द्रव्यों में लिहसौड़ा, सिरसकी छाल और कैथका वर्मशोथ हरं चैव दृष्टिरोगकुलापहम् ।
फल मिला लेने से उसका नाम महापद्मक घृत हो आसन्नतिमिराणाश्च यश्च दुरान्न पश्यति ॥
जाता है। अदृष्टिं मन्ददृष्टिश्च सर्वनेत्रामयापहम् ।
महापैशाचिकं घृतम् बलवर्णकरं धन्यं दृष्टिपुष्टिविवर्द्धनम् ॥ महापटोलाद्यमिदं ख्यातं वैदेह निर्मितम् ॥
(व. से.; भै. र.; वृ. मा.; धन्व.; च. द.;
| यो. र.; वृ. नि. र.; र. र. । उन्माद.; च. सं. । चि. ___ कल्क-पटोल, सोंठ, मिर्च, पीपल, दारुहल्दी,
अ. १४ उन्माद.; यो. चि. म.। अ, ५; ग. नीमकी छाल, बासा, हर्र, बहेड़ा, आमला, धमासा,
| नि. । परिशिष्ट घृता.; वृ. यो. त. । त. ८८ ) पित्तपापड़ा, त्रायमाणा, नागरमोथा, सफेद चन्दन,
प्र.सं. ४१०५ देखिये। चिरायता, मुलैठी, पीपल, इन्द्रजौ, पीली खस
महाभूतरावघृतम् ( लामज्जक ), कमलनाल और कमलगट्टा प्रत्येक १।-१। तोला लेकर सबको पीस लें। .प्र. सं. ४८७९ देखिये । ४ सेर धीमें २-२ सेर आमलेका रस,
(५२४५) महामारघृतम् शतावरका रस, देवदारुका काथ और भंगरेका रस |
__ (र. र. । कुष्ठा.) तथा उपरोक्त कल्क मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें। महापध महामदा निम्धपत्र च सपाः । जब जलांश शुष्क हो जाय तो घृत को छान लें ।
मनःशिला च सिन्दूरं पद्मचारिण्यवल्गुजम् ॥
हरिद्रे हरितालं च त्रिफला पीतगन्धकम् । इसे भोजनमें खिलाने और पिलानेसे समस्त एतानि समभागानि कार्द्धश्च प्रयोजयेत् ॥ शिरो रोग और विशेषतः नेत्र रोग नष्ट होते हैं। सर्पिपश्च पलान्यष्टौ देवदारुरसं शुभम् ।
यह घृत त्रिदोषज तिमिर, पटल, लाल द्विगुणं त्रिगुणं क्षीरं गोमूत्रं च चतुर्गुणम् ॥ रेखायें, व्रण, फूला, काच, अर्म, रतौंधा, पिल्ल, ताम्रभाण्डे तु संस्थाप्य शनैर्मृद्वग्निना पचेत् । पलकोंकी सूजन, दूरदृष्टि ( Long Sight ) चतुर्भागावशेषन्तु सकल्कमवतारयेत् ॥ आसन्न दृष्टि ( Short Sight ), दृष्टिकी अग्नौ क्षिप्तन्तु निःशब्दं जलयुक्तं विचक्षणः । मन्दता तथा अन्धता इत्यादि समस्त दृष्टि रोगांको अभ्यङ्गपानयोगाच तदा सर्वगदाञ्जयेत् ॥
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
अष्टादशानां कुष्ठानां दद्रूणां श्वित्रिणां तथा । कुष्ठनाडीषु मर्त्यानां दुष्टानां कीटिनां तथा ॥ असृावपरीता ये ये च त्यक्तभिषकूक्रियाः । विग्रहग्रस्तानां शीर्णाङ्गानां विशेषतः ॥ सर्वधातुगते कुष्ठे पतितभ्र शिरोग्रहे । घर्घराव्यक्तघोषाणां तथा सर्वाङ्गपीडिनाम् ॥ पानेऽभ्यङ्गे तथा नस्ये बस्तिकर्मणि नित्यशः । सप्तरात्रप्रयोगेण सर्वकुष्ठानि नाशयेत् ॥ द्विसप्ताह प्रयोगेण पूर्णचन्द्रनिभाननः । जातकेशनखश्मश्रुति षोडशवर्षवत् ॥ अनङ्गसदृशः साक्षात्सर्वामयविवज्र्जितः । एतद्घृतं महाश्रेष्ठं भार्गवेण विनिर्मितम् ॥ प्रजानाञ्च हितार्थाय सर्वव्याधिहरं शुभम् । महामार्करनामेदं वृतं सर्वापराजितम् ॥
सोंठ, महामेदा, नीमके पत्ते, सरसों, मनसिल, सिन्दूर, हल्दी, बाबची, हल्दी, दारूहल्दी, हरताल, हर्र, बहेड़ा, आमला और गन्धक ७ ॥ - ७॥ माशे लेकर सबको एकत्र पीस लें, फिर १ सेर घीमें २ सेर देवदारुका क्वाथ, ३ सेर दूध और ४ सेर गोमूत्र मिलाकर तांबे के पात्र में मन्दानिपर पकावें और जब चौथा भाग शेष रह जाय तो अग्निसे नीचे उतारलें ।
यह जलयुक्त घृत अग्निपर डालने पर भी शब्द नहीं करता (2)
इसे पिलाने और मालिश करने से दाद, सफेद कुष्ठ, नाडी और कीटयुक्त रक्तस्रावी तथा वैद्योंसे त्यक्त कुष्ठ और विशेषतः शीर्णंग कुष्ठ कि जिसमें हाथ पैर इत्यादि भी गल गये हों, नष्ट हो
है ।
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[ मकारादि
यदि कुष्ठीकी भौं (भ्रू ) गिर गई हों, सिर जकड़ गया हो, शब्द में घरघराट होती हो और समस्त अंगोंमे पीड़ा हो तो उसे यह घृत पिलाने, इसकी मालिश करने तथा नस्य और वस्ति देने से आराम हो जाता है ।
इसके सेवन से प्रथम सप्ताह में समस्त कुष्ठ नष्ट हो जाते हैं और दूसरे सप्ताह के पश्चात् कुष्टी के बाल, नख, दाढी, इत्यादि निकल आते हैं; तथा वह समस्त रोग रहित, षोडश वर्षीय कुमार सदृश अत्यन्त रूपवान हो जाता है ।
(५२४६) महावज्रकघृतम् (१) ( ग. नि. । घृता. १ ) त्रिफला त्रिकटु द्विकण्टकारी कटुकाकुम्भनिकुम्भराजवृक्षैः । सवातिविषायिकैः सपाठैः
पिचुभानव वज्रदुग्धमुष्ट्याः ॥ पिष्टैः सिद्धं सर्पिषः प्रस्थमेभिः
क्रूरे कोष्ठे स्नेहनं रेचनं च । कुष्ठश्वित्र प्लीहवश्मगुल्मा
न्हन्यात्कृच्छ्रांस्तन्महावज्रकारव्यम् ॥
हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च, पीपल, छोटी और बड़ी कटेली, कुटकी, निसोत, दन्तीमूल अमलतास, बच, अतीस, चीतामूल और पाठा । प्रत्येकका चूर्ण १। - ११ तोला तथा थोहरका दूध ९० तोले लेकर सबको २ सेर घीमें मिला कर उसमें ८ सेर पानी डाल कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो घृतको छान लें
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घृतप्रकरणम् ]
चतुर्थी भागः
ሪ
यह घृत स्नेहन और तीव्र रेचक है । इसे | मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब जलांश शुष्क हो
ले 1
श्वेत कुष्ठ, तिल्ली, बर्म, अश्मरी, गुल्म और मूत्रकृच्छ्र वाले कर कोष्ठ रोगियों को सेवन कराना चाहिये |
(५२४७) महावज्रकघृतम् (२) (वं. से. । कुष्ठा ; वा. भ. । चि. अ. १९ कुष्ठा.; ग. नि. । घृता. ) वासागुडूचीत्रिफलापटोल निदानिम्बकरञ्जतोये । वासादिकल्केन तु सिद्धमेतद् घृतं महावकमादिशन्ति ॥ तन्मासमात्रञ्च निषेव्यमाणो
हिताशनो नातिचिरेण कुष्ठी । विशीर्णकर्णाङ्गुलिनासिकोऽपि
भवेत्स सम्पूर्णतनुः शरीरी ॥ उदीर्णवेगानपि च प्रमेहांfreeविषमज्वरांश्च ।
तदेव सर्पिः सुजनैः प्रयुक्तं विजित्य कुष्ठं बलमादधाति ॥
कल्क- वासा, गिलोय, हर्र, बहेड़ा, आमला, पटोल, कटैली, नीमकी छाल और करञ्जकी छाल सब समान भाग - मिश्रित पावसेर ( प्रत्येक २। तोले । लेकर सबको एकत्र कूट लें
1 काथ - कल्ककी प्रत्येक वस्तु ३५ ॥ ताले ( सब मिलाकर ४ सेर) लेकर सबको अधकुटा करके ३२ सेर पानी में पकावें और जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो छान लें ।
२ सेर घीमें उपरोक्त क्वाथ तथा कल्क
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इसे सेवन करने और पथ्य पालन करने से गलित कुष्ठ ( कि जिसमें कान, उंगली और नासिका गल गई हों ) भी शीघ्र नष्ट हो जाता है तथा यह प्रबल प्रमेह और विषमज्वरोको भी नष्ट करके बलकी वृद्धि करता है।
I
(५२४८) महावासाद्यं घृतम् ( ग. नि. । घृता. १ ) वासकस्वरसे सर्पिः पयसा सह पाचयेत् । कल्कैर्भूनिम्बकुटजस्तयष्टयाहचन्दनैः ॥ उदीच्यमधुकानन्तासारिवोत्पलपद्मकैः । | त्रायन्त्युत्पल मूर्वाभिर्मदयन्त्याश्च पल्लवैः ॥ सिताक्षौद्रयुतं हन्याद्रक्तपित्तं सुदारुणम् । पित्तं कासञ्च गुल्मञ्च स्वरभेदं हलीमकम् || ये चान्ये कीर्तिता रोगा रक्तपित्तकफाश्रयाः । तान्सर्वान्नाशयत्येतत्पीयमानं हिताशिनः ॥
कलक - चिरायता, कुड़ेकी छाल, नागरमोथा, मुलैठी, सफेद चन्दन, सुगन्धवाला, गिलोय, अनन्तमूल, सारिवा, नीलोत्पल, पद्माक, त्रायमाणा, नीलोत्पल, मूर्वा और मदयन्तिका ( चमेली भेदके पत्ते ) समान भाग - मिश्रित पावसेर ( प्रत्येक १ | तोला ) लेकर सबको एकत्र पीस लें ।
२ सेर घी ४ सेर बासेका स्वरस और ४ सेर गायका दूध तथा उपरोक्त कल्क मिलाकर मन्दाग्नि पर पकायें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो घृतको छान लें। इसमें शहद और मिश्री मिला कर सेवन करने से भयंकर रक्तपित्त, पित्तज
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
खांसी, गुल्म, स्वरभेद, हलीमक और अन्य रक्त- (५२५०) महाषट्पलकं घतम् (१) पित्तज तथा कफज रोग नष्ट होते हैं।
(वृ. यो. त. । त. ५९; यो, र. । विषर, वर.) ( मात्रा-१ तोला।) | पूतीकाग्निकपञ्चकोलरुचकैः साजाजियुमोद्भिदैः। (५२४९) महाविन्दुधृतम् | सक्षारैः सविडैः सहिङ्गुह पुषासिन्धूद्भवैः कल्कितैः।। ( भै. र. । उदर.; ग. नि. । घृता.)
सूक्तेनाऽऽकसम्भवेन च रसेनैतन्महापट्पपलम्।
| सर्पिः पक्यमरोचकाग्निसदनप्लीहज्वरश्वासजित्।। स्नुहीक्षीरपले कल्के प्रस्थाद्धश्चैव सर्पिपः ।
___करञ्ज की छाल, चीतामूल, सोंठ, मिर्च, पीपल, कम्पिल्ल के पलञ्चकं पलाई सैन्धवस्य च ॥ चव, चीतामूल, संचल नमक, सफेद जीरा, काला त्रिवृतायाः पलञ्चैकं कुडवं धात्रिकारसात् ।।
जीरा, खारी नमक, जवाखार, बिड नमक, हींग, तोयप्रस्थेन विपचेच्छनैग्निना भिषक् ।।
हाउबेर (हपुषा) और सेंधानमक ११-१। तोला शाणप्रमाणं दातव्यं जठरे प्लीहगुल्मयोः।
लेकर सबको एकत्र पीसलें । तत्पश्चात् २ सेर तथा कच्छपरोगेषु युञ्जीत मतिमान् भिषक् ॥ घोमें यह कल्क और ४-४ सेर शुक्त तथा अद्रकएतद् गुल्मान् सनिचोन् सशूलान् सपरिग्रहान् । का रस मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें । जब जलांश निहन्त्येष प्रयोगो हि वायुजलधरानिव ॥ शुष्क हो जाय तो उसे छान लें । पञ्चगुल्मवधार्थाय वज्रो मुक्तः स्वयम्भुवा ।
| यह घृत अरुचि, अग्निमांद्य, तिल्ली, ज्वर और महाविन्दुघृतं नाम सिद्धं सिद्धेश्च पूजितम् ॥ .
श्वासको नष्ट करता है। सेहुण्डका दूध २० तोले, कमीला
(सुक्त बनानेकी विधि भा. भै. र. भाग १ ५ तोले, सेंधानमक २॥ तोले, निसोत ५ तोले,
पृ. ३५४ पर देखिये ।) आंवलेका रस ४० तोले।
(५२५१) महाषट्पलकं घृतम् (२) १ सेर घीमें उपरोक्त पदार्थ और २ सेर
(भै. र.; च. द. । ग्रहणी.) पानी मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें । जब जलांश
सौवर्चलं पञ्चकोलं सैन्धवं हवुपं विडम् । शुष्क हो जाए तो घृतको छान लें।
अजमोदां यवक्षारं हिङ्गुजीरकमौद्भिदम् ।। ___ इसे ५ माशेकी मात्रानुसार सेवन कराने से
सकृष्णाजाजी सभूतीकं कल्कीकृत्य पलादिकम् । उदर रोग, तिल्ली, कच्छप रोग, उपद्रवयुक्त गुल्म
| आईकस्वरसं चुकं क्षीरमस्त्यारनाल कम् ॥ और शूल नष्ट होता है। यह पांच प्रकारके
दशमूलकषायेण घृतप्रस्थं विपाचयेत् । गुल्मोंको नष्ट करने के लिये वज्रके समान
भक्तेन सह पातव्यं निर्भक्तं वा विचक्षणैः ॥ प्रभावशाली है।
कृमिप्लीहोदराजीण ज्वर कुष्ठप्रवाहिकाः । १ शागार्द्ध मिति पाठान्तरम् ।
वातरोगान् कफव्याधीन हन्याच्छूलमरोचकम् ।।
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घृतप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः पाण्डुरोगं क्षयं का दौर्बल्यं ग्रहणीगदम् । । शुक्लेन मस्तुना चैव दाडिमैदरोदकैः। महाषट्पलकं नाम्ना वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥ चतुर्गुणरिभैस्तोयैतपस्थं विपाचयेत् ।।
संचल (काला नमक), पिप्पली, पीपलामूल, सौवर्चलं बिडं चैव पौतिकं चोषकस्तथा । चव्य, चित्रक, सोंठ, सेंधानमक, हाऊबेर, विड- अजाजी पिप्पली चैव अजगन्धा यवाग्रजः ॥ नमक, अजमोद, जवाखार, हींग, सफेद जीरा, खारी सैन्धवं पञ्चकोलं च हिङ्गचौद्भिदमेव च । नमक, काला जीरा और अजवायन आधा आधा एतैः पलार्धकैद्रव्यैः शनद्वग्निना पचेत् ।। पल ( प्रत्येक २॥ तोले ) लेकर सबको एकत्र कृमिप्लीहोदराजीर्णज्वरगुल्मप्रमेहकान् । पीस लें । फिर २ सेर घीमें यह कल्क तथा अद
| वातरोगानशेषांश्च हिकां शूलमरोचकम् ।। रकका रस, चुक, दूध, मस्तु, आरनाल और दश
पाण्डुरोग प्रतिश्यायं दरौर्बल्यं वदिसंक्षयम् । भूलका क्वाथ २-२ सेर मिलाकर मन्दाग्निपर
महाषट्पलमातङ्कान् भिनत्त्यशनिवगिरिम् ॥ पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो घृतको
___ ५० पल (३ सेर १० तोले) सांठ को अधछान लें।
| कुटा करके ३२ सेर पानीमें पकावें । जब ८ सेर इसे भातके साथ अथवा बिना भात भी.
पानी शेष रह जाय तो छान लें। तत्पश्चात् खिला सकते हैं। इसके सेवनसे कृमि, तिल्ली,
२ सेर धीमें यह क्वाथ तथा २१३॥ तोले मस्तु, उदररोग, अजीर्ण, ज्वर. कुष्ठ, प्रवाहिका, वातरोग,
२१३।। तोले अनारका रस या काथ, २१३॥ तोले कफजरोग, शूल, अरुचि, पाण्डु, क्षय, खांसी, दुर्ब
बेरी की छालका काथ और निम्न लिखित कल्क लता और संग्रहणी इत्यादि रोग अत्यन्त शीघ्र नष्ट
मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाते हैं। .
हो जाय तो घृतको छान लें। ___(दशमूलका क्वाथ बनाने की विधि--१. सेर
कल्क-संचल ( काला नमक ), बिड नमक, दशमूलको ८ सेर पानीमें पकाकर २ सेर शेष
करन की छाल और सुहागा, जीरा, पीपल, अजरहने पर छान लें।
मोद, जवाखार, सेंधा, पञ्चकोल ( पीपल, पीपलाचुक्र, मस्तु और आरनाल बनाने की विधि
मूल, चव्य, चीता और सोंठ), हींग और खारी भारत भैषज्य रत्नाकर भाग १ पृ. ३५४ पर
नमक । प्रत्येकका चूर्ण २॥-२॥ तोले लेकर सबको देखिये ।)
एकत्र मिलाले । (५२५२) महाषट्पलकं घृतम् (३)
इसके सेवनसे कृमिरोग, तिल्ली, उदर, जीर्ण( ग. नि. । घृता.)
ज्वर, गुल्म, प्रमेह, वातज रोग, हिचकी, शूल, नागरस्य तुला तु जलद्रोणे विपाचयेत् । अरुचि, पाण्डु, प्रतिश्याय, दुर्बलता और अग्निमांद्य चतुर्भागावशेषं तु कषायमवतारयेत् ॥ का नाश होता है।
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त- भैषज्य रत्नाकरः
भारत
(५२५३) माणकघृतम्
(भै. र. । शोथा. व. से.; वृ. मा. च. द.; र. र. । शोथा; भा. प्र. । म. खं. २ शोथा. ) माणकक्वाथककाभ्यां घृतपस्थं विपाचयेत् । एकजं द्वन्द्वजं शोथं त्रिदोषजमपोहति ॥
४ सेर मानकन्दको ३२ सेर पानीमें पकायें जब ८ सेर पानी शेष रहे तो छान कर उसमें २ सेर घृत और २० तोले मानकन्दका कल्क मिलाकर मन्दाग्नि पर पकायें। जब काथ जल जाय तो घृत को छान लें।
यह घृत एकदोषज, द्विढोषज और सन्निपात शोको नष्ट करता है ।
(५२५४) मातुलुङ्गमूलघृतम् ( ग. नि. । वन्ध्या ५ ) मातुलुङ्गशिफाकल्क सिद्धं गर्भमदं घृतम् । पिवेद्वन्ध्या प्रयत्न गर्भसञ्जननं परम् ॥
२ सेर घृतमें ८ सेर पानी और २० तोळे बिजौरेकी जड़की छालका चूर्ण मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो घृतको छान लें।
इसे सेवन करने से वन्ध्या स्त्री को भी गर्भ रह जाता है ।
(५२५५) मातुलुङ्गादिघृतम् (१) ( ग. नि. । हिक्काश्वासा. ११ )
[ मकारादि
२ सेर घीमें ८ सेर बिजौरे नीबू का रस तथा १०-१० तोले राल और सेंधा नमकका चूर्ण मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें । जब पानी जल जाय तो घृत को छान ले I
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इसे पीने से हृदयको दुःख देने वाली हिचकी हो जाती है ।
(५२५६) मातुलुङ्गादिघृतम् (२)
( वृ. नि. र. । शूल ) घृताच्चतुर्गुणो देयो मातुलुङ्गरसो दधि । roserator roseraो दाडिमाम्भसा || विडङ्कं लवणं क्षारं पञ्चकोलयवानिभिः । पाठामूलक कल्केन सिद्धं शूले घृतं मतम् ।। हृत्पार्श्वलं वै श्वासं काहिकां तथैव च । वर्ध्यगुल्मप्रमेहान्वातव्याधींश्च नाशयेत् ॥
बिजौरे नीबू का रस ८ सेर, दही २ सेर, सूखी मूलीका क्वाथ २ सेर, खट्टे बेरोंका क्वाथ २ सेर और अनारका रस २ सेर लेकर २ सेर घृतमें ये समस्त चीजें तथा निम्नलिखित क मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें और जब जलांश शुष्क हो जाय तो घृतको छान ले 1
कलक - बायबिडंग, सेंधा नमक, जवाखार, पीपल, पीपलामूल, चव, चित्रक, सोंठ, अजवायन और पाठेकी जड़ २-२ तोले लेकर सबको एकत्र पीस लें ।
यह घृत हृदय और पसलीके शूल, श्वास, खांसी, हिचकी, बर्म, गुल्म, प्रमेह, अर्श और
मातुलुङ्गरसे सर्जसैन्धवं घृतपाचितम् । हृद्दुःखदायिनी हिका तस्मिन् भुक्ते निवर्तते ॥ वातव्याधिको नष्ट करता है ।
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জুন
]
.. चतुर्थों भागः ।
८७
(५२५७) मालत्याचं घृतम्
कायफलका चूर्ण १ भाग, नागरमोथेका चूर्ण ( भै. र. । मुख.)
२ भाग, गिलोयका चूर्ण ३ भाग, और उड़दका मालत्या द्रोणपुष्प्याश्च निम्बबब्बोलयोस्तथा। चूर्ण ४ भाग लेकर सबको १० भाग घीमें घोट सहाचरस्य सर्जस्य स्वरसेन पृथक् पृथक् ॥ | कर सेवन करनेसे सुरापोनकी दुर्गन्ध तत्काल नष्ट कल्कैमलयजोशीररक्तचन्दनचम्पकैः। | हो जाती है। अश्वत्थवटनीलीभीरजनीदारुसैन्धवैः ॥
(५२५९) माषादिघृतम् दाा विश्वाहकुष्ठाभ्यां कणया च पचेद् घृतम् (व. से. वाजीकर.; नपु. मृता. । त. २) शनैस्ताम्रमये पात्रे कृतवङ्गविलेपने ॥
वृ. यो. त. । त. १४७) मालत्याद्यमिदं सर्पिर्गदान मुखसमुद्भवान् ।
माषाणामात्मगुप्तानां बीजानामाढकत्रयम् । निहन्यानात्र सन्देहो भास्करस्तिमिरं यथा ।
जीवकर्षभको मेदे वीरावृद्धी शतावरी ॥ द्रव पदार्थ-मालतीके पत्तोंका रस २ सेर,
मधुकं चाश्वगन्धा च साधयेत्कुडवोन्मितम् । गूमाका रस २ सेर, नीमके पत्तोंका रस २ सेर,
तमेवास्मिन्घृतपस्थे द्रव्यादशगुणं पयः ।। बबूलके पत्तोंका रस २ सेर, पियाबासेका रस २
विदारिणो दशप्रस्थं प्रस्थमिक्षुरकस्य च । सेर, शालका रस या क्वाथ २ सेर ।
दत्त्वा मृद्वग्निना साध्यं सिद्धं सपिर्निधापयेत् ॥ कल्क-सफेद चन्दन, खस, लाल चन्दन, चम्पाका फूल, पीपल वृक्षकी छाल, बड़की छाल,
शर्करायास्तुगाक्षीर्याः क्षौद्रस्य च पृथक् पृथक् ।
भागांश्चतुष्पलांश्चात्र पिप्पल्याश्च द्वयं पलम् ॥ नीलकी जड़, हल्दी, देवदारु, सेंधा नमक, दारु
बलपूर्वमतो लीड ततोऽन्नमुपयोजयेत् । हल्दी, सोंठ, कूठ और पीपल । सब समान भाग
यदीच्छेदक्षयं शुक्रं शेफमश्चोत्तमं बलम् ।। मिश्रित २० तोले (प्रत्येक १०-११॥ तोला) लेकर
उड़द १२ सेर, कौंचके बीज १२ सेर; सबको एकत्र पीस लें।
जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, काकाली, वृद्धि, विधि-कलई किये हुए तांबेके पात्रमें २
शतावर, मुलैठी और असगन्ध प्रत्येक २०-२० सेर घृत और उपरोक्त समस्त द्रव पदार्थ तथा कल्क
तोले लेकर सबको एकत्र कूट कर आठ गुने पानीमें डालकर मन्दाग्निपर पकावें । जब जलांश शुष्क हो
पकावें । जब चौथा भाग पानी शेष रह जाय तो जाए ता घृतको छान लें।
छान लें । तत्पश्चात् १ सेर घीमें यह क्वाथ, १० यह घृत समस्त मुखरोगोंको नष्ट करता है।
सेर विदारीकन्दका रस, १ सेर ईखका रस और (५२५८) माषघृतम्
२६१ सेर दूध मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें ।जब (वृ. नि. र. । पानात्यय.)
१ दूध और उड़द तथा कौंचके बीजोंका परिमाण कट्फलमुस्तगुडूचीमाषैः क्रमवर्धितैश्च तत्सर्वैः।
अधिक प्रतीत होता है। उड़द और कौंचके बीज ६-६ सेर तथा दूध 1. सेर लेना उचित है।
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८८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
घृतमात्र शेष रह जाय तो छान लें। फिर उसमें माहेश्वरघृतम् (२) २०-२० तोले खांड, बंसलोचन और शहद तथा
लेप प्रकरणमें देखिये। १० तोले पीपलका चूर्ण मिलाकर सुरक्षित रक्खें । इसे यथोचित मात्रानुसार खाकर बादको
(५२६१) मांस्यादिघृतम् भोजन करना चाहिए।
( यो. र.; वृ. नि. र. । अण्डवृद्धि.) इसके सेवनसे वीर्यवृद्धि होती और लिङ्गका बल मांसी कुष्ठं पत्रकला रास्नाशृङ्गी च चित्रकम् । बढ़ता है।
कृमिघ्नमश्वगन्धा च शैलेयं कटुरोहिणी ॥ (५२६०) माहेश्वरघृतम् (१) सैन्धवं तगरं चैव कुटजातिविषैः समैः ।
(र. र. । रक्तपित्त .) एतैश्च कार्षिकैः कल्कैघृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ वासानिम्बपटोलं च त्रायमाणादुरालभा। तृपमुण्डीतकैरण्डनिम्बपत्रभवं रसम् । धातकीपपट मुस्तमुशीरं कटुरोहिणी ॥ कष्ट कार्याश्चापि दुग्धं प्रस्थं प्रस्थं विनिक्षिपेत् ।। निशादारुनिशातुल्यं तोयैर्दशगुणं पचेत् ।
सिद्धमेतद् घृतं पीतमन्त्रवृद्धिं व्यपोहति । पादशेषे हरेकमाथं गोघृतं काथपादिकम् ॥
वातद्धिं पित्तरद्धि मेदोद्धिमथापि वा ।। त्रिफलात्रिकटुनिम्बं चन्दनश्च पलोन्मितम् ।
मूत्राद्ध च इन्त्येतत्सर्पिराशु न संशयः ।। कल्क तनिक्षिपेत्तत्र घृतशेष विपाचयेत् ॥
कल्क-जटामांसी, कूठ, तेजपात, इलायची, घृतं माहेश्वरं नाम रक्तपित्तहरं पिबेत् ॥ बासा, नीमकी छाल, पटोल, त्रायमाणा,
रास्ना, काकड़ासिंगी, चीता, बायबिडंग, असगन्ध, धमासा, धायके फूल, पित्तपापड़ा, नागरमोथा, खस,
| छारछरीला, कुटकी, सेंधानमक, तगर, कुडेको छाल कुटकी, हल्दी और दारुहल्दी सब समान भाग
और अतीस प्रत्येकका चूर्ण १:-१। तोला । मिश्रित ६ सेर ३२ तोले (प्रत्येक ४२।।। तोले) द्रव पदार्थ-बासा, मुण्डी, अरण्डकी जड़, लेकर सबको अधकुटा करके ६४ सेर पानोमें नीमके पत्ते और कटेलीका स्वरस अथवा क्वाथ पकावें । जब १६ सेर पानी शेष रह जाय तो २-२ सेर । दूध २ सेर । छानकर उसमें ४ सेर गायका धी और निम्न २ सेर धीमें उपरोक्त कन्क तथा द्रव पदार्थ लिखित कल्क मिलाकर पुनः मन्दाग्निपर पकावें। जब |
मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें जब पानी जल जाय पानी जल जाय तो घृतको छान लें।
तो घृतको छान लें । कल्क-हर, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च, पीपल, नीमकी छाल और सफेद चन्दनका चूर्ण
इसे पीनेसे अन्त्रवृद्धि, वातवृद्धि, पित्तवृद्धि,
मेदोवृद्धि और मूत्र वृद्धिका नाश होता है । ५-५ तोले । इसे पीनेसे रक्तपित्त नष्ट होता है।
( मात्रा-१ तोला ।)
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घृतप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
मिश्रकस्नेहः
मात्रा-१। तोला । ( व. से. । गुल्म.)
इसे १ सप्ताह तक सेवन कराना चाहिये । प्र. सं. २४५९ “ त्रिवृतादि मिश्रक स्नेहः' (५२६३) मुगादिघृतम् देखिये।
___(यो. र. । प्रदर.; च. द. । असृग्दरा.; (५२६२) मुण्डयादिघृतम् वं. से.; वृ. नि. र.; वृ. मा.; ग. नि. । प्रदरा.;
( हा. सं. । स्था. ३ अ. २३ ) वृ. यो. त. । त. १३४ ) मुण्डी गुडूची बृहतीद्वयं च मुद्गमाषस्य नि!हे रास्नाचित्रकमुस्तकैः ।
रास्ना समङ्गा कथितः कषायः । सिद्धं सपिप्पलीबिल्वैः सर्पिः श्रेष्ठमसृग्दरे । समं च तेनापि विमिश्रितं च ___ मूंग और उड़दका काथ ४-४ सेर तथा
दुग्धं दधि स्यान्नवनीतकं च ॥ रास्ना, चीता, नागरमोथा, पीपल और बेलगिरीका पचेत्सुधीमान् मृदुवह्निना च कल्क २० तोले (प्रत्येकका चूर्ण ४ तोले) लेकर
सिद्धं घृतं स्नेहनमेव पुंसाम् । सबको २ सेर घीमें मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें । कर्पप्रमाणं विहितं च पाने
जब पानी जल जाए तो घृतको छान लें। चाभ्यअने भोजनके तथैव ॥ | यह घृत रक्त प्रदरको नष्ट करता है। ' बस्तौ हितं स्नेहनमेव पुंसां
( मात्रा-२ तोले । अनुपान-दूध। ) . सप्ताहकं वातविकारिणां च ॥ (काथ बनानेके लिये २-२ सेर मूंग और मुण्डी, गिलोय, छोटी और बड़ी कटेली, रास्ना | उड़दको पृथक् पृथक् १६-१६ सेर पानीमें पकाकर तथा मजीठ ५-५ तोले लेकर सबको अधकुटा ४-४ सेर शेष रक्खें) करके ३ सेर पानीमें पकावें । जब पौन सेर (५२६४) मूर्वाधं घृतम् (६० तोले ) पानी शेष रह जाए तो छान लें ।
(भै. र. वं. से.; च. द.; वृ. मा.; र. र.। पाण्डु.) तत्पश्चात् यह क्वाथ और ६०-६० तोले
मूतिक्तानिशायासकृष्णाचन्दनपर्पटैः । गोदुग्ध, गायका दही, नवनीत ( नौनी घी
त्रायन्तीवत्सभूनिम्बपटोलाम्बुददारुभिः ॥ मक्खन ) और ६० तोले पानी एकत्र मिलाकर
| अक्षमात्रैः घृतं प्रस्थं सिद्धं क्षीरचतुर्गुणम् । मन्दाग्निपर पकावें । जब घृत मात्र शेष रह जाय तो पाण्डुताज्वरविस्फोटशोथार्शोरक्तपित्तनुत् ॥ छान लें।
कल्क-मूर्वा, कुटकी, हल्दी, धमासा, पीपल, इसे वात विकारों में स्नेहनके लिये पिलाना, | सफेद चन्दन, पित्तपापड़ा, त्रायमाणा, कुड़ेकी छाल, मालिश करना, भोजनमें खिलाना और बस्तिमें | चिरायता, पटोल, नागरमोथा और देवदारुका चूर्ण प्रयुक्त करना चाहिये ।
११-१। तोला।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
२ सेर घीमें उपरोक्त कल्क और २ सेर दूध | सकलिङ्गां समनिष्ठामनन्ताश्च शतावरीम् । मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब दूध जल जाय | शृङ्गाटकं समगाश्च पद्मकेशरमित्यपि ।। तो घृतको छान लें।
कल्कीकृत्य पचेत्सर्पिः पयो दद्याचतुर्गुणम् । यह घृत पाण्डु, ज्वर, विस्फोटक, शोथ, अर्श | सम्यक् पकेऽवतीर्णे च शीते तस्मिन्विनिःक्षिपेत्॥ और रक्तपित्तको नष्ट करता है।
| सर्पिस्तुल्यं भिषक् क्षौद्रं कृतरक्षं निधापयेत् ।
| विषाणि हन्ति दुर्गाणि गरदोषकृतानि च ॥ (५२६५) मूलकाचं घृतम्
स्पर्शाद्धन्ति विषं सर्व गरैरुपहतां त्वचम् । (वं. से. । उदावर्त.; सुश्रुत । उत्तर. अ. ५५) योगजं तमकं कण्डूं मांससादं विसंज्ञताम् ॥ मूलकं शुष्कमार्द्रश्च वर्षाभ पञ्चमूलकम् । नाशयत्यानाभ्यङ्गपानवस्तिषु योजितम् । आरेवतफलश्चाप्मु पक्त्वा तेन घृतं पचेत् ॥ | सर्पकीटाखुलूतादिदष्टानां विषहृत्परम् ॥ सत्पीयमानं शमयेदुदावर्तमसंशयम् ॥
कल्क-हर्र, गोलोचन, कूठ, आक (मदार)के
पत्ते ), कमलकी जड़, नलकी जड़, बतेकी जड़, सूखी मूली और हरा पुनर्नवा तथा लघु पंच
शुद्ध बछनाग, तुलसी, इन्द्रजौ, मजीठ, अनन्तमूल, मूल (शालपर्णी, पृश्निपर्णी, कटेली, कटैला,
शतावर, सिंघाड़ा, लज्जालु और कमलकेसर ५-५ गोखरु ) और अमलतास के फलोंका गूदा १-१ |
तोले लेकर सबको एकत्र पीसलें । सेर लेकर सबको ६४ सेर पानीमें पकावें । जब
८ सेर घीमें ३२ सेर दूध और उपरोक्त ८ सेर पानी शेष रह जाय तो छान लें।
कल्क मिलाकर पकावें । जब दूध जल जाय तो २ सेर घीमें यह क्वाथ मिलाकर मन्दाग्नि पर घीको छानकर और ठण्डा करके उसमें घीके बरापकावें । जब काथ जल जाए तो घतको छान लें। | बर शहद मिलाकर सुरक्षित रक्खें ।
इसे पीनेसे उदावर्त अवश्य नष्ट हो जाता है। यह घृत विष, संयोगज विष, विषजन्य तमक, (५२६६) मृत्युपाशच्छेदिघृतम् ।
कण्डू, अचेतना, मांससाद इत्यादिको नष्ट करता
। है । इसे अंजन, अभ्यङ्ग, पान और वस्तिद्वारा (भै. र.; वं. से.; भा. प्र.; यो. र. । विषा.)
प्रयुक्त करना चाहिये। अभयां रोचनां कुष्ठमर्कपत्र' तथोत्पलम् । । यह घृत सर्प, कीट, मूषक और मकड़ी आदि नलवेतसमूलानि गरलं सुरसां तथा ॥ सभी विषैले जन्तुओंके विषको नष्ट करता है । 1अर्कपुष्पीमिति पाठान्तरम् ।
२वं. से. में गोरोचनके स्थानमें लोध लिखा है।
इति मकारादिघृतप्रकरणम्
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तैलपकरणम् ]
चतुर्थों भागः
अथ मकारादितैलप्रकरणम् । (५२६७) मञ्जिष्ठादितैलम् (१) पानी) मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें । जब दूध और ( यो. र. । कुष्ठा.; वृ. नि. र. । त्वग्दो. ) । | पानी जल जाय तो तेलको छान लें। मनिष्ठारुग्निशाचक्रमर्दारग्वधपल्लवैः।
इस तेलकी मालिशसे मुखकी नीलिका, तृणकस्वरसे सिद्धं तैलं कुष्ठहरं परम् ॥
पिडिका और मुहासे नष्ट हो जाते हैं तथा केवल ७
दिनकी मालिशसे ही बली पलितका नाश होकर मजीठ, कूठ, हल्दी, पंवाड़के पते और अम
मुख सुन्दर, पुष्ट और कंचनके समान प्रभावान हो लतासके पत्ते ४-४ तोले लेकर सबको एकत्र पीस
जाता है। लें। तत्पश्चात् २ सेर सरसोंके तेल में यह कल्क तथा ८ सेर गन्धतृगका स्वरस या क्वाथ मिला
___ (५२६९) मञ्जिष्ठादितैलम् (३) कर मन्दाग्निपर पकावें । जब पानी जल जाय तो (रा. मा. । मुखरो.) सेलको छान लें।
मनिष्ठामधुक सुचन्दनैः सलाः इस तेलकी मालिशसे कुष्ठ नष्ट होता है । काश्मीरप्रभवयुतैश्च कर्षमात्रैः। (५२६८) मञ्जिष्ठादितैलम् (२)
तैलस्य प्रमितपलाष्टकं विपकं
यत्क्षीरे द्विगुणमिते भवत्यजायाः॥ (च. द.; धन्व.; र. र.; यो. र.; वृ. मा.;
अभ्यङ्गादनुदिवसं विधीयमानं भै. र. । क्षुद्ररोगा.; वृ. यो. त. । त. १२७;
नारीणां वितरति सप्तभिर्दिनैस्तत् । यो. त. । त. ६८)
वक्ताब्जेष्वतनुकपोल भित्तिभासः मञ्जिष्ठा मधुकं लाक्षा मातुलुङ्ग सयष्टिकम् ।
प्रस्फूर्जचसुभगत्वमत्युदारम् ॥ कर्षप्रमाणैरेतैस्तु तैलस्य कुडवं तथा ॥ १ सेर तेलमें २ सेर बकरीका दूध, (२ सेर आज पयस्तद्विगुणं शनैर्मेद्वग्निना पचेत् ।। | पानी) और निम्न लिखित कल्क मिला कर मन्दाग्नि नीलिका पिडकाव्यङ्गानभ्यङ्गादेव नाशयेत् ॥ पर पकावे । जब दूध और पानी जल जाए तो मुखं प्रसन्नोपचितं वलीपलितवर्जितम् । | तेलको छान लें। सप्तरात्रप्रयोगेण भवेत्कनकसन्निभम् ।। कल्क-मजीठ, मुलैठी, सफेद चन्दन, लाख
कल्क-मजीठ, महुवे के फूल, लाख, बिजौ रे- | और केसर १३-१। तोला लेकर सबको एकत्र की छाल और मुलैठी १।-१। तोला लेकर सबको पीस लें । एकत्र पीस लें।
निरन्तर सात दिन तक इस तेलकी मालिशआधा सेर (४० तोले) तेलमें १ सेर से स्त्रियों के कपोल पुष्ट और अत्यन्त शोमायमान बकरीका दूध और उपरोक्त कल्क ( तथा १ सेर | हो जाते हैं।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
(५२७०) मञ्जिष्ठाद्यं तैलम् (१) । कल्क-मजीठ, पद्माक, कूठ, सफेद चन्दन, (ग. नि. । ग्रन्थ्या .)
गेरु, खरैटी, हल्दी, दारुहल्दी, फूलप्रियङ्गु, हाथीमञ्जिष्ठाविषयुक्तेन पुण्डरीकान्वितेन तु ।। दांतका चूर्ण, मुलैठी, बावची, देवदारु और पुण्डसैन्धवेन पचेत्तैलं गण्डमालाविनाशनम् ।।
रिया २॥-२॥ तोले लेकर सबको पोस लें। कल्क-मजीठ, बछनाग, कमल और सेंधा ।
२ सेर तेल में गायका दूध, असनाका काथ,
और भंगरेका रस या काथ समान भाग-मिश्रित नमक ५.५ तोले लेकर सबको एकत्र पीस लें।
८ सेर (प्रत्येक २ सेर ५३। तोले ) तथा उप.. क्याथ--उपरोक्त चारों ओषधियां २-२ सेर
रोक्त कल्क मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब लेकर सबको अधकुटा करके ३२ सेर पानीमें
जलांश शुष्क हो जाए तो तेलको छान लें। पकावें। जब ८ सेर पानी शेष रह जाए तो
यह तेल गिरते हुवे बालोंको रोकता और छान लें।
शिरशूल, मन्या ( गरदनकी नस ) का स्तम्भ, २ सेर सरसों के तेल में उपरोक्त कल्क तथा
हनुग्रह, दन्त शूल, कर्ण शूल, और आंखके दर्दको काथ मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब काथ
नष्ट करता है। जल जाए तो तेलको छान लें।
इसके व्यवहारसे केश स्निग्ध और धुंघराले ____ यह तेल गण्डमालाको नष्ट करता है।
होते तथा बढ़ते हैं । यह तैल पलित ( बालोंका (५२७१) मञ्जिष्ठाद्यं तैलम् (२)
सफेद हो जाना ) और इन्द्र लुप्त (गंज) रोगमें ( ग. नि. । तैला. २)
अत्युपयोगी और शिरो रोग नाशक है । इसकी मअिष्ठा पद्मकं कुष्ठं चन्दनं गैरिकं बला। नस्य लेनी और मालिश करनी चाहिए । हरिद्रे द्वे प्रियङ्गश्च नागं यष्टी सबाकुची॥ (५२७२) मनिष्ठाद्यं तेलम् (३) दारु प्रपौण्डरीकं च पिष्टवाऽर्धपलिकानि तु ।। (र. र. । क्षुद्र रोगा.) तैलप्रस्थं गवां क्षीरं दत्त्वा काथं तथासनात् ॥ चतुर्गुणं गवां क्षीरं क्षीराई तिलतैलकम् । चतुर्गुणं भृङ्गरसं शनैर्मेद्वनिना पचेत् । मनिष्ठा दि निशा लोध्र तुवरी तालकं शिला॥ अस्य तैलस्य पक्वस्य शृणु वीर्यमतः परम् ।। । लाक्षा गोरोचना कुष्ठं तथा च कुङ्कमद्वयम् । केशशाते शिरोदुःखे मन्यास्तम्भे हनुग्रहे। गैरिकं शिखीतुत्थश्च वटवृक्षस्य पत्रकम् ॥ दन्तकर्णाक्षिशूले च नस्येऽभ्यङ्गे च योजयेत् ।। नागकेशरकालीयपद्मवीजञ्च केशरम् । मुकुश्चिताग्रान् सुस्निग्धान् केशान् संजनये- पारदं गन्धकं पत्रं त्वचञ्च पतिकार्षिकम ॥
. दहून् । सर्व पाच्यं तैलशेष म्रक्षणान्मक्षिकापहम् । पलिते चेन्द्रलुप्ते च तैलमेतत्प्रशस्यते ॥ वदनञ्चन्दु तुल्यं स्यात्सप्तरात्रान्न संशयः ॥ मनिष्ठाद्यमिदं नाम्ना शिरोरोगनिवारणम् ॥ x इस स्थान पर पाठ भ्रष्ट प्रतीत होता है ।
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तैलप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
कल्क-मजीठ, हल्दी, दारु हल्दी, लोध, । बिनौला ( कपासका बीज ), मनसिल और मोजूगोपीचन्दन, हरताल, मनसिल, लाख, गोलोचन, | फल(?) का चूर्ण २॥ २॥ तोले। कूठ, दो प्रकारकी केसर, गेरु, तूतिया, बड़के पत्ते, ४० तोले तिलके तेल में उपरोक्त कल्क और नागकेसर, अगर, कमलगट्टा, कमल केसर, पारद, २ सेर (१६० तोले) बकरीका दूध मिलाकर मन्दाग्नि गन्धक, तेजपात और दालचीनी १०-१तोला पर पकावें । जब दूध जल जाए तो तेलको छानलेकर पारे गन्धकको घोट कर कज्जली बना लें और । कर उसमें २० तोले मोम मिलाकर सुरक्षित रक्खें । अन्य पदार्थों को पीस लें।
इसे सात दिन तक मुखपर मलनेसे मुखकी ३ सेर तिलके तेल में १२ सेर गायका दूध | पिटिकाएं, तिल, व्यङ्ग, कालक, कलौंस, जन्तुमणि और उपरोक्त कल्क (पारे गन्धकको कज्जली समेत) | और पद्मिनी कण्टक इत्यादि नष्ट हो कर मुखका मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब दूध जल जाए | रंग निखर जाता है। तो तेलको छान लें।
(५२७४) मञ्जिष्ठाद्यं सूर्यपाकतैलम् इसे सात दिन तक मुंह पर मलनेसे मक्षिका
(ग. नि. । कुष्ठा.) (मुंह के मस्से)का नाश होता और मुख चन्द्रमाके | मञ्जिष्ठात्रिफलालाक्षानिशाशिलालगन्धकैः । समान कान्तिमान हो जाता है।
चूर्णितेस्तैलमादित्यपाकं पामाहरं परम् ॥ .. (५२७३) मञ्जिष्ठाद्यं तैलम् (४) ।
१ सेर (सरसोंके) तेलमें ४ सेर पानी और
१० तोले मजीठ, हरं, बहेड़ा, आमला, लाख, (व. से. । शुद्र रोगा.)
हल्दी, मनसिल, हरताल और गन्धकका चूर्ण मनिष्ठाकेशरं लाक्षा सर्पपालोधचन्दनम् ।
मिलाकर धूपमें रख दें । जब पानी सूख जाए प्रपौण्डरीकं मधुकं पतङ्गं गैरिकं वचा ॥ तो तेलको छान लें। कार्यासास्थिशिलामजकः कल्कैद्धयोन्वितैः। यह तेल पामा (खुजली) को नष्ट करता है। पचेतैलस्य कुडवमजाक्षीरं चतुगुणम् ॥ ( कल्ककी प्रत्येक वस्तु १ तोला १॥ माशा लेनी सिद्धेऽवतारिते दद्यान्मधृच्छिष्टं द्विरंशकम् । | चाहिये ). म्रक्षयेन्मुखमेतेन सप्तरात्रमतन्दितः ॥
(५२७५) मथिततैलम् पिटकास्तेन शाम्यन्ति तिलकाव्यङ्गकालिकाः।
( वृ. नि. र. । पानात्यय.) मुखकाष्य जन्तुमणिपद्मिनीकण्टकास्तथा ॥ मथितं गोदधिसहितं तैलं कर्पूरसम्मिश्रम् । मञ्जिष्ठाद्यमिदं तैलं मुखवर्णप्रसादनम् ॥ आस्वाद्य पीतमाशु क्षपयति पानात्ययं रोगम् ।।
कल्क-मजीठ, केसर, लाख, सरसो, लोध, कपड़ेसे छना हुवा गायका दही, तिलका तेल सफेद चन्दन, पुण्डरिया, मुलैठी, पतङ्ग, गेरु, बच, । और कपूरका चूर्ण मिलाकर पीनेसे पानात्यय रोग
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
૪
( शराब पीने से उत्पन्न हुवा विकार नशा आदि ) होता है।
( दही १ पाव, तेल १ तोला, कपूर १ रत्ती । पहिले कपूरको तेलमें मिला लेना चाहिये ) (५२७६) मधुकादितैलम् (१) (च. द. । क्षुद्र रोगा. ५४; शा. सं. । म. खं. अ. ९. )
तैलं सयष्टीमधुकैः क्षीरे धात्रीफलैः श्रुतम् । नस्ये दत्तं जनयति केशान्श्मश्रूणि चाप्यथ ॥
१ सेर तिल के तेल में ४ सेर गायका दूध और ५-५ तोले मुलैठी तथा आमलेका चूर्ण मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब दूध और रस जल जाए तो तेलको छान लें 1 इसकी नस्य लेने से केश और दाढ़ीके बाल निकल आते हैं ।
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[मकारादि
१०४ तोले ( १ सेर २४ तोले ) तिलके तेल में ५ | सेर पानी और १-१ तोला मुलैठी, धायके फूल, लोध, मजीठ, कायफल, खरैटी, दारुहल्दी, हल्दी, पतन, हुर्ड, बहेड़ा, आमला और मदयन्तिका ( चमेली भेद ) का चूर्ण मिलाकर मन्दान पर पकायें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान लें ।
इसे लगानेसे उपदंश ( आतशक ) के घाव भर जाते हैं ।
(५२७९) मधुयष्टचादितैलम् ( र. र. । क्षुद्ररोगा . ) मधुयष्टीपलं तद्वत् द्वात्रिंशच्च पलानि वै । पादशेषो भवेत्tart काथांश तिलतैलकम् ॥ पुनर्मरिचमञ्जिष्ठे प्रत्येकं च पलार्द्धकम् । तैलशेषं पचेत्सर्वे लेपोऽयं मुखवर्णकृत् ॥
(५२७७) मधुकादितैलम् (२) ( व. से. । वातरक्ता. ) मधुकाद्विगुणम् तैलं तैलादाजं पयो भवेत् थामिबलं पेयं वातरक्तरुजापहम् ॥
१ सेर तेल में २०० तोले मुलैठीका चूर्ण और २. सेर बकरीका दूध ( तथा २ सेर पानी ) मिलाकर मन्दाग्नि पर पकायें। जब जलांश शुष्क हो जाय तो तेलको छान लें 1
इसे पीने से वातरक्त नष्ट हो जाता है । (५२७८) मधुकादितैलम् (३)
(ग. नि. । उपदंशा ८ )
गुडूच्यास्तु तुलाक्वार्थ जलद्रोणे विपाचयेत् । मधुकं धातुकी रोत्रं मञ्जिष्ठा कट्फलं बला || तेन पादावशेषेण तैलमस्थं विपाचयेत् ॥ दावहरिद्रापत्तङ्गत्रिफलामदयन्तिकाः । गर्भण तेन तत्तैलमभ्यङ्गाद् व्रणरोपणम् ॥
शतपुष्पामयान्योषरास्नाचन्दनमुस्तकम् । अजमोदा हरिद्रे द्वे कुष्ठधान्यकपद्मकम् ॥
५ तोले मुलैठी को ४ सेर पानी में पकावें । जब १ सेर पानी शेष रह जाय तो छान लें। तत्पश्चात २० तोले तिलके तेलमें यह काथ और २॥ -२॥ तोले काली मिरच तथा मजीठका चूर्ण मिलाकर मन्दाग्नि पर पकायें । जब काथ जल जाय तो तेलको छान लें।
इसकी मालिशसे मुखका रंग निखर आता है। (५२८०) मध्यमगुडूचीतैलम् (भै. र. । वातरक्ता.)
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तैलमकरणम् ]
चतुर्थों भागः विडङ्गं तेजपत्रञ्च वचा मांसी कुचन्दनम् । मध्यमनारायणतैलम् एषां द्विकार्षिकैः कल्कैविपचेन्मतिमान् भिषक् (यो. त. । त. ४२ ; व. से. । वातव्या.; वातरक्तं निहन्त्याशु साध्यासाध्यमथापि वा । धन्व. । वातव्या.) एकजं द्वन्द्वजश्चैव तथैव सान्निपातिकम् ॥ भा. भै. र. भाग ३ में प्रयोग संख्या नाशयेत्तिमिरं घोरं गुडूचीतैलमुत्तमम् ॥ ३५०२ " नारायण तैल मध्यम ” देखिये । क्वाथ-६। सेर गिलोयको ३२ सेर पानीमें |
मध्यमनारायणतैलम् पकावें। जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो
(भै. र. । वातव्या.) छान लें।
__भा. भै. र. भाग ३ प्र. सं. ३५०३ कल्फ-सोया, हर्र, सोंठ, काली मिर्च, पीपल,
चे, पीपल, " नारायण तैलम् ( मध्यम ) " नं. ३ देखिये । रास्ना, सफेद चन्दन, नागरमोथा, अजमोद, हल्दी,
मध्यमलाक्षादितैलम् दारु हल्दी, कूठ, धनिया, पाक, बायबिडंग, तेजपात, बच, जटामांसी और पतङ्ग २॥२॥
(वृ. यो. त., यो. र.) तोले लेकर पीस लें।
लाक्षादि तैल (मध्यम) देखिये । विधि-२ सेर तिलके तेलमें उपरोक्त काथ |
मध्यमविष्णुतैलम् और कल्क मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें । जब काथ
(भै. र., धन्व.) जल जाए तो तेलको छान लें।
__ विष्णु तैल (मध्यम) देखिये । यह तेल एकदोषज, द्विदोषज और सन्निपा.
(५२८१) मनःशिलादितैलम् तज साध्य अथवा असाध्य हर प्रकारके वातरक्त
(र. का. । कुष्ठा.; र. चि. । स्तबक ४ ) और घोर तिमिर रोगको शीघ्र ही नष्ट कर शिलाकम्पिल्लतालानि स्वर्जिकारजनीद्वयम् । देता है।
। 'त्रिकटु गन्धकं सोमराजी च यावशूकजम् ॥ मध्यमदशमूलतैलम्
एतेषां कारयेच्चूर्ण काययेत्पादशेषितम् ।
तिलतैलं चतुर्थीशं रविदुग्धं च तत्समम् ॥ ( भै. र.; धन्व. । शिरोरोगा.)
अनेन पाचयेत्तैलं घमे कृत्वा च किञ्चन । भा. भै. र. भाग ३ में प्र. सं. ३०८८
लेपयेत्कुष्ठिनं तेन धर्मे कृत्वा च रोगिणम् ॥ " दशमूल तैलम्" नं. ६ देखिये।
| चित्रमौदुम्बरं कुष्ठं परुषं दद्रुमण्डलम् । मध्यमनारायणतेलम्पामासिध्मानि सर्वाणि दुर्निवारां विचचिकाम्॥ भा. भै. र. भाग ३ में " नारायण तैल | तद्गतानपि चान्यानि नाशयेदचिरेण तत् ॥ ( मध्यम ) ” देखिये।
१. चित्रकमिति पाठान्तरम् ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि मनसिल, कमीला, हरताल, सज्जी, हल्दी, (५२८३) मनःशिलाद्यं तैलम् (२) दारुहल्दी, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, गन्धक,
( यो. चि.। अ. ६ तैला.) बाबची और जवाखार का चूर्ण ३०-३० तोले लेकर सबको ३६ सेर पानीमें पकावें । जब ९ मनः शिलागन्धकसोमराजी सेर पानी शेष रह जाए तो छानकर उसमें २। सेर __ हेमाहाकम्पिल्लकचित्रकाश्च । तिलका तेल और इतना ही आकका दूध मिला- सतालसौभाग्यहरिद्रयुग्म कर पुनः पकावें । जब तैल मात्र शेष रह जाय तो
__ आरक्तगुजाफलमर्फमूलम् ॥ छान कर सुरक्षित रक्खें ।
सतोरकासीसकसूक्ष्मचूर्ण रोगीको धूपमें बिठलाकर इस तेलकी मालिश करनी चाहिये तथा मालिशके पश्चात् भी उसे
सस्निग्धदारुपपुन्नाटबीजम् । थोड़ी देर तक धूपमें बिठलाना चाहिये।
धत्तूरमूलं नवसारयुक्तं यह तेल चित्रकुष्ठ, उदम्बर कुष्ठ, परुषता, तैलं यवक्षारं च सर्जिकाभिः ॥ दाद, मण्डल, पामा, सिध्म और कष्ट साध्य विच- पचेत गोमूत्रचतुर्गुणेन चिका आदिको अत्यन्त शीघ्र नष्ट कर देता है ।
निहन्ति दद्रु किलाटान् सपामान् । (५२ ८२) मनःशिलाद्यं तैलम् (१)
त्वग्दोषजां ये गलगण्डमाला (ग. नि. । तैला. २; वृ. नि. र.; यो. र.;
विचर्चिका कुष्ठत छर्दि संज्ञा ॥ वृ. मा. । क्षुद्र रोगा.)
कल्क-मनसिल, गन्धक, बाबची, सत्यानासी, मनःशिलालभल्लातसूक्ष्मैला गुरुचन्दनैः।।
कमीला, चीता, हरेताल, सुहागा, हल्दी, दारुजातीपल्लवकल्कैश्च निम्बतलं विपाचयेत् ॥ ।
हल्दी, लाल चौटली, आककी जड़, तोर (), वल्मीकं नाशयत्येतद्बहुच्छिद्रं बहुमूवम् ॥ ___ कल्क-मनसिल, हरताल, भिलावा, छोटी
कसीस, देवदारु, पंवाड़के बोज, धतूरेकी जड़, इलायची, अगर, सफेद चन्दन और चमेली के पत्ते नौसादर, जवाखार और सज्जीखार १-१ तोला ५-५ तोले लेकर सबको एकत्र पोसलें ।
लेकर पीस लें। ३॥ सेर नीमके तेल में उपरोक्त कल्क और २ सेर तेलमें उपरोक्त कल्क और ८ सेर १४ सेर पानी मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब। गोमूत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें। जब गोमूत्र पानी जल जाए तो तेलको छान लें। जल जाए तो तेलको छान लें।
यह तेल अत्यधिक स्राव और बहुतसे छिद्रों इसकी मालिशसे दाद, किलाटकुष्ठ, पामा, वाली बज्मीक नामक व्याधि को भी नष्ट कर त्वग्दोष, गण्डमाला, विचर्चिका और छर्दि (?) का देता है।
| नाश होता है।
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तैलप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः
९७
(५२८४) मरिचादितैलम् (१) कल्क-काली मिर्च, सफेद चन्दन, देवदारु,
( वा. भ. । चि. अ. १९ कुष्ठा.) | हल्दी, दारुहल्दी, कमलपुष्प, नागरमोथा, मनमरिचं तमालपत्रं कुष्ठं समनःशिलं सकासी- सिल, गोबरका रस, निसोत, कनेरकी छाल,
सम् ।
आकका दूध और बछनाग २-२ तोले लेकर तैलेन युक्तमुषितं सप्ताहं भाजने ताम्र॥ कूटने योग्य चीज़ोंको कूट लें । तेनालिप्तं सिध्मं सप्ताहाद्धर्मसेविनोऽपैति । २०८ तोले ( २॥ सेर ८ तोले ) सरसों के मासान्नवं किलासं स्नानेन विना विशुद्धस्य ॥ तेलमें उपरोक्त कल्क और १० सेर ३२ तोले
१ सेर तिलके तेलमें २-२ तोले काली गोमूत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब मूत्र मिरच, तेजपात, कूठ, मनसिल और कसीसका
जल जाए तो तेलको छान लें। चूर्ण मिलाकर, तांबेके बरतनमें भरकर (धूपमें ) | इस तेल की मालिशसे कठिन चर्मदल, मण्डल, रख दें । सात दिन पश्चात् सबको अच्छी तरह सिध्म, विचर्चिका, किलास कुष्ठ, और विसर्प नष्ट घोटकर बोतलमें भर कर सुरक्षित रवखें । होता है। __इसे मल कर रोगीको थोड़ी देर धूपमें बैठना |
। (५२८६) मरिचाद्यं तैलम् (१). चाहिये।
(ग. नि. । तैला.; शा. सं. । म. खं. अ. ९; ___ इसकी १ सप्ताहकी मालिशसे सिध्म नष्ट हो
च. द. । कुष्ठा.; धन्व. । कुष्ठा. जाता है। यदि १ मास तह नित्य इसकी मालिश की जाय और स्नान न किया जाय तो नवीन
. मा.; भै. र.; व. से. । कुष्ठा.) किलासकुष्ठ नष्ट हो जाता है।
मरिचालशिलाब्दापयोऽश्वारजटात्रित् । (५२८५) मरिचादितैलम् (२)
शकद्रसविशालारुकूनिशायुग्दारुचन्दनैः ।। ( यो. चि. । अ. ६) कटुतैलात् पचेत् प्रस्थं द्वयाविषपलान्वितैः । मरिचचन्दनदारुनिशाद्वयं
सगोमूत्रस्तदभ्यङ्गाद् दद्रुश्वित्र विनाशनम् । ___ जलजमेघशिलासशकद्रसैः। सर्वेष्वपि च कुष्ठेषु तैलपेतन् प्रशस्यते ॥ तृतश्चाश्वहराकंपयोविषैः
कल्क-काली मिर्च, हरताल, मनसिल, नागसुरभिमूत्रयुतं विपचेद्भिषक् ॥ रमोथा, आकका दूध, कनेरको जड़, निसोत, कटुकतैलमिदं मरिचादिकं
गोबरका रस, इन्द्रायण, कूठ, :हल्दी, दारु हल्दी, कठिनचर्मदलारसकापहम् । देवदारु तथा सफेद चन्दन २॥-२॥ तोले और बहुलमण्डलसिध्मविचर्चिका विष ५ तोले लेकर पीसने योग्य चीज़ोंका चूर्ण
प्रचुरकुष्ठकिलासविसर्पिजित् ॥ । करलें ।
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९८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि २ सेर सरसोके तेलमें ८ सेर गोमूत्र और इसकी मालिशसे भयंकर 'दारुणक' रोग भी उपरोक्त कल्क मिलाकर मन्दा ग्निपर पकावें । जब मूत्र कुछ दिनोंमें ही नष्ट हो जाता है। जल जाए तो तेलको छान लें।
(५२८८) मरिचाचं तैलम् (वृहत्) (३) इसकी मालिशसे दाद और श्वेत कुष्ठादिका
(च. द. । कुष्ठा.; यो. चि. । अ. ६; व. से.; नाश होता है। नोट-कुछ ग्रन्थोंमें कल्क द्रव्योमें जटामांसी
#. र.; वृ. मा. । कुष्ठ.; भा. प्र.। अधिक लिखी है तथा कल्ककी समस्त चीजोंका वातरक्ता.; र. चि. म. | स्त. ३.) परिमाण आधा और गोमूत्र तैलसे दूना लिखा है मरिचं त्रिफला' दन्ती क्षीरमार्क शकुद्रसैः। एवं लोहपात्र या मृत्पात्रमें पकानेका आदेश है और देवदारु हरिद्रे द्वे मांसी कुष्ठं सचन्दनम् ॥ इस तेलके गुण इस प्रकार लिखे हैं:
विशाला करवीरं च हरितालं मनाशिला। तैलेनानेन नश्यन्ति रोगा देहे शरीरिणाम् ॥ चित्रकोलागली लाक्षा२ विडङ्गं चक्रमर्दकम् ॥ पामा विचर्चिका चैव दद्रुविस्फोटकानि च। शिरीषकुटजो निम्बं सप्तपर्णस्नुहामृताः। अभ्यङ्गेन प्रणश्यन्ति श्यामलत्वं प्रजायते ॥
शम्पाको नक्तमालश्च खदिरं पिप्पली वचा ॥ प्रच्छिन्नान्यपि श्वित्राणि तैलेनानेन म्रक्षयेत् । ज्योतिष्मती च पलिका विषं च द्विपलं नयेत। चिरोत्थमपि यच्छुित्रं सवर्ण म्रक्षणाद्भवेत् ॥ आढकं कटुतैलस्य गोमूत्रं च चतुर्गुणम् ॥ ___ यह तेल पामा, विचर्चिका, दाद, विस्फोटक मृत्पात्रे लोहपात्रे वा शनद्वह्निना पचेत् । आदिको नष्ट करता है और इसकी मालिशसे पक्त्वा तैलवरं खेतत् कर्षयेत्कौष्ठिकं व्रणम् ॥ पुराना श्वेतकुष्ठ भी नष्ठ होकर त्वचाका रंग पूर्ववत् पामा विचर्चिकाकण्डू ददुविस्फोटकानि च । हो जाता है।
वलितं पलितं छायां नीली व्यङ्गत्वमेव च ॥ (५२८७) मरिचाद्यं तैलम् (२) अभ्यङ्गेन प्रणश्यन्ति सौकुमार्य च जायते । (रा. मा. । शिरोरो.)
प्रथमे वयसि स्त्रीणां नस्यमस्य तु दीयते ॥ भागेन युक्तं मरिचस्य यत्स्यात्काश्मीरजेन परामपि जरां प्राप्य न स्तना यान्ति नम्रताम् ।
द्विगुणेन तैलम् । बलिवर्दस्तुरङ्गो वा गजो वा वायुपीडितः॥ अभ्यञ्जनात्तद्विनिहन्ति पुंसामल्पैदिनैर्दारुणकं त्रिभिरभ्यअनैर्बादं भवेन्मारुतविक्रमः ॥
सुघोरम् ॥
कल्क-काली मिरच, हर्र, बहेड़ा, आमला ७२ तोले तिलके तेलमें ३ सेर पानी और
(पाठान्तरके अनुसार त्रिफलाके स्थान में निसोत), ३ तोले मिर्चका चूर्ण तथा ६ तोले केसर मिलाकर
१ 'त्रिवृता' इति पाठान्तरम् । २ मुस्तमिति पामन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाए तो
ठान्तरम् । ३ 'स्नुही च कनकामृते' इति पाठान्तरम् । तेलको छान लें।
| ४ बाकुची इति पाठान्तरम् ।
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तैलप्रकरणम् ]
दन्तीमूल, आकका दूध, गोबरका रस, देवदारु, हल्दी, दारु हल्दी, जटामांसी, कूठ, सफेद चन्दन, इन्द्रकी जड़, कनेरकी जड़, हरताल, मनसिल, चीतामूल, लाङ्गली (कलिहारी), लाख (पाठान्तर के अनुसार मोथा) बायबिडंग, पंवाड़, सिरसकी छाल, कुड़ेकी छाल, नीमकी छाल, सप्तपर्णकी छाल (पाठान्तरके अनुसार धतूरा), स्नुही (सेंड - थोहर), गिलोय, अमलतास, करञ्जकी छाल, खैरसार, पीपल, (पाठा - न्तर के अनुसार बाबची), बच और मालकंगनी ५-५ तोले तथा बछनाग १० तोले ले कर चूर्ण करने योग्य चीजोंका चूर्ण कर लें ।
चतुर्थी भागः
८ सेर सरसों के तेल में ३२ सेर गोमूत्र और उपरोक्त कल्क मिला कर मट्टी या लोहेके पात्र में मन्दाग्नि पर पकायें। जब मूत्र जल जाय तो तेलको छान लें।
इस तेल कुण, पामा, विचर्चिका, कण्डू (खाज), दाद, विस्फोटक, वली (झुर्रियां), पलित ( बालोंका सफेद होना ), छाया, नीली और व्यङ्गादि नष्ट होकर त्वचा कोमल हो जाती है।
1
यदि स्त्रीको किशोरावस्था में इसकी नस्य दी जाये तो वृद्धावस्था में भी उसके स्तन शिथिल नहीं होते । यह तेल बैल, घोड़े और हाथी के वातजनित रोगोंको भी नष्ट कर देता है ।
नोट- १. चिं. म. में बछनागका अभाव है तथा २० पल घृत एवं १ आढक कटु तैल को एकत्र पाक
करनेका विधान है. एवं इस योगका नाम भी * मरि
चादि घृत' लिखा है । इसके गुणोंका वर्णन भी इस प्रकार किया है । :
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९९
श्वित्रे लिप्त्वा विशेषेण घर्मे स्थेयं निरन्तरम् ॥ माषान्नं भोजनं प्रोक्तं शाकं च कुष्ठनाशनम् । ददुमण्डलनाशाय श्वेतकुष्ठाय वा पुनः ॥ तिलतैलं कुलत्थांश्च चुक्रशाकं च भोजने । मेथिकायाः परं शाकं हितमुक्तं हि कुष्ठिने । सार्षपं भुज्यते शार्क तथा वास्तुकजं शुभम् । धात्रीफलरसं शाके योजनीयं हितं च तत् ॥ ब्रह्मचर्यं सदा कुर्यान्मन आनन्दसंयुतम् । घृत महामरीचाख्यं सर्वत्वग्दोषनाशनम् ॥
अर्थात् श्वेत कुष्ठ पर इसकी मालिश करके रोगीको धूप में बिठलाना चाहिये। भोजन में उड़दकी दाल और चावल तथा कुष्ठ नाशक शाक प्रयुक्त करने चाहियें ।
दाद, मण्डलकुष्ठ तथा श्वेत कुष्ठ को नष्ट करनेके लिये इस घृतको सेवन करते हुवे निम्न लिखित पदार्थ खाने चाहियें-
तिलका तेल, कुलथी, चूकेका शाक, मेथी, ( यह विशेष उपयोगी है । ) सरसोंका शाक, बथुवेका शाक और आमलेका रस ।
कुष्ठ रोग में मनको प्रसन्न रखना और ब्रह्मचर्य पालन करना चाहिये ।
(५२८९) महाऽजमोदाद्यं तैलम् ( व. से. । गण्डमाला. ) अजमोदा स सिन्दूरं श्री वासं रजनीद्वयम् । क्षारद्वयमपामार्गे हरितालं मनःशिला ॥ आर्द्रकाङगुरु वा शुण्ठी जालिनी सेन्द्रवारुणी । सर्वे द्रव्याः समानाः स्युर्भागाश्चार्द्ध पलो
न्मिताः ॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ मकारादि छागेनाष्ट गुणेनैव मूत्रेण मृदुवह्निना। कल्कैरर्द्धपलैरेतैः शुण्ठीमरिचसैन्धवैः । कटुतैलं पचेदेभिः स्नुह्यर्क पयवा सह॥ पुनर्नवाकर्कटकशेलुत्वपिप्पलीयुगैः॥ उत्पाटयमानामपची नस्याद्विपर्यये नृणाम् । तत्साधुसिद्धं विज्ञाय शुभे पात्रे निधापयेत् । उत्पन्नामामपकाञ्च नस्याभ्यङ्गेन नाशयेत् ॥ वातश्लेष्मकृतं सर्वमामवातं भगन्दरम् ॥ विशीणकुथितात्यर्थ दुर्गन्धा पूयवाहिनी। सन्निपातभवं रोगं शोथमाशु विनाशयेत् । चिरजाऽसाध्यकल्पापि तैलेनानेन साध्यते ॥ ये केचिद् व्याधयः सन्ति श्लैष्मिकाः सान्नि. युक्ताहारविहारेण नस्यदानेन चैव हि ।।
पातिकाः॥ रोहिता क्षिप्रमेवं हि सप्तरात्रान संशयः ॥ तान् सर्वान्नाशयत्याशु मूर्यस्तम इवोदितः ॥
कल्क-अजमोद, सिन्दूर, श्रीवास (धूप द्रव पदार्थ-धतूरेका स्वरस २ सेर, पुनसरल ), हल्दा, दारु हल्दी, सुहागा, सज्जीखार, नवा ( बिसखपरे ) का स्वरस २ सेर, सम्भालुका चिरचिटेका खार, हरताल, मनसिल, अदरक, अगर स्वरस २ सेर, ( २ सेर दशमूलको ८ सेर पानीमें सोंठ, कड़वी तोरी और इन्द्रायनकी जड़ २॥२॥
पकाकर २ सेर शेष रहा हुवा ) दशमूल का क्वाथ तोले लेकर सबको पीस लें।
२ सेर, फरहदकी छालका क्वाथ २ सेर और बर४ सेर सरसोंके तेलमें उपरोक्त कल्क, ३२
नेकी छालका क्वाथ २ सेर । सेर बकरीका मूत्र, ४ सेर थोहर (सेंड) का दूध
कल्क-सोंट, काली मिर्च, सेंधा नमक, पुन और ४ सेर आकका दूध मिलाकर मन्दाग्निपर
मया (बिसखपरा), काकड़ासिंगी, लिहसौड़ेकी छाल, पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाए तो तैलको
पीपल और गजपीपल २॥-२॥ तोले लेकर एकत्र छान लें ।
पीस लें। सात दिन तक इसकी नस्य लेने और मालिश |
विधि-२ सेर तिलके तेलमें उपरोक्त द्रव करने तथा पथ्य पालन करनेसे नवीन, कच्ची, पक्की,
| पदार्थ तथा कल्क मिलोकर मन्दाग्नि पर पकावें । फूटी हुई, दुर्गन्धित स्राब वाली, पुरानी और असाध्य अपची ( गण्डमाला भेद ) भी अवश्य नष्ट
जब जलांश जल जाए तो तेलको छान लें। हो जाती है।
। गुण-यह तेल वातकफज, सन्निपातज और
| समस्त कफज रोगोंमें हितकारी है । आमवात, भग(५२९०) महाकनकतैलम्
न्दर और शोथको नष्ट करता है। (भै. र.। शिरो.) कनकस्य रसप्रस्थं प्रस्थं वर्षाभुवस्तथा ।
(५२९१) महाकल्याणकतैलम् निर्गुण्डी स्वरसप्रस्थं दशमूलरसस्य च ॥
(व. से. । वातव्य.) पारिभद्ररसप्रस्थं प्रस्थं वरुणकस्य च ।
बलाश्वगन्धामरदारास्ना तैलपस्थं समादाय भिषग्यत्नाद्विपाचयेत् ॥ स्थिरा वचा नागवला सलोहम् ।
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तैलप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
आरुष्करं चन्दनपुष्कराख्यं
काकोली, मेदा, मुलैठी, विदारीकन्द, चीता, गूगल, नतं गुडूची लवणोत्तमं च ॥ | जीरा, मुनक्का, अगर, सोंठ और धनिया २॥-२॥ काकोलिमेदे मधुकं विदारी तोले लेकर सबको एकत्र कूट लें।
सचित्रकं गुग्गुलुजीरकञ्च । ___ कषाय-उपरोक्त ( कल्कवाली ) समस्त द्राक्षाऽगुरु गरधान्यकञ्च
ओषधियां २०-२० तोले लेकर सबको ३२ सेर एतानि सर्वाणि समानि कृत्य ॥ पानीमें पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रहे तो कल्कैः कपायैर्विधिना प्रयुक्तै- छान लें। स्तैलं पचेत्तोयचतुर्गुणश्च ।
अन्य द्रव पदार्थ-पानी ३२ सेर, आरनाल अम्लारणालं दधिदुग्धयुक्तं
८ सेर, दही ८ सेर और दूध ८ सेर । दत्त्वा समांशं विधिवद्विधिज्ञः॥
विधि-८ सेर तिलके तेलमें उपरोक्त कल्क, तन्नावनाभ्यअननस्यपान
क्वाथ और अन्य द्रव पदार्थ मिलाकर मन्दाग्नि पर निहन्ति घोरानचिरेण रोगान् ।
पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाए तो तेलको कल्याणकं नाम महच्च तैलं
छान लें। स्तम्भं जयेत्कार्मुकनामधेयम् ।।
गुण-इसे नस्य, अभ्यञ्जन, पान और नावन दण्डापतानादितवेपमानाः सुपिण्डिताः पिण्डितकुब्जखाः।
द्वारा प्रयुक्त करनेसे धनुःस्तम्भ, दण्डापतानक, पुनर्युवानोऽतिमनोऽभिरामा
अर्दित, कम्प, कुब्जता और खाता आदि वातज भवन्ति ते तैलवरेण सर्वे ॥
रोग नष्ट होते हैं । यह तेल हाथी और घोड़ोंके
रोगोंको भी नष्ट कर देता है। इसके प्रभावसे अश्वोऽपि भग्नः सकदेव दन्तीभग्नो भवेन्मारुतविक्रमश्च ।
वन्ध्या स्त्रीको भी सुन्दर, दीर्घायु और सर्व-गुण
सम्पन्न पुत्रकी प्राप्ति हो सकती है। वन्ध्यापि पुत्रं लभते वराभं । दीर्घायुषं सर्वगुणैरुपेतम् ॥
(५२९२) महाकषायतैलम् अप्सु प्रवाताहतचञ्चलोमि
__(ग. नि । तैला. २) महोदधिर्लङ्घयतीह वेलाम् । | उदुम्बरो वटश्चैव प्लक्षः पिप्पल एव च । सवातजा एव हि तैलराज
मधूक आम्रः सर्नश्च जम्बूद्वयमथार्जुनः ॥ रोगा न वै लङ्घयितुं समर्थाः ॥ कम्पिल्लकः पियालश्च कदम्बस्तिन्दुकस्तथा । कल्क-खरैटी, असगन्ध, देवदारु, रास्ना, | पलाशो रोधसम्मिश्रं बदरं पद्मकेसरम् ।। शालपणी, बच, नागबला (गंगेरन), अगर, भिलावा, शिरीषो बीजकश्चैव तथा रक्तं च चन्दनम् । सफेद चन्दन, पोखरमूल, तगर, गिलोय, सेंधा, । अमीषां क्वाथकल्काभ्यां तैलं मन्दाग्निसाधितम्॥
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१०२
[मका दि
नाना महाकषायं तु क्षिप्रमभ्यञ्जनाद्धरेत् । कुष्ठमे गजाबीजं लाङ्गलीगणिकारिका । aring देहिनामेतचिरकालभवानपि ॥
जातीपत्रं च दाव च हरितालं मनःशिला || कलिङ्गातिलपत्रं च अर्कक्षीरं च गुग्गुलुः । गुडत्वङ्मरिचं चैव कुङ्कुमं ग्रन्थिपर्णकम् ॥ सर्जपर्णाशखदिरविडङ्गं पिप्पलीवचाम् । घनरेण्वमृतायष्टिकेशरं ध्यामकं विषम् ॥ विश्वकटूफलमञ्जिष्ठावोलस्तुम्बीफलं तथा । स्नुहीसम्पाकयोः पत्र वागुजीबीजमांसिके ॥ एलाज्योतिष्मतीमूलं शिरीषो गोमयाद्रसः । चन्दने कुष्ठनिर्गुण्डी विशाला मल्लिकाद्वयम् ॥ वासाश्वगन्धा 'ब्राह्मी च श्रयाहं चम्पककुड्मलम् । एतैः कल्कैः पचेत्तैलं तृणकस्वरसद्रवम् ॥ सर्वत्वग्दोषहरणं महातृणकसञ्ज्ञितम् ॥
भारत-भ - भैषज्य रत्नाकरः
कलक - गूलरकी छाल, बड़की छाल, पिलरवनकी छाल, पीपलवृक्षकी छाल, महुवेकी छाल, आमकी छाल, चीड़ (सरल वृक्ष) का चूरा, छोटी और बड़ी जामनकी छाल, अर्जुनकी छाल, कमीला, पियाल (चिरौंजी ) वृक्षकी छाल, कदम्बकी छाल, तेन्दुकी छाल, पलाश (ढाक) की छाल, लोध, बेरीकी छाल, कमलकेसर, सिरसकी छाल, विजयसार और लाल चन्दन। प्रत्येक २-२ तोला लेकर सबको एकत्र कूट ले 1 काथ-उपरोक्त समस्त ओषधियां समान भाग मिश्रित ८ सेर ( प्रत्येक ३० ॥ तोले ) लेकर सबको अधकुटा करके ६४ सेर पानीमें पकावें । जब १६ सेर पानी शेष रहे तो छान लें।
"
कल्क - हल्दी, हर्र, बहेड़ा, आमला, देवदारु, कनेर की जड़, चीतामूल, सतौनेकी छाल, नीमकी छाल, करञ्जके बीज, सुगन्ध बाला, नखी, कूठ, पंवाड़ के बीज, कलियारी, छोटी अरनीकी छाल, चमेली के पत्ते, दारु हल्दी, हरताल, मन
गुण - यह तेल पुराने घावोंको भी शीघ्र ही सिल, इन्द्रजौ, तिलके पत्ते, आकका दूध, गूगल, भर देता है । दालचीनी, कालीमिर्च, केसर, गठिवन, राल, तुलसीके पत्ते, खैरकी छाल, बायबिड़ंग, पीपल, बच, नागरमोथा, पित्तपापड़ा, गिलोय, मुलैठी, नागकेसर, बछनाग
विधि - ४ सेर तिलके तेल में उपरोक्त कल्क तथा काथ मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें । जब काथ जल जाए तो तेलको छान लें।
|
(५२९३) महातृणकतैलम् (१)
( च. द. । कुष्ठा. ४९ )
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महाचन्दनाद्यं तैलम्
( र. र. )
भा. भै. र. भांग २. प्र. सं. १७९९ ( मीठा विष), ध्यामक (गन्धतृग), सोंठ, कायफल,
चन्दनाथं तैलम् " देखिये ।
हरिद्रात्रिफलादारुहयमारक चित्रकम् । सप्तच्छदश्च निम्बत्वकरओ वालकं नखी ॥
मजीठ, कड़वी तूम्बी, हीराबोल, थूहर ( सेंड) के पत्ते, अमलतास के पत्ते, बाबची, जटामांसी, छोटी इलायची, मालकंगनीकी जड़, सिरसकी छाल, गाय के गोबरका रस, सफेद चन्दन, लाल चन्दन,
१ बासाश्वकर्णीति पाठान्तरम् ।
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१०३
तैलप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः कूठ, सम्भालुके पत्ते, इन्द्रायनकी जड़, दो प्रकारकी । यह तेल अठारह प्रकारके कुष्ठोंको नष्ट चमेली ( मोगरा, मोतिया ), वासा, असगन्ध, करता है। ब्राह्मी, सरल निर्यास (धूप सरल ) और चम्पक महादशमूलतैलम् पुष्पको कलियां । सब समान भाग मिश्रित १ सेर भा. भै. र. भाग ३ में प्रयोग संख्या ३०८४ ( प्रत्येक १ तोला २॥ माशे ) लेकर सबको | " दशमूलतैलम् " नं. २ देखिये । कूट लें।
__ महानारायणतैलम् क्याथ-१६ सेर सुगन्धतृणको १२८ सेर भा. भै. र. भाग ३ में "नारायणतैलम् (महा)" पानीमें पका कर ३२ सेर शेष रहने पर छान लें। देखिये ।
८ सेर तेल में उपरोक्त कल्क तथा काथ (५२९५) महानीलतलम् (१) मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाए
(भै. र.; धन्व.; च. द.। तो तेलको छान लें।
क्षुद्र; ग. नि. । तैला. २) यह तेल समस्त त्वरोगोंको नष्ट करता है। आदित्यवल्ल्या मूलानि कृष्णशैरीयकस्य च । (५२९४) महातणकतैलम् (२)
| सुरसस्य च पत्राणि फलं कृष्णशणस्य च ॥
मार्कवः काकमाची च मधुकं देवदारु च । (वृ. मा. । कुष्ठाधिकार)
पृथग्दशपलांशानि पिप्पल्यस्त्रिफलाञ्जनम् ।। चतुर्गुणे तृणरसे कटुतैलं विपाचयेत् । प्रपौण्डरीकं मञ्जिष्ठा लोधं कृष्णागुरूत्पलम् । हरिद्राकुष्ठमञ्जिष्ठाशम्पाकसर्पपायुतैः ॥ आम्रास्थि कर्दमः कृष्णा मृणाली रक्तचन्दनम्।। कासमारिष्टपत्रैश्चक्रमर्दैः समैभिषक् । नीली भल्लातकास्थीनि काशीशं मदयन्तिका । अष्टादशानां कुष्ठानां तैलमेतद्विनाशनम् ॥ सोमराज्यशनं शस्त्रं कृष्णौ पिण्डीतचित्रकौ ॥
काथ-सुगन्ध तृण ४ सेर । पाकार्य जल ३२ | पुष्पाण्यर्जुनकाश्मोराम्र जम्बूफलानि च । सेर, शेष काथ ८ सेर ।
| पृथक पञ्चपल गैः सुपिष्टैराढकं पचेत् ॥
विभीतकस्य तैलस्य धात्रीरसचतुर्गुणम् । ___ कल्क-हल्दी, कूठ, मजीठ, अमलतासके पत्ते,
कुर्यादादित्यपाकं वा यावच्छुष्को भवेद्रसः ॥ सरसों, कसौंदीके पत्ते, नीमके पत्ते और पवांडके
लौहपात्रे ततः पूतं संशुद्धमुपयोजयेत् । बीज सब समान भाग मिश्रित २० तोले (प्रत्येक २॥ पाने नस्तक्रियायाञ्च शिरोऽभ्यङ्गे तथैव च ॥ तोले ) लेकर सबको पीस लें।।
एतच्चक्षुष्यमायुष्यं शिरसः सर्वरोगनुत् । सरसोंक २ सेर तेलमें उपरोक्त काथ तथा महानीलमिति ख्यातं पलितन्त्रमनुत्तमम् ॥ कल्क मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब काथ जल
१ सोमराज्यसनात् पुष्पमिति पाठान्तरम् । जाए तो तेलको छान लें।
२ "श्यामा" इति पाठान्तरम् ।
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
-
कलक-हुलहुलकी जड़, पियाबसेकी जड़, तुलसीके पत्ते, काले सनके फल, भांगरा, मकोय, मुलैठी और देवदारु ५०-५० तोले । पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, सुरमा, पुण्डरिया, मजीठ, लोध, अगर, नीलोफर (नीलकमल), आमकी गुठली, काली कीचड़ ( कमलके नीचेकी मिट्टी ), मृणाल (कमलनाल), लाल चन्दन, नीलका पंचांग, भिलावेकी मींगी, कसीस, मोतियाका फूल, बाबची, असना वृक्षकी छाल ( पाठभेदके अनुसार पुष्प ), लोह चूर्ण, छोटे मैनफल के वृक्षकी छाल, चित्रक मूल, अर्जुनके फूल, खम्भारीके फूल, कच्चा आम (पाठान्तर के अनुसार निसोत) और कच्ची जामन । प्रत्येक ५-५ पल ( २५-२५ तोले ) लेकर सबको एकत्र पीस लें ।
८ सेर बहेड़े के तेल में ३२ सेर आमलेका रस और उपरोक्n as fमलाकर लेith पात्रमें
भरकर धूप में रख दें अथवा मन्दाग्निपर पकायें । जब पानी शुष्क हो जाय तो तेलको छान लें I
इसे पीने, सिर पर मलने और इसकी नस्य लेनेसे समस्त शिरो रोग नष्ट होते हैं । यह तेल आंखों के लिये हितकारी और उत्तम पलितनाशक है। (५२९६) महानीलतैलम् (२)
( र. र. स. । अ. ३ ) वट परोह पिण्डोतमूलत्व कृष्ण सैर्यकैः । केतकीस्तनभृंगायः शकल त्रिफलार्जुनैः t: 1) पृथग्दशपलैः सार्द्धं चतुद्रेणेिष्वपां पचेत् । अष्टभागावशिष्टेऽस्मिन्भृंगस्वरसपेषितैः ॥
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[ मकारादि
त्रिफलाना ल्ययश्चूर्णैः पृथग्विपलिकैर्युतम् । तैलाढकं समक्षीरं पक्त्वामृतरसान्वितम् ॥ महानीलं सुभाण्डस्थं मण्डलं धान्यमध्यम् । अभ्यंगविधियोगेन केशानां रंजनं परम् ॥
ash अंकुर, मेंडल की जड़ की छाल, पियाबांसा, केतकी की कड़ी, मंगरा, लोहवूर्ग, हर्र, बहेड़ा, आमला और अर्जुनकी छाल ५०-५० तोले लेकर सबको अधकुटा करके १२८ सेर पानी में पकावें । जब १६ सेर पानी शेष रह जाय तो छान लें। तत्पश्चात् १० - १० तोळे हर्र, बहेड़ा, आमला, नीलके पंचांग और लोहके चूर्ण को भंगरे के रस में घोटकर ८ सेर तेलमें मिला दें और उसमें उपरोक्त क्याथ ८ सेर दूब तथा ८ सेर आमलेका रस मिलाकर पुनः पकावें । जब जलांश शुष्क होजाय तो तेलको ( बिना छाने हो ) बोतल आदिमें भरकर और उसका मुख अच्छी तरह बन्द करके अनाज के ढेर में दबा दें । एवं ४० दिन पश्चात् निकालकर छान लें।
इसे सफेद बालोंपर लगाने से वे काले हो जाते हैं ।
(५२९७) महापद्मकं तैलम् (१) (ग. नि. । तैला. २ ) दर्भ समूलानि चन्दनं मधुकं बला । फेनिलापद्मकोशीरमञ्जिष्ठा कमलोत्पलैः ||
शुकं च विभागाः स्युः पृथक पञ्चपलोन्मिताः जलद्रोणे विपक्तव्यमभागावशेषितम् ॥ taarat मेदां रो भल्लातकं तथा । कालीयकं प्रियङ्गु च दद्यात्केशरमेव च ॥
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तैलप्रकरणम् ]
प्रपौण्डरीकं मधुकं पद्मकं पाकेशरम् । सुरभिं कुङ्कुमं चैत्र मञ्जिष्ठां मदयन्तिकम् ॥ मांसीं पत्रं च तुल्यांशं द्विगुणं कुङ्कुमं भवेत् । चतुर्गुणा तु मञ्जिष्ठा सौवीरं तैलसम्मितम् ॥ तैलमस्थं पचेदेभिः कषायेणाथ पेषितैः । एतद्भ्यञ्जनं तैलम् विवमज्वरनाशनम् ॥ महापद्ममिदं ख्यात्प्रेततैलं महागुणम् । वर्णप्रसादजननं सौकुमार्यविवर्धनम् ॥ पानाभ्यञ्जनवस्तौ च नस्यकर्मणि च स्मृतम् । वातपित्तभवं क्षिप्रं ज्वरमेतन्नियच्छति ॥
चतुर्थो भागः
क्वाथ - दाबकी जड़, बेतकी जड़, लाल चन्दन, मुलैठी, खरैटी, बाचची, पद्माक, खस, मजीठ, कमल, नीलोत्पल और केसू के फूल २५२५ तोड़े लेकर सबको अधकुटा करके ३२ सेर पानी में पकावें । जब ४ सेर पानी शेष रह जाय सो छान 1
"
, भिलावा,
कल्क-जीवक, ऋषभक, मेदा, लोभ, अगर, फूलप्रियङ्गु, नागकेसर, पुण्डरिया, मुलैठी, पद्मा, कमलकेसर, गूगल, मोतिया, जटामांसी और तेजपात प्रत्येक १-१ तोला, केसर ३ तोले और मजीठ ५ तोठे लेकर सबको एकत्र पीस लें। २ सेर तेलमें उपरोक्त क्वाथ और कल्क तथा २ सेर सौवीरक कांजी मिला कर मन्दाग्निपर पकायें | जब जलांश शुक हो जाय तो तेलको छान लें ।
इस तेल की मालिश से विषमज्वर और बातपित्तज - ज्वर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है तथा चेहरे का रंग निखरता और कोमलता की वृद्धि होती है । इसे पान, अभ्यंग और बस्ति द्वारा प्रयुक्त किया जा सकता है |
૧૪
66
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महापद्मकं तैलम् (२)
( भा. प्र.; ग. नि. । तैला. २ )
भा. भै. र. भाग ३ प्र. सं. ४११६
पद्मक तैलम् (महा) " देखिये ।
(५२९८) महा पिण्डतैलम् ( भै. र. । वातरक्ता. )
१०५
अमृतायाः पलशतं सोमराजीतुलां तथा । प्रसारण्याः पलशतं जलद्रोणे पृथक् पचेत् ॥ पादशेषं गृहीत्वा च तैलप्रस्थं पचेद्भिषक् । क्षीरं चतुर्गुणं दवा मन्दमन्देन वह्निना ॥ पिण्डशाल निर्यास सिन्धुवारफलत्रयम् । विजया ती दन्ती ककोलकपुनर्नवाः ॥ वह्निग्रन्थिककुष्ठानि निशे द्वे चन्दनद्वयम् । प्रतिपूतीक सिद्धार्थवाकुची चक्रपर्दकम् ॥ वासानिम्बपटोलानि वानरीवीजमेव च । अश्वाद्दा सरलं सर्वै प्रतिकर्षमितं पचेत् ॥ एततैलवरं हन्ति वातरक्तसंशयम् । कुष्ठमष्टादशविधं ग्रन्थिवातं सुदारुणम् ॥ कायग्रहञ्चामवातं भगन्दरगुदामयम् । ज्वरमष्टविधं हन्ति मर्दनान्नात्र संशयः ॥
क्वाथ (१) ६ । सेर गिलोयको ३२ सेर पानी में पकायें और ८ सेर शेष रहने पर छान लें।
(२) ६ | सेर बाबचीको ३२ सेर पानी में पकायें और ८ सेर शेष रहने पर छान लें ।
(३) ६ | सेर गन्धप्रसारिणीको ३२ सेर पानी में पकावें और ८ सेर शेष रहने पर छान है ।
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कल्क- शिलारस, राल, संभालु, हर्र, बहेड़ा, आमला, भांग, बड़ी कटेली, दन्तीमूल, कङ्कोल,
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१०६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
पुनर्नवा, चित्रकमूल, पीपलामूल, कूठ, हल्दी, दारु- तिलतैलं समादाय शनैर्मुद्वग्निना पचेत् । हल्दी, सफेद और लाल चन्दन, करंज, खदाशी | त्रिफलायेन पयसा सम्यग्दृष्टन्तु मानवम् । (जुन्दबेदस्तर ), सफेद सरसो, बाबची, पंवाड़ मोदकेनाभयाधेन कृत्वा संशोधनं ततः । (पंवाड़के बीज), बांसा, नीमकी छाल, पटोल, कौचके यथोक्तेन विधानेन भिषग्वश्यं प्रदापयेत् ।। बीज, असगन्ध और सरल वृक्ष (चोड़) का चूर्ण तिमिरे च सनक्तान्ध्ये शुक्रे काचे चतुर्विधे । प्रत्येक ११-१। तोला लेकर सबको एकत्र कूट आसन्नं यो न पश्येत यश्च दूरान्न पश्यति ॥ लें । २ सेर तैलमें उपरोक्त तीनों काथ, ८ सेर दूध | प्रकाशमायतं वा यो नष्टदृष्टिश्च मानवः ।
और कल्क मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें । जब जलांश | मन्ददृष्टिः स्तब्धष्टिरपोदृष्टिश्च योजयेत् ।। शुष्क हो जाय तो तेलको छान लें।
अतिरिक्ते प्रदिष्टे च रक्ते वाताश्रिते तथा । ____ यह तैल वातरक्तको अवश्य नष्ट कर देता वातपित्तप्रदुष्टेक्ष्णि पित्तश्लेष्मपदषिते ॥ है । इसके अतिरिक्त इसकी मालिशसे १८ प्रका- कंडूयते च स्रवति पित्तेनात्याकुलाक्षता । रके कुष्ठ, भयंकर ग्रन्थिवात, शरीरका जकड़ जाना, विद्युत्खद्योतवत्पश्येत्सूर्यचन्द्रसमप्रभाम् ॥ आमवात, भगन्दर, अर्श और आठों प्रकारके ज्वर सर्वदा चक्रता दृष्टिः सर्वनेत्रविकारनुत् ।। भी नष्ट हो जाते हैं।
कल्क-पीपल, मुलैठी, मुनक्का, बंसलोचन, महापिण्डतैलम् जीवक, ऋषभक, नीलोत्पल, कमल, गिलोय, हर्र, ( भा. प्र.। वातरक्ता) बहेड़ा, आमला, पृष्टपर्णी, क्षीरकाकोली, मजीठ, भा. भै. र. भाग ३ प्रयोग संख्या ४१२३ / कटेली, खरैटी, पुनर्नवा, सोया, बायबिडंग, गोखरू देखिये।
और शालपर्णी २॥२॥ तोले लेकर सबको एकत्र
पीस लें। (५२९९) महापिप्पल्याचं तैलम् ( भा. प्र.। वातरक्ता.)
द्रव-पदार्थ-त्रिफलाका क्वाथ २ सेर, भंगपिप्पलीमधुकं द्राक्षा शुभ्रा जीवकर्षभको ।
| रेका रस २ सेर, बासेका रस २ सेर, बिजय
सारका रस २ सेर तथा पहली बार की व्याही हुई सोत्पलं पुण्डरीकश्च मधुपर्णीफलत्रयम् ।।।
गायका दूध ४ सेर । धावनीक्षीरकाकोली मञ्जिष्ठाबृहतीवलाः । पुनर्नवा शताहा च विडङ्गं गोक्षुरस्थिरा ॥ | २ सेर तिलके तेलमें उपरोक्त कल्क और पतान्यदपलानीह लक्षणपिष्टानि पाचयेत। | द्रव पदार्थ मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें । जब जलांश त्रिफलाभृङ्गवासानां प्रपीडय प्रस्थसम्मितान ॥ शुष्क हो जाय तो तेलको छान लें। बोजसारो वरस्तस्य प्रस्थमेकं तु दापयेत् । रोगीको अभयादि मोदक देकर पहले उसका गृष्टीक्षीरस्य प्रस्थौ च द्वौ द्वौ तस्य प्रदापयेत् ।. कोठा शुद्ध करें और फिर यह तेल सेवन करावें ।
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तैलप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
-
इसके सेवनसे तिमिर, रतौंधा, फूला, काच, हदकी छाल, पाढलकी छाल, असगन्ध, केतकीकी आसन्न दृष्टि ( Short Sight ), दूर दृष्टि | जड़, गन्ध प्रसारणी, पृष्टपर्णी, शालपर्णी, बैंगन ( Long Sight ), मन्द दृष्टि, स्तन्ध दृष्टि और तथा काले और पीले फूलका बासा ५०-५० अधो दृष्टि इत्यादि नेत्ररोग नष्ट हो जाते हैं। तोले लेकर सबको अधकुटा करके ६४ सेर पानीमें
वातरक्त, वातपित्त और वातकफसे उत्पन्न पकावें । जब १६ सेर पानी शेष रहे तो समस्त नेत्र रोग, नेत्रोंकी खुजली, पानी बहना | छान लें। तथा पित्त दूषित दृष्टि आदि नेत्र रोगोंमें यह तेल
कल्क-जीवन्ती, काकोली, क्षीरकाकोली, उपयोगी है।
मेदा, महामेदा, जीवक, ऋषभक, मुद्गपर्णी, (५३००) महाबलातैलम् (१) माषपर्णी, मुलैठी, रास्ना, सेंधानमक, देवदारु, कूठ,
( व. से. । वातव्या.) जटामांसी, बच, गठीवन, मजीठ, सरल निर्यास बलानिमन्थमैरण्डबृहतीद्वयगोक्षुरम् ।
(धूप सरल), दालचीनी, तेजपात, अम्लवेत, छोटी बिल्वनागवलाभीरु स्योनाकं पारिभद्रकम् ॥
| इलायची, नागरमोथा और एलबालुक समान भाग पाटला साश्वगन्धा च केतकी च प्रसारणी ।
मिश्रित ४० तोले (प्रत्येक १॥ तोला ) लेकर
सबको एकत्र पीस लें। पृष्ठपर्णी स्थिरा चैव बृहती सहचरद्वयम् ॥ एषां दशपलान्भागान्वारिद्रोणद्वये पचेत ।
विधि-४ सेर तिल-तैल में उपरोक्त काथ, पादशेष परिस्राव्य तैलं प्रस्थद्वयं पचेत् ।। । | कल्क और ८-८ सेर दूध तथा शतावरीका रस कल्कानि जीवनीयानि रास्नासैन्धवदारु च। मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाए कुष्ठं मांसी वचाग्रन्थिपञ्जिष्ठासरलानि च ॥ | तो तेलको छान लें। त्वपत्रकं वराङ्गश्च एलामुस्तकवालुकम् ।।
यह तेल वातव्याधि, भयङ्कर वातरक्त, आमएतैः कलकैः सुपिष्टैश्च पाचयेन्मृदुनाग्निना ।।
दुनामिना ।।। वात, गृध्रसी और आढयवातादिमें उपयोगी है । क्षीरश्च द्विगुणं दद्याच्छतावा रसस्य च । एतत्तलवरं तेषां रोगाणां वातजन्मनाम् ॥
इसे रोगी को पिलाना तथा बस्ति, अभ्यङ्ग नाशयेद्वातरक्तश्च आमवातं सुदारुणम् ।
| और नस्य द्वारा प्रयुक्त करना चाहिये । गृध्रसीपीठसपेषु चाढयवाते सदा हितम् ॥
| महाबलातैलम् (२) पाने बस्ती तयाभ्यङ्गे नस्ये चैव प्रयोजयेत् ॥ ___ काथ-खरैटीकी जड़, अरनीकी जड़, अर
| (वृ. नि. र.; यो. त. । त. ४०; धन्व.; यो. र. ) ण्डमूल, छोटी और बड़ी कटेली, गोखरु, बेलछाल, भाग ३ में प्रयोग संख्या ४६८४ " बलानागवला (गंगरेन), शतावर, अरलु को छाल, फर- । तैलम् (४) ” देखिये ।
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१०८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि (५३०१) महाबलाद्यं तैलम् । दूरदेशे पलायन्ते बलातैलस्य दर्शनात् । ( हा. सं. । स्था. ३ अ. २३)
अपस्मारादिदोषांश्च तच दूरे नियच्छति ॥
वृद्धा युवानो भवन्ति कन्ध्या च लभते सुतम् । भागाश्चाष्टौ बलामूलं चत्वारो दशमूलकम् ।
तैलं महाबलाद्यं च महावातहरं स्मृतम् ।। काथश्चतुर्गुणे तोयेऽथवा द्रोणस्य संख्यया ।।
___ काथ-(१) खरैटी की जड़ ८ भाग (३२ तत्राढकं क्षिपेत क्षोरमाढकं मिश्रयेद्दधि ।।
सेर) लेकर अधकुटा करके २५६ सेर पानीमें आढकं माषकुल्माषयूपं पयुषितं क्षिपेत् ।।
| पकायें । जब ६४ सेर पानी शेष रह जाय तो तैलं तिलानां द्रोणं तु कटाहे पाचयेच्छनैः ।
छान लें। जीवन्ती जीवनीया च काकोल्यौ जीवकर्षभौ।।
(२) ४ भाग (१६ सेर) दशमूलको १२८ मेदे द्वे सरलं दारु शल्लकश्च कुचन्दनम् ।।
सेर पानीमें पकावें । जब ३२ सेर पानी शेष रह कालीयकं सर्जरसं मञ्जिष्ठा त्रिसुगन्धिकम् ।।
जाए तो छान लें। मांसी शैलेयकं कुष्ठं वचा कालानुसारिखा ।
(३) ४ सेर उड़दको कूटकर ३२ सेर शतावरी चाश्वगन्धा शतपुष्पा पुनर्नवा ॥
पानीमें पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रह जाए किण्वकं च सुरा मुस्ता तथा तालीसपत्रकम् ।
तो छान लें। कटुत्रयं बाल कौ च सर्व तत्रव मिश्रयेत् ॥ सिद्धं सर्वगुणं श्रेष्ठं कृत्वा मङ्गलबाचनम् ।
(४) ४ सेर कुलथीको ३२ सेर पानीमें सौवर्णे राजते कुम्भे वाथवा मृण्मयायसे ॥
| पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रहे तो छान लें । सुगुप्तं धारयित्वा तु पानाभ्यङ्गे निरूहके। कल्क-जीवन्ती, हर्र, काकोली, क्षीरकाबस्तौ वापि प्रयोक्तव्यं मनुष्यस्य यथावलम् ।। कोलो, जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, धूपवातादितेऽथवा भग्ने भिन्ने वापि प्रदापयेत् । सरल, देवदारु, शल्लकी (शिलारस), लाल चन्दन, या बन्ध्या च भवेन्नारी पुरुषश्वाल्परेतसः ॥ तगर, राल, मजीठ, दालचीनी, इलायची, तेजपात, क्षीणो वा दुर्बलो वापि तथा जीर्णज्वरातुरः। जटामांसी, भूरिछरीला, कूठ, बच, तगर, शतावर, आमवातातुराणां च तथा पक्षपकुश्चके ।। असगन्ध, सोया, पुनर्नवा ( विसखपरा), सुराबीज प्रतानके प्रयोक्तव्यं तथा शुष्के हनुग्रहे । । (किण्व), सुरा, नागरमोथा, तालीसपत्र, सोंठ, कर्णशूले चाक्षिशूले मन्यास्तम्भे च पार्श्वगे ॥ मिर्च, पीपल, तथा २ प्रकारकी सुगन्धबाला । सब सर्ववातविकाराणां हितं तैलं यथामृतम् । समान भाग--मिश्रित ४ सेर (प्रत्येक ८ तोले ) हन्ति श्वासं च कासं च गुल्माशौ ग्रहणीगदम् ॥ लेकर सबको एकत्र कूट लें । अष्टादशानि कुष्ठानि शीघ्रं वापि नियच्छति । विधि-३२ सेर तिलके तेलमें उपरोक्त चारों ग्रहभूतपिशाचाश्च डाकिनी शाकिनी तथा ॥ । काथ, कल्क, और ८-८ सेर दूध तथा दही मिला
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तैलप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
( भा. प्र.)
कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो जब भिलावे तेलके उपर तरने लगें तो तेलको छान तेलको छान लें।
लें । एवं इस तेलको पुनः थोड़ी देर तक मन्दाग्नि नोट-उड़द और कुलथीका काथ पहले पर पका कर अग्निसे नीचे उतार लें । जब तेल दिन बना कर रख लेना चाहिए और दूसरे दिन ठण्डा हो जाए तो उसे शीशो में भर कर सुरतेल पकाना चाहिये।
क्षित रक्खें । इसे पान, अभ्यंग और निरूहण बस्तिमें | यह तैल समस्त प्रकारके कुष्ठों को नष्ट प्रयुक्त करनेसे अर्दित और भग्नादि वातज रोग नष्ट | करता है। होते हैं । वन्ध्या स्त्री और क्षीगवीर्य पुरुषोंके नोट-भिलावों को सावधानीपूर्वक तोड़ना लिए यह तैल अत्यन्त हितकारी है।
और पकाना चाहिये । उनका तेल या धुवां आंखों ___ यह तैल जीर्णज्वर, आमवात, पक्षसंकोच, आदि पर न लगने पावे । प्रतानक, शरीरका सूख जाना, हनुग्रह, कर्णशूल,
महामरिचादितैलम् अक्षिशूल, मन्यास्तम्भ, पार्श्व शूल, श्वास, खांसी, गुल्म, अर्श, ग्रहणीदोष, १८ प्रकारके कुष्ठ,
मरिचायं तैलम् (वृहत्) देखिये। अपस्मार और अन्य समस्त वातज रोगांको नष्ट
(५३०३) महामार्तण्डतैलम् करता है।
( र. र. स. । उ. खं. अ. २०) इसके प्रभावसे भूत, पिशाच और
शाकं निम्बाङ्कोलवद्विराजवृक्षाक्षस्नुग्भवम् । डाकिनी, शाकिनी इत्यादि. दूर भाग जाते हैं एवं
गर्भशुष्कं शुभं खण्डं नारिकेलं प्रियालकम् ॥ वृद्ध पुरुष युवाके समान हो जाते हैं और वन्ध्या
वातारिचक्रमर्दस्य वीजं वाकुचि तथा।। स्त्रोको पुत्रकी प्राप्ति होती है।
समं पातालयन्त्रेण तैलं ग्राह्यं प्रयत्नतः ।। (५३०२) महाभल्लाततैलम् | प्रस्थौ द्रौ तिलतैलस्य कुष्ठचूणे पलद्वयम् ।
(र. र. स. । उ. खं. अ. २०) स्वर्णक्षीरीपलैकं च क्षिप्त्वा पक्त्वाऽवतारयेत् ॥ यत्राद्विखण्डितं कुर्याद्भल्लातशतपञ्चकम् ।। | पूर्वतैले चतुष्पस्थे तैलीभूते विनिःक्षिपेत् । क्षिप्त्वा पच्याच्छनैवह्नौ तैले द्वादशपालिके ॥ महामार्तण्डतैलं हि लेपान्कुष्ठं नियच्छति ॥ यावत्तरन्ति ते पक्त्वा तत्तैलं पाचयेत्पुनः। अतिकण्डूं कृमि पाकं स्फोटकानि च नाशयेत ॥ मधुपाके तु सम्प्राप्ते ह्यवतार्य तु तत्क्षणात् ॥ (१) सागोनके बीज, नीमकी निबौली, हिंगोसर्वकुष्ठं निहन्त्याशु महाभल्लातनैलकम् ॥ टके फल, भिलावेके फल, अमलतासके बीज,
__ ५०० भिलावों को टुकड़े टुकड़े करके १२० । बहेड़ेकी मींग और थोहर (सेंड) के सूखे हुवे तोले तिलके तेलमें डालकर मन्दाग्नि पर पकावें । टुकड़े तथा नारयल (गोला), चिरौंजी, अरण्डके
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भारत - भैषज्य - - रत्नाकरः
११०
छिले हुवे बीज, पवांड़ के बीज और बाबची समान भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर पाताल - यन्त्र से तेल निकालें ।
[ मकारादि
| मन्दश्रवणबाधिय्यै कर्णरोगातिपीन से । हृद्रोगं गृध्रसीञ्चैव आमवातं कटिग्रहम् ॥ जङ्घीरुपादपृष्ठेषु पार्श्वशूलमतीव च । अन्त्रवृद्धयण्डवृद्धिश्च वातरक्तं सुदारुणम् | विश्वाचीखखपङ्गर्वाशीतिं वातजान्हरेत् । बलीपलितखालित्यं केशानां पतनं परम् || बलमांसकरश्चैव शुक्रवृद्धिकरं परम् । अपत्यजननं श्रेष्ठं गर्भिणीनां परं हितम् ॥
८ सेर तेल नं. १ में ४ सेर तेल नं. २ हस्त्यश्वोष्ट्रा दिव्यायामैर्भग्नसन्धिप्रसाधनम् । मिलाकर सुरक्षित रक्खें । तैलमात्रोपयोगेन व्याधिर्निर्मूलतां नयेत् ॥
इसे लगानेसे कुष्ठ, खुजली, कृमि, पाक और सर्वातङ्क विनाशाय वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा । महामाषमिदं तैलं कृष्णात्रेयेण पूजितम् ॥
विस्फोटक आदिका नाश होता है ।
(२) ४ सेर तिलके तेलमें १६ सेर पानी तथा १० तोले कूठका चूर्ण और ५ तोले स्वर्णक्षीरी (सत्यानाशी ) का कल्क मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाए तो तेलको छान लें ।
(५३०४) महामाषतैलम्
( ब. से. । वातव्या. माषद्रोणं समादाय अश्वगन्धामसारिणी । द्विपञ्चमूल्यात्मगुप्ता बला गन्धर्वहस्तकः || एषां दशपलान्भागान्वारिद्रोणे चतुष्टये । कामेभिः प्रकुर्वीत चतुर्भागावशेषितम् ॥ यष्टावदारुकुष्ठैलारास्नामांसीबलावचाः । शताह्वा चात्मगुप्ता च चाश्वगन्धा च चन्दनम्॥ शठचुरुबुकवृक्षाम्लत्र्यूषणागुरुश्चिकम् । सिन्धूद्भवं विदारीच प्रसारिणी शतावरी ॥ वृद्धदारुका तिबला विडङ्गसरलानि च । कल्कैरेतैः पलैर्भागैस्तैलाढकसमायुतैः ॥ क्षीरतुल्यं समायुक्तं शनैर्मृद्वमिना पचेत् । पाने बस्तौ तथाऽभ्यङ्गे नस्ये भोज्ये च पूजितम् अर्दिते कर्णशुले च शिरोरोगे हनुग्रहे । मुखरोगेषु सर्वेषु मन्यास्तम्भेऽपबाहुके ||
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काथ - उड़द १६ सेर, असगन्ध, प्रसारणी, दशमूल, कौंच के बीज, बला (खरैटी) और अरण्ड - मूल ५०-५० तोले लेकर सबको एकत्र कूटकर १२८ सेर पानी में पकावें । जब ३२ सेर पानी शेष रहे तो छान ले I
कल्क - मुलैठी, देवदारु, कूठ, इलायची, रास्ना, जटामांसी, खरैटी, बच, सोया, कौंच के बीज, असगन्ध, सफेद चन्दन, कचूर, अरण्डमूल, तितड़ीक, सोंठ, मिर्च, पीपल, अगर, पुनर्नवा, सेंधा, विदारीकन्द, प्रसारणी, शतावर, विधारामूल, अतिबला (कंधी), बायबिडंग और धूप सरल, प्रत्येक ५ -५ तोले लेकर सबको एकत्र पीस लें ।
८ सेर तिलके तेलमें उपरोक्त काथ तथा कल्क और ८ सेर गायका दूध मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाए तो तेलको छान लें।
आवश्यकतानुसार इसे पिलाने, भोजनमें खिलाने और इसकी बस्ति तथा नस्य देने एवं
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तैलपकरणम् ]
चतुर्थों भागः
१११
मालिश करनेसे अर्दित, कर्णशूल, शिरो रोग, हनु- शुक्रक्षये कर्णनादे कर्णशुले च दारुणे। ग्रह, समस्त मुखरोग, मन्यास्तम्भ, अपबाहुक, मन्द | कलायखञ्जशमने भैषज्यमिदमादिशेत् ॥ श्रवण, वधिरता, कर्णरोग, पोनस, हृद्रोग, गृध्रसी, | दशमूलाढकं द्रोणे निःक्वाथ्य पादिको भवेत् । आमवात, कटिग्रह, जंघाशूल, उरुशूल, पादशूल, | क्वाथश्चतुर्गुणस्तैलान्माषक्वाथेऽप्ययं विधिः ।। पृष्टशूल, प्रवृद्धपार्वशूल, अन्त्रवृद्धि, अण्ड
क्वाथ (१) ४ सेर दशमूलको ३२ सेर वृद्धि, वातरक्त, विश्वाची, खञ्जवात, और पङ्गुता |
पानीमें पकायें जब ८ सेर जल शेष रहे तो आदि ८० प्रकारके वातरोग; बली, पलित, खालित्य (गंज) और बालोंका गिरना आदि रोग नष्ट
छान लें। होते तथा बल, मांस तथा शुक्रकी वृद्धि (२) ४ सेर उड़दों को कूट कर ३२ सेर होती है।
पानीमें पका जब ८ सेर जल शेष रहे तो यह तेल गर्भिणी स्त्रियोंके लिये हितकारी | छान लें। और सन्तान दाता है। व्यायामसे उत्पन्न हुई | कल्क-असगन्ध, कचूर, देवदारु, खरैटीकी सन्धिशिथिलता इससे शीघ्र ही दूर हो जाती है। जड़, रास्ना, प्रसारिणी, कूठ, फालसा, भरंगी,
(५३०५) महामाषतैलम् (२) बिदारीकन्द, क्षीर बिदारी, पुनर्नवा, बिजौ रेका फल,
(च. द. । वातव्या. २२) जीरा, हींग, सोया, शतावर, गोखरु, पीपलामूल, द्विपञ्चमूलीं निःक्याथ्य तैलाषोडशभिर्गुणैः। चीतामूल, जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, कामाषाढकं साधयित्वा तन्नि!ह चतुर्गुणम् ॥ कोली, क्षीरकाकोली, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, जीवन्ती, ग्राहयित्वा तु विपचेत्तैलप्रस्थं पयः समम् । मुलैठी और सेंधानमक । सब सपान भाग मिश्रित कल्कार्थ च समावाप्य भिषग्द्रव्याणि बुद्धिमान् ॥ आधा सेर (प्रत्येक १। तोला) लेकर सबको एकत्र अश्वगन्धां शठी दारु बलां रास्नां प्रसारणीम् । पीस लें। कुष्ठं परूषकं भाजी द्वे विदार्यों पुनर्नवाम् ॥ २ सेर तिलके तैलमें उपरोक्त दोनों क्वाथ, मातुलुङ्गफलाज्याज्यौ रामठं शतपुष्पिकाम् । २ सेर दूध और कल्क मिलाकर मन्दाग्नि पर शतावरीगोक्षुरकं पिप्पलीमूलचित्रकम् ॥
| पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान लें। जीवनीयगणं सर्व संहृत्यैव ससैन्धवम् ।। तत्साधुसिद्धं विज्ञाय मापतैलमिदं महत् ॥
। इसे बस्ति, अभ्यंग, पान और नस्य द्वारा बस्त्यभ्यञ्जनपानेषु नावने च प्रयोजयेत् ।
प्रयुक्त करना चाहिये। पक्षाघाते हनुस्तम्भ अर्दिते सापतन्त्रके ॥ गुण-यह तैल पक्षाघात, हनुस्तम्भ, अर्दित, अपबाहुकविश्वाच्योः खञ्जपङ्गुलयोरपि । | अपतन्त्रक, अपबाहुक, विश्वाची, खञ्जता, पंगुता, हनुमन्याग्रहे चैवमधिमन्थे च वातिके ॥ | मन्याग्रह, वातज अधिमन्थ, शुक्रक्षय, कर्णनाद,
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११२
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
[ मकारादि
भयंकर कर्णशूल और कलायखंज इत्यादि रोगों को मुरामांसी, गठिवन, चोरक, भूरिछरीला, एलवालुक, करता है ।
(५३०६) महासुगन्धतैलम्
सरकाष्ठ ( चीड़का बुरादा ), सप्तपर्ण ( सतौनेकी छाल), लाख, भुई आमला, लामज्जक (पीली खस), पद्माक, धायके फूल, पुण्डरिया और कचूर । प्रत्येक ५-५ माशे लेकर सबको एकत्र कूट 1
( ग.नि. । तैला.; व. से.; यो. र. । मेदरोगा .; वृ. यो. त. । त. १०४ )
चन्दनं कुङ्कुमोशोरं प्रियङ्गुत्रुटिरोचनाः । तुरुष्कागुरु कस्तूर्यः कर्पूरं जातिपत्रिका | trateङ्कोलपूगानां लवङ्गस्य फलानि च । नलिका नलदं कुष्ठं हरेणुस्तगरः पुत्रम् || नखं व्याघ्रनखं स्पृक्का बोलो दमनको मुरा 'स्थोणेयकं चोरकं च शैलेयं सैलवालुकम् ॥ सरल: सप्तपर्णश्च लाक्षा तामलकी तथा । अलामज्जकं पद्मकं च धातक्याः कुसुमानि च ॥ प्रपौण्डरीकं कर्चूरः समांशैः शाणमात्रकैः । महासुगन्धमित्येतत्प्रस्थं तैलस्य साधयेत् ॥ प्रस्वेदमलदौर्गन्ध्य कण्डू कुष्ठहरं परम् । अनेनाभ्यक्तगात्रः स्याद्वृद्धः सप्ततिकोऽपि वा । युवा भवति शुक्रादयः स्त्रीणां चात्यन्तवल्लभः । ( सुभगो दर्शनीयश्च गच्छेच्च प्रमदाशतम् ॥ वन्ध्यापि लभते गर्भे षण्ढोऽपि पुरुषायते । अपुत्रः पुत्रमाप्रोति जीवेच्च शरदां शतम् ।।
यङ्गु,
कल्क–सफेद चन्दन, केसर, खस, फूलप्रि, छोटी इलायची, गोलोचन, शिलारस, अगर, कस्तूरी, कपूर, जावित्री, जायफल, कंकोल, सुपारी, लौंग, नालीका शाक, जटामांसी, कठ, रेणुका, तगर, नागर मोथा, नख, नखी, स्पृक्का, बोल, दौना,
१, २, ३ कुछ ग्रन्थोंमें यह तीन पंक्तियां नहीं हैं तथा " त्रुटि" की जगह "सठी" पाठ है ।
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२ सेर तिल के तेलमें उपरोक्त कल्क और ८ सेर पानी मिलाकर मन्दाग्नि पर पकायें । जब पानी जल जाए तो तेलको छान लें 1
इस तेल की मालिशसे स्वेद, मल, शरीरकी दुर्गन्ध, खाज और कुष्ठ आदिका नाश तथा सौन्दर्य की वृद्धि होती है एवं सत्तर वर्षका वृद्ध भी युवा समान सुन्दर और वीर्यवान हो जाता है । वन्ध्या स्त्री इसके प्रभावसे गर्भ धारण करनेमें समर्थ हो जाती है और नपुंसक पुरुषमें पुरुषत्व आ जाता है तथा पुत्रहीन को दीर्घ जीवी पुत्रकी प्राप्ति होती है ।
(५३०७) महासुगन्धितैलम्
वृ. मा. धन्व. यो. र. र. र. । वाजीकरण ; यो. त. । त. ८०; वृ. यो. त. । त. १४७; नपुंसका. । त. २ ) कर्पूरागुरुचोचवोलनलिकालाक्षाशठीघातकीपुष्पैः सप्तदलैलवालु सरलाशैलेय मांसी पुरैः । एलाकुङ्कुमरोचनादमनक श्रीवासजातीफलैः कङ्कोलक्रमुकोजटामदमुरा कान्तालवङ्गामयैः ॥ तैलोशी रहरेणुकापलयजस्थौ णेयचण्डानखैजतीकोशकुलीरपद्मकनतैः स्पृक्कान्वितैः पालिकैः लाक्षायोजनवलिलो सलिले तैलं विपाच्याढकं तेनाभ्यज्य तनुं जरन्नपि भवेत्स्त्रीणां परं वल्लभः।
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तैलप्रकरणम् ] चतुर्थों भागः
११३ शुक्राढयोतिमाननल्पतनयःपण्डोऽपि रत्युत्स्को (५३०८) महासुगन्धिलक्ष्मीविलास वन्ध्या गर्भवती भवेदपि तथा वृद्धापि मूते
तैलम् सुतम् ।
(च. द ; धन्व.; र. र. वातव्या.) कण्डूस्वेदविचचिकामयहरं दौर्गन्ध्यकुष्ठापहमश्विभ्यां परिकीर्तितं बहुगुणं तैलं सुगन्धं महत्॥
जिङ्गीचोरकदेवदारुसरलं
___ व्याघ्रीवचाचेलककल्क-कपूर, अगर, दालचीनी, बोल,नालीको
त्वपत्रैः सह गन्धपत्रकशठीशाक, लाख, कचूर, धायके फूल, सतौना, एलया.
पथ्याक्षधात्रीधनः । लुक, काली तुलसी, भूरिछरीला, जटामांसी, गूगल,
एतैः शोधितसंस्कृतैः पलयुगेछोटी इलायची, केसर, गोलो चन, दौना, श्रीवास
त्याख्याता संख्यया (धूपसरल), जायफल, कंकोल, सुपारी, शतावर,
तेलप्रस्थमवस्थितैः स्थिरमतिः कस्तूरी, मुरामांसी, नागरमोथा, लौंग, कूठ, शिला
कल्कः पचेद्गान्धिकैः ॥ रस, खस, रेणुका, सफेद चन्दन, गठीवन, चीड़,
मांसीमुराद्मनचम्पकसुन्दरीत्वकनखी, जावित्री,काकड़ासिंगी, पद्माख, तगर और मालती के फूल ५--५ तोले ले कर सबको एकत्र
ग्रन्थ्यम्बुरुङ्मरुवकैपिलैः सपृक्कैः ।
श्रीवासकुन्दुरुनखीनलिकामिषीणां. पीस लें। __क्याथ-लाख, मजीठ और लोध; तीनों समान
प्रत्येकतः पलमुपायं पुनः पचेत्तु ।।
एलालवङ्गचलचन्दनजातिपूतिभाग मिश्रित १६ सेर लेकर सबको अधकुटा करके १२८ सेर पान में पका । जब ३२ सेर पानी
___ ककोलकागुरुलताघुसणैः पलाधैः ।
कस्तूरीकाक्षसहितामलदीप्तियुक्तैः रह जाय तो छान लें।
पक्त्वा तु मन्दशिखिनैव महासुगन्धम् ।। ८ सेर तेलमें उपरोक्त क्वाथ और कल्क मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय (पञ्चद्विकेन वार्धन मदात्कपरमिष्यते । तो तेलको छान लें।
कर्पूरमदयोरधं पत्रकल्कादिहेष्यते ॥ ___ इसकी मालिशसे वृद्ध पुरुष भी युवाके समान पकतेऽप्युष्ण एव सम्यक्पेषणवर्तितम् । कान्ति और वीर्यवान हो जाता है। तथा नपुंसक दीयते गन्धवृद्धयर्थ पत्रकल्कं तदच्यते ॥ पुरुषको कामोत्तेजना होने लगती है। ____ इसके प्रभावसे वन्ध्या स्त्री गर्भ धारण कर पागुक्तौ शुद्धिसंस्कारौ गन्धानामिह तैः पुनः। लेती है और वृद्धा भी पुत्रोत्पन्न कर सकती है। द्विगुणैलक्ष्मीविलासः स्यादयं तैलसत्तमः ॥ ____ इसके अतिरिक्त यह तैल खुजली, पसीना, पञ्चपत्राम्बुना चाधो द्वितीयो गन्धवारिणा । विचचिका, दुर्गन्धि और कुष्ठको भी नष्ट करता है। तृतीयोऽपि च तेनैव पाको वा धूपिताम्बुना ॥)
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
११४
तैलयुग्ममिदं तूर्ण विकारान् वातसम्भवान् । क्षपयेज्जनयेत् पुष्टि कान्ति मेधां धृतिं धियम् ॥
प्रथम पाक - मजीठ, चोरपुष्पी, देवदारु, सरलकाष्ठ ( चीड़का बुरादा ), नखी, बच, सुपारीके फूलकी छाल, तेजपात, गन्ध पत्र ( तुलसी - मरवे के पत्ते अथवा सुगन्धित पत्र विशेष, बंगाली 'पचापाता ' ) कचूर, हर्र, बहेड़ा, आमला और नागरमोथा । १० - १० तोले लेकर सबको एकत्र पीसलें | तत्पश्चात् २ सेर तिलके तेलमें यह कल्क और ८ र पञ्च पल्लव' काथ डाल कर मन्दाग्नि पर पकायें । जब पानी जल जाए तो तेलको छान लें ।
66
"
द्वितीय पाक - जटामांसी, मुरामांसी, दमना, चम्पाके फूल, फूलप्रियंगु, दालचीनी, गठीवन, सुगन्ध बाला, कूठ, मरवक ( तुल्सी भेद) और स्पृक्का । १०-१० तोले तथा धूप सरल, नखी, कुन्दरु, नलिका और सौंफ ५-५ तोले । समस्त ओषधियों को एक कूटकर उपरोक्त तेलमें मिला
१ पञ्चपल्लवक्वाथ. कपित्थानां बीजपूरकबिल्वयोः । गन्धकर्मणि सर्वत्र पत्राणि पञ्चपल्लवम् || आम, जामन, कैथ, बिजौरा और बेल । इन पांच वृक्षों के पत्तों के योगको पंचपल्लव कहते हैं । क्वाथ विधि.
पांचों वृक्षोके १-१ सेर पत्ते लेकर सबको अधकुटा करके ४० सेर पानी में पकावें । जब १० सेर पानी शेष रहे तो छान लें ।
[ मकारादि
कर उसमें ८ सेर "गन्धोदक २" डाल कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान लें।
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तृतीयपाक - छोटी इलायची, लौंग, शिलारस, सफेद चन्दन, जावित्री, खट्टाशी (जुन्द बेदस्तर), कंकोल, अगर, लताकस्तूरी तथा केशर २|| -२ ॥ तोले और कस्तूरी १| तोला एवं कपूर ६ माशे या ७॥ माशे लेकर सबको एकत्र पीस - कर उपरोक्त तेल में मिला कर उसमें ८ सेर “गन्धोदक" या धूपिताम्बु " डालकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाए तो तेलको छान लें ।
(6
( इस प्रयोग में 'कर्पूर', कस्तूरीका पंचद्विक ( ३ ) भाग अथवा आधा लेना चाहिये ।
कपूर और कस्तूरी का मान 'तैलकल्क में ' पत्रकल्क' की अपेक्षा आधा लिया जाता है ।
"
२ गन्धोदक.
गन्धोदकन्तु त्वक्पत्री पत्रकोशीरमुस्तकम् । प्रत्येकं बालकं चैव पलानि पञ्चविंशतिः ॥ कुष्ठार्द्धभागोऽत्र जल प्रस्थास्तु पञ्चविंशतिः । अर्धावशिष्टाः कर्त्तव्याः पाके गन्धाम्बु कर्मणि ॥
दालचीनी, तेजपात, खस, नागरमोथा और सुगन्ध बाला २५-२५ पल ( प्रत्येक १२५ तोले) तथा कूठ १२ ।। पल लेकर सबको ५० सेर पानीमें पकावें । जब २५ सेर पानी शेष रह जाय तो छान लें । इसीको गन्धोदक अथवा गन्धाम्बु कहते हैं ।
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तैलप्रकरणम् ]
११५
पत्रकलक - तेल के सिद्ध हो जाने पर, गन्ध - वृद्धि के लिये उसे छान कर गरम गरम में ही जो कस्तूरी आदिका कल्क डाला जाता है उसे ' पत्रकल्क ' कहते हैं ।
यदि उपरोक्त तेल में कल्क द्रव्योंका परिमाण दूना कर दिया जाय तो इसीका नाम लक्ष्मीविलास तैल हो जाता है ।
|
तैलकल्क - जो ' कल्क ' तेलमें डालकर पकाया जाता है उसे 'तैलकल्क' कहते हैं ।
चतुर्थी भागः
इस ( महा सुगन्धि ) तेल में भी गन्ध द्रव्यको पूर्वोक्त विधि के अनुसार शुद्ध कर लेना चाहिए | x
V
x गन्धद्रव्यशुद्धि:
पञ्चपल्लवतोयेन गन्धानां क्षालनं तथा । शोध चापि संस्कारो विशेषाश्चात्र वक्ष्यते ॥ नखशुद्धि:
चण्डीगोमयनोयेन यदि वा तिन्तडीजलैः । नखं संक्वाथयेभिरभावे मृण्मयेन तु ॥ पुनरुद्धृत्य प्रक्षाल्य भर्जयित्वा निषेचयेत् । गुडपथ्याम्बुना ह्येवं शुध्यते नात्र संशयः ॥ वचाशुद्धि:गोमूत्रे चाम्बुपके पक्त्वा पञ्चदलोदके । पुनः सुरभितोयेन बाष्पवेदेन स्वेदयेत् ॥ गन्धोत्रा शुध्यते ह्येवं रजनी च विशेषतः । मुस्तकशुद्धि:
मुस्तकं तु मनाक् क्षुण्णं काञ्जिके त्रिदिनोषितम् || पञ्चपल्लवपानीयस्विन्नमातपशोषितम् ।
नामानं भर्जये चूर्णयेत्ततः ॥ आजशौभाञ्जनजलैर्भावयेच्चेति शुध्यति ।
शैलजशुद्धि:
कथितं शैलं भृष्ट्वा पथ्योगुडाम्बुना ॥ सिश्वेदेवं पुनः पुष्पैर्विविधैरधिवासयेत् ।
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खट्टाशीश्शुद्धि:यथालाभमपामार्गस्नुह्य।दिक्षारले पितम् ॥ बाप स्वेदेन संवेद्य पूर्ति निर्लोमतां नयेत् । दोलापri पचेत्पश्चात्पञ्चपल्लववारिणि ॥ खलः साधुमिवोत्पीड्य ततो निःस्नेहतां नयेत् । __आजशोभाञ्जनजलैर्भावयेच्च पुनः पुनः ॥ शिग्रुमूले च केतक्याः पुष्पपत्रपुटे च तम् । पचेदेवं विशुद्धः सन्मृगनाभिसमो भवेत् ॥ तुरुष्कादिशोधनम्
तुरुष्कं मधुना भाव्यं काश्मीरं चापि सर्पिषा । रुधिरेणायसं प्राज्ञैर्गोमूत्रैर्ग्रन्थिपर्णकम् ॥ मधूदकेन मधुरी पत्रकं तण्डुलाम्बुना ।
कस्तूरिकायाः प्राशस्त्यस्त्ररूपम् ईषत्क्षारानुगन्धा तु दग्धा याति न भस्मताम् || पीता केतकगन्धा च लघुस्निग्धा मृगोत्तमा । कर्पूरस्य स्वरूपम् पकात्कर्पूरतः प्राहुरपक्वं गुणवत्तरम् ॥ तत्रापि स्याद्यदक्षुद्रं स्फटिकाभं तदुत्तमम् । पक्वं च सदलं स्निग्धं हरितद्युति चोत्तमम् || भङ्गे मनागपि न चेन्निपतन्ति ततः कणाः । कुष्ठचन्दनागुरूणां प्राशस्त्यम् मृगशृङ्गोपमं कुष्ठं चन्दनं रक्तपीतकम् ॥ काकतुण्डाकृतिः स्निग्धो गुरुचैोत्तमोऽगुरुः ।
कुङ्कुमादीनां लक्षणम्
स्निग्धाल्पकेशरं त्वखं शालिजो वृत्तमांसलः ॥ मुरा पीता वरा प्रोक्ता मांसी पिङ्गजटाकृतिः ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
इस तेलमें प्रथम-पाक 'पंचपल्लव क्वाथके' पाक 'गंन्धोदक' या धुपिताम्बु के साथ करना साथ और दूसरा "गन्धोदक" के साथ तथा तीसरा चाहिए ।)
रेणुकादीनां लक्षणम्
सन्धिको कपड़मिट्टीसे बंद कर दें एवं हाप्डीको चूल्हे रणुका मुद्गसंस्थाना शस्तमानू जं धनम् ॥ पर चढ़कर नीचे अग्नि जलावें। (इसके पश्चात् जातीफलं सशब्दञ्च स्निग्धं गुरु च शत्यते । बचको निकाल कर धूपमें सुखा कर रक्खें ) ।
एलादीनां प्राशरून्यम् हल्दीका शोधन भी इसी प्रकार किया जाता है। एला सूक्ष्मफला श्रेष्ठा प्रियङ्गुः श्यामपाण्डुराः ॥
नागरमोथेका शोधनः नखमश्वखुरं हस्तिकर्णश्चैव प्रशस्यते ।
नागरमोथे को अधकुटा करके कांजीमें डाल एतेषामपरेषाञ्च नवता प्रबलो गुणः ॥
दें और ३ दिन पश्चात् निकाल कर 'पंचपल्लव ' गन्ध द्रव्य 'पंचपल्लव' क्या यसे धोनेसे साधा- |
काथमें स्वेदित करके धूपमें सुखा लें । तत्पश्चात् रणतः शुद्ध हो जाते हैं। विशेष शुद्धि नीचे दी
उसे गुडाम्बु (गुड़के शर्बत ) में डाल दें और जाती है।
थोड़ी देर पश्चात् निकाल कर मन्दाग्नि पर भूनकर नखी शुद्धि.
चूर्ण कर लें। तदनन्तर उसे बकरीके मूत्र और सहनखीको भैंस के गोबरके रस या तिन्तिडीक ।
जनेकी छालके काथकी पृथक् पृथक एक एक (इमली) के पत्तों के रसमें (दोलायन्त्र विधि से)
भावना दे कर सुखाल । स्वेदित करें। यदि ये दोनों चीजें न मिल सक
शैलज शुद्धि. तो पानीमें काली मिट्टी धोलकर उसी पानी में
शैलजको कांजीमें पका कर (जलसे धो कर) (वेदित कर लेना चाहिए । त पश्चात् उसे स्वच्छ
मन्दाग्नि पर भून लें तत्पश्चात् उसे थोड़ी देर तक पानीसे धोकर भिडीके पात्रमें मन्दाग्निपर भूनें और
गुडमिश्रित हर्रके काथ में भिगो कर सुखा लें फिर थोड़े समय तक गुडमिश्रित हर्रके क्वाथमें
और फिर उसे सुगन्धित फूलोंके बीचमें रख कर भिगोदें। ( एवं धूपमें सुखाले ).
अधिवासित (सुगन्धित) बना लें। बचका शोधन.
खट्टाशी ( जुन्द बेदस्तर ) का शोधन. बचको क्रमशः गोमूत्र, गोरखमुंडीके काथ और खट्टाशी के नाफे ( नाभि गोलक ) के ऊपर 'पंचपल्लव ' काथमें पृथक पृथक् पकायें और फिर अपामार्ग (चिरचिटे) के क्षार और स्नुही (थोहर) उसे गन्धोदकसे वाप्पस्वेद दें अर्थात् एक हांडीमें के क्षार इत्यादि क्षारोंका लेप करके उसे जलवाप्प गन्धोदक भर कर उसपर एक कपड़ा बांध दें और द्वारा ( वचा शोधन विधिमें कथित रीति से ) स्वे. इसके ऊपर उपरोक्त बचको रख कर उस पर एक दित करें । तदनन्तर उसके बालोंको साफ करदें अन्य हाण्डी उलटी करके ढक दें और दोनोंकी और दोलायन्त्र विधि से पंचपल्लव काथमें पकायें।
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तैलप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
ये दोनों (महा सुगन्धि तथा लक्ष्मी विलास) तैल वात विकारों को अत्यन्त शीघ्र नष्ट करके
इसके पश्चात् उसे अच्छी तरह निचोड़ें कि जिससे झलक लिए हो और तोड़ने से जिसके कण न झड़ें वह स्नेहरहित हो जाए। अब इसे बकरीके मूत्र वह भी उत्तम होता है । और सहिजने को छालके काथकी अनेक ( ३ या | उत्तम कूठ आदिकी पहचान--जो कुष्ठ ७) भावनाएं दें । तदनन्तर उसे सहिजनेकी । (कूठ) हरिन के सींग के समान (कठोर और भारी) जड़के कल्ककी (लुगदी) के बीचमें रखकर उसके हो वह उत्तम होता है। जिस चन्दनका रंग ऊपर केवड़े के फूलों की पत्तियां लपेट कर पुट- रक्ताभा ( ललाई ) लिये हुए पीला हो वह उत्तम पाक विधि से पका अर्थात् कुशसे लपेट कर | होता है। कौवेको चोंचके समान एवं स्निग्ध उसके ऊपर आध अंगुल मोटा मिट्टीका लेप करदें; और भारो अगर उत्तम माना जाता है । ( उत्तम और सुखाकर कण्डोंकी निर्धूम अग्निमें दबा दें। अगर लोहेके समान पानी में डूब जाता है।) जब ऊपरकी मिट्टी लाल हो जाए तो ठण्डा करके उत्तम केसर आदि के लक्षण. उसमें से खट्टाशीको निकाल लें । इसप्रकार शुद्ध की जिस केसरके फूलमें केसर थोड़ी और स्निग्ध हुई खट्टाशीमें कस्तूरीके समान गन्ध आने लगती है। हो वह उत्तम मानी जाती है। खट्टाशीका गोल
शिलारस आदिका शोधन--तुरुष्क और मांसल होना श्रेष्ठताका लक्षण है। मुरामांसी (शिलारस) को शहदकी भावना देनेसे; केसरको पीले रंगकी और जटामांसी (बालछड़) पिंगल वर्ण घृतकी; अगरको केसरके पानीकी; गठीवनको वाली एवं जटाके समान उत्तम मानी जाती है। गोमूत्रकी; और सौंफको मधुमिश्रित जलकी भावना उत्तम रेणुकादिके लक्षण । देनेसे ये शुद्र हो जाते हैं।
जिसके दाने मूंगके बराबर हों वह उत्तम ___कस्तूरीकी परीक्षा-जिस कस्तूरीमें सुग- | होती है। ( मरिचके समान बड़े दानों वाली और न्धके पश्चात् ज़रा एक क्षार जैसी गन्ध आती हो, । गन्ध रहित रेणुका निकृष्ट होती है)। आनूप जलानेसे जो बिल्कुल राख न हो जाय, रंगमें (जलके समीपवर्ती) प्रदेशों में उत्पन्न नागरमोथा पीली हो ओर जिसकी गंध केवड़े के फूलकी गन्ध | उत्तम होता है। के समान हो, जो वजनमें हल्की और स्निग्ध हो जो जायफल शब्दयुक्त स्निग्ध और भारी हो वह उत्तम होती है।
उसे श्रेष्ठ समझना चाहिए । कपूर-पक्व कपूरकी अपेक्षा अपक्व श्रेष्ठ श्रेष्ठ इलायची आदिके लक्षण । होता है और उसमें भी जिसके दल बड़े बड़े और छोटे फल वाली इलायची, और श्याम तथा बिल्लौरके समान स्वच्छ हों वह अत्युत्तम होता है। किंचित पाण्डु वर्ण वाली प्रियंगु उत्तम होती है।
जो पक्व कपूर दलदार, स्निग्ध, हरे रंगकी नखी नामक गन्ध द्रव्य वह अच्छा होता है
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११८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
-
पुष्टि, कान्ति, मेधा, धृति और बुद्धि का विकास | (५३१०) मार्कवतैलम् करते हैं।
(वृ. मा. । क्षुद्ररोगा.) (५३०९) मागध्याय तैलम् क्षीरात्समार्कवरसाद् द्वे प्रस्थे मधुकोत्पले । ( ग. नि. । तैला. २: सु. स. । चि. अ. ८) । तैलस्य कुडवं पकं तन्नस्यं पलितापहम् ॥ मागधी मधुकं रोधं कुष्ठमेला हरेणवः ।
___ आधा सेर तिलके तेलमें २ सेर गोदुग्ध और समझा धातकी चैव सारिवा रजनीद्रयम् ॥
| २ सेर भंगरेका रस तथा १० तोले मुलैठीका कल्क मियङ्गवः सर्जरसः पद्मकं पद्मकेशरम् ।
मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल मातुलुङ्गस्य पत्राणि मधूच्छिष्टं ससैन्धवम् ॥
जाय तो तेलको छान लें। एतत्सम्भृत्य सम्भार तैलं धीरो विपाचयेत् ।
इसकी नस्य लेनेसे पलित रोग नष्ट होता है। एतद्धि गण्डमालासु मण्डलेष्वथ मेहिषु ॥ (५३११) मालत्यादितैलम् रोपणार्य हितं तैलं भगन्दरविनाशनम् ॥ (वृ. मा. र. र.; भै. र.; च. द.; धन्व. ।
कल्क-पीपल, मुलैठी, लोध, कूठ, छोटी क्षुदरोगा.; वा. भ. । उ. अ. २४) इलायची, रेणुका, मजीठ, धायके फूल, सारिवा, मालतीकरवीराग्निनक्तमालै विपाचितम् । हल्दी, दारुहल्दी, फूलप्रियङ्गु, राल, पनाक, कमल. तैलमभ्यञ्जने शस्तमिन्दलुप्तापहं परम् ।। केसर, बिजौ रेके पत्ते, मोम और सेंधा नमक सब इदं हि त्वरितं हन्ति दारुणं नियतं नृणाम् ।। समान भाग मिश्रित ४० तोले (प्रत्येक २। तोले) चमेली, कनेर, भिलावा और करंजफल के ले कर सबको एकत्र कूट लें।
कल्क तथा क्वाथसे सिद्ध तैलकी मालिश से इन्द्र४ सेर तिलके तेलमें यह कल्क और १६ । लुप्त (गंज) और दारुण नामक रोग अवश्य और सेर पानी मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें। जब पानी शीघ्र नष्ट हो जाता है । जल जाय तो तेलको छान लें। यह तेल क्वाथार्थ-प्रत्येक वस्तु १ सेर, पाकार्थ जल गण्डमाला, प्रमेह-पिडिका और भगन्दरको नष्ट ३२ सेर । शेष क्वाथ ८ सेर । करता है।
कल्कार्थ-प्रत्येक वस्तु ५ तोले । तेल जिसका आकार घोड़ेके खुर अथवा होथीके कानके समान हो।
(५३१२) माषतैलम् (१) इन तथा अन्य ओषधियोंकी उत्तमता उनकी
(च. द. । वातव्या.) नवीनता पर विशेष निर्भर होती है।
माषात्मगुप्तातिविषोरुबूक१ सुधावचालाङ्गालकोमिति पाठान्तरम् ।
रास्नाशताहालवणैः मुपिष्टैः।
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तैलप्रकरणम् ]
चतुर्गुणे माषबलाकषाये तैलं कृतं हन्ति च पक्षवातम् ॥
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चतुर्थी भागः
क्वाथ - उड़द और खरैटीको जड़ २-२ सेर लेकर ३२ सेर पानी में पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो छान लें ।
कल्क - उड़द, कौंच बीज, अतीस, एरण्डमूल, रास्ना, सोया और सेंधानमक सब समान भाग मिश्रित २० तोले लेकर सबको एकत्र कूट लें 1
२ सेर तैल में उपरोक्त क्वाथ तथा कल्क मिलाकर मन्दाग्नि पर पकायें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान ले यह तेल पक्षाघातको नष्ट करता है ।
1
(५३१३) माषतैलम् (२) (भै. र.; च. द.; धन्व. । वातव्या . ) माषपस्थं समावाप्यं पचेत् सम्यक् जलाढके । पादशेषे रसे तस्मिन् क्षीरं दद्याच्चतुर्गुणम् ॥ प्रस्थञ्च तिलतैलस्य कल्कं दत्त्वाक्षसम्मितम् । जीवनीयानि यान्यष्टौ शतपुष्पां ससैन्धवाम् || रास्नात्मगुप्तामधुकं बलाव्योषत्रिकण्टकम् । पक्षाघातार्दिते वाते कर्णशूले च दारुणे ।। मन्दश्रुतौ चाश्रवणे तिमिरे च त्रिदोषजे । हस्तकम्पे शिरःकम्पे विश्वाच्यामपबाहुके ॥ शस्तं कलायखजे च पानाभ्यञ्जनवस्तिभिः । माषतैलमिदं श्रेष्ठमूर्ध्वजजुगदापहम् ॥
क्वाथ - १ सेर उड़दोंको कूट कर ८ सेर पानीमें पकावें । जब २ सेर पानी शेष रहे तो छान लें
I
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११९
कल्क - जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, ऋद्धि, वृद्धि, सोया, सेंधानमक, रास्ना, कौंच के बीज, मुलैठी, खरैटी, सोंठ, काली मिर्च, पीपल और गोखरू ११ - १ | M लेकर सबको एकत्र कूट लें ।
२ सेर तिलके तेल में उपरोक्त क्वाथ, कल्क और ८ सेर दूध मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाए तो तेलको छान लें ।
यह तेल पक्षाघात, अर्दित, भयंकर कर्णशूल.. मन्दश्रवण, वधिरता, त्रिदोषज तिमिर, हस्तकम्पन, शिरोकम्प, विश्वाची, अपबाहुक, कलायखञ्ज और ऊर्ध्वजत्रुगत रोगो में अत्युपयोगी है ।
इसे पान, अभ्यंग और बस्तिद्वारा प्रयुक्त करना चाहिये ।
(५३१४) माषतैलम् (बृहत् ) (३) (ग. नि. । तैला. २ ) I
1
प्रस्थे द्वे खण्डमाषाणां काथयेत्सलिलामणे चतुर्भागावशेषेण तैलप्रस्थं विपाचयेत् ॥ मस्तुनस्त्वाढकं दवा तत्समं चाम्लकाञ्जिकम् । औषधानि च पेष्याणि तत्रेमानि प्रदापयेत् ॥ सैन्धवं मदनं रास्ना शताढा त्र्यूषणं वचा । तगरं चोरुबुकं च मञ्जिष्ठा पद्मकेशरम् ॥ बला गोक्षुरकं पाठा सरलं देवदारु च । साजगन्धाऽश्वगन्धा च पुष्करं सपुनर्नवम् ॥ एतानि चाक्षमात्राणि कल्कीकृत्य प्रयोजयेत् । नस्ये पाने तथाऽभ्यङ्गे बस्तिकर्मणि योजयेत् ॥ अर्दितं कर्णशूलं च मन्यास्तम्भं हनुग्रहम् । बाधिर्य पक्षघातं च गृध्रसीं खअपङ्गुलम् ॥
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१२०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
सर्वानेतान् जयेच्छीघ्रं वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा । । तदनन्तर २ सेर तिलके तेलमें यह क्वाथ और माषतैलमिदं नाम्ना सर्ववातविकारनुत ॥ २० तोले सेंधानमकका चूर्ण मिलाकर मन्दाग्नि
२ सेर उड़दों को कट कर ३२ पर पकायें। जब पानी जल जाए तो तेलको सेर पानीमें पकावें । जब ८ सेर पानी | छान लें । शेष रह जाय तो छान लें । तदनन्तर २ सेर - यदि वा पुसे कोई अङ्ग संकुचित हो गया हो तिलके तेल में यह काथ, ८ सेर मस्तु (दहीमें तो इस तेलकी मालिश करनी चाहिये और बाहु उसके बराबर पानी मिला कर बनाया हुआ तक) | तथा शीर्षगत वात-व्याधिमें इसकी नस्य लेनी ८ सेर कांजी और निम्नलिखित कल्क मिला- और पान कराना चाहिये। कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो (५३१६) मांसीतैलम् तेलको छान लें।
(ब. से. । क्षुद्ररोगा.) ___ कल्क-सेंधानमक, मैनफल, रास्ना, सोया, सोंठ, मांसीस्वरससंसिद्ध कटुतैलं चतुष्पलम् । काली मिर्च, पीपल, बच, तगर, अरण्डमूल, मजीठ, मनःशिला तथा मांसी राजीवजश्च गन्धकम् ॥ कमलकेसर, खरैटी, गोखरु, पाठा, सरलकाष्ठ शाणमात्रैस्तदभ्यगाद्धन्त्यवश्यमरूंपिकाम् । (चीड़का बुरादा), देवदारु, अजमोद, असगन्ध, पामां विचर्चिकाचैव तथान्याञ्छिरसोत्रणान् ॥ पोखरमूल और पुनर्नवा १०-११ तोला लेकर सबको जटामांसीका स्वरस (या क्याथ) २ सेर, एकत्र ट लें।
सरसोंका तैल आधा सेर और मनसिल, जटामांसी, इसे नस्य, पान, अभ्यंग और बस्तिकर्म कमलगट्टा तथा गन्धकका चूर्ण ५-५ माशे लेकर द्वारा प्रयुक्त करना चाहिये।
सबको एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब यह तेल अर्दित (लकवा), कर्णशूल, मन्या- पानी जल जाय तो तेलको छान लें । यह तैल स्तम्भ, हनुग्रह, बधिरता, पक्षाघात, गृध्रसी, खञ्जता अरुषिका ( सिरकी छोटी छोटी फुसियों ) को नष्ट
और पङ्गुता इत्यादि समस्त विकारों को नष्ट | करता है। करता है।
(५३१७) मिश्याचं तैलम् (५३१५) माषतैलम् (स्वल्प) (४)
( ग. नि. । अजी.) (च. द. । वातव्या.)
मिर्शि मधूच्छिष्टमरुष्करं च तैलं सङ्कुचितेऽभ्यङ्गो माषन्धवसाधितम् । ससैन्धवं क्षारमथाम्लक्षम् । बाहुशीर्षगते नस्यं पानं चौत्तरभक्तिकम् ॥ तैलं विपकं मधुशुक्तयुक्तं काथोऽत्र मापनिष्पाद्यः सैन्धवं कल्कमेव च ॥ खल्ली प्रवृद्धां शमयेद्धिसद्यः ॥
४ सेर उड़दोंको कूटकर ३२ सेर पानीमें ३ सेर तिलके तेलमें १२ सेर मधुशुक्त तथा पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रहे तो छान लें। ५-५ तोले सौंफ, मोम, भिलावा, सेंधानमक,
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तैलप्रकरणम्
चतुर्थों भागः
जवाखार और तिन्तडीक का कल्क मिलाकर मन्दाग्नि (५३१९) मुस्तकादितैलम् पर पकायें। जब पानी जल जाए तो तेलको
(व. से. । नेत्ररो.) छान लें।
मुस्ता तेजोवती पाठा कट्फलं कटुका वचा। इसकी मालिशसे खल्ली ( हैजे इत्यादि में सर्वपा पिप्पलीमलं पिपली सैन्धवाग्निकौ ॥ होने वाली हाथ पैरोंकी ऐंठन ) तुरन्त शान्त हो तुत्थं करञ्जबीजश्च लवणं भद्रदारु च । जाती है।
एतैः कृतं कषायञ्च कवले तच्च धारयेत् ॥ (मधुशुत ' बनानेकी विधि “ मकारादि हितं शिरोविकारे च तैलमे भिर्विपाचयेत् ।। आसवारिष्ट प्रकरण" में देखिये । )
नागरमोथा, मालकंगनी, पाठा, कायफल, मिश्रकस्नेहः
कुटकी, बच, सरसो, पीपलामूल, पीपल, सेंधानमक, (यो. त. । तं. ४६; वृ. यो. त.; यो. र.) चीतामूल, नीलाथोथा, करञ्जबीज, सेंधा नमक और भा. भै. र. भाग ३ प्रयोग संख्या २४५९
देवदारु समान भाग लेकर, सबको अधकुटा करके " त्रिवृतादि मिश्रक स्नेह ” देखिये ।
८ गुने पानी में पकावें । जब चौथा भाग शेष रह
जाए तो छान लें। (५३१८) मुण्डीतैलम्
इस क्वाथके कवल धारण करने अथवा इन्हीं (र. र. । स्त्री रोगा.)
ओषधियोंसे सिद्ध तेल की मालिश करनेसे शिरोरोग मुण्डीमूलं दशपलं जले पच्याचतुर्गुणे । (प्रतिश्याय) नष्ट होता है। अर्द्धशेष हरेत्या काथा तिलतैलकम् ॥ क्वाथार्थ-प्रत्येक ओषधि ३२ तोले, जल तैलशेषं भवेत्तच नस्ये पाने च दापयेत् । । ४८ सेर, शेष १२ सेर । पतितं यौवनं स्त्रीणां मासादुत्तिष्ठते स्वयम् ॥ कल्कार्थ-प्रत्येक ओषधि २ तोले ।
५० तोले मुण्डीकी जड़को कूट कर ४०० तेल-३ सेर तोले ( ५ सेर ) पानीमें पकावें । जब २॥ सेर (५३२०) मूलकाद्यं तैलम् (१) पानी शेष रह जाए तो छान लें।
( च. द. । वातव्या.; च. स.) १। सेर तिलके तैलमें यह क्याथ मिलाकर मूलकस्वरसं तैलं क्षीरदध्यम्लकाभिकम । मन्दाग्नि परे पकावें । जब पानी जल जाए तो तुल्यं विपाचयेत्कल्कैवलाचित्रकसैन्धवैः॥ तेलको छान लें।
पिप्पल्यतिविषारास्नाचविकागुरुचित्रकैः । इसकी नस्य देने और इसे पिलानेसे १ मास भल्लातकवचाकुष्ठश्वदंष्टा विश्वभेषजैः ॥ . में स्त्रियोंके शिथिल स्तन स्वयमेव ही कठोर हो पुष्कराहशठीबिल्वशताहानतदारुभिः। . जाते हैं।
तत्सिद्धं पीतमत्युग्रान्हन्ति वातात्मकान्गदान् ।।
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
१२२
कल्क - खरैटी की जड़, चीतामूल, सैंधानमक, पीपल, अतीस, रास्ना, चव, अगर, चीतामूल, ( पाठ भेदके अनुसार सहजने की जड़ ), भिलावा, बच, कूठ, गोखरु, सोंठ, पोखरमूल, कचूर, बेलकी छाल, सोया, तगर और देवदारु । प्रत्येक २ तोले लेकर सबको एकत्र पीस लें ।
४ सेर तिलके तेल में ४ सेर मूलीका रस, ४ सेर गोदुग्ध, ४ सेर खट्टी दही, ४ सेर कांजी और ऊपर लिखित कल्क मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाए तो तेलको छान लें ।
इसे पीने से अत्यन्त प्रबल वातव्याधियां भी नष्ट हो जाती हैं ।
1
(५३२१) मूलकाद्यं तैलम् (२) ( व. से. । वातत्र्या. ग. नि. । तैला. २ ) वातमूलकमापीडय तैलं दध्याम्लकाञ्जिकम् । क्षीराढकं दद्यात्पचेत्कल्कैः पलोन्मितैः ॥ रास्नाभल्लातकं शिग्रु सैन्धवं गजपिप्पली । Namrataaorat furपली चित्रकं वचा ॥ श्वदंष्ट्रा चेति तत्पक्वं वातश्लेष्मामयापहम् । वध्मगृध्रसीपङ्गुत्वं खयं वै सापतानकम् ॥ कटयुरुस्तम्भनं शोषं पर्वस्तम्भप्रकम्पनम् । हन्याद्गुल्मञ्च वातोत्थं बलवर्णाग्निवर्धनम् ॥ वन्ध्यानां पुत्रदञ्चैव तैलं मूलकसाइयम् ॥
द्रव पदार्थ - छोटी (कच्ची मूलीका स्वरस ८ सेर, खट्टा दही ८ सेर, कांजी ८ सेर और दूध ८ सेर ।
कल्क - रास्ना, भिलावा, सहजनेकी छाल,
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[ मकारादि
"
सेंधानमक, गजपीपल, खरैटी, अतिबला (कंधी), सौंठ, पीपल, चीतामूल, बच और गोखरू । प्रत्येक । ५- ५ तोले लेकर सबको एकत्र पीस लें ।
८ सेर तेल में उपरोक्त द्रव पदार्थ तथा कल्क मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाए तो तेलको छान ले I
यह तेल वातकफज रोगोंको नष्ट करता है 1 इसकी मालिशसे वध्म, गृध्रसी, पंगुतो, खञ्जता, अपतानक, कटिस्तम्भ, उरुस्तम्भ, शोष, सन्ध्यस्तम्भ, प्रकम्पन और वातज गुल्म नष्ट होता तथा वर्ण और अग्निकी वृद्धि होती है ।
इसके प्रभावसे वन्ध्या स्त्रीको पुत्र प्राप्त हो सकता है।
(५३२२) मृणाला दितैलम्
( रा. मा. । स्त्रीरो; यो त । त. ७६. ) मृणालपद्मोत्पलबीजयुक्तं तैलं तथोशीरयुतं विपकम् । पच्छिलयशैथिल्यवि गन्धतादि नाशं करोति स्मरमन्दिरस्य ॥
मृणाल (कमल नाल), पद्म, कमलगट्टा और खसके कल्क तथा क्वाथसे सिद्ध तैल योनिकी पिच्छिलता (चिपचिपाहट), शिथिलता और दुर्गन्धी करता है
1
ककार्थ - प्रत्येक वस्तु २|| तो
FETT - प्रत्येक वस्तु आधा सेर । पाकार्थ
1
जल १६ सेर | शेष क्वाथ ४ सेर । तेल १ सेर ।
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तैलपकरणम्]
चतुर्थों भागः
(५३२३) मेध्याविकतैलम्
मेंढासिंगी, गोखरु, करञ्जफल, गिलोय और (व. से. । क्षुदरोगा.) दशमूलकी प्रत्येक वस्तु समान भाग लेकर उनके मूलकं बीजमुद्धत्य चोन्मत्तकदलानि तु। काथ तथा कल्कसे तैल या घृत सिद्ध करें। सूर्यावर्त्तशुकाख्याश्च मेध्यावीरसपाचितम् ॥ | क्याथार्थ-सब चीजें समान भाग मिश्रित ७ तैलं मेध्याविकं नाम वराहद्विजनाशनम् ।। | सेर (प्रत्येक आधा सेर), जल ५६ सेर, शेष क्वाथ कण्ड्रकुष्ठप्रशमनं कृच्छं ददविनाशनम् ॥ १४ सेर । .
कल्कार्थ-प्रत्येक वस्तु २॥ तोले । (सब बलवर्णकरश्चैव कृष्णात्रेयेण भाषितम् ॥ ___ मूलीके बीज, धतूरेके पत्ते, हुलहुल, शुकनासा
मिलित ३५ तोले) घी या तेल-३॥ सेर । ( कौंचके बीज ) और ब्राह्मी १-१ सेर लेकर,
प्रथम कुष्ठीको स्नेहं पानादि कराके यह घृत सबको अधकुटा करके ४० सेर पानीमें पकावें ।
खिला और इस तेलकी मालिश करावें । इससे जब १० सेर पानी शेष रहे तो छान लें । इसमें
वात कुष्ठ नष्ट होता है।
(५३२६) मेहमिहिरतैलम् २॥ सेर तेल मिलाकर पुनः पकावें और पानी जल
(धन्व. । प्रमेह.) जाने पर तेलको छान लें।
| पञ्चमूल्यमृताधात्रीदाडिमानां तुलां पचेत् । ___ यह तेल शूकरदंष्ट्रा (भगन्दरवत् राग विशष), जलद्रोणे स्थिते पादे तैलप्रस्थं विपाचयेत् ॥ खुजली, कुष्ठ, और दादको नष्ट करके बल वर्णकी
क्षीर तैलसमं कल्कान् भूनिम्बगोक्षुरम् । कृद्धि करता है।
दाडिमं रेणुकं बिल्वं दारुदावीबलाहकान् ॥ (५३२४) मेषरोममषीतैलयोगः
त्रिफला तगरं द्राक्षा जम्बाम्रवल्कलाभयात् । (व. से. । नाडीवगा.)
नाम्नेदं मेहमिहिरं सर्वमूत्रामयान् जयेत् ।। मेषरोममषी तस्यां कटुतैलविपाचितम् ।
| हस्तपादशिरोदाहं दौर्बल्यं कृशनां तथा। नाहीत्रणं चिरोद्भूतं जयेत्तूलकसङ्गमात् ॥ क्षीणेन्द्रिया नष्टशुकाः स्वीक्षीणाश्चापि ये नराः॥
कडवे तेल में भेड़ के बालोंकी स्याही (अध जली | तेषां वल्यकरं वृष्यं वयः स्थापनमेव च ॥ राख) पका कर सुरक्षित रक्खें । इस तेल में लईकी
शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, कटेली, कटेला और बत्ती भिगोकर नाडीत्रण (नासूर) में भरनेसे पुराना गोखरु तथा गिलोय, आमला और अनारकी छाल नासूर भी शीघ्र ही भर जाता है।
प्रत्येक ६२॥ तोले (१२॥ छंटाक) लेकर सबको (५३२५) मेषशृङ्गीतैलम् अधकुटा करके ३२ सेर पानीमें पकावें। जब ८
(सु. स. । चि. अ. ९) सेर पानी शेष रहे तो छान लें । २ सेर तेलमें यह तत्रप्रथममेव कुष्ठिनं स्नेहपानविधानेनोपपादयेत्। क्वाथ, २ सेर दूध और निम्नलिखित कल्क मिला मेषशृङ्गीश्वदंष्टासाष्टागुडूचीद्विपश्चमूलीसिद्धं कर मन्दाग्नि पर पकायें। जब पानी जल जाय तो तैलं घृतं वा वातकुष्ठिना पानाभ्यङ्गयोविदध्यात्। तेलको छान लें ।
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
कल्क- नीमकी छाल, चिरायता, गोखरू, अनार, रेणुका, बेलकी छाल, देवदारु, दारूहल्दी, नागरमोथा, हर्र, बहेड़ा, आमला, तगर, मुनक्का, जानकी छाल, आमकी छाल और हर्र । सब समान भाग मिश्रित २० तोले लेकर सबको एकत्र पीस लें ।
[[मकारादि पैर और
हाथ,
यह तेल समस्त मूत्ररोग; सिरकी दाह, दुर्बलता तथा कृशताको नष्ट करता है ।
इति मकारादितैलप्रकरणम् ।
(५३२७) मण्डूरारिष्टः
)
( र. का. घे. यो. र. । कामला; ग. नि. । आसवा. मण्डूरस्य तु शुद्धस्य तुलार्धं परिकल्पितम् ।
लोहस्य पत्राणि तिलोत्सेधप्रमाणतः ॥ गुडाजीर्णा पंचाशत् कोलप्रस्थत्रयं तथा । निकुम्भचित्रकाभ्यां च पले द्वे द्वे सुचूर्णिते ॥ पिप्पलीनां विडङ्गानां कुडवं कुडवं पृथक् । श्रीश्चापि त्रिफला प्रस्थान जलद्रोणे समावपेत्॥ मास्थितो धान्ये पेयोरिष्टः प्रमाणतः ।
दोषनिर्हन्ता पाण्डुरोगं नियच्छति || कृमी शसि कुष्ठं च कासश्वासकफामयान् । ris free माहूर : शोफपाण्ड्वामयापहः ॥
अथ मकाराद्यासवारिष्टप्रकरणम्
शुद्ध मण्डूर ३ सेर १० तोळे, शुद्ध लोह चूर्ण ३ सेर १० तोले, पुराना गुड़ ३ सेर १० तोले, बेरीकी जडकी छाल ३ सेर; दन्तीमूल और चीतेकी जड़ १० - १० तोले; पीपल और बायबिडंग २०२० तोले और हर्र, बहेड़ा तथा ओमला १-१ सेर लेकर कूटने योग्य चीजोंको कूटकर सबको
क्षीणेन्द्रिय, नष्ट - शुक्र और अधिक स्त्री समागम के कारण क्षीण हुए पुरुषोंके लिये यह तैल बल्य, वृष्य और आयु स्थापक है ।
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३२ सेर पानी में मिलाकर चिकने मटके में भरकर उसका मुख बन्द करके उसे अनाजके ढेर में दबा दें और १५ दिन पश्चात् निकालकर छान लें ।
यह अरिष्ट (आस) उर्ध्व तथा निम्न दोषनाशक है एवं पाण्डु, कृमि, अर्श, कुष्ठ, खांसी, श्वास, कफरोग, और शोथका नाश करता है ।
(५३२८) मधुशुक्तयोगः
जम्बीराणां फलरसः प्रस्थैकः कुडवोन्मितम् । ( वं. से.; ग. नि.; यो. र. । कर्णरो. ) माक्षिकं तत्र दातव्यं पिप्पली च पलोन्मिता ॥ घृतभाण्डे विनिःक्षिप्य धान्यराशौ निधापयेत् । मासेन तज्जातरसं मधुशुक्तमुदाहृतम् ॥
जम्बीरी नीबू का रस २ सेर, शहद आधा संर और पीपलका चूर्ण ५ तोले लेकर सबको एकत्र मिलाकर घृतके पात्र में भरकर उसका मुख बन्द करके उसे अनाजके ढेर में दबा दें और १ मास पश्चात् निकालकर छान लें ।
|
इसको मधुशुक्त कहते हैं
1
( यह आरतैल में पड़ता है | )
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आसवारिष्टमकरणम् ] चतुर्थों भागः
(५३२९) मध्वरिष्टः | (५३३०) मध्वासवः (१) (च. स. । चि. अ. १५ ग्रहणी.; (च. सं. । चि. अ. १५ ग्रहणी.; वा भ. । ___वं. से.। ग्रहणी.)
चि, अ. १०; वं. से. । ग्रहणी. ) नवे पिपलिमध्वाक्ते कलसेऽगुरुधुपिते ।।
द्रोणं मधूकपुष्पाणां विडङ्गानां ततोऽर्धतः । मध्वाढकं जलसमं चूर्णानीमानि दापयेत् ॥
| चित्रकस्य ततोऽध स्यात् तथा भल्लातकाढकम् ॥ कुडवार्ध विडङ्गानां पिप्पल्याः कुडवं तथा । मंजिष्ठा त्रिपलं चैव विद्रोणेऽपां विपाचयेत् । चतुर्थकांशां त्वक्षीरी केशरं मरिचानि च ।।
द्रोणशेषे तु तच्छीतं मध्वर्धाढकसंयुतम् ।। त्वगेलापत्रकशटीक्रमुकातिविपाधनम् ।
एलामृणालागुरुभिश्चन्दनेन च रूषिते । हरेण्वेलुकतेजोहापिप्पलीमूलचित्रका ॥
कुम्भे मासस्थितं जातमासवं तं प्रयोजयेत् ॥ कार्षिकांस्तान स्थित मासमत ऊर्ध्वं प्रयोजयेत् । ग्रहणी दीपयत्येष वृंहणः कफपित्तजित् । मन्दं सन्दीपयत्यग्निं करोति विषमं समम् ॥ शोथं कुष्ठं किलासं च प्रमेहांश्च प्रणाशयेत् ॥ हृत्पाण्डुग्रहणोरोगकुष्ठार्शःश्वयथुज्वरान् ।
___महुवेके फूल १६ सेर, बायबिडंग ८ सेर, वातश्लेष्मामयांश्चान्यान्मध्वरिष्टो व्यपोहति ॥
" चीतामूल ४ सेर, शुद्ध भिलावा ४ सेर और मजीठ __ शहद ८ सेर, पानी ८ सेर, बायबिडंग १०
१५ तोले ( वाग्भटके मतानुसार ४० तोले ) तोले, पीपल २० तोले तथा बंशलोचन, नागकेसर
लेकर सबको अधकुटा करके ९६ सेर पनीमें और काली मिर्च ५-५ तोले एवं दालचीनी,
पकावें और ३२ सेर पानी रहने पर छानकर, ठण्डा इलायची, तेजपात, कचूर, सुपारो, अतीस, नागर
करके, उसमें ४ सेर शहद मिलादें और एक मटमोथा, रेणुका, एलबालुक, तेजबल, पीपलामूल
केमें इलायची, खस, अगर और सफेद चन्दनका और चीतामूल ११-१॥ तोला लेकर कूटने योग्य
लेप करके उसमें इसे भरकर उसका मुख बन्द चीजोंको कूट लें और फिर शहद में पीपलका चूर्ण
करके रख दें। तथा १ मास पश्चात् निकालकर मिलाकर एक नये मटकेमें लेप कर दें तथा उसे
छान लें। अगरकी धूनी दे कर उसमें उपरोक्त समस्त चीजें
___ यह आसव ग्रहणीको दीप्त करता तथा कफ, भरकर उसका मुख बन्द करके रख दें और एक
| पित्त, शोथ, कुष्ठ, किलास आर प्रमेहका नाश मास पश्चात् छानकर काममें लावें ।
करता एवं कामशक्तिको बढ़ाता है । इसे सेवन करनेसे मन्दाग्नि, प्रदीप्त और विषमाग्नि समान हो जाती है। इसके अतिरिक्त यह
(५३३१) मध्वासवः (२) अरिष्ट (आसब) हृद्रोग, पाण्डु, ग्रहणी दोष, कुष्ट, (चरक । चि. अ. ७ कुष्ठ.) अर्श, ज्वर, शोथ और अन्य वातकफज रोगोंको खदिरसुरदारुसारं श्रपयित्वा तद्रसेन तोयार्थम् । भी नष्ट करता है।
क्षौद्रप्रस्थे कार्यः कार्ये ते चाष्टपलिके च ॥
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१२६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
तत्रायश्चूर्णानामष्टपलं प्रक्षिपेत्तथाऽमृनि। | चिकने बरतनमें भरकर, उसका मुख बन्द करके त्रिफलैले त्वङ्मरिचं पत्रं कनकं च कर्षांशम् ॥ रख दें, और १ मास पत्चात् निकाल कर छान लें। मत्स्यण्डिका मधुसमा तन्मासमायसे भाण्डे । यह आसव प्रमेहको नष्ट करता है। मध्वासवमाचरतः कुष्ठकिलासे शमं यातः॥ मात्रा-१० तोले । ( व्यवहारिक मात्रा
खैरसार और देवदारु सार आधा आधा सेर ३-४ तोले । ) लेकर दोनोंको १६ सेर पानीमें पका और ४ सेर
(५३३३) मध्वासवः (लोध्रासव) (४) पानी रहने पर छान लें । तदनन्तर उसमें २ सेर
(च. सं. । चि. अ. ६ प्रमेह.) शहद और १ सेर खांड, ४० तोले लोहचूर्ण (भस्म) और १०-११ तोला हर्र, बहेड़ा, आमला, लोभ्रं शठी पुष्करमूलमे लां इलायची, दालचीनी, काली मिरच, तेजपात और
मूवी विडङ्ग त्रिफलां यवानीम् । धतूरेका चूर्ण मिलाकर सबको लोह पात्रमें भरकर चव्यं प्रियॉ क्रमुकं विशाला उसका मुख बन्द करके रख दें और १ मास किराततिक्तं कटुरोहिणीश्च ॥ पश्चात् छान लें।
भार्गीनतं चित्रकपिप्पलीनां इसके सेवनसे कुष्ठ और किलास का नाश
मूलं सकुष्ठातिविषं सपाठम् । होता है।
कलिङ्गकान् केशरमिन्द्रसाहवा
नखं सपत्रं मरिचं प्लवञ्च ॥ (५३३२) मध्वासवः (३)
द्रोणेऽम्भसः कर्षसमानि पक्त्वा (गदनिग्रह । आसवा. ६)
- पूते चतुर्भागजलावशेषे । विशालातिविषाभार्गीकृष्ठमुस्तापियङ्गवः । रसेऽर्धभाग मधुनः प्रदाय विडङ्गत्रिफलाकृष्णचव्यग्रन्धिकदीप्यकाः॥ पक्षाभिधेयो घृतभाजनस्थः ॥ अक्षांशान् सलिलद्रोणे पक्त्वा पादाक्शेषिते । मध्वासबोऽयं कफपित्तमेहान् दत्त्वा क्षौद्रं तदर्ध हि स्निग्धे भाण्डे निधापयेत्।। क्षिप्रं विहन्याद् द्विपलप्रयोगात् । एष मध्वासवो हन्ति मेहं द्विपलयोगतः ॥ पाण्ड्वामयाशांस्यरुचि ग्रहण्या
इन्द्रोयगकी जड़, अतीस, भरंगी, कूठ, नाग- दोषं किलासं विविधश्च कुष्ठम् ॥ रमोथा, फूल प्रियङ्गु, बायबिडंग, त्रिफला, पीपल, | लोध, कचूर, पोखरमूल, इलायची, मूर्वा, चव, पीपलामूल और अजवायन ११-१२ तोला बायबिडंग, हर्र, बहेड़ा, आमला, अजवायन, चव, लेकर सबको अधकुटा करके ३२ सेर पानीमें फूलप्रियङ्गु, सुपारी, इन्द्रायगको जड़, चिरायता, पकावें और ८ सेर पानी शेष रहने पर छान लें। कुटकी, भरंगी, तगर, चीतामूल, पीपलामूल, कठ, तदनन्तर उसमें ४ सेर शहद मिलाकर सबको | अतीस, पाठा, इन्द्रजौ, नागकेसर, इन्द्रायण, नखी,
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आसवारिष्टप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः
१२७
तेजपात, काली मिरच और केवटीमोथा ११-१।। तस्मिन् दद्यात्तु कृष्णायाः प्रस्थं प्रस्थत्रयं तथा। तोला लेकर सबको अधकुटा करके ३२ सेर पानीमें त्रिफलाया बिडंगानां कुडवं मरिचस्य च ॥ पकावे और ८ सेर पानी शेष रहने पर छानकर काश्मरीफलमद्वीकापरूषकफलानि च । उसमें ४ सेर शहद मिलाकर सबको चिकने मट
वत्सकस्य च बीजानि समानि मरिचेन तु ॥ केमें भरकर उसका मुख बन्द करके रख दें। और १५ दिन पश्चात् निकालकर छान लें।
पञ्चमूलं च षड्ग्रन्थां दन्ती चित्रकमेव च । ___इसे १० तोलेकी मात्रानुसार सेवन करनेसे |
द्वे द्वे पले च भल्लाताद्भिषक् समुपकल्पयेत् ॥ कफज और पित्तज प्रमेह तथा पाण्डु, अश, यवपल्ले स्थितः पेयोऽरिष्टो मात्रा बलं प्रति । अरुचि, ग्रहणी, किलास कुष्ठ और अन्य अनेक पाण्डुरोगोदरे हन्ति ग्रहण्यविकारनुत् ।। प्रकारके कुष्ठ नष्ट होते हैं।
परं भगन्दरप्लीहशोषकासामयापहः । ( व्यवहारिक मात्रा-३-४ तोले ।) अग्निसन्दीपनः पथ्यो वाधिर्यस्थौल्यनाशनः ॥ (५३३४) मध्वासवः (५)
मस्त्वासव इति ख्यातो लेखनो मेदुरे हितः॥ (वा. भ. । अ. १० ग्रहणी.; च. सं.। चि.
__३२ सेर अत्यन्त निर्मल और सफेद मस्तु अ. १९ ग्रहण्य.; वं. से. । ग्रहण्य.)
(दह का पानी) ले कर उस में ६। सेर गुड़ तथा १ सेर मध्कपुष्पस्वरसं भृतमर्द्धक्षयीकृतम् ।।
पीपल; १-१ सेर हर्र, बहेड़ा, आमला; २० तोले क्षौद्रपादयुतं शीतं पूर्ववत्सनिधापयेत् ॥
बायबिडंग, २० तोले काली मिर्च और २०-२०
तोले खम्भारीके फल, मुनक्का, फालसेके फल और तत्पिबन्ग्रहणीदोषाअयेत्सर्वान्हिताशनः॥
इन्द्रजौ तथा १०-१० तोले शालपर्णा, पृष्टपणी, १६ सेर महुवेके फूलोंके स्वरसको पकाकर | कटेली, कटेला (बनभंटा), गोखरु, पीपलामूल, आधा शेष रक्खें और फिर उसे ठण्डा करके उसमें दन्तीमूल, चीतामूल और शुद्ध भिलावा कूट कर २ सेर शहद मिलाकर चिकने पात्रमें भरकर उसका
मिलादें । फिर सबको बच तथा कूटके चूर्णका मुख बन्द करके रख दें और १ मास पश्चात्
लेप किये हुवे मटके में भरकर उसका मुख बन्द निकालकर छान लें । इसे सेवन करने और पथ्य |
कर दें और उसे अनाजके ढेरमें दबा दें तथा १ पालन करने से समस्त ग्रहणी विकार नष्ट होते हैं ।
मास पश्चात् निकालकर छान लें। (५३३५) मस्त्वासवः
इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे पाण्डु, (गदनिगह । आसवा.)
उदररोग, ग्रहणी-विकार, अर्श, भगन्दर, प्लीहा, वंशपत्रीमतीकाशमस्तु द्रोणे सुनिर्मले। शोष, खांसी, आम, बधिरता और स्थूलताका नाश क्षिपेद् गुडतुलां भाण्डे बचा कुष्ठविलेपिते ॥ होता तथा अग्नि दीप्त होती है।
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१२८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
(५३३६) महाद्राक्षासवः (१)
| पातन यन्त्र) के मुखमें केसर और कस्तूरीकी
पोटली लगा देनी चाहिये । ( योग चिन्तामणि । अ. ७)
__इसे अर्क निकालने के ३ बाद सेवन करना द्राक्षायाश्च पलशतं सितायास्तचतुर्गुणम् ।
| चाहिये । इसमेंसे २ पल दोपहरको और ४ पल कर्कन्धूमूलं तस्याधैं मूलार्धे धातुपुष्पको । शामको सेवन करने तथा गरिष्ठ और स्निग्ध क्रमुकं च लवङ्गं च जातिपुष्पफलानि च ।। आहार करनेसे अत्यन्त वीर्य वृद्धि होती है । चातुर्जातं त्रिकटुकं मस्तकी करहाटकम् ॥ इसके प्रभावसे मनुष्य अनेकों स्त्रियोंसे समागम आकल्लकरभं कुष्ठं पलानि दश चाहरेत् ।
रम कुम० पलानि दश चाहत् । कर सकता है। एभ्यश्चतुर्गुणतोयं भाण्डे चैव विनिःक्षिपेत् ।।
( व्यवहारिक मात्रा-२-३ तोले । ) स्थापयेद् भूमिमध्ये तु चतुर्दशदिनानि च ।
महाद्राक्षासवः (२) ततो जातरसं शुद्धं क्षिपेत्कच्छपयन्त्रके ॥ धराधो निक्षिपेत्तस्य मृगनाभिं सकुङ्कमम् ।।
प्रयोग संख्या ३१३२ " द्राक्षासव (महा) एतत्सिद्धं क्षिपेद्धीमान् काचभाण्डे निधापयेत ॥ ५ ” देखिये । त्रिदिनेषु व्यतीतेषु तत्पेयं पलसंख्यया ।
(५३३७) माचिकासवः मध्यान्हे द्विपलं ग्राह्यं सन्ध्याकाले चतुष्पलम् ॥ (गदनिगह । आसवो.) गरिष्ठस्निग्धमाहारं भक्षयेदस्य सेवकः। माचिकायाः शताध तु द्रोणेऽपांच विपाचयेत् । वीर्याभिवृद्धिः प्रभवेन्नराणां रामा सुवश्या ॥ तस्मिंश्चतुर्थशेषे तु पृते शीते प्रदापयेत् ।। एते धन्या मनुजा नरेन्द्रा द्राक्षासवं ये किल गुडस्य द्विशतं दत्वा तत्सर्व घृतभाजने ।
सेवयन्ति ॥ विडङ्गपिप्पलीकृष्णावगेलापत्रकेसरैः ।। मुनक्का ६। सेर, मिसरी २५ सेर; बेरीकी मरिचैश्च तथा चूर्ण सम्यकृत्वा विचक्षणः । जड़ ३ सेर १० तोले, धायके फूल १ सेर ४५ क्षिपेच्च पालिकै गर्घटनीयं समन्ततः ॥ तोले तथा सुपारी, लौंग, जावत्री, जायफल, दाल- ततो यथावलं पीत्वा कासश्वासगलामयान् । चीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर, सोंठ, मिर्च, हन्ति यक्ष्माणमत्युग्रमुरःसन्धानकारकः ॥ पीपल, रूमीमस्तगी, धतूरा, अकरकरा और कूठ माचिकासव इत्येष ब्रह्मणा निर्मितः पुरा । १०-१० पल (५०-५० तोले) ले कर सबको । ३ सेर १० तोले मकोयको ३२ सेर पानीमें कूटकर सबसे ५ गुने पानी में मिलादें और चिकने पकावें और ८ सेर पानी शेष रहने पर छान लें। पात्रमें भरकर उसका मुख बन्द करके उसे भूमिमें जब वह ठण्डा हो जाय तो उसमें १२॥ सेर गुड़; दबा दें एवं १४ दिन पश्चात् निकालकर उसका १० तोले पीपलका चूर्ण तथा ५-५ तोले बाय • अर्क खींच लें । अर्क खींचते समय भबके (अर्क- बिडंग, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर
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आसवारिष्टप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः
१२९
और काली मिर्चका चूर्ण मिलाकर सबको घृतसे
मूलासवः चिकने किये हुवे मिटीके पात्रमें भरकर उसका मुख (च. सं. । चि. अ. १५ ग्रहणी; ग. बन्द कर दें और फिर (१ मास पश्चात् ) निका
नि.। आसवा. ६) लकर छान लें।
दश मूलासव सं. ३१२३ देखिये । उसमें इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे खांसी, वाध्य ओषधियों में चीता पड़ता है परन्तु इसमें श्वास, गलरोग, उग्र राजयक्ष्मा और उरःक्षतका उसके स्थानमें जीरा पडता है तथा उसमें गुड नाश होता है।
केवल २० तोले पड़ता है जो उचित प्रतीत (५३३८) मुस्तकारिष्टः नहीं होता, परन्तु मूलासव के पाठमें गुड़ १२॥
( भैषज्यरत्नावलि । अग्निमांथा.) सेर लिखा है और यही ठीक मालूम होता है। मुस्तकस्य तुलाद्वन्द्वं चतुर्दोणेऽम्भसः पचेत् ।
उसमें प्रक्षेप द्रव्योंका परिमाण ५-५ तोले लिखा
है और मूलासवमें १०-१० तोले । तथा इसमें पादशेषे रसे तस्मिन् क्षिपेद् गुडतुलात्रयम् ॥
उसकी अपेक्षा नागरमोथा अधिक लिखा है । धातकी षोडशपलां यमानीं विश्वभेषजम् । मरिचं देवपुष्पं च मेथीं वह्नि च जीरकम् ।।
वस्तुतः वह 'दशमूलासव' इसीका रूपान्तर मालूम पलयुग्ममितं क्षिप्त्वा रुद्धभाण्डे निधापयेत् । ।
होता है। संस्थाप्य मासमात्रन्तु ततः संस्रावयेद्भिषक् ॥
(५३३९) मृगमदासवः अजीर्णमग्निमान्धश्च विषचीमपि दारुणाम् । (र. रा. सु.; भै. र. । ज्वर.) ग्रहणीं विविधां हन्ति नात्र कार्या विचारणा॥ मृतसञ्जीवनी ग्राह्या पश्चाशत् पलसम्मिताः ।
१२॥ सेर नागरमोथेको १२८ सेर पानीमें / तददै मधु सङ्घाा तोयं मधुसमं तथा ॥ पकावें और जब ३२ सेर पानी शेष रह जाय तो कस्तूरी कुडवं तत्र मरिचं देवपुष्पकम् । उसे छानकर उसमें १८॥ सेर गुड; १ सेर धायके | जातीफलं पिप्पलीत्वक् भागं द्विपलिकं क्षिपेत्।। फूलोंका चूर्ण तथा १०-१० तोले अजवायन, भाण्डे संस्थाप्य रुध्वा च निदध्यान्मासमात्रकम् सोंठ, काली मिर्च, लौंग, मेथी, चीतामूल और विशूचिकायां हिकायां त्रिदोषप्रभवे ज्वरे ॥ जीरेका चूर्ण मिलाकर सबको चिकने मटकेमें भर- वीक्ष्य कोष्ठबलं चैव भिषक् मात्रां प्रयोजयेत् ॥ कर उसका मुख बन्द कर दें और फिर १ मास । मृतसञ्जीवनी सुरा ( अथवा रेक्टी फाइड पश्चात् निकालकर छान लें।
स्प्रिट ) ५० पल (६। सेर ), शहद ३ सेर १० इसे सेवन करनेसे अजीर्ण, अग्निमांद्य, भयङ्कर तोले, पानी ३ सेर १० तोले, कस्तूरी २० तोले विसूचिका और अनेक प्रकारके ग्रहणी रोग अव- तथा काली मिर्च, लौंग, जायफल, पीपल और श्य नष्ट हो जाते हैं।
दालचीनीका चूर्ण १०-१० तोले लेकर प्रथम
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
कस्तूरीको सुरामें धोल लें और फिर सब चीजोंको एतन्मयं पिबेन्नित्यं यथाधातुवयः क्रमम् । कांचके पात्रमें भरकर उसका मुख बन्द करके रख देहदाढर्यकरं पुष्टिवलवर्णाग्निवर्धनम् ॥ दें एवं एक मास पश्चात् निकालकर छान लें। सन्निपातज्वरे घोरे विषच्याश्च मुहुर्मुहुः ।
यह आसव विसूचिका, हिचकी और सन्नि- शीते देहे प्रयोक्तव्यं मृतसञ्जीवनी सुरा ॥ पात ज्वरको नष्ट करता है।
१ सालसे अधिक पुराना गुड़ १६ सेर, कीक( मात्रा-१५-२० बूंद । ) । रकी छाल १। सेर तथा अनारकी बकली, बासा, (५३४०) मृतसञ्जीवनीसरा (१) मोचरस, त्रिफला, बड़ी इलायची, अतीस, असगन्ध, (भैषज्य रत्नावली । ज्वराः; र. रा. सु. । ज्वर ।)
देवदारु, बेलछाल, अरलुकी छाल, पाढलकी छाल,
शालपर्णी, पृश्निपर्णी, कटेली, कटेला (बनभंटा), गुडं द्रोणमितं ग्राह्यं वर्षादृय पुरातनम् ।।
गोखरु, बेरीकी छाल, इन्द्रायण-मूल, चीता, वावरीत्वचमादाय दापयेत्पलविंशतिम् ॥
कौंचके बीज और पुनर्नवा (विसखपरा) १०-१० दाडिमं दृपमोचञ्च वरा क्रान्तारुणा तथा ।
पल ( ५०-५० तोले ) लेकर गुड़के अतिरिक्त अश्वगन्धा देवदारुबिल्खश्योनाकपाटलाः ॥
सब चीजोंको कूट लें और गुड़को सबसे १६ गुने शालिपर्णी पृश्निपर्णी वृहतीद्वयगोक्षुरम् ।
पानीमें घोलकर उसमें अन्य सब चीजें मिलाकर वदरीन्द्रवारुणी चित्रं स्वयंगुप्ता पुनर्नवा ॥
सबको एक बड़े मटकेमें भरकर उसका मुख बन्द एषां दशपलान् भागान् कुट्टयित्वा उदूखले ।
करके रख दें। और १६ दिन पश्चात् उसका सुगम्भीर च मृद्भाण्डे तोयमष्टगुणं क्षिपेत् ॥
मुख खोलकर उसमें २ सेर सुपारी, तथा १०-- गुडसंगोलनं कृत्वा एतैः सम्पूरयेद्बुधः ।
| १० तोले धतूरेकी जड़, लौंग, पद्माक, खस, मुखे शराबकं दत्वा रक्षयेदिनविंशतिम् ॥ पोडसादिवसादूर्ध्व द्रव्याणीमानि दापयेत् ।
सफेद चन्दन, सोया, अजवायन, काली मिरच, पूगप्रस्थद्वयं चात्र कुटयित्वा विनिः क्षिपेत् ॥
सफेद और काला जीरा, कचूर, जटामांसी, दालधुस्तूरं देवपुष्पं च पनकोशीरचन्दनम्।।
चीनी, इलायची, जायफल, नागरमोथा, प्रन्थिपर्णी शतपुष्पा यमानी च मरिचं जीरकद्वयम् ॥
(गठिवन), सोंठ, मेथी, मेढासिंगी और लाल शठी मांसी त्वगेला च सजातीफलमुस्तकम् ।।
चन्दनका चूर्ण मिलाकर पुनः उसका मुख बन्द कर ग्रन्थिपर्णी तथा शुण्ठी मेथी मेषी च चन्दनम्।।
दें और (१५ दिन पश्चात् ) मोचिका यन्त्र अथवा एषां द्विपलिकान् भागान् कुट्टयित्वा विनिक्षिपेत। मयूरयन्त्र (भवके)से उसका अर्क खींच लें। मृण्मये मोचिका यन्त्रे मयूराख्येऽपि यन्त्रके इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे देह यथाविधि प्रकारेण चालनं दापयेद्बुधः। दृढ़ होती और पुष्टि, अग्नि, वर्ण तथा बलकी वृद्धि बुद्धिमान सौजलं कृत्वा उद्धरेत् विधिवत्सुराम्।। होती है । सन्निपात ज्वर अथवा विसूचिकामें
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आसवारिष्टप्रकरणम्)
चतुर्थों भागः
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-
शरीर ठण्डा हो जाय तो इसे थोड़ी थोड़ी देरमें एतन्मयं पिबेनित्यं यथाधातुवयाक्रमम् । बार बार पिलाना चाहिये ।
आरोग्यजननं देहदाढर्यकरलवर्द्धनम् ।। (५३४१) मृतसञ्जीवनीसुरा (२) । धात्वग्निस्मृतिकवीर्यशुक्रकद्वातनाशनम् ।
(नपुंसकामृता. । त. ९) बलपुष्टिकरं चैव कामदं दीपनं परम् ॥ नवं गुडं च सङ्ग्रह्य शतमेकं पलं तथा ।
। दश स्त्री रमयेनित्यमानन्दमुपजायते ।
रणे तेजोमयः सद्यो यथा भीमपराक्रमः ॥ वर्धरीत्वचं च सगृह्य बदरीत्वचमेव च ॥ प्रस्थं प्रस्थं प्रदातव्यं पूगं देयं यथोचितम् ।
नवीन गुड़ ६। सेर, तथा बबूलकी छाल, दत्त्वा लोभ्रं च कुडवमाकं च पलद्वयम् ॥
बेरीकी छाल और सुपारी १-१ सेर एवं लोध
२० तोले और अदरक १० तोले लेकर कूटने तोयमष्टगुणं दत्त्वा गुडं संघोलयेत्सुधीः।। प्रथमे चाकं दद्याद्वितीये बबुरीत्वचम् ।।
| योग्य चीजोंको कूट लें और अदरकको पत्थर पर
पीस लें । तत्पश्चात् सबसे ८ गुने (१६ गुने ) तृतीये बदरीं दत्त्वा गोलयित्वा भिपग्वरः ।
पानीमें प्रथम गुड़ धोलें और फिर उसमें क्रमशः मुखे शरावकं दत्त्वा यत्नात्कृत्वा च बन्धनम् ॥
अदरक, बबू लकी छाल, बेरीकी छाल तथा अन्य मुखं सम्बन्धनं कृत्वा स्थापये दिनविंशतिम् ।
ओषधियां मिला दें और सबको चिकने मटके में मृण्मये मोनिकायन्त्रे मयुराख्यपि यत्रके ॥ भरकर उसका मुख बन्द करके रख दें । एवं २० यथाविधि प्रकारेण मन्दमन्देन वह्निना। दिन पश्चात् निकालकर उसे मयूर यन्त्र अथवा चुहलीमध्ये निधातव्यं मृत्तिका दृढभाजने ॥ मोचिका यन्त्र (भवके) में डालकर मन्दाग्नि पर तदौषधं च तन्मध्ये समुद्धृत्य विनि क्षिपेत् । अर्क खींचें । उस समय ( अर्क खींचते समय) नले च युगलं दत्त्वा कुम्भौ च गजकुम्भवत् ॥ उसमें निम्न लिखित चीजोंका चूर्ण भी डाल देना कुम्भमध्ये निधातव्यं पूगं च सलवालुकम् । देवदारुं लवङ्गं च पञकोशीरचन्दनम् ॥ सुपारी, एलबालुक, देवदारु, लौंग, पद्माक, शतपुष्पा यवानीका मरिचं जीरकद्वयम् । खस, सफेद चन्दन, सोया, अजवायन, काली शठी मांसी त्वगेला च जातीफलसमुस्तकम् ॥ मिरच, सफेद और काला जीरा, कचूर, जटामांसी, ग्रन्थिपणी तथा शुण्ठी मेथी मेषी च चन्दनम्। दारचीनी, इलायची, जायफल, नागरमोथा, गठौना, एपांचाईपलान्भागान्कुट्टयित्वा विनिःक्षिपेत् ॥ सोंठ, मेथी, मेढासिंगी और नन्दनका चूर्ण यथाविधिप्रकारेण चालनं दापयेत्सुधीः ।। २॥-२॥ तोले। बुद्धिमान्सौजलं कृत्वा उद्धरेद्विधिवत्सुराम् ॥ इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे
चाहिये--
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१३२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
स्वास्थ्यकी वृद्धि होती है। यह शरीरको दृढ़ करता,
मृद्धीकासवः तथा बल, धातु, अग्नि, स्मृति और वीर्यको बढ़ाता (शा. ध. । खं. २ अ. १०.) एवं वायुको नष्ट करता है। अत्यन्त वाजी- प्रयोग संख्या ३१३० द्राक्षासव (३) करण है।
| देखिये। इति मकाराद्यासवारिष्टप्रकरणम् ।
अथ मकारादिलेपप्रकरणम् (५३४२) मञ्जिष्ठादिलेपः (१) । (५३४४) मदनफलादिलेपः (३. मा. । श्लीपद.; व. से.; यो. र. । श्लीपद.)
(बृ. मा.; व. से. । शूलरोगा. ) मञ्जिष्ठां मधुकं रास्नां सहस्रां सपुनर्नवाम् ।
| नाभिलेपाजयेच्छूलं मदनः काञ्जिकान्वितः ।
जीवन्तीमूलकल्की वा सतैलः पार्थशूलहा ॥ पिष्ट्वाऽऽरनाललेंपोऽयं पित्तश्लीपदशान्तये ॥ |
मैनफलको कानीमें पीसकर (गर्म करके ) ___मजीठ, मुलैठी, रास्ना, जटामांसी और पुनर्न
| नाभिपर लेप करनेसे शूल नष्ट हो जाता है । वाकी जड़ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
जीवन्तीकी जड़को पीसकर तेलमें मिलाकर इसे काञ्जीमें पीसकर लेप करनेसे पित्तज लेप करनेसे पसलीका शूल नष्ट होता है । श्लीपद नष्ट होता है ।
(५३४५) मदनादिलेपः (१) (५३४३) मञ्जिष्ठादिलेपः (२) ( वृ. नि. र. । श्लीपद. क्षुद रो.) ___ (रा. मा. । विष.)
| मदनं च तथा सिक्थं सामुद्रलवणं तथा ।
| महिषीनवनीतेन संतप्ते लेपने हितम् ॥ मञ्जिष्ठागजकेसरपत्रकरजनीपलेपिता लूता।।
सप्ताहात्स्फटितौ पादौ जायेते कमलोपमौ ॥ नश्यात गण्डस्तु नृणा कृतगुदात्वमलपानाम् ॥ १२ तोले भैंसके नवनीत (नौनी घो) को
मजीठ, नागकेसर, तेजपात और हल्दी समान गरम करके उसमें १ तोला मोम मिला दें और भाग लेकर चूर्ण बनावें।
जब वह पिघल जाए तो उसमें १-१ तोला मैनइसका लेप करनेसे मकड़ीका विष नष्ट फल और समुद्र लवण का चूर्ण मिलाकर होता है।
सुरक्षित रखें। हिंगोटकी छालका लेप करनेसे 'गलगण्ड' इसे निरन्तर १ सप्ताह तक लगानेसे दाह शान्त नष्ट हो जाता है।
| होती और फटे हुवे पैर कमलके समान हो जाते हैं।
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लेपप्रकरणम्
चतुर्थो भागः
(५३४६) मदनादिलेपः (२) कर लेप करनेसे केश शीघही घने, दृढ़, लम्बे और
( शा. सं. । उ. खं. अ. ११) | सीधे हो जाते हैं । मदनस्य फलं तिक्तां पिष्ट्वा काञ्जिकवारिणा (५३४९) मधुकादिलेपः (२) कोष्णं कुर्यात्राभिलेपं शूलशान्तिभवेत्ततः ॥
(ग. नि. । चरा.) मैनफल और कुटकीका समान भाग चूर्ण मधुकं रजनी मुस्तं दाडिमं साम्लवेतसम् । एकत्र मिला कर, उसे कांजीमें पीसकर, जरा गर्म अञ्जनं तिन्तिडीकं च नलदं पत्रमुत्पलम् ॥ करके नाभि पर लेप करनेसे शूल शान्त त्वचं व्याघ्रनखं चैव मातुलुङ्गरसं मधु । हो जाता है।
दिह्यादेभिवरातस्य मस्तुशुक्तयुतैः शिरः ॥ (५३४७) मदनादिलेपः (३)
शिरोभितापसम्मोहवमिहिक्कापवेपनुत् । (वै. जी । वि. ४)
प्रदेहो नाशयत्येष ज्वरितानामुपद्रवान् ।।
मुलैठी, हल्दी, नागरमोथा, अनार, अम्लबेत, मदनसैन्धव गुग्गुलगैरिकाज्यमधुवालकपङ्कविलेपनात् ।
सुरमा, तिन्तडीक, खस, तेजपात, नीलोत्पल, दार. स्फुटितमप्यखिलं चरणद्वयं
चीनी और नखी नामक गन्ध द्रव्यके समान भाग विकचतामरसपतिभं भवेत् ॥
मिश्रित चूर्णको शहद और बिजौरे नीबूके रसमें
अथवो मस्तुशुक्तमें मिलाकर मस्तकपर लेप करनेसे मोम, सेंधानमक, गूगल, गेरु, और सुगन्ध
शिरकी तपन, सम्मोह, वमन, हिक्का और कम्पन आदि बाला ( या खस ) के चूर्ण को घी और शहदमें
ज्वरके उपद्रव शान्त हो जाते हैं। मिलाकर पैरों पर लेप करनेसे पैरोंकी बिवाई नष्ट | होकर पैर कोमल हो जाते हैं।
(५३५०) मधुकादिलेपः (३) ___(पहिले घोको गरम करके उसमें गूगल
( यो. र.; वृ. नि. र.; व. से. । मसूरिका.) मिलावें, फिर मोम मिला दें तथा अन्तमें अन्य
मधुकं त्रिफला मूर्वा दाऊत्वङ् नीलमुत्पलम् । ओषधियोंका चूर्ण और शहद मिलाकर खब घोटे उशीरलोध्रमभिष्ठाः प्रलेपाश्च्योतने हिताः॥
| नशयन्त्यनेन दृग्जाता मसूर्यो न भवन्ति च ॥ (५३४८) मधुकादिलेपः (१)
मुलैठी, हर्र, बहेड़ा, आमला, मूर्वा दारुहल्दीकी (वृ. मा.; व. से. । क्षुद्ररो.)
छाल, नीलोत्पल, खस, लोध और मजीठके समान मधुकेन्दीवरं मूर्वा तिलाज्यगोक्षीरभृङ्गलेपेन । भाग-मिश्रित चूर्णका (पानीमें पीसकर) लेप करने अचिराद्भवन्ति केशा घनदृढमूलायता ऋजवः ॥ और इन्हीं ओषधियोंके जलको आंखमें डालनेसे
मुलैठी, स्थलपन, मूर्वा, तिल और भंगरेके आंखोपर निकली हुई मसूरिका नष्ट हो जाती है समान-भाग-मिश्रित चूर्णको घी और दूधमें मिला- और नवीन नहीं निकलती ।
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१३४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
(५३५१) मधुकादिलेपः (४) मोम, मुलैठी, लोध, राल, मजीठ, सफेद (ग. नि. । प्रदरा.)
चन्दन, और मूर्वाक कल्क तथा ४ गुने पानीके
साथ घृत सिद्ध करें। मधुकोत्पलबीजानि पुषस्य शतावरी ।
इसे लगानेसे हर प्रकारका अग्नि-दग्ध-बग विदारीमिक्षुमूलं च कल्कैधौतघृताप्लुतः॥
भर जाता है। योनौ शिरसि गात्रे च प्रदेहोऽसृग्दरापहः ॥ मुलैठी, नीलोत्पल, खीरेके बीज, सतावर,
( मोम और रालके चूर्णको घी तैयार होनेके
पश्चात् उसमें मिलाकर थोड़ी देर पुनः पका विदारीकन्द और ईखकी जड़ समान भाग लेकर सबको पत्थर पर पीसकर (१०१ बार) धुले हुवे
लेना चाहिये ।) घीमें मिलाकर योनि, शिर और शरीरमें लेप कर- (५३५४) मनःशिलादिगुटिका नेसे रक्त प्रदर नष्ट हो जाता है।
(यो. त. । त. ७८; रा. मा. । विषरोगा. (५३५२) मधुसिक्थकादिलेपः
२८; वृ. नि. र. । विषरोगो.) ( वृ. नि. र. । क्षुद्ररो.)
मनः शिलाकुष्ठफरञ्जबीज
शिरीषकाश्मीरभवैः समांशैः । मधुसिक्थकसैन्धवघृतगुडमहिषाख्यरालनिर्यासैः।
विनिर्मितास्ये विधृतावलिप्ता गैरिकसहितलेपः पादस्फुटनापहः सिद्धः॥
संहारिणी वृश्चिकवैकृतस्य । मोम, सेंधा, घी, गुड़, गूगल, राल और गेरु
मनसिल, कूठ, करञ्ज बीज, सिरसकी छाल समान भाग लेकर पहिले घीको गरम करके उसमें
और केसरका चूर्ण समान भाग लेकर सबको गूगल पीसकर मिला, जब वह मिल जाय तो
(पानीमें पीसकर) गोलियां बनावें । (और छाया में मोम मिला दें; फिर गुड़, और अन्तमें सेंधा, राल
सुखालें।) तथा गेरुका चूर्ण मिलावें । ( यदि आवश्यकता प्रतीत हो तो घी अधिक भी ले सकते हैं।)
बिच्छूके काटे हुवे स्थान पर इस गोलीको
मुहकी लार (थूक) में घिसकर लेप करनेसे विष इसे लगानेसे पैरोंका फटना बन्द हो जाता है।
| उतर जाता है। (५३५३) मधुच्छिष्टाद्यघृतम्
(५३५५) मनःशिलादिलेपः (१) (व. से. । अग्निदग्ध वण.; वृ. मा. । आगंतुकत्रणा.;
(धन्व. । वाजी.) यो. र.; वृ. नि. र. । अग्निदग्ध.)
| मनःशिला वचाकुष्ठं सैन्धवं च पुनस्तथा । मच्छिष्टं समधुकं लोधं सर्जरसं तथा। मधुनालेपयेल्लिङ्गं द्रावयेत् कामिनीजनम् ॥ मनिष्ठां चन्दनं मूर्ती पिष्ट्वा सपिविपाचयेत् ॥ मनसिल, बच, कूठ और सेंधानमकका सर्वेषाममिदग्धानां व्रणरोपणमुत्तमम् ॥ समान-भाग चूर्ण एकत्र मिलाकर उसे शहदमें
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लेपप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः .
घोटकर लिंग पर लेप करनेके थोड़ी देर बाद स्त्री- प्रन्थिश्च भौजः करवोरमूलं समागम करनेसे स्त्री द्रवित हो जाती है।
चूर्णानि साध्यानि तुषोदकेन । (५३५६) मनःशिलादिलेपः (२) पलाशनिर्दाहरसेन वापि ( वृ. नि. र. । त्वग्दो.; व. से. । कुष्ट.)
कर्पोदधृतान्याढकसम्मितेन ।
दार्वीप्रलेपं प्रवदन्ति लेपमनःशिलाल मरिचानि नैल
मेतत्परं कुष्ठविनाशनाय ॥ मार्क पयः कुष्ठहरः प्रसिद्धः। करञ्जवीजैडगजं सकुष्ठं
मनसिल, कुड़ेकी छाल, कूठ, कसीस, पंवाड़के गोमूत्रपिष्टं च वरः प्रदेहः ॥
बीज, करञ्जफल, भोजपत्र वृक्षकी गांठ और कने
रकी जड़का चूर्ण १२-१। तोला लेकर सबको (१) मनसिल, हरताल और काली मिर्चका
८ सेर कांजी या पलाश-निर्दाह रसमें पकावें । चूर्ण तथा आकका दूध और सरसोंका तेल समान
जब अवलेहके समान गाढ़ा होकर करछीको लगने भाग लेकर सबको एकत्र घोटकर लेप करनेसे कुष्ट
लगे तो अग्निसे नीचे उतार लें। (श्वेत कुष्ट) नष्ट हो जाता है ।
यह लेप कुष्टोंको नष्ट करनेके लिये अत्यन्त (२) करन बीज, पंवाड़के बीज और कूटके समान-भाग-मिश्रित चूर्णको गोमूत्रमें पीसकर लेप
उपयोगी है। करनेसे भी कुष्ट नष्ट हो जाता है।
(पलाशनिर्दाह-रसकी निर्माण-विधि)
पलाश (ढाक) के वृक्षकी प्रधान जड़में एक बड़ा (५३५७) मनःशिलादिलेपः (३)
गढ़ा करके उसमें एक धड़ा रख दें और फिर वृक्षमें __ (व. से. । कुष्ट.)
आग लगादें । इससे जो रस वृक्षसे निकल कर समनःशिला विडङ्ग कासीसरोचनाकनकपुष्पी च । घड़ेमें जमा हो उसे निकाल लें । यही 'पलाशवित्राणां प्रशमाथै ससैन्धवं लेपनं दद्यात् ॥ निर्दाह रस' है।)
मनसिल, बायबिडंग, कसीस, गोलोचन, (५३५९) मनःशिलादिलेपः (५) कनेरकी जड़ और सेंधा नमकके समान-भाग- ( वृ. मा.; च. द.; वृ. नि. र.; र. र.; यो. र.; मिश्रित बारीक चूर्णको ( पानीमें पीसकर ) लेप
व. से. । व्रणशोथा.; वृ. यो. त. । त. १११ ) करनेसे (श्वेत कुष्ठ) नष्ट होता है ।
मनःशिला समअिष्ठा सलाक्षा रजनीद्वयम् । (५३५८) मनःशिलादिलेपः (४) प्रलेपः सघृतक्षौद्रस्त्वग्विशुद्धिकरः परः ।।
(च. द. । कुष्ठा. ४९) ___मनसिल, मजीठ, लाख, हल्दी और दारुमनःशिलात्वक्कुटजात्सकुष्ठा
हल्दीके समान भाग मिश्रित बारीक चूर्णको घ त्सलोमशः सैडगजः करमः। | और शहदमें मिलाकर लेप करनेसे, धावको आराम
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१३३
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
होनेके बाद जो निशान रह जाता है वह दूर हो काली मिर्च, सेंधा, पीपल, तगर, कटेलीके कर त्वचाका रंग ठीक हो जाता है। फल, चिरचिटेकी जड़, तिल, कूठ, जौ, उड़द, (५३६०) मनःशिलादिवत्तिः सरसों और असगन्ध । सबका समान-भोग-मि(व. से. । बिषरोगा. )
श्रित महीन चूर्ण शहदमें मिलाकर लेप और मर्दन मनोहासैन्धवं हिङ्गुजातीपत्रं सनागरम् ।
| करनेसे लिंग बढ़ता, स्तन पुष्ट (मोटे) होते और गोशकृद्रससम्पिष्टं गुटिका वृश्चिकातिनुत् ॥
भुजा तथा कान मांसल हो जाते हैं । ____ मनसिल, सेंधानमक, हींग, जावित्री और (५३६३) मरिचादिलेपः (२) सोंठका चूर्ण समान भाग लेकर सबको गायके
(यो. र. । शिरोरोगा.) . गोबरके रस में घोट कर गोलियां बना लें। मरिचं भृङ्गजद्रावैर्मरिचं शालितण्डुलैः ।
इन्हें ( गायके गोबरके रस या पानीमें ) धिस | अर्धशीर्षव्यथां हन्ति लेपो वा शुण्ठिवारिणा ॥ कर लगानेसे बिच्छूका विष उतर जाता है । ___ काली मिर्चके चूर्णको भंगरेके रस अथवा
(५३६१) मरिचादिगुटिका चावलेोके पानीके साथ पीसकर या सेठको पानीमें ( वै. म. र. । पटल १६)
घिसकर लेप करनेसे आधे शिरकी पीड़ा शान्त मरिचस्य हरिद्रायाः शुण्ठया वा
होती है। रेणुभिः कृता गुलिका। (५३६४) मरिचादिलेपः (३) तैलाक्ता संलिप्ता ललाटपट्टे शिरोरुजं हन्यात् ॥ (यो, र.; व. से. । नेत्र रोगा.)
काली मिर्च, हल्दी, सोंठ और रेणुकाका सञ्चूर्ण्य मरिचाक्षे च रजन्या रसमर्दिते । समान भाग मिश्रित बारीक चूर्ण लेकर (पानीमें लेपनादर्मणां नाशं करोत्येष प्रयोगराट् ॥ घोटकर ) गोलियां बना कर छायामें सुखा लें।
हल्दीके स्वरस या काथमें काली मिर्च और इन्हें पीसकर तेलमें मिलाकर मस्तक पर लेप बहेड़ेके समान-भोग-मिश्रित चूर्णको पीसकर लेप करनेसे शिरपीड़ा शान्त हो जाती है। करनेसे अर्म नामक नेत्ररोग नष्ट होता है। यह
(५३६२) मरिचादिलेपः (१) । एक अत्यन्त प्रभावशाली योग है। ( शा. सं. । उ. खं. अ. ११)
(५३६५) मरिचादिलेपः (४) मरिचं सैन्धवं कृष्णा तगरं बृहतीफलम् ।।
(व. से. । क्षुद्ररो.) अपामार्गस्तिलाः कुष्ठं यवा माषाश्च सर्षपाः॥ इन्द्रलुप्ते शिरां मनि स्निग्धस्विन्नस्य मोक्षयेत। अश्वगन्धा च तच्चूर्ण मधुना सह योजयेत् । कल्कैः समरिचैर्दिवाच्छिलाकाशोसतुत्यकैः ।। अस्य सन्ततलेपेन मर्दनाच प्रजायते ॥ इन्द्र लुप्त (गंज) रोगमें पहिले रोगीको यथालिङ्गद्धिः स्तनोत्सेधः संहतिर्भुजकर्णयोः॥ विधि स्निग्ध और स्विन्न करके शिरमें शिरावेध
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लेपप्रकरणम् ]
चतुर्थी भागः
१३७
( फस्त — रक्त - मोक्षण ) करावें, एवं तत्पश्चात् | नमकके चूर्णको धीमें मिलाकर लगाने से मक्खीके काली मिर्च, मनसिल, कसीस और तूतियाके देशको तुरन्त आराम हो जाता है । समान - भाग - मिश्रित चूर्णका ( पानी में पीसकर ) (५३६८) मरिचादिलेप: (७) लेप करें। ( वृ. नि. र. । विष; ध. व. । विष. ) मरिचं नागपेतं सिन्धुसौवर्चलान्वितम् । फणिवल्लीरसैपाद्धन्ति तद्वरटीविषम् ॥
(५३६६) मरिचादिलेप: ( ५ ) ( वा. भ. । चि. अ. १८ ) मरिचं तमालपत्रं कुष्ठं समनःशिलं सकासीसम् । तैलेन युक्तमुषितं सप्ताहं भाजने ताम्रे ॥
नालितं सिध्यं सप्ताहाद्धर्म्मसे विनोऽपैति । मासान्नवं किलासं स्नानेन विना विशुद्धस्य ॥
काली मिर्च, तमालपत्र ( तेजपात ), कूठ, मनसिल और कसीस के ५-५ तोले चूर्णको तेलमें मिलाकर मल्हम सा बनायें और उसे ताम्रपात्रमें भरकर रख दें; तथा सात दिन पश्चात् का लावें ।
इसका लेप करके थोड़ी देर धूपमें बैठनेसे एक सप्ताह में सिध्म (सीध) नामक कुष्ठ और एक मासमें नवीन किलास कुछ नष्ट हो जाता है । इन दिनों में स्नान नहीं करना चाहिये ।
(५३६७) मरिचादिलेप: ( ६ ) ( ग. नि. । विषा; रा. मा. । विप. ) मरिचतगरशुण्ठी के सरैस्तो यपिष्टै
यदि भवति विप्तं मक्षिकादष्टमङ्गम । विषमुपशममेति द्राक्तदानीं तदीयं
घृतयुतशत पुष्पा सैन्धवालेपनाद्वा ॥ काली मिर्च, तगर, साठ और केसर के समान—भाग—मिश्रित महीन चूर्णको पानी में पीस - कर लेप करनेसे अथवा सोयेके बीज और सेंधा
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काली मिरच, सौठ, सेंधा नमक और सञ्चल (काला) नमक के समान भाग मिश्रित चूर्णको पानके रसमें घोट कर लेप करने से वरटी (भिर्र- भिड़ततैन ) का विष नष्ट हो जाता है ।
(५३६९) मसूरादिलेप: (१) (व. से. । वातव्या . ) ममूरविदलैः पिष्टैः शृतशीतेन वारिणा । चरणौ लेपयेत्सम्यक् पाददाहप्रशान्तये ॥
पैरोंमें दाह होती हो तो मसूरकी दालको उबाले हुवे ठंडे पानीमें पीसकर पैरों पर ( तलुवोमें) लेप करना चाहिये ।
(५३७०) मसूरादिलेपः (२) ( वृ. मा. ; धन्व. । क्षुद्ररोगा . ) मसूरेः सर्पिषा पिष्टैर्लिप्तमास्यं पयोन्वितैः । सप्तरात्रेण भवति पुण्डरीकदलप्रभम् ॥
मसूरके चूर्णको घीमें पीस कर, दूधमें मिलाकरमुखपर लेप करने से सात दिनमें मुख कमलके समान शोभायमान हो जाता है ।
(५३७१) मसूरादिलेप: (३) (ग.नि. । विसर्पा . ) मसुरैः खण्डितैर्मुद्गैश्चणकैः समकुष्ठकैः । यवैश्च निस्तुषैस्तद्रल्लेपो वीसर्पनाशनः ॥
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१३८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि मसूर, मूंग, चना, मोठ और छिलके-रहित । जलांश शुष्क हो जाए तो घीको छानकर उसमें जौ के (समान भाग मिश्रित अथवा पृथक् पृथक्) | मोम (कल्कमें कथित) मिलादें । चूर्णको ( घीमें मिलाकर) लेप करनेसे विसर्प नष्ट
यह घृत समस्त प्रकारके ब्राको नष्ट कर होता है।
देता है । आगन्तुक व्रण, सहज व्रण, शिरके ब्रण (५३७२) महा गौर्याचं घृतम् और विषम नाडीव्रण ( नासूर ) भी इसके प्रभावसे
(ग. नि. । घृता.) शीघ्र ही भर जाते हैं। गौरी हरिद्रा मञ्जिष्ठा मांसी कटुकरोहिणी ॥ |
(५३७३) महाराष्ट्रयादिलेपः प्रपौण्डरीकं मधुकं भद्रमुस्तं सचन्दनम् ।।
(र. चि. । स्क. १०) जातीनिम्बपटोलञ्च कारखं बीजमेव च ॥ महाराष्ट्रीसकर्पूरा ह्येकचिश्चाफलद्रवः । कट्फलं समधूच्छिष्टं समभागानि कारयेत् । द्रावयेलिङ्गलेपेन सद्यो हि बहुकामिनीः ॥ पञ्चवल्ककषायेण घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥
___ जलपीपल और कपूर के समान भाग मिश्रित सीरद्विपस्थसंयुक्तं शनैर्मदग्निना पचेत् । चूर्णको इमलीके फलके रसमें घोटकर लिंग पर लेप एतद्गौरं महावीर्य सर्वव्रणविशोधनम् ॥ | करके स्त्री-समागम करनेसे स्त्री शीघ्र ही द्रवित हो आगन्तुसहजाश्चैव शिरःश्लिष्टाश्च ये व्रणाः। जाती है। विषमामपि नाहीं च रोहयेच्छीघ्रमेव च ॥ |
(५३७४) माकन्दफलादिलेपः कल्क-दारु हल्दी, हल्दी, मजीठ, जटा
(शा. सं. । उ. खं. अ. ११) मांसी, कुटकी, पुण्डरिया, मुलैठी, नागरमोथा, सफेद
| माकन्दफलसंयुक्तमधुकर्पूरलेपनात् । चन्दन, जावत्री, नीमके पत्ते, पटोल, करञ्जबीज,
गतेऽपि यौवने स्त्रीणां योनिढातिजायते ॥ कायफल और मोम समान भाग मिश्रित २० तोले
__ आमका फल और कपूरके चूर्णको शहदमें ( प्रत्येक १ तोला ४ माशे ) लेकर, मोमके अति
मिलाकर लेप करनेसे गतयौवना स्त्रीकी योनि भी रिक्त सब चीजोंको कूट लें ।
अत्यन्त संकीर्ण हो जाती है। काथ--बड़, पीपलवृक्ष, गूलर, पिलखन और बेतकी छाल समान भाग मिश्रित ४ सेर
(५३७५) माकन्दबीजादिलेपः (प्रत्येक ६४ तोले ) लेकर सबको अधकुटा करके
(रा. मा. । शिरो.) ३२ सेर पानीमें पकावें । जब ८ सेर पानी शेष माकन्दबीजसहितामलकालिप्तरहे तो छान लें।
मूर्ध्न शिरोरुहभरः समुपैति दृद्धिम्। २ सेर घीमें ४ सेर दूध और उपरोक्त कल्क आमकी गुठली और आमले को पानीमें तथा काथ मिलाकर मन्दामि पर पकावें । जब | पीसकर लेप करनेसे केश खूब बढ़ते हैं।
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लेपपकरणम् ।
चतुर्थों भागः
१३९
(५३७६) माजुफलादिलेपः (१) (५३७७) माजुफलादिलेपः (२) ( यो. त. । त. ७३ )
(वै. वल्लभ । वि. ७) पलप्रयं माजुफलं हरीतक्याः पलं तथा । घृष्टं माजूफलं व्रीहिवारिणा कृतलेपनात् ।
आमलक्यास्तु सप्तैव पलैकं खदिरस्य च ॥ नृणां तारुण्यजां हन्ति पिडिकां वदनोद्भवाम् ॥ तुत्थस्यापि पलैकं तु नीलीवटया दशैव तु । माजूफलको चावलोंके पानीमें घिसकर लेप नवसादरकस्यैकं लोहचूर्णस्य चैककम् ॥ करनेसे तारुण्य-पिडिकाओं (मुखके मुहासे) का तुवर्याः पलमेकं तु पलं ताम्रविशस्तथा।। नाश हो जाता है। अतिश्लक्ष्णमिदं घृष्टं भृङ्गराजरसेश्चिरम् ॥
___ (५३७८) मातुलुङ्गकेसरादियोगः सन्धितं त्रिदिनं लौहे भिन्नाञ्जनसमप्रभम् ।
(व. से. । पित्तज्वर.) सेक्षीकृत्य कचानादौ पुनस्तेनावलेपयेत् ॥ वातारिपत्रैरावेष्टय सुप्ति कुर्याद्विचक्षणः।।
जिहातालुगलक्लोमशोषे मूर्ध्नि च दापयेत् । मातस्तैलामलैः स्नात्वा नरो जायेत निश्चितम्॥
केसरं मातुलुङ्गस्य मधुसैन्धवसंयुतम् ॥ भिन्नकज्जलभृङ्गालीनिभकुन्तलसन्ततिः॥
___ बिजौरे नीबूकी केसर और सेंधा नमकके ____ माजूफल १५ तोले, हर्र ५ तोले, आमला
चूर्ण को शहद में मिलाकर शिर पर लेप करनेसे ३५ तोले, खरसार ५ तोले, नीला थोथा ५ तोले, /
| जिह्वा, तालु, गले और क्लोमके शोष (खुशकी) नीलकी टिकिया ५० तो., नौसादर ५ तोले,
का नाश होता है। लोहचूर्ण ५ तोले, गोपीचन्दन ५ तोले, ताम्रचूर्ण
(५३७९) मातुलुङ्गरसादियोगः ५ तोले और चांदीका चूर्ण ५ तोले लेकर सबका
(व. से. । ज्वरा. ; ग. नि. । ज्वरा.) अत्यन्त महीन चूर्ण करके उसे कई दिन तक | स्वरसं मातुलुङ्गस्य संयुक्तं मधुसर्पिषा । भंगरेके रसमें घोट कर कज्जलसा काला करलें । तालुशोषे प्रदेहोऽयं मूनि दाहे ससैन्धवः ॥ तत्पश्चात् लोह-पात्रमें भरकर उसका मुख बन्द |
बिजौ रे नीबूके स्वरसमें समान भाग शहद करके रख दें और ३ दिन पश्चात् काममें लावें ।
और घी तथा जरासा सेंधानमक मिलाकर शिरपर । बालोको (साबुन आदिसे धोकर) चिकनाई लेप करनेसे तालुशोष और दाहका नाश होता है। रहित करके यह लेप लगावें जौर ऊपरसे अरण्डका
(५३८०) मातुलुङ्गादिलेपः (१) पत्ता बांधकर सो रहें। दूसरे दिन प्रातः काल
(व. से. स्त्री रो.) बालोंको तैल मिश्रित आमलेका चूर्ण लगाकर | मातुलुङ्गस्य मूलन्तु माल्लकामूलमव स्नान कर लें।
| बिल्वमुस्तमिदं लेपं शिरोरोग विनाशनम् ॥ ___ इस प्रकार इस लेपके प्रयोगसे सफेद बाल बिजौरे नीबूकी जड़, मल्लिका की जड़, बेल भौं रेसे काले हो जाते हैं।
छाल और नागरमोथेको बारीक पीस कर ( शिर
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१४० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि पर ) लेप करनेसे शिरोरोग (प्रसवके पश्चात् | लेकर (पानीमें या घी कुमारके रसमें पीस कर ) होने वाली मक्कल शूलान्तर्गत शिर पीड़ा ) का नाश लेप करनेसे वातज शोथ नष्ट होता है । होता है।
(५३८४) मायाफलादियोगः (५३८१) मातुलुङ्गादिलेपः (२)
(रा. मा. । स्त्री रोगा. ३०) (व. से. । मसूरिका.; ग. नि. । मसूरि.)
मायाफलैर्यद्घनसारपुष्पसौवीरेण तु सम्पिष्टं मातुलुङ्गस्य केशरम् ।
सारान्वितैर्लेपितमादरेण । प्रलेपारपाचयत्याशु दाहं वापि नियच्छति ।। ___ बिजौरे नीबूकी केसरको सौवीरक कांजीमें
तदृद्धभावेऽपि वलीविमुक्तं पीस कर लेप करनेसे मसूरिका शीघ्र पक जाती है
स्त्रीणां वराङ्गं श्लथतां न याति ॥ और दाह शान्त होती है।
माजूफल और कपूरके चूर्णको शहदमें मि(५३८२) मातलङ्गादिलेपः (३) लाकर लेप करनेसे स्त्रीकी योनि वृद्धावस्थामें भी (शा. सं. । उ. खं. अ. ११; वृ. नि. र. ।
| बलि रहित हो जाती है और शिथिल नहीं होती। क्षुद्ररो.; वं. से.; वृ, मा. । क्षुद्र रोगा.) (५३८५) माषमस्यादिलेपः मातुलुङ्गजटा सर्पिः शिला गोशकृतो रसः ।
(रा. मा. । शिरो.) मुखकान्तिकरो लेपः पिटिकाव्यङ्गकालजित् ।। अन्तर्धमविदग्धमाषसुमसीमध्येऽर्कदुग्धं क्षिपे
बिजौरे नीबूकी जड़ और मनसिलका चूर्ण तैलं सर्षपसम्भवं च विमलं तेन प्रलिम्पेच्छिरः। तथा घी और गायके गोबरका रस समान भाग रोगान्मूर्ध्नि समुद्भवान्बहुविधांस्तद्वच्च वक्तोलेकर सबको एकत्र मिलाकर लेप करने से मुखकी
भवान् कान्ति बढ़ती और पिडिका, व्यङ्ग तथा कालक | | खालित्यं पलितानि चोपशमयत्येतत्पयुक्तं आदिका नाश होता है।
नृणाम् ॥ (५३८३) मातुलुङ्गादिलेपः (४)
उड़दोंको होण्डी में बन्द करके इस प्रकार ( वृ. मा. । व्रणशोथा.; वृ. नि. र.; व. से.; यो. फूकें कि धुंवा बाहर न निकले । तत्पश्चात् इस
र.; ग. नि. । व्रणशोथ.) राखमें (समान भाग) आकका दूध और सरसोंका मातुलङ्गानिमन्थौ च सुरदारु महौषधम् । तेल मिलावें । अहिंस्रा चैव रास्ना च प्रलेपो वातशोथजित् ॥ शिर पर इसका लेप करनेसे खालित्य (गंज), ___ बिजौ रेकी जड़, अरनीकी जड़, देवदारु, सोंठ, और पालित्य (बाल सफेद होना) इत्यादि बहुतसे कटेली और रास्ना को समान भाग मिश्रित चूर्ण रोग नष्ट होते हैं ।
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पकरणम् 1
(५३८६) माहेश्वरो लेपः
( वैद्यामृत । विषय ४० )
गन्धं सुतं शिलालो मरिच -
मपि निशायुग्म सिन्दूरतुत्थाः । दो वाकुचीतज्जरणयुगमिदं निम्बु तोयाज्ययुक्तम् ॥ लौहे लौन म प्रहरमितमथो
हन्ति माहेश्वराख्यम् । द कण्डू च पामां हर इव पटली संस्मृतः पातकानाम् ॥
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चतुर्थी भागः
गन्धक, पारा, मनसिल, हरताल स्याह मिर्च, हल्दी, दारूहल्दी, सिन्दूर, नीलाथोथा, पंवाड़, बाबची, जीरा और स्याह जीरा समान भाग लेकर चूर्ण करके सबको लोहे के खरल में डालकर नीबू के रस और घीके साथ लोहेकी मूसलीसे १ पहर तक खरल करें ।
यह माहेश्वर नामक योग दाद, पामा और खाजको इस प्रकार नष्ट कर देता है जिस प्रकार परमेश्वरका स्मरण पाप-समूह को ।
(५३८७) मांस्यादिलेप: (१)
( शा. सं. । उ. खं. अ. ११; यो. र.; वृ. नि. र.; विसर्पा ; वृ. यो. त. । त. १२३ ) मांसी सर्जरसो लोध्रं मधुकं सहरेणुकम् । मूर्वा नीलोत्पलं पद्मं शिरीषकुसुमानि च ॥ एतैः प्रदेहः कथितो वह्निवीसर्पनाशनः ॥
जटामांसी, राल, लोध, मुलैठी, रेणुका, मूर्वा, नीलोत्पल, कमल और सिरसके फूल समान भाग
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१४१
लेकर सबको पीसकर ( सौ बार धोये हुवे घी में मिलाकर) लेप करनेसे अग्निविसर्प नष्ट होता है । (५३८८) मांस्यादिलेप: (२) ( यो त । त. ७३ )
मांसी कुष्ठं तिलाः कृष्णाः सारिवामूलमुत्पलम् सक्षौद्र क्षीरपिष्टानि केशसंवर्धनं परम् ॥
जटामांसी, कूठ, काले तिल, सारिवाकी जड़ और नीलोत्पल समान भाग लेकर सबको दूधमें पीसकर शहद में मिलाकर लेप करनेसे केशवृद्धि होती है।
(५३८९) मांस्यादिलेप: (३) ( व. से. । विसर्प. ) मांसी सर्जरसं लोध्रं मधुकं सह रेणुभिः । हरेणवो मसूराच मुद्राश्चैव सशालयः ।। पृथक् लेपा विसर्पन्नाः सर्वे वा सर्पिषा सह ॥
जटामांसी, राल, लोध, मुलैठी, रेणुका, पित्तपापड़ा, मसूर, मूंग और शाली चाबल सब समान भाग मिश्रित अथवा पृथक् पृथक् ( चाहे जो ) लेकर पीसकर घीमें मिलाकर लेप करनेसे विसर्प होता है।
(५३९०) मांस्यादिलेप: (४) ( रा. मो. । शिरो.; यो त । त. ७३ ) मांसीवलाकुवलया मलकैः सकुष्ठैः
पुंसः प्रलिप्तशिरसो न पतन्ति केशाः । स्निग्धायताश्च कुटिलाकृत्तयो भवन्ति ते प्रत्युतास्य तरुणालिकुलप्रकाशाः ॥ जटामांसी, खरैटीकी जड़, कमल, आमला और कूठ समान भाग लेकर महीन चूर्ण बनावें । १. " बकुलजा" इति पाठान्तरम् ।
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3
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१४२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि बालों पर इसका लेप करनेसे बाल गिरने | पिष्टैः प्रलेपो विहितो मुखस्य बन्द हो जाते हैं तथा केश स्निग्ध, लम्बे, धुंघराले श्रुति शशाङ्कादधिकां विधत्ते ॥ और काले होते हैं। (५३९१-५४११) मुखकान्तिकरालेपाः (च. द.। क्षुद्र. ५४) (र. र. । क्षुद्र.)
कालीयकोत्पलामयदधि माक्षिकं तालकं तुत्थं राजावर्तशिलाजतु । ___ सखदरास्थिमध्यफलिनीभिः । महिषाक्षं सर्वतुल्यं पेषयेन्महिषीपयैः ।। लिप्तं भवति च वदनं सप्ताह मईयेद्गाढं व्यङ्गघ्नं कान्तिवर्द्धनम् ।
शशिप्रभं सप्तरात्रेण ॥ महिषीक्षीरमथितमेतदुद्वर्त्तनं हितम् ॥ मुखवर्णकरं स्त्रीणां तिलकालं च नाशयेत् ॥ तुपरहितममृणयवचूर्ण
___ सयष्टीमधुकलोध्रलेपेन । मधुनादाडिमाईत्वग्लेपोव्यङ्गविनाशनः । भवति मुखं परिनिर्जितव्यङ्गजिद्वरुणत्वग्वा छागदुग्धप्रपेषिता ।
चामीकरचारुसौभाग्यम् ॥
(१०) केवलाम्पयसापिष्ट्वा तीक्ष्णान् शाल्मलिक- रक्षोनशर्वरीद्वयं
__ण्टकान् । मञ्जिष्ठागैरिकाहयैस्तु पयः । आलिप्त व्यहमेतेन भवेत्पनोपमं मुखम् ।। सिद्धेन लिप्तमानन
मुद्यद्विधुबिम्बवद्विभाति ॥ श्वेत पुनर्नवामूलं सर्पाक्षीमूलसंयुतम् ।
(११) उद्वर्त्तनं हरेत्स्त्रीणां अक्षिच्छायाश्च दुःसहाः॥ परिणतदधिशरपुंखैः
कुवलयदलकुष्ठचन्दनोशीरैः। महिषीक्षीरसम्पिष्टमञ्जनं रक्तचन्दनम् ।
मुखकमलकान्तिकारी कृतो लेपो निहन्त्याशु मक्षिकां गण्डयोः
भृकुटीतिलकालकाञ्जयति ॥ स्थिताम् ॥ (यो. त. । त. ६९)
(च. द. र. र. । क्षुद्र.)
प्रियङ्गकाश्मीरजकोलमज्जा
हीबेरकैश्चन्दनभागयुक्तैः।
नवनीतगुडक्षौद्रकोलमज्जपलेपनम् । व्यङ्गजिदरुणत्वग्वा छागक्षीरमपेषिता ।
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लेपप्रकरणम् ]
चतुर्थों भाग
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(१३-१४) जातीफलकल्कलेपो नीलिव्यङ्गादिनाशनः ।
___बकरीके दूधमें बरनेकी छालको पीसकर लेप सायं च कटुतैलेनाभ्यङ्गो वक्तप्रसादनः ॥
| करनेसे व्यङ्ग (मुखकी झाई) का नाश होता है ।
(४) ( चरक; र. र. । क्षुद्ररो.)
सेमलके तीक्ष्ण कांटोंको दूधमें पीसकर लेप (१५-१६)
करनेसे ३ दिनमें ही मुख कमलके समान सुन्दर लोध्रधान्यवचालेपस्तारुण्यपिडकापहः । | हो जाता है। तद्वद्गोरोचनायुक्तं मरिचं मुखलेपतः ॥
___ सफेद पुनर्नवाकी जड़ तथा सर्पाक्षीकी जड़को सिद्धार्थकवचालोधसैन्धवैश्च प्रलेपनम् । पीस कर मलनेसे स्त्रियोंकी अक्षिच्छाया (आंखोंके वमनं च निहन्त्याशु पिडकां यौवनोद्भवाम् ॥ पासको कलौंस ) नष्ट होती है।
(१८-२०) व्यङ्गेषु चार्जुनत्वग्वा मञ्जिष्ठा वा समाक्षिका । सुरमे और लाल चन्दनके समान-भागलेपः सनवनीता वा श्वेताश्वखुरजा मसी ॥ मिश्रित चूर्णको भैसके दूधमें पीसकर लेप करनेसे (२१)
गण्डस्थित मक्षिका (चेहरेके मस्सों ) का नाश रक्तचन्दनमजिष्ठालोध्रकुष्ठप्रियङ्गवः ।। होता है। वटाङ्कुरमसूराश्च व्यङ्गना मुखकान्तिदाः ॥
(७)
___ फूल प्रियङ्गु, केसर, बेरकी गुठलीके भीतरकी सोनामक्खी, हरताल, नीला थोथा, राजावर्त,
गिरी, सुगन्धवाला और लाल चन्दनके समानशिलाजीत और भैंसिया गूगल समान भाग लेकर
भाग-मिश्रित-चूर्णको ( पानी या दूधमें ) पीस सबको भैसके दूधमें महीन पीसकर मुखपर अच्छी
| कर लेप करनेसे मुखकान्ति चन्द्रमासे भी उज्ज्वल
हो जाती है। तरह मलनेसे एक सप्ताहमें व्यङ्ग (झांई) और तिल, कालक आदिका नाश हो कर मुखकी कान्ति बढ़ती है।
दारु हल्दी, नीलोत्पल, कूठ, दहीकी मलाई,
बेरकी गुठलीके भीतरकी गिरी और फूल प्रियंगु अनारकी ताजी छालको पीसकर शहदमें | समान-भाग लेकर बारीक चूर्ण बनावें। मिलाकर लेप करनेसे व्यङ्ग ( चेहरेकी झांई ) का सात दिन तक निरन्तर इसका लेप करनेसे नाश होता है।
मुख चन्द्रमाके समान दीप्तिमान हो जाता है।
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१४४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
तुष-रहित जौ, मुलैठी और लोधके समान- लोध, धनिया और बचके समान-भाग-- भाग-मिश्रित अत्यन्त महीन चूर्णका ( पानी या | मिश्रित चूर्णको (पानी या दूधमें घोट कर ) लेप दूधमें पीसकर ) लेप करनेसे मुख अत्यन्त सुन्दर करनेसे तारुण्यपिडका (मुहांसे) नष्ट हो जाती हैं । हो जाता है।
गोलोचन और काली मिर्चको एकत्र पीसकर सफेद सरसों, हल्दो, दारु हल्दी, मजीठ और | लेप करनेसे भी मुहांसे नष्ट हो जाते हैं। गेरु के समान-भाग--मिश्रित चूर्णको दूधमें घोट कर लेप करनेसे मुख चन्द्रमाके समान दीप्तिमान
तारुण्य पिडका (मुंहासे) को नष्ट करनेके हो जाता है।
लिये सरसों, बच, लोध, और सेंधानमकके समान
भाग मिश्रित चूर्णको (पानीमें) पीसकर लेप करना सरफोंका, नील कमलके पत्ते, कूठ, लाल
चाहिये। चन्दन और खस के समान-भाग-मिश्रित चूर्णको
वमन करानेसे भी मुंहासे शीघ्र ही नष्ट हो
जाते हैं। खट्टी दहीमें घोट कर लेप करनेसे भ्रकुटी ( मस्त. ककी बलि ) और तिल कालक आदि नष्ट हो कर
(१८-२०)
अर्जुनकी छालके चूर्ण या मजीठके चूर्णको मुखकी शोभा बढ़ती है।
शहदमें मिलाकर लेप करनेसे अथवा सफेद घोड़ेके (१२)
खुरकी राखको मक्खनमें मिलाकर लेप करनेसे नवनीत (नौनी घी), गुड़, शहद और बेरकी
व्यङ्ग नष्ट होता है। गुठलीकी गिरी समान भाग लेकर सबको एकत्र घोटकर लेप करनेसे अथवा बरनेकी छालको बक
___ लाल चन्दन, मजीठ, लोध, कूठ, फूलप्रियङ्गु, रीके दूधमें घोट कर लेप करनेसे व्यङ्ग नष्ट
बड़के अंकुर और मसूर । इनका लेप करनेसे होता है।
| मुखकान्ति बढ़ती और व्यङ्ग का नाश होता है । (१३-१४)
(५४१२) मुण्डीघृतम् जायफलको पानीमें पीसकर लेप करनेसे
(वृ. नि. र. । त्वग्दो.) नीलिका, व्यङ्गादि रोग नष्ट होते हैं। मुण्डीरसेन संसिद्धं घृतं हन्ति विपादिकाम् ॥ ___ सायंकालको मुखपर सरसोंके तेलकी मालिश | १ सेर मुण्डीके स्वरस (या काथ) में १ पाव करनेसे भी मुखकी शोभा बढ़ती और चेहरा स्व-घो मिलाकर पकावें । जब रस जल जाए तो धीको च्छ हो जाता है।
| छान लें।
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लेपप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
१४५
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इसे लगानेसे विपादिका (पैरांकी बिवाई )। (५४१६) मुस्तादिलेपः नष्ट होती हैं।
. (यो. र. । बाल.) (५४१३) मुण्डीमूललेपः मुस्तकूष्माण्डबीजानि भद्रदारुकलिङ्गकान् । (वृ. नि. र. ; यो. र. । गण्डमाला.) पिष्ट्वा तोयेन संलिम्पेल्लेपोऽयं शोथहच्छिशोः निजद्रवेण सम्पिष्टं मुण्डीमूलं प्रलेपयेत् ।
नागरमोथा, पेठेके बीज, देवदार और इन्द्रजौ
के समान भाग-मिश्रित चूर्णको पानीमें पीसकर गण्डमाला क्षयं याति तद्रसं च पिवेत्पलम् ॥
लेप करनेसे बच्चौका शोथ नष्ट होता है । ___ मुण्डीकी जड़को उसी (मुण्डी) के रसमें धोट
(५४१७) मूलकक्षारादिलेपः कर लेप करने और नित्य प्रति मुण्डीका ५ तोले
(वं. से. । अर्बुदा.) रस पीनेसे गण्डमाला नष्ट होती है।
मूलकस्य कृतः क्षारो हरिद्रायास्तथैव च । (५४१४) मुगादिप्रलेपः
शङ्खचूर्णेन संयुक्तो लेपः सिद्धाऽर्बुदापहः ॥ (ग. नि. । ज्वरा.) ___मूलीका क्षार, हल्दीका क्षार और शंखका मुद्दामलकचूर्णानि प्रसिक्तानि घृतेन तु। चूर्ण समान भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर लेप अम्लकाञ्जिकयुक्तानि प्रदेहो दाहनाशनः ॥ करनेसे अर्बुद (रसौली) का नाश हो जाता है।
मूंग और आमले के समान--भाग-मिश्रित (५४१८) मूलकबीजादिलेपः (१) चूर्णको धीसे चिकना करके काजीमें मिला कर मोटा
(शा. सं. । उ. खं. अ. ११) मोटा लेप करनेसे ज्वरकी दाह नष्ट होती है। मूलकस्य च बीजानि तक्रेणाम्लेन पेपयेत । (५४१५) मुशल्यादिलेपः
| गण्डमालार्बुदं गण्डं लेपेनानेन शाम्यति ॥
___मूलीके बीजोंको खट्टी छाछमें पीसकर लेप ( यो. र.। कर्णरो.)
| करनेसे गण्डमाला, अर्बुद और गलगण्डका नाश माहिपनवनीतयुतं सप्ताहं धान्यराशिपर्युपितम्। होता है । नवमुसलिकन्दचूर्ण वृद्धिकरं कर्णपालीनाम् ॥ (५४१९) मूलकत्रीजादिलेपः (२) ___ नवीन मूसलीके चूर्णको भैंसके मक्खनमें (ग. नि. । कुष्ठा. ३६ ; रा. मा. । कुष्ठा. ८) मिलाकर किसी पात्रमें बन्द करके अनाजके ढेरमें पिष्टर्मूलकबीजैः प्रत्यक्पुष्पीरसान्वितैर्लेपः । दबा दें और सात दिन पश्चात् निकाल कर सिध्मानिहरति यदि वा रम्भाक्षारेण निशया च।। काममें लावें।
चिरचिटेके पत्तोंके रसमें मूलीके बीज पीस .. इसकी मालिशसे कानोंकी पाली बड़ी हो कर लेप करनेसे अथवा केलेके क्षार और हल्दीका जाती हैं।
लेप करनेसे सिक्ष्म नष्ट हो जाता है। . ૧૯
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१४६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [मकारादि (५४२०) मूलकबीजादिलेपः (३) | स्थानपर नवनीत (मक्खन) मलकर गरम पानीसे ( व. से. । कुष्ठा. वृ. नि. र. । त्वग्दो. ;
| धो डालें । तीन दिन तक यही उपचार करनेसे
सिध्म नष्ट हो जाता है। ग. नि. । कुष्ठा.) बीजानि वा मूलकसर्षपाणां
(५४२२-२३) मृणालादिलेपः ___ लाक्षा रजन्यौ प्रपुनाटबीजम् ।
( वं. से.; ग. नि.; वृ. मा । शिरो.) श्रीवेष्टकव्योषविडङ्गकुष्ठं
मृणालबिसशालूकचन्दनोत्पलकेशरैः । पिष्ट्वा च मृत्रेण सुलेपनं स्यात् ॥ स्निग्धशीतैः शिरो दिहयात्तद्वदामलकोत्पलैः।। दणि सिध्मान् ।कटिभानि
___कमलनाल, कमलकन्द ( भिसण्डा ), कसेरू, पामां कपालकुष्ठं विषमं च हन्यात् ॥ लाल चन्दन, और कमलकेसर समान भाग लेकर
मूलीके बीज, सरसों, लाख, हल्दी, दारुहल्दी, सबको पीसकर घीमें मिलाकर लेप करनेसे अथवा पंवाड़के बीज, श्रीवेष्ट (धूप सरल यो राल), सोंठ, आमले और कमलको पीसकर धीमें मिलाकर लेप मिर्च, पीपल, बायबिडंग और कुठ समान भाग करनेसे शिर पीड़ा नष्ट होती है । ले कर चूर्ण बनावें ।
(५४२४) मृणालादिलेपः इसे बकरेके मूत्रमें पीसकर लेप करनेसे दाद, |
(शा. सं. । उ. खं. अ. ११) सिध्म, किटिभ, पामा और कपालकुष्ठका नाश
मृणालं चन्दनं लोध्रमुशीरं कमलोत्पलम् । हो जाता है।
सारिवामलकी पथ्या लेपः पित्तविसर्पनुत् ॥ (५४२१) मूलकबीजादिलेपः (४)
____ मृणाल (कमल नाल), लाल चन्दन, लोध, (व. से. । कुष्ठा. ; वृ. नि. र.।।
खस, कमल, नीलोत्पल, सारिवा, आमला और हर ___ त्वग्दो. ; यो. र. । कुष्ठ.) समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । बीजं मूलकजं निम्बपत्राणि सितसर्षपान् । इसका लेप करनेसे पित्तज विसर्प नष्ट होता है। गृहधूमश्च सम्पेष्य जलेनाङ्गं प्रलेपयेत् ॥ (५४२५) मोचरसादिलेपः (१) उद्वत्यै नवनीतेन क्षालयेदुष्णवारिणा ।
(वृ. नि. र. ; यो. र. । मेदो) त्र्यहादनेन सिध्मानि शाम्यन्त्याशु शरीरिणाम्।। हितो मोचरसो युक्तश्चूर्णेरुदधिफेनजैः । ___ मूलीके बीज, नीमके पत्ते, सफेद सरसों प्रलेपेन निहन्त्याशु देहदुर्गन्धमुत्कटम् ॥ और घरका धुवां समान भाग लेकर सबको पानीमें
___मोचरस, और समन्दर झागके समान भाग पीस कर सिध्म पर लेप करें फिर (दूसरे दिन) उस
मिश्रित चूर्णका लेप करनेसे शरीरकी दुर्गन्ध नष्ट १ पिष्ट्वाजमूत्रेणेति पाठान्तरम् । हो जाती है।
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धूपप्रकरणम् ] चतुर्थों भागः
१४७ (५४२६) मोचरसादिलेपः (२) __मोचरस, सुपारीकी राख, बेरीकी छाल और ( यो. र. । उपदंशा.)
शंखजीरा ( संगजराहत ) समान भाग लेकर
चूर्ण बनावें । मोचा पूगविभूतिं च कोलत्वकशङ्खजीरकम् ।।
इसे दूधके साथ पीने और घावों पर लगानेसे पिष्ट्रोपदंशे लेपोऽयं पयसा पानमेव च ॥ आतशककी गरमी तुरन्त शान्त होती और घाव नाशयेदुष्णतां तूर्ण शुष्कान्कुर्याव्रणानपि ॥ | सूख जाते हैं ।
इति मकारादिलेपपकरणम्
अथ मकारादिधूपप्रकरणम् (५४२७) मनःशिलादिधूपः । घरमें बन्दर, उल्लू और गोधकी विष्टाकी
( हा. सं. । स्था. ३ अ. ११) | धूनी देना बालकके लिये हितकारी है। मनःशिला सनागरं सगुग्गुलं ससार्षपम् । । (यह प्रयोग — स्कन्दापस्मार ' में उपयोगी है।। सदेवदारु पौष्करं विशल्यासर्जिकै रसम् ।। (५४२९) मशकहरधूपः घृतेन धूपयेद् गुदं गुदामयं भगन्दरम् ।।
(व. से. । कृमि.) निहन्ति दुष्टपीनसं व्रणं सपूयगन्धिकम् ॥ ककुभकुसुमं विडङ्ग लागली भल्लातकं तथोशीरमा
___ मनसिल, सोंठ, गूगल, सरसों, देवदारु, श्रीवेष्टक सर्जरसं मदनथैवाष्टमं दद्यात् ।। पोखरमूल, लांगली (कलिहारी), राल और रसौत एष सुगन्धो धूपो मशकानां नाशनः श्रेष्ठः । समान भाग लेकर चूर्ण बना और उसमें घी शय्यासु मत्कुणानां शिरसि वस्त्रे च युकानाम्।। मिलाकर धूनी दें।
अर्जुनके फूल, बायविडंग, लांगली, भिलावा, गुदाको इसकी धूप (धूनी) देनेसे अर्श और खस, धूपसरल, राल और मोम समान-भाग-लेकर भगन्दर नष्ट होता है।
चूर्ण करें । यह धूप दुष्ट पीनस और दुर्गन्धित पीप युक्त यह सुगन्धित धूप मशक, खाटके खटमल प्रणोंको भी नष्ट करती है।
और शिर तथा कपड़ोंकी जू (यूका) को नष्ट (५४२८) मर्कटपुरीषादिधूपः करती है। (वृ. नि. र. । बाल.)
(५४३०) मसूरधूपः मर्कटोलूकगृध्राणां पुरीषाणि पितृग्रहे।
(वृ. नि. र. । विषमज्व.) धूमः मुझजनैः कार्यों वालस्य हितमिच्छुभिः ॥ मसूरातूपकैधूपः सर्ववरगदापहः ।
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१४८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
होते हैं।
तुपयुक्त मसूरकी धूप देनेसे समस्त ज्वर नष्ट घृतयवमयूरचन्द्रकच्छगलकलोमानि सर्षपा सवचा
हिङ्गुगवास्थिमरीचाः समभागाश्छागमूत्रसम्पिष्टाः (५४३१) मसूरिकान्तकधुपः धूपविधिना शमयन्त्येते सर्वज्वरान्नियतम् ।
( व. से. । मसूरिका.) ग्रहडाकिनीपिशाचप्रेतविकारानयं धूपः ॥ वेणुत्वक् सुरसा लाक्षा कार्यासास्थि मसूरिकाः। रुद्रजटा, गायका सींग, बिल्लीकी विष्टा, सांयवपिष्टं विषं सर्विचा ब्राह्मी सुवर्चला ॥ पकी कांचली, मैनफल, जटामांसी, बांसकी छाल, धूपनार्थं यथालाभं धूममेतत्प्रयोजयेत् । शिवनिर्माल्य, घी, जौ, मोरके पंखका चन्द्रक, आदावेतत्प्रयोक्तव्यं नश्यन्त्याशु मसूरिकाः॥ बकरेके बाल, सरसों, बच, हींग, गायकी हड़ी और न गृह्णन्ति विष केचिद्यथालाभश्रुतेरिह ॥ काली मिरच समान भाग लेकर घीके अतिरिक्त ___ बांसकी छाल, तुलसी, लाख, कपासके बीज समस्त ओषधियोंको एकत्र कूट लें और फिर (बिनौले), मसूर, जौका आटा, अतीस, घी, बच, उसमें घी मिलाकर बकरेके मूत्रमें घोटें । ब्राह्मी और सुवर्चला (हुल हुल) मेंसे जितनी चीजें इसकी धूपसे समस्त ज्वर और डाकिनी, मिलें वे सब समान भाग लेकर धीके अतिरिक्त पिशाच तथा प्रेतादिक उपद्रव शान्त हो जाते हैं । समस्त पदार्थोंको कूट लें और फिर उसमें घी
(५४३४) माहेश्वरधूपः (२) मिला दें। मसूरिकाके प्रारम्भमें इसकी धूप (धूनी)
( र. र. स. । उ. खं. अ. २२.) देनेसे मसूरिका शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। | श्रावेष्टदारुबाहीकमुस्ताकटुकरोहिणी।
कुछ वैद्य इसमें अतीस नहीं डालते ।। सर्षपा निम्बपत्राणि मदनस्य फलं वचा ।। (५४३२) मार्जारविष्ठाधूपः
बृहत्यौ सर्पनिर्मोककार्पासास्थियवास्तुषाः। (वृ. नि. र. । विषमञ्चर) गोशृङ्ग खररोमाणि बहिपिच्छं विडालविद ॥ वैडालं वा शकुद्योज्यं वेपमानस्य धृपने। छागरोमघृतं चेति बस्तमूत्रेण भावितम् । ___ बिल्लीकी विष्टाकी धूनी देनेसे ज्वर सम्बन्धी एष माहेश्वरो धूपः सर्वग्रहनिवारणः ॥ कम्पन नष्ट होता है।
___ धूप सरल, देवदारु, केसर, नागरमोथा, कु(५४३३) माहेश्वरधूपः (१) | टकी, सरसो, नीमके पत्ते, मैनफल, बच, छोटी और (वै. र. । ज्वर. वृ. नि. र. । | बड़ी कटेली, सांपकी कांचली, कपासके बीज
विषमञ्च. ; व. से, । ज्वरा.) (बिनौले), जौकी भूसी, गायका सींग, गधेके बाल, रुद्रजटागोङ्ग विडालविष्ठोरगस्य निर्मोकः। मोरके पंख, बिलावकी विष्टा और बकरेके बाल मदनफलभूतकेश्यौ वंशत्वग्रुद्रनिर्माल्यम् ॥ १-१ भाग लेकर सबको एकत्र कूट लें और फिर
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धूम्रप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः उसमें १ भाग घी मिलाकर सवको बकरेके नागेन्द्रद्विजशृङ्गहिङ्गुमरिचैस्तुल्यैस्तु धूपः कृतः मूत्रमें घोटें।
स्कन्दोन्मादपिशाचराक्षससुरावेशज्वरघ्नःस्मृतः। इसकी धूप देनेसे समस्त ग्रह-दोष नष्ट
बिनौले ( कपासके बीज ), मोरके पंख, होते हैं।
कटेली, शिवनिर्माल्य, तगरे, दालचीनी, जटामांसी, (५४३५) माहेश्वरधूपः (३) बिल्लीकी विष्टा, नखी, बच, मनुष्यके बाल, सांपकी यो. र. । उन्माद ; व. से. ; बृ. नि. र.। कांचली, हाथीदांत, (गायका) सींग, हींग और काली ___ विषमञ्च. ; यो. त.। त. ७७) | मिरच समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । कार्पासास्थि मयूरपिच्छबृहतीनिर्माल्य पिण्डीतक- इसकी धूप देनेसे स्कन्दोन्माद; पिशोच स्वङ्मांसी वृषदंशविण्नखवचाकेशाहिनिर्मोचनैः। राक्षस और सुरावेश तथा ज्वर नष्ट होता है।
इति मकारादिधूपप्रकरणम्
अथ मकारादिधूम्रप्रकरणम् (५४३६) मनःशिलादिधूमम् (१) एक दोषज, द्वि दोषज और सान्निपातिक कास ( भै. र.। कास.; वृ. नि. र.; वृ, मा. ; यो. र.। (खांसी) नष्ट होती है । कासा. ; वा. भ. । चि, अ. ३)
सैकड़ों प्रयोमेसे न नष्ट होने वाली खांसी मनः शिलालमरिच मांसीमस्तेङ्गदैः पिबेत् ।। भी इससे केवल ३ दिनमें नष्ट हो जाती है। धूमं त्र्यहञ्च तस्यानु सगुडश्च पयः पिबेत् ॥ (५४३७) मनःशिलादिधूमम् (२) एष कासान् पृथग्द्वन्द्वसर्वदोषसमुद्भवान् । (भै. र. ; वृ. मा. ; यो. र. ; वृ. नि. र. । कासा.) शतैरपि प्रयोगानां साधयेदप्रसाधितान् ॥ मनः शिला लिप्तदलं वदर्या उपशोषितम् । ___ मनसिल, हरताल, काली मिरच, जटामांसी, सक्षीरं धूमपानश्च महाकासनिबर्हणम् ॥ नागरमोथा और हिंगोटके फल समान भाग लेकर
बेरीके पत्तों पर मनसिलका लेप करके छाकूट लें। इसका धूम्रपान करके गुड़युक्त दूध पीनेसे यामें सुखा लें । इनका धूम्रपान करके बादमें दूध १ वाग्भटमें मरिच की जगह मुलैठी लिखी है। पीनेसे महाकास नष्ट होती है।
इति मकारादिधूम्रप्रकरणम्
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
अथ मकाराद्यञ्जनप्रकरणम्
(५४३८) मञ्जिष्ठाद्यञ्जनम्
( ग. नि. । नेत्ररोगा. ३ ) मष्ठामधुकोत्पलोदधिमलत्वक्सेव्यगोरोचनामांसीचन्दनशङ्कपत्रगिरिमृत्तालैः सपुष्पाञ्जनैः । सर्वैरेव समांशमञ्जनमिदं शस्तं सदा चक्षुषो ति क्लेदमा शोणितरुजः पिल्लार्मशुक्रापहम् ॥
मजीठ, मुलैठी, कमल, समन्दरझाग, दालचीनी, खस, गोलोचन, जटामांसी, लाल चन्दन, शंख, तेजपात, गेरु, (शुद्ध) हरताल और पुष्पा - ञ्जन । प्रत्येकका अत्यन्त महीन कपड़छन चूर्ण समान भाग लेकर सबको एकत्र घोट कर अञ्जन बनावें ।
इसे आंखमें लगानेसे आंखोंका क्लेद (चिपचिपाहट), रक्तज पीड़ा, अर्म और शुक्रादिका नाश होता है ।
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[ मकारादि
(५४४०) मनःशिलाद्यञ्जनम् (२) ( ग. नि. । बिषमज्वर . )
मनःशिलासैन्धव पिप्पलीनां
चूर्ण सतैलं समभागभाजाम् । नेत्रानं तद्विहितं मुनीन्द्रैः सुखाय पुंसां विषमज्वरेषु ॥
मनसिल, सेंधानमक और पीपलका अत्यन्त महोन कपड़छन चूर्ण १-१ भाग लेकर सबको १ भाग (सरसेांके) तेल में मिलाकर घोटें ।
इसका अञ्जन लगानेसे विषमज्वर नष्ट होता है ।
(५४४१) मनःशिलाद्यञ्जनम् (३) (ग. नि. । उन्माद ; यो. र. व. से. ; वृ. मा. | अपस्मा. )
;
मनोहा तार्क्ष्यजं चैव शकृत्पारावतस्य च । अञ्जनं हन्त्यपस्मारमुन्मादं च विशेषतः ॥
मनसिल, रसौत और कबूतरकी विष्ठा समान भाग ले कर सबको एकत्र घोट कर अञ्जन बनावें । इसे लगानेसे अपस्मार और विशेषतः उन्माद नष्ट होता है।
(५४३९) मनःशिलाद्यञ्जनम् (१) ( वृ. नि. र. । सन्निपात ज्वर . ) तुरङ्गलालासहिता मनःशिला
निहन्ति तन्द्रा सकृदअनेन ।
मनसिलको घोड़ेकी लार (थूक) में घिसकर | मनोहातुत्थकस्तूरीमांसीमलयनागरम् । केवल १ बार अञ्जन लगानेसे सन्निपात ज्वरकी | समांशं शङ्खकर्पूरमशीतिगुणमञ्जनम् ॥ तन्द्रा दूर होती है ।
एतच्चूर्णीकृतं सर्व षड्विधे तिमिरे हितम् ॥
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(५४४२) मनःशिलाद्यञ्जनम् (४) ( व. से. । नेत्र रोगा. )
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चतुर्थी भागः
अंजनप्रकरणम् ]
शुद्ध मैनसिल, तूतिया (शुद्ध), कस्तूरी, जटा - मांसी, सेंभलकी मूसली, सोंठ, शंख और कपूर समान भाग लेकर यथा विधि अञ्जन बनावें ।
यह अञ्जन ६ प्रकारके तिमिर रोगोंको नष्ट करता है।
(५४४३) मनःशिलाद्यञ्जनम् (५)
( व. से. । नेत्र. ; यो. र. ।
I
;
नेत्र. वृ. नि. र. । नेत्र. ) शिलासैन्धवकासीसङ्गव्योपरसाअनैः । सक्षौद्रैः काचशुक्रार्मतिमिरघ्नी रसक्रिया ॥
शुद्ध मनसिल, सेंधानमक, शुद्ध कसीस, शंख, सोंठ, काली मिर्च, पीपल और रसौत के १ - १ भाग चूर्णको एकत्र मिलाकर
भाग शह
दमें घोटकर सुरक्षित रक्खें ।
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(५४४५) मरिचादिचूर्णाञ्जनम् ( व. से. ; यो. र. । नेत्र रोगा; वा. भ. । उ. अ. १३ )
शाणार्द्ध मरिचं द्वौ च पिप्पल्यर्णव फेनयोः । शाणा सैन्धवच्छ व सौवीरका अनात् ॥ पिष्टं सूक्ष्मं शिलायाञ्च चूर्णाञ्जनमिदं शुभम् । कण्डूकाचकफार्त्तानां मलानाञ्च विशोधनम् ॥
शुद्ध मनसिल, शंखनाभि, पीपल और रसौत समान भाग लेकर, महीन चूर्ण करके शहद में घोटकर बत्तियां बनावें ।
१५१
काली मिर्चका चूर्ण आधी शाण, पीपलका चूर्ण १ शाण, समन्दर झाग १ शाण, सेंधा नमकका चूर्ण आधी शाण और सौवीराञ्जन (सुरमा) ९ शाण लेकर सबको एकत्र खरल करके अञ्जन बनावें ।
(५४४४) मनःशिलाद्या वतिः
( वं. से. ; ग. नि. । बाल रोगा. ११ ) मनःशिला शङ्खनाभिः पिप्पल्योऽथ रसाञ्जनम् । | बहना) बन्द हो जाता है ।
वर्तः क्षौद्रेण संयुक्ता बाले सर्वाक्षिरोगजित् ॥
यह अञ्जन आंखोंकी खुजली, काच, कफविकार और मैलको नष्ट करता है ।
(५४४६) मरिचाद्यञ्जनम् (१) ( ग. नि. । नेत्र रोगा . )
I
इसे आंखमें लगानेसे काच, शुक्र, अर्म और मरिचांशः शिलार्धेन योजितः सुप्रचूर्णितः । taari हरत्याशु नराणामयमञ्जनात् ॥
तिमिर रोग नष्ट होता है ।
१ भाग शुद्ध मनसिल और २ भाग काली मिरचके चूर्णको एकत्र घोटकर अञ्जन बनावें । इसे आंखों में लगाने से नेत्रस्राव ( ढलका - पानी
(५४४७) मरिचाद्यञ्जनम् (२) ( व. से. । नेत्र रोगा. ; यो. र. ) दध्ना विघृष्टं मरिचं रात्र्यन्ध्याञ्जनमिष्यते । पिप्पल्योऽपि हितास्तद्वगोशकृद्रसभाविताः ॥
काली मिरचको दही में घोटकर अथवा गायके
यह वर्ति बालकोंके समस्त नेत्र रोगोंको नष्ट गोबरके रस में पीपलको घोट कर लगाने से रतौंधा
करती है।
है।
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१५२ भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[ मकारादि (५४४८) मालत्याद्यानम्
नाभि, अभ्रक भस्म, नीले थोथेकी भस्म, मुरगीके (यो. र. । नेत्र.)
अण्डेके छिलके, बहेड़ा, केसर, हर्र, मुलैठी, राजानक्तान्धतां जयेदेतदअनं साधु योजितम् । । वर्त, चमेलीके फूल, तुलसीकी नवीन मंजरी, तुलमालतीपत्रक्षौद्रं च निशाद्वयरसाञ्जनैः॥ सीके बीज, करंज वीज, नीमके बीज ( निबौली),
चमेलीके पत्ते, शहद, हल्दी, दारु हल्दी और सुरमा, नागरमोथा, ताम्र भस्म और रसौत प्रत्येकका रसौत समान भाग लेकर अञ्जन बनावें। महीन चूर्ण १-१ माषा लेकर सबको ४ तोले
यह अञ्जन रतौंधेको नष्ट करता है। शहदमें घोटकर अञ्जन बनावें । (५४४९) मुक्तादिमहाञ्जनम्
यह अञ्जन अत्यन्त प्रवृद्ध समस्त नेत्र (वृ. यो. त. । त. १३१ ; यो. र. ; वृ.. | रोगोंको अवश्य नष्ट कर देता है। नि. र.; व. से. । नेत्र.)
(५४५०) मेषशृङ्गाद्यञ्जनम् (१) मुक्ताकर्पूरकाचागुरुमरिचकणासैन्धवं सैलवालं
( वृ. मा. । नेत्र.) शुण्ठीकोलकांस्यत्रपुरजनिशिला- मेषशृङ्गस्य पुष्पाणि शिरीपवयोरपि ।
- शङ्खनाभ्यभ्रतुत्थम् । मालत्याश्चैव तुल्यानि मुक्तावैडूर्यमेव च ॥ दक्षाण्डत्वा च साक्षक्षतजयुतशिवाक्लीतकं- अजाक्षीरेण सम्पिष्य ताने सप्ताहमावपेत् ।
राजवर्त
प्रविधाय च तद्वर्ति योजयेदञ्जने भिषक् । जातीपुष्पं तुलस्याः कुसुममभिनवं
मेढासिंगीके फूल, सिरसके फूल, धवके फूल, बीजमस्यास्तथैव ॥ पूतीक निम्बाञ्जनभद्रमुस्तं
मालतीके फूल, मोती और वैडूर्यमणि समान भाग
लेकर सबको तांबेके खरल में डालकर सात दिन ____ सताम्रसारं रसगर्भयुक्तम् ।
तक बकरीके दूध में धेाटें। प्रत्येकमेषां खलु माषकै
( यह अञ्जन नेत्रोंको स्वच्छ करता है।) पलेन पिष्यान्मधुनाऽतिमूक्ष्मम् ॥
(५४५१) मेषशृङ्गाद्यअनम् (२) भवन्ति रोगा नयनाश्रिता ये
(व. से । नेत्र. ; वृ. नि. र.।) नितान्तमात्रोपचिताश्च तेषाम् ।
समेषशृङ्गाञ्जनभागसम्मितः विधीयते शान्तिरवश्यमेव
शङ्खअनः काचमलं व्यषोहति ॥ मुक्तादिनाऽनेन महाअनेन ॥
मेढासिंगी, रसौत, शंख और सुरमा समान मोती, कपूर, काच, अगर, काली मिर्च, झाग लेकर अञ्जन बनावें । पीपल, सेंधा नमक, एलवालुक, सोंठ, कंकोल, यह अञ्जन काच और नेत्रमलको नष्ट कांसीकी भस्म, बंग भस्म, हल्दी, मनसिल, शंख. | करता है ।
इति मकारायअनप्रकरणम्
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नस्यप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
-
अथ मकारादिनस्यप्रकरणम् (५४५२) मक्षिकाविट्नस्यम् इसकी नस्य लेनेसे वातपित्तज शिर-शूल (वृ. नि. र. । हिक्का.)
और अर्दित नष्ट होता है। स्तन्येन माक्षिकाविष्टा नस्ये वालक्तकाम्बुना। (५४५५) मधूकादिनस्यम् योज्या हिक्काभिभूतेभ्यःस्तन्यं वा चन्दनान्वितम् (च. द. । ज्वर; ग. नि. । ज्वरा. ; व, से. । स्तन्य (स्त्रीके दूध) के साथ मक्खीकी विष्टा
ज्वरभा. प्र. । म. खं. २) या सफेद चन्दन घिसकर अथवा लाखके पानीके मकसारसिन्धत्थवचोपणकणाः समाः। साथ मक्खीकी विष्टा घिसकर नस्य देनेसे हिका लक्षणं पिष्टवाम्भसा नस्यं (हिचकी) शान्त होती है।
__कुर्यात्संज्ञापबोधनम् ॥ (५४५३) मधुकादिनस्यम् (१)
महुवेका सार (पुष्प रस), सेंधानमक, बच, (यो. त. । त. २९; वृ. मा. । हिक्का.)
काली मिर्च और पीपल समान भाग लेकर सबको मधुकं मधुसंयुक्तं पिप्पली शर्करान्विता ।।
अत्यन्त बारीक पीसें। नागरं गुडसंयुक्तं हिक्कानं नावनत्रयम् ॥
___ इसे पानीमें मिलाकर नस्य देनेसे बेहोशी दूर ___ मुलैठीके चूर्णको शहदमें मिलाकर या पीपल होती है। के चूर्णको समान भाग खांडमें मिलाकर अथवा
(५४५६) मनःशिलादिनस्यम् सेठिके चूर्णको गुड़में मिलाकर नस्य देनेसे हिचकी नष्ट होती है।
(ग. नि. । शिरो.) (५४५४) मधुकादिनस्यम् (२)
नस्यं मनःशिलारो, पिप्पलीमरिचान्वितम् ।
| यः करोति हरेदेव तस्याधेशिरसो व्यथाम् ॥ (वै. म. । पटल १६)
मनसिल, लोध, पीपल और काली मिरच वातपित्तननितं शिरोरुजं नाशयेन्मधुकल्यसाधितम् ।
समान भाग लेकर बारीक चूर्ण बनावें । नारिकेलपयसा शृतं त्विदं
इसकी नस्य लेनेसे आधासीसी (आधे मस्तक तैलमर्दितहरं च नावनात् ॥ की पीड़ा) नष्ट होती है। मुलैठीका चूण १० तोले, नारयलका दूध ४ (५४५७) मरिचादिनस्यम् (१) सेर और तिलका तैल १ सेर लेकर सबको एकत्र (व. से. । वातव्या. ; वृ. नि. र. । वातव्या. ) मिलाकर पकावें । जब पानी जल जाए तो तेलको | मरिच शिवीजानि विडङ्गश्च फणिन्जकम । छान लें।
। एतानि श्लक्ष्णचूर्णानि दद्याच्छीर्षविरेचने ॥
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१५४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
काली मिरच, सहजनेके बीज, बायबिडंग । . काली मिर्च, दारुहल्दी, बच, कूठ, बायबिडंग, और बनतुलसी के पत्र समान भाग लेकर चूर्ण सेठ, हल्दी और इन्द्रायणको जड़ समान भाग बनावें।
लेकर बकरेके मूत्रमें पीसकर नस्य देनेसे 'तन्द्रिक इसकी नस्य देनेसे शिरोविरेचन हो जाता। सन्निपात ' नष्ट होता है। है । ( यह योग अपतन्त्रक रोगमें बेहोशी दूर (५४६१) मरिचादिनस्यम् (५) करनेके लिये प्रयुक्त किया जाता है।)
(यो र. । ज्वरा.) (५४५८) मरिचादिनस्यम् (२) मरिचतुरगगन्धा मागधीसिन्धुजातं (भा. प्र.। सन्निपात ; वृ. नि. र.। सन्निपात) लशुनमधूकसारैरुग्रगन्धाकाभ्याम् । अशिशिरजल परिमादितं मरिचकणाजीरसिन्धुजम छगलकजलपिष्टः संयुतः शास्त्रविद्भिः नस्यविधि सेवितं ननु कर्णकरुनाशकृद्गदितम् ॥ सपदि भवति नस्यो मुग्ननेत्रप्रमाथी ।
काली मिरच, पीपल, जीरा और सेंधेके समान काली मिर्च, असगन्ध, पीपल, सेंधा नमक, भाग मिश्रित बारीक चूर्णको उष्ण जलमें पीसकर ल्हसन, महुवेका गोंद, बच और अद्रकके समाननस्य देनेसे ' कर्णक-सन्निपात ' नष्ट होता है। भाग मिश्रित चूर्ण (कल्क) को बकरेके मूत्रमें __ (५४५९) मरिचादिनस्यम् (३)
पीसकर नस्य देनेसे "भुप्रनेत्र सन्निपात" शीघ्रही (वै. म र. । पटल ९) ।
नष्ट हो जाता है। स्तन्यनिघृष्ट मरिचं नसि निहितं नाश्येच्छलम।। (५४६२) महोषधादिनस्यम् गुडमरिचविहितकल्कः कोष्णजलैः पीतं आशु
(. मा. | शिरो.) नाशयति॥ महौषधं सस्वरसं वचापिप्पलिभिः कृतम् । काली मिरचको स्तन्य (स्त्रीके दूध ) में अवपीडं प्रदातव्यं मूर्यावर्तनिषूदनम् ॥ घोटकर उसकी नस्य देने और गुड़में काली मिर- एष एव विधिः कृतस्नः कार्यश्चार्धावभेदके। चका चूर्ण मिलाकर उष्ण जलके साथ पीनेसे शूल | सांठ, बच, और पीपलके चूर्णको अदरकके तुरन्त नष्ट हो जाता है।
रसमें घोटकर, कपड़ेसे निचोड़कर रस निकालें । (५४६०) मरिचादिनस्यम् (४) __ इसकी नस्य लेनेसे सूर्यावर्त और अर्धावभेदक
(वृ. नि. र. । सन्निपात.) ( आधा सीसी )का नाश होता है । मरीचकं च पचंपचा वचा रुक
(५४६३) मातुलुङ्गादिनस्यम् कृमिहरनागरशर्वरीगवाक्ष्यः ।
( वृ. नि. र. सन्निपात.) छगलकजलकान्विता नितान्त | मातुलिङ्गाकरसं कोणं त्रिलवणान्वितम् ।
नसि निहिता ननु तन्द्रिकं जयन्ति ॥ । अन्यद्वा सिद्धविहितं नस्यं तीक्ष्णं प्रयोजयेत् ॥
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रसपकरणम् ]
— चतुर्थो भागः
१५५
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तेन प्रभिद्यते श्लेष्मा प्रभिन्नश्च प्रसिच्यते । मुण्डीके कल्क और काथसे सिद्ध तेलकी शिरोहृदयकण्ठास्यपा_रुक् चोपशाम्यति ॥ नस्य देने और पिलानेसे स्त्रीके शिथिल स्तन दृढ़ ____ सन्निपात रोगीको बिजौ रे और अदरकके हो जाते हैं। मन्दोण रसमें त्रिलवण (सेंधा नमक, काला नमक
(५४६५) मोहान्धसूर्यनस्यम् और विडलवण) का चूर्ण मिला कर उसकी अथवा अन्य किसी तीक्ष्ण औषधको नस्य देनेसे कफ
(र. रा. सु. । सन्निपाता.) ढीला होकर निकल जाता है और शिर पीड़ा, गन्धेशौ लसुनाम्भोभिर्मेर्दयेद्याममात्रकम् । हृदयशूल, कण्ठ तथा मुखका दर्द एवं पाव वेदना तस्योदकेन संयुक्तं नस्यं तत्पतिबोधकृत् ॥ आदि नष्ट हो जाती है। (५४६४) मुण्डीतैलनस्यम्
___ समान भाग पारद और गन्धकको कज्जली (वै. म. र. । पटल १७)
बनाकर उसे १ पहर तक ल्हसनके रसमें घोटें। तैलं कषाये मुण्डिन्याः तत्कल्कं साधितं नसि। इसे ल्हसनके रसमें मिलाकर नस्य देनेसे दत्तं पीतं च कुचयोः पतनं विनिवर्तयेत् ॥ । सन्निपातकी मूर्छा नष्ट होती है ।
इति मकारादिनस्यप्रकरणम्
अथ मकारादिरसप्रकरणम् मकरध्वजो रसः (१) (५४६६) मकरध्वजो रसः (२) (र. मं.; भै. र. । वाजीकर.)
(र. र. रसा. । उपदेश ६ ) प्र. सं. १९०८ "चन्द्रोदयो रसः" देखिये। वज्रहेमार्कसूताभ्रलोहभस्मक्रमोत्तरम् ।
भै. र. में गन्धक पारदसे तीन गुना लिखा सर्व कन्याद्रवैमर्थ शाल्मल्याश्च द्रवस्यहम् ॥ है । भैषज्य रत्नावली; धन्व; तथा र. रा. सु. के . तद्रुद्वा काचकुप्यन्तर्वालुकायां व्यहं पचेत । ज्वराधिकारमें कथित “मकरध्वजो रसः" भी नं. तत्कल्कं मुशलीक्वाथैर्वज्रार्कक्षीरसंयुतैः ॥ १९०८ के समान ही है परन्तु उसमें सेवन विधि | दिनैकं मर्दयेत्खल्वे रुवाऽन्तर्भूधरे पुटेत् । में कर्पूर आदि अनुपान--द्रव्योंका वर्णन नहीं है। यामाद्धृत्य सञ्चूये सिताकृष्णात्रिजातकैः॥ तथा कजलीको केवल घृत कुमारी-रसकी भावना समैः समं विमिश्याथ मापैकं भक्षयेत्सदा । देनेके लिये लिखा है।
| मागधी मुशली यष्टी वानरीबीजकं समम् ॥
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भारत-भैपज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि चूर्ण सिताज्य गोक्षीरैः पलार्ध पाययेदनु। (५४६७) मकरध्वजो रसायनः कामिनीनां सहस्रैकं रममाणो न मुह्यति ॥ (भै. र. । रसायना.; र. रा. सु.। रसायन.; न. सेवनादृढकायः स्याद्रसोऽयं मकरध्वजः ॥
मृता. । त. ५) हीरकी भस्म १ भाग, स्वर्णभस्म २ भाग, | स्वर्णस्य भागौ वङ्गश्च मौक्तिकं कान्तलौहकम् । ताम्रभस्म ३ भाग, पारदभस्म ४ भाग, अभ्रक
जातीकोषफले रूप्यं कांस्यकं रससिन्दूरम् ॥ भस्म ५ भाग और लोहभस्म ६ भाग लेकर सबको |
प्रवालं कस्तूरी चन्द्रमभ्रकञ्चकभागिकम् । ३-३ दिन घृतकुमारी और सेंभलकी मूसलीके
| स्वर्णसिन्दूरतो भागांश्चत्वारः कल्पयेद् बुधः। स्वरस में खरल करके आतशी शीशीमें भरकर यथा
नातः परतरः श्रेष्ठः सर्वरोगनिमूदनः। विधि ३ दिन तक वालुका -यन्त्रमें पकवें।।
सर्वलोकहितार्थाय शिवेन परिकीर्तितः ।। ___तदनन्तर शीशीमें से रसको निकालकर उसे
___स्वर्णभस्म २ भाग तथा बङ्गभस्म, मोतीभस्म, १-१ दिन क्रमशः मूसलीके काथ, थोहरके दूध
कान्तलोह-भस्म, जावित्री और जायफलका चूर्ण, और आकके दूधमें घोटकर भूधरयन्त्र में एक पहर
चांदी भस्म, कांसी भस्म, रससिन्दूर, प्रवाल (मूंगा) की अग्नि दें।
भस्म, कस्तूरी, कपूर और अभ्रक भस्म १-१ भाग तत्पश्चात् उसे निकाल कर उसमें मिश्री,
एवं स्वर्ण सिन्दूर ४ भाग लेकर सबको एकत्र पीपल, दालचीनी, इलायची और तेजपातका खरल करें। चूर्ण (समान भाग मिश्रित उपरोक्त सिद्ध (तैयार) |
इसके समान सर्वरोगनाशक अन्य औषध एसके बराबर) मिलाकर अच्छी तरह खरल करें। नहीं है। __ अनुपान-पीपल, मूसली, मुलैठी और कौंचके
(मात्रा-२ रत्ती) धीजोंका चूर्ण समान भाग लेकर एकत्र मिला
(५४६८) मञ्जिष्ठादिचूर्णम् कर रक्खें।
__ (वृ. नि. र. । अश्मरि.) सेवन विधि-उपरोक्त रसमें से १ माशा | खाकर उपरसे २।। तोले अनुपान-चूर्ण फांक कर
| मञ्जिष्ठा त्रापुष बीजं जीरकः शतपुष्पिका । मिश्री और घृतयुक्त गोदुग्ध पियें।
धात्रीफलं वदरकं। गन्धकं च मनःशिला ॥
एतेषां समभागानां चूर्ण टङ्कमितं नरः । इसके सेवनसे सहस्रों रमणियों के साथ काम
भक्षयेन्मधुना सार्दै पतेत्तस्याश्मरी ध्रुवम् ॥ केलि करनेकी शक्ति प्राप्त होती है तथा दीर्घकाल तक सेवन करने से शरीर दृढ़ होता है।
___ मजीठ, खी रेके बीज, जीरा, सोया, आमला, (व्यवहारिक मात्रा-रस २ रत्ती । अनुपान सूखाबेर (पाठान्तरके अनुसार शुद्ध हिंगुल), शुद्ध चूर्ण.६ माशे।)
१ धात्रीफलञ्च दरदमिति पाठान्तरम् ।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
१५७
गन्धक, और शुद्ध मनसिल के समान भाग चूर्णको | भावना देकर सुरक्षित रक्खें । (जिनके स्वरस न एकत्र मिलाकर खरल करें।
मिल सकें उनके काथ लेने चाहिये । भावना इसे ५ माशेकी मात्रानुसार शहदमें मिलाकर प्रत्येक रसकी पृथक् पृथक देनी चाहिये ।) सेवन करनेसे पथरी अवश्य निकल जाती है। इसे १ रत्ती मात्रानुसार यथोचित अनुपानके (व्यवहारिक मात्रा-१ माशा)
साथ सेवन करने और पथ्य पालन करनेसे समस्त
नासा-रोग नष्ट होते हैं। (५४६९) मणिपर्पटी रसः
(५४७०) मण्डूरगुटिका (२. र. स. । उ. ख. अ. २४ नासारो.)
(व. से.; र. का. धे. । पाण्डु.) वनं मरकत पुष्पमिन्द्रनीलं सुचूर्णितम् ।।
| विडङ्गमुस्तत्रिफलादेवदारुपडूपणैः । रसहिङ्गलगन्धश्च कज्जली कारयेद्भिपक ॥
| निर्वाप्य सप्तधा मूत्रे मण्डूरं ग्राह्य मिष्यते ।। द्रावयेत्तां लोहपात्रे पर्पट्याकारतां नयेत् ।
तुल्यमात्रमयश्चूर्ण गोमूत्रेऽष्टगुणे पचेत् । निर्गुण्डी तुलसीशिग्रुधत्तूररविवहिजैः ।। तैरक्षमात्रां गुटिकां कृत्वा खादेद्दिने दिने । रसैोषवरारम्भासुरसैरपि भावयेत् ।
कामलापाण्डुरोगातः सुखमापद्यते क्षणात् ॥ आद्रकस्य रसेनापि सप्तधा परिभावयेत् ॥
बायबिडंग, नागरमोथा, हर्र, बहेड़ा, आमला, एवं सिद्धो रसो नाम्ना विख्याता मणिपर्पटी।
देवदारु, पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सेठि और सेविता गुञ्जया तुल्या निहन्यान्नासिकागदान् ॥ काली मिर्च का चूर्ण १-१ भाग तथा सातबार पथ्योपचारादिवशात्सर्वव्याधीविशेषतः॥
गोमूत्रमें बुझा हुवा मण्डूर १२ भाग और लोहहीराभस्म, मरकत (पन्ना) भस्म, पुष्पमणि भस्म २४ भाग लेकर सबको १६ गुने गोमूत्रमें (पुखराज) भस्म, और नीलम भस्म, शुद्ध पारद, पकावें । जब गाढ़ा हो जाए तो ११-१। तोले शुद्ध हिंगुल और शुद्र गन्धक समान भाग लेकर | की गुटिका बना लें। प्रथम पारे गन्धक और हिंगुलकी कजली बनावें
इनके सेवन से पाण्डु और कामला रोग नष्ट और फिर उसे (बेरीकी अग्नि पर) लोहपात्र में पिघ. होता है । ( व्यवहारिक मात्रा ३ रत्ती ) लाकर उसमें अन्य रत्नेां की भस्में मिला दें एवं |
(५४७१) मण्डूरचूर्णम् गोबरके ऊपर बिछे हुवे केलेके पत्ते पर ढालकर,
(र. र. । शोथा.) ऊपरसे दूसरा कदलीपत्र ढककर गोबरसे दबा श्लक्ष्ण चूर्णश्च मण्डूरं गोमूत्रैः पाचयेदिनम् । दें। जब शीतल हो जाय तो निकालकर उसे वज्रवल्या रसैः पेष्यं चित्रकुड्मलसंयुतम् ॥ संभालू, तुलसी, सहजनेको छाल, धतूरा, आक, भक्षितञ्चाक्षमात्रञ्च ह्यसाध्यं श्वयधुं जयेत् । चीता, सांठ, पिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला मण्डूर भस्मको १ दिन गोमूत्रमें पकाकर वज्रकेला, तुलसी, तथा अदकके रसकी सात सात | वल्ली (हड़जोड़ी) के रसमें घोटकर रखें।
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१५८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
इसे ११ तोलेकी मात्रानुसार चीतेकी कलियों मिलाकर सेवन करनेसे पाण्डु और कुम्मकामला के चूर्णके साथ सेवन करनेसे असाध्य शोथ भी शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। नष्ट हो जाता है।
मण्डूरसे दशगुना गुण मुण्ड लोहमें, मुण्डसे (व्यवहारिक मात्रा-१ माशा।) | १०० गुना तीक्ष्ण लोहमें और तीक्ष्णसे लाख गुना (५४७२) मण्डूरमारणविधिः (१) गुण कान्त लोह में होता है। (रसे. सा. सं.; र. मं.)
(५४७३) मण्डूरमारणविधिः (२) ये गुणा मारिते मुण्डे ते गुणामुण्ड किटके ।
(र. र. स. । अ. ५) तस्मात्सर्वत्र मण्डूरं रोगशान्त्यै प्रयोजयेत् ॥
गोमूत्रैस्त्रिफला क्वाथ्या तत्क्वाथे सेचयेच्छन। शतोर्द्धमुत्तमं किटं मध्यञ्चाशीतिवार्षिकम ।
| लोहकिट्ट सुसंतप्तं यावजीर्यति तत्स्वयम् ॥ अधमं षष्टिवर्षीयं ततो हीनं विषोपमम् ॥
| तच्चूर्ण जायते पेष्यं मण्डूरोयं प्रयोजयेत् ॥ दग्ध्वाक्षकाष्ठैमलमायसन्तु
त्रिफलाको (८ गुने) गोमूत्रमें पकावें । जब गोमूत्रनिर्वापितमष्टवारान् ।
चौथा भाग शेष रहे तो छान लें फिर मण्डूरको बार विचूर्ण्य लोढं मधुनाऽचिरेण
बार अग्निमें तपा तपा कर इस क्वाथमें बुझायें; और कुम्भाह्वयं पाण्डुगदं निहन्ति २ ॥
जब वह भस्मके समान हो जाय तो खरल
| करके रख लें। किट्टादशगुणं मुण्डं मुण्डात्तीक्ष्णं शताधिकम् । तीक्ष्णाल्लक्षगुणं कान्तं भक्षणात्कुरुते गुणम् ॥
_(५४७४) मण्डूरमारणविधिः (३)
(र. र. स. । पू. खं. अ. ५) मुण्डकिट्ट (मण्डूर) में भी मुण्डलोह-भस्मके
अक्षागारैधमेत्किटें लोहजं तद्गवां जलैः । समान ही गुण होते हैं अत एव (लोह-भस्म के
सेचयेदक्षपात्रान्तः सप्तवारं पुनः पुनः ॥ स्थान में ) मण्डूर भी प्रयुक्त किया जा सकता है।
मण्डूरोयं समाख्यातश्चूर्ण श्लक्ष्णं नियोजयेत् ।। सौ वर्षसे अधिक पुराना मण्डूर उत्तम, अस्सी बहेड़ेके कोयलांमें मण्डूरको बार बार तपा. वर्ष का मध्यम, ६० वर्षका निकृष्ट और इससे कर बहेडेकी लकड़ी के पात्रमें गोमूत्रमें बुझावें । इस कम पुराना विषके समान हानिकारक होता है।। प्रकार सात बार बुझानेसे मण्डूर सेवन योग्य हो
मण्डरको बहेड़ेकी लकड़ियोंकी अग्नि में | जाता है । इसे भली भांति खरल करके रक्खें और तपा तपा कर आठ बार गोमूत्रमें बुझानेसे वह | आवश्यकतानुसार काममें लावें । सेवन योग्य हो जाता है। इसे चूर्ण करके शहद में (५४७५) मण्डूरमारणविधिः (४)
(यो. चि. म. । अ. ७) नृणां क्षयमिति पाठान्तरम् । २ यह योग सु. सं.; वृ. मा.; ग. नि. और अक्षारैधेमेत्किर्ट लोहजं तदगवां जलैः। भा.प्र. में भी है।
सेचयेत्तप्ततप्तं च सप्तवारं पुनः पुनः॥
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रसप्रकरणम् ]
चूर्णयित्वा ततः क्वाथैर्द्विगुणैस्त्रिफलाभवैः । पचेत्ततश्चार्कदुग्धैर्माण्डूरं जायते परम् ॥
मण्डूरको बहेड़ेकी लकड़ीकी अग्नि में तपा तपाकर सात बार गोमूत्रमें बुझावें और फिर उसे २ गुने (४ गुने) त्रिफलाके काथमें पकावें । जब शुष्क हो जाय तो उसे आकके दूधमें घोटकर (शराव सम्पुट करके गजपुटमें) पकावें । इस प्रकार उत्तम मण्डूर भस्म तैयार हो जाती है ।
(५४७६) मण्डूरमारणविधिः (५) ( यो. र. )
चतुर्थी भागः
अक्षाङ्गारैर्धमेस्किटं लोहजं तद्गवां जलैः । सेचयेदक्षपात्रान्तः सप्तवारं पुनः पुनः ॥ चूर्णयित्वा ततः क्वाथैर्द्विगुणैस्त्रिफलोद्भवैः । आलोय भर्जयेद्वौ मण्डूरं जायते वरम् || मण्डूरं शिशिरं रुच्यं पाण्डूश्वयथु शोषजित् । ratni कामलां च प्लीहानं कुम्भकामलाम् ||
मण्डूरको बहेड़ेकी लकड़िये की अग्नि में तपा तपा कर सात बार बहेड़े की लकड़ी के पात्र में गोमूत्रमें बुझावें । तत्पश्चात् उसे बारीक करके २ गुने (चार गुने) त्रिफला काथ में पकावें जब शुष्क हो जाय तो खरल करके सुरक्षित रक्खें ।
(५४७७) मण्डूरयोगः (१) ( र. का. . । पाण्डु. )
मण्डूर शीतल, रुचिकारक तथा पाण्डु, शोथ, शोष, हलीमक, कामला, कुम्भ कामला और प्लीहा - नाशक है ।
अतिरिक्तं यदाऽशेभ्यो निपतत्यसिपीडनात् । esed रक्तमत्यन्तं लोहकिट्टं तदाऽऽनयेत् ॥
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१५९
गवां मूत्रेण तत्पक्त्वा बहुशः सूक्ष्मचूर्णितम् । अतिसूक्ष्ममिदं तस्य त्रिफला कटुकान्वितम् || किट्टस्यार्धेन संमिश्रय चूर्ण शर्करया युतम् । दीयते त्रिदिनादूर्ध्वं रक्तं तिष्ठति नान्यथा || मुद्गान्नं च मसूरानं दीयते पथ्यभोजनम् । अशसि प्रशमं यान्ति काश्यं चैवातिवेगतः ॥ अत्यन्तं बलमाप्नोति रतिरत्यन्तमुद्यते ॥
शुद्ध मण्डूर को १ दिन गोमूत्र में पका कर अत्यन्त सूक्ष्म चूर्ण करें तदनन्तर ४ भाग यह मण्डूर और १ - १ भाग त्रिफला तथा कुटकीका चूर्ण एवं ६ भाग खांड लेकर सबको एकत्र खरल करें ।
यदि बवासीर के मस्सों पर किसी प्रकारका दबाव पड़ने से उनसे बहुत अधिक रक्त निकलने लगे तो उपरोक्त चूर्ण खिलाने से वह तीन दिन में अवश्य बन्द हो जाता है । इसके अतिरिक्त यह चूर्ण अर्श और कृशताको भी नष्ट करता है ।
पथ्य में मूंग और मसूर की दाल देनी चाहिये मात्रा - १ || माशा | )
(
(५४७८) मण्डूरयोग: (२)
( ग. नि. । ग्रन्ध्य.; वृ. मा. । गलगण्ड . ) महिषीमूत्रविमिश्र लोहमलं संस्थितं घटे मासम् । अन्तर्धूमविदग्धं लिह्यान्मधुनाऽथ गलगण्डी ||
शुद्ध मण्डूर को भैंस ( ८ गुने ) मूत्र में मिलाकर, घड़े में भर कर उसका मुख बन्द करके रख दें तथा १ मास पश्चात् उसे इस प्रकार भस्म करें कि धुवां बाहर न निकले ।
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[मकारादि
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इसे शहदके साथ सेवन करनेसे गलगण्ड । (५४८१) मण्डूरयोगः (५) नष्ट होता है।
(र. च. । परिणाम शूल.) ( मात्रा४-६ रत्ती ।)
| लौहकिट्ट पलान्यष्टौ गोमूत्रस्याढके पचेत् । (५४७९) मण्डूरयोगः (३) परिणामभवं शूलं सबो हन्ति न संशयः ॥ (३. मा. । शूल.; यो. र. । शूला.; वृ. यो. ४० तोले शुद्र मण्डूर को ८ सेर गोमूत्र में __त. । त. ९४)
पकार्वे । जब शुष्क हो जाय तो खरल करलें ।
यह योग परिणाम शूलको निस्सन्देह शीघ्र गोमूत्रशुद्धं मण्डूरं त्रिफलाचूर्णसंयुम् ।
ही नष्ट कर देता है। विलिहन्मधुसर्पिभ्यां शूलं हन्ति त्रिदोषजम् ॥
(मात्रा-४-५ रत्ती । अनुपान शहद) ___ गोमूत्रमें शुद्ध किये हुवे मण्डूरका चूर्ण और
(५४८२) मण्डूरलवणम् त्रिफला का चूर्ण समान भाग लेकर एकत्र खरल
(वृ. यो. त. । त. ७४) करें।
कृत्वाऽग्निवणे मलमायसन्तु इसे धी और शहदमें मिला कर सेवन करने
मूत्रे निषिद्बहुशो गवां च । से त्रिदोषज शूल नष्ट होता है।
तत्रैव सिन्धृत्य समं विपाच्य ( मात्रा-४-६ रत्ती)
निरुद्धधूमं च बिभीतकाग्नौ ॥ (५४८०) मण्डूरयोगः (४)
तक्रेण पीतं मधुनाथ वाऽपि (ग. नि. । पाण्डु ७)
विभीतकाख्यं लवणं प्रयुक्तम् । शतवर्ष समादाय लोहसिङ्घाणकं शुभम् । पाण्ड्वामयिभ्यो हितमेतदस्मापलानि पञ्च तच्चूर्ण तुल्यक्षौद्रसमन्वितम् ॥
त्पाण्डवामयन्नं न हि किञ्चिदन्यत् ॥ भल्लातकास्थ्यष्टशतं विनिक्षिप्य विदाहयेत् ।
मण्डरको ( बहेड़े की ) अग्निमें तपा तपा तदक्षमात्रं तक्रेण पीत्वा जीर्ण च तक्रभुक् ॥ । कर बार बार गोमूत्रमें बुझावें । जब मण्डूरका चूर्ण एवं लभेत सप्ताहात् पाण्डुरोगी मुखं परम् ॥ हो जाए तो उसमें उसके बराबर सेंधा नमकका
सौ वर्षका पुराना उत्तम शुद्ध मण्डूर ५ पल चूर्ण मिला कर सबको ( उस गोमूत्र युक्त )हाप्डी (२५ तोले) लेकर उसे २५तोले शहद में मिलावें में बन्द करके बहेड़ेकी अग्नि पर इतना पका कि
और फिर उनमें ८०० भिलावों की मींगी मिला। | वह शुष्क हो जाए। तदनन्तर उसे पीस कर कर यथा विधि भस्म करें।
रक्खें । __इसमें से नित्य प्रति ११ तोला औषध इसे छाछ (तक) अथवा शहदमें मिला कर तक के साथ सेवन करने और औषध पीनेसे पाण्डु नष्ट होता है । पाण्डु के लिये इस पचने पर तक पान करने ( केवल तक्र पर ही | से उत्तम एक भी औषध नहीं है । रहने ) से सात दिन में पाण्डु नष्ट हो जाता है। ( मात्रा-२ माशे तक ।)
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
१६१
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(५४८३) मण्डूरवटक:
(५४८४) मण्डूरवटिका (व. से.; र. का, धे. । पाण्डु.)
(भै. र. । शूला.) पुनर्नवानिवृद्वयोषविडङ्गं दारुचित्रकम् । कुष्ठं हरिद्रे त्रिफला दन्ती चव्यं कलिङ्गकम् ॥
| लौहकिट्टपलान्यष्टौ गोमूत्रेऽष्टगुणे पचेत् । कटुकापिप्पलीमूलं मुस्तश्चेति पलोन्मितम् ।
चविकानागरक्षारपिप्पलीमूलपिप्पलीः ।। मण्डूरं द्विगुणं चूर्णाद् गोमूत्रार्धाढ के पचेत् ॥
| सञ्चूयं निक्षिपेत्तस्मिन् पलांशः सान्द्रतां गते। गुडवद्वटकान् कृत्वा तक्रेणाऽऽलोडय तान् ।
गुडिकाः कल्पयेत्तेन पक्तिशूलनिवारिणी ।। पिबेत् ।
४० तोले शुद्ध मण्डूरको ८ सेर गोमूत्रमें ते पाण्डुरोगं प्लीहानमर्शासि विषमज्वरम् ॥ पकावें । जब वह गाढ़ा हो जाय तो उसमें ५-५ श्वयधुं ग्रहणीदोषं हन्युः कुष्ठकमींस्तथा ॥
तोले चव, सोंठ, जबोखार, पीपलामूल और पीपपुनर्नवा (बिसखपरा), निसोत, सोंठ, मिर्च, लका चूर्ण मिला कर गोलियां बनावें । पीपल, बायबिडंग, देवदारु, चीतामूल, कूठ, हल्दी, इनके सेवनसे पक्तिशूल नष्ट होता है । दारुहल्दी, हर्र, बहेड़ा, आमला, दन्तीमूल, चव,
( मात्रा-१ माशा।) इन्द्रजौ, कुटकी, पीपलामूल और नागरमोथेका | चूर्ण ५-५ तोले तथा शुद्ध मण्डूर सबसे दो गुना
(५४८५) मण्डूरवज्रयटकः ( २०० तोले ) लेकर सब को ४ सेर गोमूत्रमें (रसे. सा. सं.; वृ. मा.; व. से. । पाण्डु.; वै. पकावें जब गुड़के समान गाढ़ा हो जाए तो र.; र. र.; धन्ध.; र. चं.; र. रा. सु.; र. का. धे.। गोलियां बनालें।
पाण्डु.) इन्हें तक्रमें मिला कर सेवन करने से पाण्डु | पञ्चकोलं समरिचं देवदारुफलत्रिकम् । रोग, तिल्ली, अर्श, विषमज्वर, शोथ, संग्रहणी, कुष्ट विडङ्ग मुस्तयुक्ताश्च भागास्त्रिपलसम्मिताः ॥ और क्रिमि रोग नष्ट होता है ।
यावन्त्येतानि चूर्णानि मण्डूरद्विगुणं ततः । ( मात्रा-१ माशो।)
पक्त्वा चाष्टगुणे मूत्रे घनीभूते तदुद्धरेत् ॥ मण्डूरवटकः (वृहद्) ( वृ. मा.; ब. से. ।'पाण्डु.; यो. त. । त. २५;
ततोक्षमात्रान्वटकान्पिबेत्तक्रेण तक्रभुक् । च. सं.; र. का. थे.; भै. र.; भा. प्र.; च. द.;
पाण्डुरोगं जयत्याशु मन्दाग्नित्तमरोचकम् ॥ ग. नि.; यो. र. । पाण्डु; वृ. यो. त. । त. ७४
अशांसि ग्रहणीदोषमुरुस्तम्भमथापि वा । वै. क. द्रु. । स्कन्ध २.)
क्रिमि प्लीहानमानाहं गलरोगश्च नाशयेत् ॥
मण्डूरवचनामायं रोगानीकप्रणाशनः ॥ प्रयोग संख्या २७८७ " त्र्यूषणादि मण्डूरयटिका” देखिये।
१ “हिङ्गु" इति पाठान्तरम् ।
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१६२
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
[मकारादि
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-
पीपल, पोपलामूल, चव, चीतामूल, सोंठ, (५४८७) मदनकामदेवो रसः (१) काली मिर्च, देवदारु, हर्र, बहेड़ा, आमला, (र. र. स. । उ. खं. अ. २७;) बायबिडंग ( पाठान्तरके अनुसार हींग ) और नागरमोथा इनका चूर्ण १५-१५ तोले और गोलं गन्धकमूतयोस्त्रिकटुकक्वाथेन वध्वाऽथशुद्ध मण्डूर सबसे २ गुना ( ३६० तोले.)। कुष्माण्डान्तरवस्थितं विपिहितं तेनैव लिप्त्वोलेकर सबको ५७६० तोळे (७२ सेर) गोमूत्रमें
परि। पकावें । जब अवलेहके समान गाढ़ा हो जाए तो माषेद्वैयङ्गुलमोज्यपकमथ तत्कूष्माण्डमध्यादरे१-१। तोलेके मोदक बना लें।
त्तच्चूर्णेन च सम्मिते सुरकृताचूर्णस्य मुष्टि
द्वयम् ॥ इन्हें तक्रके साथ सेवन करने और केवल
जया शतावरी कृष्णा कपिकच्छूफलं तिलाः । तक पर ही रहनेसे पाण्डु रोग, मन्दाग्नि, अरुचि,
प्रत्येकं पलसम्माना यवाः पञ्चपलोन्मिताः ॥ अर्श, ग्रहणी विकार, उरुस्तम्भ, कृमि, प्लीहा,
तावन्मोचफलं द्वे च यष्टी मुष्टिद्वयां शुभाम् । आनाह और गलरोग नष्ट होते हैं। "
| निक्षिप्य सप्त सप्ताऽत्र भावनाः क्रमशश्चरेत् ॥ (५४८६) मण्डूराद्यवलेहः महाबलावलानागबलाभिर्द्राक्षयाऽपि च ।
(ग. नि. । पाण्डु. अ. ७) कृष्णाधात्रीक्षुभिश्चापि दन्तपात्रे निवेश्य च ॥ मण्डूरलोहाग्निविडङ्गपथ्या
मत्स्यण्डिकायुतं वल्लद्रयमानं भजेनिशि । व्योषांशकः सर्वसमानताप्यः। अनुपान मिह प्रोक्तं धारोष्णं सुरभेः पयः ॥ मूत्रभृतोऽयं मधुनावलेहो
दोषमार्तवजं हत्वा कुर्याद्वीर्यप्रवर्धनम् ।।
ध्वजोत्साहं तथा स्त्रीषु वाजीकरणमुत्तमम् ॥ पाण्ड्डामयं हन्त्यचिरेण घोरम् ॥ ..
अलं मलयवायुना कुमुदबान्धवेनाप्यलम् । मण्डूर भस्म, लोहभस्म, चीतामूल का चूर्ण मधुव्रतसखायिनः कलितपञ्चमाः के पिकाः ॥ बायबिडंगका चूर्ण, हर्र और त्रिकुटे ( सोंठ, मिर्च, अतो भज विशङ्कितं रतिसरोजिनीभास्करम । पीपल ) का चूर्णे १-१ भाग तथा सोनामक्खी
मनोजपरिदैवतं मदनकामदेवं रसम् ॥ भस्म सबके बराबर लेकर सब को (आठ गुने) गोमू
समान भाग पारद और गन्धककी कजली त्रमें पकावें जब अवलेहके समान गाढ़ा हो जाए बनाकर उसे त्रिकुटे (सोंठ, मिर्च, पोपल) के काथमें तो उतार लें।
| घोटकर गोला बनावें और उसे (सुखाकर) भूमि- इसे शहद में मिलाकर सेवन करनेसे धोर कुष्माण्ड (विदारी कन्द) के भीतर रख दें तथा पाण्डु भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
, उसके मुखको उसीके कटे हुवे टुकड़ेसे बन्द करके (मात्रा-६ रत्ती)
| उस पर उड़दकी पिट्ठीका २ .अंगुल . मोटा लेप
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रसप्रकरणम् ]
- चतुर्थों भागः
करदें और घो में पकावें । जब पिट्ठी खूब लाल (५४८८) मदनकामदेवो रसः (२) हो जाय तो आग जलानी बन्द कर दें। और
(मदनकामेश्वरो रसः) उसके स्वांग शीतल होने पर कजलीके गोलेको
(र. रा. सु.; र. मं.; यो. र. । वाजीकरण.; वृ. निकालकर खरल करें । तदनन्तर १० तोले तुलसी
- यो. त. । त. १४७) और ५--५ तोले भांग, शतावर, पीपल, कौंचके बीज और तिलका चूर्ण तथा, २५ ताले जौका
तारं वज्र सुवर्णश्च तानं मूतं सगन्धकम् । चूर्ण, २५ तोले सूखे केलेका चूर्ण, तथा १०-१०
लौहश्च क्रमवृद्धानि कुर्यादेतानि मात्रया ॥ तोले दोनों प्रकारकी मुलैठीका चूर्ण लेकर सबको
विमर्च कन्यकाद्रावैद्यसेत् काचमये घटे। .
विमुद्रय पिठरीमध्ये धारयेत्सैन्धवै ते ॥ एकत्र मिला लें । अब उपरोक्त कजली में ( उसके
वहिं शनैः शनैः कुर्यादिनैकं तत्समुद्धरेत् । बराबर) यह चूर्ण मिलाकर उसे निम्न लिखित
स्वाङ्गशीतश्च तच्चूर्ण भावयेदर्कदुग्धकैः ॥ . ओषधियों के रस या काथ की ७-७ भावना देकर,
अश्वगन्धा च काकोली वानरी मुसली क्षुरा। सुखाकर हाथीदांतकी शीशो में भरकर सुरक्षित त्रित्रिवेलं रसैरेषां शतावाश्च भावयेत् ॥ रक्खें ।
पद्मकन्दकसेरूणां रसैः काशस्य भावयेत् । भावना द्रव्य-महाबला, बला (खरैटी). कस्तूरीव्योषकपूर कङ्कोलैलालवङ्गकम् ॥
पूर्वचूर्णादष्टमांशमेतत् चूर्ण विमिश्रयेत् । नागवला (गुलसकरी), मुनक्का, पीपल, आमला
सर्वैः समां शर्कराश्च दत्वा शाणोन्मितं पिवेत् ।। और ईख ।
गोदुग्धद्विपलेनैव मधुराहारसेवकः । इसे नित्य प्रति रात्रिके समय ६ रत्ती मात्रा- अस्य प्रभावात्सौन्दर्य बलं तेजोऽभिवर्द्धते ॥ नुसार खांडमें मिलाकर खाना और ऊपरसे गायका
तरुणीरमयेदवीन च हानिः प्रजायते ॥ धारोष्ण दूध पीना चाहिये ।
चांदी भस्म १ भाग, हीरा भस्म २ भाग,
स्वर्ण भस्म ३ भाग, ताम्र भस्म ४ भाग, शुद्ध इसके सेवनसे रज और वीर्यके दोष नष्ट होते पारद ५ भाग, शुद्ध गन्धक ६ भाग और लोह तथा वीर्य और काम शक्तिकी अत्यन्त वृद्धि होती है। भस्म ७ भाग लेकर प्रथम पारे और गन्धककी
कजली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे मिला. यह इतना कामोत्तेजक है कि इसके सेवन
कर सबको घृतकुमारी के रसमें घोटकर ६-७ करते हुवे मलयपवन, चन्द्र, भ्रमर और कोकिल कपरमिट्टी की हुई आतशी शीशीमें भर दें; एवं आदि कामोत्तेजक साधनोंकी तनिक भी आवश्यकता उसका मुख बन्द करके उसे कपड़मिट्टी की हुई नहीं रहती।
हाण्डी में रखकर उसे (हाण्डीको ) सेंधा नमकके
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१६४
चूर्ण से भर दें | अब उसे चूल्हे पर चढ़ाकर धीरे धीरे अग्नि बढ़ाते हुवे १ दिन पाक करें । फिर जब शीशी स्वांगशीतल हो जाय तो उसमें से रसको निकालकर उसे आक के दूध तथा असगन्ध, काकोली, कौंच, मूसली, तालमखाना, शतावर, पद्मकन्द, कसेरु और कासके स्वरस या काथकी ३-३ भावना दें । तत्पश्चात् उसमें कस्तूरी, सोंठ, मिर्च, पीपल, कपूर, कंकोल, छोटी इलायची और लौंगका समान भाग- मिश्रित चूर्ण उससे (रससे) आठवां भाग तथा मिश्री समस्त मिश्रण के बराबर मिलाकर अच्छी तरह घोट कर रक्खें ।
इसे ५ माशेकी मात्रानुसार १० तोले गोदुग्धके साथ सेवन करने और मधुराहार करनेसे सौन्दर्य, बल और तेजकी वृद्धि होती है।
इसके प्रभावसे पुरुष बहुतसी स्त्रियों के साथ बिना किसी प्रकारकी हानिके रमण कर सकता है। (५४८९) मदनकामदेवो रसः (३)
भारत - मैषज्य रत्नाकरः
( र. स. क. । उल्लास ४ ) पारदाद्विगुणं गन्धं दत्वा कार्पासिकाद्रवैः । पूर्ववत्पचितो ह्येष तदा मदनकामदः ||
१ भाग पारद और २ भाग गन्धक की कजली करके उसे कपासके फूलोंके रसकी भावना देकर हरगौरी रस के समान बालुकायन्त्रमें पाक किया जाय तो मदन- कामदेव रस तैयार हो जाता है।
1
(५४९०) मदनकामो रसः ( र. र. रसा. । उपदेश ६ ) पद्मवीजं कसेरुं च कन्दं नालं च कर्णिकाम् ॥ शली भृङ्गराट् द्राक्षा पक्वं श्लेष्माकं फलम् ।
[ मकारादि
विजयामर्कटीमाषाः शणबीजानि वै तिलाः || कोकिलाक्षस्य बीजानि भूकूष्माण्डी शतावरी । शृङ्गाटकं चिर्भिर्ट फञ्जीबीजानि चाश्वगन्धिका ॥ एतत्सर्वं समं चूर्ण्य पादांशं चाहरेत्पृथक् । पादांशस्याष्टमांशेन शुद्धं मृतं विमिश्रयेत् ॥ पारदादष्टमांश च कर्पूरं तत्र निःक्षिपेत् । चातुर्जातकमेकैकं कर्पूराद्विगुणं भवेत् ।। मूततुल्या सिता योज्या मधे रम्भाद्रवैर्दिनम् । तद्गोलं डामरे यन्त्रे क्रमवृद्धाग्निना पचेत् ॥ दिनान्ते चोर्ध्वलग्नं तद्ग्राह्यं रम्भ। द्रवैर्दृढम् । मर्दितं सितया तुल्यं माषैकं भक्षयेत्सदा ।। रसो मदनकामोऽयं बलवीर्यविवर्धनः । दिव्यरूपा भजेद्रामाः कामाकुलकलान्विताः ॥
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कमलगट्टा, कसेरु, कमलकन्द, कमलनाल, मूसली, भंगरा, मुनक्का, ल्हिसौड़े के पक्के फल, भांग, कौंच बीज, उड़द, सनके बीज, तिल, तालमखाना, विदारीकन्द, शतावर, सिंघाड़ा, कचरिया, फञ्जी (विधारा भेद) के बीज, और असगन्ध का चूर्ण ८-८ तोले तथा शुद्ध पारद १ तोला, कपूर १॥ माशा, दालचीनी, तेजपात, इलायची और नागकेसरका चूर्ण ३-३ माशे और मिश्री १ तोला लेकर सबको एक दिन केले के रसमें घोटकर गोला बनावें और उसे उमरुयन्त्र में बन्द करके एक दिन क्रमवृद्धाग्नि पर पकायें । २४ घण्टेके बाद जब यन्त्र स्वांगशीतल हो जाय तो उसे खोलकर उसके भीतर ऊपरके पात्रमें लगे हुवे रसको छुड़ाकर सुरक्षित रक्खें ।
इसमें से नित्यप्रति १ माषा रस समानभाग
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रसप्रकरणम्
चतुर्थों भागः
१६५
मिश्रीमें मिलाकर सेवन करनेसे बल वीर्य और भागैकं शम्भुबीजं त्रितयकामशक्तिकी वृद्धि होती है।
मपि मृतं तत्समा सिद्धमूली। (५४९१) मदनकामेश्वरः
चातुर्जातं सजातीफलम(वृ. यो. त. । त. १८७)
रिचकणानागरं देवपुष्पं बलिं पारदं नागफेनं समांशं
जातीपत्रं च भागद्वितयमविमर्याहिवल्लीरसैर्याममात्रम् ।
थ पृथक्सर्वमेकत्र चूर्णम् ॥ वटी वल्लमात्रा सिताढया हि सेव्या सर्वद्वयंशा सिता स्याघृतपुनर्भोजनं नैव कार्य तदन्ते ॥
मधुसहिता मोदकीकृत्य चैतत् पयो माहिषं सेवनीयं निशादौ
खादेदग्निं समीक्ष्य प्रसभभजेन्मैथुनं निम्बुनीरं सिताढयम् । __ मभिनवानन्दसंवर्धनाय । पिबेद्वीजमुक्त्यै पुनर्मथुनं च
योगो वाजीकराख्योऽयमिह रसः कामदेवेश नाम्ना प्रसिद्धः ॥
निगदितो भैरवानन्दनाम्ना शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारद और अफीम समान निःशेषव्याधिहन्ता दलितभाग लेकर कज्जली बनावें और उसे पानके रसमें बहुवधूद्दामकन्दर्पदर्पः॥ १ पहर घोटकर ३-३ रत्तीकी गोलियां बना लें। अभ्रकभस्म ४ भाग, बंग-भस्म २ भाग,
_इनमें से १ गोली मिश्री के साथ खाकर उसके | पारद-भस्म (अभाव में रस सिन्दूर) १ भाग, सतापश्चात् किसी प्रकारका भोजन न करें और रात वरका चूर्ण ७ भाग तथा दालचीनी, तेजपात, इलाहोने पर भैंसका दूध पियें। इस प्रकार यह गोली यची, नागकेसर, जायफल, काली मिर्च, पीपल, खाकर मैथुन किया जाय तो जब तक मिश्रीयुक्त सोंठ, लौंग और जावित्रीका चूर्ण २-२ भाग लेकर नीबूका रस न पिया जायगा तब तक वीर्यपात सबको एकत्र घोटकर उसमें सबसे दो गुनी (६८ नहीं होगा।
भाग) खांड एवं आवश्यकतानुसार घी और शहद मदनकामेश्वरो रसः
मिलाकर मोदक बनावें। (वृ. यो. त. । त. १४७)
___इन्हें सेवन करनेसे कामशक्ति अत्यन्त प्रबल "मदन कामदेवो रसः" सं. ५४८८ देखिये।
हो जाती है। (५४९२) मदनमञ्जरीगुटिका (भैरवानन्दरसः)
( मात्रा-३-४ माशे।) (वृ. यो. त. । त. १४७; यो. तं. । त. ८० वै. (५४९३) मदनमुन्मद्रस:
र. । वाजीकरणा.; भा. प्र. । उ. खं.) . (र. र. स. । उ. खं. अ. २७) चत्वारो व्योमभागास्तदनु
मासार्धमानं हरजं विमर्य निगदितं भागयुग्मं च वङ्ग
रसेन मोवस्य रसेन तेन ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ मकारादि त्रिसप्त संख्यानि दिनानि गन्धं | वटस्यकोमलाः पादा एलायष्टिकतण्डुलाः।
'तत्सम्मितं गोघृतमध्यपक्वम ॥ रक्तशालिं च गोधूममाषका यवकास्तथा ॥ विभाव्य तेनैव विशोष्य युञ्ज्या- एतच्चूर्णीकृतं सर्व सिनशर्करया समम् । काचस्थयो गलतादलेन
विडालपदकं खादेत्सर्पिषा मधुना सह ॥ तयोविमर्याय निषेव्य दुग्धं
शीतं पयोऽनुपानश्च कामिनी कामयेन्नरः। पिबेनिशायां कदलीफलं तत् ॥
वीर्यहीनो भवेद्यस्तु जीर्णो व्याधिपपीडितः ।। मदनं मदयन्मदमुज्ज्वलय
प्रमेही मूत्रकृच्छी च स्त्रीदोषात्पतितध्वजः। अमदानिवहानतिविहलयन् ।
साशीतिवार्षिको वृद्धो युवेव रमतेऽङ्गानाः॥ सुरतैः सुखदैर्गतविच्यवनै- . भवसारजुषामयमेव सुहृत् ॥
पुत्रं जनयते वीरमरोग दीर्घजीविनम् । आवा माशा शुद्ध पारदको २१ दिन सेंभ- भेषजैर्विविधैः किं स्यादन्यैश्च शतसङ्ख्यकैः ॥ लकी छालके रसमें घोटें । इसी प्रकार गोघृतमें शुद्ध | फलं न किश्चित्तत्रास्ति केवलं गौरवं बहु । गन्धकको भी २१ दिन तक सेंभलके रसमें घोटें | बालसस्यं यथा तोर्यवर्द्धने च दिने दिने ॥ और जब घोटते घोटते दोनों सूख जाएं तो दोनेांको तथानेन नृणां देहः पुष्टो भवति नान्यथा । एकत्र घोटकर कजली बनालें और उसे कांचके योऽत्ति मण्डलमात्रन्तु सगच्छेत्प्रमदाशतम् ।। खरलमें डालकर (१ दिन) पानके रसमें घोटकर जगतस्तु हितार्थाय चूर्ण मदनदीपनम् ।। सुखा लें।
गोखरु, तालमखाना, नागरमोथा, कौंचके रात्रिके समय इसे केलेकी पक्की फलीके साथ | बीज, शतावर, मुलैठी, भीरकाकोली, तालमूली, खाकर ऊपरसे दूध पीनेसे कामशक्तिकी इतनी वृद्धि गिलोय, सुगन्धवाला, सेंभल की मूसली, लोहभस्म, होती है कि एक पुरुष अनेकों स्त्रियोंके साथ रमण अभ्रकभस्म, विदारीकन्द, तालमस्तक, हस्तिकर्ण कर सकता है।
( पलाश भेद ) की छाल, बीजवन्द ( खरैटी (५४९४) मदनसन्दीपनचूर्णम् के बीज ), आमला, जायफल, कसेरु,
(र. र.; धन्व. वाजीकरणा.) सिंघाड़ा, माषपर्णी, भंगरा, केसर, बच, शुद्ध गोक्षुरः क्षुरको मेघो मर्कटी शतपुत्रिका। शिलाजीत, शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारद, सोनामक्खी मधुकं क्षीरकाकोली तालमूल्यमृताम्बु च ॥ भस्म, बड़की कोमल जटा, छोटी इलायची, मुलैठी, शाल्मली लौहगगने विदारोतालमस्तकम् । (बासमती के) चावल, साटी चावल, गेहूं, उड़द हस्तिको बला धात्री जातीफलकशेरुकम् ॥ और (छिलके रहित ) जौ। समान भाग लेकर शृङ्गाटको मासपी भृङ्गराः कुङ्कम वचा। यथा विधि चूर्ण बनावें और उसमें उसके बराबर . शिलाजनु शिवांधीजं पारदं धातुमाक्षिकम् ॥ । मिश्री मिला लें।
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चतुर्थी भागः
रसमकरणम् ]
नोट-चूर्ण योग्य चीज़ोंका पृथक् पृथक् चूर्ण लेकर तोलना चाहिये और पारे गन्धककी कज्जली बना कर उसमें समस्त ओषधियां मिला कर अच्छी तरह घोटना चाहिये ।
इसमें से नित्य प्रति १। तोला चूर्ण घी और शहद के साथ सेवन करने तथा ऊपरसे शीतल दुग्धपान करने से कामशक्तिकी अत्यन्त वृद्धि होती है । इसके प्रभाव से वीर्य हीन, व्याधिपीड़ित, प्रमेही, मूत्रकृच्छ्री, और अस्सी वर्षका वृद्ध पुरुष भी युवाके समान स्त्री-समागम कर सकता है । स्त्री दोषसे उत्पन्न हुई क्लीवता भी इसके सेवन से नष्ट हो जाती है ।
यदि इसे स्त्री सेवन करे तो वह वीर, स्वस्थ और दीर्घजीवी पुत्रको जन्म देती है ।
.1
इस चूर्णकी विद्यमानतामें अन्य सैकड़ों पौष्टिक औषधे बिल्कुल व्यर्थ हो जाती हैं । केवल एक इसी प्रयोगके सेवन से शरीर दिनों दिन इस प्रकार पुष्ट होने लगता है जैसे पानी से नवीन शस्य ।
यदि इसे ४० दिन तक सेवन किया जाय तो पुरुष एक सौ स्त्रियोंके साथ रमण करनेमें समर्थ हो सकता है ।
( व्यवहारिक मात्रा - ६ माशे । ) (५४९५) मदनसुन्दररसः (१) ( र. र. । बाजीकर,; धन्व. | वाजीकरण . ) माक्षिकं धातुमाक्षिकं च लौहचूर्ण शिलाजतु । पारदं च विर्ड चैव गन्धकञ्च समं समम् ॥
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१६७
;;
घृतेन भावयित्वा तु पात्रे कृत्वा तु चायसे । विडालपदमात्रन्तु भक्षयेच्च पुनः पुनः ॥ मासमात्रं पिवेन्नित्यं वीर्यवृद्धयै दिने दिने । सपुमान् रमयेन्नारीमजस्रं चटको यथा ॥
स्वर्णमाक्षिक भस्म, रौप्यमाक्षिक भस्म, लोह चूर्ण ( भस्म ), शिलाजीत, शुद्धं पारद, बायबिढंगका चूर्ण और शुद्ध गन्धक समान भाग लेकर प्रथम पारे और गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधें मिला कर उसे लोहे के खरलमें डाल कर घीके साथ मर्दन करें ।
इसे १ | तोले की मात्रानुसार १ मास तक सेवन करने से कामशक्ति अत्यन्त तीव्र हो जाती है।
(५४९६) मदनसुन्दर रस: (२) ( र. र. स. । उ. खं. अ. २७ ) गन्धकेन रसः पिष्टः कल्हाररसमर्दितः । विपक्वो वालुकायन्त्रे दृष्यो मदनसुन्दरः ॥
शुद्ध पारद और गन्धक की कज्जलीको कुमुद स्वरसमें घोटकर ( रस सिन्दूर की भांति ) वालुका यन्त्र में पकावें ।
यह रस वृष्य ( मन को प्रहर्षित और कामो(तेजन करने वाला ) है |
(५४९७) मदनाङ्कुशटङ्कणरसः (र. का. . । स्वरभेदा. ३६ ) टङ्कणात तृतीयांशं सैन्धवं लवणं न्यसेत् पञ्चमांश सोममलं पशं हरितालकम् ॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि एकादशांशसूतं च मर्दयेच्च शिवाम्बुना। शतावरीरसं दया श्लक्ष्णचूर्ण समाचरेत् । रसोनभल्लातरसे वातहारिरसे पुनः॥ शाल्मलीमूलचूर्णन्तु चूर्णातिसममाहरेत् ।। काचक्प्यां विनिःक्षिप्य वहिं यामांस्तु षोडशः। चूर्णा विजयाचूर्ण विशुद्धं तत्र दापयेत् । दत्वा तच्चातसीवर्ण टङ्कणं मदनाङ्कशम् ॥ सर्वमेकत्र संयोज्य छागीक्षीरेण पेषयेत् ।। गुञ्जाद्वयप्रमाणेन स्वरभेदादिनाशनम् ॥ मोदकार्थे सिता देया पाकयोग्या तथा मधु ।
११ तोला सुहागा, ५ माशे सेंधा नमक, ३ नातिवाह्यश्च धूमान्ते पाचयेन्मन्दवबिना ॥ माशे शुद्ध संखिया, ७॥ तोले शुद्ध हरताल और चातुर्जातं सकपूरं सैन्धवं सकटुत्रयम् ।। १३॥ तोले शुद्ध पारद लेकर सबको (१-१ सञ्चूर्ण्य च ततो देयं हव्यं किञ्चिन्निधापयेत् ॥ दिन ) हर्र के काथ, रसोन ( ल्हसन ) के स्वरस, पाकं ज्ञात्वा शाणमिदं मोदकं परिकल्पयेत् । भिलावे और अरण्डकी जड़ो काथ में घोट कर | भूतनाथे सुरपतौ रतिनाथे तथैव च ॥ सुखाकर कपड़मिट्टी की हुई आतशी शीशी में भर ज्वलनं गणनाथे च मोदकाग्रं निवेदयेत् । कर उसे बालुका यन्त्र में १६ पहरकी अग्नि दें। मूलमन्त्रं समुच्चार्य ज्वलने तु समर्पयेत् ॥ तदनन्तर यन्त्र के स्वांग शीतल होने पर शीशीमें ततोऽभिमन्त्रितम् । “ॐ हीं शं सःअसे रसको निकालकर सुरक्षित रखें । मृतं कुरु कुरु अमृते अमृतोद्भवाय नमः हीं
इसे २ रत्ती मात्रानुसार सेवन करनेसे स्वर- | अमृतं कुरु कुरु अमृतेश्वराय स्वाहा । ॐ मेदादि रोग नष्ट होते हैं।
स्वाहा ।" इति मन्त्रेणाभिमन्त्रितं कृत्वा पात्रा
|न्तरे स्थापयेत् ॥ (५४९८) मदनानन्दमोदकम् (१) ।
काश्चने राजते काचे मृद्भाण्डे वा निधापयेत् । (भै. र. । वाजीकरणा.)
प्रातःकाले शुचिर्भूत्वा हरगौरी प्रपूजयेत् ॥ मृतो गन्धकस्तथा लौहं त्रिसमं शुदमभ्रकम् । कालानल भवं बीजं सतिलं घृतसंयुतम् । करिं सैन्धवं मांसी धाव्येला च कटुत्रयम् ।। गव्यक्षीरं सितायुक्तमनुपेयञ्च पायसम् ॥ जातीकोषफलं पत्रं लवङ्गं जीरकद्वयम् । विलासार्थ प्रदोषे च मोदकं परिसेवयेत् । यष्टीमधु वचा कुष्ठं हरिद्रा देवदारुकम् ॥ त्रिसप्ताहप्रयोगेण कामान्धो जायते नरः ॥ ऐज्जलं टङ्कणं भार्गी नागरं पुष्पकेशरम् । कामज्वरो भवेत्तावद्यावन्नारी न गच्छति । शृङ्गी तालीशपत्रश्च द्राक्षाग्निदन्तिमूलकम् ॥ स सहस्रवरारोहा रमयत्यपि सोद्गमः ॥ बला चातिबला चोचं धनिकेभकणा शटी। न च लिङ्गस्य शैथिल्यं वेगवीय विवर्द्धयेत् । सजलं जलदं गन्धा विदारो च शतावरी ॥ प्रमदापाणबाहुल्य मत्तवारणविक्रमः ॥ अर्कवानरीबीजञ्च गोक्षुरं वृद्धदारकम् । वामावश्यकरो रम्य ऊर्ध्वरेता भवेन्नरः । त्रैलोक्यविजयावीजं समांशं पेषयेद् भिषक् ॥ । कामतुल्यं भवेद्रूपं स्वरः परभृतोपमः॥
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चतुर्थी भागः
रसप्रकरणम् ]
खगतुल्या भवेद् दृष्टिद्धोऽपि तरुणायते । अष्टोत्तरं भजेद्यस्तु भवेत्तस्य सुधोपमम् ॥ वीर्यवृद्धिकरं श्रेष्ठं जरामृत्युविनाशनम् । अपस्मारज्वरोन्मादक्षयानिलगदापहम् ॥ कासं श्वास सशोथञ्च भगन्दरगुदामयम् । अनमान्द्यमतीसारं विविधं ग्रहणीगदम् ॥ बहुमूत्रं प्रमेहश्च शिरोरोगमरोचकम् । हन्ति सर्वदान् घोरान् वातपित्तवलासजान् ॥ वन्ध्या च मृतवत्सा च नष्टपुष्पा च या भवेत् बहुपुत्रा जीववत्सा भवेदस्य निषेवणात् ॥ हर सूतिकागं वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा । मोदकं मदनानन्दं सर्वरोगे महौषधम् ॥ कथितं देवदेवेन रावणस्य हितार्थिना ||
।
पारद, गन्धक, लौहभस्म, प्रत्येक १ तोला, अभ्रकभस्म ३ तोले, कर्पूर, सेन्धा नमक, जटामांसी, आंवला, छोटी इलायची, सोंठ, पिप्पली, कालीमिर्च, जावित्री, जायफल, तेजपत्र, लौंग, जीरा, कालाजोरा, मुलहठी, वच, कूठ, हल्दी, देवदारु, हिज्जलबीज, सुहागा, भारंगी, सोंठ, नागकेसर, काकड़ासिंगी, तालीशपत्र, द्राक्षा, चित्रकमूल, दन्ती मूल, बला, अतिबला, दारचीनी, धनियां, गजपिप्पली, कचूर, सुगन्धवाला, मोथा, प्रसारणी, विदारीकन्द, शतावर, मदार की जड़, कौंच के बीज, गोखरू, विधारावोज, और भांग के बीज; प्रत्येक का चूर्ण १ तोला | इस सम्पूर्ण चूर्ण को शतावर के रस से मर्दन कर शुष्क करलें और पुनः बारीक चूर्ण करके उसमें इस चूर्ण से चतुर्थांश सेंभल की मूसली का चूर्ण मिलावें । एवं इस सम्पूर्ण चूर्ण से आधा विशुद्ध भांग का चूर्ण डालकर एकत्र मिश्र
२२
१६९
मात्रा
कर बकरी के दूध से पेषणकर शुल्क करलें । तदनन्तर सम्पूर्ण चूर्ण से दुगनी खांड को खांड से चौगने दूध में घोलकर मन्द मन्द अग्नि पर पकावें । चाशनी हो जाने पर उपर्युक्त चूर्ण का प्रक्षेप दें और अच्छी प्रकार आलोडन कर नीचे उतार लें । पश्चात् दारचीनी, तेजपत्र, छोटी इलायची, नागकेसर, कर्पूर, सेन्धानमक, और त्रिकटु (सोंठ, मिर्च, पीपल) का चूर्ण (समानभाग- मिश्रित २ तोले) मिलादें । अन्त में उपयुक्त में वृत एवं मधु मिला मोदक बनावें । मात्रा २ माशे से आधे तोले तक । पाक करने के पश्चात् शिव, इन्द्र, कामदेव, अग्नि तथा गणेश प्रभृति देवों के लिये नैवेद्य दें तथा अग्नि के मूलमन्त्र द्वारा मोदक को अभिमन्त्रित करके अग्नि को समर्पण करें । ओं हो. इत्यादि मन्त्र द्वारा अभिमन्त्रित करके सुवर्ण, रजत, कांच अथवा मट्टी के पात्र में रख दें । अगले दिन प्रातः काल शुद्ध होकर शिव तथा पार्वती की पूजा करें। अनुपान - कालानल (रुद्राक्ष) बीज, तिल तथा घी (एकत्र मिश्रित) अथवा खांड युक्त गोदुग्ध अथवा पायस (खीर) । सम्भोग के लिये सायंकाल मोदक सेवन करना चाहिये । तीन सपाह तक इसका प्रयोग करने से मनुष्य कामान्ध होजाता है । इस के सेवन से वीर्यवृद्धि होती है। एवं रतिशक्ति बढ़ती है । इसके सेवन करने वाले का रूप कामदेव के समान सुन्दर, स्वर कोयल के समान मधुर तथा गरुड़ के समान दीर्घदृष्टि है । इसके सेवन से वृद्ध पुरुष भी युवा के समान सामर्थ्ययुक्त होता है । एवं १०८ मोदक सेवन करने पर यह अमृत के समान गुण करता है । यह
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१७०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
वीर्यवर्द्धक, रसायन है । इसके सेवन से अपस्मार, ५-५ तोले शुद्ध पारद और शुद् गन्धक ज्वर, उन्माद, क्षय, वातव्याधि, कास, श्वास, शोथ, को एकत्र खरल करके कज्जली बनावें और उसे १ भगन्दर, अर्श, अग्निमान्द्य, अतिसार, ग्रहणी, बहु- पहर लाल कमल के रस में घोटें। इसमें पुनः २॥ मूत्र, प्रमेह, शिरोरोग, अरुचि, तथा अन्य वातज, तोले गन्धक मिलाकर पूर्ववत् लाल कमलके रसमें पैत्तिक, श्लैष्मिक रोग नष्ट होते हैं । इस के सेवन १ दिन घोटें । अब इसमें २।। तोले गन्धक और से जो स्त्री वन्ध्या, मृतवत्सा (जिन के बच्चे पैदा डाल कर पुनः एक दिन लाल कमलके रसमें होकर मर जाते हों ) अथवा नष्टपुष्पा (नष्टार्तवा) घोटें। जब कज्जली सूख जाए तो उसे कपड़ हो वह भी बहुपुत्रा तथा जीववत्सा होती है । यह मिट्टी की हुई आतशी शीशी में भर कर १ दिन मोदक सूतिकारोग को नष्ट करता है और सम्पूर्ण
बालकायन्त्र में पकावें । एवं शीशोके स्वांग शीरोगों की उत्कृष्ट औषध है।
तल होने पर उसमें से रसको निकाल कर उसे मदनानन्दमोदकम् (२) सात दिन बिदोरी कन्दके रसमें छायामें घोट कर (रस रत्नाकर, रसा. ख. । उपदे. ६) सुरक्षित रक्खें ॥ प्रयोग संख्या ७५५ " कामेश्वरो मोदकः "
इसे नित्य प्रति ५ माशेकी मात्रानुसार समान देखिये।
भाग मिश्रीमें मिलाकर सेवन करना चाहिये । (५४९९) मदनोदयरसः (र. र. रसाः । उपदेश ६; र. मं.)
(व्यवहारिक मात्रा-२ रत्ती।) शुद्धसूतं समं गन्धं रक्तोत्पलदलद्रवैः । अनुपान-सनकी जड़, सनके बीज और या मर्य पुनर्गन्धं साध तत्र विनिःक्षिपेत ॥ मूसली का चूर्ण तथा मिश्री समान भाग लेकर पूर्वद्रावैर्दिनं मद्ये रसाधं गन्धकं पुनः ।
सबको एकत्र मिला कर रक्खें। इसमें से २॥ तोले दत्त्वा तद्वद्दिनं मध काचकूप्यां निरोधयेत् ॥
चूर्ण उपरोक्त रस खानेके बाद गोदुग्ध के साथ दिनैकं वालुकायन्त्रे पकमुदधृत्य चूर्णयेत् ।।
फांकना चाहिये । ( अनुपानकी व्यवहारिक मात्राभृकृष्माण्डी कपायेण भावयेदिनसप्तकम् ॥ ५-६ मासे ) इस रसके सेवनसे अनन्त वीर्यवृद्धि छायायां तत्सिता तुल्यं निष्कै भक्षयेत्सदा होती है। शणमूलं सबीजं च मुशली शर्करा समम् ॥ । (५५००) मदेभसिंहरसः गवां क्षीरैः पलार्धं तु अनु रात्रौ सदा पिबेत् । (र. चं. । पाण्डु; यो. र.। गुल्म., पाण्डु.; अनन्तं वर्धते वीर्य रसोऽयं मदनोदयः ॥
र. रा. सु. । पाण्डु) x “ भूक्ष्माण्डी.........सदा" रस मंजरी में
रसगन्धवराटताम्रशङ्कयह इलोक नहीं हैं। १ “ समूलं वानरी बीजमिति" पाठान्तरम् ।
विषवणाभ्रककान्ततीक्ष्णमुण्डम् ।
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रसपकरणम् ]
चतुर्थों भागः
१७२
अहि हिङ्गुलटङ्कणं समांशं
स्वरस या काथ डाल कर पुनः पकावें । इसी प्रकार सकलैः स्यात्रिगुणं पुराणकिम् ॥ भंगरे, बासे और पुनर्नवा का भी आठ आठ गुना पशुमूत्रविशोधितं सुमृष्ट्वा । रस डाल कर पृथक् पृथक् पकावें । अन्त में जब
त्रिफलाभृङ्गरसाईकोत्थनीरैः। गोढ़ा हो जाए तो १-१ रत्तीकी गोलियां सुविशोष्य वरामृतालिवासा
बना लें। स्वरसैरष्टगुणैः पुनर्नवोत्यैः॥ इन्हें रोगोचित अनुपानके साथ सेवन करनेसे पृथगनिकृतं घनं विपाच्य
ज्वर, पाण्डु, तृषा, रक्तपित्त, गुल्म, क्षय, खांसी, गुलिका गुअमिता निजानुपानैः। स्वर भंग, अग्निमांद्य, मूर्छा, वातव्याधि और अष्ट ज्वरपाण्डुतृषास्रपैत्यगुल्म
| महा रोगों एवं समस्त पित्त रोगों तथा मदात्ययका क्षयकासस्वरमग्निसादमूर्छाम् ॥
नाश होता है। पवनादिकदुस्तराष्टरोगान्
(५५०१) मधुकाचं लौहम् सकलं पित्तहरं मदाटतं च ।
(भै. र. । नेत्र.) बहुना किमसौ यथार्थनाम
मधुकं त्रिफलाचूर्ण लोहचूर्ण तथैव च । सकलव्याधिहरो मदेभसिंहः ॥
भक्षयेन्मधुसर्पिमिक्षिरोगशान्तये ॥ शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, कौड़ी भस्म, ताम्र
___मुलैठी, हर्र, बहेड़ा और आमलेका चूर्ण तथा भस्म, शंख भस्म, शुद्ध वछनागका चूर्ण, बंग
लोह भस्म समान भाग लेकर सबको एकत्र भस्म, अभ्रक भस्म, कान्त लोह भस्म, तीक्ष्ण लोह ।
खरल करें। भस्म, मुण्ड लोह भस्म, नाग (सीसा) भस्म, शुद्ध
इसे घी और शहद के साथ सेवन करनेसे हिङ्गुल और सुहागेकी खील १-१ भाग तथा गो
नेत्र रोग नष्ट होते हैं। मूत्रमें शुद्ध पुराना मण्डूर सबसे ३ गुना (४२ भाग) ले कर प्रथम पारे गन्धक की कज्जली
(मात्रा-५ से १० रत्ती तक। घी ६ माशे। बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे मिला कर शहद २ तोले । ) सबको अच्छी तरह खरल करें । तदनन्तर उसे
(५५०२) मधुकाधवलेहः त्रिफला, भंगरा और अदरक के रसकी पृथक् पृथक्
( भै. र. । स्त्री.) एक एक भावना दे कर सुखा लें। मधुकं चन्दनं लाक्षा रक्तोत्पलरसाधनम् ।
अब उसमें उससे आठ गुना त्रिफला काथ | कुशवीरणयोर्मूलं बलावासकयोस्तथा ॥ मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें, जब यह काथ जल कोलमज्जाम्बुदं बिल्वं पिच्छा दारू च धातकी। जाय तो उतना ही ( रससे ८ गुना ) गिलोयका । अशोकवल्कलं द्राक्षा जवाकुसुममस्फुटम् ॥
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१७२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
आम्रजम्बूकिशलयं कोमलं नलिनीदलम् । शतमूली विदारी च रजतं लौहमभ्रकम् ॥ एषां कोलमितं चूर्ण द्विगुणा सितशर्करा । वरीरसस्य प्रस्थार्दै पचेन्मन्देन वह्निना ॥ घनीभूते क्षिपेच्चूर्ण शीतीभूते पलं मधु । मधुकाधवलेहोऽयं महादेवेन भाषितः ।। दुस्तरं प्रदरं हन्ति नानावण सवेदनम् । योनिशुलं कुक्षिशूलं बस्तिशूलं सुदुःसहम् ॥ रक्तातिसारं रक्तार्शो रक्तपित्तं चिरोद्भवम् । मूत्ररोगानशेषांश्च दाहं मोहं वर्मि भ्रमिम् ॥ नाशयेन्नात्र सन्देहो भास्करस्तिमिरं यथा ॥
मुलैठी, सफेद चन्दन, लाख, लाल कमल के फूल, रसौत, कुशाकी जड़, खस, खरैटी की जड़, बासे की जड़, बेरकी गुठली की गिरी, नागरमोथा, बेलगिरी, मोचरेस, दारु हल्दी, धायके फूल, अशोककी छाल, मुनक्का, गुडहलकी कलियां, आम और जामनकी कोंपलें, कमलिनीके कोमल पत्ते, शतावर और विदारीकन्द । इनका चूर्ण तथा चांदी भस्म, लोह भस्म और अभ्रक भस्म आधा आधा कप (प्रत्येक ७॥ माशे) ले कर सबको एकत्र मिलाले । तदनन्तर २६ कर्ष (३२॥ तोले) खांड को १ सेर (८० तोले) शतावरके रसमें धोल कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब अवलेहके समान गाढ़ा हो जाय तो उसमें उपरोक्त चूर्ण मिलाकर अग्निसे नीचे उतार लें । जब यह अवलेह ठंडा हो जाय तो इसमें ५ तोले शहद मिला कर सुरक्षित रक्खें । ___ इसके सेवनसे वेदना युक्त लाल, पीला आदि अनेक वर्ण वाला भयंकर, प्रदर, योनिशूल, कुक्षि-
शूल, दुस्सह बस्तिशूल, रक्तातिसार, रक्ताश, पुराना रक्तपित्त, मूत्र रोग, दाह, मोह और वमनादि रोग नष्ट होते हैं।
( मात्रा-१ तोला।) (५५०३) मधुपक्कहरीतकी
( यो. चि म. । अ. १) सुपकपथ्यापलपञ्चकं च
मृत्रे गवां प्रस्थमिते विपाच्यम् । प्रस्थे पुनः कांजिकदुग्धतके
पक्त्वा ततो निष्कुलिकां विधेया॥ व्योषं यवानि कुटजस्य बीजं
मुस्ता जलं दाडिमथाम्लवेतसम् । सधातुकीपुष्पमजाजियुग्म ___कणाजटा मोचरस सबिल्वम् ।। सौवर्चलं सैंधवमश्मवल्क
जम्बाम्र मज्जातिविषा च पाठा । लवङ्गजातीफलतुर्यजाता
न्येतानि तुल्यानि विचूर्णितानि ।। कपित्थमाण्डूरमयोदशांशं
समस्तचूर्णार्द्धमिता सिता च । एतैश्च पथ्या परिपूरणीया
सूत्रेण युक्त्या परिवेष्टनीया ॥ स्थाल्यां ततस्ताः क्रमशो निधाय
तृणानि मुक्त्वा परितो विमुच्य । मन्दाग्निना याममथो विपाच्य
विहाय शीता मधुनिःक्षिपेच ॥ ताःसेव्यमाना ग्रहणी प्रमेह
कासापहा अग्निकराः सदृष्याः ।
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रसपकरणम् ]
चतुर्थों भागः .
-
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पाण्ड्वामवातापहराश्च पुष्टो- . मन्दाग्निपर चढ़ाकर एक पहर तक पकावें । इसके
प्रदायका मध्वमयाः प्रदिष्टाः॥ बाद जब वे शीतल हो जाएं तो उन्हे शहदमें
भली भांति पकी हुई बड़ी (पीली) साबित । डाल दें। हरै ५ पल ( २५ तोले ) लेकर उन्हें २ सेर गो- | इन्हें सेवन करनेसे संग्रहणी, प्रमेह, खांसी, मूत्रमें पकावें । ( जब एक चौथाई गोमूत्र जल पाण्डु और आमवातका नाश होता तथा अग्नि जाए तो हरौको निकाल लें । ) तदनन्तर उन्हें और बल वीर्य की वृद्धि होती है। इसी प्रकार क्रमशः २-२ सेर कांजी, गोदुग्ध
| (५५०४) मधुमण्डूरम् और गायके तक्रमें पृथक् पृथक् पकायें । अब उन्हें चाकूसे चीर कर उनके भीतर की गुठली निकाल दें
(यो. र.; वृ. नि. र.; र. रा. सु. । पाण्डु कामला.) और उनमें निम्न लिखित चूर्ण भर कर डोरसे गृहीत्वा भिषक्प्रस्थमण्डूरभाग बांध दें:
Vते त्रैफले मदयित्वा च यामम् । चूर्ण-सोंठ, मिर्च, पीपल, अजवायन, इन्द्र
पुटे पाचयेद्यामयुग्मं कृशानौ जौ, नागरमोथा, सुगन्ध बाला, अनार दाना, अम्ल- पुटानीह देयानि चन्द्राक्षिवारम् ॥ वेत, धायके फूल, सफेद और काला जीरा, पीपला तथा धेनुमूत्रे कुमारीरसे च मूल, मोचरस, बेलगिरी, सञ्चल (काला) लवण, विधेयश्च पञ्चामृते योगराजः। सेंधा नमक, पापाण भेद, जामन और आमकी भवेत्सिन्धुनागैः पुटैः सिद्धदोऽयगुठलीकी गिरी, अतीस, पाठा, लौंग, जायफल, मचिन्त्यप्रभावश्च मण्डूर एषः ॥ दालचीनी, इलायची, तेजपात और नागकेसरका मधुमण्डूर एष कणामधुना चूर्ण १--१ भाग (प्रत्येक १ तोला) तथा कैथका चिरपाण्डुगदं ननु हेममितः। गूदा, मण्डूर भस्म और लोह भस्म १०-१० जनको रुधिरस्य निहन्ति परं भाग (१०-१० तोला ) एवं समस्त चूर्णसे विविधार्तिहरस्त्वनुपानबलैः ।। आधी (२९ तोले) मिश्री लेकर सबको एकत्र घोट
१ सेर मण्डूरको १ पहर तक त्रिफले के लें । उपरोक्त हरों में यह चूर्ण जितना आ सके काथमें धोटकर सम्पुट में बन्द करके, उसे सुखाकर उतना भर कर उन पर कच्चा सूत लपेट देना चा
इस प्रकार पुटदें कि २ पहरमें अग्नि शान्त हो हिये कि जिससे चूर्ण निकल न जाए । जाय । इसी प्रकार त्रिफलेके क्वाथमें धोट कर २१
अब एक हाण्डीमें घास बिछाकर उसके ऊपर पुट दें । इसी प्रकार गोमूत्र, घृतकुमारी के रस उक्त हरों की तह जमा दें एवं उसके ऊपर पुनः धास और पञ्चामृतकी २१-२१ पुट दें। हर पुटमें बिछ। कर दूसरी तह जमावें । इसी प्रकार समस्त इतनी अग्नि देनी चाहिये कि जो दो पहरमें शान्त हर हाण्डीमें रख कर घाससे ढक दें। इस हाण्डीको ) हो जाय ।
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इसे १ । माशे की मात्रानुसार पीपल के चूर्ण और शहद के साथ सेवन करने से पुराना पाण्डु नष्ट हो जाता और नवीन रक्तको वृद्धि होती है ।
भारत - भषज्य रत्नाकरः
इसका प्रभाव अचिन्त्य है और यह अनुपान भेदसे अनेकों रोगोंको नष्ट करता है ।
( पञ्चामृत - गोखरु, मुण्डी, मूसली, गिलोय और शतावर । सब समान भाग ले कर कूट लें | )
एकत्र
(५५०५) मधुयष्ट्यादिचूर्णम् ( नपु. मृ. । त. ३) मधुयष्टी तुगाक्षीरी धात्री गोक्षुरकं तथा । म कपिबीजं धात्रीरस विभावितम् ॥ भक्षयेन्मधुसर्पिभ्यां ततश्चानुपयः पिवेत् । वीर्यवृद्धिकरं पुंसां क्लीवत्वनाशनं परम् ॥
मुलैठी, बंसलोचन, आमला, गोखरू और कौंच बीज | इनका चूर्ण तथा बंग भस्म और अभ्रक भस्म समान भाग ले कर सबको एकत्र घोट कर उसे आमले के रस की भावना दें ।
इसे शहद और घी में मिला कर चाटने और ऊपरसे दूध पीने से वीर्य वृद्धि होती और नपुंसक - ताका नाश होता है ।
( मात्रा - १ माशा ) (५५०६) मध्यमकस्तूरी भैरवरसः ( धन्व. । उवर.; र. रा. सु. । ज्वरा . )
मृतं वङ्गं खर्परं च हिरण्यं तारतालकम् । एतेषां समभागेन कर्षमेकं पृथक्पृथक ||
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| मृतं कान्तं पलं देयं हेमसारं द्विकार्तिकम् । रसभस्म लवङ्गं च जातिकाफलमेव च ॥ वक्ष्यमाणौषधैर्भाव्यं प्रत्येकं दिनसप्तकम् । द्विश्चन्द्रं त्रिकटुर्देयो यत्नतो टिकां चरेत् । द्रोणपुष्पी सैर्वापि नागवल्या रसेन च ॥ वातात्मके सन्निपाते महाश्लेष्म गदेषु च ॥ त्रिदोषजनिते घोरे सन्निपातातिदारुणे । नष्ट नष्टशुक्रे मेहे विषमज्वरे ॥ कासे श्वासे क्षये गुल्मे महाशोथे महागदे । स्त्रीणां शतं गच्छति च न च शुक्रक्षयो भवेत् ॥ एतान् सर्वान् निहन्त्याशु भास्करस्तिमिरं यथा ।। बंग भस्म, शुद्ध खपरिया, स्वर्ण भस्म, चांदी भस्म और हरताल भस्म ११ - १ | तोला, कान्त लोह भम्म ५ तोले, स्वर्णमाक्षिक भस्म २ ॥ तोले, तथा पारद भस्म, लौंगका चूर्ण, और जायफलका चूर्ण २॥ २॥ तोले लेकर सबको एकत्र मिलाकर सा सात दिन गूमा और पानके रसमें पृथक् पृथक् खरल करें और फिर उसमें २|| तोले कपूर तथा २|| तो त्रिकटु ( सोंठ, मिर्च, पीपल) का चूर्ण मिला कर गोलियां बना लें ।
"
[ मकारादि t
ये गोलियां वातप्रधान सन्निपात, कफज रोग, भयंकर सन्निपात, गर्भ विनाश, शुक्र क्षय, प्रमेह, विषम ज्वर, खांसी, श्वास, क्षय, गुल्म, और दुस्साध्य शोथ को नष्ट करके काम शक्ति को बढ़ाती हैं ।
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मध्यमद्रावकरसः ( भै. र. )
द्रावकरस: ( मध्यम ) " देखिये ।
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रसमकरणम् ] चतुर्थों भागः
१७५ (५५०७) मध्वादिलेहः | स्वाङ्गशीतं समुद्धृत्य चूर्णयित्वा निधापयेत् ।
( ग. नि.। राजय. अ. ९.) गुञ्जात्रयं शर्करया ह्याकस्य रसेन च ॥ मधुताप्यविडङ्गाश्मजतुलोहघृताभयाः। दद्यात्समस्तविषमान् ज्वरान्हन्ति न संशयः । हन्ति यक्ष्माणमत्युग्रं सेव्यमाना हिताशिना ॥ पथ्यं क्षीरोदनं देयं मुद्गयूपो तथोदनम् ॥ ____ स्वर्ण माक्षिक भस्म, बायबिडंगका चूर्ण, शुद्ध शुद्ध मनसिल ३ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग शिलाजीत, लोह भस्म और हर्रका चूर्ण समान | और शुद्ध पारद १ भाग लेकर तीनों की कजली भाग ले कर एकत्र खरल करें।
बनावें और उसे ( १ दिन ) घृतकुमारीके रसमें ___इसे शहद और घी के साथ सेवन करने
घोट कर गोला बना (कर सुखा) लें । अब इस तथा पथ्य पालन करनेसे भयंकर राजयक्ष्मा रोग
गोलेको २ भाग शुद्ध ताम्रके सम्पुटमें बन्द करके भी नष्ट हो जाता है।
| ८ पहर बालुका यन्त्र में पकावें । जब वह स्वांग
शीतल हो जाय तो सम्पुटको निकाल कर ( मात्रा-५ से १० रत्ती तक )
पीस लें। (५५०८) मनःशिलादिचूर्णम् ।
इसे ३ रत्ती मात्रानुसार खांड और अदरकके (व. से. । छर्दि.; च. सं. । चि. स्था., छर्दि.)
रसके साथ सेवन करनेसे समस्त विषम ज्वर अवश्य मनःशिलायाः फलपूरकस्य
नष्ट हो जाते हैं। रसैः कपित्थस्य च पिप्पलीनाम् ।
पथ्य-दूध भात तथा मूंगका यूष और भात । क्षौद्रेण चूर्ण मरिचैश्च युक्तं लिह्यात्कफच्छदिमुदीर्णवेगम् ॥
(५५१०) मनःशिलादियोगः शुद्ध मनसिल के ( १ रत्ती ) चूर्ण को बि
(वं. से.; यो. र. छर्दि.; ग. नि. । छर्य. १४) जो रे नीबूके रस तथा कैथके रसके साथ चाटनेसे
मनः शिलामागधिकोषणानां अथवा पीपल और काली मिर्च के चूर्णको शहदके ___चूर्ण कपित्थाम्लरसेन युक्तम् । साथ मिलाकर चाटनेसे भयंकर कफज छर्दि नष्ट
लाजैः समांशैर्मधुनाऽवलीढं हो जाती है।
छदि प्रसक्तामसकृन्निहन्ति । (५५०९) मनःशिलादिज्वराङ्कुशः
शुद्ध मनसिल, पीपल और काली मिर्चका (र. रा. सु. । ज्वर.)
चूर्ण १-१ भाग, धानकी खीलोंका चूर्ण ३ भाग मनःशिलावलिरसै गैर्वहिकरेन्दुभिः ।
तथा खट्टे कैयका रस १ भाग लेकर सबको एकत्र कुमारीरससम्पिष्टैः कृत्वा गोलन्तु शोभनम ॥ मिला लें। युगभागमिते सूक्ष्मे ताम्रसम्पुटके न्यसेत् । इसे शहदम मिला कर चाटनेसे छर्दि (वमन) ततस्तुवालुकायन्त्रे पचेद्यामं तु चाष्टकम् ॥ । शीघ्र ही नष्ट हो जाती है ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
-
मनःशिलाया नामलक्षणगुणाः शोधनं च। मन:शिलानामानि
मलस्य बन्धं किल मूत्ररोधं (आ. वे. प्र.)
सशर्करं कृच्छ्ग दं च कुर्यात् ॥ मनःशिला मनोगुप्ता मनोहा नागजिविका। (५५११) मन:शिलाशोधनम् (१) नेपाली कुनटी गोला शिला दिव्यौषधीः स्मृता॥ ( आ. वे. प्र. । अ. ६; र. प्र. सु. । अ. ६; मनःशिलास्वरूपम्
यो. र.; वृ. यो. त.। त. ४१; यो. चि. म.। ( आ. वे. प्र.। अ. ६; भा. प्र. । प्र. खं.)
अ. ७; भा. प्र.। प्र. खं. ) तालकस्यैव भेदोऽस्ति मनोहा च तदन्तरम् । पचेत्त्र्यहमजाम दोलायन्त्रे मनःशिलाम् । तालकं त्वतिपीतं स्याद्भवेद्रक्ता मनःशिला ॥ भावयेत्सप्तधा मूत्रैरजायाः शुद्धिमृच्छति ॥ मनःशिलाभेदाः
(५५१२) मतान्तरम् (२) (आ. वे. प्र. । अ. ६.) | जयन्तिकाद्रवे तैले दोलायन्त्रे मनःशिला । मनःशिला त्रिधा प्रोक्ता श्यामागी करवीरिका। दिनमेकमजामूत्रे भृङ्गराजरसेऽपि च ॥ द्विखण्डाख्या च तासां तु लक्षणानि निबोधत॥ (५५१३) मतान्तरम् (३) श्यामा हिङ्गलबद्रक्ता किंचित्पोताऽतिदीप्तिका । ( आ. वे. प्र. । अ. ६; यो. र.; वृ. यो. त.। करवीरा रक्तवर्णा चूर्णरूपाऽतिभारयुक्॥ त. ४१; र. मं.; र. र. स. । अ. ३) किंचिद्रक्ता च गौरा च द्विखण्डा भारवत्तरा।
अगस्त्यपत्रतोयेन भाविता सप्तवारकम् । त्रिविधासु च श्रेष्ठा स्यात्करवीरमनःशिला ॥
शृङ्गवेररसैर्वापि विशुष्यति मनःशिला ।। गुणा:( आ. वे. प्र. अ. ६; यो. र.; बृ. यो. त.।
(५५१४) मतान्तरम् (४) त. ४१; भा. प्र. प्र. ख.)
( आ. वे. प्र. । अ. ६.) मनःशिला गुरुवर्या सरोष्णा लेखनी कटुः। भृङ्गागस्त्यजयन्तीनामाईकस्वरसेपु च । तिक्ता स्निग्धा विश्वासकासभूतकफास्रनुत । दोलायन्त्रेण संस्विन्ना विशुध्यति मनःशिला ।। अशुद्धमन:शिलागुणा:
(५५१५) मतान्तरम् (५) ( आ. वे. प्र. । अ. ६; यो. र., वृ. यो. त.। (रसे. सा. सं. ; र. र. स. । अ. ३) त. ४१; रसे. सा. सं.; भा. प्र. । प्र. खं.) जयन्ती भृङ्गराजोत्थै रक्तागस्त्यरसैः शिला । मनःशिला मन्दवलं करोति
दोलायन्त्रे दिनं पाच्या यामं छागस्य मूत्रके । जन्तुं ध्रुवं शोधनमन्तरेण । क्षालयेदारणालेन सर्वरोगेषु योजयेत् ।।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः मनसिलके नाम
मनःशिलाशोधन (१) मनःशिला, मनो गुसा, मनोहा, नागजिबिका, | मनसिलको ३ दिन तक दोला-यन्त्र-विधिसे नेपाली, कुनटी, गोला, शिला और दिव्योषधि । | बकरीके मूत्रमें पकायें और फिर उसे बकरीके मूत्रकी मनसिल क्या है ?
सात भावना दें। इस प्रकार मनसिल शुद्ध हो __ मनसिल हरतालकी जातिकी ही ओषधि है। जाती है । हरताल अत्यन्त पीली होती है परन्तु मनसिलका
मनसिलशोधन (२) रंग लाल होता है।
मनशिलको पृथक् पृथक १-१ दिन जयन्ति मनसिलके भेद
के रस, तिलके तेल, बकरीके मूत्र और भंगरेके मनसिल तीन प्रकारकी होती है:
रसमें दोला यन्त्र-विधिसे पकानेसे वह शुद्ध हो
जाती है। (१) जो किञ्चित् पीत वर्ण और सिंगरफ (हिंगुल ) के समान लाल तथा अत्यन्त दीप्तिमान
मनशिलशोधन (३) हो उसे श्यामा कहते हैं।
मनसिलको अगस्ति (अगथिया) के पत्तोंके .. (२) जो अत्यन्त भारी और चूर्ण के रूप में |
रस या अदरकके रसकी सात भावना देनेसे वह लाल रंगकी आती है उसे करवीरा कहते हैं।
' शुद्ध हो जाती है । (३) तीसरे प्रकारकी मनसिल किञ्चिद्रक्तवर्ण
मनसिलशोधन (४) श्वेत और अत्यन्त भारी होती है उसे द्विखण्डिका
मनसिलको पृथक् पृथक् (१-१ दिन) कहते हैं।
भंगरेके रस, अगस्ती (अगथिया) के रस, जयन्तीके इन तीनों में 'करवीरा ' नामक मनसिल
रस और अदरकके रस में दोला यन्त्र-विधिसे स्वेश्रेष्ट होती है।
दित करनेसे वह शुद्ध हो जाती है । मनसिलके गुण
मनसिलशोधन (५) मनसिल गुरु, वर्ण को स्वच्छ करने वाली, मनसिलको एक एक दिन जयन्ती, भंगरा, सर, उष्ण, लेखनी, कटु तिक्त रस वाली, स्निग्ध तथा । और लाल अगस्ति के रसमें, दोलायन्त्र-विधिसे विष, स्वास, खांसी, भूतबाधा, कफरोग और .रक्त- स्वेदित करनेके पश्चात् १ पहर बकरीके मूत्रमें दोष नाशक होती है।
पकाकर काजीसे धो डालें। अशुद्धमनसिलके दोष
(५५१६) मनःशिलासत्त्वपातनम् अशुद्ध मनसिलके सेवनसे बल घटता और ( आ. वे. प्र. । अ. ६; र. प्र. सु. । अ. ६; मलावरोध, मूत्ररोध, मूत्रकृच्छ्, तथा शर्करा ( पथरी
र. र. स. । अ. ३.) भेद ) रोग उत्पन्न होता है।
तालवच्च शिलासवं ग्राह्य तैरेव चौषधैः ।
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१७८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
अथवा
रसपद्धत्याम्-अष्टमांशेन गुडगुग्गुल- इसके सेवनमें किसी विशेष परिहार (परहेज़) लोहकिट्टेन सर्पिषा सह मर्दयित्वा मूषायां की आवश्यकता नहीं है। दवाऽन्धयित्वा कोष्ठयां माता सत्त्वं मुश्चेत् । इसके खानेके पश्चात् यदि दाह हो तो शरीर
___ मनसिलका सत्व भी हरताल-सत्व पातन- पर चन्दनका लेप करना चाहिये । विधिसे, उन्हीं ओषधियोंके योगसे निकाला जाता है।
(५५१८) मन्थानभैरवरसः (२)
(र. च. । कफ रोग.; र. रा. सु. । कास; - मनसिल में उसका आठवां भाग गुड़, गूगल
र. का. धे । अम्लपित्त. अ. ११; र. प्र. सु. । और मण्डूर मिलाकर सबको घीके साथ घोटकर
अ. ८; र. मं. । अ. ६: र. र. स. । उ. ख. अ. अन्ध मूषामें बन्द करके धमानेसे सत्व निकल
| १३; रसे. चि. म. । अ. ९.) आता है।
मृतं सूतं मृतं तानं हिङ्गुपुष्करमूलकम् । (५५१७) मन्थानभैरवरसः (१)
सैन्धवं गन्धक' तालं कटुकी' चूर्णयेत्समम् ।। ___ (र. रा. सु. । ज्वरा.)
पुनर्नवा देवदारु निर्गुण्डी तण्डुलीयकैः । शुद्धं सूतं तथा गन्धं लोहं तानं च सीसकम्। मरिचं पिप्पली विश्वं समभागानि चूर्णयेत् ।।
तिक्तकोशातकीद्रावैदिनैकं मर्दयेद् दृढम् ।। अर्द्धभागं विषं दद्यान्मर्दयेद्वासरद्वयम् ।
| माषमात्रं लिहेत्क्षौद्रैः रसो मन्थानभैरवः ॥ शृङ्गवेरानुपानेन दद्याद्गुाद्वयोन्मितम् ॥ पारद भस्म ( अभावमें रस सिन्दूर ), ताम्र नवज्वरे महाघोरे सन्निपाते सुदारुणे। | भस्म, भुनीहुई हींग, पाखरमूल, सेंधा नमक, शुद्ध शीतज्वरे दाहपूर्वे गुल्मशूले त्रिदोषजे ॥ गन्धक (पाठान्तरके अनुसार बंग भस्म, ) शुद्ध वांच्छितं भोजनं दद्यात कुर्य्याच्चन्दनलेपनम् ।। हरताल और कुटकी ( पाठान्तरके अनुसार त्रिकुटा
शुद्र पारा, शुद्ध गन्धक, लोह भस्म, तात्र- अथवा सुहागा ) समान भाग ले कर सबको पुनभस्म, सीसा भस्म, काली मिर्चको चर्ण, पीपलका र्नवा (बिसखपरा), देवदारु, संभालु, कांटे वाली चूर्ण और सोंठका चूर्ण ५-५ तोले तथा शुद्ध चौलाई और कड़वी तोरीके रसमें पृथक् पृथक् १बछनाग ( मीठा विष ) २॥ तोले लेकर सबको १ दिन घोट कर १-१ माशेकी गोलियां बनालें। एकत्र मिलाकर दो दिन खरल करें।
१ वङ्गकमिति पाठान्तरम् । इसे २ रत्ती मात्रानुसार अदरकके रसके साथ |
२ कटुकमिति पाठान्तरम् । २ टङ्कणमिति पाठान्तरम् । सेवन करनेसे घोर नवीन ज्वर, भयंकर सन्निपात,
३ देवदालीति पाठान्तरम् शीत ज्वर, दाहपूर्व ज्वर, गुल्म और त्रिदोषज
४ रस प्रकाश सुधाकरमें भावना द्रव्यों में पुनर्नवाका शूल नष्ट होता है।
अभाव है।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
__ इनमेंसे १-१ गोली शहदके साथ खा कर मिलें उनके स्वरस और शेषके काथ में १-१ दिन ऊपर से नीमका काथ पीनेसे कफ-रोग शान्त खरल करना चाहिये । होते हैं।
तदनन्तर उसे लोह सम्पुट में बन्द करके उस (५५१९) मन्थानभैरवरसः (३) पर कपड़ मिट्टी करके सुखा लें और बालुका यन्त्र
में एक दिन की अग्नि दें । यन्त्र के स्वांग शीतल ( भैरवरसः; महाज्वराङ्कुशः)
हो जाने पर सम्पुटमेंसे औषधको निकाल कर उसमें ( र. रा. सु. । सन्निपाता.; रसे. चि. म. । अ. ९)
शुद्ध हरताल, लाल चीता, सोंठ, मिर्च, पोपल, शुद्धस्तं मृतं तानं समं टङ्कणगन्धकम् ।। शुद्ध बछनाग, जीरा और चीतामूलका समानजम्बीरफलमध्यस्थं दोलायन्त्रे पचेदिनम् ॥ | भाग-मिश्रित चूर्ण उपरोक्त रसके बराबर मिलाकर मर्दयेद्भावयेद्रावैः शिवासानिम्बुजैः। भली भां सर्पाक्षी विजया ब्राह्मी मीनाक्षी हंसपादिका ॥
" इसे ३ रत्ती मात्रानुसार सेवन करानेसे सन्निहस्ति शुण्डी रुद्रजटा धृतवातारिवायसी। पात नष्ट होता है। दिनकं मर्दयेदासां लोहसम्पुटगं पचेत् ॥
पथ्य-मूंगका यूष । दिनैकं वालुकायन्त्रे समुद्धृत्य विचूर्णयेत् । तालकं दीप्यकं व्योपं विषं जीरकचित्रकौ ॥
- (५५२०) मन्मथाभ्ररसः एभि रससमैमिश्रं त्रिगुभं भक्षयेत्सदा।
(श्रीमन्मथरसः) सन्निपातज्वरं हन्ति मुद्यूषाशिनः सुखम् ॥ ( भै. र.; र. र. स. । बाजी.) ___ शुद्ध पारद, ताम्र भस्म, सुहागेको खील और रसगन्धकयोग्रां पलमेकं सुशोधितम् । शुद्ध गन्धक समान भाग ले कर सबको एकत्र अभ्रं निश्चन्द्रकं दद्यात् पलार्द्धश्च विचक्षणः ।। घोट कर कजली बनावें और उसे चार तह किये कपूरं तोलकरदद्याद् वङ्गश्च कोलसम्मितम् । हुवे कपड़ेमें बांध कर पोटली बनालें । इस पोटली साम्र तोलार्द्धकं तत्र निःशेष मारितं पुनः ॥ को जम्बीरी नीबूके भीतर रख कर उस (नीबू ) पर लौहकर्ष सुजीर्णश्च वृद्धदारकजीरकम् । सुतली आदि लपेट दें। और इस नीबूको १ दिन विदारों शतमूलोश्च क्षुरबीजं बलां तथा । दोलायन्त्र विधिसे जम्बीरी के रसमें पकावें । मर्कटयतिविषां चैव जातीकोषफले तथा । तत्पश्चात् पोटलीमें से रसको निकाल कर उसे निम्न लवङ्ग विजया बीजं श्वेतसर्ज यमानिकाम् ॥ लिखित ओषधियोंके रसमें एक एक दिन घोटें- शाणभागान् गृहीत्वैतान् एकीकृत्वैव पेषयेत् । सहजना, बासा, अद्रक, नीबू , सर्पाक्षी, भांग, ब्राह्मी, गुञ्जाद्वयन्तु कर्तव्यं कोष्णं क्षीरं पिबेदनु ॥ . मछली, हंसपादी, हाथीसुण्डी, रुद्रजटा, धतूरा, १ कर्षमेकमिति पाठान्तरम् । २ शाणक्रमिति अरण्ड-मूल और मकोय । इनमेसे जिनके स्वरस पाठान्तरम् । ३ "मर्कट्यतिबला" इति पाठान्तरम् ।।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
गृहे यस्य शतं नार्यों विद्यन्तेऽतिव्यवायिनः। इससे जठराग्नि भी इतनी प्रबल हो जाती है न तस्य लिङ्गशैथिल्यमौषधस्यास्य सेवनात ॥ कि काष्ठ भी पचा सकती है ।
(५५२१) मरिचादिवटी न च शुक्रं क्षयं याति न बलं हासतां ब्रजेता
(वृ. नि. र. । अतिसारा.) कामरूपी भवेन्नित्योवृद्धः षोडशवर्षवत् ॥
" मरीचं खरं नागफेनं तन्दुलतज्जलैः । रसायनवरो बल्यो वाजीकरण उत्तमः। मद्य तन्दलतोयेन गुटी सर्वातिसारजित् ।। रसः श्रीमन्मथाभ्रोऽयं महेशेन प्रकाशितः ॥ काली मिरचका चूर्ण, शुद्ध खपरिया और अस्य भक्षणमात्रेण काष्ठं जीर्यति तत्क्षणात् । अफीम समान भाग लेकर सबको चावलोंके पानीमें नाशयेद् ध्वजभङ्गादीन् रोगान् योगकृतानपि ॥ घोट कर ( काली मिर्चके बराबर ) गोलियां
बना लें। शुद्ध पारद और गन्धक २॥-२॥ तोले, |
| इसे चावलोंके पानीके साथ सेवन करनेसे अभ्रक भस्म २॥ तोले, कपूर ७॥ माशे, बंग भस्म
समस्त प्रकारके अतिसार नष्ट होते हैं। ७॥ माशे, ताम्र भस्म ३।। माशे, लोह भस्म १।
__ (५५२२) मलभेदीरसः तोला तथा विधारा मूल, जीरा, बिदारीकन्द, श
(र. चि. म.। स्तबक १०) तावर, तालमखाना, बीजबन्द (खरैटीके बीज ),
पारदं गन्धकं चैव सौभाग्य पिप्पली समम् । कौंचके बीज, अतीस, जावत्री, जायफल, लौंग,
समांशं जयपालं च क्रियते रेचनं परम् ॥ भांगके बीज, सफेद राल और अजवायन; सबका |
शीतेन रेचयेत्सम्यगुष्णेनैव प्रशामयेत् ॥ चूर्ण ५-५ माशे लेकर सबको एकत्र घोट लें ।
शुद्ध पारद, शुद् गन्धक, सुहागेकी खील इसे २ रत्ती मात्रानुसार खाकर ऊपरसे और पीपलका चूर्ण १-१ भाग तथा शुद्ध जमाल. मन्दोष्ण दूध पीना चाहिये।
गोटा ४ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली
बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे मिला कर यह रस अत्यन्त बलकारक और वाजीकरण
| सबको भली भांति खरल करके गोलियां बना लें । है। इसको सेवन करने वाला पुरुष सौ स्त्रियोंके ।
इन्हें ठण्डे पानीके साथ खिलानेसे विरेचन साथ समागम करे तो भी न तो लिङ्ग-शैथिल्य ही
होता है और उष्ण जल पिला देनेसे दस्त बन्द हो होता है, न वीर्य की कमी होती है और न ही
ता है और न ही जाते हैं। बलहास होता है।
(मात्रा-१ रत्ती ) - इसे सेवन करने से वृद्ध पुरुष भी षोडश- (५५२३) मल्लचन्द्रोदयः (१) वर्षीय युवाके समान (वीर्यवान ) हो जाता है । (रसायन सार । सन्निपात. ) दुष्ट प्रयोगोंसे उत्पन्न नपुंसकता भी इसके सेवनसे नैम्बूकनीरेण दिनत्रयन्तु नष्ट हो जाती है।
श्वेतादिरूपांश्चतुरोऽपि मल्लान् ।
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रसप्रकरणम्
चतुर्थों भागः
यथोत्तरं तूग्रबलान्मिथस्तान्
तां कूपिकास्था सिकताऽऽख्य यन्त्रे समांशमूतेन विमर्दयेत ॥
यथावहिधूमविधि प्रबोद्धा। ताभ्यां समानेन सुगन्धकेन
पिपारदोऽर्द्धमतो ददीत __कृत्वा मसीं कूपिकया पचेत ।
शीशीमुखे मृत्कवली सुरुद्वाम् ।। सर्वार्थकायां खलु कोष्ठिकायां
अर्द्धद्वितीयं दिनमग्नितापं ___ यामत्रयं शीतलमुद्धरेत ॥
बरकाष्ठस्य ददीत तीब्रम् । मल्लादिचन्द्रोदयमामनन्ति
कृत्वा स्वयं शीतमथोशीशीसौंपधेभ्योऽपि प्रधानवीर्यम् ।
गलस्थचन्द्रोदयमाददीत ॥ विमूचिकासनिपतत्रिदोषान्
कर्पूरजातीफलदेवपुष्पव्याधीनपाकर्तुमनन्यशस्त्रम् ।।
__कस्तूरिकानक्रमदैलिकाभिः । श्वेत, पीला, लाल और काला संखिया (सो- !
लिह्यादिमं मासमशक्तशुक्र मल) १-१ भाग और शुद्ध पारद ४ भाग लेकर
__ आरोग्यहेतोर्मधुना मनुष्यः ॥ सबको ३ दिन नीबूके रसमें घोटें और फिर उसमें संखिये (सोमल) को ३-३ बार सेंड (थो८ भाग शुद्ध गन्धक मिलाकर कज्जली बनावें। हर) और आकके दूधमें पृथक् पृथक घोट घोटकर इस कञ्जलीको आतशी शीशीमें भर कर सर्वार्थ- सुखावें । तदनन्तर उसमें उसके बराबर बुभुक्षित करी भ्राष्ट्री पर ३ पहर बालुका यन्त्रमें पकावें । पारद और दो गुना शुद्ध गन्धक मिलाकर कजलीजब शीशी स्वांग शीतल हो जाय तो औषधको | बनालें । इसे आतशी शोशीमें भर कर बालुका निकाल कर सुरक्षित रक्खें ।
यन्त्रमें पकावें । ४ पहर तक तो शीशीका मुख यह रस विसूचिका और सन्निपातादि रो
खुला रक्खें और फिर डाट लगाकर १।। दिन तक गोंको नष्ट करनेके लिये अद्वितीय औषध है।
बबूलकी लकड़ियोंको तीत्राग्नि दें । तत्पश्चात् शी
शीके स्वांग शीतल होने पर उसे सावधानी पूर्वक (५५२४) मल्लचन्द्रोदयः (२) ।
तोड़ कर उसके गलेमें लगे हुवे चन्द्रोदयको ___ . ( रसायन सार.)
निकाल लें । स्नुहोपयस्स्वपयस्सु मल्लं
अनुपान-कपूर, जायफल, लौंग, कस्तूरी, विर्भावितं मर्दनशुष्करूपम् । अम्बर और इलायचीका चूर्ण समान भाग लेकर बुभुक्षुसूतद्विगुणेन शुद्ध
सबको एकत्र घोट कर रक्खें । गन्धेन धृष्ट्वा च मसिं विदध्यात् ॥ उक्त चन्द्रोदयको इस अनुपानमें मिलाकर १. सर्वार्थकरी भ्राष्टीकी विधि भा. भै. र. भाग
| शहदके साथ सेवन करनेसे शुक्रकी क्षीणता (नपुं२ में पृष्ट ४१८ पर देखिये ।
| सकता) नष्ट होती है।
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१८२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
(५५२५) मल्लपञ्चरत्नरसः सूखता जाय त्यों त्यों उसे बार बार भिगोते रहें । (र. चं. । वातरोगा.)
४ पहरके पश्चात् अग्नि देनी बन्द करदें । जब
स्वांग शीतल हो जाय तो दोनों प्यालोंको सावधास्फाटिको धवलश्चैव दाडिमः कृष्णपीतकौ ।
नीसे खोलकर ऊपरके प्यालेमें लगे हुवे संखियेके एते पञ्चाखुपाषाणाः गृहीयात्समभागकाः ।।
फूल (जौहर) को छुड़ा लें। खल्ले किश्चिद्विचूाथ क्षिपेद्डुमरुयन्त्रके। रम्भाकन्दरसश्चैव प्रतिकर्षे चतुर्गुणम् ॥
इसे आधी रत्ती या एक रत्ती मात्रानुसार घी दापयेत्तत्सम चैव लिङ्गिनीस्वरसं तथा।
| और खांडमें मिलाकर खिलानेसे समस्त वातज सन्धिलेपं ततः कृत्वा चूल्योपरि निधापयेत् ॥
और वातकफज रोग तथा स्वास, खांसी और
सन्निपातज विषम ज्वर नष्ट होते हैं। मन्दाग्नौ पाचयेद्यामचतुष्टयविधानतः । मूनि दत्त्वाऽऽर्द्रवस्त्रं तु स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत् ।।
दाह हो तो शीतल जल पीना चाहिये । सर्ववातविकारेषु वातश्लेष्मगदे तथा।
पथ्य-तक भात । श्वासे कासेऽथ विषमज्वरे चैव त्रिदोषजे ॥ नोट-अग्नि बहुत धीमी जलानी चाहिये । देयं गुञ्जार्धगुञ्ज वा पथ्यं तक्रोदनं हितम् ।
(व्यवहारिक मात्रा-२-३ चावल भर । घृतशर्करया देयं सर्ववातगदेषु च ॥ | १ रत्ती औषधको १ तोला खांडमें मिलाकर अच्छी पेयं शीतोदकं चात्र पञ्चरत्नरसोत्तमे ॥ तरह घोटकर उसकी ४ पुड़िया बना लेनी चाहिये । ___स्फटिकाके समान चमकदार सफेद रंगका, | इस प्रकार तोलकर मात्रा बनानेसे अधिक दिये भूरे रंगका, अनारके फूलके समान लाल रंगका जानेका भय नहीं रहेगा। ) और काला तथा पीला सोमल (संखिया ) समान
(५५२६) मसूरिकारिरसः भाग लें और पांचोंको खरलमें डालकर जरा देर घोटकर ( मोटा चूर्ण बनाकर) एक मिट्टीके
. (र. का. धे. । मसूरिका. ) शरावमें डालें और उसमें समस्त औषधसे चार गुना बिल्वपत्ररसेनैव मूछितः पारदेश्वरः। केलेकी जड़का रस तथा उतना ही शिवलिङ्गीका | हिलमोचीरसेनैव पोतो मधुसमायुतः ।। रस डालकर उसके ऊपर दूसरा शराव उलटा करके मसूरी सर्वजां हन्ति अस्थिनां सर्वदेहजाम् ।। ढक दें और दोनोंकी सन्धिको कपड़ मिट्टीसे अच्छी रस सिन्दूर अथवा कज्जलीको बेलके पत्तोंके तरह बन्द करदें।
रसमें घोटकर यथोचित मात्रानुसार शहदमें मिलाइसे चूल्हे पर चढ़ाकर नीचे मन्दाग्नि जला कर हुलहुलके रसके साथ पिलानेसे सर्व दोषज और ऊपर वाले प्याले पर चार तह किया हुवा और सर्व देहमें फैली हुई अस्थिगत मसूरिका भी कपड़ा पानीमें भिगोकर रक्खें तथा ज्यों ज्यों वह ! नष्ट हो जाती है ।
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रसपकरणम् ] चतुर्थों भागः
१८३ ... (५५२७) मस्कमृगाङ्कोरसः । (५५२८) महाकनकसिन्दररसः (र. रा. सु. । प्रमेह.)
(यो. र.; र. रा. सु.; वृ. नि. र. । क्षय.) सुशुद्धं पारदं चैव सुशुद्धं गन्धकं भवेत् ।। | रसगन्धकनागाश्च रसको माक्षिकाभ्रके। रङ्गं शुद्धं समादाय नवसादरमेव च ॥ | कान्तविद्रुममुक्तानां बंगभस्म च तारकम् ॥ समभागानि सर्वाणि मर्दयित्वा सुखल्लके। भस्म कृत्वा प्रयत्नेन प्रत्येकं कर्षसम्मितम् । काचकूप्यां विनिःक्षिप्य पावके स्थापयेबुधः॥ सर्वतुल्यं शुद्धहेमभस्म कृत्वा प्रयोजयेत् ॥ मुखे मुद्रा च नो देया धृमं संलक्षयेत्ततः। । मर्दये त्रिदिनं सर्व हंसपादीरसैभिषक् । निर्धमे जायमाने तु सिद्धो मस्कमृगाङ्ककः ॥ | ततो वै गोलकान्कृत्वा काचकूप्यां विनिक्षिपेत् ॥ मधुमेइन्तु मेहानां गणं नाशयते ध्रुवम् । रुद्ध्वा तत्काचकूपी च सप्तवस्त्रेण वेष्टिताम् । मधुना भक्षयेच्चैव सूक्ष्मला चूर्णकेन च ॥ ततो वै सिकतायन्त्रे त्रिदिनं चोक्तवह्निना ।। रससागरग्रन्थे तु सुश्रेष्ठं स्वर्णभस्म च ॥ पश्चात्तं स्वागशीतं च पूर्वोक्तरसमर्दितम् । ___ शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध बंग (कलई) विनिक्षिप्य करण्डेऽथ सम्पूज्य रसराजकम् ॥ और नौसादर समान भाग लेकर प्रथम बंगको महाकनकसिन्दरो राजयक्ष्महरः परः। आगपर पिघलाकर पारदमें डालदें और अच्छी तरह । पाण्डुरोगं श्वासकासं कामलाग्रहणीगदान् ।। धोटें । जब रांग पारदमें मिल जाय तो उसमें | क्रिमिशोफोदरावर्तगुल्ममेहगुदाकरान् । गन्धक और नौसादर डालकर घोटें । जब अत्यन्त मन्दाग्निं छर्दिमरुचिमामशूलहलीमकान् ॥ महीन कज्जली हो जाय तो उसे आतशी शीशीमें ज्वरान्द्वन्द्वादिकान्सर्वान्सन्निपातांस्त्रयोदश । भरकर बालुका यन्त्रमें पकावें । शीशीका मुख | पैत्यरोगमपस्मारं वातरोगान्विशेषतः ॥ बन्द न करना चाहिए और उससे निकलने वाले रक्तपित्तप्रमेहांश्च स्त्रीणां रक्तस्रवांस्तथा । धुएं को देखते रहना चाहिए । जब धुंआ निक- विंशतिश्लेष्मरोगांश्च मूत्ररोगानिहन्त्यसौ ॥ लना बन्द हो जाय तो रसको तैयार समझें । हेमवर्ण्यश्च बल्यश्च आयुःशुक्रविवर्धनः । तदनन्तर शीशीके स्वांग-शीतल हो जाने पर उस- महाकनकसिन्दूरः काश्यपेन विनिर्मितः ॥ मेंसे औषधको निकालकर सुरक्षित रखें ।
शुद्र पारद, शुद्ध गन्धक, सीसा भस्म, शुद्ध (यह सुनहरे रंगकी भस्म होगी इसीको खपरिया, स्वर्ण माक्षिक भस्म, अभ्रक भस्म, कान्त स्वर्णवङ्ग और स्वर्ण राजबङ्गेश्वर भी कहते हैं।) |
लोह भस्म, प्रवाल (मूंगा) भस्म, मोती भस्म, बंग इसे छोटी इलायचीके चूर्ण में मिलाकर शहदके | भस्म और चांदी भस्म ११-१। तोला तथा स्वर्ण साथ सेवन करनेसे मधुमेह और अन्य समस्त प्र- भस्म सबके बराबर (१३॥ तोले ) लेकर प्रथम कारके प्रमेह अवश्य नष्ट हो जाते हैं। ( मात्रा- पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर समस्त १-२ रत्ती).
औषधोंको एकत्र मिलाकर ३ दिन हंसपादी (लाल
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१८४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
लज्जालु) के रसमें घोटकर छोटी छोटी टिकिया | त्रिधा विभाज्य तत्रैकां समादाय हरीतकीम् । बना लें और उन्हें सात ( कपड़ मिट्टी ) की हुई | एकपादं दिनाभ्यां च द्वितीयं दिवसैस्त्रिभिः॥ आतशी शीशीमें भरकर बालुका यन्त्रमें ३ दिनकी | तृतीयं च ततः पादं चतुर्भिर्दिवसैभजेत् । मृद. मध्यम, तीब्र अग्नि दें । जब शीशी स्वांग एकैकां च ततः पथ्यां भजेदावत्सरं नरः ।। शीतल हो जाय तो उसमेंसे औषधको निकाल कर जीवेदात सायं नीतिः । उसे एक दिन हंसपादीके रसमें धोटें। सर्वव्याधिविनिर्मुक्तो नित्यं स्त्रीशतसेवकः ॥
इसके सेवनसे राजयक्ष्मा, पाण्डु, श्वास, बलवान्वीर्यवांश्चैव पूर्णसर्वेन्द्रियोदयः ।। खांसी, कामला, संग्रहणी, कृमि, शोथ, उदर रोग, जायते नात्र सन्देह आज्ञेयं पारमेश्वरी॥ गुल्म, प्रमेह, अश, मन्दाग्नि, छर्दि, अरुचि, आम, हन्यादक्षिगदांश्च कुष्ठमखिलं मासान्तमासेवितः। शूल, हलोमक, द्वन्द्वजादि ज्वर, १३ प्रकारके स- पाण्डं च ग्रहणी प्रमेहगुदजान्गुल्मांश्च शूलामयान न्निपात, पित्तरोग, अपस्मार, वात रोग, रक्तपित्त, स्थूलत्वं च तथा महानिसदनं रोगांस्तथैवापराप्रमेह, स्त्रियोंका रक्तस्राव, २० प्रकारके कफ रोग | न्कुर्याद्दीपनपाचनं खलु नृणां भाव्यामयारोधनम् और समस्त मूत्र रोग नष्ट हो जाते हैं। | अयं रसायनं दिव्यं महाकनकसुंदरः ॥
यह राजयक्ष्माकी परमौषध और वात रोगोंमें कान्त लोह स्वर्ण और गन्धक जारित पारद विशेष उपयोगी है।
भस्म ४ निष्क (२० माशे) और स्वर्ण भस्म ५ इसके अभ्याससे शरीरकी कान्ति, बल, आयु
माशे लेकर दोनोंको एकत्र घोटें । तदनन्तर उसमें और वीर्यकी वृद्धि होती है।
कान्त लोह-निर्मित अन्धमूषा द्वारा ५० निष्क शुद्ध
गन्धक जारण करें। (५५२९) महाकनकसुन्दररसः
___अब इसमेंसे १ निष्क (५ माशे) औषधका (र. र. स. । अ. २७)
अत्यन्त महीन चूर्ण करके घृतसे स्निग्ध किये हुवे कान्तकाञ्चनगन्धाश्मजारितं मारितं रसम् । उत्तम मृत्पात्रमें डालें और उसे शहदसे भरकर चतुनिष्कमितं चाथ स्वर्ण निष्कमितं मृतम् ॥ | अच्छी तरह हिला दें कि जिससे वह औषध शहद निक्षिप्य कान्तपात्रे तु पञ्चाशनिष्कसम्मितम् । में अच्छी तरह मिल जाए। जारयेद्गन्धकं शुद्धमन्धेन बडवाग्निना ॥ _इसके पश्चात् ३६० हर्रोको ( सिजाकर ) निष्कतुल्यमिदं चूर्ण श्लक्ष्णीकृत्य प्रयत्नतः। उसमें डाल दें। ( शहद इतना होना चाहिये कि निक्षिपेन्मधु सम्पूर्ण घृतमुस्निग्धभाण्डके ॥ | जिसमें हरै भली भांति डूब जाएं । ) जब हरें अमुनैव प्रकारेण पथ्यानां षष्ठिसंयुतम् ।। शहदमें अच्छी तरह रच जाएं तो उन्हें सेवन त्रिशतं साधयेद्यत्नाच्छास्त्रदृष्टविधानतः ॥ । योग्य समझें।
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रसप्रकरणम्]
चतुर्थों भागः
___ एक हरके ३ भाग करके उनमेंसे १ भाग । कम्पिल्लेन रसेनापि विष्णुकान्तारसेन च । पहिले और दूसरे दिन ( आधा आधा करके ) | कदलीकन्दतोयेन तालमूलीरसेन च ॥ खावें, तीसरे दिन दूसरा भाग और चौथे दिन शतवारं पुटं देयं भवेद्वयोमरसायनम् । तीसरा भाग खावें तथा इसके पश्चात् नित्य प्रति । तद्वयोमभस्मितं ताप्यभस्म ताम्रस्य भस्म च ॥ १ हर्र १ वर्ष तक खाते रहें।
कान्तभस्म च तत्सर्वं समांशं परिकल्पयेत् । इस प्रयोगसे मनुष्य बलि पलित-रहित और भावयेत्सप्तधा निम्बरसैलॊधरसेन च । सर्व रोगोंसे विमुक्त १०० वर्षकी आयु प्राप्त कर | त्रिफलायाः कदल्याश्च केतक्या मार्कवस्य च ॥ सकता है । उसकी सर्वेन्द्रियां पूर्ण विकसित | कोरकस्यापि सारेण तावद्वाराणि यत्नतः ॥ रहती हैं तथा वह बलवान और वीर्यवान होकर | इति निष्पन्नकल्केऽस्मिस्तत्समां त्रिफलां क्षिपेत नित्य प्रति १०० स्त्रियोंसे समागम करनेमें समर्थ | भस्ममूतं सिताव्योषं चित्रकं च पृथक् पृथक् ॥ हो सकता है।
मधुना गुटिकाः कार्याः शाणेन प्रमिताः खलु। ___ यह प्रयोग समस्त नेत्र रोग और कुष्ठोंको | महाकल्क इति ख्यातो ह्यश्विभ्यां परिकीर्तितः॥ केवल १ मासमें ही नष्ट कर देता है। विधिना वर्षपर्यन्तं भक्षयेन्मतिमान्नरः।
इसके अतिरिक्त यह पाण्डु, संग्रहणी, प्रमेह, बलवृद्धिकरः शश्वत्सर्वरोगनिवारकः ॥ अर्श, गुल्म, शूल, स्थूलता और अग्निमांद्य आदि मेहानस्तिथा पाण्डुकासश्वासहलीमकान् । अनेक रोगोंको नष्ट करता और शरीरको रोगोंके | | उपदंशं फिरङ्गं च कुष्ठं वापि निहन्त्यसौ ।। हमलेसे बचाता है।
शुद्ध धान्याभ्रकको मूसलीके रसकी भावना (५५३०) महाकल्कनामकरसः
देकर कपड़ मिट्टी की हुई हाण्डीमें भरदें; और उसके ( नपु. मृता. । तं. ९)
| ऊपर एक शराव ढक कर दोनोंके जोडको
( उड़दके आटेसे ) बन्द करदें । इस ढकनेके महाकल्क प्रवक्ष्यामि श्रूयतां शिष्यसत्तम । बीचमें एक छिद्र होना चाहिये। धान्याभ्रकं विनिक्षिप्य मुसलीरसमर्दितम् ॥
___ अब इस हाण्डीको चूल्हे पर चढ़ाकर उसके स्थाल्यां क्षिप्त्वा निरुध्याथ पिधान्या मध्यरन्ध्रया
धया नीचे १ पहर तक तीब्राग्नि जलावें और तत्पश्चात् स्थाल्यधो ज्वालयेद्वह्नि यामपर्यन्तमुद्धतम् ॥ ऊपर वाले शरावके छिद्रसे उसमें थोड़ा थोड़ा दूध ततः क्षिपेत्पिधान्यां हि व्योम्नस्त्वष्टगुणं पयः। डालें । जब अभ्रकसे आठ गुना दूध शुष्क हो जीणें पयसि पिष्ट्वा तत्तालमूलीरसेः पुनः॥ जाए तो आग जलानी बन्द करदें और हाण्डीके इत्थं हि साधयेद्वयोम त्रिवारमतियत्नतः। स्वांग शीतल हो जाने पर उसमेंसे अभ्रकको अजादुग्धपुटैः पश्चाद्वाराणि विंशतिः खले ॥ । निकाल लें।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
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इस अभ्रकको पुनः मूसलीके रसमें घोट कर इसके सेवनसे प्रमेह, अर्श, पाण्डु, खांसी, उपरोक्त विधिसे हाण्डीमें पका और जब ८ गुना श्वास, हलीमक, उपदंश और कुष्ठादि रोग नष्ट दूध शुष्क हो जाय तो निकाल लें तथा एक बार होते हैं । फिर तालमूलीके रस में घोटकर उपरोक्त विधिसे
(५५३१) महाकल्परसः उसमें ८ गुना दूध शुष्क करें।
(र. का. धे. । वातरक्ता.) इस प्रकार ३ बार दूधके साथ पाक करनेके पश्चात् उसे बकरीके दूधमें घोटकर यथा विधि गण्डदूर्वा भृङ्गराजः कुमारी कण्टकारिका । गजपुटमें फूंक दें । इसी प्रकार बार बार दधमें त्रिफला काकमाची च कदली वाजिगन्धिका ॥ घोटकर बीस पुट दें । बकरी के दूधके पश्चात् २० भार्गव्याश्च रसैरेतैमुसल्या च पुनर्नवैः। पुट कमीलेके रसकी दें और तदनन्तर क्रमशः प्रत्येकं मर्दयेदेतैः पारदं पतिवासरम् ।। कोयल, केलेकी मूसली और तालमूली (भूसली) के | प्रस्थमानमतिश्लक्ष्णं गाढं गाहं निरन्तरम् । रसकी २०-२० पुट दें।
अनन्तरं सैन्धवेन प्रस्थद्वयमितेन च ।। उपरोक्त विधिसे पांचों द्रव्योंकी २०-२० । एकैकं गैरिकं प्रस्थं खटिकामिष्टिकां तथा । पुट ( कुल १०० पुट) लग जानेपर अभ्रकभस्म कन्यकाद्रवमाकृष्य सरसं मर्दयेञ्च तत् ।। तैयार हो जायगी।
दिनत्रयमतिश्लक्ष्णं नष्टपिष्टं च खल्बके । तब यह अभ्रक भस्म, स्वर्ण माक्षिक भस्म, नालिकायन्त्रमारोप्य मुद्रयेत्तन्मुखं भृशम् ॥ ताम्र भस्म और कान्त लोह भस्म समान भाग ले त्रयोदशदिनं याद्वहिं कुर्यान्निरन्तरम् ।। कर सबको नीमकी छाल, लोध, त्रिफला, केला, यन्त्रादादाय मूतेन्द्रं प्रकुर्यात्तस्य पूजनम् ॥ केतकी, भंगरा और कमल नाल के रसकी पृथक् गुरूणां महतां पश्चाद्योगिनां क्रोधवर्जितः । पृथक् सात सात भावना दें। तत्प चात् उसमें मदमात्सर्यमुत्सृज्याऽहङ्कारं मानमेव च ॥ त्रिफलाका चूर्ण, पारद भस्म (अभाव में रससिन्दूर), ब्रह्मचर्य च कर्तव्यं वैधवृन्दस्य पूजनम् । मिश्री, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल) और चित्रकका अर्धगुलं रसं दद्याद दिवसक्रमवर्धितम् ।। चूर्ण १-१ भाग ( प्रत्येकका चूर्ण उपरोक्त तैयार रक्तिकां कारयेद्वादे नाधिका तां कदाचन । रसके बरोबर) मिलाकर सबको एकत्र शहदमें घोटकर भुक्तं भुक्तं च भुञ्जीत मुद्दान्नं च शृतं घृतम् ॥ ५-५ माशेकी गोलियां बना लें ।
शर्करामधुखण्डानि पथ्याथै तत्र योजयेत् । इन्हें ( यथोचित मात्रानुसार ) १ वर्ष तक एकविंशदिने याते तनखानि पतन्ति च ॥ सेवन करनेसे सस्त रोग नष्ट होकर बल वीर्यकी चत्वारिंशदिनेऽतीते तत्केशाः प्रक्षरन्ति च । वृद्धि होती है।
एवं षष्टिदिनप्रान्ते त्वचो यान्ति शीर्णताम् ।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
अशीतिदिवसस्यान्ते तदन्ताः प्रच्यवन्ति च । जायते तत्तदा कल्पे सत्वेष्वपि महत्स्वपि । आलस्यमरुचिर्देहे जायते सप्तकद्वयात् ॥ अनिच्छा देहिनः शास्त्रे दौमनस्यं शुभेऽपि च॥ अंशेन च भवेदेहे छदैनं च मुखेन च । एतदर्थ निषेधोऽस्ति कथितः पूर्वमूरिभिः। भवेत्तन्मनुजस्यापि सेवनाच रसायनम् ॥ कर्तव्यस्यापि कर्तव्यः सङ्कल्पः कल्पपूर्ववत् ।। एवं पग्मासपर्यन्तं सेवयेत्तं रसेश्वरम् । भविष्यति न सन्देहो मोह उत्सृज्यते यदि । मासत्रये समायान्ति नूतनाः केशसञ्चयाः॥
अष्टदशानि कुष्ठानि वातरक्तं महामयम् ॥ दृढा दन्ता जायन्ते नवीनाः पुण्यभागिनः । साध्यासाध्यं नाशयति महाकस्परसो भृशम् ।। पुनर्नवं वपुः कुर्याद् द्वितीयो मीनकेतनः ॥ १ सेर पारदको क्रमशः गण्डदूर्वा, भंगरा, सिद्धमण्डलसिद्धाङ्गो ब्रह्मायुः कल्पपारगः ।
घीकुमार, कटेली, त्रिफला, मकोय, केला, असगन्ध, दन्ताबलबलः प्राक्षो हरिवेगो दृढेन्द्रियः ॥
भरंगी, मूसली और पुनर्नवा के रसमें पृथक् पृथक् निरामयो महोत्साहो महाशिवमनोहरः।
एक एक दिन खरल करें । तदनन्तर उसमें २ सेर वनितानां शतं गच्छेत्पुत्राणां शतमाप्नुयात् ॥
| सेंधा नमकका चूर्ण मिलाकर घृतकुमारीके रसके कालालिकुलसंकाशकुटिलालकपल्लवः ।।
साथ ३ दिन घोटें और उसके पश्चात् १-१ सेर विशालशालसद्वाहुमण्डितोरःस्थलः सदा ॥
गेरु, खिड़िया मिट्टी और ईंटका चूर्ण मिलाकर कपालप्रतिमप्रौढहृदयावनिशोभितः ।
प्रत्येकके साथ ३-३ दिन मर्दन करें । हर बार प्रत्युनतवपुर्यष्टिविलासिनयनाम्बुजः ॥
घृतकुमारीका रस अवश्य मिला लेना चाहिये ।
तदनन्तर उसे नालिका यन्त्रमें चढ़ाकर, उसका मुख निर्गुण्डिकापत्ररसं त्रिलोहमनु पाययेन् ।
बन्द करके निरन्तर १३ दिन पाक करें। इसके औषधस्य क्षण स्थित्वा फलताम्बूलचर्वणम् ॥
पश्चात् यन्त्रके स्वांग शीतल होने पर उसमेंसे कर्पूरसकलं चास्ये निर्मले विनिवेशयेत् ।।
रसको निकालकर उसका पूजन करें; तथा क्रोध अमले सुखदे तल्पे वामशायी भवेत्क्षणम् ।।
मद, मात्सर्य, अहंकार और अभिमानका त्याग करके भारतं भारतं वाऽपि भव्यकाव्यकथा सुखम् ।
ब्रह्मचर्य पालन पूर्वक गुरु, महात्मा, योगी और गीतं सङ्गीतकं चापि रामायणपरायणः ॥
वैद्य वृन्दका पूजन करके इस रसको आधी रत्तीकी नाटकं शाटकं चैव शृणोति च निरीक्षते ।
मात्रानुसार सेवन करना प्रारम्भ करें । यह रस महागन्धयुतो भाति कुसुमैः सुमनोहरम् ॥ बढ़ाकर अधिकसे अधिक १ रत्ती तक सेवन किया मनोभिरामा वा निर्विकारमना मताः । जा सकता है इससे अधिक कदापि न खाना अनाकुलमनाः कामं चित्रं वा वीक्षते सुखम् ॥ चाहिये। अनन्यस्यास्य कल्पस्य सेवनं कुरुतेऽनिशम्। अनुपान-रसको खाने के पश्चात संभालुके अपथ्यं न च कर्तव्यमतथ्यं सर्वमेव तत् ॥ पत्तोंके रसमें स्वर्ण, चांदी और ताम्रकी भस्म
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१८८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि मिलाकर सेवन करना चाहिये और जरा देर बाद । भक्षयेत्पातरुत्थाय तिलक्षोदमधुप्लुताम् । पानमें सुपारी और कपूर रख कर खाना चाहिये । सिताक्षौद्रयुतां वापि नवनीतेन वा सह ।।
पथ्य-मूंग, भात, धी, खांड, शहद, मिश्री। अयथापानजा रोगा वातजाः कफपित्तनाः । उत्तम सुखदायक पलंग पर बांई करवट सोना; | गदाः सर्वे विनश्यन्ति ध्रुवमस्य निषेवणात् ॥ मनोहर काव्य, कथा, रामायण और संगीत श्रवण स्वर्ण भस्म, अभ्रक भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध करना; नाटकादि देखना और विकार रहित मनसे | गन्धक, लोह भस्म और मोती भस्म समान भाग सुन्दर चित्रोंका अवलोकन करना चाहिये। लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और ___ इस रसके सेवनमें अपथ्य कदापि न करना
फिर उसमें अन्य ओषधियां मिलाकर सबको चाहिये।
आमलेके रसमें घोटकर १-१ रत्तीकी गोलियां
बनालें। गुण-इसके सेवनसे २ सप्ताह बाद आलस्य और अरुचि उत्पन्न हो जाती है तथा छर्दि होने
इन्हें प्रातःकाल तिलके चूर्ण और शहदके
साथ अथवा खांड और शहदके साथ या नवनीत लगती है । २१ दिन पश्चात् नख गिरने लगते
( नौनी धी ) के साथ सेवन करनेसे वातज और हैं। ४० दिन पश्चात् बाल गिर जाते हैं । ६०
कफपित्तज मदात्यय ( सुरा पानसे उत्पन्न रोग) दिन बाद खाल गल जाती है तथा अस्सी दिनके
अवश्य नष्ट हो जाते हैं। पश्चात् दांत भी गिर जाते हैं । इस प्रकार निरन्तर ३ मास तक सेवन करते रहनेसे ये समस्त
(५५३३) महाकामेश्वरः उपद्रव शान्त हो कर नवीन केश, और दृढ़ दांत
(वृ. यो. त. । त. १४७; वै. र. । वाजीकरण.) निकल आते हैं तथा शरीर अत्यन्त स्वरूपवान | एतस्मिन्रतिवल्लभे यदि कामदेव सदृश हो जाता है। आयु अत्यन्त दीर्घ
पुनः सम्यकुखुराप्तानिका हो जाती है । सैकडों स्त्रियोंसे समागम करने और धत्तुरस्य तु बीजमर्ककसैकड़ों पुत्रोत्पादनकी शक्ति आ जाती है।
___ रभः पाथोऽब्धिशोषस्तथा। इसे ६ मास तक सेवन करना चाहिये ।
| सन्माजूफलकं तथा खस
फलं पक्त्वाऽपि यः क्षिप्यते यह रस १८ प्रकारके कुष्ठ और असाध्य |
| चूर्णार्धा विजया तदा स हि वातरक्तको भी नष्ट कर देता है।
भवेत्कामेश्वरः सज्ञया । (५५३२) महाकल्याणवटी
___ यदि " रति वल्लभ पूगी पाक" में निम्न ( भै. र. । मदात्यया.) ओषधियोंका चूर्ण और मिला दिया जाय तो उसका हेमाभ्रश्च रसं गन्धमयो मौक्तिकमेव च । नाम "महा कामेश्वर मोदक" हो जाता है। धात्रीरसेन सम्मध गुञ्जामात्रां वटीं चरेत् ।। "फलं त्वक्चापि" इति पाठान्तरम् ।
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रसरसकभुजङ्गास्तारतापीजवङ्गा गगनतरणिसारा वेधमुख्यास्तुषाराः । द्विगुणित सितमेतच्चूर्ण गोलं विदध्यातदनु मधुहवि प्राश्य पेयं पयोsनु ॥
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थी भागः
खुरासानी अजवायन, धतूरेके बीज, अकर - करा, समन्दर सोख, माजूफल, और पोस्तका डोढा ५-५ तोले तथा भांग समस्त चूर्णसे आधी ।
(५५३४) महाकामेश्वरो मोदकः
यक्ष्माणं ग्रहणीगदं गुदरुजामानाहप्लीहोदराग्युन्मादानलसाददीर्घ कसनापस्मारमेहाश्मरी: । शूलं श्वासमरोचकं ज्वरमुरोरोगं क्रिमि कामलां पाण्डुत्वं च हलीमकं च जयति श्रीमानयं लीलया ।। रेतःक्षीणमलं करोति मदनोन्मादेन मन्दानलं ( वृ. यो. त. । त. १४७ ) पक्त्या गुर्वशनस्य दीनवपुषं कान्त्या जड मेधया कङ्कhot बृहदेलिकागज लावीरावरीन्दीवरी- कार्नाटीशतसङ्गसङ्गरजयोद्दामश्रिया कामिनं वासवत्सकवीजवारणकणाविश्वोपकुल्योषणम्। दुर्बीजं शुभरेतसं सुतनयं कुर्याचलङ्कारिणम् || बीजानि त्रपुत्रिकण्टकशणामाषेक्षुराणां तथा पारीन्द्रं च पराक्रमेण तुरगं वेगेन तारापति मज्जानो बदरी बिभीतकशिवा धात्रीप्रियालोद्भवाः कान्त्या च द्विरदं बलेन शिखिनं नादेन बुद्ध्यातालीसं शिवकन्दलामृतलतागाङ्गेरुकी बीजकं शृङ्गीधान्यकचित्रकं समुसलीहीरासटोमेथिकाः । नासत्यावधारी करोति वपुषा लावण्यलक्ष्मीजुषा श्रीकामेश्वरसेवया गतवया अप्येति यूनः श्रियम् ॥
बुधम् ।
दाभोऽथ मेदसुमहामेदे च काकोलिका तद्वत्क्षीरकवासी निगदिता वृद्धिस्तथा मृद्विका शालू कद्रयराजिकाद्वयपृथग्जीराजमोदादयं श्रीखण्डद्वयमधिशोषमुसली मांसी सवांशी मिसिः ।
॥
जातीपलिवङ्गमकर्करभः काश्मीरकं दाडिमं चातुर्जातकलोणिका कुमुदिकाजातीफलं यष्टिका द्राक्षाखाखस वल्कलं मदनकं शृङ्गाटोपणं जम्बूद्मकपुष्कराढकदलीकन्दा श्वगन्धास्तिलाः माषाः शाल्मलिबीजवल्कलरसामूलं च पौनर्नवम् कर्षाशं विजयाsखिलार्धतुलया देयाऽथ शुक्त्थंशकाः ॥
१८९
कंकोल, बड़ी इलायची, नागबला (गंगेरन), अतिबला, शतावर, महा शतावर, बासा, इन्द्रजौ, गजपीपल, सेठ, पीपल, काली मिरच, खीरेके बीज, गोखरु, सनके बीज, उड़द, तालमखाना, बेरकी गुठली की गिरी, हर्र और आम की गुठली की गिरी चिरौंजी, तालीस पत्र, आमला, कमलगट्टा, गिलोय, गंगेरन, बिजयसार,, काकड़ासिंगी, धनिया, चीता, काली मूसली, हीराबोल, कचूर, मेथी, दारूहल्दी, जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, काकजंघा, वृद्धि, मुनक्का, कसेरु, कमलकन्द, सफेद सरसों, राई, सफेद जीरा, काला जीरा, अजवायन, अजमोद, दो प्रकारका सफेद चन्दन*, समन्दरसोख, सफेद मूसली, जटामांसी, बंसलोचन, सौंफ, जावत्री, लौंग, अकरकरा, केसर,
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# एक वह जो तोड़ने से भीतरसे नरम निकलता है और दूसरा जो सूखा निकलता है ।
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अनार दाना, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर, लोनियाके बीज, कुमुदनी (नीलोफर ), जाय फल, मुलैठी, द्राक्षा (किशमिश ), पोस्तका डोढा, धतूरे के बीज, सिंघाड़ा, सफेद विधारामूल, पीपलामूल, जामनकी गुठली, पद्माक, पोखरमूल, केलेकी मूसली ( सूखी हुई ), असगन्ध, तिल, उड़द, सेंभल के बीज, सेंभलकी छाल, शिलारस और पुनर्नवा की जड़ । प्रत्येकका करन चूर्ण १| तोला | शुद्ध भांगका चूर्ण सबसे आधा ( ५६ | तोले ) और पारद भस्म (या रससिन्दूर), शुद्ध खपरिया, सीसा भस्म, चांदी भस्म, स्वर्ण--- माक्षिक भस्म, बंग भस्म, अभ्रक भस्म, ताम्र भस्म,
लोह भस्म, कस्तूरी और कपूर आधा आधा कर्ष ( प्रत्येक ७|| माशे ) लेकर सम्पूर्ण ओषधियोंको एकत्र घोट लें और फिर सबसे दो गुनी ( ४ सेर ३१। तोले ) खांडकी चाशनी बनाकर उसमें उक्त सम्पूर्ण चूर्ण मिलाकर (१ - १ तोलेके ) मोदक बना लें ।
भारत-भैषज्य रत्नाकरः
इन्हें घी और शहद में मिलाकर दूधके साथ खाना चाहिये ।
ये मोदक यक्ष्मा, संग्रहणी, अर्श, आनाह, लोहोदर, उन्माद, अग्निमांथ, पुरानी खांसी, अपप्रमेह, अश्मरी, शूल, श्वास, अरुचि, ज्वर, हृद्रोग, कृमि, कामला, पाण्डु और हलीमकको नष्ट करते हैं।
स्मार,
इनके सेवन से क्षीणवीर्य पुरुष भी काममत्त हो जाते हैं; मन्दानि व्यक्ति दुष्पाच्य आहार पचा डालते हैं; कान्तिहीन पुरुषों के मुख कान्तिमान् हो
[ मकारादि
जाते हैं; जड़ बुद्धि मनुष्य बुद्धिमान हो जाते हैं; दुष्ट वीर्य पुरुषका वीर्य शुद्ध होकर उन्हें शुभ लक्षण युक्त पुत्र की प्राप्ति होती है और वृद्ध पुरुष युवाके समान हो जाते हैं ।
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इसके प्रभाव से बल, पौरुष, कान्ति, बुद्धि और काम शक्तिको अत्यन्त वृद्धि होती है ।
( मात्रा - १ मोदक | ) (५५३५) महाकालरसः (१) (र. का. . । कुष्टा. ) शुद्धसूतं मृतं ताम्रै कुष्ठं गन्धकटङ्कणम् । पिप्पली च समं ममातुलुङ्गद्रवैर्दिनम् ॥ त्रिफला सर्वतुल्या स्यादेकीकृत्याथ मर्दयेत् । निष्कैकं लेहयेच्चानु मध्वाज्यैर्वाकुची रसम् ॥ कुष्ठं वैपादिकं हन्ति महाकालो रसो ह्ययम् ॥
शुद्ध पारद, ताम्र भस्म, कूठ, शुद्ध गन्धक, सुहागेकी खील और पीपल समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका महीन चूर्ण मिलाकर सबको १ दिन बिजौरे के रस में घोटें; तत्पश्चात् उसमें उसके बराबर त्रिफलेका चूर्ण मिलाकर भली भांति खरल करके रक्खें ।
इसे शहदके साथ चाटकर ऊपरसे ५-५ माशे शहद, घी और बाबचीका स्वरस एकत्र मि लाकर चाटना चाहिये ।
इसके सेवनसे वैपादिक कुष्ठx नष्ट होता है । ( मात्रा --- १ - १ || माशा )
x वैपादिकं पाणिपादस्फुटनं तीब्रवेदनम् । [मा. मि. ]
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रसमकरणम् ]
(५५३६) महाकालरसः (२) ( र. का. . । कुष्टा ४० )
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चतुर्थी भागः
गन्धबद्धं तु सूतेन्द्रं सत्त्वं तालकसम्भवम् । ताम्र भस्म च तुल्यांशमर्क क्षीरेण मर्दयेत् ॥ दिनं च बाकुचीतैले गुञ्जामात्रं च भक्षयेत् । भूतारिवृक्षमूलं च राजवृक्षत्वचा समम् ॥ गुडेन सह कषैकं भक्षयेद नुपानकम् । गलत्कुष्ठहरः ख्यातो महाकाली महारसः ॥
समान भाग पारद और गन्धककी कज्जली, हरताल सत्व और ताम्र भस्म बराबर बराबर लेकर सबको १ - १ दिन आक के दूध और बाबचीके तेल में घोटें ।
इसमें से १ रत्ती रस खाकर ऊपरसे भूतारि (ग) के पेड़ की जड़ और अमलतास की छालका १ तोला चूर्ण गुड़में मिलाकर खाना चाहिये ।
इसके सेवन से गलत्कुष्ट नष्ट होता है । (५५३७) महाकालेश्वरो रसः ( भै. र. । कास.; र. चं. । श्वास.; र. का. धे. । सन्निपात. )
मृतं लौहं मृतं बङ्गं मृतार्के मृतमभ्रकम् । शुद्धसूतञ्च गन्धञ्च माक्षिकं हिङ्गुलं विषम् ॥ जातीफलं लवङ्गञ्च त्वगेलानागकेसरम् । उन्मत्तस्य च वीजानि जयपालञ्च शोधितम् ॥ एतानि समभागानि परिचं हरनेत्रकम् । सर्वद्रव्यं क्षिपेत्खल्ले लौहदण्डेन मर्दयेत् ॥ शक्राशनस्य स्वरसैर्भावयेदेकविंशतिम् । गुञ्जामात्रा प्रदातव्या आर्द्रकस्य रसैर्युता ॥
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१९१
तदर्द्ध बालवृद्धेषु पथ्यं देयं यथोचितम् । पञ्चकासान् क्षयं श्वासं राजयक्ष्माणमेव च ॥ सन्निपातं कण्ठरोगमभिन्यासमचेतनम् । महाकालेश्वरो हन्ति कानाथेन भाषितः ॥ लोह भस्म, बंग भस्म, ताम्र भस्म, अभ्रक भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, स्वर्णमाक्षिक भस्म, शुद्ध हिंगुल, शुद्ध बछनाग ( मीठा विष ); तथा जायफल, लौंग, दालचीनी, इलायची, नागकेसर, शुद्ध धत्तूर - बीज और शुद्ध जमालगोटेका चूर्ण १ - १ भाग + एवं काली मिर्चका चूर्ण ३ भाग लेकर सबको लोहे के खरल में लोहेकी मूसलीसे घोटकर भांगके काथको २१ भावना दें और १-१ रत्ती की गोलियां बनाकर सुखा लें ।
इनमें पूर्ण वयस्क रोगीको १ गोली तथा बालक और वृद्धको आधी आधी गोली अद्रक के रसके साथ खिलानेसे पांच प्रकारकी खांसी, क्षय, दवास, राजयक्ष्मा, सन्निपात, कष्ठ रोग, अभिन्यास और मूर्च्छाका नाश होता है ।
(५५३८) महाकूष्माण्डपाकः ( वृ. यो त । त. १४९ ) कूष्माण्डस्य पचेलिमस्य
बृहतःखण्डस्तुलासम्मितां
स्तद्वीजान्विगतत्वचश्च
विपचेन्मन्देन सप्तार्चिषा ।
पक्वान्किञ्चिदमूनमूढ
हृदयः पिष्ट्वा शिलायां शनैस्तत्कल्कं सुरभीघृतेन
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कुवद्वन्द्वेन संभर्जयेत् ॥
+ रस कामधेनुमें टङ्कण अधिक लिखा है ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि शीते तत्र वरा वरी सठि
| मेहच्छेदि च रक्तपित्तमिशीश्रीखण्डवंशीवला __विजयिः स्यादम्लपित्तापहम् । घेल्लाल्लाघनषटकटुक्षुर
रक्तातौँ च विडामयहयो शाराजमोदात्रित् ॥
दरयोः पाण्डौ प्रसूत्यामये कुष्ठं कटफलमूसलीगज
| मन्दाग्नौ जठरामयेऽरुचि कणातालीसजीरद्वय
शिरःपीडाङ्गपीडासु च ॥ द्राक्षागोक्षुरद्धदारु
आवल्ये पलिते बलीषु हुतभुग्यष्टीलवङ्गाम्बुजम् ।
नयनश्रोत्रामये शस्यते शृङ्गीचारजवानरीकु
दाहे सर्वशरीरजेऽपि मुदिकाखजूरबैभीतकं
पवनाम्ने पाण्डुकृच्छ्रेषु च ॥ कङ्कालो हपुषाविदारि
___पके पेठेके छिले हुवे और बीज रहित ६। लवणश्रेष्ठश्चतुर्जातकम् ॥
सेर बड़े बड़े टुकड़े ले कर उन्हें मन्दाग्निपर पकावें जातीकोशसुवर्णमाक्षिक
और उसीज जाने पर उन्हें पत्थर पर पीस लें युगं शृङ्गाटकं शाल्मली
तदनन्तर उस पिठीको १ सेर गायके धीमें भूने । त्वक्चैषां मृदुलं रजः पिचुमितं प्रत्येकमत्र क्षिपेत् ।
जब वह अच्छी तरह भुन जाय तो ठण्डा करके अभ्रं वाऽपि पलप्रमाण
उसे ६। सेर खांडकी चाशनीमें मिला दें एवं उसमें ममलं ताम्र सलोहं मृतं
निम्न लिखित ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सुरप्रत्येकं पिचुयुग्मकं च
क्षित रखें। सित या साकं तुलामानया।। चूर्णकी ओषधियां-हर्र, बहेड़ा, आमला, सपाच्यानलयोगतो वि
शतावर, कचूर, सौंफ, सफेद चन्दन, बंसलोचन, रचयेच्चक्री यथाग्नि प्रगे
बीजबन्द (खरैटीके बीज), बायबिडंग, धनिया, तामद्यादपि सायमम्बु
नागरमोथा, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, चव, चीता, कियदाचामेच्च ताम्बूलभुक् । | पीपलामूल, तोलमरवाना, असगन्ध, खस, अजमोद, कूष्माण्डस्य रसायनं निग
| निसोत, कूठ, कायफल, मूसली, गजपीपल, तालीसपत्र, दितं वाजीकरं स्त्रीजुषा- सफेद जीरा, काला जीरा, मुनक्का, गोखरु, विधारा. मश्विभ्यां कफवातपित्त
मूल, चीतामूल, मुलैठे, लौंग, कमल, काकडासिंगी, गदजिच्छुक्रातवातङ्कनुत् ॥ चिरौंजी, कौं चके बीज, कुमुदनी, खजूर, बहेड़ा, वृष्यं चाप्यतिबृहणं क्षय
| कंकोल, हपुषा ( हाऊबेर ), विदारीकन्द, सेंधा हरं जीर्णज्वरनं वमि- । नमक, दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर,
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लें
रसप्रकरणम् ]
चतुर्थी भागः
१९३
जावत्री, सोनामक्खी - भस्म, रूपामक्खी भस्म, | एतत्प्रोक्तं कुमाराणां रक्षणाय महौषधम् । सिंघाड़ा, और सेंभलकी छालका बारीक ज्वरनं दीपनञ्चैव बलवर्णप्रसादनम् ॥ चूर्ण १-१ कर्ष ( प्रत्येक १| तोला ); अभ्रक दुर्वारं ग्रहणीरोगं जयत्येव प्रवाहिकाम् । भस्म ५ तोले, ताम्र भस्म २|| तोले और लोह सूतिकाञ्च जयेदेतदपि वैद्यविवर्जिताम् ॥ भस्म २॥ तोले । सबको एकत्र मिलाकर अच्छी कासश्वासातिसारघ्नं वाजीकरणमुत्तमम् । तरह खरल कर लें । और उसे उपरोक्त पाकमें बालरोगं निहन्त्याशु सर्वोपद्रवसंयुतम् ॥ 1 मिलाकर (१-१ तोलेकी ) टिकिया बना
1
१–१ टिकिया सायङ्कालको खा कर ऊपरसे २- ४ चुल्लू पानी पीना और फिर पान खा लेना चाहिये ।
यह पाक कफज रोग, वातज रोग, पित्तज विकार, शुक्रदोष, रज सम्बन्धी रोग, क्षय, जीर्ण ज्वर, वमन, प्रमेह, रक्तपित्त, अम्लपित्त, रक्तविकार, मलावरोध, प्रदर, पाण्डु, प्रसूत रोग, अग्निमांद्य, अरुचि, उदर रोग, शिर पीड़ा, बली, पलित, नेत्र रोग, कर्ण रोग और समस्त शरीर गत दाहको नष्ट करता है | यह अत्यन्त वाजीकरण है ।
(५५३९) महागन्धकम् ( भै. र. र. सा. सं. । अतिसा; रा. रा. सुं. । ग्रहण्य. )
रसगन्धकयोः कर्षे ग्राह्यमेकं सुशोधितम् । ततः कज्जलिकां कृत्वा मृदुपाकेन साधयेत् ॥ जात्याः फलं तथा कोषं लवङ्गारिष्टपत्रके । सिन्धुवारदलञ्चैव एलावीजं तथैव च । एतेषां कर्षमात्रेण तोयेन सह मर्दयेत् ॥ मुक्तागृहे पुनः स्थाप्यं पुटपाकेन साधयेत् । गुञ्जाषट्कप्रमाणेन प्रत्यहं भक्षयेन्नरः ।
१. र. रा. सु. और भै. र. में यह पंक्ति नहीं है । ૨૫
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पिशाचा दानवा दैत्या बालानां ये विघातकाः । यत्रौषधवरस्तिष्ठेत्तत्र सीमां त्यजन्ति
बालानां गदयुक्तानां स्त्रीणाञ्चापि विशेषतः । महागन्धकमेतद्धि सर्वव्याधिनिषूदनम् ॥
नोट- रसेन्द्र सार संग्रह और रसचंडाशुका “ग्रहणी शार्दूल रस ” भी लगभग इस प्रयोग समान ही है । उसमें १६ वां भाग स्वर्ण अधिक है तथा संभालु पत्रका अभाव है । ( प्रयोग सं. १६१३ देखिये । )
१ - १ | तोला शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धककी कजली बनाकर उसे अत्यन्त मन्दाग्नि पर पिघलावें और फिर उसमें जायफल, जावित्री, लौंग, नीम के पत्ते, संभालुके पत्ते और छोटी इलायचीके बीजोंका १| १| तोला चूर्ण मिलाकर सबको पानीकी सहायता से घोटकर पङ्कवत् (लुगदी) बना लें और उसे दो सीपियों ( मुक्ता गृह ) में बन्द करके उस पर केले का पत्ता लपेट कर कुशसे बांधकर उसके ऊपर मिट्टीका १ अंगुल मोटा लेप करदें । तदनन्तर उसे लघु पुटमें पकावें । जब ऊपर वाली मिट्टीका रंग लाल हो जाय तो उसे अग्निसे बाहर निकाल लें और ठंडा होने पर उसके भीतरसे औषधको निकालकर पीस कर रक्खें ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
. [ मकारादि यह औषध बच्चोंको रोगोंके भाक्रमणसे बचा
(५५४०) महाचन्द्रप्रभावटी नेके लिये अत्यन्त प्रभावशाली है।
(र. का. . । वातरक्ता. ३९) इसके सेवनसे ज्वर नष्ट होता, अग्नि दीप्त होती भनिम्बामरदारुसैन्धववचाव्योषेभकृष्णाशटीऔर बल वर्णकी वृद्धि होती है।
चित्राणि त्रिफलविडङ्गचविकादावर्वी त्रिभण्डी विषा यह रस दुस्साध्य संग्रहणी, प्रवाहिका, वैद्योंसे अक्षग्रन्थिकताप्यधान्यरजनी क्षारद्वयाम्भोमुचां त्यक्त सूतिका रोग, श्वास, अतिसार और उपद्रव कांशैः कुडवः पुरस्य च पलं वांश्या घृतेनासहित बाल रोगोंको नष्ट कर देता है । रोगग्रस्त
न्विता ॥ बालकों और स्त्रियोंके लिए विशेष हितकारी है। प्राप्तेयं गुटिका प्रसाध शशिना चन्द्रप्रभाख्यां
भृशं ___ बालकोंका अनिष्ट करने वाले पिशाच, दानव
हन्त्यर्शः क्षयकुष्ठमेहजठरप्लीहाग्निसादोदरान्। और दैत्य इसे देखते ही पलायन कर जाते हैं ।
मूत्राघातविसूचिकागलशिरःकर्णाक्षिनेत्रामयान् यह औषध वाजीकरण भी है। वासानाहभगन्दरारुचिवमिच्छर्दिभ्रमं पाण्डुताम् पूर्ण मात्रा-६ रत्ती।
दद्रूकुष्ठहलीमकं कृमिगदोन्मादामवातादिकान्
वातामृपवनामयातितिमिरानाहाश्मरीपीनसान् महागुल्मकालानलो रसः शूलारोचकशोथदाहवमिनिःसस्ताम्लपित्तारती: ( र. रा. सुं.; र. सा. सं.; रसें. चि. म.; धन्व. । स्थूलं स्थूलतरं कृशं समतनुं कुर्याभृशं सेविता।। गुल्मरो.)
चिरायता, देवदारु, सेंधानमक, बच, सेठ,
मिर्च, पीपल, गजपीपल, कचूर, दन्तीमूल, हर्र, प्रयोग सं. १५६८ देखिये ।
बहेड़ा, आमला, बायबिडंग, चव, दारुहल्दी, महाचन्द्रकलारसः
निसोत, अतीस, बहेड़ा, पीपलामूल, सोनामक्खी
भस्म, धनिया, हल्दी, जवाखार, सुहागा और (यो. त.। त. ४८; वै. र. । दाह.; वृ. यो.
नागरमोथा। प्रत्येक का चूर्ण १।-१। तोला तथा त. । त. १००)
शुद्ध गूगल २० तोले और बंसलोचनका चूर्ण ५ ' चन्द्रकला रस ' सं. १८८५ देखिये। तोले लेकर सब चूर्णीको एकत्र मिला लें और फिर उसमें भावना द्रव्यों में दूर्वा और रामशीतली भी हैं | गूगलमें थोड़ा थोड़ा यह चूर्ण तथा आवश्यकता. जो 'महा चन्द्रकला' में नहीं हैं, उनके स्थानमें नुसार घी डालते हुवे खूब कूटें। जब समस्त चूर्ण इसमें खस और तालमूलीकी भावना लिखी हैं। और गूगल मिल कर एक-जीव हो जाए तो शेष प्रयोग समान है।
| (१-१ माशेकी ) गोलियां बना लें ।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
१९५
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इनके सेवनसे क्षय, कुष्ठ, अर्श, प्रमेह, उदर- एकाहिकं द्वाहिकं च व्या हिकं च चतुर्थकम् । रोग, प्लीहा, अग्निमांद्य, मूत्राघात, विसूचिका, गल- रसो दत्तोनुपानेन ज्वरान्सर्वान् व्यपोहति ॥ रोग, कर्ण रोग, नेत्र रोग, शिरो रोग, श्वास, अफारा, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और शुद्ध बछनाग भगन्दर, अरुचि, छर्दि, भ्रम, पाण्डु, हलीमक. ( मीठा विष ) १-१ तोला; धतूरेके शुद्ध बीज दाद, कुष्ठ, कृमि रोग, उन्माद, आमवात, वातरक्त, ३ तोले तथा सोंठ, काली मिर्च और पीपलका चूर्ण वातव्याधि, तिमिर, अश्मरी, पीनस, शूल, शोथ, ४-४ तोले ( पाठान्तरके अनुसार २-२ तोले ) दाह और अम्लपित्तका नाश होता है तथा स्थूल, | लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और स्थूल तर और कृश पुरुष समशरीर हो जाते हैं। फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सबको
(५५४१) महाज्वराङ्कुशः (१) भली भांति खरल करके रक्खें ।
( र. रा. सु. । ज्वर.; र. र. । ज्वरा.; र. इसे २ रत्ती मात्रानुसार जम्भीरी नीबूकी र. स. । अ. १२; रसें. चि. म. । अ. ९; र. मज्जा और अदरकके रसके साथ देनेसे एकाहिक चं. । ज्वरा.; रसें. सा. सं. । ज्वरा.; यो. र.। (इकतरा) द्वयाहिक, तृतीयक (तिजारी) और चरा.; वृ. नि. र.। विषम ज्वरा.; वृ. यो. त.। चातुर्थिक आदि समस्त प्रकारके ज्वर नष्ट हो त. ५९; र. का. धे. । विषम ज्वरा.; यो. त.। जाते हैं। त. २०; वै. र. । ज्वर.; र. मं. । ज्वरा. )
(५५४२) महाज्वराङ्कुशः (२) सूतं गन्धं विषं तुल्यं धत्तर्बीज त्रिभिः समम् । (भै. र. । ज्वर.; र. सा. सं.; र. र. । ज्वरा.) चतुर्णा द्विगुणं' व्योपर चूर्ण गुञ्जाद्वयं हितम्॥ पारदं गन्धकं तानं हिलं तालमेव च । जम्बीरस्य तु मज्जाभिराईकस्य रसेन तु । लौहं वङ्गं माक्षिकश्च खपरश्च मनःशिला ॥ महाज्वराशो नाम ज्वराणां मूलकृन्तनः ॥ मृताभ्रक गैरिकश्च टङ्गणं हेमतारकम् ।
र. र. स. में व्योष (त्रिकुटा) चारेके स- सवाण्यतानि पुरुषान पूणायत्वा विभावयत् ।। मान लिखा है । पथ्यमें दही भातका आदेश है और जम्बीरतुलसीचित्रविजयातिन्तिडीरसैः। इस रसको वातकफज ज्वमे उपयोगी बतलाया है। एभिर्दिनत्रयं रौद्र निर्जने खल्लगहरे ॥
___ २ र. रा. सु.; वै. र.; व. नि. र.; शा. सं.; गुञ्जामात्रां वटीं कृत्वा छायाशुष्काञ्च कारयेत्। भा. प्र. में महाज्वराकुंशका एक अन्य पाठ भी है । वह |
महाग्निजननी चैषां सर्वश्वरविनाशिनी॥ प्रयोग लगभग इसके समान ही है। केवल इतना ही अन्तर है कि उसमे व्योष (त्रिकुटे) के स्थानमें हेमा ह्व १ रसेन्द्र सार सं. में लोहका अभाव है तथा (चोक ) पड़ती है तथा अनुपानमें जीरेका चूर्ण भी र. र. में लोहके स्थानमें तुत्थ लिखा है एवं भावना लिखा है।
द्रव्योमे जम्बोरी तथा चित्रकके स्थानमें जयन्ती और ३ . यो. त; यो. र.; योगतरंगिणी; र. का. शालपणी लिखी है। धे, में स्वर्णक्षीरी की चार भावना देने के लिये लिखा है। २ टङ्गणं दन्तिधीजकमिति पाटान्तरम् ।
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१९६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
मकारादि एक द्वन्द्वजञ्चैव चिरकालसमुद्भवम् । । पञ्चगुआमितं खादेदाकस्य रसेन वा । एकाहिकं द्वाहिकश्च त्रिदोषप्रभवं ज्वरम् ॥ _ महाज्वराङ्कुशो नाम सर्वज्वरनिकृन्तनः ॥ चातुर्थकं तथात्युग्रं जलदोषसमुद्भवम् । एकाहिकं द्वाहिकं च तृतीयकं चतुर्थको। सर्वान् ज्वरान्निहन्त्याशु भास्करस्तिमिरं यथा| अन्तर्वेगं धातुगं च विषमं च नियच्छति ॥ नातः परं किश्चिदस्ति ज्वरनाशाय भेषजम् । शुद्ध ताम्र पत्र और शुद्ध हरताल १-१ भाग महाज्वराङ्कुशो नाम रसोऽयं मुनिभाषितः॥ तथा भिलावे २ भाग ले कर हरतालको नीबूके शुद्ध पारद, शु गन्धक, ताम्र भस्म, शुद्ध
रस ( या कांजी ) में घोट कर ताम्र पत्रों पर लेप
करदें और फिर ऊपरे नीचे भिलावे रख कर उन हिंगुल, हरताल भस्म, लोह भस्म, बंग भस्म, सोना
पत्रोंको शरावसम्पुट में बन्द करके उसके ऊपर मक्खी भस्म. शुद्ध खपरिया, मनसिल, अभ्रक भस्म, गेरु, सुहागेकी खील, स्वर्ण भस्म और चांदी
कपरमिट्टी कर दें; एवं गजपुट में फूंक दें । सम्पुटके
स्वांग-शीतल होने पर उसमेंसे ताम्रको निकाल भस्म समान भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके
कर उसे स्नुही ( सेंड-थोहर ) के दूधमें घोट कर पृथक् पृथक् ३-३ दिन जम्बीरी नीबू , तुलसी,
| टिकिया बनावें और उन्हें सुखा कर सम्पुट में बन्द चीतामूल, भांग और तिन्तड़ीक के स्वरस या काथमें धूप में धोट कर १-१ रत्तीकी गोलियां बना
करें । इस पुटको १ बार भूधर-पुटमेंx पका कर
स्वांग शीतल होने पर औषधको निकाल कर पीस कर छायामें सुखा लें।
कर सुरक्षित रक्खें । ये गोलियां जठराग्निको अत्यन्त तीब्र करती
इसे ५ रत्ती मात्रानुसार अदरकके रसके साथ और समस्त ज्वरोंको नष्ट कर देती हैं।
सेवन करनेसे एकाहिक, द्वाहिक, तृतीयक, चातुइनके सेवनसे एक दोपज, द्विदोषज और र्थिक, अन्तर्वेग, धातुगत आर विषम-ज्वर आदि सन्निपातज जीर्ण ज्वर, एकाहिक, द्वाहिक, चातु- समस्त प्रकारके ज्वर नष्ट होते हैं । थिक और अत्युग्र जलदोष-जनित ज्वर अत्यन्त शीव नष्ट हो जाते हैं।
(५५४४) महाज्वराङ्कुशः (४) (५५४३) महाज्वराङ्कुशः (३)
( र. रा. सु. । ज्वर.)
पलैकं हरितालं च स्नुहीक्षीरेण भावयेत् । (र. रा. सु. । ज्वरा.)
भावना त्रि प्रदातव्यं ततो मुद्रां प्रकल्पयेत् ।। ताम्रपत्राणि तालं च सममम्लेन मईयेत् ।।
भूधर पुट- भूमिमें गजपुटके समान एक गढ़ा तयोस्तुल्यं च भल्लातमधोज़ तच्च दापयेत् ॥
खोद कर उसके भीतर एक अन्य छोटासा गढ़ा खोदें शरावसम्पुटे दग्धं स्वाङ्गशीतं विचूर्णयेत् ।। और उसमें सम्पुट रख कर उसे मिट्टीसे ढक दें तथा ब? वज्रीक्षीरेण सम्मर्य भूधरे तत्पुटेत् पुनः॥ । गढ़ेमें उपले भरकर अग्नि लगादें ।
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रंसप्रकरणम् ]
॥
शरावसम्पुटे कृत्वा ततो गजपुटे पचेत् । स्वाङ्गशीतलकं ज्ञात्वा पुनः खल्वे विनिक्षिपेत् तुलसीपत्र तोयेन मर्दयेद्याममात्रकम् । ततो मात्रां प्रयुञ्जीत गुञ्जत्रयमितां बुधैः ॥ महाज्वराङ्कुशो नाम सर्वज्वर निवारणः ॥
५ तोले शुद्ध हरतालको स्नुही ( थोहर - सेंड ) के दूधकी ३ भावना देकर टिकिया बना कर सुखा लें और उन्हें सम्पुट में बन्द करके गज पुट में फूंक दें । जब सम्पुट स्वांग शीतल हो जाय तो उसमें से औषध निकाल कर उसे १ पहर तुलसी- पत्र के स्वर में घोट कर ३ - ३ रत्तीकी गोलियां बना कर (छाया में ) सुखा 1
इनके सेवन से समस्त प्रकारके ज्वर नष्ट होते हैं।
(५५४५) महाज्वराङ्कुशः (५) ( र. रा सु. । ज्वर. )
चतुर्थी भागः
पारदो गन्धश्चैव विषं कनकक्षीरिका । कनकस्य च बीजानि रोहिणी शरपुङ्खिका ॥ रामसेनोऽमृताजाजी कारवी वरवर्णिनी । विश्वा च चपला तीक्ष्णं मागधीमूलमक्षकः ॥ शिवादन्त्योद्भवं बीजं धात्री वै ताम्र भस्मकम् कान्तीभस्म रौप्यभस्म सर्वं चैव समांशकम् || सूक्ष्म चूर्ण विधायाथ जम्बीरेण विमर्दयेत् । त्रियामान्ते वटिं कुर्यादुञ्जमानं प्रमाणतः ॥ सर्वज्वरी टिका तुलसी स्वरसेन च । पित्तज्वरं निहन्त्याशु सितया दाहपूर्वकम् ॥ विश्वया च यदायुक्ता तु श्लेष्माणं हन्ति सत्वरम्। शतपूर्व दाहपूर्व ज्वरमष्टविधं तथा ॥
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१९७
अनुपानविशेषेण हन्ति सत्यं न संशयः । महाज्वराङ्कुशो नाम्ना विख्यातो रसराजके ||
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध बछनाग
( मीठा विष ), चोक ( स्वर्णक्षीरी की जड़ ), धतूरे के बीज, कुटकी, सरफोंका, चिरायता, गिलोय, जीरा, काला जीरा, हल्दी, सोंठ, पीपल, काली मिर्च, पीपलामूल, बहेड़ा, हर्र, शुद्ध जमाल गोटा, आमला, ताम्र भस्म, कान्त लोह भस्म और चांदीभस्म समान भाग लेकर सबको ३ पहर जम्बीरी नीबू के रस में घोट कर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें।
इन्हें तुलसीके रसके साथ देनेसे समस्त ज्वर नष्ट होते हैं । मिश्री के साथ खिलानेसे दाहपूर्व पित्त ज्वर, और सोंठ के चूर्ण के साथ देने से कफज्वर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।
रोगोचित अनुपान के साथ खिलाने से ये गोलियां शीत--पूर्व और दाह - पूर्वादि सभी प्रकारके को नष्ट कर देती हैं।
1
नोट-- प्रत्येक ओषधिका चूर्ण पृथक् पृथक् तोल कर लेना चाहिये सबको एकत्र मिला कर न कूटना छानना चाहिये ।
(५५४६) महाज्वराङ्कुशः (६) (र. का. धे.; वृ. नि. र. । ज्वरा. ) रसस्य द्विगुणं गन्धं गन्धतुल्यं च टङ्कणम् । रसतुल्यं विषं योज्यं मरिचं पञ्चधा विषात् ॥ कफलं दन्तिवीजं च प्रत्येकं मरिचोन्मितम् । महाज्वराङ्कुशो ह्येष चूर्णयेद्याममात्रकम् ॥ यामैकेन निहन्त्याशु ज्वरं जीर्णे त्रिदोषजम् ॥
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१९८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
मकारादि
शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक दो भाग, | तचक्रिकां तदुपरि स्थापयेद्रसगोलकम् । सुहागेकी खील २ भाग, शुद्ध बछनाग, ( मीठा तमर्कपत्रपिहितं सन्धौ किप्त्वा पचेच्छनैः॥ विष) १ भाग, काली मिर्चका चूर्ण ५ भाग तथा मध्याग्निना चतुर्यामं स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत् । कायफलका चूर्ण और शुद्ध जमाल गोटा ५-५ गुञ्जाद्वयं ददीतास्य सिताजीरकसंयुतम् ॥ भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर १ पहर दाहपूर्व ज्वरं शीतं शीघ्रं च विषमं जयेत । खरल करके रक्खें।
तुलसीसितमरिचैर्देयः शीतज्वरेऽपि च ॥ . इसके सेवनसे सन्निपातज जीर्णज्वर १ पहर | विषमं नाशयत्येव दधिदुग्धस्य भक्षणात् ॥ में नष्ट हो जाता है।
___अशुद्ध पारद और हरतालको सात सोत ( मात्रा २ रत्ती । अनुपान शीतल जल )
दिन करेले और भंगरेके रसमें पृथक् पृथक् खरल महाज्वराङ्कुशः (७) | करके गोला बना कर (सुखा लें)। (र. का. धे. ज्वर.)
एक मजबूत कपड़मिट्टीकी हुई हाण्डी के " मन्थान भैरव रस" संख्या ५५१९ देखिये । | अर्ध भागको बालू (रेत ) से भरकर उसके ऊपर ___ उसमें और इसमें केवल इतना ही अन्तर है ( शुद्ध ताम्रकी चक्री रख कर उस पर) उपरोक्त कि इसमें अभ्रक भस्म भी पड़ती है और लोह | गोला रख दें और उसे ताम्र-पत्रसे ढक कर ससम्पुट में पाक करनेके पश्चात् हरिताल आदिका | न्धिको भली भांति बन्द कर दें एवं (हाण्डीको चूर्ण नहीं मिलाया जाता । शेष प्रयोग तथा पाठ शरावसे ढक कर उसके जोड़को बन्द करके ) लगभग समान ही है।
४ पहर मध्यमाग्नि पर पकावें। जब हाण्डी स्वांगमहाज्वराङ्कुशः (८) शीतल हो जाय तो उसमेंसे हरताल-भस्मको नि( भै. र. । ज्वर. ; र रा. सु. । ज्वर.) | काल कर खरल करके रक्खें । प्रयोग संख्या २१६६ “ ज्वराङ्कुश रस
इसे जीरेके चूर्ण और मिश्रीके साथ देनेसे (१०)" देखिये।
दाहपूर्व ज्वर, शीतज्वर, और विषम ज्वर नष्ट (५५४७) महातालकेश्वररसः (१) ।
होता है। ( र. का. धे. । विषम ज्वर. )
इसे शीत ज्वरमें तुलसी पत्रके रस और अशुद्धपारदं तालं मर्दयेद्वासरं दृढम् ।
श्वेत मिर्च (सहंजनेके बीज ) के चूर्ण के साथ कारवल्लोमार्कवयो वयेद् वारसप्तकम् ॥
भी दे सकते हैं। इसके सेवनमें विषम ज्वरमें दही वैस्तद्गोलकाकारं कारयेन्मतिमान्भिषक् ।
और दूध पथ्य हैं। भाण्डाधं वालुकापूर्ण कृत्वोपरि निवेशयेत् ॥! मात्रा-२ रत्ती।
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चतुर्थी भागः
रसप्रकरणम् ]
(५५४८) महातालकेश्वररसः (२) ( भै. र. ; धन्व. । कुष्ठा . ) सम्पर्क तालकं शुष्कं वंशपत्राख्यमुच्चकैः । कूष्माण्डीरैः सम्भाव्य त्रिदिनं शोषयेत्पुनः ॥ घृतकन्याद्रवैर्भूयो भावयेच्च दिनत्रयम् । सम्मर्द्य काञ्जिकेनैव दध्नाम्लेन विमर्दयेत् ॥ सम्म चूर्णसलिले रसे पौनर्णवे पुनः I त्रिदिनं मर्दयित्वा तु कारयेत्गुटिका कृतिम् ॥ स्थाल्यां दृढतरायान्तु पलाशक्षारसञ्चयम् । उपर्यधस्तालकस्य क्षारं दत्त्वा शरावकैः || पिधाय लेपयेत्रात्पूरयेत्क्षारसञ्चयम् । पुना रुद्धं शरावेण लेपयेत्तद् दृढं ततः ॥ द्वात्रिंशद्यामपर्यन्तं वह्निज्वाला प्रदीयते । एवं सिद्धेन तालेन गन्धतुल्येन मेलयेत् ॥ द्वयोस्तुल्यं जीर्णता वालुकायन्त्रगं पचेत् । अयं तालेश्वरो नाम रसः परमदुर्लभः ॥ हन्त्यष्टादश कुष्ठानि वातशोणितनाशनः । रक्तमण्डलमत्युग्रं स्फुटितं गलितं तथा ॥ बहुरूपं सर्वजातं नाशयेदविकल्पतः । दुष्टव्रणश्च वीसर्प त्वग्दोषश्च विनाशयेत् ॥ दृष्टो वारसहस्रञ्च रोगवारणकेशरी ॥
उत्तम वंशपत्री हरतालका चूर्ण करके उसे पेठे के रसमें ३ दिन घोट कर सुखा लें। तत्पश्चात् क्रमशः घृत कुमारीके रस, काञ्जी, खट्टी दही, चूने के पानी और पुनर्नवा के रसमें पृथकू पृथकू ३ - ३ दिन घोट कर गोला बना लें । ( प्रत्येक रसमें घोटनेके पश्चात् सुखा लेना चाहिये । )
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१९९
अब एक मज़बूत कपड़े मिट्टी की हुई होण्डी में पलाश (ढाक ) का क्षार (राख) डाल कर उसके ऊपर उक्त गोला रख दें और उसे पलाशक्षारसे ढक कर उसके ऊपर मिट्टीका शराव ढक दें तथा हाण्डी और शरावकी सन्धि को भली भांति बन्द कर दें एवं हाण्डीके शेष भागको मुंह तक पलाश क्षारसे भर दें और हाण्डीके मुख पर शराव ढक कर उसकी सन्धिको भी मज़बूत बन्द करके उसके ऊपर मिट्टीका लेप
अब इस हाण्डीको चूल्हे पर चढ़ाकर ३२ पहर की अग्नि दें और फिर हाण्डीके स्वांग शीतल होने पर उसमें से सावधानी पूर्वक हरताल - भस्मको निकाल लें 1
यह हरताल भस्म १ भाग, शुद्ध गन्धक १ भाग और ताम्र भस्म २ भाग ले कर सबको एकत्र घोट कर बालुका यन्त्र में पकावें ।
यह रस अठारह प्रकारके कुष्ठ, वातरक्त, उग्र रक्त मण्डल, स्फुटित कुष्ठ, गलित कुष्ठ, तथा अनेक प्रकारके सर्व दोषज कुष्ट, दुष्ट व्रण, वीसर्प और त्वग्दोषोंको नष्ट करता है ।
यह सहस्रों बारका अनुभूत प्रयोग है । ( मात्रा - १ रती । ) महातालेश्वररस: (१)
(रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. ; र. चं. । वातरक्त)
प्रयोग सं. ५५४८ महातालकेश्वर के समान है। परन्तु इसमें हरताल भस्म पलाश क्षारमें न बनाकर प्र. सं. २६६४ में कथित विधिसे बनानी चाहिये ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
(५५४९) महातालेश्वररसः (२) प्रथम रोगीको मैनफलसे वमन और हर्रसे
विरेचन कराके शुद्ध करें; तदनन्तर २ माशेकी मात्रा(र. र. स. । उ. खं. अ. २०)
नुसार यह रस सेवन करावें तथा सेवन कालमें भी तालताप्यशिलाटङ्करसेन्द्रलवणं समम् । बीच बीच में वमन विरेचन भी कराते रहें । तालकाद्विगुणं तानं मृतं तद्वच्च गन्धकम् ॥ इसे त्रिदोषज रोगोंमें महवेकी छालके काथ के अम्लेन पञ्चशः पिष्टं जम्बीरस्य पुटे पचेत् । साथ और वातज रोगांमें त्रिकुटा ( सेांठ, मिर्च, लोहचूर्णस्य चत्वारो भागाः सिद्धरसस्य पट् ॥ पीपल) के काथ या चूर्णके साथ सेवन कराना अष्टौ नेपालताम्रस्य गन्धकेन हतस्य च ।।
चाहिये। जम्बीराम्लेन तत्सर्वं मर्दित पुटपाचितम् ॥ इसके सेवनसे संग्रहणी, कामला, पाण्डु, गुल्म, एकत्रिंशांशगरलं माषद्वितयसम्मितम् ।। | अर्श, हलीमक और क्षयका नाश होता है । मदनेन वर्मि कुर्याद्विरेक पथ्ययाऽपि च ॥ ( व्यवहारिक मात्रा-१-२ रत्ती । ) शुद्धः संशोधनं कुर्वन्मध्ये मध्ये च भक्षयेत् ।
| (५५५०) महातालेश्वररसः (३) सन्निपाते मधूकेन व्योषेण पवने हितः ॥ ग्रहणीकामलापाण्डुगुल्माशीसि हलीमकम। (भै. र.; र. रा. सु.; रसे. सा. सं.; र. चं.। कुष्ठा.) क्षयं च शमयत्येष महातालेश्वरो रसः ॥ तालताप्यशिलामृतं शुद्धटङ्गणसैन्धवम् ।
___ शुद्ध हरताल, स्वर्ण माक्षिक भस्म, शुद्ध मन- सम सञ्चूर्णयेत् खल्ले मृताद् द्विगुणेगन्धकम॥ सिल, सुहागा, शुद्ध पारद और सेंधा नमकका चर्ण गन्धाद् द्विगुणलौहश्च जम्बीराम्लेन मर्दयेत । १-१ भाग तथा ताम्र भम और शुद्ध गन्धक ततो लघुपुटे पाच्य स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत् ॥ २-२ भाग लेकर प्रथम पारद गन्धककी कजली त्रिंशदशं विषश्चात्र क्षिप्त्वा सर्व विचूर्णयेत । बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण महिषाज्येन सम्मिश्र गुञ्जकं भक्षयेत् सदा ॥ मिला कर सबको जम्बीरी नीबू के रसमें घोट कर मध्वाज्यैर्वागुजीचूर्ण माषमात्रं लिहेदनु । भूधर पुट में पकावें । इसी प्रकार जम्बीरीके रसमें सर्वान् कुष्ठान् निहन्त्याशु महातालेश्वरो रसः।। घोट कर ५ पुट दें। तत्पश्चात् यह सिद्ध रस ६ | शुद्ध हरताल, स्वर्णमाक्षिक भस्म, शुद्ध मनभाग, लोह भस्म ४ भाग और गन्धक द्वारा मारित सिल, शुद्ध पारद, सुहागेकी खील और सेंधा नमनेपाली ताम्र भस्म ८ भाग ले कर सबको जम्बीरी कका चूर्ण १-१ भोग तथा शुद्ध गन्धक २ भाग नीबूके रसमें धोट कर भूधर पुटमें पकायें । इसके | | और लोह भस्म ४ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी पश्चात् उसमें उसका ३१ वां भाग शुद्ध बछनाग कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियां का चूर्ण मिला कर सुरक्षित रक्खें ।
मिला कर सबको जम्बीरी नीबूके रसमें धोट कर
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
लघु पुटमें पाक करें । तदनन्तर उसमें उसका । (५५५१) महात्रिपुरभैरवरसः तीसवां भाग शुद्र बछनाग ( मीठा विष ) का चूर्ण (र. का. धे. । शूला.) मिला कर खरल करें।
| भागौ रसस्य भागः स्याटेम्नः पिष्टी विधाय च इसे १ रत्ती मात्रानुसार भैसके घीके साथ | तया द्वादशभागानि ताम्रपत्राणि लेपयेत् ।। खा कर ऊपरसे १ माशा बाबचीका चूर्ण शहद उर्खाधो लवणं दवा पत्रमानं समन्ततः । और धीमें मिलाकर चाटना चाहिये । सिञ्चन्मत्स्याक्षिनीरेण रुद्धवा यामचतुष्टयम् ॥
इसके सेवनसे समस्त प्रकारके कुष्ठ नष्ट | क्षारस्य मृगशृङ्गस्य चूर्ण योज्यं समन्ततः । होते हैं।
पचेच्छूलहरः मूतो महात्रिपुरभैरवः ॥ महातालेश्वररसः (४)
माषो मध्वाज्यसंयुक्तो देयोऽस्य परिणामजम्।
अन्ये त्वेरण्डतलेन हि त्रययुतो हि सः ॥ (धन्व. । वातरक्त.)
२ भाग शु पारद में १ भाग शुद्ध स्वर्णभा. भै. र. भाग २ प्रयोग संख्या २६८१
पत्र मिलाकर इतना धोटें कि सबकी कोमल पिठी " तालेश्वरो रसः न. ४ ” देखिये ।
बन जाए । अब १२ भाग ताम्रपत्रों पर इसका महातालेश्वररसः (५) लेप करके उन्हें, नीचे ऊपर सेंधा नमकका चूर्ण ( र. र. । कुष्ठ. ; र. का. धे. । कुष्ठा. ; र. भर कर हाण्डीमें रखें और उसके ऊपर मछेछी र. स. । अ. २०; वृ. यो. त. । त. १२० (मत्स्याक्षि ) का रस डाल कर हाण्डीके मुख पर यो. त. । त. ६२ )
शराव ढक कर सन्धिको अच्छी तरह बन्द कर दें। भा. भै. र. भाग २ प्र. सं. २६५२ "ताल- । तदनन्तर इसे ४ पहरकी अग्नि दे कर, हाण्डीके केश्वरो रसः (महान) नं. १३ ” देखिये । स्वांग शीतल होनेपर उसमेंसे ताम्र पत्रोंको निकाल महातालेश्वररसः (६)
लें; और उन्हें फिर उसी हाण्डीमें मृगशृंगकी (र. चि. म. । स्त. २)
भस्मके बीचमें रख कर ४ पहरकी अग्नि दें।
इसे १ माशेकी मात्रानुसार शहद और धीके भा. भै. र. भाग २ में प्रयोग सं. २६५४
साथ खिलानेसे परिणाम शूल नष्ट होता है । अन्य 'तालकेश्वरो रसः । नं. १५ देखिये ।।
प्रकारके शूलोमें इसे अरण्डके तेल और हिंगुत्रय महात्रिगन्धरसः
(हींग, हिंगुपत्री, और नाड़ीहिंगु ) के साथ देना (र. का. धे. । कुष्ठा.)
चाहिये । ( व्यवहारिक मात्रा १ रत्ती) भा. भै. र. भाग २ प्रयोग संख्या २७१५
महाद्रावकरसः " त्रिगन्ध रसः ” देखिये । उसमें इसकी अपेक्षा गन्धक अधिक है। मकारादि मिश्रप्रकरणमें देखिये ।
२४
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
महानाराचरसः (१)
इससे ६ मासमें कुष्ट नष्ट हो कर शरीर (र. रा. सु. । गुल्म; धन्व. । गुल्मा.; रसें. सा. कान्तिमान हो जाता है । सं. । गुल्मा .: रसें. चि. म. । अ. ९)
(व्यवहारिक मात्रा-१ माशा।) भा. भै. र. भाग ३ प्रयोग संख्या ३६४१ (५५५३) महापर्पटीरसः "नाराचरस (१)” देखिये
(र. का. धे. प्रदर; र. चि. म. । स्तवक ७.) महानाराचरसः (२) वेदमाषोरसो ग्राह्यो गन्धस्तस्माद् द्विभागिकः। ( र. रा. सु. । गुल्म. ; धन्व. । गुल्मा. ; | कृत्वा कजलिका सूक्ष्मां घृताक्तां वहिना द्रवाम् रसें. सा. सं. । गुल्मा. ; रसें. चि. म. । अ. ९) लोहपात्रे स्थितां तां च पर्पटी क्रियते रसः । प्र. सं. ३६४४ " नाराचरस" (४) देखिये । तस्य द्वादश माषाः स्युच्छुण्ठीचूर्णन्तु माषकम्' महानाराचरसः (३)
पिप्पली मरिचं चैव सैन्धवं ससुवर्चलम् ।
स्वर्जिका बिडमेतानि प्रत्येकं शुण्ठिकासमम् ॥ (वृ. नि. र. । वातव्या. ; भा. प्र. । वात
सर्वं च गृह्यते पिष्टं शुद्धं चापि तथाभ्रकम् । व्या. ; वृ. यो. त. । त. ९० )
| तदेकी क्रियते सूक्ष्मं बहुपिष्टवाऽथमिश्यते । प्रयोग सं. ३६४८ “ नाराच रस" सं.
गन्धद्रुते शुभे भाण्डे तच सर्व निधीयते । (८) देखिये।
खादेदग्निवलापेक्षी काञ्जिकेनाम्भसाऽथवा ॥ (५५५२) महानिम्बादिचूर्णम् - अर्शःसु गुदपीडासु युदरेषु च शस्यते ।
(र. र. स. । उ. ख. अ. २०) स्थौल्ये पाण्यामये जातश्लैष्मिकेऽजीर्णदूषिते । महानिम्बस्य सारेण मर्दितां गन्धपिष्टिकाम । येषु रोगेषु याक्तव्यस्तेषु योग्यौषधैः समम् ॥ अमृतावाकुचीकान्तात्रिफलाचूर्णसंयुताम् ॥ कामलायां ग्रहण्यां च मन्दाग्नौ च प्रयुज्यते । भक्षयेदायसे न्यस्तां कुष्ठे पाणितलोनिमताम। महापपेटिकाख्योऽयं रसो योग्यानुपानतः ।। सा कुर्याल्लेपनात्कान्ति षण्मासाद्धिमायुषः।।
शुद्ध पारद ४ माशे और शुद् गन्धक ८ शुद्ध गन्धक ६ भाग तथा गिलोय, बाबची, ! माशे लेकर दोनोंको एकत्र खरल करके महीन फूल प्रियङ्गु, हर्र, बहेड़ा और आमलेका चूर्ण १-१ कजली बनावें और एक लोह पात्रमें घी चुपड़ भाग लेकर सबको (एक दिन ) बकायनके |
कर उसमें वह कजली डाल कर मन्दाग्नि पर स्वरसमें घोटें।
पकावें । जब कज्जली पिघल जाए तो उसे शीघ्रता इसमेंसे १। तोला चूर्ण रात्रिको पानी में भि
१ 'जया' इति पाठान्तरम् । गोकर लोह पात्रमें रख दें और प्रातःकाल खावें
२ स्याच्छुण्ठी षण्माषका भवेत् । और उसका कुष्ठ पर लेप भी करें।
३ प्रत्येकं च चतुष्टयमिति पाठान्तरम् ।
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रसपकरणम् ]
चतुर्थों भागः
२०३
पूर्वक गायके गोबर पर बिछे हुवे केलेके पत्ते पर द्वित्रिवारपरिपुटितं रवितरुमथिताल्पदुग्धकाफैला कर दूसरे कदलीपत्रसे ढक दें और उस पर
दिरसे । तुरन्त गायका ताजा गोबर बिछा दें । जब वह चूर्णितमथितं शिलायां कुडवमेकं तदादाय ॥ स्वांग शीतल हो जाय तो दोनों पत्तोंके बीचसे | प्रथमं चतुरष्टगुणे गोमूत्रे वा पचेन्मृदुज्वालम्। पर्पटी को निकाल कर पीस लें।
निपुणमनलं दत्वा समुद्रयाम तथा दुग्धे ॥ ____ अब यह पर्पटी १२ माशे और सांठका चूर्ण, | श्लक्ष्णं विडङ्गचूणे गगनाधै त्रिकटुसम्भवञ्च पीपल, मरिच, सेंधा नमक, सञ्चल (काला नमक),
रजः। सज्जी और विड नमकको चूर्ण एवं अभ्रक भस्म | त्रिकटुसमं त्रिफलोत्थं पृथक्तदर्द्धश्च वन्ध्यायाः॥ १-१ माशा लेकर सबको एकत्र खरल करके नतकरिकर्णीवृद्धरक्तानलनीलिकानाश्च । अत्यन्त सूक्ष्म चूर्ण बना लें और एक पात्रमें गन्धक मूलस्य ताल मूलीरक्ताश्वमारहपुषानाश्च ॥ पिघला कर उसमें यह औषध भर कर सुरक्षित पत्रकसुवाजिगन्धाशतावरीमूलसम्भवञ्चापि । रक्खें ।
अमलिनपुनर्नवार्कतर्कारीसवाटयालमूलस्य ॥ (पात्रके भीतर धी चुपड़ कर उसमें गन्धक | चूर्ण कण्टकपर्णीभवं सामृताभृङ्गराजस्य । पिघला कर उसे चारों ओरको अच्छी तरह घुमावें | त्रिवृताख्यायास्त्रिभुवनविजयस्य केशराजस्य ॥ कि जिससे गन्धक समस्त पात्रमें लिप हो जाय।) | मुविदितपाकं शीतं गगनचूर्णञ्च भाजने सर्वम्। इसे यथोचित मात्रानुसार काञ्जी अथवा
समधुसितैरनुरूपैः सम्मिश्रं सर्पिषोऽष्टविल्वेन ।। पानी के साथ सेवन करनेसे अर्श, गुदपीड़ा, उदर
पिष्टं तदनुशिलायां स्निग्धभाण्डे निधाय रोग, कोमला, संग्रहणी, अग्निमांद्य, स्थूलता, पाण्डु
सुविधिज्ञः । और कफज अजीर्णका नाश होता है।
सोत्साहः सुविनीतो गृह्णीयाद्वराभ्रकं कल्पम् ॥
मृदुकृतवमनविरेकं वैद्यप्रदृष्टेन सात्म्ययोगेन । धोंके साथ मिलाकर उचित अनुपानसे दे सकते हैं।
याति शरीरविशुद्धिं दीपितदेहानलो नीरुक् ।।
पूजितगुरुदेवाऽनलवितिथिसिद्धसाधुमान्यजनः । (५५५४) महाबलविधानाभ्रकम्
स्निग्धौदनपरितृप्तः दी ग्लानिरहितः सत्कृत्यः।। (वं. से. । रसाय. )
स्थिरसङ्कल्पविनोतः प्रशान्तसन्द्रियःसर्वात्मा च गगनं कजलसन्निभं स्निग्धमदोषं विशोधितम्। परिकृत्परोपकारः परिहिवासाः समुग्झितबहुशो दुर्वालम्बुपमूलैर्युक्तं वस्त्रे विबद्धश्च ॥
क्रोधः ।। दत्वा सलिलं तावत्करेण घर्षश्च पङ्कतां नीतम्। श्रद्धावानश्नीया वजराजस्य मापकानटौ । निपुणं गृहीतमुदकादञ्जनपुञ्जघनीभूतम् ॥ ! पुण्ये दिवसे कृत्वा गुटिकां तथा भक्षयेत्मातः।।
रोगों में भी तत्तदोगन
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२०४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि अनुपानं शीतजलं सततमन्नातिभोजनं नात्र । श्रुतिवदनोदरलोचनमस्तकरोगान्समूत्रकृच्छांश्च। हिता हिताचं सुखदं शाकाम्लदधिपरिहीनश्च ॥ आशु रसायनराजः शमयति युक्त्या प्रयुक्तस्तु ।। असितिक्तकटुकषायक्षाराभिष्यन्दितीक्ष्णरूक्षाणि सामं समीरमुपहन्ति कफ सपित्तं वातलविदाहिदुर्जरगुरूण्यसेव्यानि वस्तूनि ॥
सास्रश्च पित्तमथ जाठरवहिमान्यम् । पानं दूराध्ययनं रतिमतिशीतलं दिवास्वमम् । वातप्रकोपजनितान्कफजांश्च सर्वान् प्रत्युपदेशं द्वेषं वातातपजागरणोद्गतान् । पितोद्भवांश्च निखिलान्सगदांस्तथैव ।। चिन्ताशोकविशादव्यायाममदकरोन्मादकरान् ।
नागार्जुनोदितरसायनसहितायापिशितश्चानूपदेशं शीतपानं वर्जयेदनिशम् ॥
मालोच्यचात्मनि समस्तरूजाविधाने। स्वस्तिकषष्टिकलोहितशालीनतिनिस्तुपान्मु
राजानमेनमुपयुज्य रसायनानां
द्वान् ॥ क्रमुकफलानि द्राक्षापकाम्रफलानि चैव श
श्रीविश्वरूपमुपसंस्कृतवान्कृतार्थः ।। स्तानि ।
कज्जलके समान काले और स्निग्ध शुद्ध स्वादु च परिणति मधुरं केलिकरश्चापि वाऽऽ
कृष्णाभ्रकमें दूर्वा और मुण्डीकी बहुतसी जड़ें मिलासवन्तोयम् ॥
कर कपड़ेकी पोटलीमें बांध कर उसे पानीसे भरे प्रतिसप्ताहकमेतत्क्रमाद्वा प्रबर्द्धयेद्धीमान । हुवे पात्रमें दोनों हाथेसे अच्छी तरह मसलें, यहां युक्तिविचाराभिज्ञो भेषजस्य पर्यन्तं भवति ॥
| तक कि समस्त अभ्रक बारोक हो कर पानी वाले रसायनराज कुर्वन् मनजो मनोभिलापं प्राप्नोति पात्रमें आ जाए । अब ऊपरसे पानी नितार दें और नागार्जुनोपदिष्टं षण्मासोपविहितविधिना च।
जो कीचड़सी रह जाए उसे धूपमें सुखा लें । अपगतसकलव्याधिलिपलितवनितोऽति इस प्रकार अभ्रक खूब बारीक कन्जलके समान हो
महातेजाः। शूरः प्राज्ञो वाग्मी त्रिवर्गफलभाजनो दक्षः ॥
___ तदनन्तर आकके वृक्षोंको कूट कर उनका ममत्तकुञ्जर बलः सौकुमार्योत्साहसम्पन्नश्च ।
रस और दूध निकालें और इस दुग्धयुक्त अर्करसमें षोडशवर्षकरो बहु प्रसूतः सुचिरजीविनोपेतः ।।
उक्त अभ्रकको घोट घोट कर यथा विधि २-३ जीवेद्वर्षसहस्रं सतताभ्यासाच्च सर्वसम्पन्नः। पुट दें; और अन्तमें पत्थर पर बारीक पीस ले। चन्द्रकमनीयकान्तिः पवनबलो धामसमधामा॥ (नोट-अभ्रक निश्चन्द्र हो जाना चाहिये । शोषयकुदतिसारप्लोहापस्मारसिध्मयक्ष्मणः । अब यह अभ्रक चूर्ण १ पाव (२० तोले) कासश्वासविसर्पग्रहणीगुल्माश्मरीशोथान् ॥ लेकर उसे चार गुने या ८ गुने गोत्रमूमें मन्दाग्नि प्रदरजलोदरभस्मकवमिपामाश्लीपदप्रमेहांश्च ।। पर पकावें । और फिर उसे चार पहर गोदुग्धमें विवन्धभगन्दरकुष्ठविषमज्वरपाण्डुरोगांश्च ॥ पकावें । जब गाढ़ा हो जाय तो उसमें निम्न
जायगा।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः
२०५
लिखित द्रव्योंका अत्यन्त महीन चूर्ण डाल देना भोजन करके; दीन भाव और ग्लानिको छोड़कर, चाहिये।
दृढ़ संकल्प के साथ इसका सेवन प्रारम्भ करना बायबिडंग १० तोले, त्रिकुटेका चूर्ण १० तोले,
चाहिये। हर्र, बहेड़े और आमलेका चूर्ण १०-१० तोले,
इसके सेवन कालमें इन्द्रियोंको वशमें और बांझ ककाड़ेकी जड़का चूर्ण ५ तोले, तथा तगर,
आत्माको शान्त रखना चाहिये । परोपकार करना गजकगा (कन्द शाक विशेष अथवा मूषाकर्णी), और क्रोधका त्याग करना चाहिये । विधारामूल, लाल चीताकी जड़, नीलकी जड़, ताल. इसे प्रातःकाल ८ माशेकी मात्रानुसार शीतल मूली, लाल कनेरकी जड़, हपुषा, तेजपात, असगन्ध, | जलके साथ खावें । शतावर, निर्मलीके फल, पुनर्नवा, आक, अरणी, पथ्यापथ्य-नियमित भोजन करें । शाक, बलामूल (खरैटोकी जड़ ), कटेली, गिलोय, खटाई, दही, अत्यन्त तिक्त, कटु, कषाय, क्षार, भंगरा, निसोत, भांग और काला भंगरा । प्रत्येकका | अभिष्यन्दी, तीक्ष्ण, रूक्ष, वातकारक, विदाही और चूर्ण ५-५ तोले । ( दूध इतना डालना चाहिये दुर्जर अन्नपानका त्याग करें । मद्यपानसे परहेज़ कि ४ पहर तक अभ्रकको पकानेके पश्चात् भी करें । जोर जोर न पढ़ें । ब्रह्मचर्यसे रहें। अत्यन्त वह इतना पतला रहे कि उसमें उक्त समस्त चूर्ण शीतल पदार्थ न खावें । दिनको न सोएं । द्वेष, आसानीसे मिल सके ।)
तीक्ष्ण पवन, तेज धूप, रात्रि जागरण, चिन्ता, चूर्ण मिलानेके पश्चात् जब वह ठंडा हो शोक, विषाद, ( शक्तिसे अधिक ) व्यायाम, मदजाय तो उसमें २० तोले घी. और शहद तथा कारी और उन्मत करने वाले पदार्थ और आनूप मिश्री (४०-४० तोले ) मिलाकर सबको पुनः देशज जन्तुओंका मांस तथा शीतल पान (बरफ पत्थर पर पीसकर चिकने पात्रमें भर कर सुर- आदि) का त्याग करना चाहिए । क्षित रखें।
शिरवारी शाक, साठीके चावल, मूंगकी धुली ___ इस औषधको उत्साह पूर्वक विनीत भावसे | हुई दाल, सुपारी, मुनक्का, पक्के आम, स्वादु और ग्रहण करना चाहिये और सेवन प्रारम्भ करनेसे पके फल, उत्साहकारक पदार्थ और भूमिसे ऊपर पूर्व किसी योग्य वैद्यकी देखरेखमें मृदु वमन विरे. | ग्रहण किया हुवा बरसातका जल पथ्य है।। चन द्वारा शरीर शुद्धि कर लेनी चाहिये । इसे | औषधकी मात्रा प्रति सप्ताह थोड़ी थोड़ी सेवन करनेसे पूर्व अग्नि दीत और शरीर रोग रहित बढ़ाते हुवे ६ मास तक सेवन करना चाहिये। होना आवश्यक है।
इसके सेवनसे समस्त व्याधियों और बलि प्रथम गुरु, अग्नि, अतिथि, सिद्ध, साधु और पलितका नाश होकर तेज, शौर्य, बुद्धि और वाक्शमान्य जनोंका पूजन करके; घृत युक्त भातका | क्तिको अत्यन्त वृद्धि होती है । मद मत्त हाथी के
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
समान बल आ जाता है । सुकुमारता और उत्सा- । इसे १ मास पश्चान निकाल कर ५ माशेकी हकी वृद्धि होती है । शरीर षोडश वर्षीय युवकके मात्रानुसार सेवन करनेसे १८ प्रकारके कुष्ट और समान सुन्दर हो जाता है और बहुत सी सन्तानें । विशेषतः गलत्कुष्ट नष्ट होता है। उत्पन्न करनेकी शक्ति प्राप्त होती है । आयु अत्यन्त | पथ्य-घी, चावल और दूध । दीर्घ हो जाती है । मुखकी कान्ति चन्द्रमाके समान |
(व्यवहारिक मात्रा-२-३ रत्ती ।) देदीप्यमान हो जाती है।
महाभक्तपाकवटी यह औषध शोष, यकृत् , अतिसार, प्लीहा, |
( रसे. सा. सं.। अजीर्णा. ) अपस्मार, सिध्म, यक्ष्मी, कास, श्वास, विसर्प,
प्रयोग संख्या ४९३५ "भक्त विपाकवटी" ग्रहणी, गुल्म, अश्मरी, शोथ, प्रदर, जलोदर,
देखिये। भस्मक, वमन, पामा, स्लीपद, प्रमेह, विबन्ध, भगन्दर, कुष्ठ, विषम ज्वर, पाण्डु, कान मुख उदर
महाभूताङ्कुशरसः नेत्र और मस्तकके रोग तथा मूत्रकृच्छ्र एवं आम
(र. का. धे. । उन्मादा.) वात, रक्त पित्त, अग्निमान्य, वातज रोग, कफज प्रयोग सं. ४९६१ " भूताङ्कुश रस (२)" रोग और पित्तज रोगोंको शीघ्र ही नष्ट कर देखिये । इस (महा भूताङ्कुश ) में देती है।
(१) अभ्रक और मुक्ताके स्थानमें स्वर्ण भस्म (५५५५) महाब्रह्मरसः
और (२) समन्दरझागके स्थानमें अफीम पड़ती ( र. का. धे. । कुष्ठा.)
है तथा रसाञ्जन और तुत्थका अभाव है। शेष
प्रयोग समान है। पलाशबीजचूर्ण च गोघृतेन समन्वितम् ।। ताभ्यां तुल्यं मृतं मूतं स्निग्धभाण्डे निरोधयेत॥ (५५५६) महाभैरवरसः धान्यराशौ स्थितं मासं निष्कैकं भक्षयेत्सदा । (र. का. धे.। सन्निपाता.) भक्षयेच्च यथाशक्ति महाब्रह्मरसो ह्ययम् ॥ रसेन्द्रविषशुल्बाभ्रलोहैर्वासारसप्लुतैः । पथ्यं घृतौदनं क्षीरं गलत्कुष्ठहरं परम् । सप्तकृत्वस्त्रिदोषान्तकृद्रसो भैरवो महान् ॥ अष्टादशानि कुष्ठानि हन्ति मृत्युनरामयान् । ककं वा द्वयं दद्याज्जातीफलसमायुतम् ।।
पलाश (ढाक) के बीजोंका चूर्ण और गोघृत रोगी वैद्योत्तमैस्त्यक्तः सोऽपि जागर्ति तत्क्षणात् १-१ भाग तथा पारद भस्म ( अभावमें रस पारद भस्म ( या रस सिन्दूर ), शुद्ध बछसि दूर ) २ भाग लेकर सबको एकत्र घोट कर नाग, ताम्र भस्म, अभ्रक भस्म और लोह भस्म चिकने पात्र में भरकर उसका मुख बन्द कर दें तथा समान भाग लेकर सबको बासेके स्वरसकी सात अनाजके ढेरमें दबा दें।
भावना देकर सुखाकर रक्खें ।
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चतुर्थी भागः
रसप्रकरणम् ]
इसे १ या २ कर्ष मात्रानुसार जायफलके चूर्णके साथ देनेसे उत्तम वैद्यों द्वारा व्यक्त सन्नि पात रोगी भी शीघ्र ही स्वस्थ हो जाता है । ( व्यवहारिक मात्रा - २ रत्ती ) (५५५७) महाभ्रवटी (१) ( भै. र. । स्त्री.; रसे. चि. म. । अ. ९: र. रा. सु.; रसे. सा. सं. । सूतिका. )
मृतमभ्रञ्च लौहञ्च कुनटी ताम्रकन्तथा । रसगन्धकटङ्गञ्च यवक्षारफलत्रिकम् || प्रत्येकं तोलकं ग्राह्यमूषणं पञ्चतोलकम् । सर्वमेतं चूर्ण प्रत्येकेन विभावयेत् ॥ ग्रीष्मसुन्दर सिंहास्य नागवल्ल्या रसेन च । रक्तकैकप्रमाणेन वटिकां कारयेद्भिषक् ॥ योजयेत्सर्वथा वैद्यः सूतिकारोगशान्तये ||
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२०७
गरलस्य तथा माषचतुष्कञ्चैव चूर्णितम् । दृढपाषाणपात्रे च भूयोभूयः सुचूर्णितम् ॥ २ तत्सर्वं भावयेदेषां रसैः प्रत्येकशः पलैः । देवराजानाख्यस्य केशराजाख्यकस्य च ॥ ३ सोमराजस्य भृङ्गाख्यराजस्य श्रीफलस्य च । पारिभद्राग्निमन्थस्य वृद्धदारस्य तुम्बुरोः ॥ ४ मण्डूकपर्णो निर्गुण्डीपूतिकोन्मत्तकस्य च । श्वेतापराजितायाश्च जयन्त्याश्चित्रकस्य च ॥ ५ ग्रीष्मसुन्दरकस्याटरूषकस्य रसेन तु । रसैस्ताम्बूल वल्ल्याच पत्रोत्थैर्भावयेत् पृथक ॥६ द्रवे किञ्चित् स्थिते चूर्ण मरिचस्य पलं क्षिपेत् ततश्चैव वटी कुर्यान्मात्रां दद्यात् यथोचिताम् ॥ ज्वरे चैवातिसारे च कासे श्वासे क्षये तथा । सन्निपातज्वरे चैव विविधे विषमज्वरे || क्षय रोगेषु सर्वेषु क्षीणशुक्रे च यक्ष्मणि । ग्रहण्याञ्चभूतायां सूतिकायां विशेषतः ॥ शोभे शुले तथा साध्ये स्थविरे चामवातके । मन्दानलेऽवले चैव सकले श्लेष्मजे गये ॥ पीनसेऽपीनसे चैव पक्वेऽपक्वे विशेषतः । वातश्लेष्मणि वाते वा विविधे चेन्द्रियस्थिते ॥ वातवृद्धे वृते पित्ते वलासेनावृतेऽपि च । अष्टसूदररोगेषु कण्ठरोगे प्रशस्यते ॥ अजीर्णे कर्णरोगे च कृशे स्थूले च यक्ष्मणि । अयं सर्वगदेष्वेव रसो वै परिकीर्तितः ॥ महाभ्रवटिका सेयं परं श्रेष्ठा रसायने ।
नोट - र. रा. सु. तथा रसें. सं. में. श्लोक सं. ३ - ४-५ नहीं हैं । एवं गुण भी इस प्रकार लिखे हैं
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अभ्रक भस्म, लोह भस्म, शुद्ध मनसिल, ताम्र भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, सुहागेकी खील, जवाखार तथा हर्र, बहेड़े और आमलेका चूर्ण १-१ तोला एवं काली मिर्चका चूर्ण ५ तोले लेकर सबको एकत्र मिला कर गूमा, बासे और पानके रस में पृथक् पृथक् १-१ दिन घोट कर १ - १ रत्ती की गोलियां बनावें । इनके सेवन से सूतिका रोग नष्ट होता है ।
(५५५८) महाभ्रवटी (२)
(भै. र. । ग्रहणी.; र. र. । राजय. र. रा. सु. । संग्रह .; र. सा. सं.; र. रा. सु. । सूतिका. ) अभ्रकं पुटितं ताम्रं लौहं गन्धकपारदम् । कुनटी टङ्कणक्षारं त्रिफला च पलं पलम् || १ | सर्वातीसारशमनं सर्वशूलनिवारणम् ॥
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२०८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
सूतिकाशोथपाण्डुत्वं सर्वज्वरविनाशनम् ।
महामृगाङ्करसः नाशयेत्सूतिकातकं वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥ (मृगाङ्क रसः (महा) देखिये । )
अभ्रक भस्म, ताम्र भस्म, लोह भस्म, शुद्ध । (५५५९) महामृत्युञ्जयरसः (१) गन्धक, शुद्ध पारद, शुद्ध मनसिल, सुहागेकी खील, (रसे. सा. सं.; र. रा. सु. । प्लीहो. ; रसे. जवाखार तथा हर, बहेड़े और आमलेका चूर्ण
चि. म. । अ. ९.) ५-५ तोले एवं शुद्ध बछनाग ( मीठे विष ) का रसगन्धकलोहाभं कुनटीतुत्थताम्रकम् । चूर्ण ५ माशे लेकर सबको एकत्र मिलाकर पत्थरके सैन्धवञ्च वराटश्च वागुजीविडशङ्खकम् ॥ उत्तम खरलमें अच्छी तरह घोटें और फिर उसमें | चित्रकं हिङ्गु कटुकी दिक्षारं कट्फलन्तथा । भांग, काला भंगरा, बाबची, भंगरा, बेलपत्र,
| रसाधनं जयन्ती च टङ्कणं समभागिकम् ॥ पारिभद्र (फरहद), अरणी, विधारा, तुम्बरु, मण्डूक
एतत्सर्वं विचूाथ दिनमेकं विभावयेत् । पी, निर्गुण्डी (संभालु), करञ्ज, धतूरा, श्वेत अपरा
आईकस्वरसेनैव गुडूच्याः स्वरसेन च ॥
गुआमात्रां वटीं कृत्वा भक्षयेन्मधुना सह । जिता (कोयल), जयन्ती, चीता, गूमा, बोसा
| नानारोगप्रशमनो यकृद्गुल्मोदराणि च ॥ और पानमेंसे प्रत्येकका ५-५ तोले रस डालें
अग्रमांस तथा प्लीहमग्निमान्यमरोचकम् । तथा रस डालनेके थोड़ी देर पश्चात् उसमें ५
एतान्सान्निहन्त्याशु भास्करस्तिमिरं यथा ॥ तोले काली मिर्च का चूर्ण डालकर सबको अच्छी
महामृत्युञ्जयो नाम महेशेन प्रकाशितः ॥ तरह खरल करें और ( २--२ रत्तीकी ) गोलियां बनाकर रखें।
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, लोह भस्म, अभ्रक
भस्म, शुद्ध मनसिल, तुत्थ भस्म, ताम्र भस्म, ___इनके सेवनसे ज्वर, अतिसार, खांसी, श्वास, | सेंधा नमकका चूर्ण, कौड़ी भस्म, बाबचीका क्षय, सन्निपात, अनेक प्रकारके विषम ज्वर, शुक्र
चूर्ण, बिड लवणका चूर्ण, शंख भस्म तथा क्षय, पुराना ग्रहणी रोग, विशेषतः सूतिका रोग,
चीता मूल, हींग, कुटकी, जवाखार, सज्जीशोथ, शूल, आमवात, अग्निमांद्य, निर्बलता, समस्त
खार, कायफल, रसौत, जयन्ती और सुहागेकी खीकफज रोग, पीनस, पक्व और अपक्व प्रतिश्याय, लका महीन चूर्ण समान भाग लेकर सबको १-१ वातकफज और विविध प्रकारके वातज रोग, | दिन अदरक और गिलोयके रसमें घोट कर १-१ पित्तावृत तथा कफावृत्त प्रवृद्ध वायु, आठ प्रकारके रत्तीकी गोलियां बनावें । उदर रोग, कण्ठ रोग, अजीर्ण, कर्ण रोग, कृशता
इन्हें शहदके साथ सेवन करनेसे यकृत् . और स्थूलता आदि अनेक रोग नष्ट होते हैं।
गुल्म, उदर रोग, अग्रमांस, प्लीहा, अग्निमांद्य और यह एक उत्तम रसायन है। | अरुचि आदि अनेक रोग नष्ट होते हैं।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
२०९
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(५५६०) महामृत्युञ्जयरसः (२) शुद्ध पारद, शुद्ध बछनाग ( मीठे विष ) का (र. चि. म. । स्त. ७; र. रा. सु. । ज्व) चूर्ण, शुद्ध सीसा और शुद्ध गन्धक १-१ भाग सूतकं च विषं नागं गन्धकं च चतुष्टयम् । लेकर प्रथम सीसेको पिघला कर पारदमें डालें और समं सर्व विघृष्टव्यं शिखिना तदिनद्वयम् ॥ । खूब धोटें । जब दोनों मिल जाएं तो गन्धक और तस्य कल्कस्य पादैकं मृन्मये दृढभाजने। विष डालकर, घोटकर कजली बनावें तथा उसे २ क्षिप्त्वा हेम्नोऽपि कर्तव्या पत्रस्य समपत्रिका॥ दिन चीतेके काथमें खरल करके उसके चार दातव्या तस्य कल्कस्य ह्युपरिष्टादृढीयसी। भाग करें। पुनः शरावकं दत्त्वा कुर्यात् सन्धिनिरोधनम् ॥ अब कपरमिट्टी की हुई एक मजबूत हाण्डीमें विशोष्य वालुकां दद्यादुपरिष्टात्समन्ततः। उपरोक्त कज्जलीका १ भाग रख कर उसके ऊपर याममेकमथो चुल्ल्यां पाचयेन्मन्दवह्निना ॥ १ भाग शुद्ध स्वर्णका वृक्षपत्रके समान बारीक अनेनैव विधानेन पत्रिका मारयेत्क्रमात् । पत्र रखकर जोरसे दबा दें और उसके ऊपर कपड़ अवशिष्टस्य कल्कस्य तस्याऽप्युपरि पत्रिकाम् ॥ मिट्टी किया हुवा एक मज़बूत ढकन ढक कर सन्धिको समावस्थं च सकलं हेमचूर्ण रसस्य च । गुड़ चूने आदिसे अच्छी तरह बन्द करके सुखा कर विषं भागैकमेकं च चतुर्भागं च मौक्तिकम् ॥ हाण्डीके शेष भागमें रेत भर दें तथा उसे चूल्हे गन्धकं भागमेकं स्यात्पश्चात्सर्वं तदौषधम् ।। पर चढ़ाकर १ पहरकी मन्दाग्नि दें। मर्दयेदेकतः कृत्वा चित्रकस्य रसेन च ॥ । तदनन्तर हाण्डीके स्वांग शीतल होने पर पुटित्वा किंचिदेवैतत् पिष्टरूपं तदुद्धरेत् ।। | उसमेंके स्वर्ण पत्रको निकाल लें और पुनः उपरोक्त क्षये कासेऽम्लपित्ते च श्वासे कण्डामयेषु च ॥ विधिसे १ भाग कज्जलीके ऊपर इस स्वर्ण पत्रको शाल्मलीद्रवसंमिश्रं पुष्टिहेतोः प्रयोजयेत् । । रख कर पूर्वोक्त प्रकारसे १ पहरकी अग्नि दें । इसी मरिचेन समं देयो कफरोगेषु पारदः॥ प्रकार ४ बार अग्नि दें। हर बार स्वर्ण पत्रके नीचे शूले च परिणामे च घृताक्तमधुमिश्रितः। कन्जलीका एक भाग रखना चाहिये । इस विधिसे गुडूचीजीरकैर्युक्तः स्वरभङ्गे प्रदापयेत् ॥ ४ बारमें स्वर्ण भस्म तैयार हो जायगी। ( यदि पित्ताधिकेषु रोगेषु शाल्मलीद्रवमिश्रितः ।। | कमी रहे तो अधिक बार इसी प्रकार करना अन्यान्सर्वानयं रोगान् रोगयोग्यानुपानतः ॥ चाहिये । ) । नाशयत्यचिरेणायं दुस्तरानतिवेगतः । ____ अब यह स्वर्ण भस्म (सम्पूर्ण), शुद्ध पारद १ तैलं राजीव बिल्वं च वर्जयेदम्लसेवनम् ॥ भाग, शुद्ध बछनाग १ भाग, मुक्ता भस्म ४ भाग, अयं मृत्युञ्जयो नाम रसो रोगारिरुत्तमः ।। और शुद्र गन्धक १ भाग लेकर सबको एकत्र वारणपतिमं कुर्याच्छरीरमजरामरम् ॥ घोट कर १ दिन चीतेके काथमें धोटें और उसे शक्यन्ते न गुणा वक्तुं रसस्यास्य नरैर्बुवम् ॥ | शराव सम्पुटमें बन्द करके लघु पुटमें पकावें ।
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भारत- - भैषज्य रत्नाकरः
इसके सेवनसे क्षय, कास, अम्लपित्त, स्वास और कण्डु (खुजली) का नाश होता है । इसे —
पुष्टिके लिये सेंभलके रसके साथ; कफज रोगोंमें काली मिर्चके चूर्णके साथ; शूल और परिणाम शूल में घी तथा शहद के साथ; स्वरभंगमें गिलोय और जीरेके साथ; पित्तज रोगों में सेंभलके रसके साथ और अन्य रोगोंमें रोगोचित अनुपान के साथ सेवन कराना चाहिये ।
यह रस दुस्साध्य रोगों को भी शीघ्र ही नष्ट कर देता है तथा इसके अभ्याससे शरीर हाथी के समान बलशाली हो जाता है ।
अपथ्य - तेल, कमल, वेल और खटाई । ( मात्रा - १ - रत्ती । ) (५५६१) महामृत्युञ्जयलौहम् (रसें. सा. सं.; भै, र.; र. रा. सु. । प्लीहा ) शुद्धमृतं समं गन्धं जारिताभ्रं समं समम् । गन्धकाद्विगुणं लौहं मृतताम्रश्चतुर्गुणम् ॥ द्विक्षारं टङ्कणविडं वराटमथ शङ्खकम् । चित्रकं कुनटीतालकटुकीरामउन्तथा ॥ रोहितकन्त्रिवृच्चिश्वा विशालाधत्रमङ्कोटम् । अपामार्ग तालमूलं मल्लिका च निशायुगम् ॥ कानकन्तुत्थकञ्चैव यकृन्मदैं रसाञ्जनम् । एतानि समभागानि चूर्णयित्वा विभावयेत् ॥ आर्द्रकस्वरसेनैव गुडूच्याः स्त्ररसेन च । मधुः कुडवैर्भाव्यं वटिका मामात्रतः || अनुपानं प्रदातव्यं बुद्धवा दोषानुसारतः । भक्षयेत्प्रातरुत्थाय सर्वरोगकुलान्तकम् ॥
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[ मकारादि
प्लीहानं ज्वरमुग्रञ्च कासश्च विषमज्वरम् | चिरजं कुलश्चैव श्लीपदं हन्ति दारुणम् ॥ रोगानीकविनाशाय धन्वन्तरिकृतं पुरा । मृत्युञ्जयमिदं लौहं सिद्धिदं शुभदं नृणाम्
||
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक और अभ्रक भस्म १ - १ भाग; लोह भस्म २ भाग; ताम्र भस्म ४ भाग; तथा जवाखार, सज्जी खार, सुहागेकी खील, बिड लवण, कौड़ी भस्म, शंख भस्म, चित्तामूलका चूर्ण, शुद्ध मनसिल, शुद्ध हरताल, कुटकीका चूर्ण : भुनी हुई हींग, रोहितक ( रुहेड़े ) की छाल, निसोत, इमलीकी छाल, इन्द्रायणकी जड़, धव, अंकोटकी जड़, अपामार्ग (चिरचिटा ), ताल मूली, मल्लिका, हल्दी, दारु हल्दी, धतूरे के शुद्ध बीज, शुद्र तूतिया, यकृन्मर्द ( रुहेड़ा मूल* ) और रसौत १ - १ भाग लेकर सबको १-१ दिन अदरक और गिलोय के रसमें घोटकर १ कुडव (आवइयकतानुसार) शहद में खरल करके १-१ माशेकी गोलियां बना ले I
इन्हें प्रातःकाल यथोचित अनुपान के साथ सेवन करने से तिल्ली, उम्र ज्वर, खांसी, विषमज्वर तथा पुराना और वंशानुगत स्लीपद नष्ट होता है ।
भै. र. व. में
(१) टंकण ( सुहागे ) के स्थान में सैंधव है । (२) फूलप्रियंगु, इन्द्रजौ, हर्र, अजमोद और reater अधिक है ।
(३) धतूरेके स्थान में शरपुंखा है ।
(४) मधु आधा कुडव है |
* सरफोका भी ले सकते हैं ।
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रसमकरणम् ]
चतुर्थों भागः
२११
(५५६२) महामृत्युञ्जया गुटिका इसे आधी निष्क मात्रानुसार दहीमें मिला कर (र. सं. क. । उल्लास ५)
सेवन करनेसे वातज अतिसार नष्ट होता है। त्रिफलाविडङ्गसोमाभल्लातकवह्निविश्वानाम् ।
अनुपान-दवा खानेके पश्चात् १। तोला
| सर्पाक्षी को (पानीमें पीसकर) पीना चाहिये। अष्टौ शुक्लबचाया भागा स्युः सद्विपस्यैकः ॥ सर्पविषूचिगदाते दुष्टाजीर्णहते त्रिदुष्टेऽपि ।
(व्यवहारिक मात्रा-१ रत्ती) सद्यो जोवति पुरुषो मृतोऽपि गुटिकाप्रभावेण। (५५६४) महाराजनृपतिवल्लभरसः (१)
(सर्वतोभदरसः) हर्र, बहेड़ा, आमला, बायबिडंग, सोमा ( बाबची या ब्राह्मी), शुद्ध भिलावा, चीतामूल और
(रसें. सा. सं. ; भै. र. । ग्रहणी. ) सोंठका चूर्ण १-१ भाग; सफेद बचका चूर्ण ८ | कर्षवयं भृतं कान्तं मृताभ्रं मृतताम्रकम् । भाग; तथा शुद्ध बछनागका चूर्ण १ भाग लेकर
| भृतं तारं माक्षिकञ्च क क प्रदापयेत् ॥ सबको भली भांति पानीमें घोट कर गोलियां । मृतं स्वर्ण मृतं तारं टङ्कणं शृङ्गमेव च । बना लें।
वसिरं दन्तिमूलञ्च मरिचं तेजपत्रकम् ॥ ये गोलियां सर्प-विष, त्रिदोषज विसूचिका
यमानी वालकं मुस्तं शुण्ठकञ्च सधान्यकम् । और अजीर्णको नष्ट कर देती हैं। इनके प्रभावसे
सिन्धुद्भवं सकर्पूरं विडङ्गचित्रकं विषम् ।। मृतप्रायः रोगी भी बच जाता है।
पारदं गन्धकञ्चैव तोलमानं प्रदापयेत् ।
तोलद्वयं त्रिच्चूर्ण लवङ्गं तच्चतुर्गुणम् ।। (५५६३) महारसः
जातीकोषफलश्चैव वराङ्गकन्तु तत्समम् । ( र. रा. सु. ; वृ. नि. र. । वातातिसार.) सर्वेषामर्द्धभागन्तु बिडकं तत्र मिश्रयेत् ।। भस्ममृतस्य तीक्ष्णस्य मरिचाज्यं समं समम् । सर्वमेकीकृतं यद्यत्रुटिचूर्णश्च तत्समम् । स्नुकक्षीरकाकमाचीभ्यां मर्दयेद्याममात्रकम् ॥ भावना च प्रदातव्या छागीदुग्धेन सप्तथा ॥ निरुध्य भूधरे पाच्य दिनैकेन महारसम् । मातुलुङ्गरसैः पश्चाद्भावयेत्सप्तवारकम् । निष्काई भावयेच्चानु पाययेद्दधिसंयुतम् ॥ छागाशुष्का वटीं कृत्वा भक्षयेद्दशरक्तिकाम् ।। साक्षी कर्षमात्रं तु पीत्वा वातातिसारनुन् । मन्दानलं संग्रहणी प्रवृद्धा
पारद भस्म (अथवा रस सिन्दूर ), तीक्ष्ण ___ मामानुबन्धी क्रिमिपाण्डुरोगम् । लोह भस्म, काली मिर्चका चूर्ण और घी समान छयम्लपित्तं हृदयामयश्च भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके १-१ पहर | गुल्मोदरानाहभगन्दरश्च ।। सेंड ( थोहर-सेहुंड ) और मकोय के रसमें घोटें अशॉसि वै पित्तकृतानशेषाऔर फिर १ दिन भूधरयन्त्रमें पकावें।
न्सोमं सशूलाष्टकमेव हन्ति ।
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२१२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि साजीर्णविष्टम्भविसर्पदाह
समस्त कुष्ट, खांसी, शोष, शोथ, ज्वर और मूत्रविलम्बिकाश्चाप्यलसं प्रमेहम् ॥ कृच्छ्रका नाश होता है। कुष्ठान्यशेषाणि च कासशोषं
मात्रा-२ गोली। हन्यात्सशोथं ज्वरमूत्रकृच्छम् । (५५६५) महाराजनृपतिवल्लभः (२) मतान्तरे सर्वतोभदनाम
__(नृपवल्लभः) महेश्वरेणैव विभापितोयम् ॥
( रसे. सा. सं. : भै. र. । ग्रह. ) कान्त लोह भस्म ३॥ तोले; अभ्रक भस्म, माक्षिकं लौहमभ्रश्च वङ्गं रजतहाटकम् । ताम्र भस्म, चांदी भस्म और स्वर्ण माक्षिक भस्म, | ग्रन्थिर्यमानिका चोचं ताम्र नागरटङ्कणम् ॥ ११-१। तोला तथा स्वर्ण भस्म, मोती भस्म, सुहा- सैन्धवं वालकं मुस्तं धन्याकं गन्धकं रसम् । गेको खील, मृगशृंग-भस्म; गजपीपल, दन्तीमूल, शृङ्गी कपूरकञ्चैव प्रत्येकं माषकोन्मितम् ॥ काली मिर्च, तेजपात, अजवायन, सुगन्धवाला, माषद्वयं रामठं स्यान्मरिचानां चतुष्टयम् । मोथा, सोंठ, धनिया, सेंधा नमक, कपूर, बायबिडंग, जातीकोषं लवङ्गश्च पत्रश्च तोलकोन्मितम् ।। चीतामूल और शुद्ध बछनाग ( मीठा विष ) का नाभिशङ्ख विडङ्गश्च शाणं मापद्वयं विषम् । चूर्ण एवं शुद्ध पारद और गन्धक प्रत्येक ७|| माशे; | कर्षषट्कं सत्रिमापं सूक्ष्मैलानां ततः क्षिपेत् ॥ निसोतका चूर्ण १। तोला; लौंगका चूर्ण तथा विडं कर्षद्वयं सर्वं छागीक्षीरेण पेषयेत् । आवत्री, जायफल और दालचीनीका चूर्ण ५-५ चतुर्गुञ्जमितं खादेत्सानाहग्रहणीं जयेत् ।। तोले एवं विडनमक सबसे आधा तथा इन समस्त शम्भुना निर्मितो ह्येष पूर्ववद्गुणकारकः ।
ओषधियोंके बराबर छोटी इलायचीका चूर्ण लेकर नाम्नी महाराजपूर्वा नृपवल्लभ उच्यते ॥ प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर स्वर्ण माक्षिक-भस्म, लोह भस्म, अभ्रक भस्म, उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर सबको बंग भस्म, चांदी भस्म, स्वर्ण भस्म, पीपला मूल, बकरीके दूध और बिजौ रेके रसकी सात सात । अजवायन, दालचीनी, ताम्र भस्म, सोंठ, सुहागेकी भावनो दे कर ५-५ रत्तीकी गोलियां बनाकर खील, सेंधा नमक, सुगन्ध बाला, नागरमोथा, छायामें सुखा लें।
धनिया, शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारद, काकड़ासिंगी इनके सेवनसे अग्निमांद्य, आमयुक्त प्रवृद्ध | और कपूर १-१ माशा, भुनी हुई हींग २ माशे, संग्रहणी, कृमि रोग, पाण्डु, छर्दि, अम्लपित्त, । काली मिर्च ४ माशे, जावत्री, लौंग और तेजपात हृदय रोग, गुल्म, उदर रोग, अफारा, भगन्दर, ८-८ माशेः शंख नाभिकी भस्म और बायबिडंग पित्तज अर्श, सोम रोग, आठ प्रकारके शूल, अजीर्ण, ४-४ माशे; शुद्ध बछनाग २ माशे और छोटी विष्टम्भ, विसर्प, दाह, विलम्बिका, अलसक, प्रमेह, ! इलायची ९९ माशे तथा बिड नमक ३२ माशे
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
२१३
लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और । लोह भस्म ८-८ माशे; स्वर्ण भरम, ताम्र भस्म फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर बक- और कपूर प्रत्येक ४-४ माशे तथा भांग, शतावर, रीके दूधमें घोट कर ४-४ रत्तोकी गोलियां सफेद राल, लौंग, तालमखाना, विदारीकन्द, बनावें ।
मूसली, कौंचके बीज, जायफल, जावत्री, बला __ इनके सेवनसे आनाह (अफारा) और संग्रहणी (खरैटी) और नागबला (गंगेरन) प्रत्येक २-२ तथा पूर्वोक्त ( महाराज नृपति वल्लभ में कथित ) | माशे लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें रोग नष्ट होते हैं।
और फिर उसमें अन्य औषधे मिला कर सबको
तालमूलीके रसमें घोट कर ४-४ रत्तीकी गोलियां (५५६६) महाराजवटी (१)
बनावें। ( भै. र.; र. चं.: रसे. सा. सं. । ज्वर.)
इन्हें प्रातःकाल शहदके साथ सेवन करनेसे रसगन्धकमभ्रश्च प्रत्येकं कर्षसम्मितम् ।।
| विषमज्वर नष्ट होता है। वृद्धदारकवङ्गश्च लौहं ककिं क्षिपेत् ॥
इसके अतिरिक्त इनके सेवनसे धातुगत समस्त स्वर्णताम्रकपूरश्च प्रत्येकं कर्षपादिकम् । शक्राशनं वरी चैव श्वेतसर्जलवङ्गकम् ॥
ज्वर; वातज, पित्तज, कफज और सन्निपातज कोकिलाक्षं विदारी च मूशली शुकशिम्बिकम्।
आदि अनेक प्रकारके ज्वर अवश्य नष्ट हो जाते जातीफलं तथा कोषं बला नागबला तथा ॥
| हैं। ये गोलियां खांसी श्वास और क्षय को भी माषद्वयमितं मागं तालमूल्या रसेन च ।
| नष्ट करती हैं तथा बल और पुष्टि की वृद्धि करती पिष्ट्वा च वटिका कार्या चतुर्गुमाप्रमाणतः ॥
| हैं । इनके सेवनसे मैथुन शक्ति इतनी बढ़ जाती मधुना भक्षयेत्मातर्विषमज्वरशान्तये ।
| है कि नित्य प्रति स्त्री-समागम करने पर भी बल, धातुस्थांश्च ज्वरान् सर्वान् हन्यादेव न संशयः।।
वीर्यकी हानि नहीं होती । ये कामला, पाण्डु रोग वातिकं पैत्तिकञ्चैवं श्लैष्मिकं सान्निपातिकम् ।
और राजयक्ष्मामें भी गुणकारी तथा राजाओंको ज्वरं नानाविधं हन्ति कासं श्वासं क्षयन्तथा ॥
सेवन कराने योग्य हैं। बलपुष्टिकरं नित्यं कामिनी रमयेत्सदा।। (५५६७) महाराजवटी ? (२) न च शुक्रक्षयं याति न वलं हासतां व्रजेत् ॥ | (यो. र. । वाजीकरणा.; वृ. यो. त. । त. १४७) ऊर्ध्वगं श्लेष्मजं हन्ति सन्निपातं सुदारुणम् । बीजं ब्रह्मतरोविधाय बहुधा खण्डं त्रियामोषित कामलां पाण्डुरोगश्च प्रमेहं रक्तपित्तकम् ॥ छागे दुग्धवरेऽथ शुष्कमथ तद्गन्धेन तिथ्यंशिना।। महाराजवटी ख्याता राजयोग्या च सर्वदा ॥ युक्तं काचघटीयुतं हुतभुजो योगेन च त्वान्ततः।
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक और अभ्रक भस्म सत्त्वं तस्य निगृह्य काचघटिते भाण्डे सुखं १६-१६ माशे; विधारा बीज, बंग भस्म और
स्थापयेत् ।।
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
२१४
ततैलं वल्लमात्रं तु ताम्बूलीपत्रगं चरेत् । क्षिप्त्वा तत्र रसं बलमङ्गुल्यग्रेण मर्दयेत् ॥ युक्त्या तां कज्जलीं भुक्त्वा ताम्बूलं शीलयेदनु । शाकाम्लं माषषट्कादिवर्जितं पथ्यमाचरेत् ॥ अनेन योगराजेन षण्ढोऽपि पुरुषायते । अपूर्ववच्छतं गच्छेद्वनितानां मदोद्धतम् || वीपतिविध्वंसी योगोऽयं क्षयकुष्ठ जित् । वातपित्तकफातङ्कहस्तिपञ्चाननः परम् ॥ नास्त्यनेन समं लोके किंचिदन्यद्रसायनम् ||
१ भाग ढाके बीजोंके छोटे छोटे टुकड़े करके उन्हें बकरी के दूध में भिगो दें और ३ पहर पश्चात् निकाल कर छायामें सुखा लें। अब इनमें १५ भाग शुद्ध गन्धक मिलाकर सबको आतशी शीशीमें भर कर ( पाताल यन्त्र विधिसे ) तैल निकालें |
इसमें से ३ रत्ती तैल पानमें लगा कर खाना चाहिये । अथवा हथेली पर ३ रत्ती शुद्ध पारद गन्धककी कज्जली रख कर उस पर ३ रत्ती यह तैल डालकर दोनों को उंगली से अच्छी तरह रगड़ें। और दोनोंके एक जीव हो जाने पर खाकर ऊपर से पान खावें ।
इसे ६ मास तक इसी प्रकार सेवन करने और शाक तथा अम्ल रसका त्याग करने से नपुंसक पुरुष भी अपूर्व शक्तिशाली हो कर सैकड़ों मदमत्त रमणियोंसे समागम करने में समर्थ हो जाता है। 1
इसके सेवन से बलि, पलित, कुष्ठ, क्षय, वातज, पित्तज और कफज रोग नष्ट होते हैं। सर्वश्रेष्ठ रसायन है |
यह
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[ मकारादि
(५५६८) महारौद्रेश्वररसः (र. का. . । कुष्ठ. )
शुद्धतं समं कान्तं गन्धं व्योम च मारितम् । मण्डूरं वाकुचीबीजं निशा श्लेष्मान्तवीजकम् ॥ विडङ्गं त्रिवृतावह्निभृङ्गाः कृष्णतिला भया । शणस्य कुसुमं तुल्यं चूर्णयेच्च शिलायुतम् ॥ कान्तपात्रे स्थितं खादेत्कषींशं मधुसर्पिषा । सर्वकुष्ठहरः सोऽयं महारौद्रेश्वरो रसः ॥
शुद्ध पारद, कान्त लोह भस्म, शुद्ध गन्धक, अक भस्म, मण्डूर भस्म, बाबची, हल्दी, रीठा ( ल्हिसोड़ा), बायबिडंग, निसोत, चीतामूल, भंगरा, काले तिल, हर्र, सनके फूल और शुद्ध मनसिल समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सबको अच्छी तरह घोटें ।
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इसमें से १। तोला रस शहद और घी में मिला कर (रोतको) लोह - पात्र में रख दें और प्रातः काल सेवन करें ।
इसके सेवनसे समस्त कुष्ठ नष्ट होते हैं । ( व्यवहारिक मात्रा - ५-६ रत्ती ) (५५६९) महालक्ष्मीविलासरसः (१) (रसें. सा. सं. । कफरो. ; रस. चि. म. ।
स्त. ११; रसें. चि. म. । अ. ९.) पलं वज्राभ्रचूर्णस्य तदर्द्धं गन्धकं भवेत् । तदर्द्ध वङ्गभस्मापि तदर्द्ध पारदन्तथा || तत्समं हरितालञ्च तदर्द्ध ताम्र भस्मकम् । रससाम्यश्च कर्पूरं जातीकोषफले तथा ॥
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चतुर्थी भागः
रसप्रकरणम् ]
वृडदारकवीजञ्च बीजं स्वर्णफलस्य च । प्रत्येकं कार्षिकं भागं मृतस्वर्णञ्च शाणकम् ॥ निष्पिष्य वटिका का द्विगुञ्जाफलमानतः । निहन्ति सन्निपातोत्थान्गदान्घोरान्सुदारुणान् ॥ गलोत्थानन्त्रवृद्धिश्च तथातीसारमेव च । gharदशविधं प्रमेहाविंशतिन्तथा ॥ लीपदं कफवातोत्थं चिरजं कुलजन्तथा । istaणं व्रणं घोरं गुदामयभगन्दरम् ॥ कासपीनस यक्ष्माशः स्थौल्य दौर्गन्ध्यरक्तनुत् । आमवातं सर्वरूपं जिह्वास्तम्भं गलग्रहम् ॥ उदरं कर्णनासाक्षिमुखत्रै जाड्यमेव च । सर्वशूलं शिरःशूलं स्त्रीरोगश्च विनाशयेत् ॥ टिकां प्रातरेकैकां खादेन्नित्यं यथाबलम् अनुपानमिह प्रोक्तं माषं पिष्टं पयो दधि ॥ वारिभक्तं सुराशीधुसेवनात्कामरूपधृक् । वृद्धोपि तरुणस्पर्द्धा न च शुक्रक्षयो भवेत् ॥ न च लिङ्गस्य शैथिल्यं न केशा यान्ति पक्कताम् | नित्यं गच्छेच्छतं खोणां मत्तवारणविक्रमः ॥ द्विलक्षयोजनी दृष्टिर्जायते पौष्टिकस्तथा । प्रोक्तः प्रयोगराजोयं नारदेन महात्मना । रसो लक्ष्मीविलासोयं वासुदेवो जगत्पतिः । प्रसादादस्य भगमान्लक्षनारीषु वल्लभः ॥
वज्राभ्रक भस्म ५ तोले, शुद्ध गन्धक २॥ तोले, बंग–भस्म १। तोला, शुद्ध पारद ७॥ माशे, शुद्ध हरताल ७॥ माशे, ताम्र भस्म ३ ||| माशे, कपूर ७॥ माशे, जावत्री और जायफल प्रत्येक ७॥ माशे तथा बिधारे बीज और धतूरे के बीज १/१। तोला एवं स्वर्ण भस्म ५ माशे लेकर प्रथम पारे और गन्धककी कज्जली बनावें और फिर
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२१५
उसमें अन्य औषधे मिलाकर सबको अच्छी तरह घोट कर २-२ रत्तीकी गोलियां बना लें ।
इनके सेवन से भयंकर सन्निपातज गलरोग, अन्त्रवृद्धि, अतिसार, ११ प्रकारके कुष्ट, २० प्रकार प्रमेह, पुराना और वंशानुगत कफवातज इलीपद, नाड़ी व्रण, भयंकर व्रण, अर्श, भगन्दर, खांसी, पीनस, क्षय, स्थूलता, शरीरकी दुर्गन्धि, रक्त विकार, हर प्रकारका आमवात, जिह्वास्तम्भ, गलग्रह, उदर रोग; कर्ण नासिका अक्षि और मुखकी जड़ता, समस्त प्रकारके शूल, शिरपीड़ा और स्त्री रोग नष्ट होते हैं ।
इनमें से नित्य प्रति प्रातः काल १-१ गोली खाकर उड़दकी पिट्ठी पदार्थ, दूध, दही, मांडयुक्त भात, सुरा और शीघ्र सेवन करने से मनुष्य कामदेवके समान सुन्दर हो जाता है; वृद्ध पुरुष युवकोंको प्रतिस्पर्द्धा करने लगता है; शुक्र क्षय और लिंग शैथिल्य नहीं होता; केश सफेद नहीं होते, तथा नित्य प्रति सैकड़ों स्त्रियोंसे समागम करनेकी शक्ति आ जाती है एवं दृष्टि अत्यन्त तीक्ष्ण होती है।
(५५७०) महालक्ष्मीविलासरसः (२) * ( रसें. सा. सं.; भै. र., र. र. र. रा. सु. । शिरोरोगा . ) लौहमभ्रं विषं मुस्तं फलत्रयकटुत्रयम् । धुस्तूरं वृद्धदारश्च बीजमिन्द्राशनस्य च ॥
* र. र. में इस रसका अनुपान इस प्रकार लिखा हैअनुपान प्रयोक्तव्यं शुण्ठीचूर्ण द्विमाषकम् । आर्द्रकस्य रसञ्चैव तोलकद्वयमेव च ।। अर्थात् इसे खाकर ऊपरसे २ तोले अदरक के रस में २ माशे सोंठका चूर्ण मिलाकर पीना चाहिये ।
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२१६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि गोक्षुरकद्वयश्चैव पिप्पलीमूलमेव च। शुद्ध गन्धकका चूर्ण तथा तेल डाल कर उसमें वह एतत्सर्व समं ग्राह्यं रसे धुस्तूरकस्य च ॥ गोला पकावें । जब गन्धक और तेल जल भावयित्वा वटी कार्या द्विगुञ्जाफलमानतः। जाय तो ठंडा होने पर गोलेको पीस लें और महालक्ष्मीविलासाऽयं शिरोरोगविनाशकः ॥ उसमें उसके बराबर लोह भस्म तथा इतना ही ___ लोह भस्म, अभ्रक भस्म, शुद्ध बछनाग नीमके पञ्चाङ्गको चूर्ण मिलाकर शहदमें घोटकर ( मीठा विष ), नागरमोथा, हरे, बहेड़ा, आमला, १-१ निष्ककी गोलियां बना लें। सोंठ, मिर्च, पीपल, धतूरेके बीज, बिधारे के बीज इनके सेवनसे किटिभ कुष्ट नष्ट होता है। भांगके बीज, छोटा गोखरु, बड़ा गोखरु और
(५५७२) महावहिरसः (१) पीपलामूल समान भाग लेकर सबको ( १ दिन )
( र. प्र. सु. । अ. ८) धतूरेके रसमें घोट कर २-२ रत्तीको गोलियां बनावें।
चत्वारः मूतभागास्तदनु
___ बलिवसा चाष्टभाग विधेया ___ इनके सेवनसे ( वातज और कफज ) शिरो
गौरीश्रेष्ठाशिवानां कथितरोग नष्ट होते हैं।
मिदमहो त्रित्रिभाग क्रमेण । महावङ्गेश्वररसः
एकीकृत्य विचूर्णयेच (वृ. नि. र. ; यो. र. । प्रमेह; नपु. मृ. । त. ७)
सकलं स्नुवभृिङ्गद्रवर्भाव्यं " बङ्गेश्वर रस (महा) ” देखिये ।
सप्तदिनावधि क्रमगतं वातारितैलेन वै ॥ (५५७१) महावज्रपाणिरसः एषःस्याद्धि महाग्निनाम (र. का. धे. । कुष्ठ.)
रसराट् पथ्ये जलं शीतलं शुद्धसूतं मृतं तानं मृतं तालं समं समम् । वज्य क्षारमथाम्लकं मर्दयेद्वाकुचीतैले यामैकं कृतगोलकम् ॥
शमयते सम्मूढवातं खलु ॥ द्विगुणे पाचयेद्गन्धे सतैले लोहपात्रके । शुद्ध पारद ४ भाग, शुद्ध गन्धक ८ भाग, गन्धले विजीर्णेशं तद्गोलांशं मृतायसम् ॥ हल्दी ३ भाग, त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आमला ) पञ्चाङ्गनिम्बसंयुक्तं मधुना गुटकीकृतम्। ३ भाग और भुई आमला ३ भाग लेकर प्रथम निष्क किटिभं हन्ति वज्रपाणिमहारसः ॥ पारे गन्धककी कजली बनायें और फिर उसमें
शुद्ध पारद ( रस सिन्दूर ), ताम्र भस्म और अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सबको स्नुही हरताल भस्म समान भाग लेकर सबको एकत्र (सेंड-सेहुंड ) के दूध, चीता और भंगरेके रस मिलाकर १ पहर बाबचीके रसमें घोट कर गोला तथा अण्डीके तेलमें पृथक् पृथक् सात सात दिन बनावें और फिर लोहेकी कढ़ाईमें गोलेसे २ गुना घोट कर सुरक्षित रक्खें ।
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रसप्रकरणम्
चतुर्थों भाग:
२१७
-
इसे शीतल जलके साथ सेवन करनेसे मूढ इसे खिलाकर सायंकालको उष्ण तक्रमें सेंधावातका नाश होता है।
नमक मिलाकर पिलाना चाहिये । शीतल जल न इसके सेवन कालमें क्षार और अम्ल पदार्थोसे देना चाहिये । परहेज करना चाहिये।
(५५७४) महावहिरसः (३) (५५७३) महावहिरसः (२)
( शा. सं. । खं. २ अ. १२; रसे. चि. म. । ( रसे. सा. सं. । उदर. ; र. र. स. । अ. १९)
अ. ९; र. रा. सु.; रसे. सा. सं. । उदरा.) चतुः सूतस्य गन्धाष्टौ रजनीत्रिफला शिलाः प्रत्येकन्तु त्रिभागं स्यादन्तीयूषणजीरकम् ।।
चतुःसूतस्य गन्धाष्टौ रजनी त्रिफला शिवा। प्रत्येकमष्टभागं स्यादेकीकृत्य विचूर्णयेत् ।
प्रत्येकं च द्विभागं स्यात् त्रिज्जैपालचित्रकम् ॥ जयन्तीस्नुपयोभृङ्गवहिवातारितैलकैः ॥
प्रत्येकं च त्रिभागं स्यात् ब्यूषणं दन्तिनीरकम् । प्रत्येकेन क्रमाद्भाव्यं सप्तवारं पृथक्पृथक् ।
प्रत्येकमष्टभागं स्यादेकीकृत्य विचूर्णयेत् ॥ महावहिरसो नाम निष्कमुष्णजलैः पिबेत् ॥
जयन्तीस्नुपयोभृङ्गहिवातारितैलकैः ।
प्रत्येकेन क्रमाद्भाव्यं सप्तवारं पृथक् पृथक् ॥ विरेचनं भवेत्तेन तक्रमुष्णं ससैन्धवम् । दिनान्ते दापयेत्पथ्यं वर्जयेच्छीतलं जलम् ॥
महावह्निरसो नाम निष्कमुष्णजलैः पिबेत् । सर्वोदरहरः प्रोक्तो मूढवातहरः परः॥
विरेचनं भवेत्तेन तक्रभक्तं ससैन्धवम् ॥
दिनान्ते दापयेत्पथ्यं वर्जयेच्छीतलं जलम् । शुद्ध पोरद ४ भाग; शुद्ध गन्धक ८ भाग;
सर्वोदरहरः प्रोक्तो मूढवातहरः परः॥ हल्दी ३ भाग, त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आमला ) ३ भाग, शुद्ध मनसिल ३ भाग, दन्तीमूल, सोंठ,
___ शुद्ध पारद ४ भाग, शुद्ध गन्धक ८ भाग; मिर्च, पीपल और जीरा ८-८ भाग लेकर प्रथम |
हल्दी २ भाग, त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आमला ) पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें
२ भाग, भुई आमला ( पाठान्तरके अनुसार हरअन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सबको पृथक्
ताल ) २ भाग; निसोत, जमालगोटा और चीतापृथक् सात सात दिन जयन्तीके रस, सेहुंड (थोहर)
मूल ३-३ भाग तथा त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, के दूध, भंगरेके स्वरस, चीतेके क्वाथ और अण्डीके
पीपल ), दन्तीमूल और जीरा ८-८ भाग लेकर तेलमें घोट कर सुरक्षित रखें ।
प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर
उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सबको इसे १ निष्क मात्रानुसार उष्ण जलके साथ
जयन्तीके रस, सेंड ( सेहुंड-थोहर ) के दूध, खिलानेसे विरेचन हो कर समस्त उदर और मूढवात रोग नष्ट होते हैं।
१ सूतस्य गन्धकस्याष्टौ इति पाठान्तरम् । १ 'शिवा' इति पाठान्तरम् ।
२ 'शिला इति पाठान्तरम् । २ द्विभागमिति पाठान्तरम् ।
३ सप्तभागमिति पाठान्तरम् ॥ २८
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
भंगरेके रस, चीतेके काथ और अण्डोके तेलकी (५५७६) महाविजयपटीरसः क्रमशः सात सात भावना दें।
(र. का. धे.; र. रा. सु. । सन्निपात. ) इसे १ निष्क मोत्रानुसार उष्ण जलके साथ | शुद्धं सूतं समं गन्धं खल्वे कृत्वा तु कजलीम् । सेवन करनेसे विरेचन हो कर उदर रोग और मूढ- लोहपात्रे घृताभ्यक्ते तद्दा चालयन्पचेत् ॥ वातका नाश होता है।
मूततुल्यं मृतं तानं ताम्रपादं विषं क्षिपेत् । पथ्य-सायंकालको सेंधा नमक मिला कर रक्तवर्ण भवेद्यावत्तावन्मृद्वग्निना पचेत् ।। तक और भात खिलाना तथा शीतल जलसे परहेज़ पातयेत्कदलीपत्रे गोमयासनसंस्थिते । करना चाहिये।
आच्छाध तेन पत्रेण ऊध्य देयं च गोमयम् ।। नोट-ये तीने " महावहनिरस " बहुत कुछ
आदाय चूर्णितं सिद्धं महाविजयपर्पटी । समान ही हैं तथापि प्रत्येकमें कुछ विशेषता है।
त्रिगुञ्ज भक्षयेदेनं सन्निपातनिवृत्तये ॥ (५५७५) महावातगजाङ्कुशरसः
मधुसारैः पञ्चकोलैीदं स्यादनुलेहयेत् ॥
शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक १-१ भाग (र. चं. ; धन्व.; रसे. सा. सं.; र.
लेकर दोनोंकी कज्जली बनावें और लोह पात्रमें रा. सु. । वातरो.)
घृत चुपड़ कर उसमें वह कज्जली डाल कर मन्दामृताभ्रतीक्ष्णतानं च सूततालकगन्धकम् ।
ग्निपर पकावें तथा लोहेकी करछीसे चलाते रहें । भाी शुण्ठी बला धान्यं कट्फलं चाभयाविषम्॥
जब कज्जली पिघल जाए तो उसमें १ भाग ताम्र सम्पिष्य चपलाद्रावैः निष्कैकां भक्षयेटिम् ।
भस्म और चौथाई भाग शुद्ध बछनागका महीन वातश्लेषमहरो ह्येष महावातगजाङ्कशः॥
चूर्ण मिला दें तथा मन्दाग्नि पर पकावें । जब ___ अभ्रक भस्म, तीक्ष्ण लोह भस्म, ताम्र भस्म,
उसका रंग लाल हो जाए तो गायके गोबर पर शुद्ध पारद, शुद्ध हरताल, शुद्ध गन्धक, भरंगी केलेका पत्ता बिछाकर उस पर वह कजली डाल सोंठ, बला (खरैटी), धनिया, कायफल, हरे और
कर फुरतीसे फैला दें और उसके ऊपर दूसरा कदलीशुद्ध बछनाग ( मीठा विष ) समान भाग लेकर पत्र रख कर उसे गोवरसे दबा दें। थोडी देर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर पश्चात् पत्तोंके बीचमें से पर्पटीको निकाल कर पीस उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मिलाकर सबको कर सुरक्षित रखें । पीपलके काथमें घोट कर १-१ रत्तीकी गोलियां इसमेंसे ३ रत्ती औषध खाकर ऊपरसे महुबना लें।
वेके फूलोंके रसमें पञ्चकोल ( पीपल, पीपलामूल, इसे १ निष्क मात्रानुसार सेवन करनेसे वात- चव, चीतो और सोंठ ) का चूर्ण मिला कर कफज रोग नष्ट होते हैं । (व्यवहारिक मात्रा- चाटना चाहिये । २-३ रत्ती).
इसके सेवनसे सन्निपात नष्ट होता है।
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चतुर्थो भागः
प्रकरणम् ]
(५५७७) महाविषमारिरसः
(र. का. . । ज्वरं . )
अशोधितं रसं तालं खपैरं च मनःशिलाम् । माक्षिकं हिङ्गुलं गन्धं शिखितुत्थं यथाक्रमम् || मर्दद्यामेकं तु भिषक्सम्यग्गुरूक्तितः । इन्द्राणिकाभृङ्गराजकारवल्लीजयारसैः ॥ वेदत्रं विमर्देत ततः कुर्यात्सुगोलकम् । भाण्डमध्यगतं ताम्रपात्रेणैनं पिधापयेत् ॥ अभयारूष्कखटीकल्कैः सन्धि लिम्पेद्गुरूक्तितः सिकता पूरितं कृत्वा पात्रं किञ्चित्प्रदर्शयेत् तत्र त्रिचतुरा सम्यनिवेश्याः शालयः शुभाः । दीप्ताग्निना पचेत्तावद्यवल्लाजा भवन्ति ताः । स्वभावशीतलं ग्राह्यमपकार्क न मेलयेत् ॥ इन्द्राणिकाकारवल्लीस्वरसेन विमर्दयेत् ॥ गुञ्जायं कालकेन तुलसीरसतोऽपि वा । निर्गुण्डी मरिचाभ्यां वा रसोनेन गुडेन वा ॥ ज्वरांच विषमान्सर्वान्नाशयेच्छीतपूर्वकान् । दाहपूर्व छीतयुक्तान् नाशयेद्विषमज्वरान् ॥ पथ्यं ददीत गोक्षीरैः स्नेहाम्लो वर्जयेद्ध्रुवम् । स्त्रीसङ्गो दूरतस्त्याज्यः शीताम्भः सम्परित्यजेत्।। विषमारिर्महान् प्रोक्तः शम्भुना रससागरे ॥
अशुद्ध पारद, हरताल, खपरिया, मनसिल, स्वर्णमाक्षिक भस्म, हिंगुल, गन्धक और नीलाथोथा ( तूतिया ) समान भाग लेकर सबको १ पहर खरल करके कज्जली बनावें और उसे इन्द्रायण, भंगरा, करेला और जयाके रस में ४-४ पहर घोट कर गोला बनावें तथा उस गोलेको एक हाण्डीमें रखकर तांबेकी कटोरीसे ढक दें और दोनोंकी सन्धिको
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२१९
हर्र, भिलावा तथा खड़िया मिट्टीके कल्क (गारे) से अच्छी तरह बन्द कर दें। अब हांण्डी में गले तक रेती भरकर उस पर ३-४ धानके दाने डाल दें । इसे चूल्हे पर चढ़ाकर नीचे तीत्राग्नि जलावें । जब धानकी खील हो जाएं तो अग्नि देनी बन्द कर दें और हण्डी स्वांग शीतल होने पर उसमें से औषधको निकाल लें । ताम्रका जो भाग कच्चा हो उसे ग्रहण न करें और शेष भागको साथ में खरल कर लें। अब इसे इन्द्रायण और करेले के स्वरसकी १-१ भावना दे कर सुरक्षित रक्खें ।
इसमें से ३ रती रस बेरके काथके साथ, या तुलसीरसके साथ, या संभालके रस और काली मिर्च के चूर्णके साथ अथवा ल्हसन और गुड़के साथ खिलानेसे समस्त शीत- पूर्व, और दाह - पूर्व शीतयुक्त विषम ज्वर नष्ट होते हैं ।
पथ्य - गोदुग्ध के साथ पथ्याहार ( भातादि ) खिलावें और स्नेह तथा अम्ल पदार्थोंसे परहेज़ करावें । शीतल जल न पिलावें और स्त्रीप्रसंगका तो नाम भी त्याग करा दें ।
( नोट - - यद्यपि मूल पाठ में "अशोधितं रसं " लिखा है, तथापि समस्त रसोपरस शुद्ध लिये जाएं तो अधिक उत्तम है | )
(५५७८) महावीररसः
र. र. स. । अ. १४ ; र. रा. सु. । राजयक्ष्मा ) निष्कौ द्वौ तुत्थभागस्य रसादेकं सुसंस्कृतात् । निष्कं विषस्य द्वौ तीक्ष्णात् कषशं गन्ध
मौक्तिकात् ॥
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२२०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
अग्निपर्णीहरिलताभृङ्गार्द्रसुरसारसैः ।
महाशङ्खद्रावक: मर्दितं लागलीकन्दप्रलिप्ते सम्पुटे पचेत् ॥ " शङ्खद्रावक (महा) ” देखिये । अर्धपादं च पोटल्याः काकिन्यौ द्वे विषस्य च । लिहेन्मरिचचूर्ण च मधुना पोटलीसमम् ॥
महाशङ्खवटी क्षयग्रहण्यतीसारवद्भिदौर्बल्यकासिनाम् ।।
" शङ्खवटी (महा)" देखिये । पाण्डुगुल्मवतामेष महावीरो हितो रसः ॥ (५५७९) महाशार्दूलरसः अतिस्थूलस्य पूयासक्कफानुद्वमतः क्षये । ( रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. । सूतिका.) न योजयेत्क्षीररसान्विरुद्धक्रमतत्त्वतः ॥
अभ्रकं पुटितं तानं स्वर्ण गन्धश्च पारदम् । शुद्ध तूतिया १० माशे, शुद्ध पारद ५ माशे,
शिला टङ्क यवक्षारं त्रिफलायाः पलं पलम् ।। शुद्ध बछनाग (मीठा विष) ५ माशे, तीक्ष्ण लोह
गरलस्य तथा ग्राह्यमर्द्धतोलकसम्मितम् । भस्म १० माशे तथा शुद्ध गन्धक और मोती
स्वगेलापत्रकञ्चैव जातीकोषलवङ्गकम् ॥ ११-१। तोला ले कर पारे गन्धककी कज्जली
मांसी तालीशपत्रञ्च माक्षिकश्च रसाञ्जनम् । बनाकर उसमें अन्य ओषधियां मिला कर सबको
एषां द्विकार्षिकं भागं देयश्चापि विचक्षणैः ।। १-१ दिन अग्निपर्णी (आगिया), विष्णुकान्ता,
द्रवे किश्चित्स्थिते चूणे मरिचस्य पलं क्षिपेत् । भंगरा, अदरक और तुलसीके रसमें घोटकर गोला
भावना च प्रदातव्या पूर्वक्तेिन रसेन च ॥ बनावें । तदनन्तर दो शरावों के भीतर लांगली
निहन्ति विविधात्रोगाम्ज्वरान्दाहान्वमिं कन्द ( कलियारीकी जड ) का लेप करके उसमें
भ्रमिम् । इस गोलेको रख कर यथा विधि सम्पुट बनाकर
तथातिसारकञ्चैव वद्विमान्यमरोचकम् ॥ ( लघु पुटमें ) फूंक दें। एवं पुटके स्वांग शीतल
विशेषाद्गर्भिणीरोगं नाशयेदचिरेण च ॥ होने पर उसमेंसे औषधको निकालकर उसमें उसका आठवां भाग ' मृगाङ्क पोटली रस' तथा २ रत्ती
__अभ्रक भस्म, ताम्र भस्म, स्वर्ण भस्म, शुद्ध शुद्ध बछनागका चूर्ण मिला कर खरल करें।
गन्धक, शुद्ध पारद, शुद्ध मनसिल, सुहागेकी खील, ___ इसे यथोचित मात्रानुसार काली मिर्च के चूर्ण
जवाखार और हर्र, बहेड़े तथा आमलेका चूर्ण और शहदके साथ सेवन करनेसे क्षय, संग्रहणी,
५--५ तोले; शुद्ध बछनाग ३।।। माशे; दालचीनी अतिसार, अग्निमांद्य, कास, पाण्डु औ गुल्मका
इलायची, तेजपात, जावित्री, लौंग, जटामांसी, भाश होता है।
तालीस पत्र, स्वर्णमाक्षिक भस्म और रसौत यदि क्षयका रोगी अत्यन्त स्थूल हो या पीप, १ पूर्वोक्तेन रसेन चःखून और कफकी वमन करता हो तो उसे मांस रस | प्रीष्मसुन्दरकस्यापि नागवल्लीरसेन च । और दूध देना हितकारी नहीं है ।
भावयेत्सप्तधा....................
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रसप्रकरणम् ] चतुर्थो भागः
२२१ २५-२॥ तोले लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली इसके सेवनसे धातुगत ज्वर, चित्तभ्रम सन्निबनावें और फिर उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मिला- पात, पित्तज और रक्तज रोग ( अथवा रक्तपित्त ), कर सबको गूमा और पानके रसकी पृथक् पृथक् | रक्तातिसार, ग्रहणी और रक्तार्शका नाश होता है । सात सात भावना दें और अन्तमें जब थोड़ा द्रव मात्रा-२ रत्ती। शेष रह जाए तो ५ तोले काली मिर्चका चूर्ण | ___अनुपान-मिश्रीमें मिलाकर पानीसे खाना मिलाकर खरल करें।
चाहिये।
पथ्य-जीरा मिलाकर दही भात खाना इसके सेवनसे ज्वर, दाह, वमि (छर्दि), भ्रम, | अतिसार, अग्निमांद्य, अरुचि और विशेषतः गर्भिणी
___ (५५८१) महाश्लेष्मकालानलरसः स्त्रीके रोग शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।
(रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. । कफ ; रसे. चि. ( मात्रा-३-४ रत्ती )
म.। अ० ९) (५५८०) महाशीतज्वराङ्कशो रसः । हिङ्गलसम्भवं मृतं शिलागन्धकटङ्कणम् । (यो. त. । त. २० ; वृ. यो. त. । त. ५९)
तानं वङ्गं तथाभ्रश्च स्वर्णमाक्षिकतालकम् ।।
धृस्तूरं सैन्धवं कुष्ठं हिङ्गु पिप्पली कट्फलम् । अष्टौ तालकमेतदर्द्धममलं शम्बूकचूर्ग क्षिपे
दन्तीबीजं सोमराजी वनराजफलत्रिवृत् ॥ स्पश्चादत्र नवांशको वरशिखी सवै पुनः
वज्रीक्षीरेण सम्मी वटिकां कारयेद्भिषक् ।
पेषयेत् । तोयैस्तञ्च कुमारिकादलभवैः पक्वं गजाख्ये
कलायपरिमाणान्तु खादेदेकां यथावलम् ॥ पुटेप्येकद्वित्रिचतुर्थशीतहरणः शीताकशोऽयं
सन्निपातं निहन्त्याशु वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ।
मदसिंहो यथारण्ये मृगाणां कुलनाशनः॥ रसः॥
तथायं सर्वरोगाणां सद्यो नाशकरो महान् । ज्वरं धातुगतं चित्तभ्रमं पित्तास्रजान्गदान् ।
हिङ्गुलोत्थ पारद, शुद्ध मनसिल, शुद्ध गन्धक, रक्तातिसारग्रहणीदुर्नामास्राणि नाशयेत् ॥
सुहागेको खील, ताम्र भस्म, बंग भस्म, अभ्रक गुञ्जाद्वयमितं दद्यात्सितया सह वारिणा।
भस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म, शुद्ध हरताल, धतूरेके सहजीरकेण दध्यन्नं पथ्यं शीतज्वराङ्कुशे ॥
बीज, सेंधा नमक, कूठ, हींग, पीपल, कायफल, शुद्ध हरताल ८ भाग, शुद्र शंख चूर्ण ४ । शुद्ध जमालगोटा, बाबची, बड़के फल और निसोत भाग और शुद्र नीलाथोथा ९ भाग लेकर सबको समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली एक दिन घृतकुमारीके रसमें घोट कर यथा विधि ४ . बनावें और फिर उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण गजपुट दें । हर बार घृतकुमारीके रसमें घोटना मिलाकर सबको थोहर (सेंड---सेहुंड) के दूधमें चाहिये।
घोटकर मटरके समान गोलियां बना लें।
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२२२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि ___इनमें से १-१ गोली(या यथोचित मात्रानुसार)। इसके सेवनसे एक दोषज, द्विदोषज और खिलानेसे सन्निपात ( शीताङ्ग सन्निपात ) नष्ट | सन्निपातज महा श्वास, पांच प्रकारकी खांसी होता है।
और रक्तपित्त, नष्ट होता है। जिस प्रकार इन्द्रका वन ( बिजली ) वृक्षको अनुपान--शहद । और सिंह वनके पशुओंको नष्ट कर देता है उसी |
( मात्रा--१ माशेसे डेढ़ माशे तक ।) प्रकार यह रस रोगसमूह को नष्ट करनेमें
(५५८३) महासिद्धेश्वररसः समर्थ है।
(र. का. धे. । कुष्ठ.) (५५८२) महाश्वासारिलौहम्
| शुद्ध सूतं शिला ताप्यं मृताभ्रं मर्दयेत्समम् । (र. रा. सु. ; भै. र. । श्वासा.)
जातीफलं लवङ्गैला प्रमूका तद्विभागकम् ।। फर्षद्वयं लौहचूर्ण कर्षार्द्धमभ्रमेव च । चूर्णयेत्सर्वमेकत्र रसः सिद्धेश्वरो महान् । सिता कर्षद्वयश्चैव मधु कर्षद्वयं तथा ॥ | द्विगुझं भक्षयेत्क्षौद्रैरनुपानमथोच्यते ॥ त्रिफला मधुकं द्राक्षा कणा कोलास्थिवंशजा। पटोलद्विनिशानिम्बतिक्तकोशातकीवचा। तालीशपत्रं वैडणमेला पुष्करकेशरम् || | पथ्यायष्टिसमं क्वार्थ वस्त्रपूतं तदाहरेत् ॥ एतानि लक्ष्णचूर्णानि कर्षार्द्धश्च समांशिकम् । क्वाथपादयुतं चाज्यं पचेदाज्यावशेषकम् । लौहे च लौहदण्डेन मर्दयेत्प्रहरद्वयम् ॥ एतदाज्यं पलार्धे तु ह्यनुपानं च कुटनुत् ॥ ततो मात्रां लिहेत्क्षौर्बुद्ध्वा दोषबलाबलम् । लेपं सिद्धरसेनैव सुप्तस्थाने प्रकारयेत् । इदं श्वासारिलौहश्च महावासं विनाशयेत् ॥ तत्पृष्ठे रसोनपिण्ड बद्ध्वा स्फोटः प्रजायते ॥ कासं पञ्चविधञ्चैव रक्तपित्तं सुदारुणम् । पुनर्लेप पुनर्बद्ध्वा विनश्येत्सुप्तिमण्डलम् ॥ एकजं द्वन्द्वजश्चैव तथैव सान्निपातिकम् ।। शुद्ध पारद ( रस सिन्दूर ), शुद्ध मनसिल, निहन्ति नात्र सन्देहो भास्करस्तिमिरं यथा ॥ | सोनामक्खी भस्म और अभ्रक भस्म १-१ भाग
लोह भस्म २॥ तोले, अभ्रक भस्म ७॥ तथा जायफल, लौंग, छोटी इलायची और असमाशे, मिसरी २॥ तोले, शहद २॥ तोले: हरे, गन्धका चूर्ण २-२ भाग लेकर सबको एकत्र बहेड़ा, आमला, मुलैठी, मुनक्का, पीपल, बेरकी मिलाकर घोटें। गुठलीकी गिरी, बंसलोचन, तालीस पत्र, बायबि- __इसे शहदके साथ खाने और इसीका लेप डंग, छोटी इलायची, पोखरमूल और नाग केसरका करनेसे सुप्ति और मण्डल कुष्ठ नष्ट होता है। चूर्ण आधा आधा कर्ष (प्रत्येक ७॥ माशे) ले कर लेप लगाकर ऊपरसे रहसन पीसकर बांध सबको लोहेके खरलमें लोहेकी मूसलीसे २ पहर | देना चाहिये । इससे छाला पड़ जायगा । ( उससे घोट कर सुरक्षित रक्खें।
पानी निकल जाने पर मक्खन लगा दें और जब
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रसप्रकरणम् ]
तक उसे आराम न हो जाए पुनः लेप न लगावें ।) इसी प्रकार जब तक कुष्ठको आराम न हो तब तक दवा खाते और लेप लगाते तथा ल्हसन बांधते रहें ।
मात्रा -- २ रत्ती ।
अनुपान -- पटोल, हल्दी, दारूहल्दी, नीमकी छाल, कड़वी तोरी, बच, हर्र और मुलैठी ५- ५ तोले लेकर सबको ४ सेर पानी में पकावें । जब १ सेर पानी शेष रहे तो छान लें । इसमें २० तो घी मिलाकर पानी जलने तक पकावें और फिर छानकर रक्खें ।
चतुर्थी भागः
(५५८४) महासूर्यप्रभरसः
( र. का. . । कुष्टा.)
।
विष्णुकान्ता देवदाली सर्पाक्षी तण्डुलि मुनिः। नीली ब्राह्मी पलाश च यथालाभं द्रव हरेत् द्वित्रीणामेव निर्यासैः सूतकं मर्दयेद्दिनम् । सूताद्विगुणगन्धोऽयमेकीकृत्य क्षणं पचेत् ॥ लोहपात्रे द्रुतं तावद्यावच्छुत्वाभ्रकौ स्मृतौ । प्रत्येकं सुतपादशं कर्पूरं च विनिक्षिपेत् ॥ अग्नावुत्तारयेच्चूर्ण रस: सूर्यप्रभो महान् । पुण्डरीकहरो निष्कमनुपानं च पूर्ववत् ॥
कोयल, बिंडाल, सर्पाक्षी ( गंध नाकुली ), चौलाई, अगस्ति, नील, ब्राह्मी और पलाश में से जिन २ - ३ ओषधियों स्वरस मिल सकें उनके स्वरस लेकर उनमें १ भाग शुद्ध पारदको पृथक् पृथक् १- १ दिन घोटें । तदनन्तर उस पारदमें २ भाग
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२२३
शुद्ध गन्धक मिलाकर दोनोंकी कज्जली बनावें और एक लोहपात्र में घी लगाकर उसमें यह कज्जली डालकर मन्दाग्नि पर पिघलावें । जब कज्जली पिघल जाय तो उसमें पारदसे चौथाई ताम्र भस्म और उतनी ही अभ्रक भस्म तथा कपूर मिलाकर अग्निसे नीचे उतारकर खरल कर लें।
1
( व्यवहारिक मात्रा - - २ रत्ती । )
(५५८५) महासेतुरस: (मेह सेतुरसः )
पीना चाहिये ।
औषध खानेके पश्चात् इसमें से २॥ तोले घी (र. चि. म. ; र. र. स. ; र. का. घे. । प्रमेह . ) एक: सूतो द्विधा वङ्गो सर्वद्विगुणगन्धकः । कूपीपको महासेतु वङ्गस्थानेऽथवा विधुः ॥
इसे ५ मोशेकी मात्रानुसार सेवन करने से 'पुण्डरीक कुष्ट' नष्ट होता है ।
१ भाग शुद्ध पारद, २ भाग शुद्ध बंग और ६ भाग शुद्ध गन्धक लेकर प्रथम बंगको पिघला कर पारदमें मिलावें और फिर उसमें गन्धक मिलाकर कज्जली बना लें। तथा उसे आतशी शीशी में भरकर बालुका यन्त्र में पकावें ।
यह रस प्रमेहको नष्ट करता है ।
इसमें बङ्ग (रांग) के स्थान में कपूर भी डाल सकते हैं।
(५५८६) महामगर्भरस: ( महागर्भपोटली ) (र. चं. ; यो. र. । कास. ) शुद्धं सूतं पलैकं स्यात्पादांशं शुद्धहेमकम् । शुद्धगन्धस्य माषैकं प्रतिकर्षं प्रयोजयेत् ॥
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२२४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
त्रयमेकत्र कुर्वीत सूक्ष्मं खल्वे विमर्दयेत् । (५५८७) महेश्वररसः (१) मुदृढे बन्धयेद्वस्त्रे स्थाप्य लोहजसम्पुटे ।
( महाशूलहररसः) मर्दितं गन्धकपलं तस्योपरि प्रदापयेत् । सम्पुटं मुद्रितं कृत्वा भूधराख्यपुटे पचेत् ॥
( र. का, धे. ; वृ. नि. र. । शूल. ) स्वाङ्गशीतलमुद्धृत्य दग्धगन्धं परित्यजेत् । रसं गन्धकं टङ्कणं श्वेतकाचं वेष्टयित्वा पुनर्वस्त्रं सूत्रे बद्ध्वा च गोलकम् ॥ विडं भारशृङ्ग तथा ख वराटम् । तत्तुल्यं च पुनर्गन्धं सम्पुटे निक्षिपेद्भिषक् । रविः शम्बुकं शृङ्गमेणस्य शङ्ख मुद्रित सम्पुटं कृत्वा पुनर्यन्त्रेण पाचयेत् ॥ स्नुही सूर्यदुग्धैर्दिनैकं विमर्थ ॥ हेमगर्भरसो नाम्ना सर्वव्याधिनिवारणः ।
पुटेदेव पश्चाद्विषव्योषयुक्तं रोगराजादिकं हन्ति इतरेषां तु का कथा ॥
___ समांशं च सर्वस्य सर्वं प्रदद्यात् । शुद्ध पारद ५ तोले और शुद्ध स्वर्णपत्र १।
मरीचाज्ययुक्तो महाशूलहर्ता तोला लेकर दोनोंको एकत्र खरल करें। जब स्वर्ण पारदमें मिल जाय तो उसमें ( प्रतिकर्ष १ माशेके
प्रमेहेषु सर्वेषु शूलेषु धीमान् ॥ हिसाबसे ) ६। माशे शुद्ध गन्धक मिलाकर कज्जली
क्षये दुर्निवारे विकारे च पाण्डौ बनावें और उसे मज़बूत कपड़ेमें बांधकर लोहेके
___तथा मन्दवह्नौ प्रदत्तं च हन्यात् । सम्पुट में रक्खें; तथा पोटलीके ऊपर ५ तोले शुद्ध
सुपुष्टिं बलं धातुवृद्धिं विदध्यागन्धकका चूर्ण डोलकर सम्पुटको बन्द करके भूधर
द्रसोऽयं महेशादि नाम प्रसिद्धः ॥ पुटमें पकावें । तत्पश्चात् पुटके स्वांग शीतल होने _शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, सुहागा, सफेद पर उसमेंसे औषधको निकाल कर उसके ऊपरसे | कांच, बिड नमक, बारहसींगेका सींग, अभ्रक भस्म, जले हुवे गन्धक और कपड़ेकी राखको साफ कर कौड़ी, ताम्रभस्म, घोंघे, हरिनका सींग और शंख दें तथा उसे पुनः कपड़ेमें बांधकर पूर्ववत् लोह सम्पुट समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली में बन्द करके भूधरपुटमें पकावें । इस बार भी बनावें और फिर उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मिलारसकी पोटलीके ऊपर उसके बराबर गन्धकका चूर्ण कर सबको १-१ दिन स्नुही ( थोहर सेंड) डालना चाहिये। जब पुट स्वांग शीतल हो जाए और आकके दूधमें घोट कर टिकिया बनाकर सुखा तो उसमेंसे औषधको निकालकर उसके ऊपरसे लें एवं उन्हें शरावसम्पुटमें बन्द करके गजपुट में गन्धक और कपड़ेकी राखको हटाकर शेष रसको फूंक दें । पुटके स्वांग शीतल होने पर उसमेंसे खरल कर लें।
औषधको निकाल कर उसमें सोंठ, मिर्च, पीपल इसके सेवनसे राजयक्ष्मादि समस्त रोग नष्ट और शुद्ध बछनागका समान भाग-मिश्रित चूर्ण होते हैं।
रसके बराबर मिलाकर खरल करें।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
२२५
इसे काली मिर्च के चूर्ण और घीके साथ जाता है; तथा अत्यन्त उत्साह वृद्धि होती और खानेसे प्रमेह, शूल, क्षय, पाण्डु और मन्दाग्निका सहस्रों स्त्रियोंसे समागम करनेकी शक्ति आ नाश होता तथा वीर्यको वृद्धि होती है। जाती है। (५५८८) महेश्वररसः (२)
अत्यन्त स्त्रीप्रसंगसे जिनका शुक्र क्षीण हो - ( रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. । रसायन.) ।
गया है उनमें इस रसके सेवनसे अत्यन्त शुक्रवृद्धि
होती है। इसके अतिरिक्त यह रस बल बुद्धिको रसं भस्मीकृतं कोलं गन्धकं शोधितं समम् ।
बढ़ाता और स्थूल शरीरको सम तथा कृशको पुष्ट लौहं कर्षद्वयं ताम्रमर्द्धकोलकसम्मितम् ॥
करता है। सुवर्ण जारितं दद्याच्छाणाई सुविचक्षणः ।
__(५५८९) महोदधिरसः (१) अभ्रं कर्षद्वयं दद्याच्छाणार्द्ध चन्द्रचूर्णकम् ॥
| (भै. र. । तृष्णा. ; रसें. सा. सं.; धन्व. । तृष्णा.) श्यामाबीजं वरीश्चैव बलामतिबलां तथा।। एलाश्च शङ्कपुष्पश्च शाणमानं विनिःक्षिपेत् ।।
ताम्रश्च वङ्गकञ्चैव मूतं तालं सतुत्थकम् । जलेन वटिकां कृत्वा गुञ्जामात्रां प्रदापयेत् ।
| वटाङ्कुररसैर्भाव्यं तृष्णाहृद्रक्तिपादतः ॥ सेवनादस्य कन्दर्परूपो भवति मानवः ॥
____ ताम्र भस्म, बंग भस्म, रससिन्दूर, शुद्ध सहस्रं याति नारीणामुत्साहो जायतेऽधिकः । हरताल और नीलाथोथा (तूतिया) भस्म समान नित्यं स्त्रीसेवनावस्तु क्षीणशुक्रो भवेन्नरः ॥ भाग लेकर सबको बड़के अङ्कुरोंके स्वरसमें घोट महाशुक्री भवेत्सोपि सेक्नादस्य नान्यथा। कर सुरक्षित रक्खें । महाबलो महाबुद्धिर्जायते नात्र संशयः॥ | इसे २ चावल मात्रानुसार खिलानेसे तृष्णा स्थलानां कर्षकः श्रेष्ठः कृशानां पुष्टिकारकः । शान्त होती है। रसो विनाशयेद्रोगान्सप्तसप्ताहभक्षणात् ॥ (५५९०) महोदधिरसः (२) पारद भस्म ( या रस सिन्दूर ) २ शाण,
(भै. र. । वृद्धि.) शुद्ध गन्धक २ शाग, लोह भस्म ८ शाण, ताम्र- रसं गन्धं तथा हेम वज्रविद्रुममौक्तिकम् । भस्म १ शाण, सुवर्ण भस्म आधी शाण, अभ्रक- गृहीत्वा समभागेन मर्दयेत् त्रिफलाम्बुना॥ भस्म ८ शाण, कपूर आधा शाण तथा विधारेके गुञ्जाद्धपमिताः कुर्याद् वटाश्छायाप्रशोषिताः। बोज, शतावर, खरैटी, अतिबला (कंघी), इलायची | एकैकां दापयेदासां यथादोषानुपानतः ॥
और शंखपुष्पीका चूर्ण १-१ शाण लेकर सबको | रुद्धान्त्रत्वमन्त्रवृद्धि तथान्यानन्त्रजान् गदान् । पानीके साथ एकत्र घोट कर १-१ रत्तीकी वातपित्तकफोत्थांश्च सर्वान् हन्ति महोदधिः॥ गोलियां बनावें।
___ शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, स्वर्ण भस्म, हीराइसके सेवनसे मनुष्य अत्यन्त स्वरूपवान हो भस्म, मूंगा भस्म और मोती भस्म समान भाग
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२२६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
. [मकारादि
-
लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और । (५५९२) महोदधिरसः (वृहत्) (४) फिर उसमें अन्य औषधे मिलाकर सबको त्रिफलेके काथमें घोटकर आधी आधी रत्तीकी गोलियां बना
(महोदधिवटी) कर छायामें सुखा लें।
(र. रा. सु. । अजीर्णा. ; वृ. यो. त. । त. ७१) इनमेंसे एक एक गोली दोषोचित अनुपानके | दन्तीबीजमकल्मषं सदहनं शुण्ठी लवङ्गं समम् । साथ खिलानेसे अन्त्रावरोध, अन्त्रवृद्धि और अन्य गन्ध पारदटङ्कणं च मरिचं श्रीद्धदारुं विषम् ॥ वातज, पित्तज तथा कफज समस्त अन्त्ररोग नष्ट
खल्वे यामयुगं विमद्य विधिनादन्तीद्रवैर्भावनाः देयाः पञ्चदशानु निम्बुकजलैस्त्रेधा त्रिधा चित्रकैः
त्रेधा चाकजै रसैः शुभधिया सप्तैव चावेगिनः। (५५९१) महोदधिरसः (३)
पश्चाच्छुष्ककलायसम्मितवटी कार्या भिषक्(महोदधिवटी)
सम्मिता॥
क्षुद्रोधं प्रकरोति शूलशमनी जीर्णज्वरध्वंसिनी (र. सा. सं. । अजीर्ण. ; र. चं. । अग्निमान्द्या.; कासारोचकपाण्डुतोदरगदःसामामरुङ्नाशिनी।। र. रा. सु.। अजीर्ण. ; र. मं. । अ. ६; रसे. | बस्त्याटोपहलीमकामयहरी मन्दाग्निसन्दीपनी।
चि. म. । अ. ९; भै. र. । अग्निमा.) | सिद्धेयं तु महोदधि प्रकटिता सर्वामयन्त्री सदा।। एकैकं विषमृतश्च जातीटई द्विकं द्विकम् । शुद्ध जमालगोटा, चीतामूल, सोंठ, लौंग, कृष्णा त्रिकं विश्वषट्कं गन्धं कपर्दकं द्विकम्॥
शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारद, सुहागा, काली मिरच,
विधारा और शुद्ध बछनाग ( मीठा विष ) समान देवपुष्पं वाणमितं सर्वं सम्मघ यवतः ।।
भाग लेकर प्रथम पारद गन्धककी कज्जली बनावें महोदधिवटी नाम्ना नष्टमनि प्रदीपयेत् ॥
और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर ___ शुद्ध बछनाग ( मीठा विष ) १ भाग, शुद्ध सबको दो पहर घोट कर दन्तीमूलके क्वाथकी १५ पारद १ भाग, जावत्री और सुहागेकी खील २-२ भावना तथा नींबूके रस, चीतेके काथ, और अदभाग, पीपल ३ भाग, सोंठ ६ भाग, शुद्ध गन्धक | रकके रसकी ३-३ भावना एवं विधारेके रसकी
और कौड़ी भस्म २-२ भाग तथा लौंग ५ भाग सात भावना देकर मटरके समान गोलियां बना लें। ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और
___इनके सेवनसे भूख खुलती और शूल, जीर्ण. फिर उसमें अन्य औषधे मिलाकर सबको पानीके ज्वर, कास, अरुचि, पाण्डु, उदर रोग, आम, बस्तिसाथ घोटकर १-१ माशेकी गोलियां बना लें।
| का आटोप (अफारा), हलीमक और अग्निमान्यका ... इनके सेवनसे नष्टाग्नि भी प्रदीप्त हो जाती है। नाश होता है।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
२२७
महोदधिरसः (५) स्वाङ्गशीतलमाहृत्य गोलकं लेपनैः सह । (र. म. ; र. सा. सं. ; र. रा. सु. ; र. चं.।
विचूर्ण्य सप्तवारं हि विषतिन्दुफलोद्भवैः ।
| द्रवैरथाऽऽतपे शुष्कं क्षिपेद्रम्ये करण्डके । कास. ; र. रा. सु. । श्वासा. ; र. च. । अर्श.) ।
त्रिंशदंशेन वैक्रान्तभस्म तस्मिन्विनिक्षिपेत् ।। ___ 'गुण महोदधि रस' सं. १५६६ देखिये।
अयं हि नन्दीश्वरसम्पदिष्टो जिन ग्रन्थोंमें ' महोदधि ' नामसे लिखा है उनमें
रसो विशिष्टः खलु रोगहन्ता । प्रायः प्रथम पंक्तिमें वराङ्गकम् ( दालचीनी) के
निःशेषरोगेष्वहतप्रभावो स्थानमें वराटकम् ( कौड़ी भस्म ) लिखी है एवं
महोदयप्रत्ययसारनामा ॥ प्रायः सभी ग्रन्थोंमें " गन्धक लौहञ्चैव " पाठ है
हन्यात्सर्वगुदामयान्क्षयगदं कुष्ठं च मन्दाग्नितां
मामला अर्थात् महोदधि रस में १ भाग लोह भस्म भी शलाध्मानगदं कर्फ श्वसनतासन्मादापाती। डालनी चाहिये।
सर्वा वातरुजो महाज्वरगदानानाप्रकारांस्तथा महादधिवटी (बृहत् ) वातश्लेष्मभवं महामयचयं दुष्टग्रहण्यामयम् ।। ( र. सा. सं. । अजीर्णा.)
समान भोग पारद गन्धककी कज्जली १५ प्रयोग संख्या ५५९२ के समान है परन्तु
तोले, पारद भस्म ( रस सिन्दूर ), अभ्रक भस्म,
ताम्र भस्म और लोह भस्म ११-११ तोला; शुद्ध इसमें मरिचका अभाव है । दन्तीकी १४ भावना तथा विधारेकी ५ हैं । शेष प्रयोग समान है। .
हिंगुल ५ तोले, स्वर्ण माक्षिक भस्म १५ तोले,
कमीला ५ तोले और शुद्ध बछनाग २॥ तोले लेकर (५५९३) महोदयप्रत्ययसाररसः सबको एकत्र खरल करके थोड़ा थोड़ा चूनेका
( र. र स. । अ. १५) स्वच्छ पानी डालते हुवे सात दिन तक घोटें और रसग्रस्तसमुद्गीर्णगन्धकस्य पलत्रयम् । उसका गोला बना कर सात दिन कड़ी धूपमें मृतमूताभ्रताम्रायः कर्ष कर्ष पृथक पृथक् ॥ सुखावें । तदनन्तर गुड़ और शुद्ध मनसिल बराबर पलं हिङ्गुलचूर्णस्य माक्षिकस्य पलत्रयम् । | बराबर लेकर दोनोंको पानीके साथ बारीक पीस पलं कम्पिल्लकस्यापि विषस्यार्धपलं तथा ॥ लें और उपरोक्त गोले पर इसका १ अंगुल मोटा सप्ताहं मर्दयेत्सर्वं दत्वा चूर्णोदकं मुहुः। लेप करके सुखा लें । अब एक मूषामें १५ तोले ततस्तद्गोलकं कृत्वा सप्ताहं चातपे क्षिपेत् ॥ शुद्ध गन्धकका चूर्ण डालकर उस पर बह गोला गुडचूर्ण शिलाचूर्ण लिम्पेदङ्गुलिकाधनम् । । | रख दें और गोलेके ऊपर १५ तोले शुद्ध हरतात्रिपलं गन्धकं दत्वा क्रौंच्यामथ च गोलकम् ॥ लका चूर्ण डाल कर मूषाको अध्छी तरह बाद कर गोलकस्योपरिष्टाच क्षिपेत्तालं पलत्रयम् । । दें और उस पर कपड़ मिट्टी करके गजपुटकी अग्नि संरुध्याऽतिप्रयत्नेन दद्यादजपुटं खलु ॥ दें। जब सम्पुट स्वांग शीतल हो जाय तो उस
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२२८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि मेंसे गोलेको निकालकर उसे गुड़ और हरतालके | रक्तिद्वयमिता कार्या माक्षिकादि वटी शुभा ॥ लेप सहित पीस लें।
वेष्टिता पद्मपत्रेण धान्यराशौ निधापिता । __अब इसे कुचलेके रसकी सात भावना देकर
यथायोगानुपानेन सेविता संहरेन्नृणाम् ।। धूपमें सुखा कर उसमें उसका तीसवां भाग वैक्रान्त- नेत्ररोगांश्च निखिलान् नानोपद्रवसंयुतान् ॥ भस्म मिला कर मजबूत शीशीमें भरकर रक्खें । स्वर्ण माक्षिक भस्म १ तोला, शुद्ध गन्धक ६
इसके सेघनसे अर्श, क्षय, कुष्ठ, अग्निमांद्य, माशे, शुद्ध पारद ६ माशे; अभ्रक भस्म ६ माशे शूल, अफारा, कफ, स्वास, उन्माद, अपस्मार,
तथा मोती और स्वर्ण भस्म ३-३ माशे लेकर वात व्याधि, दुष्ट ज्वर, वात कफज अनेक रोग
प्रथम पार गन्धककी कज्जली बनावें और फिर और ग्रहणीका नाश होता है ।
उस में अन्य औषधे मिलाकर सबको मकोयके
पत्तोंके स्वरसकी ३ भावना देकर २-२ रत्तीकी (५५९४) माक्षिकादिचूर्णम्
गोलियां बना लें। ( भै. र. ; आ. वे. वि. । प्रमेहा.)
इन्हें कमलके पत्तोंमें लपेट कर अनाजके माक्षिकं रससिन्दूरं खर्परं रजतन्तथा । | ढेर में दबा दें (और १ मास पश्चात् काममें शिलाजत्वभ्रलौहानि शाल्मल्याः कुसुमं त्वचम्॥ लावें । ) विदारी गोक्षुरं बीजं चैकत्र परिमर्दयेत् । इन्हें यथोचित अनुपानके साथ सेवन करबल्लमानं प्रयुञ्जीत शुक्रमेहनिवृत्तये ॥ से अनेक उपद्रव युक्त समस्त नेत्र रोग नष्ट ____ स्वर्ण माक्षिक भस्म, रससिन्दूर, खपरिया, होते हैं। चांदी भस्म, शुद्ध शिलाजीत, अभ्रक भस्म, लोह
__(५५९६) माणशूरणाद्यं लौहम् भस्म, संभलके फूल, सेंभलकी छाल, बिदारी कन्द
(भै. र. ; रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. । अर्श.) और गोखरु । सबके समान भाग चूर्ण लेकर सर्बको एकत्र खरल कर लें।
माणशूरणभल्लातत्रिवदन्तीसमन्वितम ।
त्रिकत्रयसमायुक्तमयो दुर्नामनाशनम् ।। इसमेंसे ३-३ रत्ती औषध (शहदके साथ) सेवन करनेसे शुक्रमेह नष्ट होता है ।
मानकन्द, जमीकन्द, शुद्ध भिलावा, निसोत,
दन्तीमूल, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, (५५९५) माक्षिकादिवटी
चीतामूल, बायबिडंग और नागरमोथा। इन सबका ( भै. र. । कर्ण.) | चूर्ण १-१ भाग तथा लोह भस्म सबके बराबर माक्षिक तोलकमितं तदर्द्ध गन्धक रसम । (१४ भाग) लेकर सबको एकत्र खरल करें । तथाभ्रश्च समादाय मुक्तास्वर्णौ च पादिकौ ॥ इनके सेवनसे बवासीर नष्ट होती है। काकमाची पत्ररसै स्त्रिधा सम्भाव्य यत्नतः।। (मात्रा-४ रत्तो।)
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
२२९
(५५९७) माणिक्यतिलकरसः । बदरीपल्लवोत्थेन लेपनं कारयेत्ततः । (र. र. स. । अ. २०)
अरुणाभमधःपात्रं तावज्ज्वाला प्रदीयते ॥ रसगन्धकताप्यालकान्ततीक्ष्णाभ्रभस्मकम् ।
स्वाङ्गशीतं समुद्धृत्य माणिक्याभो भवेद्रसः । हिङ्गुलं मधुकं कुष्ठं सर्व समविभागिकम् ॥
घृतक्षौद्रेण सम्मा खादयेद्रक्तिकामितम् ॥ शतमूलीनिजद्रावैर्मञ्जिष्ठादिकषायतः ।
सम्पूज्य देवदेवेशं कुष्ठरोगाद्विमुच्यते । निदिन त्रिदिनं सम्यक् परिमय विशोष्य च ॥ स्फुटित गलितं कुष्ठं वातरक्तं भगन्दरम् ॥ ततस्तु पक्षमूषायां सनिरुध्यातियत्रतः। । | नाडीव्रगं व्रणं दुष्टमुपदंशं विचर्चिकाम् । प्रक्षिप्य वालुकायन्त्रे प्रपुटेदिवसद्वयम् ॥ नासास्यसम्भवान् रोगान् क्षतान् हन्यात्सुमाणिक्यतिलको नाम रसो नासत्यकीर्तितः।।
दारुणान् ॥ एष कुष्ठं हरत्याशु सन्मित्रमिव हृद्वद्यथाम् ॥ पुण्डरीकञ्च चर्माख्यं विस्फोटं मण्डलं तथा ॥
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, स्वर्ण माक्षिक भस्म, वंशपत्री (तबकी) हरतालको सात सात या हरताल भस्म, कान्त लोह भस्म, तीक्ष्ण लोह भस्म, | तीन तीन बार पेठेके रस, खट्टी दही और कांजीमें अभ्रक भस्म, शुद्ध हिंगुल तथा मुलैठी और कूठका | पृथक् पृथक् दोलायन्त्र विधिसे पका कर शुद्ध चूर्ण समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी | करें । तत्पश्चात् उसके चावलके समान बारीक कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे टुकड़े कर लें और एक मृत्पात्रमें (नीचे सफेद मिलाकर सबको ३-३ दिन शतावरके स्वरस | अभ्रक बिछा कर उस पर ) यह हरताल फैलाकर
और मञ्जिष्ठादि क्वाथ में खरल करके सुखा । ( उसके ऊपर दूसरा अभ्रक पत्र रख कर ) पात्रको लें । तदनन्तर उसे एक दृढ़ मूषामें बन्द करके दो शरावसे ढक दें तथा जोड़को बेरीके पत्तोंके कल्कसे दिन बालुका यन्त्रमें पकावें ।
बन्द कर दें। अब इस पात्रको ( कण्डोंकी अग्नि इसके सेवनसे कुष्ट शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
पर) इतना पकावे कि नीचेका भाग (तली) लाल
हो जाय । इसके पश्चात् पात्रके स्वांग शीतल (५५९८) माणिक्यरसः (१)
होने पर उसमेंसे रसको निकाल कर सुरक्षित (रसमाणिक्यम् ) | रक्खें । यह रस माणिक्यके समान दीप्तिमान (भै. र ; रसे. सा. सं. ; र. चं. ; धन्व । कुष्टा.) | होता है। तालकं वंशपत्राख्यं कूष्माण्डसलिले क्षिपेत् । इसमेंसे नित्य प्रति १-१ रत्ती रस घी और सप्तधा वा त्रिधा वापि दनाम्लेन तथैव च ॥ शहदके साथ सेवन करनेसे स्फुटित और गलित शोधयित्वा पुनः शुष्कं चूर्णयेत्तण्डुलाकृतिः। कुष्ठ, वातरक्त, भगन्दर, नाडीव्रण (नासूर), ब्रण, ततः शरावके यन्त्र स्थापयेत्कुशलो भिषक् ॥ उपदंश, विचर्चिका, नासा रोग, मुख रोग, पुण्डरीक
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२३०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
कुष्ठ, चर्म कुष्ठ, विस्फोटक और मण्डल कुष्ठादि का (५६००) माणिक्यरसः (३) नाश होता है।
(र. चं. : रसे. सा. सं. ; र. रा, सु. ; भै. र. । (५५९९) माणिक्यरसः (२)
कुष्ठ. ; रसे. चि. म. । अ. ९.) (रसमाणिक्यम् )
पलं तालं पलं गन्धं शिलायाश्च पलार्धकम् ॥
चपलं शुद्धशीसं च ताम्रमभ्रमयोरजः । (र. च. । राजयक्ष्मा ; र. रा. सु. । राजय. )
एतेषां कोलभागं च वटक्षीरेण मर्दयेत् ॥ शुद्धमूतं पलान्यष्टौ कुनटी तस्य तत्समः।
ततो दिनत्रयं धर्मे निम्बकाथेन भावयेत् । नागपत्रं चाष्टपलमष्टौ स्याच्छुद्धगन्धकः ॥
गुडूचीबालहिन्तालवानरीनीलझिण्टिका ॥ एकत्र कजलीं कृत्वा काचकूप्यां विनिक्षिपेत् । शोभाञ्जनमराजाजिनिर्गुण्डीहयमारकम् । वालुकायन्त्रमध्ये तु अग्निः षोडशयामकम् ॥ एषां शाणमितं चूर्णमेकीकृत्य सरित्तटे । भवेन्माणिक्यवर्णोऽयं शुक्रस्तम्भं करोति च । मृत्पात्रे कठिने कृत्वा मृदम्बरयुते दृढे । जराव्याधिविनाशाय राजरोगकुलान्तकृत् ॥ एकाकी पाकविद्वैद्यो नमः शिथिलकुन्तलः ॥ दशरात्रप्रयोगेण महाव्याधिविनाशनम् । | पचेदवहितो रात्रौ यत्नात्संयतमानसः । रक्तिका सदा पथ्यं वृद्धः संयाति यौवनम् ॥ शनैर्मध्यमवेगेन वहिना प्रहरद्वयम् ॥ - शुद्ध पारा ४० तोले, शुद्ध मनसिल ४० तोले प्रातः सम्पूज्य मार्तण्डं स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत् । शुद्ध शीसा ४० तोले और शुद्ध गन्धक ४० तोले | यदि भाग्यवशादेतन्माणिक्याभं शुभं भवेत् ॥ लेकर प्रथम सीसेको पिघलाकर पारेमें डालकर घोटें। तद्धि जानीहि भैषज्यं सर्वकुष्ठविनाशनम् । जब वह उसमें मिल जाय तो अन्य औषधे मिला- सर्पिषा मधुना लौहपात्रे तद्दण्डमर्दितम् ॥ कर कज्जली बनार्वे । एवं उसे आतशी शीशीमें | द्विगुझं सर्बकुष्ठानां नाशनं बलबद्धनम् । भरकर १६ पहर तक बालुका यन्त्र में पकावें । शीतलं सारसं तोयं दग्यं वा पाकशीतलम् ॥ तदनन्तर शीशीके स्वांग शीतल होने पर उसमेंसे । आनीतं तत्क्षणादाजमनुपानं सुखावहम् । रसको निकालकर सुरक्षित रक्खें । यह माणिक्यके वातरक्तं शीतपित्तं हिक्कां च दारुणां जयेत् ।। समान चमकदार होगा।
ज्वरान्सन्विातरोगान्पाण्डं कण्डं च कामलाम् । इसके सेवनसे जरा व्याधि नष्ट हो कर वृद्ध | श्रीमद्गहननाथेन निर्मितो बहुयत्नतः॥ पुरुष भी युवाके समान हो जाता है ।
शुद्ध हरताल ५ तोले, शुद्ध गन्धक ५ तोले, __ यह रस राजयक्ष्माको केवल १० दिनमें ही | शुद्ध मनसिल २॥ तोले; तथा चपल (पारद), शुद्ध नष्ट कर देता है तथा वीर्यस्तम्भक है ।
सीसा, ताम्र भस्म, अभ्रक भस्म और लोह भस्म ___ मात्रा-आधी रत्ती।
आधा आधा कर्ष (प्रत्येक ७॥ माशे) लेकर
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रसपकरणम्
चतुर्थों भागः
२३१
%3
प्रथम सीसेको पिघलाकर पारदमें डालकर घोटें ___(५६०१) मानसोल्लासचूर्णम् और जब दोनों एकजीव हो जाएं तो उसमें अन्य
(नपुंसका मृता. । त. ३; वै. र. । वाजीकरणा.). औषधे मिला कर सबको एकत्र घोट कर कज्जली
त्वक् पिप्पली लवङ्गैला चन्दनं च शिवा पलम् । बनावें । तदनन्तर उसे १ दिन बड़के दूधमें घोट कर तीन दिन नीमके क्वाथकी धूपमें भावना दें।
सारसाईपलं भङ्गा सार्द्धद्विपळसम्मिता ॥ (धूपमें रख कर काथमें भिगो दें और ज्यों ज्यों
कर्पूरो मृगनाभिश्च दशमापमितः पृथक् ।
सर्व तुल्यसिताचूर्ण मानसोल्लाससज्ञकम् ॥ काथ सूखता जाय और डालते रहें।)
वृष्यं वाहप्रदं चैतत्कामोद्दीपनकारकम् ॥ अब इसमें गिलोय, सुगन्धबाला, हिन्ताल
___दालचीनी, पीपल, लौंग, छोटी इलायची, (ताल), कौंच, पियाबासा, सहजना, मुरामांसी,
| सफेद चन्दन और आमलेका चूर्ण ५-५ तोले, जीरा, संभालु और कनेरका पृथक् पृथक् ५-५ लोह भस्म ७॥ तोले, भंग १२॥ तोले तथा कपूर माशे कपड़ छन चूर्ण मिलाकर सबको एकत्र घोट | और कस्तुरी १२॥ १२॥ माशे लेकर सबको कर दृढ़ शराव-सम्पुट में बन्द करें और
एकत्र खरल करें और फिर उसमें उसके बराबर उस पर कपड़ मिट्टी करके सुखा लें । इस मिश्री मिला लें। सम्पुटको ( बालुका यन्त्रमें रखकर ) रात्रिके समय
यह चूर्ण वृष्य, अग्नि दीपक और कामोत्तेजक नदीके किनारे पर, एकान्तमें २ पहरकी मृदु मध्यम
है । ( मात्रा-१-१। माशा) तीब्राग्नि दें । प्रातःकाल यन्त्रके स्वांग शीतल होने पर उसमेंसे रसको निकाल लें।
(५६०२) मानिनीमानमर्दनरसः यदि भाग्यवश पाक ठीक हो जाए और
(र. स. क. । उल्लास ४) माणिक्यके समान रस तैयार निकले तो उसे कुष्ठ | कज्जलीं मृतगन्धाभ्यां तुल्यमुन्मत्तबीजकम् । नाशक श्रेष्ठ औषध समझें ।
तत्तैलमदित सेव्यं द्विवल्लं ससितापयः ॥ इसे लोहे के खरलमें लोहेकी मूसलीसे घी और
मेहोघं नाशयेद्वीर्य स्तम्भयेद्रावयेत्स्त्रियम् । शहदके साथ घोटकर २ रत्ती मात्रानुसार सेवन रसः कामप्रदो नृणां मानिनीमानमर्दनः ॥ करनेसे समस्त प्रकारके कुष्ट, वातरक्त, शीत पित्त, | समान भाग पारे गन्धककी कज्जली ५ तोले भयंकर हिचकी, समस्त ज्वर, वात रोग, पाण्डु, । और शुद्ध धतूरेके बीजोंका चूर्ण ५ तोले लेकर खाज और कामलाका नाश होता तथा बल | दोनोंको एकत्र मिलाकर १ दिन धतूरेके बीजोंके बढ़ता है।
तेलमें घोटें । ___ अनुपान-सरोवरका शीतल जल या पकाकर इसे ६ रत्ती मात्रानुसार मिश्रीयुक्त दूधके ठंडा किया हुवा बकरीका ताज़ा दूध । | साथ सेवन करनेसे समस्त प्रमेह नष्ट होते, कामेच्छा
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२३२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि उत्तेजित होती और वीर्यस्तम्भन होता है। यह (५६०४) मार्तण्डभैरवरसः उत्तम स्त्री द्रावक औषध है।
( र. चि. म. । स्त. ११; र. रा. सु. ; वृ. (५६०३) मार्कण्डेयचूर्णम्
__ नि. र. । सन्निपा.) (भै. र. । ग्रहणी.)
शुद्धं सूतं समं गन्धं गन्धारपादांशटङ्कणम् ।
ताम्रपा क्षिपेत्पिष्टं जयन्त्यालोडयेमुवैः ।। शुद्धसूतश्च गन्धश्च हिङ्गुलं टङ्कणं तथा।
| शिमलरसेनाऽथ भावयेच्च खरात्तपे। व्योषं जातीफलश्चव लवङ्गं तेजपत्रकम् ॥
| कटुत्रयस्य वासाया वह्निरुद्रजटाद्वैः ॥ एलाबोजं चित्रकञ्च मुस्तकं गजपिप्पली। तिलपर्ध्या तथा जातीपिप्पलीपत्रमूलकैः। नागरं सजलश्चाभ्रं धातक्यतिविषा तथा ॥ द्रवैरेव तु सप्ताहं शोष्यं शोष्य विभावयेत् ॥ शिग्रज शाल्मलञ्चवमहिफेनं पलांशकम। ताम्रपात्रात्समुद्धत्य कृत्वा गोलं विशोषयेत् । एतानि समभागानि श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् ॥
बद्धा वस्त्रमृदा चाथ भूधरे स्वेदयेत्पुटे ।
द्वियामान्ते समुद्धत्य चूर्णयेदौषधैः सह । खादेदस्मात् प्रतिदिनं माषकं सितथा सह। ।
विषक:रजात्येला रसस्य दशमांशतः ।। सङ्ग्रहग्रहणी हन्ति मन्दाग्निश्च विनाशयेत् ॥
| भावयेद्विजयाद्रावैदिनमेकं च भक्षयेत् । शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध हिंगुल, सुहा- | चतुर्गुऑ सकर्पूरं मधुना सन्निपातजित् ।। गेकी खील, सोंठ, मिर्च, पीपल, जायफल, लौंग, | मार्तण्डभैरवो नाम रसोऽसाध्यं च साधयेत् । तेजपात, छोटी इलायची के बीज, चीतामूल, नाग- दशमूलं पिबेच्चानु पथ्यं स्यान्मुद्गयूषकम् ॥ रमोथा, गज पीपल, सेठ, सुगन्ध बाला, अभ्रक शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक ४-४ भाग नथा भस्म, धायके फूल, अतीस, सहजनेका गोंद, मोच- सुहागेकी खील १ भाग ले कर सबको एकत्र घोट रस और अफीम समान भाग लेकर प्रथम पारे
कर ताम्रके पात्रमें डाल दें और उसमें जयन्तीका गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें अफीम
रस मिला कर धूपमें रख दें। जब रस सूख जाय मिला कर घोट कर अन्य औषधेांका चूर्ण पिला दे
तो पुनः डाल दें । इसी प्रकार सात दिन तक तथा अच्छी तरह घोट कर रक्खें ।
जयन्तीके रसको भावना दें और फिर इसी विधिसे इसके सेवनसे संग्रहणी और अग्निमांद्यका नाश सात सात दिन तेज धूपमें सहजनेकी जड़के रस, होता है।
त्रिकुटेके काथ, बांसेके रस, चीतेके काथ, रुद्र
जटाके काथ (या रस), चन्दनके काथ, चमेलीके मात्रा--१ माशा। मिश्रीमें मिला कर खाना
रस, पीपलके काथ, तेजपातके काथ और खसके चाहिये।
काथकी भावना दें। तदनन्तर उसका गोला बना
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
२३३
-
कर सुखा लें और उसके ऊपर कपड़ा लपेट कर वाताधष्टमहारोगाच्छासकासयुतं क्षयम् ॥ उस पर मिट्टीका लेप करके २ पहर भूधर पुटमें। हलीमकं च पाण्डं च ज्वरानपि सुदुस्तरान् । स्वेदित करें। इसके पश्चात् पुटके स्वांग शीतल इत्यादिकगदासर्वान्विनाशयति निश्चितम् ॥ हो जाने पर उसमेंसे औषधको निकाल कर उसमें | करोति दीपनं तीव्र दीपानलशतोपमम् । शुद्ध बछनाग, कपूर, जावत्री और इलायचीका
सन्निपातं जयत्याशु व्योषाकसमन्वितः ॥ चूर्ण प्रत्येक उस तैयार रसका दसवां भाग मिला सर्वसौख्यकरो नृणां स्त्रीणां बन्ध्यत्वनाशनः ॥ कर अच्छी तरह घोटें; और उसे एक दिन भांगके
१००-१०० तोले शुद्ध ताम्र और स्वर्ण रसमें खरल करके रखें।
माक्षिक को एकत्र मिलाकर सम्पुटमें बन्द करके इसमेंसे ४ रत्ती रसमें जरासा कपूर मिला | गजपुटकी अग्नि दें। इसी प्रकार ४ पुट देनेके कर शहदके साथ सेवन करनेसे असाध्य सन्निपात पश्चात् उसे पीस कर समान भाग शहदमें घोट भी नष्ट हो जाता है।
कर सम्पुटमें बन्द करके गजपुटकी आंच दें। अनुपान-दशमूलका काथ ।
| इसी प्रकार २० पुट शहदकी और फिर २० पथ्य-मूंगका यूष।
पुटx गन्धककी दें। हर बार समान भाग गन्धक (५६०५) मार्तण्डेश्वररसः
| डालना चाहिये।
___ अब यह ताम्र भस्म ५ तोले, गन्धक द्वारा ( र. र. स. । अ. २१ ; र. चं. ; र..
मारित पारद ५ तोले और हीरा भस्म ५ माशे ले रा. सु.। वातव्या.)
कर सबको एकत्र करके अच्छी तरह घोट कर समताप्ययुतं शुल्वं पलविंशतिमानकम् । सुरक्षित रखें। प्रध्मातं हि चतुर्वारं खण्डयित्वा ततश्चरेत् ॥ इसे धी और काली मिर्चके चूर्णके साथ तत्तुल्यं मालिकोपेतं पुटेविंशतिवारकम् । केवल २० दिन सेवन करनेसे वातादि अष्ट महा गन्धकेन पुटेत्तद्वद्गृह्णीयात्तत्पलं ततः ।। रोग, श्वासखांसी-युक्त क्षय; हलीमक, पाण्डु, क्षिपेत्पल मितं तत्र गन्धकेन हतं रसम् ।
भयङ्कर ज्वर और स्त्रियोंका वन्ध्यत्व नष्ट होता शाणमात्रं मृतं वज्रं सर्वमेकत्र मर्दयेत् ॥ तथा अग्नि अत्यन्त तीव्र होती है। इति सिद्धो रसेन्द्रोऽयं मार्तण्डेश्वरनामवान् । इसे त्रिकुटे ( सोंठ, मिर्च, फैपल ) के चूर्ण कीर्तितो लोकनाथेन लोकानां हितकाम्यया ॥ और अद्रकके रसके साथ सेवन करनेसे सन्निपात मरीचघृतसंयुक्तः सेवितो मण्डलार्धतः।। नष्ट होता है।
x पाठान्तरके अनुसार गन्धककी इतनी पुढे १. गन्धकेन पुटेत्तावद्यावत्पलमितं भवेदिति. देनी चाहिये कि केवल १ पल (.. तोले) औषध शेष पाठान्तरम् ।
रह जाय ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
-
-
-
-
mammy
मालतीवसन्तरसः ताम्रायोरजसी रूप्यं सौगन्धिककशेरुकम् ।
मालिनीवसन्तरसः जातीफलं शणाद्वीजमपामार्गस्य तण्डुलाः ॥ वसन्त मालती रस देखिये। एषां पाणितलं चूर्ण तुल्यानां क्षौद्रसपिंषा । (५६०६) मिहिरोदयवटी हिक्कां श्वासं च कासं च लीढमाशु नियच्छति॥
( आ. वे. वि. । शिरोरो.) अअनात्तिमिरं काचं नीलिकां पुष्पकं तमः । लौहमभ्रं सूवर्णश्च विद्रुमं राजपट्टकम् ।।
पैल्यं कण्डुमभिष्यन्दमर्म चैव प्रणाशयेत् ॥ सर्व समं प्रदातव्यं सिन्दरश्च द्विभागिकम् ॥ मोती, प्रवाल, वैडूर्य मणि, शंखनाभि, स्फटिका एरण्डमूलजेनैव रसेन परिभावयेत् । ( बिल्लौर ), अञ्जन (सुरमा), चन्दन, काचमणि, क्वाथैस्तथा जटामांस्या वटी रक्तिद्वयात्मिका ॥ आककी जड़की छाल, छोटी इलायची, सेंधा नमक, पथ्या पयोऽनुपानेन वटीयं मिहिरोदया। काला नमक, ताम्र, लोह, चांदी, सौगन्धिक (कमल अविभेदकं हन्ति पीता वातमनन्तकम् ॥ | भेद), कसेरु, जायफल, सनके बीज और अपासूर्यावर्त तथा शङ्खश्चैकजञ्च द्विदोषजम् । मार्ग (चिरचिटे) के तुष रहित वीज समान भाग त्रिदोषज शिरोरोग साध्यासाध्यं न संशयः॥ लेकर चूर्ण बनावें ।
लोह भस्म, अभ्रक भस्म, स्वर्ण भस्म, विद्रुम इसे शहद और घीके साथ खानेसे हिचकी, (मूंगा) भस्म और कान्त पाषाण (चुम्बक) भस्म | खांसी और स्वास नष्ट होता है तथा इसका अंजन १-१ भाग तथा रससिन्दूर २ भाग लेकर सबको लगानेसे तिमिर, काच, नीलिका, फूला, पैल्य एकत्र खरल करके एक एक दिन अरण्डमूल और (रोहे), आंखोंकी खाज, नेत्राभिष्यन्द और अर्म जटामांसीके काथमें घोट कर २-२ रत्तीकी | आदि नेत्र रोग नष्ट होते हैं। गोलियां बनावें।
___ नोट-इस प्रयोगमें ताम्रकी भस्म और अन्य ___इन्हें हर्रके चूर्ण (अथवा हरके मुरब्बे) और धातुओंका अत्यन्त सूक्ष्म चूर्ण लेना चाहिये । लोहकी दूधके साथ सेवन करनेसे अभवभेदक; अनन्त- भी भस्म ले सकते हैं। वात, सूर्यावर्त और शङ्खक आदि एक दोषज, द्वि
(५६०८) मुक्तापञ्चामृतरसः दोषज और सन्निपातज साध्य अथवा असाध्य शिरोरोग नष्ट होते हैं।
(यो. र. ; वृ. नि. र. । जीर्ण ज्वर.) (५६०७) मुक्तादिचूर्णम् मुक्तापवालखुरवङ्गककम्बुशुक्ति(च. स. । चि. अ. १७ हिक्काश्चा.)
भूति वसूदधिगिन्दुसुधांशुमागाम् । मुक्तामवालवैडूर्यशशस्फटिकमञ्जनम् । इक्षो रसेन सुरभेः पयसा विदारीससारगन्धकाचार्कसूक्ष्मैलालवणद्वयम् ॥
कन्यावरीसुरसहंसपदीरसैश्च ॥
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रसप्रकरणम् ]
सम्मर्थ यामयुगलं च वनोपलाभिforget मृदुलानि च पञ्च पञ्च । पञ्चामृतं रसविभुं भिषजा प्रयुज्य गुञ्जाचतुष्टयमितं चपलारजश्च ॥ पात्रे निधाय चिरतपयस्विनीनां
दुग्धेन च प्रपिवतः खलु चाल्पभोक्तुः । जीर्णज्वरः क्षयमियादथ सर्वरोगाः
स्वयानुपानकलिताश्च शमं प्रयान्ति ।।
चतुर्थी भागः
मोती भस्म ८ भाग, मूंगा भस्म ४ भाग, हिरनखुरी बंग (रांग) की भस्म २ भाग तथा शंख और सीपकी भस्म १ - १ भाग लेकर सबको एकत्र घोट कर २ पहर ईखके रस में खरल करके गोला बनावें और उसे सुखा कर शरावसम्पुट में बन्द करके लघुपुटमें फूंकें । इसी प्रकार ईखके रस गाय दूध तथा विदारीकन्द, घृतकुमारी, शतावर, तुलसी (या संभालु ) और हंस पदी (लाल लञ्जालू ) के रसमें खरल करके पांच पांच पुट दें।
(५६०९) मुक्ताभस्मयोग ः (१) ( वै. र. । रक्तातिसा. ; वृ. नि. र. । त्रिदोष. अति.) मुक्ताभस्मेतिनामेदं दोषं दृष्ट्वा प्रकल्पयेत् । गुञ्जार्धमेकगु वा कर्पूरेण सुवासितम् || जातीफलादिसंयुक्तं रहस्यं परममतम् ॥
दोष विवेचना करके एक या आधी रत्ती मोतीकी भस्ममें जरासा कपूर मिलाकर उसे जाय
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२३५
फल इत्यादि ग्राही औषधोंके साथ देनेसे अतिसार होता है ।
यह एक गुप्त प्रयोग है ।
(५६१०) मुक्ताभस्मयोगः (२) (र. चं. । हिक्का . ) कटुकागैरिकाभ्यां च मुक्ताभस्म तथैव च । बीजपूरस्य तोयेन ताम्रं तद्वत्समाक्षिकम् ॥
कुटकी और गेरुका चूर्ण तथा मोती भस्म समान भाग मिला कर ( २ - ३ रत्ती मात्रानुसार ) बिजौरे के रसके साथ देनेसे अथवा शहद के साथ ताम्र भस्म चटाने से हिचकी नष्ट हो जाती है। 1
(५६११) मुखरोगहरोरसः
;
(भै. र. ; रसे. सा. सं.; २. रा. सु । मुखरोगा : रसे. चि. म. । अ. ९. ) रसगन्धौ समौ ताभ्यां द्विगुणश्च शिलाजतु । गोमूत्रेण विमग्रथ सप्तधार्केद्रवेण च ॥ जातीनिम्बमहाराष्ट्रीरसैः सिध्यति पाकहा । कामयुतो हन्ति मुखपाकं सुदारुणम् ॥
४ रसी यह रस पीपल के चूर्ण में मिलाकर
बहुत दिनोंकी व्याही हुई गायके दूधके साथ सेवन चतुर्गु घृतं वक्त्रे सो हन्ति वढी गदान् ।
करनेसे और स्वल्पाहार करनेसे जीर्ण ज्वर और क्षयादि रोग नष्ट होते हैं ।
महाराष्ट्रयाश्च कल्केन मुखञ्च प्रतिसारयेत् ॥ Error सेवनाच्चापि वटी हन्ति मुखामयान् ॥
शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक १ - १ भाग तथा शुद्ध शिलाजीत ४ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें शिलाजीत मिला कर उसे गोमूत्र, आकके पत्तोंके रस ( पाठान्तर के अनुसार अद्रक रस ), चमेली और नीम के पत्तों के रस तथा महाराष्ट्री (जल पीपल) के रसकी पृथक् १ सप्तधाद्रवेण चेति पाठान्तरम् ।
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1
२३६
पृथक् सात सात भावना देकर ४-४ रत्तीकी गोलियां बना
लें
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
इनमेंसे एक एक गोली पीपलके चूर्ण और शहद में मिला कर खाने तथा मुखमें रखने से भयंकर मुख पाक भी नष्ट हो जाता है ।
मुख पाक में महाराष्ट्र के कल्कसे घर्षण करना भी हितकारी है ।
(५६१२) मुखरोगारिरसः ( र. र. स. | अ. २४ ) तायातुत्थकुन टीराजावर्त शिलाजतु । गुग्गुलुहरवीर्यं च मुखरोगनिवर्हणम् ॥
1
सोनामक्खी भस्म, अभ्रक भस्म, तुत्थ ( तूतिया ) भस्म, शुद्र मनसिल, राजावर्त भस्म, शिलाजीत, रस सिन्दूर और गूगल समान भाग ले कर सबको एकत्र घोट कर . ( १ -१ रत्तीकी ) गोलियां बना लें इनके सेवन से मुख रोग शान्त होते हैं । (५६१३) मुद्राघोटको रसः ( भै. र. र. रा. सु. । ज्वर. ) पारदो गन्धश्चैव त्रिक्षारं लवणत्रयम् । गुग्गुलुर्वत्सनाभश्च प्रत्येकन्तु द्विमाषकम् ॥ कृष्णोन्मत जटानी र्भावयेत्सप्तवासरम् । गोक्षुरेन्द्रकमारीषं करअ चित्रतेजिका ।। भूकुरवकलताभिश्च त्रिफला बृहतीरसैः । मर्दिता वटिका कार्या कृष्णलाफलसन्निभा ॥ aamhi aीं दत्त्वा यत्नैः पाटयादिभिर्वृतः । रसः सर्ववरं हन्ति क्षणमात्रान्न संशयः ॥
[दि
जवाखार,
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, सज्जीखार, सुहागा, सेवा नमक, काला नमक, विड नमक, शुद्ध गूगल और शुद्ध बछनाग (मीठा विष) समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मिला कर सबको काले धतूरेकी जड़के रसमें सात दिन घोटें और फिर उसे गोखरु, इन्द्रजौ, मरसा शाक, करञ्ज, चीतामूल; तेजिका ( माल कंगनी ), झिण्टी, मजीठ, त्रिफला और बड़ी कटेली ( बन भण्टे ) के रसमें १-१ दिन घोट कर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें।
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इनमें से रोगीको १ गोली खिलाकर कम्बल इत्यादि गर्म कपड़ा उढ़ा देना चाहिये |
इनके सेवन से ज्वर अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो है
1
जाता
(५६१४) मुशलीपाकः (१) ( नपु. मृता । त. ४ )
सुतालमूलीद्वयचूर्णमेव
वस्त्रपूतं विनिगृह्य प्रस्थम् ।
गोदुग्धप्रस्थैर्वसुभिच पाच्यं
यावद्घनं तत्प्रसमीक्ष्य सर्वम् ॥ पलाष्टकेनाथ घृतेन भृष्ट्वा
लैकमानानि तथैौषधानि । संवक्ष्यमाणानि गुरुक्तयुक्तया
खण्डं द्विमानं सकलौषधीभ्यः ॥ गोकण्टकं चेक्षुशतावरीभ्यां
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शिवाकणावानरवीजपत्रैः । लङ्गखार्जूर सुजातपत्री मज्जात्रयैश्चन्दनगोस्तनीभ्याम् ॥
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
जातीफलैलानतवङ्गयुक्तं
___ इसके अतिरिक्त इनके सेवनसे बल, वीर्य, - ग्राह्य यथोक्तं सकलं पलैकम् । | आनंद और पौरुषकी वृद्धि होती तथा नेत्र रोग पलद्वयं मोदकमस्य प्रातः
नष्ट होते हैं। सायं समश्नाति समाक्षिकाज्यम् ॥
मुशलीपाकः (२) वृद्धोपि तारुण्ययुतस्तरुण्या
(वृ. यो. त.) युक्तोपि चान्यास्तरुणीरिरंसुः।
" वृहन्मुशली पाकः " देखिये । वीर्यप्रमोदैबलपौरुषाभ्यां युक्तः सुयोगगणैर्विमुक्तः ॥
(५६१५) मुस्तादिगुटी
( वृ. नि. र. । अतिसार.) दोनों प्रकारकी ( काली और सफेद ) मूस
मुस्तं मोचरसं लोधं धातुकी बिल्वकौटजम् । लीका कपड़ छन चूर्ण १ सेर (प्रत्येक आधा सेर)
अहिफेनं रसं गन्धं सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ॥ लेकर ८ सेर गोदुग्धमें पकावें । जब वह गाढ़ा (खोवेके समान ) हो जाए तो उसमें १ सेर
वल्लमात्रमिदं खादेत् गुडतक्रसमन्वितम् । गोघृत मिलाकर भूनें। तत्पश्चात् सम्पूर्ण औषधसे
अतिसारे प्रवाहे च ग्रहण्यां च विशेषतः॥ २ गुनी ( १० सेर ३० तोले ) खांडकी चाशनी
. नागरमोथा, मोचरस, लोध, धायके फूल, बनाकर उसमें यह खोवा और निम्न लिखित बेलगिरी, इन्द्रजौ, अफीम, शुद्ध पारा और शुद्ध ओषधियोंका चूर्ण मिला।
गन्धक समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी
कज्जली बनावें और फिर उसमें अफीम तथा अन्य चूर्णकी ओषधियां-गोखरु, तालमखाना, शतावर, आमला, पीपल, कौंचके बीज, तेजपात,
ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह घोट
कर रक्खें । लौंग, खजूर, जावत्री, बादामकी गिरी, पिस्ता, चिरौंजी, सफेद चन्दन, मुनक्का, जायफल, इलायची
इसे ३ रत्ती मात्रानुसार गुड़ युक्त तक के और तगरका कपड़छन बारीक चूर्ण तथा बंग भस्म ।
साथ सेवन करनेसे अतिसार, प्रवाहिका और संप्र. ५-५ तोले।
हणीका नाश होता है। यह चूर्ण मिलाकर ५-५ तोलेके मोदक
(५६१६) मुस्तादिचूर्णम् (१) बना लें।
(र. र. स. । अ. १६) - इनमेंसे १-2 मोदक घी और शहद में मिला- मुस्तावत्सकपागनिव्योषपतिविषाविषम् । कर प्रातः सायं सेवन करनेसे वृद्ध पुरुष भी तरुणके धातकीमोचनिर्यासश्चूतास्थिग्रहणीहरम् ॥ समान स्त्री समागम कर सकता है तथा उसे पुनः | नागरमोथा, कुड़ेकी छाल, पाठा, चीतामूल, पुनः तरुणी-समागमकी इच्छा उत्पन्न होती है। . सोंठ, काली मिर्च, पीपल, अतीस, शुद्ध बछनाग
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२३८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि (मीठा विष), धायके फूल, मोचरस और आमकी । हल्दी, दारु हल्दी, सहजनेकी छाल, ढाकके बीज, गुठलीकी गिरी समान भाग लेकर कूट छान कर चूर्ण शुद्ध गन्धक, बायबिडंग, बच, अरणी मूलकी छाल, बनावें।
काला नमक और हींग समान भाग लेकर चूणे इसके सेवनसे संग्रहणी रोग नष्ट होता है। बनावें । ( मात्रा-१॥ माशा ।)
इसके सेवनसे कृमि रोग नष्ट होता है । (५६१७) मुस्तादिचूर्णम् (२)
(५६१९) मूत्रकृच्छ्रहरः (र. र. स. । अ. १९)
(भै. र. ; धन्व. । मूत्रकृच्छ्रा.) मुस्ताऽमृताचित्रकयष्टिपिप्पली
विदारी गोक्षुरं यष्टी केशरश्च समं पचेत् । विडाशुण्ठीत्रिफलैर्यथोत्तरम् । तत्कषायं पिबेत्क्षौदै रसभस्मयुतं पुनः॥ चूर्ण सहायोरजसा च संयुतं मूत्रकृच्छहरं ख्यातं सप्ताहात् पित्तजं जयेत् ॥
समासिकं पाण्डुगदापहं परम् ॥ विदारी कन्द, गोखरु, मुलैठी और नागकेसर नागरमोथा १ भाग, गिलोय २ भाग, चीता- समान भाग (१-१ तोला ) लेकर सबको ३२ मूल ३ भाग, मुलैठी ४ भाग, पीपल ५ भाग, | तोले पानीमें पकावें । जब ८ तोले पानी शेष रहे बायबिडंग ६ भाग, सोंठ ७ भाग, हर्र ८ भाग, | तो छान लें । बहेड़ा ९ भाग, आमला १० भाग, और लोहभस्म | इस काथमें शहद डालकर उसके साथ पारद ५५ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करें। भस्म ( अभावमें रससिन्दूर ) सेवन करनेसे १
इसे शहदमें मिलाकर सेवन करनेसे पाण्डु- सप्ताहमें पित्तज मूत्रकृच्छू नष्ट होता है। रोग नष्ट होता है।
(५६२०) मूत्रकृच्छ्रहरलौहम् ( मात्रा-३ रत्ती ।)
(र. र. । मूत्रकृच्छ.) (५६१८) मुस्ताय चूर्णम् | अयोरजः श्लक्ष्णचूर्ण मधुना सह योजितम् । (ग. नि.। कृमिरो.)
मूत्रकृच्छ्रे निहन्त्येतत् त्रिभिलोहेर्न संशयः॥
लोह भस्मको शहदके साथ सेवन करनेसे मुस्ताखुपर्णिसुरदारुकणाविशालाश्रीसिन्दुवाररविमूलनिशाद्वयं च ।।
| मूत्रकृच्छ अवश्य नष्ट होजाता है । शिनः पलाशबलियेल्लवचाग्निमन्थ- (५६२१) मूत्रकृच्छ्रान्तकरसः (१)
सौवर्चलं कृमिशतं शमयेत् सहि ॥ ( भै. र. ; र. का. धे. । मूत्रकृच्छ्र.) नागरमाथा, मूषाकन्नी, देवदारु, पीपल, सूतं स्वर्णश्च वैक्रान्तं गन्धत्तुल्यं विमर्दयेत् । इन्द्रायणकी जड, संभालुके पत्र; आककी जड़, | चाण्डालीराक्षसीद्रावैर्बियामान्ते तु गोलकम् ॥
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चतुर्थो भागः
शुष्क बद्ध्वा पुटेचाहः करीपाग्नौ लघौ पुटे । तदोल सार्षपे तैले पाच्यं यामञ्च घूणयेत् । गुञ्जादै तु लिहेत्सौट्टैमूत्रकृच्छपशान्तये ॥ मूत्रकृच्छ्रान्तकश्चास्य क्षौ गुना चतुष्टयम् ।।
शुद्ध पारद, स्वर्ण भस्म, वैक्रान्त भस्म, और | भक्षणान्नात्र सन्देहो मूत्रकृच्छं निहन्त्यलम् । शुद्ध गन्धक समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी तुलसीतिलपिण्याकं विल्वमूलं तुषाम्बुना ॥ कजली बना लें और फिर उसमें स्वर्ण तथा वैक्रा- | कर्षकं वानुपानेन सुरया वा सुवर्चलः ॥ न्त मिलाकर उसे २-२ पहर मुरामांसी और शिव
पारद भस्म ( अभावमें रस सिन्दूर ), शुद्ध लिंगीके रसमें घोट कर गोला बना लें तथा उसे | हरताल, और शुद्ध तूतिया समान भाग लेकर सुखाकर सम्पुट में बन्द करके लघु पुटमें पकावें। सबको १ दिन शतावरके रसमें घोट कर गोला
इसे आधी रत्ती मात्रानुसार शहदमें मिलाकर | बना कर सुखा लें । तदनन्तर उसे १ पहर सरसोंके सेवन करनेसे मूत्रकृच्छू नष्ट होता है।
तेलमें पकायें और फिर चूर्ण करके रक्खें । (५६२२) मूत्रकृच्छ्रान्तकरसः (२)
इसे ४ रत्ती मात्रानुसार शहदके साथ मिला
कर निम्न लिखित अनुपानके साथ सेवन करनेसे (र. सा. सं. ; र. चं. । मूत्रकृच्छ्रा .)
मूत्रकृच्छ्र अवश्य नष्ट हो जाता है। रसगन्धयवक्षारं सितातक्रयुतं पिबेत् ।
अनुपान-तुलसी, तिलकी खल और बेलकी मूत्रकृच्छाण्यशेषाणि निहन्ति नियतं नृणाम् ॥
जड़की छालका समान भाग मिश्रित चूर्ण १ तोला शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक और जवाखार समान
लेकर उपरोक्त रस खानेके पश्चात्, कांजीमें भाग ले कर कज्जली बनावें।
मिलाकर पियें । अथवा-मद्यमें सञ्चल (काला इसे मिश्रीयुक्त तक्रके साथ सेवन करनेसे
नमक) डालकर पियें। समस्त प्रकारके मूत्रकृच्छू निस्सन्देह नष्ट हो
( रसकी व्यवहारिक मात्रा-१ रत्ती ) जाते हैं। ( मात्रा-३ रत्ती)
(५६२४) मून्तिकरसः
(र. चं. । मूर्छा.) (५६२३) मूत्रकृच्छ्रान्तकरसः (३)
| सिन्दूरे माक्षिकं हेम शिलाजत्वायसी तथा। (मूत्रकृच्छारिरसः)
शतमूल्या विदार्याश्च स्वरसेन विभावयेत् ॥ ( रसे. सा. सं. ; र. च. ; र. का. धे. ; र. र.।।
| श्लक्ष्णं पिष्ट्वा ततः कुर्याद्रटिका रक्तिसम्मिता। मूत्रकृच्छ्रा. ; रसे. चि. म. । अ. ९; र. रा.
रसो मूर्छान्तको हन्यादसौ मूछों शिवोदितः सु. । मूत्र कृ.)
___ रस सिन्दूर, स्वर्ण माक्षिक भस्म, स्वर्ण भस्म, शतावरीरसै: पिष्टा मृतमूतश्च तालकम् ।। शिखितुत्यश्च तुल्यांश दिनैक मईयेद् दृढम् ॥ १ ताम्रमिति पाठान्तरम् ।
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२४०
भारत-भैषज्य-रलाकरः
[मकारादि
.
शिलाजीत और लोह भस्म समान भाग लेकर इसे १ माशा मात्रानुसार शहदमें मिलाकर सबको शतावर और विदारी कन्दके रसकी पृथक् निम्न लिखित अनुपानके साथ सेवन करनेसे मेद, पृथक् १-१ भावना देकर १-१ रत्तीकी गोलियां शोथ, अग्निमांद्य, आमवात और कफज रोग नष्ट बनावें।
होते हैं। इनके सेवनसे मूर्छा नष्ट होती है । ( व्यवहारिक मात्रा-१-२ रत्तो ।) (५६२५) मूर्छाहररसः
अनुपान-पीपल, पीपलामूल, चव्य, चीता(र. का. घे. । मूर्छा.) मूल, सोंठ, काली मिर्च, हर्र, बहेड़ा, आमला, पांचो सूतं कणामधुयुतं मूर्छादाहहरं परम् । नमक (सेंधा, काला नमक, काच लवण, विड शीतशेकावगाहादि सर्व वा पीडनं हठात् ॥
| नमक और समुद्र नमक ) और बावचीका चूर्ण रससिन्दूरमें पीपलका चूर्ण और शहद
बराबर बराबर लेकर सबको एकत्र मिला लें । मिलाकर सेवन करनेसे मूर्छा तथा दाहका नाश उपरोक्त रस. खा कर १। तोला अनुपान चूर्ण होता है।
शहदमें मिलाकर चाटना चाहिये । मूर्छा रोगमें शीतल जलका शेक और अव
(अनुपानकी व्यवहारिक मात्रा -३-४ माशे ।) गाहन, एवं पीडन करना हितकर है।
(५६२७) मूलकुठाररसः (५६२६) मूर्तिरसः
(र. र. स. । अ. १५) ( वृ. यो. त. । त. १०४ )
| वरनागं तथा व्योमसत्त्वं शुल्वं च तीक्ष्णकम् । सूतं गन्धमयोभस्म समं सम्मेल्य भावयेत् । .
सर्वमेकत्र विद्राव्य क्षिप्त्वाऽऽलं चाल्पमल्पकम्॥ निर्गुण्डीपत्रतोयेन मुसलीकन्दवारिणा ॥
चालयेदनिशं रावत्तालकं त्रिगुणं खलु । ततः सिद्धममुं माषमात्रं रसमनुत्तमम् ।
ततस्तेन विमर्याथ पिष्टीं कुर्याद्रसेन तु ॥ लीवा क्षौद्रेण चाश्नीयाच्चूर्णमेषां पिचून्मितम्॥
ततो भल्लातकीक्षमूलान्तस्थां खनेच्च ताम् । षटकटुत्रिफलापश्चलवणावल्गुजस्य तत् ।। मेदः शोथाग्निमान्धामवात श्लेष्मगदपणुत् ॥
मासादाकृष्य तां पिष्टी गव्यदुग्धे विनिक्षिपेत्।।
१७ ॥ ततो भल्लातकातैलं हृतं पातालयन्त्रतः । ___शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक और लोह भस्म आयसे भाजने स्निग्धे पिष्टिकां तां निवेश्य च।। समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कञ्जली | प्रस्थमात्रं हि तत्तैलं जारयेदतियत्नतः । बनावें और फिर उसमें लोह भस्म मिलाकर सबको तत्तैलभावितर्गन्धैः पुटित्वा भस्मतां नयेत् ।। संभालुके पत्तों और मूसलीके रसमें १-१ दिन | ततः कार्तिकमासोत्थकोरण्टदलजै रसैः । घोटकर सुरक्षित रक्खें ।
रसं सम्मघ सम्म घर्मे संस्थाप्य मारयेत् ॥
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रसप्रकरणम् ]
तद्भस्म मेलयेत्पूर्वभस्मना समभागिकम् । वनसूरण निर्गुण्डीमहाराष्ट्रीभकर्णिका ।। raat शिखीचैषां रसैः पिष्ट्वा विशोषयेत् । त्रिवारं मार्कद्रावैर्भावयित्वा विशोषयेत् ॥ चूर्णीकृत्वा प्रयत्नेन क्षिपेत्काच करण्डके ॥ सोयं मूलकुठारको रसवरो दीप्यामिवेल्लोत्तमा संयुक्तः सघृतश्च वल्लतुलितः संसेवितो
चतुर्थी भागः
1
नाशयेत् । अशस्थानननासिक क्षिगुदजान्यत्युग्रपीडानि च प्लीहान ग्रहण च गुल्पयकृतौ मान्यं च कुष्ठामयान् ॥
( १-२ दिन पश्चात् ) लोहे की कढ़ाई में पाताल यन्त्रसे निकाला हुवा भिलावेका १ सेर तेल डालकर उसमें उक्त पिष्टी डालें और इतना पकावें कि समस्त तैल शुष्क हो जाय ।
२४१
घुटा हुवा शुद्ध गन्धक उपरोक्त पिष्टीके बराबर लेकर दोनोंको एकत्र खरल करके यथा विधि सम्पुटमें बन्द करके पुट दें । बार बार इसी प्रकार गन्धक योगसे पुट देकर भस्म तैयार कर लें । (२)
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कार्तिक मासमें उत्पन्न हुवे पियाबांसे के परसमें पारदको घोट घोटकर धूपमें सुखा कर भस्म बनावें ।
(३)
अब नं. १ और नं. २ की भस्में बराबर बराबर लेकर दोनों को एकत्र खरल करके बनसूरण ( जंगली जिमीकन्द ), संभाल, महाराष्ट्री (जलपीपल), हस्तिकर्णी, वज्रवल्ली (हड़जोड़ी), चित्तामूल और भंगरे के रसकी ३ - ३ भावना देकर सुखावें और चूर्ण करके सुरक्षित रक्खें ।
(१)
उत्तम जातिका शुद्ध सीसा, अभ्रक सत्व, शुद्ध ताम्र और तीक्ष्ण लोह समान भाग लेकर सबको एकत्र करके अग्निपर पिघलावें और उसमें थोड़ा थोड़ा शुद्ध हरतालका चूर्ण डालकर करछी से चलाते रहें । जब समस्त धातुओंसे ३ गुनी हरताल का चूर्ण समाप्त हो जाय तो उसे अग्निसे नीचे उतारकर उसमें उसके बराबर पारद मिलाकर भली भांति घोटकर पिष्टी ( पिट्ठी) बनावें और उसे (मिट्टी दृढ़ पात्र बन्द करके) भिलावेके वृक्षकी जड़में गाढ़ दें, एवं १ मास पश्चात् निकालकर गोदुग्धमें डाल दें।
|
इसमें से ३ - ३ रत्ती रस अजवायन, चीतामूल और बायबिडंगके चूर्ण तथा घृतके साथ नित्य सेवन करनेसे अर्श; मुख, नासिका और आंखोंके रोग, प्लीहा, संग्रहणी, गुल्म, यकृत्, अग्निमांध और कुछ नष्ट होता है ।
(५६२८) मृगजरसः ( र. र. र. पि. )
मृतं मृतं मृतं तीक्ष्णं तुल्यं वासाद्रवैर्दिनम् । मर्दितं माषमात्रन्तु भक्षयेन्मृगजं रसम् ॥ सर्पाक्षीमधुना लेह्यमनु स्याद्रक्तपित्तके ॥
पारद भस्म ( या रस सिन्दूर ) और तीक्ष्ण लोह भस्म समान भाग लेकर दोनोंको १ दिन
अब उपरोक्त विधि-निर्मित भल्लातक तैलमें | वासेके रस में घोटें ।
૩૧
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२४२
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भारत-:
- भैषज्य रत्नाकरः
इसे १ माशा मात्रानुसार सेवन करने से रक्तपित्त नष्ट होता है । ( व्यवहारिक मात्रा - २ रत्ती । )
अनुपान --- औषध खानेके पश्चात् सर्पाक्षी ( गन्ध नाकुली ) का चूर्ण शहद में मिलाकर चाटना चाहिये ।
(५६२९) मृगमालारसः ( र. र. । प्रमेह . )
मार्कण्ड त्रपु शीर्ष सुदग्धं मृगशृङ्गकम् कार्पासबीज जमज्जाश्च तुल्यमङ्कोलबीजकम् ॥ पेषयेन्महिषीत क्रेर्दिनैकं वटकीकृतम् । माषद्वयं सदा खादेन्मृगमाला प्रमेह जित् ॥ अक्षपाठाभयादार्वीकषायमनुपाययेत् ॥
मार्कण्डी ( भुईं खेखसा ) का चूर्ण, सीसाभस्म, अगरका चूर्ण और हरिनके सॉंगकी भस्म
तथा कार्पास बीज (बिनौले) की गिरी और अंकोल (ढेरा वृक्ष) के बीज समान भाग लेकर सबको एक दिन भैंसके तक्रमें खरल करके २ - २ माशेकी गोलियां बना लें 1
( र. र. | आमवाता. ) दग्धमनिर्गतधूमं मृगशृ गोघृतेन सह पीतम् । हृदयनितम्बज शुल
हरति शिखीदारुनिवहमिव ॥
इनमें नित्य प्रति १ गोली खाकर बहेड़ा, पाठा, हर्र और दारूहल्दीका काथ पीना चाहिये । इनके सेवन से प्रमेह नष्ट होता है । (५६३०) मृगशृङ्गभस्मयोगः
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[ मकारादि
हरिनके सांगको इस प्रकार भस्म करें कि धुवां बाहर न निकले ।
इसे गोघृत के साथ पीने से हृदय और नितम्बकी पीड़ा तुरन्त शान्त हो जाती है । ( मात्रा - २ से ४ रत्ती तक । ) (५६३१) मृगाङ्कपोटलीरसः (१)
;
( वृ नि. र. र. का. धे. । क्षय. ; यो. चि. म. । अ. ७; र. प्र. सु. ( अ. ८ ) भूर्जवत्तनुपत्राणि हेम्नः सूक्ष्माणि कारयेत् । तुल्यानि तान सूतेन खल्वे क्षिप्त्वा विमर्द्दयेत् ॥ काञ्चनाररसेनैव ज्वालामुख्यारसेन वा । लाङ्गल्या वा रसैस्तावद्यावद्भवति पिष्टिका ॥ ततो हेम्नचतुर्थांशं टङ्कणं तत्र निक्षिपेत् । तेषु सर्वसमं गन्धं क्षिप्त्वा चैकत्र मद्दयेत् । पिष्टमौक्तिकचूर्णच हेमद्विगुणमावपेत् ॥ तेषां कृत्वा ततो गोलं वासोभिः परिवेष्टयेत् ।। पश्चान्मृदा वेष्टयित्वा शोषयित्वा च धारयेत् । शरावसम्पुटस्यान्ते तत्र मुद्रां प्रदापयेत् ॥ लवणापूरिते भाण्डे धारयेत्तं च सम्पुटम् । मुद्रां दत्वा शोषयित्वा बहुभिर्गोमयैः पुटेत् ॥ ततः शीते समाहृत्य गन्धं सूतसमं क्षिपेत् । धृतं च पूर्ववत्खये पुटेद्गजपुटेन च ॥ स्वाङ्गशतं तो नीला गुञ्जायुग्मं प्रकल्पयेत् । अष्टभिर्मरिचैर्युक्तो कृष्णात्रययुतोथवा ॥ विलोक्य देयो दोषादीने कैका रसरक्तिका । सर्पिषा मधुना वापि दद्याद्दोषाद्यपेक्षया ॥ लोकनाथसमं पथ्यं कुर्यात्स्वस्थमनाः शुचिः । श्लेष्माणं ग्रहणीं कासं श्वासं क्षयमरोचकम् ॥ मृगाङ्कयं रसो हन्यात्कृशत्वं बलहा निताम् ॥
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रसपकरणम्
चतुर्थों भागः
२४३
४ भाग शुद्ध पारदमें ४ भाग शुद्ध सोनेके |
| इस पर " लोकनाथ रस " के समान पथ्य कण्टकवेधी पत्र डालकर अच्छी तरह घोटें । जब पालन करना चाहिये । स्वर्ण पारदमें मिल जाए तो उसे १-१ दिन कच
___(५६३२) मृगाङ्कपोटलीरसः (२) नार, हुलहुल और कलियारीके रसमें घोट कर उसमें १ भाग सुहागा और ८ भाग मोतीका
(र. र. स. । अ. १४) चूर्णx तथा १७ भाग शुद्ध गन्धक डालकर खरल शङ्खनाभिं गवां क्षीरैः पेषयेन्निष्कषोडश । करें । तदनन्तर उसका गोलो बनाकर उसके ऊपर तेन मृषा प्रकर्तव्या तन्मध्ये भस्ममृतकम् ॥ चार तह किया हुवा कपड़ा लपेट दें और उस पर
निष्काध गन्धकात्रीणि चूर्गीकृत्य विनिक्षिपेत् मिट्टीका लेप करके सुखा लें।
रुध्वा तद्वेष्टयेद्वस्त्रे मृत्तिका लेपयेद्धहिः॥ ____ अब इस गोलेको एक सम्पुटमें बन्द करके
शोष्यं गजपुटे पच्यान्मूपया सह चूर्णयेत् । उसके ऊपर ३-४ कपड़ मिट्टी करके सुखालें। फिर इस सम्पुटको सेंधा नमकके बारीक चूर्णसे भरी हुई
गुअामात्रः क्षयं हन्ति मृङ्गाङ्कपोटलीरसः ॥ हाण्डीमें नमकके बीचमें दबा दें और हाण्डीके १६ निष्क शंखको नाभिको गोदुग्धमें अत्यन्त मुखपर शराव ढक कर सन्धिको अच्छी तरह बन्द | महीन पीसकर उसकी मूषा ( ढक्कन समेत ) बना कर दें; एवं सुखाकर गजपुटमें फूंक दें।
कर सुखा लें । अब आधा निष्क (२॥ माशे) इसके पश्चात् पुटके स्वांग शीतल होने पर
पारद भस्म (या रस सिन्दूर ) और ३ निष्क शुद्ध उसमेंसे औषधको निकाल कर उसमें ४ भाग
गन्धक को एकत्र खरल करके उस मूषामें डालकर शुद्ध गन्धक मिलाकर पूर्वोक्त रसोंमें १-१ दिन खरल करें और उसी प्रकार शरावसम्पुटमें बन्द
उसके मुखको अच्छी तरह बन्द करदें एवं उस पर करके उसे लवणको हाण्डीमें रख कर गजपुटकी | कपड़ा लोट कर उसके ऊपर मिट्टीका ( २ अंगुल अग्नि दें। जब पुट स्वांग शीतल हो जाय तो | मोटा ) लेप करके सुखा लें । रसको निकालकर पीसकर सुरक्षित रक्खें। अब इसे गजपुटमें फूंक दें और स्वांग
इसे दोषादिका विचार करके १ या २ रत्ती शीतल होने पर निकाल कर ऊपरसे मिट्टी और कपमात्रानुसार ८ काली मिर्चीके चूर्ण या ३ पिप्पलीके
| डेकी राख को छुड़ाकर शंखकी मूषा सहित औषचूर्णके साथ मिला कर दोषानुसार घी या शहदमें
धको पीस लें। चटानेसे कफ, ग्रहणी दोष, खांसी, श्वास, क्षय, अरुचि, कृशता और निर्बलताका नाश होता है। इसके सेवनसे क्षय रोग नष्ट होता है ।
xरसप्रकाशसुधाकरमें मोतीका अभाव है। । मात्रा १ रत्ती।
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२४४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [मकारादि (५६३३) मृगाङ्करसः (१) नमकके बीचमें रखकर ४ पहर पाक करें । तदनन्तर (रसे. सा. सं. ; र मं ; भै. र. । यक्ष्मा. ; यो. जब हाण्डी स्वांग-शीतल हो जाय तो सम्पुट में से तं. । त. २७; र. का. धे. । क्षय. ; र. चं.; .
औषधको निकालकर सुरक्षित रक्खें । र. रा. सु. । राजयक्ष्मा. ; वृ. यो. त.। इसे काली मिर्चके (आधा माशा) चूर्ण या १०
तं. ७६; यो. र. । राजयक्ष्मा.) पिप्पलीके चूर्णमें मिलाकर शहदके साथ सेवन करस्याद्रसेन समं हेम मौक्तिकं द्विगुणं भवेत् ।
नेसे राजयक्ष्माका नाश होता है । गन्धकञ्च समं तेनी रसतुल्यन्तु टङ्कणम् ।।
। मात्रा-४ रत्ती । ( ४ रत्तीकी २-३ मात्रा तत्सर्वं गोलकं कृत्वा काञ्जिकेन च पेषयेत् ।
करें।) भाण्डे लवणपूर्णथ पचेद्यामचतुष्टयम् ॥ परहेज-बैंगन, बेल, तेल और करेला न मृगाङ्कसंज्ञको ज्ञेयो राजयक्ष्मनिकृन्तनः। | खावें । स्त्री समागमका नाम भी न लें और क्रोध गुनाचतुष्टयश्चास्य मरिचैः सह भक्षयेत् ॥ न करें। पिप्पलीदशकै पि मधुना सह लेहयेत् ।
(५६३४) मृगाङ्करसः (२) वृन्ताकबिल्वतैलानि कारवेल्लश्च वर्जयेत् ।
(र. चं. । वात.) स्त्रियं परिहरेद्रं कोपश्चापि विवर्जयेत् ॥
श्वेतमल्लस्तु भागैको तत्समं तालकं शिला । शुद्ध पारद १ भाग और शुद्ध स्वर्णके पत्र दो
कांक्षिका मल्लभागा तु सर्व खल्ले विचूर्णयेत्॥ भाग लेकर दोनोंको एकत्र मिलाकर घोटें । जब
। जब पञ्चरत्नस्य विधिना पाचयेन्मन्दवहिना । स्वर्ण पारदमें मिल जाय तो उसमें २ भाग मोतीका |
स्वर्णाभो ऊर्ध्वगो ग्राह्यो मृगाङ्को रस उत्तमः ॥ चूर्ण और १ भाग ( या ४ भाग ) शुद्ध गन्धक
सर्ववातगदे चैव हिकाया कुष्ठरोगिणे । एवं १ भाग सुहागा मिलाकर सबको काञ्जीमें घोट
घृतशर्करया देयो दुग्धानं पथ्यमुत्तमम् ॥ कर गोला बनावें और उसे सुखाकर शराव सम्पुट में
तक्रान्नं वा शीतवारि उष्णद्रव्यं विवर्जयेत् ॥ बन्द करके सेंधा नमकके चूर्णसे भरी हुई हाण्डीमें
शुद्ध सफेद सोमल (संखिया), शुद्ध हरताल, * रसपादमिति पाठान्तरम् ।
शुद्ध मनसिल और फिटकरी समान भाग लेकर १. 'गन्धकञ्च समं तेन ' का अर्थ कई सबको एकत्र पीसकर "मल्ल पञ्च रत्न" में कथित टीकाकारोंने " गन्धक मोतीके बराबर " किया विधिके अनुसार मन्दाग्निपर पाक करें और फिर है परन्तु इसका अर्थ — गन्धक पारदके समान' ऊपरके पात्रमें लगे हुवे सुनहरे रंगके फूल (जौहर) भी हो सकता है और अनेक ग्रन्थोंमें “रस प्रमा- को छुड़ाकर सुरक्षित रक्खें । णाबलिः " पाठ है भी । कई टीकाकारोंने गन्धक यह रस समस्त वातज रोगों, हिक्का और ४ भाग भी लिखा है।
कुष्ठको नष्ट करता है।
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रसमकरणम्
चतुर्थों भागः
२४५
अनुपान-घी और खांड ।
हाण्डीके स्वांग शीतल हो जानेपर सम्पुटमें से पथ्य-दूध, भात या तक भात और शीतल औषधको निकालकर खरल करके रक्खें। जल ।
___ इसे काली मिर्चके चूर्ण और घीके साथ अथवा अपथ्य-उष्ण द्रव्य ।
पीपलके चूर्ण और शहदके साथ सेवन करनेसे ( मात्रा-२ चावल ।)
क्षय, अग्निमांद्य और संग्रहणीका नाश होता है । (५६३५) मृगाङ्करसः (३)
मात्रा-३ रत्ती। (वृ. नि. र. । क्षय.)
पथ्यापथ्य-इस पर ' लोकनाथ रस' के
समान पथ्य पालन करना और पित्तकारक द्रव्योंका रसवलितपनीयं योजयेत्तल्यमार्ग
त्याग करना चाहिये। तदनु युगलभागं मौक्तिकानां शुभानाम् ।। यवजचरणभागं मर्दयेत्सर्वमेतद्
(५६३६) मृगाङ्करसः (४) दिनमपि तुषवारा गोलकं लध्धमत्रे ॥
(हेममृगाङ्करसः) विधाय मुद्रां विदधीच भाण्डे
(र. र. । क्षष. . चुल्यां समुद्रे लवणेन पूर्ण ।
रसभस्म स्वर्णभस्म निष्कं निष्कं प्रकल्पयेत् । दिनं पञ्चानु मृगाङ्कनामा
शङ्खगन्धकमुक्तानां द्वौ द्वौ निष्कौ तु चूर्णयेत् ॥ ___ क्षयाग्निमान्यग्रहणीविकारे ।
मुक्ताभावे वराटी वा रसपादं च टङ्कणम् । योज्यः सदा वल्लिजसर्पिषा वा
वतयारनाल क्वाथेन मदेयेत्महरद्वयम् ॥ कृष्णा मधुभ्यां सततं त्रिगुञ्जः।
तद्गोलकं विशोष्याथ भाण्डे लवणपूरिते । वयं सदा पित्तकरं हि वस्तु लोकेशवत्पथ्यविधिनिरुक्तः ॥
| पचेद्यामचतुष्कञ्च मृगाङ्कोयं महारसः ॥
रोगराजनिवृत्त्यर्थ चतुर्गुञ्जामितं घृतैः । शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक और शुद्ध स्वर्ण पत्र ।
दातव्यं मरिचैः सार्ध पिप्पली मधुनापि वा ।। १-१ भाग, मोतीका चूर्ण २ भाग तथा जवाखार चौथाई भाग लेकर प्रथम पारदमें सुवर्ण डालकर
___पारद भस्म ( या रस सिन्दूर ) और स्वर्ण घोटें और जब दोनों मिल जाएं तो अन्य ओष
भस्म १-१ निष्क तथा शङ्ख भस्म, शुद्ध गन्धक धियां डालकर सबको १ दिन काञ्जीके साथ घोट
और मोतीका चूर्ण; मोतीके अभावमें कौड़ी भस्म कर गोला बना लें। इसे सुखाकर शरावसम्पुटमें
२-२ निष्क और सुहागा चौथाई निष्क लेकर बन्द करके उसे समुद्र नमकके चूर्णसे भरी हुई
सबको एकत्र पीसकर चीतामूलके काथ और हाण्डीमें नमकके बीचमें रक्खें और उस हाण्डीको १ मुक्तापादमिति पाठान्तरम् । . चूल्हे पर चढ़ाकर १ दिनकी अग्नि दें। तत्पश्चात् । २ वरारसेनेति पाठान्तरम् ।
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२४६
कांजी में २-२ पहर घोटकर गोला बनावें और उसे सुखाकर शरोवसम्पुट में बन्द करके ४ पहर लवण यन्त्र में पकावें और फिर यन्त्रके स्वांग शीतल होने पर उसमें से औषधको निकालकर सुरक्षित रक्खे |
- भैषज्य रत्नाकरः भारत
इसे काली मिर्च के चूर्ण और घीके साथ अथवा पीपलके चूर्ण और शहद के साथ सेवन करने से राजयक्ष्माका नाश होता है ।
मात्रा - ४ रत्ती ।
(५६३७) मृगाङ्करस: (५) (महा) ( र. चं. ; र. सा. सं. ; भै. राजयक्ष्मा. )
र. र. रा. सु. ।
freeeen सौवर्ण द्विगुणं भस्मसूतकम् 1 द्विगुणं भस्म मुक्तोत्थं शुकपुच्छं चतुर्गुणम् ॥ मृतताप्यं च पश्चांशं तारभस्म चतुर्गुणम् । सप्तभागं प्रवालं च रसतुल्यं च टङ्कणम् ॥ सर्वमेकत्र सम्म त्रिदिनं लुङ्गवारिणा । ततश्च गोलकं कृत्वा शोषयित्वा खरातपे || लवणैः पात्रमापूर्य तन्मध्ये गोलकं क्षिपेत् । तन्मुखं तु मृदा रुध्वा पचेद्यामचतुष्टयम् ॥ आकृष्य चूर्णयेत् शुद्धं चतुःषष्टीविभागतः । वज्रं वा तदभावे तु वैक्रान्तं षोडशांशिकम् ॥ महामृगाङ्कः खलु एष सिद्धः श्रीनन्दिनाथप्रकटीकृतोऽयम् । वल्लास्य सेव्यो मरिचाज्ययुक्तः सेव्योऽथ वा पिप्पलिकासमेतः ॥ तत्रोपचाराः कर्तव्याः सर्वे क्षयगदोदिताः । बल्यं व्रुष्यं च भोक्तव्यं त्यजेत्सुतविरोधि यत्
[मकारादि
यक्ष्माणं बहुरूपिणं ज्वरगर्द गुल्मं तथा विद्रधिम् । मन्दात्रं स्वरभेदकासम - रुचिं वान्ति च मूर्च्छा भ्रमिम् ॥ अष्टावेव महागदान्ग्रह
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गदान पाण्ड्वापयं कामलान् । पित्तोत्थांश्च समग्रकान् बहुविधानन्यांस्तथा नाशयेत् ॥
निरुत्थ स्वर्ण भस्म १ भाग, पारद भस्म २
भाग, मुक्ता भस्म २ भाग, शुद्ध गन्धक ४ भाग, स्वर्ण माक्षिक भस्म ५ भाग, चांदी भस्म ४ भाग, प्रवाल (मूंगा) भस्म सोत भाग और सुहागा २ भाग लेकर सबको एकत्र पीसकर ३ दिन बिजौरे नींबू के रसमें घोटें और उसका गोला बनाकर तेज धूप में सुखा लें । तदनन्तर इस गोलेपर कपड़ा
लपेटकर उसपर १ अंगुल मोटा मिट्टीका लेप कर दें और उसे सुखाकर नमक के चूर्णसे भरी हुई हाडी में नमक के बीच में रख दें; तथा हाण्डीके मुख पर शराव ढक कर सन्धिको मिट्ठीसे बन्द करके ४ परकी अग्नि दें। तत्पश्चात् हाण्डीके स्वांग शीतल होनेपर उसमेंसे औषधको निकालकर उसमें उसका ६४ वां भाग हीराभस्म और उसके अभा१६ वां भाग वैकान्त भस्म मिलाकर खरल
कर रक्खे |
मात्रा - ३ रत्ती ।
अनुपान - काली मिर्च का चूर्ण और घी अथवा पीपलका चूर्ण और घी ।
भै. र. व. में हीरक भस्म १ भाग लिखी है ।
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रसमकरणम्]
चतुर्थों भागः
२४७
इसके सेवनसे बहुरूपयक्ष्मा, ज्वर, गुल्म, शुद्ध पारद और स्वर्ण भस्म १-१ भाग ले विद्रधि, अग्निमांद्य, स्वर-भेद, खांसी, अरुचि, कर दोनोंको एकत्र करके एक दिन जम्बीरी नींबूके वमन, मूर्छा, भ्रम, अष्ट महारोग, ग्रहपीड़ा, रसमें घोटें और फिर उसमें ४ भाग ताम्र भस्म, पाण्डु, कामला, पित्तज रोग और अन्य अनेक रोग ६ भाग शुद्ध गन्धक और ३ भाग सुहागा मिलानष्ट होते हैं।
कर सबको ४ पहर जम्बीरी नीबूके रसमें घोट कर इसके सेवन कालमें क्षय रोगोचित पथ्यादि गोला बनावें; और उसे (सुखाकर) चार तह किये पालन करना; और रसविरुद्ध आहार विहारका
हुवे कपड़े में लपेट कर दोलायन्त्र-विधिसे १ पहर त्याग करके बल-वीर्य-वर्द्धक आहार सेवन | कांजीमें पकावें । तत्पश्चात् इस गोलेको सुखाकर करना चाहिये।
एक कपड़ेमें लपेटें और उस पर मिट्टीका एक
अंगुल मोटा लेप करदें । अब इसे सुखा कर, एक __ (५६३८) मृगाङ्करसः (६) (महा)
हाण्डीमें नीचे दो अंगुल सेंधा नमकका चूर्ण बिछा(र. र. ; र. का. धे. । राजयक्ष्मा; रसे. चि. म. Ix कर, उसपर रखें और हाण्डीको मुंह तक सेंधा
अ. ९; यो. चि. म. । अ. ७) नमकके चूर्णसे भर दें । इसके पश्चात् हाण्डीके शुद्धं सूतं स्वर्णभस्मजम्बीरैर्मईयेदिनम् ।
मुखको बन्द करके, उसे चूल्हे पर चढ़ाकर १ दिन
क्रमशः मृदु मध्यम तीब्राग्नि दें। तदनन्तर जब तयोर्द्विगुणितं तानं त्रिभिस्तुल्यन्तु गन्धकम् । टणं गन्धकार्द्धश्च सर्व जम्बीरजैद्रवैः ।।
हाण्डी स्वांग शीतल हो जाय तो उसमेंसे रसको
निकाल कर खरल करें। मर्ये यामैश्चतुर्भिस्तद्वस्त्रे बद्धवा विपाचयेत् ॥ दोलायन्त्रे चारनाले यामादुद्धृत्य शोषयेत् ।
इसे १० काली मिर्ची के चूर्ण और घी तथा ततो मृन्मयभाण्डान्तर्लवणश्चाङ्गुलद्वयम् ॥
मिश्रीमें मिलाकर अथवा पीपलके चूर्ण और शहदके ऊवाधः पृष्ठतः कृत्वा गोलकं वस्त्रवेष्टितम् । साथ सेवन करनेसे राजयक्ष्मा रोग नष्ट हो लवणैः पूरयेद्भाण्डमन्धयित्वा दिनं पचेत् ॥ जाता है । चुल्ल्यां क्रमानिसिद्धः स्याद्रसो महामृगाङ्ककः ।
___ (५६३९) मृगाङ्करसः (७) (स्वल्प) अनेनैव प्रकारेण महाङ्कान्पाचयेद्रसान् ॥ राजरोगनिवृत्यर्थ देयं सिता घृतन्तु तैः ।।
(र. र. ; र. चं. ; र. का. धे. ; र. रा. सु.। क्षय.) दशभिर्मरिचैः सार्दै पिप्पलीमधुनापि वा ॥ रसभस्महेमभस्म तुल्यं गुञ्जाद्वयं पृथक ।
पूर्ववदनुपानेन मृगाङ्कोऽयं क्षयापहः॥ x रस कामधेनु, रसे. चि. म. में(१) ताम्रके स्थानमें मुक्ता है।
समान भाग पारद भस्म और स्वर्ण-भस्म (२) सुहागा स्वर्णसे आधा है। | एकत्र मिलाकर पीपलके चूर्ण और शहदके साथ
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
अथवा काली मिर्चके चूर्ण और घीके साथ सेवन । इसे शहद और घीमें चाटकर ऊपरसे पका करनेसे राजयक्ष्मा रोग नष्ट होता है । कर ठंडा किया हुवो दूध पीना और फिर पान मात्रा २ रत्ती।
खाना चाहिये। नोट-" राज मृगाङ्क रस" रकारादि रस
इसे १ मास तक सेवन करनेसे सैकड़ों प्रकरणमें और "स्वर्ण राज मृगाङ्क रस" सका
स्त्रियोंसे रमण करनेकी शक्ति प्राप्त होती तथा शरीर रादि रस प्रकरणमें देखिये ।
कामदेव-सदृश रूपवान हो जाता है। (५६४०) मृतकन्दर्पजीवनरसः
____ इसे दीर्घ काल तक सेवन करनेसे वृद्ध पुरुष (र. चं. | वाजीकरण.)
युवाके समान हो जाता है। इसके सेवनसे बलि
पलित-रहित १०० वर्षकी रोग रहित आयु प्राप्त रसभस्माभ्रक वङ्ग तीक्ष्णं कस्तूरिकाञ्चनम् ।
होती है। आकल्लकं लवङ्गं च दरदं जातिपत्रिका ॥
इसे यथोचित अनुपानके साथ अनेक रोगों में जातिफलं धृतबीजं सममेकत्र मर्दयेत् ।। ताम्बूलीस्वरसेनैव तथाऽऽकरसेन वै ॥
| प्रयुक्त कर सकते हैं। बल्लैकप्रमिता मात्रा लेहयेन्मधुसर्पिषा।
इस पर नित्य स्निग्धान्न सेवन करना और शृतशीतं पयः पीत्वा ताम्बूलं भक्षयेत्सधीः॥ तेल तथा खटाईका त्याग करना चाहिये । मासमात्रप्रयोगेन मृतकन्दर्पजीवनम् । | (५६४१) मृतजीवनरसः रमेद्रामाशतं नित्यं कामतुल्यो नरो भवेत् ॥
(र. र. स. । अ. १२) सतताभ्यासयोगेन वृद्धोऽपि तरुणायते ।।
| कुष्माण्डचूर्णतिलजैः प्रविशुद्धतालं जीवेद्वर्षशतं साग्रं वलीपलितवर्जितः ॥
. गाढं विमद्य सुषवीसलिलेन तुल्यम् । सर्वरोगानिहन्त्याशु नात्र कार्या विचारणा।।
। मूतेन हिङ्गुलभुवा सिकताख्ययन्त्रे तत्तद्रोगानुपानेन सर्वरोगेषु योजयेत् ॥
| गोलं विधाय परिवृत्तकपालमध्ये ।। स्निग्धान योजयन्नित्य तलाम्ल वजयत्सुधाः । पत्रेण तं दिनपतेश्च पिधाय रुध्वा
पारद भस्म, अभ्रक भस्म, बङ्ग भस्म, | सन्धि तयोर्गुडसुधाखटिकाशिवाभिः । तीक्ष्ण लोह भस्म, कस्तूरी, स्वर्ण भस्म, अकरकरा, वहौ पचेन्मृदनि पात्रशिरःस्थशालीलौंग, शुद्ध हिंगुल, जावत्री, जायफल और धतूरके | वैवयंमात्रमवधि प्रविधाय धीमान् ।। शुद्ध बीज, समान भाग लेकर सबको एकत्र |
वल्लं ततः सुरसमिश्रममुष्य दद्यामिला कर १-१ दिन पान और अदरकके रसमें
सर्पिः सिताकणमधृनि पयोऽनुपेयम् । घोटकर सुरक्षित रखें।
जेतुं ज्वरान्प्रविषमानिह वान्तिशान्त्यै मात्रा--३ रत्ती।
| मौलौ सुशीतलजलस्य ददीत धाराम् ॥
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
२४९
अथामयान्तं रसराजमौलिं
ततो क्त्सनाभेन हैमैश्च बीजै भूषामणिं तं मृतजीवनाख्यम् ।
रसैर्भावयेच त्रिवारं त्रिवारम् ॥ सुधारसेनेव रसेन येन
कटुन्यादिजैः पञ्चवारं ततःस्यासभीवनं स्यात्सहसाऽऽतुराणाम् ।। __दयं सूतराजो मृतप्राणदायी। पेठेके रस, चूनेके पानी और तिलके तेलमें ज्वरे सनिपाते ज्वरे नूतने वा शुद्ध की हुई हरताल तथा हिंगुलोत्थ पारद .समान महाश्लेष्मरोगे च गुञ्जाप्रमाणम् ॥ भाग लेकर दोनोंको करेलेके रसके साथ एकत्र घोट पयः पायसं दाधिक तक्रभक्तं कर गोला बनावें; और उसे सुखाकर एक मृत्पात्र में . सिता वा नवे हि ज्वरे चाऽऽनीरैः। रक्खें तथा उसके मुख पर शुद्ध ताम्रका ढक्कन ज्वरे चातिसारे घनद्रावयुक्ते ढककर दोनोंकी सन्धिको गुड़, चूना, खिड़िया . ग्रहण्यर्शसां क्षौद्रयुक्तं सिताऽऽढयम् ॥ मिट्टी और हर्रके कल्कसे बन्द कर दें । तदनन्तर चले स्नायुगे त्रिकद्दग्निपीतं उसे बालुकायन्त्रमें रखकर उसके ऊपर दो चार
प्रकम्पेऽपवाहकएकाङ्गवाते । धानके दाने डालकर उस यन्त्रको अग्नि पर चढ़ा दें
अपस्मारमुन्मादवातं निहन्ति और उस समय तक मन्दाग्नि पर पकावें जब तक कि
प्रयुक्तः सितापश्चभिधूतबीजैः ॥ वे धान विकृत न हो जाएं । तत्पश्चात् पात्रके स्वांग
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, सुहागेकी खील, शीतल होने पर उसमेंसे औषधको निकाल कर
शुद्ध बछनाग ( मीठा विष ) और धतूरेके शुद्ध पीस कर रक्खें।
बीजोंका चूर्ण समान भाग ले कर सबको एकत्र इसे १ वल्ल ( ३ रत्ती) मात्रानुसार तुल
| मिलाकर १ पहर खरल करें और फिर उसे क्रमशः सीके स्वरसके साथ खिलाकर ऊपरसे दूधमें घी,
बछनाग तथा धतूरके बीजोंके काथकी ३-३ मिश्री, पीपलका चूर्ण और शहद डालकर पिलाना
एवं त्रिकुटेके काथकी ५ भावना दें। चाहिये। इसके सेवनसे विषम ज्वर और वमन नष्ट
___ मात्रा-१ रत्ती।
पथ्य-दूध, खीर, दही, तक्र, भात और ___यदि दाह हो तो शिर पर शीतल जलकी धार
मिश्री। छोड़नी चाहिये।
अनुपान-इसे नवीन ज्वरमें अद्रकके रसके (५६४२) मृतप्राणदायी रसः साथ; ज्वरातिसारमें मोथेके काथके साथ; ग्रहणीमें
(वृ. नि. र. । सर्व ज्वरा.) शहदके साथ; अर्शमें मिश्रीके साथ; स्नायुगत रसं गन्धकं टङ्कणं वत्सनाभं | वायुमें त्रिकटु और चीतेके काथके साथ एवं प्रकम्प ___ समं मदयेद्धर्तबीजेन यामम् । । ( कम्पवात ), अपबाहुक, एकाङ्गवात, अपस्मार
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२५०
भारत - भैषज्य रत्नाकर:
[ मकारादि
और उन्माद में धतूरेके ५ बीजोंके चूर्ण और संभालुके हरे (ताज़े) डण्डे से चलाते रहें । जब दो मिश्री के साथ देना चाहिये ।
भाग गन्धक जल जाय और पारद तथा सीसेकी भस्म हो जाय तो अग्नि देनी बन्द कर दें और कढ़ाईको चूल्हे से नीचे उतार लें तथा उसमें १ भाग शंखनाभिकी भस्म मिलाकर घोटें फिर १-१ भाग शुद्ध हिंगुल और पारद तथा ल्हसनका चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह खरल करें और सूक्ष्म चूर्ण हो जाने पर कपड़े से छान कर सुरक्षित रक्खें ।
यह रस नवीन ज्वर, सन्निपात और कफ रोगोंमें उत्तम है ।
(५६४३) मृतसञ्जीवनरसः (१) (र. रा. सु. । सन्निपाता. ) नागं मुद्रावितं कृत्वा शुद्धं सूतं समं क्षिपेत् । सूत । द्विगुणगन्धं च चूर्णीकृत्य शनैः शनैः ॥ निक्षिप्य चालयेद्दण्डैः सार्द्रनिर्गुण्डिसम्भवैः । नागं सूतं मृतं ज्ञात्वा हिमज्वालानिवर्तितम् ॥ चुल्ह्यादुत्तार्य यत्नेन क्षारं धवलनाभिजम् । चूर्णितं सूततुल्यं च निक्षिपेन्मर्दयेत्तथा ॥ दरदं पारदं तुल्यं योजयेत्सम्प्रदायवित् । यवनेष्टभत्रं चूर्णं तत्तुल्यं योज्य यत्नतः ॥ विमर्ध वस्त्रपूतं च कृत्वा रक्षेत् सुभाजने कंवा द्विगु वा आर्द्रकस्य रसेन च ॥ जिहके सन्निपाते च प्रकुर्यात्प्रतिसारणम् । प्रकृतिं चानयेज्जिह्वास्तम्भं चापि हनुग्रहम् ॥ तथा च पिच्छलास्यं च मन्यास्तम्भशिरोग्रहम् । अर्दितं च जयेदाशु श्रीमद्गोरक्षशासनात् ॥ गुआमात्रं च दातव्यं बहुदोषे घृते सति । शुष्कां विचेष्टितां जिह्वां शुकजिह्वोपमां तथा ॥ प्रकृतिं चानयेत्क्षिमं नात्र कार्य्या विचारणा । मृतसञ्जीवनो ह्येष सम्प्रदायक्रमागतः ॥ नागादिद्रावणार्थेषु लोहपात्रं प्रकल्पयेत् ॥
।
१ भाग शुद्ध सीसेको लोहेकी कढ़ाई में पिघला कर उसमें १ भाग शुद्ध पारद डालें और फिर थोड़ा थोड़ा शुद्ध गन्धकका चूर्ण डालकर
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इसमें से १-२ रत्ती रस अद्रकके रस में मिलाकर कि सन्निपातमें रोगीकी जिह्वा पर मलने से जिह्वा - स्तम्भ, गलग्रह, पिच्छिलास्यता ( मुंहकी चिपचिपाहट ), मन्यास्तम्भ, शिरोग्रह और अर्दितका नाश हो कर जिह्वा प्रकृतिस्थ हो जाती है ।
यदि दोषोंकी प्रबलता हो तो इसमें से १ रत्ती रस खिलाना भी चाहिये । इसके खिलाने से जिह्वाकी शुष्कता और जड़ता दूर हो जाती है तथा उसका रंग भी ठीक हो जाता है ।
(५६४४) मृतसञ्जीवनरसः (२)
I
( यो. र. ; रसें. सा. स. । ज्वरातिसार ; वृ. यो. त. । त. ६४ ; र. र. ; . र. । ज्वरा. ; रसें. चि. म. । अ. ९; २. का. धे. । अति. ) reat समग्र सुतपादं विषं क्षिपेत् । सर्व्वतुल्यं मृतञ्चाभ्रं मद्यं धूस्तूर जैद्रवैः ॥ सर्पाक्ष्याच मं कषायेणाथ भावयेत् । धातक्यतिविषा मुस्तं शुण्ठी जीरकबालकम् ॥ यमानी धान्यकं बिल्लं पाठा पथ्या कणान्वितम् कुटजस्य त्वचं बीजं कपित्थं बालदाडिमम् ॥
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
२५१
प्रत्येकं कर्षमात्रं स्यात्कुट्टितं क्वाथयेज्जलैः। अनुपान-सोंठ, अतीस, नागरमोथा, देवचतुर्गुणं जलं दत्त्वा यावत्पादावशेषितम् ॥ दारु, पीपल, बच, अजवायन, सुगन्धबाला, अनेन त्रिदिनं भाव्यं पूर्वोक्तं मर्दितं रसम। धनिया, कुड़ेकी छाल, हरी, धायके फूल, इन्द्रजौ, रुद्धा तद्वालुकायन्त्रे क्षणं मृद्वग्निना पचेत् ॥
| बेलगिरी, पाठा और मोचरस समान भाग ले कर
चूर्ण बनावें। मृतसञ्जीवनो नाम चास्य गुाचतुष्टयम् । दातव्यमनुपानेन चासाध्यमपि साधयेत् ॥ उपरोक्त रस खा कर यह चूर्ण (१-१॥ षट्प्रकारमतीसारं साध्यासाध्यं जयेध्रुवम् ॥ माशा ) शहदमें मिलाकर चाटना चाहिये । नागरातिविषा मुस्तं देवदारु कणावचा। (५६४५) मृतसञ्जीवनो रसः (३) यमानी बालकं धान्यं कुटजत्वक हरीतकी ॥
( भै. र. : र. का. धे. ; र. चं., र. म. । धातकीन्द्रयवौ बिल्वं पाठा मोचरसं समम् ।
ज्वरा.; र. रा. सु. । ज्व. ) चूर्णितं मधुना लेह्यमनुपानं सुखावहम् ॥
म्लेच्छस्य भागाश्चत्वारो जेपालस्य त्रयो मताः। शुद्ध पारद और गन्धक ४-४ भाग, शुद्ध
द्वौ भागौ टङ्कणस्यैव भागैकममृतस्य च ॥ बछनाग (मीठा विष) १ भाग और अभ्रक भस्म
तत्सर्वं मर्दयेत्सूक्ष्मं शुष्कं याम भिषग्यरः। ९ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें
शृङ्गवेराम्बुना देयो व्योषचित्रकसैन्धवैः ।। और फिर उसमें बछनाग तथा अभ्रक मिलाकर सबको १-१ पहर धतरे और साक्षीके रसमें
गुनाद्वयमितस्तापं हरत्येष विनिश्चयः । घोटें और फिर धायके फूल, अतीस, नागरमोथा,
घनसारेण युक्तेन चन्दनेन विलेपयेत् ॥ सोंठ, जीरा, सुगन्धवाला, अजवायन, धनिया, बेल
विदध्यात्कांस्यपात्रे च सेचयेद्रोगिणं भिषक् । गिरी, पाठा, हर, पीपल, कुड़ेकी छाल, इन्द्रजौ,
शाल्यन्नं तक्रसहितं भोजयेदिक्षुसंयुतम् ।। कैथ और कच्चा अनार ११-१। तोला लेकर
सन्निपाते महाघोरे त्रिदोषे विषमज्वरे । सबको कूट कर आठ गुने पानीमें पकावें और जब
आमवाते वातशूले गुल्मे प्लीहि जलोदरे ॥ चौथा भाग रह जाए तो छान लें, तदनन्तर इस शीतपूर्वे दाहपूर्व विषमे सततज्वरे । काथसे उक्त रसको ३ दिन खरल करके शराव- अग्निमांद्ये च वाते च प्रयोज्योऽयं रसेश्वरः॥ सम्पुटमें बन्द करें और उसे थोड़ी देर बालुका मृतसञ्जीवनं नाम ख्यातोऽयं रससागरे ॥ यन्त्रमें मन्दाग्नि पर पका लें।
शुद्ध हिंगुल ४ भाग, शुद्ध जमालगोटा ३ इसमेंसे ४ रत्ती औषध उचित अनुपानके | भाग, सुहागेकी खील २ भाग और शुद्ध बछनाग साथ देनेसे छः प्रकारके असाध्य अतिसार भी नष्ट | (मीठा विष) १ भाग लेकर सबको १ पहर तक हो जाते हैं।
अच्छी तरह खरल करके महीन चूर्ण बनावें ।
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२५२
भारत - भैषज्य - रत्नाकरः
[ मकारादि
नमकके चूर्णमें मिलाकर अदरक के रसके साथ देनेसे सन्निपात, विषमज्वर, आमवात, वात शूल, गुल्म, प्लीहा; जलोदर, शीतपूर्व और दाह पूर्व ज्वर और अग्निमांद्य तथा वायुका नाश होता है ।
इसे सोंठ, मिर्च, पीपल, चीता और सेंधा | काचकूप्यां निवेश्याथ वालुकायन्त्रगे पचेत् । द्वियामान्ते समुद्धृत्य मर्दयेदार्द्रकैर्द्रवैः || मृतसञ्जीवनो नाम रसोऽयं शङ्करोदितः । मृतोपि सन्निपातार्त्ती जीवत्येव न संशयः ॥
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१ भाग शुद्ध पारद और २ भाग शुद्ध गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें १ - १ भाग अभ्रक भस्म, लोह भस्म, ताम्र भस्म, शुद्ध
मात्रा - २ रत्ती । यदि ज्वर में सन्ताप अधिक हो तो चन्दन और कपूरको एकत्र घिसकर शरीर पर लेप करना तथा नाभिपर कांस्य पात्र रखकर उसमें शीतल जलकी धारा छोड़नी चाहिये ।
कार | (५६४६) मृतसञ्जीवनो रसः (४) (बृ. नि. र. । ज्वरा. ; रसे. सा. सं. ; भै. र. ।
नाग, शुद्ध हरताल, कौड़ी भस्म, शुद्ध मनसिल, शुद्ध हिंगुल, चीता, हाथीसूंडी, अतीस, सोंठ, मिर्च, पीपल और स्वर्णमाक्षिक भस्म मिलाकर पथ्य-शालि चावलोंका भात, तक्र और सबको ३ - ३ दिन अदरक, संभाल और भांग के रसमें घोट कर आतशी शीशी में भरकर बालुकायन्त्र २ पहरकी अग्नि दें । तदनन्तर शीशीके स्वांग शीतल होने पर उसमेंसे औषधको निकाल कर उसे १ दिन अदरक के रसमें घोट कर सुरक्षित रक्खे |
ज्वरा. ; र. रा. सु. । ज्वरा. ; र. का. धे । ज्वरा. ; र. र. स. । अ. १२) * शुद्धतं द्वागन्धं खले तत्कज्जलीकृतम् । अभ्रलोकयोर्भस्म ताम्र भस्मसमं समम् ॥ विषं तालं वराटश्च शिलाहिङ्गुल चित्रकान् । हस्तिशुण्डी चातिविषा त्र्यूषणं हेममाक्षिकम् ॥ चूर्ण विमर्दयेारार्द्रकस्य दिनत्रयम् । निर्गुण्डीं विजयाद्रावैस्त्रिदिनं मर्दयेत्पुनः ॥
*र. का. धे. तथा र. रा. सु. में - ( १ ) कौड़की भस्म स्थान में कंकुष्ट लिखा है ।
"
(२) “ भृंगी कुम्भी मेघनादं प्रति चूर्ण रसां - शकम् पाठ चौथी पंक्तिके पश्चात् अधिक है। (३) छठी पंक्तिके पश्चात् " जम्बीरस्य च चाङ्गेर्या द्रवैः सम्मर्दयेद्दिनम् " पाठ अधिक है ।
इसे खिलाने से मृत्प्रायः सन्निपात रोगी भी स्वस्थ हो जाता है ।
(५६४७) मृतसञ्जीवनो रसः (५) ( र. चं. ; र रा. सु. । वातव्याधि ) म्लेच्छस्य भागाश्चत्वारस्तदर्थे विषसंयुतम् । टणं दन्तिवीजं च ह्यार्द्रकस्य रसेन वै ।। एतत्सर्वं क्षिपेत्खल्वे मर्दयेत्महरद्वयम् । भानुदुग्धैर्महोदर्या द्विगु भक्षयेत्सदा ॥ वातव्याधिमूरुस्तम्भमामवातं विशेषतः । ग्रहण्यशे विकाराश्च ज्वरमष्टविधं तथा ।। निहन्ति तत्क्षणादेव तमः सूर्योदयो यथा । मृतसञ्जीवनो नाम प्रख्यातो रससागरे ॥
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रसप्रकरणम्
चतुर्थों भागः
शुद्ध हिंगुल ४ भाग, शुद्ध बछनाग ( मीठा | पश्चात् दूसरी गोली दें। इससे भी होश न आवे विष ), सुहागेकी खील और शुद्ध जमालगोटा तो एक पहर पश्चात् तीसरी गोली भी खिला दें। २-२ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके अद- इससे अवश्य चेतना आ जायगी। तीन गोलीसे रकके रस, आकके दूध और महा शतावरके रसमें अधिक कदापि न दें। २-२ पहरे घोट कर २-२ रत्तीकी गोलियां यह गोली मृत्प्रायः पुरुषको भी जिला बना लें।
देती हैं। इनके सेवनसे वातव्याधि, ऊरुस्तम्भ, आम- (५६४९) मृतसञ्जीवनीवटिका वात, ग्रहणी, अर्श और आठ प्रकारके ज्वरोंका (भा. प्र. । म. खं. । वृ. यो. त. । त. ५९) नाश होता है।
विषं त्रिकटुकं गन्धं टङ्कणं मृतशुल्बकम् । _ (५६४८) मृतसञ्जीवनीगुटिका धत्तूरस्य च वीजानि हिङ्गुलं नवमं स्मृतम् ॥ (र. सं. क.। उल्लास ५.; र. का.धे.। ज्वर. अ.१) एतानि समभागानि दिनैकं विजयाद्रवैः । रसराजशुल्बगन्धकसुर
मर्दयेचणकाकारा कर्तव्या वटिकाथ सा ॥ तिक्तैः पीतभृङ्गमरिचैश्च ।
भक्षणीयाऽनुपातव्यो रविमूलकषायकः । ब्राह्मीद्वितयरसाढया
मृतसञ्जीवनी नाम्ना सन्निपातज्वरान्तकृत् ॥ गुटिकाः कार्याश्च चणकामाः॥
शुद्ध बछनाग ( मीठा विष ), सोंठ, मिर्च, एका देया प्रथमं त्रिदोष
पोपल, शुद्ध गन्धक, शुद्ध सुहागा, ताम्र भस्म, विकलस्य मूच्छितस्यापि । धतूरेके शुद्ध बीज और शुद्ध हिंगुल समान भाग अन्या मुहूर्तपरतः प्रहरादन्याऽपरा नैव ॥
लेकर सबको एक दिन भांगके रसमें घोट कर जीवति मृतोऽपि पुरुष
चनेके बराबर गोलियां बना लें। स्त्रिदोषजान्विततन्द्रिकायुक्तः।
इन्हें आककी जड़के काथके साथ देनेसे श्रीनागार्जुनगदिता गुटिका
सन्निपात ज्वर नष्ट होता है। मृतसञ्जीवनी ख्याता ॥
(५६५०) मृतसञ्जीवनीवटी शुद्ध पारा, ताम्र भस्म, शुद्र गन्धक, देवदारु, | (र. चं. । ज्वरातिसार. ; रसें. सा. सं. ; कुटकी, हरताल भस्म और पीले फूलका भंगरा
भै. र. । ज्वरातिसार ) तथा काली मिर्च समान भाग लेकर सबको १-१ मागधीं वत्सनाभं च तयोस्तुल्यं च हिङ्गुलम् । दिन ब्राह्मी और मण्डूकपर्णीके रसमें घोटकर मृतसञ्जीवनी ख्याता जम्बीररसमर्दिता ॥ चनेके समान गोलियां बना लें ।
मूलकस्य च बीजानां वटिका तुल्यरूपिणी । ___ सन्निपात ज्वरसे मूछित रोगीको प्रथम एक | पानीया शीततोयेन ज्वरातिसारनाशिनी ॥ गाली दें; यदि इससे होश न आवे तो एक पहर विषूच्यां सन्निपाते च ज्वरे चैवातिदुस्तरे ॥
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२५४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
पीपल और शुद्ध बछनाग (मीठा विष) १-१ चूर्णकी ओषधियां-बायबिडंग, त्रिफला, भाग तथा शुद्ध हिंगुल २ भाग लेकर सबको चीता, और त्रिकटु ( सोंठ, मिर्च, पीपल) ५-५ एकत्र घोटकर १ दिन जम्बीरी नीबूके रसमें खरल | तोले । कर मूलीके बीजके समान गोलियां बनावें ।
शुभ मुहूर्तमें गुरु और सूर्यदेवकी पूजा करके इन्हें शीतल जलके साथ खिलानेसे ज्वराति- इसमेंसे १ माशा औषध नारियल के पानी या गोदुसार, हैजा और भयंकर सन्निपात नष्ट होता है। ग्धके साथ सेवन करें और फिर नित्य थोड़ी (५६५१) मृतोत्थापनरसः (१) | थोड़ी मात्रा बढ़ाते रहें। आठ माशेसे अधिक न
(र. रे. स. । अ. १८) बढ़ावें । अभ्रं तानं तथा लोहं प्रत्येक मारितं पलम् ।
इसके सेवनसे हृदयशूल, पार्श्वशूल, आमसुसंस्कृतं सर्वमेतद्गृह्णीयात्कुशलो भिषक ॥ वात, कटिग्रह, गुल्मशूल, शिरशूल, यकृत् , प्लीहा, आज्ये पलद्वादशके दुग्वे तत्स्वरसंख्यके । अग्निमांद्य, क्षय, कुष्ठ, कास, श्वास, विचर्चिका, पक्त्वा तत्र क्षिपेच्चूर्ण सुपूतं घनतन्तुना ॥ अश्मरी और मूत्रकृच्छ्रका नाश होता है। विडङ्गत्रिफलावह्नित्रिकटूनां तथैव च ।। पिष्ट्वा पलोन्मितानेतान्यथासंमिश्रतां नयेत ॥ (५६५२) मृतोत्थापनरसः (२) ततः पिष्ट्वा शुभे भाण्डे स्थापयेत्तद्विचक्षणः ।। (र. रा. सु. । सन्निपाता.) आत्मनः शोभने चाहि पूजयित्वा गुरुं रविम्॥ विषं च दरदं तुल्यं मईयेद्वासरद्वयम् । घृतेन मधुना मद्यैः पाययेन्माषकादिकम् ।। अम्लवेतसजम्बीरचाङ्गेरीणां रसेन च ॥ अष्टौ माषान्क्रमेणैव वर्धयेत्तत्समाहितः॥ | निर्गुण्डीहस्तिशुण्डयाश्च एवं घमें विपाचयेत् । अनुपानं च दुग्धेन नारिकेरोदकेन वा। चित्रकस्य कषायेण द्वियामं मईयेत्ततः ॥ हृच्छूलं पार्श्वशूलं च आमवातं कटिग्रहम् ॥ | माषमात्रप्रदातव्यो हिङ्गुव्योषाकदवैः । गुल्मशूलं शिरःशूलं यकृत्प्लीहानमेव च ।। | किश्चित्कर्पूरसंयुक्तो मृतोत्थापनको रसः ॥ अग्निमांद्य क्षयं कुष्ठं कासं श्वासं विचर्चिकाम् ॥ पीडितः सन्निपातेन मृतो याति यमालयम् । अश्मरी मूत्रकृच्छं च योगेनानेन साधयेत् ॥ प्रत्येति सत्क्षणादेव रसस्यास्य प्रभावतः ॥ ____ अभ्रक भस्म, ताम्र भस्म और लोह भस्म शुद्ध बछनाग ( मीठा विष ) और हिंगुल ५-५ तोले तथा ६० तोले घी और ३५ तोले | समान भाग लेकर दोनोंको एकत्र करके २-२ दिन गोदुग्ध लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें और अम्लबेत, जम्बीरी, चांगेरी ( चूका ), सम्भालु गाढ़ा होने पर उसमें निम्न लिखित औषधोंका और हाथीसुण्डीके रसमें घोटकर धूपमें सुखाकर अत्यन्त महीन कपड़छन चूर्ण मिलाकर सबको | २ पहर चित्रकके काथमें पका और फिर खरल अच्छी तरह घोटकर सुरक्षित रक्खें । | करके सुरक्षित रक्खें ।
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रसमकरणम् ]
चतुर्थो भागः
२५५
इसमें से १ माशा रसमें हींग, सोंठ, मिर्च, चीतामूलके काथमें घोट कर आधी आधी रत्तीकी पीपल और कपूरका चूर्ण मिलाकर अदरकके रसके | गोलियां बनावें ।। साथ सेवन करनेसे मृत्प्रायः सन्निपात रोगी भी इनमेंसे १-१ गोली हींग, सोंठ, मिर्च, स्वस्थ हो जाता है।
पीपल और कपूरके चूर्ण तथा अदरकके रसके (मात्रा रोगीकी अवस्थानुसार निश्चित करनी | साथ खिलानेसे मृत्प्रायः सन्निपात रोगी भी स्वस्थ चाहिये । )
| हो जाता है। (५६५३) मृतोत्थापनरसः (३)
(५६५४) मृत्युञ्जयरसः (१) ( भै. र. ; र. रा. सु. । ज्वरा.)
(महारसः) शुद्धमूर्त द्विधागन्धं शिला च विषहिङ्गुलम् । (र. र. स. । अ. १२; र. रा. सु. । ज्वरा.) मृतकान्ताभ्रताम्रायः तालकं मासिकं समम् ॥ ताप्यतालकजेपालवत्सनाभमनःशिलाः । अम्लवेतसजम्बीरचाङ्गेरीणां रसेन च ।
ताम्रगन्धकमूतं च मुसलीरसमर्दितः॥ निर्गुण्डीहस्तिशुण्डयोश्च द्रवैर्मध दिनत्रयम् ॥
मृत्युञ्जय इति ख्यातः कुक्कुटीपुटपाचितः । रुद्ध्वा तु भूधरे पाच्यो दिनान्ते तं समुद्धरेत्। वल्लद्वयं प्रयुञ्जीत यथेष्टं दधिभोजनम् ॥ चित्रकस्य कषायेण मर्दयेत्महरद्वयम् ।।
नवज्वरं सन्निपातं हन्यादेष महारसः । गुञ्जा’ च प्रदातव्यं हिजुन्योषाकद्रवैः ।
___ स्वर्णमाक्षिक भस्म, शुद्ध हरताल, शुद्ध सकर्पूरानुपानं स्यान्मृतस्योत्थापने रसे ॥
जमालगोटा, शुद्ध बछनाग ( मीठा विष ), शुद्ध पीडितं सभिपातेन गतं वापि यमालयम् ।।
मनसिल, ताम्र भस्म, शुद्ध पारद और गन्धक समान तत्क्षणात् जीवयत्येष पथ्यं क्षोरैः प्रयोजयेत् ॥
यानयत् " भाग लेकर प्रथम पारे गंधककी कजली बनावें शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग
में अन्य औषधे मिला कर सबको और शुद्ध मनसिल, शुद्ध बछनाग ( मोठा विष ), |
दिन मूसलीके रसमें घोटकर, शरावसम्पुट में बन्द शुद्ध हिंगुल, कान्तलोह भस्म, अभ्रक भस्म, ताम्र
करके कुक्कुटपुटमें पकावे । भस्म, लोह भस्म, शुद्ध हरताल तथा स्वर्णमाक्षिकभस्म १-१ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी
इसे ६ रत्ती मात्रानुसार खिलानेसे नवीन कजली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे
ज्वर और सन्निपात नष्ट हो जाता है । (व्यवहामिलाकर सबको अम्लबेत, जम्बीरी, चाङ्गेरी (चूका),
रिक मात्रा-२ रत्ती ।) निर्गुण्डी और हाथीसूंडीके रसमें ३-३ दिन घोट
इस पर यथेष्ट दधि खिलानी चाहिये । कर शराव-सम्पुट में बन्द करके भूधर यन्त्रमें १
मृत्युञ्जयरसः (२) दिनकी अग्नि दें और फिर उसके स्वांग शीतल | ( भै. र; र. सा. सं. ; र. चं. ; र. रा. सु. । हो जाने पर औषधको निकाल कर उसे २ पहर
इत्यादि )
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२५६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
. [मकारादि
-
__“ पञ्च वक्त रसः " (२) प्र. सं. ४२६५ स्वर्ण भस्म, चांदी भस्म, और हीरा भस्म देखिये । उसमें धतूरेके रसमें घोटनेके लिये लिखा । (पाठान्तरके अनुसार ताम्र भस्म) समान भाग ले है परन्तु मृत्युंजय रस में धतूररसकी भावना नहीं | कर सबको मूसली, मूषाकर्णी (चूहाकन्नी), बिजौरा लिखी । इसमें १ भाग पारदके स्थानमें २ भाग नीबू, केला और कौंचके रसमें ३-३ दिन खरल ' हिंगुल' भी डाल सकते हैं । बस यही | करके सुरक्षित रक्खें। . अन्तर है।
इसे उचित अनुपानके साथ सेवन करनेसे (५६५५) मृत्युअयरसः (३)
राजयक्ष्मा, प्रमेह, जीर्ण ज्वर, अतिसार, संग्रहणी
और बहुमूत्रादि अनेक रोग नष्ट होते हैं। अधिक (र. रा. सु. । प्रमेह.; र. स. क. । उल्लास ४)
४ | तो क्या कहें, यह जरा मृत्युको भी नष्ट कर एकांशं प्रक्षिपेत्स्वर्ण रौप्यं वज्रश्च तत्समम् । | देता है। मुसल्या चाखुका च भाव्यं लुङ्गरसैस्त्रयहम् ॥ इसके सेवनसे शरीर वज्रके समान दृढ़ होता मोचात्मगुप्ता स्वररसैस्तदा मृत्युञ्जयो रसः। | और सैकड़ों स्त्रियोंको द्रवित करनेकी शक्ति प्राप्त सर्वरोगहरो ह्येष सेवितः पथ्यशालिभिः॥ होती है । वीर्य क्षीण नहीं होता और नपुंसक राजयक्ष्मादिरोगांश्च प्रमेहान् विंशतिस्तथा । पुरुष भी रमणी-प्रिय हो जाता है तथा सदैव जीर्णज्वरानतीसारान् ग्रहणों बहुमूत्रताम् । ऊर्ध्वलिंग रहता है। यह रस सौन्दर्य, बुद्धि, मेधा, तेन तेनानुपानेन नाशयेन्नात्र संशयः । दृष्टि, गमन शक्ति और श्रवण शक्ति आदिकी अत्यकिमत्र बहुनोक्तेन जरामृत्युहरस्तथा ॥ न्त वृद्धि करता है। वज्रदेहो भवेत्सेवी द्रावयेद्वनिताशतम् ।।
पथ्य-गेहूंके पदार्थ, उड़द, केला, पनस, नरेतसः क्षयस्तस्य पण्डोऽपि तरुणायते ॥
खजूर, बादाम, नारियल तथा मधुर पदार्थ । अर्द्धवलिङ्गः सदा तिष्ठेल्ललनायाः प्रियो भवेत्।। इसे १ वर्ष तक सेवन करना चाहिये । तप्तहाटकसंकाशः श्रीधीमेधाविभूषितः ॥
मात्रा-१ माशा। हयवेगो मयूराक्षो वाराहश्रुतिरेव सः।।
(व्यवहारिक मात्रा-आधी या १ रत्ती ।) अपरः कामदेवो वा मानिनीमानमर्दनः ॥
(५६५६) मृत्युञ्जयरसः (४) गोधूमजान्विकारांश्च मापानं कदलीफलम् ।
(र. रा. सु. । ज्वरा.) पनसं चापिखजूरं वातामं नालिकेरकम् ॥ मधुरश्च भजेत्याज्ञो वर्षमात्रमतिन्द्रतः ।
कर्ष शम्भूद्भवस्यैकं कर्ष स्यादरदस्य च । मात्रास्य माषप्रमिता सदा सेव्या नरोत्तमैः ॥
जैपालस्य च शुद्धस्य त्रयमेतदिनद्वयम् ॥
वृद्धदारुकनीरेण खल्वे कृत्वा विमर्दयेत् । १ ताम्रश्चेति पाठान्तरम् ।
ततोदुम्बरपर्णैश्च स्वरसेन विभावयेत् ॥
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रसप्रकरणम् ]
शृङ्गवेररसेनानुं रविवारं विमर्द्दयेत् । गुआमात्रां वटीं कृत्वा सितया सह भक्षयेत् मृत्युञ्जयरसो नाम नवज्वरहरः परः ॥
शुद्ध पारद, हिंगुल और जमालगोटा समान भाग लेकर तीनोंको २-२ दिन विधारा और गूलर पत्तों के रस में तथा १ दिन अदरक के रसमें खरल करके १-१ रत्तीकी गोलियां बनावें । इन्हें मिश्री के साथ सेवन करने से विषम ज्वर नष्ट होता है।
चतुर्थी भागः
(५६५७) मृत्युञ्जयरसः (५)
( र. र. स. । अ. १९; २. रा. सु. । ज्वर. ) द्विक्षारं त्र्यूषणं पञ्चलवणं शतपुष्पिकाम् । समभागमिदं सर्वं पटचूर्ण समाचरेत् ॥ तत्सम रसगन्धौ च कृत्वा कज्जलिकां शुभाम् । सर्वमेकत्र सम्मेल्य मर्दयेद्दिवसत्रयम् ॥ अयं मृत्युञ्जय नाम्ना रसः शीघ्रफलमदः । कथितो मयार्येण सन्निपातहरः परः ॥ सन्निपाते प्रयोक्तव्यो रक्तिकापञ्चमात्रकः । चित्रका सिन्धुत्थदुभिर्वा समन्वितः ॥ पीततोयं त्रिदोषार्त निर्वाते वासयेत्ततः । पथ्यं दध्योदनं देयं याचमानाय नान्यथा ॥ गुणो न जायते यस्य तस्य देयो रसः पुनः । हन्याद्वातगदं तथा कफगदं मन्दानत्वं ज्वरम्।। शूलं सर्वमहामयाञ्जठरजां पीडां यत्पाण्डुताम् शोफं गुल्मरुजं तथा ग्रहणिकां प्लीहामयं
।
विग्रहम ||
वाति गुल्मकृतां सकासमभितः श्वासं च
fearfu | आदौ सर्वोदराणां च देयमुक्तं विरेचनम् ॥
33
२५७
गोमूत्रैर्वाऽथ गोक्षीरैर्योज्यमेरण्डतैलकम् । कर्षमात्र प्रयत्नेन शुद्धे देयो रसः पुनः ॥
सज्जीखार, जवाखार, सोंठ, मिर्च, पीपल, पांचों लवण (सेंधा, काला नमक, सामुद्र लवण, काच लवण, बिड लवण ) और सोयेका कपड़छन बारीक चूर्ण १-१ भाग तथा २-२ भाग पारद और गन्धककी कज्जली लेकर सबको एकत्र मिलाकर ३ दिन तक खरल करके सुरक्षित रक्खें ।
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यह रस सन्निपात ज्वरमें शीघ्र फल प्रदर्शित करता है ।
इसमें से ५ रत्ती रस चीता, अदरक, सेंधा, सोंठ, मिर्च और पीपल चूर्णके साथ सन्निपात ज्वर वाले रोगीको खिला कर निर्वात स्थानमें खुला दें और भूख लगने परे केवल दूध भात खिलावें और कोई पदार्थ खानेको न दें । यदि एक मात्रामें लाभ प्रतीत न हो तो ( उचित समय तक प्रतीक्षा करने के पश्चात् ) पुनः दूसरी मात्रा दें ।
सन्निपातके अतिरिक्त यह रस वातज और कफज रोग, अग्निमांद्य, शूल, उदर पीड़ा, यकृत, पाण्डु, शोथ, गुल्म, संग्रहणी तिल्ली, मलावरोध, गुल्मरोग - जनित वमन, कास, श्वास और हिचकीको भी नष्ट करता है ।
यदि इसे उदर रोगोंमें देना हो तो प्रथम रोगीको गोमूत्र या गोदुग्धमें अरण्डीका तेल मिलाकर पिलायें और उससे विरेचन हो जानेके पश्चात् १। तोला मात्रानुसार यह रस खिलावें । :
( मात्राका निर्णय रोगीका बलाबल देखकर करना चाहिये । )
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२५८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
-
(५६५८) मृत्युञ्जयरसः (६) जरां वर्षेकेन क्षपयति च पुष्टिं वितनुते ( र. र. स. । अ. १२)
तनी तेजस्फारं रमयति वधूनामपि शतम् । तालं ताम्ररजो रसश्च गगनं
रसः श्रीमान्मृत्युञ्जय इति गिरीशेन कथितः गन्धश्च जैपालक
प्रभा को वाऽन्यः कथयितुमपारं प्रभवति ।।
लुङ्गाम्भोलवकदलित इति मातुलुङ्गद्रवं कणशो दीनारप्रमितं तदर्धमुदितं
दच्या त्रिदिनं मर्दयेदित्यर्थः ॥ टकं शिला माक्षिकम् ।
समान भाग शुद्ध पारद और गन्धककी दीनारद्वितयं विषस्य शिखिनः
| कज्जली बनाकर उसे नीबूके रस में घोटकर आतशीपिष्ट्वा रसैः पाचितो
| शीशीमें भर कर ( चन्द्रोदय बनानेकी विधिके यश्चिन्तामणिवज्ज्वरौघविजयी
अनुसार ) बालुका यन्त्रमें पकावें । जब शीशी नाम्ना तु मृत्युञ्जयः ।।
स्वांग शीतल हो जाय तो उसे तोडकर उसके शुद्ध हरताल, ताम्र भस्म, शुद्ध पारद, अभ्रक गले में लगे हुवे रससिन्दूरको निकाल लें। भस्म, शुद्ध गन्धक और जमाल गोटा १-१ तोला; अब १ भाग यह रससिन्दूर और १-१ सुहागा, शुद्ध मनसिल और स्वर्णमाक्षिक भस्म | भाग ताम्र भस्म, पीपलका चूर्ण तथा सुहागेकी खील ६-६ माशे तथा शुद्ध बछनाग ( मीठा विष ) २ | लेकर सबको एकत्र मिलाकर उसमें थोड़ा थोड़ा तोले लेकर प्रथम पारे गन्धकको कज्जली बनावें (बूंद बूंद) नीबूका रस डालते हुवे ३ दिन तक
और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर खरल करें । सबको १ दिन चीतेके काथमें घोट कर शराव- इसे १ माशेकी मात्रानुसार घी और शहदके सम्पुटमें बन्द करें और उसे भूधरपुट में पकायें। साथ १ वर्ष तक सेवन करनेसे समरत रोग और
यह रस समस्त प्रकारके ज्वरोंको नष्ट जरा नष्ट हो कर शरीर पुष्ट और तेजस्वी होता करता है।
तथा सैकड़ों रमणियोंसे समागम करनेकी शक्ति आ
जाती है। (५६५९) मृत्युञ्जयरसः (७)
( व्यवहारिक मात्रा-४ रत्ती।) ( आ. वे. प्र. । अ. १; वृ. यो. त. । त. १४७;
(५६६०) मृत्युञ्जयरसः (८) रसे. चि. म. । अ. ८)
( र. प्र. मु. । अ. ८.) बलिः सूतो निम्बूरसविमंदितो भस्मसिकता- वज्रभस्म रसभस्म मौक्तिकं हये यन्त्रे कृत्वा समरविकणाटङ्कणरजः ।
मर्दितं च खलु निम्बुवारिणा । त्रिघनं लुगाम्भोलवकदलितः क्षौद्रहविषाऽ तच कुक्कुटपुटेन पाचितं वलिढो मापैकं दरयति समस्तं गदगणम् ॥ चूर्णयेन्मधुयुतं हि वल्लकम् ॥
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
२५९
वर्षमात्रमपि सेवितं जये
(५६६२) मृत्युञ्जयरसः (१०) न्मृत्युमेव सकला रुजा अपि ॥ ( भै. र. ; र. रा. सु. ; धन्व. । ज्वरा. ) हीरा भस्म, पारद भस्म और मोती भस्म मृतं गन्धकटङ्गण शुभविषं धुस्तूरबीजं कई समान भाग लेकर सबको नीबू के रसमें घोटकर नीत्वा भाग यथोत्तरद्विगुणितं चोन्मत्तमूलासम्पुटमें बन्द करके कुक्कुटपुट में पकावे ।
म्बुना। ___ इसे ३ रत्ती मात्रानुसार शहदके साथ १ / कुर्यान्माषवटीं सुखातिसुखदां सर्वान् ज्वरावर्ष तक सेवन करनेसे अकाल मृत्यु और समस्त
नाशयेदेष रोग नष्ट हो जाते हैं।
श्रीशिवशासनात् प्रजनितः मूतश्च मृत्युञ्जयः॥ (५६६१) मृत्युञ्जयरसः (९)
नारिकेलसितायुक्तं वातपित्तज्वरं जयेत् ।
मधुना श्लेष्मपित्तोत्थं ज्वरं सन्नाशयेत् ध्रुवम् ।। ( यो. र. । क्षय.)
सन्निपातज्वरं घोरं नाशयेदानीरतः ॥ त्रिकटु त्रिफला मृतगन्धको टङ्कण विषम् ।
शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, यष्टी निशा कुबेराक्षो दन्तिबीजमथापि च ।।
सुहागेकी खील ४ भाग, शुद्ध बछनाग (मीठा एतानि समभागानि खल्बमध्ये विनिक्षिपेत् ।
विष ) ८ भाग, धतूरेके बीज १६ भाग और भृङ्गराजरसेनैव मर्दयेत्त्रिदिनं भिषक् ॥
त्रिकुटा (समान भाग मिश्रित सोंठ, मिर्च, पीपल) गुटिका माषमात्रास्तु छायाशुष्काश्च कारयेत् ।
३२ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली अनुपानविशेषेण सर्वरोगेषु योजयेत् ॥
बनावें और फिर उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मृत्युञ्जयो रसो नाम सर्वरोगविदारणः ॥
मिलाकर सबको धतूरेकी जड़के रसमें घोटकर ___ सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला,
१-१ माशेकी गोलियां बना लें। शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, सुहागेकी खील, शुद्ध
इनके सेवनसे समस्त प्रकारके ज्वर नष्ट बछनाग ( मीठा विष ), मुलैठी, हल्दी, लता- |
होते हैं। करञ्जके बीज और शुद्ध जमालगोटा समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मिलाकर सबको
वातपित्त ज्वरमें नारियलके पानी और ३ दिन भंगरेके रसमें घोटकर १-१ माशेकी | गोलियां बना लें और उन्हें छायामें सुखा कर , कफपित्त ज्वरमें शहदके साथ; और। सुरक्षित रक्खें ।
सन्निपात ज्वरमें अदरकके रसके साथ इन्हें रोगोचित अनुपानके साथ सेवन करानेसे देना चाहिये । समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं।
( व्यवहारिक मात्रा-२-३ रत्ती ।)
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
(५६६३) मृद्विरेचनरसः
( र. च. । पाण्डु.; वृ. नि. र । बालरो. ) इन्दुलोचननेत्राणि शिखी भागं च योजयेत् । टिगन्धमुर्दाशतपुष्पाविचूर्णिताः ॥ माषद्वयं गवां दुग्वैः सेवयेद्दिनपञ्चकम् । रेचयेन्मृत्तिकां शुद्धां शिशूनां हितमौषधम् ॥
छोटी इलायची १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, शुद्ध मुरदासिंघ २ भाग और सोया ३ भाग लेकर सबको खरल करके रक्खें ।
इसे २ माशेकी मात्रानुसार गायके दूधके साथ ५ दिन तक सेवन करानेसे बच्चों की हुई मिट्टी विरेचन द्वारा निकल जाती है ।
खाई
(५६६४) मेघडम्बर रसः
(र. रा. सु. ; र. र. र. मं. ; र. का. धे. ; ५. चं. । हिक्का खास.; रसे. चि. म. । अ. तण्डुलीयद्रवे पिष्टं सूततुल्यं च गन्धकम् । वज्रमृषागतं चैव भूधरे भस्मतां नयेत् ॥ दशमूलकषायेण भावयेत्महरद्वयम् ।
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[ मकारादि
इसे निम्नलिखित अनुपान के साथ खिलाने से हिका, श्वास और ज्वर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
अनुपान - सोंठ (पाठान्तर के अनुसार हरे), पीपल, भरंगी, पोखरमूल और काकड़ासोंगी तथा कचूर १ - १ भाग तथा खांड ८ भाग लेकर सबको खरल करके चूर्ण बनावें ।
रसकी मात्रा - २ रत्ती ।
( अनुपानकी मात्रा - ३ - ४ माशे । ) नोट -- शहद के साथ मिला कर चाटना चाहिये ।
(५६६५) मेघनादरस: (१)
( भै. र. र. का. घे. । ज्वर.; रसे. चि. म. । अ. ९; रसे. सा. सं. : र. रा. सु. । ज्वर. ) तारं कांस्यं मृतं ताम्र त्रिभिस्तुल्यश्च गन्धकम् । Fater मेघनादस्य पिष्ट्वा रुवा पुढे पचेत् ॥ षभिः पुटैर्भवेत्सिद्धो मेघनादो ज्वरापहः । भक्षयेत्पर्णखण्डेन विषमज्वरनाशनम् ॥ अस्य मात्रैगुआ स्यात्पथ्यं दुग्वैौदनं हितम् ।
गुञ्जाद्वयं हरत्याशु हिक्कां श्वासं ज्वरं किल ॥ | नागरातिविषामुस्तभूनिम्बामृतवत्सकैः ॥ अनुपानेन दातव्यो रसोऽयं मेघडम्बरः । नागरं पिप्पलीं भार्गी पुष्करं कर्कटी सटी ॥ शर्कराष्टगुणं चूर्णमनुपाने प्रकल्पयेत् ॥
सर्वज्वरातिसारनं क्वाथमस्यानुपाययेत् । तरुणं वा ज्वरं जीर्ण तृष्णां दाहञ्च नाशयेत् ॥
चांदी भस्म, कांसी भस्म और ताम्र भस्म १- १ भाग तथा शुद्ध गन्धक ३ भाग लेकर
समान भाग शुद्ध पारद और गन्धककी कउजली बनाकर उसे कांटे वाली चौलाईके रस में घोटें और फिर वज्रमूषामें बन्द करके भूधरपुट में पकाकर भस्म करें। तदनन्तर उसे दशमूल के काथमें २ पहर घोटकर सुरक्षित रक्खें ।
१ अभया इति पाठान्तरम् ।
१ तालमिति पाठान्तरम् । ताल = हरताल १ आरं इति पाठान्तरम् । आर = पीतल १ अभ्रं इति पाठान्तरम्
२ कई ग्रन्थोंमें पुटोंकी संख्याका निर्देश
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
सबको कांटे वाली चौलाईके रसमें घोट कर, शरा- __(५६६७) मेघनादरसः (३) वसम्पुट में बन्द करके भूधरपुट में पकावें । इसी (र. र. स. । अ. १२) प्रकार चौलाईके रसमें घोट घोट कर ६ पुट दें। मुतांशको साररविः समांशइसे पानमें रखकर खिलानेसे विषम ज्वर,
गन्धो विपक्वः स्वकषायपिष्टः। तरुण ज्वर, जीर्ण ज्वर, तृष्णा, दाह और ज्वराति- रसः क्रमान्माषमितोऽनिलादिसार नष्ट होता है।
___ ज्वरेषु नाम्ना किल मेघनादः ॥ मात्रा-१ रत्ती।
शुद्ध पारद, फौलाद भस्म और ताम्र भस्म अनुपान-सोंठ, अतीस, नागरमोथा, चिरा
समान भाग तथा गन्धक सबके बराबर लेकर प्रथम यता, गिलोय और इन्द्र जौ का कोथ बनाकर रस
पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें खानेके पश्चात् पियें।
अन्य दोनों भस्में मिलाकर खरल करें । तदनन्तर पथ्य-दूध भात ।
इसे जिस प्रकारके ज्वरमें प्रयुक्त करना हो उसको (५६६६) मेघनादरसः (२) नष्ट करने वाली ओषधियोंके काथमें घोटकर (रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. । प्रमेह. ; रसे. शराव-सम्पुटमें बन्द करके भूधर पुटमें पकावें । चि. म. । अ. ९.)
यह रस समस्त ज्वरोको नष्ट करता है। भस्मसूतं समं कान्तमभ्रकन्तु शिलाजतु । मात्रा----१ माशा । ( व्यवहारिक मात्रा शुद्धताप्यं शिलान्योषत्रिफलाकोठजीरकम् ॥ २ रत्ती ।) । कार्पासबीज रजनीचूर्ण भाव्यञ्च वह्निना। (५६६८) मेघनादरसः (४) विंशतिधा विशोष्याथ लिह्याच्च मधुना सह ॥ (र. का. धे. । ज्वरा. ) माषमात्र हरेन्मेहं मेघनादरसो महान् ॥ अभ्रक मूतकं तालं त्रिभिस्तुल्यं तु गन्धकम् ।
पारद भस्म (या रस सिन्दूर ), कान्त लोह रसेन मेघनादस्य पिष्ट्वा रुद्धवा पुटे पचेत् ॥ भस्म, अभ्रक भस्म, शुद्ध शिलाजीत, स्वर्णमाक्षिक सञ्चूयं पर्णखण्डेन दातव्यो विषमापहः । भस्म, शुद्ध मनसिल, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, अत्र मात्रा द्विगुञा स्यात्पथ्यं दुग्धोदनं हितम्।। बहेड़ा, आमला, ढेरा, जीरा, कपास बीज (बिनौ- पञ्चामृतं पलं चैकमनुपानं प्रयोजयेत् ॥ लेकी मज्जा ) और हल्दीका चूर्ण समान भाग ले ___अभ्रक भस्म, शुद्ध पारद और शुद्ध हरताल कर सबको चीतामलके काथकी २० भावना दे कर १-१ भाग तथा शुद्ध गन्धक ३ भाग लेकर सुखाकर रक्खें ।
प्रथम पारे गन्धककी कजली बना और फिर इसे शहदके साथ सेवन करनेसे प्रमेह नष्ट | उसमें अन्य दोनों औषधे मिलाकर सबको कांटे होता है।
वाली चौलाईके रसमें घोटकर शराव-सम्पुटमें मात्रा-१ माशा।
बन्द करके भूधर पुटमें पकावें।
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२६२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि इसे पानमें रख कर खिलानेसे विषम ज्वर
मेघनादरसः (६) नष्ट होता है।
(र. का. धे. ; यो. र. । प्रमेह; वृ. यो. त.। अनुपान-रस खिलानेके पश्चात् गिलोय, त. १०३; वृ. नि. र. । प्रमे. ; यो. गोखरु, मूसली, मुण्डी और शतावरका काथ
त. । त. ५१.) पिलाना चाहिये।
प्रयोग सं. ४४६४ " प्रमेह बद्र रस"
देखिये। मात्रा-२ रत्ती । पथ्य-दूध भात ।
मेघवन्धरसः (५६६९) मेघनादरसः (५)
(र. र. । प्रमेह.) ( यो. र. ; र. चं. । रेचका.)
" प्रमेह बद्ध रसः” प्रयोग संख्या ४४६४ दरदं टङ्कणं चैव सैन्धवं च कटुत्रयम् ।
| देखिये । त्रिफला हारहूरा च कृमिन्नं रामठं तथा ॥ दस्यु दीप्यं समानं च दन्ती सर्वार्धभागिका ।।
(५६७०) मेथीपाकः जम्बीरवारा सम्मध चणकस्य प्रमाणतः ॥ ( नपु. मृता. । त. ४) उष्णोदकानुपानेन कृम्यामान्तं विरेचनम् । मेथी प्रस्थमिता पलद्वयमितं चूर्ण वरीसम्भवम् तस्योपरि हितं देयं पथ्यं दध्योदनं परम् ॥ स्वपत्राऽनलविश्वजीरमगधाद्राक्षाशिवागो- . उदरे पाण्डुशोफे च शोफोदरजलोदरे। सर्वज्वरे च विषमे मेघनादः प्रशस्यते ॥ | धात्रीनागकणाप्रियङ्गुमुसलीकीनाशबीजैः समैः
शुद्ध हिंगुल, सुहागेकी खील, सेंधा नमक, | पिष्टैः सूक्ष्मतरं पलैकतुलितैः सांठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, द्राक्षा
सर्वैः पृथक् पाचयेत् ॥ (मुनक्का), बायबिडंग, हींग, चोरक और अजमोद
गोदुग्वेन चतुर्गुणेन विधिना १-१ भाग तथा शुद्ध जमालगोटा सबसे आधा
मन्दाग्निना वैद्यराट (७ भाग) लेकर सबको जम्बीरी नीबूके रसमें घोट
यावत्तद्धनतामियादथ ततः सर्वद्विभागा सिता। कर चनेके बराबर गोलियां बनावें ।
| पाच्यापाच्य सुशीतमेतदखिलं दृष्ट्वा तदेलाद्वयं इन्हें उष्ण जलके साथ देनेसे विरेचन हो कर | मज्जाचारुभवाथ देवकसम खार्जरवातामकम ॥ आम और कृमि निकल जाते हैं।
जातीपत्रसमं विदल्यदलितं प्राग्गोघृतैर्भजिते यह रस उदर रोग, पाण्डु, शोथ, शोथोदर, | युक्तांशैरवधूल्यमेव सकलं तन्मोदकान्कल्पयेत् । जलोदर, विषम ज्वर और अन्य समस्त ज्वरोंमें | वङ्गाभ्रेण पलार्द्धकेन सहितान्सम्भक्ष्य यावद्धलम् उपयोगी है।
कान्तासङ्गविलासभोगचपलो वृद्धो युवा वै पथ्य--दही भात ।
भवेत् ।।
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रसपकरणम् ]
चतुर्थो भागः
२६३
-
मेथी १ सेर; शतावर १० तोले; तथा दाल- गुल्मं प्लीहामयं हिकां शूलकुक्ष्यामयं तथा । चीनी, तेजपात, चीतामूल, सेठ, जीरा, पीपल, उदावत महावातं कर्फ मन्दानलं तथा ॥ द्राक्षा, हर्र, गोखरु, आमला, गजपीपल, फूल- सादिकं विषं घोरं व्रणं लूता भगन्दरम् । प्रियंगु, मूसली और कौंचके बीज ५-५ तोले । विद्रधि चान्त्रवृद्धिं च शिरस्तोदं च नाशयेत् ॥ सबका महीन चूर्ण ले कर उसे उससे ४ गुने
१५-१५ तोले लोह भस्म और ताम्र भस्म ( ८ गुने ) दूध मन्दाग्नि पर पकावें । जब खोवा
एकत्र मिला कर उसे भंगरेके रस, गोमूत्र और हो जाय तो उसे गायके धीमें भूनकर ठंडा ।
त्रिफलाके क्वाथकी ३-३ भावना दें। और फिर करके सबसे २ गुनी खांडकी चाशनीमें मिला
उसे ४ पहर तक खट्टी कांजीमें पकावें । तदनन्तर कर उसमें निम्न लिखित द्रव्योंका प्रक्षेप दें।।
उसमें उसके बराबर शुद्ध गन्धक मिला कर खरल प्रक्षेप द्रव्य-छोटी और बड़ी इलायची,
करें और शरावसम्पुटमें बन्द करके (लघुपुटमें) पिस्ता, लौंग, खजूर, ( छुवारा ), बादामकी गिरो
फूंक दें । इसी प्रकार बार बार गन्धक डाल कर और जावत्रीका चूर्ण तथा बंग और अभ्रक भस्म
२० पुट दें। तत्पश्चात् उसमें ५ तोले पारद २॥-२॥ तोले । सबका महीन चूर्ण उपरोक्त पाकमें
भस्म और सम्पूर्ण औषधको ग्यारहवां भाग शुद्ध मिला कर मोदक बनावें ।
बछनागका चूर्ण एवं सबके बराबर त्रिकुटेका चूर्ण _इन्हें अग्नि बलोचित मात्रानुसार सेवन कर
मिला कर खरल करके रक्खें । नेसे वृद्ध पुरुष भी युवाके समान स्त्री समागम कर
इसे सेवन करनेसे कुष्ठ, श्वित्र कुष्ठ, गुल्म, सकता है।
तिल्ली, हिक्का (हिचकी ), शूल, कुक्षिगत रोग, (५६७१) मेदिनीसाररसः
उदावर्त, महावात, कफ, अग्निमांद्य, सर्पादि का (र. र. स. । अ. २०) भयंकर विष, व्रण, लूता (मकड़ी) का विष, भगपलत्रयं मृतं लोहं मृतं शुल्वं पलत्रयम् ।। न्दर, विद्रधि, अन्त्रवृद्धि और शिरशूलका नाश भृङ्गराजाम्बुगोमूत्रत्रिफलाकथितैः पृथक् ॥ होता है। पुटेत्रिवारं यत्नेन ततस्तस्मिन्विनिक्षिपेत् ।
मात्रा--३ रत्ती। अत्यम्लकाधिकं पश्चात्पद्यामचतुष्टयम् ॥
अनुपान--त्रिकुटे ( सोंठ, मिर्च, पीपल ) ततश्च तुल्यगन्धेन पुटानां विंशति पचेत् । का चूर्ण और घी। पलमात्रं मृतं सूतं रुद्रांशममृत तथा ॥ कटुत्रयं समं सर्वैः पिष्टवा सम्यग्विधारयेत् ।
(५६७२) मेदोहररसः रसोयं मेदिनीसारो नन्दिना परिकीर्तितः ॥ ( र. का. धे. । मेदो.) सेवितोवल्लमानेन घृतत्रिकटुकान्वितः ।
मूतः समांशात् सबलिः सवेल्लः हन्ति कुष्ठानि सर्वाणि श्वित्राणि विविधानि च सूर्याम्बुघृष्टोऽस्य च वल्ल एकः।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
क्षौद्रेण हन्त्युद्धतमेदुरत्वं
समभाग विचूाथ कन्यानीरेण भावयेत् । मध्वम्बु तस्यानु पिबेत् त्रिरात्रम् ॥ दिमाषां वटिकां खादेद्दुग्धानं प्रपिवेत्ततः ।।
शुद्ध पारद, गन्धक और बायबिडंगका चूर्ण प्रमेहं नाशयत्याशु केशरी करिणं यथा । समान भाग ले कर सबको आकके रसमें खरल शुकप्रवाहं शमयेत्रिरात्रान्नात्र संशयः ॥ करके सुरक्षित रक्खें ।
| चिरजातं प्रवाहश्च मधुमेहश्च नाशयेत् ॥ इसे शहदके साथ मिला कर सेवन करनेसे
___ बङ्ग भस्म, सुवर्ण भस्म, कान्तलोह भस्म, प्रवृद्ध मेदरोग भी नष्ट हो जाता है। रससिन्दूर, मोती ( भस्म या पिष्टी ), तथा दालमात्रा--३ रत्ती।
चीनी, छोटी इलायची, तेजपात और नागकेसरका अनुपान--शहदका शरबत ।। चूर्ण समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर
मेहकुलान्तकरसः (१) घृतकुमारीके रसमें घोट कर २-२ माशेकी (प्रमेहकुलान्तको रसः) गोलियां बना लें।
(र. र. ; र. का. धे. । प्रमेह) ___ इन्हें खा कर ऊपरसे दूध भात खाना
" प्रमेह कुलान्तको रसः" प्र. सं. ४४६० चाहिये । देखिये।
___ इनके सेवनसे पुराना प्रमेह और मधुमेह मेहकुलान्तकरसः (२)
शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। यह रस शुक्र प्रवा(प्रमेहकुलान्तको रसः)
हको केवल ३ दिन में ही बन्द कर देता है । ( धन्व.; भै. र. । प्रमेह. ; नपु. मृता. । त. ७)
( व्यवहारिक मात्रा-२-३ रत्ती।) " प्रमेह कुलान्तको रसः (२)" प्र. सं.
(५६७४) मेहद्विरदसिंहो रसः ४४६१ देखिये। मेहकुञ्जरकेसरीरसः
(र. र. । प्रमेह.) ( यो. र. ; र. चं. ; वृ. नि. र. । प्रमेह) पारदाभ्रकयोर्भस्म मृतं लौहाष्टकं समम् । ____ "प्रमेह कुञ्जर केसरी रस" प्र. सं. ४४५९ टङ्कश्चैव मध्वाज्यं प्रत्येकं मृततुल्यकम् ॥ देखिये।
चण्डालीराक्षसीपुष्पैर्दिनं मर्य निरुध्य च । (५६७३) मेहकेसरीरसः
मूषायामन्तरे पक्वं दिनैकं तञ्च चूर्णयेत् ॥ (प्रमेहगजकेसरीरसः)
मेहद्विरदसिंहोऽयं रसः क्षौद्रविमाषकम् । (भै. र.: रसे. सा. सं. ; र. चं. ; र. रा. सु.। लिहेच्चानु पिबेत्तनिष्कैकं टङ्कणं सदा ॥ ___ प्रमेह. ; रसे. चि. म. । अ. ९)
पञ्चवक्त्र रसोऽप्यत्र देयं शुक्रप्रमेहजित् ॥ मृतवङ्गं सुवर्णश्च कान्तलौहश्च पारदम् । पारद भस्म, अभ्रक भस्म, अष्ट लोह (स्वर्ण, मुक्ता गुडत्वचश्चैव सूक्ष्मैलापत्रकेशरम् ॥ चांदी, ताम्र, बंग, सीसा, कान्तलोह, मुण्डलोह
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रसप्रकरणम्
-- चतुर्थों भागः
२६५
और तीक्ष्णलोह) की भस्म एवं सुहागेकी खील (५६७६) मेहभैरवो रसः तथा घी और शहद समान भाग ले कर सबको | (र. रा. सु. । प्रमेह.) एकत्र मिला कर १-१ दिन शिवलिंगी और
रसं गन्धं विषं लोहं जातीपत्रं च तत्फलम् । चोरकके फूलोंके रसमें घोट कर मूषामें बन्द करें |
अब्धिशोषाहि फेनं च खुरासानं च चित्रकम् ॥ और उसे १ दिन ( भूधरपुटमें ) पकावें। . .
देवपुष्पं समं सर्वं सर्वैस्तुल्यं मृताभ्रकम् । इसे २ माशेकी मात्रानुसार शहदमें चाट कर | भावयेत्सप्तधा सर्व चित्रमूलकषायकैः॥ ऊपरसे ५ माशे सुहागेकी खील तक्रमें मिला कर यथा सात्म्येन संयोज्य सर्वमेहापनुत्तये । . पीनी चाहिये।
अशांसि ग्रहणीशोथपाण्डुशुक्रक्षये नृणाम् ।। इसके सेवनसे प्रमेह नष्ट होता है। यथानुपानतो योज्यः सिद्धः श्रीमेहभैरवः ॥ ( व्यवहारिक मात्रा-२ रत्ती । )
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध बछनाग
| ( मीठा विष ), लोहभस्म; जावत्री, जायफल, (५६७५) मेहनाशनरसः
समन्दर सोख, अफीम, खुरासानी अजवायन, चीता ( र. प्र. सु । अ. ८.) और लौंग समान भाग तथा अभ्रक भस्म सबके लोहभस्म रसभस्म ताप्यकं
बराबर ले कर प्रथम पारे गन्धकको कजली बनावें गन्धकेन सहिनं समांशकम् ।
और फिर उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मिलाकर . वत्सबीजकरसेन भावित
सबको चीतामूलके काथकी सात भावना दें।
. इसे रोगोचित अनुपानके साथ देनेसे समस्त __लेहितं सकलमेहनाशनम् ॥
प्रमेह, अर्श, ग्रहणी, शोथ, पाण्डु और शुक्रक्षयका लोह भस्म, पारद भस्म, स्वर्ण माक्षिक भस्म | नाश होता है। और शुद्ध गन्धक समान भाग ले कर सबको एकत्र
(५६७७) मेहमुद्गरो रसः करके इन्द्रजौ के काथमें घोट कर रक्खें ।
(मेहमुद्गरवटिका) इसे ( शहदके साथ ) सेवन करनेसे समस्त । । (र. र. ; भै. र. ; रसे. सा. सं. ; र. चं. । प्रमेह नष्ट होते हैं।
प्रमेह. ; रसे. चि. म. । अ. ९) ( मात्रा-१-२ रत्ती।)
रसाअनं बिडं देवदारु बिल्वगोक्षुरदाडिमम् । मेहबहरसः
भूनिम्बं पिप्पलीमूलं त्रिकटु त्रिफला त्रिवृत् ॥
प्रत्येकं तोलकं देयं लौहचूर्णन्तु तत्समम् । ( वृ. नि. र. । प्रमेह. ; र. चि. म. । स्तवक :
पलैकं गुग्गुलं दत्त्वा घृतेन वटिकां कुरु ।। ११ ; र. का. धे.)
प्रमेहान् विंशति हन्ति साध्यासाध्यं तथापि वा। '"प्रमेह बद्ध रसः'' प्र. सं. ४४६४ देखिये। मूत्रकृच्छं तथा पाण्डं धातुस्थञ्च ज्वरं जयेत् ॥
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२६६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
हलीमकं रक्तपित्तं वातपित्तकफोद्भवम् । बङ्ग भस्म, पारद भस्म और शुद्ध गन्धक ग्रहणीमामदोषश्च मन्दाग्नित्वमरोचकम् ॥ समान भाग ले कर सबको एकत्र करके एक दिन एतान् सर्वानिहन्त्याशु वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥ धायके फूलों के रसमें घोट कर रखें।
रसौत, बायबिडंग, देवदारु, बेलगिरी, गोखरु, इसे शहदमें मिला कर सेवन करनेसे प्रमेह अनार, चिरायता, पीपलामूल, सोंठ, मिर्च, पीपल, और अतिसार नष्ट होता है। हर, बहेड़ा, आमला और निसोत का चूर्ण आधा मात्रा-६ रत्ती। आधा कर्ष ( प्रत्येक ७॥ माशे ) और लोह भस्म ( व्यवहारिक मात्रा-२ रत्ती । ) सबके बराबर तथा शुद्ध गूगल ५ तोले ले कर (५६७९) मेहानलो रसः सबको एकत्र कूट कर और आवश्यकतानुसार घी | (मेहारिरसः) (१) । डाल कर गोलियां बना लें।
(भै. र. । प्रमेह. ; यो. र. ; वृ. नि. र. । प्रमेह 1.) ___ इनके सेवनसे साध्यासाध्य बीस प्रकारके । भस्मसूतं मृतं वङ्गं तुल्यं क्षौद्रेण मर्दयेत् । प्रमेह, मूत्रकृच्छू, पाण्डु, धातुगत ज्वर, हलीमक, | द्विगुञ्ज भक्षयेन्नित्यं मेहं हन्ति चिरोत्थितम्।। रक्तपित, वातज पित्तज और कफज ग्रहणी, आम- | गुञ्जामूलं पिबेच्चानु क्षीरैरेवं प्रशाम्यति । दोष, अग्निमांद्य और अरुचि आदि रोग नष्ट | पारद भस्म और बंग भस्म समान भाग ले होते हैं।
| कर दोनोंको शहदमें घोट कर २-२ रत्तीकी मेहवज्रो रसः
गोलियां बना लें। (धन्व.। प्रमेह.; रसे. चि. म. । अ. ९; रसे. सा. सं.) इनके सेवनसे पुराना प्रमेह नष्ट हो जाता है। ___“ प्रमेह बद्ध रसः " प्र. सं. ४४६४ ___ अनुपान-औषध खानेके पश्चात् चौंटलीकी देखिये ।
जड़ धमें पीस कर पीनी चाहिये । मेहसेतुरसः
__ (५६८०) मेहारिरसः (२) (र. चं. । प्रमेह.)
( र. चं. । प्रमेह. ; र. प्र. सु. । अ. ८.) " महा सेतु रसः " प्र. सं. ५५८५
टङ्कणं च रसराजगन्धकं देखिये ।
सीसकं च रसकेन संयुतम् । (५६७८) मेहाङ्कुशरसः
नागवल्लिजरसेन मर्दितं __ (र. प्र. सु. । अ. ८)
सर्वमेहकृतरोगनाशनम् ॥ वङ्गभस्म रसभस्म गन्धकं
सुहागा, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, सीसा भस्म धातकीस्वरसकेन मदितम् । और खपरिया समान भाग ले कर सबको पानके लेहितं मधुयुतं हि मेहजि
रसमें घोट कर रक्खें । दल्लयुग्ममतिसारनाशनम् ॥
इसके सेवनसे समस्त प्रमेह नष्ट होते हैं।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
२६७
(५६८१) मेहारिरसः (३) कर दें। और इसे ३ दिन तक सूखने दें। (र. र. स. । अ. १७)
फिर शीशीको लवण यन्त्रमें रख कर ४ पहरकी
अग्नि दें। तदनन्तर जब शीशी स्वांग शीतल हो सूतं बाहुमितं बलिं शशि
जाय तो उसे तोड़ कर उसमें से रस निकाल लें। मितं सम्मध तत्कज्जली
__ अब २ भाग यह रेस और १-१ भाग कृत्वा कृष्णहिरण्यतोय
अभ्रक तथा लोह भस्म ले कर सबको एकत्र सहितां सम्मधे घस्रं पुनः ।
घोट लें। कूप्यां कालिकामभ्रक
___ इसे मिश्री, गुडूची सत्व और शहदके साथ सुपिहितां मृत्स्नांशुकैः सप्तभिः
अथवा पीपलके चूर्ण और शहदके साथ सेवन सम्वेष्टय त्रिदिनं विशोष्य
करनेसे समस्त प्रमेह, पाण्डु, कामला, हलीमक, लवणापूर्णे क्षिपेद्भाण्डके ॥ समस्त पित्तज रोग और प्रदर नष्ट होते हैं। दग्ध्वा यामचतुष्टये च
मात्रा-३ रत्ती शिशिरां भित्वा च तां कूपिकां
(५६८२) मोरेश्वररसः तं सूतं द्विलवं लवं च गगनं लोहं लवं मर्दयेत् ।
(वृ. नि. र. । सन्निपात.) सिद्धो वल्लमितः सिता च
शुद्धं सूतं द्विधा गन्धं दिनैकं चाकद्रवैः । मधुना वत्सादनीसवतो
मर्दयित्वा च तं गोलं गोलार्धे ताम्रसम्पुटे ॥ नोचेक्षौद्रकणायुतश्च
लिप्त्वा निरुए तत्सन्धि मृन्मूषायां निरुध्य च। तरसा सर्वप्रमेहाअयेत् ॥ रात्रौ गजपुटे पाच्यं प्रातरादाय चूर्णयेत् ॥ रोगाधीश्वरपाण्डुकामल
गुजैकं नागरसमं सघृतं सन्निपातनुत् । हरिद्राभत्वपित्तोद्भवान्सींश्च अनुपानं पिवेत्पश्चात्तप्तं वारिपलद्वयम् ॥ पदरामयान्विजयते मेहारिनामा रसः॥ दध्यन्नं दापयेत्पथ्यं तृपायां शीतलं जलम् ।
शुद्ध पारद २ भाग और शुद्ध गन्धक १ | कृशं च कुरुते स्थूलं नरं मोरेश्वरो रसः॥ भाग ले कर दोनोंकी कज्जली बनावें और उसे १ । । शुद्ध पारा १ भाग और शुद्ध गन्धक २ भाग दिन काले धतूरेके रसमें घोट कर ( सुखाकर ) ले कर दोनोंकी कज्जली बनावें और उसे १ दिन आतशी शीशीमें भर दें तथा उसके मुख पर अदरकके रसमें घोट कर गोला बनावें तथा उसे १॥ अभ्रकका पत्र रख कर शीशी पर सात कपड़ मिट्टी | भाग शुद्ध ताम्रके सम्पुट में बन्द करके सन्धिको
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२६८
अच्छी तरह बन्द कर दें । तदनन्तर उस सम्पुटको मिट्टी की मूषामें बन्द करके रातको गजपुट में रख
कर अग्नि लगा दें और प्रात:काल निकाल कर खरल
करके सुरक्षित रक्खें ।
न करें ।)
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
( ताम्रका जो भाग कच्चा रहा हो उसे ग्रहण
[ मकारादि
इसे सेठ चूर्ण और घीके साथ खिलाने से सन्निपात नष्ट होता है ।
मात्रा -- १ रत्ती ।
अनुपान - - औषध खानेके पश्चात् १० तोले गर्म जल पियें ।
पथ्य - दही भात | ध्यास में शीतल जल दें । इसके सेवनसे कृश मनुष्य स्थूल हो जाते हैं ।
इति मकारादिरसप्रकरणम्
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अथ मकारादिकल्पप्रकरणम्
(५६८३) मृणालकल्पः
यावज्जीवं सिता न स्युः शुक्रवृद्धिः परा भवेत् लाभप्रतिमं भूयाद्वपुः कालवशं न च ॥
( र. चि. म. । स्त. ९)
भवन्ति कालनामानि मृणालानि समानयेत् । गच्छेन्न जायते रोगास्तस्य देहे कदा च न । राजयोग्यत्ययं कल्पो विशेषात्पूज्य उत्तमः ॥
तद्रसन्तिलचूर्णेन समं कुर्याद्रसायनी ॥ सर्पिस्तेन समं दद्यान्मधुखण्डं तथैव च । आय से भाजने सर्वं विनिक्षिप्य निरुध्यते ॥ तुषं तस्याऽथ भाण्डस्य स्थापयेद्वह्निसन्निधौ । एकत्रिंशदिने ती पश्चात्तद्भक्षयेत्सदा ॥ योग्यमात्रां गृहीत्वाऽथ तस्योपरि च शर्कराः । कोशकारांश्च पश्चाद्धि गृह्णीयात्पथ्यभुग्ररः ॥ अम्लं च वर्जयेन्नित्यं नित्यं क्षारं च वर्जयेत् । क्रोधं च मैथुनं कल्पसेवी नित्यं विवर्जयेत् ॥ शीतस्थानं समाश्रित्य तिष्ठत्यविरतं बुधः । मासत्रयेप्यतिक्रान्ते केशाः कालाः सुकोमलाः।। शरीरं दृढवच्च स्याज्जायते सुमनोहरम् । अतिगौर महोत्साही तस्य केशाः कदाचन ॥ | चाहिये । तथा पथ्य पूर्वक रहना चाहिये ।
काल नामक कमलनाल (मृणाल ) को कूट कर रस निकालें और उसमें तिल चूर्ण, घी, शहद और खांड; प्रत्येक उस रसके बराबर मिलाकर सबको लोह पात्र में भर कर उसका मुख बन्द कर दें और इस पात्रको तुषके ढेर में ऐसे स्थान पर दबा दें जिसके पास नित्य अग्नि जलती हो ।
इसे यथोचित मात्रानुसार खा कर ऊपर से 'खांड और कोशकार ( ईख विशेष - कुशिया) खानी
जब २१ दिन बीत जाएं तो औषधको सेवन योग्य समझें ।
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मिश्रप्रकरणम् ]
: चतुर्थों भागः
२६९
इसके सेवन कालमें अम्ल और क्षार पदार्थ, इसको सेवन करने वालेके केश जीवन पर्यन्त क्रोध तथा मैथुनका त्याग करना आवश्यक है । सफेद नहीं होते। शीत स्थानमें रहना चाहिये। .. ___ इसे निरन्तर ३ मास तक सेवन करनेसे . इसके सेवनसे बल और वीर्यकी अत्यधिक सफेद बाल काले और कोमल हो जाते हैं; शरीर
वृद्धि होती है तथा जो इसे सेवन करता है उसे दृढ़ और मनोहर हो जाता है; शरीरका रङ्ग अत्यन्त गौर हो जाता है तथा उत्साह अत्यधिक
कोई रोग नहीं होता। बढ़ जाता है।
यह कल्प राजाओंको सेवन कराने योग्य है। इति मकारादिकल्पप्रकरणम्
अथ मकारादिमिश्रप्रकरणम्
(५६८४) मञ्जिष्ठाद्योऽगदः है; केवल सुवर्ण, रजत यो ताम्रके कड़ेसे उसके
(व. से. । विषरोगा. ) मणिबन्ध (पहुंचे) को दाग देना चाहिये । मअिष्ठेला निशा द्राक्षा मांसी यष्टी हरेणुका ।।
(५६८६) मण्डयोगः क्षौद्रं चेति विषघ्नोऽयमगदः काशिकोऽब्रवीत् ।। मजीठ, इलायची, हल्दी, मुनक्का, जटामांसी,
(ग. नि. । अजीर्णा.) मुलैठी और रेणुका समान भाग ले कर चूर्ण | अन्नमण्डं पिबेदुष्णं हिङ्गुसौवर्चलान्वितम् । बनावें । इसे शहदमें मिला कर खिलानेसे विष विषमोऽपि समस्तेन मन्दो दीप्येत पावकः ॥ नष्ट होता है।
शुद्धोधनो बस्तिविशोधनश्च (५६८५) मणिबन्धदहनम्
प्राणप्रदः शोणितवर्धनश्च । (वै. म. र. । पटल १०) किमौषधगणैः कृतैः सकलमन्त्रवादैश्च किं
ज्वरापहारी कफपित्तहन्ता चिरेण वत जीवितुं यदि महाभिलाषोऽस्ति वः
वायुं जयेदष्टगुणो हि मण्डः ॥ सुवर्णवलयेन वा रजतकेन ताम्रण वा
सुतण्डुलानां प्रसृतीद्वयं च दहेत मणिबन्धने सपदि कामलारोगिणः॥ तदर्धमुद्गः कुडवं च तक्रम् ।
कोमला रोगीके लिये औषधांका प्रयोग करना कुस्तुम्बरी सैन्धवहिङ्गु तैलमेव्यर्थ है, मन्त्रादि की भी कोई आवश्यकता नहीं भिश्च सर्वेः क्रियते च मण्डः ॥
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२७०
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
[मकारादि
-
चावलेोके उष्ण मण्डx में हींग और काला | (५६८८) मद्यमप्रतीकारः नमक मिला कर पिलानेसे विषमाग्नि सम और (रा. मा. । विष रोगा. २८) मन्दाग्नि दीप्त हो जाती है।
लीवा घृतं शर्करया समेतं ___ उत्तम भुने हुवे चावल २० तोले, भुनी हुई निषेवते यो मदिरां प्रकामम् । मूंग १० तोले और तक ४० तोले लेकर सबको उद्दामदाऽपि न तस्य सा स्याएकत्र मिला कर उसमें ४। सेर पानी डाल कर न्मदस्य हेतुः परिपीयमाना ॥ पकावें और उसमें आवश्यकतानुसार धनिया, सेंधा, यदि घी और खांड मिलाकर चाटनेके पश्चात् हींग तथा तेल मिला कर मण्ड तैयार करें। उग्र मदिरा भी यथेच्छ परिमाणमें पी जाय तो ____ यह मण्ड क्षुधाको जाग्रत और बस्तिको शुद्ध । उसका नशा नहीं चढ़ता । करता है । तथा प्राणप्रद, रक्तवर्द्धक, ज्वरनाशक, (५६८९) मधुकादियोगः कफ पित्त हन्ता और वायु शामक है।
(व. से. । नेत्ररोगा.) (५६८७) मदनादिफलवतिः मधुकामलकस्नानं पित्तनं तिमिरापहम् । (वं. से. ; भा. प्र.; वृ. मा. । उदावर्ता. ____ मुलैठी और आमलेके साथ पके पानीसे स्नान व. यो. त.। त. ९६; यो. त. । त. ४५ करनेसे पित्त और तिमिर रोग नष्ट होता है । ___यो. र. । उदावर्त.)
(५६९०) मधुयोगः (१) मदनं पिप्पली कुष्ठं वचा गौराश्च सर्पपाः । (वै. जी. । विलास ४) गुडक्षारसमायुक्ता फलवतिः प्रशस्यते ॥
मदनज्वरकारिनामधेये आनाहं च गुदे शूलं कुक्षिशूलकमेव च ।
रसिके रत्नकले प्रभातकाले। तस्यवातमुदावत योगेनानेन शाम्यति ॥
शिशिराम्बु पिबन्मधुप्रयुक्तं __ मैनफल, पीपल, कूठ, बच, सफेद सरसों,
गणनाथोपि भवेत्किलास्थिशेषः ॥ गुड़ और जवाखार समान भाग लेकर चूर्णयोग्य चीजोंके चूर्णको गुड़में मिला कर बत्तियां बनावें ।
शीतल जलमें शहद मिलाकर प्रातःकाल पीनेसे इनमेंसे १-१ बत्ती मलमार्गमें रखनेसे
| अत्यन्त प्रवृद्ध स्थूलता भी नष्ट हो जाती है। अफारा, गुदाकी पीड़ा, कुक्षिशूल, वायु और उदा
(५६९१) मधुयोगः (२) वर्त नष्ट होता है।
(यो. त.। त. ७५) अन्नको १४ गुने पानीमें इतना पकावें कि मधुच्छागीपयः पीतं किंवा श्वेताद्रिकर्णिका । उसमें मोटे कण बाकी न रहें। इसीका नाम | पारावतमलं पीतं व्यहं तण्डुलवारिणा ॥ मण्ड है।
गर्भिणीगर्भतो रक्त स्तम्भयेभिपतद्रुतम् ॥
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मिश्रप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
२७२
बकरीके दूधमें शहद डाल कर पीनेसे, अथवा (५६९५) महाऽगदः सफेद कोयल या कबूतरकी विष्ठाको चावलोंके (वं. से ; वृ. मा. । विषा. ; ग. नि. सर्पविष. पानीमें पीस कर पीनेसे ३ दिनमें गर्भिणीका रक्त- ३., आ. वे. वि. । चि. अ. ८२) स्राव बन्द हो जाता है।
त्रिवृद्विशल्या मधुकं हरिद्रे (५६९२) मधुसपिरादियोगः
माञ्जिष्ठवर्गों लवणं च सर्वम् ।
कटुत्रिकं चैव विचूर्णितानि ( वृ. मा. । ज्वरा.)
__ शृङ्गे निदध्यान्मधुसंयुतानि ॥ मधु सर्पिः सिता कृष्णा भृतक्षीरविलोडिता । एषोऽगदो हन्त्युपयुज्यमानः विषमज्वरहृद्रोगक्षतकासज्वरापहा ॥
पानाञ्जनाभ्यअननस्ययोगैः। शहद, घी, मिश्री (२-२ तोला) और
अवार्यवीर्यो विषवेगहन्ता पीपलका चूर्ण (१॥ माशा) लेकर सबको पके हुवे
महागदो नाम महाप्रभावः ॥ दूधमें मिला कर सेवन करनेसे विषमज्वर, हृद्रोग
निसोत, गिलोय, मुलैठी, हल्दी, दारुहल्दी, और क्षतज कासका नाश होता है।
मजीठ, सेंधा नमक, सोंठ, मिर्च और पीपलका
चूर्ण समान भाग ले कर सबको शहद में मिलाकर (५६९३) मरिचशोधनम्
सींगमें भर कर रख दें। (यो. र. । प्रथम भाग.) ।
यह अगद सादिके भयंकर विषको भी नष्ट मरीचं चाम्लतक्रेण भावितं घटिकात्रयम । | कर देता है । अत्यन्त प्रभावशाली है। मरीचं निस्तुषं कृत्वा शुद्धं भवति निश्चितम् ॥
इसे पान, अञ्जन, अभ्यंग और नस्य द्वारो
प्रयुक्त करना चाहिये । काली मिर्चीको ३ घड़ी तक खट्टे तक्रमें |
। (५६९६) महागन्धहस्तीनामाऽगदः भिगो कर छील लेनेसे वे शुद्ध हो जाती हैं।
(च. सं. । चि. अ. २३) (५६९४) मसूरसक्तुयोगः पत्रागुरुमुस्तैला निर्यासाः पश्च चन्दनं स्पृक्का ।
वनलदोत्पलबालकहरेणुकोशीरव्याघ्रनखाः॥ (व. यो. त. । त. ८३ )
सुरदारुकनककुडमध्यामककुष्ठप्रियङ्गवस्तगरम्। मसूरसक्तवः क्षौद्रं मर्दितं दाडिमाम्भसा। पञ्चाङ्गानि शिरीषाद्वयोषालमनःशिलाजाज्यः।। पीता निवारयन्त्याशुच्छदि दोषत्रयोद्भवाम् ॥ श्वेताफटभी करञ्जो रक्षोनः सिन्धुवारिका ___ मसूरके सत्तूमें शहद और अनारका रस मिला
रजनी। कर पिलानेसे त्रिदोषज छदि शीघ्र ही नष्ट हो सुरसरसाधनगैरिकमाश्रिष्ठानिम्बपत्रनिर्यासाः॥ जाती है।
१-रक्तां नरेन्द्री लवणञ्च वर्गः
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२७२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि वंशत्वगश्वगन्धा हिङ्गु दधित्थाम्लवेतसं लाक्षा। यथाहं नाभिजानामि वासुदेवपराजयम् । मधुमधूकसोमराजीवचारुहारोचनातगरम् ॥ मातुश्च पाणिग्रहणं समुद्रस्य च शोषणम् ॥ अगदोऽयं वैश्रवणायाख्यातस्त्रयम्बकेण षष्टयङ्गः अनेन सत्यवाक्येन सिध्यतामगदो ह्ययम् । अप्रतिहतप्रभावः ख्यातो महागन्धहस्तीति ॥ हिलिहिलिमिलिमिलिसंसृष्टे रक्ष सर्व भेषपित्तेन गवां पेष्या गुलिकाः कार्यास्तु पुष्य
. जोत्तमे स्वाहा ॥ योगेन ।
___ इति महागन्धहस्ती नामाऽगदः । पानाञ्जनप्रलेपैः प्रसाधयेत्सर्वकर्माणि ॥
तेजपात, अगर, नागरमोथा, इलायची, पञ्चपिल्लं कण्डू तिमिरं रायन्ध्यं काचर्बुदं पटलम्
| निर्यास (राल, गूगल, सिल्हक, लोबान और अफीम). हन्ति सततप्रयोगाद्धितमितपथ्याशिनां पुंसाम्॥
चन्दन, स्पृक्का (असवरग), दालचीनी, जटामांसी, विषमज्वरानजीर्णान्दद्रुकण्डूविसूचिकापामाः । कुष्ठं किटिभं चित्रं विचर्चिकां चोपहन्ति नृणाम
कमल, सुगन्धबोला, रेणुका, खस, नखी नामक विषं मूषिकलूतानां सर्वेषां पन्नगानां च । ।
गन्ध द्रव्य, देवदारु, धतूरा, केसर, गन्धतृण, कूठ,
फूलप्रियङ्गु, तगर, सिरसका पंचांग (छाल, फूल, पत्र आशु विषं नाशयति मूलजमथ कन्दजं सर्वम् ॥
बीज, जड़); सांठ, मिर्च, पीपल, हरताल, मनसिल, एतेन लिप्तगात्रः सर्पान गृह्णाति भक्षयेच्च विषम्
१५५ जीरा, अपराजिता (सफेद फूलकी कोयल), कटभी कालपरीतोऽपि नरो जीवति नित्यं निरातङ्कः।।
रातक( अपराजिता भेद या छोटी माल कंगनी), करञ्ज, आनद्धे गुदलेपो योनौ लेपश्च मूढगर्भाणाम् ।।
माणाम् ।। सफेद सरसो, संभालु, हल्दी, तुलसी, रसौत, गेरु, मोतिषु च ललाटे लेपनमाहुः प्रधानतमम ।। मजीठ, नीमके पत्तोंका रस, बांसकी छाल, असगन्ध, भेरीमृदङ्गपटहान् छत्राण्यमुना तथा ध्वजपताका
N होंग, कैथ, अम्लबेत, लाख, मुलैठी, महुवेके फूल, लिप्त्वाऽहिविषनिरस्त्यै प्रध्वनयेदर्शयेन्मतिमान्।।
बाबची, वच, रुहा - ( दूर्वा या मांसरोहिणी) यत्र च सन्निहितोऽयं न तत्र बालग्रहान रक्षांसि
गोरोचन और तगर, पुष्य नक्षत्रमें ये साठ न च कार्मणवेताला भजन्ति नाथर्वणा मन्त्राः |
| ओषधियां समान भाग लेकर महीन चूर्ण बनावें सर्वग्रहा न तत्र प्रभवन्ति न चाग्निशस्त्रनृपचौराः
॥रा और उसे गोपित्तमें* घोटकर गोलियां बना लें। लक्ष्मीश्च तत्र भजते यत्र महागन्धहस्त्यस्ति ॥
इसे पान अञ्जन पिष्यमाण इमं चात्र सिद्धं मन्त्रमुदीरयेत् ।।
और प्रलेप द्वारा प्रयुक्त मम माता जया नाम विजयो नाम मे पिता ॥
करना चाहिये । सोऽहं जयो जयापुत्रो विजयोऽथ जयामि च ।
इसे हित मित पथ्य भोजन करते हुवे आंखमें नमः पुरुषसिंहाय विष्णवे विश्वकर्मणे ॥ Xमूल पाठमें गोपित्त शब्द है परन्तु १० सनातनाय कृष्णाय भवाय विभवाय च । . वर्षका पुराना गोघृत मिलानेसे भी गुण दायक तेजो वृषाकपेः साक्षात्तेजो ब्रह्मेन्द्रयोर्यमे ॥ । सिद्ध होगा ।
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चतुर्थों भागः
२७३
लगानेसे पिल्ल, आंखकी खुजली, तिमिर, रतौंधा, | रक्खेंगे और उसे राजा तथा चोरादि भी हानि न काच, अर्बुद और पटलादि नेत्र रोग नष्ट होते हैं। पहुंचाएंगे, न उस पर कोई शस्त्र प्रहार करेगा और ___ यह अगद विषम ज्वर, अजीर्ण, दाद, | न अग्नि लगायगा । ) खुजली, विसूचिका, पामा, कुष्ठ, किटिभ, श्वेत जिसके पास यह अगद होगा उसे धनकी कुष्ठ, विचर्चिका, चूहेका विष, मकड़ीका विष, कमी न रहेगी। समस्त प्रकारके सोका विष, मूलविष और कन्द
इसे तैयार करते समय " मम माता........ विष इत्यादिको शीघ्र ही नष्ट कर देता है। स्वाहा” मन्त्रका जाप करते रहना चाहिये ।
इस अगदका शरीर पर लेप करके सर्पको पकड़ लिया जाय या विष भक्षण कर लिया जाय
___ (५६९७) महाद्रावकम् (१) तो भी प्राण हानि नही हो सकती।
(भै. र. । प्लीह. ; धन्व. । उदर.) ____ यदि विषके प्रभावसे मृत्प्रायः व्यक्ति पर भी | यवक्षारस्य भागौ द्वौ स्फटिक रिस्त्रयो मताः। इसे प्रयुक्त किया जाय तो वह स्वस्थ हो जाता है। एकीकृत्य प्रपिष्यापि मूत्रैर्वत्सतरीभवैः ॥
आध्मान रोगमें गुदो पर और मूढगर्भ में योनिपर | शुष्कं कृत्वा क्षिपेत्पात्रे शेशके वस्त्रले पिते । इसका लेप करना चाहिये । मूर्छा और शिर | अन्यशीशकपात्रेण मुखं सम्मेलयेद् बुधः ॥ पीड़ामें शिर पर इसका लेप करना अत्यन्त पात्रस्याधःप्रदीप्ताग्नेः सौपधान्नलिकान्वितात । लाभदायक है।
पात्रेऽन्यस्मिन् रसो याति बाष्परूपेण सञ्चितः।। __ भेरी, मृदङ्ग और ढोल आदि बाजों पर ततो रसं विनिष्कृष्य स्थापयेत्स्निग्धभाजने । इसका लेप करके उन्हें सर्पविष-ग्रस्त मनुष्य के ! लवङ्गन वटी कुर्यादथवा मृतताम्रकैः ॥ सामने बजाने और छत्र, ध्वजा तथा पताका |
। प्लीहादिस्थूलरोगेषु दापयेद्रक्तिकां भिषक् । पर लेप करके उसे दिखानेसे विष नष्ट हो
| दूरीकरोति रोगश्च महाद्रावकसंज्ञकः ॥ जाता है।
वित्रे च दद्ररोगे च प्रलेपं द्रावकस्य च । ___ जिस स्थानमें यह अगद रहता है वहां |
वह्निवज्ज्वलनं तस्य दधि दत्त्वा प्रलापयेत् ॥ बालग्रह, राक्षस कार्मण, बेताल और विरोधियों
२ भाग जवाखार और ३ भाग फटकीको द्वारा प्रयुक्त अथर्व वेदोक्त मन्त्र किसी प्रकारकी
___*मन्त्र जापको मिथ्यावाद न समझना हानि नहीं कर सकते।
| चाहिये । मन्त्र, हिप्नोटिज्मका एक प्रधान अंग है। ___इसकी विद्यमानतामें अग्नि शस्त्र, राजा और इसीको “ सजेशन " कहते हैं। यदि सजेशन चोरादि भी हानि नहीं पहुंचा सकते । ( जिसके ! या मन्त्रका प्रयोग सन्देह रहित विश्वासके साथ पास यह औषध होगी उससे सभी लोग अपने विधिवत किया जाय तो अवश्य फलदायक स्वार्थ वश या उसकी महत्ताके विचारसे मित्र भाव । होता है ।
૩૫
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२७४
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
एकत्र पीस कर बछिया के मूत्रमें घोट कर सुखा और फिर उसे कपड़ मिट्टीकी हुई आतशी शीशी में भर दें तथा उसके मुखमें एक तिरछी ( कुहनी बाली ) नली लगा कर उसका दूसरा सिरा एक अन्य शीशीके मुखमें लगा दें एवं औषधवाली शीशीको चूल्हे पर रक्खें और उसके नीचे अग्नि जावें तथा दूसरी शीशीको पानी से भरे हुवे पात्र में रक्खें; पानी शीशीके गले तक रहना चाहिये ।
इस क्रिया औषध वाले पात्रसे वाष्प निकल कर खाली शीशी में जायगी और द्रवरूप हो कर एकत्रित होती रहेगी । यह ध्यान रखना चाहिये कि वाष्प शीशीके बाहर इधर उधर न जाने पावे ।
"
जब भाप उठनी बन्द हो जाय तो अग्नि बन्द कर दें। और “ द्राव (अर्क ) ” को शीशीमें भर कर सुरक्षित रक्खें ।
( यह एक प्रकारका तेजाब है अतः ध्यान रखना चाहिये कि त्वचा और आंख इत्यादि को नलगे । इसे पानी या किसी अन्य औषध में मिलाए 1 बिना कदापि न पीना चाहिये । )
इसे लवङ्गके चूर्ण या ताम्र भस्ममें मिलाकर घोट कर गोलियां बना लेनी चाहियें ।
इसे खाने से लोहादि रोग और लगानेसे श्वित्र तथा दाद नष्ट होता है ।
इसे लगाने से तीव्र दाह होती है, उस पर दहीका लेप करने से वह शान्त हो जाती है ।
पानीमें डालकर या उपरोक्त लेखानुसार गोलियां बनाकर सेवन करना चाहिये | ) १ रत्ती ( १ बूंद ) ।
मात्रा
[ मकारादि
(५६९८) महाद्रावकम् (२) ( धन्व. । उदर; भै. र. । उदरा. ) वृषचित्रमपामार्ग चिचा कूष्माण्ड नाडिका । स्नुही तालस्य पुष्पञ्च वर्षाभूर्वेतसं तथा ॥ एतेषां क्षारमाहृत्य लिम्पाकस्वरसेन च । क्षालयित्वा क्षारतोयं वस्त्रपूतञ्च कारयेत् ॥ चण्डापेन संशोष्य ग्राह्यं तद् द्रवणोचितम् । एतस्य द्विपलं ग्राह्यं यवक्षारपलद्वयम् ॥ स्फटिकारिपलञ्चैव नरसारपलन्तथा । पलार्द्ध सैन्धवं ग्राह्यं टङ्कणं तोलकद्वयम् ॥ काशीशं तोलकञ्चैव मुद्राशङ्खश्च तोलकम् । दारुमोचं कर्षकञ्च तोलं समुद्रफेनकम || सर्वमेकत्र सञ्चूर्ण्य वकयन्त्रेण साधयेत् । महाद्रावकमेतद्धि योज्यञ्च रसजारणे ॥ हन्ति गुल्मादिकान् रोगान् यकृत्प्लीहोदरानि च
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वासा, चीता, अपामार्ग ( चिरचिटा ), इमलीकी छाल, पेठेकी बेलकी डंडी (डंटल ), सेंड (थोहर), तालके पुष्प, पुनर्नवा और बेत; इनके क्षार समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर नीबू के स्वरसमें घोल कर छान लें और फिर उस | जलको प्रचण्ड धूप में शुष्क करें ।
अब यह क्षार १० तोले, यवक्षार १० तोले, फटकी ५ तोले, नौसादर ५ तोले, सेंधा नमक २॥ तोले, सुहागा १| तोला, कसीस ७॥ माशे, मुर्दाशंख ७ ॥ माशे, शुद्ध संखिया १| तोला और समुद्रफेन ७॥ माशे लेकर सबको एकत्र मिलाकर कांचके बकयन्त्र ( भपके ) से ( पूर्व प्रयोग में कथित विधि के अनुसार ) अर्क खींचे ।
यह द्रावक ( अर्क ) पारद जारण में प्रयुक्त
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चतुर्थों भागः
होता है । तथा इसे सेवन करनेसे गुल्म, यकृत् , सर्वार्थीसि भगन्दरान क्रिमिगदान पश्चैव प्लीहा और उदर रोग नष्ट होते हैं ।
कासांस्तथा (मात्रा-१ बूंद । पानीमें डालकर पिलावें ।) हिकाश्लीपदकोषदृद्धिमरुचिव्याधि महादारुणम्। (५६९९) महाद्रावकरसः नव्यं वा चिरज ज्वरं बहुविधं छर्दि क्रिमीन् ( भै. र. । प्लीहा.)
विंशति शुद्धं काञ्चनमाक्षिकं मृदुतरं कांस्याभिधं तत्तथा। यक्ष्माणं चिरजामवातपिडकावीसर्पविस्फोटकम्।। सिन्धूत्थं विमलं रसाअनवरं फेनः स्रवन्तापतेः। उन्मादं स्वरभेदमबुंदमपि स्वेदश्च हृत्पाणिजं क्षारौ सर्जिकसाम्भलौ सुविमलौ भागास्त्व-जिह्वास्तम्भगलग्रहं चिरभवं ग्रीवारुजामुल्वणाम्।
मीषां समाः। नासाकर्णशिरोऽक्षिवक्त्रजगदान् क्षुद्रामयांश्चासप्तानां सदृशन्तु टङ्गणमिहास्याझै नृसारः ।
परान् सितः ॥ हन्यादेव चिरोत्थितान् बहुविधानन्यांश्च तत्तुल्या स्फटिकारिका त्रिसदृशः शुक्लो यव
रोगानपि ॥ स्याग्रजः। एकः स्यादपरो हि टङ्गणमुर्खदैव्यैः परैः सप्तकैकाशीशत्रितयं यवाग्रजसमं सञ्चूर्ण्य सवै न्यसेत् रन्यस्तु स्फटिकारिटङ्गणयवक्षाराग्रका पीसकैः । पात्रे काचमये मृदम्बरवृते यन्त्रे वकाख्ये भिषक् जानीयाद गुरुतो विभागमनयोर्यन्त्रादिकं चापर ज्वालेन क्रमवर्द्धिनात्यवहितोऽमीषां रसं पातयेत
यव निर्दिष्टास्त्रय एव भेषजवराः स्वल्पो महान् यो द्राग् भस्म वराटिकां प्रकुरुते सोऽयं महा
द्रावकः। को वक्तुं प्रभवेदमुष्य नितरां सम्यग् गुणान्
___टङ्गणादिकासीसान्तैः सप्तद्रव्यैर्मध्यमः । स्फटि
| कारिकाशीशान्तश्चतुर्दव्यै स्वल्पः । स्वर्णमाक्षिकादिपासंग्यात् कथयामि तान् शृणु गुणानस्यैव ।
नव कासीसत्रितयान्तैर्महान् ।
कांश्चित्परान् । शुद्ध स्वर्ण माक्षिक और कांस्य माक्षिकका एतद्वल्लचतुष्टयं सह गिलेत् शुण्ठया लवङ्गेन बा | अत्यन्त महीन चूर्ण, सेंधा नमक, रसौत, समन्दर तत्पश्चात्परिवासितं बहुगुणं ताम्बूलकं भक्षयेत् ॥ झाग, सज्जीखार और सांभलक्षार १-१ भाग निःशेष विनिहन्त्यसौ चिरभवान्यष्टोदराणि सुहोगा ७ भाग, नौसादर ३॥ भाग, फटकी ३॥
ध्रुवम् । | भाग, सफेद जवाखार १४ भाग और तीनों प्रकागुल्मं पाण्डुहलीमकं सुकठिनामष्ठोलिकां कामलां रके कसीस ( कसीस, धातु कसीस. पुष्प कसीस ) मन्दाग्निं विषमाग्नितां बहुविधान् शोथांश्च समान-भाग-मिश्रित १४ भाग ले कर सबको
शूलानपि ॥ । एकत्र पीस कर, कपर मिट्टी की हुई आतशी शीशीमें
मध्यमः॥
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२७६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मकारादि
चाहिये।
भर कर ( पूर्व प्रयोगमें कथित विधि के अनुसार ) जवाखार और तीनों कसीससे निर्मित मध्यम द्रावक बकयन्त्र (भपके) द्वारा अर्क खींच लें। इसके और फिटकी, सुहागा, जवाखार तथा कसीससे नीचे प्रथम मन्दाग्नि जलानी और फिर उसे धीरे | निमित स्वल्प द्रावक कहलाता है। धीर बढ़ाते जाना चाहिये।
___ इनके बनानेकी विधि गुरुसे सीखनी चाहिए। ___ यह रस (अर्क) कौड़ियोंको शीघ्रही भस्म कर | (५७००) महाशाल्वणयोगः देता है । इसके पूर्ण गुणोंका वर्णन तो संसारमें (यो. र. । वातव्या. ; शा. ध.) कोई भी नहीं कर सकला तथापि यहां कुछ गुणोंका | कुलत्थमाषगोधमैरतसीतिलसर्षपैः। उल्लेख किया जाता है।
शतपुष्पादेवदारुशेफालीस्थूलजीरकैः ।। इसमेंसे ३ वल्ल रस शुण्ठी या लवंगके चूर्णके एरण्डबिल्वमूलैश्च रास्नामूलैश्च शिग्रुभिः । साथ खा कर सुगन्ध युक्त पुराना पान खाना मिशिकृष्णाकुठेरैश्च लवणरम्लसंयुतैः ॥
प्रसारण्यश्वगन्धाभ्यां बलाभिर्दशमूलकैः । (व्यवहारिक मात्रा-२-३ बूंद) गुडूच्या वानरीबीजैर्यथालाभं समाहृतैः ।। इसके सेवनसे समस्त प्रकारके पुराने उदर क्षुण्णैः स्विनैश्च वस्त्रेण धृतैः संस्वेदयेन्नरम् । रोग अवश्य नष्ट हो जाते हैं । यह रस गुल्म, महासाल्वणसंज्ञोयं योगः सर्वानिलार्तिजित् ॥ पाण्डु, हलीमक, कठिन अष्ठीला, कामला, मन्दाग्नि, ____ कुलथी, उड़द, गेहूं, अलसी, तिल, सरसों, विषमाग्नि, अनेक प्रकारके शोथ, शूल, हर प्रकारके सोया, देवदारु, शेफालिका ( संभालु ), कलौंजी, अर्श,भगन्दर, कृमि, पांच प्रकारकी खांसी, हिचकी, . अरण्डमूल, बेलकी जड़की छाल, रास्नामूल, सहस्लीपद, अण्ड वृद्धि, अरुचि और नवीन तथा | जनेकी जड़, सौंफ, पीपल, बनतुलसी, पांचों पुराना घर, अनेक प्रकारकी छर्दि, यक्ष्मा, पुराना, नमक, प्रसारणी, असगन्ध, बला (खरैटी) दशमूलकी आमवात ( गठिया ), पिडका, विसर्प, विस्फोटक, प्रत्येक वस्तु, गिलोय और कौंचके बीज । इनमेंसे उन्माद, स्वरभेद, अर्बुद, (निर्बलतासे उत्पन्न होने जितनी ओवधियां मिल सके वे सब समान भाग वाला ) छाती और हाथ पैरोंका पसीना, जिह्वा- ले कर कूट कर कांजी में पकावें । ( पकाकर पुल. स्तम्भ, गलपह, गर्दनकी पीड़ा, नाक कान शिर | टिसके समान बना लें।) आंख और मुंहके रोग और बहुतसे क्षुद्र रोग तथा इसे वस्त्र पर फैला कर उससे वातपीड़ित अ य अनेक प्रकारके जीर्ण रोगोंको नष्ट करता है। अङ्गको स्वेदित करनेसे हर प्रकारकी वातज पीड़ा ___ यह द्रावक ३ प्रकारका होता है--(१) नष्ट होती है । महान (२) मध्यम और (३) स्वल्प।
(५७०१) मातुलिङ्गादिकवल: उपरोक्त सम्पूर्ण औषधोंसे निर्मित रसको (वृ. नि. र. । ज्वर.) महा द्रावक कहते हैं । सुहागा, नौसादर, फटकी, ! अरुचौ मातुलुङ्गस्य केसरं साज्य सैन्धवम् ।
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मिश्रप्रकरणम् ] चतुर्थो भागः
२७७ धात्रीद्राक्षासितानां वा कल्कमास्ये तु धारयेत् ॥ कर ) दूधमें पकावें । जब खीर तैयार हो जाय
बिजौरे नीबूकी केसरको पीस कर उसमें घी तो उसमें खूब घी डाल कर तथा मिसरीसे मीठा और ( स्वाद योग्य ) सेंधा नमक मिला कर मुखमें | करके खाएं। धारण करनेसे अथवा आमले, मुनक्का और मिस- यह पायस (खीर) इतनी वाजीकरण है कि रीको पीस कर मुखमें धारण करनेसे अरुचि नष्ट इसे सेवन करनेसे सैकड़ों स्त्रियोंसे रमण करनेकी होती है।
शक्ति आ जाती है। (५७०२) मानमण्डः
_ (५७०४) माषादियोगः (धन्वन्तरि । शोथा. ; व. से. ।। (सु. सं. । अ. २६ वाजीकर.) शोथा., उदर रोगा.)
माषान् विदारीमपि सोच्चटाञ्च । पुराणं मानकं पिष्ट्वा द्विगुणीकृततण्डुलम् । क्षीरे गवां क्षौद्रघृतोपपन्नाम् ॥ साधितं क्षीरतोयाभ्यामभ्यसेत् पायसं तु तत् ॥ पीत्वा नरः शर्करया सुयुक्ताम् । हन्ति वातोदरं शोथं ग्रहणीं पाण्डुतामपि । । कुलिङ्गवष्यति सर्वरात्रम् ।। सिद्धो भिषभिराख्यातः प्रयोगोऽयं निरत्ययः उड़द, विदारी कन्द और चौंटलीको पीस
१ भाग पुराने मानकन्दको पीस कर २ भाग | कर गोदुग्धमें पका कर खोर बनावें और उसमें घो, चावलों में मिलावें और फिर उसमें सात गुना दूध शहद तथा (स्वाद योग्य) मिश्री मिलाकर पियें । तथा उतनाही पानी मिलाकर पकावें।
इसे खानेसे काम शक्ति इतनी बढ़ जाती है यह मण्ड* वातोदर, शोथ, ग्रहणी दोष | कि मनुष्य रातभर कुलिङ्ग वत बार बार स्त्रीसमाऔर पाण्डुको नष्ट करता है।
गम कर सकता है। (५७०३) माषपायसः । नोट-चौंटली बहुत थोड़े परिमाणमें (आधा ( रा. मा. । रसा. वाजीकर. ३२; र. र. माशा) लेनी चाहिये । रसा. ख. । उ. ६.)
(५७०५-६) मुखधावनयोगी मायुविधा विदलितैघृतसम्प्लुतैयः
(वृ. नि. र. । अरुचि.) संसाध्य पायसमतुच्छघृतं सिताढयम् । कारचं दन्तकाष्ठं च विधेयमरुचौ सदा । अश्नात्यसावविरत रतमातनोति किञ्चिल्लवणसंयुक्तमारनालं विपाचयेत् ॥ योषिच्छतेन सममप्रतिबद्धवेगः ॥
| तेन गण्डूषकं कुर्यादास्य वैरस्य शान्तये ॥ उड़दकी दालको घीमें चिकना करके ( भून- |
(१) अरुचिमें सदैव करञ्जकी दातौन करनी *मण्ड बनानेके लिये अन्नसे १४ गुना चाहिये । पानी डालकर इतना पकाना चाहिये कि उसमें (२) काजीमें जरासा नमक डालकर पकाकर मोटे कण न रहने पावें ।
| उसके गण्डूष (कुल्ले) करनेसे अरुचि नष्ट होती है।
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२७८ भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[मकारादि (५७०७) मुखधावनयोगः | अतिसरणं बहुवेगं दुर्वारं धारयत्याशु ॥
(वृ. नि. र. । अरुचि.) अहिफेनातियोगेन नातिसारो निवर्तते । अजाजी मरिचं कुष्ठं बिडं सौवर्चलं तथा। किन्त्वस्य बहुभिर्योगैर्मामृतो मृत एव सः॥ मधुकं शर्करा तैलं वातिके मुखधावनम् ॥
१ रत्ती अफीमको बकरीके दूधके साथ ___जीरा, काली मिर्च, कूठ, बिडलवण, सञ्चल |
देनेसे तीव्र वेग वाला भयङ्कर अतिसार भी रुक (काला नमक), मुलैठी और खांड समान भाग ले
जाता है। कर, चूर्ण बनाकर उसमें तेल मिलाकर उससे सुख स्वच्छ करनेसे वातज अरुचि नष्ट होती है।
अफीम अधिक मात्रामें सेवन न करानी
चाहिये क्यों कि इससे अतिसार बन्द नहीं होता (५७०८) मुशल्यादियोगः (नपुंसका मृता. । त. ३; यो. र. । वाजीक.)
बल्कि हानि ही होती है । ( थोड़ी मात्रामें देनेसे
ही लाभ होता है।) मुसलिकोकिलगोक्षुरचूर्णकं
शशिविलोचनराममितं पचेत् । (५७१०) मुस्तायुदर्तनम् पयसि प्रातरिदं यदि कोष्णके (वा. भ. । चि. अ. १९; ग. नि. । कुष्ठा. २६)
मुसितया खलु टङ्ककषट्कया । मुस्तामृतासङ्गकटङ्कटेरी त्रिगुणसप्तदिनं परिभक्षय
कासीसकम्पिल्लककुष्ठरोधाः। छतवया अपि कांक्षति कामिनीम् ।
गन्धोपलः सर्जरसो विडङ्गं किमिह चित्रमुदित्सरयौवनः
मनःशिलाले करवीरकत्वक् ॥ शशिमुखीं शयनान्न जहाति सः॥
तैलाक्तगात्रस्य कृतानि चूर्णाकाली मूसली १ भाग, तालमखाना २ भाग
न्येतानि दद्यादवचूर्णनार्थम् । और गोखरु तीन भाग लेकर सबको कूट छानकर दूधमें पकावें और उसमें २॥ तोले मिश्री मिलाकर
ददू सकण्डूः किटिभानि पामा मन्दोष्ण करके प्रातःकाल पियें।
विचचिका चैव तथैति शान्तिम् ॥ इसे २१ दिन तक सेवन करनेसे १०० नागरमोथा, नीलाथोथा, हल्दी, कसीस, वर्षके वृद्ध पुरुषको भी स्त्री समागमकी शक्ति प्राप्त
कमीला, कूठ, लोध, गन्धक, राल, बायबिडंग, मनहो जाती है।
सिल, हरताल और कनेरकी छाल समान भाग ले ( चूर्णकी मात्रा-६ माशे।) कर महीन चूर्ण बनावें । (५७०९)मुष्टियोगः
___ शरीर पर तैलकी मालिश करके यह चूर्ण ( भै. र. । ज्वरातिसा.) मलनेसे दाद, खाज, किटिभ, पामा और विचर्चिका गुनामितमहिफेनं छगलीदुग्धेन युआनम् । आदि रोग नष्ट हो जाते हैं ।
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मिश्रप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः
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(५७११) मूत्रयोगः
_ (५७१४) मूषकपुरीषयोगः ( वृ. मा. । कर्णरो.)
(यो. र. । प्रदरा.)
आखोः पुरीष पयसा निपीय अष्टानामपि मूत्राणां मूत्रेणान्यतमेन च । कोष्णेन पूरयेत्कर्ण कर्णशूलोपशान्तये ॥
वर्बलादेकमहर्द्व यहं वा।
स्त्रियस्त्र्यहं वा प्रदरं सवन्त्यः ___ अष्ट मूत्र ( गो, बकरी, भेड़, भैंस, घोड़ी,
__ प्रसह्य पारं परमाप्नुवन्ति ॥ हथिनी, ऊंटनी और गधीके मूत्र ) में से किसी
चूहेकी मींगन (विष्टा) को अग्नि बलानुसार एकको थोड़ा गर्म करके कानमें भरनेसे कर्ण शूल
१, २ या ३ दिन दूधके साथ पीनेसे स्त्रियोंकाः नष्ट होता है।
प्रदर रोग नष्ट हो जाता है। (५७१२) मूलिकाबन्धनम् ।
(५७१५) मृत्पिण्डप्रयोगः (ग. नि. ; भै. र. । ज्वरा.)
(व. से. । बालरो.) काकजङ्घा बला श्यामा ब्रह्मदण्डी कृताअलिः। मृत्पिण्डेनाग्निवर्णेन क्षीरसिक्तेन सोष्मणा । पृष्ठिपर्णीह्यपामार्गस्तथाभृङ्गरजोऽष्टमः ॥ स्वेदयेदुत्थितां नाभिं शोथस्तेनोपशाम्यति ॥ एषामन्यतमं मूलं पुष्येणोद्धृत्य यत्नतः ।।
मिट्टीके ढेलेको अग्निमें तपा कर लाल करें रक्तसूत्रेण संवेष्टय बद्धमेकाहिकं जयेत् ॥
और फिर उस पर दूध छिड़कें; इससे जो भाप
(वाष्प) निकले उससे बालककी नाभिको सेकनेसे काकजंघा, बला (खरैटी), बिधारा, ब्रह्म
नाभि शोथ नष्ट होता है। दण्डी, लज्जाल, पृष्ठपर्णी, अपामार्ग ( चिरचिटा ) और भंगरे में से किसी एककी जड़को पुष्य नक्षत्रमें
(५७१६) मृतसञ्जीवनोगदः उखाड़ कर लाल डोरेमें बांध कर रोगीके ( शिर
(च. स. । चि. अ २३) पर ) बांधनेसे इकतरा ज्वर नष्ट होता है।
स्पृक्काप्लवस्थौणेयकाकाक्षी शैलेयरोचनातगरम् (५७१३) मूलिकादिधारणम्
ध्यामककुङ्कुममांसीसुरसाग्रेलालकुष्ठघ्नम् ॥
| बृहती शिरीषपुष्पं श्रीवेष्टकपद्मचारदिविशाला ( वृ. नि. र. । गुल्म.)
सुरदारुपद्मकेशरसावरकमनःशिलाकौन्त्यः ॥ लागल्या वापामार्गोत्यैरिन्द्रवारुणिकापि वा।। | जात्यर्कपुष्परसरजनीद्वयंहिङ्गुपिप्पलीलाक्षाः । शूलं योनिगतं स्त्रीणां धारणं पुष्परोधनुत् ॥ जलमुद्पर्णिचन्दनमधूकमदनसिन्धुवाराश्च ॥
लांगली ( कलियारी ) की जड़, या चिरचि- शम्पाकलोध्रमयूरकगन्धफलीनाकुलीविडङ्गाश्च टेकी जड़ अथवा इन्द्रायणकी जड़ योनिमें रखनेसे | पुष्ये संहृत्य समं पिष्ट्वा गुलिका विधेयाः स्युः योनि शूल नष्ट होता और रुका हुवा ऋतुस्राव । सर्वविषघ्नो जयकृद्विपमृतसञ्जीवनो ज्वरनिहन्ता खुल जाता है।
घेयविलेपनधारणधूमग्रहहस्थश्च ॥
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भारत-2 - भैषज्य रत्नाकरः
[ मकारादि
आवश्यकतानुसार इसे सूंघना, इसका लेप
न्यात् । और धूम्रपान करना चाहिये । (५७१७) मेघनादमूलबन्धनम् (वै. जी. | विलास १ ) क्षणमपि चलतां जहीहि मुग्धे शृणु वचनं मम तन्वि सावधाना | वसति शिरसि मेघनादमूले
व्रजति तरां विषमो विलासदृष्टे || चौलाईकी जड़ो शिरपर बांधने से विषमज्वर नष्ट हो जाता है ।
भूतविषजन्त्वलक्ष्मी कार्मणमन्त्रान्यन्यरी न्ह
दु:स्त्रमस्त्रीदोषानकालमरणाम्बु चौरभयम् ॥ धनधान्यकार्यसिद्धिः श्रीपुष्ट्यायुविवर्धनो
धन्यः ।
मृतसञ्जीवन एष प्रागमृताद्ब्रह्मणा विहितः ॥ स्पृक्का (असबरग), केवटी मोथा, धुणेर, गोपीचन्दन, छारछरीला, गोरोचन, तगर, ध्यामक (गन्ध तृग), केसर, जटामांसी, तुलसीकी मञ्जरी, इलायची, हरताल, पंवाड़के बीज, बड़ी कटेली, सिरसके फूल, श्रीष्ट ( श्रीवास ), पद्मचारटी ( स्थल पद्म ), इन्द्रायणकी जड़, देवदारु, कमल केसर, सावरलोध, मनसिल, रेणुका, चमेलीके फूलोंका रस, आकके फूलोंका रस, हल्दी, दारूहल्दी, हींग, पीपल, लाख, सुगन्ध बाला, मुद्गपर्णी, चन्दन, महुवे फूल, मैनफल, संभालू, अमलतास, पठानी लोध, चिरचिटा, फूलप्रियंगु, नाकुली, ( नाई ) और बायबिडंग |
पुष्य नक्षत्र में ये सम्पूर्ण चीजें समान भाग ले कर अत्यन्त महीन पीस कर गोलियां बनावें । ( और छाया में सुखाकर सुरक्षित रक्खें । )
यह अगद समस्त प्रकारके विषोंको नष्ट करता है । इसके अतिरिक्त यह ज्वर, भूत, कृमि ( रोग जीवाणु ), विपरीत मन्त्रोंके दुष्ट प्रभाव, अलक्ष्मी, शत्रु, अग्नि, अशनि, दुःस्वप्न, स्त्री दोष, अकाल मृत्यु, जल भय और चोरभय को भी दूर करता है
1
इसके प्रभाव से धन धान्य, कार्य सिद्धि, श्री, पुष्टि और आयुकी वृद्धि होती है ।
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(५७१८) मेघनादमूलयोगः ( वै. म. र. । पटल १६ ) मेघनाद शिफासमानतडागभुक्तियुतं पयः । सेचितं च निहन्ति तोदमसह्य मक्षिभवं नृणाम् ॥
मेघनाद ( चौलाई) की जड़को दूधमें पीसकर उसमें शुक्ति (सीप) घिसकर आंखमें डालने से असा नेत्र पीड़ा भी शान्त हो जाती है ।
(५७१९) मोचरससिद्धक्षीरम् (ग. नि. । २. पि. ८ ) विशेषतो विपथसंप्रवृत्ते पयो हितं मोचरसेन सिद्धम । araशुङ्गव
ह्रीवेरनीलोत्पलनागरैर्वा ॥ १ तोला मोचरसको कूटकर १६ तोले दूधमें मिलावें और उसमें ६४ तोले पानी मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें । जब सब पानी जल जाय तो दूधको छान लें।
यह दूध मलमार्ग से निकलने वाले रक्त में विशेष उपयोगी है ।
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मिश्रप्रकरणम् ]
इसीके समान बड़के अंकुर, या बड़की कोंपल अथवा सुगन्धवाला, नीलोत्पल और सोंठसे सिद्ध दूध भी गुदासे जाने वाले रक्तको बन्द करता है। (५७२०) मोचरसादियवागूः ( ग. नि. । बाल रोगा. ११; यो. चि. म. । अ. ४ ; भा. प्र. म. खं. बालरोगा. : च. द. । बालरोगा. ६३.)
चतुर्थी भागः
इति मकारादिमिश्रप्रकरणम्
(५७२१) यवादिक्वाथ: (१)
( वृ. नि. र. । पित्तकफज्वर . ) aavasaari द्वे हरिद्रे द्वे सुचन्दने । गुडूचीदेवकाष्ठं च तेजोद्दा सदुरालभा ॥
पयित्वा पिवेत्क्वाथं कफपित्तज्वरापहम् । पिपासाछर्दिदाहनं वृष्यं वह्नि विदीपनम् ॥
य
अथ यकारादिकषायप्रकरणम्
जौ, पद्माख, धनिया, हल्दी, दारूहल्दी, सफेद चन्दन, लाल चन्दन, गिलोय, देवदारु, चव्य और धमासा | ये सब ओषधियां समान भाग ले कर आठ गुने पानी में पकावें और जब चौथा भाग शेष रहे तो छान लें।
२८१
मोचरसः समङ्गा च धातकी पद्मकेसरम् । पिष्टैरेतैर्यवागूः स्याद्रक्तातीसारनाशनी ॥
यह काथ पियास, छर्दि, दाह और कफपित्तज - ज्वरको नष्ट करता है ।
૩૬
मोचरस, मजीठ, धायके फूल और कमलकेसर समान भाग ले कर पीस कर उससे यवागू बना कर देनेसे रक्तातिसार नष्ट होता है ।
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यह वृष्य और अग्निदीपक भी है।
( प्रत्येक वस्तु १ तोला । पानी ८८ तोले । शेष २२ तोले । )
(५७२२) यवादिक्वाथः (२) ( वृ. मा. । अम्लपित्त. ; यो. र. । अम्ल . ; यो. त. | त. ६४; ग. नि. ; वृ. नि. र. । अम्लपि;• वृ. यो. त । त. १२२ ) निस्तु पयववृषधात्रीकथितं सलिलं त्रिगन्धमधुसहितम् । द्रुततरमपि हरति वमिं सञ्जनितामम्लपित्तेन ॥
छिलके रहित जौ, बासा और आमला समान भाग लेकर काथ बनावें
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[यकारादि
इसमें त्रिगन्ध ( दालचीनी, इलायची, तेज- (जौ इत्यादि प्रत्येक वस्तु २-२ तोला। पात ) का चूर्ण और शहद मिलाकर पिलानेसे । पानी ४८ तोले शेष १२ तोले ।) अम्लपित्त जनित वमन नष्ट होती है।
(५७२५) यवादिक्वाथः (५) ( यवादि प्रत्येक वस्तु २-२ तोले । पानी |
(वृ. नि. र. । पित्तकफवर.)) ४८ तोले । शेष १२ तोले । शहद २ तोले । दालचीनी आदि प्रत्येक वस्तुका चूर्ण १ माशा.) ।
| यवः पर्पटकं धान्यं पटोलारिष्टसाधितम् ।
पिबेत्सशर्करक्षौद्रं पित्तश्लेष्मज्वरापहम् ।। (५७२३) यवादिक्वाथः (३)
____ जौ, पित्तपापड़ा, धनिया, पटोल और ( यो. र. । मूत्रकृच्छू. ; वृ. नि. र.)
नीमकी छाल, समान भाग ले कर काथ बनावें। यवोरुबूकस्तृणपञ्चमूली
इसमें खांड और शहद मिलाकर पीनेसे पित्त पाषाणभेदैः सशतावरीभिः ।
कफज ज्वर नष्ट होता है। कृच्छेषु गुल्मेष्वभयाविमित्रैः
(जौ आदि प्रत्येक वस्तु १ तोला । पानी कृतः कषायो गुडसंप्रयुक्तः ॥
| ४० तोले । शेष १० तोले । ) जौ, अरण्डमूल, तृणपश्चमूल (कुशा,
(५७२६) यवादिशीतकषायः कास, ईख, शरकंडा और दाभकी जड़) पाषाण भेद, शतावर और हर्र के क्वाथमें गुड़ मिला कर
( ग. नि. । ज्वर.) पीनेसे मूत्रकृच्छ और गुल्म नष्ट होता है। यवान् भृष्टानुशीराणि समङ्गां काश्मरीफलम् । ( जो इत्यादि प्रत्येक वस्तु आधा तोला ।
निध्यादप्सु चालोडय निशा पर्युषितं ततः॥
क्षौद्रेण युक्तं पिबतो ज्वरः पैत्तः प्रशाम्यति ॥ पानी ४० तोले । शेष १० तोले ।)
भुने हुवे जौ, खस, मजीठ और खम्भारीके (५७२४) यवादिक्वाथः (४)
फल समान भाग ले कर सबको एकत्र कूट कर ( वृ. मा. । अम्लपित्त. ; यो र. ; ग. नि. ; रात्रिके समय मिट्टीके बरतन में स्वच्छ पानीसे भिगो वृ. नि. र.)
दें। दूसरे दिन प्रातः काल औषधोंको मल कर यवकृष्णापटोलानां क्वार्थ क्षौद्रयुतं पिबेत् । छान लें। नाशयेदम्लपित्तं च अरुचिं च वर्मि तथा ॥ इसमें शहद मिला कर पीनेसे पित्त ज्वर
जौ, पीपल और पटोल के काथ में शहद | शान्त होता है। डाल कर पीनेसे अम्लपित्त, अरुचि और वमन का | (जौ आदि प्रत्येक वस्तु आधा तोला, पानी नाश होता है।
१२ तोले । शहद १॥ तोला ।)
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कषायप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
२८३
(५७२७) यवान्यादिक्वाथः
जवासा, सिरसकी छाल, अर्जुनकी छाल, खैर( भा. प्र. ; वृ. नि. र. । कफ ज्वर.) सार, असना वृक्षका सार, नीमके पत्ते, पलाश यवानी पिप्पली वासा तथा खाखसवल्कलम् । (ढाक) की छाल, आमला और चूहाकन्नो समान एषां क्याथं पिबेत्कासे श्वासे च कफजे ज्वरे ॥ भाग लेकर क्वाथ बनावें ।
अजवायन, पीपल, बासा और पोस्तका डोढा | इस क्वाथसे उपदंशके बण धोने चाहिये। समान भाग लेकर क्वाथ बनावें ।
इसी काथसे तैल पकाकर उपदंशके ब्रों पर ___ यह क्वाथ खांसी, श्वास और कफज ज्वरको लगाना चाहिये । नष्ट करता है।
(प्रत्येक ओषधि २ तोले । पाकार्थ जल ( अजवायन आदि प्रत्येक वस्तु १। तोला । १४४ तोले । शेष काथ ३६ तोले । तैल पाकार्थ पानी ४० तोले । शेष क्वाथ १० तोले ।) यही काथ ४ सेर; तिल तेल १ सेर ।)
(५७२८) यवान्यादिदीपनकषायः (५७३०) यवासादिक्वाथः (वृ; नि. र. ; यो. र. । आमातिसार.)
(वैद्यामृत.) यवानीनागरोशीरधानिकातिविषाघनैः ।
वातज्वरं हन्ति यवासविश्वा बालबिल्वद्विपर्णीभिर्दीपनं पाचनं भवेत् ॥
मुस्ता गुडूची जनितः कषायः । अजवायन, सोंठ, खस, धनिया, अतीस, जवासा, सोंठ, नागरमोथा और गिलोय समान नागरमोथा, कच्चे बेलकी गिरी, शालपर्णी और | भाग लेकर क्वाथ बनावें । पृष्ठपर्णी समान भाग ले कर क्वाथ बनावें ।
यह काथ वात ज्वरको नष्ट करता है। यह काथ आमको पचाता और अग्निको दीप्त (प्रत्येक ओषधि ११ तोला । पाकार्थ जल करता है।
४० तोले । शेष काथ १० तोले । ) (प्रत्येक ओषधि आधा तोला । पानी आधा (५७३१) यष्टयादिक्वाथः (१) सेर । शेष काथ १० तोले ।)
( यो. र.; वृ. नि. र. । शीतपित्त.) (५७२९) यवासकादिप्रक्षालनम् | यष्टी मधृकपुष्पं च सरास्नां चन्दनद्वयम् । (ग. नि. । उपदंश.)
निर्गुण्डी सकणाक्वाथं शीतपित्तहरं पिबेत् ।। यवासकं शिरीषं च ककुभं खदिरासनौ। मुलैठी, महुवेके फूल, रास्ना, सफेद चन्दन, पिचुमन्दपलाशौ च धात्री सोन्दुरकर्णिका ॥ लाल चन्दन और संभालु समान भाग लेकर काथ एसानि समभागानि कषायमुपसाधयेत् । . बनावें । तेन प्रक्षालनं कुर्यादुपदंशेषु बुद्धिमान् ॥ इसमें पीपलका चूर्ण मिला कर पीनेसे शीतएतेनैव कषायेण व्रणतैलं विपाचयेत् ॥ पित्त ( पित्ती उछलना रोग ) नष्ट होता है।
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૨૪
( प्रत्येक ओषधि १ तोला । पाकार्थ जल ४८ तोले । शेष काथ १२ तोले । पीपलका चूर्ण १ माशा | )
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
(५७३२) यष्ट्यादिक्वाथः (२) ( यो. र. ; व. से. । नेत्र ) ष्ट गुडूचीं त्रिफलां सदावमक्ष्यामये सर्वभवे पिवेद्वा । आश्चोतनं सान्द्ररसेन दायः शस्तं सदा क्षौद्रयुतं नराणाम् ॥ मुलैठी, गिलोय, हर्र, बहेड़ा, आमला और दारूहल्दी समान भाग ले कर काथ बनावें ।
इसे पीने से सर्व दोषज नेत्र रोग नष्ट होते हैं। दारूहल्दी के स्वरस या काथको गाढ़ा करके उसमें शहद मिलाकर आंख में डालना भी हित कारी है।
( प्रत्येक ओषधि १ तोला, पाकार्थ जल ४८ तोले, शेष काथ १२ तोले । )
(५७३३) यष्ट्यादिक्वाथः (३) (ग. नि. । वातपित्त ज्वर . ) मधुयष्टिर्निशायुग्मं पटोलं व्याधिघातकः । मुस्तनिम्बामृताक्वाथ वातपित्तज्वरापहः ॥
मुलैठी, हल्दी, दारूहल्दी, पटोल, अमलतासका गूदा, नागरमोथा, नीमकी छाल और गिलोय समान भाग लेकर काथ बनावें ।
यह का वातपित्त - ज्वरको नष्ट करता है । ( प्रत्येक ओषधि ९ माशे; पाकार्थ जल ४८ तो शेष काथ १२ तोले । )
[यकारादि
(५७३४) यष्ट्यादिक्वाथः (४) ( वृ. नि. र. । त्रिदोषातिसार. ) यष्टीमधु सितालोधं मधूकं नीलमुत्पलम् । अजाक्षीरेण क्वथितं रक्तातीसारशान्तये ॥
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मुलैठी, लोध, मिसरी, महुवे के फूल, और नीलकमल समान भाग ले कर बकरीके दूधमें कावें ।
इसके सेवनसे रक्तातिसार नष्ट होता है ।
( प्रत्येक ओषधि आधा तोला; बकरीका दूध २० तोले; जल १ सेर; सबको एकत्र मिलाकर पकावें और दूध मात्र शेष रहने पर छान लें। ) (५७३५) यष्टादिक्वाथः (५)
( वृ. नि. र. । विषमज्वर . ) यष्टी दुरालभावासा त्रिफलावालकामृता । मुस्तक्वाथः सितायुक्तो विषमज्वरनाशनः ॥
मुलैठी, धमासा, बासा, हर्र, बहेड़ा, आमला सुगन्धवाला, गिलोय और नागरमोथा समान भाग लेकर काथ बनावें ।
इसमें मिसरी मिलाकर पीनेसे विषम ज्वर नष्ट होता है ।
( प्रत्येक ओषधि आधा तोला पाकार्थ जल ३६ तोले । शेष काथ ९ तोले । )
(५७३६) यष्ट्यादिक्वाथः (६)
( वृ. नि. २. | सन्निपात ज्वर . ) यष्टी पटोलकटुकाघननिम्बसुराधावन्यः । अपहरन्ति मोहपित्तं ज्वरमुग्रं सन्निपातोत्थम् ॥
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कषायप्रकरणम्
चतुर्थों भागः
मुलैठी, पटोल, कुटकी, नागरमोथा, नीमकी | मुलैठीके चूर्णके साथ दूध पकोकर ठण्डा छाल, देवदारु और पृष्ठपर्णी समान भाग लेकर । करके उसमें खांड और शहद मिलाकर पीनेसे काथ बनावें।
रक्तपित्त नष्ट होता है। यह काथ उग्र सन्निपात ज्वर, मोह और (मुलैठी २ तोले; दूध १६ तोले, पानी ६४ पित्तको नष्ट करता है।
तोले लेकर सबको एकत्र मिला कर पका और (प्रत्येक ओषधि ९ माशे; पाकार्थ जल ४० जब पानी जल जाए तो दूधको छान लें । ) । तोले; शेष काथ १० तोले । )
(५७३९) यष्ट्यादियोगः (५७३७) यष्टयादिक्वाथः (७)
(वृ. नि. र. । तृष्णा .) (वै. म. र. । पटल ७ )
यष्टयाहां चन्दनोपेतां सम्यक् क्षीरेण पेषिताम्।
तेनैवालोडय पातव्यं रुधिरच्छर्दिनाशनम् ॥ यष्टयाद्वैलैर्वारुबीजेक्षुकाण्डैः __मुलैठी और सफेद चन्दनको दूधमें बारीक शीतः क्वाथो नालिकेराम्बुजन्मा।
पीसकर और दूधमें घोलकर पिलानेसे रक्तवमन पैत्तं कृच्छं दाहतृष्णोष्णवातं नष्ट होती है।
रक्तस्रावं मूत्रसादं हिनस्ति ॥ (५७४०) यष्टयाद्याश्च्योतनम् मुलैठी, छोटी इलायची, ककड़ीके बीज और
(यो. र. । नेत्र.) ईखकी पोरी (टुकड़े) समान भाग लेकर सबको यष्टयावदाव्युत्पलपद्मलाक्षा कूटकर सायंकालको नारियल के पानीमें भिगो दें प्रपोण्डरीकं नलदाम्बुना च । और दूसरे दिन प्रातः काल मलकर छान लें। आश्च्योतनं स्त्रीपयसा विपक्वं यह काथ पित्तज मूत्रकृच्छ्, दाह, तृष्णा,
निहन्ति तत्सत्रणदाहशुक्रम् ॥ उष्णवात, रक्तस्राव और मूत्रावरोधको नष्ट
मुलैठी, दारुहल्दी, नीलोत्पल, पद्म (कमल), करता है।
लाख, पुण्डरिया, खस, और सुगन्ध बाला समोन
भाग लेकर सबको स्त्रीदुग्धमें पका कर छान कर (प्रत्येक ओषधि आधा तोला; नारयलका
आंखमें डालनेसे दाह युक्त सबण नेत्रशुक (फूला) पानी १२ तोले )
नष्ट होता है। (५७३८) यष्टयादिक्षीरम् |
(५७४१) यूथीमूलयोगः ( ग. नि. ; वृ. नि. र. । रक्तपित्त.)
( ग. नि. । अश्मर्य. १९) यष्टीमधुसमायुक्तं क्षीरं संक्वाथ्य शीतलम् । यूथीमूलं ग्रीष्मकालोद्गृहीतं शर्करामधुसम्मिश्रं रक्तपित्तापहं पिबेत् ॥ छागीक्षीरे सम्यगुत्क्वाथ्य पीतम् ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[यकारादि
मूत्राघातं मूत्रकृच्छं सशूलं
(१) आमलेके रसमें मिश्री मिलाकर पीनेसे __ हन्यात्क्षिप्रं शर्करामश्मरीं च ॥ योनिदाह नष्ट होती है । ग्रीष्म कालमें उखाड़ी हुई जूहीकी जड़को
(२) सूर्यकान्त (सूरजमुखी ) की जड़को
चावलोंके पानीमें पीसकर सेवन करनेसे भी योनिबकरीके दूधमें पकाकर पीनेसे मूत्राघात, शूल युक्त मूत्रकृच्छ्र और शर्करा तथा अश्मरीका शीघ्र ही
दाह नष्ट हो जाती है। नाश हो जाता है।
(५७४३) योनिसङ्कोचकक्वाथः
(र. रा. सु. । स्त्री.) ( जूहीकी जड़ ५ तोले, दूध ४० तोले, | पानी १६० तोले । एकत्र मिलाकर पकावें ।।
| प्रक्षालयेद्भगं नित्यं पथ्यामलकवल्कलैः । जब पानी जल जाए तो दूधको छान लें।)
वृद्धापि कामिनी कापि बालावत्कुरुते रतिम् ॥
हर्र और आमलेके क्वाथसे योनिको धोनेसे योगराजक्वाथः
वृद्धा स्त्रीकी योनि भी बालिकाके समान हो ( भा. प्र. । सन्निपात.)
जाती है। प्र. सं. ३३६७ “ नागरादि काथः (१३)" | (५७४४) योनिसङ्कोचकयोगः देखिये।
(बृ. नि. र. । स्त्री रोग ) (५७४२) योनिशूलहरो योगः
| कपिकच्छूभवं मूलं क्वाथयेद्विधिना भिषक् ।
योनिः सङ्कीर्णतां याति क्वाथेनानेन धावनात्॥ ( वृ. नि. र. । स्त्रीरो.)
कौंचकी जड़को आठ गुने पानीमें पकावें धात्रीरसं सितायुक्तं योनिदाहे पिबेन्सदा। और जब चौथा भाग शेष रहे तो छान लें। सूर्यक्रान्ताभवं मूलं पिबेद्वा तण्डुलाम्बुना ॥ । इस काथसे धोनेसे योनि सङ्कीर्ण हो जाती है।
इति यकारादिकषायप्रकरणम् -
- अथ यकारादिचूर्णप्रकरणम् (५७४५) यमानिकादिचूर्णम् प्लीहानमेतद्विनिहन्ति चूर्ण( यो. र. ; व. से. ; ग. नि.; भै. र.। प्लीह.;
मुष्णाम्बुना मस्तुसुरासवैर्वा । वृ. मा. । उदर. ; वृ. नि. र. ; धन्व. । उदर.; वृ. यो. त. । त. १०५)
अजवायन, चीतामूल, जवाखार, वच, दन्तीयमानिकाचित्रकयावशूकं
| मूल और पीपल समान भाग ले कर चूर्ण बनायें । षड्ग्रन्थिदन्तीमगधोद्भवानाम् । इसे उष्ण जल या मस्तु अथवा मद्य या
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चूर्णप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
आसबके साथ सेवन करनेसे प्लीहा (तिल्ली ) को (संचल), बिड लवण, कांच लवण और समुद्र लवण आराम होता है।
समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । ( मात्रा-१-१॥ माशा ।)
इसके सेवनसे समस्त प्रकारके गुल्म नष्ट (५७४६) यमान्यादिचूर्णम्
होते हैं। ( भै. र. । क्षुद्र रोगा. ; वृ. नि. र. । शूला. अनुपान-धीमें मिलाकर सेवन करें । भै. र. । गुल्म. ; ग. नि. । शूला. ; ग. नि. ।
( मात्रा-२ माशे ।) गुल्म. ; वृ. मा. । गुल्म.)
(५७४९) यवक्षारयोगः (३) यमानीहिसिन्धृत्यक्षारसौवर्चलाभयाः। मुरामण्डेन पातव्या वातशूलनिषूदनाः ॥ (व. से. । मूत्रकृच्छ्र. ; वृ. मा. ; ग. नि. ; अजवायन, भुनी हुई हींग, सेंधा नमक, जवा.
वृ. नि. र.) खार, काला नमक (संचल) और हर्र समान भाग | सितातुल्यो यवक्षारः सर्वकृच्छपणाशनः । लेकर चूर्ण बनावें ।
द्राक्षासितोपलाकल्कं कृच्छन्नं मस्तुना युतम् ॥ इसे सुरामण्ड (मद्यके ऊपर वाले स्वच्छ भाग) ( वृ. मा. में श्लोकका उत्तरार्द्ध इस प्रकार हैके साथ सेवन करनेसे वातज शूल ( और गुल्म ) नष्ट होता है।
"निदिग्धिका रसो वाऽथ सक्षौद्रः कृच्छ्नाशनः" मात्रा-१ माशा।
(१) जवाखार और मिसरी समान भाग ले (५७४७) यवक्षारयोगः (१) कर चूर्ण बनावें। (व. से. । बाल. ; यो. र. । मुख पाक.)
| इसके सेवनसे समस्त प्रकारके मूत्रकृच्छ नष्ट तालुपाके यवक्षारं मधुना प्रतिसारणम् ।
| होते हैं। जवाखारको शहदमें मिलाकर मलनेसे तालु- (मात्रा-१॥ माशा । अनुपान-मस्तु या पाक नष्ट होता है।
उष्ण जल) (५७४८) यवक्षारयोगः (२)
(२) मुनक्का और मिसरीको पत्थर पर पीस (व. से. । गुल्म, उदर.) कर मस्तुके साथ सेवन करनेसे मूत्रकृच्छू नष्ट क्षारद्वयानलव्योषनीलीलवणपञ्चकम् । होता है। चूर्णितं सर्पिषा पेयं सर्वगुल्मोदरापहम् ॥ (३) कटेलीके रसमें (या इलायचीके काथमें)
जवाखार, सज्जीखार, चीता, सोंठ, मिर्च, | शहद मिला कर सेवन करनेसे मूत्रकृच्छ्र नष्ट पीपल, नीलकी जड़, सेंधा नमक, काला नमक ' होता है ।
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२८८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[यकारादि (५७५०) यवक्षारयोगः (४) । (५७५२) यवक्षारादियोगः ( राजमा. । स्त्रो.)
(व. से. । जलदोषा.) मक्कल: प्रशममुपैति कामिनीनां
महाकयवक्षारौ पीत्वा चैवोष्णवारिणा । पीतेन क्वथितजलोपयोजितेन ।
नानादेशोद्भवञ्चैव वारिदोषमपोहति ।।
सोंठका चूर्ण और जवाखार समान भाग ले अभ्युद्यन्नवशूकसम्भवेन
| कर दोनोंको एकत्र खरल करके रखें । क्षारेण ध्रुवमथवा घृतान्वितेन ।।
_इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे देश नवीन यवोंसे तैयार किये हुवे जवाखारको | देशान्तरोंका जलदोष नष्ट होता है। ( परदेशका पके हुवे जल या घीमें मिलाकर पिलानेसे मक्कल पानी विकार नहीं करता ।) शूल* अवश्य नष्ट हो जाता है।
( मात्रा-१ माशा ।) ( मात्रा-४-६ रत्ती ।)
(५७५३) यवक्षाराय चूर्णम् (१)
( वैद्यामृत.) (५७५१) यवक्षारादिचूर्णम्
यवक्षारो यवानी च सैन्धवं चाम्लवेतसम् । (रा. मा. । अर्श.) हरीतकी वचा हिङ्गु चूर्णमुष्णेन वारिणा ।। प्रातर्यवक्षारमहौषधाभ्यां
| सप्ताहादगुल्मनिचयं सशूलं सपरिग्रहम् । चूर्णेन तुल्येन विमिश्रतः यः ।
भिनत्ति नात्र सन्देहो वहेर्टद्धिं करोति च ॥ लेढी घृतं तस्य न शाम्यति
जवाखार, अजवायन, सेंधा, अम्लबेत, हर्र, क्षुद्यो वा पिबत्युष्णजलेन शुण्ठीम् ॥
, बच और घीमें भुनी हुई हींग समान भाग लेकर
चूर्ण बना। जवाखार और सोंठका चूर्ण समान भाग ले। इसके सेवनसे १ सप्ताहमें शूल और उपद्रव कर दोनोंको एकत्र मिला कर रखें ।
| युक्त प्रवृद्ध गुल्म भी अवश्य नष्ट हो जाता है। - प्रातः काल यह चूर्ण घीमें मिला कर चाट- यह प्रयोग जठराग्निको भी प्रदीप्त करता है । नेसे अथवा उष्ण जलके साथ सोंठका चूर्ण सेवन अनुपान-उष्ण जल । करनेसे क्षुधा अत्यन्त प्रबल हो जाती है। ( मात्रा-१ माशा ।) (मात्रा-१ माशा।)
(५७५४) यवक्षाराचं चूर्णम् (२)
(ग. नि. । चूर्णा.) प्रसवके पश्चात् प्रसूताके हृदय, मस्तक | यवक्षार यवानी च पिवेदुष्णेन वारिणा । और वस्तिमें होने वाले शूलको " मक्कल" एतेन वातजं शूलं गुल्मश्चैव चिरोत्थितः ॥ कहते हैं।
भिद्यते सप्तरात्रेण पवनेन यथा घनः ॥
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चूर्णप्रकरणम्]
चतुर्थों भागः
२८९
-
जवाखार और अजवायन समान भाग लेकर | (५७५७) यवानीखाण्डवचूर्णम् चूर्ण बनावें ।
(यमानिषाडवः) इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे सात (यो. र. : वृ. मा. ; भै. र. ; र. र. ; च. द.। दिनमें पुराना गुल्म और वातज शूल अवश्य नष्ट
अरोचका.; हारीत संहिता । स्था. ३ अ. ६; हो जाता है।
वृ. यो. त. । त. ७६; वृ. यो. त. । त. ( मात्रा-१-१॥ माशा ।)
८३; चरक सं । चि. स्था. ६. अ. ८ ) (५७५५) यवादिचूर्णम् | यवानी तित्तिडीकं च नागरं चाम्लवेतसम् ।
(रा. मा. । राजयक्ष्मा.) दाडिमं बदरं साम्लं कार्षिकाण्युपकल्पयेत् ॥ खादन्ति ये सयवनागबलातुरङ्ग
धान्यसौवर्चलाजाजीवराङ्ग चाधकार्षिकम् । गन्धांस्तिलान् गुडविमिश्रितमाषयुक्तान् । पिप्पलीनां शतं चैकं द्वे शते मरिचस्य च ।। पीत्वा पयोऽपि नचिरेण भवन्ति वन्य- | शर्करायाश्च चत्वारि पलान्येकत्र चूर्णयेत् । मातङ्गभङ्गपटवः स्वबलातिरेकात् ॥ यवानीखाण्डवकाख्यं तु चूर्णमेतदरोचकम् ।।
जौ, नागबला, असगन्ध, तिल, गुड और हन्त्येव प्रातरेतत्तु स्थापितं च मुखे मुहुः। उड़द समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
जिहाविशोधनं हृद्यं दीपनं भक्तरोचकम् ।। इसे दूधके साथ सेवन करनेसे शरीर बहुत
हृत्पीडापार्श्वशूलघ्नं विवन्धानाहनाशनम् । शोब हृष्ट पुष्ट और अत्यधिक बलशाली हो
कासश्वासहरं ग्राहि ग्रहण्यशैविकारनुत् ॥ जाता है।
अजवायन, तिन्तडीक, सोंठ, अम्लबेत, अनार(५७५६) यवानिकायुङ्कलनम्
दाना और खट्टे बेर ११-१। तोला; धनिया', सञ्चल
( काला नमक ), जीरा और दारचीनी आधा (वृ. नि. र. । सन्निपात. ; वृ. यो. त.। त. ५९)
आधा कर्ष (प्रत्येक ७॥ माशे); पीपल १०० यवानिका वचा शुण्ठा पिप्पली कारवी तथा। नग; काली मिर्च २०० नग, और खांड २० एतैरुद्धूलनं श्रेष्ठं त्रिदोषोत्थे ज्वरे नृणाम् ॥ | तोले लेकर यथा विधि चूर्ण बनावें। अजवायन, बच, सोंठ, पीपल और कलौंजी
प्रातः काल बार बार यह चूर्ण मुखमें धारण समान भाग लेकर बारीक चूर्ण बनावें ।
करनेसे अरुचि अवश्य नष्ट हो जाती है । इसकी मालिशसे सन्निपात ज्वरमें लाभ
____ इसके अतिरिक्त यह चूर्ण जिह्वाको शुद्ध होता है।
करता है तथा हृद्य, और दीपन है एवं हृत्पीडा, ( जब पसीना अधिक आने लगता है तो इसकी मालिशसे रुक जाता है । )
१-हारीत संहितामें धनियेका अभाव है।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
· [यकारादि
पार्श्वशूल, विबन्ध, अफारा, खांसी, श्वास, ग्रहणी | अजवायन, जीरा, कलौंजी, चव, पीपल और और अर्शको नष्ट करता है तथा ग्राही है। सोंठ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। ___ (५७५८) यवानीचूर्णम्
यह चूर्ण कफज संग्रहणीको नष्ट करता है। (वृ. नि. र. । अर्श; धन्व. । अतिसार.) अनुपान-तक । यवानीन्द्रयवं पाठा बिल्वं शुण्ठी रसाधनम् । (मात्रा-१-१॥ माशा ।) चूर्ण शूले हितं पेयं प्रवृद्धे चातिशोणिते ॥ (५७६१) यवान्यादिचूर्णम् (३) ___ अजवायन, इन्द्रजौ, पाठा, बेलगिरी, सोंठ । (हारीत संहिता । स्था. ३ अ. २९) और रसौत समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । यवानी चोग्रगन्धा च तथा च कटुकत्रयम् । ____ यह चूर्ण शूलयुक्त अत्यन्त प्रवृद्ध रक्ताति- पाचनं श्लैष्मिके गुल्मे पीतं चोष्णं निशासु च ॥ सारको नष्ट करता है।
अजवायन, बच, सेांठ, मिर्च और पीपल ( मात्रा-१॥ माशा । अनुपान-चावलोंका | समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । पानी।)
__ इसे रात्रिके समय सेवन करनेसे कफज गुल्म (५७५९) यवान्यादिचूर्णम् (१) .
नष्ट होता है। ( वृ. नि. र. । शूल.)
(मात्रा-१-१॥ माशा । अनुपान-उष्ण
जल ।) यवानी सैन्धवं दारु यवक्षारं सुवर्चलम् ।
(५७६२) यवान्यादिचूर्णम् (४) विश्वैरण्डशिफा हिङ्गुलवणं बिडपूर्वकम् ॥ (वृ. नि. र. । संग्रहण्य.) एतच्चूर्ण समं श्लक्ष्णं गुडूचीक्वाथपानतः । यवानीपिप्पलीमूलं चातुर्जातकनागरैः। . सर्वशूलानि नश्यन्ति महारोगान्न संशयः ।। धातकोतिन्तडी कृष्णा बालकश्चैकभागिकः ॥
अजवायन, सेंधा नमक, देवदारु, जवाखार, | सितापटभागसंयुक्तं सर्वचूर्ण प्रकल्पयेत् । सञ्चल ( काला नमक ), सोंठ, अरण्डमूल, भुनी | ककं भक्षयेन्नित्यमजाक्षीरं पिबेदन ॥ हुई हींग और बिड नमक समान भाग ले कर
नाशयेद् ग्रहणीरोग पित्तोत्थं सपवाहिकम् ॥ बारीक चूर्ण बनावें ।
___अजवायन, पीपलामूल, दालचीनी, तेजपात, इसे गिलोयके काथके साथ सेवन करनेसे
करनेसे | इलायची, नागकेसर, सोंठ, धायके फूल, तिन्तडीक, समस्त प्रकारके शूल नष्ट होते हैं।
पीपल और सुगन्धबाला १-१ भाग तथा मिसरी (मात्रा-१-१॥ माशा।)
६ भाग ले कर यथाविधि चूर्ण बनावें। (५७६०) यवान्यादिचूर्णम् (२) इसे नित्य १। तोलेकी मात्रानुसार बकरीके (ग. नि. । ग्रहणी.)
दूधके साथ सेवन करनेसे पित्तज ग्रहणी और यवान्यजाजीकारव्यश्चव्यपिप्पलिनागरम्। प्रवाहिकाका नाश होता है । प्रलेष्मजां ग्रहणी इन्ति पीतं तक्रेण संयुतम् ॥ ( व्यवहारिक मात्रा-२ माशे।)
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चूर्णप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
३९१
(५७६३) यवान्यादिचूर्णम् (५) (५७६५) यवान्यादिचूर्णम् (७)
(यो. चि. म. । अ. २) (यो. र. । गुल्म. ; वृ. नि. र. । गुल्म. ; यवानी पिप्पलीमूलं चातुर्जातकनागरैः ।
वं. से. । गुल्म.) मरीचेन्द्रयवाजाजीधान्यसौवर्चलैः समम् ॥
यवानी चूर्णितां तक्रे बिडेन लवणीकृताम् । वृक्षाम्लधातुकीकृष्णाबिल्वदाडिमदीप्यकैः। श्लेष्मगुल्मे पिबेद्वातमूत्रवर्धेनुलोमनीम् ॥ त्रिगुणैः षड्गुणैः सिद्धैः कपित्याष्टगुणैः स्मृताः।
तक्रमें स्वाद योग्य बिड लवण मिला कर चूर्णमतीसारग्रहणीक्षयगुल्मगलामयान् ।।
उसके साथ अजवायनका चूर्ण पीनेसे कफज गुल्म कासश्वासाग्निमन्दार्शःपीनसारोचकान् जयेत् ॥
नष्ट होता तथा वायु मूत्र और मल स्वमार्ग में प्रवृत्त
हो जाते हैं। अजवायन, पीपलामूल, दालचीनी, तेजपात, |
(५७६६) यष्टीमधुकयोगः इलायची, नागकेसर, सांठ, काली मिर्च, इन्द्रजौ,
(ग. नि. । वाजीकरण.) जीरा, धनिया और सञ्चल (काला नमक ) १-१ | कर्ष मधकचूर्णस्य घृतक्षौद्रसमन्वितम् । भाग; तिन्तडीक, धायके फूल, पीपल, बेलगिरी, |
सागर | पयोनुपानं यो लिह्यान्नित्यवेगः स ना भवेत् ॥ अनारदाना और चीता ३-३ भाग तथा गुड़ ६ ।
१। तोला मुलैठीके चूर्णको घी और शहदमें भाग और कैथका गूदा ८ भाग लेकर यथा विधि
मिला कर चाटनेसे कामाग्नि अत्यन्त प्रज्वलित हो चूर्ण बनावें ।
जाती है। यह चूर्ण अतिसार, ग्रहणी, क्षय, गुल्म, गल
अनुपान-दूध रोग, कास, श्वास, अग्निमांद्य, अर्श, पोनस और
(घी १ तोला । शहद २ तोले । ) अरुचिको नष्ट करता है।
(५७६७) यष्टयादिचूर्णम् (१) (मात्रा-३-४ माशे । अनुपान उष्ण जल ।) (यो. त. । त. २९) (५७६४) यवान्यादिचूर्णम् (६) यष्टया वा माक्षिकेणावलीढं (वृ. नि. र. । बाल.)
___ कृष्णाचूर्ण शराढयं च किंवा ।
सर्पिः कोष्णं क्षीरमुष्णं रसो वा यवानीजीरकं व्योषं कुटजं विश्वभेषजम् ।
हन्यादिक्षोः पानतः पञ्च हिक्काः ।। एतन्मधुयुतं पीतं बालानां ग्रहणों जयेत् ।।
(१) मुलैठीके चूर्णको शहदमें मिलाकर चाअजवायन, जीरा, सेठि, मिर्च, पीपल, इन्द्रजौ टनेसे या (२) पीपल के चूर्ण में समान भाग मिसरी और सोंठ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । मिला कर सेवन करनेसे या (३) मन्दोष्ण धी
इसे शहदमें मिलाकर पिलानेसे बालकोंकी- पीनेसे अथवा (४) उष्ण दूध या (५) ईखका संग्रहणी नष्ट होती है।
| रस पीनेसे पांच प्रकारकी हिचकी नष्ट होती है।
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२९२
भारत-भषज्य-रत्नाकरः
[यकारादि
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(५७६८) यष्ट्यादिचूर्णम् (२) समय ) चाटनेसे पीडा रहित प्रसव होता है। (व. से. । अतिसारा.)
(मात्रा-चूर्ण ३ माशे । घी ६ माशे, शहद यष्टीमधु तिलाः कृष्णा पद्मकेसरमुत्पलम् ।
| १ तोला।) क्षौद्रमत्स्यण्डिकायुक्तमाजेन पयसा पिबेत् ।।
मिश्री और धनियेका चूर्ण समान भाग ले ___ मुलैठी, काले तिल, कमलकेसर और नीलो
- कर एकत्र मिलावें।
इसे चावलोंके पानीके साथ पिलानेसे गर्भिस्पल तथा भिसरीका चूर्ण समान भाग लेकर शहद |
। णीकी वमन नष्ट होती है। में मिलाकर खानेसे अतिसार नष्ट होता है।
( मात्रा-३-४ माशे।) अनुपान-बकरीका दूध । ( यह प्रयोग पित्तातिसारमें उपयोगी है।)
(५७७१) यष्टयादिचूर्णम् (५) (५७६९) यष्ट्यादिचूर्णम् (३) ।
(रा. मा. । राजयक्ष्मा.) (व. से. । स्त्रीरो.)
यष्टयश्वगन्धा सहिताऽकपुष्पी यष्टिनिम्ब हरिद्रा च निर्गुण्डी धातकी समम् ।
चूर्णीकृता क्षीरयुता प्रदत्ता। चूर्ण स्तनवणे देयं रोपणं कुरुते भृशम् ॥
कृशोऽप्यसौ पीवरतां दधाति मुलैठी, नीमकी छाल, हल्दी, संभालु और ।
पयः कृताहारतयैव मासात् ॥
मुलैठी, असगन्ध और अर्कपुष्पी (सूर्य धायके फूल समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।।
| मुखी ) समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । यह चूर्ण स्तनके व्रणको भर देता है।
___ इसे दूधके साथ सेवन करानेसे राजयक्ष्मासे ( यदि वणसे मवाद अधिक आता हो तो कृश हुवा रोगी पुष्ट हो जाता है। सूखाही लगाना चाहिये अन्यथा घीमें मिलाकर ।
इसके सेवन कालमें दुग्धाहार करना चाहिये । लगावें । रोज़ाना ब्रणको साफ़ अवश्य करते रहें।)
(५७७२) योगराजः (५७७०) यष्ट्यादिचूर्णम् (४)
(वृ. नि. र. । स्नायु.) (वै. जी. । वि. ३)
रामठं टक्षणक्षारं प्रत्येक शाणसम्मितम् । मध्वाज्ययष्टीमधुलुङ्गमूलं
चूर्णयित्वा सप्तं दिनं खादेत्सन्ध्याद्वयं नरः ॥ निपीय मूते सुमुखी सुखेन । | अनेन योगराजेन स्नायुको नश्यति ध्रुवम् ॥ मुतण्डुलाम्भः सितधान्यकल्क
भुनी हुई हींग, सुहागेकी खील और जवापानाद्वमिर्गच्छति गर्भिणीनाम् ॥ खार समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । मुलैठी और बिजौ रेकी जड़का समान भाग नित्य प्रति दोनों समय ( प्रातः सायं ) यह चूर्ण ले कर एकत्र मिलावें ।
| चूर्ण खानेसे सात दिनमें स्नायुक (नहरवा) अवश्य इसे शहद और घीमें मिलाकर ( प्रसवके । नष्ट हो जाता है।
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गुटिकाप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
अथ यकारादिगुटिकाप्रकरणम् (५७७३) यवाग्रजाद्या गुटिका और पीपलका चूर्ण मिला हुवा दूध पीना चाहिये। ( यवक्षारादिगुटी)
इसके सेवनसे वीर्य और काम शक्तिकी अत्यन्त (ग. नि. । मुख रोगा. ; वृ. नि. र. । मुख. ; वृद्धि होती है।
व. से. । मुख. ; भै. र. । मुख.) (५७७५) यवान्याद्या गुटिका यवाग्रज तेजवतीं सपाठां
(ग. नि. । गुटिका.) रसाधनं दारुनिशां सकृष्णाम् ।
यवानी धान्यकं बिल्वं चविकात्रुटिवल्कलम् । क्षौद्रेण कुर्याद्गुटिकां मुखेन
अम्लवेतसक्षाम्लं त्रिफला शिखिग्रन्थिकम् ॥ तां धारयेत्सर्वगलामयेषु ॥
सौवर्चलं सैन्धवं च हपुषां च हरीतकीम् । जवाखार, चव्य, पाठा, रसौत, दारुहल्दी यष्टिकां सातला स्पृक्कां पलमानानि चूर्णयेत् ॥ और पीपलका चूर्ण समान भाग ले कर सबको गुडस्य तु पलान्यत्र दापयेद्विगुणानि तु । एकत्र करके शहदमें घोट कर गोलियां बना लें। यवानीगुटिका ह्येषा ग्रहणीनाशनी परा॥
इनमेंसे १-१ गोली मुखमें रख कर रस अजवायन, धनिया, बेलगिरी, चव, छोटी चूसना चाहिये।
इलायची, दालचीनी, अमलबेत, तितिडीक, हर्र, इनके सेवनसे समस्त गलरोग नष्ट होते हैं। बहेड़ा, आमला, चीता, पीपलामूल, सञ्चल (काला
(५७७४) यवादिवटकः नमक), सेंधा नमक, हपुषा, हर्र, मुलैठी, सातला
( हा. सं. । स्था. ३ अ. ५०) और स्पृक्का (असबरग); इन सबका चूर्ण १-१ पल यवगोधूममाषाणां निस्तुषाणां च चूर्णकम् ।
(५-५ तोले) लेकर सबको दो गुने ( ४० पल ) दुग्धेनेचरसेनापि संस्कृत्य तु घृतेन तु ॥ गुड़में मिला कर गोलियां बना लें। पाचितं वटकश्रेष्ठं भक्षयेत्यातरुत्थितः।। इनके सेवनसे संग्रहणी नष्ट होती है। तस्योपरि पयः पानं पिप्पलीशर्करान्वितम् ॥ (मात्रा-४-५ माशे।)
छिलके रहित जौ, गेहूं और उड़द समान (५७७६) योगराजगुटिका भाग ले कर चूर्ण बनावें और उसे (चार चार गुने) (र. का. धे. । अपस्मा.) गोदुग्ध तथा ईखके रसमें पका कर मावा बना लें। विश्वाऽब्दधातकीदारुयवान्यम्बुकणा वचा । तदनन्तर उसमें घी डाल कर भूनें और फिर कुटजो धान्यकं बिल्वं पाठेन्द्रयवशाल्मलीः॥ ( स्वाद योग्य मिश्री मिला कर ) मोदक बना लें। विषाभयासमं चैषां चूर्णन मधुना सह ।
प्रातः काल ये मोदक खा कर ऊपरसे मिश्री ग्रहणीरोगहृत्सर्व योज्यं तच्चातिसारके ॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[यकारादि
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सोंठ, नागरमोथा, धायके फूल, दारुहल्दी, भाग चूर्ण ले कर सबको एकत्र मिला कर शहदमें असा अजवायन, सुगन्धबाला, पीपल, बच, कुड़ेकी ।
घोट कर गोलियां बनावें ।
इनके सेवनसे संग्रहणी और अतिसार नष्ट छाल, धनिया, बेलगिरी, पाठा, इन्द्रजौ, सेंभलका |
होता है। गेांद ( मोचरस ), अतीस और हर्र; इनके समोन | ( मात्रा-१॥ माशा । )
इति यकारादिगुटिकाप्रकरणम्
अथ यकारादिगुग्गुलुप्रकरणम् (५७७७) योगराजगुग्गुलुः (१) रेतोदोषाश्च ये पुंसां योनिदोषाश्च योषिताम् । ( ग. नि. । गुटिका. ४; र. र. स.। अ. २१; निहन्याचाशु तान्सर्वान्दुरानप्यसंशयम् ।। वै. म. २. * अ. १६; यो. चि. म. । अ. ७)
| एष निष्परिहारस्तु पानभोजनमैथुने।।
सतताभ्यासयोगेन वलीपलितनाशनः ॥ पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः।।
पीपल, पीपलामूल, चव, चीता सोंठ, पाठा, पाठाविडजेन्द्रयवहिङ्गुभार्गीवचान्वितैः ॥
बायबिडंग, इन्द्रजौ, हींग, भरंगी, बच, सरसों, सर्षपातिविषाजानिजीरकै रेणुकायुतैः।
अतीस, जीरा, काला जीरा, रेणुका, गजपीपल, गजकृष्णाजमोदाभ्यां कटुमूर्वासमन्वितैः ।।
अजमोद, सोंठ, मिर्च, पीपल और मूर्वा १ - १ समभागान्वितैरेतैत्रिफला द्विगुणा भवेत् ।
भाग; त्रिफला ( समान भाग मिलित हर्र, बहेड़ा, त्रिफलासहितरेतैः समभागस्तु गुग्गुलुः॥
आमला ) २ गुना ( ४४ भाग) और शुद्ध गूगल एतच्चूर्णीकृतं सर्व मधुना च परिप्लुतम् ।
| ६६ भाग ले कर गूगलमें आवश्यकतानुसार शहद योगराजमिमं विद्वान्भक्षयेत्प्रातरुत्थितः ।।
और थोड़ा थोड़ा उपरोक्त द्रव्योंका चूर्ण मिला कर अम॑सि वातगुल्मं च पाण्डुरोगमरोचकम् ।
कूटें । जब सम्पूर्ण चूर्ण अच्छी तरह मिल जाए तो नाभिशूलमुदावर्त प्रमेहान्वातशोणितान् ॥
सुरक्षित रक्खें। कुष्ठं क्षयमपस्मारं हृद्रोगं ग्रहणीगदम् ।।
इसे प्रातःकाल सेवन करना चाहिये । महान्तमग्निसादं च श्वासकासभगन्दरान् ॥
इसके सेवनसे अर्श, वातज गुल्म, पाण्डु, *वै. म. र. में
अरुचि, नाभि शूल, उदावर्त, प्रमेह, वातरक्त, कुष्ठ, (१) रेणुकाके स्थानमें कूठ, तथा (२) मूर्वा क्षय, अपस्मार, हृद्रोग, संग्रहणी, अग्निमांद्य, श्वास, के स्थानमें सित ( भोजपत्र, या धव ) लिखा है। खांसी, भगन्दर, शुक्र दोष और योनि दोष नष्ट और (३) त्रिफला सबके बराबर है। होते हैं।
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गुग्गुलप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
२९५
इस पर खान पान और मैथुनादिका कोई | जवाखार, तालीस पत्र और तेजपात; इन सबका विशेष परहेज़ नहीं है।
चूर्ण १-१ भाग तथा शुद्ध गूगल सबके बराबर — इसे दीर्घ काल तक सेवन करनेसे बलि और (२८ भाग ) ले कर गूगलमें आवश्यकतानुसार पलितका भी नाश हो जाता है।
थोड़ा थोड़ा घी और थोड़ा थोड़ा उपरोक्त चूर्ण
डाल कर कूटें । जब सम्पूर्ण चूर्ण गूगलमें अच्छी (५७७८) योगराजगुग्गुलुः (२) तरह मिल जाय तो स्निग्ध पात्रमें भर कर सुर( वृ. मा. ; भै. र. । आमवाता. ; र. र स.। क्षित रक्खें । . अ. २१; च. द. । आमवाता. ; यो. र. ;
___इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे वं. से. ; र. र. । आमवाता.)
आमवात, उरुस्तम्भ, कृमि, दुष्ट व्रण, तिल्ली, गुल्म, चित्रकं पिप्पलीमूलं यमानी कारवी तथा।। उदर रोग, अफारा, अर्श और अस्थि तथा मज्जागत विडङ्गान्यजमोदा च जीरकं सुरदारु च ॥ | वातज रोग नष्ट हो जाते हैं। चव्येला सैन्धवं कुष्ठं रास्नागोक्षुरधान्यकम्। यह अग्निको दीप्त करता और बल तथा त्रिफला मुस्तकं व्योषं त्वगुशीरं यवाग्रजम् ॥ | तेजकी वृद्धि करता है। तालीशपत्रं पत्रश्च श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् ।। यावन्त्येतानि चूर्णानि तावन्मात्रन्तु गुग्गुलुम् ॥
( अनुपान-उष्ण जल या दूध । मात्रा-१ सम्मर्थ सर्पिषा गाढं स्निग्ये भाण्डे निधापयेत्।
माशा ।) अतो मात्र प्रयुञ्जीत यथेष्टाहारवानपि ॥ __ (५७७९) योगराजगुग्गुलुः (३) योगराज इति ख्यातो योगोऽयममृतोपमः।
(वृ. नि. र. । ग्रहणी.) आमवाताढयवातादीन क्रिमिदुष्टत्रणानि च ।। प्लीहगुल्मोदरानाहदुर्नामानि विनाशयेत् ।
कणागजकणावह्निविडङ्गन्द्रयवायवैः ।
कटुकापिप्पलीमूलं भाजीपाठाजमोदकम् ॥ अग्निश्च कुरुते दीप्तं तेजोवृद्धिं बलं तथा ॥ वातरोगान् जयत्येष सन्धिमज्जगतानपि ॥
मूर्वाशुण्ठीहिङ्गुचव्यं समं सवींशगुग्गुलुः ।
चूर्णयेन्मधुना खादेकांशं योगराजकम् ॥ - चीता, पीपलामूल, अजवायन, सोया,
|| रक्तवातार्शसोगुल्मग्रहणीपाण्डुजिद्भवेत् ॥ बायबिडंग, अजमोद, जीरा, देवदारु, चव
पीपल, गजपीपल, चीता, बायबिडंग, इन्द्रजौ, (पाठान्तरके अनुसार बच), इलायची, सेंधा नमक, कूठ, रास्ना, गोखरु, धनिया, हर्र, बहेड़ा, आमला,
जौ, कुटकी, पीपलामूल, भरंगी, पाठा, अजमोद,
मूर्वा, सोंठ, हींग और चव; इनका चूर्ण एक एक नागरमोथा, सोंठ, मिर्च, पीपल, दालचीनी, खस,
| भाग तथा शुद्ध गूगल सबके बराबर ले कर गूग१- वचैला ' इति पाठान्तरम् । लमें आवश्यकतानुसार शहद और थोड़ा थोड़ा यह
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२९६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[यकारादि चूर्ण मिला कर कूटें । जब सम्पूर्ण चूर्ण गूगलमें । मन्दाग्निश्वासकासांश्च नाशयेदरुचि तथा ॥ मिल जाय तो उसे स्निग्ध पात्रमें भर कर सुर- रेतोदोषहरः पुंसां रजोदोषहरः स्त्रियाम् । क्षित रक्खें ।
पुंसामपत्यजनको वन्ध्यानां गर्भदस्तथा ॥ इसके सेवनसे वातार्श, रक्तार्श, गुल्म, ग्रहणी रास्नादिक्वाथसंयुक्तो विविधं हन्ति मारुतम् । और पाण्डुका नाश होता है।
काकोल्यादिशृतात्पित्तं कफमारग्वधादिना ॥ मात्रा-१ कर्ष ।
दार्वीतेन मेहांश्च गोमूत्रेण च पाण्डुताम् ।
मेदोद्धिं च मधुना कुष्ठं निम्बशृतेन वा ॥ ( व्यवहारिक मात्रा-१-१॥ माशा । अनु
छिन्नाकाथेन वातानं शोथं शूलं कणाभृतात् । पान-उष्ण जल या दूध । )
पाटलाकाथसहितो विषं मूषक जयेत् ।। (५७८०) योगराजगुग्गुलुः (४) (महा) त्रिफलाक्काथसहितो नेत्राति हन्ति दारुणाम् ॥ (शा. सं. । म. खं. अ. २; वृ. नि. र.।। सेठ, पीपलामूल, पीपल, चव, चीता, भुनी वातव्या.)
| हुई हींग, अजमोद, सरसों, सफेद जीरा, काला नागरं पिप्पलीमूलं पिप्पली चव्यचित्रको । | जीरा, रेणुका, इन्द्रजौ, पाठा, बायबिडंग, गजभृष्टं हिग्वजमोदा च सर्पपा जीरकद्वयम् ॥ पीपल, कुटकी, अतीस, भरंगी, बच और मूर्वा; रेणुकेन्द्रयवाः पाठा विडङ्ग गजपिप्पली।। इनका चूर्ण १-१ भाग; त्रिफला ( समान भाग कटुकातिविषा भाङ्गी वचा मूर्वेति भागतः ॥
मिलित हर्र, बहेड़ा, आमला ) का चूर्ण सबसे दो प्रत्येकं शाणिकानि स्युर्द्रव्याणीमानि विंशतिः।
गुना (४० भाग); शुद्र गूगल .६० भाग; बंग द्रव्येभ्यः सकलेभ्यश्च त्रिफला द्विगुणा भवेत् ।।
भस्म, रौप्य भस्म, नाग (सीसा) भस्म, लोह भस्म, एभिश्चूर्णीकृतैः सर्वैः समो देयश्च गुग्गुलुः ।
अभ्रक भस्म, मण्डूर और रस सिन्दूर १६-१६ वङ्गं रौप्यं च नागं च लोहसारस्तथाभ्रक्रम् ॥
भाग ले कर गूगल और काष्ठादि चूर्णीको एकत्र मण्डूरं रससिन्दूरं प्रत्येकं पलसम्मितम् ।।
मिलावें ओर उसमें आवश्यकतानुसार पानी डाल गुडपाकसमं कृत्वा इमं दद्याद्यथोचितम् ॥
कर पकावें । जब गुड़के समान गाढ़ा हो जाय तो एकपिण्डं ततः कृत्वा धारयेद्धृतभाजने।
उसमें भस्में मिला कर अच्छी तरह कूट कर एक गुटिकाः शाणमात्रास्तु कृत्वा ग्राह्या यथोचिताः॥ जीव कर लें। गुग्गुलुर्योगराजोऽयं त्रिदोषघ्नो रसायनः । तदनन्तर ३-३ माशेकी गोलियां बनाकर भैथुनाहारपानानां त्यागो नैवात्र विद्यते ॥ स्निग्ध पात्रमें भर कर सुरक्षित रक्खें । सर्वान्वातामयान्कुष्ठानीसि ग्रहणीगदम् ।। ( व्यवहारिक मात्रा-१॥ माशा ।) प्रमेहं वातरक्तं च नाभिशूलं भगन्दरम् ॥ यह “ योगराज गुग्गुलु ” त्रिदोष नाशक उदावते क्षयं गुल्ममपस्मारमुरोग्रहम् । । और रसायन है।
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गुग्गुलुप्रकरणम्
चतुर्थों भागः
२९७
%3
इसके सेवन कालमें खान पान और मैथुनका | रेणुकेन्द्रयवौ पाठा विडङ्गं गजपिप्पली। परहेज़ नहीं है।
कटुकाऽतिविषा भाजी वचा मूर्वा च पत्रकम् ।। इसके सेवनसे समस्त वातज रोग, कुष्ठ, | देवदारु कणा कुष्ठं रास्ना मुस्ता च सैन्धवम्। अर्श, ग्रहणी विकार, प्रमेह, वातरक्त, नाभि शूल, एला त्रिकण्टकं पथ्या धान्यकश्च विभीतकम् ॥ भगन्दर, उदावर्त, क्षय, गुल्म, अपस्मार, उरोग्रह, धात्री च त्वगुशीरश्च यवक्षारोऽखिलान्यपि । मन्दाग्नि, स्वास. कास. अरुचि. शक्रदोष और । एतानि समभागानि मूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ॥ रजोदोष नष्ट होते हैं।
यावन्त्येतानि चूर्णानि तावानेवात्र गुग्गुलुः । इसके सेवनसे पुरुषोंमें सन्तानोत्पादन शक्ति
सम्मी सर्पिषा पश्चात्सर्व संमिश्रयेच्च तत् ॥ उत्पन्न होती और स्त्रियोंका वन्ध्यत्व नष्ट होता है। एक पिण्डञ्च तस्कृत्वा धारयेद् घृतभाजने ।
गुटिकाष्टकमात्रास्तु खादेत्तास्तु यथोचिताः ॥ इसे-- रास्नादि कोथके साथ सेवन करनेसे वातज
सांठ, पीपलामूल, चव, काली मिर्च, चीता, रोग नष्ट होते हैं।
भुनी हुई हींग, अजमोद, सरसों, सफेद जीरा, काकोल्यादि गणके साथ सेवन करनेसे पित्तज काला जीरा, रेणुका, इन्द्रजौ, पाठा, वायबिडंग, रोग नष्ट होते हैं।
गज पीपल, कुटकी, अतीस, भरंगी, बच, मूर्वा, ___आरग्वधादि गणके साथ सेवन करनेसे कफज
तेजपात, देवदारु, पीपल, कूठ, रास्ना, नागरमोथा, रोग नष्ट होते हैं। तथा
सेंधा नमक, इलायची, गोखरु, हर्र, धनिया, बहेड़ा,
आमला, दालचीनी, खस और जवाखार १--१ दारुहल्दीके काथके साथ देनेसे प्रमेह;
भाग ले कर चूर्ण बनावें और फिर उसे सबके गोमूत्र के साथ देनेसे पाण्डु; शहदके साथ खानेसे
बराबर शुद्ध गूगल में मिलाकर थोड़ा थोड़ा घी मेद; नीमके क्वाथके साथ देनेसे कुष्ठ, गिलोयके
डालते हुवे खूब कूटें और चिकने पात्रमें भर कर काथके साथ सेवन करनेसे वातरक्त; पीपलके का
सुरक्षित रक्खें । थके साथ खानेसे शोथ और शूल; पाढलके काथके
इसे ४ माशेकी मात्रानुसार सेवन करनेसे साथ सेवन करनेसे चूहेका विष और त्रिफलाके
वातज रोग नष्ट होते हैं। काथके साथ खानेसे नेत्र रोग नष्ट होते हैं।।
(५७८२) योगराजगुग्गुलुः (६) (वृहद) (५७८१) योगराजगुग्गुलुः (५) (महा)
(भै. र. । आमवाता.) ( भा. प्र. । म. खं. वातव्या.; वै. र. । वातव्या.; त्रिकटु त्रिफला पाठा शताहा रजनीद्वयम् । __ वृ. नि. र. । वातव्या.; र. र. । वातव्या.) । | अजमोदा वचा हिङ्गु हवुषा हस्तिपिप्पली ॥ नागरं पिप्पलीमूलं चव्यमूषणचित्रकम् । उपकुश्चिका शटी धान्यं विडं सौवर्चलं तथा । भृष्टं हिङ्ग्वजमोदा च सर्षपो जीरकद्वयम् ॥ | सैन्धवं पिप्पलीमूलं त्वगेलापत्रकेशरम् ॥
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२९८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[यकारादि
फणिज्झकश्च लौहश्च सर्जकश्च त्रिकण्टकम् ।। (५६ भाग ) ले कर गूगलमें आवश्यकतानुसार रास्ना चातिविषा शुण्ठी यवक्षाराम्लवेतसम् ॥ घी और थोड़ा थोड़ा चूर्ण डालकर कूटें । जब चित्रकं पुष्करं चव्यं वृक्षाम्लं दाडिमं रुबु । सम्पूर्ण चूर्ण मिल जाय तो स्निग्ध पात्र में भर कर अश्वगन्धा त्रिवृदन्ती बदरं देवदारु च ॥ | सुरक्षित रक्खें । हरिद्रा कटुका मूर्वा त्रायमाणा दुरालभा । ____ इसके सेवनसे आमवात, कटि भग्न, एकाङ्गविमं मृतवङ्गश्च यमानी वासकाभ्रकम् ॥ शोष, कुष्ठ, क्षत, पैरोंका बेकार हो जाना, गृध्रसी, एतानि समभागानि श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् । सन्धिवात (गठिया), क्रोष्टु शीर्ष, समस्त शरीरगत शोधितं गुग्गुलुश्चैव सर्वचूर्णसमं नयेत् ॥ वायु, ८० प्रकारके 'वातज रोग, ४० प्रकारके घृतेन पिट्टयित्वा च स्निग्धे भाण्डे निधापयेत् । पित्तज रोग और २० प्रकारके कफज रोग नष्ट रसवातेन ये भग्नाः कटिभनाश्च ये जनाः ॥ | होते हैं। एकाङ्गं शुष्यते येषां कुष्ठं वापि क्षतोत्तरम्।।
(मात्रा-१-१॥ माशा। पादौ विस्तारितौ येषां येषां वा गृध्रसीग्रहः ॥
अनुपान-उष्ण जल या दूध ) सन्धिवातं क्रोष्टुशीर्ष वातं सर्वशरीरगम् ।। अशीतिं वातजान् रोगांश्चत्वारिंशच पैत्तिकान् |
(५७८३) योगोत्तमा गुटिका विंशति श्लैष्मिकांश्चैव इन्त्यवश्यं न संशयः । (ग. नि. । गुटिका. ४) अयं बृहद्योगराजगुग्गुलुः सर्ववातहा ॥ त्र्यूषणं त्रिफला क्षारौ लवणान्यथ चित्रकम् । ___ सांठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, तालीसं चविक शङ्गी निशे द्वे गजपिप्पली ॥ पाठा, सोया, हल्दी, दारुहल्दी, अजमोद, बच, | एला त्वचं विडङ्गानि पौष्करं नागकेसरम् ।। होंग, हपुषा, गजपीपल, काला जीरा, कचूर, धनिया, ताप्यकं दीप्यको मुस्ता समभागानि कारयेत् ।। विड नमक, सञ्चल ( काला नमक ), सेंधा नमक, यावन्त्येतानि द्रव्याणि तावन्मात्रमयोरजः। पीपलापूल, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागके- तावच्छिलाजतुर्देयः सर्वैस्तुल्यस्तु गुग्गुलुः ॥ सर, तुलसी, लोह भस्म, रोल, गोखरु, रास्ना, | संकुटय गुटिकां कुर्यादक्षमात्रप्रमाणतः । अतीस, सेठ, जवाखार, अमलबेत, चीतामूल, खादेन्ना मधुना युक्त्या तोयक्षीररसाशनः ॥ पोखरमूल, चव, तिन्तडीक, अनारदाना, | निर्यन्त्रितं सदा भोज्यं सर्वर्तुषु निरत्ययम् । अरण्डमूल, असगन्ध, निसोत, दन्तीमूल, बेर, अशीतिं वातजावोगांश्चत्वारिंशच्च पैत्तिकान् ॥ देवदार, हल्दी, कुटकी, मूर्वा, त्रायमाणा, विंशतिं श्लैष्मिकांश्चैव प्रमेहांश्चैव विंशतिम् । धमासा, बायबिडंग, बंग भस्म, अजवायन, वासा- | उदराणि तथा चाष्टौ श्वयधुं पवनात्मकम् ॥ मूलकी छाल और अभ्रक भस्म; सबका बारीक विंशतिं मूत्रकृच्छ्राणि दुष्टनाडीव्रणानि च । चूर्ण १-१ भाग तथा शुद्ध गूगल सबके बराबर । हन्त्यष्टादश कुष्ठानि सप्त चैव महाक्षयान् ॥
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चतुर्थो भाग:
अवलेह प्रकरणम् ]
कासं श्वास तथा हिकां हृच्छूलं छर्यरोचकम् । गुल्मांश्च पाण्डुरोगं च जयेत्पञ्चप्रकारजम् ॥ चत्वारो ग्रहणीदोषाः षडशसि तथैव च । सर्वांस्तान्नाशयत्याशु तमः सूर्योदयो यथा ॥ तथाऽर्बुदं गण्डमालां विद्रधिं सभगन्दरम् । हरते सर्वरोगांच वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥ योगोत्तमेति विख्याता गुटिका वैद्य पूजिता ॥
सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, वाखार, सज्जीखार, पांचों नमक ( सेंधा नमक, काला नमक, समुद्र नमक, काच लवण, बिड नमक ), चीता मूल, तालीस पत्र, चव, काकड़ासिंगी, हल्दी, दारूहल्दी, गजपीपल, इलायची, दालचीनी, बायबिडंग, पोखरमूल, नागकेसर, सोनामक्खी भस्म, अजवायन और नागरमोथा; सबका बारीक चूर्ण १-१ भाग तथा लोह भस्म
इति यकारादिगुग्गुलुमकरणम्
२९९
और शिलाजीत २८-२८ भाग एवं शुद्ध गूगल ८४ भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर ( आवश्यकतानुसार घी या शहद डालकर ) अच्छी तरह कूटें । जब सब मिलकर एक जीव हो जाएं तो ११- १। तोलेकी गुटिका बना लें ।
इन्हें शहद के साथ सेवन करनेसे ८० प्रकारके वातज रोग, ४० प्रकारके पित्तज रोग, २० प्रकार के कफज रोग, २० प्रकार के प्रमेह, आठ प्रकार के उदर रोग, वातज शोथ, सब प्रकारके मूत्रकृच्छ्र, दुष्ट नाड़ी ब्रण, १८ प्रकारके कुष्ठ, सात प्रकार के क्षय, खांसी, श्वास, हिचकी, हृदयशूल, छर्दि, अरुचि, गुल्म, पांच प्रकारके पाण्डु, चार प्रकारके ग्रहणी विकार, ६ प्रकारकी अर्श, अर्बुद, गण्डमाला, विद्रधि और भगन्दर आदि अनेक रोग नष्ट होते हैं ।
( व्यवहारिक मात्रा - ४-६ रत्ती । )
अथ यकाराद्यवलेह प्रकरणम्
(५७८४) यवान्यादिलेह: (बृ. नि. र. | बाल. ) यवानीकुटजारिष्टसप्तपर्णपटोलकैः । लेहश्छर्दिमतीसारं ज्वरं बालस्य नाशयेत् ॥
अजवायन, कुड़ेकी छाल, नीमकी छाल, सतौनेकी छाल और पटोलका चूर्ण समान भाग लेकर सबको शहद में मिलाकर अवलेह बनावें । इसे से बालकोंकी छर्दि, अतिसार और का नाश होता है ।
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(५७८५) यष्ट्यादिलेह: ( वृ. नि. र. । बालरोग ) यष्टीमधुतुगाक्षीलाजाञ्जनसिताकृतः । लेहः प्रदत्तो बालानामशेषज्वरनाशनः ॥
मुलैठी, बंसलोचन, धानकी खील, सुरमा और मिश्रीका चूर्ण समान भाग ले कर (सबको शहद में मिला कर ) अवलेह बनावें ।
इसे चटाने से बालकोंके समस्त ज्वर नष्ट होते हैं ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[यकारादि
__ (५७८६) योगसारामृतः ___ शतावर, नागबला, विधारामूल, भुई आमला, ( ग. नि.; व. से.; च. द. । वातव्या.; वृ. मा.;
| पुनर्नवा ( बिसखपरा ), गिलोय, पीपल, असगन्ध
और गोखरुका चूर्ण १०-१० पल ( ५०-५० र. र.; वृ. नि. र. । वातरक्त.)
तोले ) तथा मिश्री सबसे आधी लेकर सबको शतावरी नागबला वृद्धदारुकमुच्चटा। एकत्र मिलावें । तदनन्तर एक दृढ़ मृत्पात्रमें यह पुनर्नवाऽमृता कृष्णा वाजिगन्धा त्रिकण्टकः ॥ चूर्ण और ४ सेर शहद तथा २ सेर घी एवं ५ पृथग्दशपलान्येषां सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ।। तोले त्रिसुगन्ध ( दालचीनी, इलायची, तेजपात ) तदर्धशर्करायुक्तं चूर्ण संमर्दयेबुधः ॥ का चूर्ण मिला कर सबको अच्छी तरह आलोडित स्थापयेत्सुदृढे भाण्डे मध्वार्धाढकसंयुतम् । करके सुरक्षित रक्खें । घृतपस्थेन चालोड्य त्रिमुगन्धिपलेन च ।। इसे अग्नि बलोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे तं खादेदिष्टचेष्टान्नो यथावद्भिवलं नरः।। वातरक्त, क्षय, कुष्ट, रक्तपित्त जनित कृशता, वातज वातरक्तं क्षयं कुष्ठं कार्य पित्तास्रसम्भवम् ॥ पित्तज और कफज अनेक रोग तथा बलि पलितका वातपित्तकफोत्थांश्च रोगानन्यांश्च तद्विधान् । नाश हो कर शरीरको कान्ति बढ़ती है। हत्वा करोति पुरुष वलीपलितवर्जितम् ॥ परहेज---दिनको सोना, अग्नि तापना, व्यायोगसारामृतो नाम लक्ष्मीकान्तिविवर्धनः। याम, मैथुन, कटूष्ण और भारी आहार, अभिष्यन्दि दिवास्वमाग्निसन्तापं व्यायाम मैथुनं तथा ॥ पदार्थ तथा लवण और अम्ल पदार्थोसे परहेज़ कटूष्णगुवभिष्यन्दिलवणाम्लानि वर्जयेत् ॥ । करना चाहिए ।
इति यकाराबवलेह-प्रकरणम्
अथ यकारादिघृतप्रकरणम् (५७८७) यवक्षारादिघृतम् आमला ५-५ तोले ले कर सबको एकत्र ( ग. नि. । स्वरभङ्गा. १२)
पीस लें। पीतं धृतं हन्त्यनिलं सिद्धं मार्कवजे रसे। । २ सेर घीमें यह कल्क और ८ सेर भगरेका यवक्षाराजमोदाभ्यां चित्रकामलकेषु च ॥
| रस मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें। जब पानी जल
जाए तो घृतको छान लें। स्वरोपघातेऽनिलजे भक्तोपरि घृतं पिबेत् ॥ कला--जवाखार, अजमोद, चीता और
यह घृत वातज स्वर भंगको नष्ट करता है।
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घृतप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
(५७८८) यवादिघृतम् (१)
जौ, बेरका गदा और कुल्थीके कल्क तथा
| पञ्चमूलके कपाय और सुरा एवं सौबीरक कांजीके (र. र. । प्रसूति.)
साथ घृत सिद्ध कर लें। यवकोलकुलत्थानां शालिमूलं तथैव च ।
यह घृत उदर रोग नाशक है। क्वाथयेदप्रमत्तश्च सुपूते सलिलाढके ॥
(५७९०) यवादिघृतम् (३) तत्पादावस्थितं क्वाथं सर्पिर्युक्तं सजीरकम् ।
( वृ. नि. र. । अश्मरी.) पक्वं घृताक्षमात्रेण सैन्धवेन समायुतम् ॥
यवकोलकुलित्थानि कतकस्य फलानि च । एतेनैव च यूषेण चाश्नीयाच्छालिषष्टिकम् ।
' चतुर्थाशकषायेण पाच्यमेतच्छृतं घृतम् ॥ सूतिकोपद्रवं हन्ति भुक्तमात्रान संशयः ॥
____ जौ, बेरका गूदा, कुलथी और निर्मलीके बीज जौ, बेरका गूदा, कुलथी और शाली धानकी
| १-१ सेर लेकर सबको एकत्र कूट कर ३२ सेर जड समान भाग मिश्रित १ सेर लेकर सबको कूट पानी में पकावें और जब ८ सेर पानी शेष रहे तो कर ८ सेर पानीमें पकावें । जब २ सेर काथ शेष
छान लें। रह जाय तो छान लें।
___ इसमें २ सेर धी मिला कर पकावें । जब पानी अब इस काथमें आधा सेर घी और ५ तोले
जल जाए तो धीको छान लें। जी रका कल्क तथा १। तोला सेंधा नमक मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाए तो
यह घृत पथरीको नष्ट करता है। घीको छान लें।
(५७९१) यष्टीमधुकादिघृतम् इसे शाली अथवा साठी चावलोंके भातमें (हा. सं. । स्था. ३ कर्ण रोगा. ७४ अ.) डाल कर वह भात उपरोक्त द्रव्योंके यूषके साथ यष्टीमधुकुष्ठमरिष्टपत्रं सेवन करना चाहिये ।
निशाविशालासुमनः प्रवाला। इसके सेवनसे सूतिका रोग तुरन्त शान्त हो |
विपाचितं कर्णभवे च शूले जाता है।
सपैत्तिके वा घृतमेव शस्तम् ॥
कल्क--मुलैठी, कूठ, नीमके पत्ते, हल्दी, (५७८९) यवादिघृतम् (२)
इन्द्रायणकी जड़ और जाती (जाई) के पत्ते २॥(च. सं. । चि. अ. १८.)
२॥ तोले लेकर सबको एकत्र पीस लें । यवकोलकुलत्थानां पञ्चमूलरसेन च ।। काथ-उपरोक्त कल्क वाली ओषधियां आधा मुराप्तौवीरकाभ्यां च सिद्धं वापि पिवेद् घृतम्।।' आधा सेर (मिलित ३ सेर ) लेकर सबको कूट
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३०२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[यकारादि
कर २४ सेर पानीमें पका और ६ सेर पानी शेष कल्क-मुलैठी, सफेद चन्दन और अनन्त रहे तो छान लें।
मूल ५-५ तोले लेकर सबको एकत्र पीस लें । विधि-१२० तोले घीमें उपरोक्त कल्क और १२० तोले ( १॥ सेर ) घीमें यह कल्क काथ मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावे । जब पानी जल और ६ सेर दूध मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें। जाए तो घीको छान लें।
जब दूध जल जाए तो घीको छान लें। यह घृत पित्तज कर्णशूलको नष्ट करता है।
। इसकी नस्य लेनेसे पित्तज शिरोरोग नष्ट (५७९२) यष्टयादिघृतम् (१) होता है। ( यो. र. । हृद्रोग; वृ. नि. र. । हृद्रोगा.) खांड, मुनक्का और मुलैठीको पानीमें पीस यष्टीनागबलो दीच्यार्जुनैः सर्पिः सुसाधितम्। कर नस्य लेनेसे भी पित्तज शिरोरोग नष्ट हृद्रोगक्षयपित्तास्त्रश्वासकासज्वरार्तिजित् ॥ होता है ।
कल्क--मुलैठी, नागबला, सुगन्धबाला और (५७९४) यष्टयादिघृतम् (३) अर्जुनकी छाल ५-५ तोले लेकर सबको एकत्र
(ग. नि. । कासा. १०; यो. र. । उरःक्षत; पीस लें। काथ--उपरोक्त कल्ककी ओषधियां १-१
व. से. । क्षत क्षय.; वृ. यो. त. । त. सेर ( मिलित ४ सेर ) ले कर सबको अधकुटा
९९; वा. भ. । चि. अ. ३ कासा.) करके ३२ सेर पानीमें पकावें । जब ८ सेर पानी । यष्ट्याहनागबलयोः क्याथे क्षीरसमे घृतम् । शेष रहे तो छान लें।
पयस्यापिप्पलीवांशीकल्कसिद्ध क्षते हितम् ॥ विधि---२ सेर घीमें उपरोक्त कल्क तथा काथ काथ-मुलैठो और नागबला २-२ सेर ले मिला कर पकावें । जब पानी जल जाए तो घीको कर, एकत्र कूट कर ३२ सेर पानीमें पकावें । जब छान लें।
८ सेर पानी शेष रह जाय तो छान लें। यह घृत हृद्रोग, क्षय, रक्तपित, श्वास, कास कल्क---क्षीरकाकोली, पीपल और बंसलोचन और ज्वरको नष्ट करता है।
समान भाग मिश्रित २० तोले ले कर सबको एकत्र (५७९३) यष्टयादिघृतम् (२)
पीस लें। (ग. नि. । शिरोरोगा. १०; व. से.; वृ. विधि--२ सेर घीमें उपरोक्त क्वाथ, कल्क नि. र. । शिरो.)
| और २ सेर दूध मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । यष्टयाहचन्दनानन्ताक्षीरसिद्धं घृतं हितम् । जब दूध और पानी जल जाय तो घीको छान लें । नावनं शर्कराद्राक्षामधुकैर्वापि पित्तजे ॥ यह घृत क्षतज खांसीको नष्ट करता है।
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तैलपकरणम् ]
चतुर्थो भागः
(५७९५) यष्टयादिघृतम् (४) विधि-६५ तोले धीमें उपरोक्त काथ तथा (३. मा.। आगन्तुद्रणा.)
कल्क मिला कर पकावें । जब पानी जल जाए तो सद्यःक्षतं व्रणं वैद्यः सशूलं परिषेचयेत् ।।
घीको छान लें।
___ यह घृत ऊर्ध्वजत्रुगत रोगोंको नष्ट यष्टीमधुकयुक्तेन किश्चिदुष्णेन सर्पिषा ॥
करता है। ___ मन्दोष्ण घृतमें मुलैठीका बारीक चूर्ण मिला
(५७९७) यष्टयायं घृतम् कर उससे ताजे घावको तर करनेसे घावकी पीड़ा
( ग. नि. । बालरो.; वा. भ. । उ. अ. २) शान्त होती है।
यष्टयाहपिप्पलीरोध्रपद्मकोत्पलचन्दनैः। (५७९६) यष्टयादिघृतम् (५)
तालीससारिवाभ्यां च साधितं शोषजिघृतम्।। (वृ. मा.)
कल्क-मुलैठी, पीपल, लोध, पनाक, कमल, यष्टीमधुबलारास्नादशमूलाम्बुसाधितम् ।।
सफेद चन्दन, तालीस पत्र और सारिवा ५-५ मधुरैश्च घृतं सिद्धमूर्ध्वजत्रुगदापहम् ॥
तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें। ___ काथ-मुलैठी, खरैटी, रास्ना आर दशमूलकी काथ-उपरोक्त कल्ककी ओषधियां १-१ प्रत्येक औषध १०-१० तोले ले कर सबको १३ सेर (मिलित ८ सेर ) ले कर सबको एकत्र कुट सेर पानीमें पकावें । जब ३। सेर पानी शेष रहे कर ६४ सेर पानीमें पकावें । जब १६ सेर पानी तो छान लें।
शेष रह जाए तो छान लें। कल्क-जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, विधि-४ सेर घीमें उपरोक्त कल्क और काथ काकोली, क्षीरकाकोली, मुद्गपर्णा, माषपणीं मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाए जीवन्ती और मुलैठी समान भाग मिश्रित १६। तोले | तो घीको छान लें। लेकर सबको एकत्र पीस लें।
यह घृत बालकोंके शोषको नष्ट करता है। इति यकारादिघृतप्रकरणम्
-DHAH
अथ यकारादितैलप्रकरणम् (५७९८) यवादितैलम् (१)
२ सेर तिलके तेलमें ४०० सेर (१० मन) (वै. क. द्रु. । स्क. २)
काजी और १० तोले जौ तथा २॥ तोले मजीठका
चूर्ण मिला कर पकावें । जब काञ्जी जल जाय तो यवचूर्णार्द्धकुडवं मञ्जिष्ठार्द्धपलेन तु ।
तेलको छान लें। तैलमस्थं शतगुणे काझिके साधितं जयेत् ॥ इसको मालिशसे ज्वर और प्रबल दाह तथा ज्वरं दाहं महावेगमङ्गानां च प्रहर्षनुत् ॥ । अंगोंका प्रहर्ष नष्ट होता है।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[यकारादि
( काथार्थ प्रत्येक वस्तु ५ तोले; पानी ९ । कल्कार्थ-प्रत्येक वस्तु ३।। माशे (मिलित सेर; शेष २। सेर।
५ तोले ७॥ माशे ) तेल--४५ तोले । इति यकारादितैलपकरणम्
२ पल ।
अथ यकाराद्यासवप्रकरणम् (५८०५) योगराजासवः स दत्तो वातपित्तघ्नो दीपनो रक्तरोगनुत् । ( ग. नि. । आसवा. ६)
योगराज इति ख्यात आसवोऽयं गुणोत्तरः ॥ द्राक्षायाः शर्करायाश्च गुडस्य च पृथक पृथक् । काथ्य द्रव्य--द्राक्षा, खांड और गुड़ १०पलानि दश कार्याणि पथ्यापलचतुष्टयम् ॥ १० पल ( ५०-५० तोले ); हर्र ४ पल, लौंग, लवङ्गबदरोसर्जार्जुनानां छल्लिकाभवम् । बेरकी छाल, चीड़, अर्जुनकी छाल, देवदारु, पलं पलं पृथग्ग्राह्यं देवदारुपलं तथा ॥ चीतामूल, लोध, पीपलामूल, धायके फूल और सुचित्रकस्य च लोध्रस्य पिप्पलीमूलकस्य च । पारी १-१ पल (५-५ तोले ) और मजीठ धातकीकुसुमानां च तद्वद्देयं पलं पलम् ॥ तथा पूगफलानां तु कषायाणां पलं मतम् ।। सबको अधकुटा करके आठ गुने (२३ सेर) मनिष्ठायाः पले द्वे तु काथ्यसंज्ञानि तानि च। पानीमें पका और जब ११॥ सेर पानी शेष रहे लवङ्गकलिकाजातीपत्रैलानागकेशरम् । तो छान लें । पिप्पलीशुण्ठिमरिचत्वङ्मांसीचव्यमुस्तकम् ॥
प्रक्षेप द्रव्य--लौंगकी कली, जावत्री, तेजपात, कुष्ठं जातीफलं ग्रन्थिपर्ण स्नुक कटुरोहिणी। एषां पलं पलं ग्राह्यं तज्ज्ञेयं चूर्णसंज्ञितम् ॥
इलायची, नागकेसर, पीपल, सोंठ, मिर्च, दालचीनी,
जटामांसी, चव, नागरमोथा, कूठ, जायफल, गठीततस्तु काथ्यद्रव्येभ्यो जलमष्टगुणं क्षिपेत् । काथं तदुदके कुर्यादर्धभागावशेषितम् ॥
वन, थूहरका डंडा और कुटकी ५-५ तोले लेकर तत्काथं वस्त्रपूतं तु भाण्डेऽन्यस्मिन्मनोहरे। चूर्ण बनाव।। कृत्वाऽत्र प्रक्षिपेच्चूर्ण तद्भाण्डं धान्यराशिगम्।। विधि---एक स्वच्छ मृत्पात्रमें उपरोक्त काथ कृत्वा सप्तदिनं शीते काले चोष्णमये तथा। और प्रक्षेपद्रव्य डाल कर सबको अच्छी तरह यावदिनानि त्रीणि स्युः पश्चाद्भाण्डं समुद्धरेत् ॥ मिलाकर पात्रका मुख बन्द कर दें और उसे अनापुनस्तद्वस्त्रपूतं तु भाण्डे कर्पूरवासिते । जके ढेरमें दबा दें। यदि शीतकाल हो तो सात निक्षिप्य सेवयेत्यातः पलमात्रोपलक्षितम् ॥ । दिन पश्चात् और ग्रीष्म काल हो तो ३ नई
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लेपप्रकरणम्]
चतुर्थों भागः
पश्चात् आसवको निकाल कर छानकर कर्पूरवासित | विकार नष्ट होते तथा अग्नि दीप्त होती है । पात्रमें भर कर सुरक्षित रक्खें ।।
मात्रा-५ तोले । समय--प्रातःकाल. इसके सेवनसे वात पित्तज रोग और रक्त- । (व्यवहारिक मात्रा-२ तोले । )
इति यकाराथासवप्रकरणम्
-
DI
अथ यकारादिलेपप्रकरणम् (५८०६) यवपिष्टलेपः | जौ और गेहूंका चूर्ण तथा जवाखारका लेप
(वृ. नि. र. । अजीर्णा. ) लगानेसे ब्रण ( व्रण शोथ ) फट जाता है । यवपिष्टयवक्षारलेपस्तक्रेण संयुतः।
हल्दीकी राख और चूनेको एकत्र मिला कर उष्णीकृतो हरेत्सद्यो जठराति सुदुर्जयाम् ॥ लेप करनेसे भी ब्रण (बण शोथ) फट जाता है। .
जौ के चूर्ण और जवाखारको तक्रमें मिला- (५८०९) यवादिलेपः (२) कर गर्म करके लेप करनेसे दुस्तर उदर-शूल भी
(यो. र.। विद्रधि.; वृ. मा. । विद्रधि. ) तुरन्त नष्ट हो जाता है।
| यधगोधूममुद्गश्च सिद्धपिष्टैः प्रलेपयेत् । (५८०७) यवभस्मादिलेपः
| विलीयते क्षणेनैवमपक्वश्चैव विद्रधिः ॥ ( यो. र. । अग्नि दग्ध., धन्व. । व्रण.; शा. सं।
__ जौ, गेहूं और मूंगको पका कर पीस कर लेप खं. ३ अ. ११.)
करनेसे अपक्क विद्रधि अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो दग्धयवभस्मचूर्ण तिलतैलाक्तं प्रलेपनादचिरात् । जाती है। हरति शिखिदाहदग्धं भूयोभ्यङ्गाणं चाऽऽशु॥
(५८१०) यवादिलेपः (३) जौको जला कर भस्म करें और फिर उसे (वैद्यामृत । वृद्धय.) अत्यन्त बारीक करके तिलके तेल में मिला लें। यवतिलऋतुजन्मरण्डवीजैः सुखोष्णइसे लगानेसे अग्निदग्ध ब्रण शीघ्र ही नष्ट हो हरति कृत विलेपः काञ्जिकेन प्रपिष्टैः॥
___जौ, तिल, पुनर्नवाकी जड़ और अरण्डके (५८०८) यवादिलेपः (१) छिलके रहित बीज समान भाग लेकर सबको एकत्र (वृ. नि. र. । वणशोथ; यो. र. । व्रण.) मिला कर काजीमें पीस लें । यवगोधूमचूर्ण च क्षारं दारणं पृथक् । इसे मन्दोषण करके लेप करनेसे अण्ड वृद्धि हरिद्राभस्मचूर्णाभ्यां प्रलेपो दारणः परः॥ । नष्ट होती है।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[यकारादि (५८११) यवादिलेपः (४) (५८१३) यष्टयादिलेपः (१) (व. से. । क्षुद्ररो.)
( व. से. । व्रण.) यवान्सर्जरसं लोध्रमुशीरं चन्दनं मधु । यष्टी तिलाः सुपिष्टा वा सघृताव्रणरोपणे । घृतं गुदृश्च गोमूत्रे पचेदादविलेपनम् ॥ धातकीचन्दनबलाः समङ्गामधुकोत्पलैः ॥ तदभ्यङ्गानिहन्त्याशु नीलिकां व्यङ्गदूषिकाम् । दाव:मेदातिलेलेपः ससर्पित्रणरोपणः ॥ मुखं करोति पद्माभं पादौ पद्मदलोपमौ ॥ मुलैठी और तिलके महीन चूर्णको घीमें मि____ जौ, राल, लोध, खस और लाल चन्दनका | लाकर लेप करनेसे बण भर जाते हैं। चूर्ण तथा शहद, घी और गुड़ समान भाग लेकर
धायके फूल, लाल चन्दन, खरैटी, मजीठ, सबको ( ४ गुने ) गोमूत्र में पकावें और जब कर- मुलैठी, नील कमल, दारुहल्दी, मेदा और तिल; छीको लगने लगे तो उतार कर सुरक्षित रखें।
सबके समान भाग चूर्ण लेकर सबको एकत्र मिला इसे मलनेसे नीलिका और व्यङ्ग (झाई) | कर घीमें मिला लें। आदि नष्ट हो कर मुख कमलके समान शोभाय
इसका लेप करनेसे ब्रण भर जाते हैं । मान हो जाता है।
(५८१४) यष्टयादिलेपः (२) ___इसे पैरोंमें लगानेसे (पैरोंकी बिवाई आदि नष्ट हो कर ) वे कमलदल सदृश कोमल हो
( हा. सं. । स्था. ३ अ. ३१.) जाते हैं।
यष्टीमधु तथा कुष्ठं चन्दनं रक्तचन्दनम् । (५८१२) यवादिलेपः (५)
उशीरं कत्तृणं चैव रक्तधातुमृणालकम् ।।
क्षीरमण्डकसंयुक्तं यथालाभं भिषग्वर ! । (व. से. । व्रण.)
| लेपनं पित्तरक्तानां मेहदाहः प्रशाम्यति ॥ यवचूर्ण समधुकं सह तैलेन सर्पिपा।
मुलैठी, कूठ, सफेद और लाल चन्दन, खस, दद्यात्प्रलेपनं कोष्णं दाहशूलोपशान्तये ॥
| गन्धतृण, गेरु और कमलनाल समान भाग लेकर ___ जौ और मुलैठीका चूर्ण समान भाग लेकर सबको अत्यन्त बारीक पीस कर दूध या माण्डमें दोनोंको एकत्र करके तेल और घीमें मिला लें। मिला कर लेप करनेसे पित्तरक्तज प्रमेहकी दाह - इसे मन्दोण करके लेप करनेसे ब्रणकी दाह । शान्त होती है । और पीड़ा शान्त हो जाती है ।
यदि उपरोक्त समस्त ओषधियां प्राप्त न हो (नोट-तेल और धी बराबर बराबर ले कर सकें तो जितनी मिल जाएं उन्हींसे काम चलाना एकत्र मिला लेने चाहियें।)
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धूपप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः (५८१५) यष्ट्यादिलेपः (३) | रसौत समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर (शा. ध. । ख. ३ अ. ११)
पानीके साथ पीस लें। यष्टीन्दीवरमृद्वीकातैलाज्यक्षीरलेपनैः ।
__इसका नेत्रों के बाहर लेप करनेसे हर प्रकाइन्द्रतः शमं याति केशाः स्युः सघनाः दृढाः ॥ |
रको नेत्र-पीड़ा नष्ट होती है । मुलैठी, कमल और मुनक्का १-१ भाग ले
___ (५८१७) यष्टयादिलेपः (५) कर सबको एकत्र मिला कर अत्यन्त बारीक पीस
(वृ. मा. । शोथा. ) कर उसमें १-१ भाग तेल, घी और दूध मिला| यष्टीदुग्धतिलैलेपो नवतीतेन संयुतः । कर लेप करनेसे इन्द्रलुप्त नष्ट होता और केश घने | शोथमारुष्करं हन्ति वृन्तैः शालदलस्य वा ॥ तथा दृढ़ होते हैं।
मुलैठी और तिल समान भाग लेकर दोनोंको (५८१६) यष्टयादिलेपः (४) । एकत्र मिला कर दूधके साथ अत्यन्त बारीक
पीस लें। (व. से. । नेत्र रोगा.)
इसे नवनीत में मिला कर लेप करनेसे यष्टीगैरिकसिन्ध्रत्यदा:तायः समांशकैः। भिलावेकी सूजन नष्ट हो जाती है। जलपिष्टैबहिर्लेपः सर्वनेत्ररुजापहः ॥
शाल वृक्षके पत्तोंके डण्ठलोंका लेप करनेसे मुलैठी, गेरु, सेंधा नमक, दारुहल्दी और भी भिलावेकी सूजन नष्ट हो जाती है।
इति यकारादिलेपप्रकरणम्
-DAY
अथ यकारादिधूपप्रकरणम् (५८१८) यवादिधूपः (१) - कर स्राव और तीव्र वेदना युक्त वातज बणोंको ( वृ. यो. त. । १११.)
इसकी धूनी देनी चाहिये।
(५८१९) यवादिधूपः (२) वाताभिभूतान्सास्रावान्धूपयेदुग्रवेदनान् ।
(वैद्यामृत.) यवाज्यभूर्जमदनश्रीवेष्टकमुराहयैः ॥
यवसर्पपरकशिवायचाजतुनिम्बाज्यभवं प्रधृपनम् जौ, भोजपत्र, मैनफल, श्रीवेष्ट, और देवदारु | ज्वरनाशकरं परं स्मृतं विविधोपायकरैश्चिसमान भाग ले कर चूर्ण बनावें । इसे धीमें मिला |
कित्सकैः॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[यकारादि
जौ, सरसो, कूठ, हल्दी; बच, लाख और | कर धीमें मिलावें । नीमके पत्ते समान भाग लेकर सबको एकत्र कूट } इसकी धूप (धूनी) देनेसे ज्वर नष्ट होता है ।
इति यकारादिधूपप्रकरणम्
अथ यकाराद्यञ्जनप्रकरणम् (५८२०) यष्टयाद्यञ्जनम् । मुलैठी, हींग, बच, हडजोड़ी, सिरसके बीज, (वृ. यो. त. । त. ८९; वृ. मा. । अपस्मारः ल्हसन और कूठ समान भाग ले कर सबको बकव. से.; यो. र.)
| रेके मूत्रमें अत्यन्त बारीक पीस लें । यष्टीहिजवचावज्री शिरीषलशुनामयैः। इसकी नस्य लेने और इसे आंखमें लगानेसे साजमूत्रैरपस्मारे सोन्मादे नावनाअनम् ॥ र उन्माद और अपस्मार नष्ट होता है ।
इति यकाराद्यञ्जनपकरणम्
अथ यकारादिनस्यप्रकरणम् (५८२१) यवकादिनस्यम्
कुलथी (या उडद) के क्वाथकी नस्य देनेसे (वृ. नि. र. । ज्वर.) यावकस्य रसेनापि नस्यतो हन्ति हिकिकाम् | हिचकी नष्ट होती है ।
इति यकारादिनस्यप्रकरणम्
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अथ यकारादिरसप्रकरणम् (५८२२) यकृत्प्लीहारिलौहम् (१) द्विरष्टवारिणो भागमष्टशिष्टन्तु कारयेत् ।
(भै. र. । प्लीहयकृ.; र. र.; धन्व.) तेन चाष्टावशिष्टेन समेनाज्येन यत्नतः ॥ लौहार्द्धमभ्रकं शुद्धं मूतमप्यर्द्धभागिकम् । रसेन बहुपुत्राया द्विगुणक्षीरसंयुतम् । त्रिगुणामयसश्चूर्णात् त्रिफलां साभ्रकात्तथा ॥ लौहपात्रे पचेा लौहमय्या विधानतः ॥
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः अभ्रकं निहतं शुद्धं पारदश्च सुमच्छितम्। इसके सेवनसे प्लीहा, यकृत् और गुल्मका अयसोऽर्द्धमितं चूर्णमादौ पाके विनिक्षिपेत् ॥ | नाश होता है। कन्दं कापालिकांचव्यं विडङ्गं सबृहद्दलम् । इस प्रयोगमें डालनेके लिये लोहको मानकशरपुडा च पाठा च चित्रकं समहौषधम् ।। द, घण्टकर्ण और जिमिकन्दके रसके साथ घोट लवणानि च सर्वाणि सक्षारं दृद्धदारकम् । घोट कर पृथक् पृथक् २-२ पुट देनी चाहिये । दीप्यकश्च तथा सीधुं लौहाभ्रकसमं क्षिपेत् ॥ (५८२३) यकृत्प्लीहारिलौहम् (२) प्लीहोदरयकृदगुल्मान् हन्ति शस्त्राग्निभिर्बिना । (भै. र.; धन्व. । प्लीहयकृद्रो.) प्रयोज्योऽयं महावीर्यो लोहो लोहविदां वरैः ।
"| हिङ्गुलसम्भवं मूतं गन्धकं लौहमभ्रकम् । प्लीहोदरविनाशाय दद्यात् द्वे द्वे पुटे पृथक् । तल्यं द्विगुणताम्रन्तु शिला च रजनी तथा ॥ मानेन घण्टकर्णन शूरणेन पृथक् पृथक् ॥
जयपालं टङ्गणश्च शिलाजतु समं रसात् । ४५ तोले ( ९ छटांक ) त्रिफलाको १६ । एतत्सर्वं समाहृत्य चूर्णीकृत्य विमिश्रयेत् ॥ गुने (९ सेर) पानीमें पकावें और जब आठवां दन्तीत्रिवृच्चित्रकञ्च निर्गुण्डी त्र्यूषणं तथा । भाग ( १ सेर १० तोले ) पानी शेष रहे तो उसे | आर्द्रकं भृङ्गराजश्व समैरेषाः पृथक् पृथक् ॥ छानकर उसमें उसके बराबर (१ सेर १० तोले ) | भावयित्वा वटीं कुर्याद् गुमाद्वयमितां भिषक् । घी और उतनाही शतावरका रस तथा २ गुना । प्लीहानं यकृतश्चैव चिरकालानुबन्धिनम् ॥ (२। सेर) दूध और ५ तोले लोहभस्म तथा ५ | एक द्वन्द्वजञ्चैव सर्वदोषभवं तथा । तोले अभ्रक भस्म एवं ५ तोले रस सिन्दूर मिला हन्यादष्टोदरानाहज्वरं पाण्डुश्च कामलाम् ॥ कर लोहेकी कढ़ाईमें मन्दाग्नि पर पकावें और लो- शोथं हलीमकं हन्ति मन्दामित्वमरोचकम् । हेकी करछीसे चलाते रहें । जब पाक तैयार हो | यकृत्प्लीहारिनामेदं लौहं जगति दुर्लभम् ॥ जाए तो उसमें निम्न लिखित द्रव्योंका चूर्ण मिला
हिंगुलोत्थ पारद, शुद्ध गन्धक, लोह भस्म कर सुरक्षित रक्खें ।
और अभ्रक भस्म १-१ भाग; ताम्र भस्म २ भाग चूर्ण द्रव्य----लोह भस्म ५ तोलो तथा जिमी- तथा शुद्ध मनसिल, हल्दीका चूर्ण, शुद्ध जमालकन्द, कण्टकपाली, चव्य, बायबिडंग, पठानी लोध, | गोटा, सुहागेकी खील और शिलाजीत १-१ भाग सरफोंका, पाठा, चीता, सोंठ, पांचों नमक ( सेंधा ले कर सबको एकत्र मिला और फिर उसे दन्तीनमक, काला नमक, बिड नमक, सामुद्र लवण, | मूल, निसोत, चीता, संभालु, त्रिकुटा (सेठ, मिर्च, काच लवण), जवाखार, विधारा बीज, अजवायन | पीपल), अदरक और भंगरके रसकी पृथक् पृथक
और थोहर ( सेंड ) की जड़ः इनका चूर्ण १५- एक एक भावना दे कर दो दो रत्तीकी गोलियां १५ तोले ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[यकारादि
इनके सेवनसे तिल्ली, पुराना यकृत, आठ प्र- (५८२५) यकृदरिलौहम् कारके उदर रोग, आनाह, ज्वर, पाण्डु, कामला, | (भै. र.; र. चं.; र. सा. सं.; र. रा. सु. । शोथ, हलीमक, अग्निमांद्य और अरुचिका नाश
यकृल्पीहा.; रसें. चि. म. । अ. ९.) होता है।
| द्विकर्ष लौहचूर्णस्य गगनस्य पलार्द्धकम् । (५८२४) यकृत्प्लीहोदारिलौहम् कर्ष शुद्धं मृतं तानं लिम्पाकामित्वचः पलम्॥ स्वर्ण रौप्यं तथा तानं वङ्गश्चा, समाक्षिकम् । मृगाजिनभस्मपलं सर्वमेकत्र कारयेत् । सर्वार्द्ध जारितं लौहं कल्पयेत्कुशलो भिषक् ॥ चतुर्गुआप्रमाणेन वटिकां कारयेद्भिपक् ।। शृङ्गवेररसेनापि शेफालीदलजै रसैः ।
यकृत्प्लीहोदरश्चैव कामलाश्च हलीमकम् । स्वरसैबिल्वपत्राणां काथैश्च कटुतिक्तजैः॥ कासं श्वासं ज्वरं हन्ति बलवर्णाग्निवर्द्धनम् ।। रसेन बहुमञ्जर्याः भावयेच त्रिधा त्रिधा। । | यकृदरिनाम लौहं सर्वव्याधिनिषूदनम् ॥ वलमा प्रदातव्यं पर्पटकाथसंयुतम् ॥
लोह भस्म और अभ्रक भस्म २॥-२॥ तोले, प्लीहानं यकृतं श्वासं कासञ्न विषमज्वरम् । । ताम्र भस्म १। तोला तथा बिजौर नीबूकी गुल्मशोथोदरानाहमग्रमांसमरोचकम् ॥ | जड़की छालका चूर्ण और मृग चर्मकी भस्म ५-५ कामलां पाण्डुरोगश्च चिरकालानुवन्धिनम् । | तोले लेकर सबको एकत्र करके पानीके साथ धोट सर्वान् रोगानिहन्त्याशु वातपित्तकफोद्भवान् ॥ कर ४-४ रत्तीकी गोलियां बना लें। ___स्वर्ण भस्म, रौप्य भस्म, ताम्र भस्म, बंग इनके सेवनसे यकृदुदर, प्लीहोदर, कामला, भस्म, अभ्रक भस्म और स्वर्ण माक्षिक भस्म १-- हलीमक, खांसी, श्वास और ज्वरका नाश होता १ भाग तथा लोह भस्म सबसे आधी ( ३ भाग) तथा बल वर्ण और अग्निकी वृद्धि होती है । ले कर सबको एकत्र मिला कर उसे अद्रकके रस, (५८२६) यकृदरिलौहम् (वृहत्) शेफाली ( हार सिंहार ) के पत्तोंके रस, बेल पत्रके
(भै. र. । प्लीहयकृ.) रस, चिरायतेके काथ और तुलसीके रसकी पृथक्
पारदं गन्धकञ्चाभ्रं त्र्यूषणं कटुकीं तथा । पृथक ३-३ भावना दे कर ३.-३ रत्तीकी गोलियां
त्रायमाणां विषां पाठां पिचुमर्द हरीतकीम् ॥
चित्रकं पर्पटं मुस्तं समभागं प्रकल्पयेत् । __ अनुपान-पित्तपापड़ेका काथ । सर्वार्द्ध जारितं लौहं गुडूचीस्वरसैदिनम् ॥
इनके सेवनसे प्लीहा, यकृत् , श्वास, खांसी, निष्पिष्य वटिका कार्या त्रिगुनाफलमानतः । विषम ज्वर, गुल्म, शोथ, उदर, आनाह, अग्रमांस प्लीहोदरस्कृद्गुल्मान् सर्वोपद्रवसंयुतान् । (हृद्रोग विशेष), अरुचि, कामला और पुराने पाण्डु ऐकाहिक द्वयाहिकं वा व्याहिकं चातुराहिकम् । का नाश होता है।
| सर्वान् ज्वरान्निहन्त्याशु भक्षणादाकद्रवैः ॥
बना लें।
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रसप्रकरणम् ] चतुर्थों भागः
३१३ शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म और मर्य चाकरसेन चित्रकैः सोंठ, मिर्च, पीपल, कुटकी, त्रायमाणा, अतीस, प्रक्षिपेच्च सुदृढे मुभाजने ॥ पाठा, नीमकी छाल, हरं, चीतामूल, पितपापड़ा, ताम्रभाजनमथोपरिस्थितं
और नागरमोथा, इनका चूर्ण १-१ भाग तथा रोधयेत्पटमृदा सदैव हि । लोह भस्म सबसे आधी (७॥भाग ) लेकर सबको याममात्रपुटितं शनैः शनैएकत्र मिलाकर १ दिन गिलोयके काथमें घोटें
निक्षिपेच्च जलमूर्ध्वभाजने ॥ और ३-३ रत्तीकी गोलियां बना लें।
ताम्रपत्रकुहरे रसो भवेइनके सेवनसे प्लीहोदर, यकृत, गुल्म, तथा
द्रोगराजविनिबर्हणक्षमः ॥ एकाहिक द्वयाहिक, तृतीयक और चातुर्थिक ज्वर
शुद्ध पारद, शुद्ध बछनाग ( मोठा विष ), नष्ट होता है।
स्वर्ण भस्म और शुद्ध गन्धक समान भाग ले कर अनुपान-अदरकका रस ।
प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर (५८२७) यक्ष्मकेसरी रसः
उसमें बछनाग तथा स्वर्ण मिला कर उसे १-१
दिन अदरक और चीतेके रसमें घोटें । तदनन्तर (धन्व. । राजयक्ष्मा.)
उसे मिट्टीके दृढ़ पात्रमें डालकर उसके ऊपर शुद्ध त्रिकटुत्रिफलैलाभिर्जातीफललवङ्गकैः ।
ताम्रकी कटोरी ढक दें और दोनोंकी सन्धिको नवभागोन्मितैस्तुल्यं लोहपारदसिन्दुरम् ॥ अच्छी तरह बन्द करके उस पर कपड़मिट्टी कर दें मधुना क्षयरोगांश्च हन्त्ययं यक्ष्मकेशरी ॥ एवं ताम्रकी कटोरीमें पानी भर दें। अब उसे चूल्हे
सेठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, पर चढ़ाकर उसके नीचे १ पहर तक धीमी अग्नि इलायची, जायफल और लौंग, इनका चूर्ण १--१ | जलावें । एक पहर पश्चात् पात्रके स्वांग शीतल भाग तथा लोह भस्म, पारद भस्म और रससिन्दूर होने पर उसका मुख खोल कर उसके भीतर ताम्र३-३ भाग ले कर सबको एकत्र घोट कर सुर- पात्रमें लगे हुवे रसको छुड़ाकर सुरक्षित रक्खें । क्षित रक्खें ।
यह रस राजयक्ष्माको नष्ट करता है । इसके सेवनसे क्षय रोग नष्ट होता है।
(मात्रा-१ रत्ती ।) अनुपान-मधु। ( मात्रा-२ रत्ती।)
(५८२९) यक्ष्मान्तकलौहः (५८२८) यक्ष्महरो रसः
(भै. र. । राजयक्ष्मा.) (र. प्र. सु. । अ. ८; र. चं. । राजयक्ष्मा.) रास्नातालीशकर्पूरभेकपर्णीशिलाढ्यैः । शुद्धसूतविषके च हाटकं
| त्रिकत्रयसमायुक्तैलौंहो यक्ष्मान्तको मतः॥ - गन्धकेन सहितं समांशकम् । सर्वोपद्रवसंयुक्तमपि वैद्यविवर्जितम् ।
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
३१४
इन्ति कासं स्वराघातं क्षयकासं क्षतक्षयम् । वर्णानि पुष्टीनां साधनो दोषनाशनः ॥
रास्ना, तालीसपत्र, कपूर, मण्डूकपर्णी, मनसिल, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, बायबिडंग, नागरमोथा और चीतामूल; इनका चूर्ण १ - १ भाग तथा लोह भस्म सबके बराबर लेकर सबको एकत्र खरल करके रक्खें ।
इसके सेवनसे वैथोंसे व्यक्त और सर्व उपद्रव युक्त क्षय भी नष्ट हो जाता है ।
इसके अतिरिक्त यह रस खांसी, स्वरभंग, क्षय कास और क्षतक्षयको भी नष्ट करता है । तथा इसके सेवन से बल, वर्ण, अग्नि और पुष्टिकी वृद्धि होती है।
( मात्रा - २ रत्ती ।
अनुपान - मधु । )
(५८३०) यक्ष्मारिलौहम् (भै. र. । राजयक्ष्मा. ) मधुताप्यावडङ्गाश्मजतु लोहघृताभयाः । नन्ति यक्ष्माणमत्युग्रं सेव्यमाना हिताशिना ||
स्वर्ण माक्षिक भस्म, बायबिडंगका चूर्ण, शिलाजीत, लोह भस्म और हर्रका चूर्ण तथा शहद और घी समान भाग लेकर सबको एकत्र घोट कर सेवन करनेसे प्रबल यक्ष्माका नाश हो जाता है ।
(५८३१) यवान्यादियोगः ( रसे. चि. म. । अ. ९.) यवानी गुडसम्मिश्रो सूतभस्म द्विवल्लकम् । शीतपित्तं निहन्त्याशु कटुतैलविलेपनम् ॥
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[ यकारादि
१ भाग पारद भस्म ( अभावे रस सिन्दूर ) में १ - १ भाग अजवायनका चूर्ण और गुड़ मिलाकर खरल करें ।
इसके सेवन से शीतपित्त ( पित्ती उछलना ) रोग नष्ट होता है ।
मात्रा - ६ रत्ती |
शीतपित्त में शरीर पर सरसों के तेलकी मालिश भी करनी चाहिये ।
(५८३२) यशदमारणम् (१) ( र. रा. सु. )
जसदस्य चतुर्थांशं पारदं गन्धकं प्रिये । मर्दयेत्खल्वके सम्यकू कन्या निम्बुरसैः पृथक् ॥ लेपयेत्तेन पत्राणि गजाहे पाचयेत्पुटे । एकमेव पुटेनव भस्मसाज्जसदं भवेत् ॥
अयं तु जस सर्वरोगान् व्यपोहति । जसदं तुवरं तिक्तं शीतलं कफपित्तहृत् ॥ चक्षुष्यं परमं मेहं पाण्डु श्वासं च नाशयेद् ।
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पुराणे गोघृते नैत्र्यं ताम्बूलेन प्रमेहजित् ॥ अग्निमन्येनाग्निकरं त्रिसुगन्धैस्त्रिदोषनुत् । सतन्दुलहिमैर्हन्ति खर्जूरैर्मायुर्जं ज्वरम् ॥ वानिका लवङ्गाभ्यां युतं शीतज्वरं जयेत् । खर्जूरतण्डुलहिमै रक्तातीसारनाशकृत् ॥ शर्कराजा जिसंयुक्तमतिसारं वमिं जयेत् ॥
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१ - १ भाग पारद और गन्धककी की करके उसे १-१ दिन घृत कुमारी और नीबूके
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
३१५
रसमें घोटें । तदनन्तर ४ भाग शुद्ध जशदके पत्रों | घर्षणाल्लोहदण्डेन वह्निरुत्तिष्ठति ध्रुवम् । पर इस कज्जलीका लेप करके उन्हें शराव सम्पुटमें | | यथा यथा भवेत् घृष्टिर्भस्मीभावस्तथा तथा ॥ बन्द करें और गजपुटमें फूंक दें। भस्मी भूतं पृथक् कृत्य घर्षयेत्तत्पुनः पुनः ।
इस विधिसे एकही पुटमें यशदकी भस्म हो नेत्रयोगेषु सर्वेषु भस्मीभूतमिदं शुभम् ॥ जाती है।
__ यशदको लोह-पात्रमें पिघला और फिर
उसके नीचे खूब तेज़ अग्नि कर दें । जब वह खूब जस्त कसेला, कड़वा, शीतल और कफ पित्त नाशक है। आंखोंके लिये अन्यन्त हितकारक है
तप्त हो जाए तो उसमें १-१ करके नीमके पत्ते
डालें ओर लोहेके डण्डेसे घोटते रहें। इससे उसतथा प्रमेह, पाण्डु और श्वासको नष्ट करता है।
में से ज्वाला निकलेगी और जस्तकी भस्म होती मात्रा-२ रत्ती।
जायगी ज्यों ज्यों भस्म होती रहे उसको अलग
निकालते रहें। और अन्तमें सबको खरल करके रखें । यशद भस्मकोनेत्र रोगामें-पुराने गोघृतके साथ;
यह भस्म आंखमें डालनेके लिये उपयोगी है। प्रमेहमें-पानके साथ;
(५८३४) यशदविकारोपायः अग्निमांधमें-अरणीकी जड़के काथके साथ;
(र. रा. सु.) त्रिदोषमें दालचीनी, इलायची और तेजपा- | अपक्वं जसदं रोगान् प्रमेहाजीर्णमारुतान् । तके चूर्णके साथ;
वमि भ्रमिं करोत्येनं शोधयेन्नागवत्ततः ॥ पित्तज ज्वरमें-खजूर और चावलेांके शीत
बालाभयां सितायुक्तां सेवयेद्यो दिनत्रयम् । कषायके साथ; शीत ज्वरमें-अजवायन और लौंगके साथ; |
जसदस्य विकारोस्य नाशमायाति नान्यथा ।। रक्तातिसारमें-खजूर और चावलेोके हिमके
अशुद्ध और अपक्क जस्त खानेसे प्रमेह,
| अजीर्ण, वायु, वमन और भ्रम इत्यादि रोग उत्पन्न साथ
अतिसार और वमनमें-मिश्री और जीरके / होत है। चूर्णके साथ सेवन करना चाहिये ।
यशदका शोधन भी नागके समान ही करना (५८३३) यशदमारणम् (२) चाहिये । (र. रा. सु.)
___छोटी हर्रका चूर्ण और मिश्री मिला कर ३ जसदं लोहजे पात्रे द्रावयित्वा पुनर्धमेत् । दिन तक सेवन करनेसे यशदके विकार शान्त अत्यन्ततप्ते निम्बस्य पत्रमेकं विनिक्षिपेत् ॥ हो जाते हैं।
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(५८३५) यशदशुद्धि: (र. रा. सु. )
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भारत- त- भैषज्य - रत्नाकरः
खर्परं द्विविधं प्रोक्तं जसदं शवकं तथा । जसदं प्रोक्तं खर्परं च गुणात्मकम् ॥ जसदं गालयेत्पूर्व दुग्धमध्ये तु ढालयेत् । एकविंशतिवारांश्च खर्परं शुद्धिमिष्यते ॥
खपरिया के दो भेद हैं, उन्हीं में से एकका म यशद है। दूसरे भेदको 'शवक' कहते हैं ।
यद्यपि खपरिया और यशद ( जसत ) एकही वस्तु के दो भेद हैं परन्तु खपरिया यशदकी अपेक्षा अधिक गुणदायी होता है ।
जस्को पिघला कर दूध में बुझावें । इसी प्रकार २१ बुझाव देने से वह शुद्ध हो जाता है । (५८३६) योगराजगुटिका
( च. सं. । चि. अ. २० पाण्डु ; वै. क. दु. 1 स्क्र. २; च. द. ; र. रा. सुं. । पाण्डु.; भै. र. 1 पाण्डु ; ग. नि. ) त्रिफलायास्त्रयो भागास्त्रयस्त्रिकटुकस्य च । भागाश्वित्रकमूलस्य विडङ्गानां तथैव च ॥ पञ्चाश्मजसुनो भागास्तथा रूप्यमलस्य च । माक्षिकस्य विशुद्धस्य लौहस्य रजसस्तथा ।। अष्टौ भागाः सितायाश्च तत्सर्वं श्लक्ष्णचूर्णितम्। माक्षिकेणफ्लुतं स्थाप्यमायसे भाजने शुभे ॥ उदुम्बरसमां मात्रां ततः खादेद्यथाग्निना । दिने दिने प्रयोगेण जीर्णे भोज्यं यथेप्सितम् ॥ वर्जयित्वा कुलत्थां काकमाचीकपोतकान् । योगराज इति ख्यातो योगोऽयममृतोपमः ॥
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[ यकारादि
रसायनमिदं श्रेष्ठं सर्वरोगहरं परम् । पाण्डुरोगं विषं कासं यक्ष्माणं विषमज्वरम् ॥ कुष्ठान्यजरकं मेहं श्वासं हिकामरोचकम् । विशेषाद्धन्त्यपस्मारं कामलां गुदजानि च ॥
हर्र, बहेड़ा, आमला १–१ भाग; सोंठ, मिर्च, पीपल १ – १ भाग; चीतेकी जड़ १ भाग, बायबिडंग १ भाग; शुद्ध शिलाजीत ५ भाग, रौप्यमल ( रूपामक्खी भस्म ) ५ भाग, स्वर्ण - माक्षिक भस्म ) ५ भाग, शुद्ध लोह ( भस्म ) ५ भाग, शुद्ध चांदी ( भस्म ) ५ भाग और मिश्री ८ भाग लेकर महीन चूर्ण बनावें ।
इसे मधुमें मिला कर स्वच्छ और उत्तम लोहपात्रमें भर कर सुरक्षित रक्खें ।
इसे अग्नि बलोचित मात्रानुसार सेवन करने से पाण्डु, विष, खसी, यक्ष्मा, विषम ज्वर, कुष्ठ, अजीर्ण, प्रमेह, श्वास, हिचकी और अरुचिका नाश होता है ।
कामला और अर्शमें
अपस्मार,
यह प्रयोग विशेष उपयोगी है।
1
साधारण मात्रा - १ तोला ।
I
इस प्रयोगमें किसी विशेष परहेज़ की आवश्यकता नहीं है । औषध पच जाने पर यथारुचि आहार करना चाहिये । केवल कुलथी, मकोय और कपोत मांसका त्याग कर देना चाहिये ।
( व्यवहारिक मात्रा - ४ रत्ती ) योगराज लोहम् ( र. र. । कृमि . ) "त्रिफलादि लेहः " प्र. सं. २७४५ देखिये ।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
(५८३७) योगराजलौहः
शुद्ध पारद ४० तोले और शुद्ध ताम्र चूर्ण (र. र. । कुष्ठा.)
१० तोले ले कर दोनोंको एकत्र मिलाकर इतना त्रिफलावाकुचीबीजं भृङ्गराजकटुत्रिकम् ।।
घोटें कि दोनों एक जीव हो जाएं । तदनन्तर गुडूच्यैडगजाबोज केशराज समुस्तकम् ।।
उसका गोला बना लें और एक लोहेकी कढ़ाई में धात्रीखदिरसिन्धृत्यं यमानीजीरकद्वयम् ।
१० तोले शुद्ध गन्धकका चूर्ण बिछा कर उस पर कान्तक्रामविडङ्गानि सर्वचूर्णानि कारयेत् ॥
वह गोला रख दें तथा उसके ऊपर भी १० तोले लाहं सर्वसमं ह्येष योगराज इति स्मृतः।।
शुद्ध गन्धकका चूर्ण डाल कर उस पर २० तोले सर्वकुष्ठविकारेषु विहितो लोहकोविदः ।।
सरसोंका तेल डाल दें और कढ़ाईको चूल्हे पर हर्र, बहेड़ा, आमला, बाबची, भंगरा, सांठ,
चढ़ा कर उसके नीचे मन्दाग्नि जलावें । तदनन्तर मिर्च, पीपल, गिलोय, पमाड़के बीज, काला भंगरा,
जब तेल शुष्क हो जाए तो अग्नि देनी बन्द कर दें
और कढ़ाईके स्वांग शीतल होने पर उसमें से गोनागरमोथा, आमला, खैरसार, सेंधा नमक, अज
लेको निकाल कर पीस लें। वायन, जीरा, काला जीरा, चुम्बक भस्म, सुपारीकी जड़ और बायबिडंग; इन सबका चूर्ण १-१ भाग अब शुद्ध बछनोग (मीठा विष), बच, सोंठ, तथा लोह भस्म सबके बराबर (२१ भाग) लेकर मिर्च और पीपलका चूर्ण १-१ भाग तथा नागरसबको एकत्र खरल करके रक्खें ।
मोथे और बायबिडंगका चूर्ण ३-३ भाग लेकर इसके सेवनसे समस्त कुष्ठ नष्ट होते हैं । सबको एकत्र मिला लें और यह चूर्ण तथा उपरोक्त (५८३८) योगामृतरसः
सिद्ध रस समान भाग ले कर दोनोंको शहदमें
घोटकर २-२ रत्तीकी गोलियां बनावें । ( र. का. धे. । कुष्ठा.)
इनके सेवनसे सुप्ति और मण्डल कुष्ठका नाश शुद्धसूतपलान्यष्टौ शुद्धतानं पलद्वयम् ।
होता है। चूर्णितं सूतकं मद्य कुर्यात्तन्नष्टपिष्टकम् ॥ शुद्धगन्धं द्विद्विपलं तत्तुल्यं कटुतैलकम् ।
(५८३९) योगीश्वरोरसः तयोर्मध्ये ताम्रपिष्टी लोहपात्रेऽल्पवहिना ॥
( भै. र. । प्रमेह.) पचेद्यावद्र्वं जीर्ण समुद्धृत्य विचूर्णयेत् ।
मृतसूताभ्रनागानां तुल्यभागं प्रकल्पयेत् । विषं वचा ज्यूषतुल्या भद्रमुस्ता विडङ्गकम् ॥ विषस्य त्रिगुणं योज्यं सर्वमेकत्र चूर्णयेत् ।।
महानिम्बस्य बीजोत्थं चूर्ण योज्यं त्रिभिःसमम्।। सर्व मृतसमं चूर्ण क्षौदामिनं वटी कतम मधुना लेहयेद् गुञ्जाद्वयं मेहप्रशान्तये । द्विगुनं भक्षित हन्ति प्रमुप्तिं मण्डलं तथा । | सक्षौद्ररजनी चाथ लेह्यं मापत्रयं सदा ॥ रसो योगामृतो नाम्ना ह्यनुपानं च पूर्ववत् ॥ असाध्यं नाशयेन्मेहं विद्याद् योगीश्वरो रसः ।।
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३१८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[यकारादि
पारद भस्म ( अभावमें रस सिन्दूर ), अभ्रक | भस्म १-१ भाग ले कर सबको एक दिन घृतभस्म, और सीसा भस्म १-१ भाग तथा बकायनके कुमारीके रसमें घोट कर गोला बनावें और उसे बीजोंका चूर्ण ३ भाग ले कर सबको एकत्र खरल ( अरण्डके पत्तों में लपेट कर ) अनाजके ढेर में दबा करके रखें।
दें एवं ३ दिन पश्चात् निकाल कर २-२ रत्तीकी मोत्रा-२ रत्ती।
गोलियां बना लें। अनुपान-रसको शहदके साथ चाटकर ऊप- | यह रस योग वाही है और अनुपान भेदसे रसे ३ माशे हल्दीका चूर्ण शहदके साथ मिलाकर समस्त रोगोंको नष्ट करता है। चाटना चाहिये।
इसके सेवनसे वातज रोग, पित्तज रोग, इसके सेवनसे असाध्य प्रमेह भी नष्ट हो | प्रमेह, बहुमूत्र, मूत्राघात, अपस्मार, भगन्दर, अर्श, जाता है।
उन्माद, मूर्छा, यस्मा, पक्षाघात, इन्द्रियनाश, (५८४०) योगेन्द्ररसः
शूल और अम्लपित्तका नाश होता है । ( धन्व. । वातव्याधि. । ) ___इसे त्रिफलेके काथ, बंसलोचन और मिश्रीके विशुद्धं रससिन्दूरं तदर्ध शुद्धहाटकम् । साथ सेवन करनेसे रोगी कामदेव सदृश रूपवान तत्सम कान्तलोहं च तत्समं चाभ्रमेव च ॥ | हो जाता है। विशुद्धं मौक्तिकं चैव वङ्गं च तत्समं मतम् । कृश पुरुषोंको इसके सेवन कालमें रात्रिको कुमारीकारसर्भाव्यं धान्यराशौ दिनत्रयम् ॥ | गोदुग्ध पीना चाहिये । ततो रक्तिद्वयमितां वटि कुर्या द्विचक्षणः।
(५८४१) योगेश्वररसः योगवाही रसो ह्येष सर्वरोगकुलान्तकः॥ बातपित्तभवान् रोगान् प्रमेहान् बहुमत्रताम।। (रसे. सा. सं.; र. रा. सु. । प्रमेह. ; रसे. मूत्राघातमपस्मारं भगन्दरगुदामयम् ।।
चि. म. । अ. ९.) उन्मादं मूछौं यक्ष्माणं पक्षघातं हतेन्द्रियम् । मृतकं गन्धकं लौह नागश्चापि वराटिकाम् । शुलाम्लपित्तकं हन्ति भास्करस्तिमिरं यथा ॥ | ताम्रक बंगभस्मापि व्योमकश्च समांशिकम् ॥ त्रिफलारसयोमेन शुभया सितयापि वा। सूक्ष्मैलापत्रमुस्तश्च विडङ्ग नागकेशरम् । भक्षयित्वा भवेद्रोगी कामरूपी सुदर्शनः ॥ रेणुकामलकञ्चव पिप्पलीमूलमेव च ॥ रात्रौ सेव्यं गवां क्षीरं कृशानां च विशेषतः। एषाश्च द्विगुणं भागं मर्दयित्वा प्रयत्नतः । योगेन्द्राख्यो रसो नाम्ना कृष्णात्रेयविनिर्मितः॥ भावना तत्र दातव्या धात्रीफलरसेन च । ___ रस सिन्दूर २ भाग तथा स्वर्ण भस्म, कान्त मात्रा चणकतुल्या च गुटिकेयं प्रकीर्तिता । लोह भस्म, अभ्रक भस्म, मोती भस्म और बंग। प्रमेहं बहुमूत्रश्च अश्मरी मूत्रकृच्छ्रकम् ॥
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मिश्रमकरणम् ]
व्रणं हन्ति महाकुष्ठं अर्शासि च भगन्दरम् । योगेश्वरो रसो नाम महादेवेन भाषितः ॥
चतुर्थी भागः
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लोह भस्म, सीसा भस्म, कौड़ी भस्म, ताम्र भस्म, बंग भस्म और अभ्रक भस्म १–१ भोग; तथा छोटी इलायची, तेजपात, नागरमोथा, बायबिडंग, नागकेसर,
इति यकारादिरसप्रकरणम्
(५८४२) यवक्षारयोगः (१) ( यो. र. ; वृ. नि. र. । मूत्रकृच्छ्र. ) माषमेकं यवक्षारं कूष्माण्डस्वरसं पलम् । शर्कराकर्षसंयुक्तं मूत्रकृच्छ्रनिवारणम् ॥
५ तोले पेठेके स्वरसमें १ माशा जवाखार और १| तोला खांड मिला कर पियें ।
इस प्रयोगसे मूत्रकृच्छ्र नष्ट होता है । (५८४३) यवक्षारयोगः (२)
(बृ. नि. र. । मूत्रकृच्छ्र. ) यवक्षारसमायुक्तं पिबेत्तक्रं च कामतः । मूत्रकृच्छ्रविनाशाय तथैवाश्मरिनाशनम् ॥
पीने से
तक्रमें जवाखार मिलाकर यथेच्छ परिमाण में मूत्रकृच्छ्र और अमरिका नाश होता है । • ( यवक्षारकी मात्रा - १ माशा । )
(५८४४) यवक्षारादियवागू ( व. से. । उदावर्त. ) 1 क्षारचित्रक हिङ्ग्वाम्लवेतसैर्भेदनी मता । वागूः साधिता वापि तत्रारग्वधपल्लवैः ||
३१९
रेणुका, आमला और पीपलामूल; इनका चूर्ण २ - २ भाग लेकर सबको १ दिन आमले के रस में घोट कर चनेके बराबर गोलियां बना लें
अथ यकारादिमिश्रप्रकरणम्
इनके सेवन से प्रमेह, बहुमूत्र, अश्मरी, मूत्र कृच्छ्र, व्रण, कुष्ठ, अर्श और भगन्दरका नाश होता है ।
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जवाखार, चीता, हींग और अम्लवेतसे सिद्ध यवागू अथवा अमलतास के पत्तों से तैयार की हुई यवागू भेदनी (दस्तावर) होती है । (५८४५) यवशक्तुयोगः ( वृ. मा. । परिणाम शूल. ) यः पिबति सप्तरात्रं सक्तूने कान्कलाययूषेण । स जयति परिणामरुजं चिरजामपि किमुत
नूतनजाम् ॥
सात दिन तक केवल मटरके यूषके साथ सत्तू ही पीने से पुराना परिणाम शूल भी नष्ट हो जाता है; नवीनकी तो बात ही क्या है ।
( अन्य आहार बन्द रखना चाहिये । (५८४६) यवादिचूर्णम्
( वृ. नि. र. । क्षय. ) यवगोधूमचूर्ण वा क्षीरसिद्धं घृतप्लुतम् । तत्कृत्वा सर्पिषा क्षौद्रसिताक्तं क्षयशान्तये ||
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३२०
भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[यकारादि
जौ और गेहूंके चूर्णको दूधमें पकाकर उसमें | तोले जीरा मिला कर पुनः पकावें और जब पानी घी, शहद और मिश्री मिला कर सेवन करनेसे | जल जाए तो घीको छान लें। क्षयरोग नष्ट होता है।
इन्हीं ओषधियोंसे सिद्ध यूपमें १। तोला (५८४७) यवादिमन्थः
उपरोक्त घी और ( स्वाद योग्य ) सेंधा नमक
मिला कर उसके साथ शाली और साठी चावलेको (शा. ध.। खं. २ अ. ३)
भात खानेसे सूतिका रोग नष्ट होता है । प्लावितैः शीतनीरेण सघृतैर्यवसक्तुभिः । नातिसान्द्रद्रमन्थस्तृष्णादाहालपित्तहा ॥
(५८४९) यवादियोगः
(ग. नि. । कास १०.) जौ के सत्तूको ठण्डे पानीमें घोलकर उसमें
| यवानां चूर्णमामानां क्षीरसिद्धं घृतप्लुतम् । घी मिला कर पीनेसे तृष्णा, दाह और रक्तपित्तका
ज्वरदाहे सिताक्षौद्रसक्तुमत् पयसा पिवेत् ॥ नाश होता है।
___ कच्चे (अधपके) जौके चूर्णको दूधमें पकाकर सत्तू न अधिक गाढ़ा होना चाहिये और न |
उसमें घी, मिश्री, शहद और सत्तू मिला कर तथा अधिक पतला।
| दूधसे पतला करके पीनेसे ज्वरकी दाह शान्त (स्वाद योग्य मिश्री भी मिला लेनी चाहिये।)। होती है। (५८४८) यवादियूषः
(५८५०) यवान्यादिपेया (व. से. । स्त्री.)
( वा. भ. । चि. स्था. अ. ३) यवकोलकुलित्थानां शालिमूलं तथैव च। यवानीपिप्पलोबिल्बमध्यनागरचित्रकः । क्वाथयेदप्रमत्तस्तु सुपूते सलिलाढके ॥ रास्नाजाजीपृथक्पीपलाशशठिपौष्करैः ॥ तत्पादावस्थितं क्वाथं सर्पिर्युक्तं सजीरकम् । सिद्धां स्निग्धाम्ललवणां पेयामनिलजे पिबेत् पक्वं घृताक्षमात्रेण सैन्धवेन समायुतम् ॥ कटिहत्पार्च कोष्ठार्तिश्वासहिध्माप्रणाशिनीम् ॥ एतेनैव च युषेण चाश्नीयाच्छालिषष्टिकम् । अजवायन, पीपल, बेलगिरी, सांठ, चीता, सूतिकोपद्रवं हन्ति भुक्तमात्रान संशयः॥ रास्ना, जीरा, पृष्ठपर्णी, पलाशकी छाल, कचूर
जौ, बेर, कुलथी और शालिधानकी जड़ और पोखरमूलसे सिद्ध पेयामें घृत, अनारका रस ( २०-२० तोले ) लेकर सबको कूटकर ८ सेर और सेंधा नमक मिलाकर पिलाना वातज रोगोमें छने हुवे पानीमें पकावें । जब २ सेर पानी शेष रह तथा कमर, हृदय, पार्श्व और कोष्ठकी पीड़ा एवं जाय तो छान कर उसमें आधा सेर घी और ५ / श्वास और हिचकीमें हितकर है।
इति यकारादिमिश्रप्रकरणम्
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कषायप्रकरणम् ]
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( रा. मा. । स्त्री रोगा. ३०) क्षीरे स्थित लोहितशालिपिष्टं सुशीतलं माक्षिकसंयुतं च । पीतं निहन्ति प्रदरामयोत्थामतिप्रवृत्तामसृजः प्रवृत्तिम् ॥
चतुर्थी भागः
अथ रकारादिकषायप्रकरणम्
(५८५१) रक्तनारिकेलजलयोगः
( वृ. नि. र. । मूत्रकृच्छ्र. ) रक्तस्य नारिकेलस्य जलं कतकसंयुतम् । शर्करैला समायुक्तं मूत्रकृच्छ्रहरं विदुः ॥
लाल नारियल पानीमें इलायची और निर्मलीके फलका चूर्ण तथा खांडु (मिश्री) मिला कर पीने से मूत्रकृच्छ्र नष्ट होता है ।
( चूर्णकी मात्रा - २ माशे । ) (५८५२) रक्तशालिपिष्टयोगः
(५८५३) रजन्यादिक्वाथः ( यो. चि. म. । अ. ४ ) हरिद्रास्तभूनिम्बत्रिफलारिष्टवासकम् । कण्टकारीद्वयं भार्ती कटुकं नागरं कणा ॥
૪૧
लाल चावलेjको दूध में भिगो दें और जब वे अच्छी तरह फूल जाएं तो उन्हें पीस लें। इसमें शहद मिला कर पीनेसे रक्त प्रदर सम्बन्धी प्रबल रक्तस्राव भी बन्द हो जाता है ।
र
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३२१
पटलं पर्पटं शृङ्गी देवदारु सरोहिषम् । विविकं बला बिल् कुम्भकारी हरीतकी ॥ कट्फलं कुटजं श्यामा सर्वमेकैकभागिकम् । रास्नाभागद्वयं चात्र दत्त्वा क्वाथं च साधयेत् ॥ व्योषचूर्णयुतः क्वाथो ज्वरं हन्ति त्रिदोषजम् । त्रयोदश महाघोरान् अन्धकारान्यथा रविः ।। वमिः स्वेदो प्रलापं च स्तैमित्यं शीतगात्रता । मोहतन्द्रातृवाश्वासकासदाहानिमन्दहा || हृत्पार्श्वशूल विष्टम्भं कण्ठकुब्जत्रिकं तथा । जिह्वास्फुटनकं कर्णशूलं चाशु विनाशयेत् ॥ नातः परतरं किञ्चिदौषधं सन्निपातजित् । रजन्यादि गणो ह्येष धन्वन्तरिविनिर्मितः ॥
हल्दी, नागरमोथा, चिरायता, हर्र, बहेड़ा, आमला, नीमकी छाल, बासा, कटेळी, कटेला ( बड़ी कटेली), भरंगी, कुटकी, सोंठ, पीपल, पटोल, पित्तपापड़ा, काकड़ासिंगी, देवदारु, गन्धतृण, जवासा, बला, बेलकी छाल, बनकुलथी, हर्र, कायफल, कुड़ेकी छाल, और निसोत १ - १ भाग तथा रास्ना २ भाग ले कर सबको एकत्र करके अकुटा कर ले 1
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( इसमें से २ तोले चूर्ण को १६ तोळे पानी में पकावें और ४ तोले पानी शेष रहने पर छान लें। )
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३२२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
इस काथमें सांठ, मिर्च, पीपलका चूर्ण मिला | तदुग्रगन्धनाशाय रात्रौ तक्रे विनिक्षिपेत् । कर सेवन करनेसे सन्निपात ज्वर नष्ट होता है। अपनीय च तन्मध्याच्छिलायां पेषयेत्ततः ।। ___ यह काथ १३ प्रकारके सन्निपात, वमन, | तन्मध्ये पश्चमांशेन चूर्णमेषां विनिक्षिपेत् । स्वेद. प्रलाप. स्तमित्य ( शरीरका भीगे कपडेसे सौवर्चलं यवानी च भर्जितं हिज सैन्धवम् ॥ लिपटा हुवा सा प्रतीत होना ), शरीरका ठण्डा | कटुत्रिकं जीरकं च समभागानि चूर्णयेत् । हो जाना, मोह, तन्द्रा, तृषा, श्वास, कास, दाह, एकीकृत्य ततः सर्वकल्कं कर्षप्रमाणतः ।। अग्निमांद्य, हृदयशूल, पार्श्वशुल, विष्टम्भ, जिहा- खादेदग्निबलापेक्षी ऋतुदोषाधपेक्षया । स्फुटनम् और कर्णशूलको शीघ्र ही नष्ट कर अनुपानं ततः कुर्यादेरण्डभृतमन्वहम् ॥ देता है ।
सर्वाङ्गेकाङ्गगजं वातमदितं चापतन्त्रकम् । सन्निपात ज्वरके लिये इससे श्रेष्ठ अन्य औ- | अपस्मारमथोन्मादमूरुस्तम्भं च गृध्रसीम् ॥ षध नहीं है।
उर:पृष्ठकटीपार्श्वकुक्षिशूलान् कृमीन्जयेत् । (५८५४) रम्भाकन्दयोगः
अजीर्णमातपं रोषमतिनीरं पयोगुडम् ।। ( वृ. नि. र. । छदि कर्म.)
रसोनमश्न-पुरुषस्त्यजेदेतनिरन्तरम् ॥ रम्भाकन्दरसो वापि मधुना छर्दिनाशकृत् ॥
सुपक्क ल्हसनको छीलकर उसके भीतरका ___ केलेकी जड़के रसमें शहद मिला कर पीनेसे
तन्तु और अङ्कुर निकाल दें और फिर उसकी
तीब्र गन्ध दूर करनेके लिये उसे रातको तक्रमें छदि नष्ट होती है।
डाल दें तथा दूसरे दिन प्रातःकाल पीस लें । अब (५८५५) रम्भादियोगः
इसमें इसका पांचवां भाग निम्न लिखित चूर्ण (व. से. । श्वास.)
मिला कर सुरक्षित रक्खें । रम्भाकुन्दशिरीषाणां कुसुमं पिप्पलीयुतम् ।
चूर्ण-सञ्चल (काला नमक ), अजवायन, पिष्ट्वा तण्डुलतोयेन पीत्वा श्वासमपोहति ॥
| भुनी हुई हींग, सेंधा नमक, सांठ, मिर्च, पीपल केलेका फूल, कुन्दके फूल, सिरसके फूल | और जीरा । सब चीजें समान भाग लेकर बारीक और पीपल समान भाग लेकर सबको चावलोंके पानीमें पीस कर पीनेसे श्वास नष्ट होता है।
इस कल्कमें से ११ तोला अथवा ऋतुदोष (५८५६) रसोनकल्कः
इत्यादिके अनुसार न्यूनाधिक मात्रानुसार खा कर ( शा. सं. । खं. २ अ. ५) ऊपरसे अरण्ड मूलका काथ पीना चाहिये । पक्ककन्दरसोनस्य गुलिका निस्तुषीकृता। इसके सेवनसे सर्वाङ्ग वात, एकाङ्गवात, पाटयित्वा च मध्यस्थं दूरीकुर्यात्तदङ्करम् ॥ | अर्दित. अपतन्त्रक, अपस्मार, उन्माद, उरुस्तम्भ,
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चतुर्थी भागः
पायप्रकरणम् ]
गृध्रसी, उरः शूल, पृष्ठ शूल; कटी और पार्श्व शूल तथा कृमि रोग नष्ट होता है ।
अपथ्य --- ल्हसन के सेवन कालमें अजीर्ण न होने देना चाहिये तथा धूप, क्रोध, अत्यधिक जलपान, दूध और गुड़से परहेज़ करना चाहिये । (५८५७) रसोनयोग: ( १ ) ( वृ. मा. । शूला. ) रसोनं मद्यसम्मिश्रं पिबेत्मातः प्रकांक्षितः । वाश्लेष्मभवं शुलं निहन्तुं वह्निदीपनम् ॥
प्रातः काल भूखके समय ल्हसनको पीस कर मयमें मिला कर सेवन करनेसे वातकफज शूल नष्ट होता और अग्नि दीप्त होती है ।
(५८५८) रसोनयोगः (२) (ग. नि. । ज्वरा. ) प्रातः प्रातः ससर्पिष्कं रसोनमुपयोजयेत् । प्रातः प्रातः ल्हसनको पीस कर घीमें मिला कर सेवन करने से ज्वर नष्ट होता है ।
( यह प्रयोग मलेरिया में अधिक उपयोगी है | )
(५८५९) रसोनरसः स्नुहीरसश्च
( रा. मा. । कर्णरोगा. ) आवेष्ट सूर्यतरुपत्रचयेन वह्नावातापितात्स्रवति यत्सलिलं रसोनात् । यद्वास्नुहीशकलतो गलितं तदाशु
कर्णव्यथां हरति पूरणतः प्रभाते ॥
लहसन पर आक के पत्ते लपेट कर ( उस
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३२३
पर एक अंगुल मोटा मिट्टीका लेप करके ) अग्निमें वेदित करें और फिर उसका रस निकाल लें।
यह रस कान में डालनेसे कर्ण - पीड़ा तुरन्त शान्त हो जाती है ।
इस विधि से स्नुही ( सेंड - थोहर) के डण्डेका रस निकाल कर कान में डाला जाय तो भी पीड़ा शान्त हो जाती है ।
(५८६०) रसोनसप्तकम्
(बृ. यो. त. । त. ९०; व. से. । वातव्या . यो त । त. ४०)
पलमर्धपलं वाऽपि रसोनस्य सुकुट्टितम् । हिङ्गुजीरक सिन्धूत्यसौवर्चल कटुत्रिकैः ॥ चूर्णितैर्माको मानेर चूर्ण्य विलोडितम् । यथानि भक्षितं प्रातः रुबुकाथानुपानतः ॥ दिने दिने प्रयोक्त मासमेकं निरन्तरम् । वातामयं निहन्त्येवमर्दितं चापतन्त्रकम् ॥ एकाङ्गरोगिणां रोगं तथा सर्वाङ्गरोगिणाम् । उरुस्तम्भं गृध्रसीं च शूलं द्वन्द्वं कृमीनपि ॥ कटिपृष्ठामयं हन्याज्जाठरं च समीरणम् ॥
हींग (घीमें भुनी हुई), जीरा, सेंधा नमक, काला नमक (सञ्चल), सोंठ, काली मिर्च और पीपल; इन सबका चूर्ण समान भाग लेकर सबको एकत्र मिला लें ।
अब ५ तोळे या २|| तोले ल्हसनको छील कर अच्छी तरह कूट कर उसमें उपरोक्त चूर्ण १। माशा मिला कर दोनों को एक जीव कर लें ।
इसे अग्नि बलोचित मात्रानुसार प्रातः काल अरण्ड मूलके काथके साथ सेवन करने से १ मासमें
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३२४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि अर्दित, अपतन्त्रक, एकाङ्ग वात, सर्वाङ्ग वायु, (५८६३) राजवृक्षादिपाचनक्वाथः उरुस्तम्भ, गृध्रसी, द्वन्द्वज शूल, कृमि, कटि शूल, (ग. नि. । कुष्ठा. ३६) पृष्ट शूल और वातोदर इत्यादि रोग नष्ट होते हैं।
राजवृक्षोऽश्वत्थसारोऽमृताऽरिष्टो हरीतकी । (५८६१) रसोनादिकल्कः (१) वासाखदिरमञ्जिष्ठाव्याघ्यः कुष्ठेषु पाचनम् ॥ ( वृ. मा. । नाडी व्रण.; वृ. नि. र. । भग्नरोगा.) अमलतास, अश्वत्थ (पीपल वृक्ष ) का सार, रसोनमधुलाक्षाज्यसिताकल्कं समश्नतोम् । गिलोय, नीमकी छाल, हर्र, बासा, खैरसार, छिन्नभिन्नच्युतास्थीनां सन्धानमचिराद्भवेत् ।। |
मजीठ और कटेली समान भाग ले कर काथ
बनावें । म्हसन, शहद, लाख, घी और मिश्री समान भाग लेकर पीसने योग्य चीज़ोंको पीस कर सबको
यह काथ कुष्ठमें दोषोंको पचाता है। एकत्र मिला लें।
(प्रत्येक ओषधि ६ माशे। पाकार्थ जल इसे सेवन करनेसे छिन्न, भिन्न और अपने
३६ तोले । शेष काथ ९ तोले । ) स्थानसे हटी हुई हड्डी ठीक हो जाती है।
(५८६४) रास्नादशमूलक्वाथ: (५८६२) रसोनादिकल्कः (२)
| (व. से. । आमवात.; वृ. नि. र. । शिरोरोगा.) ( यो. र.; ग. नि.; व. से. । चरा. : शा. रास्नाविश्वविडङ्गानि रुबुकत्रिफला तथा।
दशमूलं पृथक् श्यामा क्वाथो वातामयापहः ।। सं.। खं. २ अ. ५)
अविभेदके चाये अर्दिते वातखाके । रसोनकल्कं तिलतैलमिश्रं
नेत्ररोगे शिरःशूले ज्वरापस्मारयोस्तथा ॥ योऽश्नाति नित्यं विषमज्वरातः। | मनोभ्रंशे च विविधे क्वथितञ्च मुखपदम् ॥ प्रमुच्यते सोऽप्यचिराज्ज्वरेण
रास्ना, सांठ, बायबिडंग, अरण्ड मूल, हर्र, वातामयैश्चापि सुघोररूपैः॥ बहेड़ा, आमला, दशमूलको प्रत्येक वस्तु ( शाल
पर्णी, पृष्टपर्णी, कटेली, कटेला, गोखरु, बेलकी रसोन (लहसन) के कल्क को तिलके तेल*
छाल, सोना पाठा, खम्भारी, पाढल और अरनी), में मिला कर सेवन करनेसे विषम ज्वर और भयं
और निसोत समान भाग ले कर सबको एकत्र कर वातज रोग शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।
मिला कर अधकुटा कर लें। *मतान्तरके अनुसार तिल तैलके स्थान पर ( इसमेंसे २॥ तोले चूर्णको २० तोले पा. धृत भी ले सकते हैं।
नमें पकायें और ५ तोले शेष रहने पर छान लें।)
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कपायप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
३२५
यह काथ वातज रोग अविभेदक, आब्य- ऊरुस्तम्भामवातं जठरवात, अर्दित, खञ्जता, नेत्र रोग, शिरशूल, ज्वर, रुजकटीपृष्ठशूलान्ऋद्धिम् । अपस्मार, और मनोभ्रंश को नष्ट करता है। वातामश्वासशोथान्कफपवन(५८६५) रास्नादिकल्कः (१)
रुजादण्डकाश्चाशु हन्यात् ॥ (यो. र. । विषम ज्वरो.)
रास्ना, श्यामाक (क्षुद्र धान्य), हर्र, काली
मिर्च, सौंफ, आमला, बायबिडंग, असगन्ध, जवासा, रास्नानागरकृष्णाणां कल्कमुष्णाम्बुना पिबेत् ।
गिलोय, अजमोद, सुमुख( तुलसी भेद ), अतीस, श्वासकासाग्निमान्यं च शीतज्वरहरं भवेत् ॥ |
विधारा, कटेली, सेांठ, कुटकी, अजवायन, पिया___ रास्ना, सांठ और पीपलके कल्कको गरम
बांसा, चव, अरण्ड मूल, दारु हल्दी और असना। पानीके साथ पीनेसे श्वास, खांसी, अग्निमांद्य और सब समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर ज्वर नष्ट होता है।
अधकुटा कर लें। ( प्रत्येक ओषधि १॥ माशा)
(इसमेंसे २॥ तोले चूर्णको २० तोले (५८६६) रास्नादिकल्कः (२)
पानीमें पका और ५ तोले शेष रहने पर
छान लें।) ( वृ. नि. र. । विषम ज्वर )
यह काथ उरुस्तम्भ, आमवात, जठररुजा, रास्नानागरकृष्णाणां कल्कमुष्णाम्बुना पिबेत् ।
२ कटी शूल, पृष्ठ शूल, अन्त्रवृद्धि, श्वास, शोथ, श्वासकासानिमान्यं च ज्वरं शीतं विनाशयेत् ।। और कफ वातज रोगोंको नष्ट करता है । . रास्ना, सोंठ और पीपलके कल्कको उष्ण
(५८६८) रास्नादिक्वाथः (२) जलके साथ पीनेसे श्वास, खांसी, अग्निमांध और शीत ज्वर नष्ट होता है।
(व. से.; वृ. मा.; च. द. । वृद्धय. ३९; वृ.
नि. र. । अण्डवृद्धय.) (५८६७) रास्नादिक्वाथः (१)
| रास्नायष्ट्यामृतैरण्डबलागोक्षुरसाधितः । (व. से. । आमा. )
क्वाथोऽन्त्रवृद्धिं हन्त्याशु रुबुतैलेन मिश्रितः ॥ रास्नाश्यामाकपथ्या मरिचमिसि
रास्ना, मुलैठी, गिलोय, अरण्डमूल, खरैटी शिवावेल्लकञ्चाश्वगन्धा ।
और गोखरु । ये सब चीजें समान भाग ले यासं छिन्नाजमोदासुमुखमति- कर सबको एकत्र मिला कर अधकुटा कर लें। विषा वृद्धदारुबृहत्यौ ॥
(२॥ तोले यह चूर्ण ले कर उसे २० तोले शुण्ठी तिक्ता यवानी सहचर- पानीमें पकावें और ५ तोले शेष रहने पर
चक्रिण्डदाळजकर्णा। छोन लें।)
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[रकारादि
इस क्वाथमें अरण्डका तेल मिला कर पीनेसे रास्ना, बासा, हर्र, बहेडा, आमला और अन्त्रवृद्धि शीघ्र ही नष्ट हो जाती है । अमलतासका गूदा समान भाग ले कर काथ (५८६९) रास्नादिक्वाथः (३)
बनावें। (व. से.; वृ. नि. र. । वृद्धध.) ।
यह काथ वात पित्त ज्वरको नष्ट करता है। रास्नायष्टयमृतैरण्डपटोल रेणुकाबला । ( प्रत्येक वस्तु ३ तोला । पाकार्थ जल २४ वृषः स्यात्कथितो वृद्धि हन्याचित्रतैलवान् | तोले । शेष काथ ६ तोले ।)
रास्ना, मुलैठी, गिलोय, अरण्ड मूल, पटोल- | ___ (५८७२) रास्नादिक्वाथ। (६) पत्र, रेणुका, खरैटी और बासा । सब समान भाग | (ग. नि. । ज्वरा. १) ले कर सबको एकत्र मिला कर अधकुटा कर लें। रास्ना वृक्षादनी दारु सरलं सैलवालुकम् ।
( इसमेंसे २।। तोले चूर्ण लेकर उसे २० कोष्णं सगुडसर्पिष्कं पिबेद्वातज्वरापहम् ।। तोले पानीमें पका और ५ तोले शेष रहने पर | रास्ना, बन्दा, देवदारु, सरल काष्ट (चीड़) छान लें।)
और एलबालुक समान भाग ले कर काथ बनावें । इस काथमें अण्डीका तेल मिला कर पीनेसे | इसमें गुड और घी मिला कर पीनेसे वातवृद्धि रोग नष्ट होता है।
ज्वर नष्ट होता है। (५८७०) रास्नादिक्वाथः (४) यह काथ मन्दोष्ण ही पीना चाहिये। ( ग. नि. । ज्वर.)
( प्रत्येक वस्तु ६ माशे । पाकार्थ जल २० रास्नारग्वधसंयुक्ता सारिवा च फलत्रयम् । तोले । शेष काथ ५ तोले । गुड़ २ तोले । घी आटरूषमिति क्वाथो वातपित्तज्वरापहः॥ | १ तोला । )
रास्ना, अमलतास, सारिवा, हर, बहेड़ा, । (५८७३) रास्नादिक्वाथः (७) आमला और बासा।
(वृ. नि. र. । आमवात.; वै. मृ. । आमा.) इनका काथ वात पित्त ज्वरको नष्ट करता है।
रास्नारमधदेवदारु ऋतुभूच्छिन्नोद्भवागोक्षुरै( प्रत्येक वस्तु ६ माशे । पाकार्थ जल २८
| रेरण्डयुतैः कषायकवरो विश्वारजोमिश्रितः। तोले । शेष काथ ७ तोले।)
नानासन्धिरुजान्वितं विजयते घोरामवातामयं (५८७१) रास्नादिक्वाथः (५) स्वर्णाङ्गीकुचपद्मकुमलरुचिर्दीपोन्धकारं यथा ॥
(ग. नि. । ज्वरा.) ___ रास्ना, अमलतास, देवदारु, पुनर्नवा, गिलोय, रास्ना वृषोऽथ त्रिफला राजवृक्षफलैः सह । गोखरु और अरण्डकी जड़ समान भाग ले कर कषायः साधितः पीतो वातपित्तज्वरं जयेत् ॥ काथ बनावें ।
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चतुर्थी भागः
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इसमें सांठ का चूर्ण मिला कर पीने से अनेकविध सन्धि पीड़ा युक्त भयंकर आमवात नष्ट होता है।
( प्रत्येक वस्तु ६ माशे । पाकार्थ जल २८ तोले । शेष काथ ७ तोले । सांठका चूर्ण १-१॥ माशा । )
(५८७४) रास्नादिक्वाथः (८) (ग. नि. । ज्वरा. १; यो. र. । सन्निपात ; वृ. न. र. । सन्निपाता. ) रास्नाशुण्ठीगुडूचीसहचरजलदाभीरुपध्यासुराहैस्तिक्ताकर्चूरवासानिलरिपुसहितैः पञ्चमूलीद्वयेन एभिर्द्रव्यैः कषायस्त्वरितमपहरेत्पीतमात्रः प्रभाते मन्यास्तम्भान्त्रवृद्धिं ज्वरपिटककटीसन्धिसर्वा
पीडाम् ॥
रास्ना, साठ, गिलोय, पियाबासा, नागरमोथा, शतावर, हर्र, देवदारु, कुटकी, कचूर, बासा, अरण्डमूल और दशमूलकी प्रत्येक वस्तु; ये सब चीजें समान भाग लेकर सबको एकत्र मिला कर अधकुटा कर लें 1
( यह चूर्ण २॥ तोले । पाकार्थ जल २० तोले । शेष काथ ५ तोले । )
इसे प्रातः काल सेवन करने से मन्यास्तम्भ, अन्त्रवृद्धि, ज्वर, कटी पीड़ा, सन्धि पीड़ा और सर्वांग पीड़ाका नाश होता है ।
(५८७५) रास्नादिक्वाथः (९) ( वृ. नि. र. । सन्निपात. ) रास्नाश्वगन्धाघनकण्टकारी भाङ्गवचा पौष्कररोहिणीनाम् ।
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क्वाथः कृतः शृङ्ग्यभयानां पीतो जयेत्कर्णकसन्निपातम् ॥
३२७
रास्ना, असगन्ध, नागरमोथा, कटेली, भरंगी, बच, पोखरमूल, कुटकी, काकड़ासिंगी और हरे समान भाग ले कर काथ बनावें ।
यह काथ कर्णक सन्निपातको नष्ट करता है । ( प्रत्येक ओषधि ३ माशे । पाकार्थ जल २० तोले । शेष काथ ५ तोले । )
(५८७६) रास्नादिक्वाथः (१०) ( यो. र. । कर्णरोगा . ) रास्ना बृहतीपथ्यान्योष कटुकाघनपुष्कराक्षैश्च । शृङ्गीधाराभार्गी क्वाथः कर्णकरुजं हरेत्पानात्।।
रास्ना, कटेली, हर्र, सोंठ, मिर्च, पीपल, कुटकी, नागरमोथा, पोखरमूल, काकड़ासिंगी, गिलोय और भरंगी समान भाग ले कर क्वाथ बनावें |
यह काथ कर्णक सन्निपातको नष्ट करता है । प्रत्येक वस्तु ३ माशे । पाकार्थ जल २४ तोले । शेष काथ ६ तोले
(५८७७) रास्नादिक्वाथः (११) ( यो. र. । सन्निपात; वृ. नि. र. । सन्निपात. ) रास्नागुचीद्धिदारु
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सुराह विश्वात्रिफलावरीभिः । क्वाथं पिबेद्गुग्गुलुसम्प्रयुक्तं समस्तसन्धिग्रहसन्निपाते ॥
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३२८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
रास्ना, गिलोय, कचूर, विधारा, देवदारु, सांठ, एष रास्नादिकगणः सर्ववातनिषूदनः । हर्र, बहेड़ा, आमला और शतावर समान भाग ले | कुब्जे च वामने चैव पक्षघाते हनुग्रहे ॥ कर क्वाथ बनावें ।
शुष्यमानेषु गात्रेषु सन्धीनां बन्धनेषु च । __इसमें शुद्ध गूगल मिला कर पीनेसे सन्धिग्रह | ऊरुस्तम्भेऽग्निसादे च नासाभङ्गे गलग्रहे ॥ और सन्निपात नष्ट होता है।
शोफे पाण्ड्वनिले चोर्चे सामवाते सशोणिते । (प्रत्येक ओषधि ३ माशे । पाकार्थ जल |
खझे च कुब्जके चैव मूकत्वे गद्गदेऽपि च ॥ २० तोले । शेष क्वाथ ५ तोले । )
उदावते च शूले च सन्निपातज्वरेषु च ।
नराणां रुधिरस्रावे योनिदोषे भगन्दरे ॥ (५८७८) रास्नादिक्वाथः (१२) | अशीसि ग्रहणीदोषे तथा कोष्ठकजेषु च ।
(वृ. मा.। वातरक्ता.) एष काथो मया प्रोक्तःप्राणिनां हितकाम्यया। रास्नागुडूचीचतुरङ्गुलाना
___ रास्ना, अरण्डमूल, पीपल, हर, पियाबांसा, मेरण्डतैलेन पिबेत्कषायम् ।
| कटेली, गिलोय, गन्धप्रसारणो, नागरमोथा, पोखक्रमेण सर्वाङ्गजमप्यशेषं
रमूल, देवदारु, गूगल, बच, ब्राह्मी, हल्दी, कचूर, जयेदसृग्वातभवं विकारम् ॥
कीकरकी छाल, पीपलामूल, बेलकी छाल, सोना
पाठाकी छाल, खम्भारीकी छाल, पाढलकी छाल, रास्ना, गिलोय और अमलतासका गूदा स
अरणी, हपुषा, धमासा, सोया, अतीस, पुनर्नवाकी मान भाग ले कर काथ बनावें।
जड़, अजवायन, शतावर, अमलतास और असइसमें अरण्डीका तेल मिला कर पीनेसे सर्वा- गन्ध समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर गगत वातरक्त भी नष्ट हो जाता है। अधकुटा कर लें। (प्रत्येक वस्तु १ तोला । पानी २४ तोले ।
( यह चूर्ण २॥ तोले । पाकार्थ जल २० शेष क्वाथ ६ तोले ।)
तोले । शेष क्वाथ ५ तोले ।)
यह क्वाथ कुब्जता, वामनता, पक्षवात, हनु(५८७९) रास्नादिक्वाथः (१३) ।
ग्रह, गात्रका सूखना, सन्धियोंकी जकड़ाहट, (वृ. मा. । वातव्या.)
ऊरुस्तम्भ, अग्निमांद्य, नासाभंग, गलग्रह, शोथ, रास्नैरण्डकणाभयासहचराक्षुद्रामृतासारणी- पाण्डु, ऊर्ध्ववात, आमवात, वातरक्त, खञ्जता मुस्तापुष्करदारुगुग्गुलुवचाब्राह्मीहरिद्राशठी। (लंगड़ापन), गूंगापना, गद्गद् शब्द (हकलाना),
आभा ग्रन्थिकपञ्चमूलहपुषा यासः शताहा विषा उदावर्त, शूल, सन्निपात, रक्तस्राव, योनिदोष, वर्षाभःसयवानिका शतपदी कयेश्वगन्धाः भगंदर, अर्श, संग्रहणी और कोष्ठगत वायुको नष्ट
समा ।। करता है।
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रास्नामृतानागरवातशत्रु कटकटेरीजनितः कषायः । एरण्डतैलेन समन्वितोयं
भेत्ता भवेदामसमीरणस्य ॥
कषायप्रकरणम् ]
(५८८०) रास्नादिक्वाथः (१४) ( वृ. नि. र. । हिक्का . )
चतुर्थी भागः
रास्ना, गिलोय, सोंठ, अरण्ड मूल और दारुहल्दी समान भाग ले कर काथ बनावें ।
इसमें अरण्डीका तेल मिला कर पीने से आम - वातका नाश होता है ।
( प्रत्येक ओषधि ६ माशे । पाकार्थ जल २० तोले । शेष काथ ५ तोले । ) (५८८१) रास्नादिक्वाथ: (१५) ( वृ. नि. र. | हिक्का . )
रास्नामरदारुराजवृक्ष
त्रिकवैण्ड पुनर्नवामृतानाम् । Fari जलमामवात एषां
शमयेनागर कल्कमिश्रमाशु ॥
रास्ना, देवदारु, अमलतास, सोंठ, मिर्च, पीपल, अरण्डकी जड़, पुनर्नवा और गिलोय समान भाग ले कर काथ बनावें ।
इसमें सांठका कल्क मिला कर सेवन करने से आमवात शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
(५८८२) रास्नादिक्वाथः (१६) ( धन्व. | आमवाता. ) रास्नापुनर्नवा शुण्ठी गुडूच्येरण्डकं शृतम् । सप्तधातुगते वाते सामे सर्वाङ्गगे पिवेत् ॥
४२
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३२९
रास्ना, पुनर्नवा, सांठ, गिलोय और अरण्डकी जड़ समान भाग ले कर काथ बनावें ।
यह काथ सप्त धातु और सर्वाङ्गगत आमवाaat ष्ट करता है ।
( प्रत्येक ओषधि ६ माशे । पाकार्थ जल २० तोले । शेष क्वाथ ५ तोले । )
(५८८३) रास्नादिक्वाथः (१७) ( वृ. मा. । वाता. ) रास्नायुक्पश्ञ्चमूलमिशिवरुण बलामेघपथ्यायवानी - शुण्ठीपाठाजमोदासहचरा हपुषाभङ्गुरावाजिगन्धाः । आभावृश्चीव सोग्राविषममृतशठी सारणी वृद्धदारु रास्नाशम्पाककषायैः शतावरी पौष्करैरण्डव्यैः ॥ एतत्सर्वं समां विधिव
क्वथितं मुष्टिमात्रं जलेन चूर्ण चाभादिमस्मिन्प्रपिवतिमनुजो गुग्गुलुं वा तथैव । आम पक्षाभिघातं हनुगतपवनं चार्दितं जानुशूलं कार्तिकफपवन
जो हन्ति सन्ध्यस्थिसंस्थाः || रास्ना, दशमूल, सौंफ, बरनेकी छाल, बला (खरैटी), नागरमोथा, हर्र, अजवायन, सोंठ, पाठा, अजमोद, पियाबासा, हपुषा, भरंगी, असगन्ध, कीकरकी छाल, पुनर्नवा, बच, अतीस, गिलोय,
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
-
कचूर, प्रसारणी, विधारा, रास्ना, अमलतास, रास्ना २ भाग तथा धमासा, बला (खरैटी), शतावर, पोखरमूल, अरण्डमूल और चव | अरण्डमूल, देवदारु, कचूर, बच, बासा, सोंठ, समान भाग ले कर सबको एकत्र करके अधकुटा | पथ्या (हर्र), चव, नागरमोथा, पुनर्नवा, गिलोय,
विधारा, सोया, गोखरु, असगन्ध, अतीस, अम... ( यह चूर्ण २॥ तोले । पाकार्थ जल २० - लतास, शतावर, पीपल, पियाबांसा, धनिया तथा तोले । शेष क्वाथ ५ तोले । )
छोटी और बड़ी कटेली समान भाग ले कर सबको ___ इसमें आभा गुग्गुलु अथवा इस गुग्गुलुमें
एकत्र मिला कर अधकुटा कर लें । कथित आभा आदि औषधोंका चूर्ण मिला कर (यह चूर्ण २॥ तोले । पाकार्थ जल २० पीनेसे आमवात, पक्षाघात, हनुर्वात, अर्दित, जानु- | तोले। शेष क्वाथ ५ तोले ।) शूल, गृध्रसी, उरुस्तम्भ, त्रिक पीडा, और सन्धि |
इस क्वाथमें सेठि या पीपलका चूर्ण अथवा अस्थिगत कफ वातज पीड़ा शान्त होती है ।
| योगराज गूगल या अजमोदादि चूर्ण मिला कर (५८८४) रास्नादिक्वाथः (१८) (महा) |
सेवन करनेसे अथवा अरण्डीका तेल मिला कर ( शा. सं. । खं. २ अ. २ ; व. से.; वृ. मा.; वृ. पीनेसे सर्वाङ्ग कम्प, कुब्जता, पक्षाघात, अपबाहुक,
नि. र. । वातव्या; वृ. यो. त. । त. ९३.) | गृध्रसी, आमवात, श्लीपद, अपतानक, अन्त्रवृद्धि, रास्नाद्विगुणभागा स्यादेकभागास्तथाऽपरे ।
अफारा, जंघा और जानुकी पीड़ा, अर्दित, शुक्रधन्वयासबलेरण्डदेवदारुशठीवचाः॥
दोष, मेदवायु, बन्ध्यत्व और योनि दोषोंका नाश वासको नागरं पथ्या चव्या मुस्ता पुनर्नवा । |
होता है। गुडूची वृद्धदारुश्च शतपुष्पा च गोक्षुरः ॥ । (५८८५) रास्नादिक्वाथः (१९) (महा) अश्वगन्धा प्रतिविषा कृतमालः शतावरी ।
. (यो. र.; वृ. नि. र. । वातव्या.) कृष्णा सहचरश्चैव धान्यकं बृहतीद्वयम् ॥ एभिः कृतं पिबेत्काथं शुण्ठीचूर्णेन संयुतम् ।
रास्नैरण्डामृतोपासहचरचविकारामसेनाब्दभार्गीकृष्णाचूर्णेन वा योगराजगुग्गुलुनाऽथवा ॥
दीप्यानन्तायवानीकिसुरकृमिजिच्छृतिशुण्ठीआजमोदादिना वाऽपि तैलेनैरण्डजेन वा।
बलाभिः सर्वाङ्गकम्पे कुब्जत्वे पक्षघातेऽपबाहुके ॥ मूतिक्तासमङ्गाद्विविषशठिवरापिप्पलीयावशूकै गृध्रस्यामवाते च श्लीपदे चापतानके। रक्तश्रीखण्डकारग्वधकटुकफलैवत्सदृश्चीवयुक्तैः॥ अन्त्रद्धौ तथाऽऽध्माने जङ्खाजानुगदेऽदिते ॥ सर्वैरेतैर्दशांघ्रिप्रयुतसमलवैः साधितोऽष्टावशेषः शुक्रामये मेदवाते वन्ध्यायोन्यामयेषु च । काथो रास्नादिरादौ महदुपपदवान्कौशिकोको महारास्नादिराख्यातो ब्रह्मणा गर्भधारणे ॥
निहन्ति ।
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कषायप्रकरणम् ]
- चतुर्थो भागः
सर्वाङ्गकाङ्गवाताऊश्वसनकसनहत्स्वेदशैत्यादि । (५८८६) रास्नादिक्वाथः (२०) (लघु) तन्द्राशूलं तूनीप्रतूनीगलगदनिखिलाङ्गव्यथा- (ग. नि. । आमवाता. २२; व. से. । आम
कम्पखल्लीः ।। वात; यो. त. । त. २२; वृ. मा.) विश्वाचीश्लीपदामानिलनिखिलमहामूतिकारोग रास्नैरण्डशतावरीसहचरादुस्पर्शवासामृता- .. सुप्ति जिहास्तम्भापतानं स्फुटनविमथनक्लीवता
देवाहातिविषाभयाघनशठीशुण्ठीकषायकृतः । क्षेपकौब्जम् ।
जम्! पीतः सोरुबुतैल एष विहितः सामे सशूलेऽनिले शोफाठोपापतन्त्रादितखुडहनुरुग्गृध्रसीपादशूलं |
कटयूरुत्रिकपृष्ठपार्श्वजठरक्रोडेषु वातातिजित् ॥ वायुश्लेष्मोत्थरोगानपि गिरितनयावल्लभेनो
रास्ना, अरण्डको जड़, शतावर, पियाबासा, पदिष्टः ॥
धमासा, बासा, गिलोय, देवदारु, अतीस, हरे, रास्ना, अरण्डमूल, गिलोय, बच, पियाबासा,
नागरमोथा, कचूर और सेठ समान भाग लेकर चव, चिरायता, नागरमोथा, भरंगी, अजवायन,
सबको एकत्र मिला कर अधकुटा कर लें। अनन्तमूल, अजमोद, पाठा, देवदारु, बायबिडंग, का
( यह चूर्ण २॥ तोले । पाकार्थ जल २० कड़ासिंगी सोंठ, खरैटी, मूर्वा, कुटकी, मजीठ, अतीस,
तोले । शेष क्वाथ ५ तोले ।) कचूर, हर्र, बहेड़ा, आमला, पीपल, जवाखार, लाल चन्दन, अमलतास, कुड़ेकी छाल, इन्द्रजौ,
___इस क्वाथमें अरण्डीका तेल मिला कर पीनेसे पुनर्नवा और दशमूलकी प्रत्येक वस्तु समान
शूल युक्त आमवात, तथा कटि, उरू, त्रिकस्थान, भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर अधकुटा
पृष्ठ, पार्श्व और जठरकी वातज पीड़ा शान्त कर लें।
होती है। ( यह चूर्ण ५ तोले । पाकार्थ जल ४०
(५८८७) रास्नादिक्वाथः (२१) तोले । शेष क्वाथ ५ तोले ।)
(रास्नादिद्वात्रिंशकः) इस क्वाथमें गूगल मिलाकर सेवन करनेसे ( ग. नि. । वातरोगा. १९) साग वात, एकांग वात, श्वास, खांसी, पसीना, रास्ना गुडूची देवाहमेरण्डमभया शठी। शैत्य, तन्द्रा, शूल, तूनी,प्रतूनी,गलरोग, अंगव्यथा, | बला चारवधः शुण्ठी शतपुष्पा पुनर्नया ।। कम्प, खल्ली, विश्वाची, श्लीपद, आमवात, सूतिका पञ्चमूली विषा मुण्डी सैरेयकदुरालभे । रोग, सुप्ति, जिह्वास्तम्भ, अपतानक, शरीरको हड- यवानी पौष्करं मूलं वाजिगन्धा प्रसारणी ।। फूटन और व्यथा, कुब्जता, आक्षेप, शोथ, गोक्षुरश्चाटरूषश्च हपुषा वृद्धदारुकम् । आटोप, अपतन्त्रक, अर्दित, खुड्डवात, उरुग्रह, | शतावरी समङ्गा च गुग्गुलुगिरिजं तथा ॥ हनुपह, गृध्रसो, पादशूल और अन्य वातकफज | | समभागैरिमैः सर्वैः कषायमुपकल्पयेत् । रोग नष्ट होते हैं।
' पिबेत्सर्वाङ्गगे बाते सामे सन्ध्यस्थिमज्जगे ॥
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
(रकारादि
वातरोगेषु सर्वेषु कम्पे शोफेऽपतानके । (५८८८) रास्नादिदशमूलम् मन्यास्तम्भे च हृद्रोगे पक्षाघातेऽपतन्त्रके ॥ ( भै. र. । आमवात. ; र. र. । आमवात; अर्दिताक्षेपके कुब्जे हनुग्रहशिरोग्रहे ।
च. द. । आमवाता. २५; वृ. मा.; गृध्रस्यां जानुरोगे च गुल्मे शूले कटिग्रहे ॥
धन्व. । आमवाता.) सामे चैव मिरामे च सप्तधातुगतेऽनिले। । दशमूल्यमृतैरण्डरास्नानागरदारुभिः । आवृतेऽनावृते चैव वातरक्ते विशेषतः ।। क्वाथो रुबुकतैलेन सामं हन्त्यनिलं गुरुम् ॥ एष द्वात्रिंशकः कायः कृष्णात्रेयेण पूजितः ॥ दशमूलको प्रत्येक वस्तु ( शालपणी, पृष्ठ
पर्णी, छोटी और बड़ी कटेली, गोखरु, बेल छाल, रास्ना, गिलोय, देवदारु, अरण्डमूल, हर्र,
सोनापाठाकी छाल, खम्भारीकी छाल, पाढलकी कचूर, खरैटी, अमलतास, सोंठ, सोया, पुनर्नवा,
छाल, अरणी), गिलोय, अरण्डकी जड़, रास्ना, पञ्चमूल (बेलकी छाल, सोनापाठा, खम्भारी,
सोंठ, और देवदारु समान भाग लेकर सबको एकत्र पाढल, अरणी) अतीस, मुण्डी, पियाबासा,
मिला कर अधकुटा कर लें। धमासा, अजवायन, पोखरमूल, असगन्ध, प्रसारणी,
(यह चूर्ण २॥ तोले । पाकार्थ जल २० गोखरु, वासा, विधारा, हपुषा, शतावर, मजीठ,
तोले । शेष क्वाथ ५ तोले । ) गूगल और शिलाजीत समान भाग ले कर क्वाथ बनावें ।
इस क्वाथमें अरण्डीका तेल मिला कर पीनेसे
आमवात नष्ट होता है। यह सर्वाङ्ग वायु, आमवात, सन्धिगत, अस्थिगत और मज्जागत वायु, कम्प, शोथ, अपतानक, मन्यास्तम्भ, (५८८९) रास्नाबादशककषायः हृद्रोग, पक्षाघात, अपतन्त्रक, अर्दित, आक्षेपक, (यो. र.; वृ. नि. र. । आमवात.) कुजता, हनुग्रह, शिरोग्रह, गृध्रसी, जानु रोग, | रास्ना शतावरी वासा गुडूच्यतिविषाऽभया । गुल्म, शूल, कटिग्रह, तथा साम और निराम सप्त
शुण्ठीदुरालभैरण्डदेवदारुवचाधनैः ।। धातु गत वायु एवं विशेषतः वातरक्तको नष्ट
क्वाथः पीतो जयत्याशु आमवात सुदारुणम् । करता है।
कटयुरुत्रिकजवाघ्रिगुल्फजानुसमाश्रितम् ॥ (सब ओषधियां समान भाग लेकर अधकुटा
रास्ना, शतावर, बासा, गिलोय, अतीस, हर्र, कर लें। यह चूर्ण २॥ तोले । पाकार्थ जल २० | सोंठ, धमासा, अरण्डकी जड़, देवदारु, बच और तोले । शेष क्वाथ ५ तोले । गूगल और शिला- नागरमोथा; सब चीजें समान भाग ले कर सबको जीत क्वाथ तैयार होने पर मिलानी चाहिये ।) । अधकुटा कर लें।
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here रणम् ]
( यह चूर्ण २|| तोले | पाकार्थ जल २० तोले । शेष क्वाथ ५ तोले । )
चतुर्थी भांग:
यह क्वाथ कटि, उरु, त्रिक, जांघ, गुल्म और जानु स्थित आमवातको शीघ्र ही नष्ट कर देता है।
(५८९०) रास्नापञ्चकम्
( शा. सं. । खं. २ अ. २; भै. र. । आमवात ; २. र. । आमवात ; च द । आमवाता. २५; वृ. मा.; व. से. । आमवा.; यो. र. । आमवाता.;
ग. नि. । आम. २२; वृ. यो. त. । त. ९३ ) रास्नागुडूचीमेरण्डं देवदारुमहौषधम् । पिवेत्सर्वाङ्ग बाते सामे सन्ध्यस्थि मज्जगे । रास्ना, गिलोय, अरण्डमूल, देवदारु और सोंठ समान भाग लेकर क्वाथ बनावें ।
यह क्वाथ सर्वाङ्गवात, आमवात और सन्धि अस्थि तथा मज्जागत वायुको नष्ट करता है ।
( प्रत्येक ओषधि ६ माशे । पाकोर्थ जल २० तोले । शेष क्वाथ ५ तोले । )
(५८९१) रास्नापञ्चदशकषायः ( यो. र. । आमा . ; वृ. नि. र. । हिक्का. ; वै. जी. | वि. ३ )
1
रास्नामृतानागर देवदारु पञ्चाङ्घ्रियुग्मेन्द्रयवैः कषायः ।
एरण्डतैलेन समन्वितोयं भेा भवेदामसमीरणस्य || शस्ना, गिलोय, सोंठ, देवदारु, दशमूलकी
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३३३
प्रत्येक वस्तु और इन्द्रजौ समान भाग ले कर क्वाथ बनावें ।
इसमें अरण्डीका तेल मिलाकर पीने से आम - वातका नाश होता है ।
1
( प्रत्येक वस्तु ३ माशे । पाकार्थ जल ३० तोले । शेष क्वाथ ७ || तोले । अरण्डीका तेल २-३ तोले । )
(५८९२) रास्नासप्तकम्
(शा. सं. । खं. २ अ. २; भै. र. | अ (मवात ; च. द. । आमवाता. २५; र. र.; व. से.; वै. र. । आमवात; वृ. यो. त. । त. ९३; यो त । त. ४२; वृ. मा.; यो. र. । आम.; ग. नि. । आमवाता २२ )
रास्नामृतारग्वध देवदारु त्रिकण्टकेरण्ड पुनर्नवाणाम् । क्वाथं पिवेन्नागरचूर्ण मिश्रं जङ्घरुपार्श्वत्रिकपृष्ठशूली ॥
रास्ना, गिलोय, अमलतास, देवदारु, गोखरु, अरण्डमूल और पुनर्नवा समान भाग लेकर काथ बनावें
इसमें सांठका चूर्ण मिलाकर पीने से जंघा, उरु, पार्श्व, त्रिक और पृष्ठशूल नष्ट होता है ।
( प्रत्येक ओषधि आधा तोला । पानी २८ तोले । शेष काथ ७ तोले । सोंठका चूर्ण १ ॥ माशा । )
(५८९३) रोत्रादिक्वाथः (१) ( व. से. । ज्वराधिकार. ) रोधोत्पलामृता पद्मशारिवाणां सशर्करः । क्वाथः पित्तज्वरं हन्यादथवा पर्पटोद्भवः ॥
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%3
भारत-भैषज्य रत्नाकरः [रकारादि लोध, नीलोत्पल, गिलोय, पद्म और सारिवा | (५८९५) रोधादिक्वाथः (३) समान भाग लेकर काथ बनावें ।
( हा. सं. । स्था. ३ अ. २९) इसमें खांड मिला कर पीनेसे पित्त ज्वर नष्ट | रोध्रार्जुनः खदिरमागधिकासमङ्गा । होता है।
क्वाथोऽम्लवेतसमधुघृतसम्पयुक्तः ॥ . (प्रत्येक ओषधि आधा तोला । पाकार्थ जल | गुल्मं सरक्तमपि चाथ निहन्ति चाशु । २० तोले । शेष काथ ५ तोले । खांड १। तोला।) | हृत्क्लेदनं च विनिहन्ति यकृत्सरक्तम् ॥ इसी प्रकार पित्तपापड़ेका काथ पीनेसे भी
लोध, अर्जुनकी छाल, खैरसार, पीपल, मजीठ पित्त ज्वर नष्ट होता है।
और अम्लवेत समान भाग ले कर काथ बनावें ।
इसमें घी और शहद मिलाकर पीनेसे रक्त (५८९४) रोधादिक्वाथः (२)
| गुल्म, हृदक्लेद और यकृत रोग नष्ट होता है। (वृ. मा. । प्रमेहा.)
(प्रत्येक ओषधि ६ माशे । पाकार्य जल रोधार्जुनोशीरकुचन्दनाना
२४ तोले । शेष काथ ६ तोले । मधु २ तोले, घृत मरिष्टसेव्यामलकाभयानाम् ।
१ तोला ) धात्र्यर्जुनारिष्टकवत्सकानां
__(५८९६) रोधादिगणः नीलोत्पलैलातिनिशार्जुनानाम् ॥
. (वा. भ. । सूत्र अ. १५) चत्वार एते विहिताः कषायाः रोधशाबरकरोध्रपलाशाजिङ्गिणी सरलकदपित्तपमेहे मधुसम्पयुक्ताः ॥
फलयुक्ताः ।
कुत्सिताम्बकदलीगतशोकाः सैलवालुपरिपेल(१) लोध, अर्जुनकी छाल, खस, और लाल
वमोचाः॥ चन्दन;
एष रोधादिको नाम मेदः कफहरो गणः । (२) नीमकी छाल, खस, आमला और हर्र;
योनिदोषहरः स्तम्भी वो विषविनाशनः ॥
ITE ___ (३) आमला, अर्जुन, नीमकी छाल और
लोध, सावर लोध, ढाक (पलाश), जिंगणी, इन्द्रजौ;
सरलकाष्ठ (चीर), कायफल, कदम्ब, केला, अ(४) नीलोत्पल, इलायची, तिनिश ( सांदन | शोक, एलवाल, नागरमोथा और मोचरस, इन वृक्ष ) की छाल और अर्जुनकी छाल । ओषधियों के समूहको ‘रोधादि गण' कहते हैं।
इनमेंसे किसी एक काथमें शहद मिला कर यह गण मेद, कफ और योनि दोषनाशक पीनेसे पित्त प्रमेह नष्ट होता है।
। तथा स्तम्भक, वर्ण्य और विषनाशक है।
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क पायप्रकरणम् ]
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चतुर्थी भागः
(५८९७) रोहिण्यादिकषायः (ग. नि. ज्वर. )
रोहिणी नागर सुस्ता पटोली कण्टकारिका । आरुषगुडूचीन्द्रयवभार्गी किरातकाः ॥ चन्दनं च हरत्येष कासं दाहं तृषान्वितम् ॥
कुटकी, सोंठ, नागरमोथा, पटोल, कटेली, बासा, गिलोय, इन्द्रजौ, भरंगी, चिरायता और लाल चन्दन समान भाग लेकर काथ बनावें ।
यह काथ कास दाह और तृषा युक्त ज्वरको करता है।
( प्रत्येक ओषधि ३ माशे । पाकार्थ जल २४ तोले । शेष काथ ६ तोले । )
(५८९८) रोहिण्यादिपाचनः ( वृ. नि. र. । सर्वातिसार . ) रोहिण्यतिविषापाठावचाकुष्ठसमुद्भवः । Fare: पीतो निहन्त्येव सर्वातीसारजां रुजम् ।। कुटकी, अतीस, पाठा, बच और कूठ समान भाग लेकर काथ बनावें ।
यह काथ समस्त प्रकार के अतिसारांको नष्ट करता है ।
( प्रत्येक ओषधि आधा तोला । पाकार्थ जल २० तोले । शेष काथ ५ तोले । )
1
(५८९९) रोहितकादिकल्कः (वं. से. । स्त्री. रो. ) रोहितकान्मूलकल्कं पाण्डुरेऽसृग्दरे पिवेत् ।
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३३५
जलेनामलकीबीजकल्कं वा ससितामधु ॥ पिबेद्दिनत्रयेणैव श्वेतप्रदरनाशनम् ॥
(१) रुहेड़ेकी जड़को पानीके साथ पीसकर कल्क बनावें ।
इसमें मिश्री और शहद मिलाकर पीने से सफेद प्रदर नष्ट होता है ।
(२) इसी प्रकार आमले के बीजोंको पीस कर उसमें शहद और मिश्री मिलाकर पीनेसे भी श्वेत प्रदर नष्ट होता है ।
ये दोनों प्रयोग केवल ३ दिन प्रयुक्त करने से ही प्रदर नष्ट हो जाता है । (५९००) रोहिषादिक्वाथः ( भा. प्र. म. खं. २. )
रोहिषधन्वयवासकवासा पर्पटगन्धलताकटुकाभिः । शर्करा सममेष कषायः क्षतजष्ठीविन उद्यदुपायः ॥
रोहिष तृण ( गन्ध तृण ), धमासा, वासा, पित्तपापड़ा, फूलप्रियंगु और कुटकी समान भाग लेकर काथ बनावें ।
इसमें खांड मिला कर सेवन करनेसे क्षतज रक्तष्ठीवन ( रक्त थूकना ) शान्त होता है ।
( प्रत्येक ओषधि आधा तोला । पाकार्थ जल २४ तोले । शेष काथ ६ तोले । खांड १|| तोला । ) इति रकारादिकषायप्रकरणम्
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३३६
भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[रकारादि
अथ रकारादिचूर्णप्रकरणम् (५९०१) रक्तचन्दनादिचूर्णम् (५९०२) रजन्यादिचूर्णम् (१) (ग. नि. । वाता. १८)
- (व. से. । अश्मरी.) आरक्तकं चन्दनमुस्तशालि
पिबेदजनीं सम्यक्सगुडान्तुषवारिणा । पर्यस्तथा लाङ्गलिकाऽजमोदा । तस्याशु चिररूढापि यात्यन्तं मेदशर्करा ॥ पाठाऽश्वगन्धा च शतावरी च ____ हल्दीके चूर्णको गुड़में मिला कर कांजीके
कोलकं मागधि देवदारु ॥ साथ पीनेसे पुरानी और प्रवृद्ध शर्करा भी नष्ट हो एला यवानी शतपुष्पिका च
जाती है। मूलं वचा सैन्धवपनकं च । (५९०३) रजन्यादिचूर्णम् (२) कुष्ठं समङ्गा सुरुदारु भव्यं
( वृ. मा.; बं. से. । श्लीपदा.) रास्नाऽरलु गरकं गुडूची ॥ श्लोकद्वये चूर्णकमेतदुक्तं
रजनी गुडसंयुक्तां गोमूत्रेण पिबेन्नरः । कधिमा घृतसम्प्रयुक्तम् ।
वर्षात्थं श्लीपर हन्ति दद्रुकुष्ठं विशेषतः ॥ तक्रान्वितं सोष्णजलानुपानं
__ हल्दीके चूर्णको गुड़में मिला कर गोमूत्रके निहन्ति सर्वाङ्गमरुद्विकारम् ॥
साथ पीनेसे १ वर्षका पुराना स्लीपद और विशेषतः लाल चन्दन, नागरमोथा, शालपर्णी, कलि- ।
दाद नष्ट होता है। हारी, अजमोदा, पाठा, असगन्ध, शतावर, कंकोल, ___ (५९०४) रजन्यादिचूर्णम् (३) पीपल, देवदारु, इलायची, अजवायन, सोया,
( भै. र. ; वृ. मा. । बालरो.) पीपलामूल, बच, सेंधा नमक, पद्माक, कूठ, मजीठ देवदारु, करेला, रास्ना, अरलुकी छाल, सेांठ और
रजनीदारुसरलश्रेयसोवृहतीद्वयम् । गिलोय; समान भाग ले कर यथा विधि चूर्ण
पृश्निपर्णीशताहा च लीढं माक्षिकसर्पिष। ॥ बनावें ।
ग्रहणीदीपनं हन्ति मारुताति सकामलाम् ।
ज्वरातिसारपाण्डुत्वं बालानां सर्वरोगजित् ॥ मात्रा-७॥ माशे ।
___हल्दी, देवदारु, सरलकाष्ठ (चीरका बुरादा), इसे धीमें मिलाकर तक्रमें घोलकर सेवन कर- | हरं, छोटी कटेली, बड़ी कटेली (बनभण्टा ), नेसे सर्वाङ्गगत वात विकार नष्ट होते हैं।
पृश्निपी और सोया; सबका चूर्ण १-१ भाग ले अनुपान-उष्ण जल ।
कर सबको एकत्र मिला लें।
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चूर्णपकरणम् ]
चतुर्थों भागः
-
इसे शहद और घीके साथ मिलाकर चटानेसे | रसौत और लाखका चूर्ण समान भाग बालकांकी ग्रहणी दीप्त होती और वातज पीड़ा, | लेकर दोनोंको एकत्र मिला लें । कामला, ज्वरातिसार तथा पोण्डका नाश होता है। इसे बकरी के दूधके साथ पीनेसे वात पित्तज
रसाञ्जनादिचूर्णम् (१) विकार और रक्त प्रदर नष्ट होते हैं।
(ग, नि. । कासा. १०) ____ अथवा खिरनी और कैथके पत्तोंको घीमें रस प्रकरणमें देखिये।
भूनकर पीसकर सेवन करनेसे भी रक्त प्रदर नष्ट
होता और वात विकार शान्त होते हैं। (५९०५) रसाञ्जनादिचूर्णम् (२)
(५९०७) रसाञ्जनादियोगः (२) (भा. प्र. अतिसा.; र. र. । अतिसा.; वृ. यो. त. । त. ६७; १. नि. र. । पित्त ग्रहणी.;
(वृ. मा. । प्रदरा.; यो. चि. म. । अ. ४) वं. से.। ग्रहण्य.; अतिसारा.; धन्वन्त.। अतिसारा.
रसाधनं तण्डुलकस्य मूलं ग. नि.। अतिसा. २; वृ. यो. त.। त. ६४.;
क्षौद्रान्वितं तण्डुलतोयपीतम् । यो. र. । अतिसा. ; यो. र. । रक्ताति. ; यो. र. ।
अमृग्दरं सर्वभवं निहन्ति पित्तग्रह.)
वासं च भार्गी सहनागरेण ॥ रसाधनं प्रतिविषं कुटजस्य फलत्वचौ ।
रसौत और कांटे वाली चौलाईकी जड़ समान धातकीशृङ्गवेरश्च पाययेत्तण्डुलाम्बुना ॥
भाग लेकर चूर्ण बनावें। माक्षिकेण युतं हन्यात्पित्तातीसारमुल्बणम् ।
इसे शहदमें मिला कर चोवले के पानीके साथ मन्दं सन्दीपयेदनि शूलं चाशुनिवर्तयेत् ॥ | पोनेसे सब प्रकारका रक्त प्रदर नष्ट होता है। ___रसौत, अतीस, कुड़ेकी छाल, इन्द्रजौ, धायके ( मात्रा-२-१॥ माशा ।) फूल और सेठि समान भाग ले कर चूर्ण बनावें।।
भरंगी और सांठका चूर्ण सेवन करनेसे रक्त इसमें शहद मिला कर चावलेोके पानीके साथ प्रदर और श्वास नष्ट होता है । सेवन करनेसे पित्तातीसार और शूल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है और अग्नि दीप्त होती है।
रसादिचूर्णम् (५९०६) रसाञ्जनादियोगः (१) ।
( यो. र. । तृषा.)
रस प्रकरणमें देखिये। (वृ. नि. र. । स्त्री.) रसाञ्जनं च लाक्षा च छागेन पयसा पिबेत ।
रसामृतचूर्णम् कल्कपत्रैघृतभृष्टै राजादनकपित्थयोः॥
( यो. त. । त. ६४,) पित्तानिल हरावेतौ सर्व चैवात्रपित्तजित् ॥ । ... रस प्रकरणमें देखिये ।
४३
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि (५९०८) रसायनचूर्णम् । नमक लेकर सबको एकत्र मिलाकर किसी पात्रमें
(रा. मा. । रसा. वाजी.) . बन्द करके रख दें एवं आठवें दिन निकालकर यः कुष्ठचूर्ण रजनीविरामे
धूपमें सुखा कर चूर्ण बना लें। __ मध्वाज्यसम्मिश्रितमत्ति नित्यम् । | इस चूर्णमें ल्हसनकी उग्र गन्ध नहीं रहती स मत्तमातङ्गबलः सुगन्धि
और यह समस्त वातज रोगों को नष्ट करता है । - ग्मिी चिरायुश्च भवेन्मनुष्यः ।। इसे अग्नि बलोचित मात्रानुसार १ मास तक
प्रातः काल कूठके चूर्णको शहद और धीमें सेवन करना चाहिये। मिला कॅर सेवन करनेसे शरीर अत्यन्त बलवान पथ्यापथ्य--इस प्रयोगके सेवनकालमें स्निऔर सुगन्धित हो जाता है।
ग्धाहार करना और अजीर्ण न होने देना चाहिये; इसके सेवनसे वाचा शक्ति और आयु भी
| तथा धूप, क्रोध, अधिक जल पान, गुड़ और दूधसे बढ़ती है।
परहेज़ करना चाहिये। रसेन्द्रचूर्णम्
(५.९१०) रामठादिचूर्णम् ( भै. र. । ग्रहण्य.)
(वृ. नि. र. । संग्रहणी.) रस प्रकरणमें देखिये ।
रामठातिविषापथ्यावचेन्द्रयवचूर्णकम् ।
वारिपीतं निहन्त्येव ग्रहणीं वातसम्भवाम् ।। 4 (५९०९) रसोनपञ्चकः
भुनी हुई हींग, अतीस, हर्र, वच और इन्द्रजौ ... (यो. त. । त. ४०)
समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । कन्दः सार्षपतैलं च लशुनं शृङ्गवेरकम् ।। - इसे पानीके साथ पीनेसे वातज संग्रहणी नष्ट सर्वाष्टमांश सिन्धूत्थं सन्धितं दिनसप्तकम् ।। होती है । सञ्चूयं धर्ममध्ये तु प्रातः खादेद्यथावलम् ।
( मात्रा-५ रत्तीसे १ माशा तक ।) एष निर्गन्धतामेत्य सर्ववातामयाञ्जयेत् ॥ स्निग्धभोजी मासमात्र सेवनाद्वातजिद्भवेत् ।
(५९११) रामठादियोगः .: अजीर्णमातपं रोपमतिनीरं पयो गुडम् ॥
(र. च.; यो. र. । विसर्प. ) रसोनमश्नन्पुरुषस्त्यजेदेतन्निरन्तरम् ॥ रामठं टङ्कणं क्षारं प्रत्येकं शाणसम्मितम् ।
शलगम ( या प्याज ), सरसेका तेल, छिला चूर्णयित्वा सप्तदिनं खादेत्सन्ध्याद्वये नरः ॥ और अङ्कुरादि निकाला हुवा ल्हसन तथा सेठका भुनी हुई हींग, सुहागेकी खील, और जवाखार चूर्ण १-१ भाग और सबका आठवां भाग सेंधा- समान भाग लेकर एकत्र मिला कर चूर्ण बनावें ।
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चूर्णप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः इसे दोनों समय ( प्रातः सायं ) सात दिन (५९१४) रास्नादिचूर्णम् (२) तक सेवन करनेसे विसर्प नष्ट होता है ।
( यो. र. ।संग्रहण्या.) मात्रा--१। तोला ।
| रास्ना पथ्या सटी व्योषं द्वौ क्षारौ लवणानि च । ( व्यवहारिक मात्रा--आधा माशा।) ग्रन्थिकं मातुलुङ्गस्य रसमेकत्र चूर्णयेत् ॥ (५९१२) रामठाद्यं चूर्णम् पिबेदुष्णेन तोयेन श्लैष्मिके ग्रहणीगदे ।। (ग. नि. । चूर्णा. ३) ..
- रास्ना, हर्र, कचूर, सांठ, मिर्च, पीपल, जवारामठं रुचकं वह्निर्वचाजीरकनागरम् ।
खार, सज्जीखार, सेंधा नमक, काला नमक, काच. विडङ्गं चित्रकं कुष्ठं कणामरिचवेतसम् ॥ . लवण, विड लवण, समुद्र लवण और पीपलामूल दीप्यकं चेति सर्वाणि समभागानि कारयेत । समान भाग ले कर यथा विधि चूर्ण बनावें । तथा चूर्णमुष्णाम्बुना पीतं वदिद्धिकरं परम् ॥ उसे बिजौरके रस में घोट कर सुरक्षित रक्खें। भुनी हुई हींग, काला नमक ( सञ्चल ),
... इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे कफज चीता, बच, जीरा, सेांठ, बायबिडंग, चीता, कूठ, ग्रहणी नष्ट होती है।
. पीपल, काली मिर्च, अमलबेत और अजवायनका ( मात्रा-१॥-२ माशे । ) चूर्ण समान भाग लेकर सबको एकत्र मिला लें।
(५९१५) रास्नादिचूर्णम् (३) यह चूर्ण अत्यन्त अग्निवर्द्धक है ।
(यो. र. । वात रोगा.) ( मात्रा-१॥-२ माशे ।)
रास्नाकुष्ठनतद्रुषट्कटुशठोपाठावचासारिवाअनुपान-उष्ण जल ।
भृनिम्बत्रिफलाबलादशजटा निमुण्डिकैरण्डकम् " (५९१३) रालयोगः हिङ्ग्यम्लाईकवस्तगन्धकवरी क्षारौ पटूनां त्रयं ( . नि. र. । अतिसोर.)
चूर्ण पुष्करतैलयुक्तमखिलान्वातानशीतिं जयेत् ॥ चिरोत्थितमतीसारं रालो हन्यात् सितायुतः ।
रास्ना, कूठ, तगर, सांठ, मिर्च, पीपल, चव, राल और मिश्री समान भाग ले कर चूर्ण
चीता, पीपलामूल, कचूर, पाठा, बच, सारिवा, बनावें।
चिरायता, हर्र, बहेड़ा, आमला, खरैटी, दशमूलकी यह चूर्ण पुराने अतिसारको नष्ट करता है ।
प्रत्येक वस्तु, संभालु, अरण्डकी जड़, हींग, अमल( मात्रा–२-३ माशे।)
बेत, अदरक, अजमोद, बनतुलसी, जवाखार, रास्नादिचूर्णम् (१)
सज्जीखार, सेंधा नमक, संचल ( काला नमक ), . (वृ. नि. र. । क्षय.)
और बिड लवण; सबका समान भाग चूर्ण लेकर रस प्रकरणमें देखिये।
। सबको एकत्र मिला लें।
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३४०
इसे पोखरमूलके तेल के ८० प्रकारके वातरोग नष्ट होते हैं ।
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
रकारादि
साथ सेवन करनेसे अश्वगन्धाऽमृता पाठा मुस्तेला शालिपर्णिका । शतपुष्पाsजमोदा च शुण्ठी कुष्ठं समांशतः ॥ सघृतं चूर्णमेतेषां भक्षितं तप्तवारिणा । त्वगस्थिस्नायु सन्धिस्थं मारुतं हन्ति वेगतः ||
(५९१६) रास्नाद्यं चूर्णम् (१) ( ग. नि. । राजयक्ष्मा. ९ ) रास्नामुस्तमुशीरं पद्मकलवङ्गान्यश्वगन्धा सिता भाग सत्रिफला कटुत्रययुता तद्वद्विडङ्गानि च। एलापत्रक नागकेसर महद्दान्विता पिप्पलीमूलं सद्विगुणा सिता च हरते सश्वासका सं क्षयम् ॥ रास्ना, नागरमोथा, खस, पद्माक, लौंग, असगन्ध, मिश्री, भरंगी, हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च, पीपल, बायबिडंग, इलायची, तेजपात, नागकेसर, देवदारु और पीपलामूलका चूर्ण १-१ भाग तथा मिश्री सबसे २ गुनी लेकर सबको एकत्र मिला लें ।
( मात्रा - ६ माशे । )
(५९१७) रास्नाद्यं चूर्णम् (२)
( ग. नि. । वाता. २० ) रास्ना शतावरी दारु कङ्कोल्लं लाङ्गली कणा । रक्तचन्दन मञ्जिष्ठाद्वद्विसैन्धवपद्मकम् ॥
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इसे घी में मिला कर उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे स्वग अस्थि स्मायु और सन्धिगत वायु शीघ्रही नष्ट हो जाती है ।
( मात्रा - - १॥ - २ माशे । ) (५९१८) रुचकादिचूर्णम् (१) ( वृ. नि. र. । ग्रहणी रो. )
यह चूर्ण श्वास, खांसी और राजयक्ष्माको रुचकाग्निमरीचानां चूर्ण तक्रेण सेवितम् । करता है ।
ग्रहण्युदर गुल्मार्थः शुन्मान्यठीहनाशनम् ॥
* पोखरमूलका तेल --१ सेर पोखरमूलको ८ सेर पानी में पकावें और २ सेर पानी रहने पर छान लें। आधा सेर तेलमें यह काथ और १० तोले पोखरमूलका कल्क मिला कर पकायें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान लें।
रास्ना, शतावर, देवदारु, कंकोल, लांगली ( कलियारी), पीपल, लाल चन्दन, मजीठ, वृद्धि, सेंधानमक, पद्माक, असगन्ध, गिलोय, पाठा, नागरमोथा, इलायची, शालपर्णी, सोया, अजमोद, सेठ, और कूठ; इन सबका चूर्ण समान भाग ले कर सबको एकत्र मिलावें ।
सञ्चल ( काला नमक ), चीता और काली मिर्च का चूर्ण समान भाग लेकर सबको एकत्र मिला लें ।
इसे के साथ सेवन करने से ग्रहणी दोष, उदर रोग, गुल्म, अर्श, अग्निमांद्य और प्लीहा ( तिल्ली ) का नाश होता है ।
( मात्रा - २ - ३ माशे । ) (५९१९) रुचकादि चूर्णम् (२) ( वृ. नि. र. । शूलरोगकर्म . ) चूर्ण समं रुचकमिहौषधानामुष्णाम्बुना कफसमीरणसम्भवासु ।
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चूर्ण प्रकरणम् ]
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स्पार्श्वपृष्ठजठरातिविचिकासु पेयं तथा यवरसेन च विविबन्धे ॥
काला नमक ( सञ्चल ), भुनी हुई हींग और सांठ समान भाग लेकर यथा विधि चूर्ण
बनावें
1
चतुर्थी भागः
इसे उष्ण जलके साथ सेवन करने से कफवा - तज हृदय पीड़ा, पार्श्व शूल, पृष्ठ शूल और उदर शूल तथा विसूचिकाका नाश होता है ।
यदि मलावरोध हो तो इसे जौके काथके साथ सेवन करना चाहिये ।
( मात्रा - १ ॥ - २ माशे । )
(५९२०) रेणुकादियोगः
( ग. नि. । वन्ध्या. ५ ) रेणुकांरोधसम्मिश्रां लक्ष्मणां परियोजिताम् । गर्भदां क्षीरसर्पिर्भ्यां पिवेद्रतटाङ्करान् ॥ रेणुका, लोध और लक्ष्मणा समान भाग लेकर यथा विधि चूर्ण बनावें ।
इसे पीने, चाटने, खाने या अन्नादिमें मिला कर सेवन करनेसे खांसी, हिचकी, ज्वर, श्वास और पार्श्व शूलका नाश होता है ।
( मात्रा - ६ माशे । ) रोचनादिचूर्णम् (वं. से. । नेत्र रो. ) मिश्र प्रकरण में देखिये । (५९२२) रोहीतकादियोगः ( यो त । त. ५३; यो. र. । उदररो. ) रोहीतकायाशुण्ठीः पिबेन्मूत्रेण शक्तितः । सर्वोदरहरं लोह मेहारीः कृमिगुल्मनुत् ||
रुहेड़ा की छाल, हर्र और सोंठ समान भाग लेकर यथा विधि चूर्ण बनावें ।
इसे यथोचित मात्रानुसार गोमूत्र के साथ से. वन करने से समस्त प्रकार के उदर, प्लीहा, प्रमेह, अर्श, कृमि और गुल्मका नाश होता है । इति कारादिचूर्ण प्रकरणम्
इसे अथवा रक्त बटके अंकुरोंको घृत मिले हुवे दूधके साथ सेवन करनेसे वन्ध्या स्त्री गर्भ धारण कर लेती है ।
(५९२१) रेणुका चूर्णम् (ग. नि. । चूर्णाधि. ३ ) रेणुश्चोरकं मुस्तं सूक्ष्मैलास ठिनगरम् । स्वमेला पुष्करं शृङ्गी होवेराग रुके सरम् ||
શું
यमान्यामलकीभार्गी पिप्पली सुरसा तथा । सिताचतुर्गुणं चूर्ण तत्पीतं लीढमेव वा ॥ अन्नपानप्रयुक्तं वा भक्षितं वापि केवलम् । का सहिकाज्वरे श्वासपार्श्वशूलं च नाशयेत् ॥
रेणुका, चोरक, नागरमोथा, छोटी इलायची, कचूर, सोंठ, दालचीनी, बड़ी इलायची, पोखरमूल, काकड़ासिंगी, सुगन्ध बाला, अगर, नागकेसर, अजवायन, आमला, भरंगी, पीपल और तुलसी; इनका चूर्ण १-१ भाग तथा मिश्री सबसे चार गुनी ले कर सबको एकत्र मिला लें ।
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[रकारादि
अथ रकारादिगुटिकाप्रकरणम् : (५९२३) रक्तबोलादिगुटिका (५९२५) रतिवल्लभमोदकः (महा) ( यो. र. । सूतिका.)
___(रतिवल्लभविजयापाकः) शोणं बोलं सघृतं सगुडं
( धन्वन्तरि । वाजीकरण; नपुंस्का. त. ४.)
| समूलपत्रशाखायास्तुलां शक्राशनस्य च । गुटकी कृतं गिलितम् ।
संरुद्धयोलूखले छित्त्वाऽपां द्रोणे हि तथा मक्कल्लाभिधशूलं हन्ति ।
च वै ॥ समूलं सशोणितातङ्कम् ॥
क्वाथं पादावशिष्टं तु वस्त्रपूतं च कारयेत् । रक्तबोल ( बोल गूंद ) को पीसकर उसमें क्षीरप्रस्थं समादाय खण्डस्याई शतं न्यसेत् ।। उसके बराबर गुड़ और आवश्यकतानुसार घी मिला शतावरीरसस्याष्टौ पिप्पल्या कुडवं तथा । कर गोली बना लें।
सर्वप्रेतत्समालोडय घृतपस्थेन मेलयेत् ॥ ___यह गोली निगलनेसे प्रसूताका मक्कल शूल औषधानां ततश्चूर्ण दापयेत्कलिकं पृथक् ।
और रक्त विकार ( अत्यधिक रक्तस्राव ) नष्ट त्रिकटु त्रिफला चव्यमेलात्वपत्रकेशरम् ।। होता है।
चित्रकं पिप्पलीमूलं धान्यकाजाजि मेथिकाः । (५९२४) रजःप्रवर्तिनीवटी
कुष्ठान्द रेणुका व्योषमाीतालीशकेशरम् ॥
तालमूली विद्दन्ती श्रेयसी हिअ पौष्करम् । ( भै. र. । स्त्री रोगा.)
लवङ्गजानिकोषं च यवानी कारवी तथा ।। कम्यासारं च काशीसं समठं टङ्कणं तथा।
शुभा जातीफलं चन्द्रं शृङ्गो चैव विदारिका । समादाय समं सर्व पेषयेत्कन्यकाद्रवैः ।। अष्टवर्ग च काकोलं श्लक्ष्णचूर्ण च कारयेत् ।। निर्मापयेद्भिषग्वर्यो रक्तिद्वयमितावठीः। . गुडवद्विपचेद्वैद्यो मोदकं कारयेत्ततः। .... शीलितेयं तु वटिका विनिहन्ति सुदारुणाम् ॥ अक्षमात्रं च जग्ध्वैनं शीतलं पाययेज्जलम् ॥ रनोरोधव्यथां कष्टरजः सावव्यथां तथा। नाशयेच्छक्रदोषं च पण्डं चैवातिदारुणम् । रजा प्रवर्तिनी ह्येषा नीलकण्ठेन भाषिता॥ श्राकरं लाघवकर मेधाबुद्धिप्रवर्धनम् ॥ ... एलवा, कसीस, हींग और सुहागा, समान मूल पत्र और शाखायुक्त ६। सेर भांगको भाग ले कर सबको घृतकुमारीके रसमें घोट कर | ओखली में कूट कर ३२ सेर पानीमें पकायें और जब २-२ रत्तीकी गोलियां बना लें ।
८ सेर पानी शेष रह जाय तो छान लें । तदनन्तर इनके सेवनसे रजोनिरोध (नष्टार्तव), कष्टा- उसमें २ सेर दूध, ५० पल (३ सेर १० तोले) खांड, तव, और पीडितार्तवका नाश होता है। । १ सेर शतावरका रस, २ सेर घी और २० तोले
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गुटिकाप्रकरणम् ]
चतों भागः
पीपलका चूर्ण मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब
रविसुन्दरवटी गाढ़ा हो जाय तो उसमें निम्न लिखित ओषधि- (र. रा. सु. । अजीर्णा. ) यांका चूर्ण मिला कर.११-१। तोलेके मोदक
रस प्रकरणमें देखिये। बना लें।
रसकर्पूरगुटिका चूर्णकी ओषधियां-सांठ, मिर्च, पीपल,
(र. का. धे. । उपदंशा.) हरी, बहेड़ा, आमला, चव, इलायची, दालचीनी, तेजपात, नागकेसर, चीता, पीपलामूल, धनिया,
रस प्रकरणमें देखिये। जीरा, मेथी, कूट, नागरमोथा, रेणुका, सोंठ, मिर्च,
रसगुटिका पीपल, भरंगी, तालीस पत्र, नागकेसर, तालमूली,
( भै. रे. । अर्श.) निसोत, दन्तीमूल, गजपीपल, हींग, पोखरमूल,
रस प्रकरणमें देखिये। लौंग, जावत्री, अजवायन, काला जीरा, बंसलोचन,
रसगुटिका जायफल, कपूर, काकड़ासिंगी, विदारीकन्द, अष्टवर्ग और काकोली; प्रत्येकका चूर्ण १।-१। तोला।
( रसें. सा. सं. ; र. रा. सु. ; धन्व । कासा. ). इनके सेवनसे शुक्रदोष और दारुण षण्ढत्व
रस प्रकरणमें देखिये। (नपुंस्कत्व) का नाश होता तथा सौन्दर्य, लघुता, रसचन्द्रिकावटी मेधा और बुद्धिकी वृद्धि होती है।
( रसें. सा. सं. ; र. चं. ; भै. र. । शिरो. ) अनुपान-शीतल जल ।
रस प्रकरणमें देखिये। . . . 'मात्रा--एक मोदक ।
रसाञ्जनादिगुटिका रतिवल्लभो मोदकः
(यो. चि. म. । अ. ३) (भै. र. । वाजीकरणा.)
अञ्जन प्रकरणमें देखिये । . रस प्रकरणमें देखिये।
(५९२६) रसाञ्जनादिवटी रतिद्धिकरो मोदकः
(वृ. नि. र. । अर्शी. ) ( यो. र.)
| रसाञ्जनं महानिम्बफलं शक्रयवं तथा ।
मरिचं कुटजत्वा च तथा लघी हरीतकी॥ गोक्षुरादिलेहः प्र. सं. १३४५ देखिये
समभागानि सर्वाणि सूक्ष्मचूर्णीकृतानि च । रत्नप्रभावटी
रसे कुक्कुरभृङ्गाख्ये मर्दयेत्तु दिनत्रयम् ॥ (भै. र. । स्त्री. रो.)
माषमात्रा वटी कार्या तां वटीं भक्षयेत्मगे। रस. प्रकरणमें देखिये।
रक्तार्शसां नाशिनी स्यात्पथ्याशी यदि वै नरः॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
-रत्नाकरः
[रकारादि
रसौत. बकायनके फलकी गिरी, इन्द्रजौ,
रसाभ्रवटी काली मिर्च, कुड़ेकी छाल और छोटो (काली) हर्र; (रसें. सा. सं. । ग्रहण्य.) प्रत्येकका चूर्ण १-१ भाग ले कर सबको एकत्र
रस प्रकरणमें देखिये। मिला कर ३ दिन कुकुर-भंगरेके रसमें घोट कर
रसेन्द्रगुटिका (वृहद्) १-१ माशेकी गोलियां बना लें । यदि पथ्य पालन करते हुवे इन्हें सेवन किया
(र. र. । कासा.) जाय तो रक्तार्श नष्ट हो जाती है ।
रस प्रकरणमें देखिये । रसादिगुटिका
रसेन्द्रवटी
(भै. र. । मुखरो.) (र. रा. सु.। वात रोगा.) रस प्रकरणमें देखिये।
रस प्रकरणमें देखिये। रसादिगुटी
रसेश्वरीगुटिका (वै. र. ; वृ. नि. र. ; र. रा. सु. ; यो. र. ।
(र. र. र. । उपदे. ३) दाह; वृ. यो. त. । त. ८७)
रस प्रकरणमें देखिये । रस प्रकरणमें देखिये।
(५९२७) रसोनपिण्डः ... रसादिगुटी
(रसोनासवः) (वृ. नि. र. । स्पर्शवाता.) । (च. द.; वै. र.; व. से. । आमवात.; वृ. मा.। रस प्रकरणमें देखिये।
आमवाता.; धन्व.; र. र. । आमवाता.) रसादिगुटी
निस्तुषस्य रसोनस्य नयेत्पलशतं बुधः । ( यो. र. ; वृ. नि. र. । तृष्णा. ; वृ. यो. त.। तिलानां कुडवं चात्र प्रक्षिपेच्च पलं पलम् ॥ त. ८४.)
प्रत्येकं व्यषणं हिङ्ग क्षारौ द्वौ शतपुष्पिका । रस प्रकरणमें देखिये।
लवणानि च पश्चैव कुष्ठग्रन्थिकचित्रकम् ॥ रसादिवटी
अजमोदा यवानी च धान्याकं च विचूर्णितम् । ( वृ. नि. र. । ज्वरा ) एकत्र पिण्डितं सर्व घृतभाण्डे विनिःक्षिपेत् ।। रस प्रकरणमें देखिये।
यावत्स्युः षोडशाहानि ततस्तैलं च काधिकम् । रसाभ्रगुटिका
प्रस्थादै च पृथग देयं खादेत्कर्षप्रमाणकम् ॥ (र. र.; धन्व. । रसायनो.) जलं चानुपिबेत्तस्य जयेद्वातामयांस्ततः। रस प्रकरणमें देखिये ।
आमवातं च सर्वाङ्गवातमेका मारुतम् ॥
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गुटिकाप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः .
अपस्मारं तथोन्मादं कासं श्वासामयं तथा । (५९२८) राजयोगः भानघातं तथा शूलं विनिहन्ति न संशयः ॥
अहिफेनं वत्सनागः केशरं चव्यचित्रकम् । निस्तुष (छिलके रहित ) ल्हसन ६। सेर,
धत्तरभृङ्गशिग्रूणां बीजानि सितजीरकम् ॥ तिल २० तोले तथा सांठ, मिर्च, पीपल, हींग,
| कपिकच्छुश्चाश्वगन्धा कलिङ्गकलवङ्गकम् । जवाखार, सज्जीखार, सोया, पांचो नमक ( सेंधा,
अजमोदार्ककरभो मुशली च शतावरी ॥ काला नमक (संचल), विड लवण, समुद्र लवण और काच लवण ), कूठ, पीपलामूल, चीता, अज
पिप्पली पिप्पलीमूलं चातुर्जातकसंयुतम् । मोद, अजवायन और धनिया; इनका चूर्ण ५-५
| कटाहे मधुना पक्त्वा कुर्यात्पूगोपमा वटीः । तोले लेकर ल्हसन और तिलेको एकत्र कूट कर | भोजनानन्तरं वक्ते गुटी धार्या घटीद्वयम् । उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर अच्छी जातीपत्री विशेषेण धारणीया मुखे सदा ॥ तरह कूटें और फिर सबको घृतके चिकने पात्रमें | क्षाराम्लदधिवजं च कार्य भोजनमुत्तमम् । भर कर अनाजके ढेरमें दबा दें।
पण्डत्वं स्वल्पवीर्यत्वं हन्याच्छीतसिवानलः ॥ १६ दिन बीत जाने पर औषधको निकाल | अतिसारे प्रमेहे च मन्दाग्नौ राजयक्ष्मणि । कर उसमें १-१ सेर तिल तैल और कांजी मिला आमवाते पाण्डुरोगे महावाते शिरोगदे ।। कर सुरक्षित रक्खें।
प्लीह्नि पानीयजे रोगे सर्वाङ्गवात इप्यते । मात्रा---२। तोला ।
ईश्वरेण भगवता कार्तिकेयाय सुन्दरः।। अनुपान----शीतल जल।
| एष द्वात्रिंशको नाम योगराजः प्रकीर्तितः ॥ इसे सेवन करनेसे समस्त वातज रोग, आम- अफीम, शुद्ध बछनाग, केसर, चव्य, चीता, वात, सोङ्ग वात, एकाग वात, अपस्मार, उन्माद, | धतरेके बीज, भांगके बीज, सहजनेके बीज, सफेद खांसी, श्वास, भग्नवात और शूल नष्ट होता है।
| जीरा, कौंच के बीज, असगन्ध, इन्द्रजौ, लौंग, रसोनपिण्ड (महा-वृहत् )
अजमोद, अकरकरा, मूसली, शतावर, पीपल, ( महा रसोनपिण्ड प्र. सं. ५१७३ देखिये ।)
पीपलामूल, दालचीनी, इलायची, तेजपात और रसोनवटकः
नागकेसर; इनका चूर्ण १-१ भाग लेकर सबको (वृ. नि. र.)
शहद में मिला कर लोहेकी कढ़ाई में मन्दाग्नि पर मिश्र प्रकरणमें देखिये।
पका कर बड़ी बड़ी गोलियां बना लें। .... रसोनाष्टकम्
इनमेंसे १-१ गोली भोजनोपरान्त २ घड़ी (वै. र. । वातव्या.) | पर्यन्त मुखमें रखनी चाहिये । तथा सदैव मुखमें रसोनकल्क प्र. सं. ५८५६ देखिये। । जावत्री रख कर उसका रस चूसते रहना चाहिये।
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३४६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि इसके सेवन कालमें क्षार, अम्ल, और राई, क्षीरविदारी, पीपल, ल्हसन, काली दहीसे परहेज़ करना तथा उत्तम पौष्टिक आहार | मिर्च, अतीस और लौंगका चूर्ण समान भाग लेकर करना चाहिये।
सबको एकत्र मिला कर भंगरे, आक, घीकुमार, इस प्रयोगसे स्वल्प वीर्यत्व और नपुंस्कता | संभालु, गोरख मुण्डी और चीतेके रसकी एक इस प्रकार नष्ट हो जाती है जिस प्रकार अग्निसे | एक भावना देकर (४-४ रत्तीकी ) गोलियां शीत ।
बना लें। इसके अतिरिक्त यह प्रयोग अतिसार, प्रमेह, . इनके सेवनसे श्वास और खांसीका नाश मन्दाग्नि, राजयक्ष्मा, आमवात, पाण्डु रोग, शिरो | होता है। रोग, प्लीहा, जल विकार और सींग वातको भी
रुजादलनवटी नष्ट करता है।
(र. रा. सु. । प्रमेह ; रसें. चि. म. । अ. ९) राजवल्लभगुटिका
रस प्रकरणमें देखिये । (र. का. धे. । आनाह.)
रुद्रवटी रस प्रकरणमें देखिये।
(र. का. धे. । कुष्ठा.) राजशेखरवटी
रस प्रकरणमें देखिये। (र. का. धे.। पाण्डु; र. चि. म. । स्त. ९)
(५९३०) रेचनीवटी रस प्रकरणमें देखिये।
( रस. चि. म. । स्तबक ९) राजशेखरवटी
| अभया चूर्णमादाय नूतनैर्जयपालकैः । (र. च. ; र. रा. सु. । अजीर्णा. ; र. र.
पश्चमांशैश्च मिलितैः स्नुहोदुग्वेन पाचितम् ॥ स.। अ. १८)
गुटिकास्तस्य कल्कस्य कर्तव्याष्टङ्कसम्मिताः । रस प्रकरणमें देखिये ।
गोल्यैकया गुणः प्रोक्तो रेचने उत्तमः खलु ॥ (५९२९) राजिकादिगुटी नोक्लेदो न च राहः स्यान्न च मूर्छा न च (व. नि. र. । श्वास कर्म.)
क्लमः। राजिका क्षीरकन्दश्च चपला च रसोनकम् ।
वेगतः सारयत्येषा विशेषादामनाशिनी ॥ ऊषणातिविषा देवकुसुमं च विचूर्णितम् ॥ ५ भाग हरके चूर्णमें १ भाग शुद्ध जमालमार्कवार्ककुमारीभिर्निर्गुण्डीमुण्डीचित्रकैः। गोटा मिला कर दोनोंको स्नुही (सेहुंड) के दूधमें भावयित्वा पृथक् सर्वैः श्वासकासनिकृन्तनम्॥ पका कर ४--४ माशेको गोलियां बना लें।
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गुग्गुलुप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः इनमेंसे १ गोली खानेसे बिना उत्क्लेश, मूर्छा | ( व्यवहारिक मात्रा-२ रत्ती ।) और क्लम आदिके वेग पूर्वक उत्तम विरेचन
रोगेभसिंहवटी हो जाता है।
( र. रा. सु. । वाता.) ये गोलियां विशेषतः आमनाशक हैं। रस प्रकरणमें देखिये ।
इति रकारादिगुटिकाप्रकरणम्
- - अथ रकारादिगुग्गुलुप्रकरणम् रसगुग्गुलुः
(५९३२) रास्नाद्यो गुग्गुलु: (२) ( भै. र. । उपदंशा.) | (यो. र.; र. र. । कर्ण.; यो. त. । त. ४०; ग. रस प्रकरणमें देखिये ।
नि. । गुटिका. ४; यो. र. ; वृ. नि. र. । रसाभ्रगुग्गुलुः
वातव्या.; वृ. यो. त. । त. १३१, ९० ) ( भै. र. । वातरक्ता.)
रास्नामृतैरण्डमुराहविश्व रस प्रकरणमें देखिये । (५९३१) रास्नाद्यो गुग्गुलुः (१)
तुल्यं पुरेणाथ विमृद्य खादेत् ।
वातामयीकर्ण शिरोगदी च (ग. नि. । वाता. १९; वृ. नि. र. ; वृ. मा. ; यो. र.; र. र. । वातव्या.; वृ.यो. त. । त. ९०)
नाडीयुतश्चैव भगन्दरी च ॥ रास्नायास्तु पलं चैकं कर्षान् पश्च च गुग्गुलोः। रास्ना, गिलोय, अरण्डमूल, देवदारु और सर्पिषा वठकान् कृत्वा खादेवा गृध्रसीहरान् । सेठ, सबका चूर्ण १-१ भाग तथा शुद्ध गूगल ___ रास्नाका चूर्ण ५ तोले और शुद्ध गूगल ६। | सबके बराबर ( ५ भाग ) ( एवं आवश्यकतातोले लेकर दोनोंको एकत्र मिला कर उसमें आव- नुसार घी) ले कर सबको एकत्र मिलाकर कूटें । श्यकतानुसार घी डालकर कूटें।
इसे सेवन करनेसे वात रोग, कर्ण रोग, शिरो इसके सेवनसे गृध्रसी नष्ट होती है। रोग, नाड़ी ब्रण और भगन्दरका नाश होता है। ( मात्रा--१॥-२ माश।)
( मात्रा--१५-२ माशा ।) (अनुपान--उष्ण जल ।)
(अनुपान--उष्णजल । ) इति रकारादिगुग्गुलुप्रकरणम्
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भारत-भैपज्य-रत्नाकरः
- [रकारादि
अथ रंकाराद्यवलेहप्रकरणम् (५९३३) रक्तप्रवाहिकान्तकलेहः । (५९३५) रसोनपाकः (१) (यो. त. । त. ७७.)
- (लशुनपाकः) लेहस्तैलसिताक्षौद्रतिलयष्ट्याह कल्कतः । (वृ. नि. र. । वातव्या.) बालस्य रुन्ध्यान्नियतं रक्तस्त्रावं प्रवाहिकाम् ॥ निस्तुपं लशुनं प्रस्थं क्षीरकुम्भे पचेत्सुधीः ।
मिश्री, तिल और मुलैठीके कल्कमें तिलका घृतं पलचतुष्कं च पचेच्च मृदुवदिना ॥ तेल और शहद मिला कर अवलेह बनावें । सुनिष्पन्नो मधुनिभो खण्डं प्रस्थद्वयं क्षिपेत् ।
यह लेह बालकांकी रक्तप्रवाहिकाको नष्ट यूपणं च चतुर्जातं ग्रन्थिकं चव्यचित्रकम् ।। करता है ।
विडङ्ग रजनीयुग्मं हपुषा वृद्धदारुकम् । (५९३४) रजन्यादिलेहः
पौष्करं दीप्यपुष्पं च सुरदारु पुनर्नवा ॥ (ग. नि. । बालरोगा. ११)
श्वदंष्ट्रा निम्बरास्ना च शतपुष्पा वरी सठी।
अश्वगन्धात्मगुप्ता च द्रव्याणि पिचुमात्रया ॥ रजनीदारुसरलश्रेयसीबृहतीद्वयम् । पृष्ठिपर्णी शताता च लीढं माक्षिकसर्पिषा ॥
शुक्रे यथावलं सेव्यं रसोनाख्यं रसायनम् । ग्रहणीदीपनं श्रेष्ठं मारुतस्यानुलोमनम् ।।
सर्वान्वातामयान् शूलमपस्मारमुरः क्षतम् ॥ अतीसारज्वरश्वासकामलापाण्डुरोगजित् ॥
| गुल्मोदरवमिप्लीहवमंद्धिकृमीन जयेत् । बालानां सर्वरोगेषु पूजितं बलवर्णदम् ॥
विबन्धानाह शोफांश्च वहिमान्य बलक्षयम् ॥ .. हल्दी, देवदारु, सरल (चीर), हर्र, दो प्रका- हिक्कां श्वासं च कासांश्च अपतन्त्रकमेव च । रकी कटेली, पृश्निपर्णी और सौंफ; सबका समान | धनुर्वातं तथा यामं पक्षघातापतानकम् ॥ भाग चूर्ण लेकर शहद और धीमें मिलाकर अवलेह | अर्दिताक्षेपकं कुब्ज हनुग्रहशिरोग्रहम् । बनावें।
विश्वाची गृध्रसी खल्ली पङ्गुवातं च सन्धिजम् ।। ___ यह अवलेह ग्रहणीको दीम और वायुको बाधिये सर्वशूलं च नाशयेदतिवेगतः । अनुलोम करतो तथा अतिसार, ज्वर, श्वास, वातव्याधिगजन्द्रस्य कसराव कृतः शुभः ॥ कामला, पाण्डु आदि समस्त बाल रोगांको नष्ट | कफव्याधिप्रशमनो बलपुष्टिकरः स्मृतः ॥ करता है।
.
१ प्रस्थ छिलके रहित ल्हसनको पीस कर रतिवल्लभपूगपाकः
१ कुम्भ (६४ सेर) दूधमें मिलाकर उसमें ४० (यो. र.; वृ. यो. त..) तोले घी मिलावें और फिर सबको मन्दाग्नि पर रस प्रकरणमें देखिये।
पकावें । जब पकते पकते शहदके समान गाढ़ा
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अवलेहप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः
३४९
हो जाय तो उसमें २ सेर खांड मिला दें एवं जब | सितया भक्षयेन्मात्रामाढयवाते हनुग्रहे । . पाक लगभग तैयार हो जाय तो उसमें सोंठ, मिर्च, | आक्षेपकादिभग्ने च कटयूरुस्तम्भहृद्महे ।। पीपल, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर, सर्वाङ्गे सन्धिभङ्गे च वातजाशीतिरोगिणः। पीपलामूल, चव, चीता, बायबिडंग, हल्दी, दारु- | पथ्यो लशुनपाकोयं वर्णायुः पुष्टिकारकः ॥ हल्दी, हपुपा, विधारा, पोखरभूल, अजवायन,
१ प्रस्थ छिलके रहित ल्हसनको रातको लौंग, देवदारु, पुनर्नवा, गोखरू, नीमकी छाल,
तक्रमें डाल दें और दूसरे दिन प्रातः तक्रसे निकारास्ना, सोया, सतावर, कचूर, असगन्ध और कौंचके
लकर (धो कर ) पीस लें। बीज; इनका ११-१। तोला चूर्ण मिला दें।।
. तदनन्तर उस ल्हसनको ८ सेर दूधमें पकावें इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे
और गाढ़ा हो जाने पर उसमें ४० तोले धी समस्त वातज रोग, शूल, अपस्मार, उरःक्षत,
मिला दें। जब पाक लगभग तैयार हो जाए तो गुल्म, उदर रोग, वमन, प्लीहा, वर्म, वृद्धि, कृमि,
उसमें रास्ना, शतावर, बासा, गिलोय, कचूर, सोंठ, विबन्ध, आनाह, शोथ, अग्निमांद्य, बलक्षय; हिचकी,
देवदोरु, विधारा, अजवायन, चीता, सोया, पुनश्वास, खांसी, अपतन्त्रक, धनुर्वात, बहिरायाम,
र्नवा, हर्र, बहेड़ा, आमला, पीपल और बायबिअन्तरायाम, पक्षाघात, अपतानक, अर्दित, आक्षेप,
इंगका ११-१ तोला चूर्ण मिलावें एवं पाकके कुब्ज, हनुग्रह, शिरोग्रह, विश्वाची, गृध्रसी, खल्ली
| ठण्डा हो जानेपर उसमें ४० तोले शहद मिलाकर शूल, पङ्गुवात, सन्धिवात, बधिरता और समस्त
सुरक्षित रक्खें । शूल इत्यादि वातज रोग एवं कफज रोग नष्ट होते और बल बढ़ता तथा शरीर पुष्ट होता है।
___ इसमें मिश्री मिला कर यथोचित मात्रानुसार
सेवन करनेसे आढ्यवात, हनुग्रह, आक्षेपक, भग्न, (५९३६) रसोनपाकः (२) (लशुनपाकः)
कटिस्तम्भ, उरुस्तम्भ, हृद्ग्रह, सर्वाङ्ग वात, सन्धि
। भङ्ग, और अस्सी प्रकारके वातज रोग, नष्ट होते (वृ. नि. र. । वातव्या. ; यो. चि. म. । अ. ७.) |
तथा वर्ण, आयु और पुष्टिको वृद्धि होती है। तेषग्रगन्धनाशाय रात्रौ तक्रे विनिःक्षिपेत् । । प्रातनिष्कास्य तस्पिष्वा ततो दुग्धे विपाचयेत॥ (५९३७) राजरसायनम् । निस्तुषं लशुनं प्रस्थं क्षीरं प्रस्थचतुष्टयम् ।
(व. से. । नासा.) विपाच्य सान्द्रीभूतेस्मिन् सर्पिपः कुडवं क्षिपेत्।। चित्रककषायपलशतममृताजातीरसञ्च तुल्यांशम् रास्ना वरी वृषा छिन्ना शठी विश्वा सुरद्रुमम् । प्रक्षिप्य गुडशतश्च द्विपञ्चमूलोकषायेण ।। वृद्धदारुकदीप्याग्निशताहा सपुनर्नवा ॥ तत्तुल्येन च हरीतक्याढकमेकं विपाच्य गुडफलत्रयं पिप्पली च कृमिन्नः कर्षसम्मितम् ।
पाकम् । विचूर्ण्य शीते मधुनः कुडवं तत्र योजयेत् ।। अर्द्धमस्थं मधुनस्तस्मिन् दद्यात्ततो वैद्यः॥
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३५०
द्वे द्वे पले निदध्यालात्वक्पत्रत्रिकटुकानाम् । यत्रक्षारादर्द्धपलं प्रयोजयेदग्निवर्द्धनं पुंसाम् || एतद्रसायनोत्तममश्विभ्यां निर्मितं सुविख्यातम् । उपयुक्तत्रतां पुंसां चणकाष्ठान्यपि च जीर्य्यति अजितमपि भेषजरातैः पीन सरोगं त्र्यहाज्जयति । नृपतिरसायनमेतदाहारयन्त्रणारहितञ्च ॥
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
चीतामूलका काथ १२|| सेर, गिलोयका काथ १२॥ सेर, चमेलीका रस १२॥ सेर, दशमूलका काथ १२ ॥ सेर, गुड़ ६ | सेर और हर्रका चूर्ण ४ सेर ले कर सबको एकत्र मिलाकर मन्दाग्निपर पकावें । जब गुड़के समान गाढ़ा हो जाय तो उसमें इलायची, दालचीनी, तेजपात, सेठ, मिर्च तथा पीपलका चूर्ण १० - १० तोले और २ ॥ तोले जवाखार मिला दें। जब पाक तैयार हो जाय तो उसे अग्निसे नीचे उतार कर ठण्डा करके उसमें १ सेर शहद मिला दें
1
राजावतवलेहः
(र. रा. सु. । प्रमेह . ) रस प्रकरणमें देखिये ।
यह अवलेह अत्यन्त पाचक है और सैकड़ों औषधे आराम न होने वाली पीनस इससे ३ दिनमें ही नष्ट हो जाती है ।
इस पर किसी विशेष परहेज़की आवश्यकता
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(५९३८) रोहितकावलेहः
(ग.नि. । लेहा. ५ )
treat शतं रोहित कलानां पथ्याशतं माहिषमूत्रमग्नौ । पादावशेषं तु सपञ्चकोलेरूद्धृत्य मूत्र सह दन्तिनीभिः || भूयः पचेद्यावदुपैति लेहः
पथ्याद्वयं नित्यमथोपयुज्य । परचालिल्लेsहितं हिताशी प्लीहोदरं हन्ति यच्च शीघ्रम् ॥
[रकारादि
६ | सेर रहेकी छाल और १०० हरौको आठ गुने सके मूत्र में पावें; जब चौथा भाग शेष रहे तो छान कर उस काथमें उपरोक्त १०० हरें और पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सेठ और दन्तीमूलका चूर्ण मिला कर पुनः पकावें । जब गाढ़ा हो जाय तो उतार लें ।
इसमें नित्य प्रति २ हर्र खाकर अवलेह चाटना चाहिये ।
इति रकारायवलेह प्रकरणम्
इसके सेवन से लीहोदर और यकृतोदर शीत्र हो जाता है ।
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घृनप्रकरणम् ]
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चतुर्थी भागः
अथ रकारादिघृतप्रकरणम्
(५९३९) रजनीत्रिफलाघृतम्
(व. से. । पाण्डु. )
रजनीक्वाथकल्काभ्यां घृतं पाण्डामयापहम् । त्रिफला कल्कगोमूत्र सिद्धं वा माहिषं घृतम् ॥ हल्दी के काथ और कल्कसे घृत सिद्ध करके
रक्खें ।
यह घृत पाण्डुको नष्ट करता है ।
( काथार्थ --- हल्दी १ सेर, पाकार्थ जल ८ सेर । शेष काथ २ सेर ।
कल्कार्थ – हल्दी चूर्ण १० तोले । घी ४० तोले । )
त्रिफलाके कल्क और गोमूत्र के साथ सिद्ध किया हुवा भैंसका घी भी पाण्डुको नष्ट करता है। ( त्रिफलाका कल्क २० तोले । भैंसका घी २ सेर । गोमूत्र ८ सेर | )
(५९४०) रसोनाद्यं घृतम् (च. द. । गुल्मा. २९ ) रसोनवरसे सर्पिः पञ्चमूलरसान्वितम् । सुरारनालद्ध्यम्लमूलकस्त्ररसैः सह || व्योषदाडिमवृक्षाम्लयमानीचन्यसैन्धवैः । हिग्वम्लवेतसाजाजी दीप्यकैश्च पलान्वितैः सिद्धं गुल्मग्रहण्यर्शः श्वासोन्मादक्षयज्वरान् । कासाsपस्मार मन्दाग्निप्लीहशूला निलाञ्जयेत् ॥
कल्क-सांठ, मिर्च, पीपल, अनार दाना, तिन्तड़ीक, अजवायन, चव, सेंधा नमक, होंग,
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३५१
अम्लबेत, जीरा और अजवायन प्रत्येक ५-५ तोले लेकर सबको एकत्र पीस लें ।
द्रव पदार्थ --- ल्हसनका स्वरस ६ सेर, बृहत्पञ्चमूलका काथ ६ सेर ( पञ्च मूल ३ सेर, पानी २४ सेर, शेष ६ सेरे), सुरा ६ सेर, आरनाल ( कांजी) ६ सेर, खट्टी दही ६ सेर और मूलीका स्वरस ६ सेर |
विधि-- ६ सेर घीमें उपरोक्त कल्क और समस्त द्रव पदार्थ मिला कर पकावें । जब द्रवांश जल जाए तो घीको छान लें।
इसके सेवन से गुल्म, ग्रहणी, अर्श, श्वास, उन्माद, क्षय, ज्वर, खांसी, अपस्मार, अग्निमांद्य, प्लीहा, शूल और वायुका नाश होता है ।
(५९४१) रास्नादिघृतम् (१)
( व. से. । वातव्या . ) रास्नापुष्करविल्वाग्निशिग्रुसैन्धवगोक्षुरैः । कृष्णां पिष्ट्वा पचेत्सर्पिः कृत्स्नं वातार्तिनाशनम्
रास्ना, पोखरमूल, बेलकी छाल, अरनी, सहजनेकी छाल, सेंधा नमक, गोखरु और पीपल के ककके साथ घी पका कर रक्खें ।
इसके सेवन से समस्त वातज रोग नष्ट होते हैं ।
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( प्रत्येक वस्तु ५ तोले । घी ४ सेर । पानी १६ सेर | )
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३५२
भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[रकारादि
(५९४२) रास्नादिघृतम् (२) कल्क-सारिवा, सोंठ, मिर्च, पीपल, चीतो,
( ग. नि. । राजयक्ष्मा. ९) पाठा, बायबिडंग, मुलैठी, क्षीरकाकोली, हींग, रास्नाबलागोक्षुरकस्थिरावर्षाभूसाधितम् ।
देवदारु, पीपलामूल और इन्द्रजौ; सब समान
भाग मिश्रित १० तोले (प्रत्येक ९। माशे) ले कर जीवन्तीपिप्पलीगर्भ सक्षीरं शोषजिघृतम् ॥
सबको एकत्र पीस लें। काथ--रास्ना, खरैटीकी जड़, गोखरु, शालपर्णी और पुनर्नवा, १६-१६ तोले लेकर सबको
१४ - विधि-१ सेर धीमें कथि और कल्क मिला अधकुटा करके ७ सेर पानीमें पकावें और जब २
कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब क्वाथ जल जाए तो
| घीको छान लें। सेर पानी शेष रहे तो छान लें।
यह घृत बच्चोंके लिये हितकारी है । इसके कल्क--जीवन्ती और पीपल २॥२॥ तोले
| सेवनसे बालकोंके समस्त ग्रह नष्ट होते, तथा अग्नि लेकर एकत्र पीस लें।
दीप्त और बल वर्णकी वृद्धि होती है । - आधा सेर घीमें आधा सेर दूध और उपरोक्त क्वाथ तथा कल्क मिला कर पकावें । जब पानी (५९४४) रास्नाद्यं घृतम् (१). जल जाए तो घीको छोन लें।
(व. से. । नेत्र रोगा.) इसके सेवनसे शोष नष्ट होता है। रास्नाफलत्रयक्वाथे दशमूले च तत्कृते ।
| कल्के च जीवनीयानां घृतं तिमिरनाशनम् ॥ (५९४३) रास्नादिघृतम् (३)
रास्ना, त्रिफला और दशमूलके क्वाथ तथा ( वा. भ. । उ. अ. ३ बाल रोगा.)
जीबनीय गणके कल्कके साथ घृत सिद्ध करें। रास्नाद्वयंशुमतीद्धपञ्चमूलवचाघनात् ।
___ यह घृत तिमिर नामक नेत्र रोगको नष्ट क्वाथे सर्पिः पचेत्पिष्टैः सारिवाव्योषचित्रकैः॥ पाठाविडङ्गमधुकपयस्याहिङ्गुदारुभिः।
(काथ ८ सेर, धी २ सेर, कल्क २० तोले।) सग्रन्थिकैः सेन्द्रयवैः शिशोस्तत्सततं हितम् ॥ सर्वरोगग्रहहरं दोपनं बलवर्णदम् ॥
नोट-जीवनीय गण जकारादि क्वाथ प्रकरण में
देखिये । काथ-दो प्रकारकी रास्ना, शालपर्णी, बेलछाल, सोनापाठा छाल, खम्भारी छाल, पाढलकी
(५९४५) रास्नाद्यं घृतम् (२) छाल, अरणी बच और नागरमोथा १६-१६ तोले (व. से. । कासा. ) ले का सबको अधकुटा करके १६ सेर पानीमें द्रोणेऽपां साधयेद्रास्नां दशमूली शतावरीम् । पकावें । जब ४ सेर पानी शेष रहे तो काथको | पलिका मानिकांशांस्त्रीन्कुलित्थान्वदरान् छान लें।
यवान् ॥
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घृतप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
तुलाई राजमाषस्य पादशेषेण तेन तु । रास्ना, असगन्ध, काकोली, क्षीरकाकोली, घृताढकं समक्षीरं जीवनीयैः पलोन्मितः॥ मुद्गपर्णी, बायबिडंग, जीरा और ऋषभक २०सिद्धं तद्दशभिः कल्कैः नस्यपानानुवासनैः।। २० तोले लेकर सबको १६ सेर पानोमें पकावें समीक्ष्य वातरोगेषु यथावस्थं प्रयोजयेत् ॥ और जब ४ सेर पानी शेष रहे तो छान लें। पश्चकासाञ्छिरः कम्पं शूलं वंक्षणयोनिजम् । इसमें १ सेर घी मिला कर मंदाग्नि पर सर्वाङ्गकाङ्गरोगांश्च सप्लीहोवोनिलं जयेत् ॥ पकावें और जब पानी जल जाए तो घीको
क्वाथ–रास्ना, दशमूलकी प्रत्येक ओषधि, छान लें। और शतावर ५-५ तोले; कुलथी, बेर और जौ |
बच्चोंके शिर पर इसकी मालिश करनेसे वे आधा आधा सेर तथा लोबिया ३ सेर १० तोले | लेकर सबको अधकुटा करके ३२ सेर पानीमें
पुष्ट होते हैं। पकावें और जब ८ सेर पानी शेष रहे तो (५९४७) रास्नाद्यं घृतम् (४) छान लें।
(वा. भ. । अ. २१) कल्क-जीवनीय गणकी प्रत्येक ओषधि
रास्नामहौषधद्वीपिपिप्पलीशठिपौष्करम् । ५-५ तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें।। विधि-८ सेर घीमें उपरोक्त काथ, कल्क
पिष्ट्वा विपाचयेत्सर्पिर्वातरोगहरं परम् ॥ तथा ८ सेर दूध मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । | रास्ना, सोंठ, चीता, पीपल, कचूर और जब जलांश शुष्क हो जाय तो घीको छान लें। पोखरमूल ५-५ तोले लेकर सबको एकत्र ___इसे वातज रोगोंमें रोगीकी अवस्थानुसार
| पीस लें। नस्य, पान अथवा अनुवासन द्वारा प्रयुक्त करना ३ सेर घीमें यह कल्क और १२ सेर पानी चाहिये।
मिला कर पकावें । जब पानी जल जाय तो घीको इसके सेवनसे पांच प्रकारकी खांसी, शिरका छान लें। कांपना, वंक्षण शूल, योनि शूल, सर्वाग वायु,
यह घृत वातज रोगोंको नष्ट करता है । एकांग वायु, प्लीहा और ऊर्व वातका नाश होता है।
(५९४८) रास्नाद्यं घृतम् (५) (५९४६) रास्नाद्य घृतम् (३)
(वृ. नि. र. । वातव्या.) (व. से. । बालरोगा.) रास्नापौष्करशिगुमूलदहनं सिन्धूत्थगोक्षुरकम् । रास्नाश्वगन्धाकाकोलीपयस्यामुद्पणिभिः। पिष्ट्वा पिप्पलिसंयुतं चलगदे पेय रादा सका। विडङ्गजीरकाभ्याश्च घृतमृषभकेण च ॥ सम्पाच्याथ चतुर्गुणेन पयसा वा वाजिगन्धायुतम शिशूत्तमाङ्गनियूहे सिद्धं पुष्टिविवर्द्धनम् ॥ । सर्पिः पेयमसाध्यवात्गदजे शुक्रक्षये दारुणे ॥
रास्ता
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[रकारादि
रास्ना, पोखरमूल, सहजनेकी छाल, चीता, क्वाथ-रास्ना, असगन्ध, कौंचके बीज, भुईसेंधा, गोखरु और पीपल समान भाग लेकर चूर्ण | कुम्हेड़ा, गोखरु, शालपर्णी, गिलोय, अरण्डमूल, बनावें।
खरैटी, सोया और पुनर्नवा २५-२५ तोले लेकर इसे धीमें मिला कर पीनेसे वातज रोग नष्ट | सबको एकत्र कूटकर ३२ सेर पानीमें पकायें और होते हैं।
जब ८ सेर पानी शेष रहे तो उसे छान लें। __ अथवो उपरोक्त समस्त ओषधियां और अस- कल्क ---अष्टवर्गकी प्रत्येक ओषधि ५-५ गन्ध ५-५ तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें तोले लेकर सबको एकत्र पीस लें ।
और फिर ४ सेर घीमें यह कल्क तथा-१६ सेर विधि--२ सेर घी या अरण्डके तेलमें उपरोक्त दूध मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब दूध जल | क्वाथ और कल्क तथा २ सेर शतावरका रस जाए तो घीको छान लें।
मिलाकर पकावें । जब पानी जल जाए तो इसके सेवनसे असाध्य वातव्याधियां और छान लें। भयंकर शुक्रक्षय रोगका नाश होता है।
नोट-उपरोक्त कल्कके स्थानमें ४० तोले (५९४९) रास्नाद्यं घृतं तैलञ्च | शुद्ध गूगल भी डाल सकते हैं।
| (र. र. । शूला.)
___इस घृत अथवा तैलके सेवनसे एक दोषज,
| द्विदोषज, और सर्व दोषज आमवात, पार्वशूल, रास्नाश्वगन्धा कपिकच्छुभूमिकूष्माण्डगोकण्टकशालपर्णी।
हृदयशूल, कटिशूल, पादशूल, मन्याशूल और छिन्नारुहैरण्डबलाशताहा
सन्धीशूल नष्ट होता है । पुनर्नवानां विधिनोद्धतानाम् ॥
. (५९५०) रोहिण्यादिघृतम् (१) प्रत्येकशः पञ्चपलं गृहीत्वा
(च. सं. । चि. स्था. ६ अ. ५) पचेयटेऽपां कृतपादशेषे ॥ रोहिणीकटुका निम्बं मधुकं त्रिफलात्वचः । शतावरीरसं पूतं दत्वात्रालपोडशम् । कार्षिका त्रायमाणा च पटोला त्रिता पले ॥ घृतप्रस्थं विपक्तव्यं तैलमेरण्डमेव वा ॥ द्विपलश्च ममूराणां साध्यमष्टगुणेऽम्भसि । दत्त्वाष्टवर्गकल्कञ्च गुग्गुलोर्वा पलाष्टकम् । घृताच्छेषं घृतसमं सर्पिषश्च चतुष्पलम् ॥ सिद्धं घृतं च तैलं वा दद्याद्वातगदातुरे ॥ पिवेत् सम्मूर्छितं तेन गुल्मः शाम्यति पैत्तिकः। एक द्वन्द्वजं चैव सर्वगश्च विशेषतः।। | ज्वरस्तृष्णा च शूलं च भ्रममूर्छारुचिस्तथा ॥
आमवातं गदं हन्ति घृतमेतदनुत्तमम् ॥ क्वाथ-—कुटकी, नीमकी छाल, मुलैठी, हर्र, पार्श्वशूलञ्च हृच्छ्रलं कटिशूलश्च नाशयेत् ।। बहेड़ा, आमला और त्रायमाणा ११-१। तोला पादमन्याभिसन्धीनां शूलं हन्ति न संशयः॥ । तथा पटोल और निसोत १०-१० तोले एवं
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घृतंपकरणम् ]
चतुर्थों भागः
३५५
मसूर १० तोले लेकर सबको अधकुटा करके २ / घृतपस्थं समावाप्य छागक्षीरं चतुर्गुणम् । सेर पानी में पकावें और जब आधा सेर पानी शेष | तस्मिन् दद्यादिमान् कल्कान् सर्वीस्तानक्षसरहे तो छानकर उसमें आधी सेर घी मिलाकर
म्मितान् ॥ मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाए तो ब्योपं फलत्रिकं हिंङ्ग यमानी तुम्बरु बिडम् । घीको छान लें।
अजाजी कृष्णलवणं दाडिमं देवदारु च ॥ - इसके सेवनसे पैतिक गुल्म, ज्वर, तृष्णा,
a | पुनर्नवा विशाला च यवक्षारं सपौष्करम् । शूल, भ्रम, मूर्छा और अरुचिका नाश होता है ।
विडङ्गं चित्रकञ्चव हवुधा चविका वचा ।
एभिघृतं विपकन्तु स्थापयेद्भाजने शुभे । (५९५१) रोहिण्यादिघृतम् (२)
द्वितोलकमितां मात्रां व्याधि बलमवेक्ष्य च ॥ (वृ. नि. र. । बालरोगा.) रसकेनाथ यूषेण पयसा वापि भोजयेत् । रोहिणीनिम्बखदिरपलाशककुभत्वचः । उपयुक्तघृते त्वस्मिन् व्याधीन् हन्यादिमान् निःक्याथ्य तस्मिन्निःक्वाथे सक्षीरं विपचेद
बहून् ॥ यकृष्लीहोदरश्चैव प्लीहशूलं यकृत्तथा । ..
. घृतम् ।। कुटकी, नीमकी छाल, खैरसार, पलाशकी
कुक्षिशूलश्च हृच्छूलं पावशूलमरोचकम् ॥
विबन्धशूलं शमयेत्पाण्डुरोगं सकामलम् । छाल और अर्जुनकी छाल १६--१६ तोले लेकर
छईयतीसारशूलनं तन्द्राज्वरविनाशनम् ॥ सबको ८. सेर पानीमें पकायें और जब २ सेर |
| महारोहीतकं नाम प्लीहानं हन्ति दारुणम् ॥ पानी शेष रहे तो छान लें।
काथ---(१) १०० पल (६। सेर) रुहेड़ेकी . आधा सेर घीमें यह क्वाथ और आधा सेर । छालको ३२ सेर पानीमें पकावें और ८ सेर पानी दूध मिलाकर पकावें । जब घृत मात्र शेष रह | शेष रहने पर छान लें। जाए तो छान लें।
(२) ४ सेर बेरांको ३२ सेर पानीमें पकावे यह घृत बालकोंके लिये हितकारी है। और ८ सेर शेष रहने पर छान लें।
(५९५२) रोहितकघृतम् (१) कल्क- सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, ( भै. र. ; च. द. ; र. र. । प्लीहा. ; वं. से.; आमला, हींग, अजवायन, तुम्बरु, बिंड नमक, वृ. मा. ; वृ. नि. र. । उदरा. ; वृ. यो. त.।
जीरा, काला नमक, अनार दाना, देवदारु, पुनर्नवा त. १०५; ग. नि. । घृता.)
इन्द्रायणकी जड़, जवाखार, पोखरमूल, बायबिडंग, रोहीतकात्पलशतं क्षोदयेद्वदराढकम्। १ अजाजीकुष्ठलवणमिति पाठान्तरम् । साधयित्वा जलद्रोणे चतुर्भागावशेषितम् ॥ २ कारवीति पाठान्तरम् ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
चीतामूल, हघुमा, चव और बच, प्रत्येक ओषधि कोलद्विप्रस्थसंयुक्तं कषायमुपकल्पयेत् ॥ ११-१। तोला लेकर सबको एकत्र पीस लें। पालिकैः पञ्चकोलैस्तु तैः सर्वेश्चापि तुल्यया।
विधि--२ सेर धीमें उपरोक्त काथ तथा कल्क | रोहीतकत्वचापिष्टैः घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ और ८ सेर बकरीका दूध मिला कर पकावें । जब प्लीहातिद्धिं शमयत्येतदाशु प्रयोजितम् । जलांश शुष्क हो जाय तो घृतको छान लें। तथा गुल्मोदरश्वास क्रिमिपाण्डुत्व कामलाः ।। मात्रा--२ तोले ।
क्वाथरुहेडेकी छाल २५ पल ( १२५ अनुपान--- यूप अथवा दूध ।
तोले ) और बेर २ सेर लेकर दोनोंको अधकुटा इसके सेवनसे यकृत, प्लीहोदर, प्लीहशूल,
| करके आठ गुने पानीमें पकावें और चौथा भाग यकृच्छूल, कुक्षिशूल, हृच्छूल, पार्श्वशूल, अरुचि,
शेष रहने पर छान लें। विबन्ध, पाण्डु, कामला, छर्दि, अतिसार, तन्द्रा और ज्वरका नाश होता है।
कल्क---पीपल, पीपलामूल, चव्य, चीता और . नोट--मूल पाठमें अनुपानमें मांसरस भी सोंठ ५-५ तोले तथा रुहेड़ेकी छोल २५ तोले लिखा है; परन्तु जो मांसाहारी नहीं हैं उनके । लेकर सबको एकत्र पीस लें। लिये उसकी आवश्यकता नहीं है।
२ सेर धीमें उपरोक्त काथ तथा कल्क मिला (५९५३) रोहितकघृतम् (२) कर मन्दाग्नि पर पकावें और जब क्वाथ जल जाय ( वा. भ. । चि. अ. १५; ग. नि. । घृता. १; | तो घीको छान लें। च. सं. । चि. ६ अ. १८; भै. र. । प्लीहा.; | यह घृत अत्यन्त प्रवृद्ध प्लीहोको शीघ्र ही व. से. । उदररोगा.; च. द. । प्लीहा. नष्ट कर देता है। इसके अतिरिक्त यह गुल्म, ३८; १. मा.)
श्वास, क्रिमि, पाण्डु और कामलामें भी गुणरोहीतकत्वचः कृत्वा पलानां पञ्चविंशतिम् । । कारी है।
इति रकारादिघृतपकरणम्
अथ रकारादितैलप्रकरणम् (५९५४) रतिवल्लभाख्यं तेलम्त गरैलवालुकबोलकुष्ठपतङ्गभृङ्गलवङ्गकैः
( वृ. यो. त. । त. १७४) रजनीशवीरणमूलपीतपटीरयोजनवल्लिभिः ॥ सितचन्दनागरुकुङ्कुमामरदारुसिडकसारिवा- दलनागकेसरजातिकोशमुरासठीबहुलानखैमृगनाभिरक्तपटीरवालकमुस्तकुन्दुरुधान्यकैः। झलिकाविडालजटावचावरशीघ्रजातिफलैरपि ।
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तैलप्रकरणम् ]
मृदुपेषितैस्तिलजं चतुर्दधिवारिधारिजतूदकेन समेन साधु विपाचयेदिदमाख्यया रतिवल्लभम् ॥
चतुर्थो भागः
रतिवल्लभस्य विलेपनादचिरेण पञ्चशरप्रभatsara नरो चिरप्यवलो बली भवतीन्द्रवत् मन्थरपदागणेन न तुष्यति प्रसभं रतौ शतहायनोऽपि समीर पित्तकफामयेन समुज्झितः
कल्क --- सफेद चन्दन, अगर, केसर, देवदारु, सिल्हक, शारिवा, कस्तूरी, लाल चन्दन, सुगन्धवाला, नागरमोथा, कुन्दरु, धनिया, तगर, एलबालुक, बोल, कूठ, पतङ्ग काठ, दारचीनी, लौंग, कपूर, खस, पीला चन्दन, मजीठ, तेजपात, नागकेसर, जावत्री, मुरामांसी, कचूर, इलायची, नख नामक सुगन्ध द्रव्य, सुपारी, खट्टासी ( जुन्द बेदस्तर ), जटामांसी, बच, केसर, पीली खस और जायफल प्रत्येक २ तोले २ माशे लेकर सबको एकत्र पीसकर बारीक कल्क बनावें ।
८ सेर तिलके तेल में यह कल्क, ३२ सेर दही और ८-८ सेर नागरमोथेका काथ तथा लाखका पानी मिला कर पकायें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो तेलको छान लें ।
इसकी मालिशसे पुरानी नपुंस्कता भी नष्ट जाती और कामशक्ति अत्यधिक बढ़ जाती है । (५९५५) रसाञ्जनाद्यं तैलम्
( व. से. । नासो रोगा . ) रसाने सातिविषे मुस्तायां देवदारुणि । तैलं विपक्वं नस्यार्थे विदध्याच्चात्र बुद्धिमान् ॥
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३५७
कल्क--- रसौत, अतीस, नागरमोथा, और देवदारु ५-५ तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें ।
काथ --- उपरोक्त प्रत्येक वस्तु १ सेर लेकर सबको अधकुटा करके ३२ सेर पानी में पकावें और जब ८ सेर पानी शेष रहे तो छान लें।
२ सेर तेल में यह कल्क और काथ मिला कर मंदाग्नि पर पकायें । जब पानी जल जाए तो तेलको छान लें ।
इसकी नस्यसे प्रतिश्याय नष्ट होता है । (५९५६) रसोनतैलम्
( व. से.; वृ. मा. । वाता.; ग. नि. । वाता. १९; च. द. । वतिव्या. २२ ) रसोनकल्कस्वरसेन पक्वं तैलं पिबेद्यस्त्वनिलामयातः । तस्याशु नश्यन्ति हि वातरोगा
ग्रन्था विशाला इव दुर्गृहीताः ॥ लहसन के कल्क और स्वरसके साथ तैल सिद्ध करें ।
इसे पीने से वातज रोग शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ।
( ल्हसनका कल्क १० तोले । तेल १ सेर । लहसनका स्वरस ४ सेर | )
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(५९५७) रसोनाद्यं तैलम् ( वृ. नि. र. । आमवाता. ) दधिमस्तु क्षीरपतकामाषपिष्टकम् । लशुनस्य तुलामेकां जलद्रोणे विपाचयेत् ॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
- [रकारादि
चतुर्भागावशेषं तु कर्षयेदवतारयेत् । संकर्ण्य विधिना तैलं वृशिष्णं च लेपयेत् ॥ तत्कायं परिश्राव्य विपचेत्ताम्रभाजने ॥ षण्डत्वनाशनं ज्ञेयं वृषणबलप्रदं परम् ॥ चित्रतैलाढकं दद्यापजानि प्रदापयेत् ।। सफेद चन्दनका चूर्ण २० तोले, राल ४० -त्रिफला ब्यूषणं हिङ्गु मूक्ष्मैला चित्रकं विडम् ॥ तोले, लोबान १० तोले और लौंग २॥ तोले ले
सौवर्चलं विडङ्गानि दीप्यकं ग्रन्थिकं तथा ॥ कर सबको एकत्र पीस कर पातालयन्त्रसे तेल ___ काथ---गुड, पोईका शाक, उड़दकी पिट्ठी निकालें ।
और लहसन प्रत्येक १ सेर ४५ तोले ( मिलित इसे वृक्क (गुरदों) तथा शिन पर लेप कर६। सेर ) ले कर सबको ३२ सेर पानीमें पकावें | नेसे नपुंसकता नष्ट होती है। और ८ सेर पानी शेष रहने पर छान लें।
(५९५९) रालतैलम् (२) कल्क---हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च, |
(वृ. नि. र. । वातव्या.) पोपल, हींग, छोटी इलायची, चीता, बिड लवण,
समुद्धरेत्सर्जतलं यन्त्रे च नलिकाभिधे । संचल ( काला नमक ), बायबिडंग, अजवायन
विमर्दनं तेन तनौ पक्षाघातं विनाशयेत् ॥ . और पीपलामूल समान भाग मिश्रित ४० तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें।
नलिका यन्त्र ( भबके ) से रालका तेल
निकाल कर मालिश करनेसे पक्षाघात नष्ट ८ सेर अण्डीके तेलमें उपरोक्त काथ, कल्क
होता है। तथा ८-८ सेर दहीको पानी, और दूध मिलाकर
(५९६०) रास्नातैलम् मंदाग्नि पर तोम्र पात्रमें सिद्ध करें ।
(ग. नि. । तैला. २) (इसे पीनेसे आमवात रोग नष्ट होता है ।)
रास्नामूलस्य कुर्वीत द्वे शते च बलाशतम् । राजवल्लभतेलम्
शतावरीगुडूचीभ्यां वरुणाच शतं शतम् ।। - (व. मा.। नेत्र रोगा.)
निर्गुण्डीशिग्रुकैरण्डशिरीषारग्वधादपि । प्र. सं. ३५२४ “ नृपवल्लभ तैलम् ” श्वदंष्ट्राभूतिकाभ्यां च पृथक् पश्चपलं क्षिपेत् ॥ देखिये ।
तोयद्रोणेषु शतसु साधयेत्सूक्ष्मकुट्टितम् ।। (५९५८) रालतलम् (१) द्रोणावशेषे तैलस्य शुद्धस्यार्धामणं पचेत् ॥
" ( नपुंसकामृतार्णव । त. ६) द्रोणा दश च दुग्धस्य घृतस्याढिकं तथा । श्वेतचन्दनचूर्ण च चतुःपलप्रमाणतः । तदैकथ्यं विपक्तव्यं गर्भ चात्र समावपेत् ॥ द्विगुणं सालनिर्यासं लोबानं द्विपलं तथा ॥ मधुकं मालतीपुष्पं मनिष्ठां मदयन्तिकाम् । लवङ्गं वै द्विकर्ष च सर्वान्सञ्चूर्ण्य भावयेत् । । काश्मण्यजमोदां च लवली तालमस्तकम् ॥
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तैलप्रकरणम् ] - चतुर्थों भागः
३५९ आत्मगुप्ताफलं मूर्वी वार्ताकानि मधूलिकाम् । विधि--१६ सेर शुद्र तिल तेलमें उपरोक्त सहदेवामथैरण्डं रीहिषं नवमालिकाम् ॥ क्वाथ और कल्क तथा १० द्रोण ( ८ मन ) दूध कायस्थां व वयस्थां च मधुपर्णी च चित्रकम् । और ४ सेर घी मिला कर पकावें । जब जलांश महापुरुषदन्तां च बलां सकदलीफलाम् ॥ शुष्क हो जाय तो छान लें । देवदार्वगरुश्रेष्ठं चन्दनं परिपेलवम् ।
इसे भोजन, पान, नस्य, अभ्यंग और बस्ति नीलोत्पलमुशीराणि मृद्वीकां साम्लवेतसाम् ॥ द्वारा प्रयुक्त करना चाहिये। एभिः पलशतैः पिष्टैः सम्यक् तैलं विपाचयेत् । यह तेल वातव्याधि, क्षतक्षीण, शिरोग्रह, भोजनाभ्याने पाने बस्तौ नस्ये च शस्यते ॥ अपस्मार, रक्तगुल्म और शुक्रनाशमें उपयोगी है। वातव्याधिषु सर्वेषु क्षतक्षीणे शिरोग्रहे।
इसके सेवनसे बल और मांसकी वृद्धि अपस्मारे रक्तगुल्मे पुंसां नष्टे च रेतसि ॥ ।
| होती है। रास्नातैलमिदं श्रेष्ठं बलमांसविवर्धनम् ॥ काथ--रास्नामूल १२॥ सेर, खरैटीकी जड़
___(५९६१) रास्नादितैलम् ६। सेर, शतावर ६। सेर, गिलोय ६। सेर, बरनेकी
(च. स. । चि. स्था. ६ अ. २८) छाल ६। सेर तथा संभाल, सहजनेकी छाल, | रास्नाशिरीषयष्टयादशुण्ठीसहचरामृताः। . अरण्डमूल, सिरसकी छाल, अमलतास, गोखरु | श्योनाकदारुसम्पाकाहयगन्धात्रिकण्टकाः ॥
और अजवायन ५-५ ,पल (२५-२५ तोले ) एषां दशपलान् भागान् कषायमुपकल्पयेत् । ले कर सबको एकत्र कूट कर बारीक करें और | ततस्तेन कषायेण सर्वगन्धैश्च कार्षिकैः॥ फिर उसे १०० द्रोण ( ८० मन) पानीमें प- | दध्यारनालमाषाम्बुमूलकेक्षुरसैः शुभैः। कावें । जब ३२ सेर पानी शेष रह जाय तो पृथक् प्रस्थोन्मितः साढे तैलपस्थं विपाचयेत् ॥ काथको छान लें।
प्लीहमूत्रग्रहश्वासकासमारुतरोगनुत् ॥ कल्क--मुलैठी, मालतीके फूल, मजीठ, मदः । काथ--रास्ना, सिरसकी छाल, मुलैठी, सेठि, यन्तिका, खम्भारीके फल, अजमोद, लवलीफल | पियाबांसा, गिलोय, सोनापाठा, देवदारु, अमलतास (हरफारेवडी ), ताल मस्तक, कौंचके बीज, मूर्वा, असगन्ध और गोखरु १०-१० पल (५०-५० बैंगन, जलमुलैठी, सहदेवी, अरण्डमूल, रोहिष तोले ) लेकर सबको अधकुटा करके ८ गुने तृण, नवमल्लिका, काकोली, क्षीरकाकोली, गिलोय, । (५५ सेर) पानीमें पका और जब चौथाई पानी चीता, महाशतावर, खरैटी, केलेको फली, देवदारु, शेष रह जाय तो छान लें। अगर, चन्दन, मोथा, नीलोफरे, खस, मुनक्का और कल्क-- दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागअम्लबेत सब समान भाग मिश्रित ६। सेर ले कर | केसर, कपूर, कंकोल, अगर, सिल्हक और लौंग सबको पीस लें।
| ११-१। तोला लेकर सबको एकत्र पीस लें।
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३६०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
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विधि--२ सेर तिल तैल में उपरोक्त काथ | आढयवाते हनुस्तम्भे शिरोवातापतानके । और कल्क तथा २-२ सेर दही, आरनाल, उड- भ्रशंखकर्णनासाक्षिजिबास्तम्भेऽपबाहुके । दका काथ, मूलीका रस और ईखका रस मिला | कलायखञ्जतापङ्गं सर्वाङ्गकाङ्गमारुते । कर पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो | अदिते पादहर्षे च पक्षघाते प्रशस्यते ॥ तेलको छान लें।
उरुस्तम्भं सुप्तवातं नाशयेन्नात्र संशयः । ___यह तेल प्लीहा, मूत्रावरोध, श्वास, खांसी रास्नापूतीकनामैतत्तलमात्रेयनिर्मितम् ॥ और वातज रोगोंको नष्ट करता है।
दशमूलकी प्रत्येक ओषधि, खरैटी, देवदारु, (५९६२) रास्नापूतिकतैलम् असगन्ध, शतावर, बरनेकी छाल, अरण्डकी जड़, (यो. र.)
संभालु, अरणी, सहंजनेकी छाल, क्षीरमोरट, पियादशमूलबलादारु अश्वगन्धा शतावरी। | बांसा, चीतेको जड़, करंज, अंकोलकी जड़, वरुणैरण्डनिर्गुण्डीतांरीशिग्रमोरटम ॥ पुनर्नवा, भूपील, सूरजमुखी, धमासा, जीवन्ती, सहाचरं चित्रमूलं करनाङ्कोलमूलकम् ।। कुचला, लाल अरण्डकी जड़, जटामांसी, सहजनेकी पुनर्नवां च भूपीलु अर्कपुष्पी दुरालभा॥ छाल, सफेद आक, जौ, बेर और कुलथी १-१ जीवन्ती विषतिन्दुश्च वातारिहिंस्राशिकम् ।। तोला; रास्ना ३७ तोले और पूतिकरंजकी अलर्फयवकोलं च कुलित्थानां कषायकम् ॥ | छाल ७४ तोले ले कर सबको एकत्र कूट कर एतेषां च समां रास्ना पूतिकं च तयोः समम् । ८ गुने ( १४ सेर ६४ तोले ) पानीमें पकायें
अष्टभागावशेषं तु कषायमवतारयेत् ॥ | और जब १४८ तोले पानी शेष रह जाय तो तत्पादं तिलतैलं च त्वजाक्षीरं च तत्समम् ।
| छान लें। गुग्गुलं तगरं मांसी त्रिकटुत्रिफलानि च ॥ तदनन्तर इस काथमें ३७ तोले तिलका चातुर्जातं कचोरं च विडङ्गामरदारु च ।। तेल, ३७ तोले बकरीका दूध और निम्न लिखित हिंगुरास्नावचातिक्तापाठायष्टिकचित्रकम् ॥ कल्क मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी प्रियङ्ग पिप्पलीमूलं चन्दनं चव्यदीप्यकम् । | जल जाए तो तेलको छान लें। वरालं चम्पकं कुष्ठं मञ्जिष्ठामिशिसर्षपम् ॥ वल द्रव्य---गूगल, तगर, जटामांसी, सोंठ, जातीफलं सुगन्धं च पाठोशीरं समांशकम् । मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, दालचीनी, एततैलस्य षष्ठांशं कल्कद्रव्याणि दापयेत् ॥ तेजपात, इलायची, नागकेसर, कचूर, बायबिडंग, सुमुहूर्ते मुनक्षत्रे नववस्त्रेण पीडयेत् । | देवदारु, हींग, रास्ना, बच, कुटकी, पाठा, मुलैठी, पानलेपननस्याद्यशिरोबस्तिषु पूजितम् ॥ चीता, फूलप्रियंगु, पीपलामूल, सफेद चन्दन, धनुर्वातान्तरायामं गृध्रसीमपबाहुकम् । चव, अजवायन, लौंग, चम्पा, कूठ, मजीठ, सौंफ. आक्षेपके व्रणायामे विश्वाच्यामपतन्त्रके ॥ सरसों, जायफल, सुगन्ध तृण, पाठा और खस;
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तैलप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः
-
सब समान भाग मिश्रित तेलका छठा भाग (प्रत्येक पानीमें पकावें और ८ सेर पानी शेष रहने पर २ माशे) लेकर सबको एकत्र पीस लें । छान लें।
इसे पान, लेपन, नस्य और शिरोबस्तिमें (२) ४ सेर नीमकी छालको कूट कर ३२ प्रयुक्त करना चाहिये।
सेर पानीमें पकावें और आठ सेर पानी शेष रहने ___ इसके सेवनसे धनुर्वात, अन्तरायाम्, गृध्रसी,
पर छान लें। अपबाहुक, आक्षेपक, ब्रणायाम, विश्वाची, अपत- कल्क---गिलोय, बाकुची, इन्तीमूल, कनेरकी न्त्रक, भूस्तम्भ; शंख, कर्ण, नासा, अक्षि, और जड़, हर्र, बहेड़ा, आमलग, अनारका फल, मिके जिह्वा स्तम्भ; कलायखञ्जता, पंगुता साग वात, | बीज (निबौली ), हल्दी, दारुहल्दी, कटेली, एकांग वात, आढ्य वात, हनुस्तम्भ, शिरो वात, बड़ी कटेली, नागबला, सोंठ, मिर्च, पीपल, तेजपात, अपतानक, अर्दित, पादहर्ष, पक्षवात, उरुस्तम्भ जटामांसी, पुनर्नवा, पीपलामूल, मजीठ, असगन्ध, और सुप्तवातका नाश होता है।
सोया, सफेद चन्दन, दो प्रकारकी सारिवा और
सतौनेकी छालका चूर्ण ११-१तोला तथा गायके (५९६३) रुद्रगुडूचीतैलम् (महा)
गोबरका रस २॥ तोले । (भै. र. । वातरक्ता.)
विधि--२ सेर सरसोंके तेलमें उपरोक्त दोनों अमृतायास्तुलां सम्यग जलद्रोणे विपाचयेत । पिचुमर्दत्वचं क्षुण्णां भाजनप्रमितां तथा ॥
क्वाथ कल्क और २ सेर गोमूत्र मिला कर मन्दाग्नि
पर पका और जब जलांश शुष्क हो जाय तो जलद्रोणे विनिष्काथ्य ग्राह्य पादावशेषितम् ।
तेलको छान लें। प्रस्थश्च कटुतैलस्य गोमूत्रश्चापि तत्समम् ।।
यह तैल सर्वोपद्रव युक्त वातरक्त, अठारह अमृता वाकुची कुम्भी करवीरफलत्रिकम् ।
| प्रकारके कुष्ठ, विसर्प और व्रणोंको नष्ट करता है। दाडिमं निम्बबीजश्च रजन्यौ बृहतीद्रयम् ॥ नागबला त्रिकटुकं पत्रं मांसी पुनर्नवा ।
(५९६४) रुद्रतैलम् (१) ग्रन्थिकं विकसाश्वाहा शतपुष्पा च चन्दनम् ॥
(भै. र. । शिरोरो.) शारिव द्वे सप्तपर्णो गोमयस्य रसस्तथा। जेपालद्रोणधुस्तूरशिJशक्राशनस्य च । एषां कर्षमितैर्भागैः साधयेन्मृदुनाग्निना ॥ सूर्यावर्तस्य मूर्यस्य पत्राणां स्वरसं पृथक् ॥ वातरक्तं निहन्त्याशु सर्वोपद्रवसंयुतम् । जम्बीरशृङ्गवेरस्य रसं दत्त्वा समं समम् । कुष्ठश्चाष्टादशविधं विसर्पश्च व्रणामयम् ॥ कटुतैलस्य पात्रन्तु शोधयित्वा पचेद भिषक् ।। महारुद्रगुडूच्याख्यं तैलं भुवनदुर्लभम् ॥ रजनीद्वयमअिप्ठाकट्फलं कृष्णजीरकम् ।
क्वाथ-(१) ६। सेर गिलोयको ३२ सेर त्रिकटुः पिप्पलीमूलं शारिवे द्वे विडङ्गकम् ॥
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३६२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
रास्ना दारुबला निम्ब मुस्तकं चन्दनं तथा । तीब्राग्नि पर पकावें। जब द्रव पदार्थ जल जाएं तो परशु द्वौ स्नुहीमूलं मूर्वापामार्गमूलकम् ॥ तेलको छान लें । स्वरसद्रव्यमे तेषां कल्कं दत्वा तु पादिकम् । यह तेल ऊर्ध्व जत्रुगत कफ रोगोंको तीन मृत्पात्रे सुदृढे चैव पाचयेत्तीब्रवह्निना ॥ दिनमें ही नष्ट कर देता है । यह तेल मुख रोग, बलासमूर्ध्वगश्चैव नाशयेत् त्रिदिनाभ्रुवम् । कर्ण रोग, नेत्र रोग, कफस्राव, रक्तस्राव, शिरोमुखकर्णाक्षिरोगांश्च कफशोणितसंस्रवान् ॥
रोग, सन्निपात, स्लीपद और गलगण्डको मालिश शिरोरोगं सन्निपातं श्लीपदं गलगण्डकम् ।।
करनेसे, तथा खांसीको पीनेसे नष्ट करता है । अभ्यङ्गानाशयेदेतान् पानात कासं व्यपोहति ॥ (५९६५) रुद्रतलम् (२) कालाग्निरुद्रेण प्रोक्तं रुद्रतैलमिदं पुरा ॥ ___(भै. र. । वातरक्ता.)
द्रवपदार्थ---जमालगोटेके पत्तोंका रस ८ सेर, पुनर्नवा निशा निम्बं वार्ताकुबृहतीत्वचम् । गूमा ( द्रोण पुष्पी ) के पत्तोंका रस ८ सेर, कण्टकारी करञ्जश्च निर्गुण्डो वृषमूलकम् ॥ धतूरके पत्तोंका रस ८ सेर, सहजनेके पत्तोंका अपामार्ग पटोलश्च धुस्तूरं दाडिमीफलम् । रस ८ सेर, भांगके पत्तोंका रस ८ सेर, हुलहुलके जयन्तीमलकं दन्ती प्रत्येकं कार्षिकद्वयम् ॥ पत्तोंका रस ८ सेर और आकके पत्तोंका रस ८ |
त्रिफलायाः प्रदातव्यं द्विकर्षश्च पृथक् पृथक् । सेर तथा जग्बीरी नीबू और अदरकका रस ८-८ | दत्वा छिन्नसहायाश्च द्वात्रिंशच्च पलानि च ॥ सेर।
पाचयेत् भाजने तोये चतुर्भागावशेषितम् । कल्क--हल्दी, दारुहल्दी, मजीठ, कायफल, कटुतैलस्य च प्रस्थं दुग्धश्च तत्समं भवेत् ।। कालो जीरा, सोंठ, मिर्च, पीपल, पीपलामूल, दो वासकस्वरसप्रस्थं मन्दमन्देन वहिना । प्रकारको सारिवा, बायबिडंग, रास्ना, देवदारु, गन्धं शटी च ककोलं चन्दनं ग्रन्थिकं नखी ॥ खरैटी, नीमकी छाल, नागरमोथा, सफेद चन्दन, पूतिकं केशरं कुष्ठं हन्त्यस्थिमज्जगं पुनः । कोदालिया, कुडालिया ( कन्द गुडूची), सेहुण्ड हस्तपादाङ्गुलीसन्धिगलितं स्फुटितं तथा ॥ (सेंड) की जड़, मूर्वा, अपामार्ग (चिरचिटे) की कृष्णश्वेतं तथा रक्तं नानावर्ण सदाहकम् । जड़, और पूर्वोक्त जमालगोटा इत्यादि समस्त | पामां विचर्चिकां कण्डूं छायां त्वचञ्च कालिओषधियां (जिनके रस प्रयुक्त हुवे हैं ) समान
नीम् ॥ भाग मिश्रित १ सेर ले कर सबको एकत्र ममूरिकां मण्डलञ्च ज्वलनश्च विसर्पकम् । पीस लें।
नाडीव्रणं धर्महीनं गात्रवैवर्ण्यदकम् ॥ विधि----८ सेर सरसोंके तेलमें उपरोक्त समस्त निहन्ति रक्तदोषश्च भास्करस्तिमिरं यथा ॥ द्रव पदार्थ और कल्क मिला कर दृढ़ मृत्पात्रमें कल्क---पुनर्नवा, हल्दी, नीमकी छाल, बैंगन,
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तैलप्रकरणम् ]
बड़ी कटेली, दालचीनी, छोटी कटेली, करञ्ज, संभालु, बासेकी जड़, अपामार्ग ( चिरचिटा ), पटोल, धतूरा, अनारका फल, जयन्तीकी जड़, दन्तीमूल, हर्र, बहेड़ा और आमला २|| २ || तोले लेकर सबको एकत्र पीस लें ।
|
काथ -- २ सेर गिलोयको ८ सेर पानीमें पकावें और २ सेर शेष रहने पर छान लें ।
विधि -२ सेर सरसों के तेल में उपरोक्त कल्क, काथ, २ सेर दूध और २ सेर बासेका रस मिला कर मन्दानि पर सिद्ध करें ।
इस तेल में गन्धार्थ अगर, कचूर, कंकोल, सफेद चन्दन, गठीवन, नखी, खट्टासी (जुन्द बेदस्तर), केसर और कूठ भी डालना चाहिये ।
यह तैल अस्थि और मज्जागत गलित कुटको ( कि जिसमें हाथ पैरोंकी अंगुलियां और जोड़ गल जाते हैं या स्फुटित हो जाते हैं उसे ) भी नष्ट कर देता है; तथा कृष्ण, श्वेत और रक्त कुष्ठ, अनेक रंगवाला कुट, दाह युक्त कुष्ठ, पामा, चिचचिका, कण्डू, छाया, मसूरिका, मण्डल, अग्निविसर्प, नाडीव्रण, पसीना न आना, गात्र विवर्णता, दाद, और रक्त दोषोंको नष्ट करता है ।
चतुर्थी भागः
(५९६६) रुद्रतैलम् (३) (महा) (भै. र. ; धन्व. । वातरक्ता.) पुनर्नवा निशा निम्बं वार्त्ताकुदाडिमीफलम् । बृहत्यt पूतिकामूलं वासक सिन्दुवारकम् || पटोलपत्रं धुस्तूरमपामार्ग जयन्तिका । दन्ती वरा पृथक सर्वं कर्षद्वय मितं पुनः ||
३६३
विषस्य द्विपलं देवं पृथक् व्योषं पलत्रयम् । प्रस्थञ्च सार्षपं तैलं प्रस्थाम्बु वृषपत्रजम् ॥ गुडूच्यास्तु चतुःषष्टिपलकाथरसेन च । वारिप्रस्थेन पक्तव्यं महारुद्रमिदं शुभम् ॥ वातरक्तं निहन्त्याशु नानादोषसमुत्थितम् । अष्टादशविधं कुष्ठं हन्ति वर्णामिवर्द्धनम् ॥ क्रिमिं दुष्टत्रणञ्चैव दाहं कण्डू निहन्ति च । अस्वेदनं महास्वेदमभ्यङ्गादेव नश्यति ॥
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कल्क -- पुनर्नवा, हल्दी, नीमकी छाल, बैंगन, अनारका फल, छोटी और बड़ी कटेली, करकी जड़, बासा, संभालु, पटोल पत्र, धतूरा, अपामार्ग ( चिरचिटा ), जयन्ती, दन्तीमूल, हर्र, बहेड़ा और आमला २|| - २॥ तोले; विष (बछ(नाग) १० तोले और सोंठ, मिर्च, पीपल १५१५ तोले लेकर सबको एकत्र पीस लें 1
द्रव पदार्थ -- बाके पत्तों का रस २ सेर, गिलोय का काथ या स्वरस ८ सेर और पानी २ सेर |
विधि -- २ सेर सरसेकि तेलमें उपरोक्त कल्क तथा द्रव पदार्थ मिला कर मंदाग्नि पर पकायें और जब जलांश शुष्क हो जाय तो तेलको लें 1
छान
यह तैल विविध दोषोंसे उत्पन्न वातरक्त, अठारह प्रकारके कुष्ठ, कृमि, दुष्ट व्रण, दाह, कण्डू, अस्वेद ( पसीना न आना ) और अधिक स्वेद आना आदि विकारांको नष्ट करके सौंदर्य और अनि वृद्धि करता है 1
इति रकारादितैलप्रकरणम्
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
अथ रकाराद्यासवारिष्टप्रकरणम्
(५९६७) रसायनारिष्टः
( गदनिग्रह ) समूलां पिप्पलीं शृङ्गीं बृहतीमश्मभेदकम् । पाटलां देवाञ्च श्वदंष्ट्रामभयां तथा ॥ षोडशपलमेकैकं कोलानामाढकं पृथक् । दन्तीचित्रकलानां पलानि पञ्चविंशतिम् ॥ चतुर्गुणे जले पक्त्वा ग्राह्यमर्धावशेषितम् । शीते समापेद्भाण्डे प्रलिप्ते मधुसर्पिषा ॥ खण्डस्य द्विशतं शुद्धं तद्वल्लोहस्य दापयेत् । पत्रीकृतं तिलोत्सेधं सूक्ष्मचूर्णान्यमूनि च ॥ प्रियङ्गं पिप्पलीं लोध्रं मृगीकां चैलवालुकम् । क्रमुकं शतपुष्पां च निम्बं तेजस्विनीमपि ॥ पलिकं देवदारोश्च खदिराच्च चतुष्पलम् । क्षौद्रप्रस्थद्वयं चापि समावाप्य घटे शुभे ॥ सौम्ये पुष्ये तथा हस्ते रोहिण्यामुत्तरासु च । दशरात्र स्थितः पेयोऽरिष्टश्चात्रेयपूजितः || अश्विभ्यां कथितः पूर्वं रसायनवरो ह्ययम् । mainforestat पिवेदस्य हिताशनः ॥ धन्यः पुष्टिकरो वो वलीपलित नाशनः ॥
पीपल, पीपलामूल, काकड़ासिंगी, बड़ी कटेली, पाषाणभेद, पाढलकी छाल, देवदारु, गोखरू, और हर्र १–१ सैर तथा बेर ४ सेर, एवं दन्तीमूल और चीतेकी जड़ २५-२५ छटांक ( प्रत्येक १ सेर ९ छटांक ) ले कर सबको अधकुटा करके ८ गुने (१२९ सेर) पानीमें पकावें और जब आधा ( ६४ || सेर ) पानी शेष रहे तो छान लें।
|
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तदनन्तर उसके ठण्डा हो जोने पर एक मटके में घी और शहदका लेप करके उसमें यह काथ और निम्न लिखित प्रक्षेप द्रव्य डालकर सबको अच्छी तरह मिला कर मटकेका मुख बन्द कर दें और १० दिन पश्चात् छान लें।
[ रकारादि
प्रक्षेप द्रव्य -- खांड १२ ॥ सेर, शुद्ध लोह चूर्ण १२ ॥ सेर तथा फूलप्रियंगु, पीपल, लोध, मुनक्का, एलवाल, सुपारी, सोया, नीमकी छाल, मूर्वा और देवदारु ५-५ तोले एवं खैरसार २० तोले और शहद ४ सेर |
यह आसव रसायन, बलकारक, पौष्टिक और बलिपलि नाशक है ।
रसोनसन्धानम्
देखिये ।
( वृ. नि. र. । वातव्या . )
प्र. सं. ५१७३ " रसोन पिण्ड (महा)
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(५९६८) रसोनसुरा
( चक्रदत्त | आमवाता. )
19
वल्कलायाः सुरायास्तु सुपक्वायाः शतं घटे । ततोर्धेन रसोनन्तु संशुद्धं कुट्टितं क्षिपेत् ॥ पिप्पलीपिप्पलीमूलमजाजीकुष्ठचित्रकम् । नागरं मरिचं चं चूर्णितञ्चाक्षसम्मितम् ॥ सप्ताहात्परतः पेया वातरोगामनाशिनी । कृमिकुष्ठक्षयानाहगुल्मार्श: प्लीह मेहनुत् ॥ अग्निसन्दीपनी चैव पाण्डुरोगविनाशिनी ॥
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आसवप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः एक शुद्ध घड़ेमें (१२॥ सेर) बल्कला नामक द्रोणेऽम्भसः कर्षसमानि पक्त्वा निर्मल सुरो और ३ सेर १० तोले कुटा हुवा पूते चतुर्भागजलावशेषे । छिलके रहित ल्हसन एवं १।-१। तोला पीपल, रसेऽर्धभागे मधुनः प्रदाय पीपलामूल, जीरा, कूठ, चीतामूल, सोंठ, काली पक्षं निधेयो घृतभाजनस्थः ।। मिर्च, और चवका चूर्ण डालकर सबको अच्छी रोधासवोऽयं कफपित्तमेहातरह मिलाकर घड़ेका मुख बन्द करके रख दें और क्षिप्रं निहन्याद्विपल प्रयोगात् । सात दिन पश्चात् निकाल कर छान लें।
पाण्ड्वामयास्यिरुचिं ग्रहण्या इसके सेवनसे आमवात, कृमि, कुष्ठ, क्षय,
दोषं किलासं विविधं च कुष्ठम् ॥ आनाह, गुल्म, अर्श, प्लीहा और प्रमेह तथा पाण्डु
लोध, कचूर, पोखरमूल, इलायची, मूर्वा, का नाश होता एवं अग्नि दीप्त होती है ।
बायविडंग, हरे, बहेड़ा, आमला, अजवायन, चव,
फूलप्रियंगु, सुपारी, इन्द्रायणकी जड़, चिरायता, रसोनासवः
कुटकी, भरंगी, तगर, चीता, पीपलामूल, कूठ, (वृ. नि. र. । आमवात.) अतीस, पाठा, इन्द्रजौ, नागकेसर; कुड़े की छाल, रसोन पिण्ड प्र. सं. ५१७३ तथा प्र. सं. नखी, तेजपात, काली मिर्च, और मोथा ११-१। ५९२७ देखिये।
तोला लेकर सबको अधकुटा करके ३२ सेर
पानीमें पका और ८ सेर पानी शेष रहने पर (५९६९) रोधासवः
छान लें। ( ग. नि. । आसवा. ६; वा. भ. । चि. अ.
तदनन्तर उसमें ४ सेर शहद मिला कर सबको १२ प्रमेहा.)
घृतसे चिकने किये हुवे पात्रमें भर कर उसका रोधं शठों पुष्करमूलमेला मुख बन्द करके रख दें और १५ दिन पश्चात्
मूर्वा विडङ्गं त्रिफलां यवानीम्।। निकाल कर छान लें। चव्यं प्रियङ्ग क्रमुकं विशालां।
मात्रा-१० तोला। किराततिक्तं कटुरोहिणी च ॥
इसके सेवनसे कफज और पित्तज प्रमेह भार्गीन चित्रकपिप्पलीनां
अत्यन्त शीव्र नष्ट हो जाते हैं। मूलं सकुष्ठातिविषां च पाठाम् ।
इसके अतिरिक्त यह पाण्डु, अर्श, अरुचि, कलिङ्गकान् केसरमिन्द्रसाद
ग्रहणी दोष, किलास और अनेक प्रकारके कुष्ठोंको नखं सपत्रं मरिच प्लवं च ॥ भी नष्ट करता है। १ वा. भ. में मरिच के स्थानपर दालचीनी है। ( व्यवहारिक मात्रा-२-तोले । )
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
__ (५९७०) रोहितकारिष्टः । पलानि खलु धातक्या षोडश द्विशतं गुडात् । (भैषज्य रत्नावलि, शा. सं. । खं. २ अ. १०) | पलं पृथक् त्रिजातस्य पञ्चकोलपलं तथा ॥ रोहीतकतलामेकां चतोणेजले पचेत। चूर्णीकृतं क्षिपेत्सर्वं घृतलिप्ते तु भाजने । पादशेषे रसे पूते शीतेपलशतद्वयम् ॥ | पक्षाचं पिबेच्चापि ततो मात्रां यथावलम् ।। दद्याद्' गुडस्य धातक्याः पलपोड शिका मता। प्लीहं प्लीहोदरं चैव प्लीहशूलं तथैव च । पञ्चकोलं त्रिजातश्च त्रिफलाश्च विनिक्षिपेत् ॥ हृच्छ्रौं पार्श्वशूलश्च तथा सर्वमरोचकम् ॥ चूर्णयित्वा पलांशेन ततो भाण्डे निधापयेत् । हन्ति विबन्धशूलश्च पाण्डुरोगं सकामलम् । मासाद्यं च पिबतां सर्वोदररुजां जयेत् ॥ नाशयेच्छद्यतीसारं ज्वरं जीर्ण तथैव च ॥ प्लीहगुल्मोदराष्ठीलाग्रहण्यशीसि कामलाम् । रोहीतकासवो ह्येष प्लीहं च शमयेद् ध्रुवम् ॥ कुष्ठशोफारुचिहरो रोहीतकारिष्ट संज्ञितः ॥ ६। सेर रुहेड़ेकी छालको १२८ सेर पानीमें
६। सेर रुहेड़ेकी छालको अधकुटा करके ८ पकावें और ३२ सेर पानी शेष रहने पर छान लें; द्रोण (१२८ सेर) पानीमें पकावें और जब ३२ । एवं उसके शीतल हो जाने पर उसमें निम्न सेर पानी शेष रहे तो छान लें।
लिखित प्रक्षेप द्रव्य मिला कर सबको मिट्टीके ___ तदनन्तर जब वह काथ ठंडा हो जाय तो | स्वच्छ और घृतसे चिकने पात्रमें भरकर उसका उसमें १२॥ सेर गुड़, १ सेर धायके फूलोंका चूर्ण तथा । मुख बन्द करके रख दें और १५ दिन पश्चात् ५-५ तोले पीपल पीपलामूल, चव, चीतामूल, निकाल कर छान लें। सेठ, दालचीनी, इलायची, तेजपात, हरे, बहेड़ा प्रक्षेप द्रव्य-धायके फूलांका चूर्ण १ सेर,
और आमलेका चूर्ण, मिला कर सबको घृतसे | गुड़ ६। सेर तथा दालचीनी, तेजपात, इलायची, चिकने किये हुवे मिट्टीके पात्रमें भर कर उसका | पीपल, पोपलामूल, चव, चीता और सांठका मुख बन्द कर दें; और १ मास परचात् निकाल | चूर्ण ५-५ तोले । कर छान लें।
___इसके सेवनसे प्लीहा, प्लीहोदर, प्लीहाशूल, इसके सेवनसे प्लीहा, गुल्म, अष्ठीला, ग्रहणी, हृच्छूल, पार्श्वशूल, हर प्रकारकी अरुचि, मलावरोध, अर्श, कामला, कुष्ठ, शोथ, और अरुचिका नाश | शूल, पाण्डु, कामला, छर्दि, अतिसार, तथा जीर्णहोता है।
ज्वर नष्ट होता है। ( मात्रा-२ तोले ।)
___ यह आसव तिल्लीको तो अवश्यमेव नष्ट कर (५९७१) रोहीतकासवः (१) देता है। (गदनिग्रह.)
( मात्रा---२ तोले ।) रोहीतकतुलामेकां चतुर्दोणेऽम्भसःपचेत् । नोट---रोहित्कारिष्ट और इस प्रयोगमें बहुत द्रोणशेषे रसे तस्मिन् पूते शीते प्रदापयेत् ॥ ही थोड़ा भेद है।
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आसवप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
(५९७२) रोहीतकासवः (२)
क्षेप्यं गुडस्य द्विशतं पलाना(गदनिग्रह)
___ मष्टादश स्युस्त्रिफला पलानि ॥ रोहीतकशतमेकं क्वथितं द्रोणे चतुर्थशेषे तु। लवङ्गजातीफलधातकीनां तस्मिन्गुडशतमेकं योज्यं शेषैः सचूर्णितैरेभिः ।
पलानि लोहस्य षडेव दद्यात् । पलमेकं त्रिफलाया देयं त्रिपलश्च धातकीपुष्पात् देयं चतुर्जातकपञ्चकोलं पलिकञ्च पञ्चकोलाद घृतभाण्डे स्थापयेत् पक्षम्।। पृथक् पृथक् पश्चपलं तथैव ॥ ज्वरगुल्मार्शःप्लीहरुगस्थिग्रहपाण्डुरोगनः॥ ।
गुल्मज्वरारोचकहृद्विकार६। सेर रुहेड़ेकी छालको ३२ सेर पानीमें
भगन्दरप्लीहनिपीडितानाम् । पकावें और ८ सेर पानी शेष रहने पर छान लें।
रक्तामयश्वासनीपोडितानां तदनन्तर उसमें ६। सेर गुड़, ५-५ तोले
सदासवोऽयं विधिनाप्रयोज्यः । हर, बहेड़े और आमलेका चूर्ण, १५ तोले धायके
१२॥ सेर रुहेड़ेको छालको ६४ सेर पानीमें फूलोंका चूर्ण, और ५-५ तोले पीपल, पीपलामूल,
पकावें और १६ सेर पानी शेष रहने पर छान लें। चव, चीतामूल और सेठिका चूर्ण मिलाकर सबको
तदनन्तर उसमें १२॥ सेर गुड़; ६-६ पल घृतसे चिकने मिट्टीके पात्रमें भरकर उसफा मुख
( ३०-३० तोले ) हर्र, बहेड़ा, आमला, लौंग,
जायफल, धायके फूल और लोहका चूर्ण तथा बन्द कर दें और १५ दिन पश्चात् छान लें।
२५-२५ तोले दालचीनी, तेजपात, इलायची, इसके सेवनसे ज्वर, गुल्म, अर्श, प्लीहा, नागकेसर, पीपल, पीपलामूल, चव, चीता और अस्थिग्रह और पाण्डु रोग नष्ट होता है। सेोठका चूर्ण मिला कर सबको घृतसे चिकने मि( मात्रा--२ तोले ।)
ट्टीके पात्रमें भर कर उसका मुख बन्द कर दें। (५९७३) रोहीतकासवः (३)
(और १५ दिन पश्चात् छान लें।) ( गदनिग्रह)
इसके सेवनसे गुल्म, ज्वर, अरुचि, हृद्विकार, तुलाद्वयं रोहितमूलकानां
भगन्दर, तिल्ली, रक्तदोष, और श्वास नष्ट होता है । द्विद्रोणमात्रेण जलेन पक्त्वा ।
| ( मात्रा-२ तोले ।) इति रकाराबासवारिष्टप्रकरणम्
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि अथ रकारादिलेपप्रकरणम् (५९७४) रक्तचन्दनादिलेपः और कूठ समान भाग लेकर सबको एकत्र मिला
( शा. सं । ख. ३ अ. ११) कर पानीके साथ पीस लें। चन्दनोशीरयष्टयावलाच्याघनखोत्पलैः। इसे मन्दोष्ण करके लेप करनेसे ज्वर सम्बक्षीरपिष्टैः प्रलेपः स्याद्रक्तपित्तशिरोरुजि ॥ न्धी शिर पीड़ा शान्त होती है । ___ लाल चन्दन, खस, मुलैठी, खरैटीकी जड़,
(५९७७) रक्षोनादिलेपः नखी और नीलोत्पल समान भाग ले कर सबको
(वृ. मा. । क्षुद्र रोगा.) एकत्र मिला कर दूधके साथ पीस लें। रक्षोनशर्वरीद्वयमनिष्ठागैरिकाज्यवस्तपयः।
इसका लेप करनेसे रक्तपित्त और शिरपीड़ा | | सिद्धेन लिप्तमाननमुद्यच्छरदिन्दुबिम्बवद् भाति॥ नष्ट होती है।
सरसों, हल्दी, दारु हल्दी, मजीठ और गेरु
का समान भाग चूर्ण ले कर उसे घीमें घोटें । (५९७५) रक्तचन्दनादिशिरोलेपः (रा. मा. । छZ.)
इसे बकरीके दूधमें मिला कर लेप करनेसे
मुख शरदके चन्द्रमाके समान दीप्तिमान हो अरुणचन्दनचन्दनवालकै
जोता है। नलदपद्मकतुल्यकृतांशकैः। शिरसि लेपनमाचरतां नृणां
(५९७८) रजन्यादिलेपः (१) तृट् प्रयात्युपशान्तिमसंशयम् ॥ (वृ. नि. र.; व. से. । विषा.) लाल चन्दन, सफेद चन्दन, सुगन्धबाला, रजनीद्वयमञ्जिष्ठापतङ्गगजकेशरैः । खस, और पद्माक समान भाग ले कर सबको | शीताम्बुपिष्टैरालेपः सद्यो लूतां विनाशयेत् ॥ ( पानीके साथ ) एकत्र पीस लें।
हल्दी, दारुहल्दी, मजीठ, पतङ्ग और नागशिर पर इसका लेप करनेसे तृषा अवश्य केसर; समान भाग ले कर बारीक चूर्ण बनावें । नष्ट हो जाती है ।
इसे ठण्डे पानीमें पीस कर लेप करनेसे मक(५९७६) रक्ताश्वमारपुष्पादिलेपः डीका विष शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । ( वृ. मा. । ज्वरा.)
(५९७९) रजन्यादिलेपः (२) रक्ताश्वमारपुष्पं च धात्री धान्यं वचामयम् । (बृ. नि. र. । क्षुद्र रोगा.) पिष्ट्वा कोष्णो ज्वरे कार्यों लेपो मूर्धरुजापहः॥ रजनीमार्कवं मूलं पिष्टं शीतेन वारिणा ।
लाल कनेरके फूल, आमला, धनिया, बच, । तल्लेपाद्धन्ति वीस वाराहदशनाह्वयम् ॥
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लेपप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
३६९
हल्दी और भंगरेकी जड़ समान भाग ले कर रसौत, हर्र, देवदारु, गेरु और सेंधानमकका सबको एकत्र मिला कर शीतल जलके साथ | चूर्ण समान भाग ले कर सबको एकत्र मिलाकर पीस लें।
| पानीके साथ पीस लें। इसका लेप करनेसे वीसर्प और वराहदंष्टा नेत्रोंके बाहर इसका लेप करनेसे समस्त नामक रोग नष्ट होता है।
नेत्ररोग नष्ट होते हैं। (५९८०) रसाञ्जनादिकल्कः
(५९८३) रसाञ्जनादिलेपः (३) (वृ. नि. र. । भगन्द. ; यो. र.;
__ (यो. र. ; वृ. नि. २. ; व. से. । उपदंशा.) भै. र. । भगन्द. ; ग. नि. । भगन्द. ; वृ.
रसाधनं शिरीषेण पथ्यया वा समन्वितम् । __ मा. । भगन्द.)
सक्षौद्रं लेपनं योज्यं सर्वानङ्गगदापहम् ॥ रसाधनं हरिद्रे द्वे मञ्जिष्ठा निम्बपल्लवाः ।
रसौत और सिरसकी छाल, अथवा रसौत त्रित्तेजोवती दन्ती कल्को नाडीव्रणापहः ॥
| और हर्रका चूर्ण समान भाग ले कर सबको शहरसौत, हल्दी, दारुहल्दी, मजीठ, नीमके । पत्ते, निसोत, मालकंगनी और दन्तीमूल समान भाग
दमें मिलाकर लेप बनावें । ले कर सबको एकत्र मिला कर पानीके साथ
इसे लगानेसे उपदंशके व्रण नष्ट होते हैं। अत्यन्त महीन पीस कर कल्क बनावें ।
(५९८४) रसाञ्जनादिलेपः (४) इसका लेप करनेसे नाडीव्रण ( नासूर ) नष्ट (व. से. । नेत्र रोगो.) होता है।
रसाअनेन वा लेपः पथ्या विश्वदलैरपि । (५९८१) रसाञ्जनादिलेपः (१)
वचाहरिद्राविश्वाभिस्तथानागरगैरिकैः ।। (वृ. यो. त. । त. ११९ शूकरोगा.)
कफाभिष्यन्दमें नेत्रों के बाहर रसौतका यो रसाञ्जनं साद्वयमेकमेव
हर्र और अदरकके पत्तोंका अथवा वच, हल्दी प्रलेपमात्रेण नयेत्पशान्तिम् ।
और सेठका किंवा, सोंठ और गेरुका लेप सपूतिपूयत्रणशोथकण्डू
करना चाहिये। शूलान्वितं सर्वमनङ्गरोगम् ॥ रसौतका लेप करनेसे दुर्गन्ध और पीप तथा
(१९८५) रसादिलेपः (१) खुजली युक्त उपदंशके व्रण नष्ट होते हैं।
___ (र. चं. । विषा. ; बृ. नि. र. । विषा. ) (५९८२) रसाञ्जनादिलेपः (२) रसं गन्धं निशाबन्धुं गृहधूमं शिरीषजम् । (ग. नि. । नेत्र रोगो. ३.) ।
बीजं दिनकरक्षीरैमर्दयित्वा विलेपनम् ।। रसाअनाभयादारुगैरिकं सैन्धवान्वितम् ।। विशेषान्मूषकविषं हन्यादन्यान्विपोद्भवान् । जलपिष्टैबहिर्लेपः सर्वनेत्रामयापहः ॥ पारा, गंधक, कपूर, घरका धुंवां और सिरस
४७
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि के बीज समान भाग लेकर प्रथम पारे गंधककी (५९८८) रसादिलेपः (४) कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका ।
| ( यो. र. । क्रिमि रोगा. ; यो. त. । त. २४.) चूर्ण मिला कर सबको आकके दूधमें घोटें।।
रसेन्द्रेण समायुक्तो रसो धत्तरपत्रजः। इसका लेप करनेसे विशेषतः चूहेका विष
ताम्बूलपत्रजो वाऽपि लेपनाथूकनाशनः ॥ और साधारणतः अन्य विष भी नष्ट होते हैं।
पारदको धतूरेके पत्तोंके रस में घोट कर लेप (५९८६) रसादिलेपः (२)
करनेसे यूका (जू) नष्ट होती हैं। (वृ. नि. र. । शूला.)
___ इसी प्रकार पारदको पानके रसमें घोट कर रसं गन्धं विषं म्लेच्छं मणिमन्थं च टङ्कणम् ।
म लेप करनेसे भी यूका नष्ट हो जाती हैं । सौराष्ट्र मरिचं नाग हरितालं मनःशिलाम ॥ जेपाल कौशिक तुत्थं नवसारं पृथक समम् ।
(५९८९) रसादिलेपः (५) एतत्सर्वं क्षिपेत्खल्वे आरनालेन पेपयेत् ।। (वृ. नि. र. । त्वग्दोषा.) उदरे लेपनं कुर्याच्छीघ्रतः सर्वशूलजित् ॥ रसोषणं सैन्धवं च विडङ्गञ्चामृतारसः। ___ पारा, गंधक, बछनाग, हिंगुल, सेंधानमक, | कानिकेन विमर्याथ लेपः सिध्मविनाशनः॥ सुहागा, कुन्दरु, काली मिर्च, सीसा, हरताल,
पारद तथा काली मिर्च, सेंधा नमक और मनसिल, जमालगोटा, गूगल, नीलाथोथा और बायबिडंगका चूर्ण समान भाग लेकर सबको एकत्र नौसादर समान भाग लेकर प्रथम पारे गंधकको मिलाकर घोटें और फिर उसे गिलोयके रसकी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियां | मिला कर खरल में डालकर कांजीके साथ घोटले । इसे काजीमें बोट कर लेप करनेसे सिध्म पेट पर इसका लेप करनेसे समस्त शूल नष्ट नष्ट होता है।
(५९९०) रसादिलेपः (६) (५९८७) रसादिलेपः (३) (यू. नि. र. । त्वग्दोषा.)
(वृ. नि. र. । त्वग्दोषा.) रसगन्धकहेमं च साभ्रक कटुतैलतः। रसगन्धकयोः पिष्टि कटुतैलेन भृङ्गजैः । मर्दितं मर्दनात्तस्य कुष्ठजातं विनश्यति ॥ | | द्रवैः सम्म तल्ले पात्सर्वं कुष्ठं विनश्यति ॥
पारद, गन्धक, स्वर्णपत्र और अभ्रक समान समान भाग पारद और गन्धककी कमली भाग लेकर सबको एकत्र घोटकर कजली बनावें। बनाकर उसे भंगरेके रसमें घोटें।
इसे सरसेकेि तेल में घोट कर लेप करनेसे इसे सरसोंके तेलमें मिला कर लेप करनेसे कुष्ट नष्ट होता है।
| समस्त प्रकारके कुष्ठ नष्ट होते हैं।
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लेपप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
३७१
(५९९१) रसोनादिलेपः | खदिरं पलमानं च कङ्कुठं च पलार्द्धकम् । (वै. म. र. । पटल ९)
क्षिप्त्वा सम्यग्विनिर्मथ्य स्थाप्यो मलहरः परः॥ केवलानिलसमुत्थे शूले महति प्रलेपयेन्मतिमान्
शोधनो रोपणो सर्वत्रणानां नास्त्यतः परम् ।। तुङ्गद्रुमतरुणजलै रसोनकल्कं वयो बलं वीक्ष्य।
सरसोंके तेलमें बराबर पानी मिला कर दोकेवल वात जन्य प्रवृद्ध शूलमें रोगीकी आयु
नांको भली भांति हाथसे फेटें और फिर उसमें और बलादिका विचार करके ल्हसनको नारियलके
| १२॥ तोले रालका चूर्ण, ५ तोले कथा ताजे जलमें पीस कर लेप करना चाहिये ।
और २॥ तोले मुरदाशंखका चूर्ण, मिला कर (५९९२) राजिकादिलेपः (१) ।
खरल करें।
यह मल्हम गोंको शुद्ध करके भरनेके लिये (वृ. नि. र. । त्वग्दोषा. ; यो. र. । कुष्ठा.)
| अत्यन्त गुणकारी है। राजिकागुडयुक्तेन सैन्धवेन प्रलेपितम् ।।
(तैल सबके बराबर लेना चाहिये । ) विजलं चर्मणा बद्धं नाशं चर्मदलं व्रजेत् ॥ राई, गुड़ और सेंधा नमकका चूर्ण समान
(५९९५) रालादिलेपः (१) भाग लेकर सबको पानी मिलाए बिना ही एकत्र
( वृ. नि. र. । मुख रोगा.) पीस लें।
रालं मधुच्छिष्टं गुडेन पका इसे लगा कर चमड़ेसे बांध देना चाहिये ।
तैलं घृतं वा विनिहन्ति लेपात् ।
त्वक्तोदपारुष्य रुजोऽधरस्य इस प्रयोगसे चर्मदल नष्ट हो जाता है ।
पूयास्त्र संघावमपि प्रसह्य ॥ (५९९३) राजिकादिलेपः (२)
राल, मोम, और गुडको तेल या घीमें पका( यो. र. । शूला.)
कर मल्हम बनावें। राजिका शिकल्कं च गोतक्रेण च पेषितम् । इसे लगानेसे होठोंकी तोद, परुषता ( खरतेन लेपेन हन्त्याशु शूलं वातसमुद्भवम् ॥ दरापन ), पीड़ा, और पीप या रक्तस्राव अवश्य
राई और सहजनेकी छालको गायके तक्रके | नष्ट हो जाता है । साथ पीस कर लेप करनेसे वातज शूल नष्ट (तीनों ओषधियां १-१ तोला । घी या होता है।
तेल २४ तोले ।) (५९९४) रालादिमलहरः । (५९९६) रालादिलेपः (२) (वै. र. । व्रणशोथा.)
( र. का. धे. । अ. ४०) कटुतैलसमं नीरं पाणिभ्यां मर्दयेदृढम् । रालालाक्षाचक्रमर्दमूलकोद्भवबीजतः । पञ्चशुक्तिमितं तस्मिन्रालचूर्ण च निःक्षिपेत् ॥ षष्टितण्डुलकं तपिष्टं दद्रुहर परः ॥
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३७२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
राल, लाख, पमाड़के बीज, मूलीके बीज रास्ना, नीलोत्पल, देवदारु, लाल चन्दन, और साठीके चावल समान भाग लेकर सबको ! मुलैठी और खरैटीको जड़ समान भाग लेकर एकत्र मिला कर तकके साथ पीस कर लेप |
सबको बारीक पीस कर घी तथा दूधमें मिलाकर करनेसे दाद नष्ट होता है।
लेप करनेसे वातज वीसर्प नष्ट होता है । (५९९७) रास्नादिलेपः (१)
__ (५९९९) रास्नादिलेपः (३) (व. से. । वातरक्ता.)
(वैद्य जीवन । विलास १) रास्नागुडूचीमधुकं पले वे
रास्नानागरलुङ्गमूलहुतभुग्दाळग्निमन्थैः समैसजीरकं सार्षपकं पयश्च ।
लेपः स्यादरविन्दवन्धनयने शोथव्यथाध्वंसनः।। घृतं मुसिद्धं मधुशेषयुक्तं
रास्ना, सांठ, बिजौ रे नीबूकी जड़, चीतामूल, रक्तानिलात प्रणुदेत्यदेहम् ॥
दारुहल्दी और अरनीकी जड़; इन सबका समान रास्ना, गिलोय, मुलैठी, जीरा और सफेद सरसों २-२ पल (१०-१० तोले ) लेकर
भाग चूर्ण ले कर सबको (पानीके साथ ) एकत्र
| पीस लें। सबको एकत्र पीस कर कल्क बनावें। तदनन्तर ५ सेर घीमें यह कल्क और २०
इसका लेप करनेसे सन्निपातके पश्चात् सेर दूध मिलाकर पकावें । जब दूध जल जाए तो
उत्पन्न होने वाला कर्णमूलका शोथ नष्ट होता है । घृतको छान लें।
(लेपको ज़रा गर्म कर लेना चाहिये । ) इस घीमें (१० तोले ) मोम मिलाकर
(६०००) रेचनयोगः सुरक्षित रखें।
( यो. र. । बालरोगा.) इसका लेप करनेसे वातरक्त नष्ट होता है।
पिष्ट्वा गन्धर्वबीजानि त्वाखुविनिम्बुवारिणा। (५९९८) रास्नादिलेपः (२) ।
| नाभौ गुदे वा लेपेन शिशूनां रेचनं परम् ॥ (वृ. यो. त. । त. १२३. ; व. से. । विसर्पा.; शा. सं.। खं. ३ अ. ११;
____ अरण्डीके बीजोंकी गिरी और चूहेकी विष्ठा वृ. नि. र. ; यो. र. । विसा.)
समान भाग ले कर दोनोंको नीबूके रसमें पीसकर रास्नानीलोत्पलं दारुवन्दनं मधुकं बला। । बालककी नाभि या गुदा पर लेप करनेसे उसे घृतक्षीरयुतो लेपो वातवीसर्पनाशनः ॥ विरेचन हो जाता है ।
इति रकारादिलेपप्रकरणम्
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धूपप्रकरणम् ]
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चतुर्थो भाग:
अथ रकारादिधूपप्रकरणम्
(६००१) राजवल्लभधूपः (र.स. क. । उल्ला. ५ ) कस्तूरीन्दुश्च वाहीकं नखं मांसी च सर्जकम् । गुरु सिता सर्व क्रमवृद्धं समं पुरम || स्तोकं स्तोकं क्षिपेत्तैलं दिनैकमथ कुदृयेत् । वतिं कुर्यात् प्रीता सा दिव्यं धूमं विमुञ्चति ।। सर्वदेवप्रियः सर्वमन्त्रसिद्धिप्रदायकः । स्नाने वस्त्रे तागारे धूपोऽयं राजवल्लभः ॥
कस्तूरी १ भाग, कपूर २ भाग, केसर ३ भाग, नखी ४ भाग, जटामांसी ५ भाग, राल ६ भाग, नागरमोथा ७ भाग, अगर ८ भाग और मिश्री ९ भाग तथा गूगल सबके बराबर ( ४५ भाग ) लेकर गूगल के अतिरिक्त सब चीजोंका बारीक चूर्ण बना लें और फिर उसे गूगल में मिला कर उसमें थोड़ा थोड़ा तेल डालते हुवे दिन भर कूढें । तदनन्तर उसकी बत्तियां बनाकर सुरक्षित रक्खें ।
इन्हें जलानेसे अत्युत्कृष्ट सुगन्धियुक्त धूम्र निकलता है ।
यह धूप सर्व - देवप्रिय और सर्वमन्त्र सिद्धिदायक है | एवं स्नान - जल, वस्त्र तथा रतागारको सुगन्धित करनेके लिये उपयोगी है ।
(६००२) रालादिधूप : (१) ( यो. र. । अर्शा. ; वृ. यो त । त. ७१ ) रालाचूर्णस्य तैलेन सार्षपेण युतस्य च ।
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धूमदानेन युक्त्याsर्शी रक्तस्रावी निवर्त्तते ॥
रालके चूर्णको सरसोंके तैलमें मिला कर धूनी देनेसे अर्श (बवासीर) का रक्तस्राव बन्द हो जाता है ।
३७३
(६००३) रालादिधूपः (२) ( वृ. नि. र. । मसूरिका. ) रालहिरसोनैश्च धूपयेत्ता मसूरिकाः । कृमयो न पतन्त्यत्र जाताः शाम्यन्ति ते लघुः ॥ राल, हींग और लहसन समान भाग लेकर सबको एकत्र पीस लें ।
इसकी धूप देने से मसूरिकामें कृमि उत्पन्न होते और यदि हो गए हों तो नष्ट हो जाते हैं।
नहीं
1
(६००४) रुगादिधूपः
(वै. जी. | विला. १ )
अयि कुशाग्रसमान मते मतिमतामतिमन्मथमन्थरे । ज्वरहरं रुरिष्टशिवावचायवहविर्जतुसर्षपधूपनम् ॥
कूठ, नीम के पत्ते, हर्र, बच, जौ, लाख और सरसों समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इति रकारादिधूपप्रकरणम्
95042
इसे घी में मिलाकर धूप देने से ज्वर नष्ट होता है ।
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३७४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
अथ रकारादिधूम्रप्रकरणम् (६००५) राज्यादिधृमः । हल्दी, दारु हल्दी और मनसिल समान भाग .( यो. त. । त. २८; यो. र. । कासा.) लेकर सबको एकत्र पीस लें। रात्रिद्वयशिलाधूमपानात्कासनुतिः कुतः। । इसका धूम्रपान करनेसे खांसी नष्ट होती है।
इति रकारादिधूम्रप्रकरणम्
- *
अथ रकाराद्यजनप्रकरणम् (६००६) रक्तचन्दनाद्या वतिः ५ तोले लाल चन्दनके चूर्णको तांबेके खर( ग. नि. ; रा. मा. । नेत्ररोगा.)
लमें भंगरेके रसमें धोटें। जब एक बारका रस सूख
जाय तो पुनः नवीन रस डालें । इसी प्रकार भंगअरुणचन्दनमागधिकानिशाः
रेके रसको १०० भावना दें। कतकबीजयुतागगनाम्भसा। समभिपेष्य कृता नयनामयान्
इसे शहद में मिलाकर आंखमें आंजनेसे ६ हरति वर्तिरुदीर्णतरानपि ॥
प्रकारका तिमिर रोग नष्ट होता है । लाल चन्दन, पीपल, हल्दी और निर्मलीके ___ (६००८) रसकेश्वरवर्तिः बीज; इनका समान भाग चूर्ण लेकर सबको एकत्र
( वैद्यामृत । विषय ५१) मिलाकर बरसातके स्वच्छ पानीमें घोट कर बत्तियां
रसकं सैन्धवं तुत्थं टङ्कणं कटुकत्रयम् । बना लें।
मर्दयेनिम्बुनीरेण वटी छायावशोषिता । इन्हें आंखमें आंजनेसे आंखोके भयंकर रोग
अभिता मधुना नेत्रे नेत्ररोगविनाशिनी । भी नष्ट हो जाते हैं।
रूक्षत्वमबुंदं पुष्पं दुर्मीसं तिमिरार्जुने ॥ (६००७) रक्ताञ्जनम्
पटलं नेत्रवातं च काचबिन्दूदकानि च । ( र. र. स. । उ. खं. अ. २३) अन्यानपि महारोगान्नाशयेद्रसकेश्वरः ॥ भृङ्गराजरसैघृष्टं पलैकं रक्तचन्दनम् । ___खपरिया, सेंधा नमक, नीलाथोथा, सुहागा, ताम्रपात्रे स्थितं भाव्यं तद्रसेन पुनः पुनः॥ सांठ, मिर्च और पीपल; इनका चूर्ण समान भाग शतधा भावयेद्यत्नात्पेष्य पेष्य पुनः पुनः। लेकर सबको एकत्र मिला कर नीबूके रसमें खरल मधुनाप्यानं हन्ति पविधं तिमिरामयम् ॥ । करें और फिर बत्तियां बना कर छाया में सुखा लें।
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अअनप्रकरणम्]
चतुर्थों भागः
३७५
इन्हें शहदमें घिसकर आंखमें आंजनेसे | इसे आंखमें लगाना पित्त विदग्ध दृष्टि के लिये नेत्रोंकी रूक्षता, अर्बुद, फूला, दुर्मास, तिमिर, | हितकर है। अर्जुन, पटल, नेत्रवात, काच, और बिन्दु तथा (६०११) रसाञ्जनाद्यञ्जनम् (२) आंखों पर पानी आ जाना इत्यादि नेत्र रोग नष्ट (व. से.; वृ. नि. र. । नेत्र रोगा. ) होते हैं।
रसाअनं शिला दारु जातीपत्ररसो मधु । ___ (६००९) रसाचनादिगुटिका नक्तान्ध्यतां जयेदेतदञ्जनं साधुयोजितम् ॥ (सु. सं. । चि. अ. ८; यो. चि. म. | अ. ३; रसौत, मनसिल, देवदारु, चमेलीके पत्तोंका शा. सं. 1 खं. ३ अ. १३; वृ. नि. र. । व. - रस और शहद समान भाग लेकर अंजन बनावें ।
से. : यो. र. । नेत्र रोगा.) | इसे आंखमें आंजनेसे नक्तान्ध्य ( रतौंधा ) रसाञ्जनं हरिद्रे द्वे मालतीनिम्बपल्लवाः ।
| नष्ट होता है। गोसकद्रससंयुक्ता वतिनतान्ध्यनाशिनी ॥ (चूर्ण योग्य द्रव्यांका पृथक् पृथक् चूर्ण
रसौत, हल्दी, दारुहल्दी, चमेलीके पत्ते करके लेना चाहिये । ) और नीमके पत्ते समान भाग ले कर सबको अत्यन्त (६०१२) रसाजनाद्यञ्चनम् (३) बारीक पीस कर गायके गोबरके रसमें घोट कर । (शा. ध. । खं. ३ अ. ११; यो. र. ; वं. से. । बत्तियां बनावें ।
नेत्र रो.) इन्हें आंखमें आंजनेसे नक्तान्ध्य ( रतौंधा) रसाञ्जनं व्योषयुतं सम्पेष्य वटकीकृतम् । नष्ट होता है।
कण्ड्रपाकान्वितां हन्ति नूनमञ्जननामिकाम् ॥ __ (६०१०) रसाञ्जनाद्यञ्जनम् (१)
रसौत; सांठ, मिर्च, और पोपलका चूर्ण
समान भाग ले कर सबको एकत्र पीसकर गोली ( यो. र. । नेत्ररो. ; व. से. )
बनावें। रसाधनं घृतक्षौद्रतालीसस्वर्णगैरिकैः। इसे ( पानीमें घिस कर ) लगानेसे खुजली गोशकृद्रससंयुक्तं पित्तोपहतदृष्टये ॥ और पाक युक्त अञ्जननामिका ( अञ्जनहारी )
नष्ट होती है। रसौत, तालीस पत्र और सोना गेरुका अत्यन्त
(६०१३) रसाञ्जनाद्यञ्जनम् (४) बारीक चूर्ण तथा घी, शहद और गायके गोबरका
(वं. से; यो. र. । नेत्र रो.; ग. नि. नेत्ररोगा. ३.) रस समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर
रसाअनं सर्जरसो जातीपुष्पं मनःशिला। खरल करें।
समुद्रफेनो लवणं गैरिकं मरिचानि च ॥ १ " मधुपल्लवाः” इति पाठान्तरम् । १ निशादार्वेति पाठान्तरम् ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
एतत्समांशं मधुना पिष्ट्वा प्रक्लिन्नवर्तमनि। अभयारसपिष्टं वा तगरं पिल्लनाशनम् ॥ अञ्जनं क्लेदकण्डूनं पक्ष्मणां च प्ररोहणम् ॥ भावितं बस्तमूत्रेण सस्नेहं देवदारु च ।।
रसौत, राल, चमेली के फूल (शुष्क), मनसिल, रसौत, राल, पुष्पाञ्जन, मनसिल, समुद्रझाग, समुद्र फेन, सेंधा नमक, गेरु और काली मिर्च, सेंधा नमक, गेरु, और काली मिर्च; इन सबके इनका चूर्ण समान भाग ले कर सबको एकत्र मि- बारीक चूर्ण १-१ भाग ले कर सबको एकत्र लाकर शहदमें घोट लें।
मिलाकर शहदमें खरल करके रक्खें । इसका अञ्जन लगानेसे आंखांके क्लेद (चिप- इसे आंखमें लगानेसे क्लेद (आंखोंकी चिपचिपाहट), और कण्डू (खाज) का नाश होता चिपाहट) और नेत्रकण्डू (खाज) नष्ट होती है। तथा पलकोंके गिरे हुवे बाल पुनः निकल
तगरको हर्रके रसमें पीस कर आंखमें लगाआते हैं।
नेसे पिल्ल रोग नष्ट होता है। यह योग क्लिन्नवर्ममें भी उपयोगी है ।
स्नेहयुक्त देवदार ( तेलियो देवदारु ) को (६०१४) रसाञ्जनाद्यञ्जनम् (५) ।
बकरेके मूत्रकी भावना दे कर उसे आंख में आंज(हा. सं. । स्थान ३ अ. ४८) नेसे भी पिल्ल रोग नष्ट होता है। रसाअनं सकट्फलं हरीतकी मनःशिला ।
(६०१६) रसादिवतिः गुडेन कट्फलं तथा निहन्ति नेत्रप्रच्छदम् ॥ (१) रसौत, कायफल, हर्र और मनसिल
(यो. त. । त. ७१) समान भाग ले कर अञ्जन बनावें। सटङ्कणसिन्धूत्थ व्योषखर्परतुत्यकैः ।
इसे आंखमें लगानेसे नेत्रपटल रोग नष्ट सवेतसाम्लैः सक्षौर्वतिर्नेत्रगदापहा ॥ होता है।
पारा, सुहागेकी खील, सेंधा नमक, सांठ, (२) कायफलका चूर्ण और गुड़ समान भाग मिर्च, पीपल, खपरिया और नीलाथोथा तथा ले कर दोनोंको एकत्र मिला कर खरल कर लें। अम्लबेत; इनका चूर्ण समान भाग लेकर सबको
इसे आंखमें लगानेसे भी नेत्रपटल नष्ट हो शहदमें मिलाकर वत्तियां बनावें । जाता है ।
इन्हे आंखमें आंजनेसे नेत्ररोग नष्ट होते हैं। (६०१५) रसाञ्जनाद्यञ्जनम् (६) ( वा. भ. । उत्त. स्था. अ. १६)
(६०१७) राजिकाद्यञ्जनम् रसाअनं सर्जरसो रीतीपुष्पं मनःशिला ।
( यो. चि. म. । अ. ३) समुद्रफेनं लवणं गैरिकं मरिचानि च ॥ राजिकामरिचं कृष्णा सैन्धवं भूतनाशनम् । अञ्जनं मधुना पिष्टं क्लेदकण्डनमुत्तमम् । नरमूत्रेण सम्पिष्य अञ्जनं ज्वरनाशनम् ॥
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अञ्जनप्रकरणम्] चतुर्थों भागः
३७७ राई, काली मिर्च, पीपल, सेंधानमक और | सूक्ष्म पिष्ट्वा जले वर्तिः कृता कुसुमिकाभिधा । सरसों; इनका चूर्ण समान भाग लेकर सबको मनु- तिमिरार्जुन शुक्राणां नाशिनी मांसद्धिहृत् ॥ प्यके मूत्रमें पीस कर अंजन बनावें । इसे आंखमें लगानेसे ज्वर नष्ट होता है।
___तिलके फूल ८०; पीपलके कण (चावल) (६०१८) रास्नाद्यञ्जनम्
६०, चमेलीके फूल ५० और काली मिर्च १६; (यो. र. । सन्निपाता.) इन सबको पानीके साथ अन्यन्त बारीक पीस कर रास्नामनःशिलैलाअनमेतात्तन्द्रिकेऽभीष्टम् ॥ बत्तियां बनावें ।
रास्ना, मनसिल और इलायची समान भाग लेकर सबको एकत्र घोट कर अत्यन्त बारीक अ
इन्हें आंखमें लगानेसे तिमिर, अर्जुन, शुक्र अन बनावें ।
और मांस वृद्धिका नाश होता है। यह अञ्जन तन्द्रिक सन्निपातमें उपयोगी है। (६०१९) रोध्राद्यञ्जनम्
(६०२१) रोहिण्यादिवटी (हा. सं. । स्था. ३ अ. ५७)
(वै. म. र. । पटल १६) रोधं रसाधनं धात्री गैरिकं मधुना युतम् ।। अञ्जनं चैव बालानां नेत्ररोगनिवारणम ॥ रोहिणीतुत्थकहारोत्पलकेसरनिर्मिता।
लोध, रसौत, आमला और गेरुका चर्ण | दावीक्याथेन गुटिका पित्तामतणनाशिनी ॥ समान भाग लेकर सबको शहदमें घोट कर
__ कुटकी, नीलाथोथा, कुमुद, नीलोत्पल और अंजन बनावें। यह अंजन बालकांके समस्त नेत्र रोगांको |
केसरका चूर्ण समान भाग लेकर सबको एकत्र नष्ट करता है।
| मिला कर दारुहल्दीके काथमें घोट कर गोलियां (६०२०) रोपणी कुसुमिकावतिः । बना लें।
(शा. सं. । खं. ३ अ. १३ ) तिलपुष्पाण्यशीतिः स्युः षष्टिसंख्या कणाकण इसे आंखमें लगानेसे पित्तज अर्म और नेत्रजातीकुसुमपश्चाशत् मरिचानि च षोडश ॥ व्रण नष्ट होता है ।
इति रकाराधअनप्रकरणम्
४८
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३७८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
अथ रकारादिनस्यप्रकरणम् (६०२२) रक्तकरवीरयोगः कूठ; इनका चूर्ण समान भाग लेकर सबको बकरेके ( यो. र. । नासा.)
मूत्रमें खरल करें। रक्तकरवीरपुष्पं जात्यं वा तथा मल्लिकायाः। ___ इसको नस्य देनेसे तन्द्रा नष्ट होती है। एतैः समं तिलतैलं नासार्शी नाशनं परम् ॥ (६०२५) रेचनसज्ञकनस्यम् (२) ___लाल करवीर (कनेर) के फूल, जातिके फूल (शा. सं.। खं. ३ अ. ८)
और मल्लिका के फूल समान भाग लेकर उन्हें | मधूकसारकृष्णाभ्यां बचामरिचसैन्धवैः। सबके बराबर तिल तैलमें घोट लें । ( अथवा इनके | नस्य कोष्णजले पिष्टं दद्यात्सद्भाप्रबोधनम् ॥ कल्कसे तैल सिद्ध करें।)
अपस्मारे तथोन्मादे सन्निपातेऽपतन्त्रके ॥ इसकी नस्य लेनेसे नासार्श नष्ट होती है। ___महुवेका सार, पीपल, बच, काली मिर्च और (६०२३) रक्ताम्रस्वरसादियोगः सेंधा नमक; इनका चूर्ण समान भाग लेकर सबको (यो. र. । नासा.)
एकत्र मिला कर खरल करें। रक्ताम्रस्वरसः शुद्धस्तक्रेण सह नस्यतः। ___इसे मन्दोष्ण जलमें पीसकर नस्य देनेसे तस्य पर्णानि पिष्टा च बनीयान्नासिकामुखे ॥ अपस्मार, उन्माद, सन्निपात और अपतन्त्रककी पतन्ति कीटकाः सद्यो योगोऽयं त्रिदिनैर्हितः। बेहोशी दूर हो जाती है। पीनसान्मुच्यते रोगी शतशोऽनुमितं त्विदम्॥ (६०२६) रेचनसम्ज्ञकनस्यम् (३) ___कोशाम्र ( वनाम्र-कोशंभ ) के स्वरसको | (शा. सं. । खं. ३ अ. ८) छानकर तक्रमें मिलाकर उसकी नस्य लेने तथा | नस्यं स्याद गुडशुण्ठीभ्यां पिप्पलीसैन्धवेन च। उसीके पत्तोंको पीसकर नासिकाके मुख पर बांध- जलपिष्टेन तेनाक्षिकर्णनासाशिरोगदाः॥ नेसे नासिकासे कृमि निकल कर ३ दिनमें पीनस हनुमन्यागलोद्भूता नश्यन्ति भुजपृष्ठजाः ॥ नष्ट हो जाती है।
___ गुड़ और सेठिके चूर्णको एकत्र मिलाकर यह प्रयोग शतशोऽनुभूत है।
उसकी अथवा पीपल और सेंधा नमकके समान (६०२४) रेचनस कनस्यम् (१) भाग-मिश्रित चूर्णकी नस्य लेनेसे नेत्र, कर्ण, नासा,
(शा. स.। ख. ३ अ. ८ ) | शिर, हनु, मन्या, गला, भुजा और पीठके रोग सन्धवं श्वेतमरिचं सर्षपाः कुष्ठमेव च । नष्ट होते हैं। बस्तमूत्रेण पिष्टानि नस्यं तन्द्रानिवारणम् ॥ उपरोक्त चूर्णीको पानीमें पीस कर नस्य सेंधा नमक, सहजनेके बीज, सरसों और । देनी चाहिये ।
इति रकारादिनस्यप्रकरणम्
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः
-
अथ रकारादिरसप्रकरणम् (६०२७) रक्तपित्तकुलकण्डनरसः । तथा घीकी पृथक् पृथक् एक एक भावना देकर
(निकायमा (रक्तपित्तकुठारो रसः)
सुरक्षित रक्खें।। ( र. का. धे. ; वृ. नि. र. ; र. रो. सु. ; यो. अनुपान-शहद और बासेका रस । र. ; र. चं. । रक्तपित्ता. ; वृ. यो. त.।। यह रस रक्तपित्तको नष्ट करता है। रक्त ___त. ७६; यो. त. । त. २६)
| पित्तके लिये इससे उत्तम अन्य औषध नहीं है। शुद्धपारदबलिप्रवालक
(६०२८) रक्तपित्तहररसः हेममाक्षिकभुजङ्गरणकम् ।
(र. रा. सु. । रक्तपित्ता.) मारितं सकलमेतदुत्तम
मृतं सूतं मृतं तानं तीक्ष्णं वासारसैदिनम् । भावयेत् पृथक पृथक्वैस्ततः ॥
मर्दितं माषमात्रं तु भक्षयेद्रक्तपित्तनुत् ॥ चन्दनस्य कमलस्य मालती
पारद भस्म ( अभावमें रस सिन्दूर ), ताम्र
भस्म, और तीक्ष्ण लोह भस्म समान भाग लेकर कोरकस्य वृषपल्लवस्य च । धान्यवारणकणाशतावरी
सबको एकत्र मिलाकर एक दिन बासे के रसमें
खरल करें। शाल्मलीवटजटामृतस्य च ॥
मात्रा-१ माषा। रक्तपित्तकुलकण्ड नाभियो
इसके सेवनसे रक्तपित नष्ट होता है । जायते रसबरोऽसपित्तिनाम् ।
( व्यवहारिक मात्रा--१-२ रत्ती ।) पाणदो मधुपद्रवैरयं
(६०२९) रक्तपित्तान्तकलौहम् सेवितस्तु वसुकृष्णनिर्मितः॥ नास्त्यनेन सममत्र भूतले
( भै. र. । रक्तपित्ता.) भेषजं किमपि रक्तपित्तिनाम् ॥ धात्री च पिप्पलीचूर्ण तुल्यायः सितया सह । शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, प्रवाल (मूंगा) रक्तपित्तहरं लौहमम्लपित्तं विनाशयेत् ।। भस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म, सोसा भस्म और बङ्ग
। आमले और पीपलका चूर्ण १-१ भाग तथा भस्म १-१ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी | लोह भस्म सबके बराबर लेकर सबको एकत्र कजली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे मिला- | मिला कर रखें।। कर सबको चन्दन, कमल, मालतीको कलियां, । इसे मिश्रीमें मिलाकर सेवन करनेसे रक्तपित्त बासेके पत्ते, धनिया, गजपीपल, सतावर, संभलकी और अम्लपित्तका नाश होता है। छाल और बड़की दाढ़ी; इनके काथ या स्वरेस (मात्रा-२-३ रत्ती।)
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि (६०३०) रक्तपित्तान्तको रसः इसमें ( रक्तमारेश्वर रसमें ) ताम्रसंपुटका (धन्व. ; र. चं. ; भै. र. । रक्तपित्ता. ; र. रा. वजन गोलेके बराबर लिखा है । शेष प्रयोग
सु. ; रसे. सा. सं. । रक्तपित्ता.) समान है। मृतानं मुण्डतीक्ष्णश्च माक्षिकं रसतालकम् । (६०३१) रक्तरसः गन्धकश्च भवेत्तुल्यं यष्टिद्राक्षामृताव्यैः ॥
( र. प्र. सु. । अ. ३) दिनैकं मर्दयेत्खल्ले सिताक्षौद्रसमन्वितम् । रसविदाऽपि रसः परिशोधितो गुञ्जाद्वयं निहन्त्याशु रक्तपित्तं सुदारुणम् ॥ विगतदोषकृतोऽपि हि गन्धकः। ज्वरं दाहं क्षतक्षीणं तृष्णां शोषमरोचकम् ॥ विमललोहमये कृतखपरे ___ अभ्रक भस्म, मुण्ड लोह भस्म, तीक्ष्ण लोह ह्यमलसाररजः परिमुच्यताम् ॥ भस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म, शुद्ध पारद, हरताल
अतिकशाग्नियुते द्रवति स्वयं भस्म (या शुद्ध हरताल ) और शुद्ध गन्धक ___ तदनु तत्र रसः परिमुच्यताम् । समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी विशदलोहमयेन च दर्षिणा कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे विघटयेत्महरत्रयसम्मितम् ॥ मिलाकर सबको मुलैठी, द्राक्षा ( मुनक्का ) और
तदनु काचघटी विनिवेश्य । गिलोयके स्वरस या काथमें पृथक् पृथक् १-१
वै सिकतयन्त्रवरेण हि पाचितः । दिन घोट कर सुरक्षित रखें।
द्विदशयाममधः कृतवह्निना इसे मिश्री और शहदके साथ सेवन करनेसे भवति रक्तरसस्तलभस्मसात् ।। भयङ्कर रक्तपित्त भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। गतबलेन नरेण हि सेवितो
- इसके अतिरिक्त यह रस ज्वर, दाह, क्षत, भवति वाजिकरः सुखदः सदा । क्षीणता, तृषा, शोष और अरुचिको भी नष्ट स च बलिपलितानि च नाशयेकरता है।
च्छतशरत्सु निरामयकृत्परम् ॥ मात्रा--२ रत्ती।
समान भाग शुद्र पारद और शुद्ध गन्धक रक्तमारेश्वररसः
| लेकर प्रथम गन्धकको लोहे की स्वच्छ कढाई में
डाल कर अत्यन्त मन्दाग्नि पर पिघलावें । जब (रक्तकुमारीश्वररसः)
वह पूर्णतः पिघल जाय तो उसमें पारद डाल कर (र. रा. सु. । ज्वरा.) दोनेांको ३ पहर तक लोहेके स्वच्छ करछेसे " मोरेश्वर रसः " प्रयोग संख्या ५६८२ . घोटें । तदनन्तर उसे आतशी शीशीमें भर कर देखिये।
बालुका यन्त्रमें १२ पहरकी अग्नि दें।
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रसप्रकरणम्
चतुर्थों भागः
इस विधिसे तलस्थ रक्त स्म तैयार होगी। बांधकर पोटली बनावें और इस पोटलीको शुद्ध उसे निकाल कर सुरक्षित रक्खें ।
गंधकके बीचमें रख कर एक दूसरे कपड़ेमें बांध दें इसे सेवन करनेसे निर्बल व्यक्ति भी बलवान तथा उपरोक्त विधिसे पुनः कुक्कुट पुटमें पकावें । हो जाते हैं । यह अत्यन्त वाजीकर और बलि- इसे अदरकके रस और शहदके साथ सेवन पलित-नाशक है । इसे सेवन करने वाले व्यक्ति | कराना चाहिये । रोगरहित १०० वर्ष की आयु प्राप्त करते हैं।
यह रस एक दोषज, द्विदोषज और त्रिदोषज (६०३२) रक्तवर्णहेमगर्भरसः समस्त रोगांको नष्ट करता है। ( यो. र. । क्षया.)
( मात्रा--१ रत्ती ।) हिङ्गलं कर्षमात्रं तु मर्दयेत्खल्वमध्यगम् । (६०३३) रक्तसूतशेखररसः सुवर्ण माषमेकं च तत्समं पारदं क्षिपेत् ॥
(र. च. । कफरोगा.) मर्दयित्वा क्षिपेत्तत्र गन्धकं ह्यर्धमाषकम् ।
अभ्रकं रससिन्दूरं सुवणे शुल्बमुत्तमम् । मर्दयेदर्क जक्षीरैर्बन्धयेत्पट्टमध्यगे ॥ लोहं कम्बुजभूतिं च विषं कनकबीजकम् ॥ भूधरे पाचयेधन्त्रे कुक्कुटोपुटितेन च । चतुर्जातं टङ्कणं च शठी व्योषं च केसरम् । पुनर्वस्त्रेण सम्वेष्टय तस्योपरि च गन्धकम् ।।
सर्व समं तु कस्तूर्यास्तुयांश प्रक्षिपेत्वले ॥ वस्त्रमेकत्र बध्नीयात् पुनर्यन्त्रेण पूर्ववत् । । घसा द्रावेण सम्मर्य मार्कवस्य रसैदिनम् । हेमगर्भरसो नाम तरुणारुणसन्निभः ॥
मूतशेखरनामाऽयं तरुणारुणसन्निभः ॥ सर्वरोगेषु दातव्य एकैके द्वित्रिदोषजे।
गुआमानेन मध्याक्तो मध्वाकरसेन वा । त्रिदोषे आईकरसैमधुयुक्तैः प्रयोजयेत् ॥ जयेद्वातकफोद्रेकं तथा खण्डाईयोगतः ॥
११ सोला शुद्ध हिंगुलको खरल करके उसमें | वातपित्तामयं हन्यात्तथा रास्नाकषायतः। १। माशा सुवर्ण पत्र और १। माशा शुद्ध पारद | वातं गुडूचीसत्त्वेन मधुना सवेमेहनुत् ॥ मिला कर पुनः खरल करें । तदनन्तर उसमें ५ | गोदुग्धखण्डयोगेन पित्तोद्रेकं जयेद् ध्रुवम् । रत्ती शुद्ध गंधक मिला कर अच्छी तरह खरल करें। क्षयं पाण्डं मेहरुज जीर्णज्वरमथारुचिम् ।।
और फिर उसे आकके दूधमें घोट कर गोला बनावें प्रदरं हन्ति मान्य च सोमरोग शिरोग्रहम् । तथा उसे सुखा कर कपड़ेमें बांध कर पोटली | अनुपानविशेषेण पूर्वोक्तानामयाञ्जयेत् ॥ बनावें । अब इस पोटलीको सम्पुटमें बन्द करके | ___अभ्रक भस्म, रस सिन्दूर, सुवर्ण भस्म, ताम्र भूधर यन्त्रमें कुक्कुट पुट दें।
भस्म, लोह भस्म, शंख भस्म, शुद्ध बछनाग (मीठा इसके पश्चात् यन्त्रके स्वांग शीतल होने पर | विष), शुद्ध धतूरेके वीज, दालचीनी, तेजपात, उसमेंसे औषधको निकाल कर उसे पुनः कपड़ेगे ! इलायची, नागकेसर, सुहागा, कचूर, सांठ, मिर्च,
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
पीपल और केसर ४-४ भाग तथा कस्तूरी १ त्रिदोष नाशयेच्छीघ्रं क्रियां शीतां प्रयोजयेत् । भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर १-१ दिन स्थूलं कृशं कृशं स्थूलं करोत्यग्निप्रदीपनम् ।। केसरके पानी और भंगरेके रसमें घोट कर सुर- | त्रिदोषात्पतितं रक्तं वणनाडयभिघातनम् । क्षित रक्खें ।
यकरप्लीहोत्थितं यच्च यच्च कुष्ठकरं त्वमृक् ॥ मात्रा-१ रत्ती।
शोधयेद् दुष्टरक्तं तद्रसो रक्तारिसञ्जकः ॥ अनुपान.
__ शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग वात कफकी अधिकतामें---शहद, या अदरक
और ताम्र भस्म ३ भाग लेकर सबको एकत्र खरल के रेस और शहदके साथ दें।
करके कज्जली बनावें और फिर उसे २१ दिन तक वात पित्तज रोगांमें--अदरकके रस और
अदरकके रस में घोट कर गोला बना कर सुखा
लें । अब उसे अन्धमूषामें बन्द करके गजपुटमिश्रीके साथ दें।
में पकावें। ___ वातज रोगांमें---रास्नाके क्वाथके साथ सेवन
मात्रा--१ रत्ती। करावें।
इसे सेठिके चूर्ण और घीके साथ मिला कर प्रमेहमें---गुडूची सत्व और शहदके साथ
खाना और बादको खांडका ठण्डा शर्बत पीना खिलाना चाहिये ।
चाहिये और इसीके साथ अन्य शीतल क्रियाएं भी पित्तकी अधिकता--मिश्री युक्त गोदुग्धके | करनी चाहिये। साथ देनेसे पित्तकी अधिकता अवश्य शान्त हो
इसके सेवनसे स्थूल पुरुष कृश, और कृश जाती है।
पुरुष स्थूल होता तथा अग्नि दीप्त होती है । यह रस उचित अनुपानके साथ सेवन करनेसे
यह रस ब्रण, नासूर और अभिघात (चोट क्षय, पाण्डु, प्रमेह, जीर्ण ज्वर, अरुचि, प्रदर,
आदि) से बहने बाले त्रिदोषज रक्तको बन्द करता अग्निमांद्य सोमरोग और शिरोग्रहको नष्ट
और यकृत् तथा प्लीहा-गत रक्तस्रावको शान्त करता है।
करता है एवं कुष्ठादि रोगांको उत्पन्न करने (६०३४) रक्तारिरसः वाले रक्तदोषोंको नष्ट करके रक्तको शुद्ध कर (र. स. क. । उल्लास. ४; र. का. धे. । ब्रणा.) | देता है । सूतं गन्धं तथा शुद्ध क्रमादेकद्विभागिकम्। (६०३५) रक्तोदरकुठाररसः तुल्याकै भावयेदारसैश्चापि त्रिसप्तधा ।।
( र. र. स. । अ. १८) गोलं कृत्वाऽन्धमूषायां रुवा गजपुटे पचेत् । पारदं शिखितुत्यं च जेपालं पिप्पली समम् । घृतशुण्ठया च गुञ्जकं शीतोदं ससितं ह्यनु ॥ । आरग्वधफलान्मज्जा वज्रीदुग्धेन भावयेत् ॥
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रसपकरणम् ]
चतुर्यों भागः
सूक्ष्ममात्रां वटी खादेत्स्त्रीणां हन्याजलोदरम्। लीढं प्रासः क्षपयतितरां यक्ष्मपाण्डूदरार्शः चिश्चाफलरसं चानु पथ्यं दध्योदनं हितम् ॥ वासं कासं नयनजरुजः पित्तरोगानशेषान् ।। रक्तोदरकुठारोपि कठिनं रेचयत्ययम् ॥ चांदी भस्म और अभ्रक भस्म १-१ भाग, ___ शुद्ध पारद, शुद्ध तूतिया (भस्म ), शुद्ध | तथा सांठ, मिर्च, पीपल, हर, बहेड़ा और आमला जमालगोटा, पीपलका चूर्ण और अमलतासका | २-२ भाग लेकर सबको एकत्र मिला कर गूदा समान भाग लेकर सबको एकत्र मिला कर | खरल करें। सेंड ( थूहर सेहुंड ) के दूधमें खरल करें और इसे धीमें मिला कर प्रातः काल सेवन करने अत्यन्त सूक्ष्म (सरसों समान) गोलियां बना लें। से यक्ष्मा, पाण्डु, उदर, अर्श, श्वास, खांसी, नेत्र
इसके सेवनसे तीव्र रेचन हो कर स्त्रियांका | रोग और समस्त पित्त रोगोंका नाश होता है। जलोदर नष्ट हो जाता है।
नोट--प्रयोगका नाम " रजतादि लोह" अनुपान-रस खानेके पश्चात् इमलीको | है, परन्तु इसके पाठमें लोहका अभाव है अतः पानी पीना चाहिये।
पाठ भ्रष्ट हो गया प्रतीत होता है। साधारण पथ्य-दही भात ।
परिपाटीके अनुसार इसमें सबके बराबर लोह भस्म
भी मिलानी चाहिये। (६०३६) रघुनाथरसः (र. का. धे. । ज्वरा.)
( मात्रा--२-३ रत्ती ।) रसगन्धकरात्र्यूषैः रघुनाथो भवेद्रसः। (६०३८) रतिकामरसः विषमज्वरमन्दाग्निकासश्वासनिवारणः ॥
(र. र. रसा. ख. । उपदेश ६ ) ___ शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, हल्दी और रेह | प्रारम्भरजसा स्त्रीणां मर्दयेद्भस्म सूतकम् । मिट्टी समान भाग लेकर प्रथम पारद गन्धककी | मृतं तानं च तारं च गन्धकं च समं दिनम् ।। कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियां सितामध्वाज्यसंयुक्तं निष्कं भुक्त्वा पिबेत्पयः। मिला कर खरल करें।
रतिकामरसो नाम कामिनोरमणे हितः ॥ इसके सेवनसे विषम ज्वर, अग्निमांद्य, खांसी
वानरीमूलगोधूमं कोकिलाक्षस्य बीजकम् । और श्वास नष्ट होता है।
माषाश्चेक्षुरसैः सर्वे लोडितं पाचयेद्वृतः ॥ (६०३७) रजतादिलोहम् | तेनैव वटकाः कार्या नित्यं खादेवयं द्वयम् । (रसे. सा. सं. ; र. चं. ; र. रा. सु. । राजयक्ष्मा.) | अनुपानमिदं सिद्ध सेवनादमयेच्छतम् ॥ भस्मीभूतं रजतममलं तत्समं व्योमचूर्ण ____ स्त्रीके प्रथम बारके रज (आर्तव) में खरल सर्वैस्तुल्यं त्रिकटु सवरं सर्वमाज्येन युक्तम् । । की हुई पारद भस्म १ भाग, ताम्र भस्म १ भाग,
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि चांदी भस्म १ भाग और शुद्ध गन्धक १ भाग विश्वावीरणबारिवारिदवरा वांशी वरी वानरी लेकर सबको एकत्र मिला कर खरल करें। द्राक्षा सेक्षुरगोक्षुराऽथ महती खजूरिका क्षीरिका मात्रा--१ निष्क ।
धान्याकं सकसेरुकं समधुकं शङ्गाटकं जीरकं अनुपान-औषधको मिश्री, शहद और घीमें पृथ्वोकाऽथ यवानिका वरटिका मांसी मिसी
मेथिका॥ मिलाकर खानेके पश्चात् दूध पीना चाहिये।
| कन्देष्वत्र विदारिऽकाथ मुशली गन्धर्वगन्धा तथा विशेष अनुपान ----कौंचकी जड़का चूर्ण, | करं करिकेसरं समरिचं चारस्य बीजं नवम्। गेहूंका आटा, तालमखानेका चूर्ण और उड़दका बीजं शाल्मलिसम्भवं करिकणा बीजं च राजीवनं आटा समान भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकरे | श्वेतं चन्दनमत्र रक्तमपि च श्रीसंज्ञपुष्पैः समम्।। ईखके रसमें सान कर उसके ( छोटे छोटे ) पूड़े | सर्व चेति पृथक्पृथक्पलमितं सञ्चूर्ण्य तत्र क्षिपेत बनाकर घीमें तलकर रक्खें।
मूतं वङ्गभुजङ्गलोहगगनं सन्मारितं स्वेच्छया । नित्य प्रति औषध खानेके पश्चात् इसमेंसे २ । कस्तूरीघनसारचूर्णमपि च प्राप्त तथा प्रक्षिपेत् पूड़े खाने चाहिये।
पश्चादस्य तु मोदकान्विरचयेद विल्वप्रमाणानथ इस प्रकार इस रसको सेवन करनेसे स्त्री- तान्भुक्त्वाऽति सदा यथानलबलं भुजीत नाम्लं रमण-शक्ति अत्यधिक बढ़ जाती है ।
रसं पूर्वस्मिन्नशिते गते परिणति प्राग्मोजनाद्भक्षयेद् (६०३९) रतिवल्लभपूगपाकः
नित्यं श्रीरतिवल्लभाख्यकमिमं यः पूगपाकं भजेत् ( यो. र. । वाजीकरण. ; वृ. यो. त. । त. | स स्याद्वीर्यविवृद्धिवृद्धमदनो वाजीव शक्तो रतौ
१४७; नपुंस्का । त. ४) | दीप्ताग्निर्बलवान्बली विरहितो हृष्टः सुपुष्टः सदा पुगं दक्षिणदेशजं दशपलोन्मानं भृशं कर्तयेत् वृद्धो योऽपि युवेव सोऽपि रुचिरः पूर्णेन्दुवतच्छिन्नं जलयोगतो मृदुतरं सङ्कटय चूर्णीकृतम
सुन्दरः॥ तच्चूर्ण पटशोधितं वसुगुणे गोशुद्धदुग्वे पचेत १० पल ( ५० तोले ) दखिनी सुपारी ले गव्याज्याअलिसंयुतेऽतिनिविडे दद्यात्तुलार्धा कर उनके छोटे छोटे टुकड़े करके पानीमें भिगो दें
सिताम ॥ | और फिर जब वे फूल कर कोमल हो जाएं तो उन्हें पकं तज्ज्वलनाक्षितिं प्रति नयेत्तस्मिन्पुनः अच्छी तरह कूट कर सुखा लें और फिर कपडछन
प्रक्षिपेद
चूर्ण तैयार कर लें ।
दद्यात्तत्तदुदीरयामि बहुला दृष्ट्वाऽऽदरात्संहिताः तदनन्तर उसमें १० सेर गोदुग्ध और ४० एला नागबला बलासचपलाजातीफलं लिंगिता तोले घी डाल कर पकावें । जब गाढ़ा हो जाय जातीपत्रकपत्रपत्रकयुगं तच्च त्वचा संयुतम् ॥ ' तो उसमें ३ सेर १० तोले खांड मिलाकर थोड़ी
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
देर और पकावें और पाक लगभग तैयार हो जाने । (६०४०) रतिवल्लभो मोदकः पर अग्निसे नीचे उतार कर उसमें निम्न लिखित
(भै. र.। वाजीकरणा.) चीजोका चूर्ण मिलाकर ५-५ तोलेके मोदक | शक्राशनस्य बीजानां चूर्णान्यष्टपलानि च । बना लें।
हविषः कुडवञ्चकं सितापस्थं प्रगृह्य च ॥ चूर्णकी ओषधियां--इलायची, नागबला | शतावरीरसप्रस्थं तथा शक्राशनस्य च । ( गंगेरन ), खरैटी, पीपल, जायफल. शिवलिंगी. गव्यमा पयःप्रस्थं ततः प्रस्थद्वयं पचेत् ॥ जावित्री, तेजपात, तालीसपत्र, दालचीनी, सेठ, धात्री द्विजीरकं मुस्तं त्वगेलापत्रकेशरम् । खस, सुगन्धबाला, नागरमोथा, हर्र, बहेड़ा,
आत्मगुप्ता चातिवला तालाङ्करकशेरुकम् ॥ आमला, बंसलोचन, शतावर, कौंचके बीज, मुनक्का,
शृङ्गाटकं त्रिकटुकं धान्यमभ्रश्च वङ्गकम् । तालमखाना, गोखरु, बड़ी खजूर, खिरनी, धनिया,
| पथ्या द्राक्षा च काकोल्यौ खरं क्षुरकं तथा। कसेरु, मुलैठी, सिंघाड़ा, जीरा, बड़ी इलायची,
कटुका मधुकं कुष्ठं लवङ्गं सारसैन्धवम् ।
यमानी चाजमोदा च जीवन्ती गजपिप्पली ॥ अजवायन, कुसुम्भके बीज, जटामांसी, सौंफ, मेथी,
प्रत्येकं कर्षमेकन्तु चूर्णितानि शुभानि च । विदारी कन्द, मूसली, असगन्ध, कचूर, नागकेसर.
कुडवाद्धे पाकशेषे मधुनः प्रक्षिपेत्ततः ॥ काली मिर्च, चिरौंजी, संभलके बीज, गजपीपल,
मृगाण्डजं सकपूर यथालाभं विनिक्षिपेत् । कमलगट्टा, सफेद चन्दन, लाल चन्दन और लौंग;
रतिवल्लभनामायं सेव्यमानो महारसः ॥ प्रत्येकका चूर्ण ५-५ तोले तथा रससिन्दूर, बंग
परमोजस्करो बल्यो वातव्याधिविनाशनः । भस्म, सीसा भस्म, लोह भस्म, अभ्रक भस्म, कस्तूरी
वातपित्तहरो वृष्यो दृष्टिसन्दीपनः परः ।। और कपूर यथोचित परिमाणमें ले कर सबको
पित्तश्लेष्मासपित्तनो विषगुल्मज्वरापहः । एकत्र मिला लें।
पातव्य एष मन्दाग्निरोगाणां क्षयहेतुकः ॥ इन्हें यथोचित मात्रानुसार, प्रथम बार किया | न भवेल्लिङ्गशैथिल्यं वृद्धानां पुष्टिवर्द्धनम् । हुवा भोजन पच जानेके पश्चात् और दूसरी बारके
यस्य गेहे सदा बह्वयः पत्न्यः स्युः सुमनोहराः।। भोजनसे पूर्व खाना चाहिये।
रसः सेव्यः सदैवायं मोदको रतिवल्लभः ॥
____ भांगके बीजोंका चूर्ण आधा सेर, घी आधा अपथ्य--अत्यम्ल पदार्थ ।
सेर, मिश्री १ सेर, शतावर और भांगका रस २-२ . ये मोदक अत्यन्त वीर्य वर्द्धक और वाजीकरण | सेर, एवं गायका दूध २ सेर और बकरीका दूध हैं । इनके सेवनसे अग्नि दीप्त होती, बल बढ़ता ४ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर तथा झुर्रियां नष्ट हो जाती हैं। एवं वृद्ध पुरुष पकावें । जब पाक लगभग तैयार हो जाए तो उसमें भी युवाके समान हो जाता है।
| निम्न लिखित प्रक्षेप द्रव्यांका चूर्ण मिला दें---
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
प्रक्षेप द्रव्य---आमला, सफेद जीरा, काला (६०४१) रत्नगर्भपोटलीरसः जीरा, नागरमोथा, दालचीनी, इलायची, तेजपात, (भै. र. ; र. चं. ; र. र. ; र. रा. सु. ; रसें. नागकेसर, कौंचके बीज, अतिबला (कंघी) की जड़, सा. सं. । राजयक्ष्मा. ; र. का. धे. । क्षय. ; वृ. तालके अंकुर, कसेरु, सूखा सिंघाड़ा, सोंठ, मिर्च, | यो. त. । त. ७६; रसे. चि. म.। अ. ९; यो. पीपल, धनियां, अभ्रक भस्म, बंग भस्म, हर्र, द्राक्षा | त.। त. २७; वृ. नि. र. । क्षय.) । (मुनक्का), काकोली, क्षीरकाकोली, खजूर (पिण्ड | रसं वज्रं हेम तारं नाग लौहश्च ताम्रकम् । खजूर), तालमखाना, कुटकी, मुलैठी, कूठ, लौंग, तुल्यांशं मारित योज्यं मुक्तामाक्षिकविद्वमम् ॥ लोह भस्म, सेंधा नमक, अजवायन, अजमोद, शङ्खश्च तुत्थं तुल्यांशं सप्ताहं चित्रकद्रवैः। जीवन्ती और गजपीपल; इनका चूर्ण ११-१। मर्दयित्वा विचूाथ तेन पूर्या वराटिका ॥ तोला ।
| टङ्गणं रविदुग्धेन पिष्ट्वा तन्मुखमन्धयेत् । यह चूर्ण मिलाने के पश्चात् जब पाक ठण्डा | मृद्भाण्डे तं निरुध्याय सम्यग्गजपुटे पवेत् ॥ हो जाए तो उसमें २० तोले शहद और सुगन्ध आदाय चूर्णयेत्सर्वं निर्गुण्डयाः सप्तभावनाः । योग्य कपूर तथा कस्तूरी मिलाकर सुरक्षित रक्खें । आर्द्रकस्य रसैः सप्त चित्रकस्यैकविंशतिः ॥
द्रवैर्भाव्यं ततः शोष्यं देयं गुञ्जकसम्मितम् । यह मोदक अत्यन्त ओज वर्द्धक और बल.
यक्ष्मरोग निहन्त्याशु साध्यासाध्यं न संशयः॥ कारक है। तथा इसके सेवनसे वातव्याधि, वात
| योजयेपिप्पलीक्षौद्रैः सघृतमरिचैस्तथा।। पित्तज रोग, पित्तकफज रोग, रक्तपित्त, विष
महारोगाष्टके कासे ज्वरे श्वासेऽतिसारके ॥ विकार, गुल्म, ज्वर और अग्निमांद्यका नाश
पोटलीरत्नगर्भोऽयं योगवाहे नियोजयेत् ॥ होता है।
रस सिन्दूर, हीरा भस्म, स्वर्ण भस्म, चांदी यह अत्यन्त वृष्य (वीर्य · वर्द्धक ), दृष्टि |
भस्म, सीसा भस्म, लोह भस्म, ताम्र भस्म, मोती वर्द्धक, और पौष्टिक है।
भस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म, प्रवाल भस्म, शंख इसे सेवन करनेसे कभी लिङ्ग-शैथिल्य | भस्म और शुद्ध तूतिया (तुत्थ) समान भाग लेकर नहीं होता।
१ लोहं तथा अभ्रकमिति पाठान्तरम् । जिनके यहां अनेकां पत्नियां हां उन्हें यह २ तुल्यांशं मरिचमिति पाठान्तरम् ।
* कई ग्रन्थों में “राजावतं च वैकान्तं रस अवश्य सेवन करना चाहिये ।
गोमेदं पुष्परागकम् ।" यह पंक्ति ( मात्रा----१ तोलो ।)
अधिक है. ( अनुपान----मिश्रीयुक्त दूध।)
३ शङ्ख च तुल्य तुल्यांशमिति पाठान्तरम् ।
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रसपकरणम्
... चतुर्थों भागः
सबको एकत्र मिला कर सात दिन चीतेके काथमें २द्राक्षामृताजयन्तीभिमुनिब्रह्मीसुतिक्तकैः ।। घोटें और फिर उसे सुखा कर बड़ी बड़ी कौड़ियों कन्यायाश्च द्रवैर्भाव्यं प्रतिवारैत्रिधा विधा। में भर दें एवं सुहागेको आकके दूधमें घोट कर | रुवा लघुपुटे पाच्या वालुकायन्त्रमध्यगा ॥ उससे उन कौड़ियोंका मुंह बन्द कर दें। तदनन्तर यन्त्रं निरुद्ध्य यत्नेन स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत् । उनको शरावसम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें चूर्ण नवज्वरे देयं रक्तिमात्र रसस्य वै ॥
कृष्णाधान्यसमायुक्तं मुहूर्तान्नाशयेज्ज्वरम् । इसके पश्चात् पुटके स्वांग शीतल होने पर अयं रत्नागरिर्नाम रसो योगस्य वाहकः ।। उसमेंसे औषधको निकाल कर उसे (कौड़ी समेत) शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म, अभ्रक पीस लें और फिर उसे संभालुके रसकी सात | भस्म और स्वर्ण भस्म ४-४ भाग; लोह भस्म भावना, अदरकके रसकी सात और चीतेके काथकी २ भाग तथा वैक्रान्त भस्म १ भाग ले कर प्रथम २१ भावना दे कर सुखा कर सुरक्षित रक्खें । पारे गन्धकको कजली बनावें और फिर उसमें मात्रा–१ रत्ती।
अन्य औषधे मिला कर सबको भंगरेके रसमें घोट - अनुपान--पीपल और काली मिर्चका चूर्ण । कर पर्पटी रसके समान पकावें । (वृतलिस करछीतथा घी और शहद ।
में मन्दाग्नि पर पिघला कर, गायके गोबर पर इसके सेवनसे साध्यासाध्य हर प्रकारका बिछे हुवे केले के पत्ते पर डाल दें और उसके ऊपर यक्ष्मा रोग शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
| दूसरा कदलीपत्र रख कर गोबरसे दबा दें। जब इसके अतिरिक्त यह रस अष्ट महारोग,
शीतल हो जाय तो निकाल लें।) खांसी, ज्वर, श्वास और अतिसारको भी नष्ट ___ तदनन्तर उसे बारीक करके सहजनेके रस, करता है तथा योगवाही है।
बासेके रस, संभालुके रस, बचके रस, चीतेके क्वाथ, (६०४२) रत्नगिरिरसः ।
भंगरे और गोरखमुण्डीके रस तथा द्राक्षा, गिलोय,
जयन्ती, अगस्ति, ब्राह्मी, पटोल और घृतकुमारी(र. म. । अ. ६; भै. र. ; र. का घे. ; र.
के रसकी पृथक पृथक् ३--३ भावना देकर शरावरा. सु. । ज्वरा. ; रसे. चि. म. । अ. ९.)
सम्पुट में बन्द करें और फिर उस पुटको बालुकाशुद्धसूतं समं गन्धं मृतताम्राभ्रहाटकम् ।
यन्त्रमें रख कर, यन्त्रका मुख बन्द कर दें तथा प्रत्येकं मृततुल्यं स्यात् सूतार्द्ध मृतलौहकम् ॥
लघुपुट में पकावें । जब स्वांग शीतल हो जाय तो लौहार्द्ध मृतवैक्रान्तं मर्दयेद भृङ्गजद्रवैः ।।
औषधकों निकाल कर पीस कर सुरक्षित रक्खें । पर्पटीरसवत्पाच्यं चूर्णितं भावयेत् पृथक् ॥ शिवासकनिर्गुण्डीवचा निभृङ्गमुण्डिकैः। . . २ कई ग्रन्थों में क्षुद्रा (कटेली) पाठ है। . १ कई ग्रन्थों में वचका अभाव है। .. ३ र. म. में. चित्रक पाठ है.।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
मात्रा-१ रती।
यह वटी समस्त स्त्रीरोगांको नष्ट करती और यह रस योगवाही है । इसे पीपल और बल बढ़ाती है । यह वृष्य और रसायनी भी है । धनिये के चूर्णके साथ देनेसे १ पहरमें ज्वर नष्ट (६०४४) रत्नभागोत्तररसः हो जाता है।
(र. र. स. । उ. ख. अ. २२; र. चं. । स्त्रीरोगा.) (६०४३) रत्नप्रभा वटिका
वज्रं मरकतं पद्मरागं पुष्पं च नीलकम् । (भै. र. । स्त्रीरोगा.)
वैडूर्य चाथ गोमेदं मौक्तिकं विद्रुमं तथा ॥ स्वर्ण मौक्तिकमभ्रश्च नागं वङ्गश्च पित्तलम् । पञ्चगुञ्जामितं सर्वं रत्नं भागोत्तरं परम् । माक्षिकं रजतं वनं लौहं तालञ्च खपरम् ॥ तत्तन्त्रोक्तविधानेन भस्मीकुर्यात्प्रयत्नतः ॥ कदल्याः काकमाच्याश्च वासकस्योत्पलस्य च । सर्वस्मादष्टगुणितं भस्म वैक्रान्तसम्भवम् । स्वरसेन जयन्त्याश्च कर्पूरसलिलेन च ॥ तत्तुल्यं ताप्यजं भस्म तद्वद्विमलभस्म च ।। भावयित्वा यथाशास्त्रमहोरात्रगतः परम् । सर्वतस्त्रिगुणां तुल्यां रसगन्धककज्जलीम् । सम्मर्यातन्द्रितः कुर्याद् भिषग् गुआमिता वटीः।। सर्वमेकत्र सम्मर्थ छागीदुग्धेन तव्यहम् ॥ एकैकाश्च प्रयुञ्जीत पातराशं बलाम्बुना। | विधाय पर्पटी यत्नात्परिचयॆ प्रयत्नतः । उष्णेन पयसा वापि केशराजरसेन वा ॥ वन्ध्याकर्कोटकीचूर्णकाथेन परिमर्दयेत ॥ इयं रत्नप्रभा नाम्नी वटिका सर्वसिद्धिदा। काननोत्पलविंशत्या पुटेषोडशवारकम् । सर्वस्वीरोगहन्त्री च बल्या वृप्या रसायनी ॥ एवं रसो विनिष्पन्नो रत्नभागोत्तराभिधः॥ ___स्वर्ण भस्म, मोती भस्म, अभ्रक भस्म, सीसा | महावन्ध्यादिवन्ध्यानां सर्वासां सन्ततिप्रदः। भस्म, बंग भस्म, पीतल भस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म, | देवीशास्त्रे विनिर्दिष्टः पुंसां वन्ध्यत्वरोगनुत् ॥ चांदी भस्म, हीरो भस्म, लोह भस्म, हरताल भस्म सोऽयं पाचनदीपनो रुचिकरो वृष्यस्तथा और खपरिया भस्म समान भाग ले कर सबको
गर्भिणीएकत्र मिला कर केला, मकोय, बासा ( अडूसा), सर्वव्याधिविनाशनो रतिकरः पाण्डुप्रचण्डार्तिनुत् नीलोत्पल, और जयन्तीके स्वरस तथा कपूरके धन्योबुद्धिकरश्च पुत्रजननः सौभाग्यकृद्योषितां पानीमें १-१ दिन खरल करके १-१ रत्तीको निर्दोषः स्मरमन्दिरामयहरो योगादशेषार्तिनुत्॥ गोलियां बना लें।
__हीरा भस्म ५ रत्ती, पन्ना भस्म ६ रत्ती, इन्हें प्रातः काल सेवन करना चाहिये। माणिक्य भस्म ७ रत्ती, पुखराज भस्म ८ रत्ती, मात्रा-१ गोली।
नीलम भस्म ९ रत्ती, वैदूर्य मणि-भस्म १० रत्ती, अनुपान---बला (खरैटी) का काथ या गर्म गोमेदमणि भस्म ११ रत्ती, मोती भस्म १२ रत्ती दूध अथवा भांगरेका रस |
और प्रवाल भस्म १३ रत्ती तथा वैक्रान्त भस्म,
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रसपकरणम्
चतुर्थों भागः
स्वर्णमाक्षिक भस्म और विमल (रौप्य माक्षिक ) (६०४५) रविसुन्दरवटी भस्म ८१-८१ माशे ( प्रत्येक पौने सात तोले ) (र. रा. सु. । अजीर्णा.)
और समान भाग पारद गंधकसे बनी हुई कज्जली विदो यी भेटीयरिचयतम । सबसे तीन गुनी ( ६३ तोले ३ माशे ३ रत्ती) |
पिप्पली चात्र दातव्या वज्रीक्षीरे विभावितम् ।। ले कर सबको एकत्र मिला कर २ दिन बकरीके | धत्तरस्य च बीजानि सर्वान्येकत्र कारयेत । दूधमें घोटें और फिर उसकी यथाविधि पर्पटी भावना च त्रिधा देया दन्तीमलस्य सप्तधा ।। बनावें । (घृत-लिप्त लोहपात्रमें औषधको पिघला चित्रकस्यापि हेम्नश्च त्रिवृत्तश्चाकस्य च । कर गोबर पर बिछे हुवे केले के पत्ते पर फैलावें
मुद्गप्रमाणा वटिका रविसुन्दरसज्ञिका ॥ और उसके ऊपर दूसरा कदली पत्र रख कर उसे | करोत्यग्निबलं पुंसां ज्वरं कासं व्यपोहति । गोबरसे दबा दें । जब स्वांग शीतल हो जाय तो | वातश्लेष्मभवान् रोगान् यानन्यान् श्लेष्मसनिकाल कर पीस लें।)
म्भवान् ॥ अब इसे बांझ ककोडेकी जड़के काथमें | अजीर्ण पड्डिधं जित्वा कोष्ठाग्निं वर्द्धयेत्सदा। खरल करके शराव-सम्पुटमें बन्द करके २० । सबै मन्दानलं हन्ति वज्रणेन्द्रो यथाऽसुरान् ॥ अरने उपलांकी अग्निमें पकावें । इसी प्रकार १६
शुद्ध बछनाग ( मीठा विष ), शुद्ध गन्धक, पुट दें।
शुद्ध पारद तथा सोंठ, अम्लबेत, काली मिर्च,
पीपल और धतूरेके बीजोंका चूर्ण समान भाग यह रस वन्ध्यत्व रोगको नष्ट करनेके लिये
| ले कर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और अत्यन्त प्रभावशाली है।
फिर उसमें अन्य ओषधियां मिला कर सबको स्नुही इसके अतिरिक्त यह पाचन, दीपन, रुचि- ( थोहर--सेंड ) के दूधकी ३ और दन्तीमूल, वर्द्धक, वृष्य, गर्भिणी रोग नाशक, तथा पाण्डु | चीता, धतूरा, निसोत तथा अदरकके रसको सात और योनिदोष-विनाशक एवं कामशक्ति और
सात भावना देकर मूंगके बराबर गोलियां बना लें। बुद्धि-वर्द्धक है।
इनके सेवनसे अग्नि बलकी वृद्धि होती और
ज्वर, खांसी, वात कफज रोग, कफज रोग, छः रविताण्डवरसः
प्रकारके अजीर्ण और अग्निमांद्यका नाश होता है। (र. चं.; रे. र. । भगन्दरा. ; र. र. स.।
(६०४६) रविसुन्दरो रसः (१) उ. ख. अ. २४; यो. त. । त. ६१) ( र. च. ; र. रो. सु. । ज्वरा.)
"चित्रविभाण्डको रसः” प्र. सं. १९२० ससिन्धुजं चित्रकबीजशङ्ख देखिये।
मरीचयुक्तं विषभागयुक्तम् ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः - [रकारादि दन्तीरसैर्भावनया त्रियुक्तं
___ दो गुनी हरतालके योगसे की हुई ताम्रकी रसः प्रसिद्धो रविसुन्दरोऽयम् ।। भस्म २ भाग तथा शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक और वातज्वराति सकलामयत्वं
शुद्ध बछनाग १-१ भाग ले कर प्रथम पारे मन्दानलत्वं शिरसो गुरुत्वम् । गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य सर्व निहन्त्युग्रतरं विकार
औषधे मिला कर सबको धूप में नीमके रसमें २१ गुआप्रमाणा वटकी कृता वा ।। बार पुट दें। कुलित्थयूपं त्वथ वा तु
मात्रा-१ रत्ती। . कृष्णशाल्योत्थमण्डं प्रपिवेद्धि तेन ।
अनुपान--खांड । कोष्ठाग्निदृद्धिं विदधाति रूपं
इनके सेवनसे ८ प्रकारका ज्वर नष्ट होता है । निहन्ति वातज्वरवातदोषम् ॥
(६०४८) रसकर्पूरगुटिका सेंधा नमक, चित्रक बीज, शंख भस्म, काली
(र. का. धे. । उपदंशा.) मिर्चका चूर्ण और शुद्ध बछनाग ( मीठा विष ) समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर दन्ती
रसदीपकभल्लातकुशमूलैः कृता वटी । मूलके काथ की ३ भावना दे कर १-१ रत्तीकी
| बदरीफलमानेन नाशयेदुपदंशकम् ॥ गोलियां बना।
- रसकपूर, केसर, भिलावा और कुशाकी जड़ ... इनके सेवनसे वातञ्चर, अग्निमांद्य और | समान भाग ले कर बेरके समान गोलियां बनावें । शिरको भारीपन नष्ट होता है।
इनके सेवनसे उपदंश नष्ट होता है । अनुपान---कुलथीका यूष अथवा कालेधान ___ (६०४९) रसकर्पूरयोगः (कलधन) के चावलांका मांड ।
(वै. र. । मसूरिका.) (६०४७) रविसुन्दो रसः (२) गोधूमचूर्ण सन्नीय विदध्यात्सूक्ष्मकूपिकाम् । (र. म. । अ. ६; वृ. नि. र.; र. रा. सु. । ज्वरा.) तन्मध्ये रसकपूरं चतुर्गुामितं क्षिपेत् ॥ द्विभागतालेन हतं च तानं
ततस्तु गुटिकां कुर्याद्यथा न स्याद्रसो बहिः । ___ रसं च गन्धं च समानमाहुः। | लवङ्गसूक्ष्मचूर्णेन तां वटीमवधृलयेत् ॥ विषं समं तद्विगुणं च तानं दन्तस्पर्टी यथा न स्यात्तथा तामम्भसा गिलेत् ।
त्रिसप्तवारेण दिवाकरांशौ ॥ ताम्बूलं भक्षयेत्पश्चाच्छाकाम्ललवणं त्यजेत् ॥ विमर्धारिष्टस्वरसेन चूर्ण
श्रममातपमध्वानं विशेषात्स्त्रीनिषेवणम् । गुज्जैकमानं सितया समेतम् । | फिरङ्गसज्ञको रोगः सर्वथा प्रशमं व्रजेत ॥ ज्वराङ्कुशोऽयं रविसुन्दराख्यो | भक्षितोऽनेन विधिना मुखशोथं न विन्दति ।
ज्वरान्निहन्त्यष्टविधान्समग्रान् ॥ । पञ्चवल्ककषायेण गण्डूष कारयेद्भिषक् ॥ .
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रसमकरणम् ] चतुर्थों भागः
३९२ पलाई जीरकं चैव खदिरं माषमात्रकम् । नोट-४ रत्ती मात्रा अधिक है अतः मात्राका जलेन पेषयित्वा तु कवलं कारयेद्भिषक् ॥ | निर्णय रोगीकी अवस्थानुसार करना चाहिये । तेनैवोपशमं याति मुखपाकं सुदारुणम् ॥ (६०५०) रसकर्पूरविधिः (१) गेहूंके आटेको पानीसे सान कर उसकी एक
( यो. त. । त. १७) छोटीसी कूपिका बना लें अर्थात् १ गोली बना कर उसमें गढ़ा कर लें । तदनन्तर इस गढ़ेमें ४
| शुद्धसूतसमं तुत्थं घनक्याथेन सप्तधा। रत्ती शुद्ध रसकपूर रख कर उस कूपिकाकी गोली
| भावयित्वा न्यसेत्कृप्यां मुखे मुद्रां च कारयेत्।।
वालुकायन्त्रमध्ये तु यामार्क ज्यालयेदधः । इस प्रकार बना लें कि दवा उससे बाहर न निकले । तत्पश्चात् उस गोलीको लौंगके बारीक
रसकर्पूर विख्यातः खोटबद्धो रसः ॥ चूर्णमें रौंद लें कि जिससे उसके चारों ओर चूर्ण
शुद्ध पारद और शुद्ध तूतिया समान भाग लग जाए।
ले कर दोनोंको खरल करके नागरमोथेके . काथकी ... अब इस गोलीको पानीके साथ इस प्रकार
सात भावना दें और फिर उसे कपरमिट्टी की हुई निगल जाएं कि दांतोंको न लगे; और गोली
आतशी शीशीमें भर कर उसके मुख पर डाट लगा खानेके पश्चात् पान चबा लें ।
कर उसे गुड़ चूनेसे मज़बूत कर दें । तदनन्तर
| इस शीशीको बालुका यन्त्र में रख कर १२ पहर .. अपथ्य---शाक, अम्ल, लवण, परिश्रम, धूप, |
की अग्नि दें। जब शीशी स्वांग शीतल हो मार्ग. चलना और विशेषतः स्त्री-सहवासका
जाए तो उसमेंसे रस कपूर को निकाल कर सुरस्याग करें।
क्षित रक्खें। (पथ्य--बेसनको रोटी और घी । )
(६०५१) रसकर्पूरविधिः (२) - इस प्रकार रसकपूर खानेसे मुखशोथ उत्पन्न
(यो. त. । त. १७) नहीं होता और उपदंश रोग समूल नष्ट हो जाता है।
यन्त्रे मुसिद्धे डमरूसमाख्ये यदि किसी कारणवश मुख-पाक हो भी
- निधाय मूतस्य पलानि पश्च । जाए तो पञ्चवल्कल ( पीपल, पिलखन, बड़, गूलर
वल्मीकमृत्स्नाखटिकेष्टिकानां और बेत ) की छालके काथके कुल्ले करने चाहिये।
___ सगैरिकाणां तुवरीयुतानाम् ॥ तथा २॥ तोला जीरा और २। माशा कत्था, ले ससैन्धवानां समभागिकानां कर दोनोंको पानीमें पीस कर मुखमें रखना। | चूर्णाढकं चोपरितो निदध्याद् । चाहिये । इससे भयंकर मुख शोथ भी नष्ट हो | अम्लेन दध्ना महिषीभवेन जाता है।
पिष्टं रसोनस्य शरावमेकम् ॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि । समक्रमेणात्र निधाय खण्डै- । और फिर मैंसके खट्टे दहीमें लहसनको पीस
राच्छादयेत्वपरजैर्विसन्धिः। | उससे बना हुवा शराव उसके ऊपर ढक दें। तथा चूर्णपलिप्तोदरमूर्ध्वभाण्डं
सन्धि स्थान पर मिट्टीके ठोकरे रख कर अच्छी संस्थाप्य संमुदय दृढं सुचुल्ल्याम् ॥ तरह बन्द कर दें। प्रज्वालयेद्रह्निमधः क्रमेण
तत्पश्चात् एक हाण्डीके भीतर चूनेको लेप संस्थाप्य यन्त्रोपरि वस्त्रमाद्रम् । | करके उसे उपरोक्त हाण्डी पर उलटो ढक दें और वहिं प्रदद्यादिनषदकमत्र
दोनेांकी सन्धिको कपड़ मिट्टीसे या गुड़ चूने ___तत्स्वाङ्गशीतं परिगृह्य बुद्धया ॥ | आदिसे अच्छी तरह बन्द कर दें। तं द्रोणपुष्पी पयसा प्रपिष्टं
___ अब इस यन्त्रको चूल्हे पर चढ़ा कर उसके ___ कूप्यां विदध्यान्नवसादरं च । नीचे क्रमवर्द्धित अग्नि जलावें और ऊपरको हाण्डी कर्षप्रमाणं प्रहरत्रयं च
पर भीगा कपड़ा ढक दें । ज्यों ज्यों कपड़ा गरम वह्नि प्रदद्यादथ शीतलाङ्गीम् ॥ होता रहे त्या त्यों उसे ठण्डे पानीमें भिगो कर निष्कास्य कूपी सिकताख्ययन्त्रा- ठण्डा करते रहें। __दास्फोटय कण्ठस्थममुं प्रगृह्यात् । इस प्रकार छः दिन तक अग्नि जलानेके पकर्पूरनामा रसनायकोऽयं
श्चात् यन्त्रके स्वांग शीतल होने पर उसे खोल कर वल्लः पुराणेन गुडेन भुक्तः ॥
ऊपरकी हाण्डीमें लगे हुवे रसको निकाल लें । निर्वात भाजा सरुजा च पथ्य- ___ तदनन्तर उस रसमें ११ तोला नौसादर मिला
शीलेन कुष्ठामयनाशनः स्यात् । । कर दोनोंको द्रोणपुष्पी (गूमा) के रसमें घोट कर फिरङ्गकरिकेसरी सकलकुष्ठकालानलोऽ- कपड़मिट्टी की हुई आतशी शीशीमें भर दें और
__ खिल व्रणविनाशकृबणजगतपूर्तिप्रदः उसे बालुकायन्त्रमें रख कर ३ पहरकी अग्नि दें। सुवर्णसमवणे कुदलहुताशतेजस्करः।
इसके पश्चात् यन्त्रके स्वांग शीतल होने पर समस्त गद तस्करी रसपतिः स कर्पूरकः॥ | उसमें से शीशीको निकाल कर उसे सावधानी पूर्वक ___बल्मीक मृत्तिका ( बमीकी मिट्टी), खिड़िया, | तोड़ कर उसके गलेमें लगे हुवे रसकको इंटका चूरा, गेरु, फिटकी और सेंधा नमक; इनका निकाल लें। चूर्ण समान भाग लेकर सबको एकत्र मिला लें।
__मात्रा---३ रत्ती। ____कपड़ मिट्टीकी हुई एक मज़बूत हाण्डीमें २५ | इसे पुराने गुड़में लपेट कर खाना चाहिये । तोले शुद्ध पारद डाल कर उसके ऊपर उपरोक्त ( औषध दांतको न लगे यह ध्यान रखना बल्मीक मृत्तिका आदिका मिश्रण ४ सेर डालें | चाहिये । )
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
३९३
इसके सेवनसे समस्त प्रकारके कुष्ठ, और तदेवकुसुमचन्दनकस्तूरीकुङ्कुमैर्युक्तम् । अण नष्ट होते हैं । यह रस फिरङ्ग रोग (उपदंश) खादन्हरति फिरङ्गं व्याधि सोपद्रवं सपदि ।। में अत्यन्त उपयोगी है।
विन्दति वह्वेर्दीप्तिं पुष्टि वीर्य बलं विपुलम् | इसके सेवनसे शरीर काश्चनसदृश तेजवान
रमयति रमणीशतकं रसकर्पूरस्य सेवकः सहोता और अग्नि दीप्त होती है ।
ततम् ॥
शुद्ध पारद, गेरु मिट्टी, ईटका चूर्ण, खिड़िया (पथ्य-लवण, खटाई आदि रहित बेसन
मिट्टी, फिटकरा, सेंधा नमक, बल्मीक मृत्तिका को रोटी और घी खाना तथा धूप परिश्रम ओदिसे
(बामीकी मिट्टी), खारी नोन और बरतन रंगनेकी बचना चाहिये।
मिट्टी समान भाग ले कर पारके अतिरिक्त अन्य मात्राका निर्णय रोगीकी अवस्था देख कर | समस्त ओषधियांको कूट कर कपड़ेसे छोन लें करना चाहिये ।)
और फिर उस चूर्णमें पारद मिलाकर १ पहर तक (६०५२) रसकर्पूरविधिः (३) खरल करें। ( भा. प्र.प्र. खं.)
___अब इस चूर्णको एक कपडमिट्टी की हुई
हाण्डीमें भर कर उसके ऊपर उसीके बराबर दूसरी शुद्धसूतसमं कुर्यात्मत्येकं गैरिकं सुधीः ।
हाण्डी उलटी करके ढक दें और दोनोंके जोड़को इष्टिका खटिकां तद्वत्स्फटिकां सिन्धुजन्म च ।।
कपड़ेमिट्टीसे बन्द कर दें । एककपड़मिट्टी वल्मीकं क्षारलवणं भाण्डरअकमृत्तिकाम् ।
सूख जाने पर दूसरी बार करें। इसी प्रकार ३ सर्वाण्येतानि सञ्चूर्ण्य वाससा चापि शोधयेत् ॥
" कपडमिट्टी लगा कर दोनों के जोड़को अच्छी तरह एभिश्चूगैर्युतं मूतं यावद्यामं विमर्दयेत् । बन्द करें। तच्चूर्णसहितं सूतं स्थालीमध्ये परिक्षिपेत ॥ तस्याः स्थाल्या मुखे स्थालीमपरां धारयेत्समाम्
तदनन्तर कपड़मिट्टीको अच्छी तरह सुखा कर सवस्त्रकुट्टितमृदा मुद्रयेदनयोर्मुखम् ॥
| यन्त्रको चूल्हे पर चढ़ा दें और निरन्तर चार दिन संशोष्यमुद्रयेदभूयो भूयः संशोष्य मद्रयेत । | तक पकाव । सम्यग्विशोष्य मुदां तां स्थाली चुल्ल्यां वि. | इसके पश्चात् अग्नि देनी बन्द कर दें और
धारयेत् ।। २४ घण्टे तक यन्त्रको अंगारांपर ही रहने दें। अनि निरन्तरं दद्यायावदिनचतुष्टयम् । तत्पश्चात् हाण्डी के स्वांगशीतल होने पर, अङ्गारोपरि तद्यन्त्रं रक्षेद्यत्नादहनिशम् ॥ जोड़को सावधानो पूर्वक खोल कर ऊपरकी हाण्डीमें शनैरुद्वाटयेद्यन्त्रमूर्ध्वस्थालोगतं रसम् । लगे हुवे कपूर के सदृश रसको निकाल लें । इसीका कर्पूरवत्सुविमलं गृह्णीयाद्गुणवत्तरम् ॥ | नाम रसकर्पूर है।
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३९४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
इसे लौंग, सफेद चन्दन, कस्तूरी और केस- पांशु लवण और पारद समान भाग ले कर रके चूर्णके साथ खानेसे उपद्रवयुक्त फिरंग रोग दोनोंको थोहर (सेंड) के दूधमें कई बार घोट कर (उपदंश) शीत्र ही नष्ट हो जाता तथा अग्नि, बल, लोहे के सम्पुट में रक्खें और उसे खिड़िया मिट्टीके वीर्य और काम शक्तिकी वृद्धि होती है। चूर्णसे ढक कर सम्पुटको बन्द करके उसके ऊपर
(रसकर्पूर सदैव किसी योग्य वैद्य की देख- कपड़ मिट्टी कर दें । तदनन्तर एक हाण्डीमें आधी रेख में ही सेवन करना चाहिये । ) | दूर तक सेंधा नमकका चूर्ण भर कर उस पर वह __(६०५३) रसकर्पूरविधिः (४)
सम्पुट रक्खें और फिर हाण्डीको गले तक सेंधा (रसे. सा. सं.)
नमकके चूर्णसे भर दें । एवं उसे चूल्हे पर चढ़ा टङ्कणं मधु लाक्षा च ऊर्णागुञ्जायुतो रसः।
कर नीचे एक दिन तीब्राग्नि जलावें । तत्पश्चात् मदितो भृङ्गनद्रावैर्दिनं सम्पुटमागतम् ॥ ..
यन्त्रके स्वांग शीतल होने पर उसमें से सम्पुटको ध्मातो भस्मत्वमाप्नोति शुद्धक:रसन्निभम् ।
निकालकर सावधानी पूर्वक खोल लें। इसमें ऊप.
रके कटोरेमें अत्यन्त स्वच्छ सफेद रंगकी भस्म सुहागा, शहद, लाख, ऊन, चौंटली (गुञ्जा)
मिलेगी। इसे 'रसकर्पूर' कहते हैं। और शुद्ध पारद समान भाग ले कर सबको. एकत्र मिला कर भंगरेके रसमें खरल करें और फिर उसे
___ मात्रा--६ रत्ती। सम्पुट में बन्द करके उस सम्पुटको कोयलोंकी इसे लोगके चूर्णके साथ प्रातःकाल खाना अग्नि पर रख कर धौंकनीसे धौंकते रहें । इसी चाहिये । तथा औषध खानेके पश्चात् शीतल प्रकार ( ३-४ पहर ) पकानेसे पारदकी भस्म हो | जल पीना चाहिये। जायगो जो शुद् कथूरके समान होगी।
इससे दो पहर पश्चात् रेचन हो कर दोष (६०५३ अ.) रसक'रविधिः (५) | निकल जाते हैं। (सुधानिधिरसः)
(व्यवहारिक मात्रा--आधीसे १ रत्ती तक ।) ( रसे. सा. सं. । पूर्व खण्ड.)
रसकर्पूरसेवनविधिः पिष्टं पांशुपटु प्रगाढममलं वच्याम्बुना नैकशः ( न. मृ. । त. ८) मृतं धातुगतं खटीकवलितं तं सम्पुटे रोधयेत् ॥ केवलं रसकर्पूरमपातनकारितम् । अन्तःस्थं लवणस्य तस्य च तले प्रज्ज्वाल्य रक्तिकाप्रमाणेन पक्वगोधूमवेष्टितम् ।।
वह्नि दृढं । | अथवा रक्तिकामानं पक्वचूर्णेन वेष्टितम् । घनं ग्राह्यमथेन्दुकुन्दधवलं भस्मोपरिस्थं शनैः ॥ विधिना भक्षयेद्रोगी लवङ्गचूर्णसंयुतम् ॥ तल्लद्वितयं लवङ्गसहितं प्रातः प्रयुक्तं भजे- अलवणं भक्षयेच्चान्नं अथवा घृतसंयुतम् । दूर्ध्वं रेचयति द्वियाममसकृत्पेयं जलं शीतलम्।। स्नातको ब्रह्मचारी च तिष्ठेद्विधियुतो बुधः॥
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रसप्रकरणम्
चतुर्थों भागः पूर्व विरेचनं कुर्यात्तत्पश्चाद्भक्षयेद्वटीम् । शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक १-१ भाग उपदंशफिरङ्गनीमुत्तमेयं प्रकीर्तिता ॥ लेकर दोनोंकी कज्जली बनावें और फिर उसे ___ डमरुयन्त्र द्वारा उड़ाया हुवा रसकपूर | दन्तीमूलके काथकी भावना दे कर उसमें ५ भाग आधी या १ रत्ती ले कर गेहूंकी रोटीके भीतरके लौंगका चूर्ण और चौथाई भाग शुद्ध वछनाग गूदेमें इस प्रकार लपेटें कि बाहर न निकले, फिर (मीठा विष) मिला कर १-१ रत्तीकी गोलियां उसे लौंगके चूर्णमें लपेट कर इस प्रकार निगल | बना लें। जाएं कि दांतोको न लगे । ( आवश्यकता हो तो इन्हें सों3 अथवा गुड़के साथ सेवन करना दवा के साथ १-२ बूंट ताज़ा पानी पिया जा सकता है।)
___ इनके सेवनसे समस्त प्रकारकी अरुचि, शूल औषध खानेके पूर्व विरेचन द्वारा शरीर शुद्धि
और आमवातका नाश होता है। अवश्य कर लेनी चाहिये । ।
(६०५४ अ) रसकेश्वररसः
. (यो. र. । ज्वरा.) पथ्यापथ्य----लवण रहित रूखी अथवा घृतयुक्त रोटी खानी और ब्रह्मचर्य व्रत, पालन निरवक्तदर्धमरिच नवनीतेन मर्दयेत ।।
खर्परं मानुषे मूत्रे स्थितं घत्रिसप्तकम् । करना चाहिये।
शतधा भावयेनिम्बुरसैः स्याद्रसकेश्वरः । - इस प्रकार रसकर्पूर खानेसे उपदंश · रोग पिप्पलीमधुयुग्दत्तः ससितो वाऽस्य भेषजम् ।। नष्ट होता है।
ज्वरं धातुगतं पित्तं भ्रमं पित्तास्त्रजान्गदान् । ( नोट----सकर्पूर बनानेकी अनेक विधियां रक्तातिसारं ग्रहणी दुर्नामानं निवारयेत् ॥ हैं; परन्तु वह चाहे जिस विधिसे बना हो उप- | अनम्लं दधि वा दुग्यं पथ्यं चास्मिन्प्रयोजयेत्।। रोक्त रीतिसे ही सेवन करना चाहिये। )
: खपरियाको २१ दिन तक मानवमूत्रमें
भिगोए रक्खें और फिर उसमें उससे आधा छिलके(६०५४) रसकेशरी
रहित काली मिर्च का चूर्ण मिला कर उसे नींबूके (भै. र. । अरोचका.) रसकी सौ भावना दें। रसगन्धौ समौ शुद्धौ दन्तीकाथेन मर्दयेत् ।। इसे पीपलके चूर्ण और शहदके साथ या देवपुष्पं वाणमितं रसपादं तथामृतम् ।। मिश्रीके शाथ खिलाना चाहिए। गुआमात्रश्च तत्सर्वं नागरेण गुडेन वा। . | इसके सेवनसे धातुगत ज्वर, पित्त, भ्रम, सर्वारोचकशूलात्र्तिमामवातं विनाशयेत् ॥ रक्तपित्त, रक्तातिसार, ग्रहणी और अर्शका रक्तस्राव विसूचीमग्निमान्धश्च भक्तद्वेषं सुदारुणम् । रसो निवारयत्येष केशरी करिणं यथा ॥ । पथ्य--मीठा दही या दूध ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
(६०५५) रसगन्धककजलीयोगः ___ (६०५७) रसगुग्गुलुः ( यो. र. । उपदंशा.)
( भै. र. ; धन्व. । उपदंशा.) कर्षमात्रो रसः शुद्धो द्विकर्षों गन्धकस्तथा। ग्राह्यः पातनयन्त्रेण शुद्धश्चन्द्रसमो रसः । विधिवत्कजलीं कृत्वा तां च गोघृतसंयुताम् ॥ रक्तिकादश चैतस्य शर्करा त्रिगुणा भवेत् ॥ माषमात्रां प्रतिदिनं दद्यादेवं त्रिसप्तकम् । ततश्चतुर्गुणो ग्राह्यो गुग्गुलमहिषाक्षकः । गोधृमानं घृतं पथ्यं कारयेल्लवणं विना ॥ घृतं रससमं दद्यान्मदेयेच प्रयत्नतः ॥ उपदंशापहः श्रेष्ठो योगोऽयं मुनिभिः स्मृतः ॥ विशतिर्वटिकाः कार्यास्तिस्रस्तिस्रो दिनत्रयम् ।
शुद्ध पारद ११ तोला और शुद्ध गन्धक २॥ | एकादशदिनैरन्या देया एकादशैव ताः ॥ तोले लेकर दोनेांकी कजली बनावें । सप्ताहद्वयमेवश्च कारयेद्भिषजां वरः। मात्रा--११ माषा ।
लवणं वर्जयेत्पथ्ये पादार्दाशनमिष्यते ॥ इसे गायके धीमें मिलाकर २१ दिन तक | दिनद्वये व्यतीते तु पादोनं पथ्यमाचरेत् । सेवन करनेसे उपदंश रोग नष्ट होता है।
मसूरसूपं सगुडं व्यञ्जनं चाथ कल्पयेत् ॥ ___ पथ्य---गेहूंकी रोटी घीसे खानी और नमक
पुनर्णवापटोलानि तिक्तपत्री च गोक्षुरम् । का त्याग करना चाहिये ।
पुटपत्रीं कोकिलाक्षं शाकाथै घृतभर्जितम् ॥
शर्करालवणस्थाने वेशवारे धनीयकम् । ( व्यवहारिक मात्रा--१ रत्ती ।)
लवङ्गाजाजिहिनि धान्यकं जीरकानि च ।। (६०५६) रसगन्धकयोगः ।
| पाकाथै सम्पदातव्यं संस्कारार्थ भिषग्वरैः। (यो. र. । विद्रधि.)
| भैरवस्य रसस्यान्याः क्रिया अत्र प्रयोजयेत् ॥ वरुणादिकषायेण रसगन्धककज्जलीम् ।
रसगुग्गुलुरेवं हि सर्वान् जित्वामयानयम् । भुक्त्वा निहन्ति माकां वाह्यमन्तश्च विद्रधिम् कुष्ठोपदेशनामान ब्रणं वातादिसंयुतम् ॥ अपक्वे त्वेतदुद्दिष्टं पक्वे तद् ब्रणवक्रिया ॥ कामदेवप्रतिकाशश्चिरजीवी भवेन्नरः ।।
समान भाग पारद गन्धकको कज्जली बना कर पातनयन्त्र द्वारा शोधित पारद १० रत्ती, उसे वरुणादि गणके क्वाथके साथ सेवन करनेसे | खांड ३० रत्ती और शुद्ध भैसिया गूगल ४० बाह्य विद्रधि तथा अन्तर्विद्रधि नष्ट होती है। रत्ती ले कर प्रथम पारद और खांडको अच्छी मात्रा--१ माषा ।
तरह खरल करें । जब दोनों मिल जाएं और पा. यह क्रिया अपक विद्रधिमें हितकारी है; | रदके कग दिखलाई न दें तो उसमें गूगल और पक्क विद्रधिकी चिकित्सा तो बणचिकित्साके | १० रत्ती घी मिला कर खूब कूटें और सबके एकसमान करनी चाहिये।
जीव हो जाने पर समस्त औषधकी २० गोलियां (व्यवहारिक मात्रा--१ रत्ती ।) | बना लें।
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रसंपकरणम् ]
चतुर्थों भागः
३९७
इनमेंसे प्रथम ३ दिन ३-३ गोलियां और | शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गायक २ भाग, फिर उसके पश्चात् ११ दिन तक प्रतिदिन १-१ | पीपलका चूर्ण ३ भाग, हर्रका चूर्ण ४ भाग, गोली खिलावें । इस प्रकार १४ दिनमें ये २० | बहेड़ेका चूर्ण ५ भाग, आमला ६ भाग और गोलियां सेवन करनी चाहिये।
भरंगी सात भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली पथ्यमें लवणका त्याग करना और मसूरकी | बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिलाकर दाल, गुडयुक्त व्यञ्जन; पुनर्नवाका शाक और सबको बबूल (कीकर) के रसकी २१ भावना पटोल (परवल), तिक्तपत्री ( ककोडा ), गोखरु, दें और फिर शहदमें मिला कर बहेड़ेके समान पुटपत्री और तालमखाना; इनके शाक धीमें बना- गोलियां बना ले । कर सेवन करने चाहिये।
इनमेंसे १-१ गोली प्रातः काल सेवन कर__नमक स्थानमें खांड और मसालेमें धनियां. | नेसे खांसी और श्वासका नाश होता है। लौंग, जीरा, हींग और काला जीरा आदि प्रयुक्त ___ अनुपान--औषध खानेके पश्चात् पीपलका करना चाहिये।
चूर्ण मिला कर कटेलीका काथ पीना चाहिये । __इस औषधके सेवन कालमें अन्य नियम भैरव (६०५९) रसगुटिका (२) रसके समान पालन करने चाहिये ।
(भै. र. । अर्शा.) ___इसमें प्रथम दिन अपने साधारण आहारसे | रसस्तु पादिकस्तुल्या विडङ्गमरिचाभ्रकाः। चौथाई, और दूसरे दिन आधा तथा तीसरे दिन | गङ्गापालङ्कजरसे खल्लयित्वा पुनः पुनः ।। पौन भोजन करना चाहिये।
रक्तिमात्रा गुदाशर्थीनी वझेरत्यर्थदीपनो । इसके सेवनसे कुष्ठ, उपदंश, तथा वातज व्रण ___रस सिन्दूर १ भाग और .बायबिडंग तथा नष्ट होते हैं।
काली मिर्चका चूर्ण एवं अभ्रक भस्म ४-४ भाग (६०५८) रसगुटिका (१)
ले कर सबको जंगली पोलकके रसकी बहुतसी ( रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. ; धन्व. 1 कासा.) |
भावनाएं दे कर १-१ रत्तीको गोलियां बनावें । रसभागो भवेदेको गन्धको द्विगुणो भवेत् । । दीप्त होती है।
इनके सेवनसे अर्शका नाश होता और अग्नि त्रिभागा पिप्पली पथ्या चतुर्भागा विभीतकः॥ पश्चभागस्त्वामला च षड्गुणा सप्तभागिका ।
(६०६०) रसचण्डांशु भार्जीचूर्ण सर्वमिदं भाव्यं बब्बूलद्रवैः ॥
( बङ्गेश्वररसः) एकविंशतिवारं च मधुना गुटिका कृता ।
(र. चं. । प्रमेहा.) विभीतकप्रमाणेन प्रातरेकां तु भक्षयेत् ॥ रसमेकं त्रयो वङ्गं वङ्गसाम्येन गन्धकम् । कासं श्वासं हरेत् क्षुद्राक्वाथस्तदनुकृष्णया । । मर्दयेद् दिनमेकं तु कुमार्याः स्वरसे बुधः ।।
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त-मैपज्य - रत्नाकरः
३९८
संस्थाप्य गोलकं भाण्डे रुन्धयेत्तु दृढं मुखम् 1 पाचयेद्वालुकायन्त्रे दिनमेकं दृढामिना || स्वाङ्गशीतलमादाय सम्पूज्य द्विजदेवताः । पिप्पलीमधुना युक्तं सर्वमेहेषु योजयेत् ॥ क्षीरान्नं योजयेत्पथ्यमनल्पक्षारवजितम् । रसो वङ्गेश्वरो नाम सर्वमेह निकृन्तनः ॥
शुद्ध पारद १ भाग और बंग भस्म तथा शुद्ध गन्धक ३ - ३ भाग ले कर सबको एकत्र खरल करके एक दिन घृतकुमारीके रसमें घोटें और फिर उसका एक गोला बना कर उसे शराबसम्पुटमें बन्द करें तथा उस सम्पुटकेा बालुका यन्त्र में रख कर १ दिन तीत्राग्निपर पकायें । इसके पश्चात् यन्त्रके स्वांग शीतल होने पर उसमें से
को निकाल कर खरल करके रक्खें । ब्राह्मण और देवताका पूजन करके इसे पीपल के चूर्ण और शहदके साथ सेवन करना चाहिये ।
इसके सेवन से समस्त प्रकारके प्रमेह नष्ट होते हैं ।
पथ्यापथ्य —— यथा सम्भव लवणका त्याग करना और दूध भात खाना चाहिये । ( मात्रा - १ रत्ती । ) (६०६१) रसचन्द्रिकावटी ( रसे. सा. स. ; र. च । शिरोरोगा . ; र. । शिरोरोगा. )
भै.
त्रैलोक्यविजयावीजं बीजमुन्मत्तकस्य च । कण्टकारीबीजकञ्च इज्जलबीजमेव च ॥ बीच वृद्धदारस्य समौ गन्धकपारदौ । आर्द्रका कार्य्या कलायपरिमाणतः ॥
[ कारादि
एषा तोयानुपानेन प्रात: खाद्या हिताशिना । चिरजं सर्वरोगञ्च सन्निपातं सुदारुणम् ॥ आमवातं शिरोरोगं मन्यास्तम्भं गलग्रहम् । ग्रहणीं श्लीपदं हन्ति त्रदृद्धिं भगन्दरम् || कामलां शोथपाण्डुत्वं पीनसार्शोगुदामयान् । टिका चन्द्रिका नाम वासुदेवेन भाषिता ॥
भांग बीज, धतूरे के बीज, कटेली के बीज, समुद्रफल के बीज, विधारेके बीज, शुद्ध पारद और शुद्ध गंधक समान भाग ले कर प्रथम पारे गंधककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिला कर सबको अदरक के रसमें घोट कर मटरके बराबर गोलियां बना लें ।
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इन्हें प्रातः काल सेवन करना और पथ्य पूक रहना चाहिये ।
अनुपान -- जल |
• इनके सेवन से समस्त जीर्ण रोग, सन्निपात, आमवात, शिरोरोग, मन्यास्तम्भ, गलग्रह, ग्रहणी, श्लीपद, अन्त्रवृद्धि, भगन्दर, कामला, शोथ, पाण्डु, पीनस और अर्शादि रोग नष्ट होते हैं ।
(६०६२) रसतालेश्वररसः (रसे. सा. सं.; र. रा. सु. । कुष्ठा. ; रसे. चि. म. । अ. ९. )
गुआ शङ्खकर चूर्णरजनी भल्लातकार नेः शिखा कन्यासूर्य्यपयः पुनर्नवरजो गन्धन्तथा सूतकम् गोमूत्रे पाचितं विडङ्गमरिचैः क्षौद्रञ्च तत्तुल्यक हन्यादाशु विचर्चिकारुजमिदं कण्डू तथा
कैटिमम् ॥
शुद्ध चौंटली, शंख भस्म, करञ्जके बीज, हल्दी, शुद्ध भिलावा, कलिहारी, घीकुमारका गूदा
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः 'आकका दूध, पुनर्नवा, शुद्ध गन्धक और शुद्ध पोरद निधूमबदरकाष्ठाङ्गारे न्यस्तं विलाप्य तैलसमम् । समान भाग ले कर पीसने योग्य चीज़ोंको पीस पात्रस्थितभृङ्गराजमध्ये ढालयेन्निपुणः ॥ लें और फिर पारद गन्धककी कज्जली बनाकर तस्मिन् प्रविष्टमा कठिनतं याति गन्धकसबको एकत्र मिलाकर आठ गुने गोमूत्रमें पकावें और गोमूत्र शुष्क हो जाने पर उसमें बायबिडंग पुनरपि रौद्रे शुष्कं केतकरजसा समानतां । और काली मिर्च का चूर्ण तथा शहद समान भाग
नीतम् ॥ मिला कर रखें।
शुद्धे सूते शोधितगन्धकचूर्णेन तुल्यता कार्या । यह रस विचर्चिका, कण्डू और कुष्ठको नष्ट | तावन्मदैनमनयोर्यावन्न कणोऽपि दृश्यते सूते ।। करता है।
पश्चात् कजलसदृशं चूर्ण लौहीस्थितं यत्नेन । (६०६३) रसपर्पटिका निघूमबदरकाष्ठाङ्गारे न्यस्तं विलाप्य तैलसमम्।। (#. र. ; र. रा. सु. ; र. सा. स. ; रसें. चि. सद्यो गोमयनिहिते कदलिदले दालयेन्मदनि ।
लौहीस्थितपवशिष्टं कठिनं तन्न ग्रहीतव्यम् ।। म. ; वं. से. ; भा. प्र. ; वृ. नि. र.।। ग्रहणीरो.)
| पश्चात्पर्पटिरूपा पर्पटिका कीर्त्यते लोकैः ।
मयूरचन्द्रिकाकारं लिङ्ग यत्र तु दृश्यते ॥ श्रीविन्ध्यवासिपादौ नत्वा धन्वन्तरिश्च सुर
तत्र सिद्धि विजानीयाद्वैद्यो नैवात्र संशयः ।
भिषजम् । रसगन्धकपर्पटिकापरिपाटीपाटवं वक्ष्ये ॥
समुदितपात्रे भरणावदनीया पर्पटी मनुजैः ॥ मग्नं रसे जयन्त्याः पश्चादेरण्डसम्भूते।।
जीरकगुञ्ज हिङ्गोरई खादेच वातले जठरे । आईकरसे च सूतं पत्ररसे काकमाच्याश्च ॥
जीरकहिङ्गोरशने त्वनुपानं सलिलधारया कार्यम् मनमुदितानुपूर्व्या मर्दनशुष्कं करेणे गृहीयात् ।।
रसगन्धकपपेटिका भक्षणमात्रे तु नाम्भसः प्रस्तरभाजनमध्ये शुद्धिरियं पारदस्योक्ता ॥
पानम् ॥ शुकपुच्छसमच्छायो नवनीतसमतिः। प्रथमं गुञ्जायुगलं प्रतिदिनमेकै वृद्धितो भश्याम महणः कठिनः स्निग्धः श्रेष्ठो गन्धक इष्यते ॥ दश गुजापरिमाणान्नाधिकपशनीयमेकविंशतिकृत्वा भद्रं गन्धकमतिकुशलः क्षुद्रतण्डुलाकारम् ।
दिनानि । तङ्गराजरसैरनन्तरं भावयेत्पात्रे ॥ वातातपकोपमनश्चिन्तनमाहारसमयवैषम्यम् । तदनु च शुष्कं कुर्याद धुलिसमानश्च सप्तधा | व्यायामश्चायासः स्नानं व्याख्यानमहितमत्यन्तम्
रौटे। पाके स्तोकं सर्जीिरकधन्याकवेशवारैश्च । तदनु च शुष्कं चूर्ण कृत्वा विन्यस्य लौहिका- सिन्धूद्भवेन रन्धनमोदनधान्यानि शालयो मध्ये ॥
भक्ष्याः ॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
कृष्णं वातिङ्गनफलपविद्धकर्णा च वास्तूकम् । कामलपाण्डव्याधि प्लीहानञ्चातिदारुणं हन्ति । अक्षतमुद्गः सहितः फलदलसहितं पटोलश्च ॥ | गुल्मजलोदरभस्मकरोगं हन्त्यामवातांश्च । क्रमुकफलशृङ्गवेरौ भक्ष्यौ शाकेषु काकमाची च अष्टादशैव कुष्ठान्यशेषशोथादिरोगांच ॥ नीरक्षीरं व्यञ्जनमदनीयं पककदलश्च ॥ इयमम्लपित्तशमनी त्रिदोषदमनी क्षुधातिक. रम्भाफलदलवल्कलमूलानां वर्जनं कार्यम् ।
मनीया। तिक्तनिम्बादिकमपि नायं नोष्णं तथान्नश्च ॥ अग्निं निमग्नमुदरे ज्वालाजटिलं करोत्याशु ॥ आनूपमांसजलचरपतत्रिपललश्च सर्वथा त्या- रसगन्धकपर्पटिका त्वपवार्य व्याधिसंघातम् ।
ज्यम्।। वलीपलितशून्यं पुरुषं दीर्घायुषं कुरुते ॥ स्त्रीणां सम्भाषणमपि गडकश्च कृष्णमत्स्येषु ।। व्याधीप्रभावहरणादपमृत्युत्रासनाशकरणाच । नाम्लं न दधिशाकं पदया भक्षणे भक्ष्यम्। मानाममृतवटी रसगन्धकपर्पटी जयति ॥ गडखण्डशर्करादिक इक्षुविकारा न भक्ष्य इक्षुश्च | शम्भुं प्रणम्य भक्त्या पूजां कृत्वा च विष्णुन दलं न फलं न लताप्यदनीया कारवेल्लस्य ।
चरणाजे । स्तो घृतमिह भक्ष्यं पथ्ये साकाङ्क्षमुत्थानम्।। रसगन्धकपर्पटिका भक्ष्या तेनातिसिद्धिदा । क्षुत्पीडायां भोजनमवश्यकार्य महानिशायाञ्च ।
भवति ॥ समजलमिश्र पक्वं क्षीरं यद्वाधिकजलपकञ्च ॥ कथमपि भोजनसमयातिक्रमजाते ज्वरे विरेके च नृणों सरुजां ध्रुवमियमारोग्यं सततशीलिता वमने च नारिकेलसलिलं दुग्यश्च पातव्यम् ॥
कुरुते ।
| श्रीवत्साङ्गविनिर्मितसम्यग्रसपर्पटी श्रेष्ठा । स्वप्ने जाते रमिते विरेकतः क्षीरमेव पातव्यम न ज्ञायते बुभुक्षा लक्ष्या प्रतीयते यदि वा ॥ | उक्तमेव हि कर्त्तव्यं नानुरागतया तथा। अशक्ति झिनिझिनिमस्तकशूलायै नमवधार्या । औषधक्रिययेवात्र कर्तव्या चोत्तरक्रिया ॥ किम्बह वाच्यं रोगी यदा यदा भवति सा. प्रत्यवायविनाशाथै क्षेत्रपालवलिं न्यसेत ।
कासः॥ कृतमङ्गलकः प्रातयोगिनीनामतः परम् ॥ पाययितव्यं दुग्धं तदा तदा निर्भयीभूय । । भक्षणपूर्वबलिदानमन्त्रः-ॐ क्ष क्षे विहिताकरणे चास्यामविहितकरणे च रोग- क्षेत्रपालाय नमः इति क्षेत्रपालस्य सामान्य
खिन्नानाम् ॥ | बलिमन्त्रः । ॐ हीं हैं दिव्याभ्यो योगिनीभ्यो व्यापत्तयोऽपि बहुधा दृष्टाः प्रामाणिकैबहुशः। मातृभ्यः क्षेत्रीभ्यो भूतेभ्यः शालिकीभ्यो नमो तस्मादवधातव्यं भवितव्यं भोजने निपुणैः ॥ नमो ही इति सामान्य योगिनीनां बलिः ॥ एवमियं क्रियमाणा भवति श्रेयस्करी नियतम् । ॐगन्धकमहाकालाय स्वाहा । ॐ ब्रह्मकोअझैरोगं ग्रहणी सामां लातिसारौ शूच ॥ षिणि रक्ष रक्ष स्वाहा इति विशेषबलिः ।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
४०१
अत्र पारदस्य नैसर्गिकदोपत्रयशोधनश्चावश्यक रस पर्पटिका में वह गन्धक प्रयुक्त करना कार्यम् । यदुक्तं
चाहिये कि जो शुकपुच्छ के समान तथा कान्ति वाला, मलशिखिविषनामानो रसस्य नैसर्गिका दोषाः। मक्खन के समान प्रभा वाला, चिकना, कठिन तथा मृच्छी मलेन कुरुते शिखिना दाई विषेग । स्निग्ध हो । इस प्रकारके गन्धक के चावल के समान
हिकाच ॥ छोटे २ खण्ड करके भांगरे के रससे सात भावना गृहकन्या हरति मलं त्रिफला वह्नि चित्रकथ
दे कर श्लक्ष्ण चूर्ण कर धूप में सुखा लें। तत्पश्चात् विषम् ।
गन्धकचूर्ण को लोहे की करछी में रखकर तस्मादेभिर्धारान् सामूर्छयेत् सप्त सप्तैः ॥ इति
निर्धूम बेरीकी लकड़ी के अङ्गारों पर पिघलावें ।
पिघल जाने पर पात्र में स्थित भृङ्गराज के रस में गृहकन्या घृतकुमारी । तस्या दलरसेन |
। तस्या दलरसन | डाल दें। तब गन्धक पुनः कठिन हो जायगी। खल्लनम् । त्रिफलायाश्चूर्णेन खलनं, चित्रकस्य
इसे धूप में सुखाकर बारीक चूर्ण करें। पत्ररसेन मूर्छनम् । तदेव नैसर्गिकदोषापहा- |
इस प्रकार शोधित पारद तथा शोधित गन्धक रानन्तरं जयन्त्यादिद्रव्यच तुष्टयरसेन मूर्छन
को समपरिमाण में लेकर अच्छी प्रकार तबतक मधिगन्तव्यम् ॥
| मर्दन करें जबतक पारद अदृश्य तथा निश्चन्द्र न श्री व्याडिमुनि तथा धन्वन्तरि को प्रगाम हो जाय । इस कजली को लोहे की करछी में करके रसगन्धकपर्पटिका की निर्माग विधि को रख निधूम बेरो को लकड़ी के अङ्गारों पर पिघला कहता हूं।
कर तैल के समान कर लें। पश्चात् गायके गोबर पर रसर्पटिका को तैयार करने से पूर्व पारद के एक नरम केले का पत्ता बिछादें तथा एक दूसरे तीन नैसर्गिक दोषों अर्थात् मलदोष, वह्रिदोष पत्तेमें गोबर को रख उस पते को पोटली बनावें । तथा विदोष का निवारण कर लेना चाहिये क्यों | तदनन्तर बिछे हुए पत्र पर उसे थोड़ा २ डालें और कि इन दोषोंसे क्रमशः मूर्छा, दाह तथा हिक्का | पोटली से दबाते जावें । करछो में बचे हुए कठिन आदि उपद्रव होने का भय रहता है । अतः घोकार भाग को न ग्रहण करना चाहेये । इस प्रकार यह के रस से मलदोर के निवारण के लिये, त्रिफला- रस पर्पटिका तय्यार होता है । चूर्ण से अग्निदोष के निवारण के लिये एवं चित्रक | मयूरपुच्छ की चन्द्रिका के समान यदि पर्पटी के पतों के रस से विषदोष के निवारण के लिये हो तो समझना चाहिये कि पर्पटी सिद्ध हो सात २ बार मूर्छन करें । पश्चात् यथाक्रम पत्थर के बर्तन में जयन्तीपत्र, एरण्डपत्र, अदरख तथा | एक पत्थर के पात्र में अच्छी प्रकार पीस मकोय के पत्तों के रस में पारद को मग्न कर मर्दन कर रखना तथा भरणी नक्षत्र में पर्पटी का प्रयोग करें और शुष्क कर लें।
करना चाहिये।
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४०२
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
अनुपान तोदर में जीरा २ रत्ती तथा हींग १ रत्ती ।
जब पर्पटी का सेवन जीरा और हिंगुके साथ करते हैं तब साथ ही जल भी पीना चाहिये । परन्तु साधारण नियम यह है कि रसपर्पटिका के बाद ही जलपान न करना चाहिये ।
मात्रा - दो रत्ती से प्रारम्भ करके क्रमशः प्रतिदिन एक २ रत्ती बढ़ाकर दस रत्ती तक सेवन करावें और फिर प्रतिदिन १-१ रत्ती कम करें।
रसपर्पटिका में पथ्यापथ्यः रस पर्पटीके सेवन कालमें वायु सेवन, आतप सेवन, क्रोध, चिन्ता, अकाल में भोजन करना, व्यायाम, अत्यन्त परिश्रम, स्नान, तथा व्याख्यान ( अधिक बोलना ) न करना चाहिये । घृत, जीरा, धनियां, सैन्धव आदि द्वारा पकाये हुए व्यञ्जनादि, शालि चावल, काला बैंगन, अविद्धकर्णा (पाठ), वास्तुक (बथुआ), मूंग, पटोल फल, पटोल पत्र, सुपारी, अदरख, शाकों में मकोय, जलसे सिद्ध दुग्ध, पका हुआ केला आदि पथ्य हैं ।
[ रकारादि
भूख लगे तब उस समय भी आहारार्थं सम परिमाण जलसे पक दुग्ध अथवा अधिक परिमाण जलसे सिद्धदुग्धका अवश्य पान करना चाहिये । यदि कदाचित भोजनके समयका व्यतिक्रम हो जाय तब, एवं ज्वर, वमन तथा अतिसार में नारियलके जल का तथा दुग्धका पान करना चाहिये । यदि कदाचित स्वप्न में वीर्यस्राव हो तो उस पर दुग्धपान कराना उचित है। भूख है कि नहीं ? यदि ये बोध न हो, निर्बलता, शरीर में झिनिझिनि के समान बोध हो तथा शिरोवेदना आदि हो तो भी दुग्धपान कराना चाहिये । अधिक क्या कहना जब २ भूख लगे तथा आवश्यक्तानुसार दुग्धपान ही उचित है।
अपथ्य -- कच्चा केला, केले के पत्ते, मूल तथा वल्कल, निम्ब आदि तिक्त पदार्थ, उष्ण अन्न, आनूपमांस, जलचर पक्षियों का मांस, मैथुन, कृष्ण वर्णकी मछलियों में गडकमत्स्य, अम्ल दधि, शाक, गुड़, खांड, शर्करा तथा अन्य इक्षु विकार, गन्ना, करेला आदि। इसके व्यवहार काल में स्त्रियोंसे सम्भाषण भी न करना चाहिये । पथ्य के साथ किञ्चित् घृतका सेवन करें । जब भूख लगे तभी भोजन कर लेना चाहिये । अर्द्ध रात्रिमें भी यदि ।
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इसके सेवन कालमें जो २ नियम बताये गये हैं उन्हें पालन न करनेसे तथा अविहित ( निषिद्ध) आहार विहार करनेसे कई प्रकार के उपद्रव हो जाते हैं अतः भोजनादि में सर्वदा सावधान रहना चाहिये ।
इस प्रकार विधिपूर्वक सेवन करने से यह ग्रहणीमें अत्यन्त फलप्रद है ।
इस रसपर्पटीके सेवन करनेसे अर्श, ग्रहणी, शूल, अतीसार, कामला, पाण्डु, प्लीहा, गुल्म, जलोदर, भस्मक, आमवात, कुठ तथा शोथ आदि रोग नष्ट होते हैं । यह अम्लपित्तको शान्त करती है, प्रवृद्ध वात, पित्त तथा कफका दमन करती है, क्षुधाको बढ़ाती है तथा अग्निको प्रदीप्त करती है । यह रसपर्पटी व्याधि समूहको नष्ट कर रसायन के समान प्रभाव दिखलाती है ।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
४०३
यह रस सेवन करनेसे पूर्व विघ्न विनाशार्थ । लोहपात्रे च विपचेच्चालयेल्लोहचाटुना । क्षेत्रपाल और योगिनीको बलि देनी चाहिये । | तक्षिपेत्कदलीपत्रे गोमयोपरिसंस्थिते ॥ क्षेत्रपालको बलि देनेके समय “ॐ क्ष क्षे.... | पश्चात्सञ्चूर्णयेत्खल्ले निर्गुण्डयाभावयेदिनम् । स्वाहा इति " यह मात्र बोलना चाहिये। जयन्तीत्रिफलाकन्यावासाभाींकटुत्रिकैः ।।
नोट--रसपर्पटीके अनेक पाठ मिलते हैं, भृङ्गाग्निमूलं मुण्डिभिर्भावयेदिनसप्तकम् । जो वास्तवमें उक्त प्रयोगको ही विभिन्न प्रकारसे | अङ्गारैः स्वेदयेत्किञ्चित्पर्पटाख्यो महारसः ॥ प्रकट करते हैं । उन सबमें उक्त पाठही सबसे | चतुर्गुञामितं भक्ष्यं सम्यक् श्लेष्मज्वरं जयेत् । अधिक विस्तृत और पूर्ण है।
पथ्याशुण्ठयमृताक्वाथमनुपानं प्रयोजयेत् ॥ किसी किसी ग्रन्थमें गायके गोबरके स्थानमें
शुद्ध पारद १ भाग और शुद्ध गन्धक २ भैसके गोबर पर पर्पटी बनानेका विधान भी
भाग ले कर दोनोंको एकत्र खरल करके कज्जली मिलता है।
बनावें और फिर उसे भंगरेके रसकी १ भावना दें। कई ग्रन्थोंमें रस खानेके पश्चात् विशेष रूपसे
तदनन्तर उसमें पौन पौन भाग ( कज्जलीका सुपारी भक्षणकी अनुमति दी गई है।
चतुर्थांश) ताम्र भस्म तथा लोह भस्म मिला कर (६०६४) रसपर्पटी (१)
खरल करें और फिर उसे (घृतसे चिकनी को हुई) (र. चं. ; यो. र. । ग्रहण्य.)
लोहेकी कढाईमें डाल कर लोहेकी करछीसे चलाते शुद्धपारदगन्धाभ्यां कृता पर्पटिका नृणाम् ।
| हुवे मन्दाग्नि पर पकावें । जब औषध अच्छी तरह निहन्ति ग्रहणों क्षौद्रयुक्ता पथ्यभुजां नृणाम् ॥
पिघल जाए तो गायके गोबरके ऊपर केलेका पत्ता शुद्ध पारद और गन्धककी कज्जली बनाकर
बिछा कर उस पर वह औषध डाल दें तथा तुरन्त उसे घृतलिप्त लोहपात्रमें पिघला और फिर गायके
उस पर दूसरा कदलीपत्र ढक कर उसे गोबरसे गोबर पर विछे हुवे केलेके पत्तेपर फैलाकर उस पर
दबा दें । एवं औषधके स्वांग शीतल हो जानेपर दूसरा कदली-पत्र रख कर उसे गोबरसे दबा दें।
उसे निकाल कर खरल कर लें । तथा थोड़ी देर पश्चात् निकाल लें। इसे शहदके साथ सेवन करने और पथ्य
अब इसे एक दिन संभालुके रसमें धोटें और पालन करनेसे ग्रहणी रोग नष्ट होता है। फिर जयन्ती, त्रिफला, घृतकुमारी, बासा, भरंगी, (६०६५) रसपर्पटी (२)
त्रिकुटा, भंगरा, चीतामूल और मुण्डीके रसकी सात (रविताण्डवरसः)
सात दिन भावना दे कर थोड़ी देर अंगारों पर (र. रा. सु. ; वृ. नि. र. ; र. सा. सं. । ज्वरा.) स्वेदित करें। शुद्धमूतं द्विधागन्धं मद्य भृङ्गरसेन च ।
मात्रा--४ रत्ती । मृतं तानं लोहभस्म पादांशेन तयोःक्षिपेत् ॥ । इसके सेवनसे कफज्वर नष्ट होता है ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि अनुपान----हर्र, सांठ और गिलोय समान । व्योपै कन्यारसैर्वाऽपि कफामयविनाशिनी । भाग लेकर काथ बनावें । औषध खानेके पश्चात् दशमूलशृतेनापि वातज्वरनिबर्हणी ॥ यह काथ पीना चाहिये ।
बाकुचोबीजकल्केन कण्डुपामे विनाशयेत् । (६०६६) रसपर्पटी (३)
आरुष्करेण सहिता सा तु सिध्मविनाशिनी ॥ (र. प्र. सु. । अ. ३)
गोमूत्रेणानुपानेन चार्शसां हि विनाशिनी ।
नवमाल्यर्जुनश्चैव चित्रको भृङ्गराजकः ॥ सवर पलयुग्ममितं शुभं
शाल्मलीनिम्बपञ्चाङ्गकल्हारश्च गुडूचिका । रुचिरताम्रमयः समभागिकम् ।
निर्गुण्डी च समांशानि कारयेद्भिपगुत्तमः ॥ बलियसां च घृतेन विमर्दये
चूर्णीकृत्य च तत्सर्वं पर्पटयाश्चानुपानकम् । दतिकृशानिकृते द्रवति स्वयम् ॥
अष्टादश च कुष्ठानि निहन्त्येव न संशयः ।। तदनु ताम्ररसौ विनिवेश्यतां
पर्पटीरसराजस्य रोगान् हन्त्यनुपानतः । - त्रयमिदं सरसं च विमर्दितम् ।
अपथ्यं नैव चाश्नीयादोषदृष्यव्यपेक्षया ॥ द्रुतमयं च सदायसभाजने
___शुद्र पारद १० तोले, ताम्र भस्म १० __ तदनु सूतकृतां वरकज्जलीम् ॥
तोले तथा शुद्र गन्धक १० तोले ले कर प्रथम विघद्वयेदथ लोहमुदविणा
गन्धकको थोड़े घीके साथ घोटें और फिर उसे तनुमोचदलोपरि ढाल्यते ।
लोह पात्रमें अत्यन्त मृदु अग्नि पर पकावें । जब भवति सारतमा रसपोटलो
गन्धक अच्छी तरह पिघल जाए तो उसमें ताम्र सकल रोगविघातकरी हि सा ॥
भस्म और पारद डाल कर तीनोंको लोहेकी मूस. कुरु समानकटुत्रयसंयुतां
लीसे घोटें । जब सब चीजें मिल जाएं तो उसे मरिचयुग्ममितां सुखदां सदा ॥ पिघली हुई दशामें ही गायके गोबर पर बिछे हुवे अनुपाने प्रयोक्तव्या त्रिफला क्षौद्रसंयुता। केलेके पत्ते पर फैला दें और उस पर दूसरा कदली पर्पटी भक्षयेत्पातस्तथा व्यूषणसंयुताम् ॥ पत्र ढक कर उसे गायके गोबरसे दबा दें एवं सन्निपातहरा सा तु पञ्चकोलेन संयुता । । थोड़ी देर पश्चात् दोनों पत्तोंके बीचसे पर्पटीको भक्षिता मधुना साधै सर्वज्वरविनाशिनी ॥ | निकाल कर सुरक्षित रक्खें । कणाक्षौद्रेण सहिता सर्वशोफानिकृन्तति । इसे साधारणतः त्रिकुटा (सेठ, मिर्च, पीपल) श्यामात्रिकटुकेनाऽपि वातजां ग्रहणीं जयेत् ॥ के चूर्ण और काली मिर्च तथा कंकोल मिर्चके गुग्गुलुत्रिफलासार्धं वातरक्तं विनाशयेत्। चूर्णके साथ खिलाना चाहिये । विशेष अनुमान बातशूलहरा सम्यग्हिगुपुष्करसंयुता ॥ निम्न प्रकार हैं--
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रसपकरणम् ]]
चतुर्थों भागः
४०५
सन्निपात ज्वरमें-त्रिफलेके चूर्ण या त्रिकु- एरण्डमूलस्य रसेन मृतं टेके चूर्ण और शहदके साथ ।
तथाऽद्रिका स्वरसेन मर्दयेत् ॥ साधारण ज्वरों में----पंचकोल ( पीपल, पोप- तं काकमाच्याः स्वरसेन पिष्ट्वा | लामूल, चव, चीता, सेठ ) के चूर्ण और तथा च तं दाडिमबीजतोयैः । शहदके साथ ।
क्रमेण मृतं हि दिनैश्चतुर्भिः शोथमें--पीपलके चूर्ण और शहदके साथ।
शुद्धत्वमायाति हि निश्चयेन ॥ वातज संग्रहणीमें--काली निसोत और त्रि
ततस्तु गन्धं खलु मार्कवद्रवैकुटेके चूर्णके साथ ।
विभाव्यमानं कुरु लोहपात्रे ।
प्रद्रावयेत्तं बदरस्य चाग्निना वातरक्तमें--शुद्ध गूगल और त्रिफलाके साथ ।
प्रढालयेभृङ्गरसे त्रिवारम् ॥ वातज शूलमें--हींग और पोखरमूलके चूर्णके
कार्या ततः कन्जलिका विमर्य साथ ।
तां द्रावयेल्लोहमये सुपात्रे । कफज रोगोंमें----त्रिकुटेके चूर्ण या घृत
प्रहालयेत्तां कदलीदले हि कुमारीके रसके साथ ।
संछाद्य चान्येन दलेन पश्चात् ॥ वातज ज्वरमें--दशमूलके काथके साथ ।
तस्यास्त्वधोय प्रददीत गोमयं कण्डू और पामा-बाबचीके बीजोंके क
शीतोकृता गव्यघृतेन भजिता । हकके साथ ।
रोगानशेषान्मलदोपजातान् सिध्म कुष्ठमें--भिलावेके साथ ।
हिनस्ति चैषा रसपर्पटी हि ॥ अर्श रोगमें-गोमूत्रके साथ।
सा जीरकेणैव तु रामठेन कुष्ठमें--नवमालती, अर्जुन, चीता, भंगरा, वातामशूलं ग्रहणी सकामलाम् । सेंभलकी छाल, नीमका पंचांग, कल्हार (कमलभेद), गुल्मानि चाष्टावुदराणि हन्यात् गिलोय और संभाळू समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । संसेविता शुद्धरसस्य पर्पटी । उपरोक्त पर्पटी खानेके पश्चात् यह चूर्ण ( पानीमें
मयाऽपि सद्वैद्यहिताय नूनं घोल कर ) पीनेसे १८ प्रकारके कुष्ठ नष्ट होते हैं।
प्रदर्शिताऽयं खलु रोगनाशिनी ॥ (६०६७) रसपर्पटी (४)
(१) शुद्ध पारदको क्रमशः एरण्डमूलके (र. प्र. सु. । अ. ३.)
रस, कोयलके स्वरस, मकोयके स्वरस और शुद्धं रसं गन्धकमेव शुद्धं
दाडिम (अनार) के बीजोंके पानीमें एक एक दिन पृथक् समांशं कुरु यत्नतस्ततः।। | खरल करें।
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भारत - भैषज्य - र
४०६
(२) शुद्ध गन्धकको एक दिन भंगरेके रसमें घोट कर लोहपात्रमें बेरीकी अग्नि पर पिघलावें और भंगरे के रस में बुझा दें । इसी प्रकार पिघला पिघला कर ३ बार भंगरे के रस में बुझावें ।
इसके सेवनसे मल सम्बन्धी समस्त नष्ट होते हैं ।
अब उपरोक्त पारद और गन्धक समान भाग कर दोनोंकी कज्जली बनावें । और उसे लोह - पात्रमैं पिघला कर गायके गोबर पर बिछे हुए केले के पत्ते पर फैला दें तथा उसके ऊपर दूसरा कदली पत्र रख कर उसे गोबर से दबा दें एवं थोड़ी देर पश्चात् दोनों पत्तोंके बीचसे पर्पटीको निकाल कर उसे गाय के घी में भून कर सुरक्षित रक्खें ।
शुद्ध पारद २ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग और लोह भस्म १ भाग लेकर तीनोंकी कज्जली करके उसे घृतलिप्त लोह पत्र में डाल कर मन्दाग्नि पर पकायें और उसके अच्छी तरह पिघल जाने पर उसे गायके गोबर पर बिछे हुए केले के पत्ते पर डाल कर उस पर दूसरा कदली पत्र ढक दें और उसे गोबरसे दबा दें। तदनन्तर थोड़ी देर पश्चात् दोनों पत्तों के बीचसे पर्पटीको निकाल कर पीस लें और उसे क्रमशः भरंगी, मुण्डी, अगस्ती, त्रिफला, रोग जया, संभालू, त्रिकुटा, बासा और घी कुमार के स्वरस या काथकी पृथक पृथक सात सात भावना दें और फिर उसे सुखा कर लघुपुटमें पकावें ।
इसे जीरे और हींग चूर्णके साथ सेवन करने से वातज आमशूल, ग्रहणी, कामला, गुल्म और ८ प्रकार के उदर रोग नष्ट होते हैं ।
(६०६८) रसपर्पटी (५)
( यो. र. र. च । राजयक्ष्मा. ; र. चि. म. । अ. ९; यो त । कासा . )
भागो रसस्य गन्धस्य द्वावेको लोहभस्मतः । एतद् घृते द्रवीभूतंमृद्वग्नौ कदलीदले || पातयेद्गोमयगते तथैवोपरि योजयेत् । ततः पिष्ट्वा द्रवैरेभिर्मर्दयेत्सप्तधा पृथक ॥ भार्गीमुण्डी मुनिवराजयानिर्गुण्डिकाद्रवैः । व्योपवासक कन्यार्द्रद्रवैः शुष्कं पुटेल्लघु ॥ अगन्धं खर्परे नाम्ना पर्पटीति रसो भवेत् । सर्वरोगहरः स्वैः स्वैरनुपानैर्द्विमाषतः ॥
[रकारादि
ताम्बूलपत्रसहिता कासश्वासहरा परा । सकणः सुरसाक्वाथोऽनुपानं वा सगोजलम् ॥
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मात्रा -- २ माशे ।
इसे पानके साथ खानेसे खांसी और स्वास नष्ट होता है ।
अनुपान - - औषध खानेके पश्चात् तुलसीके काथमें पीपलका चूर्ण मिला कर या गोमूत्र पीना चाहिए ।
( व्यवहारिक मात्रा - ३ रत्ती । )
पर्पटी (६)
( र. रा. सु. । राजयक्ष्मा. )
प्रयोग संख्या ४३१० " पर्पटी रसः " (२)
देखिये ।
र. रा. सु. में गन्धक तीन गुना लिखा है ।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
(६०६९) रसपोटली
____ अब उसे पानके रसमें डोल कर धूपमें रक्खें (र. प्र. सु. । अ. ३ )
| और जब वह शुष्क हो जाए तो उसमें पुनः
पानका रस डाल दें। इसी प्रकार सात भावना स शुकपिच्छ समोऽपि हि पारदो
पानके रसकी और सात धतूरेके रसकी दें। __ भवति खल्वतेन च कुट्टितः।
तदनन्तर भूमिमें एक १२ अंगुल गहरा दृढतरामुपकल्पय पर्पटी
और १ अनि ( लगभग ६ इंच) चौड़ा गढ़ा वसनबद्धकृतामपि पोटलीम् ॥
खोदकर उसमें आधी दूर तक रेत भर दें और उस उपरि नागरसेन विलेपितां
पर उपरोक्त पोटली रख कर गढ़ेको रेतसे भर दें, रविकरेण सदा परिशोषिताम् ।
और फिर उस पर उपले रख कर अग्नि लगा दें। कनकपत्ररसेन च सप्तधात
यह अग्नि १२ पहर तक रहनी चाहिये । इसके प्यवनिगततले विनिवेशय ।।
पश्चात् गढेकी रेतीके स्वांग-शीतल हो जाने पर अवनिगर्तमरनिकमायतं
उसमेंसे पोटलीको निकाल लें। द्विदशमङ्गुलमेव मुनिम्नकम् ।
___ यह पोटली बलकारक और सुख सिद्धि सिकतया परिपूर्य तदर्धक
दायक है। तदनु तत्र निवेशय पोटलीम् ॥ उपरि वालुकया परिपूर्यत
मात्रा--१-२ रत्तो। च्छगणकैश्च पुटं परिदीयताम् । (६०७०) रसभस्मयोगः (१) द्विदशयाममथाग्निमहो कुरु
(वृ. नि. र. । अश्मरि.) भवति तेन महारसपोटली ॥ इति मया कथिता रसपोटली
विदारीगोक्षुरुयष्टिकेशरं च समं भवेत् । बलकरा सुकरा सुखसिद्धिदा ॥
तं कषायं पिबेत्क्षौद्रे रसभस्मयुतं पुनः ॥
| मूत्रकृच्छाद्विमुच्येत साध्यासाध्यान्न संशयः ॥ शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक समान भाग लेकर दोनोंको एकत्र खरल करके कज्जली बनावें।
विदारीकन्द, गोखरु, मुलैठी और नागकेसर तदनन्तर उसे प्रतलिप्त लोह पात्रमें मन्दाग्नि पर । १-१ तोला ले कर सबको एकत्र कूट कर ३२ पिघला कर गायके गोबर पर बिछे हुवे केलेके पत्ते तोले पानीमें पकावें और ८ तोले पानी शेष रहने पर फैला दें और फिर उस पर दूसरा कदली–पत्र | ढक कर उसे गायके गोबरसे दबा दें, एवं थोड़ी इस काथमें शहद मिलाकर उसके साथ पारददेर पश्चात् पत्तों के बीचसे औषधको निकाल लें। भस्म सेवन करनेसे साध्य अथवा असाध्य हर प्रकातथा उसे कपड़ेमें बांध कर पोटली बना लें। । रका मूत्रकृच्छ नष्ट होता है ।
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४०८
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भारत - भैषज्य - रत्नाकरः
(६०७१) रसभस्मयोगः (२) ( वृ. यो. त. । त. १०४; यो. र. । मेदरोगा . ) रसभस्म वलमात्रं लीवा मधुना पिवेदनु क्षौद्रम् । कोष्णाम्बुना समेतं स्थौल्यं मेदःकृतं जयति ॥
पारद भस्मको शहद में मिला कर चाटने के पश्चात् मन्दोष्ण जलमें शहद मिलाकर पीनेसे मेदजन्य स्थूलता नष्ट होती है ।
मात्रा -- ३ रत्ती ।
(६०७२) रसभस्मविधिः (१)
( र. चि. म. । स्तबक १ ) दशटङ्कावधिः सुतो गन्धकं नवसादरम् । सर्वकज्जलिकां कृत्वा काचकूप्यां निधापयेत् ॥ ततोऽष्टयाम पर्यन्तं शनैरग्निदीपनम् । इति सिद्धो भवेदेष पद्मरागनिभप्रभः ॥ माषमात्रः प्रदातव्यो सर्वरोगविनाशनः । रस: पर्पटिकाख्ययं रक्तपर्पटिकासमः ॥ सर्वत्रैव प्रदातव्यो ह्यनुपानविभेदतः ॥
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक और नौसादर १०१० टङ्क (५०-५० माशे ) कर कज्जली बनावें और उसे कपड़ मिट्टी की हुई आतशी शीशी में भर कर उसे ( बालुकायन्त्र में ) ८ परकी अग्नि दें |
मात्रा -- १| भाषा 1.
""
इस भस्मको “ पर्पटिका रस और यह रक्तपर्पटी के समान होती है ।
इस क्रिया से पद्मराग मणिके समान पारदभस्म तैयार हो जायगी ।
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[ रकारादि
अनुपान भेदसे यह समस्त रोगोंको नष्ट करती है ।
( व्यवहारिक मात्रा - - १ रत्ती । )
(६०७३) रसभस्मविधिः (२) (रसगुटी)
( र. चि. म. । स्तब. १ ) तुल्यं च शिखरीमूलं वारिणा मर्दयेद्दृढम् । मृषां लेपयेन्मध्ये तन्मध्ये निक्षिपेद्रसम् ॥ पञ्चङ्कप्रमाणं तु भूषामङ्गारके क्षिपेत् । एवं बद्धो भवेत्सूतो मूषान्तःस्थो दृढो भवेत् ॥ मूषामध्यगतस्तिष्ठेन्मुखरोग विनाशनः । शरीरे क्रमते सूतो जरापलितनाशनः ॥ स्तम्भयेच्छत्रसम्पातं कामोत्पादनकारकः । पुनर्नवं वपुः कुर्यात्साधकस्य न संशयः ॥ अतिवेगो भवेत्कामे महाबलपराक्रमः । क्षुद्धोधो जायतेऽत्यर्थमत्यर्य बलवान्भवेत् ॥ अत्यर्थं जनयेत्काममत्यर्थं लभते सुखम् । अत्यर्थी लभते पुष्टिं बलहानिर्न जायते ॥
२५ माशे अपामार्ग मूल (चिरचिटेकी जड़) को पानी में पीस कर एक मिट्टीकी मूषाके भीतर उसका लेप कर दें और फिर उसमें २५ माशे शुद्ध पारद डाल कर मूषाको अंगारों पर रख दें। इस प्रकार पाक करने से पारद कठिन हो जाता है । ( इस पारदकी गोली बंध सकती है | )
यह गुटिका मुख रोग नाशक है और जरा, पलित को नष्ट करती तथा काम शक्तिको अत्यन्त कहते हैं प्रबल कर देती है । एवं बल, पराक्रम, क्षुधा और पुष्टिकी अत्यधिक वृद्धि करती है ।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
( इसे दूधमें डाल कर थोड़ी देर बाद निकाल | लेकर बारीक चूर्ण बनावें । तदनन्तर ३ भाग यह लेना चाहिये और वह दूध पीना चाहिये ।) चूर्ण और २ भाग शुद्ध पारद ले कर दोनेांको (६०७४) रसभस्मविधिः (३) अच्छी तरह खरल करें और फिर उसे कपड़मिट्टी (र. चि. म. । स्तबक १)
की हुई एक मज़बूत हाण्डीमें रख कर उसके
( औषधके ) चारों ओर मिट्टीके ठीकरे (खपर) नवप्रसूतासुरभिजरायुमिश्रितो ध्रुवम् ।
जमा दें। अब इसके ऊपर एक दूसरी हाण्डी अन्धमूषागतो ध्मातो म्रियते पारदस्तराम् ॥
उल्टी रख कर दोनेांकी सन्धिको अच्छी तरह बन्द शुद्ध पारदको नवप्रसूता गौके जरायुके साथ |
गाक जरायुक साथ | कर दें और उसे चूल्हे पर चढ़ा कर नीचे १६ घोट कर अन्धमूषामें बन्द करके उसे अंगारों पर
पहर निरन्तर अग्नि जलावें । तत्पश्चात् हाण्डीके रख कर ध्मानेसे पारद अवश्य मर जाता है।
स्वांग शीतल होने पर दोनेांकी सन्धिको खोलकर (६०७५) रसभस्मविधिः (४) ऊपरकी हाण्डीमें लगे हुवे रसको छुड़ा कर सुर
(र. चि. म. । स्तबक १.) क्षित रक्खें । इष्टिका गैरिकं वल्मीमृत्तिका सैन्धवं समम् । यह रस कपूरके समान उज्ज्वल श्वेत रंगका भागत्रयमिदं श्लक्ष्णं रसो भागद्वयो द्वयम् ॥ होता है । सम्पर्य चैकतः कृत्वा गाढं तं मर्दितं रसम् । यह रस अत्यन्त बलकारक और आयुहण्डिकायां ततः क्षिप्त्वा पार्वे पार्श्वे च खर्प- वर्द्धक है । तथा इसके सेवनसे अनेक रोग नष्ट
रान् ॥ होते हैं। अन्यां च हण्डिकां दत्त्वा तदा सन्धिनिरोधनम् |
(६०७६) रसभस्मविधिः (५) चुलि कायास्तदा दद्यादुपरिष्टाच हण्डिकाम् ॥ | यामषोडशपर्यन्तमग्निं कुर्यादहनिशम् ।। (र. चि. म. । स्तबक १) अन्तरूध्य रसं तस्माल्लग्नं शीतं समुद्धरेत् ॥ निम्बूरसेन सम्मिप मीनाक्षीरससंयुतम् । कपरपुलिकाकारमुज्ज्वलं दृष्टिसौख्यदम् ।। पारदं खत्यके कृत्वा सौभाग्यं च तदर्धिकम् ॥ ग्रन्थिलं मृदुलं सौम्यं भक्ष्यमाणं निरामयम् ॥ मर्दयेत्सर्वमेकत्र दिनपञ्चावधिस्तथा । पुष्ट्यारोग्यपदं तीक्ष्णं कामनीयं मुखावहम् । माषप्रमाणा वटिकाः काव्याः शुष्कतां गताः॥ बलपदं विशेषेण दीर्घायुःकारकं परम् ॥ काष्ठभाजनमध्यस्था मापचू मैन वेष्टिताः । इदमेकमहो भस्म गृह्यतां राजवल्लभम् । इष्टीचूर्णेन संलेप्य पुनः शोच्या खरातवे ।। हन्तिसमियाञ्चैतबद्भद्रं तत्पकाशित ॥ म्यामध्ये विनिक्षिप्य पुनरङ्गारकेषु च ।
ईटका चूर्ग, गेह मिट्टी, बत्मीक मृत्तिका मां वटीयुतां क्षिप्सा घम्यमाना शनैः शनैः॥ (बमीकी पिट्टी ) और सेंधा नमक समान भाग अनेन विधिना मूतो ध्मातो भस्मत्वमाप्नुयात्।
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४१०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
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निःसृत्य वटिकाभ्यऽसौ भवत्यतिसितप्रभः ॥ (६०७८) रसभस्मविधिः (७) अयं मूलिकया बद्धो पारदो मुखरोगहृत् ।। __ (र. चि. म. । स्तवक १)
? भाग सुहागे और २ भाग पारदको एकत्र नागार्जुनीति विख्याता दुग्धिका क्षितिमण्डले । मिला कर पांच दिन तक नींबू और मत्स्याक्षी । तया विमर्दयेत्मतं दिनमेकं निरन्तरम् ॥ (मछेछी) के एकत्र मिश्रित रससे खरल करें और | कामाच्या च कर्तव्य मर्दनं दोषनाशनम् । फिर उसकी उड़दके समान गोलियां बना कर पारदं दशटडू स्याद्दशटडू च गन्धकम् ॥ सुखा लें।
नौसादरं च सारं स्यात्त्रयमेकत्र मर्दयेत् । तदनन्तर इन गोलियोंको लकड़ीकी पिटारी | काचस्य कूपिके धृत्वा मुखं तस्य निरोधयेत् ॥ (डिबिया ) में बन्द करके उस पर पानीमें भीगा | अष्टयामाऽवधिर्यावत्तावत्सूतः पाच्यते । हुवा उड़दका आटा लपेट दें और फिर उस पर एवं निष्पद्यते सम्यकभस्मबालार्कसन्निभम् ॥ ईटके चूर्णका लेप करके तेज धूप में सुखा लें। तत्सूतभस्म सझं हि सर्वकार्यार्थसाधकम् । अब इस पिटारीको मूषामें रख कर उसे
| प्रवालकोमलच्छायं भूपतीनां हि वल्लभम् ॥ कोयलों पर रक्खें और धीर धीर ध्मा ।
भक्षयेद्रक्तिकाः पश्च समानमरिचैः सह ।
क्षुधोदयकरं प्रायः श्रेष्ठं कामाग्निदीपने ॥ इस क्रियासे पारद भस्म हो कर गोलियोंके |
जराद्यान्सकलान्दोषान्योगभेदेन नाशयेद् । भीतरसे बाहर आ जायगा । उसका रंग अत्यन्त | येषु येषु च रोगेषु प्रयुक्तोऽयं रसोत्तमः ॥ सफेद होगा।
तान्सर्वान्नाशयेत्सद्यः समर्थो रसपार्थिवः ॥ यह मूलिका-बद्ध पारद मुखरोगांको नष्ट ___ शुद्ध पारदको एक दिन नागार्जुनी ( दुद्धी करता है।
भेद ) के स्वरसमें और १ दिन मकोयके स्व
रसमें खरल करें । तदनन्तर ५० माशे यह पारद, (६०७७) रसभस्मविधिः (६)
५० माशे शुद् गन्धक और ५० माशे नौसादरका (र. चि. म. । स्तबक १) फूल लेकर तीनोंको एकत्र खरल करें और फिर विष्णुक्रान्तामपामार्गमहिफेनेन्द्रवारुणी।
उसे कपड़मिट्टी की हुई आतशी शोशीमें भर कर सर्वेषां च रसै: पिटो म्रियते सूतकः पुटात् ॥
उसका मुख बन्द कर दें। ___ शुद्ध पारदको विष्णुक्रान्ता (कोयल), अपा
____ अब इस शीशीको (बालुको यन्त्रमें रखकर)
आठ पहरकी मार्ग ( चिरचिटा), अफोम और इन्द्रायणके रसमें घोट घोट कर पुट देनेसे उसकी भस्म हो जाती है। इस विधिसे पारदको बालसूर्यके समान
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः
उज्ज्वल और विद्रुम-सदृश कोमल छबि युक्त भस्म । उपरोक्त रस डाल कर घोटते और धूपमें सुखाते तैयार हो जाती है।
रहें । जब सब रस सूख जाए तो शोशीमें भर कर यह भस्म राजाओंको अत्यन्त प्रिय होती । सुरक्षित रक्खें । है । तथा इसके सेवनसे क्षुधा और कामाग्निकी इसे घी और शहदमें मिला कर सेवन करना वृद्धि होती है। यह भस्म उचित अनुपानके साथ | चाहिये। देनेसे जरा इत्यादि दोषोंको नष्ट करती है। इसके सेवनसे कफ पित्तज रोग, शूल, अम्ल.
इसे जिस रोगको नष्ट करने वाले अनपानके पित्त, ग्रहणीविकार और उग्र कामलाका नाश साथ दिया जाय यह उसीको नष्ट कर देती है।
होता है।
( मात्रा--१ माशा । ) मात्रा----५ रत्ती ।
(अनुपानमें-धी ३ माशे । शहद १ तोला।) ___इसमें समान भाग काली मिर्चका चूर्ण मिला
(६०८०) रसमर्दनयोगः कर खाना चाहिये।
(धन्व. । उपदंशा.) ( व्यवहारिक मात्रा--१ रत्ती।)
| पीतपुष्पाबलापत्ररसैष्टङ्कमितं रसम् । (६०७९) रसमण्डूरम्
| हस्ताभ्यां मदेयेत्तावत् यावत्सूतो न दृश्यते ॥ (भै. र.। शूला.; र. चं.; र. र. । परिणामशूला.) ततः संस्वेदयेद्धस्तावेवं वासरसप्तकम् । कुडवं पथ्याचूर्ण द्वि पलं गन्धाश्म लौहकिट्टश्च । त्यजेल्लवणमम्लं च फिरङ्गस्तस्य नश्यति ॥ शुद्धरसस्याईपलं भृङ्गस्य रसं सकेशराजस्य ॥ ५ माशे शुद्ध पारदको हथेली पर रख कर प्रस्थोन्मितश्च दत्त्वा पात्रे लौहेऽथ दण्डसङ्घृ-| उस पर पीले फूलकी खरैटीके पत्तोंका स्वरस डालें
ष्टम् । और पारदको दोनों हाथोंसे इतना मलें कि वह शुष्क घृतमधुयुक्तं मृदितं स्थाप्यञ्च भाजने । अदृश्य हो जाय । तदनन्तर हाथोंको आगके सामने
स्निग्धे ॥ | सेक दें। उपयुक्तमेतदचिरानिहन्ति कफपित्तनान् रोगान् यही क्रिया सात दिन तक करें और लवणं शूलं तथाम्लपित्तं ग्रहणीश्च कामलामुग्राम् ॥ | तथा अम्ल पदार्थों का परित्याग कर दें।
हर्रका चूर्ण २० तोले, शुद्ध गन्धक १० इससे फिरंग (आतशक ) रोग नष्ट हो तोले, मण्डूर भस्म १० तोले, शुद्ध पारद २॥ जाता है । तोले और भंगरे तथा काले भंगरेका रस २-२ (६०८१) रसमाणिक्यम् सेर लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें (र. प्र. सु. । अ. ३.)
और फिर उसमें हर तथा मण्डूरभस्म मिलाकर विमलनागवरैक विभागि सबको लोहेके खरल में डाल कर उसमें थोड़ा थोड़ा । हरजभागचतुष्टयमिश्रितम् ।
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[रकारादि
सततमेव विपद्य शिलालले
तथा कान्ति बढ़ती है । यह नेत्रराग-नाशक और बलिवसां च समां कुरु तद्भिषक् ॥ अत्यन्त कामवर्द्धक है । दिनमितं मुविमर्च व कन्यका
रसमाणिक्यम् स्वरस ऐनकरेऽति विशोषयेत् ।
माणिक्य रस देखिये। तदनु मूतवरस्य तु कज्जली __ रुचिरकाचघटे विनिवेशय ॥
(६०८२) रसयोगः (१) दिवसयुग्मयधः कृतवह्निना स
(आविषान्तकः) च भवेदरुणः कमलच्छविः।
( यो. र. । विघा.) सकलरोगविनाशनवह्निवल
| रसं गन्धं विपञ्चैव त्र्यूषणं टङ्करोहिणी । कुलकरः परमोऽपि हि कान्तिकृत् ।। पुनर्नवारसैभर्य गोमूत्रे च द्विगुञ्जकम् ।। नयनरोगविनाशकरो भवेत्
पिबेदाखुविषार्तानां सर्वं हरति तद्विपम् । सकलकामुकविभ्रमकारकः।
| विषदंष्ट्रोद्भवानन्यान्हन्यादाखुविपान्तकः ॥ स खलु कर्मविपाक जरोगहा
___शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध बछनाग, विशदनागयुतः खलु पारदः ।।
सोंठ, मिर्च, पीपल, सुहागेकी खील और कुटकी १ भाग शुद्र सीसा और ४ भाग पारदको समान भाग ले कर प्रथम पारद गन्धककी कजली एकत्र मिला कर दोनेांको अच्छी तरह घोटें और | बनावें और फिर उसमें अन्य ओपधियोंका चूर्ण जब सीसा पारदमें मिल जाय तो उसमें ५ भाग मिला कर सबको पुनर्नवा ( बिसखपरे ) के रसमें शुद्ध गन्धक मिला कर कज्जली बना लें और फिर | घोट कर २-२ रत्तीकी गोलियां बनावें । उसे १ दिन घृतकुमारीके रसमें घोट कर धूपमें इन्हें गोमूत्रके साथ पीनेसे चूहेका विष तथा सुखा लें।
अन्य दंष्ट्राविष नष्ट होते हैं। तदनन्तर उसे कपड़मिट्टी की हुई आतशी शीशीमें भर कर उसे बालुकायन्त्रमें रख कर २
(६०८३) रसयोगः (२) दिन क्रमवर्द्धित अग्नि पर पकावें । इसके पश्चात्
(र. च. ; वृ. नि. र. । मूर्छा. ) जब शीशी स्वांगशीतल हो जाय तो उसमेंसे औष- कणामधुयुतं मूतं मूळयामनुशीलयेत् । धको निकाल कर सुरक्षित रक्खें ।
शीतसे कारगाहादि सर्व वा पीडनं हितम् ।। इसका रंग लाल होगा और यह कमल सदृश ___ पारदभस्म ( या रससिन्दूर ) को पीपल के शोभायमान होगी।
चूर्ण और शहदके साथ सेवन करनेसे मूर्छा नष्ट इसके सेवनसे अग्नि और बलकी वृद्धि होती । होती है।
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चतुर्थो भागः
४१३
मू में शीतल सेक ( ठंडा पानी छिड़कना छिन्नारसेन च वरीसलिलेन सप्तआदि ) और अवगाहन तथा शरीर पीडन वारं ततो मधुहविमरिचेन साकम् ॥ हितकारी है।
लिह्यादुरक्षितहरं रसराजकाख्यं __ (६०८४) रसराजः (१)
___माषप्रमाणमतनूद्भवहेतुमेनम् ॥ (भै. र. । प्लीहा.)
मोती भस्म, प्रवाल भस्म, पारद भस्म, स्वर्ण गन्धकेन मृतं ताम्र शुद्धगन्धकतुल्यकम् ।। भस्म, चांदी भस्म, अभ्रक भस्म, कान्तलोह भस्म द्वयोः पादं शुद्धरसं मर्दयेच्छूरणद्रवैः ।।
और बंग भस्म समान भाग ले कर सबको एकत्र पुटेल्लघुपुटे विद्वान् स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत् ।
मिला कर सात सात बार गिलोय और शतावरके गुञ्जा? विलिहेव क्षौद्रैः प्लीहगुल्मविनाशनम।। रसमें धोट कर सुखा लें । यकृच्छ्रलं बरं हन्ति कान्तिपुष्टिविवर्द्धनः।। __ मात्रा-१ माशा। रसराज इति ख्यातो रोगवारणकेशरी ॥ अनुपान----शहद, घी और काली मिर्चका
गन्धक योगसे बनी हुई ताम्र भस्म २ भाग, | चूर्ण । शुद्ध गन्धक २ भाग और शुद्ध पारद १ भाग ले | इसके सेवनसे उरःक्षत नष्ट होता और कामकर सबको एकत्र मिला कर जिमीकन्दके रसमें | वृद्धि होती है। खरल करें और फिर उसे शरावसम्पुटमें बन्द
( व्यवहारिक मात्रा--१ रत्ती ।) करके लघुपुट में फूंक दें। तदनन्तर 'पुटके स्वांग
(६०८६) रसराजः (३) शीतल होने पर उसमेंसे औषधको निकाल कर
( भै. र. । वातव्या.) पीस लें। मात्रा--आधी रत्ती।
पलैक मूछितं सूतं व्योमसत्वञ्च कार्षिकम् ।
सुवर्ण तत्सम ज्ञेयं कन्यारसविमर्दितम् ॥ अनुपान---शहद । इसके सेवनसे प्लीहा, गुल्म, यकृच्छूल और
लौहं रूप्यं मृतं वङ्गं वाजिगन्धालवङ्गकम् । ज्यर नष्ट होता तथा कान्ति और पुष्टिकी वृद्धि
जातीकोषं तथा क्षीरकाकोलीश्च तदर्द्धकम् ।। होती है।
काकमाचीरेसेनैव सर्व सम्मर्दयेद् दृढम् ।
गुञ्जाद्वयप्रमाणेन वटिकां कारयेद्भिषक् ॥ __(६०८५) रसराजः (२)
क्षीरश्च शरातोयमनुपानं प्रयोजयेत् । ( यो. र. ; र. रा. सु. ; वृ. नि. र. ।
पक्षाघातादिते वाते सोद्गारे सापतानके । क्षयरोगा. ; वृ. यो. त. । त. ७७ )
अङ्गभङ्गे तथा कुब्जे धनुस्तम्भे तथैव च । मुक्तापवालरसहेमसिताभ्रकान्त- शिरसो घूणिते स्वेदे हस्तपादादिशीतले ॥
वङ्गं मृतं सकलमेतदहो विभाव्यम् । । मनोविभ्रमकम्पे च आध्माने नेत्रवैकृते ।
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४१४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
दापयेत् रसराजोऽयं वातव्याधिकुलान्तकृत् ॥ जातीफललवङ्गाभ्यां रतौ वीर्य निशेधयेत् । नातः परतरं श्रेष्ठं विद्यते रसकर्मणि ॥ पटुदीप्यशिवाविश्वेश्वानरविवर्धनः ॥ रससिन्दूर ५ तोले, अभ्रक सत्वको भस्म
क्षयवस्तु तथाऽर्मोनस्तककृष्णाभयान्वितः ।
ग्रहण्यां जातिकोशेन रेके कुट जवारिणा ॥ । तोला और स्वर्ण भस्म १६ तोला ले कर तीनोंको एकत्र मिला कर १ दिन घीकुमारके
प्रमेहे शाल्मलीद्रावैवदर्याऽक्षिगदे हितः। रसमें घोटें और फिर उसमें आधा आधा कर्ष
सामे वाऽपि निरामे वा समे वा विपसे ज्वरे॥
देयो नताब्दकटुकाकारविश्वशृतेन वै । (प्रत्येक ७॥ माशे) लोह भस्म, चांदी भस्म, बंग भस्म, असगन्धका चूर्ण, लौंगका चूर्ण, जाव
रास्नाम्भसा वातरोगे पित्तरोगे सिताउटिः ॥ त्रीका चूर्ण और क्षीर काकोलीका चूर्ण मिलाकर
अक्षत्वचा कफव्याधौ पाण्डुरोगेऽजमूत्रकैः ।
अश्मर्यामश्मभेदेन कुष्ठे वल्गुजवायसैः ॥ सबको मकोय के रसमें खरल करके २-२ रत्तीकी
भगन्दरे गुडेनैव व्रणे पौ नर्नवायुतः । गोलियां बना लें।
| मेदोरोगेऽम्बुमधुना प्रदरेऽशोकवारिणा ॥ अनुपान-दूध या खांडका शरबत । | शूले हिङ्गुकराभ्यामरुचौ रुचकेन वा।
इसके सेवनसे पक्षाघात, अदित, उद्गार, छयी धात्रीरसेनैव क्षैण्ये पणेन दापयेत् । अपतानक, अङ्गभङ्ग, कुब्जता, धनुस्तम्भ, शिर द्राक्षारसेन शोषे च संज्ञानाशे किरातकैः। चकराना, पसीना अधिक आना, हाथ पैरोंका शीतल मूछायां चन्दनाम्भोभिर्विद्रधी वरणाम्बुना ॥ हो जाना, मनोविभ्रम, कम्प, आध्मान और नेत्रोंका |
सर्वेष्वन्येषु रोगेषु ताम्बूलोदलयोगतः ।। विकृत हो जाना आदि विकार नष्ट होते हैं। ____ पान, अफीम, फूलप्रियङ्गु और कुचला
समान भाग लेकर सबको पानी के साथ एकत्र (६०८७) रसराजः (४)
| पीसकर उसका एक स्वच्छ कपड़े पर लेप करके (बृ. यो. त. । त. १४७, ४२ )
सुखा लें। नागाहिफेनफलिनीविषमुष्टिविलेपिते ।
तदनन्तर समान भाग शुद्ध पारद, गन्धक वखे निर्बध्य विधिवद्रसगन्धकखपरम् ॥ और खपरियाकी कजली करके उसे उपरोक्त गौर्या पचेल्लावपुटे शतेन च नियोज्य तु । | (पान इत्यादि ) के रसमें घोट कर गोला बनावें ऊर्ध्वाधो हेमबीजानि पेषयेद्दशतः क्रमात् ॥ । और फिर उसे धूपमें सुखा कर उसके ऊपर नीचे तेषां तोयैः पुनः कृत्वा पूपिकामर्कशोपिताम। धतूरेके १० बीज · रख कर उपरोक्त वस्त्र में तत्कर्दमैः प्रतिपुटं दिग्धां कृत्वा पुटेच्छतम् ॥ बांधकर पोटली बनावें । रसराजो भवत्येष सर्वरोगहरो रसः।
तत्पश्चात् एक शरावमें उपरोक्त (पान इत्यादि) जम्बूवर्णोऽतिकठिनो रूक्षो वीर्यबली भवेत् ॥ के कल्कका लेप करके उसमें उपरोक्त पोटली रख
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रसपकरणम् ]
चतुर्थों भागः
कर उसके ऊपर दूसरा शराव रख दें और दोनोंके नागरमोथा, कुटको, अकरकरा और सोंठके जोडको बन्द करके सम्पुट बना लें तथा उस पर | काथके साथ; दो ३ कपड़ मिट्टी करके सुखा लें और फिर लाव- वातज रोगे ---रास्नाके काथके साथ; पुटमें फूंक दें। इसी प्रकार १०० पुट दें। पित्तज रोगोंमें-~-मिश्री और छोटी इलायची हर बार नवीन वस्त्र ले कर उस पर उक्त औषधोंका
के चणके साथ; लेप करना तथा शरावके भीतर भी उन्हींके कल्कका
कफ रोगांमें---बहेड़ेकी बकलीके साथ; लेप करना एवं हर बार औषधको उक्त ओषधि
पाण्डुमें--बकरेके मूत्रके साथ; योंके रसमें खरल करना चाहिये और हर बार
अश्मरिमें--पखानभेदके साथ; धतूरेके बीजोंका चूर्ण भी डालना चाहिये ।।
कुष्टमें----बाबची और मकोयके साथ; इस क्रियारो जामनके रंगवाली, अत्यन्त कठिन भगन्दरमें--गुड़के साथ; और रूक्ष औषध तैयार होगी, जिसे “ रसराज" ब्रणमें---पुनर्नवा (बिसखपरे) के साथ; कहते हैं।
मेदरोगमें---शहदके शरबतके साथ; ( मात्रा--१ रत्ती ।)
प्ररदमें-अशोकके काथके साथ; शूलमें----हींग और करञ्जके काथके साथ;
अरुचिमें--बिजौ रेके रसके साथ; वीर्यस्तम्भनके लिये-जायफल और लौंगके
छर्दिमें--आमलेके रसके साथ; चूर्णके साथ;
क्षीणतामें--पानके साथ; अग्निवर्द्धनार्थ- सेंधा नमक, अजवायन, शोषमें-- द्राक्षाके रसके साथ; हरे और सांठके चूर्णके साथ;
संज्ञानाशमें--चिरायतेके काथके साथ क्षय तथा अर्शमें-पीपल और हर्रका चूर्ण |
मूर्छा में---चन्दनके पानीके साथ; मिले हुवे तक्रके साथ;
विद्रधीमें---बरनेकी छालके क्वाथके साथ; ग्रहणीमें----जावित्रीके साथ;
और अन्य रोगों में--ताम्बूल (पान) के साथ अतिसारमें---कुड़ेकी छालके स्वरस या | खिलाना चाहिये । काथके साथ;
(६०८८) रसराजः (५) प्रमेहमें--संभलकी छालके रसके साथ; (र. चि. म. । स्तब. ४; र. का. धे. । कुष्टा.)
नेत्ररोगोंमें ----बेरीकी छालके स्वरस या पारदं गन्धकाकोल्लमलवल्कलमाक्षिकम् । काथके साथ;
विषतिदुकतालं च समङ्गा दुग्धिका तथा ॥ साम, निराम, विषम और समज्वर में---तगर, १ "समङ्गा मेषदुग्धिका" इति पाठान्तरम्।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
अर्को गन्धर्वहस्तश्च २जयन्ती कटुचिश्चिका। | रसकी ३ भावना देकर सुखावें । तदनन्तर बकरीके पलं पलं समादाय पलमात्रा च पिप्पली ॥ मूत्रमें घोट कर गोला बनावें; एवं उसे सुखा कर असेहुण्डमेपीनां दुग्धैः कुर्याच भावनाः। शरावसम्पुटमें बन्द करके कुक्कुट पुटमें पकावें । तिस्रो वापि चतस्रो वा चूर्ण सूक्ष्मे विचक्षणः ॥ मात्रा–१ रत्ती। देवदालीरसैः पश्चात्तिस्रो देयास्तु भावनाः । इसे गुड़में लपेट कर खिलाना चाहिये । सर्व विमर्थ संशोष्य छागीमूत्रेण गोलकम् ॥
इसके सेवनसे श्वेत कुष्ठके स्थान पर छाले कारयन्मूापकामध्य कुक्कुटाख्यपुट पुटत् ।। पड़ जाते हैं एवं उनके फूटनेके पश्चात् वहां तिलके रक्तिका प्रदातव्या गुडेन परिवेष्टिता ॥ समान काले बिन्दु हो जाते हैं । श्वित्रे तेन भवेयुश्च विस्फोटास्तदनन्तरम् ।।
पथ्य---इस रसके सेवन काल में उड़द, स्फुटन्ति स्फोटास्ते सर्वे विन्दवस्तिलसन्निभाः।।
| तिल, कुलथ, बैंगन और कमल अधिक सेवन निष्पद्यन्तेऽथ कृष्णास्ते रसराजप्रभावतः। ।
करना चाहिये। माषास्तिला प्रयोगेऽत्र भोक्तव्यास्तिलभोजनम्।।
इसके सेवनसे समस्त कुष्ट, यकृत्, गुल्म, कुलित्थं चापि वार्ताकं पुण्डरीकं प्रयोजयेत् ।
प्लीहा और विद्रधि नष्ट होती तथा अग्नि, तेज और नश्यन्ति सर्वकुष्ठानि संख्यान्यष्टादशैव हि ॥
बलकी वृद्धि होती है। यकृद्गुल्मोदरप्लीहविद्रधीनपि नाशयेत् ।। अग्निं च कुरुते दीप्तं वृद्धिं तेजो बलस्य च ॥ (६०८९) रसराजेन्द्रः
शुद्ध पारद. शुद्र गन्धक, अकोल वृक्षकी ( भै. र. । वृद्धिरो.) जड़की छाल, स्वर्णमाक्षिक भस्म, शुद्ध कुचला,
| हिङ्गुलोत्थं रसं गन्धं केशराजाम्बुशोधितम् । हरताल ( शुद्र या भस्म ), मजीठ, दूधी, आककी
| रसाधैं हेम तारश्च नागं हेमार्द्ध तथा ॥ जड़की छाल, अरण्डमूल, जयन्ती, कुटकी, इमली
क्षिप्त्वा खल्लतले पश्चाद् वासाक्वाथेन भावयेत् और पीपल ५-५ तोले लेकर प्रथम पारद गन्धक
काकमाच्याश्चित्रकस्य निर्गुण्डयाः कुटजस्य च।। की कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओष
स्थलपद्मस्योत्पलस्य सप्तकृत्वो द्रवैः पृथक् ।। धियांका चूर्ण मिलाकर सबको आकके दूध, सेंड
ततो रक्तिमिताः कुर्याद् वटीश्चण्डांशु शोषिताः ( थूहर-सेहुण्ड ) के दूध और भेड़के दूधकी
अन्त्रजान् निखिलान् रोगान् सर्वदोषोद्भपृथक् पृथक् ३-३ या ४-४ भावना दे कर
वांस्तथा। सुखा लें और फिर उसे देवदाली ( बिंडाल ) के
हन्त्ययं रसराजेन्द्रो मृगराजो यथा मृगान् ॥ २" जटात्वकचन्द्रबिम्बिका " इति पाठभेदः। हिङ्गुलोत्थ (शिगरफसे निकाला हुवा) पारद ३ "टङ्कमात्रा" इति पाठभेदः | १ भाग, भंगरेके रसमें शुद्ध किया हुवा गन्धक १
वार
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः
४१७
D
भाग, स्वर्ण भस्म और चांदी भस्म आधा आधा त्यजेधावत्पूर्वबलं भवेत्पटुतरं तावत्स्त्रियं न । भाग, तथा सीसा भस्म चौथाई भाग लेकर सबको
स्पृशेत् ॥ एकत्र मिला कर वासा, काकमाची (मकोय), चीता, । यदि रस खानेसे दाह उत्पन्न हो गई हो तो संभाल, इन्द्रजौ, स्थलपद्म और नीलोत्पलके स्व- शरीर पर शीतल जल डालना और चन्दन तथा रस या काथको पृथक् पृथक् सात सात भावना कपूरका लेप करना, मन्द पवन सेवन करना, देकर १-१ रत्तीकी गोलियां बनावें और उन्हें मिश्री युक्त ताज़ा दही खाना, नारियलका पानी • धूपमें सुखाकर सुरक्षित रक्खें ।
पीना और मधुर तथा शीतल पदार्थ सेवन करने इनके सेवनसे सर्व दोषज समस्त प्रकारके । एवं अन्य शीतल उपचार करने हितकारी हैं। अन्त्ररोग नष्ट होते हैं। (६०९०) रसविकारशमनोपायः सुहागा, चौलाईकी जड़, मिश्री, मुलैठी और ( यो. र. । रसविकारचिकि.)
सफेद चन्दन समोन भाग लेकर चूर्ण बनावें।
इसे कांजीके साथ पीनेसे समस्त रसविकार जनितविविधदाहे शीततोयाभिषेको
शान्त होते हैं। मलयजघनसारो लेपनं मन्दवातः । तरुणदधिसिताक्तं नारिकेलीफलाम्भो।
यदि रसविकारके कारण छर्दि होने लगे तो __ मधुरशिशिरपानं शीतमन्यच्च शस्तम् ॥
ईखका रस पिलाना या कैथके गूदेमें मिश्री मिला
कर खिलाना चाहिये । सौभाग्यमेघनादाङ्ग्रिसितामधुकचन्दनम् । तुषोदकेन पातव्यं सर्वस्मिन् रसवैकृते ॥
। रसजन्य दाहमें समस्त शरीर पर जम्बीरीके
रसमें घीकुमारके गूदेको पीस कर लेप करना तथा छयों चेक्षुरसो देयः कपित्थं वा सितान्वितम्। पित्तञ्चरको चिकित्सा करनी चाहिये ।
कुमारीगिललेपश्च सर्वाङ्गेण प्रशस्यते ॥ समस्त रसविकारोंमें इच्छानुसार शीतल रसदाहे भवेत्सर्व पित्तज्वरभिषग्जितम् ॥ जलादि पिलाना और दाडिम (अनार) वृक्षकी
कांपल तथा दूब घासकी जड़को आमलेके रसमें सर्वस्मिन् रसवैकृते हि शिशिरं स्वेच्छाम्बु- पीस कर देना चाहिये।
पानादिकम् । रसविकार शान्त होने पर जब तक पूर्वदेयं तापशमाय दाडिमतरोरग्राणि दुर्वा शिफाः। वत् बल न आ जाए तब तक स्त्री-समागम न सम्पेष्यामळया ददीत च तदा स्वेच्छावशेन । करना चाहिये ।
५३
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
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(६०९१) रसवीरमहारसः (६०९२) रसशार्दूलरस' (१)
(र. र. रसा. ख. । उपदेश २) ( रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. । सूतिका.) त्रिगुणं शुद्धसूतस्य योजयेच्छुद्धगन्धकम् ।
अभ्रं तानं तथा लौहं राजपढें रसन्तथा । लोहपर्पटिकाचूर्ण सूततुल्यं विनिक्षिपेत् ॥
गन्धटङ्कमरीचश्च यवक्षारं समांशकम् ॥ स्नुह्यकपयसा मधै तत्सर्वं दिवसत्रयम् ।
तथात्र तालकञ्चैव त्रिफलायाश्च तोलकम् । तच्छुष्कं चान्धितं पच्यात्करीषाग्नौ दिवा
तोलकञ्चामृतश्चैव षड्गुञ्जा प्रमिता वटी ।। निशम् ॥
ग्रीष्मसुन्दरकस्यापि नागवल्लीरसेन च । ततश्च टङ्कणं काचं दत्त्वा रुवा धमेदृढम् ।
भावयेत्सप्तधा हन्ति ज्वरकासाङ्गसङ्घहम् ॥ गुज्जैकं मधुना खादेद्रसवीरो महारसः॥
सूतिकातङ्कशोथादिस्त्रीरोगश्च विनाशयेत् ॥ अब्दैकेन जरां हन्ति जीवेदाचन्द्रतारकम् ।
___ अभ्रक भस्म, ताम्र भस्म, लोह भस्म, राज मुशलीमूलचूणे तु गुञापत्रद्वैः पिबेत् ॥ छागीमूत्रेण वा तं वै कर्षे कामकं परम् ॥ ।
पट्ट ( कान्त पाषाण-चुम्बक) भस्म, शुद्ध पारा,
शुद्ध गन्धक, सुहागेकी खील, काली मिर्चका चूर्ण, शुद्ध पारद १ भाग और गन्धक ३ भाग ले
जवाखार, हरताल ( शुद्ध या भस्म ), हर्र, बहेड़ा, कर दोनोंकी कज्जली बनावें और फिर उसमें १
| आमला और शुद्ध बछनाग (मीठा विष ) समान भोग लोहपर्पटीका चूर्ण मिला कर सबको ३-३
भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें दिन स्नुही ( सेंड-थूहर ) और आकके दूधमें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंको चूर्ण मिलाकर खरल करें और फिर उसे सुखाकर अन्धमूषामें बन्द
सबको गूमा और पानके रसकी पृथक् पृथक् करके १ दिन रात कण्डोंकी अग्निमें पकावें । तत्प
सात सात भावना देकर ६-६ रत्तीकी गोलियां श्चात् उसमें १-१ भाग सुहागे और कांचका चूर्ण
बनावें। मिलाकर सबको एकत्र घोट कर शरावसम्पुटमे
इनके सेवनसे ज्वर, खांसी, शरीरकी जकबन्द करें, और उसे तीब्राग्नि पर धमावें ।
डाहट, सूतिका रोग और शोथादि स्त्री-रोगांका इसे १ वर्ष तक सेवन करनेसे जरा (वृद्धा
नाश होता है। वस्था ) नष्ट होती और अत्यन्त आयुवृद्धि होनी है।
(६०९३) रसशार्दूलरसः (२) (वृहद्) मात्रा–१ रत्ती।
( रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. । सूतिका.) अनुपान-शहदके साथ दवा खा कर ऊपरसे रसस्य द्विगुणं गन्धं शुद्धं सम्मर्दयेद्दिनम् । मूसलीका चूर्ण चौंटलीके पत्तोंके रस या बकरीके प्रतिलौहं सूततुल्यमष्टलौहं मृतं क्षिपेत् ।। मूत्रके साथ पीना चाहिये।
| ब्राह्मी जयन्ती निर्गुण्डी मधुयष्टिः पुनर्नवा ।
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४१९
रसप्रकरणम्
चतुर्थों भागः नलिका गिरिकर्ण्यककृष्णधूर्त्तदुरालभाः॥ मर्दयेच्च तुलस्यैव ततश्चैतानि दापयेत् ॥ अटरूपं काकमाची द्रवैरेषां विमईयेत् । जातीकोषफले चैव पारसीकयमानिकाम् । गुआत्रयं चतुर्थ वा सर्वरोगेषु योजयेत् ॥ आकारकरभं चैव द्वात्रिंशद्रक्तिकां प्रति ॥ रोगोक्तमनुपानं वा कवोष्णं वा जलं पिबेत् ॥ मर्दयेत्तुलसीतोयैरेतेषां द्विगुणं शुभम् ।
शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, दद्यात् खदिरसत्वश्च वटिका चणकप्रभा ।। स्वर्ण भस्म १ भाग, रौप्य भस्म १ भाग, ताम्र । सायं द्वे द्वे प्रयोज्ये च लवणाम्लश्च वर्जयेत् । भस्म १ भाग, बंग भस्म १ भाग, सीसा भस्म १ गलकष्ट तथा स्फोटान टान गभिमावि भाग, मुण्डलोह भस्म १ भाग, तीक्ष्ण लोह भस्म
ये स्युर्वणा नृणामन्ये उपदंशपुरःसराः । १ भाग और कान्त लोह भस्म १ भाग लेकर
| तान् सर्वान्नाशयत्याशु सिद्धोऽयं रसशेखरः॥ प्रथम पारद गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे मिला कर सबको १-१ दिन शुद्ध पारद २ रत्ती और अफीम १२ रत्ती ब्राह्मी, जयन्ती, निर्गुण्डी ( सम्भालु ), मुलैठी, | लेकर दोनेांको लोह पात्रमें डालकर नीमके डंडेसे, पुनर्नवा, नाली शाक, कोयल, आक, काला धतूरा, थोड़ा थोड़ा तुलसीका रस डालते हुवे घोटें । जब धमासा, बासो और मकोयके रसमें खरल करके दोनों एक जीव हो जाएं तो उसमें २ रत्ती शुद्ध ३-३ या ४-४ रत्तीकी गोलियां बना लें। हिंगुल ( शिंगरफ़) मिला कर उपरोक्त विधिसे
इन्हें रोगोचित अनुपान या मन्दोष्ण जलके | तुलसीका रस डाल डाल कर नीमके डंडेसे घोटें । साथ सेवन करनेसे समस्त सतिकारोग नष्ट जब सब अच्छी तरह मिल जाएं तो उसमें जावत्री, होते हैं।
जायफल, पारसी अजमायन (खुरासानी अजवा
यन ) और अकरकरेका बारीक चूर्ण ३२-३२ रसशार्दूलरसः (३) (महा)
रत्ती मिला कर पुनः तुलसीका रस डालकर नीमके ( रसे. सो. सं. ; र. रा. सु. । सूतिका.)
डंडेसे घोटें और अन्तमें सबसे २ गुना कत्था मिला"महा शार्दूल रसः" प्रयोग संख्या ५५८७ | कर चनेके बराबर गोलियां बना लें। देखिये।
मात्रा--२ गोली। (६०९४) रसशेखरः
इन्हें सायंकालके समय खिलाना चाहिये । ( भै. र. । उपदंशो. ; धन्व.) अपथ्य-नमक और खटाईसे परहेज़ करना पारदञ्चाहिफेनश्च द्विादशरक्तिकम् ।
चाहिये। अयः पाने निम्बकाष्ठैमर्दयेत्तुलसीद्रवैः॥ । इनके सेवनसे गलत्कुष्ठ विस्फोटक, गर्दभिका तस्मिन् सम्मूञ्छिते दद्यादरदं रससम्मितम् । | और उपदंशके व्रण नष्ट होते हैं ।
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
(६०९५) रससाररसः
( २. च.; । रसविकार चि. ; यो. र. ) मुक्तावमवङ्गभूतिसहितं बल्लं पृथक् स्वर्णकम् छिन्नासत्त्वतुगासितानवनितं चालोड्य सम्भ
।
क्षयेत् ॥
संजाते तृषि नारिकेलसलिलं तत्कालिकं प्राशयेत्। सर्वस्मिन्रसवैकृते च गदितं ह्येतद्धि योगामृते ||
मोती भस्म, विद्रुम (मूंगा) भस्म, बंग भस्म और स्वर्ण भस्म तथा गिलोयका सत और बंसलोचन समान भाग लेकर सबको एकत्र मिला कर खरल करें।
इसे मिश्रीयुक्त नवनीत (नौनी घी) के साथ चाटने से रसजनित विकार शान्त होते हैं ।
रस सेवन से यदि तृषा उत्पन्न हो जाय तो नारियलका ताज़ा पानी पिलाना चाहिये ।
(६०९६) रस सिन्दूरम् (१) ( रसे. सा. स. ; यो. र. ) पलमात्रै रसं शुद्धं तावन्मात्रन्तु गन्धकम् । विधिवत्कज्जलीं कृत्वा न्यग्रोधाङ्कुरवारिभिः ॥ भावना त्रितयं दत्वा स्थालीमध्ये निधापयेत् विरच्य कवचीयन्त्रं वालुकाभिः प्रपूरयेत् ॥ दद्यात्तदनु मन्दार्थि भिषग्यामचतुष्टयम् । जायते रससिन्दूरं तरुणादित्यसन्निभम् ॥ अनुपानविशेषेण करोति विविधान्गुणान् ॥
।
५ तोले शुद्ध पारद और ५ तोले शुद्ध गन्धककी कजली करके उसे बड़के अंकुरे के रस की
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[ कारादि
३ भावना दे कर सुखा लें और फिर उसे ३-४ कपड़मिट्टी की हुई आतशी शीशी में भर कर बालुका यन्त्र में रख कर ४ पहरकी मन्दाग्नि दें ।
तदनन्तर शीशीके स्वांगशीतल होने पर उसे सावधानी पूर्वक तोड़ कर उसमें से बालसूर्य के समान लाल रंग के रसको निकाल लें । इसीका नाम रस - सिन्दूर है |
रोगोचित अनुपान के साथ देनेसे यह अनेक रोगको नष्ट करता है ।
(६०९७) रस सिन्दूररम् (२)
( योग त । त. १७; आ. प्र. । अ. १ ) सुतः पञ्चपलः स्वदोषरहितस्तत्तुल्यभागो बलिद्वौं टङ्कौ नवसादरस्य तुवरीकर्षश्च संमर्दितः । कृपया काचभुवि स्थितश्च सिकायन्त्रे त्रिभिवसरे: पको वह्निभिरुद्भवत्यरुणाभाः सिन्दूरनामा रसः
शुद्ध पारद २५ तोले, शुद्ध गन्धक २५ तोले, नौसादर १० माशे और फटकी १| तोला लेकर कज्जली बनावें और फिर उसे कपड़ मिट्टी की हुई आतशी शीशी में भर कर ३ दिन तक बालुका यन्त्रमें पकावें । और तत्पश्चात् शीशी स्वांगशीतल होने पर उसे तोड़कर उसके गलेमें लगे हुवे लाल रंग रससिन्दूरको निकाल लें ।
(६०९८) रससिन्दूरम् (३) ( आ. वे. प्र. । अ. १ )
कूपी सप्तमृदंशुकैः परिवृता शुष्काऽत्र गन्धेश्वरौ तुल्यौ तौ नवसारपादकलितौ सम्मर्थ तस्यां न्यसेत् ।
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४२१
रसपकरणम् ]
चतुर्थों भागः सा यन्त्रे सिकताख्यके तलविले पक्त्वाऽर्कयामं संमर्य गाढं सकलं सुभाण्डे
हिमं तां कजली काचकृते निदध्यात् ॥ भित्वा कुङ्कुमपिअरं रसवरं भस्माददेवैद्यराट् ॥
संवेष्टय मृत्कपटकैर्घटीं तां पाके रुद्धं मुखं कूप्या नवसारेण जायते ।
मुखे सचूर्णी गुटिकां च दत्त्वा । ततः शलाकया कुर्यात्कूपिकानाशशान्तये ॥ अनेन विधिना पाका यावन्तोऽस्य भवन्ति हि
क्रमाग्निना त्रीणि दिनानि पक्त्वा तावन्तो हि गुणोत्कर्षा जायन्ते रसभस्मनः ॥
तां वालुकायन्त्रगतां, ततः स्यात् ॥
वन्धकपुष्पारुणमीशजस्य शुद्ध पारद और गन्धक ४-४ भाग तथा
भस्म प्रयोज्यं सकलामयेषु । नौसादर २ भाग ले कर यथा विधि कज्जली
निजानुपानैमरणं जरां च बनावें और उसे सात कपड़मिट्टी की हुई आतशी शीशीमें भर कर १२ पहर तक बालुका-यन्त्रमें निहन्ति वल्लक्रमसेवनेन ॥ पकावें । बालू वाली हाण्डीकी तलीमें १ छेद कर |
'गन्धस्य भागो नवसादरस्य' इति मुख्यः देना चाहिये ।
पाठः । 'भागशब्दस्तु कर्षत्रयवाची' इति पाकके समय नौसादर उड़कर शीशीके मुख वृद्धाः । केचन पवनाशनशब्देन सीसकं व्यापर आ लगेगा और उसे बन्द कर देगा, जिससे | चक्षते; तत्तु धातुवादे उपयुज्यत इति ज्ञेयम् । शीशीके फूट जानेका भय है; अतः जब जब | आरुण्योत्पत्त्यै कूपीमुखे मुद्रा कार्या इति के शीशीका मुख नौसादरसे बन्द हो जाय तब तब चिद्वदन्ति, अन्ये मुद्रामदत्त्वैव रसभस्म संपादउसे लोहेकी शलाकासे खोलते रहना चाहिये । । यन्ति; यथासंप्रदाय व्यवस्था ॥ १२ पहर पश्चात् शीशीके स्वांग शीतल होने
शुद्ध पारद १ भाग (११ तोला ) और पर उसे तोड़ कर उसके गले में लगे हुवे रस सि- | गन्धक ३ कर्ष ( ३॥ तोले ) तथा शुद्ध शीशा न्दूरको निकाल लें।
१। माशा लेकर प्रथम शीशेको गला कर पारदमें उक्त विघिसे जितनी बार अधिक पाक किया | | डाल कर खरल करें और जब शीशा उसमें मिल जायगा, रस, उतना ही अधिक गुणदायक बनेगा। जाए तो उसमें गन्धक डाल कर कज्जली बनावें ।
तदनन्तर इस कज्जलीको कपरमिट्टी की हुई आतशी (६०९९) रससिन्दूरम् (४)
शीशीमें भर कर उसके मुख पर खिरिया मिट्टीका ( आ. वे. प्र. । अ. १; रसे. सा. स. ; यो. र.)
डाट लगा कर उसे गुड़ चूनेसे बन्द कर दें और भागो रसस्य त्रय एव भागा । बालुका-यन्त्रमें रख कर ३ दिन तक क्रमवर्धित
गन्धस्य माषः पवनाशनस्य। | अग्नि जलावें ।
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४२२ भारत-भैषज्य-रत्नाकर
[रकारादि इसके पश्चात् शीशीके स्वांगशीतल होने पर शूलप्लीहविनाशनं ज्वरहरं दुष्टबणान्नाशयेउसका तोड़कर गले में लगे हुवे दुपहरियाके फूलके दांसि ग्रहणीभगन्दरहरं छर्दि त्रिदोषापहम् ॥ समान लाल रंगके रससिन्दूर का निकाल लें। ।
शुद्ध पारद १० तोले, शुद्ध गन्धक २।। यह रस उचित अनुपानके साथ देनेसे अनेक तोले और नौसादर ७॥ माशे लेकर तीनोंकी रोगों और जरा तथा (अकाल) मृत्युको भी नष्ट कज्जली बना कर उसे नीबू के रसमें घोट कर कर देता है।
सुखा लें और फिर उसे सात कपड़मिट्टी की हुई मात्रा--३ रत्ती।
आतशी शीशी में भर दें। नोट--कुछ लोग शीशीका मुख खुला रखते
तदनन्तर एक हाण्डीके पेंदेमें छेद करके उस पर कपरमिट्टी कर के सुखा लें और उसमें
शीशी रख कर शोशीके गले तक हाण्डीको बालू (६१००) रससिन्दूरम् (५) रेतसे भर दें। (यो. र.)
इसके पश्चात् इष्टदेव और ५ कन्याओंका पलद्वयं शुद्धरसं पलार्ध शुद्धगन्धकम् ।
पूजन करके उक्त हाण्डी को चूल्हे पर चढ़ा दें कांध नवसारं च जम्बीरेण विमर्दयेत ॥
और उसके नीचे ८ पहर तक अग्नि जलावें । काचकूप्यां क्षिपेञ्चैव सप्तधा मृदकर्पटैः।
__अग्नि तापसे नासादर उड़ उड़ कर शीशी के विलेप्य काचकूपी तामातपे शोषयेद दृढम ॥ मुखको बन्द करेगा अतएव लोहेकी सलाई छिद्रभाण्डे ततः कूपी न्यसेसिकतयन्त्रके। | से शीशी के मुखको बार बार खोलते रहना
पिकां कण्ठमानेन पूजयेदिष्टदेवताः ॥ चाहिये। पश्च पूज्याः कुमार्यश्च ततश्चुल्लयां विनिक्षिपेत् । आठ पहर अग्नि जलाने के पश्चात् जब पद्यामाष्टकं चैव कूपिकां च क्षणे क्षणे ॥ शीशी स्वांग शीतल हो जाय तो उसे तोड़ कर संशोध्य पाचयेद्यन्त्रे स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत् । उसके गले में लगे हुवे रससिन्दूरको निकाल ग्राह्यं च दरदाकारं देवदानवदुर्लभम् ॥ सेवयेद्रोगनाशाय तत्तद्रोगानुपानतः।
मात्रा--३ से ६ रत्ती तक। वल्लं वा वल्लयुग्मं वा कणया मधुना सह ॥ सेवितं कामिनीकामं दर्शयेद्रतिकौतुकम् ।।
साधारण अनुपान--पीपलका चूर्ण और वीर्यबन्धकरं शीघ्रं योषामदविनाशनम् ॥
शहद। सिन्दूरं हरवीर्यसंभवमिदं रूक्षाग्निमान्यापहै यह अत्यन्त वाजीकरण, वीर्यस्तम्भक, और यक्ष्मादिक्षयपाण्डुशोफमुदरं गुल्मप्रमेहापहम् । कामिनी-मद-भंजक है ।
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रसमकरणम् ]
चतुर्थों भागः
४२३
इसे रोगोचित अनुपान के साथ देनेसे अनेक | अस्यानुपानयोगेन सर्वज्वरविनाशनः ॥ रोग नष्ट होते हैं।
तथा रेचकरः प्रोक्तः सौवर्चलफलत्रिकात् । यह रस रूक्ष, अग्निमांद्य-नाशक तथा क्षय, लवङ्ग कुङ्कुमं चैव दरदेन च संयुतः॥ पाण्डु, शोथ, उदर, गुल्म, प्रमेह, शूल, प्लीहा, |
ताम्बूलेन समं भक्ष्यो धातुवृद्धिकरः परः। ज्वर, दुष्ट व्रण, अर्श, संग्रहणी, भगन्दर, छदि और
विदारोचूर्णयोगेन धातुद्धिकरो मतः।
विजयादीप्यसंयुक्तो वमनस्य विकारनुत् ॥ त्रिदोषको नष्ट करता है।
सौवलं हरिद्रा च विजया दीप्यकस्तथा। रससिन्दूरम् (६)
अनेनोदरपीडां च सद्योजातां विनाशयेत् ॥ ( रसे. सा. स.)
चतुर्वल्लं पलाशस्य बीजाच द्विगुणं गुडात् । प्र. स. ४३५१ “ पारदभस्म-विधिः " | अस्यानुपानयोगेन कृमिदोषविनाशनः ॥ (१४) देखिये।
अहिफेनं लवङ्गं च दरदं विजया तथा । रससिन्दूरानुपानानि
अस्यानुपानतः सद्यः सर्वातीसारनाशनः ॥
सौवर्चलेन दीप्येन चानिमान्द्यहरः परः। (यो. र.)
क्षुद्वोधजनकश्चैव सिद्धनागेश्वरोदितः ॥ पिप्पलीमधुना सार्धं वातमेहं हिनस्ति च । गुडूचीसवयोगेन सर्वपुष्टिकरः स्मृतः । त्रिफलाशर्करासार्धे पित्तमेहहरा स्मृता । युक्तानुपानसहितः सर्वान्रोगान्विनाशयेत् ॥ पिप्पली मरिचं शुण्ठी भार्गी च मधुना सह ।
रससिन्दूरके अनुपान कासश्वासप्रशमनः शूलस्य च विनाशनः ॥ हरिद्राशर्करासार्धं रुधिरस्य विकारनुत् ।। ___ वातज प्रमेहमें—पीपलके चूर्ण और शहद त्र्यूषणं त्रिफला वासा कामलापाण्डमान्यत॥ के साथ चटाव । पिप्पली चित्रकं पथ्या तथा सौवर्चलं क्षिपेत् । पित्तज प्रमेहमें-त्रिफले के क्वाथमें खांड अग्निमान्द्यबद्धकोष्ठहृद्यथानाशनं परम् ॥ मिला कर उसके साथ खिलावें ।। शिलाजतु तथैला च सितोपलसमन्वितम् ।
___ खांसी, श्वास, शूलमें--पीपल, काली मिर्च मूत्रकृच्छ्रे प्रशस्तोऽयं सत्यं नागार्जुनोदितम् ॥
" सांठ और भरंगीके चूर्ण तथा शहदके साथ दें। लवङ्गं कुङ्कुम :पत्री हिङ्गुलं करहाटिका। पिप्पली विजया चैव समानीमानि कारयेत ॥ रक्तविकारर्मे-हल्दी के चूर्ण और खांड के कर्पूरादहिफेनाच्च नागाद्भागार्धकं क्षिपेत् । साथ दं सर्वमेकत्र सम्पर्य धातुवृद्धौ प्रदापयेत् ॥ कामला, पाण्डु, अग्निमांद्यमें-त्रिकुटा, सौवर्चलं लवङ्गं च भूनिम्बश्च हरीतकी। त्रिफला और बासेके क्वाथ के साथ सेवन करावें ।
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४२४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि अग्निमांद्य, हृद्रोग, कोष्ठबद्ध में--पीपल, हर प्रकारके अतिसारमें--अफीम, लौंग, चीता, हर्र और सञ्चल ( काले नमक ) के शुद्ध हिंगुल और भांग समान भाग लेकर चूर्ण साथ दें।
बनावें तथा उसके साथ रससिन्दूर सेवन मूत्रकृच्छमें--शिलाजीत, इलायची, और | करावें। बंसलोचन के चूर्ण के साथ सेवन करावे । ___अग्निमांद्यमें--सञ्चल (काला नमक) और
धातुवृद्धि के लिये--लौंगका चूर्ण, केसर, अजवायनके साथ दें। इसी अनुपानके साथ जावत्री, शुद्र हिंगुल, अकरकरा, पीपल और भांग | देने से क्षुधावृद्धि भी होती है। १-१ भाग तथा कपूर, अफीम और सीसाभस्म | पुष्टि के लिये---गिलोयके सतके साथ दें । आधा आधा भाग लेकर यथा विधि चूर्ण बनावें अन्य रोगोंमें रोगोचित अनुपानके साथ देना एवं इस चूर्ण के साथ यथोचित मात्रामें रस सिन्दूर | चाहिये । सेवन करावें ।
(६१०१) रससिन्दूरयोगः हरप्रकारके ज्वरमें-सञ्चल (काला नमक),
( भै. र. । मूत्राघाता.) लांग, चिरायता और हर्र के साथ दें।
वराम्ललवणोपेतं मूतं यश्च पिवेन्नरः । विरेचन के लिये--सौवर्चल (सञ्चल ) युक्त
तस्य नश्यन्ति वेगेन मूत्राघातास्त्रयोदश ॥ त्रिफलाकाथके साथ दें।
रस सिन्दूरको त्रिफला और सेंधा नमकके धातु वृद्धिके लिये---लौंग, केसर और शुद्ध | चूर्ण में मिलाकर कांजीके साथ सेवन करनेसे १३ हिंगुल ( शिंगरफ) के चूर्ण में मिलाकर पान में प्रकारके मूत्राघात नष्ट होते हैं । रख कर खाना चाहिये । या विदारी कन्दके चूर्ण
(मात्रा--१-१॥ रत्ती । ) के साथ सेवन करें।
(६१०२) रसाञ्जनादिचूर्णम् वमनमें --भांग और अजवायनके चूर्ण के
(ग. नि. । कासा. १०) साथ दें।
रसाञ्जनं हरिद्रा च पिप्पली लोहचूर्णकम् । नवीन उदरपीड़ामें--सञ्चल ( काला | मर्वाचित्रकमञ्जिष्ठाः पाठा च क्षयकासजित् ॥ नमक ), हल्दी, भांग और अजवायन के चूर्ण के रसौत, हल्दी, पीपल, लोह भस्म, मूर्वा, चीता, साथ खिलावें ।
मजीठ और पाठा; सबका समान भाग चूर्ण लेकर कृमि विकारमें--१॥ माशा पलाशपापड़ा एकत्र मिला कर खरल करें। (ढाक के बोज) का चूर्ण और ३ माशे गुड़ एकत्र यह चूर्ण क्षय की खांसीको नष्ट करता है । मिलाकर उसके साथ खिलावें।
( मात्रा--१ माशा ।)
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रकरणम् ]
(६१०३) रसादिगुटिका (र. रा. सु. । वातरोगा.)
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चतुर्थी भागः
पारदस्तालको गन्धस्त्रयः शुद्धाः समाः स्मृताः । जातिफलं जातिकोशं भङ्गावीजं लवङ्गकम् ॥ aratत्थकं शुद्धं शुद्धं त्र्यूषं समं पृथक । मागवलीद कर सैर्मर्दयेत् महरद्वयम् ॥ सोसनस्य शिफानीरैर्दयेत्तु तथाविधम् । अष्टगुञ्जामिता कार्य गुटिका च भिषखरैः । प्रभाते चैव साया वटी देया विशेषतः । मधुना नीरयुक्तेन गिलेचां वै वटीं शुभाम् ॥ पक्षाघातं निहत्याशु रसादिगुटिका स्वियम् । चन्द्रटेन समाख्याता योगरत्नसमुच्चये ॥
शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक १-१ भाग लेकर कज्जली बनावें और फिर उसमें १ भाग शुद्ध हरताल तथा १-१ भाग जायफल, जावत्री, भांगके बीज, लौंग, अजवायन, तूतियाकी भस्म, सोंठ, मिर्च और पीपल; इनका चूर्ण मिलाकर २ -२ पहर पानके रस और सासन (एक यूनानी औषध) की जड़ के रस या काथ में खरल करके ८.८ रत्तीकी गोलियां बना लें ।
अनुपान -- शहदका शर्बत ।
इनमें से १-१ गोली प्रातः सायं सेवन करसे पक्षाघात रोग शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।
(६१०४) रसादिगुटी (१) ( यो. र. इ. नि. र. । तृष्णा, वृ. यो. त । त. ८४ ) रसरजतमु पढीयस यो
वद सरोरुहमध्य दधाति ।
૫૪
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४२५
स जयति तृषितस्तृषां मनुष्यो ganafie त्रिमार्गगाम्भः ॥ शुद्ध पारद और शुद्ध चांदीके चूर्ण या वरकों को एकत्र घोट कर गोली बनावें ।
इसे मुखमें रखने से तृषा नष्ट होती है । (६१०५) रसादिगुदी (२) ( ट . नि. र. । स्पर्शवाता. ) अष्ट भागो रसः शुद्धो विषतिन्दोर्दशैव तु । गन्धकस्य दशद्वौ त्रिकटुत्रिफलयोस्त्रयः ॥ वह्निचित्रकमुस्तानां वचाश्वगन्धयोरपि । रेणुकाविषकुष्ठानां पिप्पलीमूलनागयोः ॥ एकैस्तु भवेद्भाग इति ग्राह्याः क्रमेण च । गुडश्चतुर्विंशतिः स्याद्वटिका बदराकृतिः ॥ क्रमेण वानुसेवेत स्पर्शवातापनुत्तये ॥
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शुद्ध पारद ८ भाग, शुद्ध कुचला १० भाग, शुद्ध गन्धक १२ भाग; सोंठ, मिर्च और पीपल १ - १ भाग, हर्र, बहेड़ा, आमला १–१ भाग, चीता २ भाग तथा नागरमाथा, बच, असगन्ध, रेणुका, शुद्ध बछनाग, कूठ, पीपलामूल और सीसाभस्म १-१ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियों का चूर्ण मिलाकर अन्तमें २४ भाग गुड़ मिलावें और बेरके समान गोलियां बना लें ।
इनके सेवन से स्पर्शवातका नाश होता है । (६१०६) रसादिगुटा (३) (वै. र. ; वृ. नि. र. | दाह. ; र. रा. सु. ; यो. र. । दाह. ; वृ. यो. त. । त. ८७ ) रसबलिघनसारचन्दनानां सनलदसे व्यपयोदजीवनानाम् ।
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४२६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
अपहरति गुटी मुखस्थितेय | प्रभाते सितया सार्धमशिता शीतवारिणा ।
सकलसमुत्थितदाहमाश्रयेत्ताम् ॥ एकेन दिवसेनैषा नवज्वरहरा भवेत् ।। शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, कपूर, सफेद चन्द- शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, नका चूर्ण, दो प्रकारकी खस, नागरमोथा और शुद्ध हिंगुल ३ भाग और शुद्ध जमालगोटा ४ भाग सुगन्धबालाका चूर्ण समान भाग लेकर प्रथम पारे लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य फिर उसमें अन्य औषधे मिला कर सबको दन्ती
ओषधियां. मिलाकर सबको पानीमें घोटकर गोलियां मूलके काथमें घोट कर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें।
बना लें। ___इन्हें मुखमें रखनेसे हर प्रकारकी दाह नष्ट इनमेंसे १ गोली प्रातःकाल मिश्रीमें मिला होती है।
कर ठण्डे पानी के साथ सेवन करनेसे नवीन ज्वर (६१०७) रसादिचूर्णम् एक ही दिनमें नष्ट हो जाता है। ( यो. र. । तृषा. , वृ. नि. र. । तृष्णा.)
(६१०९) रसादिवटी (२) रसगन्धककर्पूरैः शैलोशीरमरीचकैः ।
( वृ. नि. र. । ज्वरा.) ससितैः क्रमबैश्च सूक्ष् कृत्वा त्वहर्मुखे ॥
रसो गन्धो विषं शुण्ठी पिप्पली मरिचानि च । त्रिगुआपमितं खादेत्पिबेत्पर्युषिताम्बु च ।।
पथ्या विभीसकं धात्री दन्तीबीजं च शोधितम्॥ भृशं तृषां निहन्त्येवमश्विभ्यां च प्रकाशितम् ॥
चूर्णमेषां समांशानां द्रोणपुष्पीरसैर्भवेत् । शुद्ध पारद १ भाग, शुद्र गन्धक २ भाग,
वटी माषनिभां कुर्याद्भक्षयेन्नूतनज्वरे च ॥ कपूर ३ भाग, शिलाजीत ४ भाग, खस ५ भाग, काली मिर्च ६ भाग, और मिश्री ७ भाग लेकर
. शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध बछनाग, सेठ, प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें
पीपल, काली मिर्च, हर्र, बहेड़ा, आमला और शुद्ध अन्य ओषधियांका बारीक चूर्ण मिलाकर सबको
जमालगोटा समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी अच्छी तरह खरल करें।
कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियांका प्रातःकाल इसमेंसे ३ रत्ती चूर्ण खा कर
चूर्ण मिला कर सबको गूमाके रसमें घोट कर उड़ऊपरसे बासी पानी पीनेसे प्रवृद्ध तृषा भी शान्त |
दके बराबर गोलियां बना लें। हो जाती है।
इनके सेवनसे नवीन ज्वर नष्ट होता है । (६१०८) रसादिवटी (१)
(६११०) रसायुद्धृलनम् (वृ. नि. र. । ज्वरा.)
(यो. र. । सन्निपात.) रसं गन्धं च दरदं जैपालं क्रमवर्द्धितम् । रसविषमरिचमहेशपियफलभस्मैकभूचतुर्वसुभिः । दन्तीरसेन सम्पिष्य वटी गुजामिता कृता ॥ । भार्गमितमुधुलनमिदमतिस्वेदशैत्यहरम् ।।
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रसप्रकरणम् ।
चतुर्थों भागः
४२७
पारद १ भाग, बछनागका चूर्ण १ भाग, | आतशी शीशमें भर कर उसे १२ पहर बालुकाकाली मिर्चका चूर्ण ४ भाग और धतूरेके फलकी | यन्त्रमें पकावें । प्रथम १ पहर देवकन्दलीकी लकभस्म ८ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके | डीकी आग जलानी चाहिये और फिर ११ पहर बारीक चूर्ण बनावें ।
अन्य चाहे जिस लकड़ीकी आग जलाई जा सन्निपात ज्वरमें अत्यधिक स्वेद आने लगे या | सकती है। शरीर शीतल हो जाए तो शरीर पर इस चूर्णकी १२ पहर अग्नि देनेके पश्चात् जब शीशी मालिश करनी चाहिये।
स्वांग-शीतल हो जाय तो उसमेंसे औषधको (६१११) रसाभ्रकम्
निकाल कर सुरक्षित रखें। (र. चि. म. । स्तबक १०).
मात्रा-३ रत्ती। भुवने विप्रगेहेषु पत्रिका देवकन्दली।
अनुपान-शहद पवित्रा सर्वदेवानां मस्तकादिमनोहरी ॥ इसके सेवनसे जठराग्नि और पाचन शक्तिकी शुद्धमृतकमानीय सममभ्रेन मेलयेत् ।।
अत्यधिक वृद्धि होती और आयु बढ़ती है। वृद्धातस्था रसं विनिक्षिप्य मर्दयेत्सूतमभ्रकम् ॥ वस्थाके कारण श्वेत हुवे केश इसके सेवनसे काले याममात्रेण तत्सर्वं मिलत्येकत्र निश्चितम् । हो जाते हैं तथा शरीर क्षीण नहीं होता । पिण्डरूपमिदं सर्व घृष्यन्ते दिवसत्रयम् ॥ (६११२) रसाभ्रगुग्गुलुः काचकूप्ये विनिक्षिप्य वालुकायन्त्रमध्यगम् ।
(भै. र. । वातरक्त.) देवकन्दलयष्टीनां ज्वालयेद्याममात्रकम् ॥
कर्षद्वयं पारदस्य लौहं गन्धश्च तत्समम् । पश्चादपरकाष्ठानि ज्वालनीयानि यत्नतः।
लौहगन्धसमं चाभ्रं गुग्गुलु कुडवद्वयम् ॥ द्वादशप्रहरस्यान्ते शीतीभूतं तदुद्धरेत् ॥
अमृताया रसप्रस्थे रसप्रस्थे फलत्रिके । रक्तिकात्रितयं दवा मधुना सह भक्षणे ।
सान्द्रीभूते रसे तस्मिन् गर्भ दत्त्वा विचक्षणः ॥ अत्यग्निं कुरुते दीप्तमतिपाकं करोति च ॥
त्रिकटु त्रिफला दन्ती गुडूची चेन्द्रवारुणी। अक्षीणङ्गिश्च जायेत कल्पजीवी भवेन्नरः।
विडङ्ग नागपुष्पश्च त्रिवृता च सुचूर्णितम् ॥ जराजर्जरदेहानां पलितानि विनाशयेत्।।
प्रत्येकं कर्षमादाय सर्वमेकत्र कारयेत् । यामादपि भवेच्छीमान्मतिमांश्च भवेब्रुवम् ॥ भक्षयेत माषमात्रन्तु छिन्नाकाथानुपानतः ।।
शुद्ध पारद और अभ्रक भस्म समान भाग वातरक्तं महाघोरं स्फुटित गलितं जयेत् । लेकर दोनेांको १ पहर तक खरल करें और अष्टादशविधं कुष्ठं क्रिमिरोगाश्मरी तथा ॥ फिर उसमें देवकन्दलीका रस डोल कर तीन दिन भगन्दरं गुदभ्रंशं श्वेतकुष्ठं सकामलम् । खरल करें। तदनन्तर उसे कपड़मिट्टी की हुई । अपची गण्डमालाच पामाकण्डूविचचिकाः ॥
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४२८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
चर्मकीलं महाद नाशयेन्नात्र संशयः।
(६११३) रसाभ्रगुटिका वातरक्तविनाशाय धन्वन्तरिकृतः पुरा ॥
(र. र.; धन्व. । रसायना.) रसाभ्रगुग्गुलुः ख्यातो वातरक्तेऽमृतोपमः॥ सहदेवी बला चैव सूर्यावर्तोऽथ मारिषः। ___ शुद्ध पारद, लोह भस्म और शुद्ध गन्धक अपामार्गोऽमृता चैव सम्यक् सम्पादयेद भिषक् २॥-२॥ तोले; अभ्रक भस्म ५ तोले; शुद्ध एषां पलानि चत्वारि प्रत्येक कुट्टयेत्ततः । गूगल ४० तोले तथा गिलोयका रस या काथ २ | अत ऊर्व च तद्दत्त्वा मण्डूरं यत्पुरातनम् ॥ सेर और त्रिफलाका काथ २ सेर लेकर प्रथम पारे गोमूत्रेण पचेतावद् यावद् गोमूत्रशोषणम् । गन्धककी कज्जली बनावें और फिर समस्त द्रव्यों | तस्मादुद्धत्य तच्चूर्ण कुर्यात्पलचतुष्टयम् ॥ को एकत्र मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब | त्रिकटु रिफला मुस्तगुडूची चित्रकं त्रिवृत् । पाक लगभग तैयार हो जाय तो उसमें निम्न | दन्ति विडङ्गमेकैकं कर्षमेषां तु चूर्णयेत् ॥ लिखित द्रव्यांका चूर्ण मिला कर सबको एक जीव | एकपत्रीकृतस्याथ वचकाभ्रस्य यत्पलम् । करके सुरक्षित रक्खें।
| वार्यन्नाम्भस्त्रिरात्रस्थं वारिपर्णीरसाप्लुतम् ।। पूर्ण द्रव्य-सांठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेडा, आतपे शोषयेत्तीक्ष्णे दिनमेकं सुरक्षया । आमला, दन्तीमूल, गिलोय, इन्द्रायणकी जड़, | सूरणस्य रसैः पिष्ट्वा तत्र टणकस्य च ॥ बायबिडंग, नागकेसर और निसोत; इनका चूर्ण | दत्त्वाष्टौ माषकांस्तत्र पुटपाकेन पाचयेत् । ११-१। तोला लेकर सबको एकत्र मिला लें। मृण्मये सुदृढे पात्रे मृदुना गोमयामिना ॥ मात्रा--१ माषा ।
रसावादशमाषाश्च कर्ष गन्धकतः पृथक् ।
रसे मण्डूकपर्याश्च मूछितौ कज्जलीकृतौ ॥ अनुपान--गिलोयका काथ ।
घृतस्य मधुनश्चापि पृथक् पलचतुष्टयम् । इसके सेवनसे गलित और स्फुटित भयंकर
तत्सर्वमेकतः कृत्वा स्निग्धे भाण्डे निधापयेत् ॥ वातरक्त, अठारह प्रकारके कुष्ठ, कृमिरोग, अश्मरी,
ततोऽष्टौ माषकान् खादेदथवा द्वादशैव च । भगन्दर, गुदभ्रंश, श्वेत कुष्ठ, कामला, अपची,
कर्ष वापि तथा कुर्यात् बुद्ध्वा दोषबलाबलम् ॥ गण्डमाला, पामा, कण्डु (खाज), विचर्चिका, चर्म
दुग्धं चापि पिबेद्रोगी वह्नौ मन्दभवे ततः । कील और महा दद्रुका नाश होता है।
तप्तोदकानुपानं च सेवेच्च ग्रहणीगदे ॥ यह प्रयोग वातरक्तके लिये तो अमृतके | अजाक्षीरानुपानं च श्वासकासे प्रयोजयेत् ॥ समान गुणकारी है।
(१) सहदेवी, बला (खरैटी), सूर्यावर्त (हुल ( काथार्थ---गिलोय १ सेर, पानी ८ सेर, हुल), मरसा, अपामार्ग और गिलोय २०-२० शेष काथ २ सेर । त्रिफला १ सेर, पानी ८ सेर, तोले तथा गोमूत्रमें पकाया हुवा पुराने मण्डूरका शेष काथ २ सेर।)
चूर्ण २० तोले एवं सांठ, मिर्च, पीपल, हरे,
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रसमकरणम् ]
चतुर्थों भागः
४२९
बहेड़ा, आमला, नागरमोथा, गिलोय, चीता, (६११४) रसाभ्रमण्डूरम् निसात, दन्तीमूल और बायबिडंग; इनका चूर्ण
( मै. र. । शोथा.) ११-१॥ तोला लें।
(२) ५ तोले वज्राभ्रकका एक पत्र लेकर | गन्धकाम्बरसूतानां प्रत्येकं शुक्तिसम्मितम । उसे ३ दिन तक चावलोंके पानी में भिगोए रक्खें.
संशोध्य चूर्णितं कृत्वा मण्डूरं मुष्टिकद्वयम् ॥ और फिर तेज धूप में सुखा लें । तदनन्तर उसे ३
प्रसृतश्च हरीतक्या पाषाणजतुनः पिचुम् । दिन तक शैवाल ( सिरवाल ) के रसमें भिगो कर तोलकं कान्तलौहस्य सर्वं रौद्रे विभावयेत् ॥ उसी प्रकार तेज़ धूपमें सुखावें । इसके पश्चात् उसे
| भृङ्गराजरसमस्थे केशराजरसे तथा। जिमीकन्दके रसमें घोटें और फिर उसमें १० निर्गुण्डीमानकन्दानामाईकस्य रसेष्वपि ।। माशे सुहागा मिला कर टिकिया बना कर सुखा लें त्रिकटुत्रिफलाचव्यमुस्तकानां पृथक् पृथक् ।
और यथा विधि सम्पुटमें बन्द करके उपलोंकी कर्ष कर्ष क्षिपेच्चूर्ण मर्दयेन्मधुसर्पिषा ॥ मृदु अग्निमें पकावें । ( इसी प्रकार बार बार सुहा- भक्षयेत्यातरुत्थाय मात्रया युक्तिवः पुमान् । गेके योगसे पुट देकर अभ्रककी निश्चन्द्र भस्म | निहन्ति. सर्वजं शोथं सीजकाङ्गसंश्रयम् ॥ बनानी चाहिये ।)
कासश्वासतृषादाहमोहच्छदियुतं तथा । (३) १५ माशे शुद्ध पारद और १५ माशे अम्लपित्तं निहन्त्येव शूलमष्टविध जये। शुद्ध गन्धककी कज्जली बनाकर उसे मण्डूकपर्गीके | अग्निद्धिकरं वृष्यं हृयं वातानुलोमनम् ।। रसमें घोट कर सुखा लें।
कामलां पाण्डुरोगश्च श्लेष्मकुष्ठरुचियरमः। ___अब उपरोक्त सहदेवी आदि ६ ओषधियोंको. प्लीहगुल्मोदरं हन्ति ग्रहणीं सपबाहिकाम् ।। कूट कर बारीक कर लें और फिर उसमें उपरोक्त
शुद्र गन्धक, अभ्रक भस्म और शुद्ध पारद, मण्डूर, सेठि आदि काष्ठादि ओषधियां, उपरोक्त
२॥-२॥ तोले, मण्डूर भस्म १० तोले; हरका वजाभ्रक, कजली तथा २०-२० तोले घो, और
चूर्ण १० तोले, शिलाजीत १। तोला और कान्त शहद मिला कर सबको स्निग्ध पात्रमें भर कर | लोह भस्म ७॥ माशे लेकर प्रथम पारद गन्धककी रख दें।
कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे मिलाइसे ८ माशेसे ११ तोला तक अग्नि बलोचित
| कर उसमें २-२ सेर काले और सफेद भंगरे तथा मात्रानुसार सेवन करना चाहिये।
संभालु, मानकन्द और अदरकका रस डाल कर अनुपान
धूपमें रख दें। जब रस सूख जाए तो उसमें अग्निमांध-दूध;
१०-११ तोला सेठ, मिर्च, पीपल, हरे, बहेड़ा, ग्रहणी रोगमें-उष्ण जल तथा आमला, चव और नागरमोथे का चूर्ण मिला कर श्वास खांसीमें-चकरीका दूध । । खरल करें।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
(रकारादि इसे धो और शहद में मिलाकर सेवन करनेसे । तदनन्तर उसमें सफेद और काले भंगरे तथा सर्व दोषज एकाङ्ग तथा सर्वांगगत शोथ; खांसी, संभालू, चीता, गूमा, भण्डू पर्गी, जयन्ती, भांग श्वास, तृषा, मोह और छर्दि आदि उपद्रव युक्त और सफेद कोयल के पत्तॊका ११-१२ तोला रस शोथ एवं अम्लपित्त और आठ प्रकारका शूल | मिलाकर खरल करें और मारके समान गोलियां कामला, पाण्डु, कफ, कुष्ठ, अरुचि, ज्वर, प्लीहा, | बनाकर गुल्म, उदर रोग, ग्रहणी विकार और प्रवाहिकाका ।
इनके सेवनसे खांसी, श्वास, क्षय, वातकफज नाश तथा वायु अनुलोम होता और अग्निकी वृद्धि |
म हाती आर आग्निका वृद्धि रोग, ज्वर, अतिसार, चातुर्थिक ज्वर और ग्रहणी होती है।
| विकार नष्ट होता है। (मात्रा--१ रत्ती।) .
इस पर दही अवश्य पोना चाहिये । (६११५) रसाभ्रवटी
(६११६) रसामृतचूर्णम् ( रसें. सा. सं. । ग्रहण्य.) (यो. त. । त. ६४; व. से. । अम्लपि. ; यो. शुद्धस्तस्य कक ककं गन्धकस्य च । र. । अम्लपि. ; वृ. यो. त. । त. १२२.) द्वयोः कन्जलिकां कृत्वा तुल्यं व्योम पदापयेत्॥ त्रिकटु त्रिफलामुस्तं विडङ्ग चित्र तथा । केशराजस्य भृङ्गस्य निर्गुण्डयाश्चित्रकस्य च । एषां सञ्चूर्णितानान्तु प्रत्येकन्तु पलं भवेत् ।। ग्रीष्मसुन्दरमण्डू कीजयन्तीन्द्राशनस्य च ॥ कर्षवयं गन्धकस्य तददै पारदस्य च । श्वेतापराजितायाश्च स्वरसं पर्णसम्भवम् । विडालपदमात्रन्तु लिह्यात्तन्मधुसर्पिषा ।। रसतुल्यं प्रदातव्यं चूर्णश्च मरिचोद्भवम् ।। शीतोदकं चानु पिबेत्क्रमाद्गव्यं पयस्तथा । देयं रसा भागेन चूर्ण टङ्कणसम्भवम् । अम्लपित्तमनिमान्यं परिणामरुजं तथा ॥ सम्मर्थ वटिकां कुर्य्यात्कलायसदृशीं बुधः ॥ कामलां पाण्डुरोगश्च हन्यादेतद्रसामृतम् ॥ हन्ति कासं क्षयं श्वासं वातश्लेष्मभवं रुजम् । सोंठ, मिर्च, पीपल, हर, बहेड़ा, आमला, ज्वरे चैवातिसारे च सिद्ध एप प्रयोगराट् ॥ नागरमोथा, वायबिडंग, और चीता; इनके चूर्ण चातुर्थ के ज्वरे श्रेष्ठो ग्रहण्यातङ्कनाशनः । ५-५ तोले तथा शुद्ध गन्धक २॥ तोले और शुद्ध दधि चावश्यकं देयं प्राह नागार्जुनो मुनिः॥ पारद ११ तोला लेकर प्रथमा पार गन्धककी कज्जली ___ शुद्ध पारद श तोला, शुद्ध गन्धक १। तोला, बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंके चूर्ण अभ्रक भस्म २॥ तोले, काली मिर्चका चूर्ण ॥ मिलाकर अच्छी तरह खरल करें। माशे और सुहागेकी खील ७॥ माशे लेकर प्रथम इसे ११ तोलेकी मात्रानुसार घी और शहदके पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें | साथ सेवन करनेसे अम्लपित्त, अग्निमांद्य, परिणाम अन्य औषधे मिला कर थोड़ी देर मर्दन करें। शूल, कामला और पाण्डुका नाश होता है ।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
इसे खानेके पश्चात् शीतल जल पीना तथा (६११८) रसामृतरसः । गोदुग्ध सेवन करना चाहिये।
(र. चं. ; र. रा. सु. । रक्तपित्ता. ; धन्व. ; ( व्यवहारिक मात्रा---१॥ माशा ) ।
रसे. सा. सं.) (६११७) रसामृतम्
रसस्य द्विगुणं गन्धं माक्षिकं च शिलाजतु ।
चन्दनं गुडूची द्राक्षा मधुपुष्पं च धान्यकम् ।। (र. रा. सु. । मूर्छा.)
कुटजस्य त्वचं बीजं धातकी निम्बपत्रकम् । मातुलुङ्गद्रवैः मूतं भावितं वासरावधि ।।
यष्टिमधुसमायुक्तं मधुशर्करयान्वितम् ।। गन्धकञ्च पलान्यष्टौ नागं तत्पादसंयुतम् ॥ विधिना मर्दयित्वा तु कर्षमात्रं च भक्षयेत् । एकीकृत्याथ सम्भाव्य हस्तिशुण्डीरसैस्तथा । धारोष्णपयसा युक्तं प्रातरेव समुत्थितः ।। धूमसारैस्त्र्यहं भाव्यं रामठेन व्यहं त्र्यहम् ।। पित्तं तथाम्लपित्तं च रक्तपित्तं विशेषतः । शुष्कं काचघटे न्यस्य यामानष्टौ प्रदीपयेत् ।। निहन्ति सर्वदोषं च ज्वरान्सर्वान संशयः ॥ सिकताख्येन यन्त्रेण वैद्यो बुद्धिविशारदः॥ | रसामृतरसो नाम गहनान्दभाषितः ॥ रक्तिका द्वितयं सेव्यं मदात्यय निवृत्तये । ।
___शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग मधुनामलकैनित्यं राजाईन्तु रसामृतम् ॥ तथा स्वर्ण माक्षिक भस्म, शिलाजीत, सफेद चन्दन,
१ दिन बिजौ रेके रसमें खरल किया हुवा | गिलोय, मुनक्का, महुवेके फूल, धनिया, कुड़ेकी पारद तथा शुद्ध गन्धक ४०-४० तोले और शुद्ध | छाल, इन्द्रजौ, धायके फूल, नीमके पत्ते और सीसा १० तोले लेकर प्रथम सीसेको पिघला कर | मुलैठी १-१ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी पारदमें मिलावें और फिर उसमें गन्धक मिलाकर कज्जली बनावें और फिर उसमें शिलाजीत तथा कज्जली बना लें एवं उसे पृथक पृथक ३-३ दिन | अन्य ओषधियांका चूर्ण मिलाकर सबको अच्छी हाथीसुण्डीके रस, घरके धुवेंके पानी और हींगके | तरह मर्दन करके रक्खें। पानीकी भावना देकर, सुखाकर कपड़मिट्टी की हुई मात्रा-११ तोला । आतशी शीशीमें भरें । तदनन्तर उसे बालुका यन्त्रमें ।
अनुपान--औषधको खांड और शहदमें रख कर ८ प्रहरकी अग्नि दें । तत्पश्चात् शीशीके
मिलाकर चाटनेके पश्चात् धारोष्ण दूध पीना स्वांग-शीतल होने पर उसमेंसे औषधको निकाल
चाहिये। कर सुरक्षित रक्खें।
इसे प्रातःकाल सेवन करना चाहिये । इसके मात्रा--२ रत्ती ।
| सेवनसे पित्त विकार, अम्लपित्त और विशेषतः अनुपान---आमलेका रस और शहद । । रक्तपित्त एवं हर प्रकारके ज्वरका नाश होता है । इसके सेवनसे मदात्यय नष्ट होता है। । ( व्यवहारिक मात्रा-६ रत्ती।)
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४३२
भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[रकारादि
(६११९) रसायनामृतरसः (मध्यमनायिकाचूर्णम्)
(र. र.; र. चं. । अतिसारा.) कर्ष गन्धकमर्धपारद__मुभे कुर्याच्छुभां कजलीम् । ध्यक्षं त्र्यूषणकं च पञ्च ___ लवणात्साधं च कर्ष पृथक् ।। सार्धाक्ष द्विपलं विचूर्ण्य
सकलं शक्राशनान्मिश्रयेत् । खादेच्छाणमतोऽमुकानि___ कपलं मन्दाग्निसन्दीपनम् ॥ स्वेच्छाभोजमतो रसाय
नमिदं पूर्णादिकोपज्वरे । पेयं पात्र तु काधिक __वदति सा नारी महायोगिनी॥ हन्याद्वातं च पित्तं कफ
कृतमतिसारं च दोषं ग्रहण्याः । श्वास कासं च शूलं ज्वर
मुदररुजो राजयक्ष्माणमुग्रम् ॥ प्लीहानं चामवास घडपि
व शुदजां कुष्ठरोग समग्रम् । घातानं कण्ठरोगानिदमिह
कथितं दीपनं जाठराग्नेः॥ दीर्घायुः काममूर्तिजितपलि
पलितो घोरगम्भीरमादः। मेधावी सस्ववीर्यस्मृतिबलसहितो मानवोऽस्य प्रसादात् ॥
शुद्ध पारद ७॥ माशे, शुद्ध गन्धक ११ तोला तथा सांठ, मिर्च और पीपल १।-१। तीला एवं पांचों लवण ( सेंधा नमक, काला नमक, विड लवण, समुद्र लवण और उद्भिद् लवण) १॥१॥ कर्ष (प्रत्येक २२॥ माशे ) और भांग ११ तोले १०॥ माशे लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनाने और फिर उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिलाकर मर्दन करें।
मात्रा--४ माशे । अनुपान---५ तोले काली।
इसके सेवनसे अग्नि दीत होती और भयंकर ज्वर, वातज पित्तज तथा कफज अतिसार, ग्रहणीविकार, श्वास, खांसी, शूल, ज्वर, उदर-विकार, उग्र राजयक्ष्मा, प्लीहा, आमवात, समस्त प्रकारको अर्श, कुष्ठ, वातरक्त और कण्ठ रोगोंका नाश होता है। तथा इसे सेवन करनेसे आयु बढ़ती, बलिपलितका नाश होता, स्वर घोर और गम्भीर होता एवं मेधा, बल, वीर्य और स्मृतिको वृद्धि होती है।
(६१२०) रसायनामृतलौहम् ___(भै. र. । गुल्मा. ; धन्व. । गुल्मा.) बिकड त्रिफला मुस्तं विडॉ जीरकद्वयम् । यमानीद्वयभूमिम्ब त्रिदन्ती च निम्बकम् ॥ सर्वषां कार्षिकं भागं सैन्धवं कर्षमभ्रकम् । खण्डस्य षोडशपलं प्रस्थश्च त्रिफलाजलम् ।। जम्बीरीणां रसं दद्यात् पलं पोडशक तथा । । पाच्यं सर्व प्रयत्नेन लौहं दत्त्वा पलव्यम् ॥
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
४३३
एकत्र
सिद्धे पाके पुनर्देयं घृतं पलचतुष्टयम् । । १ भाग यह चूर्ण और १ भाग पारद भस्मको सर्वरोगेषु संयोज्यं महामृतरसायनम् ॥ गुल्मं पञ्चविधं हन्ति यकृत्प्लीहोदराणि च । इसे शहदके साथ सेवन करनेसे वमन नष्ट कामलां पाण्डुरोगश्च शोथं जीर्णज्वरं तथा ॥ | होती है। रोगान् सर्वानिहन्त्याशु भास्करस्तिमिरं यथा ॥ ( मात्रा--२ रत्ती । )
सांठ, मिर्च, पीपल, हर, बहेड़ा, आमला, (६१२२) रसेन्द्रगुटिका (१) नागरमोथा, बायबिडंग, सफेद जीरा, काला जीरा,
( भै. र. । राजय.) अजवायन, अजमोद, चिरायता, निसोत, दन्तीमूल,
कर्ष शुद्धरसेन्द्रस्य स्वरसेन जयाद्रयोः । नीमकी छाल और सेंधा नमक; इनका चूर्ण तथा अभ्रक भस्म १०-११ तोला, लोह भस्म १० तोले
शिलायां खल्लयेत्तावद्यावत्पिण्डं घनं भवेत् ॥ एवं खांड १ सेर ( ८० तोले ), त्रिफलाका काथ
जलकर्णाकाकमाचीरसाभ्यां भावयेत् पुनः । २ सेर और जम्बीरीका रस २ सेर ले कर सबको
सौगन्धिकपलं भृङ्गस्वरसेन सुभावितम् ॥
चूर्णितं रससंयुक्तमजाक्षीरपलद्वये । एकत्र मिला कर मन्दाग्निपर पकायें और जब पाक
खल्लितं घनपिण्डन्तु गुटीः स्विन्नकलायवत् ॥ तैयार हो जाय तो उसमें आधा सेर घृत मिलाकर
सर्वरूपं क्षयं कासं रक्तपित्तमरोचकम् । सुरक्षित रक्खें ।
अपि वैद्यशतैस्त्यक्तमम्लपित्तं नियच्छति ॥ इसके सेवनसे ५ प्रकारका गुल्म, यकृतोदर,
१। तोला शुद्ध पारदको पत्थरके खरलमें प्लीहोदर, कामला, पाण्डु, शोथ, जीर्णज्वर और
डालकर जयन्ती और अदरकके रस में इतना घोटें अन्य अनेक रोग नष्ट होते हैं।
कि वह पिण्डाकार हो जाय । तदनन्तर उसे जल( मात्रा--११-२ माशे ।) कर्णा और मकोयके रसकी १-१ भावना दें। (६१२१) रसेन्द्रः
फिर भंगरेके रसमें घुटा हुवा ५ तोले शुद्ध गन्धक ( भै. र. । छछ.)
लेकर उपरोक्त पारदमें डालें और दोनोंकी कज्जली
बनाकर उसमें २० तोले बकरीका दूध मिलाकर अजाजीधान्यकृष्णाभिः
इतना घोटें कि वह गोली बनाने योग्य हो जाय । सक्षौद्राभिः कटुत्रिकैः।
तत्पश्चात् उसकी उबली हुई मटरके समान एभिः साई भस्ममूतः
गोलियां बना लें। सेव्यो वान्ति प्रशान्तये ॥
इनके सेवनसे सम्पूर्ण लक्षण युक्त क्षय, खांसी, जीरा, धनियां, सांठ और मिर्च १-१ भाग | रक्तपित, अरुचि और सैकड़ों वैद्योंसे त्यक्त अम्लतथा पीपल २ भाग ले कर चूर्ण बनावें और फिर पित्त रोग नष्ट होता है।
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भारतत- भैषज्य रत्नाकरः
४३४
.(६१२३) रसेन्द्रगुटिका (२) (वृहत् ) (भै. र. । राजय . )
कुमार्या त्रिफला चूर्णे चित्रकस्य रसैः क्रमात् । शोधयित्वा पुना राजीगृहधूमहरिद्रया ॥ पक्वेष्टकारजोभिश्च वोह्नापत्ररसेन च । शृङ्गवेररसेनापि शोधयित्वा पुनः पुनः || प्रक्षालनात्पुनः पञ्चाच्छानयेद्रसने घने । air रसेन्द्रस्य भावयेद्विजयारसे || शिलायां खलयेच्चापि यावच्चूर्णत्वमागतम् ।
कर्णाकाकमाचीरसाभ्यां भावयेत् पुनः ॥ सौगन्धिकपलं शुद्धम मरिचटङ्कणम् । माक्षिकञ्च शिखिग्रीवं तालकं चाभ्रकं तथा । एतांस्तु मिलितान् दत्त्वा भावयेदाद्रकद्रवैः । रक्ति कैकप्रमाणेन कारयेद्गुटिकां भिषक् ॥ इन्ति कासं क्षयं श्वासं रक्तपित्तमरोचकम् । पाण्डुक्रिमिज्वरहरं कृशानां पुष्टिवर्द्धनम् । वाजीकरणमुद्दिष्टमम्लपित्तहरं परम् ॥
पारदको ( १ दिन ) घृतकुमारीके रस में खरल करके मोटे कपड़े से छान लें और फिर उसे इसी प्रकार त्रिफला चूर्ण, चीतेके स्वरस या काथ, राईके काथ, घरके धुंवेके काथ, हल्दी, पक्की ईंटके चूर्ण, धतूर के पत्तोंके रस और अदरक के रस में पृथक् पृथक् खरल करें । हरेक वस्तु के साथ खरल करनेके पश्चात् मोटे कपड़ेसे छान लेना चाहिये । अन्तमें धोकर स्वच्छ कर लें ।
|
अब उपरोक्त विधिसे शुद्ध पारद २|| तोले लेकर उसे पत्थरके खरल में डालकर जयन्तीके रसके साथ इतना घोटें कि उसका चूर्ण हो जाय ।
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[ रकारादि
तदनन्तर उसे जलकर्णा और मकोय के रसकी १ - १ भावना देकर उसमें ५ तोले शुद्ध गन्धक और २||२|| तोले काली मिर्च का चूर्ण, सुहागेकी खील, स्वर्णमाक्षिक भस्म, तुत्थ भस्म, शुद्र हरताल ( या भस्म ) और अभ्रक भस्म मिला कर अच्छी तरह मर्दन करें और फिर उसे अदरक के रसमें घोट कर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें ।
इनके सेवन से खांसी, क्षय, श्वास, रक्तपित्त, अरुचि, पाण्डु, कृमि, ज्वर और अम्लपित्तका नाश होता तथा कृशता दूर होकर शरीर पुष्ट हो जाता । यह रस वाजीकरण भी है ।
59
( रसेन्द्र सार संग्रह में “ माक्षिकञ्च शिखी इससे पूर्वका पाठ नहीं है अर्थात् स्वर्ण माक्षिकसे पहिलेकी सम्पूर्ण ओषधियों और क्रियाओंका अभाव है । )
(६१२४) रसेन्द्रगुटिका ( ३ ) ( वृहद ) ( र. र. । कासा. ; रखें. सा. सं.; र. रा.सु.; धन्व. । कासा.
शुद्धसेन्द्रस्य गन्धस्याभ्रकस्य च । लौहचूर्णस्य ताम्रस्य तालकस्य विषस्य च ।। मनःशिलायाः क्षाराणां बीजं धुस्तूरकस्य च । मरिचस्यापि सर्वेषां चूर्णतुल्यं प्रदापयेत् ॥ जयन्ती चित्रको मानघण्टाकर्णोऽथ मण्डुकी । शक्राशनं केशराजभृङ्गापामार्गकस्य च ।। सिन्धुवारस्य च रसैः कर्षमात्रैश्च मर्दयेत् । हन्ति पञ्चविधं कासं श्वासञ्चैव सुदारुणम् || कफवातमयं रोगमानाहं विविबन्धताम् ।
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रेसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः .
अग्निमान्धारुचिञ्चव उदरं पाण्डुकामलाम् ॥ रसायनी च वृष्या च बलवर्णप्रदायिनी ॥
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म, लोह भस्म, ताम्र भस्म, शुद्ध हरताल, शुद्ध बछनाग ( मीठा विष ), शुद्ध मनसिल, सुहागा, जवाखार, सज्जी, धतूरेके शुद्ध बीज और काली मिर्चका चूर्ण १।-१। तोला लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मिलाकर थोड़ी देर खरल करें । तदनन्तर उसमें जयन्ती, चीता, मानकन्द, घण्टकर्ण, ब्राह्मी (मण्डूकपर्णी), भांग, भंगरा, काला भंगरा, अपामार्ग ( चिरचिटा ) और संभालु; इनमेंसे प्रत्येकका स्वरस या काथ १।-१। तोला मिलाकर खरल करें ।
इसके सेवनसे पांच प्रकारकी खांसी, भयंकर श्वास, कफवातज रोग, अफारा, मलावरोध, अग्निमांद्य, अरुचि, उदर रोग, पाण्डु और कामलाका नाश होता तथा बलवर्णकी वृद्धि होती है। यह गुटिका रसायनी और वृष्या भी है। __ रसेन्द्रगुटिका (४)
( भै. र. । मुखरोगा.) रसेन्द्रवटी प्र. सं. ६१२८ देखिये। (६१२५) रसेन्द्रचूडामणिरसः ( र. र. स. । उ. खं. अ. २७ ; र. चं.।
वाजीकरणा.) सूतहेमभुजगाभ्रवङ्गकाः
कान्तताप्यविमलाः समाक्षिकाः । भागवृद्धिमिलिता विमर्दिता
धूर्तपत्रविजयासलिलेन ॥
सप्त सप्त चपलाऽमृतवल्लो
भार्गिकासुरलताजलतोयैः। वारिवाहमृतयष्टिकावरी
बानरीभुजगदृष्टशुदकेन ॥ अर्धभागमहिफेनकं न्यसे
न्मदयेत्सुरसपुष्परसेन । चन्दनार्ककरहाटपिप्पली
श्रावणीकृतरसैः पृथगेव ॥ कुङ्कमेन च ततो विभावये
नाभिजद्रवयुत विभावयेत् । सिद्धिमेति रसराडयं शुभः ___ कामिनीमदविधूननदक्षः ॥ शर्करामधुयुतो द्विमाषक: - स्तम्भकृन्निधुवने वनितानाम् । संसेव्य मूतं न च रात्रिभोज्यं
कुर्वीत पेयं पय एव केवलम् ॥ तृतीययामे रससेवनं तु
कृत्वा निशायाः प्रहरे व्यतीते । सेवेत कान्तां कमनीयगात्रां
घनस्तनीमुज्ज्वलचारुवस्वाम् ॥ रत्युत्सुका कातरलोलनेत्रां
विलोलहारावलिमादधानाम् । किं कामे तनुकामिनां मलयजेनावश्यजेनाशु किं किं चन्द्रेण परोपकारजनिनां पुंस्कोकिलिना.
पि किम् ॥ सहस्रशः सन्ति यदा तरुण्यो
मदालसा: पीनपयोधरा दृढाः । तदा रसेन्द्रः परिपेवणीयो विकारकारी भवतोह नान्यथा ॥
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भारत-भैषज्य-रत्नांकरः
[रकारादि
रससिन्दूर १ भाग, स्वर्ण भस्म २ भाग, | करके केवल दुग्ध पान करना चाहिये, तथा १ सीसा भस्म ३ भाग, अभ्रक भस्म ४ भाग, बंग पहर रात्रि बीत जाने पर स्त्री-समागम करना भस्म ५ भाग, कान्त लोह भस्म ६ भाग, स्वर्ण चाहिये। माक्षिक भस्म ७ भाग और रौप्य माक्षिक भस्म
___ (६१२६) रसेन्द्रचूर्णम् ८ भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर थोड़ी देर
(भै. र. । ग्रहणो.) खरल करें और फिर उसे धतूरेके पत्तोंके रस, भांगके रस, पीपलके कोथ, गिलोयके रस, भरंगीके
पलैकं रससिन्दूरमाददीताथ शाणकम् । काथ, बड़ी मालकंगनीके रस, सुगन्धबालाके रस,
प्रत्येकं वंशजा मुक्ता निरुत्थहेमभस्मनाम् ॥ नागरमोथेके क्वाथ, शुद्ध बछनागके काथ, मुलैठीके
द्रावयेदहिफेनस्य शाणं क्षीरे निमज्जितम् । काथ, शतावरके रस, कौंचकी जड़के काथ और
वस्त्रपूतेन तेनैव तत्सर्वं मर्दयेद्धृशम् ॥ संक्षिीके रसकी पृथक् पृथक् सात सात भावना
छायायामातपे वाथ शोषयेच्चूर्णयेत्ततः । दें। तत्पश्चात् उसमें उससे आधी अफीम मिलाकर
चतुर्गुञ्जामितं चूर्ण क्षीरेण सह सेवयेत् ॥ तुलसीकी मंजरीके रस या काथ, चन्दनके क्वाथ,
सक्षीरमन्नमश्नीयान्नाश्नीयाल्लवणाम्भसी। आककी जड़के काथ, अकरकरेके क्वाथ, पीपलके
यावजीर्येत् तावदाद्यं पक्कमाज्येन मोदकम् ॥ काथ तथा गोरखमुण्डीके रस या क्वाथकी १-१
| शौचमाचमनं कार्यमग्निपूतेन वारिणा। भावना देकर अन्तमें १-१ भावना केसर और वाससाच्छादयेदेहं न स्नायादस्य सेवकः ॥ कस्तूरीके पानीकी दें।
अत्रानुवर्तयेत्सर्वान् नियमान् रससे विनाम् ।
चूर्ण रसेन्द्रनामेदं रसे श्रेष्ठं रसायनम् ॥ मात्रा---२॥ माशे ।
नाशयेद् ग्रहणीं कृत्स्ना रक्तातीसारमूतिके। इसे खांड और शहदमें मिलाकर चाटना
अनिमान्द्यादिकं जित्वा दीपयेज्जठरानलम् ॥ चाहिये।
पुष्टं हृष्टं बलिष्ठश्च नरः कुर्याद्धिताशनः ॥ इसके सेवनसे कामशक्ति इतनी प्रबल हो रससिन्दूर ५ तोले तथा बंसलोचन, मोतीजाती है कि पुरुष अनेकों रत्युत्सका मदमत्त तरु- भस्म (या पिष्टी) और निरुत्थ स्वर्ण भस्म १-१ णियोंका मान मर्दन कर सकता है । इसकी विद्य
शाण ( प्रत्येक ३।। माशे ) ले कर सबको एकत्र मानतामें मलय-पवन, चन्द्र, कोकिला आदि खरल करें और फिर ३॥। माशे अफीमको थोडे कामोत्तेजक पदार्थोकी आवश्यकता नहीं रहती। दधमें घोलकर कपडेसे छान कर उसमेंसे थोडा यह रस अत्यन्त स्तम्भक है।
थोड़ा दूध उपरोक्त औषधमें डालते हुवे उसे खरल इसे तीसरे पहर ( दोपहर बाद लगभग ३ / करें और जब सब दूध समाप्त हो जाय तो उसे बजे ) खाना चाहिये और फिर रात्रिको भोजन न । धूप या छायामें सुखो कर चूर्ण कर लें।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः
मात्रा–४ रत्ती ।
लावें और फिर उसमें इमलीके छिलकोंका क्षार अनुपान--दूध ।
थोड़ा थोड़ा डालते हुवे घोटते रहें। जब सीसेकी इसके सेवन कालमें दूध भात खाना और | भस्म हो जाय तो उसमें १ भाग शुद्ध पारद मिली लवण तथा पानीका त्याग करना चाहिये। कर घोटं और जब दोनों एक जीव हो जाएं तो
शीशी में भर कर रक्खें । पाचन शक्तिके अनुसार घृतसे बने हुवे मोदकादि भी सेवन किये जा सकते हैं।
इसमेंसे १ रत्ती भर रस ले कर उसमें तिल
और तरवटके बोजोंका चूर्ण मिलाकर शहद के साथ इसके सेवन कालमें शौच क्रिया और ओच
खाना चाहिये । मन भी उष्ण जलसे ही करना चाहिये । स्नान न करना चाहिये। तथा रोगीको अपना शरीर सदैव
इसके सेवनसे समस्त प्रकारके प्रमेह, प्रमेहकपड़ेसे ढके रहना चाहिये।
पिडिका, कुष्ठ और वातव्याधि थोड़े दिनोंमें ही
नष्ट हो जाती है। ___ रस सेवनके साधारण नियम इसमें भी । पालन करने चाहियें ।
(६१२८) रसेन्द्रवटी ___ इसके सेवनसे ग्रहणी, रक्तातिसार, सूतिका
(भै. र.। मुखरोगा.) रोग और अग्निमांद्यका नाश होकर जठराग्नि दीप्त रसेन्द्रगन्धाश्मजतुप्रवालहोती और शरीर हृष्ट पुष्ट तथा बलवान हो
लौहानि वैद्यः समभागिकानि । जाता है।
रसेन्द्रपादपमितश्च हेम (६१२७) रसेन्द्रनागरसः
विभाव्य निम्बाशनवह्नितोयैः ॥
ततो वटीवल्लमिता विमद्य (र. चं. ; र. र. स. । प्रमेहा.)
विधाय बुद्ध्या बहुवारवारा । नाग कपालमध्ये कृत्वा चाग्नि विशोधयेत्क्रमशः फलत्रिकक्वाथनलेन वापि । चिञ्चाकवचक्षारं स्वल्पं स्वल्पं विकीर्य कुन्तेन ॥ प्रातः प्रयुञ्जयात् प्रकराम्बुना वा ॥ पारदभागं शीसं घृष्ट्वा घृष्ट्वा विचूर्णितं सम्यक् ।
रसेन्द्रवट्यास्यगदान् निहन्ति तिलयुक् खादन्मधुना तरवटवोजेन मिश्रितं । वातामयान् मेहगणान् ज्वरांश्च ।
क्रमशः॥
करोति वर्बलवीर्ययोश्च मेहगणातिविशेष सपिटीकं कुष्ठमनिलं च ।। पुष्टिं विशेषेण रसायनीयम् ।। हन्त्यल्पदिनाभ्यासात्सुपथ्ययोगाद्रसेन्द्रना- शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, शिलाजीत, मूंगा
गोऽयम् ॥ भस्म और लोह भस्म ४-४ भाग तथा स्वर्ण भस्म . १ भाग शुद्ध सीसेको कढ़ाईमें डालकर पिघ- । १ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि और फिर उसमें अन्य औषधे मिला कर सबको | निहन्ति पाण्डं विविधां विपादी सरक्तपित्तं नीमकी छाल, असना और चीतेके काथमें पृथक्
कटुकासिताभ्याम् । पृथक् घोटकर ३-३ रत्तीकी गोलियां बनावें । खादेविनीरममृतायुतञ्च समुद्यूपं सघृतश्च अनुपान-ल्हिसोड़ेका काथ या त्रिफलेका |
दद्यात् ॥ काथ अथवा अगरका काथ ।
रोहितकजटाकाथमनुपानं प्रयच्छति । इन्हें प्रातः काल सेवन करना चाहिये । चतुर्दशदिनस्यान्ते कुष्ठं शुष्यति यत्नतः ॥
इनके सेवनसे मुख रोग, वात रोग, प्रमेह | शुद्धोधो जायतेत्यर्थमत्यर्थं सुभगं वपुः। और ज्वर नष्ट होता तथा बल वीर्यकी वृद्धि ।
| वर्जयेत्सततं कुष्ठी मत्स्यमांसादिभोजनम् ॥ होती है ।
सीसा भस्म ३॥ माशे, शुद्ध गन्धक ७॥ विशेषतः यह वटी रसायनी है। माशे और शुद्ध हरताल १० माशे लेकर सबको राजचण्डेश्वररसः
एकत्र मिलाकर खरल करें और फिर ताम्रपात्रमें (र. च. ; र. रा. सु. ; र. का. धे, । ज्वरा.)
३२ गुने गोमूत्रमें पकावें । जब गोमूत्र शुष्क हो
जाय तो उसे अग्निसे नीचे उतार कर पृथक् पृथक् चण्डेश्वर रस प्र. सं. १८७८ देखिये ।
२-२ दिन जम्बीरी नीबूके रस, घीकुमारके रस (६१२९) राजतालेश्वररसः
| और बनसूरण ( जंगली जिमीकन्द ) के रस एवं .. (र. सा. सं. । कुष्टा.)
भांगके रसमें धूपमें भावना दें। नागस्य भस्म शाणैकं तोलकं गन्धकस्य च ।
मात्रा-६ रत्ती। द्विनिष्क शुद्धतालस्य समुद्भूतं गवां जलैः ॥ विपचेत्पोडशगुणैः पात्रे ताम्रमये शनैः ।
साधारण अनुपान-पानी । धर्मे द्विघलं जम्बीरकुमारीवनकन्दजैः ॥ इसके सेवनसे अस्थिगत कुष्ठ, हस्तभंग, रसभंङ्गस्य चाम्भोभिर्युतं वल्लद्वयं भजेत् । नासाभंग, स्वरभंग, क्षतक्षीणता और मण्डल कुष्ट कुष्ठे चास्थिगते चापि शाखानासाविभुग्नके ॥ | नष्ट होता है । स्वरभङ्गे क्षतक्षीणे मण्डलेषु महत्स्वपि ॥ ( व्यवहारिक मात्रा-२ रत्ती । ) औदुम्बरं हन्ति शिवामधुभ्यां कृच्छञ्च कुष्ठं |
विशेष अनुपान. त्रिफलाजलेन। गुडाईकाभ्यां गजचर्मसिध्मविचर्चिकास्फोट
औदुम्बर कुष्ठमें---हरके चूर्ण और शहदके विसर्पकण्डूम् ॥ साथ दें। १ र. का. धे. में ताम्रके स्थान पर मन
कष्टसाध्य कुष्ठम---त्रिफला काथके साथ दें। सिल है।
इसे अदरक और गुड़के साथ सेवन करानेसे
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रसप्रकरणम् ]
- चतुर्थों भागः
गजचर्म, सिध्म, विचर्चिका, विस्फोटक, विसर्प और | रुद्रं तन्मल्लमूषायां सर्व संस्वेदयेच्छनैः। कण्डूका नाश होता है।
इति सिद्धो रसेन्द्रोयं चूर्णितः पटगालितः ॥ ___ कुटकी और मिश्रीके साथ देनेसे पाण्डु, कान्तपात्रस्थितो रात्रौ जलैस्त्रिफलसंयुतैः । विपादिका और रक्तपित्तका नाश होता है। वल्लद्वयमितः प्रातर्दातव्यो मेहरोगिणाम् ॥ ____ औषध खानेके पश्चात् सफेद और काले मृगचारिमुनीन्द्रेण मेहव्यूहविनाशनः । जीरेका चूर्ण डालकर गिलोयका काथ या घृतयुक्त निर्दिष्टोयं रसो राजमृगाङ्क इति कीर्तितः ॥ मूंगका यूष अथवा, रुहेड़ेकी छालका काथ पीना
दीपनः पाचनो वृष्यो ग्रहणीपाण्डुनाशनः । चाहिये।
तापघ्नो रुचिकृत्सर्वरोगघ्नो योगसंयुतः ॥ ____ इसे १४ दिन तक सेवन करनेसे कुष्ठ नष्ट हो कर खूब भूख लगती है और शरीर अत्यन्त
सुवर्ण भस्म १ भाग, चांदी भस्म २ भाग,
कान्त लोह भस्म ३ भाग, ताम्र भस्म ४ भाग, सुन्दर हो जाता है।
बंग भस्म ५ भाग, सीसो भस्म ६ भाग, अभ्रक कुष्टीको मत्स्य मांसादिका सर्वथा त्याग कर
सत्वकी भस्म २१ भाग, शुद्ध पारद २१ भाग देना चाहिये।
और शुद्ध गन्धक २१ भाग ले कर प्रथम पारे राजतालेश्वररसः
गन्धककी कज्जली बनाकर उसे लोहपात्रमें मन्दाग्नि (रे. का. थे. । कुष्ठा. ; र. चि. म. । स्तबक २) पर पिघलावें और फिर उसमें प्रथम लोहभस्म डालें
प्र. सं. २६५३ “तालकेश्वरो रसः (१४)" | और फिर अन्य समस्त भस्में डाल कर लकड़ीके देखिये।
डंडेसे मिला कर अग्निसे नीचे उतार लें; एवं ठंडा (६१३०) राजमृगाङ्करसः (१) । करके चूर्ण कर लें और फिर उसे आकुली के ( रस. र. स. । उ. ख. अ. १७; २. रा. सु. ।
बीजोंके लेह ( गाढ़ा किये हुवे क्वाथ ) की सात . प्रमेहा.)
भावना देकर गोला बनावें और उसे सुखाकर सुवर्ण रजतं कान्तं तानं त्रपुससीसकम् ।
शरावसम्पुटमें बन्द करके ( लघुपुटमें ) स्वेदित भस्मीकृत्वा च तत्सर्वं क्रमवृद्धया कृतांशकम् ॥
करें । तदनन्तर शरावसम्पुटके शीतल हो जानेपर व्योमसत्वभवं भस्म सर्वैस्तुल्यं प्रकल्पयेत् ।।
उसमेंसे औषधको निकाल कर, खरल करके कपड़ेसे
छान लें। कज्जलों सूतराजस्य सर्वैरेतैः समांशिकाम् ॥ प्रद्राव्य लोहभस्माथ पूर्वभस्म विनिःक्षिपेत् ।। इसमेंसे ६ रत्ती रस रोतको कान्तलोहके काष्ठेनालोडय तत्सर्वं सद्रवं हि समाहरेत् ॥ पात्रमें त्रिफलेके काथमें भिगो दें और दूसरे दिन ततो विचूर्ण्य तत्सर्वं सप्तवारं विभावयेत् ।। प्रातः काल त्रिफला काथ समेत प्रमेह रोगीको आकुलीबीजसम्भूतकाथलेहेन यत्नतः॥ | पिलावें ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
यह रस प्रमेह नाशक, दीपन, पाचन, वृष्य फिर उसे सोत दिन तक जौकी कांजीमें खरल और रुचि वर्द्धक है तथा इसके सेवनसे ग्रहणो, । करके गोला बनावें और उसे सुखा कर मूषामें पाण्डु और तापका नाश होता है।
बन्द करके (लघुपुटमें) पकावें । रोगोचित अनुपानके साथ देनेसे यह समस्त जब मूषा स्वांग शीतल हो जाय तो उसमेंसे रोगांको नष्ट करता है।
औषधको निकाल कर पीस कर स्वर्ण या चांदीके ( व्यवहारिक मात्रा-१, २ रत्ती ।) पात्रमें रक्खें । अन्य प्रकारके पात्रमें न रखें । (६१३१) राजमृगाङ्करसः (२) इसके सेवनसे राजयक्ष्माका नाश होता है । (र. प्र. सु. । अ. ८)
(मात्रा--१ रत्ती ) पलैकमानं रसभस्मकं हि
(६१३२ ) राजमृगाङ्करसः (३) स्याद्धमभस्म प्रभवं पलं च ।। (भै. र. ; रसे. सा. सं. । राजयक्ष्मा. ; र. शुद्धस्य वङ्गस्य पलं च तद्व
म. । अ. ६, र. का. थे. ; र. र. । यस्मा. ; यो. त्तथा च मुक्ता द्विपलं प्रदद्यात् ।। र. ; वृ. नि. र.; वै. जी. । राजयक्ष्मा. ; र. चि. पादांशतष्टङ्कणमेव सम्यक्
म. । स्तबक ११; र. चं. ; धन्व. । राजयक्ष्मा. ; खल्वे विमर्थाथ सहाम्लवेतसा । यो. त. । त. २७; यो. चि. म.। अ. ७; वृ. यो. तद्भावयेद्वै यवकाझिकेन
त.। त. ७६; रसे. चि. म. । अ. ९; र. प्र. सु.। प्रमद्य सर्व दिन सप्तकेन । अ. ८; र. र. स. । उ. खं. अ. १४; शा. सं. । गोलं विधायाथ विशोषयित्वा खं. २ अ. १२)
मूषागतं तं खलु पाचयेद्धि । रसभस्म त्रयो भागाः भागैक हेमभस्मकम् । शीतं समुद्धत्य ततो रसेन्द्रं
| मृतताम्रस्य भागैकं शिलातालकगन्धकम् ।। विचूर्ण्य धार्यः स तु हेमपात्रे ।। | प्रतिभागद्वयं तत्राप्येकी कृत्य निधापयेत् । हेम्नस्त्वभावे रजतस्य पात्रे वराटी पूरयेत्तेन चाजासीरेण टङ्गणम् ।।
नान्यस्य पात्रेषु निवेशनीयः ॥ पिष्ट्वा तेन मुखं रुद्भवा मृदः भाण्डे निधापयेत् । अयं राजमृगाङ्काख्यो रोगराजस्य घातकः। शुष्कं गजपुटे पाच्यं चूर्णयेत्स्वाङ्गशीतलम् ।। पथ्यं पूर्वोक्तविधिना कारयेन्मतिमान् भिषक।। रसो राजमृगाङ्कोऽयं गुञ्जकं च क्षयापहम् ।
पारद भस्म ५ तोले, स्वर्ण भस्म ५ तोले, | गुआद्वयमितैः कृष्णामरिचैः क्षौद्रसंयुतः ॥ बङ्ग भस्म ५ तोले, मोती भस्म ( या पिष्टी ) १० घृतेन दापयेद्वातपित्त श्लेष्मोद्भवे क्षये ॥ तोले और सुहागो १४ तोला ले कर सबको एकत्र १ र. प्र. सु. में ताम्र भस्मकी जगह अभ्रक मिला कर १ दिन अम्लवेतके काथमें घोटें और भस्म तथा गजपुटके स्थान पर वाराहपुट है ।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
४४१
-
पारद भस्म ३ भाग, स्वर्ण भस्म १ भाग, । जातीसस्यवलाचतुष्टयजलत्वरदेवपुष्पद्रवैः ।। ताम्र भस्म १ भाग तथा शुद्ध मंसिल, हरताल और ककोलैर्मदनागकेसरजलैर्भाव्यं पृथक्सप्तथा । गन्धक २-२ भाग ले कर सबको एकत्र खरल | भाण्डे सिन्धुभृते मृगाङ्कवदयं पाच्यः क्रमानो करके कौड़ीमें भर दें और फिर सुहागेको बकरीके
दिनम् दूधमें घोट कर उससे कौड़ी के मुखको बन्द करके | भूयः प्राक्समुदाहतैश्ववयैस्तं भावयत्पूर्ववत । सुखा कर उसे शराव-सम्पुटमें बन्द करें और उसे पश्चात्तुल्यविभागशीतलरजः कस्तूरिकासुखा कर गजपुट में क दें।
भावना ॥ मात्रा-१ रत्तीसे २ रत्ती तक। | गोप्याद्गोप्यतरं रसायनमिदं श्री शङ्करेअनुपान--पीपल और काली मिर्चका चूर्ण
णोदितम् ।
| गुआसिन्धुयुतं कणामधुयुतं शोफे सपाण्ड्वामये ॥ तथा शहद और धी।
वातव्याधिमुपद्रवैश्च सहितं मेहांस्तथा विंशतिम् । इसके सेवनसे हर प्रकारका क्षय नष्ट
| संयोज्यं च हरीतकी गुडयुतं वातास्रके दुर्जये ॥ होता है।
| गम्भीरे च गुडूचिसत्वचपलाक्षौद्रैस्तु संयोजित(६१३३) राजमृगाङ्करसः (४)
स्त्वामानाचिशूलमान्धकसनापस्मारवातो( नवरत्नराजमृगाङ्कः )
दरान् ॥ ( यो. र., र. रा. सु. । यक्ष्मा.) श्वासान्सङ्ग्रहणी हलीमकमथो सर्वज्वरान्नामूतं गन्धकहेमताररसकं वैक्रान्तकान्तायसम् ।
शयेत् । वङ्गं नागपबिवालविमलामाणिक्य- धातून्पोषयति क्षयं क्षपयति श्यामाशतं यौवनम् ॥
गारुत्मतम् ।। | प्रौढाटोपयुतं करोति सहसा तारुण्यगर्वोज्झितम् । ताप्यं मौक्तिकपुष्परागजलजं वैडूर्यकं सिद्धो राजमृगाङ्क एष जयति स्वस्थानुपामैशुल्वकम् ।
गंदान् ॥ शुक्तिस्तालकमभ्रहिङ्गुलशिला गोमेदनीलं ___ शुद्ध पारद, शुद गन्धक, स्वर्ण भस्म, चांदी
समम् ॥ भस्म, ख परिया, वैकान्त भस्म, कान्त लोह भस्म, गोक्षुरैः फणिवल्लिसिंहवदना मुण्डीकणा- बंग भस्म, सोसा भस्म, हीरा भस्म, प्रवाल भस्म,
चित्रकै- | विमल ( स्वर्ण-माक्षिक भेद ) भस्म, माणिक्य रिक्षुच्छिन्नरुहाहरप्रियजयाद्राक्षा- भस्म, मरकत मगि भस्म ( पन्ना भस्म ), स्वर्ण
वरीजद्रवैः ॥ | माक्षिक भस्म, मोती भस्म, पुखराज भस्म, शंख शोफनीशतपत्रिकामधुजलैः सच्छाल्मली भस्म, वैडूर्य मणि भस्म, ताम्र भस्म, शुक्ति भस्म,
धातकी। | शुद्ध हरताल, अभ्रक भस्म, शुद्र हिंगुल, शुद्ध मन
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४४२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि सिल, गोमेदमणि भस्म और नीलम भस्म १-१ | इसे सेंधा नमक और पीपलके चूर्ण तथा भाग ले कर सबको एकत्र घोट कर उसे निम्न | शहदके साथ सेवन करनेसे शोथ, पाण्डु, उपद्रव लिखित ओषधियोंके स्वरस या काथकी पृथक | युक्त वातव्याधि, और २० प्रकारके प्रमेह नष्ट पृथक् सात सात भावना दें।
होते हैं। भावना द्रव्य-गोखरु, पान, अडूसा, गो- | दुर्जय और गम्भीर वातरक्कमें इसे हरके चूर्ण रखमुण्डी, पीपल, चीता, ईख, गिलोय, धतूरा, | और गुड़के साथ देना चाहिये । भांग, द्राक्षा, शतावर, पुनर्नवा, गुलाब (सेवती), | यदि इसे गुडूची सत्व, पीपलके चूर्ण और मुलैठी, संभल, धाय, जायफल, बला (खरैटी), शहदके साथ दिया जाय तो आध्मान, अरुचि, अतिबला (कंघी), महाबला, नागबला, सुगन्ध- शूल, अग्निमांद्य, खांसी, अपस्मार और वातोदरका बाला, दालचीनी, लौंग, कंकोल, कस्तूरी, और | नाश होता है । नागकेसर । इनमें से जिनके स्वरस मिल सकें उनके | इसके अतिरिक्त यह रस श्वास, संग्रहणी, स्वरस और कस्तूरीका पानी तथा शेष द्रव्योंका | हलीमक, हर प्रकारके ज्वर, और क्षयको नष्ट करता, काथ लेना चाहिये ।
धातुओंको पोषण देता और काम शक्तिको अत्यन्त इन सबकी पृथक् पृथक् सात सात भावना | प्रवृद्ध करता है । इसे सेवन करनेसे इतनी शक्ति देनेके पश्चात् उसका एक गोला बनावें और उसे आ जाती है कि मनुष्य यौवनमदगर्विता बहुतसी सुखा कर शरावसम्पुटमें बन्द करके १ दिन लवण- | स्त्रियोंके गर्वको सहसा नष्ट कर देता है । यन्त्रमें ( सेंधा नमकसे भरी हुई हाण्डीके बीचमें रोगोचित अनुपानके साथ सेवन करनेसे यह . रख कर ) क्रमवर्द्रित अग्नि पर पकावें ।
| रस और भी बहुतसे रोगांको नष्ट करता है। - तदनन्तर यन्त्रके स्वांगशीतल हो जाने पर
राजमृगाङ्करसः (५) उसमेंसे औषधको निकाल कर उसे पुनः उपरोक्त द्रव्योंकी सात सात भावना दें और अन्त में कपूर
यो. र. । क्षय. और कस्तूरी समोन भाग लेकर दोनोंको एकत्र । प्रयोग संख्या ५६३५ “ मृगाङ्क रसः" मिलाकर उसके पानीकी एक भावना देकर सुर- (३) देखिये । क्षित रक्खें । यह शंकर महादेव कथित रस अत्यन्त
सूचना गोपनीय है।
मृगाङ्क तथा महामृगाङ्क रस
के मकारादि रस प्रकरणमें देखिये। मात्रा--१ रत्ती ।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः
४४३
(६१३४) राजराजेश्वररसः । पलाशस्य च बीजानि भागवृद्धोत्तराणि च । ( रसे. सा. सं. । कुटा. ; र. रा. सु. ; र. का. स्नुहीक्षीरेण सम्पिष्य भावयेत् त्रिदिनं च तत् ॥ धे. । कुष्ठा. ; रसे. चि. म. । अ. ९.)
नारिकेलफले क्षिप्त्वा महागाढातपे स्थितम् । आतपे मर्दयेत्सतं गन्ध मृतताम्रकम् ।
ततस्तैलं तु जायेत गृहीत्वा नाभिमण्डले ॥ मुहस्तमर्दितं तालं यावत्तत्र विलीयते ॥
अणुमात्रं प्रलेपेन दशवारान् विरेचयेत् । भृङ्गराजद्रवं दत्वा दिनमात्रं विमईयेत ।
ततः शीतोदकेनैव शीघ्रं प्रक्षालयेद् बुधः ॥ त्रिफला खादिरं सारममृता वागुजीफलम् ॥ |
| गुटिकाऽऽघ्राणमात्रेण सप्तवारान् विरेचयेत् । प्रत्येकं मृततुल्यं स्याच्चूर्णीकृत्य विमईयेत् । ।
राज्ञे च दापयेदम्लमभ्यङ्गं च विवर्जयेत् ॥ मध्याज्याभ्यां लौहपात्रे कर्षाभ्यां भक्षयेत्ततः ॥ एतत्तैलेन पथ्यादिफलं युक्तिविभावितम् । दकिटिभकुष्ठानि मण्डलानि विनाशयेत् । निष्पीडय हस्ते विधृतं विरेचनकरं परम् ॥ द्विगुञ्जोपि निहन्त्याशु राजराजेश्वरो रसः॥ शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, __शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म और शुद्र जमालगोटा ७ भाग, सुहागा ५ भाग, शुद्ध हरताल १-१ भाग लेकर प्रथम पारे गन्ध- श्योनाकके बीज ६ भाग, अरण्डके बीज ७ भाग, ककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य |
अमलतासके बीज ८ भाग और पलाशके बीज ९ औषधे मिला कर सबको एक दिन भंगरेके रसमें |
भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें धूपमें बैठकर खरल करें और फिर उसमें १-१
और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर भाग हर, बहेड़ा, आमला, कत्था, गिलोय और सबको ३ दिन थोहरके दूधमें घोटें और फिर उसे बाबचीके बीजोंका चूर्ण मिलाकर एकत्र खरल
नारियल (गोले ) के भीतर भर कर उसे तेज़ करके रक्खें।
धूप में रक्खें । इससे उसमें से जो तेल निकले उसे मात्रा---२ रत्ती।
पृथक् कर लें और शेष किटकी बड़ी बड़ी गोलियां इसे २॥ तोले शहद और घीमें लोहपात्रमें बना लें। मिला कर खाना चाहिये।
इस तेलमेंसे जरासा नाभिमें लगा देने मात्रसें इसके सेवनसे दाद, किटिभ कुष्ठ और मण्डल
१० बार विरेचन होता है । विरेचन होनेके बाद
तेलको तुरन्त ठण्डे पानीसे.धो डालना चाहिये। कुष्ठका नाश होता है।
उपरोक्त गोलीको सूंघने मात्रसे ही सात (६१३५) राजवल्लभगुटिका.
दस्त आ जाते हैं। (र. का. धे. । आनाह.) ___ इस तैलसे हर्र आदिके फलेको भावित करके सूतगन्धकजैपालदन्तीबोजानि टङ्कणम् । | रख लेना चाहिये । इस प्रकारकी हर्र आदिको श्योनाकैरण्डबीजानि राजाभवानि च ॥ । हाथ पर रखनेसे ही विरेचन हो जाता है।
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४४४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि ये प्रयोग राजाओंके योग्य हैं। क्रिमिकुष्ठानि ददूंश्च वातरक्तं भगन्दरम् ।
इन प्रयोगांके सेवन कालमें .अम्ल पदार्थ | उपदंशमतीसारं प्रहण्यशः प्रवाहिकाम् ।। और तैलादिकी मालिशसे परहेज करना चाहिये । नृपवल्लभराजोयं महेशेन प्रकाशितः ॥
जायफल, लौंग, नागरमोथा, दालचीनी, (६१३६) राजवल्लभरसः (१)
इलायची, सुहागेको खील, हींग, जीरा, तेजपात, (प्रदीपनरसः)
अजवायर, सेठ, सेंधा नमक, लोह भस्म, अभ्रक ( र. रा. सु. ; र. का. थे. ; र. सा. सं. । भस्म, ताम्र भस्म, शुद्ध पारद, शुद्र गन्धक, काली अजीर्णा. ; रसे. चि. म. । अ. ९ : र. मं.)।
मिर्च, निसोत और चांदी भस्म १०-१० तोले रसनिष्कं गन्धनिष्कं निष्कमात्रं प्रदीपनम् । ले कर प्रथम पारे गन्धकको कम्जली बनावें और मानमदै प्रदातव्यं चुल्लिकालवणं भिषक् ॥ | फिर उसमें अन्य औषधांका चूर्ण मिला कर सबको मईयित्वा प्रदातव्यपथास्य माषपात्रकम् ।। आमलेके रस में घोट कर २-२ रत्तीकी गोलियां अजीणे पानिमान्ये च दातव्यो रसवल्लभः॥ बना लें।
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक और चीतेका चूर्ण इनके सेवनसे शूल, गुल्म, भयंकर आमवात, ५-५ माशे तथा चुल्हिका लवण (नौसादर) २॥
हृदयशूल, पसलीशूल, नेत्रशूल, हलीमक, शिरमाशे लेकर सबको एकत्र पीस कर रक्खें ।
शूल, कटिशूल, अफोरा, कृमि, कुष्ठ, दाद, वातइसके सेवनसे अगीर्ण और अग्निमांद्यका
रक्त, भगन्दर, उपदंश, अतीसार, ग्रहणीविकार,
अर्श और प्रवाहिकाका नाश होता है। नाश होता है।
(६१३८) राजशेखरवटो (१) मात्रा-१ माशा।
(र. का. घे.। पाण्डु. ; र. चि. म. । स्त. ९.) (६१३७ ) राजवल्लभरसः (२)
भागो मृतरसस्यैको वत्सनाभांश कद्वयम् । ( भै. र. ; सं. सा. सं. ; र. चं. । ग्रहण्या.) गन्धकं च शिला तालं कटुकं यूपणं तथा ।। जातीफललवङ्गाब्दत्वगेलाटङ्करामठम्।। | क्रियन्ते वटिकाः सर्वा एकमाना विमर्दिताः जीरकं तेजपत्रञ्च यमानी विश्वसैन्धवम् ॥ मुखस्थाः कुर्वते नित्यं न सुखादपसर्पते ॥ लौहमभ्रं सताम्रञ्च रसगन्धमेव च । उष्णाम्भोऽनु च राजशेखरवटी मन्दाग्निमरिचं त्रिवृतं रूप्यं प्रत्येकं द्विपलोन्मितम् ।।
निर्णाशिनी पात्रीरसे वटी कुर्याद द्विगुञ्जा फलमानतः । नानाकारमहाज्वरप्रशमनी निःशेष पित्तापहा । हन्ति शूलं तथा गुल्ममामवातं सुदारुणम् ॥ | पाण्डव्याधिमहोदरादिशमनी शूलान्तकृत्हच्छूलं पाश्वशूलश्च चक्षुःशूलं हलीमकम् ।
पाचनी शिरःशूलं कटीशूलमानाहमशूलकम् ।। श्लेष्मनी पवनाशनी बलकरी दुष्टामयोत्सादनी॥
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रसप्रकरणम्
चतुर्थों भागः
पारद भस्म ( अभाव में रससिन्दूर ) १ । पीपल का चूर्ण १-१ भाग ले कर सबको एकत्र भाग, शुद्र बछनाग ( मीठा विष ) २ भाग और खरल करके सात सात दिन पान और धतूरेके शुद्ध गंधक, शुद्ध मनसिल, शुद्ध हरताल, कुटकीका | रसमें पृथक् पृथक् घोट कर चनेके बराबर चूर्ण तथा सेठ, मिर्च और पीपलका चूर्ण १-१ | गोलियां बना और छायामें सुखा कर सुरक्षित भाग ले कर सबको एकत्र खरल करके (२-२ । रक्खें । रत्तीकी ) गोलियां बना लें।
अनुपान-उष्ण जल। अनुपान--उष्ण जल।
इनके सेवनसे अग्निमांद्य, अनेक प्रकारका ___ इनके सेवनसे अग्निमांद्य, अनेक प्रकारका ज्वर, ज्वर, अर्श, पाण्डु, महोदर, शूल, शोफ, वायु समस्त पित्त-विकार, पाण्डु, उदरवृद्धि, शूल, कफ, और कफ का नाश होता है। यह वटी पाचक वायु और अनेक दुष्ट रोग नष्ट होते तथा अग्नि भी है । और बलकी वृद्धि होती है।
(६१४०) राजावतभस्मविधि: ___ (६१३९) राजशेखरवटी (२) (र. र. स. । पू. खं. अ. ३ ) (र. च. ; र. रा. सु. । अजीर्गा. ; र. र. राजावर्तोऽल्परक्तोरुनीलिमामिश्रितमभः । स. । अ. १८)
गुरुश्च ममृणः श्रेष्ठस्तदन्यो मध्यमः स्मृतः॥ भागो मृतरसस्यैको वत्सनाभांशकद्वयम् । रसतुल्यं शिवाचूर्ण गन्धकं त्र्यूषणं तथा ॥ प्रमेहक्षयदुर्नामपाण्डुश्लेष्मानिलापहः।। विचूातिप्रयत्नेन भावयेत्सप्तवासरम्। दीपनः पाचनो वृष्यो राजावतॊ रसायनः ।। ताम्बूलीपत्रतोयेन स्वर्णधत्तूरजैवैः ॥ पिष्ट्वा चणमिताः कुर्याच्छायाशुष्कास्तु गोलिकाः निम्बूद्रवैः सगोमूत्रैः सखारैः स्वेदिताः खलु। उष्णाम्भोयुत राजशेखरवटी मन्दाग्निनिर्णा- द्वित्रिवारेण शुद्धयन्ति राजावादिधातवः ॥
शिनी ॥ नानाकारमहाज्वरार्तिशमनी निःशेषमूलापहा । शिरीषपुष्पाईरसै राजावत विशोधयेत् ॥ पाण्डव्याधि महोदरार्तिशमनी शूलान्त ।
कृत्पाचनी ॥ | लुङ्गाम्बुगन्धकोपेतो राजावर्तः सुचूर्णितः । शोफन्नी पवनातिनाशनपटुः श्लेष्मामयध्वंसिनी॥ पुटनात्सप्तवारेण राजावतॊ मृतो भवेत् ।। ___ पारद भस्म ( अभाव में रससिन्दूर ) १ भाग, शुद्ध बछनाग (मीठा विष) २ भाग, हर्रका राजावर्त ( लाजवर्द ) ज़रा लालाश लिये चूर्ण १ भाग तथा शुद्ध गंधक, सांठ, मिर्च और । हुवे निलिमा--मिश्रित रंगका होता है।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि जो राजावर्त भारी और चिकना होता है वह लोह पात्रमें पकायें । जब वह गाढ़ा हो जाय तो श्रेष्ठ और अन्य प्रकारका मध्यम होता है। उसमें सुहागा आर पंचगव्य ( गाय का दूध, दही,
घी, गोमूत्र, गोबर ) मिला कर गोलियां बनावें राजावर्त प्रमेह, क्षय, अर्श, पाण्डु, कफ और और उन्हें सुखाकर मूषामें रख कर खरके अंगारां पवनको नष्ट करता है तथा दीपन, पाचन, वृष्य पर ध्मावं । इससे राजावर्तका सुन्दर शोभनीय और रसायन होता है।
सत्व निकल आता है।
इसी विधिसे गेरुका सत्व भी निकल आता नीबूके रस और गोमूत्रमें जवाखार मिला | है; जो पीला और लाल होता है। कर उसमें स्वेदित करनेसे राजावर्त शुद्ध हो । जाता है।
(६१४२) राजावतरसः (१) इसी प्रकार सिरसके फूलेके रस और अदरकके
( र. र. स. । उ. खं. अ. १४; र. चं. ; र. रा. रसमें भी राजावर्त शुद्ध हो जाता है।
सु. । मदात्यय.)
राजाव? रसः शुल्वं मासिकं घृतपाचितम् । राजावर्त में समान भाग शुद्ध गन्धक मिला | मध्वाज्यशर्करायुक्तं हन्ति सन्मिदात्ययान् ॥ कर दोनांको बिजौ रे नीबूके रस में घोट कर गज- राजावर्तकी भस्म, पारद भस्म (या रस सि. पुटकी अग्नि देनेसे सात पुटमें राजावर्तकी भस्म न्दूर ), ताम्र भस्म और स्वर्णमाक्षिक भस्म समान हो जाती है।
भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके थोड़े घीमें
मिला कर ज़रा देर मन्दाग्नि पर पकावें। (६१४१) राजावर्तसत्वपातनम् इसे शहद, घी और खांडमें मिला कर सेवन
(र. र. स. । पू. ख. अ. ३.) करनेसे समस्त प्रकारके मदात्यय रोग नष्ट होते हैं। राजावर्तस्य चूर्ण तु कुनटीघृतमिश्रितम् । (६१४३) राजावतरसः (२) विपचेदायसे पात्रे महिषीक्षीरसंयुतम् ॥
(र. का. धे. ; र. रा. सु. । ग्रहण्या. ) सौभाग्यपश्चगव्येन पिण्डीबद्धं तु कारयेत् । ध्मापितं खदिरागारैः सत्वं मुश्चति शोभनम् ॥
। मृतसूतं मृतं स्वर्ण यष्टीक राजवर्तकम् । अनेन क्रमयोगेन गैरिकं विमलं भवेत् ।
तुल्यांशं मईयेदाज्यैः क्षणं मृद्वग्निना पचेत् ॥
सितामध्वाज्यसंयुक्तं निष्काधं चैव लेहयेत् । क्रमात्पीतं च रक्तं च सत्वं पतति शोभनम् ॥
राजावतों रसो नाम ग्रहणीरोगनाशकः ॥ राजावर्तके चूर्णमें मनसिल मिला कर दोनोंको घीके साथ खरल करें और फिर उसे भैसके दूधमें । १ शुल्वमिति पाठान्तरम् ।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः
४४७
पारद भस्म, स्वर्ण भस्म ( पाठान्तरके अनु. चौटली और नागबलाका चूर्ण १०-११ तोला सार ताम्र भस्म ), मुलैठीका चूर्ण और राजावर्त । एवं संभलका स्वच्छ स्वरस और बकरीका दूध भस्म समान भाग लेकर सबको एकत्र खरल करें | २-२ सेर तथा मत्स्यण्डिका (पतली राब) आधा
और फिर उसमें थोड़ासा घी मिला कर ज़रा देर | सेर लेकर सबको एकत्र मिला कर मन्दाग्नि पर धीमी आग पर गर्म करें।
पकावें और अवलेह तैयार हो जाने पर ठण्डा करके __ इसे मिश्री, शहद और धीमें मिलाकर चाट- सुरक्षित रक्खें । नेसे ग्रहणी रोगका नाश होता है।
इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे सममात्रा-२॥ माशा।
स्त प्रकारके प्रमेह, गुल्म, हृद्रोग, वर्म, अर्श, वृषण( व्यवहारिक मात्रा १ रत्ती ।)
पीड़ा, शुक्राश्मरी, मूत्राघात, और वीर्यविकार
नष्ट होते हैं। (६१४४) राजावर्तावलेहः
_अनुपान--रस खानेके पश्चात् २॥ तोले ( र. रा. सु. । प्रमेहा.)
कौंचकी जड़ पानीमें पीस कर पोनी चाहिये। राजावर्तश्च वैक्रान्त ताम्रमभ्रं पृथक् पृथक् ।
( रसकी मात्रा-१-२ रत्ती।) शुक्तिमात्रं कृष्णलोहं पार्वतश्च पलद्वयम् ।
(अनुपानकी व्यवहारिक मात्रा-१ माशा।) मण्डूरं कुडवञ्चैव शुद्धमञ्जनसनिभम् । त्रिकत्रयं तालमूली तथैव करिकेशरम् ॥ (६१४५) रामज्वरापहारी रसः श्वेतोच्चटा नागबला प्रत्येकं कर्षमात्रकम् ।
(र. रा. सु. । ज्वरा.) शुभं शाल्मलिनीरस्य प्रस्थं च छागदुग्धतः॥ रसेन्द्रगन्धौ विषटङ्कणौ च मत्स्यण्डिकायाः प्रस्था मेभिः कुर्याच लेहकम् । सहंसपार्क कटुकत्रयं च । लिहेद्विधिज्ञः सुदिने ह्यनुपानं पिबेदनु ॥ सर्वैः समं तज्जयपालबीज चण्डामूलं शुक्तिमात्रं सर्वमेहप्रशान्तये ।
विमर्दयेदाईकजद्रवेण ॥ गुल्महृद्रोग वार्शमुष्कपीडापशान्तये ॥ संशोष्य सम्पेष्य भवेत्सुसिडो शुक्राश्मरीमूत्रघातरेतोदोषापनुत्तये ॥ ।
रसस्तु धत्तरसितार्द्रतोयैः। राजावर्त भस्म, वैक्रान्त भस्म, ताम्र भस्म ददीतवल्लं विषमज्वरे वा और अभ्रक भस्म, २॥२॥ तोले; तीक्ष्ण लोह जीर्णज्वरे वाथ नवज्वरे वा ॥ भस्म १० तोले, शिलाजीत १० तोले, शुद्ध और वनानिवृत्ताय रघूत्तमाय सुरमेके समान काला मंडूर २० तोले तथा सोंठ, पुरा सुषेणेन स्वयं प्रदिष्टः। मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, बायबिडंग, तदा प्रभृत्येव च रामनाम नागरमोथा, चीता, तालमूली, नागकेसर, सफेद । ज्वरापहारीति रसः प्रसिद्धः ॥
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४४८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध बछनाग, । शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक १-१ शाण सुहागेकी खील, शुद्ध शिंगरफ, तथा सांठ, मिर्च | (प्रत्येक ३॥ माशे); शुद्ध हिगुल, सुहागा, काली
और पीपलका चूर्ण १-१ भाग और शुद्ध जमाल- मिर्चका चूर्ण और शुद्ध बछनाग ( मीठा विष) गोटा सबके बराबर ( ८ भाग ) लेकर प्रथम पारे । १०-१० माशे तथा शुद्ध जमालगोटा ५० माशे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर ओषधियां मिलाकर सबको अदरकके रसमें खरल | उसमें अन्य औषधे मिला कर सबको तिन्तडीकके करके सुखा लें।
रसमें घोट कर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें। मात्रा--३ रत्ती ।
इन्हें तुलसी पत्रके रसके साथ सेवन करनेसे अनुपान--धतूरेके रस, अदरकके रस और हर प्रकारका विषम ज्वर एकाहिक, तृतीयक और मिश्रीके साथ मिला कर खिलाना चाहिये। चातुथिक, शीतपूर्व तथा दाहपूर्व ज्वर नष्ट होता है। इसके सेवनसे विषम ज्वर, जीर्ण ज्वर और
पथ्य--दही भात और दूध भात । नवीन ज्वर नष्ट होता है।
(६१४७). रामबाणरसः (२) यह प्रयोग प्राचीन कालमें सुषेण वैद्यने श्री | (र. चं. ; र. रा. सु. । प्रमेहा; र. र. स. । रामचन्द्रजीको बनसे लौटनेके समय बतलाया था।
उ. खं. अ. १७.) ( व्यवहारिक मात्रा--१ रत्ती।)
त्रपुणा निहतं तारं स्वर्ण नागहतं तथा । (६१४६) रामबाणरसः (१) | मृतं मूतं तयोस्तुल्यं मर्दये दिवसत्रयम् ॥
(र. मं. । अ. ६) | आकुलीमूलजैः काथैः शोषयित्वा मुहर्मुहः । मृतकं गन्धकं चैव शाणं शाणं च गृह्यते ।
ताप्यवैक्रान्तराड्वतंभस्म सर्वसमं क्षिपेत् ॥ दरदं टङ्कणं चैव मरिचं च विपं तथा ॥
| विमद्य बलिना सर्व पोढा तुपपुटैः पचेत् । चत्वारोषधयः सर्व द्विद्विटङ्कं च कथ्यते । आकुलीबीजव— रकथितैर्भावयेत् त्रिया ॥ जैपालवीज संयोज्यं टकं च दिक्पमाणतः ॥ तसं परिचूाथ स्थापयेत्कूपिकोदरे । तिन्तिडीरससम्मयं गुआमात्रवटी कृता।।
गुडूची सत्वसंयुक्तो बल्लमात्रो रसस्त्वयम् ॥ तुलसीपत्रसंयुक्ता सर्वे च विषमज्वराः॥ निहन्ति सकलं मेहं मोहध्वान्तमिवेश्वरः। एकाहिकं द्वयाहिकं च व्याहिकं च चतुर्थकम् ।
बाणवद्रामचन्द्रस्य सज्जनस्येव भाषितम् । शीतदाह्यादिकं सर्वं नाशयति च वेगतः॥ | न याति जातु मोघत्वं रामबाणो रसोत्तमः ॥ पथ्यं दुग्धोदनं देयं दधिभक्तं च भोजनम् । बंगके संयोगसे मारित चांदी और सीसेके धन्वन्तरिकृतो योगो निजपुत्रेण हेतुना ॥ योगसे मारित स्वर्ण १-१ भाग तथा पारद भस्म रामबाणरसो नाम सर्वरोगप्रणाशकः॥ २ भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर तीन दिन
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
४४९
तक आकुली मूलके काथमें बार बार घोटते और यह रस आठ प्रकारके ज्वरांको शीघ्र ही नष्ट सुखाते रहें । तदनन्तर उसमें समान भाग मिश्रित कर देता है। स्वर्णमाक्षिक भस्म, वैक्रान्त भस्म और रोजावर्त इसे खांडमें मिला कर खिलाना चाहिये । भस्म उस सब रसके बराबर मिलाकर घोटें और फिर उसमें १ भाग गन्धक मिला कर ( उसे
(मात्रा-१ रत्ती ।) आकुली मूलके क्वाथसे घोट कर गोला बना कर ) (६१४९) रामबाणरसः (४) शराव सम्पुट में बन्द करके तुषाग्निमें फूंक दें। (भै. र. । अग्निमांद्या.; वृ. नि. र. । अजीर्णा.; इसी प्रकार गन्धक योगसे ६ पुट दें। अन्तमें उसे | र. चं. । अग्निमांद्या; धन्व ; रसे. चि. म.। अ. ; आकुलीके बीज और बबूलकी छालके काथकी पृथक् | र. का. थे. । अरोचका.; ररो. सा. सं. ; वै. २..। पृथक् ३-३ भावना दे कर सुखा लें । अजीर्णा.; वृ. यो. त. । त. ७१) मात्रा-३ रत्ती।
पारदामृतलवङ्गगन्धकं इसे गिलोयके सतके साथ सेवन करनेसे सम- भागयुग्ममरिचेन मिश्रितम् । स्त प्रमेह अवश्य नष्ट हो जाते हैं।
जातिकाफलमथाxभागिकं जिस प्रकार रामके बाण और सत्पुरुषों के तिन्तिडीफलरसेन मर्दितम् ।। वचन व्यर्थ नहीं जाते उसी प्रकार यह रस भी माषमात्रमनुपानयोगतः कभी निष्फल नहीं होता।
सद्य एव जठराग्निदीपनः। (६१४८) रामबाणरसः (३)
सङ्ग्रहग्रहणिकुम्भकर्णकं ( वै. र. । ज्वरा.)
सामवातखरदूषणं जयेत् ॥ हरवीजकटुत्रयटङ्कणकं
वन्मिान्धदशवक्त्रनाशनो जयपालकहंसकगन्धयुतम् ।
रामबाण इति विश्रुतो रसः ॥ गरलं च समं सह शर्करया
शुद्ध पारद, शुद्ध बछनाग ( मीठा विष ), सहसा जयति ज्वरमष्टविधम् ॥ लौंगका चूर्ण और शुद्र गन्धक १-१ भाग, काली शुद्ध पारा, सेांठ, मिर्च और पीपलका चूर्ण, | मिर्चका चूर्ण २ भाग और जायफलका चूर्ण आधा सुहागेकी खील, शुद्र जमालगोटा, शुद्ध शिंगरफ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें (हिंगुल), शुद्ध गन्धक और शुद्ध बछनाग (मीठा और फिर उसमें अन्य औषधे मिला कर सबको विष ) समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी | इमलीके फलोंके रसमें घोट कर उड़दके समान कजली बना और फिर उसमें अन्य ओषधियांका गोलियां बना लें। चूर्ण मिला कर खरल करें।
इन्हें यथोचित अनुपानके साथ सेवन करनेसे
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
शीघ्र ही अग्नि दीप्त होती और संग्रहणी तथा आम-लीढं कासं ज्वरं श्वासं राजयक्ष्माणमेव च ॥ वातका नाश हो जाता है।
| बलवर्णाग्निपुष्टि च वधनं दोषनाशनम् ॥ यह रस संग्रहणी रूपी कुम्भकर्ण, आमवात | रास्ना, कपूर, तालीस पत्र मण्डूकपर्णी, रूपी खरदूषण और अग्निमांद्य रूपी दशाननके शिलाजीत, सोंठ, मिर्च, पीपल, हरे, बहेड़ा, आमला, लिये रामबाणके समान है।
नागरमोथा, बायबिडंग और चीतेका चूर्ण १-१ (६१५०) रामरस: (श्रीरामरसः)
भाग तथा लोह भस्म १४ भाग ले कर सबको ( भै. र. ; र. रा. सु. । ज्वरा.)
एकत्र मिला कर खरल करें। गन्धकं पारदं तुल्यं मरिचं च त्रिभिः समम् ।
इसे शहद और घीके साथ सेवन करनेसे बीजं नैकुम्भकं मद्य दन्तीक्वाथेन यामकम् ।। |
| कास, ज्वर, श्वास और राजयक्ष्माका नाश होता द्विवल्लं शूलविष्टम्भानिलमामज्वरं जयेत् ।
| तथा बल वर्ण अग्नि और पुष्टिकी वृद्धि होती है।
तथा श्री शिवेन स्वयं प्रोक्तं रसं श्रीराम सज्ञकम (६१५२) रुक्मिशरसः
शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारद और काली मिर्चका ( रसे. सा. सं. । रेचना.) चूर्ण समान भाग तथा शुद्ध जमालगोटा ३ भाग अभयाचूर्णमादाय नूतनैर्जयपालकैः । लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और पश्चमांशेन मिलितैः स्नुहीदुग्धेन मर्दिताः॥ फिर उसमें अन्य औषधे मिला कर सबको १ पहर गुडिकास्तस्य कर्तव्या वर्तुलाश्चणकप्रभाः। दन्तीमूलके काथमें खरल करके १-१ रत्तीकी | एकैकस्यास्य टङ्कस्य रेचनैश्च रसैस्तदा ।। गोलियां बना लें।
रुक्मिशो न च दाहः स्यान्न च मूर्छाभ्रमः। मात्रा-६ गोली।
| वेगतः सारयेदेषा विशेषादामनाशिनी ॥ इसके सेवनसे शूल, विष्टम्भ, वायु और आम- | निरूहेन तथा नैव तथा विन्दुघृतेन च। ज्वर नष्ट होता है।
त्रिता न तथा रेच्या यथा स्याद्गुडिकोत्तमा । (व्यवहारिक मात्रा---१ रत्ती । ) अतिशुद्धं भवेदेवमतिपबलमुत्तमम् । (६१५१) रास्नादिचूर्णम् अतिरूपमतिप्रौढमत्यायुष्करमुत्तमम् ॥ (रास्नादिलौहम् )
विष्टम्भे गुडिका देया चोदरे दारुणामये ।
अधोदेशेषु सर्वेषु गदेषु च महौषधिः ॥ ( वृ. नि. र. । क्षय. ; धन्व.; रसें. सा. सं. ; र. र. । रा. य. ; र. रा. सु. । क्षय.)
दीयते क्षीयते सामः कामकायविवर्द्धनः ॥ रास्नाकप्रतालीसभेकपर्णीशिलाजतु ।
उत्तम हर्रका चूर्ण ५ भाग और शुद्ध नवीन त्रिकटुत्रिफलामुस्ताविडङ्गदहनाः समाः ॥
जमालगोटा १ भाग लेकर दोनोंको एकत्र मिला चतुर्दशायसो भागास्तच्चूर्ण मधुसर्पिपा। । १ पाठान्तरके अनुसार असगन्ध.
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चतुर्थों भागः
४५१
कर थोहर (सेंड) के दूध में खरल करके चनेके | २ गुना (२० भाग ) लेकर प्रथम पारे गन्धककी बराबर गोलियां बना लें। .
कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका इसे ५ माशेकी मात्रा तक रेचन रसेकेि साथ चूर्ण मिला कर सबको अच्छी तरह खरल करके प्रयुक्त कर सकते हैं।
गुड़में मिलावें और अच्छी तरह कूट कर ३-३ ( व्यवहारिक मात्रा---४-५ रत्तो।) रत्तीकी गोलियां बना लें। इसे खानेसे दाह, मूर्छा, भ्रम, क्लम, आदि ।
| इनके सेवनसे उदर और गुदाका वायु, कफ, उपद्रव नहीं होते और वेग पूर्वक विरेचन हो | गुल्म और प्रमेह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। जाता है।
(६१५४) रुद्रपर्पटी यह रस विशेषतः आमनाशक है।
(वृ. नि. र. ; २. का. धे. । कासा. ; इस वटीसे जितना उत्तम विरेचन होता है
र. र. । कासा.) उतना न तो निरुहबरितसे होता है और न ही । शुद्धमृतं द्विधा गन्धं सम्मर्धेषां द्रवैः पुनः। बिन्दु घृत या निसोतसे होता है।
वातारिरार्द्र भृङ्गी काकमाच्याद्रिकणिका ।। इसे खानेसे कोठा अत्यन्त शुद्ध होकर शरीर | दिनैकं मदयेत् खल्वे पाचयेत्पर्पटी यथा । कोमल हो जाता है; बुद्धि बढ़ती है और आयु द्वयोः पादं मृतं तानं क्षिप्त्वा मृद्वग्निना पचेत् ॥ दीर्घ होती है।
रक्तवर्ण भवेद्यावत्तावत्पाच्यं प्रचालयेत् । इसे विष्टम्भ, भयंकर उदर रोग और समस्त | प्रक्षिपेत्कदलीपत्रेऽथवा स्निग्धपुटे पुनः ॥ अधः शरीरस्थ दोषोंमें दे सकते हैं।
आच्छाद्य तेन योगेन अधश्चोय च गोमयम् । ___(साधारण अनुपान---शीतल जल ।)
देयं विचूर्णयेत्पश्चाच्चूर्णपादं विषं क्षिपेत् ॥
रुद्रपर्पटिका ह्येषा देया गुञ्जाद्वयं द्वयम् । (६१५३) रुजादलनवटी
चूर्णितं कटुनिर्गुण्ड्या मूलनिष्कद्वयं पिबेत् ॥ ( र. रा. सु. । प्रमेह. ; रसे. चि. म. । अ. ९) भृङ्गराजरसेनैव लिहेद्वा मधुना सह ।। रसबलिविषमग्नित्रैफलव्योषयुक्तम् । वातकासान्निहन्त्याशु सर्वथैव न संशयः ॥ समलवमिति सर्वै द्वै गुणो स्याद्गुडोथ ॥ १ भाग शुद्ध पारद और २ भाग शुद्ध गन्धजठरगुदसमीरश्लेष्ममेहान् सगुल्मान् । ककी कज्जली बना कर उसे अरण्डमूल, अदरक, हरति झटिति पुंसां वल्लमात्रावटीयम् ॥ अतीस, मकोय और कोयलके स्वरस या काथमें
___ शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध बछनाग (मीठा | पृथक् पृथक् एक एक दिन घोट कर सुखा लें। विष), चीतामूल, हर, बहेड़ा, ओपला, सांठ, मिर्च | तदनन्तर उसमें दोनोंसे चौथाई (पौन भाग) और पीपल १-१ भाग तथा पुराना गुड़ सबसे । ताम्र भस्मका चूर्ण मिला कर धृतलिप्त लोह-पात्रमें
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
मन्दाग्नि पर पिघलावें । जब पिघल कर उसका रंग ४ भाग, स्वर्ण भस्म ५ भाग, काली मिर्चका चूर्ण लाल हो जाय तो उसे लोहेकी सलाई आदिसे । ६ भाग और रससिन्दूर ७ भाग लेकर सबको अच्छी तरह चला कर एक जीव करें और गायके एकत्र खरल करके १ दिन चांगेरी (तिपतिया) के गोबर पर बिछे हुवे केले के पत्ते पर फैला दें तथा । रसमें खरल करके गोला बनावें और ( उसे सुखा उसके ऊपर दूसरा कदली-पत्र रख कर उसे गायके कर ) उस पर चाँगेरीके रसका लेप करके ऊपर गोबरसे दबा दें। इसके पश्चात् उसके शीतल हो | कपड़ा लपेट दें और फिर उसे शरावसम्पुट में बन्द जाने पर दोनों पत्तोंके बीचसे पर्पटीको निकाल लें;
| करके मृगाङ्क रसके समान बालुका यन्त्रमें पकावें । और पीस कर उसमें उससे चौथाई शुद्ध बछनाग
तदनन्तर यन्त्रके स्वांगशीतल होने पर उसमेंसे (मीठा विष) का चूर्ण मिलाकर अच्छी तरह खरल | औषधको निकाल कर पीस पर सुरक्षित रक्खें । करके रक्खें ।
___ यह रस क्षय रोगमें मृगाङ्क के समान ही मात्रा--२ रत्ती।
गुणकारी है। अनुपान--औषध खानेके पश्चात् कड़वे
| इसकी मात्रा अनुपान आदि भी मृगाङ्कके संभालूकी जड़का १० माशे चूर्ण पीना चाहिये ।
समान है। अथवा उसे भंगरेके रस और शहदके साथ मिला कर चाटना चाहिये ।
रुद्ररसः इसके सेवनसे वातज कास शीघ्र ही समूल नष्ट
रौद्र रस देखिये। हो जाती है।
(६१५६) रुद्रवटी (६१५५) रुद्ररसः
(र. का. धे. । कुष्ठा.) (रे. रा. सु. । राजयक्ष्मा.) कान्तलोहं मृतं चाभ्रं मूतं ताप्यं च गन्धकम् । तीक्ष्णशुल्वं नागतारं स्वर्णश्च मरिचं पृथक् । तालकं गुग्गुलुं शुद्धं विडङ्ग त्रिफलाकुलम् ॥ एक द्वि त्रि चतुष्पञ्चक्रमात्पशुद्धसूतकम् ॥ व्योषाग्नि देवदारुं च नागफेनं निशाद्वयम् । चाङ्गेरो द्रवसम्म दिनैकं तच्च गोलकम् ।। गिरिकर्णी पुनर्नव्या मूलचूर्ण समं समम् ।। गोलकं लेपयेत्तेन ततो वस्त्रेण वेष्टयेत् ॥ मृगावत्पचेत्स्थाल्यां वालुकाभि प्रपूरयेत् । माषमात्रं निहन्त्याशु सर्वकुष्ठं न संशयः॥ उद्धत्य चूर्णयेच्छ्लक्ष्णं हरतुल्यो रसोत्तमः ॥ | इयं रुद्रवटी नाम्नाऽनुपानं चण्डभैरवः । मृगावत्क्षयं हन्ति तथा मात्रानुपानकम् ॥ कान्त लोह भस्म, अभ्रक भस्म, शुद्ध पारद, ____तीक्ष्ण लोह (फौलाद ) भस्म १ भाग, ताम्र स्वर्णमाक्षिक भस्म, शुद्ध गन्धक, शुद्ध हरताल, भस्म २ भाग, सीसा भस्म ३ भाग, चांदी भस्म । शुद्ध गूगल, बायबिडंगका चूर्ण, हरे, बहेडा,
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चतुर्थों भागः
४५३
-
आमला, बेर. सांठ, मिर्च, पीपल, चीतामूल, देव- | रससिन्दूर २ भाग और ताम्र भस्म ४ भाग दारु, अफीम, हल्दी, दारुहल्दी, कोयल और | ले कर दोनेको एकत्र खरल करके ५ दिन काकपुनर्नवाकी जड़ १-१ भाग ले कर प्रथम पारे | जंघाके रसमें मर्दन करें । तदनन्तर उसका गोला गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य बना कर सुखा कर उसे शुद्ध ताम्रके सम्पुटमें बन्द
ओषधियोंका बारीक चूर्ण मिला कर सबको १ करें और फिर एक कपरमिट्टी की हुई हाण्डीके दिन भंगरेके रसमें खरल करके गोलियां बना लें। पेंदेमें एक छोटासा छिद्र करके उसमें वह सम्पुट मात्रा---१४ माशा।
रख दें तथा हाण्डीमें गले तक रेत भर कर चूल्हे इनके सेवनसे समस्त प्रकारके कुष्ठ नष्ट पर चढ़ा दें और उसके नीचे ८ पहर तक निरहोते हैं।
न्तर अग्नि जलावें। अनुपान--"चण्डभैरवरस' के समान । तदनन्तर हाण्डीके स्वांगशीतल होने पर ( देखो प्रयोग सं. १८७४).
उसमेंसे औषधको निकाल कर पीस लें और फिर रुद्रेश्वररसः (महा)
उसमें शहद तथा सुहागा मिला कर खुली हुई
मूषामें रख कर इतना ध्मा कि औषध चक्कर ( र. का. धे. । कुष्ठा.)
| खाने लगे । तत्पश्चात् ठण्डा करके पीस कर महा रौद्रेश्वररसः प्रयोग सं. ५५६८
सुरक्षित रक्खें । देखिये ।
मात्रा--३ रत्ती। (६१५७) रूपराजरसः
अनुपान--औषधको शहदके साथ चाट ( वृ. यो. त. । त. ११६; यो. त. । त. ६१; / कर त्रिफला-काथ पीना चाहिये । र. का. धे. । भगन्दरा.)
इसे सेवन करने और पथ्य पूर्वक रहनेसे रसेन्द्रभागद्वितयं म्लेच्छमारं चतुर्गुणम् । | भगन्दर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । काक जङ्घारसैमर्थ खल्वे दिवसपञ्चकम् ॥
रोगहररसः ताम्रसम्पुटके रुद्ध्वा सच्छिद्रे हण्डिकान्तरे। (र. चं. । ज्वरा. ; शा सं. । खं. २ अ. १२) निवेश्य वालुकां दत्त्वा देयोऽग्निः प्रहराष्टकम् ॥ प्रयोग संख्या ९४४ "कनकसुन्दरो रसः" स्वाङ्गशीतं समुद्धृत्य मधुटऋणसंयुतम् । देखिये। धमेन्मूषागतं तावद्यावद्भ्रमति तारवत् ॥ (६१५८) रोगेभसिंहश्रीखण्डवट्यौ रूपराजरसः सोऽयं भगन्दरकुलान्तकः । (र. रा, सु. । वाता. ; ध. ; र. का. धे. । वल्लमात्रममुं लीवा मधुना सह पथ्यभुक् ॥
वातव्या.) त्रिफलायाः पिबेत्स्वार्थ पश्चात्पथ्यं हितं चरेत् । मूताद्वयो घनवरानलवेल्लभाजी मुक्तः स्वल्परहोभिः स्याद्भगन्दरमहागदात् ॥ तिक्ताकटुत्रयवरैः सवचैः समांशैः।
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४५४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ रकारादि रोगेभसिंह इति वातकफामयन्नः एकाधिका विंशतिर्वासराणां सान्द्रोयमल्पपटुतो विहितो द्विगुञ्जः ॥
मद्य निधायाथ जलप्रदेशे ॥ एतैर्गुडप्रमृदितै रसवर्जितैः स्या- गुञ्जकमानः सघृतः सुपिष्टो च्छ्रीखण्डनाम गुटिका विहिता द्विगुञ्जा।
नवज्वरं सन्ततमादिकं च । शैत्याद्य जीर्णकफवातभवान् विकारान् अभ्यङ्गमात्रेण निहन्ति सर्वाहन्त्याईकेन नियुताप्यथ केवला वा ॥
न्यथा भुजङ्गं गरुडो गरीयान् ॥ रससिन्दूर २ भाग तथा नागरमोथा, हर्र, रोमादि वेधस्तु सुसिद्धनामा बहेड़ा, आमला, चीता, बायबिडंग, भरंगी, कुटकी,
राजा रसानां कथितो भिपग्भिः। सांठ, मिर्च, पीपल और बचका चूर्ण १-१ भाग राज्ञां पुरः कौतुकमद्भतार्थं ले कर सबको एकत्र मिला कर खरल करें।
सङ्क्रीतितो वैद्य कुमारकाभ्याम् ॥ इसे जरासे सेंधा नमकके साथ सेवन करनेसे __ शुद्ध बछनाग, सर्प-विप और शुद्ध पारद वातक.फज रोग नष्ट होते हैं ।
तथा गन्धक समान भाग लेकर सबको एकत्र खरल मात्रा--२ रत्ती ।
करके कांचकी शीशीमें भर कर किसी ऐसी जगह इसका नाम "रोगेभसिंहरस" है ।।
| दबा दें जहां हमेशा पानी जाता हो और फिर २१ यदि रससिन्दूरके अतिरिक्त उपरोक्त समस्त
दिन पश्चात् निकाल कर काममें लावें । ओषधियोंके चूर्णको सबके बराबर गुड़में मिलाकर | इसमेंसे १ रत्ती रस धीमें घोट कर शरीर पर गोलियां बना ली जायं तो उसका नाम "श्रीख- मलनेसे सन्ततादि समस्त नवीन ज्वर नष्ट हो ण्डवटी " हो जाता है।
जाते हैं। इनके सेवनसे शीत, अजीर्ण और वातकफज (६१६०) रोहीतकलौहम् । रोग नष्ट होते हैं।
( भै. र. ; र. का. धे. । प्लीहा. ; रसे. चि. म. । मात्रा--२ रत्ती
अ. ९; र. रा. सु. ; रसे. सा. सं. ; धन्व. । (व्यवहारिक मात्रा–२--३ माशे ।) ।
उदररोगा. ; र. र. । प्लीह. ) अनुपान-इसे अद्रकके रसके साथ या |
रोहीतकसमायुक्तं त्रिकत्रययुतन्त्वयः । बिना ही किसी अनुपानके खिलाना चाहिये।
प्लीहानमग्रमांसश्च शोथं हन्ति न संशयः ॥ (६१५९) रोमवेधरसः
रहेड़ेकी छाल, हरे, बहेड़ा, आमला, सेठ, ( र. का. धे. । सन्निपाता.)
मिर्च, पीपल. चीता, नागरमोथा और बायबिडंग शृङ्गीविष भोगिमहाविषं स्या
इनका चूर्ण १-१ भाग तथा लोहभस्म सबके च्छुद्धं समं सूतकगन्धकं च । । बराबर लेकर सबको एकत्र मिलाकर खरल करें।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
इसके सेवनसे प्लीहा, अग्रमांस और शोथ | स्वागशीतां च तां पिष्टी साम्लतालेन मर्दितम् ॥ अवश्य नष्ट हो जाता है।
पुटेदशवाराणि भस्मी भवति रूप्यकम् ॥ (६१६१) रौद्ररसः
शुद्ध पारदको बढलके रसमें घोट कर शुद्ध (रसे. सा. सं. ; र. चं. ; र. रा. सु. । अर्बुदा ;
चांदीके बारीक पत्रों पर लेप कर दें और फिर उन धन्व. ; वृ. नि. र. ; र. का. धे. । अर्बुदा.
पत्रोंके ऊपर नीचे शुद्ध गन्धकका चूर्ण बिछा कर रसे. चि. म. । अ. ९; र. म. । अ. ६)
उन्हें शरावसम्पुटमें बन्द करें । तदनन्तर उस
सम्पुटको बालुका यन्त्रमें रख कर १ दिन तीब्राग्नि शुद्धं मूतं समं गन्धं मध यामचतुष्टयम् ।
पर पकावें। नागवल्लीरसैयुक्तं मेघनादपुननेवैः ॥
___ इसके पश्चात् जब वह स्वांगशीतल हो गोमूत्रपिप्पलीयुक्तं मी रुड्वा पुटेल्लघु ।।
.. जाय तो उसमें से चांदीको निकाल कर उसमें लिह्यात्क्षाद्र ताराद्रा गुआमामा ९ जप" ( उसके बराबर ) शुद्ध हरताल मिलाकर दोनोंको
- शुद्ध पारद और गन्धक समान भाग ले कर | नीबूके रसमें घोटें और शरावसम्पुटमें बन्द करके दोनोंकी कजली बनावें और फिर उसे पानके रस, |
| गजपुटमें फूंक दें। चौलाई के रस, पुनर्नवा (बिस व परा ) के रस,
इसी प्रकार १० पुट देनेसे चांदीकी भस्म गोमूत्र और पीपल के काश्रमें पृथक पृथक् चार चार |
हो जाती है। पहर घोट कर गोला बनावें और उसे सुखाकर शगव-सम्पुट में बन्द करके लघुष्ट में पकावें ।
(६१६३) रौप्यभस्मविधिः (२)
(यो. त. । त. १७) मात्रा-१ रत्ती। इसे शहद में मिलाकर चाटनेसे अर्बुद नष्ट |
| विधाय पिष्टिं मूतस्य रजतस्याथ मेलयेत् । होता है।
तालगन्धं समं पश्चात् मेलयेनिम्बुक द्रवैः ॥
द्विस्त्रिः पुटैर्भवेद्भस्म योज्यमेतद्रसादिषु ॥ रौद्रश्वररसः
१ भाग शुद्ध पारदमें १ भाग शुद्ध चांदीके प्र. सं. ५५६८ " महारौद्रेश्वर रसः "
वर्क मिला कर दोनोंको खरल करें । जब दोनोंकी देखिये ।
पिढीसी बन जाय तो उसमें १-१ भाग हरताल (६१६२) रौप्यभस्मविधिः (१)
और गन्धक मिला कर सबको नीबूके रसमें घोटें (र. र. स. । पू. खं. अ. ५) और यथा-विधि सम्पुटमें बन्द करके गजपुलकुचद्रवमूताभ्यां तारपत्रं प्रलेपयेत् । टमें पकावें। ऊर्ध्वाधो गन्धकं दत्त्वा मूषामध्ये निरुध्य च ॥ इसी प्रकार २-३ पुट देनेसे चांदीकी भस्म स्वेदयेद्वालुका यन्त्रेण दिनमेकं दृढाग्निना। । हो जाती है।
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४५६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
Regak e माक्षिक) सर्व श्रेष्ठ, द्वितीय मध्यम और तृतीय सूचना
(कांस्य माक्षिक ) अधम मानी जाती है। क रौप्य भस्मकी अन्य विधियां तारमारण मैं तथा तारभस्मके नामसे आ चुकी हैं।
म स्वर्ण माक्षिक, स्वर्ण निर्माणमें; रौप्य माक्षिक
चांदी बनानेमें और कांस्य माक्षिक केवल औषधोंमें (६१६४) रौप्यमाक्षिकशोधनमारणे. प्रयुक्त होती हैं। (र. र. स. । पू. खं. अ. २)
माक्षिकको बासेके कोथ या जम्बीरीके रस विमलस्त्रिविधः प्रोक्तो हेमाद्यस्तारपूर्वकः ।।
अथवा मेढासिंगीके रसमें स्वेदित करनेसे वह शुद्ध तृतीयः कांस्यविमलस्तत्तत्कान्त्या च लक्ष्यते ॥ | हा जाता है । वर्तुलः कोणसंयुक्तः स्निग्धश्च फलकान्वितः इस विधिसे अन्य धातु भी शुद्ध हो जाती हैं। मरुत्पित्तहरो वृष्यो विमलोऽति रसायनः ॥ ___ माक्षिकमें शुद्ध गन्धक मिलाकर दोनोंको प्रों हेमक्रियामुक्तो द्वितीयो रौप्यन्मतः। बढलके रस या नीबूके रसमें घोट करे टिकिया तृतीयो भेषजे तेषु पूर्व पूर्व गुणोत्तरः ॥ बनावें और उन्हें सुखाकर, शराव सम्पुटमें बन्द आयरूपजले स्विनो विमलो विमलो भवेत। करके गजपुटमें फूंक दें। इसी प्रकार १० पुट जम्बीरस्वरसे स्विन्नो मेषशङ्गीरसेऽथ वा ॥ | देनेसे माक्षिककी भस्म तैयार हो जाती है । आयाति शुद्धिं विमलो धातवश्च यथापरे। (६१६५) रौप्यमाक्षिकसत्वपातनम् (१) गन्धाश्मलकुचाम्लैश्च म्रियते दशभिः पुटैः ॥ विमलं शिग्रुतोयेन कांक्षी कासीसटङ्कणम् ।
माक्षिक ३ प्रकारकी होती है; एक स्वर्ण- | वज्रकन्दसमायुक्तं भावितं कदलीरसैः॥ माक्षिक, दूसरी रौप्य-माक्षिक, और तीसरी कांस्य- मोक्षकक्षारसंयुक्तं ध्मापितं मूकमूषगम् । माक्षिक ।
सत्त्वं चन्द्राकेसंकाशं पतते नात्र संशयः॥ स्वर्णमाक्षिकमें सोनेकी, रौप्यमाक्षिकमें फिटकी, कसोस, सुहागा, जंगली जिमीकन्द चांदीकी, और कांस्यमाक्षिकमें कांसेकी झलक | (सूरण), मोखा (छोंकरा) वृक्षका क्षार और माक्षिक होती है।
समान भाग लेकर सबको सहेजनेके रस और केलेके उत्तम माक्षिक गोल, बहुतसे कोनों वाली, पानीके साथ खरल करके मूषामें रख कर ध्मानेसे स्निग्ध और फलकान्वित (बहुतसे पहलू वाली) माक्षिकका अत्यन्त उज्ज्वल सत्व निकल आता है। होती है।
। (६१६६) रौप्यमाक्षिकसत्वपातनम् (२) ___ माक्षिक वातपित्त नाशक; वृष्य और रसा- सटङ्कलकुचद्रावैर्मपशङ्ग्याश्च भस्मना । यन है। तीनों प्रकारकी माक्षिकोंमें प्रथम (स्वर्ण पिष्टो मृषोदरे लिप्तः संशोष्य च निरुध्य च ॥
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
४५७
षट्मस्थकोकिलैर्मातो विमळः शशिसन्निभम् । वर्जयेद्वर्षपर्यन्तं पनसं तुम्बिजं फलम् । सत्वं मुञ्चति तद्युक्तो रसः स्यात्स रसायनः।। अन्या च वटिका नास्ति पूतिमेहविनाशिनी ॥
सुहागे और मेढासिंगीकी भस्मको बढलके | समान भाग शुद्ध पारद और शुद्र चांदीका रसमें खरल करें और फिर उसके साथ माक्षिकको चूर्ण ले कर दोनोंको एकत्र मिला कर खरल करें। घोट कर मूषाके भीतर इसका लेप करदें तथा । जब दोनों मिल जायं तो सबका एक गोला बना सुखा कर उसका मुख बन्द करके उसे ६ सेर कर उसे शीशीमें भर कर रख दें । फिर २४ कोयलोंकी अग्निमें ध्मावें । इससे विमलका अत्यन्त घण्टे पश्चात् उसे लोहेकी कढाईमें डालकर चूल्हे स्वच्छ श्वेत चन्द्रमाके समान उज्ज्वल सत्व निकल पर चढ़ावें और उसके नीचे तीवाग्नि जलावें तथा आता है । यह सत्व रसायन होता है। उसको लोहेकी करछीसे चलाते रहें । जब चांदीकी (६१६७) रौप्यरसवटी
सफेद भस्म तैयार हो जाय तो आग देनी बन्द
करदें और कढ़ाईके स्वांगशीतल होने पर उसमेंसे (रूपरसवटिका.)
भस्मको निकाल लें। ( र. चं. । प्रमेहा.)
___ तदनन्तर यह चांदी भस्म १ निष्क (५ पारदं चन्द्रिकाचूर्ण समं शुद्ध विमर्दयेत् । । माशे ), केसर २ निष्क, तथा जावत्री, जायफल, गोलं कृत्वा च संस्थाप्य दिनमेक करण्डके | लौंग और संगजराहतका चूर्ण ११-१॥ तोला एवं द्वितीये दिवसेऽङ्गारे लोहपात्र विनिक्षिपेत् । नारियलकी गिरी और बीज रहित शुद्ध भिलावे लोहदण्डेन संघर्घ्य शुभ्रं भस्म च कारयेत् ॥ ५-५ तोले तथा इमलीके फलका गूदा २५ तोले तद्रौप्यभस्म निष्कैकं द्विनिष्कं कुङ्कमं शुभम् । | लेकर सबको एकत्र मिलाकर अच्छी तरह मर्दन जातिकोषफले चैव लवङ्गं शङ्खजीरकम् ॥ करके आधे आधे तोलेकी गोलियां बना लें । प्रति कर्प तथा नारिकेलमज्जा च भूपला । अनुपान--तिलका तेल या ताजा निकाला भल्लात्काच निर्बीजात्पलं ग्राह्य प्रयत्नतः॥ हुवा कुसुम्भ (कैड) का तेल, अथवा गायका दही तिन्तिडीफलमांसं च योजयेत्पलपञ्चकम् ।। या घी। विधिवत्सर्वमेकत्र मर्दयेत्सुदृढं भिषक् ॥
इसे प्रातः सायं सेवन करना चाहिये । दवा कोलमाना च वटिका तिलतैलेन योजयेत् । खानेके पश्चात् १॥ तोला आम या चिरौंजी किंवा कौसम्भलेन सद्यो निष्कासितेन वा॥ (प्रियाल) का रस पोना चाहिये । धेनुदध्नाऽथ वाऽऽज्येन सायं प्रातःप्रयोजयेत् ।। यह वटिका समस्त प्रमेहोंको और विशेषतः आम्रचाचारकरसं कर्ष चैवानु पाययेत् ॥ पूतिमेहको नष्ट करती है । वटिका रूपरसका सर्वमेहविनाशिनी।
पूतिमेह (सूजाक ) के लिये इससे उत्तम पूतिमेहं विशेषेण पथ्यं सामान्यमाचरेत् ॥ अन्य औषध नहीं है ।
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४५८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
परहेज़-१ वर्ष तक कटहल और तूंबी चांदी भस्म १ भाग, अभ्रक भस्म १ भाग, न खावें ।
ताम्र भस्म १ भाग और सांठ, मिर्च, पीपलका (६१६८) रौप्यरसायनम् चूर्ण १-१ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करें।
___ इसे शहद और घीके साथ प्रातःकाल सेवन ( र. र. स. । पू. खं. अ. ५)
करनेसे क्षय, पाण्डु, उदर रोग, अर्श, श्वास, खांसी, भस्मीभृतं रजतममलं तत्समौ व्योमभान्। नेत्ररोग और पित्तज रोगोंका नाश होता है। सर्वैस्तुल्यं त्रिकटुकरं सारधाज्येन युक्तम् ॥ (मात्रा-२-३ रत्ती ।) लीढं प्रातः क्षपयति तरां यक्ष्मपाण्डूदरार्शः ।।
रौप्यराजरसः श्वास कासं नयनजरुजः पित्तरोगानशेषान् ॥ रूपराजरस देखिये ।
इति रकारादिरसप्रकरणम्
-~- *-46
अथ रकारादिमिश्रप्रकरणम्
(६१६९) रक्तचन्दनादियोगः । (६१७०) रक्तपित्ते कतिपययोगाः ( यो. र. । रक्तातिसा.)
( ग. नि. । रक्तपित्ता.) चन्दनं विमलतण्डुलाम्बुना
छागं पयः स्यात्परमं प्रयोगे संयुतं मधुयुतं सितान्वितम् ।
गव्यं शृतं पञ्चगुणे जले वा। तृविखण्डनमसग्विखण्डनं
सशर्करं माक्षिकसम्प्रयुक्त
विदारिगन्धादिगणे शृतं वा ॥ खण्डनं प्रचुरदाहमोहयोः ॥
पक्वोदुम्बरकाश्मयपथ्याखजूरगोस्तनाः । लालचन्दनको चावलोंके पानीमें पीसकर | मधुना नन्ति संलीढा रक्तपित्तं पृथक पृथक् ॥ उसमें शहद और मिश्री मिलाकर सेवन करनेसे | रक्तपित्तमें बकरीका दूध पिलाना अत्यन्त तृषा, रक्तस्राव और दाह तथा मोहको नाश होता है। हितकारी है । अथवा
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मिश्रप्रकरणम्
चतुर्थों भागः
४५९
गायके दूधमें पांच गुना पानी मिला कर भावितं रजनीचूर्ण स्नुहिक्षीरैः पुनः पुनः । पकावें और जब पानी जल जाए तो उसे ठण्डा | बन्धयेत्सुदृढ मूत्रं छिनत्यर्थी भगन्दरम् ॥ कर लें । यह दूध भी रक्तपित्तको नष्ट करता हल्दीके चूर्णको स्नुही ( सेंड-थोहर ) के है । अथवा
दूधकी बहुतसी भावनाएं देकर एक मज़बूत डोर गोदुग्धको विदारीगन्धादि गगके साथ पर उसका लेप करके सुखा लें । पका कर, ठण्डा करके उसमें खांड और शहद अर्शके मस्सों पर यह डोरा कसकर बांध मिला कर पिलाना भी हितकारी है।
देनेसे मस्से कट जाते हैं। __ गूलरके पक्के फल, खम्भारीके फल, हरी,
(६१७४) रम्भाक्षारसिद्धविलेपी खजूरके फल और मुनक्का को पृथक पृथक् ( इन
(रा. मा. । उदररो. ८) मेंसे चाहे जिसे ) पीस कर शहदमें चाटनेसे भी रक्तपित्त नष्ट होता है।
वित्राव्य रम्भादलभस्ममध्यात्
तोयं ततस्तेन कृता विलेपी। (६१७१) रक्तशाल्यादियोगः
स्थाद्भक्षिता सत्युदरामयानां (यो. र. । छर्दि.)
नाशाय नूनं दिवसत्रयेण ॥ अथ रक्तशालिभक्तं गोदधिशर्कराविमिश्रं च ।
केलेके पत्तोंकी राखको एक कपड़ेमें डालकर कुर्याद्भोजनमेतत्कफच्छर्दिच्छिदं जन्तोः॥
उसके चारों कोने किसी धडौंचीके चारों पायों में ___ लाल चावलोंके भातमें गायका दही और
बांध दें और उसके नीचे पात्र रखकर कपड़े में खांड मिला कर भोजन करनेसे कफज छर्दि नष्ट
( राखसे ६ गुना ) पानी डाल कर अच्छी तरह होती है।
मिला दें। नीचेके पात्र में जो पानी छने उसे पुनः (६१७२) रक्तापामार्गमूलयोगः वस्त्रमें डाल दें। इसी प्रकार कई बार छानें । ( र. र. रसा. खं. । उप. ७)
जब पानी स्वच्छ हो जाए तो उसमें चावल पकारक्तापामार्गमूलं तु सोमवारेऽभिमन्त्रयेत् । । भौमे प्रातः समुद्धृत्य बन्धेत्कटयां च वीर्यधृक्।। इसे केवल ३ दिन तक खानेसे उदर रोग
लाल अपामार्ग (चिरचिटे ) की जड़को | नष्ट होते हैं। सोमवारके दिन आमन्त्रित करके मंगलवारके दिन प्रातः काल उखाड़ लाएं । इसे कमरमें बांध कर |
| (६१७५) रम्भाफलयोगः (१) स्त्रीसमागम करनेसे वीर्यस्तम्भन होता है।
( धन्व.। सोमरोगा.) (६१७३) रजनीचूर्णयोगः कदलीनां फलं पक्वं धात्रीफलरसं मधु ।
(वृ. नि. र. । अझं.) | शर्करा पयसा पीतमपां धारणमुत्तमम् ॥
कर चिले
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
केलेकी पक्की फलीको मथकर उसमें आमलेका
(६१७९) रसाला रस और शहद मिला कर पिलावें तथा ऊपरसे (वृ. यो. त. । त. १४७; व. से. ; यो. र.। खांडयुक्त दूध पिलावें।
वाजीकरणा.) यह प्रयोग सोम रोगमें अत्यन्त गुणकारी है।
दनोर्धाढकमीषदम्लमधुरं (६१७६) रम्भाफलयोगः (२)
खण्डस्य चन्द्रगुतेः। (धन्व.। सोमरोगा.)
प्रस्थं क्षौद्रपलं पलं च हविपः कदलीनां फलं पक्वं विदारी च शतावरीम् ।
शुण्ठयाश्चतुर्मापकाः ॥ क्षीरेण पाययेत्पातरपां धारणमुत्तमम् ।।
अक्षार्ध मरिचाद्विडङ्गत इह केलेकी पक्की फली तथा विदारीकन्द और
द्वौ माषकावेकतः। शतावरका चूर्ण समान भाग लेकर तीनोंको एकत्र
कृत्वा शुक्लपटे शनैः करतलेमिली कर एकजीव कर लें।
नोन्मथ्य विस्रावयेत् ॥ _इसे प्रातःकाल दूधके साथ सेवन करनेसे
मृदभाण्डे मृगनाभिचन्दनरसस्त्रियांका सोमरोग नष्ट हो जाता है।
स्पृष्टेऽगुरुधुपिते । (६१७७) रसाञ्जनयोगः
सत्कर्पूररजोरजस्पृशि भृशं (वृ. मा., यो. र.; वं. से. । बालरोगा.) दिव्या रसाला भवेत् ॥ गुदपाके तु बालानां पित्तनीं कारयेक्रियाम् । या पीता परमेश्वरेण सुरमा रसाञ्जनं विशेषेण पानाभ्यअनयोहितम् ॥
सेयं रसाला तथा । बालकोंकी गुदा पक जाए तो पित्तनाशक राज्ञां मन्मथदीपनी सुरुचिरा उपचार करना चाहिये और विशेषतः रसौत कान्ता च नित्य प्रिया ॥ लगाना और वही पिलाना चाहिये ।।
मधुराम्ल ( खटमिट्ठा ) दही २ सेर, स्व(६१७८) रसाञ्जनादियोगः च्छ सफेद खांड (मिश्री) १ सेर, शहद १० तोले, ( यो. र. ; बं. से. ; वृ. नि. र. । कर्णरो. ) घी १० तोले तथा सोंठका चूर्ण ५ माशे, काली घृष्टं रसाधनं नार्याः क्षीरेण क्षौद्रसंयुतम् ।। | मिर्चका चूर्ण ७|| माशे, और बायबिडंगका चूर्ण प्रशस्यते चिरोत्थे तत्सास्रावे पूतिकर्णके ॥ २॥ माशे ले कर सबको एकत्र मिलाकर अच्छी
स्त्रीके दूधमें रसौतको घिसकर उसमें (उसके | तरह मथे और फिर सफेद वस्त्रसे छान लें। तथा बराबर) शहद मिला लें।
अन्तमें सुगन्ध योग्य कपूर मिला दें। इसे स्रावयुक्त पुराने पूतिकर्ण रोगमें कानमें | इसे कस्तूरी और चन्दन लिप्त तथा अगरसे डालना चाहिये।
धूपित मृत्पात्रमें रखना चाहिये ।
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मिश्रप्रकरणम्
चतुर्थों भागः
यह रसोला रोचक, अत्यन्त स्वादिष्ट और । (६१८२) रामठाद्या वतिः कामोत्तेजक है।
(व. से. । गुल्मा.) यह राजाओंके सेवन करने योग्य पदार्थ है। रामठधमविव्योषगुडमूत्रविपाचिता । __(६१८०) रसोनवटक: गुदेऽङ्गुष्ठसमा वर्तिविधेयानाहशूलनुत् ॥ (वृ. नि. र. । वातव्या.)
हींग, घरका धुंवा, बिड नमक; सांठ, मिर्च, रसोनगुलिकां माषविदलं परिपेष्य च । पीपलका चूर्ण और गुड़ समान भाग लेकर सबको योजयेत्पिष्टिकां कान्तां सैन्धवादकहिङ्गभिः॥ | एकत्र मिला कर ( ८ गुने ) गोमूत्रमें पकावें और ततस्तु वटकान्कृत्वा तिलतैले पचेच्छनैः।। गुड़के समान गाढ़ा हो जाने पर उसकी अंगूठेके भक्षयेत्तान्यथावह्नि हनुस्तम्भी सुखी भवेत् ॥ | समान मोटी बत्तियां बना लें ।
ल्हसनकी गुली और उर्दकी दाल समान भाग | इनमें से एक एक बत्ती गुदामें रखनेसे अफारे लेकर दोनोंकी पिठी बनावें और उसमें स्वाद योग्य | और शूलका नाश होता है। सेंधानमक, अदरक तथा हींग मिला कर वटक __(६१८३) रास्नादिपयः (१) (बरे) बना लें और उन्हें मन्दाग्नि पर तिलके तेलमें ( वृ. मा. । योनि.) तल लें।
रास्नाश्वदंष्ट्राषकैः शृतं शूलहरं पयः । इन्हें यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे
रास्ना, गोखरु, और बासेके साथ दूध सिद्ध हनुस्तम्भ नष्ट होता है।
करके पीनेसे योनिशूल नष्ट होता है । (६१८१) राजिकादिशिखरिणीयोगः (प्रत्येक ओषधि १ तोला । दूध २४ तोले।
(वृ. नि. र. । अरुचि.) पानी ९६ तोले । सबको एकत्र मिलाकर पकावें। राजिका जीरको कुष्ठो भृष्टहिङ्गु च नागरम् । जब पानी जल जाए तो दूधको छान लें।) सैन्धवं दधि गोः सर्व वस्त्रपूतं प्रकल्पयेत् ॥ (६१८४) रास्नादिपयः (२) तावन्मानं क्षिपेत्तत्र यथा स्याद्रुचिरुत्तमा । (यो. र. ; वृ. नि. र. । स्त्रीरोगा.) तक्रमेतद्भवेत्सद्यो रोचनं वह्निदीपनम् ॥
रास्नाश्वगन्धाकृषकों निशूलहरं पयः । राई, जीरा, कूठ (मीठा), भुनी हुई हींग, | गुडूचीत्रिफलादन्तीक्वाथैश्च परिषेचनम् ॥ सेठ और सेंधा नमक समान भाग लेकर चूर्ण |
रास्ना, असगन्ध और बासेके साथ दूध बनावें । तदनन्तर कपड़ेसे छने हुवे गायके दहीमें
पकाकर पीनेसे योनिशूल नष्ट होता है । यथारुचि यह चूर्ण मिला लें।
(प्रत्येक ओषधि १ तोला; दूध २४ तोले, ___इसे पीनेसे रुचि बढ़ती और अग्नि दीप्त पानी ९६ तोले; सबको एकत्र मिलाकर पकावें। होती है।
| जब पानी जल जाय तो दूधको छान लें।) .
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४६२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
योनिशूलमें गिलोय, हर, बहेड़ा, आमला, | उदर रोग, अरुचि, रक्तपित्त, कफ, उन्माद, प्रमेह, और दन्तीके काथसे योनिको धोना भी हितकर है। आध्मान और हनुग्रहका नाश होता है। (६१८५) रास्नादिवस्तिः
(६१८६) रास्नादिमर्दनम् ( सुश्रुत स. । चि. अ. ३८)
(हा. सं. । स्था. ३ अ. ४ )
रास्ना विशाला च सुराहकुष्ठं रास्नारग्वधवर्षाभूकटुकोशीरवारिदैः ।
शिग्रवचानागरकं शताहम् । त्रायमाणामृतारक्तापश्चमूलविभीतकैः ।।
अम्लेन पिष्टा वपुषं विमर्थ सबलैः पालिकैः क्वाथः कल्कस्तुमदनान्वितैः।
खल्ली विषूचीषु निवारयन्ति ॥ यष्टयावमिसिसिन्धृत्यफलिनीन्द्रयवाहयैः॥
रास्ना, इन्द्रायण, देवदारु, कूठ, सहजनेकी रसाअनरसक्षौद्राक्षासौवीरसंयुतैः ।
छाल, बच, सेांठ और सोया समान भाग लेकर युक्तो बस्तिः सुखोष्णोऽयं मांसशुक्रवलौजसाम्॥
एकत्र मिलाकर सबको कांजीके साथ पीस लें। आयुषोऽग्नेश्चसंस्कर्ताहन्तिचाशु गदानिमान् । इसकी मालिश करनेसे विचिकाका खल्लीगुल्मासृग्दरवीस मूत्रकृच्छ्रक्षतक्षयान् ॥
शूल* नष्ट होता है। विषमज्वरमीसि ग्रहणीं वातकुण्डलीम् ।
(६१८७) रास्नाद्यङ्गमदनम् जानुजङ्घाशिरोबस्तिग्रहोदावर्त्तमारुतान् ॥
(ग. नि. । अजीर्णा. ६) वातासक्शराष्ठीलाकुक्षिशूलोदरारुचीः।
रास्ना पत्रागुरू मांसो कुष्ठं शिग्रुत्वचो वचा। रक्तपित्तकफोन्मादप्रमेहाध्मानहृद्ग्रहान् ।।
श्रेष्ठमम्लेन सम्पिष्टं विषूच्यामङ्गमर्दनम् ।। , रास्ना, अमलतास, पुनर्नवा, कुटकी, खस,
रास्ना, तेजपात, अगर, जटामांसी, कूठ, नागरमोथा, त्रायमाना, गिलोय, मजीठ, पञ्चमूल,
सहजनेकी छाल, बच और सफेद खदिर (खैरसार) बहेड़ा और खरैटी ५-५ तोले; इनका काथ तथा
समान भाग ले कर सबको कांजीमें पीस लें । मदनफल ( मैनफल ), मुलैठी, सौंफ, सेंधानमक,
- हैजेमें शरीर पर इसकी मालिश करनी फूलप्रियंगु, इन्द्रजौ और रसौतका कल्क एवं
चाहिये। ईखका रस, शहद, मुनक्काका रस और सौवीरक
___( यह योग खल्लीशूलमें उपयोगी है ।) काजी एकत्र मिला कर मन्दोष्ण करके उसकी बस्ति देनेसे मांस, शुक्र, बल, ओज, आयु और
(६१८८) रास्नाद्युदर्तनम् अग्निकी वृद्धि होती तथा गुल्म, प्रदर, वीसर्प, मूत्र.
(व. से. । शोथा.) कृच्छू, क्षतक्षय, विषम ज्वर, अर्श, ग्रहणी, वात- | *खल्ली-हैजेमें होने वाली हाथ पैरों कुण्डली, जानुग्रह, जवाग्रह, शिरोग्रह, बस्तिग्रह, | आदिकी ऐंठन और शिराओंके तनावको “खल्ली" उदावर्त, वायु, वातरक्त, शर्करा, अष्ठीला, कुक्षिशूल, ! कहते हैं ।
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मिश्रप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
रास्नापार्कत्रिफलाविडङ्गं
. . . इससे अर्शके मस्सों को बार बार स्वेदित शिग्रुत्वङ्मूषिककणिका च ।
करनेसे वेदना शान्त होती और मस्से नष्ट हो निम्बार्कजो व्याघ्रनखः समूळ
जाते हैं। सुवर्चिका तिक्तकरोहिणी च ॥
(६१९०) रोचनादिचूर्णम् सकाकमाची बृहती सकृष्णा
(वं. से. । नेत्र रो.) पुनर्नवा नागरचित्रकैश्च । उद्वर्तनं शोथिषु मूत्रपिष्टं
रोचनाक्षारतुत्थानि पिप्पल्यः क्षौद्रमेव च । शस्तं तथा गोसलिलेन सेकः ॥
प्रतिसारणमे कैकं भिन्ने लगण इष्यते ॥ रास्ना, बासा, आककी जड़की छाल, हर्र, ___गोरोचन, जवाखार, नीलाथोथा, और पीपल बहेड़ा, आमला, बायबिडंग, सहजनेकी छाल,
यबिटंग महंजनेकी छाल मेंसे किसी एकके चूर्णको शहदमें मिला लें । चूहाकन्नी, नीमकी छाल, आककी छाल, नख नामक जब लगण* फूट जाय तो उस पर इसे सुगन्ध द्रव्य, मूर्वा, सज्जी, कुटकी, मकोय, कटेली, | मलना चाहिये । पीपल, पुनर्नवाकी जड़, सेांठ और चीता समान
(६१९१) रोधाद्याश्चोतनम् भाग लेकर सबको गोमूत्रमें पीस लें।
(वा. भ. । उ. अ. १४) । इसे शोथ वाले रोगके शरीर पर मलना
रोधसैन्धवमृद्वीकामधुकैश्छागलं पयः । चाहिये।
शृतमाश्चोतनं योज्यं रुजाराग विनाशनम् ॥ शोयस्थान पर गोमूत्रका सेवन भी करना हितकारी है।
लोध, सेंधा नमक, मुनक्का और मुलैठीके
साथ बकरीका दूध पकाकरे आंखमें डालनेसे पीड़ा (६१८९) रास्नाद्यपनाहः
और लाली नष्ट होती है। (ग. नि. । अर्शा.)
(प्रत्येक ओषधि १ तोला, दूध ६४ तोले, रास्नामेरण्डमूलं च मधुकं देवदारु च । यवचूर्णेन युक्तानि क्षीरेणालोडय साधयेत् ॥
पानी २५६ ताले; एकत्र मिलाकर पानी जलने तेनोपनाहं कुर्वीत स्वेदयेच पुनः पुनः ।
तक पकावें और छान लें।) तेनाशीसि शमं यान्ति वेदना विनिवर्तते ॥ अलगण-नेत्रोंके पलकमें बेरके बराबर
रास्ना, अरण्डकी जड़, मुलैठी, देवदारु और | एक गांठ हो जाती है, उसमें पीड़ा नहीं होती, जौ; इनका चूर्ण समान भाग लेकर सबको एकत्र परन्तु खाज आती है तथा वह कठिन होती है और मिला लें और उसे दूधमें पकाकर पुलटिस बना लें। स्वयं नहीं पकती।
इति रकारादिमिश्रप्रकरणम्
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४६४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रकारादि
अथ लकारादिकषायप्रकरणम्
(६१९२) लक्ष्मणामूलयोगः लघु पञ्चमूल (शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, कटेली, (यो. र. ; ग. नि. । वन्ध्या . ; यो.
| बडी कटेली, गोखरु ) का या जौकी भूसीका त. । त. ७५)
क्वाथ पिलाने और उसीका अवसेक करनेसे पित्तज
वीसर्प नष्ट होता है। क्षीरेण लक्ष्मणायास्तु शिफां सम्यग्दिनत्रयम् ।
लघुपुनर्नवादिकाथः पीत्वा ऋतुमती नारी वन्ध्या शब्दं जहाति सा॥
(वृ. यो. त. । त. १५० ) यदि ऋतुमती स्त्री ३ दिन तक लक्ष्मणाकी ___प्र. स. ३८५० “पुनर्नवादि क्वाथः" (६) जड़को दूधमें पीस कर पिये तो बन्ध्यत्व नष्ट हो | देखिये । । जाता है।
(६१९५) लघुमञ्जिष्ठादिक्वाथः (१) (६१९३) लघुपञ्चमूलयोगः (वै. र. । वातरक्ता. ; वृ. यो. त. । त. ९१ :
।
यो. त. । त. ४१) ( वै. म. र. । पटल ७)
मअिष्ठोग्रावरातिक्तानिशानिम्बामृतामरैः । ज्वरेषु मूत्रकृच्छं चेत् कुमारीस्वरसं पिबेत् । सत्रिवृत्त्वदिरैः काथः सर्वकुष्ठानिलामृजे ॥ कनीयः पञ्चमूलं वा गुह्यमेतचिकित्सितम् ।।
____ मजीठ, बच, हर्र, बहेड़ा, आमला, कुटकी, यदि ज्वरमें मूत्रकृच्छू हो जाय तो घृत- | हल्दी, नीमकी छाल, गिलोय, देवदारु, निसोत, कुमारीका रस या लघुपञ्चमूलका काथ पिलाना | और खैरसार समान भाग लेकर काथ बनावें। चाहिये।
___ यह काथ हर प्रकारके कुष्ठ और वातरक्तको यह एक गुप्त प्रयोग है।
नष्ट करता है। (६१९४) लघुपञ्चमूलादिकाथः
लघुमञ्जिष्टादिकाथः (२) ( यो. र. । विसर्पा.)
(वै. र. । कुष्ठा. ; वृ. यो. त. । त. १२०;
___यो. र. । वातरक्ता.) कनीयः पञ्चमूलस्य यववल्कलस्य वा।
प्र. सं. ४९८१ "मञ्जिष्ठादि काथः (लघु)" कषायः पित्तवीस पाने सेकेऽपि शस्यते ॥ । (६) देखिये ।
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कषायपकरणम्
चतुर्थों भागः
लघुमधुकादिफाण्ट: पीसकर पीने और अनभिष्यन्दि आहार करनेसे
(यो. र. । तृष्णा.) | अपस्मार नष्ट हो जाता है। प्र. सं. ४९९९ " मधुकादि फाण्ट: " (२) (६१९८) लजालुयोगः (२) देखिये।
( यो. त. । त. ७६ ) लघुमाषादिकापः लज्जालुधातकी पुष्पमुत्पलं मधुलोधकम् । (ग. नि. । वाता. २४ ) जलस्थया स्त्रिया पीतं गर्भपातं निवारयेत् ।। प्र. सं. ५०३४ "माषादिकाथः” देखिये ।। पततं स्तम्भयेद्गर्भ कुलालकरमृत्तिका ॥ (६१९६) लघुरास्नादिकाथः (१) ।
लज्जावन्तीकी जड़, धायके फूल, नीलोफर,
| मुलैठी और लोध समान भाग लेकर काथ बनावें। ( हा. सं. । स्था. ३ अ. २) रास्नात्रिकण्टशतपर्वमहौषधैश्च
यदि स्त्रो जल में खड़ी हो कर इसे पिये तो __ भार्गीसपुष्करघनसुरदारुधान्यैः।।
गिरता हुवा गर्भ रुक जाता है। काथो हितः सकलमारुतजिज्ज्वरेषु
... बरतन बनाते हुवे कुम्हारके हाथोंमें जो मिट्टी स्यात् सन्निपात प्रभवेश्वतिदारुणेषु ॥ | लग जाती है उसे पीनेसे भी गर्भपात रुक जाता है। रास्ना, गोखरु, बांस, सेांठ, भरंगी, पोखर
(६१९९) लज्जावत्यादियोगः मूल, नागरमोथा, देवदारु और धनिया समान भाग ___(रा. मा.। स्त्रीरोगा.) लेकर काथ बनावें।
लज्जावतीशाल्मलीधातकीभि- यह काथ वातज और अति दारुण सन्निपात नीलाम्बुजक्षौद्रपयोन्विताभिः । ज्वरको नष्ट करता है।
पीताभिरन्तर्जलमास्थितायाः लघुरास्नादिक्काथः (२) ____ स्त्रियो न गर्भस्य भवेन्निपातः ॥ (यो. चि. म. । अ. ४ ; वृ. नि. र. । वातव्या.) लज्जावन्तीकी जड़, सेभलकी छाल, धायके
प्र. सं. ५८९० " रास्नापञ्चकम्” देखिये। फूल और नील कमलको दूधमें पीस कर शहद ___ (६१९७) लज्जालुयोगः (१) मिला कर जलमें खड़े हो कर पीनेसे गर्भपात रुक
(ग. नि. । अपस्मारा.) जाता है। प्रातरौषधकाले तु संपिबेनियमस्थितः। (६२००) लवङ्गादिक्वाथः आजेन पयसा पिष्टां कृताअलिशिफां बुधः॥ (यो. र.; वृ. नि. र. । अजीर्णा. ) अपस्मारविनाशाय निरभिष्यन्दि भोजनम् ॥ लवङ्गपथ्ययोः क्याथः सैन्धवेनावधलितः।
प्रातः काल बकरीके दूधर्मे लज्जावन्तीकी जड़ । पीतः प्रशमयत्याशु त्वजीर्ण रेचयत्यपि ॥
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४६६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि
लौंग और हर्र समान भाग (१-१ तोला) ल्हसन, भरंगो, गूगल, सोंठ और देवदारु ले कर क्वाथ बनावें ।
समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । - इसमें सेंधा नमकका चूर्ण मिलाकर पीनेसे यह काथ कफ और वायुको नष्ट करता तथा विरेचन होता और अजीर्ण शीघ्र ही नष्ट हो | जठराग्निको बढ़ाता है । जाता है।
(६२०४) लशुनादिक्वाथः (२) (६२०१) लशुनयोगः (१)
( यो. र. ; वृ. नि. र. । सन्निपाता.) (व. से. । वातव्या.) लशुनं तितकं काण्डं भार्गी चातिविषा तथा। पिष्ट्वा सुसूक्ष्मं लशुनस्य कन्दं नरमूत्रेण च क्याथः सभिपाते सुदारुणे ॥ घृतेन लिह्याघृतभोजनाशी ।
___ल्हसन, चिरायता, भरंगी और अतीस तस्य प्रणश्यन्ति हि वातरोगाः
| समान भाग लेकर सबको मनुष्यके मूत्रमें पकाकर संस्कारहीनात्पुरुषादिवार्थः॥
काथ बनावें। लहसनको अत्यन्त बारीक पीसकर घृतमें
यह क्वाथ घोर सन्निपात ज्वरको नष्ट मिलाकर खाने और घृतयुक्त भोजन करनेसे वातज
करता है। रोग नष्ट होते हैं ।
(६२०५) लशुनादिस्वरसः (६२०२) लशुनयोगः (२) |
(व. से. ; वृ. नि. र. । कर्णा. ) (व. से. । अपस्मारा.)
| लशुनाकशिगूणां सुरङ्गया मूलकस्य च । तैलेन लशुनं सेव्यं पयसा च शतावरी।।
कदल्याः स्वरसः श्रेष्ठः कदूष्णः कर्णपूरणे ॥ ब्राह्मीरसश्च मधुना सर्वापस्मारभेषजम् ॥ तेलके साथ ल्हसन या दूधके साथ शतावर
ल्हसन,, अदरक, सहजना, मकोय, मूली अथवा ब्राह्मीके रसमें शहद मिलाकर सेवन
और केला; इनमें से किसी एकके स्वरसको मन्दोष्ण
करके कानमें भरनेसे कर्णशूल नष्ट होता है । करनेसे अपस्मार नष्ट होता है ।
(६२०६) लाक्षाकूष्माण्डकल्कः (६२०३) लशुनादिक्वाथः (१) (वै. म. र. । पट. १२)
(वृ. नि. र. । क्षयरोगा. ) लशुनबर्बरगुग्गुलुनागर
कूष्माण्डकगिरोत्थेन रसेन परिपेषितम् । विबुधदारुयुतैः शृतमम्बु यत् ।
लाक्षाकर्षद्वयं पीत्वा जयेद्रक्तक्षयं तथा ॥ ज्वलयति ज्वलनं कफकोपहत्।
पेठे ( कुम्हेड़े ) के गूदेके रसमें २॥ तोले पवनमाशु जयत्यतिगर्वितम् ॥ लाखको पीस कर पीनेसे रक्तक्षय नष्ट होता है ।
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कषायप्रकरणम] चतुर्थों भागः
४६७ (६२०७) लाक्षादिगणः | कटुरोहिणीचित्रकचिरविल्लहैमवत्य इति दशे( सु. सं. । सू. अ. ३८)
मानि लेखनीयानि भवन्ति ।
___नागरमोथा, कूर, हल्दी, दारुहल्दी, बच, लाक्षारेवतकुटजाऽश्वमारकट्फलहरिद्रा
- अतीस, कुटकी, चीता, करन और सफेद बच । द्वयनिम्बसप्तच्छदमालत्यस्त्रायमाणा चेति । ।
| ये दश ओषधियां लेखनीय हैं । कषायस्तिक्तमधुरः कफपित्तातिनाशनः ।
(६२१०) लोध्रादिक्वाथः कुष्ठक्रिमिहरश्चैव दुष्टबणविशोधनः॥
(च. सं. । प्रमेहा. ३४ ) लाख, अमलतास, इन्द्रजौ, कनेर, कायफल,
लोध्राभयाकटफलमुस्तकानां हल्दी, दारुहल्दी, नीम, सतौना, मालती और ।
विडङ्गपाठार्जुनधन्वनानाम् । त्रायमाणा; इन ओषधियोंके समूहको लाक्षादिगण
कदम्बशालार्जुनदीप्यकानां कहते हैं।
विडङ्गदाधिवशल्लकीनाम् ।। ___लाक्षादिगण कषाय, तिक्त, मधुर, कफ पित्त चत्वार एते मधुना कषायाः नाशक, कुष्ट और कृमिहर तथा दुष्ट बण
कफप्रमेहेषु निषेवणीयाः ॥ शोधक है।
(१) लोध, हर्र, कायफल और नागरमोथा (६२०८) लाजादिक्वाथ:
(२) बायबिडंग, पाठा, अर्जुन और धामन (वृ. नि. र. । दाहा.)
(३) कदम्बकी छाल, शाल, अर्जुन और
अजवायन; लाजाबचन्दनोशीरक्वाथोन्तः शर्करान्वितः ।
(४) बायबिडंग, दारुहल्दी, धव और शल्लकी; शीतः पीतो निहन्त्याशु दाहं पित्तज्वरं उपरोक्त चारों प्रयोग कफज प्रमेहको नष्ट
नृणाम् ॥ करते हैं। इनके काथमें शहद मिला कर सेवन धानकी खील, लाल चन्दन और खस समान | करना चाहिये। भाग ले कर काथ बनावें।
(६२११) लोधादियोगः इसे ठण्डा करके खांड मिला कर पीनेसे दाह
(व. से. । अतिसारा.) और पित्तज्वर नष्ट होता है।
क्षीरपिष्टं पिबेल्लो, यष्टयाहौत्पलमिश्रितम् ।
रक्तातिसारशमनं शर्करामधुयोजितम् ।। (६२०९) लेखनीयमहाकषायः
लोध, मुलैठी और नीलोत्पलको दूधमें पीस (च. सं. । सू. अ. ४)
कर उसमें खांड और शहद मिला कर पीने से रक्तामुस्तकुष्ठहरिद्रादारुहरिद्रावचातिविषा-तिसार नष्ट होता है ।
इति लकारादिकषायप्रकरणम्
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[लकारादि
अथ लकारादिचूर्णप्रकरणम् लघुगङ्गाधरचूर्णम्
(६२१४) लघुतालीसादिचूर्णम् (यो. र. । अतिसारा. ; वृ. यो. त. । त. ६४)
( हा. सं. । स्था. ३ अ. १२) प्र. सं. १२३१ "गङ्गाधरचूर्णम् ” देखिये। लघुगङ्गाधरचूर्णम्
तालीसपत्रं मरिचं च विश्वा ( शा. सं. । खं. २ अ. ६)
श्यामायुतं चोत्तरभागवृद्धया। प्रयोग संख्या १२३२ " गंगाधरचूर्णम् "
त्वपत्रकेणापि लवङ्गमेला देखिये।
क्षौद्रं कणा चाष्टगुणा सिता च ॥ (६२१२) लघुचित्रकादिचूर्णम् लिह्यात् प्रभाते श्वसने च कासे ( वृ. नि. र. । अजीर्णा.)
प्लीहारुचिपीनसछर्दिहिकाम् । दहनाजमोदसैन्धवनागरमरिचाम्लतक्रेण ।
शोफातिसारं ग्रहणीं च पाण्डु सप्ताहादग्निकरं यदर्शीनाशनं परं कथितम् ॥ .
क्षयं निहन्यात् क्षतजं च यक्ष्मम् ॥ चीतामूल, अजमोद, सेंधा नमक, सोंठ, और
तालीसपत्र १ भाग, काली मिर्च २ भाग, मिर्च समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । सोंठ ३ भाग, काली निसोत ४ भाग, दालचीनी
इसे खट्टी छाछके साथ सेवन करनेसे १ | ५ भाग, तेजपात ६ भाग, लौंग ७ भोग, इलासप्ताहमें जठराग्नि दीप्त हो जाती है और अर्शका | यची ८ भाग, पीपल ९ भाग और मिश्री सबसे नाश होता है।
आठ गुनी लेकर चूर्ण बनावें। ( मात्रा--३ माशे । )
___इसे शहदमें मिलाकर प्रातःकाल चाटनेसे (६२१३) लघुचेतकीयोगः ( यो. र. । रक्ताति.)
| श्वास, खांसी, प्लीहा, अरुचि, पोनस, छर्दि, हिक्का, लघुचेतकिजीरके समे
शोथ, अतिसार, ग्रहणी, पाण्डु, क्षय और क्षतज मृदुभृष्टे च सुचूर्णितेऽर्पिते ।
राजयक्ष्माका नाश होता है। सहतण्डुलवारिणा मतेऽति
( मात्रा--१। तोला ) मृतिघ्ने इति सिद्धयोग एषः॥
लघुतालीसाद्यं चूर्णम् छोटी चेतकी (काली) हर्र और जीरा समान भाग लेकर दोनोंको जरा भून कर चूर्ण बना लें।
(ग. नि. | चूर्णा.) इसे चावलोंके पानीके साथ सेवन करनेसे ___ प्रयोग संख्या २३१० " तालीसादिचूर्णम् " अतिसार नष्ट होता है। यह एक सिद्ध योग है। देखिये ।
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चूर्णप्रकरणम् ] चतुर्थों भागः
४६९ (६२१५) लघुवृद्धदारुकसमं चूर्णम् मांद्य नष्ट होता और जठराग्नि इतनी प्रबल हो
(ग. नि. । श्लीपदा. २) जाती है कि आमिष तथा घृतादि गुरु अन्न पान पिप्पलीत्रिफलादारुनागरं सपुनर्नवम् ।
| भी शीघ्र ही पच जाता है। भागैद्विपालिकैरेषां तत्सम वृद्धदारुकम् ॥ (६२१७) लघुसुदर्शनचूर्णम् काझिकेन पिबेच्चूर्ण कर्षमात्रप्रमाणतः। (यो. र. ; वृ. नि. र. ; वै. र. । ज्वरा. ; वृ. जीर्ण चापरिहारं स्याद्भोजनं सार्वकामिकम् ॥
यो. त. । त. ५९) श्लीपदं वातरोगांश्च हन्यात्प्लीहानमेव च । अग्निं च कुरुते घोरं भस्मकं च नियच्छति ।।
गुडूची पिप्पलीमूलं कणा तिक्ता हरीतकी ।
नागरं देवकुसुमं निम्बत्वक चन्दनं तथा ॥ __ पीपल, हर, बहेड़ा, आमला, देवदारु, सोंठ
सर्वचूर्णस्य चाधीशं कैरात प्रक्षिपेत्सुधीः । और पुनर्नवा १०-१० तोले तथा विधारामूल
एतत्सुदर्शनं नाम्ना लघु दोषत्रयापहम् ।। सबके बराबर लेकर यथा विधि चूर्ण बनावें ।
ज्वरांश्च निखिलान्हन्यानात्र कार्या विचारणा॥ . मात्रा-११ तोला ।
गिलोय, पीपलामूल, पीपल, कुटकी, हर्र, सोंठ, इसे कांजीके साथ सेवन करनेसे स्लीपद, लौंग, नीमकी छाल और सफेद चन्दन १-१ भाग वातरोग, प्लीहा और भस्मक रोग नष्ट होता तथा तथा चिरायता सबसे आधा लेकर चूर्ण बनावें । अग्नि दीस होती है।
___ यह चूर्ण त्रिदोषनाशक है और समस्त __ औषध पचने पर यथेच्छ आहार करना चाहिये । ज्वरोको नष्ट करता है। किसी विशेष परहेजकी आवश्यकता नहीं है।
(मात्रा- ३ माशे ।) ( व्यवहारिक मात्रा-३ माशे। ) (६२१६) लघुवैश्वानरचूर्णम्
(६२१८) लघुहिङ्ग्वादिचूर्णम् (वृ. यो. त. । त. ७१)
( यो. र.; वृ. नि. र. । उदररोगा.) सिन्धूत्थपथ्यामगधोद्भववदिचूर्ण
| हिङ्गु त्रिकटुकं कुष्ठं यवक्षारोऽथ सैन्धवम् । मुष्णाम्बुना पिबति यः खलु नष्टवाहिः। मातुलुगरसेनैव प्लीहशूलहरं परम् ॥ तस्याऽऽमिषेण सघृतेन सहान्नपान हींग, सोंठ, मिर्च, पीपल, कूठ, जवाखार
भस्मी भवत्यशितमात्रमपिक्षणेन ॥ और सेंधा नमक समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
सेंधा नमक, हरं, पीपल और चीतामूल इसे बिजौ रे नीबूके रसके साथ सेवन करनेसे समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
प्लीहा और शूलका नाश होता है। इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे अग्नि- ( मात्रा-१॥ माशाः।)
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४७०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि ___(६२१९) लध्वीमाईचूर्णम् इसे शहद और खांडके साथ सेवन करनेसे (वृ. नि. र. । अतिसारा.)
आमातिसार और शूल नष्ट होते हैं । लध्वीमाईमोचरसमाम्रबीजाश्मभेदकम् ।।
(६२२१) लवङ्गादिचूर्णम् (१) धातकी पुष्पकं चैव तथातिविषकं स्मृतम् ।। ( भै. र. । राजयक्ष्मा. ; र. र. ; यो. र । सर्वाणि शाणमानानि पृथक ग्राह्याणि पण्डितैः। राजयक्ष्मा. ; वै. र. । अरोचका. ; च. द. । अहिफेनं द्विशाणं स्याद्गैरिकं च द्विशाणकम् ।। राज; वृ. यो. त.। त. ८५; शा. सं । सूक्ष्मचूर्ण विधायाथ माषमानं तु दापयेत् । ख. २ अ. ६; यो. चि. म. । अ. तण्डुलानां जले नैव ह्यामशूलातिसारके ।।
२, ग. नि. । चूर्णा. ३) रक्तजेपि विशेषेण देयं सर्वातिसारके ।
लवङ्गकक्कोलमुशीरचन्दनं प्रेमाख्य पण्डितेनैव ह्यनुभूतं पुनः पुनः ।। नतं सनीलोत्पलजीरकं समम् ।
छोटी माई, मोचरस, आमकी गुठलीकी गिरी, त्रुटि: सकृष्णागुरुभृङ्गकेशरं पखानभेद, धायके फूल और अतीस १-१ शाण कणा सविश्वा नलदं सहाम्बुदम् ॥ (प्रत्येक ३॥ माशे ), तथा अफीम और गेरु
अहीन्द्रजातीफल वंशलोचना २-२ शाण ले कर यथा विधि चूर्ण बनावें ।
सिताष्टभागा' सममूक्ष्मचूर्णितम् । मात्रा-११ माषा ।
मुरोचनं तर्पणमग्निदीपनं ( व्यवहारिक मात्रा-४ रत्ती।)
बलप्रदं वृष्यतमं त्रिदोषनुत् ॥ इसके सेवनसे आमशूल, अतिसार और विशे- उरोविबन्धं तमकं गलग्रहं षतः रक्तातिसार नष्ट होता है।
सकासहिकारुचियक्ष्मपीनसम् । यह प्रयोग अनेक बारका अनुभूत है। ग्रहण्यतीसारभगन्दराबुद अनुपान--चावलोंका पानी ।
प्रमेहगुल्मांश्च निहन्ति सत्वरम् ॥ (६२२०) लवङ्गचतुःसमम्
१ कृष्णजीरकमिति पाठभेदः । १ जीरक (भै. र. । बाल रोगा., ज्वराति.)
द्वयमिति च पाठः । जातीफलं त्रिदशपुष्पसमन्वितश्च ___ जोरश्च टङ्गणयुतं चरकैः प्रयुक्तम् ।
२' जल स कृष्णा ' इति पाठान्तरम् । चूर्णानि माक्षिकसितासहितानि लीवा
३ सहैलया इति पाठान्तरम् । सामातिसारमखिलं गुरु हन्ति शूलम् ॥ ४ तुषारजातीफलमिति पाठान्तरम् । ४
जायफल, लौंग, जीरा और सुहागा समान कर्पूरजातीफलमिति च पाठः। भाग लेकर चूर्ण बनावें।
५ " सितार्द्धभागा" इति पाठान्तरम् ।
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चूर्णप्रकरणम् ]
लौंग, कंकोल, खस, सफेद चन्दन, तगर, नीलोत्पल, सफेद जीरा, छोटी इलायची, अगर, दालचीनी, नागकेसर, पीपल, सोंठ, जटामांसी, नागरमोथा, अनन्तमूल, जायफल और बंसलोचन १ - १ भाग तथा मिश्री ८ भाग ले कर चूर्ण बनावें ।
चतुर्थी भागः
यह चूर्ण रोचक, तर्पण, अग्निदीपन, बलकारक, अत्यन्त वृष्य और त्रिदोषनाशक है तथा उरोविबन्ध ( छातीकी जकड़ाहट ), तमक श्वास, गलग्रह, खांसी, हिचकी, अरुचि, यक्ष्मा, पीनस, ग्रहणी, अतिसार, भगन्दर, अर्बुद, प्रमेह, और गुल्मको शीघ्र ही नष्ट कर देता है ।
(६२२२) लवङ्गादिचूर्णम् (२)
( धन्व. र. र. । ग्रहण्य. )
लवङ्गातिविषामुस्तं वि पाठाथ शाल्मली । जीरकं घातकीपुष्पं लोवेन्द्रयवबालकम् ॥ धान्यकं सर्जकं शृङ्गी पिप्पली विश्वभेषजम् । समङ्गा यावशुकं च सैन्धवं सरसाञ्जनम् ॥ समभागानि चैतानि भक्षयेत्प्रातरुत्थितः । शमयेदग्निमान्द्यञ्च सङ्ग्रहग्रहणीगदम् ॥ नानावर्णमतीसारं सशोथं पाण्डुकामलम् । santosi हन्ति कुष्ठं कोष्ठगतं ज्वरम् ॥
लौंग, अतीस, नागरमोथा, बेलगिरी, पाठा, भलकी छाल, जीरा, धायके फूल, लोध, इन्द्रजौ, सुगन्धवाला, धनिया, राल, काकड़ासिंगी, पीपल, सोंठ, मजीठ, जवाखार, सेंधा नमक और रसौत समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
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४७१
इसके सेवन से अग्निमांद्य, संग्रहणी, नानावर्ण का अतिसार, शोथ, पाण्डु, कामला, अष्टीलिका, कुष्ठ और ज्वरका नाश होता है।
इसे प्रातःकाल सेवन करना चाहिये । (६२२३) लवङ्गादिचूर्णम् (३) (भै. र. । गुल्मा. ) लवङ्गदन्तीत्रिवृता यमानी शुण्ठीवचाधान्यक चित्रकाणि । फलत्रयं मागधिका च कट्वी
द्राक्षा चवी गोक्षुरयावशुकम् ॥ एलाजमोदा कुटजस्य बीजं
विधाय चूर्णानि समान्यमीषाम् । खादेत्ततो मापत्रयं हिताशी
कोष्णं जलं चानुपिवेत् प्रयत्नात् ॥ निहन्ति गुल्मं सरुजं सदाह
मशांसि शोथांश्च तथामवातम् । सर्वोदराण्येव चिरोत्थितानि
चूर्ण लवङ्गादिकमाशु हन्ति ॥ लौंग, दन्तीमूल, निसोत, अजवायन, सोंठ, बच, धनिया, चीता, हर्र, बहेड़ा, आमला, पीपल, कुटकी, मुनक्का, चव, गोखरू, जवाखार,, इलायची, अजमोद और इन्द्रजौ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
मात्रा - ३ माशा |
अनुपान - उष्ण जल |
इसके सेवनसे पीड़ा और दाहयुक्त गुल्म, अर्श, शोथ, आमवात और समस्त पुराने उदरविकार शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ।
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વર્
सशर्करं चूर्णमिदं प्रमेहान्
(६२२४) लवङ्गादिचूर्णम् (४) ( यो. चि. म. । अ. २ ) लङ्गकङ्कोकणा महौषधं सचन्दनैला घनवंशलोचनम् । उशीरकृष्णागरु नागकेसरैः
पलानि जातीफल चन्द्रमांसिका ॥ शतावरी गोक्षुरकाश्वगन्धा
सत्वं गुडूच्यास्तगरं समांशम् ।
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
होते हैं ।
संसेव्यतं विंशतिरत्र हन्ति ॥
लौंग, कंकोल, पीपल, सोंठ, सफेद चन्दन, इलायची, नागरमोथा, बंसलोचन, खस, अगर, नागकेसर, जायफल, कपूर, जटामांसी, शतावर, गोखरु, असगन्ध, गिलोय का सत और तगर समान भाग तथा खांड सबके बराबर ले कर चूर्ण बनावें ।
इसके सेवन से २० प्रकारके प्रमेह नष्ट
(६२२५) लवङ्गादिचूर्णम् (५) (बृ. नि. र. । अजीर्णा . ) शाणद्वयं स्यात्तु लवङ्गमेला
जातीफलं कोल सुनागफेनम् । माप्रमाणं सकलं विचूर्ण्य
शाणं कवोष्णेन जलेन पीतम् ॥ विषूचिकां हन्ति सुदारुणां च
शूलातिसारौ वमथुः प्रसक्तः ॥ लौंग और छोटी इलायची २-२ शाण ( प्रत्येक ७॥ माशे), जायफल ७॥ माशे और अफीम १। माशा लेकर चूर्ण बनावें ।
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[ लकारादि
मात्रा - - ३ ॥
माशे ।
अनुपान -- मन्दोष्ण जल ।
इसके सेवन से भयंकर विसूचिका तथा शूल, अतिसार और वमनका नाश होता है ।
( व्यवहारिक मात्रा - १ से २ माशे तक ) लवङ्गादिचूर्णम् (वृड) (६) ( यो. चि. म. । अ. २ ) रस प्रकरण में देखिये |
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(६२२६) लवङ्गाद्यं चूर्णम् (१) ( ग. नि. | चूर्णा. ) लवङ्गकङ्कोलकणावराङ्ग तालीसचन्यत्रुटिग्रन्थिकौन्त्यः । शृङ्गलवालुं लवली तुरङ्गी सकेसरा सोषण पत्रिका च ॥ द्विदाडिमं तिन्तिडिकोलमम्लं
रोधत्वचा तूणभवं च तैलम् । • कषशमानानि पलं च शुण्ठ्याः सिता समांशा कलचन्द्रसज्ञः ॥ लवङ्गनामा रुचिपक्तिदाता
सुगन्धी : क्षयरोगहन्ता । बलाशिसंवर्धन एष चूर्णो
वरः प्रयोज्यो नृपतेर्हिताय ॥ लौंग, कंकोल, पीपल, दालचीनी, तालीसपत्र, चव, छोटी इलायची, पीपलामूल, रेणुका, काकड़ासिंगी, एलबालुक, लवली ( हरफारेवड़ी), असगन्ध, नागरमोथा, काली मिर्च, जावत्री, अनारदाना, अनारकी छाल, तिन्तडीक, खड्डे बेर, लोध और
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चूर्णप्रकरणम् ]
.. चतुर्थों भागः
४७३
तुनका तेल १।-१॥ तोला, सोंठ ५ तोले और (६२२८) लवणत्रितयादिचूर्णम् मिश्री सबके बराबर लेफर यथा विधि चूर्ण - (शा. सं. । खं. २ अ. ६) बनावें।
लवणत्रितयं क्षारौ शतपुष्पाद्वयं वचा। ___यह चूर्ण रोचक, अग्निवर्द्धक, सुगन्धी, हृय,
अजमोदाजगन्धा च हपुषा जीरकद्वयम् ॥ क्षयनाशक, और बलवर्द्धक है । यह राजाओंको
मरिचं पिप्पलीमूलं पिप्पली गजपिप्पली । सेवन कराने योग्य औषध है।
हिङ्गश्च हिङ्गपत्री च सठी पाठोपकुश्चिका ॥
शुण्ठीचित्रकन व्यानि विडङ्गं चाम्लवेतसम् । (६२२७) लवङ्गाद्यं चूर्णम् (२)
दाडिमं तिन्तिडीकं च त्रिवृदन्ती शतावरी॥ (ग. नि. । चूर्णा.)
इन्द्रवारुणिका भार्गी देवदार्यवानिका । लवङ्गजातीफलपिप्पलीनां
कुस्तुम्बरुस्तुम्बरुणी पौष्करं बदराणि च ॥ भागं समं कर्षमितं प्रकुर्यात् । शिवा चेति समांशानां चूर्णमेकत्र कारयेत् । पलार्धमेकं मरिचस्य दद्या
भावयेदानेकरसैबीजपुररसैस्तथा ॥ त्पलानि चत्वारि महौषधस्य ।।
तत्पिबेत्सर्पिषा जीर्णमयेनोष्णोदकेन वा । सितासमं चूर्णमिदं प्रयोजये
कोलाम्भसा वा तक्रेण दुग्धेनौष्ट्रेण मस्तुना ।।
यकृत्प्लीहकटीशूलगुदकुक्षिहदामयान् । त्पसह्य रोगा-प्रबलान्निहन्यात् ।
अर्शीविष्टम्भमन्दाग्निगुल्माष्ठीलोदराणि च ।। कासक्षयारोचकमेहगुल्म
हिक्काध्मानश्वासकासाञ्जयेदेतन संशयः । मीसि चोग्रान्ग्रहणीप्रदोषान् ॥ एतैरेवौषधैः सम्यग् घृतं वा साधयेद्भिषक् ॥ हत्कण्ठनासावदनप्रबोधं
सेंधा नमक, काला नमक, बिड नमक, जवाकरोति सन्दीपयते च वह्निम् ॥ | खार, सजीखार, सौंफ, सोया, बच, अजमोद, लौंग, जायफल और पीपल, ११-१। तोलो,
बनतुलसी, हपुषा, सफेद और काला जीरा, काली मिर्च २॥ तोले; सोंठ २० तोले और मिश्री सबके
मिर्च, पीपलामूल, पीपल, गजपीपल, हिंगुपत्री,
होंग, कचूर, पाठा, कलौंजी, सोंठ, चीतामूल, चव, बराबर लेकर चूर्ण बनावें।
बायबिडंग, अम्लनेत, अनारदाना, तिन्तड़ीक, इसके सेवनसे खांसी, क्षय, अरुचि, प्रमेह, निसोत, दन्तीमूल, शतावर, इन्द्रायणकी जड़, गुल्म, अर्श, और संग्रहणीका नाश होता तथा | भरंगी, देवदारू, अजवायन, कुस्तुम्बरु, धनिया, हृदय, कण्ठ और मुख शुद्र हो जाता है एवं पोखरमूल, बेर और हर समान भाग लेकर चूर्ण अग्नि दीप्त होती है।
बनावें और उसे अदरक तथा बिजौ रे नीबूके रसकी (मात्रा-३-४ माशे।)
एक एक भावना देकर सुखा लें।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि
-
इसे घी, पुराने मद्य, उष्ण जल, बेरके काथ, (६२३०) लवणादियोगः (१) तक, ऊंटनीके दूध और मस्तुमें से किसी एकके (ग. नि. । उदरा. ३२) साथ सेवन करना चाहिये ।
लवणं राजिकामित्रं समं गोमूत्रमिश्रितम् । (मात्रा-२-३ माशे।)
त्रिशाणं हन्ति पीतं हि यकृत्प्लीहोदराण्यपि॥ यह चूर्ण यकृत, प्लीहा, कमरका दर्द, गुद-- सेंधा नमक और राई समान भाग लेकर रोग, उदर रोग, हृदोग, अर्श, विष्टम्भ, अग्निमांद्य चूर्ण बनावें। गुल्म, अष्ठीला, हिचकी, :अफारो, श्वास और इसे गोमूत्रके साथ सेवन करनेसे यकृत, खांसीको नष्ट कर देता है।
प्लीहा और उदर रोगांका नाश होता है । नोट-इन्हों ओषधियोंसे घृत सिद्ध करके मात्रा-३ शाण। भी सेवन कराया जा सफता है।
(६२३१) लवणादियोगः (२) लवणभास्कर चूर्णम् .... (व. से. । विषरोगा.) ( यो. त. । त. २४; ग. नि.। चूर्गा. : वृ. यो. लवणानि त्रिवदन्ती विशाला त्र्यूषण निशा । त. । त. ७१; यो. चि. म.। अ. २; वृ. नि. मञ्जिष्ठा मधुकं शृङ्ग ह्यगदः सर्वकर्मकत् ।। र. । अजीर्णा. )
पांचों नमक, निसोत, दन्तीमूल, इन्द्रायणकी प्रयोग संख्या ४८३३ " भास्करलवण
जड़, सोंठ, मिर्च, पीपल, हल्दी, मजीठ, मुलैठी और चूर्णम् ” देखिये।
अगर समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । (६२२९) लवणयोगः
यह अगद हर प्रकारके विषको नष्ट करता है।
( इसे पान, लेप, नस्य, आदि द्वारा प्रयुक्त ( वृ. मा. । शूला. ; वृ. नि. र.। शूला.)
करना चाहिये ।) लवणत्रयसंयुक्तं पञ्चकोलं सरामठम् । सुखोष्णेनाम्बुना पातुं कफशूले प्रदापयेत् ॥
(६२३२) लवणोत्तमादिचूर्णम्
(वृ. नि. र. ; भै. र. । अर्शी.; च. द. । अर्शो.; सेंधा नमक, काला नमक, बिड नमक, पीपल,
हा. सं. | स्था. ३ अ. ११) पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ और हींग समान भाग
लवणोत्तमवह्निकलिङ्गयवान् । लेकर चूर्ण बनावें ।
चिरबिल्वमहापिचुमर्दयुतान् । इसे मन्दोष्ण जलके साथ सेवन करनेसे जितिन मशिताललितान कफज शूल नष्ट होता है।
यदि मर्दितुमिच्छसि पायुगदान् ॥ लवणादिक्षारः
सेंधा नमक, चीता, इन्द्रजौ, जौ, करञ्जकी (व. से. । अर्शी.) | गिरी, और बकायनके बीज समान भाग ले कर प्रयोग सं. ७८ ' अर्कक्षार ' देखिये । चूर्ण बनावें ।
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चूर्ण प्रकरणम् ]
इसे सात दिन तक तक के साथ सेवन करनेसे अर्श नष्ट हो जाती है ।
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चतुर्थी भागः
( मात्रा - २ - ३ माशे । ) (६२३३) लशुनयोगः ( ग. नि. । उदररोगा . ) शुनं पिप्पलीमूलमभयां चैव भक्षयेत् । पिबेद्गोमूत्र गण्डूवं प्लीहरोगविमुक्तये ॥
लहसन, पीपलामूल और हर्र समान भाग ले कर सबको एकत्र पीस लें ।
इसे गोमूत्र के साथ सेवन करने से प्लीहा रोग नष्ट होता है।
(६२३४) लशुनाद्यं चूर्णम् ( वृ. नि. र. | अजीर्णा. ) लशुनजीरक सैन्धवसञ्चलं त्रिकटु मठचूर्णमिदं समम् । सपदि निम्बुरसेन विषूचिकां हरति भो रतिभोगविचक्षणे ॥ लहसन, जीरा, सेंधा, सञ्चल : (काला नमक), सोंठ, मिर्च, पीपल और हींग समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इसे नीबू के रसके साथ सेवन करने से विसूचिकाको तुरन्त आराम होता है ।
लाईचूर्णम् प्रकरण में देखिये |
(६२३५) लाक्षादिचूर्णम् (१) ( वा. भ. । चि. अ. १८ ) लाक्षादन्तीमधुरसावर द्वीपिपाठाविड प्रत्यक्पुष्पीत्रिकटुरजनी सप्तपर्णाटरूपम् ।
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४७८
रक्तानिम्बं सुरतरुकृतं पञ्चमूल्यौ च चूर्ण पीत्वा मासं जयति हितभुगव्यमूत्रेण कुष्ठम् ॥
लाख, दन्तीमूल, मूर्वा, हरे, बहेड़ा, आमला, चीता, पाठा, बायबिडंग, चिरचिटा ( अपामार्ग ), सोंठ, मिर्च, पीपल, हल्दी, सतौना, बोसा, मजीठ, नीम, देवदारु और दशमूल समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इसे गोमूत्र के साथ सेवन करने और पथ्यपूर्वक रहनेसे १ मासमें कुछ नष्ट हो जाता है ।
(६२३६) लाक्षादिचूर्णम् (२) ( यो र. । उरःक्षत व. से. । क्षतक्षय. ) लाक्षाचूर्ण सुष्ठुकृतं क्षौद्राज्येनान्वितं क्षीरम् । शमयति शोषोद्भूतं वमनं रक्तस्य सिद्धमिव ॥
दूध में शहद और घी मिलाकर उसके साथ लाखका चूर्ण सेवन करने से शोषजनित रक्तकी वमन नष्ट होती है।
(६२३७) लाक्षादियोग : (१) ( यो. र. । रक्तपिता; वृ. नि. र.; व. से । रक्तपित्ता. )
क्षीरेण लाक्षां मधुमिश्रितेन
प्रपीय जीर्णे पयसाऽन्नमद्यात् । सा निहन्याद्रुधिरं क्षतोत्थम् कान्तार्जुनानामथवापि कल्कः ॥ दूध में शहद मिलाकर उसके साथ लाखका चूर्ण फांकने और औषध पचने पर दूध भात खानेसे क्षतज रक्तस्राव शीघ्र ही बन्द हो जाता है ।
सफेद दूब और अर्जुन ( के बीजों ) का कल्क सेवन करने से भी रक्तस्राव चन्द हो जाता है ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ তাৰি (६२३८) लाक्षादियोगः (२) (६२४०) लाजादिचूर्णम् (ग. नि. । अर्शो.)
(वृ. मा. 1 बालरोगा.) लाक्षा हरिद्रा मञ्जिष्ठा मधुकं नीलमुत्पलम् ।। लाजा सयष्टिमधुकं शर्करा क्षौद्रमेव च । अजाक्षीरेण पीतानि रक्तजानां विनाशनम् ॥ तण्डुलोदकसंयुक्तं क्षिप्रं हन्ति प्रवाहिकाम् ॥
लाख, हल्दी, मजीठ, मुलैठी और नीलोत्पल धानकी खील, मुलैठी और खांड समान भाग समान भाग ले कर चूर्ण बनावें।
ले कर चूर्ण बनावें । इसे बकरी के दूबके साथ पीनेसे रक्तर्शिका
इसे शहदके साथ खिला कर अनुपानमें माश होता है।
चावलेांका पानी पिलानेसे बालकोंकी प्रवाहिका (६२३९) लागल्यादिचूर्णम् शीघ्रही नष्ट हो जाती है। ( वृ. नि. र. । वातरक्ता.)
लाविकाचूर्णम् लागल्याः कन्दचूर्ण त्रिकटुक
(र. रा. सु. । ग्रहण्य.) __ लवणो योगराजोभिमिश्र गव्येनालिद्य चूर्ण मधुघृत
रस प्रकरणमें देखिये। सहितं चाक्षमात्र हिताशी।
(६२४१) लोध्रादिचूर्णम् . नानारुक्पाददोषस्फुटन
( वृ. मा. । अतिसारा. ; वृ. नि. र. ; व. से. ; विमथनैमर्मजं तत्पकृष्टै
यो. र. ; भा. प्र. । अतिसा.) दुःसाध्यं वातरक्तं जयति स सलोध्रधातकीबियं मुस्ताम्रास्थिकलिङ्गकम् । नियतं कुष्ठमत्युग्ररूपम् ॥
पिबेन्माहिषतक्रेण पकातीसारनाशनम् ।। लागली ( कलियारी ) की जड़, सोंठ, मिर्च, |
लोध, धायके फूल, बेलगिरी, नागरमोथा, पीपल और सेंधा नमक समान भाग ले कर चूर्ण |
आमकी गुठली और इन्द्रजौ समान भाग ले कर बनावें ।
चूर्ण बनावें। ___ इसे योगराजगूगल में मिला कर उसे गायके घी और शहदके साथ खाने और पथ्यपूर्वक रहनेसे
इसे भैसके तक्रके साथ सेवन करनेसे पक्काअनेक प्रकारकी व्यथा, पैरोंका फटना, मर्मगत
तिसार नष्ट होता है। . पीड़ा आदि उपद्रवों युक्त धोर वातरक्त और कुष्ठका (६२४२) लोभ्रादियोगः (१) नाश होता है।
( यो. र.; वृ. नि. र. । बालरोगा.) चूर्णकी मात्रा--१। तोला । ( व्यवहारिक | लोध्रेण पिप्पली बाला घालकातिमृतौ हितः । मात्रा १॥-२ माशे ।)
श्रीरसो माक्षिकयुतो धातकी कुसुमैः समम् ।
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गुटिकाप्रकरणम्
चतुर्थो भागः
(१) लोध और छोटी पीपल समान भाग (६२४४) लोलिम्बराजचूर्णम् लेकर चूर्ण बनावें ।
(वै. र. । अग्निमांद्या.)
शुण्ठीवाणमिता कणार्णव मिता यह चूर्ण बालकोंके अतिसारको नष्ट करता है।
दीप्यायवान्योः क्रमाद्भागानां त्रितयं (२) श्रीवेष्ट (धूपसरल) और धायके फूल
द्वयं च लवणाद्भागः शिवैतत्समा। समान भाग ले कर चूर्ण बनावें ।
कोष्ठाटोपरुगामगुल्ममलहल्लोलिम्ब इसे शहदमें मिला कर चटानेसे बालकोंका राजोदितश्चूर्णोऽद्रीनपि भस्मसात्प्रकुरुते अतिसार नष्ट होता है।
किं भोजनं भोजनाः॥
सोंठ ५ भाग, पीपल ४ भाग, अजमोद ३ (६२४३) लोधादियोगः (२)
| भाग, अजवायन २ भाग, सेंधा नमक १ भाग तथा (यो. र. । अतिसारा.) हर्र १ भाग लेकर चूर्ण बनावें । लोधेन्द्रयवधान्याकधात्रीहीबेरमुस्तकम् । यह चूर्ण पेटके अफारे, शूल, आम, गुल्म मधुना लेहयेदालं ज्वरातीसारनाशनम् ॥ और मल को नष्ट करता है। लोध, इन्द्रजौ, धनिया, आमला, सुगन्धवाला
___ इसके प्रभावसे पर्वत भी पच जाता है फिर
| साधारण आहार की तो बात ही क्या है। और नागरमोथा समान भाग लेकर चूर्ण बनावें।
लौहाभयाचूर्णम् इसे शहदमें मिला कर चटानेसे बालकोंका
(रसें. चि. म. । अ. ९). . . . ज्वरातिसार नष्ट होता है।
रस ,प्रकरणमें देखिये। इति लकारादिचूर्णप्रकरणम्
- - - अथ लकारादिगुटिका-प्रकरणम् लघुकामेश्वरगुटी
लघुपानीयभक्तवटी ( यो. चि. म. । अ. ३)
(र. रा. सु. । अग्निमां) रस प्रकरणमें देखिये।
प्र. सं. ४३२६ पानीयभक्तं घटी (9) देखिये।
(६२४५) लघुसूरणमोदकः (१) लघुकामेश्वरमोदकः
(यो. र. । अर्शी. ) (धन्य. । वाजीक.i)
कणामरिचविश्वानिसूरणैस्तु गुडैः क्रमात् । रस प्रकरणमें देखिये।
| द्विगुणैर्मोदकोऽग्निः परं पाचनदीपनः ।।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि
पीपल १ भाग, काली मिर्च २ भाग, सोंठ | भुक्ता नक्ताम्बुयुक्ता सकल४ भाग, चीतामूल ८ भाग, शूरण (जिमीकन्द )
मुखकरी दीप्तिमग्निं विधत्ते १६ भाग और गुड़ ३२ भाग लेकर गुड़में समस्त वृष्यायुष्यावपुष्यामयनिचय ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर (६-६ माशे के) मोदक
हृति ख्याति मुख्या विभाति ।। बना लें।
काली मिर्च ३॥ तोले, पीपल ३॥ तोले, ये मोदक अर्शनाशक और अत्यन्त दीपन | अजवायन १० तोळे, चीतामूल १० तोले, सेंधा पाचन हैं।
नमक ५ तोले, संचल ५ तोले, विड लघग ५ लघुसूरणमोदकः (२) तोले, पीपलामूल ८॥ तोले, सेठ १२॥ तोले, ( वृ. मा. । अर्श. ; यो. र.) हर्र १२॥ तोले, आमला ७॥ तोले, बहेड़ा ७॥ प्र. से. ५१६३ "मरिचादिमोदक” देखिये | तोले, जीरा ७॥ तोले, चव ७॥ तोले और भांग लघुसौभाग्यवटी
२५ तोले तथा लौंग सबसे आधी (६५ (र. रा. सु. । सन्निपा.)
तोले ७|| माशे ) ले कर सबका कपड़छन चूर्ण रस प्रकरण में देखिये ।
बना और उसे अदरक तथा तिन्तडीक (या ... (६२४६) लवङ्गादिगुटिका
अम्लबेत ) के रसकी ३-३ भावना देकर २॥
२॥ माशेकी गोलियां बनालें। (लवङ्गामृतवटी)
__इन्हें बासी पानी के साथ सेवन करनेसे अग्नि(वै. र. । अग्निमांय. ; वृ. नि. र. 1. अजी.)
दीप्त होती है। सर्वाध देवपुष्पं मरिच
ये गोलियां वृष्य, आयुष्य वर्द्धक और अनेक मगधयोस्त्रित्रिकर्ष यवान्यो
रोग नाशक हैं। रष्टावष्टाग्नितोपि त्रिपटुरथ
(६२४७) लवङ्गादिगुटी (१) पलं ग्रन्धिकं सप्तकर्षम् । शुण्ठीपथ्यादशाक्षामलक
(वृ. नि. र. । श्वासा.) ___ कलिकलाजाजिचव्यानि लबात्रिकटूनागभृङ्गीक्षुद्राबिभीतकैः । षद् षट् सुत्रामप्रीतिपात्रं नख
कन्यारसेन गुटिका कार्या श्वासनिवारिणी ॥ मितमखिलं चूर्णितं वस्त्रपूतम् ॥
लौंग, सांठ, मिर्च, पीपल, शुद्ध बछनाग, विर्भाव्यं चाकस्य द्रवम
भंगरा, कटेली और बहेड़ा समान भाग लेकर चूर्ण भिविधिवन्माषयुग्मप्रमाणा बनावें और फिर उसे घृतकुमारीके, रसमें घोटकर बद्धा चुक्रेण सिद्धा प्रभवति
गोलियां बना लें। गुटिकासौ लवङ्गामृताख्या । । इनके सेवनसे श्वास नष्ट होता है।
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गुटिकाप्रकरणम् ] चतुर्थों भागः
४७९ (६२४८) लवङ्गादिगुटी (२) । लौंग, काली मिर्च और बहेड़ेके फलकी बकली (वृ. नि. र. । श्वासा.)
१-१ भाग तथा खरसार (कत्था) सबके बराबर लवङ्गमरिचे तुल्ये त्रिफलारसभाविते ।। लेकर यथाविधि चूर्ण बनावें और उसे बबूलकी बब्यूलत्वचया कार्या गुटी श्वासकफापहा ॥
छालके रसमें घोट कर गोलियां बना लें। लौंग और काली मिर्चका चूर्ण समान भाग
ये गोलियां केवल ८ घड़ीमें ही खासीको ले कर दोनोंको एकत्र मिला कर त्रिफलाके. काथ
नष्ट कर देती हैं। तथा कीकर (बबूल) की छाल के रसमें एक एक लवङ्गादिवटी (३) (वृहत् ) दिन घोट कर गोलियां बना लें।
( रसे. सा. सं. । अग्निमां.) इनके सेवनसे श्वास और कफका नाश | रस प्रकरणमें देखिये । होता है।
(६२५१) लवङ्गाद्या गुटिका. (६२४९) लवङ्गादिवटी (२)
( ग. नि. । गुटिका. ४) (रसे. सा. सं. । अग्निमांद्या. ; र. चं. ; भै.
| पलार्धं तु लवङ्गस्य तालीसत्रुटिवल्कलम् । र. र. रा. सु. । अग्निमान्धा.)
यवानीचव्यकाजाजीधान्यकं च पलोन्मितम् ॥ लवङ्गशुण्ठीमरिचानि भृष्ट
द्विपलं मरिच कृष्णा वृक्षाम्लं साम्लवेतसम् । सौभाग्यचूर्णानि समानि कृत्वा । कृष्णायाश्च.जटाशुण्ठी पथ्या च कुडवोन्मिता ॥ भाव्यान्यपामार्गहुताशवारा
एतत्सर्वं समाहृत्य त्रिगुणेन गुडेन तु । प्रभूतमांसादिकजारणाय ॥ ततोऽर्धपलिकाः कार्या गुटिकास्तु भिषग्वरैः । लौंग, सेांठ, मिर्च और सुहागेकी खील समान एकैकशस्तास्तु पिबेन्मद्यतकरसासवैः । भाग ले कर चूर्ण बनावें और फिर उसे १-१ | भक्षिता येन तस्याः पाण्डुहन्पार्श्वशूलनुत् ॥ दिन अपामार्ग (चिरचिटे) और चीतेके काथमें | कासगुल्मारुचिश्वासहिकामयगलग्रहान् । घोट कर गोलियां बना लें।
ज्वरातिसारं तन्द्रां च सेविता हन्ति वेगतः ॥ इनके सेवनसे जठराग्नि दोप्त होती है । लौंग, तालोसपत्र, छोटी इलायची और (६२५०) लवङ्गादिवटी (२) | दाल चीनी २॥-२॥ तोले; अजवायन, चव, जीरा (वै. जो. । विलास ३)
और धनियां ५-५ तोले; काली मिर्च, पीपल, तुल्या लवङ्गमरिचाक्षफलत्ववः स्युः तिन्तड़ोक और अम्लबेत १०-१० तोले तथा सर्वैः समो निगदितः खदिरस्य सारः । पीपलामूल, सांठ और हर २०-२० तोले लेकर बब्बूलवृक्षजकषाययुतं च चूर्ण
चूर्ण बनावें एवं उसे सबसे ३ गुने गुड़में मिला कासान्निहन्ति गुटिका घटिकाष्टकान्ते ॥ । कर २॥-२॥ तोलेकी गुटिका बना लें।
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
( व्यवहारिक मात्रा - १ - १ ॥ तोला । ) इनके सेवन से अर्श, पाण्डु, हृदयशूल, पार्श्वशूल, कास, गुल्म, अरुचि, श्वास, हिचकी, गलग्रह, ज्वरातिसार और तन्द्राका नाश होता है ।
अनुपान - मद्य, तक्र अथवा आसव । लवङ्गाद्यं मोदकम्
(भै. र. । अग्निमांद्या. ) प्रकरण में देखिये |
(६२५२) लवणवटी. ( वो. भ. । चि. अ. १० ग्रहण्य. ) पटूनि पञ्च द्वौ क्षारौ मरिचं पञ्चकोलकम् । attri foङ्गु गुलिका वीजपूररसे कृता ।। कलदाडिमतोये वा परं पाचन दीपनी ॥
पांचों नमक (सेंधा नमक, संचल, बिडं नमक, सामुद्र नमक, काच लवण ), जवाखार, सज्जीखार, काली मिर्च, पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ, अजवायन और हींग समान भाग लेकर चूर्ण बनावें और फिर उसे बिजौरे नीबू के रस या बेर अथवा अनार के रस में घोट कर गोलियां बनालें ।
।
ये गोलियां अग्निदीपनी और पाचनी हैं । (६२५३) लाक्षादिवटी
( रसे. सा. स.; र. रा. सु. । कृम्य. ; र. चं. । कृमि. )
लाक्षाभल्लातश्रीवासश्वेतापराजिता शिफा । अर्जुनस्य फलं पुष्पं विडङ्गमजगुग्गुलुः ॥
[ लकारादि
एभिः कीटाश्च शाम्यन्ते तिष्ठतापि गृहे सदा । भुजङ्गा मूत्रका देशाः सङ्घनामा मतङ्गजाः ॥ दूरादेव पलायन्ते किन्न कीटाश्च येाराः ॥
-
लाख, भिलावा, श्रीवास (धूपसरल - राल), सफेद कोयलकी जड़, अर्जुन के फल और फूल, बायबिडंग, मेंढासिंगी और गूगल समान भाग ले कर यथा विधि गोलियां बनावें ।
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इन्हें घर में रखनेसे (इनकी गंध से) सांप, चूहे और डांस आदि कीट भाग जाते हैं ।
(६२५४) लाङ्गल्यादिमोदकः
(बृ. नि. र. । अर्शो. ) लाङ्गलन्द्रयवाकृष्णा वचपामार्गतण्डुलाः । भूनिम्बसैन्धवं तुल्यं सर्वस्य द्विगुणं गुडः ॥ भक्षयेत्कर्षमात्रं तु श्लेष्मोद्भूतार्शसाञ्जये ॥
लाङ्गली ( कलियारी), इन्द्रजौ, पीपल, चीता, चिरचिटेके चावल, चिरायता और सेंधा नमकका चूर्ण १ - १ भाग तथा गुड़ सबसे २ गुना लेकर सबको एकत्र मिलाकर कूट लें।
मात्रा -- १ | तोला |
इसके सेवनसे कफज अर्शका नाश होता है । लीलाantaet
(र. रा. सु. ; वै. र. । ज्वरा. ) प्रकरण में देखिये ।
इति लकारादिगुटिकाप्रकरणम्
40.
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गुग्गुलुपकरणम् ]
चतुर्थों भागः
४८१
अथ लकारादि-गुग्गुलु-प्रकरणम् (६२५५) लाक्षागुग्गुलुः
लोह भस्म ५ तोले, शुद्ध गूगल १५ तोले, (भै. र. । भग्ना. ; वृ. मा. ; च, द. । भग्ना. त्रिकुटा ( सांठ, मिर्च, पीपल) २५ तोले, ४८; वृ. यो. त.। त. ११४; व. से. ; यो. और त्रिफला (हर, बहेड़ा, आमला ) ४०
र. ; ग. नि. ; धन्व. । भन्ना. ) तोले ले कर सबको एकत्र मिला कर अच्छी लाक्षास्थिसंहककुभाश्वगन्धा
तरह कूटें। श्चूर्णीकृता नागबला पुरश्च ।
इसे ११ तोलेकी मात्रानुसार सेवन करनेसे सम्भग्नमुक्तास्थिरुजं निहन्या
अकाल मृत्यु नहीं होती। दङ्गानि कुर्यात्कुलिशोपमानि ॥
(६२५७) लोहादिगुग्गुलुः (अमान्यत्रोपष्टत्वात्तुल्यश्चूर्णेन गुग्गुलुः।)
( यो. र. । नेत्ररोगा.) लाख, हडसंहारी, अर्जुन की छाल, असगन्ध
अयश्च यष्टीत्रिफलाकणानां और नागबला समान भाग तथा शुद्ध गूगल सबके चूर्णानि तुल्यानि पुरेण नित्यम् । बराबर ले कर गूगल में अन्य ओषधियोंका चूर्ण
सर्पिर्मधुभ्यां सह भक्षितानि मिला कर सबको अच्छी तरह कूटें।
सर्वाणि शुक्राणि निहन्ति शीघ्रम् ।। इसके सेवनसे अस्थिभग्न और सन्धिच्युत् लोह भस्म, मुठी, हर्र, बहेड़ा, आमला और ( जोड़से उतरी हुई ) अस्थिकी पीड़ा नष्ट हो कर | पीपलका चूर्ण १-१ भाग तथा शुद्ध गूगल सबके वह अङ्ग दृढ़ हो जाता है।
बराबर लेकर सबको एकत्र मिला कर कूटें। लोहगुग्गुलुः (१)
इसे घी और शहदके साथ सेवन करनेसे नेत्र(वृ. यो. त. । त. ९५; यो. र. ; र. चं.। शुक्रका नाश होता है । परिणामशूला.)
(६२५८) लौहगुग्गुलुः प्र. सं. २४२२ "त्रिफलागुग्गुलु” देखिये ।
( र. र. । गुल्मा.) (६२५६) लोहगुग्गुलुः (२)
| स्नुहीत्वक्वादिरं काष्ठं काष्ठोदुम्बरजं फलम् । ( यो. र. ; व. से. ; र. चं. । रसायना.)
वल्कलश्च पृथक्पञ्चपलमष्टगुणे जले ॥ अय: पलं गुग्गुलुरत्र योज्य:
पक्त्वा पादावशेषेण लौह पञ्च पलं पचेत् । पलत्रयं व्योष पलानि पञ्च । पिण्डी भावे द्रवे किश्चिदवशिष्टे तु निक्षिपेत् ॥ पलानि चाष्टौ त्रिफलारजश्च
शोभाअनकमूलस्य कल्केनास्य पाचितम् । कर्ष लिहन्यात्यमरत्वमेव ॥ | करीषाप्तौ समुद्धृत्य हरितालं पलद्वयम् ॥
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४८२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि
चूणितं द्विपलं तच्च गुग्गुलोघृतपिट्टितम् । मिला कर पुनः पकावें । जब वह गाढ़ा हो जाय एकीकृत्य पचेद्भूयो यावल्लेहत्वमागतम् ॥ तो उसमें सहजनेकी जड़के कल्कमें लपेट कर गुल्मे कुष्ठे क्षये स्थौल्ये शोथे शूले च पाकजे। पुटपाक विधिसे कण्डोंकी अग्निमें पकाई हुई पीली पाण्डुरोगे प्रमेहे च वातरोगे तथैव च ॥ तबकी हरताल १० तोले और घी मिला कर कूटा सिद्धमेतत्प्रयुनीत वलीपलितनाशनम् ॥ हुवा शुद्ध गूगल १० तोले मिला कर पकावें । ___ स्नुहो ( हर-सेंड ) की छाल, खैरकी जब वह अवलेहके समान हो जाय तो उतार कर लकड़ी, कठूमरके फल और कठूमरकी छाल २५- | सुरक्षित रखें । २५ तोले लेकर सबको एकत्र कूट कर ८ गुने | इसके सेवनसे गुल्म, कुष्ठ, क्षय, स्थूलता, (१६ गुने ) पानीमें पकावें । जब चतुर्थांश जल | शोथ, शूल, पोण्डु, प्रमेह, वातरोग और बलिशेष रहे तो छान कर उसमें २५ तोले लोहभस्म । पलितका नाश होता है।
इति लकारादि-गुग्गुलु-प्रकरणम्
अथ लकाराद्यवलेहप्रकरणम् लघुलशुनपिण्डः
भुनी हुई हींग १ भाग और सेंधा नमक ३ भाग ( ग. नि. । वाता.)
लेकर सबको एकत्र मिला कर घोटें।। प्र. सं. ५८६० "रसोनसप्तकम् ” देखिये। मात्रा--११ तोला
इसके सेवनसे भामशूल नष्ट होता है । लशुनपाका
(६२६०) लाक्षाद्योऽवलेहः . (पृ. नि. र. । वातव्या.) प्र. सं. ५९३५ " रसोनपाकः (१)"
( ग. नि. । कासा. १०)
लाक्षा शृङ्गी बला द्राक्षा व्याघ्री यष्टी शतावरी। देखिये।
पिप्पली चेति तुल्यानि शर्करा च चतुर्गुणा ॥ (६२५९) लशुनयोगः
त्वक्क्षीरी द्विगुणां दत्त्वा लेहयेन्मधुसर्पिषा । (यो. र. । शूला.)
क्षतकासं जयत्येष लेहः पित्तोल्वणं तथा ।। एरण्डतैलं षड्भागं लशुनस्य तथाऽष्टकम् ।
____ लाख, काकड़ासिंगी, खरैटी, मुनक्को, कटेली, एक हिङ्गु त्रिसिन्धूत्थं सर्वमेका मर्दयेत् ॥ | मुलैठी, शतावर, और पीपल १-१ भाग, खांड त्रिनिष्कं भक्षयेच्चानु ह्यामशूलपशान्तये। सबसे ४ गुनी और बंसलोचन इन सबसे २ गुना
अरण्डका तेल ६ भाग, ल्हसन ८ भाग, । (८० भाग) ले कर चूर्ण बनावें ।
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अवलेहमकरणम् ]
चतुर्थों भागः
४८३
इसे शहद और घीमें मिला कर चाटनेसे | एषां दशपलान् भागान् तोये पञ्चाढके पचेत् । पित्त प्रधान क्षतज कास नष्ट होती है। | पादशेषं ततः कृत्वा कषायमवतारयेत् ॥ (६२६१) लाजसत्ववलेहिका पलद्वादशकं देयं तीक्ष्णलोहस्य चूर्णितम् ।
(वृ. यो. त. । त. ८३ ) पुराणसर्पिषः प्रस्थं शराष्टपलानि च ॥ सर्पिः क्षौद्रसितोपेताल्लांजसक्तंल्लिहेत्तथा। पचेताम्रमये पात्रे सुशीते चावतारिते । पित्तच्छदिरनेनाऽशु प्रशाम्यति सुदस्तरा॥ प्रस्थाई माक्षिकं देयं शिलाजतु पलद्वयम् ॥
__धानकी खीलोंके सत्तमें घी, शहद और मिश्री | एलात्वचोःपलाई श्च विडङ्गानि पलव्यम् । मिला कर चाटनेसे दुस्साध्य पित्तज छर्दि शीघ्र ही मरिचश्चाञ्जनं कृष्णा द्विपलं त्रिफलान्वितम् ।। नष्ट हो जाती है।
| पलद्वयन्तु काशीशं श्लक्ष्णचूर्णीकृतं बुधैः। (६२६२) लाजादियोगः
चूर्ग दवाथ मथितं स्निग्ये भाण्डे निधापयेत् ॥ (वृ. यो. त. । त. ८३ ; वृ. मा. । छर्य. ; ततः संशुद्धदेहस्तु भक्षयेन्माषमात्रकम् । यो. र. । छZ. ; यो. चि. म. । अ. २) । वातश्लेष्महरं श्रेष्ठं कुष्ठमेहज्वरापहम् । लाजाकपित्थमधुमागधिकोषणानां
कामलां पाण्डुरोगश्च श्वययुं सभगन्दरम् ॥ क्षौद्राभयात्रिकदुधान्यक नीरकाणाम् ।
मूर्छामोह विषोन्मादं गराणि विविधानि च । पथ्यामृतामरिचमाक्षिकपिप्पलोनां स्थूलानां कर्षणं श्रेष्ठं मेदुरे परमौषधम् ॥ लेहास्त्रयः सफलवम्यरुचिपशान्त्यै ॥ कर्षयेचातिमात्रेण कुक्षिं पातालसन्निभम् ।
(१) धानको खील, कैथ, मुलैठी, पीपल | वल्यं रसायनं मेध्यं वाजीकरणमुत्तमम् ।। और काली मिर्च । (२) हर, सोंठ, मिर्च, पीपल, | श्रीकरं पुत्रजननं वलीपलितनाशनम् । धनिया और जीरा तथा शहद । (३) हर्र, गिलोय, नाश्नीयात् कदली कन्दै कालिकं करमर्दकम् ।। काली मिर्च, पीपल और शहद । उपरोक्त तीनों | करीरं कारखेलश्च षट् ककारादि वर्जयेत् ॥ अवलेह हर प्रकारको वमन और अरुचिको नष्ट __मूसली, हर्र, बहेड़ा, आमला, खैरकी छाल, करते हैं।
बासा, निसोत, मुण्डी, संभालु, चीतामूल और सेंड (कूटने योग्य चीजोंका समान भाग चूर्ण (थोहर) की जड़ ५०-५० तोले ले कर सबको ले कर सबको एकत्र मिला कर उसमें आवश्यकता- एकत्र कूट कर ४० सेर पानीमें पकायें और जब नुसार शहद मिला लें।)
१० सेर पानी शेष रहे तो छान कर उसमें ५० . (६२६३) लोहरसायनम् . | तोले शुद्ध गूगल तथा ६० तोले तीक्ष्ण लोह भस्म (भै. र. । स्थौल्या.)
एवं २ सेर पुराना घी और ४० तोले खांड मिला गुग्गुलुस्तालमूली च त्रिफला खदिरं वृषम् । कर ताम्रके पात्रमें पकावें । जब अवलेह तैयार हो त्रिवतालम्बुषा चैव निर्गुण्डी चित्रकं स्नुही ॥ | जाय तो उसे अग्निसे नीचे उतार कर ठण्डा करके
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४८४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि
उसमें १ सेर शहद, १० तोले शिलाजीत, तथा । अपथ्य--इसके सेवन कालमें केला, कन्द, २॥-२॥ तोले इलायची और दारचीनीका चूर्ण, १ कांजी, करौंदा, करोर और करेला न खाना १० तोले बायबिडंगका चूर्ण, एवं १०-१० तोले । चाहिये । काली मिर्च, सुरमा, पीपल, हरे, बहेड़ा, आमला
(६२६४) लोध्राद्यवलेहः और कसीसका चूर्ण मिला कर स्निग्ध पात्रमें भर कर सुरक्षित रक्खें ।
. (वृ. यो. त. । त. १४४ ) इसे शरीर शुद्धिके पश्चात् १। माशेकी मात्रा- लोधेन्द्रयवधान्याक धात्रीहीबेरमुस्तकम् । नुसार सेवन करना चाहिये।
मधुना लेहयेद्वालं ज्वरातीसारनाशनम् ॥ इसके सेवनसे वात, कफ, कुष्ठ, प्रमेह, ज्वर, लोध, इन्द्रयव, धनिया, आमला, सुगन्धबाला, कामला. पाण्डु, शोथ, भगन्दर, मूर्छा, मोह,
और नागरमोथा समान भाग ले कर चूर्ण बनावें विष, उन्माद, स्थूलता, मेद, और बलिपलितका
तथा उसे शहद में मिला लें। नाश होता है।
यह बल्य, रसायन, मेध्य और उत्तम वाजी- इसे चटानेसे बालकोंका ज्वरातिसार नष्ट करण है।
| होता है। इति लकाराबवलेहप्रकरणम् ॥
- RAHE
अथ लकारादिघृतप्रकरणम् (६२६५) लघु अश्वगन्धावृतम् है । ( असगन्धका कल्क २० तोले, घी २ सेर, [लघुवाजिगन्धाचं घृतम् । दूध ८ सेर । मिसरी २ सेर) (यो. र. । वाजीकरणा.)
(६२६६) लघुकण्टकारीघृतम् कल्केन वाजिगन्धाया विपचेद् घृतमुत्तमम् । चतुर्गुणमजाक्षीरं दत्त्वोद्धत्याथ शीतले ॥
( वृ. मा. । कासा.) सितां समां प्रदायाधादलपुष्टिविवृद्धये ॥ । घृतं रास्नाबलाव्योषश्वदंष्ट्राकरकपाचितम् । ___ असगन्धके कल्क और चार गुने बकरीके कण्टकारीरसे पानात्पश्चकासनिषूदनम् ।। दूधके साथ धृत सिद्ध करें और फिर उसे ठण्डा | कल्क--रास्ना, खरैटी, सांठ, मिर्च, पीपल करके उसमें समान भाग मिसरी मिला लें। | और गोखरु ५-५ तोले ले कर सबको एकत्र
इसे सेवन करनेसे बल पुष्टिकी वृद्धि होती | पीस लें।
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घृतप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
-
काथ-६ सेर कटेलीको ४८ सेर पानीमें (६२६८) लघुषट्पलं घृतम् पकावें और १२ सेर शेष रहने पर छान लें।
( वृ. यो. त. । त. ५८) ३ सेर घीमें उपरोक्त कल्क और काथ मिला विश्वाग्निचव्यमगधामगधाजटाभिकर पकावें। जब काथ जल जाए तो घीको राभिः पलप्रमितिभिः सयवाग्रजाभिः । छान लें।
सर्पिः शृतं पयसि पट्पलमेतदर्शः ____ यह घृत पांच प्रकारकी खांसीको नष्ट |
प्लीहोदरज्वरिषु गुल्मिषु पथ्यमुक्तम् ।। करता है।
सेांठ, चीता, चव, पीपल, पीपलामूल और (६२६७) लघुचव्यादिवृतम्
| जवाखार ५-५ तोले ले कर कल्क बनावें । तद(यो. र. । अर्शी. )
नन्तर यह कल्क, १ सेर घी और ४ सेर दूध एकत्र चव्यतिक्ताकलिङ्गानि शताहा लवणानि च । । मिला कर पकावें । जब दूध जल जाए तो घीको सपिरों विकारनं ग्रहणीदीपनं परम् ॥
छान लें। ___ कल्क--चव, कुटकी, इन्द्रजौ, सोया और यह घृत अर्श, प्लीहोदर, ज्वर और गुल्ममें पांचों नमक (सेंधा, सञ्चल, सामुद लवण, कोच | उपयोगी है। लवण, बिड लवण) ५-५ तोले ।
_ (६२६९) लशुनघृतम् (१) काथ--उपरोक्त द्रव्य १-१ सेर ले कर
(ग. नि. । घृता १) सबको एकत्र मिला कर अधकुटा करें और ७२ प्रस्थं लशुनबीजानां कण्टकार्यास्तथैव च । सेर पानीमें पकावें । जब १८ सेर पानी शेष रहे आटरुषकप्रस्थं च जलद्रोणे विपाचयेत् ।। तो छान लें।
द्राक्षाया गोस्तनायाश्च कुडवं चात्र मिश्रयेत् । ४॥ सेर घीमें उपरोक्त काथ और कल्क | तत्र दद्यादघृतप्रस्थं गोक्षीरमस्थमेव च ॥ मिलाकर पकावें । जब काथ जल जाए तो घृतको लशुनस्य तु पिष्टस्य पलं निष्पीड्य योजयेत् । छान लें।
आटरूषकपत्राणां पेषयित्वा पलं तथा ॥ यह घृत अर्शको नष्ट और ग्रहणीको दीप्त । एतन्मृद्वमिना सिद्धं शीतं पूतमथापि वा। करता है।
द्विपलं शर्कराचूर्ण क्षीरार्धकुडवं तथा ॥ लघुपश्चगव्यं घृतम् त्वक्षीर्याश्च पलार्ध हि तत्सर्व खजमूच्छिाम् । (ग. नि. ; पू. मा. । अपस्मारा.) | निदध्याद्भाजने शुद्ध काश्चने राजतेऽपि वा ॥ प्र. सं. ४ ०४८ " पश्चगव्यं घृतम् ” देखिये। एतत्मायोगिकं सपिरिमान् व्याधीन् व्यपोहति । लघुफलघृतम्
कासं श्वासं ज्वरं गुल्मं कार्थ छर्दिमरोचकम् ॥ (शा. सं. । ख. २ अ. ९) | हृद्रोगं पार्श्वशूलं च क्षतक्षीणं प्लीहोदरम् । प्र. सं. ४५३० " फलघुतम् ” देखिये । जीवनं बृंहणं वृष्यं पाण्डुश्वयथुनाशनम् ॥
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४८६
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भारत-2 - भैषज्य रत्नाकरः
ल्हसनकी गिरी, कटेली और बासा १-१ सेर ले कर संत्रको एकत्र कूट कर ३२ सेर पानी में पकावें और जब ८ सेर पानी शेष रहे तो छान लें । तदनन्तर २ सेर घीमें २० तोले बीज रहित मुनक्का और २ सेर गायका दूध तथा ५-५ तोले लहसनका · स्वरस और बासेके पत्तोंका कल्क एवं उपरोक्त काथ मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें । जब जलांश शुष्क हो जाए तो घृतको छान लें और ठण्डा होने पर उसमें १० तोले खांड, २० तोले दूध और २|| तोले बंसलोचनका चूर्ण मिला कर सबको मथनीसे मथ कर सोने या चांदी के पात्र में भर कर सुरक्षित रक्खें ।
यह घृत खांसी, श्वास, ज्वर, गुल्म, कृशता, छर्दि, अरुचि, हृद्रोग, पार्श्वशूल, क्षतक्षीणता, होदर, पाण्डु और शोथको नष्ट करता है तथा जीवन, वृंहण और वृष्य है ।
(६२७०) लशुनघृतम् (२) ( गं. नि. । परि. घृता. १ ) तुलां लशुनकन्दानां पृथक्पञ्चपलांशकम् । पञ्चमूलं महचाम्बुभारार्द्धे तद्विपाचयेत् ॥ पादशेषं तदर्द्धेन दाडिमस्वरसं सुराम् । धान्याम्लं दधि चादाय पिष्टांश्चार्द्धपलांशकान् त्र्यूषणत्रिफलाहिङ्गुयवानोचव्यदीप्यकान् । साम्लवेतस सिन्धूत्य देवदारून् पचेद्धृताद् ॥ तैः प्रस्थं तत्परं सर्ववातगुल्म विकारजित् ॥
लहसन ६ | सेर तथा बेलछाल, स्योनाक छाल, खम्भारी छाल, पाढलछाल और अरणी २५२५ तोले ले कर सबको एकत्र कूट कर ६४ सेर
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[लकारादि
पानी में पकावें और १६ सेर पानी शेष रहने पर छान लें। तदनन्तर उसमें ८ सेर अनारका रस, ८ सेर शराब, ८ सेर कांजी, ८ सेर दही और २॥ - २॥ तोळे सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, हींग, अजवायन, चव, अजमोद, अम्लवेत, सेंधा और देवदारुका कल्क एवं २ सेर घी मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो घृतको छान लें ।
यह घृत वातज गुल्मको नष्ट करता है । (६२७१) लशुनाद्यं घृतम् (१) ( च. सं. । चि. अ. १४ उन्मा. ) लभ्रुनानां शतं त्रिंशदभयात् त्र्यूषणात्पलम् । गवां चर्ममसीप्रस्थं द्वयाढकं क्षोरमूत्रयोः ॥ पुराणसर्पिषः मस्थमेभिः सिद्धं प्रयोजयेत् । हिङ्गुचूर्णपलं शीते दत्वा च मधुमानिकाम् ॥ तदोषामन्तुसम्भूतानुन्मादान् विषमज्वरान् ! अपस्मारांश्च हन्त्याशु पानाभ्यञ्जननावनैः ॥
कुटी हुई ल्हसनकी गांठ १०० नग, गुठली रहित पिसी हुई हर्र ३० नग, समान भाग मिलित सोंठ, मिर्च, पीपलका चूर्ण ५ तोले, गायके चमड़ेकी राख १ सेर, गोदुग्ध ८ सेर, गोमूत्र ८ सेर और पुराना २ सेर ले कर सबको एकत्र मिलाकर पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो घृतको छान लें। तदनन्तर उसके शीतल होने पर उसमें ५ तोले हींगका चूर्ण और १ सेर शहद मिला कर सुरक्षित रक्खें ।
यह घृत दोषज और आगन्तुक उन्माद, विषमज्वर और अपस्मारको नष्ट करता है ।
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घृतप्रकरणम्]
चतुर्थों भागः
४८७
इसे पान, अभ्यंग और नस्य द्वारा प्रयुक्त | सोंठ, मिर्च, पीपल, अजमोद, अजवायन, चव, हींग करना चाहिये।
और अम्लबेतका कल्क मिलाकर मन्दाग्नि पर (६२७२) लशुनाद्यं घृतम् (२)
| पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो छान लें।
___ यह घृत शूल, गुल्म, अर्श, उदर रोग, वर्म, ( च. सं । चि. अ. १४; च. द. ; वृ. नि.
पाण्डु, प्लीहा, योनिदोष, ज्वर, कृमि, वातकफज र.। उन्मोदा.)
रोग और उन्मोदको नष्ट करता है। लशुनस्याविनष्टस्य तुलाधैं निस्तुषीकृतम् । (६२७३) लाक्षाद्यं घृतम् तददै दशमूलस्य द्वथाढकेऽपां विपाचयेत् ॥
(व. से. । बालरोगा.) पादशेषे घृतपस्थं लशुनस्य रसं तथा ।
लाक्षाकुष्ठविडङ्गानि सरलं रजनीवयम् । कोलमूलकक्षाम्लमातुलुङ्गाकै रसैः ॥
सूक्ष्मैला पद्मकं लोधं पद्मकं नागकेशरम् ॥ दाडिमाम्बु सुरामस्तु काधिकाम्लेस्तदर्द्धकैः ।
दधित्थतुत्थशैरीषशैरेयोद्दालपत्रकम् । साधयेत् त्रिफलादारुलवणव्योषदीप्यकैः॥ यवानीचव्यहिङ्ग्यालयेतसैश्च पलार्दिकैः।
घृतपस्थं पचेदेतैर्यावत्याकञ्च गच्छति ॥
कीटाखुसपैदष्टेषु स्फोटेषु विविधेषु च । सिद्धमेतत् पिबेच्छूलगुल्माझे जठरापहम् ॥ वर्मपाण्ड्वामयप्लीहयोनिदोषज्वरक्रिमीन् ।
विसपेंषु कुमाराणां लूतामूत्रकृतेषु च ॥ वातश्लेष्मामयान्सर्वानुन्माद चापकर्षति ॥
गण्डमालासु नारीषु सपिरेतद्यथामृतम् ॥
लाख, कूठ, बायबिडंग, चीड़, हल्दी, छिलके रहित उत्तम ल्हसन ३ सेर १० तोले
दारुहल्दी, छोटी इलायची, पद्माख, लोध, और दशमूल १ सेर ४५ तोले लेकर दोनोंको
कमल, नागकेसर, कैथ, तूतिया, सिरसकी छाल, एकत्र कूट कर १६ सेर पानीमें पकावें और ४
कटसरैया और लिहसोड़ेके पत्ते; इनके काथ और सेर पानी शेष रहने पर छान लें। तदनन्तर उसमें
कल्कके साथ घृत सिद्ध करें। २ सेर घी, २ सेर ल्हसनका रस और १-१ सेर
यह घृत कीट, मूषक और सर्पदंश; अनेक बेर, मूली, तिन्तडीक, बिजौ रे, अदरक और अना
प्रकारके विस्फोटक और मकड़ीके मूत्रसे उत्पन्न रका रस तथा सुरा, मस्तु और कांजी एवं २॥
बच्चोंके विसर्प तथा गण्डमालामें अमृतके समान २॥ तोले हर, बहेड़ा, आमला, देवदारु, सेंधा,
गुणकारी है। १. ग. नि. में दशमूलके स्थानपर पंचमूल (६२७४) लाक्षारसादिघृतम् लिखा है।
( हा. स. । स्था. ३ अ. ४३ ) २. ग. नि. में बेर, मूली, तिन्तडीक, बिजौरा लाक्षारसं चन्दनयष्टिकानां । और अदरकके रसका अभाव है।
पटोलधात्रीफलशर्कराणाम् ।।
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४८८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि दधि सदुग्ध नवनीतकं च । कपिलाया घृतं प्रस्थ पचेत्तद्विगुणं पयः ॥ विपाचिते नस्यविधौ प्रयुज्यते ॥ | पलद्वयं च सिक्थस्य सिद्धे पूते च दापयेत् । भ्रूदोषशङ्खक्षतजक्षये वा।
लागलीकं घृतं नाम व्रणानां रोपणं परम् ॥ दिनाभिवृद्धिप्रभवेऽपि दोषे ॥
अनिदग्धे विस च कीटलूता व्रणेषु च । लाखका रस, दही और दूध २-२ सेर, | चिरोत्थेषु च दुष्टेषु नाडीमर्माश्रितेषु च ॥ नवनीत १॥ सेर तथा चन्दन, मुलैठी, पटोल, आमला और खांडका कल्क १५ तोले (प्रत्येक
____ हल्दी, दारुहल्दी, मजीठ, मुलैठी, लोध, ३ तोले ) ले कर सबको एकत्र मिला कर मन्दाग्नि
कायफल, कमीला, मेदा, महामेदा, कलियारीकी पर पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो धृतको
| जड़, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला और नीमके पत्ते छान लें।
१।-१। तोला लेकर सबको एकत्र पीस लें। - इसकी नस्य लेनेसे भ्रशूल, शंखशूल, क्षतज ___तदनन्तर २ सेर गायके घीमें ४ सेर दूध और क्षय जन्य शूल तथा दिनवृद्धिके साथ बढ़ने और उपरोक्त कल्क ( तथा ४ सेर पानी ) मिला वोला शूल नष्ट होता है।
कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब जलांश शुष्क हो (६२७५) लागलाघृतम् | जाय तो घृतको छान कर उसमें १० तोले मोम (यो. र. ; र. र. ; वृ. नि. र. ; व. से. । अग्नि- मिला दें।
दग्ध व्रगा. ; वृ. यो. त. । त. ११३ ) __ इसे लगानेसे अग्निदग्ध व्रण, विसर्प, जहरीले उभे हरिद्रे मञ्जिष्ठा मधुकं लोध्रकट्रफलम्। कीड़ों और मकड़ीका ब्रण, पुराना दुष्ट नाडी ब्रण कम्पिल्लकमुभे मेदे लागलीमूलमेव च ॥ और मर्माश्रित ब्रण तथा अन्य सब प्रकारके ब्रण पिप्पली त्रिफला चैव निम्बपत्रं च कार्षिकम् ।। नष्ट होते हैं ।
इति लकारादिघृतप्रकरणम्
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तैखप्रकरणम् ]
चतुर्थी भागः
अथ लकारादितैलप्रकरणम्
(६२७६) लक्ष्मीविलासतैलम्
( यो. र. । क्षय. )
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एलाश्रीखण्डरास्ना जतुनखशशिनः कोलकं चाथ मुस्ता
बालत्वग्दारुकृष्णागुरुतग
रजटा कुष्ठमेतत्समांशम् । त्रैगुण्यं कालरालं सुदृडमरुकायन्त्रतः सिद्धमेततैलं पुष्पैश्च भाव्यं परिमलमिलितं नामतो गन्धतैलम् ॥ एतलक्ष्मीविलासं जनयति
जगती नायः सम्प्रयुक्तं युक्त्या नाना च रोगान्निखिल
गदहरं वातसङ्घातहन्तृ । पीतं ताम्बूलवल्लीदल मिलितमलं जाठरं वह्निमिदं कुर्यादुर्नामक्षयमपि नितरामङ्गसम्मर्दनेन ॥
छोटी इलायची, सफेद चन्दन, रास्ना, लाख, नखी, कपूर, कंकोल, नागरमोथा, सुगन्धवाला, दालचीनी, देवदारु, अगर, तगर, जटामांसी और कूल १-१ भाग तथा काला राल सबसे ३ गुनी लेकर सबको एकत्र कूट कर डमरुयत्र (अथवा पाताल यन्त्र) द्वारा तैल निकालें और उसमें सुगन्धित फूलको बसा लें ।
यह तैल वातजन्य अनेक रोगोंको नष्ट करता है ।
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४८९
इसे पानमें खानेसे अग्नि दीप्त होती है और इसकी मालिश से अर्श, दाद और क्षयका नाश होता है ।
(६२७७) लघुकासीसाद्यं तैलम् (ग.नि. । तैला. २ ) काशी सलाङ्गली दन्तीकरवीरामलैः पचेत् । तैलमर्कपयोन्मिश्रमभ्यङ्गात्पायुकीलजित् ॥
कसीस, लाङ्गलीमूल, दन्तीमूल, करवीर (कर) की जड़ और आमला; इनके कल्क और आकके दूधके साथ तैल सिद्ध करें ।
इसकी मालिश से अर्श के मस्से नष्ट होते हैं । (heat प्रत्येक वस्तु १ तोला, सरसोंका तेल ४० ताले, आकका दूध २ सेर । )
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(६२७८) लघुक्षारतैलम् ( यो. त. । त. ७० ) शुकमूलकण्ठीनां क्षारो हिङ्गु सनागरम् । शुक्तं चतुर्गुणं दद्यात्तैलमेतद्विपाचयेत् ॥ बाधिर्यं कर्णशूलं च पूयस्रावं च कर्णयोः । कृमयश्चापि नश्यन्ति तैलस्यास्य च पूरणात् ॥
सूखी मूलीका क्षार, सोंठका क्षार, होंग और सांठ; इनके कल्क तथा ४ गुणे शुकके साथ तैल सिद्ध करें । -
इसे कान में डालने बधिरता, कर्मशूल, पीप निकलना और कृमि नष्ट होते हैं ।
( कल्ककी प्रत्येक वस्तु १| तोला; शुक्त २ सेर; तिलका तेल आधा सेर । )
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४९०
भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[लकारादि
(६२७९) लघुनारायणतैलम् . . कौंचके बीज, खरैटी, शतावर, सफेद पुन. ( यो. र. 1 वाता. ; वृ. यो. त.। त. ९० ) | नवाकी जड़, सेंधा नमक और जिंगनी वृक्षका एलाबलानतकुचन्दनदारुसौम्या- गांद; इनके कल्क और दो गुने उड़दके काथके शैलेयकुष्ठकुडिलावरुण शृतेन ।
साथ सरसांका तेल पकाकर रक्खें । सलं सदग्धमिति सिद्धमभीरुकन्द-..
इसकी नस्यः लेनेसे बाहुकी पीड़ा नष्ट
होती है। ... तोयेन तेन तुलितेन समीरणनम् ॥ इलायची, खरैटी, तगर, लाल चन्दन, देव- ।.
( तेल ४८ तोले, कल्ककी प्रत्येक वस्तु १
तोला; उड़दका काथ ९६ तोले-४८ तोले उड़ददारु, शालपर्णी, भूरिछरीला, कूठ, स्पृक्का (अस
को ३८४ तोले पानीमें पका कर ९६ तोले वरग) और बरनेकी छाल; इनके क्वाथ तथा दूध |
शेष रक्खें ।) और शतावरके रसके साथ तेल सिद्ध करें।
. लघुमाषतैलम् (२) यह तैल वातज रोगांको नष्ट करता है। (कल्ककी प्रत्येक वस्तु १ तोला, तिलका |
प्र. सं. ५३१३ " मापतैलम्' (२) तेल १ सेर, दूध २ सेर, शतावरका रस २ सेर ) | दाखय । लघुमरिचादितैलम्
(६२८१) लघुमाषादितैलम्
( वृ. नि. र. । वातव्या.) ( यो. र. ; र. का. धे. । कुष्ठा.; यो. त.। माषसिन्धुबलारास्नादशमूलकहिङ्गभिः । त. ६२; वृ. नि. र. । त्वग्दोष. ; वृ. | वचाशतजटाख्याभिः सिद्धं तैलं सनागरम् ॥ यो. त. । त. १२०)
उड़द, सेंधा नमक, खरैटी, रास्ना, दशमूल, प्र. सं. ५२८६ मरिचायं तैलम् देखिये। । हींग, बच, शतावर और सांठके कल्क तथा काथके (६२८०) लघुमाषतैलम् (१)
साथ तेल सिद्ध करें। ( ग. नि. । तैला. २)
यह तेल वातव्याधिको नष्ट करता है। कपिकच्छुवाटयालकशतावरीसित
लघुविषगर्भतलम् पुनर्नवामूलैः।
" विषगर्भतैलम् (लघु)” देखिये। सैन्धवजिङ्गिणिकातरुनिर्यासाभ्यां च (६२८२) लज्जालुमूलतैलम् कटुतैलम् ॥
(रा. मा. । व्रणा. २५) माषकाथेन पचेद् द्विगुणेन पूर्वकल्कसंयुक्तम् । आर्द्रण लज्जालुकिनीभवेन सकृदुपयुक्तमिदं नस्येन निहन्ति बाहुरुजम् ॥ मूलेन तैलं परिपाचितं यत् ।
"परम् ।।
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तैलप्रकरणम् ]
- चतुर्थो भागः
४९१
तत्स्वेदितः पाकविवर्जितो द्राक
कल्क-सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, संरोहमागच्छति शस्त्रघातः ॥ आमला, दन्तीमूल, हींग, सेंधानमक, चीता, देवहरी (ताजी) लजावन्तीकी जड़के कल्कसे | दारु, बच, कूठ, मुलैठी, सहजनेकी छाल, पुनर्नवा, तैल पका कर रक्खें।
काला नमक, बायबिडंग, अजवायन और गजपीइस तेलसे पाकरहित शस्त्राघातको स्वेदित | पल ५-५ तोले तथा निसोत २॥ तोले ले कर करनेसे वह शीघ्र ही भर जाता है। सबको एकत्र पीस लें। (तिलका तेल ८० तोले (१ सेर), कल्क
८ सेर अरण्डीके तैल में उपरोक्त कल्क और १० तोले, पानी ४ सेर ।)
काथ मिला कर ताम्र पात्रमें मन्दाग्नि पर पकावें ।
जब काथ जल जाए तो तेलको छान लें। (६२८३) लशुनतैलम्
इसे यथोचित मात्रानुसार प्रातः काल पीनेसे (व. से. । उदररोगा. )
अनेकों रोग और विशेषतः उदर रोग नष्ट होते हैं। लशुनस्य तुलामेकां जलद्रोणे विपाचयेत । ___ यह तेल मूत्रकृच्छ्, उदावर्त, अन्त्रवृद्धि, चतुर्भागावशेषन्तु कषायमवतारयेत् ॥ गुदकृमि, पार्व शूल, कुक्षिशूल, आमशूल, अरुचि, सत्क्वाथश्च परिस्राव्य विशाले ताम्रभाजने। यकृत, अष्ठीलिका, आनाह, प्लीहा और अङ्गपीड़ा चित्रलाढकं दद्याद्भपजानि प्रदापयेत् ॥ ... को नष्ट करता है। त्रिकटुत्रिफलादन्तीहिङ्गुसैन्धवचित्रकम् । . .. यह तेल अर्श और वातज रोगोंको १ मासमें देवदारुवचाकुष्ठं मधुशिग्रुपुनर्नवम् ॥ नष्ट कर देता है। सौवर्चलविडङ्गानि दीप्यकं हस्तिपिप्पली। (६२८४) लशुनाद्य तेलम् एतेषां पलिकान्भागांत्रिवृतार्द्धपला तथा ॥
(धन्व; भै. र. । कर्ण.) पिष्ट्वा कपायेगानेन शनैम द्वग्निना पचेत् । तत्पिबेत्यातरुत्थाय यथाग्निवलमात्रया ॥
लशुनामलकं तालं पिष्ट्वा तैले चतुर्गुणे ।
नैलाचतुर्गुणं क्षीरं पाच्यं तैलावशेषकम् ॥ निहन्ति सर्वरोगाणि जठराणि विशेषतः।
ततलं पूरयेत्कर्णे बाधिय परिनाशयेत् ॥ मूत्रकृच्छमुदावर्त्तमन्त्रवृद्धि गुदकृमीन् ॥
कल्क-लहसन, आमला और हरताल ५-५ पार्श्वकुक्षिभवं शूलमामशूलमरोचकम् ।।
| तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें। यकृदष्ठीलिकानाहान्प्लीहानश्चाङ्गवेदनम् ॥
१२० तोले (१॥ सेर) तिलके तैलमें यह मासमात्रेण नश्यन्ति चाऑसि वातना गदाः॥
कल्क और ६ सेर गायका दूब मिला कर मन्दाग्नि काथ-~६। सेर ल्हसनको कूट कर ३२ | पर पकावें । जब दूध जल जाय तो तेलको सेर पानीमें पकायें और ८ सेर पानी शेष रहने पर | छान लें। छान लें।
इसे कानमें डालनेसे बधिरता नष्ट होती है।
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(६२८५) लाक्षादितैलम् (१)
( वृ. नि. र. । विषमज्वरा. )
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
लाक्षा दशाक्षा अरुणा तदर्धा
सचन्दनं लोहितचन्दनं च । त्वक्पत्रकं वारि मुरा समुस्ता प्रत्येकमेतानि पलोन्मतानि ॥ किराततिक्तस्त्रिवृता सविश्वा
मृता कणाकण्टकार्यः । विडङ्गविश्वामलकानि वासा
रसा निशावारुणसिन्धुवाराः ॥ एतानि देयानि पृथक्पलार्थ -
मानानि सर्वाणि च औषधानि । heat मtषां विदधीत गव्य
दुग्धेन वै सार्धोन्मिन ॥ तैलं तिलानां तु तुलानुमानं
तेनैव कल्केन शनैः पचेत्तत् । हन्याज्ज्वरांस्तैलमिदं समस्ता
कुर्याद्वलं वीर्यमतीव पुष्टम् ॥ विमर्दनादाशु परिश्रमं भ्रमं
शमं नयेत्सञ्जनयेत् तं तनोः । तथा व्यथामस्थिसमुद्भवामपि
प्रहृत्य निद्रां समुपार्जयेत्सुखम् ॥ कल्क --- लाख ९२ ॥ तोले, मजीठ ६ । तोले तथा सफेद चन्दन, लाल चन्दन, दालचीनी, तेजपात, सुगन्धवाला, मुरामांसी और नागरमोथा ५ - ५ तोले एवं चिरायता, निसोत, सोंठ, गिलोय, पीपल, पित्तपापड़ा, कटेली बायबिडंग, सोंठ, आमला, बासा, काकोली, हल्दी, बरनेकी छाल और
लकारादि
सम्भालु २॥ - २॥ तोले लेकर सबको एकत्र पीस लें ।
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१२|| सेर तिलके तेलमें १८ ||| सेर गोदुग्व और उपरोक्त कल्क मिलाकर मन्दाग्नि पर पकायें । जब दूध जल जाए तो तेलको छान लें।
यह तेल समस्त ज्वरोको नष्ट और बल वीर्य की वृद्धि करता है ।
इसकी मालिशसे थकान और भ्रम शीघ्र ही नष्ट होता तथा शरीरकी कान्ति बढ़ती है । यह तेल अस्थियोंकी वेदनाको भी नष्ट कर देता है और इसकी मालिशसे गहरी नींद आ जाती है । (६२८६) लाक्षादितैलम् (२)
( भै. र. धन्व बृ. नि. र. ; व. से. । बालरोग; यो त । त. ७०; ग. नि. । बालरोगा. ११; ग. नि. । परिशि. तैला. २; वा. भ. 1 उ. अ. २; व. से. । ज्वरा; वृ. नि. र. | (सर्वज्वरा.)
लाक्षारससमं सिद्धं तैलं मस्तु चतुर्गुणम् । रास्नाचन्दन कुण्ठाब्दवाजिगन्धानिशायुगैः ॥ शताह्वादारुयष्ट्याह्नमूर्वातिक्ताहरेणुभिः । बालानां ज्वररक्षोघ्नमभ्यङ्गाद्बलवर्णकृत् ॥
कल्क रास्ना, सफेद चन्दन, कूठ, नागरमोथा, असगन्ध, हल्दी, दारूहल्दी, सोया, देवदारुमुलैठी, मूर्खा, कुटकी और रेणुका १-१ तोला लेकर सबको एकत्र पीस लें 1
१०४ तोले तिलके तेल में उपरोक्त कल्क, १०४ तोले लाखका रस और ४१६ तोले मस्तु
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तैलमकरणम् ]
चतुर्थो भागः
४१३
नयेत।
(दहीसे दो गुना पानी मिलाकर बनाया हुवा (मस्तु-दहीमें उससे दो गुना पानी मिला तक ) मिलाकर मदाग्नि पर पकावें । जब जलांश कर बनाया हुवा तक ।) शुष्क हो जाय तो तेलको छान लें।
टिप्पणी--कुछ ग्रन्थों में ४ गुना गायका इसकी मालिशसे बालकोंका ज्वर नष्ट होता दही, और कल्क में असगन्ध अधिक लिखा है । और बल, वीर्यकी वृद्धि होती है।
इसका नाम भी कई पुस्तकों में "महा लाक्षादि" (६२८७) लाक्षादिर्तलम् (मध्यम) (३) लिखा है तथा गुण इस प्रकार वर्णित हैं।
(यो. र. । ज्वरा., राजय.; वृ. यो. त.। विषमाख्यान् ज्वरान् सर्वान् आश्वेव प्रशमं त. ५६, ७६; वृ. नि. र. । विषमज्वरा.; भै. र. ज्वरा.; यो. चि. म. । अ. ६; यो, त. । त. | कासं श्वास प्रतिश्यायं कण्डूदौर्गन्ध्यगौरवम् ॥ २०; वृ. नि. र. । विषमज्वरा. )
त्रिकपृष्ठकटीशूलं गात्राणां कुट्टनं तथा । तैलं प्रस्थमितं चतुर्गुणजतुक्वार्थ चतुर्मस्तुरुग्
पापालक्ष्मीप्रशमनं सर्वग्रहनिवारणम् ॥ यष्टीदारुनिशाब्दमूर्वाकटुकामिश्यश्च कौन्ती-आश्व
अश्विभ्यां निर्मितं श्रेष्ठं तैलं लाक्षादिकं महत्।।
। अर्थात्- यह तेल समस्त विषमज्वरोंको रास्नादः पिचसम्मितैः कृतमिदं शस्तं त जीर्ण- शीघ्र ही नष्ट कर देता है । इसके अतिरिक्त यह
ज्वरे खांसी, श्वास, प्रतिश्याय, कण्डू, दुर्गन्ध, शरीरका सर्व स्मिविषमेऽपि यक्ष्मणि शिशौ वृद्धे सग- भारीपन, त्रिकदेश पीठ और कमरका दर्द, शरी
आँसु च ॥ रकी हडफूटन, पाप, अलक्ष्मी और समस्त ग्रहतिलका तेल २ सेर, लाखका काथ ८ सेर. दोषोंको नष्ट करता है । मस्तु ८ सेर तथा निम्न लिखित कल्क एकत्र (६२८८) लाक्षादितैलम् (महा) (४) मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब जलांश शुष्क (वृ. नि. र. । सर्वज्वरा.) हो जाय तो तेलको छान लें।
| लाक्षाहरिद्रामजिष्ठाफेनिलं मधुकं बला। करक-कठ, मुलैठी, देवदारु, हल्दी, ना- लामज्जकं चन्दनं च चम्पकनीलमुत्पलम् ॥ गरमोथा, मूर्वा, कुटकी, सौंफ, रेणुका, सफेद प्रत्येकमेषां षण्मुष्टीः पक्त्वा तोये चतर्णणे। चन्दन और रास्ना ११-१। तोला लेकर सबको चतुर्भागावशेषे तु गर्भ चैतत्समावपेत् ।। एकत्र पीस लें।
रेणुकापद्मकं चैव वाजिगन्धा तथैव च । यह तेल जीर्णज्वर, विषमज्वर और यक्ष्माको वेतसं चोरकं कुष्ठं देवदारु नखं त्वचं ॥ नष्ट करता तथा बालक, वृद्ध और गर्भिणीके लिये शपुष्पां पुण्डरीक मांसीमधुकमेव च । विशेष हितकारी है।
एभिरक्षमितैः कल्कैः कषायेणैव पेषितैः ॥
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४९४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि मस्तुमुक्तारनालानामाढकाढकमावपेत् । । (६२८९) लाक्षादितैलम् (लघु) (५) : ' क्षीराढकसमायुक्तं तैलप्रस्थं विपाचयेत् ॥
(भै. र.; वृ. नि. र.; यो. र.; च. द. । ज्वरा.; अभ्यङ्गात्तैलमेतद्धि शीघ्र दाहमपोहति ।
यो. त. । त. २०; वृ. यो. त. । त. ५९) व्यपोहति तथा वातपित्तश्लेष्मभवं ज्वरम् ॥ सालापं सतृष्णं च तालुशोषभ्रमान्वितम् ।
लाक्षाहरिद्रामञ्जिष्ठाकल्कैस्तैलं विपाचितम् । ग्रहोपसृष्टा ये वाला रक्षःसंदूषिताश्च ये ।।
पड्गुणेनारनालेन दाहशीतज्वरापहम् ॥ तेषां कष्टं शमयते तैलं लाक्षादिकं महत् ।।
लाख, हल्दी और मजीठ ५-५ तोले लेकर
सबको एकत्र पीस लें । तदनन्तर १२० तोले ... काथ--लाख, हल्दी, मजीठ, रोठा, मुलैठी,
(१॥ सेर) तेल में यह कल्क और ९ सेर आरनाल खरैटी, लामज्जक ( पीली खस ), लालचन्दन,
मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब जलांश शुष्क चम्पाके फूल और नीलोत्पल ३०-३० तोले ले.
हो जाय तो तेलको छान लें। कर सबको अधकुटा करके ३० सेर पानीमें पकावें और ७॥ सेर पानी शेष रहने पर छान लें।
यह तेल दाह, शीत और ज्वरको नष्ट .. कल्क--रेणुका, पद्माक, असगन्ध, बेत,
- ( आरनाल बनानेकी विधि भा. भै. र. भाग चोरक ( स्पृक्का-असवरग ), कूठ, देवदारु, नख, दालचीनी, सोया, कमल, जटामांसी और मुलैठी
१ के परिशिष्ट में देखिये ।) १-१। तोला लेकर सबको उपरोक्त काथसे गीला .. (६२९०) लाक्षायं तैलम् (मध्यम् ) करके एकत्र पीस लें।
.( भै. र. । मुखरोगा.; वृ. यो. त.। त. तदनन्तर २ सेर तिलके तेल में उपरोक्त । ५९; ग. नि. । मुखरोगा. ५; च. दः। मुख. क्वाथ, कल्क तथा ८-८ सेर मस्तु, सूक्त, आरनाल | ५५; र. र.; व. से. । मुख.; वृ. नि. र. । ज्वर.; और गायका दूध मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । यो. र. । ज्वर., दन्त., धन्व. : । मुख रोगा.) . जब जलांश शुष्क हो जाय. तो तेलको छान लें। तैलं लाक्षारसं क्षीरं पृथक् प्रस्थं समं पचेत् । : इसकी मालिशसे दाह और वातज, पित्तज चतुर्गुणे रिमक्वाथे द्रव्यैश्च पलसम्मितैः ॥ तथा कफज ज्वर एवं प्रलाप, तृष्णा, तालुशोष लोध्रकटफलमनिष्ठापद्मकेशरपद्मकैः । .. और भ्रम युक्त ज्वर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । चन्दनोत्पलयष्टयाद्वैस्तैलं गण्डूषधारणम् ॥ यह ग्रहदोष और राक्षसोंसे पीड़ित बालकोंके
दालनं दन्तचालश्च दन्तमोक्षं कपालिकाम् । कष्टको भी नष्ट करता है ।
शीतादं पूतिवक्त्रश्च अरुचि विरसास्यताम् ॥
हन्यादासु गदानेतान् कुर्यादन्तानपि स्थिरान।। (नोट---सूक्त आदि बनानेकी विधि भा. भै. र. प्रथम भाग के परिशिष्ट में देखिये । ) . . १ मञ्जिष्ठामुस्तकेशरपनकैः इति पाठान्तरम्।
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लपकरणम् ]
चतुर्थो भागः
-
ations
काथ---४ सेर दुर्गन्धित खैरकी छालको | और भिलाव! ११-१। तोला लेकर सबको एकत्र ३२. सेर पानीमें पकावें और ८ सेर शेष रहने | पीस लें । पर छान लें।
२० तोले देवदारुका तेल, ४० तोले तिलका कल्क--लोध, कायफल, मजीठ,क्रमलकेसर | तेल, ३ सेर गोमूत्र और उपरोक्त कल्क एकत्र (पाठान्तरकेअनुसार नागरमोथा और नागकेसर), मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें। जब गोमूत्र जल पमाक, सफेद चन्दन, नालोत्पल आर मुलछा जाय तो तेलको छान लें। ५-५ तोले लेकर सबको एकत्र पीस लें।
इसे कानमें डालनेसे कानसे पोप बहना, २ सेर तिलके तेल में २ सेर लाखका रस,
कानके कृमि, कानका दुष्ट नाडीव्रण और व्रण शीघ्र २ सेर गायका दूध, उपरोक्त वाथ और कल्क | मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जलांश शुष्क हो |
| ही नष्ट हो जाता है। जाय तो तेलको छान लें।
(६२९२) लिकुचादितैलम् ...इसके गण्डूष धारण करनेसे दालन, दन्त- (वै. म. र. । पटल १६ ) चालन, दन्तमोक्ष, कपालिका, शीताद, पूतिवक्त्र,
स्वरसे मूत्रे च शृतं लिकुचअरुचि और मुखकी विरसता नष्ट होती है तथा दांत मज़बूत हो जाते हैं।
निशाभ्यां च सुरभिपुरुषाभ्याम् ।
तलं लवणांशयुतं व्रणशुद्धि . (६२९१) लागल्याचं तैलम्
विरोपणं च तत् कुरुते ॥ ( ग. नि. । परि. तैला. २).
बढल और हल्दीका स्वरस आधा आधा सेर लाङ्गली कुष्ठमरिचं शुण्ठी मागधिका धनम् । लें। यदि स्वरस न मिले तो बढल और हल्दी सरसाअनकासीसं जतुसैन्धवगुग्गुलुः ॥
| २०-२० तोले ले कर दोनेांको अधकुटा करके मनःशिलाले निर्गुण्डी बिल्वं भल्लातकं तथा।
| ४ सेर पानीमें पका और जब १ सेर पानी शेष कार्षिकैर्देवदारुत्थतैलस्य द्विपलेन च ॥
| रहे तो छान लें। कुडवं तिलतैलस्य पचेन्मूत्रे चतुर्गुणे । तत्कर्णपूरणाक्षि पूयस्रावनिवारणम् ॥
। २० तोले तिलके तेलमें १ सेर गोमूत्र, कृमिघ्नं दुष्टनाडीनं व्रणानां चैव रोपणम् ॥ उपरोक्त स्वरस या काथ और १।-१। तोला
| राल, गूगल और सेंधानमक मिला कर मन्दाग्नि पर कल्क--कलियारी, कूठ, काली मिर्च, सोंठ,
पकावें । जब पानी जल जाए तो तेलको छानलें । पीपल, नागरमोथा, रसौत, कसीस, लाख सेंधानमक गूगल, मनसिल, हरताल, संभालु, बेलकी छाल | यह तेल घावोंको शुद्ध करता और भरता है।
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(६२९३) लोधाद्यं तैलम्
( वृ. यो. त. । त. १२८ )
लोखादिरमअष्ठायाश्चापि साधितम् । तैलं संशोधनं हन्याद्दन्तनाडीगतिं क्रमात् ॥
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
कल्क - लोध, खैरसार, मजीठ और मुलैठी २|| - २॥ तोले लेकर सबको एकत्र पीस लें ।
काथ - उपरोक्त ओषधियां ४०-४० तोले लेकर सबको अधकुटा करके १६ सेर पानीमें पकावें और ४ सेर पानी शेष रहने पर छान लें
1
१ सेर तिल के तेल में उपरोक्त कल्क और काथ मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाए तो तेलको छान लें ।
करता है ।
यह तैल दन्त नाड़ी (दांत के नासूर ) को नष्ट
[ लकारादि
बालोंको उखाड़नेके पश्चात् कुसुम्भ (कैड) के तेल की मालिश करने से पुनः बाल नहीं निकलते ।
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(६२९५) लोहकिद्वाचं तैलम् ( रा. मा. शिरो रोगा. )
यल्लो हट्टोत्पलसारिवाभ्यां समावाभ्यां त्रिफलान्विताभ्याम् । विपच्यते तैलमपास्यति द्राक् शीर्षामयान्दारुणकादिकांस्तत् ॥
मण्डूर, अनन्तमूल, काला भंगरा और त्रिफलाके कल्कसे तैल पाक करके रक्खें ।
इसकी मालिशसे दारुणक इत्यादि शिरो रोग नष्ट होते हैं ।
(६२९४) लोमनाशकतैलम्
( प्रत्येक ओषधि ५ तोले -- मिलित ३० तोले । तिलका तेल ३ सेर । पानी १२ सेर ।
(भै. र. । स्त्री रोगा. ) कुमुम्भतैलाभ्यङ्गो वा रोम्णामुत्पाटितेऽन्तकृत् || एकत्र मिला कर पानी जलने तक पकावें । )
इति लकारा दितैलमकरणम्
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आसपारिष्टप्रकरणम् ]
.... चतुर्थों भागः
अथ लकाराद्यासवारिष्ट-प्रकरणम् (६२९६) लक्ष्मणारिष्टः द्रोणशेषे रसे तस्मिन्पूते शीते प्रदापयेत् ।
(भै. र. । स्त्रीरोगा.) गुडस्य द्विशतं तिष्ठे त्तत्सर्वं घृतभाजने ॥ लक्ष्मणायाः पलशतं चतुर्दोणजले पचेत् ।। पक्षादूध जातरसे दद्यान्मात्रां यथावलम् । पादशेषे कषायेऽस्मिन् क्षिपेद् गुडतुलाद्वयम् ॥ अस्याभ्यासादरिष्टस्य गुदजा यान्ति संक्षयम् ।। घातकी षोडशपलां मुस्तकं मधुकं बलाम् ।। ग्रहणीपाण्डुहृद्रोगप्लीहगुल्मोदरापहः । फलत्रयं निशाद्वन्दं जीरकं चन्दनद्वयम् ॥ कुष्ठशोफारुचिहरो बलवर्णाग्निवर्धनः ।। अजमोदा यमानीश्च बिल्वश्च पलमानतः। सद्यः क्षयहरोऽरिष्टः कामलाश्वित्रनाशनः । मासादूर्श्वन्तु सिद्धोऽयमरिष्टः स्वीगदान्तकृत् ॥ कृमिग्रन्थबुदव्यङ्गराजयक्षमज्वरान्तकृत् ॥
६। सेर लक्ष्मणाको १२८ सेर पानीमें पकावे लौंग, पीपल, अगर, काली मिर्च और एल. और जब ३२ सेर पानी शेष रहे तो छान लें। वालुकका चूर्ण १०-१० तोले लेकर सबको तदनन्तर उसमें १२॥ सेर गुड़ और १ सेर धाय- १२८ सेर पानीमें पकावें और ३२ सेर पानी के फूलोंका चूर्ण तथा ५-५ तोले नागरमोथा, शेष रहने पर छान लें। तदनन्तर उसके ठण्डा मुलैठी, खरैटो, हर्र, बहेड़ा, आमला, हल्दी, दारु. होने पर उसमें १२॥ सेर गुड़ मिलाकर यथा हल्दी, जीरा, सफेद चन्दन, लाल चन्दन, अज- विधि घृतलिप्त मृत्पात्र में सन्धान करके रक्खे और मोद, अजवायन और बेलगिरी का चूर्ण मिलाकर १५ दिन पश्चात् छान लें । सबको मज़बूत और घृतसे चिकने किये हुवे
इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे अर्श, मृत्पात्र में भरकर उसका मुख बन्द कर दें और
संग्रहणी, पाण्डु, हृद्रोग, प्लीहा, गुल्म, उदररोग, फिर १ मास पश्चात् निकाल कर छान लें।।
कुष्ठ, शोथ, अरुचि, क्षय, कामला, श्वित्र, कृमि, यह अरिष्ट स्त्रीरोगोंकेश नष्ट करता है।
| ग्रन्थि, अर्बुद, व्यङ्ग और ज्वरका नाश होता लघुचुक्रसन्धानम्
| तथा बल वर्ण और अग्निकी वृद्धि होती है। (ग. नि. । आसवा. ६)
(६२९८) लवङ्गासवः (२) प्र. सं. १८१६ “चुक्रसन्धानम् (स्वल्प)" देखिये
(गदनिग्रह । आसवा ६) (६२९७) लवङ्गासवः (१) देवपुष्पं वराङ्गं च केशरं पृथुकां तथा ।
(ग. नि. । आसवा. ६) कलौंजी मर्कटीबीजं मूसलीद्वयगोक्षुरम् ॥ लवङ्गपिप्पलीलोहमरिचं सैलवालुकम। बलाबीजानि पोस्तत्वग्वीजं च करहाटकम् । द्विपलांशं जलस्यंतचतुर्दोणे विपाचयेत् ॥ पृथक् पृथक प्रकुर्वीत पलानां पञ्चकं तथा ।
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भारत - भैषज्य - रत्नाकरः
चतुर्दोऽम्भसः पक्त्वा कुर्यात्पादावशेषितम् । शटी च पिप्पलीमूलं मरिचं साश्वगन्धकम् ॥ शुण्ठी जातिफलं चापि कुङ्कुमं जातिपत्रका | आकल्लकं कवावं च होला कृष्णागुरुस्तथा ॥ तालीसं चन्दनं चैव विजया क्षीरकन्दका । 'वृद्धदारुभवं बीजं क्रमुकं वंशरोचना ॥ धत्तरस्य च वीजानि पलमात्राणि कारयेत् । सर्वमेकत्र सपूते शीते विनिक्षिपेत् ॥ द्वात्रिंशत्पलिकं क्षौद्रं धातक्याच पलाष्टकम् | तुला तु गुडाजी घृतभाण्डे विनिक्षिपेत् ।। मासादूर्ध्वं पिवेदेनं प्रमेहं हन्ति दुर्जयम् । धातुक्षयं जयेच्छीत्रं लवङ्गायासवस्त्वयम् ॥
लौंग, दालचीनी, नागकेसर, कालाजीरा, कलौंजी, कौंच के बीज, दोनों मूसली, गोखरू, खरैटोके बीज ( बीजबन्द ), पोस्तका छिलका, पोस्तके दाने और मैनफल २५ - २५ तोले ले कर सबको अधकुटा करके १२८ सेर पानी में पकावें और ३२ सेर पानी शेष रहने पर छान लें।
तदनन्तर इस काथके ठण्डा होनेपर इसमें कचूर, पीपलामूल, काली मिर्च, असगन्ध, सोंठ, जायफल, केसर, जावत्री, अकरकरा, कबाब वीनी, इलायची, काला अगर, तालीसपत्र, सफेद चन्दन, भांग, क्षीरविदारी, विधारेके बीज, सुपारी, बंत लोचन और धतूरे के बीज, इनका ५-५ तोले चूर्ण तथा ४ सेर शहद, आधा सेर घायके फूलों का चूर्ण और ३ सेर १० तोले पुराना गुड़ मिलाकर सबको घृतसे चिकने किये हुवे मृत्पात्र में भरकर उसका मुख बन्द करके रख दें; और १ मास पश्चात् निकालकर छान लें
1
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[ लकारादि
यह आसव दुर्जय, प्रमेह और धातुक्षीणता को 'शीघ्र ही नष्ट कर देता है ।
लोधासव:
(वृ. वि. यो. र. । प्रमेहा. )
प्र. सं. ५९६९ “ रोघ्रासव " देखिये । (६२९९) लोहारिष्टः
(सु. सं. । चि. अ. १२; र. का. धे.; व. से. । मेदरोगा . )
शालसारादिनिर्यूहे चतुर्थांशावशेषिते । परिस्रुते ततः शीते मधुना मधुरीकृते ॥ फाणितीभावमापन्नं गुडशोधितमेव च । श्लक्ष्णपिष्टानि चूर्णानि पिपल्या देर्गेणस्य च ।। ऐकध्यमावपेत्कुम्भे संस्कृते घृतभाविते । पिप्पलीचूर्णमधुभिः प्रलिप्ते चान्तरे शुचौ ॥ इलक्ष्णानि तीक्ष्णलोहस्य तनुपत्राणि बुद्धिमान् । खदिरांगारतप्तानि बहुशः प्रक्षिपेद्बुधः ॥ सुपिधानं ततः कृत्वा यवपल्ले निधापयेत् । मासांस्त्रींश्चतुरो वापि यात्रा लोहसंक्षयात् ।। ततो जातरसं तत्तु सेवेत्प्रातर्यथाबलम् । उपयुञ्ज्याद्यथायोगमाहारं चास्य कल्पयेत् ॥ एष स्थूलं समाकर्षेन्नष्टस्याग्नेः प्रसादनः । शोफहृद्गुल्म जित्कुष्ठमेह पाण्ड्वामयापहः ।। अभिष्यन्दामयान् सर्वान् नाशयेद् विषमज्वरान्
शालसारादि गणकी ओषधियां समान भाग मिश्रित ६ | सैर लेकर सबको अधकुटा करके ३२ सेर पानी में पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रहे तो.
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आसवारिष्टप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
४९९
छान लें और फिर उसके ठण्डा होने पर उसमें चूर्णीकृत्य ततः क्षौद्रं चतुः पष्टिपलं क्षिपेत् ॥ इतना शहद डालें कि वह मीठा हो जाए । तत्प- दद्याद्गुडतुलां तत्र जलद्रोणद्वयं तथा । श्चात् उसमें उचित मात्रामें शुद्ध राब और पिप्प- घृतभाण्डे चिनिक्षिप्य निदध्यान्मासमात्रकम् ।। ल्यादिगगका चूर्ण एवं खैरके अंगारों में अनेक लोहासवममुं मर्त्यः पिवेदग्निकरं परम् । बार तपाये हुए शुद्र लोहके बारीक पत्र मिलाकर पाण्डुश्वयथुगुल्मानि जठराण्यशंसां रुजम् ॥ सबको शुद्र और घृतभावित मृत्पात्र में भरकर कुष्ठं प्लीहामयं कण्डू कासं श्वासं भगन्दरम् । उसका मुख बन्द करदें और उसे जौके ढेरमें दबा अरोचकं च ग्रहणी हृद्रोग घ विनाशयेत् ।। दें । इस पात्रमें औषध भरनेसे पूर्व शहदमें मिले लोहचूर्ग, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, हुए पोपलके चूर्ण का लेप कर देना चाहिए।
आमला, अजवायन, बायबिडंग, नागरमोथा और २-३ मास या जब तक लोह न गल जाए । चीतामल २०-२० तोले. धायके फल ११ सेर. तब तक मटकेको अनाज के ढेरमें ही रहने देना | शहद २ सेर, गुड़ ६। सेर और शुद्ध जल ६४ चाहिये और फिर उसे निकालकर छानकर बोत- सेर लेकर कूटने योग्य चीजों का कूटकर सबको लोंमें भरलें ।
घृतसे चिकने किये हुवे पात्रमें भरकर उसका मुख इसे प्रातःकाल यथोचित मात्रानुसार सेवन | बन्द करके रख दें, और १ मास पश्चात् निकाल करने और पथ्य पालन करनेसे स्थूलता नष्ट | कर छान लें। और अग्नि दीप्त होती है।
यह आसव अग्निवर्धक है एवं पाण्डु, शोथ, इसके अतिरिक्त यह अरिष्ट शोथ, हृदोग, | गुल्म, उदररोग, अर्श, कुछ, प्लीहा, कण्डू, खांसी, गुल्म, कुष्ठ, प्रमेह, पाण्डु, अभिष्यन्द और विषम- | श्वास, भगन्दर, अरुचि, ग्रहणी और हृद्रोगको ज्वरको भी नष्ट करता है।
नष्ट करता है। (राब १ सेर ४५ तोले; पिप्पल्यादिगणका
(६३०१) लोहासवः (२) चूर्ण तथा लोह समान भाग मिश्रित ६४ तोले ।)
( गदनिग्रह । आसवा. ६) ___ (६३००) लोहासवः (१)
फलत्रिकं निम्बपटोलमुस्ता(शा. सं. । खं. २ अ. १०; र. का. धे. । पाण्डु.,
पाठामृताचन्दनचित्रकं च । ___गुल्मा.; यो. चि. म. । अ. ७) बेल्लं समगा च मधूकसारलोहचूर्ग त्रिकटुकं त्रिफलां च यवानिकाम् । कचूरवासाविताहरिद्राः॥ विडङ्ग मुस्तकं चित्रं चतुः सङ्ख्यापलं पृथक् ॥ दुरालभापर्पटकण्टकारीधात कीकुसुमानां तु प्रक्षिपेत्पलविंशतिः। । शकासनं यासकचर्मरङ्गे ।
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५००
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ लकारादि
शशाङ्कलेखाकपिकच्छू मूलं | मेथी, बेलकी छाल, कुड़ेकी छाल, कुटकी, त्राय
मेथी च बिल्वं कुटजश्च तिक्ता॥ माना और पोखरमूल ५-५ तोले तथा खैरसोर त्रायन्तिका पुष्करस्य मूलं
३॥। सेर एवं लोह चूर्ण १० तोले, लोहकिट्ट पलैकमानानि महौषधानि । (मण्डूर) ६। सेर और केबुक तथा जीवनीय गणकी पष्टिः पलानां खदिरस्य सारो प्रत्येक ओषधि २५-२५ तोले लेकर सबका चूर्ण
ह्ययोरजः स्यात् पलयुग्ममानम् ॥ करके यथा विधि सन्धान करके २१ दिन धूप में स्याल्लोहकिटं च तुलाप्रमाणं | रक्खें । तत्पश्चात् छान कर बोतलों में भर कर ___ तत्पश्चकं केवुकजीवनीयम् । रख दें। पक्षिप्य भाण्डे शशियुग्मघवान्
(पानी ३ मन ३५ सेर, गुड़ ३० सेर ) सूर्यातपे स्थाप्य ततस्तु योज्यः ।।
सूचना--लोहारिष्ट और लोहासवमें लोह लोहासवोऽयं भिषजोपदिष्टः
चूर्णके स्थान में लोह भस्म डाली जाय तो उत्तम सर्वोत्तमो रोगविनाशहेतुः ॥
है । लोह भस्मको प्रथम जलमिश्रित हरके चूर्ण में हर्र, बहेड़ा, आमला, नीमकी छाल, पटोलपत्र, भिगो दें और तीन दिन पश्चात् उसमें आमले नागरमोथा, पाठा, गिलोय, सफेद चन्दन, चीता- | और बहेड़ेका चूर्ण मिला दें। इसके चार दिन मूल, बायबिडंग, मजीठ, महुवेका सार, कचूर, । पश्चात् इस मिश्रणको आसवके घड़ेमें डालना बोसा, निसोत, हल्दी, धमासा, पित्तपापड़ा, कटेली, चाहिये । इस क्रियासे लोह आसवमें विलीन हो इन्द्रजौ, जवासा, चर्मरङ्गा, बाबची, कौं वकी जड़, । जाता है ।
इति लकारावासवारिष्टप्रकरणम्
अथ लकारादिलेपप्रकरणम् (६३०२) लशुनादिलेपः (६३०३) लाक्षादिलेपः (१) ( वृ. नि. र. । गा.)
(वृ. मा. । क्षुद्ररोगो.) लशुनेनाथवा दद्याल्लेपनं कृमिनाशनम् ॥ | लाक्षाकरअपल्लवचक्रमर्दफललेपः ।
घाव पर ल्हसनका लेप करनेसे कृमि नष्ट शिरसि कृतो बहुदृष्टो दारुणकशान्तिकरः होते हैं।
परमः ॥
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लेपप्रकरणम् ]
चतुर्यों भागः
लाख, कराके पत्ते और पंवाड़के बीज (६३०६) लाक्षागुबर्तनम् समान भाग ले कर सबको एकत्र पीस कर लेप (व. से. । कुष्ठा.; यो. र. । कुष्ठा.; वा. भ. । बनावें।
चि. अ. १९; वृ. नि. र. । त्वग्दोषा.) इसे शिरमें लगानेसे दारुणक नामक शिरो
लाक्षाश्रीवेष्टकं कुष्ठं हरिद्रे गौरसर्षपाः । रोग नष्ट होता है।
व्योषं मूलकबीजानि प्रपुन्नाटफलानि च ।। (६३०४) लाक्षादिलेपः (२) एतान्यम्ल प्रपिष्टानि कुष्ठेषूद्वर्त्तनं परम् । (वृ. नि. र. । वृद्ध्य.)
सिध्मानां किटिभानाञ्च दद्रूणाश्च विशेषतः ।। लाक्षाकरअबीजं च शुण्ठी दारु च गैरिकम् ।
___लाख, श्रीवेष्ट, कूठ, हल्दी, दारु हल्दी, सफेद कुन्दरं च समं कृत्वा चूर्णयेन्मतिमान् भिषक् । काधिकेन तु सम्पेष्य तथा श्वयथुनाशनः । ।
पंवाड़के बीज समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इसे खट्टी कांजी या नीबूके रसमें पीस पर लाख, करा बीज, सांठ, देवदारु, गेरु और
| कुष्ठ पर मसलनेसे सिध्म, किटिभ और दादका कुन्दर समान भाग लेकर सबको एकत्र पीस कर
नाश होता है। चूर्ण बनावें ।
इसे काफीमें पीस कर लेप करनेसे अन्त्रवृद्धि (६३०७) लाङ्गलीकन्दलेपः और शोथका नाश होता है।
(रा. मा. । व्रणा. २५) (६३०५) लाक्षादिलेपः (३) पिष्टेन लाङ्गलक्याः कन्देन विलेपिते व्रणस्य (ग. नि. । कुष्ठा. ३६)
मुखे। लाक्षा कुष्ठं सर्षपाः श्रीनिकेत
| सद्यो निर्याति क्षताच्छल्यं चिरकालनष्टमपि ।। रात्रिव्योषं चक्रमर्दस्य बीजम् । ___ लांगली (कलियारी) की जड़को पौस कर कृत्वकस्थं तक्रपिष्टः प्रलेपो | ब्रणके मुख पर लेप करनेसे बहुत दिनोंका भीतर
दद्रूष्क्तो मूलकाद्वीजयुक्तः ॥ रहा हुवा शल्य ( कांटा इत्यादि ) भी शीघ्र ही लाख, कूठ, सरसों, श्रीवास (धूप सरल), |
निकल आता है। हल्दी, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, पवांडके बीज (६३०८) लागलीलेपः और मूलीके बीज समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । ( रा. मा. । मुख रोगा. ५)
इसे छाछ (तक) में पीस कर लेप करनेसे यस्याङ्गुष्ठस्य नखो भवति दादका नाश होता है।
समुत्पिष्टलाङ्गलीलिप्तः ।
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६०२ भारत-भैषज्य रत्नाकर
[ लकारादि तदितरदिग्भवदशनकृमि
लामन्जक (पीली खस) और लाल चन्दनको रचिरात् पतति निर्जीवः ॥ शुक्त ( कांजी भेद ) में पीसकर लेप करनेसे दाह जिस ओरके दांतमें कृमि हों उससे दूसरी
शान्त होती है। ओरके (पैरके) अंगूठेके नख पर लांगलीकी जड़का | (६३१२) लूताविषहरो लेपः लेप करनेसे कृमि मर कर गिर पड़ते हैं।
( यो. त. । त. ७८ ) (६३०९) लागल्यादिलेपः (१)
| कटभ्यर्जुनशैरीपशेलक्षीरद्रुमत्वचः । (वृ. मा. । स्त्रीरोगा.)
कपायकल्कचूर्णाः स्युः कीटलूतात्रणापहाः ।। तुषाम्बुपरिपिष्टेन मूलेन परिलेपयेत् ।
कोयल, अर्जुनकी छाल, सिरसकी छाल, लागल्याश्चरणौ मूते क्षिप्रमापनगर्भिणी ॥
लिहसोड़ेकी छाल और पीपल की छाल; इनमें से किसी .. यदि बच्चा उत्पन्न होनेके समय अधिक बि
एकका काथ बना कर पीने और उससे धोनेसे, लम्ब हो रहा हो तो लांगली (कलियारी) की जड़की | अथवा कल्क या चूर्ण बना कर खाने और लेप कांजीमें पीस कर पैरोंके तलुवोंमें लेप करनेसे शीघ्र
करनेसे विषैले कीड़े और मकड़ीके व्रणको प्रसव हो जाता है।
आराम होता है। __(६३१०) लागल्यादिलेपः (२) (६३१३) लोधादिलेपः (१) ( शा. सं. । खं. ३ अ. ११; व. से. । विषा.) (व. से. । नेत्ररोगा.) लागल्यतिविपालाबुजालिनीबीजमूलकैः ।
बहिरवलिप्त लोचनमभिलेपो धान्याम्बु सम्पिष्टः कीटविस्फोटनाशनः॥ कुपितमपि प्रसीदति क्षिप्रम् । ... . कलियारी, अतीस, कड़वी तूंबीके बीज, लोध्ररसाअनचन्दनकड़वी तोरीके बीज और मूलीके बीज समान भाग मनःशिलाकुष्ठपथ्याभिः ।। लेकर सबको एकत्र पीसकर चूर्ण बनावें ।
लोध, रसौत, लाल चन्दन, मनसिल, कूठ इसे कांजीमें पीस कर लेप करनेसे विषैले | और हरै समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । कीटोंके काटनेसे उत्पन्न हुवे विस्फोटक नष्ट हो आंखोंके बाहर चारों ओर इसका लेप करनेसे जाते हैं।
नेत्राभिष्यन्द (आंखोंका दुखना) नष्ट होता है । (६३११) लामजकाद्युद्वर्तनम् (६३१४) लोधादिलेपः (२) .. (बृ. मा. । दाहा.)
| (शा. सं. । खं. ३ अ. ११; वृ. मा. ।क्षुद्ररोगा.) लामज्जेनाथ शुक्तेन चन्दनेनानुलेपयेत् । लोध्रधान्यवचालेपस्तारुण्यपिटिकापहः। ..
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लेपप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
तद्वद्गोरोचना युक्तं मरीचं मुखलेपनात् ॥ गायका दांत, शंखचूर्ण और पलाशक्षार सिद्धार्थकवचालोध्रसैन्धवैश्च प्रलेपनम् ॥ समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । .
नीचे लिखे तीनों लेप तारुण्यपिडिका | इसे पानीमें पीस कर लेप करनेसे योनिके (मुहासों) को नष्ट करते हैं।
बाल गिर जाते हैं। (१) लोध, धनिया और बच ।
(६३१८) लोमनाशनयोगः (२) (२) गोलोचन और काली मिर्च । । । (३) सफेद सरसों, बच, लोध और सेंधा
(यो. त. । त. ७६; ग. नि. । अधि. १०) नमक । सब ओपधियां समान भाग लेनी चाहिये। हरितालभागपञ्चमेको भागः पलाशभस्मभवः ।
(६३१५) लोधादिलेपः (३) - भागश्च यवक्षारः स्याल्लेपायोनिलोमहरः ॥ (व. से. । नेत्ररोगा.)
पीली हरताल ५ भाग, पलाशक्षार १ भाग तथा शावरकं लोध्र घृतभृष्टं विडालकः। और जवाखार १ भाग ले कर चूर्ण बनावें ।। कार्यो हरीतकी तद्वद् घृतयुक्ता रुजापहा ॥ इसे पानीमें पीसकर लेप करनेसे योनिके बाल
साबरलोध (पठानी लोध) को या हर्रको | गिर जाते हैं । घीमें भून कर नेत्रोंके बाहर लेप करनेसे नेत्रपीड़ा
(६३१९) लोमनाशनयोगः (३) शान्त होती है। (६३१६) लोधादिलेपः (४)
(ग. नि. । अधि. १०) (व. से. । उपदंशा.) समभागाद्धरितालादेको भागश्च किंशुकक्षारात्। तिरीटाअनवब्राहकोविदारेभकेशरैः । तद्वच्च शङ्खचूर्णादिति शातनमुत्तमं लोम्नाम् ॥ लेपनं पुरुषव्याधौ जलपिष्टैः प्रशस्यते ॥
शुद्ध हरताल, पलाशक्षार और शंखचूर्ण समान लोध, रसौत, तगर, कचनारकी छाल और |
| भाग ले कर सबको एकत्र मिलावें । गजकेसर समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इसे पानीमें मिला कर लेप करनेसे बाल गिर इसे पानी में पीस कर लेप करनेसे उपदंशके
जाते हैं। ब्रण नष्ट होते हैं। (६३१७) लोमनाशनयोगः (१)
(६३२०) लोहादियोगः - (ग. नि. । अधि. १०) (व. से. । क्षुद्र रोगा. ; वा. भ. । उ. अ. २४) गोदन्तं शङ्खचूर्ण क्षारेण युतं पलाशवृक्षस्य । अयोरजो भृङ्गराजस्त्रिफलाकृष्णमृत्तिका। . हरति जलेन तु पिष्टं प्रलेपनं योनिलोमानि ॥ स्थितमिक्षुरसे मासं समूलं पलितं जयेत् ॥
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५०४
भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[ लकारादि
लोह चूर्ण, भंगरा, हर्र, बहेड़ा, आमला और | उपदंशं निहन्त्येतद्वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥
काली मिट्टी समान भाग ले कर चूर्ण करके १ मास तक ईखके रस में भिगोए रक्खें ।
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इसका लेप करने से सफेद बाल जड़से काले हो जाते हैं ।
(६३२१) लोहादिलेप: ( र. र. । उपदंशा )
अयोरजस्ताम्ररजस्त्रिफलागैरिकस्तथा ।
इति लकारादिलेपप्रकरणम्
लघुभानुमतिवर्तिः
प्र. सं. ४९२३ " भानुमती वर्तिः (१) (लघु) देखिये ।
अथ लकाराद्यञ्जनप्रकरणम्
(६३२२) लशुनाद्यञ्जनम् (१) ( ग. नि. । ज्वरा. १; वृ. नि. र. ) शुनं पिप्पली राजी वचा पथ्या समांशकाः। एतच्चूर्ण जले पिष्टं चक्षुःस्थं ज्वरनाशनम् ॥ लहसन, पीपल, राई, बच और हर्र समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इसे पानी में पीस कर आंखो में लगाने से ज्वर नष्ट होता है ।
(६३२३) लशुनाद्यञ्जनम् (२) ( यो. र. ; वृ. नि. र. । सन्निपाता. ) लशुनमरिचकृष्णामाणिमन्थोग्रगन्धा - शुकतरुफलवी जैर्विश्वगोमूत्रपिष्टैः ।
लोह चूर्ण, ताम्र चूर्ण, हर्र, बहेड़ा, आमला और गेरु समान भाग ले कर चूर्ण बनावें ।
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इसे ( पानी में ) पीस कर लेप करनेसे उपदेश नष्ट होता है ।
( लोह और ताम्रकी भस्म लेनी चाहिये । )
aayaa विकारे रक्तपित्तप्रभेदे गदितमगद विद्भिर्नेत्रयोरञ्जनं स्यात् ॥
लहसन, काली मिर्च, पीपल, सेंधानमक, बच, सिरस के बीज और सोंठ समान भाग ले कर चूर्ण
इसे गोमूत्र में पीस कर आंखों में लगानेसे कफवातज और रक्तपित्त तथा अतिसार युक्त सन्निपात नष्ट होता है ।
(६३२४) लाक्षादियोगः ( व. से. । नेत्र रोगा. )
लाक्षानिर्गुण्डी भृङ्गदावरसेन
श्रेष्टं कार्पासं भावितंसप्तकृत्वः । दीपाः प्रज्वाल्याः सर्पिषीं तत्समुत्था श्रेष्टा पिल्लानां रोपणार्थं मषी सा ॥
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नस्यप्रकरणम् ] - चतुर्यो भागा
रुईको लाख, संभाल, भंगरा और दारु- सबको एकत्र कूट कर ४ सेर पानीमें पकावें और हल्दीके स्वरस या काथकी पृथक् पृथक् सात सात २ सेर पानी शेष रहने पर छान कर उसे पुनः भावना दे कर सुखा लें और फिर उसकी बत्ती पका कर गाढ़ा करें । जब करछीको लगने लगे. बनाकर उसे घोके दीपकमें जलाकर स्याही इकही तो अग्निसे नीचे उतार कर ठण्डा करके लोहे या
पत्थरके बरतनमें भर कर सुरक्षित रक्खें । इसे आंखमें लगानेसे पिल्ल ( पलकोंके भीत- . इसे सुबह शाम आंखमें लगानेसे नेत्र शुक्र रके शोथ ) का नाश होता है।
और सव्रण शुक्र नष्ट होता है। यह एक प्रधान (६३२५) लामज्जकाद्यञ्जनम्
औषध है। (यो. र. ; व. से.; वृ. नि. र. । नेत्ररोगा.)
(६३२६) लोहभस्माञ्जनम्
(र. चं.; वृ. नि. र. । सन्निपाता. ; भा. लामजकोत्पलसितासारिवाचन्दनद्वयैः ।
प्र. म. ख. २ सन्निपाता.) कार्षिकैः सारिवा प्रस्थं क्याथयेत्सलिलाढके ॥ अयोरजः श्वेतलाधमान मरिचं तथा । पादशेष परिस्राव्य पचेदादविलेपनात् । गोरोचनसमायुक्तं तन्द्रानाशनमुत्तमम् ॥ भाजने लौहशैले वा प्रातस्तस्साययअनम् ॥ लोह चूर्ण, सफेद लोध, रसौत, काली मिर्च प्रधानमेतच्छुक्रघ्नं व्रणशुक्रं शमं नयेत् ॥
| और गोरोचन समान भाग ले कर यथा विधि लामज्जक (खस भेद), नीलोत्पल, मिसरी, | चूर्ण बनावें । सफेद सारिवा, सफेद चन्दन और लाल चन्दन इसे आंख में लगानेसे सन्निपातकी तन्द्रा नष्ट ११-१। तोला तथा कृष्ण सारिवा १ सेर ले कर होती है।
इति लकाराद्यानप्रकरणम्
. अथ लकारादिनस्य-प्रकरणम् (६३२७) लक्ष्मणामूलयोगः ।
अवामनासाविवरे ऋतुस्था
___ सा पुत्रिणी स्यात्पतिसंप्रयोगात् ॥ (ग. नि. । बन्ध्या.; रा. मा. । स्त्रीरोगा. ३०) यदि ऋतुमती नारी उत्तम लक्ष्मणाकी जड़
| को घीमें पीसकर दहिने नसकोरेसे सूघे और गृह्णाति लिङ्गाङ्कित्तलक्ष्मणाया
| फिर यथा समय पतिसमागम करे तो उसको पुत्र __मूलेन नस्य सघृतेन या स्त्री। प्राप्ति होती है ।
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः . [लकारादि ... (६३२८) लागल्यादिनस्यम् (१) । (६३२९) लाङ्गल्यादिनस्यम् (२) - (रा. मा. | मुखरोगा. ४)
__ (वृ. नि. र. । विषरोगा.) । लाङ्गलीकन्दसुरसाव्योषकुष्ठैः सकट्फलैः ।
| जलेन लाङ्गलीकन्दनस्यं सर्पविषापहम् । नस्यं तु पीनसं हन्यात्पूतिनासं च दारुणम् ।।
वारिणा टङ्कणं पीतमथवार्कस्य मूलकम् ॥ ___ कलियारी की जड़, तुलसी, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, कूठ और कायफल समान भाग
जलमें कलियारीकी जड़को पीसकर उसकी लेकर चूर्ण बनावें।
नस्य देनेसे सर्पविष नष्ट होता है । इसको नस्य लेनेसे पीनस और दारुण पूति- सुहागे या आककी जड़को पानीमें पीसकर नासा रोग नष्ट होता है।
पिलानेसे भी सर्पविष नष्ट होता है । इति लकारादिनस्यप्रकरणम्
अथ लकारादिरसप्रकरणम् (६३३०) लक्ष्मणालौहम् (१) और बेलगिरीका चूर्ण, ५-५ तोले तथा लोह ( भै. र. । स्त्रीरोगा.) . भस्म ३५ तोले मिला कर ठण्डा करके सुरक्षित
रक्खें । लक्ष्मणायाः पलशतं क्याथयित्वा यथाविधि ।
___ इसके सेवनसे स्त्रियोंके समस्त रोग नष्ट क्वाथे पूते पुनः पक्वे घनीभूते च निक्षिपेत् ॥ होते हैं। अशोकं कुशमूलञ्च मधूकं मधुकं बलाम् ।। (मात्रा- २-३ रत्ती।) पाठां बिल्वं पलोन्मानं लौहं सर्वसमं तथा।। (६३३१) लक्ष्मणालौहम् (२) लक्ष्मणालौहनामेदं भेषजं स्त्रीगदापहम् ।
(लक्ष्मणादिचूर्णम् ) जगतामुपकाराय दखाभ्यां परिनिर्मितम् ॥ (भै. र. । वाजीकरणा. ; न. मृ. । त. ३. ;
६। सेर लक्ष्मणा के पञ्चाङ्गको अधकुटा र. रा. सु. । वाजीकर.) करके ३२ सेर पानीमें पकावें और ८ सेर पानी लक्ष्मणाहस्तिकर्णाभ्यां त्रिकत्रयसमन्वयात् । शेष रहने पर छान कर उसे पुनः पकावें । जब | अश्वगन्धा समायोगाल्लौहं पुंसवनं मतम् ॥ गाढ़ा हो जाय तो उसमें अशोककी छाल, कुशकी पुत्रोत्पत्तिकरं वृष्यं कन्यामृतिनिवर्तकम् । जड़, महुवेका सार, मुलैठी, खरैटीकी जड़, पाठा । कृशस्य बलदं श्रेष्ठं सर्वामयहरं परम् ॥
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
५०७
लक्ष्मणा, हस्तिकर्ण पलाश, सोंठ, मिर्च, | सबको एकत्र खरल करके दन्तीमूल और त्रिफलाके पीपल, हरं, बहेड़ा, आमला, नागरमोथा, चीतामूल, रसमें पृथक् पृथक् ३-३ दिन घोट कर ६-६ बायबिडंग और असगन्ध; इनका चूर्ण १-१ | रत्तीकी गोलियां बना लें । भाग तथा लोह भस्म सबके बराबर लेकर सबको अनुपान-अदरकका रस । एकत्र खरल करें।
इसके सेवनसे दोषज्वर, सन्निपात, विषूचिका, __यह लौह वृष्य वाजीकरण, कृश मनुष्योंके | विषमज्वर, अतिसार, संग्रहणी, रक्तातिसार, आम, लिये बलदाता और सर्व रोग नाशक है। | प्रमेह, शूल, सूतिका रोग और वातव्याधिका यदि कन्या ही कन्याएं उत्पन्न होती हों तो |
| नाश होता है। इसके सेवनसे पुत्रोत्पत्ति हो सकती है।
इसके सेवन कालमें यथेच्छ पथ्य भोजन, ( मात्रा-३-४ रत्ती।)
अभ्यंग, स्नान, कर्पूरयुक्त ताम्बूल भक्षण, पुष्पमाल
| धारण, हरिचन्दन लेपन और नारीकेलोदक पान (६३३२) लक्ष्मीनारायणरसः
| करना चाहिये । स्त्रीसहवासका भी निषेध (भै. र. । स्त्रीरोगा. ; र. चं. । वाता.) नहीं है। .. शुद्धगन्धकमेतच्च टङ्कणं विषहिंगुलम् । (६३३३) लक्ष्मीविलासः (१) रोहिण्यतिविषा कृष्णा वत्सकाभ्रकसैन्धवम् ॥ ( भै. र.; रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. ; र. चं. ; एतानि समभागानि खल्वमध्ये विनिक्षिपेत् ।।
धन्व. ; र. र. । रसायना.; रसे. चि.म.। अ. ८; दन्तिद्रावैः फलद्रावैमर्दयेच्च दिनत्रयम् ॥ ..
__ वृ. यो. त. । त. १४७; धन्व. । ज्वरा. ; वल्लद्वयां वटि कृत्वा ह्याकस्य जलेर्ददेत् ।
न. मु. । त. ५) दोपज्वरे सन्निपाते विपूच्यां विषमज्वरे ।।
पलं कृष्णाभ्रचूर्णस्य तदद्धौं रसगन्धको । अतिसारे ग्रहण्यां च रक्तामे मेहशूलजित् । तददै चन्द्रसंज्ञस्य जातीकोषफले तथा ॥ सूतिकावातदोपनो लंकेशमिव राघवः ॥
| वृद्धदारकबीजश्च बीजं धुस्तूरकस्य च । इष्टान्न भोजयेत्पथ्यमभ्यङ्गं स्नानमाचरेत् ।।
| त्रैलोक्यविजयाबीजं विदारीमूलमेव च ॥ कर्पूरमिश्रताम्बूलं प्रसूनं हरिचन्दनम् ।। नारायणी तथा नागवला चातिवला तथा । नारिकेलोदकं पीत्वा नारीणां संगमेव च।। बीज गोक्षुरकस्यापि नैचुलं बीजमेव च ॥ लक्ष्मीनारायणो नाम रसानामुत्तमो रसः ॥ । एतेषां कार्षिकं चूर्ण पर्णपत्ररसैः पुनः ।
शुद्ध गन्धक, सुहागेकी खील, शुद्र बछनागे, निष्पिष्य वटिका कार्या त्रिशुआफलमानतः॥ शुद्ध हिंगुल, कुटकी, अतीस, पीपल, इन्द्रजौ, निहन्ति सन्निपातोत्थान् गदान् घोरान् चतुअभ्रक भस्म और सेंधा नमक समान भाग ले कर
विधान् ।
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५०४
भारत-भैषज्य-स्त्नाकरः
[लकारादि
वातोत्थान् पैत्तिकांश्चैव नास्त्यत्र नियमः मिलाकर सबको पानके रसमें घोट कर ३-३
क्वचित् ॥ रत्तीकी गोलियां बना लें। कुष्ठमष्टादशाख्यश्च प्रमेहान् विंशतिं तथा। इनके सेवनसे भयंकर सन्निपात, वातज नाडीव्रणं व्रण घोरं गुदामयभगन्दरम् ।। और पैत्तिक रोग, अठारह प्रकारके कुष्ठ, बीस श्लीपदं कफवातोत्थं रक्तमांसाश्रितश्च यत् ।
प्रकारके प्रमेह, नाड़ी ब्रग, दुष्ट व्रण, अर्श, भगमेदोगतं धातुगतं चिरज कुलसम्भवम् ।। न्दर; तथा रक्तगत, मांसगत, मेदोगत, धातु गलशोथमन्त्रद्धिमतीसारं सुदारुणम् । गत, पुराना और वंशानुगत कफवातज श्लीपद; आमवातं सर्वरूपं जिहस्तम्भं गलग्रहम् ।।
गलशोथ, अन्त्रवृद्धि, दारुण अतिसार, आमवात, उदरं कर्णनासाशिमुखवैकृत्यमेव च ।
जिह्वास्तम्भ, गलग्रह, उदररोग, कर्ण विकार, नासा कासपीनसयक्ष्मास्थिौल्यदौर्गन्ध्यनाशनः॥ विकृति, मुखविकृति खांसी, पीनस, राजयक्ष्मा, सर्वशूलं शिरःशूलं स्त्रीणां गदनिसूदनम् । स्थूलता, दुर्गन्धि, समस्त प्रकारके शूल, शिरपीड़ा बटिकां प्रातरेकैकां खादेन्नित्यं यथावलम् ॥
और स्त्रीरोगांका नाश होता है । वारितकसुरासीधुसेवनाकामरूपधृक् ॥
इस औषधकी १-१ गोली प्रति दिन प्रातः वृद्धोऽपि तरुणस्पर्धी न च शुक्रस्य संक्षयः । काल पानी, तक्र, सुरा या सीधुके साथ खानी न च लिङ्गस्य शैथिल्यं न केशा यान्ति चाहिये।
पक्वताम् ॥
- इसके सेवनसे वृद्ध पुरुष कामदेव सदृश नित्यं स्त्रीणां शतं गच्छेन्मत्तवारणविक्रमः । | रूपवान और तरुणस्पी हो जाता है। द्विलक्षयोजनी दृष्टिर्जायते पौष्टिकः परः ॥
इसके प्रभावसे न तो शुक्रक्षय होता है, न प्रोक्तः प्रयोगराजोऽयं नारदेन महात्मना।
लिङ्गशैथिल्य और न ही केश सफेद होते हैं । रसो लक्ष्मीविलासस्तु वासुदेवे जगत्पती॥
इस रसके सेवनसे दृष्टि शक्ति अत्यधिक बढ़ अभ्यासाद् यस्य भगवान् लक्षनारीषु जाती है और कामशक्ति इतनी प्रबल हो जाती है
वल्लभः ॥
कि मनुष्य बहुतसी स्त्रियांसे मदमत्त हाथीके समान कृष्णाभ्रक भस्म ५ तोले; शुद्ध गन्धक; शुद्ध
समागम कर सकता है। पारद, २॥-२॥ तोले, कपूर, जावत्री, जायफल, भै. र.; रसे. सा. सं. आदि कई ग्रंथोंमें विधारेके बीज, धतूरेके बीज, भांगके बीज, विदा- | वातरोगाधिकार में लक्ष्मी विलासका एक अन्य पाठ रीकन्द, शतावर, नागबला (गंगेरन), अतिबला भी है जिसमें अष्टमांश ( सम्पूर्ण औषधेका अष्ट(कंधी), गोखरुके फल और हिज्जल बीज ११-१।। मांश अथवा १ भागका अष्टमांश-१५ रत्ती ) तोला लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें स्वर्ण भरम अधिक लिखी है। शेष प्रयोग इसके और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका बारीक चूर्ण समान ही है।
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रसप्रकरणम्
चतुर्थो भागः
(६३३४) लक्ष्मीविलासरसः (२) काथमें ३-३ दिन घोटें । तदनन्तर इलायची, ( रसे. सा. सं. ; धन्व. ; भै. र.; र. रा.
जायफल, तेजपात, लौंग, अजवायन, जीस, सांठ,
मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा और आमला समान भाग सु. । कासा.)
ले कर सबको एकत्र कूटकर काथ बनावें और शुद्धसूतं सतालश्च तालाई रसखर्परम् ।। उसमें उपरोक्त औषधको ३ दिन खरल करके वङ्गं तानं घनं कान्तं कांस्यं गन्,' पलं पलम्॥ चनेके बराबर गोलियां बना कर छायामें सुखा लें । केशराजरसेनैव भावयेदिवसत्रयम् ।
अनुपान-शीतल जल । कुलत्थस्य रसेनैव भावयेच्च पुनः पुनः ॥
इसके सेवनसे हर प्रकारकी खांसी, क्षयज एलाजातीफलाख्यश्च तेजपत्रं लवकम् ।
| खांसी, ज्वर युक्त तथा ज्वर रहित श्वास, हलीमक, यमानीजीरकञ्चैव त्रिकटु त्रिफला समम् ॥
पाण्डु, शोथ, शूल, प्रमेह और अर्शका नाश तथा भावयेच्च रसेनैव गोलयेत्सर्वमौषधम् ।
बलवृद्धि होती है। छायाशुष्का वटी कार्या चणकप्रमिता शुभा
अपथ्य-शाक, अम्ल पदार्थ और भृष्ट शीताम्बुना पिबेद्धीमान्सर्वकासनिवृत्तये ।
पदार्थों से परहेज़ करना चाहिये। क्षयकासं तथा श्वास सज्वरं वाऽथ विज्वरम् । (६३३५) लक्ष्मीविलासरसः (३) हलीमकं पाण्डुरोगं शोथं शूलं प्रमेहकम् ॥ (र. चं. ; यो. र.; र. रा. सु. ; वृ. नि. र. । अर्शीनाशं करोत्येव बलवृद्धिश्च कारयेत् ।
___ राजयक्ष्मा.) वजेयेच्छाकमम्लञ्च भृष्टद्रव्यं हुताशनम् ॥
सुवर्णताराभ्रकताम्रवङ्गशुद्ध पारद और शुद्ध हरताल ५-५ तोले, त्रिलोहनागामृतमौक्तिकानि । खपरिया २॥ तोले, बंग भस्म, ताम्र भस्म, अभ्रक
एतत्समं योज्य रसस्य भस्म भस्म, कान्त लोह भस्म, कांस्य भस्म और शुद्ध
खल्वे कृतं स्यात्कृत्कज्जलीकम् ॥ गन्धक ५-५ तोले ले कर प्रथम पारे गन्धककी सुमर्दयेन्माक्षिकसम्प्रयुक्तं कज्जलो बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियां तच्छोषयेवित्रिदिनं च धर्म । मिला कर सबको काले भंगरेके रस और कुलथीके तत्कल्कमूषोदरमध्यगामि
यत्नात्कृतं तार्थपुटेन पक्षम् ॥ भै. र. में गन्धकका अभाव है तथा " नतं
यामाष्टकं पावकमर्दितं च भृङ्गं वंशगर्भ कर्षमात्रन्तु कारयेत् ।"
लक्ष्मीविलासो रसराज एषः। पाठ अधिक है । अर्थात इस प्रयोगमें ११-१॥ क्षये त्रिदोषप्रभवे च पाण्डौ तोला तगर, भांग और बंसलोचन भी डालना सकामला सर्वसमीरणेषु ॥ चाहिये।
शोफप्रतिश्याय प्रनष्टवीर्य
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५१०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि
... मूलामयं चैव सशूलकुष्ठम् ।
सर्वामयं हन्ति न संशयोऽत्र ॥ हत्वाग्निमांद्यं क्षयसनिपातं
___ कामस्य वृद्धिं प्रकरोति सम्यश्वासं च कासं च हरेत्प्रयुक्तम् ।
नारी शतं गच्छति नित्यमेव । तारुण्यलक्ष्मीप्रतिबोधनाय
पण्ढोऽल्पवीर्यो बहुमूत्रमेही श्रीमद्विलापो रसराज एषः ॥
यथानुपानेन च सेवयेत सुवर्ण भस्म, चांदी भस्म, अभ्रक भस्म, ताम्र क्षयापह धातुविवद्धनं च भस्म, बंग भस्म, तीन प्रकारका लोह ( तीक्ष्ण लक्ष्मीविलासो रसराज एपः ॥ लोह भस्म, मुण्ड लोह भस्म, कान्त लोह भस्म ),
सुवर्ण भस्म, मोती भस्म, अभ्रक भस्म, सीसा भस्म, शुद्ध बछनाग और मोती भस्म १-१
पारद भस्म, लोह भस्म, प्रवाल भस्म, कस्तूरी, भाग तथा पारद भस्म सबके बराबर लेकर सबको
| केसर, जावत्री, लौंग, इलायची और दालचीनी एकत्र करके बारीक करें और फिर शहद मिला कर
| समान भाग लेकर सबको ३ दिन पानके रसमें खरल करें तथा २-३ दिन धूपमें सुखाकर उसका
घोटकर सुरक्षित रक्खें। गोला बनालें और उसे मूषामें बन्द करके कुक्कुट पुटमें पकावें । तदनन्तर उसके स्वांग शीतल होने
मात्रा- ३ रत्ती । इसे मिश्री और शहदके पर रसको निकाल कर आठ पहर चीतेके काथमें
| साथ सेवन करना चाहिये । घोट कर सुखा कर सुरक्षित रक्खें ।
इसके सेवनसे समस्त रोग नष्ट होते और इसके सेवनसे क्षय, त्रिदोषज पाण्डु, कामला,
| पुरुषल्व शक्ति इतनी बढ़ जाती है कि मनुष्य समस्त वातज रोग, शोथ, प्रतिश्याय, शुक्रक्षय,
नित्य प्रति सौ सौ स्त्रियों के साथ समागम कर अर्श, शूल, कुष्ट, अग्निमांद्य, सन्निपात, श्वास और खांसीका नाश तथा यौवनको विकास होता है। इसे नपुंसक, अल्पवीर्य और बहुमूत्र रोगीको (६३३६) लक्ष्मीविलासरसः (४)
यथोचित अनुपानके साथ सेवन कराना चाहिये । (र. चं. । वाजीकरणा.).
यह रस शयनाशक और धातुवर्द्धक है। सुवर्णमुक्ताफलमभ्रकञ्च
(६३३७) लक्ष्मीविलासरसः (4) रसेन्द्रभस्मायसविद्रुमं च ।
(र. का. धे. । ज्वरा.) कस्तूरिकाकुङ्कुम जातिपत्री- शुद्धसूतं समं गन्धं दिनं शुष्कं विमर्दयेत् । लवङ्ग एला त्वक् तुल्यभागिकम् ॥ जम्बीरनीरेण दिनं मर्दयेन्मतिमान्भिपक ॥
सम्मर्दयेत्ताम्बुलिकारसेन . निक्षिपेदृढमूषायां वासोभिर्मुनिसंज्ञकैः। घृष्ट्वा व्यहं वल्लमितं च दद्यात् । वेष्टयेत्सिकतायन्त्रे यामैदशभिः पचेत् ॥
सितामधुभ्यां सह सेवनीयः | स्वांगशीतं समुद्धृत्य श्लक्ष्णे खल्वे विमर्दयेत्।
सकता है।
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-
संप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः ताम्रभस्म कणा कुष्ठं प्रत्येकं मूतभागतः ॥ यदि जितेन्द्रिय पुरुष इसे शहद और धीके प्रक्षिप्य मर्दयेद् गाढं त्रिदिनं लुङ्गवारिणा। | साथ १ वर्ष तक सेवन करे तो दारुण कुष्ठ और प्रदद्यादस्य सूतस्य शृङ्गवेरसितायुतम् ॥ अन्य समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं तथा जरा और वल्लयुग्मं दीर्घतापे वातरोगे महत्यपि । अकालमृत्यु नहीं आती। निरामं नाशयेदाशु पिप्पलीमधुसंयुतम् ॥ -
लक्ष्मीविलासरसः (६) विषमज्वरजीर्णाशः क्षयमेहहलीमकाः।
(रसे. सा. सं. ; र. चि. ; रसे. चि. म.) स्वानुपानाच्छमं यान्ति रसराजप्रभावतः॥
____ प्र. सं. ५५६९ “महा लक्ष्मी विलास रसः" सेवितो मधुसर्पिा वर्षमेकं जितेन्द्रियैः ।
| देखिये. जरामरणरोगादीन्कुष्ठरोगान्सुदारुणान् ॥ लक्ष्मी विलासनामायं शङ्करेण कृतो हरेत ॥ लक्ष्मीविलासरसः (७) ... शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक १-१ भाग | (रसे. सा. सं. ; भै. र. । शिरो रोगा.) लेकर दोनोंको एक दिन खरल करके कज्जली | प्र. सं. ५५७० महा लक्ष्मी विलास रसः बनावें और फिर उसे १ दिन जम्बीरी नीबूके | (२) देखिये । रसमें घोट कर दृढ़ मूषामें बन्द करें और उस पर
(६३३८) लघुकामेश्वरगुटी ७ कपरमिट्टी करके सुखा लें। तदनन्तर इस मूषाको बालुकायन्त्रमें रख कर १२ पहरकी अग्नि दें __(यो. चि. म. । अ. ३ )
और यन्त्रके स्वांग--शीतल होने पर उसमेंसे औष- शतावरी गोक्षुरश्च कपिकच्छु उटीङ्गणम् । धको निकालकर खरल करें एवं उसमें १-१ भाग गाङ्गेरुकी बला मुस्ता मुशली खुरसाणकम् ॥ ताम्र भस्म, पीपल और कूठका चूर्ण मिला कर | समुद्रशोषो हि खराश्चविकं शाल्मली शठी । सबको ३ दिन जम्बीरी नीबूके रसमें अच्छी तरह | मकुष्ठस्य जटा माषा वाजिगन्धा च रेणुका ॥ खरल करें।
विदारी ग्रन्थिकं गुन्दं विडङ्गं जीरकं शणम् । मात्रा-६ रत्ती।
मांसी सिता वा धान्याकं विजया तूर्यभागिका ॥ ___इसे अदरकके रस और मिश्रीके साथ देनेसे | जातीपत्रं जातिफलं चातुर्जातं कटत्रिकम । जीर्णज्वर और भयङ्कर वातज रोग नष्ट होते हैं। कपरं गगनं लोहं रससिन्दूरक सिता ।।
पीपल और शहदके साथ खिलानेसे निराम- | गुटिका द्विगुणखण्डेन वृद्धकोलप्रमाणतः । ज्वरे शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
| वीर्यवृद्धिबलं पुष्टि कामदीप्तिं करोत्यलम् ॥ ___ इसके अतिरिक्त यह रस उचितानुपानके साथ शतावर, गोखरू, कौंचके बीज, उटीङ्गणके देनेसे विषमज्वर, अर्श, क्षय, प्रमेह और हलीमकको बीज, गंगेरन, खरैटीके बीज ( बीजबन्द ), नागरभी नष्ट करता है।
| मोथा, मूसली, खुरासानी अजवायन, समुद्रशोष,
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[लकारादि
% 3D
अजमोद, चव, संभलकी छाल, (या फल), कचूर, । कांदै गुडकं निधाय मौटकी जड़, उड़द, असगन्ध, रेणुका, विदारीकन्द, विधिना राजा सदा सेवयेत् पीपलामूल, गोंद, बायबिडंग, जीरा, सनके बीज, पेया क्षीरसिता च वीर्यकरणे जटामांसी, आमला और धनिया १-१ भाग; स्तम्भोऽध्ययं कामिनाम् । भांग, इन सबसे चौथाई तथा जावित्री, जायफल, वामावश्यकरः मुखातिसुखदः सर्वाङ्गनाद्रावकः दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर, सोंठ क्षीणे पुष्टिकरः क्षयक्षयकरो नानामयध्वंसकः ।। मिर्च, पीपल, कपूर, अभ्रक भस्म, लोह भस्म, रस | कासश्वासमहातिसारशमनो मन्दानलो दीपको सिन्दूर और चांदी भस्म, १-१ भाग तथा खांड | दृष्टः सिदिफलो रसायनवरः कामेश्वरो दुर्लभः।। सबसे २ गुनी लेकर खांडकी चाशनी बनाकर उसमें
___ कूठ, शुद्ध गन्धक, गिलोय, मेथी, मोचरस, समस्त औषधोंका चूर्ण मिलार्वे और बड़े बेरके
| विदारी कन्द, मूसली, गोखरु, तालमखाना, शताबराबर गोलियां बना कर छायामें सुखालें।
वर, कसेरु, अजवायन, तालाङ्कुर, धनिया, मुलैठी, इनके सेवनसे बल, वीर्य और कामकी वृद्धि |
गंगेरन, बला (खरैटीके बीज), सौंफ, जायफल, होती है।
सेंधानमक, अतीस, काकड़ासिंगी, सेठ, मिर्च, (६३३९) लघुकामेश्वरो मोदकः । पीपल, सफेद जीरा, काला जीरा, चीतामूल, दाल( धन्ध. वाजीकरणा.)
चीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर, पुनर्नवा, चूर्गाशं गगनं घना विमलं कुष्ठं च गन्धामृता
गजपीपल, मुनक्का, कचूर, कायफल, सेंभलकी मेथी मोचरसो विदारि मूसली गोशूरक शूर
मूसली, हर्र, बहेड़ा, आमला और कौंचके बीज;
इनका चूर्ण १-१ भाग, अभ्रक भस्म इन सबसे कम् ।
चौथाई और भांग आधी, तथा विमल भस्म अभ्रकसे भीलचैव कशेरुकं यवनिका तालावर धान्यक
आधी और खांड सबसे २ गुनी लेकर यष्टी नामवला बला मधुरिका जातीफलं ।
प्रथम खांडकी चाशनी बनावें और फिर उसमें सैन्धवम् ॥
समस्त ओषधियां मिलाकर आधे आधे कर्ष ( ७॥ भृङ्गी कर्कटशृङ्गकं त्रिकटुकं जीरद्वयं चित्रकं
माशे) के मोदक बनावें । चातुर्जातजुनर्नवं गजकणा द्राक्षा शठी कट्
इन्हें शहद और घीमें मिलाकर सेवन करना
फलम् । . शाल्मल्यछि फलत्रिक
और ऊपरसे मिश्रीयुक्त दूध पीना चाहिये । . कपिभवं बीजं समं चूर्णयेत्
इनके सेवनसे वीर्यवृद्धि होती और स्तम्भन .: चूर्णा विजया सिता द्विगुणिता | शक्ति बढ़ती है । यह कामिनी वशीकरण, स्त्रीद्रा
मध्वाज्य मिथं नयेत् ॥ | वक, पौष्टिक और अनेक रोग नाशक है।
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रसप्रकरणम्]
- चतुर्थों भागः
यह मोदक क्षय, खांसी, श्वास, अतिसार, अण्डजं माषमानं च सर्वतुल्यमथेश्वरम् । और अग्निमांद्यको नष्ट करता है।
यत्नतो मर्दयेत्खल्वे चतुर्गुञ्जावटी चरेत् ।। __(६३४०) लघुक्रव्यादरसः । एष चन्द्रोदयो नाम रसो वाजीकरः परः । (र. चं.; यो. र. । कृम्य. ; वृ. यो. त. । त.७१) हन्ति रोगानशेषांश्च बलवोर्यानिवद्धनः ॥ पारदाद्विगुणं गन्धं गन्धांश मृतलोहकम्।। जायफल, लौंग, कपूर और काली मिर्चका पिप्पली पिप्पलीमूलमग्निशुण्ठी लवङ्गकम् ॥ चूर्ण १-१ तोला, सुवर्ण भस्म १ माषा, कस्तूरी लोहसाम्यं पृथक्कुर्याद्रससाम्यं सुवर्चलम् । १ माषा और रससिन्दूर सबके बराबर ले कर टङ्कणं मरिचं चापि गन्धतुल्यं प्रदापयेत् ॥ सबको एकत्र खरल करके (पानके रसमें घोट कर) एतद्विचूयं यत्नेन भावयेत्सप्तधाऽम्लकैः। ४-४ रत्तीकी गोलियां बना लें। एतद्रसायनं श्रेष्ठं माषमात्र प्रदापयेत् ॥ | यह रस अत्यन्त वाजीकरण है तथा बल वीर्य तक्रेण केवलं वाऽपि दद्याद्भोजनपाचने । और अग्निकी वृद्धि एवं समस्त रोगोंको नष्ट क्षिप्रं तज्जीयते भुक्तं भवति ध्रुवम् ॥ करता है । सर्वाजीणेप्रशमनं लघुक्रव्यादसज्ञितम् ॥ ( अनुपान-मिश्रीयुक्त दूध । ) शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग,
लघुतालेश्वररसः लोह भस्म २ भाग, पीपल, पीपलामूल, चीता, सेांठ और लौंगका चूर्ण २-२ भाग, सञ्चल (काला
(र. चि. म. । स्त. २ ; र. का. धे.)
प्र. सं. २६८५ " तालेश्वरो रसः " लघुः नमक) १ भाग, सुहागेकी खील २ भाग और
(८) देखिए। काली मिर्चका चूर्ण २ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य
लघुपुष्पधन्वारसः ओषधियोंका चूर्ण मिला कर सबको नीबूके रसकी
(यो. र.) सात भावना दे कर १-१ माशेकी गोलियां प्र. सं. ४४२५ पुष्पधन्वारस (२) देखिये। बना लें।
(६३४२) लघुपोटलीरसः इन्हें तक्रके साथ या बिना ही अनुपानके (र. चि. म. । स्त. ७) सेवन करनेसे भोजन शीघ्र पच जाता है । यह शुद्धगन्धस्य मूतस्य मृतश्वेताभ्रकस्य च । रस हर प्रकारके अजीर्ण रोगको नष्ट करता है। चत्वारश्च पृथग्ग्राह्या गद्याणाश्च भिषग्वरैः ॥ (६३४१) लघुचन्द्रोदयरसः एवं द्वादशगवाणा मधुना पेषयेत्यहम् । (न. मृ. । त. ५)
चूर्ण पीतकपर्देषु क्षिप्त्वा सर्व प्रयत्नतः ।। जातीफलं लवङ्गं च कर्पूरं मरिचं तथा। लिप्त्वा दग्धाश्मचूर्णन पिधायाथ शरावके । प्रत्येकं तोलकं दत्त्वा सुवर्णस्य च माषकम् ॥ ' ततो वस्त्रमृदा लिप्त्वा देयस्तस्य करीपुटः ॥
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५१४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि द्विवेलं तत्पुटो देयः शीते सूक्ष्मं च मर्दयेत् । ज्वरमें लाल मिर्च, घी, तेल, क्षार और अम्ल तच्चूणे कूप्यके क्षेप्यं रसोऽयं लघुपोटलो ॥ पदार्थो से परहेज़ करना तथा मधुर रस युक्त (हल्का) सावल्लद्वयो ग्राह्यो द्वात्रिंशन्मरिचैः सह। भोजन करना चाहिये । मरिचानि च देयानि चैकद्धया दिनं दिनम् ॥ लघुप्राणेश्वररसः घोरेषु सन्निपातेषु समस्तेषु च वायुषु ।
( र. का. धे. । ज्वरा.) अतिसारेषु सर्वेषु पित्तश्लेष्मादिकेष्वपि ॥ प्र. सं. ४४८० " प्राणेश्वर रसः " (२) अष्टादशममेहेषु समस्तेषु ज्वरेषु च । लघु देखिये। बलक्षीणेषु मन्दाग्नौ दातव्यः प्रत्यहं रसः ॥
लघुमालिनीवसन्तरसः ज्वरेषु नैव देयानि घृताक्तमरिचानि च । तैलक्षाराम्लवज्यं च भोजनं मधुरं वरम् ॥
वसन्तमालिनी रसः (लघु) देखिये । क्रमाद्रोगा विलीयन्ते नित्यं संसेविते रसे ॥
लघुमृगाङ्करसः
(र. का. घे. । क्षय.) शुद्ध पारद ४ गद्याण (२४ माशे), शुद्ध गंधक १ गद्याण, श्वेत अभ्रक भस्म, ४ गद्याण
प्र. सं. ५६३९ "मृगाङ्क रसः (७) (स्वल्प) और शहद १२ गधाण लेकर प्रथम पारे गन्धककी
| देखिये। कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे मि
लघुमृत्युञ्जयो रसः लाकर सबको ३ दिन खरल करके पीली कौड़ि
(र. रा. सु. । ज्वरा.) योंमें भर दें और उनके मुखको पत्थरके चूनेसे प्र. सं. ५६५६ “ मृत्युञ्जयरसः ” (४) बन्द करके सुखा लें । तदनन्तर उन्हें इराव सम्पुट- देखिये। में बन्द करके गजपुटमें फूंक दें। जब एक
लघुवनेश्वररसः बारकी अग्नि शान्त हो जाय तो पुनः पुट लगावें। इस प्रकार दो पुट देनेके पश्चात् जब सम्पुट
वङ्गेश्वर रसः (लघु) देखिये । स्वांग-शीतल हो जाय तो उसमेंसे औषधको नि- (६३४३) लघुशङ्खभस्मयोगः काल कर (कौड़ी समेत) पीस लें ।
(ग, नि. । शूलो. २३) ___इसे ७॥ रत्तीकी मात्रानुसार ३२ नग काली शूलोदये शूलशान्त्यै लघुशम्बूकभस्म च । मिचोंके चूर्णके साथ सेवन कराना चाहिये और । छोटे शंख ( घोंघों ) की भस्म खिलानेसे प्रतिदिन १-१ मिर्च बढ़ाते जाना चाहिये। शूल शान्त हो जाता है।
इसके सेवनसे घोर सन्निपात, समस्त वातज (मात्रा-१ माशा । रोग, बल क्षीणता और अग्निमांद्यका नाश होता है। अनुपान-उष्ण जल ।)
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रसमकरणम् ]
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'चतुर्थी भागः
(६३४४) लघुशिवगुटिका
( यो. र. । क्षय. ; वृ. यो. त. । त. ७६ ) कौटजत्रिफलानिम्बपटोलघननागरैः । भावितानि दशाहानि रसैर्द्वित्रिगुणानि च ॥ शिलाजतुपलान्यष्टौ तावती सितशर्करा । स्वक्क्षीरिपिप्पलीधात्रीकर्कटाख्यान्पलोन्मितान् ॥ निदिग्धिफलमूलाभ्यां पलं युज्ज्यात्त्रिजातकात्। मधुत्रि पलसंयुक्तान्कुर्यादक्षसमान्गुडान् ॥ दाडिमाम्रपयःक्षीररस यूपसुरासवान् । तं भक्षयित्वाऽनुपिवेन्नरन्नो हितभक्ष्यभुक् ॥ पाण्डुकुष्ठज्वरप्लीहतमकार्शो भगन्दरम् । नाशयेन्मूत्रकृच्छ्राणि मूत्रस्थानविबन्धनात् ॥
11
as योजितं येन कान्तलोहं तथाऽभ्रकम् | पलं पलं च मिलिते तदा स्यात्किमतः परम् ती दुःखदं पाण्डु प्रमेहं सपरिग्रहम् । राजरोगं च व्याधींश्च जयेदिति किमद्भुतम् ॥
इन्द्रजौ त्रिफला, नीमकी छाल, पटोल, नागरमोथा और सांठ समान भाग लेकर काथ बनावें । तदनन्तर ४० तोले शिलाजीतको इस काथकी १० भावना दें। तत्पश्चात् यह शिलाजीत, ४० तोले सफेद खांड, तथा ५–५ तोले बंसलोचन, पीपल, आमला और काकड़ासिंगीका चूर्ण; २॥ २॥ तोले कटेलीकी जड़ और फलोंका चूर्ण एवं दालचीनी, इलायची और तेजपातका चूर्ण ५ तोले लेकर सबको एकत्र खरल करके १५ तोले शहद में मिलाकर ११ - १ | तोलेके मोदक बना ले 1
अनुपान अनारका रस, आमका रस, दूध, मूंगका यूष, सुरा अथवा आसव ।
५१५
इसे प्रातःकाल निरन्न ( खाली पेट ) खाना और पथ्य पूर्वक रहना चाहिये ।
इसके सेवन से तमक श्वास, अर्श,
नाश होता है ।
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पाण्डु, कुष्ठ, ज्वर, प्लीह, भगन्दर और मूत्रकृच्छ्रका
यदि इस योग में ५ - ५ तोले कान्त लोह भस्म और अभ्रक भस्म मिला ली जाय तो यह अत्यन्त दुःखप्रद पाण्डु, प्रमेह और राजयक्ष्मा में अत्युत्तम फलदायक औषध हो जाती है ।
(६३४५) लघुसिद्धाभ्रकरस: ( र. र. स. 1 उ. अ. १६; र. चं. सु. । ग्रहण्य. )
समांश रसगन्धाभ्रदरदं च विशोधितम् । stard विनिक्षिप्य गव्याजेन समन्वितम् ॥ द्रोणीचुल्ल्यां न्यसेत्खल्वं साङ्गारायां प्रयत्नतः । मर्दकेनापि लौन मर्दयेदिवसद्वयम् ॥ इति सिद्धो रसेन्द्रोऽयं लघु सिद्धाभ्रको मतः । वल्लतुल्यो रसो जीरवारिणा सहितः प्रगे ॥ पीतो हरति वेगेन ग्रहणीमतिदुर्धराम् । अतिसारं महाघोरं सातिसारं ज्वरं तथा ॥ पाचनो दीपनो हृद्यो गात्रलाघवकारकः । नागार्जुनेन कथितः सद्यः प्रत्ययकारकः ॥ :
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; र. रा.
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म और शुद्ध हिंगुल समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनायें और फिर उसमें अन्य औषधें मिलाकर सबको थोड़े गोघृत में मिलाकर लोह - खरल में डालकर उसे अंगारों पर रक्खें और २ दिन
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५१६
भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[लकारादि
VIE
तक लोहेकी मूसलीसे घोटते रहें। तदनन्तर | त्रिफलानिम्बमनिष्ठा वचा पाटलमूलकम् । निकाल कर सुरक्षित रक्खें।
कटुकारजनीक्वाथं चानुपानं प्रयोजयेत् ॥ मात्रा-३ रत्ती।
पारद भस्म, अभ्रक भस्म, ताम्र भस्म, शुद्ध अनुपान-जीरेका काथ ।
गन्धक, शुद्र हरताल ( पाठान्तरके अनुसार स्वर्ण यह अत्यन्त कष्ट साध्य संग्रहणीको भी शीघ्र ।
माक्षिक भस्म ), शिलाजीत और अम्लवेत (पाही नष्ट कर देता है । इसके अतिरिक्त यह रस
ठान्तरके अनुसार अम्लवेत और शुद्र बछनाग) भयंकर अतिसार तथा ज्वरातिसारको नष्ट और।
समान भाग लेकर सबको एकत्र मिला कर ३ शरीरको हल्का करता है एवं पाचन, दीपन और
दिन तक शहद और धीमें धोट कर २-२ रत्तीकी गोलियां बना लें।
इनके सेवनसे कुष्ठ नष्ट होता है। लघुसूचिकाभरणरसः
अनुपान --त्रिफला, नीमकी छाल, मजीठ, (शा. सं. । खं. २ अ. १२)
बच, पाढलकी जड़, कुटकी और हल्दी समान भाग सूचिकाभरणरस लघु देखिये ।
लेकर काथ बनावें । औषध खानेके पश्चात् यह लघ्वानन्दो रसः
काथ पीना चाहिये। (र. चं. । पाण्डु., वाता.; रसे. सा. सं. । पाण्डु., (६३४७) लङ्केश्वररसः (२) वाता.; र. रा. सु.; धन्य । पाण्डु.; रसे. चि..
(र. र. र. का. धे. । कुष्ठा.) ___ म. । अ. ९)
भस्मसूतार्कलोहानां कृष्णा गन्धकटङ्कणम् । प्रयोग सं. ४४२ " आनन्दोदय रसः" | कुष्ठतुत्थकतुल्यांशं मद्ये धुस्तूरजैवैः ॥ देखिये ।
दिनै तटीकुर्यान्माषमात्रश्च भक्षयेत् । (६३४६) लङ्केश्वररसः (१)
रसो लङ्केश्वरो नाम्ना प्रसुप्तिमण्डलप्रणुत् ।।
गन्धकं त्रिफलाचूर्ण निर्विषीं गुग्गुलु समम् । ( भै. र.; रसे. सा. सं.; र. रा. सु. । कुष्ठा.;
| लिहेदेरण्डतैलेन ककमनुपानकम् ॥ रसे.चि. म. । अ. ९; र.र.; र. का.धे. । कुष्ठा.)
___ पारद भस्म, ताम्र भस्म, लोह भस्म, पीपल भस्ममताभ्रशुल्वानि गन्धं तालं' शिलाजतु ।। का चूर्ण: शुद्ध गन्धक, सुहागेकी खील, कूठका अम्लवेतस्य तुल्यांशं यहं दत्त्वा विमदेयेत् ॥ वर्ण और शुद्ध तृतिया समान भाग ले कर सबको मध्वाज्याभ्यां घटीं कुयाद्विगुआं भक्षयेत्सदा। १ दिन धतरेके रसमें घोट कर १-१ माशेकी कुष्ठं हन्ति गज सिंहो रसो लङ्केश्वरो महान् ॥
गोलियां बना लें। १ गन्धताप्यमिति पाठान्तरम् ।
इनके सेवनसे सुप्ति और मण्डल कुष्ठ नष्ट २ अम्लत्रेतं विषमिति पाठान्तरम् ॥ होता है।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
अनुपान-शुद्ध गंधक, त्रिफलाका चूर्ण चव्यं चातिविषा शृङ्गी खदिरं बालकं समम् । निर्बिसी और शुद्ध गूगल समान भाग लेकर सबको भृङ्गराजरसैः प्लाव्यं भावयित्वा दिनत्रयम् ॥ एकत्र खरल कर लें । औषध खानेके पश्चात् इसमें |
| छागीदुग्धेन मतिमान् गर्भिणीमनुपानतः। से १। तोला अनुपान अरण्डीके तेलमें मिलाकर एतच्चूर्ण प्रदातव्यं सङ्ग्रहग्रहणीहरम् ॥ चाटना चाहिये।
नानावर्णमतीसारं ज्वरं चैव नियच्छति । (६३४८) लङ्केश्वररसः (३) ।
आमरक्तातिसारघ्नं शूलशोथनिमूदनम् ॥ (र. रा. सु. । ज्वरा.)
लौंग, सुहागा, नागरमोथा, धायके फूल, तालकं माक्षिकं तुत्थं हरवीज सगन्धकम् ।
बेलगिरी, धनिया, जायफल, राल, सौंफ, अनारकर्कोटीपत्रतोयेन मर्दयेद्दिनसप्तकम् ।।
दाना, जीरा, सेंधा, मोचरस, नीलोत्पल, रसौत, चुल्यां पाच्यं चतुर्याम सशर्करज्वरापहः ।
| अभ्रक भस्म, बंग भस्म, मजीठ, लाल चन्दन, अयं लङ्केश्वरो नाम शीतमातङ्गकेशरी ॥
चव, अतीस, काकड़ासिंगी, खैरसार और सुगन्धशुद्ध हरताल, सोनामक्खी भस्म, शुद्ध तूतिया, |
बाला समान भाग लेकर यथाविधि चूर्ण बनावें शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक समान भाग लेकर
और फिर उसे ३ दिन भंगरेके रसकी भावना दे प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर
कर सुखा लें। उसमें अन्य औषधे मिलाकर सबको सात दिन
(मात्रा---१-१॥ माशा) ककोड़ेके पत्तोंके रसमें घोट कर ( आतशी शीशीमें
अनुपान--बकरीका दूध । भरेकर ) ४ पहर बालुका यन्त्रमें पकायें और फिर
इसके सेवनसे गर्भिणीकी संग्रहणी, नानावर्णउसके स्वांग शीतल होने पर औषधको निकालकर
वाला अतीसार, ज्वर, आमातिसार, रक्तातिसार, सुरक्षित रखें।
शूल और शोथादिका नाश होता है । इसे मिश्रीके साथ देनेसे शीतज्वर नष्ट
(६३५०) लवङ्गादिचूर्णम् (बुद्ध) होता है।
( यो. चि. म. । अ. २)
लवङ्गमेलातजपत्रजोत्पलं (मात्रा-१-२ रत्ती)
___ उशीरमांसीतगरं सबालकम् । (६३४९) लवङ्गादिचूर्णम्
कोलकृष्णागरुनागकेशरं ( भै. र. । स्त्रीरोगा.)
जातीफलं चन्दनजातिपत्रिका ॥ लवङ्ग टङ्गणं मुस्तं धातकी बिल्बधान्यकम् । द्वयाजाजिकाव्यूषणपुष्करं शठी जातीफलं सर्जकश्च शताहा दाडिमं तथा ॥ फलत्रिकं कुष्ठविडङ्गचित्रकम् । जीरकं सैन्धवं मोचं नीलोत्पलरसाअनम् । तालीसपत्रं सुरदारु धान्यक अभ्रकं वङ्गकश्चैव समगा रक्तचन्दनम् ॥
यवानियष्टीखदिराम्लवेतसम् ॥
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५१८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि
तुगाजमोदाघनसारमभ्रक
जिह्वा शोधक है । इसके सेवनसे प्रमेह, खांसी, शृङ्गीषाग्रन्थिकमग्निमन्थिकम् । अरुचि, राजयक्ष्मा, पीनस, क्षय, अर्श, ग्रहणी, प्रियङ्गुमुस्तातिविषाशतावरी त्रिदोष, हिचकी, अतिसार, प्रदर, गलग्रह, पाण्डु
सत्वं गुडूच्यास्तृवृतादुरालभा ॥ स्वरभंग और अश्मरीका नाश होता है। समानि सर्वैश्च समा सिता भवेत्
(व्यवहारिक मात्रा-४-६ माशे) बृहल्लवंगादिरयं निगद्यते।
(६३५१) लवङ्गादिवटी (वृहत्) सायं प्रभे खादति कर्षसमितं
(रसे. सा. सं. । अग्निमान्धा.) भवन्ति देहे बलवीर्यपुष्टयः॥
लवङ्गजातीफलधान्यकुष्टं निहन्ति दीपयत्यनि तनुवर्णकरं परम् । जीरद्वयं त्र्यूषणत्रैफलश्च । वातघ्नं लोचनं हृद्यं कण्ठ जिहाविशोधनम्॥
एलात्वचं टङ्कवराटमुस्तं प्रमेहकासारुचियक्ष्मपीनसं
वचाजमोदा विडसैन्धवश्च ॥ क्षयार्शदाघाग्रहणीत्रिदोषनुत् । तदर्द्धकं पारदगन्धमभ्रं हिक्कातिसारमदरं गलग्रह
लौहश्च तुल्यं मुविचूर्ण्य सर्वम् । निहन्ति पाण्डस्वरभङ्गमश्मरीम् ।।
तन्नागवल्लीदलतोयपिष्टं लौंग, इलायची, दालचीनी, तेजपात, नीलो- ___ वल्लप्रमाणां वटिकाश्च कृत्वा । त्पल, खस, जटामांसी, तगर, सुगन्धबाला, कंकोल, प्रातर्विदध्यादपि चोष्णतोयेपीपल, अगर, नागकेसर, जायफल, सफेद चन्दन, रियं निहन्याद्ग्रहणीविकारम् । जावत्री, सफेद और काला जीरा, सोंठ, मिर्च,
आमानुबन्धं सरुजं प्रवाह पीपल, पोखरमूल, कचूर, हर्र, बहेड़ा, आमला, ज्वरं तथा श्लेष्मभवं सशूलम् ॥ कूठ, बायबिडंग, चीता, तालीसपत्र, देवदारु, कुष्ठाम्लपित्तं प्रबलं समीरं धनिया, अजवायन, मुलैठी, खैरसार, अम्लबेत, ___ मन्दानलं कोष्ठगतश्च वातम् । बसलोचन, अजमोद, कपूर, अभ्रक भस्म, काकड़ा- वटी लवङ्गाद्या वसुप्रणीता सिंगी, बासा, पीपलामूल, अरणी, फूल प्रियंगु, ___तथा सवातं विनिहन्ति शीघ्रम् ।। नागरमोथा, अतीस, शतावर, गिलोयका सत, लौंग, जायफल, धनिया, कूठ, सफेद जीरा, निसोत और धमासा समान भाग तथो मिश्री सबके | काला जीरा, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर, बहेडा, आबराबर ले कर यथाविधि चूर्ण बनावें ।
मला, इलायची, दालचीनी, सुहागेकी खोल, कौड़ी मात्रा--१। तोला
भस्म, नागरमोथा, बच, अजमोद, विडलवण और यह चूर्ण बलवीर्य वर्द्धक, पौष्टिक, अग्निदीपक, सेंधा नमकका चूर्ण १-१ भाग (२-२ तोले ) घातनाशक, नेत्रों के लिये हितकारी हृद्य, कण्ठ और तथा शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, अभ्रक भस्म और
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थी भागः
५१९
लोह भस्म समान भाग मिश्रित उक्त समस्त औष | ज्वरारोचकमन्दाग्निं कार्स श्वासं वमिं तथा । अम्लपित्तं तथा हिक्कां प्रमेहश्च हलीमकम् ॥ पाण्डुरोगञ्च विष्टम्भमर्शासि विविधानि च । प्लीहगुल्मोदरानाहशोथातीसारपीनसान् ॥ आमवातं तथा जीर्ण सङ्ग्रहग्रहणीं जयेत् । उदरं प्रदरश्चैव लवङ्गाद्यमिदं शुभम् ||
धोंसे आधी (प्रत्येक ५। तोले) ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिला कर सबको पानके रसमें घोट कर ३ - ३ रत्तीकी गोलियां बना लें ।
लौंग, अतीस, मोथा, पिप्पली, काली मिर्च, सैन्धवलवण, हपुषा (हाऊबेर), धनिया, कायफल, सौपुष्करमूल, जावित्री, जायफल, काला जीरा, चलनमक, रसौत, धायके फूल, मोचरस, पाठा, तेजपत्र, तालीशपत्र, नागकेसर, चित्रक, बिडूलवण, धनियां, बेलगिरी, दारचीनी, छोटी इलायची, पिप्पलीमूल, अजमोद, अजवाइन, मजीठ, कुड़ेकी छाल, सोंठ, अनारका छिलका, यवक्षार, नीमकी छाल, राल, सर्जिक्षार, सामुद्रलवण, सुहागा, सुगन्धबाला, इन्द्रजौ, जामुनकी छाल, आमकी छाल, कटुकी, अभ्रक भस्म, लौहभस्म, गन्धक और पारद समान भाग लेकर यथा विधि चूर्ण बनायें। यह चूर्ण ग्रहणी, अतीसार, ज्वर, अरुचि, मन्दाग्नि, कास, श्वास, वमन, अम्लपित्त, हिक्का, प्रमेह, हलीमक, पाण्डु, विष्टम्भ, अर्श, प्लीहा, गुल्म, उदररोग, आध्मान, शोथ, प्रतिश्याय, आमवात, अजीर्ण, प्रदर आदि रोगोंको नष्ट करता है ।
मात्रा --- १ माशा ।
अनुपान --- शहद या तण्डुलोदक | (६३५३) लवङ्गाद्यं चूर्णम् (बृहत् )
( भै. र. 1 ग्रहण्य. ) लवङ्गं जीरकं कौन्ती सैन्धवं त्रिसुगन्धिकम् । अजमोदा यमानी च मुस्तकं सकटुत्रयम् ॥
अनुपान - उष्ण जल ।
इनके सेवन से ग्रहणी विकार, आम और पीड़ायुक्त अतिसार (प्रवाहिका), कफज ज्वर, शूल, कुष्ठ, अम्लपित्त, प्रबल वायु, अग्निमांद्य और कोष्ठगत वायुका नाश होता है ।
(६३५२) लवङ्गाद्यं चूर्णम् (बृहत् )
( भै. र. । ग्रहण्य. )
लवङ्गातिविषा मुस्तं पिप्पली मरिचानि च । सैन्धवं हषा धान्यं कट्फलं पुष्करं तथा ॥ जातीकोषफलाजाजीसौवर्चलरसाञ्जनम् । धातकी मोचकं पाठा पत्रं तालीशकेशरम् ॥ चित्रञ्च विञ्चैव तुम्बुरु विल्वमेव च । त्वगेला पिप्पलीमूलमजमोदा यमानिका ॥ समङ्गा वत्स शुण्ठी दाडिमं यावशुकजम् । निम्बं सर्जरसं क्षारं सामुद्रं टङ्कणं तथा ।। ही कुटजञ्चैव जम्ब्वात्रं कटुरोहिणी । अभ्रकं पुटितं लौहं शुद्धगन्धकपारदम् एतानि समभागानि श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् । मधुना वा लिच्चूर्ण पिबेतण्डुलवारिणा ॥ सर्वदोषहरश्चैव ग्रहणीं हन्ति दुस्तराम् । वातिकीं पैत्तिकीञ्चैव श्लैष्मिकीं सान्निपाति कीम्।। पक्कापकमतीसारं नानावर्ण सवेदनम् । कृष्णरुणञ्च पीतञ्च मांसधावनसन्निभम् ॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि
-
त्रिफला शतपुष्पा च पाठा भूनिम्बगोक्षुरम् । । हलीमक, पाण्डु, कास, आदि रोगोंमें खांडके साथ जातीकोषफले दावी नलदं चन्दनं मुरा॥ सेवन करावें । यह चूर्ण लौंगके अनुपानसे शटी मधुरिका मेथी टङ्कणं कृष्णजीरकम् । आध्मानको शान्त करता है। क्षारद्वयं वालकञ्च बिल्वं पौष्करं तथा ॥
(६३५४) लवङ्गायं मोदकम् चित्रकं पिप्पलीमूलं विडङ्ग सधनीयकम् । ( भै. र. । अग्निमांद्या.) रसाभ्रगन्धकं लौहं समं सर्व विचूर्णितम् ॥ लवङ्गं पिप्पली शुण्ठी मरिचं जीरकद्वयम् । उष्णोदकानुपानेन मन्दाग्नेर्दीपनं परम् । केशरं तगरञ्चैव एला जातीफलं तुगा ॥ शीततोयानुपानैर्वा बुद्ध्वा दोषगतिं भिषक् । कट्फलं तेजपत्रञ्च पद्मबीजं सचन्दनम् । आमातीसारं ग्रहणी चिरकालोत्थितामपि । शूलं विष्टम्भमानाहं विसूची शोथकामले ॥ | कर्पूरं जातीकोषञ्च मुस्तं मांसी यवस्तथा । हलीमकं पाण्डुरोगं हन्ति कासं विशेषतः। धान्यकं शतपुष्पा च लवङ्ग सर्वतुल्यकम् ॥ लबङ्गाद्यं महच्चूर्ण शर्करासहितं पिबेत् ।। सर्वचूर्णद्विगुणितां शर्करां विनियोजयेत् । आध्मानं शमयेच्छीघ्रं लवङ्गस्यानुपानतः। सर्वरोग निहन्त्याशु अम्लपित्तं सुदारुणम् ॥ अश्विभ्यां निर्मितं ह्येतल्लोकानुग्रहहेतवे ॥ अग्निमान्धमजीर्णश्च कामलापाण्डुरोगनुत् ।
लौंग, जीरा, रेणुका, सैन्धव लवण, दारचीनी, | बलपुष्टिकरश्चैव विशेषात् शुक्रवर्द्धनम् ॥ तेजपत्र, छोटी इलायची, अजमोद, अजवायन, | ग्रहणी सर्वरूपाश्च अतीसारं सुदुर्जयम् । मोथा, सोंठ, पिप्पली, काली मिर्च, हरड़, बहेडा, अश्विभ्यां निर्मितं हन्ति लवङ्गाधमिदं शुभम् ॥ आमला, सेाया, पाठा, चिरायता, गोखरु, जावित्री, लौंग, पीपल, सेठ, काली मिरच, सफेद जायफल, दारुहल्दी, जटामांसी, लाल चन्दन, | जीरा, काला जीरा, नागकेसर, इलायची, जायफल, मुरामांसी, कचूर, सौंफ, मेथी, सुहागा, कालाजीरा, | बंसलोचन; कायफल, तेजपात, कमलगट्टा, सफेद यवक्षार, सर्जिक्षार, सुगन्धवाला, बिल्व, पुष्करमूल, | चन्दन, ककोल, अगर, खस, अभ्रक भस्म, कपूर, चित्रक, पिप्पलीमूल, बायविडङ्ग, धनिया, पारद, जावत्री. नागरमोथा. जटामांसी. इन्द्रजौ. धनिया अभ्रकभस्म, गन्धक और लौहभस्म समान भोग ले और सौंफका चूर्ण १-१ भाग और लौंगका चूर्ण कर चूर्ण बनावें।
सबके बराबर ( २६ भाग ) लेकर सबसे दो गुनी मात्रा-१ माशा।
(१०४ भाग) खांडकी चाशनीमें मिला कर (३-३ अनुपान--वातादि दोषोंके अनुसार उष्ण | माशेके) मोदक बना लें। तथा शीतजलके साथ सेवन करानेसे मन्द हुई २ इनके सेवनसे भयंकर अम्लपित्त, अग्निमांद्य, अग्नि प्रदीत होती है तथा आमातीसार, ग्रहणी, अजीर्ण, कामला, पाण्डु, हर प्रकारकी शूल, विष्टम्भ, आनाह, विषूचिका, शोथ, कामला, । संग्रहणी और कष्ट साध्य अतीसार नष्ट होता है।
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रसमकरणम् ]
चतुर्यों भागः
ये मोदक बल पुष्टिकारक और विशेषतः दें । तदनन्तर उसके स्वांगशीतल होने पर शुक्रवर्द्धक हैं।
| औषधको निकाल कर खरल कर लें। लवणमण्डूरम्
मात्रा--२-३ रत्ती। (ग. नि. । पाण्डु.)
इसे उचित अनुपानके साथ देनेसे सन्निपात मण्डूर लवण प्रयो. सं. ५४८२ देखिये। । और प्रचण्ड राजयक्ष्माका नाश होता है। (६३५५) लहरीतरङ्गो रसः
(६३५६) लाईचूर्णम् (१) (र. रा. सु. । सन्निपाता.)
(वै. मृ.; घृ. नि. र. । ग्रहण्य.) मृतायोभ्राचगानां शुद्धपारदगन्धयोः । त्रिजातकव्योषवरारसेन्द्रपञ्चविंशतिभागाः स्युः पृथक् पश्च विषस्य च॥ | ___ गन्धाजमोदामिशिवेल्लराव्यः । नवसादरसः पञ्चभागा द्वादश टकणात् । बिल्वानलाजाजिलवङ्गधान्यभावनोवरमुख्याश्च भावयेत्कन्यकाद्वैः॥
गजोपकुल्यामधुकं पटूनि ॥ एकविंशतिवारं च तावदाकजै रसैः। हिङ्गुः कुबेराद्वयमोचसारौ सप्तधाधूर्ततैलेन तथा कन्यारसेन च ।।
क्षारौ जया सर्वचतुर्थभागाः। काचकुप्यां च संरुध्य बालुकायन्त्रगं पचेत् । इदं हि चूर्ण विनिहन्ति तूर्ण यामद्वात्रिंशकं यावत् स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत् ॥ प्रमूतिकासङ्ग्रहणीविकारम् ॥ गुञ्जाद्वयं त्रयं वापि यथायोग्यं च भक्षयेत् । समस्तरोगान्तकमग्निकारि सन्निपातं निहन्त्याशु राजयक्ष्माणमुद्धतम् ॥
भ्राजिष्णुताकारिसुतक्रपीतम् । योगो ब्रह्मास्त्रलहरी तरङ्गोयं महारसः ॥ इमं प्रयोगं बहुधानुभूतं
लोह भस्म, अभ्रक भस्म, ताम्र भस्म, बंग- चकार धात्री किल कापि लाही ॥ भस्म, शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक २५-२५ दालचीनी, तेजपात, इलायची, सोंठ, मिर्च, भाग; शुद्र बछनाग ५ भाग, नौसादर ५ भाग | पीपल, हरे, बहेड़ा, आमला, शुद्ध पारद, शुद्ध
और सुहागा १२ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धक- गन्धक, अजमोद, सौंफ, बायबिडंग, हल्दी, बेलकी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे | गिरी, चीतामूल, जीरा, लौंग, धनिया, गजपीपल, मिला कर सबको घृतकुमारी और अदरकके | मुलैठी, पांचो नमक (सेंघा, काला नमक (संचल), रसकी २१-२१ भावना देकर ७ भावना धतूरके | बिड लवण, काच लवण, समुद्र लवण ), हींग, तेलको दें और फिर पुनः घृतकुमारोके रसकी तुन वृक्षका सार, मोचरस, जवाखार और सज्जीखार सात भावना देकर आतशी शीशीमें भर दें तथा १-१ भाग तथा भांग सबसे चौथाई ले कर उसे बालुकायन्त्रमें रख कर ३२ पहरकी अग्नि । प्रथम पारे गन्धकको कज्जली बनावें और फिर
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५२२.
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ लकारादि
उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिलाकर सुर- इसके सेवनसे अतिसार, ग्रहणी और प्रवाहिकाका क्षित रक्खें ।
नाश होता है। ___ यह चूर्ण सूतिका रोग और संग्रहणीको शीघ्र इसमेंसे १ शाण (३।। माशे ) प्रातः और ही नष्ट करता और अग्निकी वृद्धि करता है। यह आधी शाण सायंकालको तक्रके साथ सेवन अनेक बारका अनुभूत प्रयोग है।
करना चाहिये। ( मात्रा--१ माशा )
लाईचूर्णम् (३) (मध्यम) अनुपान-तक ।
( भै. र. | ग्रहण्य. ; वृ. यो. त.। त. ६४ )
" रसायनामृत रसः " प्र. सं. ६११९ देखिये । (६३५७) लाईचूर्णम् (२) (मध्यम)
(६३५८) लाईचूर्णम् (४) (लघु) (र. रा. सु. । संग्रहण्य.)
(यो. र.; र. चं. । ग्रहण्य.; यो. त. । त. २१.) शाणं शाणं रसं गन्धं
सूतं गन्धं त्रिकटुकं दीप्यकं जीरकद्वयम् । तयोः कुर्य्याच कज्जलीम् । सौवर्चलं सैन्धवं च रामटं बिडमेव च ॥ मृता, भ्रष्टवाल्हीकं त्रिसुगन्धं च वालुकम् ॥ शक्रायस्य चूर्ण तु चूर्णतुल्यं प्रदापयेत् । जातीफलं लवङ्गं च कुष्ठं जीरं कुलिञ्जनम् । सङ्ग्रहं शूलमानाहं हन्यान्नानातिसारजित् ॥ व्योषं मोचरसं बिल्वं कारवी षट् पटूनि च ॥ शुद्ध पारद, शुद्र गन्धक, सोंठ, मिर्च, पीपल, एतानि शाणमात्राणि भ्रष्टभङ्गाखिलैः समाः। अजवायन, सफेद और काला जीरा, सञ्चल (काला लाईचूर्ण मिति ख्यातं रुच्यं दीपनपाचनम् ॥ नमक), सेंधा नमक, घीमें भुनी हुई हींग और प्रातस्तक्रेण शाणन्तद्देयं शाणार्द्धकं निशि। बिड नमक १-१ भाग तथा भांग सबके बराबर सतर्क हन्त्यतीसारं ग्रहणीं च प्रवाहिकाम् ॥ लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और ___शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म, भुनी। फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर हुई हींग, दालचीनी, इलायची, तेजपात, एलवालुक, सुरक्षित रक्खें । जायफल, लौंग, कूठ, जीरा, कुलिंजन, सोंठ, मिर्च, इसके सेवनसे संग्रहणी, शूल, अफारा और पीपल, मोचरस, बेलगिरी, कलौंजी और छः लवण अनेक प्रकारका अतिसार नष्ट होता है। ( सेंधा, संबल, विड नमक, सामुद्र लवण, काच ( मात्रा ----१ माशा । अनुपान-तक । ) लवण और मृत्तिका लवण ) १-१ शाण तथा . (६३५९) लाईचूर्णम् (५) (लघु) भुनी हुई भांग सबके बराबर ले कर प्रथम पारे
(नायिकाचूर्णम् ) गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य | ( भै. र. ; र. का. धे. । ग्रहण्य. ) ओषधियांका चूर्ण मिला कर सुरक्षित रक्खें। त्रिशाणं पञ्चलवणं प्रत्येक व्यूपणं पिचुः ।
यह चूर्ण रोचक, दीपन और पाचन है। गन्धकात् माषकानष्टौ चत्वारो माषका रसात् ॥
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रसप्रकरणम् ]
इन्द्राशनात्पलं शाणत्रितयाधिकमिष्यते । खादेत् मिश्रकृतान्मामनुपेयञ्च काञ्जिकम || मापकादिक्रमेणैवमनुयोज्यं रसायनम् । अत्यन्तानिकरञ्चैतद्भोजनं सर्वकामिकम् ॥ प्रसिद्धा योगिनी नारी तथा प्रोक्तं रसायनम् ग्रहणीनाशनं ह्येतदग्निसन्दीपनं परम् ॥
(६३६०) लाईचूर्णम् (६) (लघु) ( नायिका चूर्णम् )
चतुर्थी भागः
सेंधानमक ३ शाण (११ | माशे ), काला नमक ३ शाण, बिड नमक ३ शाण, सामुद्र लवण ३ शाण, कालवण ३ शाण; सोंठ १ तोला, काली मिर्च १| तोला, पीपल १ तोला, शुद्ध गन्धक १० मोशे, शुद्ध पारद ५ माशे और भांग | ५ तोले ११ । माशे ले कर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सुरक्षित रक्खें ।
१ इयक्षमिति पाठान्तरम्
५२३
शुद्ध गन्धक १ तोला, शुद्ध पारद ७॥ माशे, सोंठ, मिर्च, पीपल ११ - १ तोला, पांचों नमक ( सैंधा, संचल, विड लवण, सामुद्र लवण और कालवण ) तथा भुनी हुई हींग और दोनों । जीरे १ ॥ - १॥ कर्ष ( प्रत्येक २२ ॥ माशे ) लेकर प्रथम पार गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलावें एवं इस समस्त चूर्णसे आधी भांग मिलाकर सुरक्षित रक्खें ।
(र. रा. सु.; वृ. नि. र.; भा. प्र . । ग्रहण्य.) कर्षं गन्धकमर्द्धपारदमुभेकुर्याच्छुभां कज्जलीम् । त्र्यक्षे' त्र्यूषणतश्च पञ्चलवणं सार्द्धं च कर्ष पृथक् ॥ भृष्टं हिङ्गु च जोरकद्वययुतं सर्वार्द्धभङ्गायुतम् । खादेद् मितं प्रवृत्ति गवांस्तक्रेण विल्वे
न वा ॥
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मात्रा --- १ माशा ।
( भै. र. र. का. घे. ; र. रा. सु.; र. र. ; धन्व. । ग्रहण्य.; बृ. यो. त. । त. ६४; बृ. नि. र. )
अनुपान -- काञ्जी |
इसके सेवनसे संग्रहणीका नाश होता और चित्रकं त्रिफला व्योषं विडङ्गं रजनीद्वयम् ।
अग्नि दीप्त होती है ।
इसे तक या बेलके काथके साथ सेवन करनेसे अतिसार नष्ट होता है ।
(६३६१) लाईचूर्णम् (७) (वृहत् ) (वृहनायिका चूर्णम् )
3
भल्लातकं यमानी च हिङ्गु लवणपञ्चकम् ।। गृहधूमो वचा कुष्ठं घनमभ्रञ्च गन्धकम् । क्षारत्रयञ्चाजमोदा पारदो गजपिप्पली ॥ अमीषां चूर्णकं यावत्तावच्छकाशनस्य च । अभ्यर्च्य नायिकां प्रातर्योगिनीं कामरूपिणीम् || अमितं चापि भक्षयेदस्य गुण्डकम् । मन्दानिकास दुर्नामप्लीहपाण्डुचिरज्वरान् ॥ १ जीरकद्वयमिति पाठान्तरम् २ हिङ्गुलं लवणत्रयमिति पाठान्तरम् ३ कुछ ग्रन्थों में मोचरस, पाठा, लौंग और जावित्री अधिक लिखी है ।
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५२४ भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[लकारांदि प्रमेहशोथविष्टम्भसङ्ग्रहग्रहणीं जयेत् । _(६३६२) लोङ्गलीगुटिका (१) सर्वातीसारहरणः सर्वशूलनिषूदनः ।। (लागल्यादिगुग्गुलुवटिका)
आमवातगदोच्छेदी सूतिकातङ्कनाशनः ।। न च ते व्याधयः सन्ति वातपित्तकफोद्भवाः ॥
( भा. प्र. ; र. चं. । वातरक्ता. ; ग. नि. । यान्न हन्यादसौ सिद्धो गुण्डको नायिकाकृतः।
___ वात. २० ; वृ. मा. | वातरक्तो. ) काष्ठमप्युदरे तस्या भक्षणाद्याति जीर्णताम् ॥ लागल्यास्त्वमृतातुल्यं कन्दमुद्धृत्य यत्नतः । चीतामूल, हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च,
योजयेत् त्रिफलालौहरजस्त्रिकटुकैः समैः ।। पीपल, बायबिडंग, हल्दी, दारुहल्दी, (पाठा- |
गुग्गुल्बमृतवल्लीभिक्षालुङ्गरसेन वा । न्तरके अनुसार हल्दी और दामहल्दी के स्थानमें | त्रिफलाया रसयुक्ता गुटिकाः कोलसम्मिताः ॥ सफेद और काला जीरा ), शुद्ध भिलावा, अज- भक्षयेन्मधुनालोडय शृणु कुर्वन्ति यत्फलम् । वायन, हींग ( पाठान्तरके अनुसार शुद्ध हिंगुल ), | पादस्फुटितदुर्भग्नं जानुप्राप्तं च यद्भवेत् ।। पांचो नमक ( सेंधा, संचल, बिड लवण, काच | यच्च देहोद्गतं रक्तं यच्चासाध्यं प्रकीर्तितम् । लवण और सामुद्र लवण ), घरका धुवां, बच,
हन्तीयं भक्ष्यमाणस्य प्रबलं वातशोणितम् ॥ कूठ, नागरमोथा," अभ्रक भस्म, शुद्ध गन्धक, गिलोय, कलियारीकी जड, त्रिफला, लोह जवाखार, सज्जीखार, सुहागा, अजमोद, शुद्र | भस्म, त्रिकुटा ( सेठ, मिर्च, पीपल), शुद्ध गूगल पारद और गजपीपल १-१ भाग तथा भांग | और बीज रहित मुनक्का समान भाग लेकर सबको सबके बराबर लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली जम्बीरी नीबूके रस और त्रिफलाके काथमें खरल बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण करके बेरके समान गोलियां बना लें। मिला कर सुरक्षित रक्खें ।
इन्हें शहदमें मिलाकर सेवन करना चाहिये । मात्रा-१ माशा।
जिस वातरक्तमें पैरोंमें घाव हो गये हों, जो इसके सेवनसे अग्निमांद्य, खांसी, अर्श, प्लीहा, पाण्ड, जीर्ण ज्वर, प्रमेह, शोथ, विष्टम्भ, संग्रहणी,
जानु तक पहुंच गया हो और जिसे असाध्य
समझा जाता हो वह भी इसके सेवनसे नष्ट हो हर प्रकारका अतीसार, शूल, आमवात और सूतिका रोग आदि अनेक रोग नष्ट होते हैं।
जाता है। इसके प्रभावसे काष्ठ भी पच सकता है। (६३६३) लागलीगुटिका (२)
( ग. नि. । गुटिका. ४) ४ पाठान्तरके अनुसार ३ लवण ।
५ वृ. यो. त. में नागरमोथेके स्थान पर लागली त्रिवृता लोहचूर्ण दशपलं पृथक् । त्रिफला पाठ है।
त्रिंशत्तु गुटिकाः पथ्याः कुर्याभृङ्गरसप्लुताः ।।
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चतुर्थी भागः
रसप्रकरणम् ]
छायाशुष्कां च तत्रा गुटिकां भक्षयेत्ततः । जीर्णे रसेन रूक्षेण पेया पूर्वे न भोजयेत् ॥ यन्त्र ब्रह्मचर्याः क्रमेण गुटिकामपि । खादेत्प्रातस्तु माकं भवेत्कामचरः क्रमात् ॥ एवं सर्वाणि कुष्ठानि जयत्यांतबलान्यपि । धीमेधास्मृतियुक्तस्तु नित्यं जीवेत्समाः शतम् ॥
कलियाकी जड़, निसोत और लोह चूर्ण ( भस्म ) ५०-५० तोले ले कर सबका चूर्ण करके उसे भंगरेके रस में घोटें और सम्पूर्ण औषधकी ३० गोलियां बनाकर छायामें सुखा लें 1
इनमेंसे प्रथम आधी आधी गोली नित्य प्रति प्रातः काल सेवन करावें और औषध पचने पर रूक्ष पदार्थों के रस से पेया बनाकर खिलावें । औषध पचनेके पहिले भोजन न देना चाहिये ।
कुछ दिन बाद मात्रा बढ़ाकर एक गोली तक खिला सकते हैं ।
इनके सेवन से १ मास में सम्पूर्ण कुष्ठ नष्ट हो कर धी, मेधा और स्मृतिकी वृद्धि होती है । (६३६४) लाङ्गल्याद्यं लौहम्
( र. रा. सु. । वातरक्ता. ; धन्व; रसे. सा. सं. र. र. । वातरक्ता. ) विशुद्धलाङ्गलीमूल त्रिकटुत्रिफलैस्तथा । लाक्षागुग्गुलुभिस्तुल्यं लौहचूर्ण नियोजयेत् ॥ मातुलुङ्गरसेनैव त्रिफलाया रसेन च । विमृद्य यत्नतः पश्चात् गुटिकां कोल सम्मिताम् भक्षयेन्मधुना सा शृणु कुर्वन्ति यान् गुणान् ।
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५२५
आजानुस्फुटितं घोरं सर्वाङ्गस्फुटितं तथा ॥ तत्सर्वं नाशयत्याशु साध्यासाध्यं च शोणितम् ॥
शुद्र कलियारी मूल, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, लाख, और गूगल १ – १ भाग तथा लोह भस्म सबके बराबर लेकर सबको एकत्र मिला कर जम्बीरी नीबू के रस और त्रिफला के काथमें घोट कर बेरके समान गोलियां बना लें।
इन्हें शहद में मिलाकर सेवन करना चाहिये । इनके सेवनसे जानु तक तथा सर्वांग में फूटे हुवे साध्यासाध्य हर प्रकारके वातरक्तका नाश होता है। (६३६५) लाविकाचूर्णम् (१) (मध्यम) ( र. रा. सु. ; र. का. धे. । ग्रहण्य. )
इसके सेवन कालमें संयम पूर्वक रहना और अभ्रं पारदगन्धकं करिकणा भल्लातजातीफलम् का पालन करना चाहिये ।
क्षारं हिङ्गु विडङ्गपञ्चलवणं धूमश्च कुष्ठं वचा ।। द्वे जीरे त्रिफलाजमोदमरुणाव्योषं यवानी | ततश्चूर्ण सर्वमिदं समेन रजसा शक्राशनेनान्वितम् ॥ मन्दाग्निं ग्रहणीं प्रमेहहरणं दुर्नामकासापहम् । शोधानीकवमित्वशूलनिचयं नानातिसारं ज्वरम् ॥
हन्यादामसमीरणमरुचि
गदान् लूतामयं पाण्डुताम् । सर्वेऽपि शमं प्रयान्ति
नियतं रोगास्तु वातादयः ॥ प्रातश्चाक्षमितारनाल
सहिता भुक्ता च सा लाविका ।
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५२६
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त-भैषज्य -
भारत
कुर्यात्कान्तिमयं वपुश्च मतिदं गम्भीरनादं तथा ॥ अम्भोभिस्त्वथवानुपान. विधिना भक्षेच्च तां मस्तुभिः । स्वेच्छा भक्षणतो भवेत् प्रमुदितो सद्वैद्य निदर्शनात् ॥
अभ्रक भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, गजपीपल. शुद्ध भिलावा, जायफल, जवाखार, हींग, बायबिडंग, पांचो लवण, घरका धुंवा, कुष्ठ, बच, सफेद और काला जीरा, हर्र, बहेड़ा, आमला, अजमोद, अतीस, सोंठ, मिर्च, पीपल और अजवायन १–१ भाग तथा भांग सबके बराबर ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिलाकर सुरक्षित रक्खें ।
सार,
इसके सेवनसे मन्दाग्नि, ग्रहणी, प्रमेह, अर्श, खांसी, शोथ, वमन, शूल, अनेक प्रकारका अतिज्वर, आमवात, अरुचि, मकड़ीका विष, पाण्डु और अन्य अनेक रोगों का नाश होता तथा शरीर कान्ति और बुद्धि बढ़ती एवं स्वर गम्भीर होता है।
मात्रा - - १ | तोला ।
( व्यवहारिक मात्रा - - - १॥ माशा | ) इसे प्रातः काल सेवन करना चाहिये । अनुपान -- आरनाल, जल, अथवा मस्तु | (६३६६) लाविकाचूर्णम् (२) (महत्) ( र. रा. सु. । ग्रहण्य. ) पारदं गन्धकं लौहं त्र्यूषणं लवणानि च । क्षारत्रयं यमान्यौ च मुस्तकं गजपिप्पली ||
- रत्नाकरः
[ लकारादि
कुटजेन्द्रयवो हिङ्गु शतपुष्पाहिफेनकम् । गृहधूमवचाकुष्ठं fas जीरकद्वयम् ॥ अभ्रकं चित्रकं पाठा लवङ्गं त्रिफला शुभा । जातीफलं सकर्पूरं त्वगेला पत्रकेशरम् ॥ एतानि समभागानि शक्राशनसमानि च । यथाव्याधिलं खादेद्दीपयेज्जठरानलम् || अवश्यं जारयत्याशु भक्ष्यं चैवातिभोजनम् । नाशयेद्ग्रहणीं शोथमामं चैवामवातकम् ।। कामलां पाण्डुरोगं च कासं श्वास जलोदरम् || प्लीहानं पीनसं शूलं कुष्टं कृमिगदं तथा ॥ सेव्यमाने भवेत्कांक्षा सगच्छेत्प्रमदाशतम् । जीवेद्वर्षशतं साग्रं वलीपलितनाशनम् ॥ वातश्लेष्मविकारेषु शस्यते च तुषोदकैः । aarat महती चैव सर्वरोगविनाशिनी ॥
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शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, लोह भस्म, सोंठ, मिर्च, पीपल, पांचों नमक, सुहागा, सज्जीखार, जवाखार, अजवायन, अजमोद, नागरमोथा, गजपीपल, कुड़ेकी छाल, इन्द्रजौ, हींग, सोया, अफीम, घरका धुवां, बच, कूठ, बायबिडंग, सफेद और काला जीरा, अभ्रक भस्म, चीतामूल, पाठा, लौंग, हर्र, बहेड़ा, आमला, बंसलोचन, जायफल, कपूर, दारचीनी, इलायची, तेजपात और नागकेसर १-१ भाग तथा भांग सबके बराबर ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिला कर सुरक्षित रक्खें ।
इसके सेवन से जठराग्नि अत्यन्त प्रबल हो जाती और ग्रहणी, शोथ, आम, आमवात, कामला, पाण्डु, खांसी, श्वास, जलोदर, प्लीहा, पीनस, शूल, 1. कुष्ठ और कृमि रोगका नाश होता है ।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
-
यह चूर्ण कामोत्तेजक भी है; तथा बलिपलित- मात्रा--५ रत्ती। का नाश करके आयुवृद्धि करता है।
इसे शहदमें मिलाकर सेवन करनेसे अम्लइसे वातकफज रोगामें कांजीके साथ देना । पित्त नष्ट होता है। चाहिये।
(६३६८) लीलाविलासरसः (२) (मात्रा-१ माशा ।)
(र. च. । वाजीकरणा.) लीलावतीवटी
रसेन्द्रभस्माभ्रककाञ्चनं च (र. रा. सु. ; वै. र. । ज्वरा.) ।
कस्तूरिकाकुङ्कमजातिपत्री। प्र. सं. २१२२ " जीर्णज्वरारि · रसः "
लवङ्गएलातजतुल्यभागं देखिये।
भागार्धमेकं कनकस्य बीजम् ।। (६३६७) लीलाविलासरसः (१) ( यो. र. ; र. र. स. । अ. १८)
सम्मर्दयेत्तण्डुलिकारसेन शुद्धसूतं समं गन्धं मृतताम्राभ्ररोचनम् ।
वल्लैकमानं मधुसम्प्रयुक्तम् ।
भक्षेविकालं शृतशीतदुग्यं तुल्यांशं मर्दयेद्यामं रुद्भवा लघुपुटे पचेत् ॥
पिन्सदा सर्वगदानिहन्ति ॥ अक्षधात्रीहरीतकीः क्रमवृध्दया विपाचयेत् ।
पण्ढोऽल्पवीर्यो बहुमूत्रमेहो जलेनाष्टगुणेनैव ग्राह्यमष्टावशेषकम् ॥ अनेन भावयेत्पूर्व पक्वमूतं पुनः पुनः ।
नारीशतं गच्छति कामतुल्यः ।
कामस्य वृद्धिं प्रकरोति पुष्टिं पञ्चविंशतिवारं च तावता भृङ्गजद्रवैः ।। शुष्कं तच्चूर्णितं खादेत्पञ्चगुञ्जमधुप्लुतम् ।
लीलाविलासो रसराज एषः ॥ रसो लीलाविलासोऽयमम्लपित्तं नियच्छति।।
पारद भस्म, अभ्रक भस्म, स्वर्ण भस्म,
कस्तूरी, केसर, जावत्री, लौंग, इलायची और शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म, अभ्रक
दालचीनी १-१ भाग तथा धतूरेके शुद्ध बीज भस्म और अनारदानेका चूर्ण समान भोग ले कर
आधा भाग ले कर सबको एकत्र मिलाकर चौलाई के प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर
रसमें घोट कर सुखा लें। उसमें अन्य औषधे मिला कर सबको अच्छी तरह
मात्रा--३ रत्ती। खरल करके शरावसम्पुटमें बन्द करके लघुपुटमें इसे प्रातः सायं शहदके साथ खा कर ऊपरसे पकावें । तदनन्तर १ भाग बहेड़ा, २ भाग आमला
पका कर ठण्डा किया हुवा दूध पीना चाहिये । और ३ भाग हर लेकर सबको एकत्र कूट कर यह अत्यन्त कामवर्द्धक और पौष्टिक है । आठ गुने पानीमें पकावें और आठवां भाग रहनेपर इसके सेवनसे नपुंसक, अल्पवीर्य और प्रमेहछान कर उस काथकी उपरोक्त रसको २५ भावना | ग्रस्त तथा बहुमूत्र रोगसे पीड़ित रोगी भी स्वस्थ दें और फिर २५ भावना भांगरेके रसकी दे कर हो कर सौ सौ स्त्रियोंके साथ समागम करने में सु खा लें।
समर्थ हो जाता है।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि (६३६९) लीलाविलासरसः (३) । (६३७०) लोकनाथपोटलीरसः ( भै. र. ; रे. चं. ; र. का धे. ; र. रा. सु. :
(र. का. थे. । प्रमेह.) रसे. सा. सं. । अम्लपित्ता. वृ. यो. त. । त. मृतरसयुगभागौ हाटकं चन्द्रभाग १२२; रसे. चि. म. । अ. ९) वसुगुणितकपर्द टङ्कणं भागमेकम् ।
सितविषशशिभागं सर्वतुल्यं सुगन्धं रसो बलियोमरविस्तु लौह
तिथिदिनमनलाद्भिर्वज्रदुग्वेन घृष्ट्वा ॥ धान्यक्षनीरैस्त्रिदिनं विमर्थ ।।
तदनु च कृतगोलं पक्वभाण्डे स्थितं ततदल्पवृष्टं मृदुमार्कवेण
गजपुटविधिसिद्धः पोटली लोकनाथः । सम्पर्दयेदस्य हि रक्तिमात्रम् ॥ घृतमरिचसमेतं वल्लमा प्रदद्याहन्त्यम्लपित्तं विविधपकारं
द्विजयति भयदारी श्वासहारी त्रिरात्रात् ॥ लीलाविलासो रसराज एषः।
मधुकणयुतमेनं भोजयेद्युक्तपथ्यं छदि सशूलां हृदयस्य दाह
घृतपचितसुशाकं वर्जयेत्तैलम् ।
हरति सकलरोगान्सर्वमेहानिहन्यानिवारयेदेष न संशयोऽत्र ॥
जनयति बहुवीर्य कान्तिपुष्टिं करोति ॥ दुग्धं सकूष्माण्डरसं सधात्री
पारद भस्म २ भाग, स्वर्ण भस्म १ भाग, फलं समेतं ससितं भजेद्वा ॥ | कौड़ी भस्म ८ भाग, सुहागेकी खील १ भाग, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म, ताम्र शुद्ध सफेद विष ( संखिया ) १ भाग और शुद्ध भस्म और लोह भस्म समान भाग ले कर प्रथम | गन्धक १३ भाग ( सबके बराबर ) ले कर सबको पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें । एकत्र पीस कर १५-१५ दिन चीतेके काथ और अन्य औषधे मिला कर सबको आमले और थोहर (सेंड) के दूधमें खरल करके गोला बनावें बहेड़ेके रस या काथसे ३-३ दिन मर्दन करें | और उसे सुखा कर शराव सम्पुट में बन्द करके और फिर थोड़ी देर भंगरेके रसमें घोट कर १-१ | गजपुट में पकावें । एवं जब वह स्वांग शीतल हो रत्तीकी गोलियां बना लें।
जाय तो निकाल कर पीस लें। ___ इनके सेवनसे विविध प्रकारके अग्लपित्त, मात्रा-३ रत्ती। छर्दि, शूल और हृदयकी दाहका नाश होता है। इसे काली मिर्चके चूर्णमें मिला कर घृतके
दूधमें पेठे ( कुम्हड़े ) का रस, आमलेका | साथ सेवन करना चाहिये । चूर्ण और मिश्री मिला कर पीनेसे भी अम्लपित्त | इसके सेवनसे श्वास रोग ३ दिनमें ही नष्ट नष्ट होता है।
| हो जाता है।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
सादिषु ।
इसे पीपलके चूर्ण और शहदके साथ सेवन (मात्रा-२ रत्ती।) करने तथा तैलवर्जित, घृतपक्व शाक और पथ्य इसे समान भाग अतीस और काली मिर्चके भोजन खानेसे समस्त प्रकारके प्रमेह नष्ट होते | चूर्णके साथ सेवन करना चाहिये। और अत्यन्त वीर्य वृद्धि होती तथा कान्ति और
इसके सेवनसे निर्बलता, खांसी, शोथ, आम, पुष्टि बढ़ती है।
वायु, गुन्म, शूल, श्वास, ग्रहणी, अर्श, राजयक्ष्मा, (६३७१) लोकनाथपोटली पाण्डु, ज्वर, अग्निमांद्य और अरुचिका नाश
( वृ. नि. र. । कासा.) होता है। कृत्वा जम्भरसेन गन्धरसयोस्तत्तुल्यं ताम्राकृत, इस पर लोकनाथ रसके समान पध्यादि गोलं लावणयन्त्रगर्भनिहितं रुध्वा पचेत्तं शनैः ।।
पालन करना चाहिये। यामानष्ट कपर्दजेन सकलं तुल्येन तद्भस्मना,
(६३७२) लोकनाथरसः (१) युक्तं चित्रकवारिणा लघुतरं पिष्ट्वा पुटं दापयेत्।। संशुद्धामिति पोटली सहविषां मारीचचूर्णेन ता
(यो. चि. म. । अ. ७)
भागौ दग्ध कपर्दकस्य च मश्नोयादिति लोकनाथविधिना दौर्बल्यका
तथा शङ्खस्य भागद्वयम् ।
भागौ गन्धकमूतयोमिलिशोफामानिलगुल्मशूलकसनश्वासग्रहण्यशसि,
तयोः पिष्टान्मरीचादपि ॥ प्रौढे यक्ष्मणि पाण्डुरोगसहिते सन्तापमान्धा
भागानां त्रितयं नियोज्य रुचौ ॥
___ सकलं निम्बूरसैश्चूर्णितम् । १-१ भाग शुद्र पारद और शुद्ध गन्धककी
पीतस्तक्रमनुग्रहण्यपकज्जली बनाकर उसे १ दिन जम्बीरी नीबूके
हरःश्रीलोकनाथो रसः॥ रसमें घोट कर गोला बनावें और उसे सुखा कर २ भाग शुद्र ताम्रके सम्पुटमें बन्द करके उस पर
कौड़ी भस्म २ भाग, शंख भस्म २ भोग, ३-४ कपरमिट्टी कर दें एवं उसे सुखाकर ८ पहर
शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक १ भाग और लवण यन्त्रमें पकावें । तदनन्तर स्वांग शीतल ।
काली मिर्चका चूर्ण १ भाग ले कर प्रथम पारे होने पर सम्पुटमेंसे औषधको निकाल कर पीस लें
गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य और उसमें उसके बराबर कौड़ी भस्म मिला कर
औषधे मिला कर नीबूके रसमें खरल करके सबको चौतेके काथमें घोट कर गोला बनावें और | सुखा लें । उसे सुखा कर शराव सम्पुटमें बन्द करके लघु इसे तक्रके साथ सेवन करनेसे ग्रहणी रोग पुटमें पकावें । तदनन्तर उसके स्वांग शीतल होने नष्ट होता है । पर औषधको निकाल कर पीस कर रख लें। । ( मात्रा-१ माशा । )
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि
(६३७३) लोकनाथरसः (२) । त्यजेदयुक्तनिद्रां च कांस्यपात्रे च भोजनम् ।
| ककारादियुतं सर्वं त्यजेच्छाकफलादिकम् ॥ (वृ. नि. र.; र. चं. । राजय. ; शा. सं.।
पथ्योऽयं लोकनाथस्तु शुभनक्षत्रवासरे । खं. २ अ. १२; यो. चि म.।
पूर्णातिथौ शुक्लपक्षे जाते चन्द्रबले तथा ॥ मिश्रा. ; र. प्र. सु. । अ. ८)
पूजयित्वा लोकनाथं कुमारी भोजयेत्ततः। शुद्धो बुभुक्षितः मूतो भागद्वयमितो भवेत् । दानं दत्वा द्विघटिकामध्ये ग्राह्यो रसोत्तमः ॥ तथा गन्धस्य भागौ द्वौ कुर्यात्कजलिकां तयोः रसाच्चेज्जायते तापस्तदा शर्करया युतम् । सूताचतुर्गुणेष्वेव कपर्देषु विनिक्षिपेत् । । सत्वं गुडूच्या गृह्णीयाद्वंशरोचना युतम् ।। भागैकं टङ्कणं दत्वा गोक्षीरेण विमर्दयेत् ॥ खरं दाडिमं द्राक्षामिक्षुखण्डानि चारयेत् ॥ तथा शंखस्य खण्डानां भागान्यष्टौ प्रकल्पयेत् । अरुचौ निस्तुषं धान्यं घृतभृष्टं सशर्करम । क्षिप्तं सर्वं पुटस्यान्तश्चूर्णलिप्तशरावयोः॥ दद्यात्तथा ज्वरे धान्यगुडूचीक्काथमाहरेत् ।। गर्ते हस्तोन्मितं धृत्वा पुटेद्गजपुटेन च । उशीरवासककाथं दद्यात्सपधुशर्करम् । स्वाङ्गशीतं समुदत्य पिष्ट्वा तत्सर्वमेकतः ।। रक्तपित्ते कफे श्वासे कासे च स्वरसंक्षये ॥ षड्गुञ्जासंमितं चूर्णमेकोनत्रिंशदूषणैः । अग्निभृष्टजयाचूर्ण मधुना निशि दीयते । घृतेन वातजे दद्यान्नवनीतेन पित्तजे ॥ निद्रानाशे तिसारे च ग्रहण्यां मन्दपावके ॥ क्षौद्रेण श्लेष्मजे दद्यादतिसारे क्षये तथा। सौवर्चलाभयाकृष्णाचूर्णमुष्णोदकैः पिबेत् । अरुचौ ग्रहणीरोगे कार्य मन्दानले तथा ॥ शूलेऽजीणे तथा कृष्णा मधुयुक्ता ज्वरे हिता ॥ कासश्वासेषु गुल्मेषु लोकनाथो रसो हितः। । प्लीहोदरे वातरक्त छ- चैव गुदाकरे । तस्योपरि घृतान्नं च भुञ्जीत कवलत्रयम् ॥ | नासिकादिषु रक्तेषु रसं दाडिमपुष्पजम् ।। मंचे क्षणैकमुत्तानः शयीतानुपधानके । दूर्वायाः स्वरसं नस्ये प्रदद्याच्छर्करायुतम् । अनम्लमन्नं सघृतं भुञ्जीत मधुरं दधि ।। | कोलमजाकणावहिपक्षभस्म सशर्करम् ।। सदुग्धभक्तं दद्याच जातेऽग्नौ सांध्यभोजने। मधुना लेहयेच्छर्दिहिकाकोपस्य शान्तये । सघृतान्मुद्गवटकान् व्यंजनेष्ववचारयेत् ॥ विधिरेप प्रयोज्यस्तु सर्वस्पिन्योटलीरसे ।। तिलामलककल्केन स्नापयेत्सर्पिषाऽथ वा। मगाङ्के हेमगर्भे च मौक्तिकाख्ये रसेषु च । अभ्यञ्जयेत्सर्पिषा च स्नान कोष्णोदकेन च॥ इत्ययं लोकनाथाख्यो रसः सर्वरुज जयेत् ।। कचित्तैलं न गृहीयान विल्वं कारवेलकम् । शुद्ध बुभुक्षित पारद २ भाग और शुद्ध वार्ताकं शफरी चिश्चां त्यजेद्व्यायाममैथुने ॥ गन्धक २ भाग ले कर कज्जली बनावें और उसे मद्यसन्धानकं हिगुशुण्ठीन्माषान्ममूरकान्। ८ भाग कौड़ियों में भर दें । तदनन्तर १ भाग कूष्माण्डं राजिकां कोपं काअिकं चैव वर्जयेत् ॥ सुहागेको गाय के दूधमें पीस कर उससे उन कौड़ियों
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
का मुख बन्द कर दें और फिर भीतरको तरफ मैथुन, मद्य, हींग, सेांठ, उड़द, मसूर, कुम्हड़ा चूना पुते हुवे शरावो में ८ भाग शंखके टुकड़े (पेठा), राई, क्रोध करना, कांजी, असमय सोना, और ये कौडियां भर कर उस पर उसी प्रकारका कांसीके पात्रमें भोजन करना, और ककारादि दूसरा शराव रख कर दोनोंकी सन्धि बन्द कर दें वर्गके फल तथा शाकांको परित्याग करना और कपडमिट्टी करके सुखा लें। तत्पश्चात् इस | चाहिये । सम्पुटको १ हाथ गहरे गढ़ेमें रख कर गजपुटकी । इसे सेवन करनेसे पूर्व शुभ नक्षत्र, शुभ वार अग्नि दें और उसके स्वांगशीतल होने पर सम्पुट | और पूर्णा तिथि (पंचमी, दशमी, पूर्णिमा) को मेंसे औषधको निकाल कर कौड़ियों और शंख लोकनाथका पूजन करके, कुमारी कन्याको भोजन समेत पीस लें।
कराना और दान देना चाहिये । तदनन्तर इसका ___ इसमेंसे ६ रत्ती चूर्ण २८ काली मिर्चके | सेवन आरम्भ करना चाहिये । साथ मिलाकर वातज रोगांमें घृतके साथ, पित्तज ___ यदि रस खानेके पश्चात् दाह हो तो मिश्री, रोगोंमें नवनीत (मक्खन) के साथ और कफज | - गिलोयका सत और बंसलोचन एकत्र मिला कर रोगोंमें शहदके साथ खिलाना चाहिये। देना तथा खजूर, अनार, किशमिश और ईख
इसके सेवनसे अतिसार, क्षय, अरुचि, संग्र- | (गन्ने) की गण्डीरी खिलानी चाहिये। हणी, कृशता, अग्निमांद्य, खांसी, श्वास और गुल्मका इस रसके सेवन कालमें विशेष उपद्रवोंकी नाश होता है।
चिकित्सा इस प्रकार करनी चाहिये । यह रस खिलानेके पश्चात् ३ ग्रास घृतयुक्त
। अरुचिमें---धनियेके चावलोंको घीमें भूनकर भात खिलोना और रोगीको बिना तकिया लगाए | मिश्रीमें मिलाकर खिलाना चाहिये । थोड़ी देर तक चित्त लिटाए रखना चाहिये। ज्वरमें--धनिये और गिलोयका काथ ___इस पर अम्लरहित घृतयुक्त अन्न और पिलाना चाहिये । मीठा दही खिलाना चाहिये । सायंकालको भूख रक्तपित्त, कफ, श्वास, खांसी और लगने पर दूध भात और घीमें तले हुवे मूंगके बरे | स्वरक्षयमें--खस और बासेके काथमें शहद और देने चाहिये।
खांड मिलाकर पिलाना चाहिये । पिसे हुवे तिल और आमलेका, या घृतका |
निद्रानाश, अतिसार, ग्रहणी और अभ्यङ्ग करनेके पश्चात् मन्दोण जलसे स्नान
अग्निमांद्यमें--रात के समय भुनी हुई भांगका चूर्ण कराना चाहिये । शरीर पर घृतकी मालिश करानी | शहद में मिलाकर चटाना चाहिये । चाहिये।
१. ककारादि वर्ग-कुम्हेड़ा (पेठा), ___ अपथ्य-इस रसके सेवन कालमें तेल, ककड़ी, कलिङ्ग (तरबूज), करेला, कुसुम्भ, ककोड़ा, बेल, करेला, बैंगन, मछली, इमली, व्यायाम, । कलम्बी और काकमाची (मकोय) ।
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५३२
शूल और अजीर्णमें संचल (काला नमक ), हर्र और पीपलका चूर्ण उष्ण जलके साथ दें ।
भारत - मैषज्य रत्नाकरः
ज्वर, प्लीहा, वातरक्त, छर्दि और अर्शमें- पीपलका चूर्ण शहद में मिला कर चटाना चाहिये
नासादिसे रक्तस्राव होने में – अनार के फूलों के स्वरस या दुर्वा घासके रसमें खांड मिला कर उसकी नस्य देनी चाहिये ।
छर्दि और रिकामें -- बेरकी गुठली की गिरी, पीपल और मोर पंखकी भस्मका यथा विधि चूर्ण बना कर शहद के साथ चटाना चाहिये ।
मृगाङ्क पोटली, हेमगर्भ पोटली और मुक्ता पोटली आदि में भी यही विधि काममें लानी चाहिये ।
(६३७४) लोकनाथरस: (२) (बृहद् ) ( भै. र. र. रा. सु. ; रसे. सा. सं. । लीहा. ; रसे. चि. म. । अ. ९ )
शुद्ध द्विधा गन्धं खल्ले कृत्वा तु कज्जलीम् । सूततुल्यं जारिताभ्रं मर्दयेत्कन्यकाम्बुना ॥ ततो द्विगुणितं दद्यात्तात्रं लौह प्रयत्नतः । काकमाचीरसेनैव सर्वं तत्परिमर्द्दयेत् ॥ सूताच्च द्विगुणं गन्धं वराटीसम्भवं रजः । *पिष्ट्रा जम्बीरनीरेण मृषायुग्मं प्रकल्पयेत् ॥ तन्मध्ये गोलकं क्षिप्त्वा यत्नेन छादयेद्भिषक् । शरावसम्पुटं कृत्वा मृद्भस्म लवणाम्बुभिः ॥
१ "सूतान्नवगुणं देयं वराटी सम्भवं रजः " इति पाठान्तरम् ।
[लकारादि
शरावसन्धिमालिप्य चातपे शोषयेत्क्षणम् । ततो गजपुटं दत्त्वा स्वांगशीतं समुद्धरेत् ॥ पिष्ट्वा तु सर्वमेकत्र स्थापयेद्भाजने शुभे । खादेद्वलद्वयञ्चास्य मूत्रश्चानु पिवेन्नरः || धुना पिप्पलीचूर्ण सगुडां वा हरीतकीम । अजाज वा गुडेनैव भक्षयेत्तुल्ययोगतः । यकृत्प्लीहोदरोग्रञ्च श्वयथुञ्च विनाशयेत् ॥ वाताष्ठीलाच कमठीं प्रत्यष्ठीलां तथैव च । कांस्यक्रोडाग्रमांसञ्च शूलञ्चैव भगन्दरम् । वह्निमान्यञ्च कासश्च लोकनाथरसोत्तमः ॥
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शुद्ध पारद १ भाग, और शुद्ध गन्धक २ भाग ले कर कज्जली बनावें और फिर उसमें १ भाग अभ्रक भस्म मिलाकर १ दिन घीकुमारके रसमें घोटें । तदनन्तर उसमें २-२ भाग ताम्र भस्म और लोह भस्म मिला कर सबको मकोयके रसमें घोट कर गोला बनाकर सुखा लें। तत्पश्चात् २ भाग शुद्र गन्धक और २ भाग कौड़ीका चूर्ण लेकर दोनों को एकत्र मिलाकर नीबू के रस में खरल करके उससे २ मूषा बना कर सुखा लें और उनमें उपरोक्त गोला बन्द करके उसे २ शरावांमें बन्द कर दें और जोड़को मिट्टी, राख और सेंधा नमक के पानीमें पिसे हुवे चूर्ण से बन्द करके धूप में सुखा लें । एवं उस पर कपड़े मिट्टी करके, सुखा कर गजपुट पकायें। जब स्वांग शीतल हो जाय तो सम्पुटमेंसे औषधको निकाल कर ( कौड़ी की मूषासमेत) पीसकर सुरक्षित रक्खें ( भैषज्य
*
भै. यह पाठ नहीं है ।
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र. में. " पिष्ट्वा ..... शोषयेत् क्षणम्
"
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रसप्रकरणम् ]
रत्नावलीके अनुसार गन्धक और कौड़ीकी मूषा न बनाकर ८ भाग कौड़ीका चूर्ण डालना और साधारण शरावां में बन्द करना चाहिये | )
चतुर्थी भागः
मात्रा - ६ रत्ती ।
इसे पीपलके चूर्ण और शहदके, या हर्रके चूर्ण और गुड़के साथ अथवा जीरेके चूर्ण और गुड़ के साथ खाकर गोमूत्र पोना चाहिये ।
इसके सेवन से यकृत, प्लीहा, शोथ, वाताष्ठीला, कमठी, प्रत्यष्ठीला, कांस्यक्रोड, अग्रमांस, शूल, भगन्दर, अग्निमांद्य और खांसीका नाश होता है।
1
(६३७५) लोकनाथरस: (४) ( रस. चि. म. । स्त. ७ ) रसगन्धौ समौ कृत्वा हस्तिशुण्डीरसैभृशम् । हिङ्गुपत्रीरसैश्वापि मर्दयेद्दिनपञ्चकम् || विघृष्य वालुकायन्त्रे कूपिकायां निवेश्य तम् दिनमेकं भवेदग्निर्मन्दं मन्दं निशावधि || एवं निष्पद्यते सूतः पीतः शीतस्तु गृह्यते । पर्णखण्डेन गुञ्जकं मरिचेन समन्वितम् ॥ क्षुद्रोधं कुरुतेऽत्यर्थमुदरं च विनाशयेत् । ज्वरापनयनं कुर्यात्परां पुष्टि करोति च ॥ हृदयोत्साहजननः सुरूपं वपुषो भवेत् । मधुरस्वर एवायं नीलकेशोऽतिनिर्भयः ॥ aari कामये स्त्रियो हृदयहारिणम् । सेनादस्य सुतस्य मानवः कामितं लभेत् ॥ वनितानां शतं गच्छेन्न स्वेदो जायते तनौ । शर्करेक्षुपयः पानं पौष्टिकान्नस्य भक्षणात् ॥ रोगनाशं ध्रुवं कुर्याद्रसोयं परमौषधम् ॥
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५३३
शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक समान भाग लेकर कज्जली बनावें और फिर उसे पांच पांच दिन हाथी सूंडी और हिंगुपत्रीके रसमें घोट कर सुखा कर आतशी शीशी में भर दें और उसे बालुका यन्त्रमें रख कर १ दिन मन्दाग्नि पर पकावें । तदनन्तर जब शीशी स्वांगशीतल हो जाय तो उसमेंसे रसको निकाल कर खरल कर लें । इसका रंग पीला होगा ।
इसे काली मिर्च के चूर्ण के साथ मिला कर पानमें रख कर खाना चाहिये । मात्रा - - १ रत्ती ।
इसके सेवन से अत्यन्त अग्निवृद्धि होती और उदर रोग तथा ज्वरका नाश होता है । यह अत्यन्त पौष्टिक और अत्यन्त कामोत्तेजक है । इसे सेवन करने से हृदयमें उत्साह बढ़ता, शरीर सुन्दर होता और स्वर मधुर हो जाता है । बाल हो जाते हैं । इसके प्रभाव से मनुष्य सौ सौ स्त्रियोंके साथ समागम करने पर भी नहीं थकता ।
इसके सेवन काल में खांड, ईख, दूध और पौष्टिक अन्न सेवन करना चाहिये ।
(६३७६) लोकनाथरस : ( (५) (लघुलोकेश्वररसः)
( भै. र. ; र. र. ; रसे. सा. स. । अतिसारा. ; र. र. स. । उ. अ. १६) भस्मसूतस्य' भागैकं चत्वारः शुद्धगन्धकात् । वराटिका टङ्गणेन निरुध्य च ॥ १ शुद्ध सूतस्येति पाठान्तरम् ।
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[लकारादि भाण्डे रुवा पुटे पाच्य स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत् ।। मात्रा–१ माषा । लोकनाथरसो नाम क्षौद्रेर्गुाद्वयं मितम् ॥ इसे शहद या नवनीत के साथ खानेसे ४० नागरातिविषामुस्तं देवदारुवचान्वितम् । दिनमें राजयक्ष्माका नाश हो जाता है। कषायमनुपानन्तु सर्वातीसारनाशनः ॥
इसकी १-१ मात्रा हरएक पहरके बाद . पारद भस्म (या शुद्ध पारद) १ भाग देनी चाहिये । और शुद्ध गंधक ४ भाग लेकर दोनोंको एकत्र
(६३७८) लोकनाथरस: (७) घोट कर कौड़ीयोंमें भरें और उनके मुखको (दूधमें पिसे हुवे) सुहागेसे बन्द कर दें; एवं उन्हें शराव
( भै. र. ; रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. ; र. चं. । सम्पुट में बन्द करके गजपुट में पकावें । इसके
प्लीहा.; धन्व. । उदरा.; रसे. चि. म. । अ. ९) पश्चात् उसके स्वांग शीतल होने पर कौड़ियोंको पारदं गन्धकञ्चव समभागं विमर्दयेत् । निकाल कर पीस लें।
| मृताभं रसतुल्यञ्च पुनस्तत्रैव मर्दयेत् ॥ - मात्रा--२ रत्ती ।
रसद्विगुणलौहश्च लौहतुल्यश्च ताम्रकम् । अनुपान-इसे शहदके साथ चाट कर |
वराटिकाया भस्माथ पारदात्रिगुणं कुरु ॥ सोंठ, अतीस, नागरमोथा, देवदारु और बचका | नागवल्लीरसेनैव मईयेद्यत्नतो भिषक् । काथ पीना चाहिये।
पुटेल्लघुपुटे विद्वान् स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत् ।। ... इसके सेवनसे समस्त प्रकारके अतिसार नष्ट मधुना पिप्पलीचूर्ण सगुडां वा हरीतकीम् । होते हैं।
अजाजी वा गुडेनैव भक्षयेदनुपानतः ॥ (६३७७) लोकनाथरसः (६) (लघु) यकृद्गुल्मोदरहरः प्लीहश्वयथुनाशनः । ( शा. सं. । खं. २ अ. १२; र. र. । क्षय. )
जीर्णज्वरं तथा पाण्डुकामलाञ्च विनाशयेत् ।। वराटभस्ममण्डूरं चूर्णयित्वा घृते पचेत् ।।
अग्निमान्द्यश्च शमयेल्लोकनाथो रसोत्तमः॥ तत्समं मरिचं चूर्ण नागवल्या विभावितम् ॥ १-१ भाग शुद्ध पारद और गन्धककी तच्चूर्ण मधुना लेह्यमथवा नवनीतकैः।। कज्जली बना कर उसमें १ भाग अभ्रक भस्म, २ माषमात्र क्षयं हन्ति यामे यामे च भक्षितम् ॥ | भाग लोह भस्म, २ भाग ताम्र भस्म और ३ भाग लोकनाथरसो ह्येष मण्डलाद्राजयक्ष्मनुत् ।।
( पाठान्तरके अनुसार ६ भाग ) कौड़ी भस्म ले कौड़ी भस्म, और मण्डूर भस्म समान भाग कर सबको एकत्र खरल करके पानके रसमें घोट ले कर दोनेांको एकत्र खरल करके समान भाग | कर गोला बनावें और उसे शरावसम्पुटमें बन्द घीमें पकावें और जब घी शुष्क हो जाय तो १ ताम्रतस्त्रिगुणमिति पाठान्तरम् उसमें उसके बराबर काली मिर्चका चूर्ण मिला | २ " पुटेद्गजपुटे ” इति पाठान्तरम् कर सबको पानके रसमें खरल करके सुखा लें। कई ग्रन्थों में अनुपानमें गोमूत्र भी लिखा है।
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रसप्रकरणम् ]
करके लघुपट ( पाठान्तर के अनुसार गजपुट ) में पकावें और स्वांगशीतल होने पर निकाल कर पीस लें ।
चतुर्थी भागः
( मात्रा - २ - ३ रत्ती )
अनुपान - औषध खानेके पश्चात् पीपलका चूर्ण शहद में मिला कर चाटना, या गुड़ में हरे अथवा जीरेका चूर्ण मिला कर खाना चाहिये ।
इसके सेवन से यकृत्, गुल्म, उदररोग, प्लीहा, शोथ, जीर्णज्वर, पाण्डु, कामला और अग्निमाका नाश होता है ।
(६३७९) लोकनाथरस: (८) ( र. चि. म. । स्त. ९
भागाः सप्त कपर्दिभस्म मरिचं पादाधिकांश
विषं । चैकांश रसभस्म विंशतिमिताः स्युर्गन्धकांशा
दश ॥
चत्वारो हिफेनकस्य कनकः पादोनभागः
स्मृतः । चूर्ण तन्मृदितं च सर्वगदहा स्याल्लोकनाथो रसः ॥ ग्रहण्यां कफजे व्याधी वातोद्रेके च पैत्तिके । प्रमेहे मूत्रकृच्छ्रे च कासे श्वासे भ्रमे तथा ॥ सिताज्यचामरिचैः संयुतो दीयते रसः । क्रोधं न कुर्यान्न च तैलसेवां
न राजिकां पित्तकरं न किञ्चित् । न मैथुनं जागरणं न रात्रौ न कामचारं क्रियते कदाचित् ॥
कौड़ी भस्म ७ भाग, काली मिर्चका चूर्ण
१। भाग, शुद्ध बछनाग १ भाग, पारद भस्म २०
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५३५
भाग, शुद्ध गन्धक: १० भाग, अफीम ४ भाग और स्वर्ण भस्म पौन भाग ले कर सबको एकत्र खरल करें ।
इसके सेवन से संग्रहणी, कफज रोग, वात और पित्त प्रकोप, प्रमेह, मूत्रकृच्छ्र, खांसी, श्वास और भ्रमका नाश होता है ।
अनुपान - मिश्री, घी, मोचरस और काली मिरचका चूर्ण |
( मात्रा -- २ रत्ती । )
अपथ्य - - इस रस के सेवन कालमें क्रोध, तेल, राई, पित्तकारक पदार्थ, मैथुन और रात्रि - जागरण से परहेज़ करना चाहिये ।
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(६३८०) लोकनाथरस: (९) (लोकेश्वररसः ) ( लोकेश्वर पोटली ) ( र. र. स. । उ. अ. १४; यो. र. । क्षय र. चं.; र. रा. सु.; रसे. सा. सं. । राजय.) रसस्य भस्मना हेम पादांशेन प्रकल्पयेत् । गन्धकं द्विगुणं दत्वा मर्दयेच्चित्रकाम्बुना || चराचरास्ये सम्पूर्य टङ्कणेन निरुध्य च । भाण्डे चूर्ण प्रलिप्तेऽथ क्षिप्त्वा रुन्धीत मृत्स्नया || शोषयित्वा पुटेर्तेरनिमात्रेऽपराह्न के | स्वांगशीतलमुद्धृत्य चूर्णयित्वाऽथ विन्यसेत् ॥ एष लोकेश्वरो नाम पुष्टिवीर्यविवर्धनः । गुञ्जाचतुष्टयं साज्यं मरिचैश्च समन्वितम् ॥ खादेत्परमया भक्त्या लोकेशे सर्वदर्शिनि । अंगकामां च रसोऽयं कासहिकयोः ॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि
मरिचैतसंयुक्तैः प्रदातव्यो दिनत्रयम् । मात्रा-४ रत्ती। लवणं वर्जयेत्तत्र साज्यं सदधि भोजनम् ॥ इसे काली मिर्च के चूर्ण और शहदके साथ एकविंशद्दिनं यावन्मरिचं सघृतं पिबेत् ॥ | सेवन करना चाहिये। पथ्यं मृगावद्देयं शयीतोत्तानपादतः।
इसके सेवनसे कृशता, अग्निमांद्य, खांसी और बमने संपत्ते तु गुडूचीद्रवमाहरेत् ॥ हिचकीका ३ दिनमें ही नाश हो जाता है । मधुना पाययेत्साधैं दग्धवृन्ताकमाशयेत् । ___ इसके सेवन कालमें लवणका त्याग करके घी स्नानं शीतलतोयेन मुनि धारां विनिक्षिपेत् ॥ और दहीके साथ पथ्य भोजन करना चाहिये; एवं जाते श्लेष्म विकारे तु कदलीफलमाहरेत् । २१ दिन तक काली मिर्चका चूर्ण मिला कर घी भृष्ट्वा तन्मरिचैः सार्धं भोजयेच्छ्लेष्मनुत्तये ॥ पीना चाहिये । आद्रकं मधुमिश्रं वा गुडाईकमथापि वा ॥ इसमें मृगाङ्कके समान पथ्य पालन करना भृष्ट्वा कुस्तुंबुरूनीपन्निस्तुषांश्चूर्णयेत्ततः।। | और चित सोना चाहिये। शर्कराघृतमिश्रान्ददीताऽरुचिशान्तये ॥
यदि इसके सेवन कालमें वमन हो तो गिलोय भृष्ट्वा कुस्तुंबरी सम्यग्घृते शर्करया पिबेत् । के रसमें शहद मिला कर पिलाना और बैंगनका एलां मरिचसंयुक्तां यावद्वांतिः प्रशाम्यति ॥ भुरता खिलाना चाहिये; तथा शीतल जलसे स्नान अजमोदां विडङ्गं च पिष्ट्वा तक्रेण पाययेत् । कराना और शिर पर शीतल जलकी धारा छोड़नी कृमिकोपप्रशांत्यर्थ काथं वातघ्नमुस्तयोः ॥ | चाहिये। संस्कृत्य दुग्धिकां वहौ विरेके च प्रयोजयेत् । यदि कफ प्रकोप हो तो केले की फलीको ईषद् भृष्ट्वा जयाचूर्ण मधुना खादयेनिशि ॥ | मन्दाग्निमें सेक कर उसमें पीपल का चूर्ण मिला कर अङ्गतोदे घृतेनाङ्ग मर्दयित्वोष्णवारिणा। खिलाना चाहिये । अथवा अदरकको शहद या स्नापयेद्रोगिणं वैद्यो लोकनाथं रसं स्मरन् ॥ | गुड़के साथ खिलाना चाहिये ।
पारद भस्म ४ भाग, स्वर्ण भस्म १ भाग यदि अरुचि हो तो धनियेको ज़रा सेक कर और शुद्ध गन्धक ८ भाग ले कर तीनोंको एकत्र | कूट कर उसके चावल निकालें और उन्हें खांड घोट कर १ दिन चीतेके क्वाथमें खरल करें और | तथा धोके साथ खिलावें। फिर उसे कौड़ियों में भर कर उनका मुख ( दूधमें | वमनके लिये भी भुने हुवे धनियेके चावल पिसे हुवे ) सुहागेसे बन्द कर दें एवं उन्हें चूना | खांड और घीके साथ खिलाने चाहिये अथवा पुते हुवे शरावोंके सम्पुटमें बन्द करके लघुपुटमें |
| इलायची और काली मिर्च का चूर्ण (शहदके साथ) पकावे और स्वांग शीतल होने पर पीस कर | चटाना चाहिये । सुरक्षित रक्खें ।
___ यदि कृमि रोगका उपद्रव हो तो अजमोद यह रस पौष्टिक और वीर्यवर्द्धक है। और बायबिडंगका चूर्ण तक्रके साथ देना या
।
और
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थी भागः
अरण्डमूल और नागरमोथेका काथ पिलाना गुआ चतुष्टयं चास्य मरिचाज्यसमन्त्रितम् । चाहिये । ददीत दधिभक्तं च ग्रहण्यां च विशेषतः ।।
यदि दस्त आने लगे तो दुग्धिका (दुद्धी) को अग्नि में सेक कर सेवन कराना चाहिये अथवा air चूर्णको ज़रा भूनकर रात्रिके समय शहदके साथ देना चाहिये ।
यदि अङ्गपीड़ा होती हो तो शरीर पर घीकी मालिश कराके उष्ण जलसे स्नान कराना चाहिये |
लोकेश्वरपोटलीरसः
( रसे. सा. सं.; र. रा. सु. ; यो. र. ; र. चं. । राजयक्ष्मा. ; रसे. चि. म. । अ. ९; वृ. यो. त. । त. ७६; र. का. धे. । राजय. ; धन्व. प्र. सं. (६३८०) लोकनाथ रसः देखिये ।
लोकेश्वररत्नगर्भपोटलीरसः
( धन्व. । राजयक्ष्मा . )
प्र. सं. ६०४१ रत्नगर्भपोटली रस: देखिये । (६३८१) लोकेश्वररस: (१)
(र. रा. सु. । अतिसारा. ; र. र. स. । अ. १६) द्वौ भागौ गन्धकस्याष्टौ शङ्खचूर्णस्य योजयेत् । एकमेव रसस्थांशमकक्षीरेण मर्दयेत् ॥ चित्रकस्य द्रवेणैव शोषयित्वा पुनः पुनः । एकीकृत्य रसेनाथ क्षारं दत्त्वा तदर्धकम् ॥ अक्षीरेण कुर्वीत गोलकानथ शोषयेत् । निरुध्य चूर्णलिप्नेथ भाण्डे दद्यात्पुरं ततः ॥ लोकनाथ रसो ह्येष सर्वातीसारनाशनः । गोतक्रेण निहन्त्याशु ग्रहणीगदमुत्कटम् ||
૧૮
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-५३७
शुद्ध गन्धक २ भाग, शंख चूर्ण ८ भाग और शुद्ध पारद १ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जलो बनावें और फिर उसमें शंख मिला कर सबको आको दूध और चीतामूलके काथकी पृथक् पृथक् कई कई भावना देकर सुखा लें और फिर उसमें सबसे आधा सुहागा मिला कर पुनः आक के दूध में खरल करके गोलियां बनावें और उन्हें सुखाकर चूने से पुते हुवे शरावोंमें बन्द करके (वराहपुटमें) पावें ।
यह रस समस्त प्रकारके अतिसारोंको नष्ट करता है । इसे गोत के साथ सेवन करने से प्रवृद्ध संग्रहणी शीघ्रही नष्ट हो जाती है ।
मात्रा - ४ रत्ती ।
इसे काली मिर्चके चूर्ण और घीके साथ सेवन करना तथा दही भात खाना चाहिये । (६३८२) लोकेश्वररस: (२)
(र. रा. सु. ; रसे. सा. सं.; धन्व. । यक्ष्मा. ; वृ. यो. त. । त. ७६; रसे. चि. म. । अ. ९; यो. र. । क्षय. )
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पलं कपर्दचूर्णस्य पलं पारदगन्धयोः । माषश्च टङ्कस्यैव जम्बीराद्भिर्विमर्दयेत् ॥ पुटेल्लोकेश्वरी नाम्ना लोकनाथरसोत्तमः । ऋते कुष्ठं रक्तपित्तमन्यात्रोगान्बलाज्जयेत् ॥ पुष्टिवी प्रसादोज कान्ति लावण्यदः परः । कोस्ति लोकेश्वरादन्यो नृणां शम्भुमुखोद्गतः ॥
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५३८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि
कौड़ीका चूर्ण ५ तोले, शुद्ध पारद ५ तोले, दूसरी हाण्डी ढककर दोनोंके जोड़को अच्छी तरह शुद्ध गन्धक ५ तोले और सुहागा १। मोशा लेकर बन्द कर दें और उसके सूखने पर इस डमरुप्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर | यन्त्रको चूल्हे पर रख कर उसके नीचे तर्जनी उसमें अन्य औषधे मिला कर सबको जम्बीरी उंगलीके समान मोटी बत्तीका दापक जलावें और नीबूके रस में घोट कर गोला बनावें और उसे | ऊपरके पात्र पर भीगा हुवा कपड़ा रखते रहें । सुखा कर शरावसम्पुटमें बन्द करके वराहपुटमें तदनन्तर ४ पहर बाद दीपक बुझा दें और हाण्डीके पकावें ।
स्वांग-शीतल होने पर सावधानी पूर्वक जोड़को यह रस कुष्ठ और रक्तपित्तके अतिरिक्त अन्य | खोल कर ऊपरको हाण्डीमें लगे हुवे सत्वको समस्त रोगांको नष्ट और पुष्टि, वीर्य, ओज, कान्ति | | निकाल लें। तथा लावण्यकी वृद्धि करता है।
मात्रा---२ से ४ रत्ती तक । (६३८३) लोबानसत्वयोगः
इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे श्वास
और खांसीका नाश होता है। यह राजाओंके ( र. चं. ; र. रा. सु. । श्वासा.)
योग्य औपध है। विषं पलमितं प्रोक्तं लोवानं कुडवं मतम् । सितं सोमलकं चैव पलमानमुदीरितम् ॥
लोहगर्भरसः वितस्तिमात्रे सेहुण्डकाष्ठे चैव विनिक्षिपेत् ।
| ( र. का. धे. ; र. रा. सु. ; र. र. स. । पाण्डु.) सर्वमेकत्र सञ्चूर्ण्य हण्डिकायां निधापयेत् ॥
- प्र. सं. ४४०२ " पितपाण्ड्वारिरसः " उमरुयन्त्रविधिना सत्त्वं निष्कासयेद्बुधः।।
| देखिये । तर्जनीप्रतिमावर्ति दीपे धृत्वा तु ज्यालयेत् ॥
(६३८४) लोहगुटिका (१) यन्त्रस्याधो वेदयामं दीप्ताग्निं तत्र दापयेत् । (र. का. धे. । ज्वरा.) ऊर्ध्वलग्नं शुद्धसत्त्वं स्थापयेच्च करण्डके ॥ त्रिफलामृतलोहं च भृङ्गराजं च चूर्णितम् । मुनाद्वयं त्रयं वाऽपि चतुर्गुञ्जमथापि वा। चूर्णमर्जुनपत्रस्प त्रिजातकशिलाजतू ॥ श्वासकासनिवृत्त्यर्थे बलं ज्ञात्वा प्रयोजयेत् ॥ त्र्यूषणं तुल्यतुल्यांशं सर्वेषां च समांशतः । राजयोग्यमिदं सत्त्वं विख्यातं रससागरे ॥ क्षौद्रेण वटिका कार्याः माषमा भक्षयेत् ।।
शुद्ध बछनाग ५ तोले, कौड़िया लोबान २० वातपित्तज्वरं हन्यादनुपानं विना गुटी ।। तोले और शुद्ध सफेद संखिया ५ तोले लेकर हर्र, बहेड़ा, आमला, गिलोय, लोह भस्म, सबको एकत्र खरल करके १ बालिश्त लम्बे थोहर | भंगरा, अर्जुनके पत्ते, दालचीनी, तेजपात, इलायची, (सेंड) के टुकड़ेके भीतर भर दें और फिर उसे | शिलाजीत, और सोंठ, मिर्च तथा पीपल; इनका कुचल कर एक हाण्डीमें रक्खें तथा उसके ऊपर | चूर्ण समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर
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रसप्रकरणम् ] चतुर्थों भागः
५३९ खरल करके शहदमें मिला कर १-१ माशेकी । (६३८७) लोहचूर्णम् गोलियां बनावें ।
( रसे. चि. म. । अ. ९.; रसे. सा. सं. । अश्मरी. इन्हें अनुपान बिनाही सेवन करनेसे वात- वृ. मा. । मूत्रकृच्छा.; वृ. यो. त. । पित्त ज्वर नष्ट होता है।
____त. १००; ग. नि. । मूत्रकृच्छा २७;
वं. से. । मूत्रकृच्छ्रा .) (६३८५) लोहगुटिका (२)
| अयोरजः सूक्ष्मपिष्टं मधुना सह योजितम् । (च. द. ; र. का. धे. । परिणाम शूला, ; र. |
| मूत्रकृच्छ्रे निहन्त्याशु त्रिभिलेहैन संशयः ।। र.। शूला. ; वृ. नि. र. ; वं. से. । परिणा.)
लोह भस्मको शहद में मिला कर सेवन करने लोहस्य रजसो भागास्त्रिफलायास्तथा त्रयः ।।
'| से ३ बारमें ही मूत्रकृच्छू नष्ट हो जाता है । गुडस्याष्टौ तथा भागा गुडान्मूत्रं चतुर्गुणम् ॥ एतत्सर्वं च विपचेदगुडपाकविधानवित् ।। (६३८८) लोहचूर्णवटकः लिहेच्च तद्यथाशक्ति क्षये शूलेऽन्नपाकजे ॥
( हा. सं. । स्था. ३ अ. ८) लोह भस्म ३ भाग, त्रिफलाका चूर्ण ३ भाग, ज्यूषणं त्रिफलामुस्तविडङ्गगुड़ ८ भाग और गोमूत्र ६४ भाग लेकर सबको श्चित्रकं तु समभागत एव । एकत्र मिला कर पकावें । जब गुड़के समान गाढा
भावयेच्च खलु सप्तदिनानि हो जाय तो उतार कर सुरक्षित रक्खें ।
लोहचूर्णमपि चेक्षुरसेन ॥ इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे क्षय खल्लितं पुनरपि प्रवरं स्यात् और परिणाम शूलका नाश होता है।
शीलितं तु मधुनापि घृतेन । ( मात्रा-१-१॥ माशा । )
पाण्डुरोगहृदयामयकुष्ठ
कामलार्शः सहलीमकहारि ॥ (६३८६) लोहचूर्णप्रकारः
सेोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, ( आ. वे. प्र. । अ. ११)
| नागरमोथा, बायबिडंग और चीता; इनका चूर्ण संशुद्धं लोहनं पत्रं तप्तं तप्तं वराजले। तथा लोह भस्म समान भाग ले कर सबको एकत्र गोजले वा मुहुः क्षिप्त क्षिप्रं चूर्णत्वमाप्नुयात् ॥ मिला कर सात दिन तक ईखके रस में घोटें।
शुद्ध लोहपत्रोंको तपा तपा कर बार बार | | इसे शहद और घीके साथ सेवन करनेसे त्रिफलाके क्वाथ या गोमूत्रमें बुझानेसे लोहका शीव पाण्डु, हृदय रोग, कुष्ट, कामला, अर्श और ही चूर्ण हो जाता है।
| हलीमकका नाश होता है।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि
(६३८९) लोहत्रिफलायोगः _तीक्ष्ण लोहको मूषामें तपा कर लाल करनेके ( यो. र. । शूला.)
पश्चात् उसमें इसका प्रक्षेप देनेसे लोह पानीके तीक्ष्णायचूर्णसंयुक्तं त्रिफलाचूर्णमुत्तमम् ।।
समान द्रवित हो जाता है। . प्रयोज्यं मधुसर्पिा सर्वशूलनिवारणम् ॥
__(६३९२) लोहद्रुतिः (३) तीक्ष्ण लोह भस्म और त्रिफला चूर्ण समान
(र. र. स. । पू. अ. ५) भाग लेकर दोनोंको एकत्र खरल करके रक्खें ।
| मुरदालिभवं भस्म नरमूत्रेण गालितम् । इसे शहद और घीके साथ देनेसे समस्त
त्रिःसप्तवारं तत्क्षारवापाकान्तद्रुतिर्भवेत् ।। प्रकारके शूल नष्ट होते हैं।
देवदाली ( बिंडाल) की भस्मको मनुष्यके ( मात्रा-४ रत्ती ।)
मूत्रकी २१ भावना दे कर सुखा लें।
___ कान्त लोहको तपा कर लाल करके उसमें (६३९०) लोहद्रुतिः (१)
इसका प्रक्षेप देनेसे लोह द्रुत हो जाता है । ( र. र. स. । पू. खं. अ. ५)
(६३९३) लोहद्रुतिः (४) त्रिसप्तकृत्वो गोमूत्रे जालिनोभस्मभावितम् ।। शोषयेत्तस्य वापेन तीक्ष्णं मूषागतं द्रवेत् ॥
(र. र. स. । पू. अ. ५)
| गन्धकं कान्तपाषाणं चूर्णयित्वा समं समम् । ___ कड़वी तोरीकी भस्मको गोमूत्रकी २१ भावना
द्रुते लोहे प्रतीवापो देयो लोहाष्टकं द्रवेत् ।। दे कर सुखा लें।
गन्धक और कान्तपाषाण बराबर बराबर तीक्ष्ण लोहको मूषामें तपा कर लाल करके ले कर एकत्र पीस लें । उसमें इस भस्मका प्रक्षेप देनेसे लोह द्रवित हो | लोहको पिघला कर उसमें यह चूर्ण डालनेसे जाता है।
लोह ( आठों धातु ) द्रवित हो जाते हैं। (६३९१) लोहद्रुतिः (२)
(६३९४) लोहद्रुतिः (५) (र. र. स. । पू. अ. ५)
(र. र. स. । पू. अ. ५) सुरदालिभस्मगलितं त्रिसप्त
देवदाल्या द्रवैर्भाव्यं गन्धकं दिनसप्तकम् । कृत्वाऽथ गोजले शुष्कम् । तेन प्रवापमात्रेण लोहं तिष्ठति सूतवत् ॥ वापेन सलिलसदृश
देवदाली (बिंडाल) के रससे सात दिन तक करोति मूषागतं तीक्ष्णम् ॥ गन्धकको भावित करके सुखा लें । देवदाली (बिंडाल) की भस्मको गोमूत्रकी | लोहेको तपाकर लाल करके उसमें यह गं एक २१ भावना दे कर सुखा लें।
| डालनेसे लोहा पारदके समान द्रवित हो जाता है।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
५४१
(६३९५) लोहनिरुत्थिकरणम् एकीकृत्य ततो यत्नात् लौहपात्रे प्रमर्दितम् ।
___ ( आ. वे. प्र. । अ. ११) घृतप्रलिप्तदान्तु स्वेदयेन्मृदुनाग्निना ॥ सर्वमेव मृतं लोहं ध्मातव्यं मित्रपञ्चकैः। .
द्रवीभूतं समाहृत्य ढालयेत् कदलीदले । यद्येवं स्यानिरुत्थं तु सेव्यं वारितरं हि तत ॥ चूर्णीकृत्य सुखार्थाय पथ्यभुग्भिः प्रसेव्यते ॥ मधुघृतगुग्गुलुगुञ्जाटङ्कणमेतत्तु मित्रपञ्चकं नाम।
| शीतोदकानुपानं वा काथं वा धान्यजीरयोः। मेलयति सप्तधातूनङ्गाराग्नौ प्रधमनेन ॥
""| लौहेन पर्पटी ह्येषा भक्ष्या लोकस्य सिद्धिदा ।। गन्धकेनोत्थितं लोहं तुल्यं खल्वे विमर्दयेत् । राक्तकका समारभ्य वद्धयद्राक्तका क्रमात् । दिनैकं कन्यकाद्रावै रुद्भवा गजपुटे पचेत् ॥
| सप्ताहं वा द्वयं वापि यावदारोग्यदर्शनम् ।।
मूतिकाञ्च ज्वरञ्चैव ग्रहणीमतिदुस्तराम् । इत्येवं सर्वलोहानां कर्तव्येयं निरुत्थितिः ॥ ____ लोह ( धातुओंकी ) भस्मोंको मित्रपञ्चकके
आमशूलातिसारांश्च पाण्डुरोगं सकामलम् ॥
प्लीहानमग्निमान्धश्च भस्मकश्च तथैव च । साथ घोट कर अंगारों पर ध्माना चाहिये, यदि इससे वह धातु जी उठे तो उसे कच्ची और न जिये
आमवातमुदावत कुष्ठान्यष्टादशैव तु ॥
एवमादींस्तथा रोगान् गराणि विविधानि च। तो पक्व समझना चाहिये । इस प्रकार परीक्षा
हन्त्यनेन प्रयोगेण वपुष्मान् निर्मलः सुखी ॥ करनेके पश्चात् वारितर पक्व लोहको ही सेवन
जीवेद्वर्षशतं पूर्ण वलीपलितवर्जितः। करना चाहिये।
भोजनं रक्तशालीनां त्यक्त्वा शाकं विदाहि च॥ शहद, घी, गूगल, गुंजा ( चौंटली ) और
वातमातपकोपञ्च चिन्तनं मैथुनं तथा । सुहागा; इन पांच चीज़ोंको मित्रपञ्चक कहते हैं। इनके योगसे सातों धातु अंगारों पर सपानेसे पर
प्रातरुत्थाय संसेव्या विधिनायुः प्रवर्द्धिनी ।। स्पर मिल कर एक जीव हो जाती हैं।
शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक १-१ भाग
ले कर दोनोंकी कजली बनावें और फिर उसमें यदि मित्रपञ्चकसे धातु जी उठे तो उसे
१ भाग लोह भस्म मिला कर सबको लोहेके खरल समान भाग गन्धकके साथ मिला कर एक दिन
| में घोटें । तदनन्तर उसे घृतलिस लोहेकी करछीमें घृतकुमारीके रसमें घोट कर यथा विधि गजपुटमें
डाल कर मन्दाग्नि पर पिघलावें और फिर उसे पकावें । इसी प्रकार जब तक वह धातु निरुत्थ न
| गायके गोबर पर बिछे हुवे केलेके पत्तेपर फैलाकर हो जाय बराबर पुट देते रहें।
| उस पर दूसरा कदलीपत्र फैला कर उसे गोबरसे 6 (६३९६) लोहपर्पटी
दबा दें और थोड़ी देर बाद दोनों पत्तोंके बीचसे ( भै. र. ; र. चं. ; र. र. ; र. रा. सु. । ग्रहण्य.) | पर्पटीको निकाल कर पीस लें। समौ गन्धरसौ कृत्वा कज्जलीकृत्य यत्नतः । अनुपान---शीतल जल, अथवा धनिये और शुद्धलौहस्य चूर्णन्तु रसतुल्यं पदापयेत् ॥ | जीरका काथ ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि
इसे १ रत्तीसे प्रारम्भ करके प्रतिदिन १-१ निरुत्थ लोह भस्मको सोंठ, मिर्च, पीपल रत्ती बढ़ाते हुवे १ सप्ताह, दो सप्ताह या आरोग्य और बायबिडंगके समान भाग मिश्रित ४ माशे लाभ होने तक सेवन करना चाहिये। (जिस चूर्णमें मिला कर घी और शहदके साथ सेवन प्रकार प्रति दिन एक एक रत्ती मात्रा बढ़ाई जाय | करनेसे जरा, व्याधि और अकालमृत्युका नाश उसी प्रकार घटानी चाहिये ।
होता तथा पुत्रकी प्राप्ति होती है। इसके सेवनसे सूतिकारोग, ज्वर, कष्टसाध्य
___ लोह भस्म सेवन करने वालेको गर (संयोगसंग्रहणी, आम, शूल, अतिसार, पाण्डु, कामला,
जनित विष) हानि नहीं पहुंचा सकते । प्लीहा, अग्निमांद्य, भस्मक रोग, आमवात, उदावर्त, १८ प्रकारके कुष्ठ, अनेक प्रकारके विषविकार __ (६३९८) लोहभस्मयोगः (२) इत्यादि रोग नष्ट होते हैं।
(बृ. मा. । पाण्डु. ; व. से. । पाण्डु.) पथ्यापथ्य--इसके सेवन कालमें लाल चावलोंका भात खाना और शाक, विदाही पदार्थ,
| तुल्यां वाऽयोरजः पथ्यां हरिद्रां क्षौद्रसर्पिषा । वात (पवन) में रहना, धूपमें जाना, क्रोध, चिन्ता | चूर्णितां कामली लिह्याद्गुडक्षौद्रेण चाभयाम् ।। और मैथुनसे परहेज करना चाहिये।
लोह भस्म, हर्रका चूर्ण और हल्दीका चूर्ण इसे प्रातः काल विधिवत् सेवन करना और समान भाग ले कर सबको एकत्र मिलाकर शहद पथ्य पूर्वक रहना चाहिये ।
और धीके साथ सेवन करनेसे कामलाका नाश इसे अधिक काल तक निरन्तर सेवन करनेसे
होता है। बलिपलितका नाश होता और आयु बढ़ती है।
कामलामें हरके चूर्णको गुड़में मिला कर लोहपर्पटीरसः
शहदके साथ सेवन करना भी हितकारी है । (र. चि. म. । अ. ८ ; र. रा. सु. । श्वासा. ; रसे. सा. सं.; धन्व. । हिक्का श्वासा.) ।
| (६३९९) लोहभस्मयोगः (३) प्र. सं. ६०६८ " रसपर्पटी” (५) (बृ. मा ; च. द. । परिणाम शूला. २७; देखिये।
ग. नि. । शूला. २३) (६३९७) लोहभस्मयोगः (१)
लोहचूर्ण वरायुक्तं विलीढं मधुसर्पिषा । (र. प्र. सु. । अ. ४)
पक्तिशूलं च शमयेत्तन्मलं वा प्रयोजितम् ॥ निरुत्थं लोहजं भस्मसेवेतात्र पुमान् सुधीः । व्योषवेल्लाज्यमधुना टङ्कमानेन मिश्रितम् ॥ ___ लोह भस्म या मण्डूर भस्मको समान भाग जरां च मरणं व्याधि हन्यात्पुत्रप्रदं सदा । त्रिफला चूर्णमें मिला कर शहद और घोके साथ गरदोषकृता रोगा न भवन्ति शरीरिणाम् ॥ | चाटनेसे पक्तिशूल नष्ट होता है।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः
-
-
(६४००) लोह भस्मयोगः (४)
न (६४०३) लोहभस्मविधिः (३)
(र. र. स. । पू. खं. अ. ५) ( व. से. ; वृ. मा । पाण्डु. ; वृ. नि. र. । कामला. ; यो. रे. । पाण्डु.)
यद्वा तीक्ष्णदलोद्भूतं रजश्च त्रिफलाजलैः।
| पिष्ट्वा दत्वौदनं किञ्चिच्चक्रिकां प्रविधाय च ॥ लोहचूर्ण निशायुग्मं त्रिफला कटुरोहिणी।
| शोषयित्वाऽतियत्नेन प्रपचेत्पञ्चभिः पुटैः। पलिह्य सपिभ्| कामलातः सुखी भवेत् ॥ | रक्तवर्ण हि तद्भस्म योजनीयं यथातथम् ॥
लोह भस्म, हल्दी, दारुहल्दी, हर्र, बहेड़ा, शुद्ध तीक्ष्ण लोहके चूर्णको त्रिफलाके क्वाथमें आमला, और कुटकी; इनका समान भाग चूर्ण | घोट कर उसमें थोड़ासा भात मिला कर टिकिया लेकर सबको एकत्र मिला कर शहद और घीके | बनाकर सुखा लें और फिर उन्हें शरावसम्पुटमें साथ सेवन करनेसे कामला रोग नष्ट होता है। बन्द करके गजपुटकी आग दें।
( मात्रा--१-१॥ माशा ।) | इसी प्रकार ५ पुट देनेसे समस्त कार्यों में (६४०१) लोहभस्मविधिः (१)
| व्यवहार करने योग्य लाल रंगको लोह भस्म तैयार ( र. र. स. । पू. अ. ५)
हो जाती है।
(६४०४) लेोहभस्मविधिः (४) जम्बीररससंयुक्ते दरदे तप्तमायसम् । बहुवारं विनिक्षिप्तं म्रियते नात्र संशयः ॥
(र. र. स. । पू. खं. अ. ५ ) नीबूके रसमें हिंगुल मिला कर उसमें शुद्ध | र
अथ पूर्वोदितं तीक्ष्णं वसुभल्लकवासयोः। लोहको तपा तपाकर अनेक बार बुझानेसे उसकी
पुटितं पत्रतोयेन त्रिंशद्वाराणि यत्नतः ॥
शोणितं जायते भस्म कृतसिन्दूरविभ्रमम् ॥ भस्म हो जाती है।
तीक्ष्ण लोह चूर्णको सफेद पुनर्नवा और (६४०२) लोहभस्मविधिः (२)
बासेके पत्तोंके रसमें घोट घोट कर यथा विधि (र. र. स. । पू. खं. अ. ५)
शरावसम्पुटमें बन्द करके गजपुट में पकावें । समगन्धमयश्चूर्ण कुमारीवारिभावितम् ।।
इसी प्रकार ३० पुट देनेसे इतनी लाल भस्म पुटीकृतं कियतकालमवश्यं म्रियते ह्ययः ॥ हो जाती है कि उसे देख कर सिन्दूरका भ्रम
शुद्ध लोह चूर्णमें उसके बराबर गन्धक मिला | होने लगता है। कर दोनोंको कुमारीके रसमें घोट कर यथा विधि
(६४०५) लोहभस्मविधिः (५) शराव सम्पुटमें बन्द करके गजपुटकी आंच दें।
(र. र. स. । पू. ख. अ. ५ ) इसी प्रकार कई पुट देनेसे लोह अवश्य मर / हिङ्गुलस्य पलान्पञ्च नारीस्तन्येन पेषयेत् । जाता है।
तेन लोहस्य पत्राणि लेपयेत्पलपञ्चकम् ।।
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भारतत- भैषज्य - रत्नाकरः
५४४
रुध्वा गजपुटैः पच्यात्कषायैस्त्रफलैः पुनः । जम्बीरैरनालैश्च विंशत्यंशेन हिङ्गुलम् ॥ पिष्ट्वा रुध्वा पचेल्लोहं तद्द्रवैः पाचयेत्पुनः । चत्वारिंशत्पुटैरेवं कान्तं ताक्ष्णं च मुण्डकम् + ॥ म्रियते नात्र सन्देहो दत्वा दत्यैव हिङ्गुलम् ||
२५ तोले हिंगुलको स्त्रीके दूधमें घोट कर २५ तोले शुद्ध लोह पत्रों पर उसका लेप कर दें और उन्हें शरावसम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें पकावें ।
तदनन्तर पुटके स्वांगशीतल होने पर उसमें से लोहको निकाल कर कूट लें और फिर उसमें १| तोला हिंगुल मिला कर त्रिफलाके काथमें घोटें और यथा विधि शरावसम्पुट में बन्द करके गजपुटकी अनि दें । इसी प्रकार हर बार १| तोला
+लाहलक्ष्णानि
( आवे. प्र. । अ. ११ ) मुण्डकटाहपात्रादि जायते तीक्ष्णलोहतः । खङ्गादि शस्त्रभेदाः स्युः, कान्तलोहं तु दुर्लभम् ॥ मुण्डाच्छतगुणं तीक्ष्णं तीक्ष्णात्कान्तं शताधिकम् तस्मान्मुण्डं परित्यज्य तीक्ष्णं वा कान्तमुत्तमम्॥ कासीसामलकल्काक्ते लोहेऽङ्गं दृश्यते स्फुटम् । तीक्ष्णं लाहं तदुद्दिष्टं मारणायोत्तमं विदुः ॥
मुण्ड लोहसे कढ़ाई पात्रादि बनते हैं; तीक्ष्ण लोहसे तलवार इत्यादि शस्त्र बनाये जाते हैं और कान्त लोह मिलना दुर्लभ है ।
मुण्ड लोहसे सौ गुना गुणकारी तीक्ष्ण लोह और तीक्ष्णसे १०० गुना कान्त लोह होता है,
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[ लकारावि
हिंगुल मिलाकर और त्रिफला के काथमें घोट कर १३ पुट दें । तदनन्तर १३ पुट जम्बीरीके रसमें घोट कर और फिर १३ पुट आरनाल में घोट कर दें। हर बार १ तोला हिंगुल मिला लेना चाहिये । इस प्रकार कुल ४० पुट देनेसे कान्त लोह, तीक्ष्ण लोह और मुण्ड लोहकी भस्म हो जाती है ।
अतएव मुण्ड लोहको छोड़ कर औषधोंमें तीक्ष्ण या कान्त लोहही प्रयुक्त करना चाहिये ।
यदि लोहेपर कसीस और आमलेके कल्कका लेप करनेसे उसमें मुख दीखने लगे तो उसे भस्म करने योग्य उत्तम कान्त लोह समझना चाहिये ।
कान्त लोह लक्ष्णम् ( यो. र. )
यत्पात्रस्थः प्रसरति जले तैलविन्दुर्न दसो हिर्गन्धं विसृजति निजं तिक्ततां निम्बकल्कः । पाचयं दुग्धं भवति शिखराकारकं नैति भूमिं दग्धाङ्गाः स्युः सजलचणकाः कान्तलोहं तदुक्तम् ॥ कान्त लोहके पात्र में पानी भर कर उसमें तेलकी बूंद डालनेसे वह फैलती नहीं; तथा उसमें हींग रख देनेसे उसकी गन्ध नष्ट हो जाती है और नीम के पत्तों के कल्कका लेप करनेसे उसकी कड़वाट चली जाती है।
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कान्त लोहके पात्र में दूध पकाने से वह शिखराकार ऊंचा हो जाता है परन्तु बाहर नहीं निकलता । एवं भीगे हुवे चने रखनेसे वे जले हुवेसे हो जाते हैं ।
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१३४५
maana
रसमकरणम् ]
चतुर्थों भागः (६४०६) लोहमलादियोगः | दाडिमीपत्रजरसैोहचूर्ण च भावितम् । (व. से. । पाण्डु.)
| आतपे सप्तधा तेन पुनर्गजपुटद्वयम् ॥ अयोमलन्तु सन्तप्तं भूयो गोमूत्रसाधितम्। । इत्थं कृतं च तद्भस्म शुद्धं वारितरं भवेत् । मधुसर्पियुतं लीढ्वा पाण्डुरोगी सुखी भवेत् ॥
| योजयेत्सर्वरोगेषु सन्यं गुरुवचो यथा ।। दीपनं चाग्निजननं शोथपाण्ड्वामयापहम् ।
समस्त लोहों (धातुओं) का मारण पारद ____पुराने मण्डूरको तपा तपाकर बार बार गोमूत्र
भस्मके साथ करना श्रेष्ठ, केवल बनौषधियोंसे में बुझावें, यहां तक कि उसका चूर्ण हो जाय।।
करना मध्यम और गन्धकादिके योगसे करना
कनिष्ठ है। इसे शहद और घीके साथ सेवन करनेसे पाण्डु और शोथ नष्ट होता तथा जठराग्नि दीप्त होती है।
__शुद्ध लोह चूर्णको अनारके पत्तोंके रसकी ( मात्रा--३-४ रत्ती।)
धूपमें सात भावना दें और फिर यथा विधि शराव(६४०७) लोहमारणम् (१)
सम्पुटमें बन्द करके गजपुट दें । इसी प्रकार २
| पुट देनेसे लोहकी उत्तम वारितर भस्म हो जाती (यो. र.)
है । इसे समस्त रोगोंमें प्रयुक्त कर सकते हैं । एकभागं लोहचूर्ण तत्समो नवसागरः । किञ्चित्तप्तोदकं ग्राह्यं सर्व वस्त्रे निबध्य च ॥
(६४०९) लोहमारणम् (३) यामान्ते घर्षयेत्पाणौ सद्यो वारितरं भवेत् ।
(यो. र.) योजयेत्सर्वरोगेषु सर्वरोगापनुत्तये ॥ गृहीत्वा तीक्ष्णजं चूर्ण तथैव च गवां दधि ।
१ भाग लोह चूर्ण और १ भाग नौसादरको | एकत्र कारयेद्भाण्डे यावच्छोषत्वमाप्नुयात् ॥ एकत्र मिला कर उसमें थोड़ासा गरम पानी डालें | उद्धत्य गालयेदग्नौ त्रिफलायाः पुटत्रयम् ।
और सबको कपड़ेमें बांध कर पोटली बनावें । देयं वारितरं सयो जायते नात्र संशयः ॥ तःपश्चात् उसे १ पहर बाद दोनों हाथोंसे मलें । तीक्ष्ण लोहका शुद्ध चूर्ण और गायकी दही इस प्रकार लोह वारितर हो जाता है जिसे (लोह
| समान भाग ले कर दोनोंको किसी बरतनमें भर साध्य) समस्त रोगोंमें प्रयुक्त कर सकते हैं।
कर रख दें। जब दही सूख जाय तो उसे त्रिफला(६४०८) लोहमारणम् (२) के काथमें खरल करके यथा विधि गनपुटकी लोहानां मारणं श्रेष्ठं सर्वेषां रसभस्मना। | अग्नि दें । इसी प्रकार त्रिफला काथके साथ मध्यमं मूलिकाभिश्च कनिष्ठं गन्धकादिभिः॥ खरल करके ३ पुट देनेसे लोहकी वारितर भस्म
__ x x x x हो जाती है।
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[लकारादि
-
(६४१०) लोहमारणम् (४)
(६४१२) लोहमारणम् (६) ( शा. सं.। खं. २ अ. ११ ; भा. प्र. । प्र.
(र. प्र. सु. । अ. ४) । खं. ; रसे. चि. म. । अ. ६ ) शिलागन्धादग्धाक्ताः स्वर्णाद्याः सर्वधातवः।
| लोहचूर्ण पलद्वन्द्वं गुडगन्धी समांशकौ ।
| खल्वे विमर्च नितरां पुटे द्विशति वारकम् ॥ म्रियन्ते द्वादशपुटैः सत्यं गुरुवचो यथा ॥ समान भाग मनसिल और गन्धकको आकके
पेषणं तु कर्तव्यं पुटः पश्चात्पदीयते । दूधमें खरल करके उसका स्वर्णादि किसी भी |
| अनेन विधिना सम्यग्भस्मीभवति निश्चितम ॥ धातुके पत्रों पर लेप करके गजपुटमें पकानेसे १२ । सव
सर्वरोगाग्निहन्त्येव नात्र कार्या विचारणा ।। पुट में हरेक धातुकी भस्म हो जाती है। ___लोह चूर्ण १० तोले, गुड़ ५ तोले और शुद्र
(स्वर्ण और चांदोको प्रारम्भमें गजपुटमें न गन्धक ५ तोले ले कर तीनोंको एकत्र खरल करके पकाना चाहिये बल्कि लघुपुट देनी चाहिये और
| शरावसम्मु टमें बन्द करके गजपुटमें पकावें । फिर ज्या ज्यों वे अग्नि सहन करते जायं त्यो त्यों | इसी प्रकार २० पुट देनेसे लोह अवश्य मर जोता अग्निका प्रमाण बढ़ाते रहना चाहिये। है । इसे सम त रोगोंमें दे सकते हैं। ____ जब पुट लगानेसे पत्रोंका चूर्ण हो जाय तो (६४१३) लोहमारणम् (७) उसे मनसिल और गन्धकके चूर्ण में मिला कर
. (र. प्र. सु. । अ. ४) आकके दूधमें घोट कर टिकिया बना कर शराव-सेना पनवातोन दशकाः । सम्पुटमें बन्द करना चाहिये ।)
पुटास्तत्र प्रदेयाश्च सिन्दूराभं प्रजायते ॥ (६४११) लोहमारणम् (५)
____ लोह चूर्णको सफेद पुनर्नवाके पत्तोंके रसमें (र. प्र. सु. । अ. ४)
खरल करके टिकिया बना कर सुखा लें और उन्हें अथापरः प्रकारोऽत्र कथ्यते लोहमारणे।
शरावसम्पुट में बन्द करके गजपुटकी अग्नि दें । लोहचूर्णसमं गन्धं मर्दयेत्कन्यकारसैः ।।
इसी प्रकार १० पुट देनेसे लोहकी सिन्दूरके समान पिण्डीकृतं लोहपात्रे छायायां स्थापयेच्चिरम् ।
लाल भस्म बन जाती है। म्रियते नात्र सन्देहो ह्यनुभूतं मयैव हि ॥ __ समान भाग लोहचूर्ण और गन्धकको 'एकत्र
(६४१४) लोहमारणम् (८) मिला कर घी कुमारके रसमें खरल करें और फिर (र. प्र. सु. । अ. ४ ) उसका गोला बना कर उसे लोहपात्रमें रख कर | लोहचूण घृतात हि क्षिप्त्वा लोहस्य खपरे। दीर्घ काल तक छायामें रक्खा रहने दें। | अग्निवर्णपमं यावत्तावा प्रचालयेत् ॥ ... ' इस क्रियासे लोहकी भस्म अवश्य बन जाती | खल्वे पिष्ट्वा च विपचेत्पश्चवारमतः परम् । है । यह अनुभूत विधि है।
वरोदकैः पुटेल्लोहं चतुर्वारमिदं खलु ।।
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चतुर्थों भागः
५४७
सुषेषितं वारितरं जायते नात्र संशयः। . १ भाग शुद् पारद, २ भाग शुद्ध गन्धक अनेन विधिना कार्य सर्वलोहस्य साधनम् ॥ | और तीन भाग बुद्र लोह चूर्णको एकत्र मिलाकर जायते सर्वरोगनं सेवितं पलितापहम् ॥ २ पहर घृतकुमारीके रस में घाटें और फिर उसका
शुद्र लोहचूर्णको घीसे चिकना करके लोहे- गोला बना कर उसे अरण्डके पत्तोंमें लपेट कर की कढाईमें इतना तपावें कि वह आगके समान | उस पर सूतका डोरा लपेट दें और फिर उसे लाल हो जाय । इस बीचमें उसे निरन्तर लोहे के ताम्रसम्पुटमें बन्द करके उसकी सन्धिको मिट्टीसे करछेसे चलाते रहना चाहिये । तदनन्तर उसे बन्द कर दें, एवं उसे सुखाकर अनाजके ढेरमें लोहेके खरलमें डाल कर घोटें और फिर पुनः घीसे दबा दें। तीन दिन पश्चात् सम्पुटमेंसे लौहको चिकना करके कढ़ाई में पकावें । इसी प्रकार ५ बार | | निकालकर पीस कर कपड़ेसे छान लें। पाक करने के पश्चात् उसे त्रिफलाके काथमें घोट | यह लोह भस्म हंसके समान पानी पर तैरती कर शरावसम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें पकावे । है । इसका नाम " सोमामृत लोह भस्म" है। इसी प्रकार त्रिफला काथमें खरल करके ४ पुट
नोट -कई ग्रन्थोंमें उक्त गोलेको अनाजके देनेसे लोहकी वारितर भस्म हो जाती है। ... इसी विधिसे समस्त प्रकारके लोहोंकी सर्व
ढेरमें दबानेसे पूर्व, ताम्र पात्रमें रख कर २ पहर रोग हर और पलितनाशक भस्म तैयार हो
तक धूपमें रखने के लिये लिखा है। जाती है।
। (६४१६) लोहमारणम् (१०). (६४१५) लोहमारणम् (९)
(र. म. ; यो. र. ; रसें. सा. सं. ; आ. वे. (र. म. ; यो. र. ; र. र. स. । अ, ५ प्र. । अ. ११, शा. सं. । ख. २ अ. ११; भा. रसे. सा. सं. ; आ. वे. प्र. । अ. ११; शा. सं.। प्र. । प्र. खं. ; वृ. यो. त. । त. ४१) ख. २ अ. ११; भा. प्र. ; रसें. चि. म.।।
द्वादशांशेन दरदं तीक्ष्णचूर्णस्य मेलयेत् । अ. ६.; वृ. यो. त. । त. ४१)
| कन्यानारेण संमर्थ यामयुग्मं तु तत्पुनः ॥ शुद्धस्य सूतराजस्य भागो भागद्वयं बलेः। द्वयोः समं सारचूर्ण मईयेत्कन्यकाम्बुना ।।
शरावसम्पुटे कृत्या पुटेद्गजपुटेन वै । यामद्वयं तस्य गोलं संवेष्टयैरण्ड गर्दलैः। सप्तधैवं कृतं लोहरजो वारितरं भवेत् ।। ततः सूत्रेण संवध्य स्थापयेत्ताम्रसम्पुटे ॥ १२ भाग तीक्ष्ण लोहके शुद्ध चूर्णमें १ भाग संमुद्य वदनं तस्य मृदा संशोष्य तत्पुनः। | हिंगुल मिला कर उसे २ पहर घृतकुमारीके त्रिदिनं धान्यराशिस्थं तत उद्धृत्य मर्दयेत् ॥ | रसमें घोटें और फिर टिकिया बना कर, उन्हें रजस्तद्वस्वगलितं नीरे तरति हंसवत् । सुखा कर यथा विधि शराव-सम्पुटमें बन्द करें सोमामृताभिधमिदं लोहभस्म प्रकीर्तितम् ॥ ' और गजपुटकी अग्नि दें।
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६४८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि
इसी प्रकार सात पुट देनेसे लोहकी वारितर | ततः पारदगन्धाभ्यां तत्समाभ्यां सम्मर्दयेत् ॥ भस्म हो जाती है।
पूर्ववद्धान्यराशिस्थं तीक्ष्णं सर्वोत्तमं भवेत् ॥ (६४१७) लोहमारणम् (११) ___कांसीके पात्र में नीबूका रस भर कर उसमें (र. म. ; वृ. यो. त. । त. ४१. )
(आठवां भाग) कसीसका चूर्ण मिला कर उसमें काकोदुम्बरिकानीरैलॊहपत्राणि सेचयेत् ।। तलवारके टुकड़े डाल दें और १ दिन तेज़ धूपमें वह्नितप्तानि षड्वारं कुट्टयेत्तदुलूखले ॥ रक्खें । तदनन्तर उन्हें पीस कर त्रिफला काथके तत्पश्चमांशं दरदं क्षिप्त्वा सर्व विमर्दयेत् ।
| साथ खरल करें और यथा विधि गजपुटमें पकावें। कुमारीनीरतः श्लक्ष्णं पुटेद्गजपुटेन तु ॥
इसी प्रकार वारितर भस्म होने तक त्रिफला काथमें त्रिवारं त्रिफलाकाथैस्तत्संख्यैरपि तत्त्ववित् । घोट घोट कर पुट देते रहें। निरुत्थं जायते लोहं त्रिधाऽप्यत्र न संशयः॥
तदनन्तर १ भाग शुद्ध पारद और २ भाग लोहेके बारीक पत्रोंको तपा तपाकर ६ बार
गन्धककी कज्जली करके उसमें समान भाग उपकठूमरके रसमें बुझा कर कूट लें और फिर उसमें
रोक्त भस्म मिला कर दोनोंको २ पहर घीकुमारके
रसमें खरल करें और फिर उसका गोला बनाकर उसका पांचवां भाग हिंगुल मिला कर घीकुमारके
उसे अरण्डके पत्तोंमें लपेट कर तांबेके शरावसम्पुटरसमें घोट कर खूब बारीक करें एवं टिकिया
में बन्द करें और अनाजके ढेरमें दबा दें तथा बना कर सुखा कर उन्हें शरावसम्पुट में बन्द करें
तीन दिन पश्चात् निकालकर पीस लें। यह लोहकी और उसे सुखा कर गजपुटमें फूंक दें । इसी
| सर्वोत्तम भस्म है। प्रकार ३ पुट दें और फिर ३ पुट त्रिफलाके का. थमें घोट कर दें। हर बार पांचवां भाग हिंगुल
(६४१९) लोहमारणम् (१३)
( यो. र. ; आ. वे. प्र.। अ. ११ ; वृ. यो. मिला लेना चाहिये।
त. । त. ४१) इस विधिसे तीक्ष्ण लोह, कान्त लोह और |
लोहचूर्ण पलं खल्वे सोरकस्य पलं तथा । मुण्ड लोहकी निरुत्थ भस्म हो जाती है।
अच्छगन्धपलं चापि सर्वमेकत्र मर्दयेत् ।। (६४१८) लोहमारणम् (१२)
| कुमार्यद्भिर्दिनं पश्चाद्गोलकं रुबुपत्रकैः। (वृ. यो. त. । त. ४१)
संवेष्टय च मृदा लिप्त्वा पुटेद्गजपुटे भिषक् ॥ निम्बूफलस्य पानीयैः सकासीसैः प्रपूरिते। स्वाङ्गशीतं समुदत्य सिन्दूराममयोरजः । कांस्यपात्रे क्षिपेत्खड्गखण्डांश्चण्डातपे स्थिते ॥ मृतं वारितरं ग्राह्यं सर्वकार्यकरं परम् ॥ दिनैकेन स्फुटन्त्येते दिनान्ते तांस्तु पेषयेत् । पाण्डं पीडयति क्षयं क्षपयति क्षण्यं क्षिणोति त्रिफलाकाथपिष्टं तच्चूण गजपुटे पचेत् ॥ क्षणात्कासं नाशयति भ्रमं नमति श्लेष्मामपुनः पिष्टेन यावत्स्यात्तद्वारितरमुत्तमम् ।
यान्खादति ।
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रसप्रकरणम्) चतुर्थों भागः
५४९ अर्शीगुल्मसशूलपीनसवमिश्वासप्रमेहारुचि- ORDERED राशून्मूलयति प्रकम्पनहरं लौहं हिमं चाक्षुषम् ।।
सूचना ___x x x x
___लोहशोधनम् ये गुणा मृतरूप्यस्य ते गुणाः कान्तभस्मनः। 8
लोहनिरुत्थिकरणम् कान्ताभावे प्रदातव्यं रूप्यमित्याह भैरवः ।। इसी ग्रन्थमें यथास्थान मिलेंगे। ..
X X X X कूष्माण्ड तिलतैलं च माषानं राजिकां तथा। मद्यमम्लं रसं चैवं त्यजेल्लोहस्य सेवकः ॥
(६४२०) लोहमृत्युञ्जयरसः __ शुद्ध लोह चूर्ण ५ तोले, शोरा ५ तोले और | ( रसे. सा. सं. ; र. रा. सु । प्लीहा. ; रसे. चि. शुद्ध गन्धक ५ तोले ले कर तीनोंको एकत्र मिला म. । अ. ९ ; धन्व. । उदरा.) कर खरल करें और फिर उसे १ दिन घृतकुमारी
रसगन्धकलौहानं कुनटी मृतताम्रकम् । के रसमें घोट कर गोला बनावें तथा उसे अरण्ड
विषमुष्टिवराटश्च तुत्थं शङ्ख रसाञ्जनम् ॥ के पत्तोंमें लपेट कर उस पर मिट्टीका (१ अंगुल मोटा) लेप कर दें और सुखा कर गजपुटमें
जातीफलश्च कटुकी द्विक्षारं कानकन्तथा । पकावें।
व्योषं हिङ्गु सैन्धवश्च प्रत्येकं मृततुल्यकम् ॥ इस विधिसे लोहकी सिन्दूरके समान वारितर श्लक्ष्णचूर्णीकृतं सर्वमेकत्र भावयेत्ततः।। भस्म हो जाती है।
| मूर्यावर्त्तरसेनैव विल्वपत्ररसेन च ॥
सूर्यावर्त्तन मतिमान्वटिकां कारयेत्ततः। ___ लोह भस्म पाण्डु, क्षय, क्षीणता, खांसी, | प्लीहानं यकृतं गुल्ममष्ठीलाच विनाशयेत् ।। भ्रम, कफज रोग, अर्श, गुल्म, शूल, पीनस, वमन,
अग्रमांसं तथा शोथं तथा सर्वोदराणि च । श्वास, प्रमेह, अरुचि और कम्पनको नष्ट करती
वातरक्तश्च कमळं चान्तर्विद्रधिमेव च ॥ है। यह शीतल और नेत्रोंके लिये हितकारी है।
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, लोह भस्म, अभ्रक जो गुण चांदी भस्ममें हैं वही कान्त लोह
भस्म, शुद्ध मनसिल,ताम्र भस्म, शुद्ध कुचला, कौड़ी भस्ममें हैं अत एव कोन्त लोहके अभावमें चांदी
भस्म, शुद्ध तूतिया, शंख भस्म, रसौत, जायफल, भस्म प्रयुक्त की जा सकती है।
कुटकी, यवक्षार, सज्जीखार, धतूरके बीज, सोंठ, xxxx मिर्च, पीपल, भुनी हुई हींग, और सेंधा नमक
लोह सेवन कालमें पेठा, तिलका तेल, उड़द, १-१ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली राई, मद्य और अम्ल रस (खटाई ) से परहेज़ | बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण करना चाहिये।
मिला कर सबको हुलहुल, बेलपत्र और पुनः
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः ।
[लकारादि
हुलहुलके रसकी १-१ भावना दे कर (३-३ | धीमान् यशस्वी वाग्मी च श्रुतधारी महाबलः। रत्तीकी ) गोलियां बना लें।
| भवेत् समां प्रयुञ्जानो नरो लोहरसायनम् ।। इनके सेवनसे प्लीहा, यकृत् , गुल्म, अष्ठीला, । अनेनैव विधानेन हेम्नश्च रजतस्य च । अग्रमांस, शोथ, उदर रोग, वातरक्त, कमठ और | आयुःप्रकर्षकृत् सिद्धः प्रयोगः सर्वरोगनुत् ॥ अन्तर्विदधिका नाश होता है ।
तीक्ष्ण लोहे के चार चार अंगुल लम्बे और (६४२१) लोहयोगः तिलके समान मोटे पत्रोंको अग्निमें तपा कर लाल . (ग. नि. । रसायना.)
करें और त्रिफलाके काथमें बुझा दें। इसी प्रकार तीक्ष्णायस्त्रिफलाचूर्ण घृतक्षौद्रविमिश्रितम् ।
गोमूत्र, यवक्षारके पानी, सेंधा नमकके पानी, खादतः प्रशमं याति जरा मृत्युश्च निश्चितम ॥ इंगुदी ( हिंगोट ) के क्षार के पानी और पलाश
तीक्ष्ण लोह भस्म और त्रिफलाका चूर्ण समान | क्षारक पानाम बुझाव । भाग ले कर एकत्र मिलावें ।
___तदनन्तर उन्हें कूट कर सूक्ष्म चूर्ण कर लें इसे घृत और शहदके साथ सेवन करनेसे | और उसमें शहद तथा आमलेका रस मिला कर वृद्धावस्था और अकाल मृत्यु नहीं आती ।
अवलेहके समान बना लें, एवं उसे घृतभावित १: (६४२२) लोहरसायनम् (१)
मृत्पात्रमें भर कर उसका मुख बन्द करके अनाज. (च. स. । चि. अ. १ ; ग. नि. । रसायना.)
के ढेर में दबा दें और हर महीने निकाल कर त्रिफलाया रसे मूत्रे गवां क्षारे च लावणे । | (लोहे या लकडी आदिके डण्डेसे ) उसे अच्छी क्रमेण चेङ्गदीक्षारे किंशुकक्षार एव च ॥
| तरह चला दिया करें । इस प्रकार जब एक वर्ष तीक्ष्णायसस्य पत्राणि वह्निवर्णानि वापयेत । | हो जाय तो उसे निकाल कर घी और शहदके चतरङ्गलदीर्घाणि तिलोत्सेधतननि च ॥ साथ नित्य प्रति प्रातः काल सेवन करें । जव ज्ञात्वा तान्यञ्जनाभानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्। औषध पच जाय तब सात्म्य आहार करना तानि चूर्णानि मधुना रसेनामलकस्य च ॥ चाहिये । युक्तानि लेहवत् कुम्भे स्थितानि घृतभाविते । लोहके समान ही स्वर्ण, रौप्यादि अन्य संवत्सरं निधेयानि यवपल्ले तथैव च ॥ धातुओंका भी प्रयोग करना चाहिये। दद्यादालोडनं मासे सर्वत्रालोडयन् बुधः। इस रसायनके सेवनसे मनुष्य रोग, जरा संवत्सरात्यये तस्य प्रयोगो मधुसर्पिषा ॥ और मृत्यु ( अकाल मृत्यु ) के हमलेसे सुरक्षित प्रातः पातबलापेक्षी सात्म्यं जीर्णे च भोजनम्। रहता है; उस पर अभिघातका कोई प्रभाव नहीं एष एव च लोहानां प्रयोगः संप्रकीर्तितः॥ पड़ता; उसका शरीर हाथीके समान बलशाली हो नाभिघातैर्न चातकैजेरया न च मृत्युना। जाता है तथा समस्त इन्द्रियां भी अत्यन्त बलवान स धृष्यः स्याद्गजप्राणः सदा चातिबलेन्द्रियः ॥ हो जाती हैं । इसे सेवन करने वाला मनुष्य धीमान,
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्यों भागः
५५१
यशस्वी, वाग्मी, श्रतधारी और महा बलशाली हो । मिर्च और पीपलका चूर्ण ५-५ तोले ले कर प्रथम कर दीर्घायु प्राप्त करता है।
पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें (६४२३) लोहरसायनम् (२) अन्य औषधोका चूर्ण मिला कर सबको अच्छी ..(व. से. । रसायना.)
तरह खरल करके उसमें ( सबके बराबर ) घी विडङ्गसारो मेघाख्यो रक्तवाहिररुष्करः ।
| और शहद मिला कर सबको घृतसे चिकने किये हस्तिकर्णः सितार्कस्तु श्वेतवर्षासमुद्भवम् । हुए पात्रमें भर कर रख दें। वाकुचीमुण्डिकाभृङ्गो राजको वृद्धदारकः।
इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे जस गुहूच्यतिबलारास्ना तालमूली शतावरी ॥ | व्याधिका नाश और आयुकी वृद्धि होती है । पिण्डारकश्चैडगजो वैडालः केशराजकः । (६४२४) लोहरसायनम् (३) एकैकं पलमेतेषां ग्राह्य समधुना घृतम् ॥
(व. से. । रसायना.). रसस्यैकं पलं ग्राह्य लोहस्य पलविंशतिः । चत्वारिंशत्तथाभ्रस्य शुल्वं चापि चतुष्पलम् ॥ |
| लोहं पूर्व पुटेच्छुद्धं गृहीत्वा पलपश्चकम् । गन्धकस्य पलान्यष्टौ षट्पलानि मनः शिला।
पुनर्नवावरीमूलं त्रिफला पुटितं पुनः ॥ . स्वर्णमाक्षिकचत्वारि षट्पलानि शिलाजितोः॥
वरा चतुर्गुणं लोहात्पचेदष्टगुणे जले । त्रिफलात्रिकटुनाश्च प्रत्येकञ्च पलत्रयम् ।
| सप्तभागावशेषेण द्विशरावं पयः क्षिपेत् ॥ सर्वाण्येतानि सञ्चूर्ण्य घृतेन मधुना सह ॥ | शतावरीरसश्चापि लोहतुल्यं प्रदापयेत् । स्निग्धे भाण्डे समालोडय स्थापयित्वा विचक्षणः पलानि दश चाज्यस्य मृदुपाकेऽवतारिते ॥ भक्षयेत् क्रमयोगेन लोहं सर्वरसायनम् ॥
द्विजीरकं विडङ्गश्च पलाशबीजमेव च । - बायबिडंगके चावल, नागरमोथा, लाल चीता. त्र्यूषणं त्रिफला चव्यं चूर्णमेषां पयःसमम् ॥ शुद्र भिलावे, हस्तिकर्ण पलाश, सफेद आककी वातपित्तोत्तरं हन्ति ग्रहणीगदमुत्कटम् ॥ .. जड़ को छाल, सफेद पुनर्नग, बाबची, मुण्डी, ५ पल शुद्र लोह-भस्मको पुनर्नपा, शतावर भारा. अमलतासका गदा. विधारा. गिलोय. | और त्रिफलाके रसमें पृथक् पृथक् घोट कर १-१ कंघीकी जड़, रास्ना, तालमूली, शतावर, पिण्डारक, | पुट दें । तदनन्तर २० पल त्रिफलेको आठगुने पंवाड, वैडाल और काला भंगरा; इनका चूर्ण (१६ गुने) पानीमें पकाकर सप्त भागावशेष रक्खें ५-५ तोले तथा शुद्ध पारा ५ तोले, लोह भस्म और फिर उसमें उपरोक्त लोह भस्म, १ प्रस्थ १०० तोले, अभ्रक भस्म २० तोले, ताम्र भस्म । (२ प्रस्थ ) दूध, ५ पल (१० पल) शतावरका २० तोले, शुद् गन्धक ४० तोले, शुद् मनसिल रस और १० पल (२० पल ) घी मिला कर ३० तोले, स्वर्ण माक्षिक भस्म २० तोले, शिला- | पकायें एवं मृदु पाक तैयार होने पर अग्निसे नीचे जीत ३० तोले, एवं हर्र, बहेड़ा, ओमला, सेांठ, | उतार कर उसमें दोनों जीरे, बायबिडंग, पलाशके
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[लकारादि
बीज, त्रिकुटा, त्रिफला और चवका चूर्ण १ प्रस्थ । पञ्चभागावशिष्टेम लोहं पञ्चपलानि च । मिला कर सुरक्षित रक्खें ।
तावदत्वा दधि तस्मिन् खरपाकं विपाचयेत् ॥ इसके सेवनसे वातपित्तज ग्रहणी नष्ट | त्रिकटुत्रिफलावद्भिविडङ्ग भद्रमुस्तकम् । होती है।
चूर्ण लोहसमं चात्र प्रक्षिपेदवतारिते ॥ (६४२५) लोहरसायनम् (४)
श्लैष्मिकं ग्रहणीदोषं हन्यादेतद्रसायनम् ।। (व. से. । रसायना.)
___आमला, हर्र और बहेड़ा ३०-३० तोले विभीतकामयाधात्री प्रत्येकं तु पलाष्टकम् ।
ले कर सबको एकत्र मिला कर अधकुटा करें और वारिण्यष्टगुणे साध्यं षडङ्गेनावतारिते ॥
उसमें २६ सेर पानी मिला कर पकावें । जब अयः पलानि पञ्चव पयसोष्टौ शरावकान् ।
पांचवां भाग पानी शेष रहे तो उसे छान कर सर्पिषो दशपलान्यत्र दद्याल्लोहं विपाचयेत् ॥
उसमें २५ तोले लोहभस्म और २५ तोले दही
मिला कर पुनः पकावें । जब खरपाक हो जाय त्रिकटुत्रिफलाचूर्ण प्रत्येकं तु द्विकार्षिकम् । विडॉ भद्रमुस्तश्च जीरक द्वयमेव च ॥
तो अग्निसे नीचे उतारकर उसमें त्रिकुटा, त्रिफला, पृथगर्धपलं नाह्यं कुर्यात्पाकन्तु मध्यमम् ।।
चीता, बायबिडंग और नागरमोथेका चूर्ण २५ पैत्तिके ग्रहणीरोगे योजयेन्मतिमान् भिषक् ॥
| तोले मिला कर खरल करके सुरक्षित रखें। बहेड़ा, हर्र और आमला ४०-४० तोले इसके सेवनसे कफज संग्रहणी नष्ट होती है। ले कर २४ सेर पानीमें पकायें और ४ सेर पानी |
(६४२७) लोहरसायनम् (६) शेष रहने पर छान लें । तदनन्तर उसमें २५ तोले
(व. से. । रसायना.) लोह भस्म, ८ सेर दूध और १। सेर घी मिला कर
अष्टादशपलान्यत्र त्रिफलाया विपाचयेत् । पकावें । जब मध्यम पाक तैयार हो जाय तो
सलिले द्वथाढके चास्मिन्नवभागावशेषितम् ॥ अग्निसे नीचे उतार कर उसमें सांठ, मिर्च, पीपल,
| विपचेत्पूर्ववल्लोहं पुटितं वक्ष्यमाणकैः। हर्र, बहेड़ा, आमला, वायबिडंग, नागरमोथा, सफेद
क्रायाः केशराजस्य चाकस्य रसेन च ॥ जीरा, और काला जीरा; इनका २॥-२॥ तोले
एतत्पञ्चपलं ग्राह्य सपिदेशपलानि च । चूर्ण मिला कर सुरक्षित रक्खें ।
शतावरीरसस्याष्टौ नारिकेलोदकस्य च ॥ इसके सेवनसे पैत्तिक संग्रहणी नष्ट होती है।
पलाद्ध मरिचं कृष्णा नागरं पलसम्मितम् । (६४२६) लोहरसायनम् (५) षड्विंशमाषकं चूर्ण त्रिफलायाः प्रकल्पयेत् ॥
(व. से. । रसायना.) त्रिचत्वारिंशता मारैरधिकं चूर्णितं पलम् । प्रत्येकं षट्रपलं धात्रो शिवा वैभीतकवचम् । चित्रकस्य विडङ्गस्य पचेत्पाकारं ततः॥ उदकानां शरावस्तु षडूविंशत्या विपाचयेत् ॥ | वातश्लेष्मोत्तरे चैव कुक्षिरोगे तथा हितम् ॥
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
१८ पल (९० तोले) त्रिफलाको १६ सेर
लोहरसायनम् (८). पानीमें पकावें और नवां भाग शेष रहने पर छान
(व. से. । रसायना.) लें । तदनन्तर उसमें त्रिफला, भंगरा और अदरकके प्र. सं. ३०२४ दासरसायन देखिये। रसमें भावित लोहभस्म २५ तोले, घी १००
लोहरसायनम् (९) तोले, शतावरका रस ८० तोले, नारियलका पानी (व. से. । रसायना.) ८० तोले, काली मिर्च और पीपलका चूर्ण २॥- प्र. सं. ३०२३ “दासलोहरसायन " २॥ तोले, सेठ ५ तोले, त्रिफलाका चूर्ण ३२॥ | देखिये। माशे, चीते और बायबिडंगका चूर्ण प्रत्येक ९ ताले |
__(६४२९) लोहविकारशमनोपायः ५॥॥ माशे मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें ।
(आ. वे. प्र. । अ. ११) ' इसके सेवनसे वात कफज उदर रोग नष्ट
कृमिरिपु लीढं सहितं स्वरसेन बङ्गसेनस्य । होते हैं।
क्षपयत्यचिरानियतं लोहाजीर्णोद्भवं शूलम् ॥ (६४२८) लोहरसायनम् (७)
आरग्वधस्य मज्जाभी रेचन किशान्तये । (व. से. । रसायना.)
भवेद्यद्यतिसारश्च पीत्वा दुग्धं तु तं जयेत् ॥ त्रिफलायाः प्रकुर्वीत प्रत्येकं पलसप्तकम् । ___बायबिडंगके चूर्णको अगस्तिके स्वरसके वारिण्यष्टगुणे पक्त्वा पश्चभागेन शेषयेत् ॥
साथ मिला कर चाटनेसे लोहाजीर्णसे उत्पन्न हुवा षट्शरावास्तु दुग्धस्य हविषः पलपश्चकम् ।
शूल अवश्य शीघ्र ही शान्त हो जाता है। पुटितादायसः पश्च शुद्धाभ्रस्य पलद्वयम् ॥
___यदि लोह सेवनसे कब्ज हो जाय तो अमलविडङ्गं त्रिफला जीरं द्वयं त्रिकटु चूर्णितम् ।
तासके गूदेसे विरेचन देना चाहिये और दस्त लोहचूर्ण समं ग्राह्य गुणवृद्धं ततः पचेत् ॥
आने लगे तो दूध पिलाना चाहिये । ग्रहणीगदमत्युग्रं हन्त्येतदातसम्भवम् ।। __हर्र, बहेड़ा और आमला ३५-३५ तोले
(६४३०) लोहशोधनम् (१) ले कर सबको एकत्र अधकुटा करके २१ सेर | (र. म. ; यो. र. ; रसे. सा. सं ; र. र. पानीमें पकायें और पांचवां भाग शेष रहने पर
स. । अ. ५) छान लें । तदनन्तर उसमें ६ सेर दूध, ५० तोले | त्रिफलाष्टगुणे तोये त्रिफला षोडशोन्मिताम् । घी, २५ तोले लोह भस्म और १० तोले अभ्रक | तत्क्वाथे पादशेषे तु लोहस्य पलपञ्चकम् ॥ भस्म तथा बायबिडंग, त्रिफला, दोनों जीरे और | कृत्वा पत्राणि तप्तानि सप्तवारं निषेचयेत् । त्रिकुटेका चूर्ण २५ तोले मिलाकर पुनः पका और | एवं प्रलीयते दोषो गिरिजो लोहसम्भवः ।। गाढ़ा हो जाने पर उतार कर सुरक्षित रखें। । १ सेर त्रिफलाको १६ सेर पानीमें पकावें
यह अत्युग्र वातज ग्रहणीको नष्ट करता है। और ४ सेर शेष रहने पर छान लें । २० तोले
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि
लोहेके बारीक पत्रोंको अग्निमें तपा तपा कर सात तक्रस्य चाम्लस्य चतुःपलानि बार इस काथमें बुझानेसे उसके गिरि सम्भव दोष कर्ष च कर्ष पृथगौषधानाम् । नष्ट हो जाते हैं।
व्योषाजमोदा चविकाऽनलानां (६४३१) लोहशोधनम् (२)
मूलं प्रदद्यादपि पिप्पलीनाम् ॥ . (रसे. सा.सं.) .
सिन्धुप्रसूतं सविडङ्गचूर्ण
तक्रेण हन्याद् ग्रहणीं समस्ताम् । तप्तानि सर्वलोहानि कदलीमूलवारिणि ।
अर्शा सि शोथं परिणामशूलं सप्तधा त्वभिषिक्तानि शुद्धिमायान्त्यनुत्तमाम् ॥ शुलं च दीप्तं तु करोति वहिम ॥
सब प्रकारके लोहोंको तपा तपा कर केलेकी शुद्ध लोहेके बारीक पत्रों पर सोनामक्खी जड़के रसमें सात बार बुझानेसे वे शुद्ध हो और कनेरकी जड़का लेप करके उन्हें अग्निमें तपा जाते हैं।
तपा कर बार बार तक्रमें बुझावें । इस प्रकार भस्म (६४३२) लोहशोधनम् (३) कियो हुवा लोह ४० तोले, घी ५ तोले, तिलका (र. प्र. सु. । अ. ४ ; र. र. स. । पू. अ. ५)
तेल ५ तोले, त्रिफलेका काथ ६० तोले, खट्टी सामुद्रलवणस्तद्वल्लेपितं त्रिफलाजले।
छाछ २० तोले एवं सोंठ, मिर्च, पीपल, अजमोद, निर्वापितं भवेच्छुद्धं सत्यं गुरुवचो यथा॥
चव, चीता, पीपलामूल, सेंधा नमक और बायबि
डुंगका चूर्ण १।-११ तोला ले कर सबको एकत्र लोहे के पत्रों पर समुद्र लवणका लेप करके
मिला कर सुरक्षित रक्खें। उन्हें अग्निमें तपा तपा कर त्रिफलाके काथमें
इसे तकके साथ सेवन करनेसे समस्त प्रकारबुझानेसे लोह शुद्ध हो जाता है।
का संग्रहणी रोग, अर्श, शोथ, शूल, परिणामशूल (६४३३) लोहसारकल्पः नष्ट होता और अग्नि दीप्त होती है । (र. का. धे.। रसायना.)
(६४३४) लोहसुन्दरः आलिप्य तापीकरवीरकाभ्यां | ( र. रा. सु. ; र.का.धे.; वृ. नि. र. । पाण्ड्वा . ; वैश्वानरे प्रज्वलिते निधाय ।
रसे. चि. म. । अ. ९) तप्तं सुतप्तं विनियोज्य तक्रे
सूतभस्म मृतलोहगन्धको - निर्वाप्य वारान्बहुशः सुलोहम् ॥
भागवदितमिदं विनिःक्षिपेत् । एभिः प्रकारैः सुमृताच्च लोहा
दीर्घनालढपिकोदरे चूर्णीकृताचापि पलानि चाष्टौ । मृत्स्नया च परिवेष्टय तां क्षिपेत् ॥ सर्पिः पलं तैलपलं पलानि
चुल्लिकोपरि च कूपिकामुखे चत्वारि चाष्टौ हि वरारसस्य ॥
प्रक्षिपेच्च वरशाल्मलीद्रवम् ।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः
त्रैफलञ्च सगुडूचिकारसं
और शुद्ध मनसिलका चूर्ण पृथक् पृथक् या एकत्र पाचयेत्तु मृदुवहिना दिनम् ॥ करके शहदमें मिला कर गिलोयके रसके साथ स्वागशीतलमिदं प्रगृह्य च
सेवन करनेसे समस्त प्रमेह नष्ट हो जाते हैं। . __ ज्यूषणाकरसेन भावयेत् ।
(६४३६) लोहादिमोदकः लोहसुन्दररसोऽयमीरितः
(वृ. नि. र. । ग्रहण्य.) शुष्कपाण्डुविनित्तिदः परः॥ | मृतलोहमिन्द्रयवं शुण्ठीभल्लातचित्रकम् । पारद भस्म १ भाग, लोह भस्म २ भाग, | बिल्वमज्जाविडङ्गानि पथ्यातुल्यं विचूर्णयेत् ॥ और शुद्ध गन्धक ३ भाग ले कर सबको एकत्र | सर्वतुल्यो गुडो योज्यः कर्षे भुक्त्वार्शसाधयेत् ।। खरल करके कपरमिट्टी की हुई लम्बी नाल वाली लोह भस्म, इन्द्रजौ, सोंठ, मिलावा, चीता, आतशी शीशीमें भर दें एवं उसे बालुका यन्त्रमें | बेलगिरी, बायबिडंग, और हरै समान भाग ले कर रख कर चूल्हे पर चढ़ावें और उसके नीचे एक यथा विधि चूर्ण बनावें और उसे सबके बराबर दिन तक मन्दाग्नि जलावें । पाकके समय शीशीमें गुड़में मिलाकर ११-१॥ तोलेके मोदक बना लें। थोड़ा थोड़ा सेंभलका रस, त्रिफलेका काथ और इनके सेवनसे अर्शका नाश होता है। गिलोयका रस डालते रहना चाहिये। ( ये तीनों (व्यवहारिक मात्रा-३-४ माशे ।) द्रव समान भाग मिश्रित लेने चाहियें।)
(६४३७) लोहादियोगः (१) एक दिनको अग्निके पश्चात् शीशीके स्वांग (ग. नि. | नेत्ररोगा. ३) शीतल होने पर उसमेंसे औषधको निकाल कर अयोरजस्ताम्ररजः मुपिष्टं उसे त्रिकुटाके काथ और अदरकके रसकी १-१ सपिप्पलीकाम्लकषेतसं च । भावना दे कर सुरक्षित रक्खें।
क्षौद्रेण युक्तं लवणेन चैव इसके सेवनसे शुष्क पाण्डु नष्ट होता है। पूयालसं हन्त्यचिरेण युक्तम् ॥ (६४३५) लोहादिचूर्णम्
लोह भस्म, ताम्र भस्म, पीपल और अम्लबेत(ग. नि. । प्रमेहा. ३०, रा. मा.। प्रमेहा.)
का चूर्ण तथा सेंधा नमक समान भाग ले कर चूर्णानि लोहत्रिफलाशिलानां
चूर्ण बनावें । क्षौद्रेण लीढानि पृथक्समं वा।
इसे शहदके साथ प्रयुक्त करनेसे पूयालसका मेहान् समस्तानपि नाशयन्ति
शीघ्र ही नाश हो जाता है। पीतः कदाचित्स्वरसो गुडूच्याः॥ (६४३८) लोहादियोगः (२) लोह भस्म, त्रिफला (हर, बहेड़ा, आमला)
(वृ. यो. त. । त. १४७)
लोहं ताम्राभ्रसूतं सुरकुसुमजलं चन्द्रसंजाति१ शिवानामिति पाठान्तरम् ।
पत्रं
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६६६
पत्र जातीफलैला समरिचकर हाटाजमोदाहि
फेनम् सामुद्रं सिन्धुशोषावपि घृतमधुना मर्दयित्वाऽस्य टङ्क खादेदनेऽतिजीर्णे नियतमिह रतौ स्तम्भन रेतसः स्यात् ॥
लोह भस्म, ताम्र भस्म, अभ्रक भस्म, पारद भस्म, लौंग, सुगन्धवाला, कपूर, जावित्री, तेजपात, जायफल, छोटी इलायची, काली मिर्च, करहाट (अकरकरा), अजमोद, अफीम, समन्दर झाग, और समन्दर सोख समान भाग ले कर यथा विधि चूर्ण बनावें ।
भारत-भ - भैषज्य रत्नाकरः
इसे घी और शहद के साथ मिला कर ४ माशे की मात्रानुसार सेवन करनेसे स्त्रीसमागमके समय वीर्यस्तम्भन होता है ।
व्यवहारिक मात्रा - १ माशा । (६४३९) लोहाद्यो मोदकः (ग. नि. । पाण्डु ७ ) अयस्तिलत्र्यूषणको भागैः
सर्वैः समं माक्षिकधातुचूर्णम् । तैर्मोदकः क्षौद्रयुतोऽनुत पाण्यामये दूरगतेऽपि शस्तः || लोह भस्म, तिल, सोंठ, मिर्च और पीपल, ११- १1 तोला और स्वर्णमाक्षिक भस्म सबके बराबर ले कर, यथा विधि चूर्ण बना कर उसे शहद में मिला कर गोलियां बना लें ।
इन्हें तकके साथ सेवन करनेसे पाण्डुका नाश होता है।
( मात्रा - २ - ३ रती )
लकारादि
(६४४०) लोहाद्यो रसायनः ( रा. मा. । रसायना ३३ ) लोहा सूतक शिलाजतुकान्तलोहचक्राङ्गचूर्णसहितं विषचूर्णमत्ति । यः सन्ततं घृतमधूपहितं मनुष्यः स स्याज्जरामरणरोगभयैर्विमुक्तः ॥
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तीक्ष्ण लोह भस्म, अभ्रक भस्म, पारद भस्म, शिलाजीत, कान्त लोह भस्म, चक्राङ्ग (सुदर्शन) का चूर्ण एवं शुद्ध. बछनाग समान भाग ले कर एकत्र खरल करें ।
इसे घी और शहद के साथ सेवन करते रहने से जरा व्याधिका नाश होता है ।
(६४४१) लोहामृतम् ( १ ) ( र. र. | पाण्डुवा. ) मुस्तामृताकणायष्टिर्वह्निशुण्ठी फलत्रयम् । विडङ्गं च समं चूर्णं सर्वांशं मृत लोहकम् ॥ मधुना भक्षयेनिष्कं पाण्डुरोगहरं परम् । अयं लोहामृतं नाम स्वयमनि रसोपि वा ।।
नागरमोथा, गिलोय, पीपल, मुलैठी, चीता, सोंठ, त्रिफला और बायबिडंगका चूर्ण १-१ भाग एवं लोह भस्म सबके बराबर ले कर सबको एकत्र खरल करके रखें ।
मात्रा - १ निष्क ।
व्यवहारिक मात्रा - ३-४ रत्ती । इसे शहदके साथ सेवन करनेसे पाण्डु रोग
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रंसप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः
(६४४२) लोहामृतम् (२)
अनुपान-बकरीका दूध । उसके अभावमें (च. द. । परि. शूला. २८)
गायका दूध । दूध दवासे ६४ गुना लेना
चाहिये। तनूनि लोहपत्राणि तिलोत्सेधसमानि च ।
इसे घी और शहदके साथ मिला कर खाना कशिकामूलकल्केन सम्लिप्य सर्षपेण वा ।।
चाहिये। विशोष्य सूर्यकिरणः पुनरेवावलेपयेत् ।।
इसके सेवनसे पक्तिशूल केवल १ मासमें ही त्रिफलाया जले ध्मातं वापयेच पुनः पुनः॥
नष्ट हो जाता है। ततः सञ्चूर्णितं कृत्वा कपटेन तु छानयेत् ।
इसके सेवन कालमें ककारादि वर्गके फल भक्षयेन्मधुसर्पिा यथाग्न्येतत्प्रयोजयेत् ॥
और शाक,* अम्ल पदार्थ तथा आनूपदेशीय माषकं त्रिगुणं वाथ चतुर्गुणमथापि वा।
| जीवोंके मांससे परहेज़ करना चाहिये । छागस्य पयसः कुर्यादनुपानमभावतः ॥ गवां घृतेन दुग्धेन चतुः षष्टिगुणेन च ।
लोहामृतम् (३) पक्तिशूलं निहन्त्येतन्मासेनैकेन निश्चितम् ॥ | (र. र. ; र. का. धे. । राजयक्ष्मा.) लोहामृतमिदं श्रेष्ठं ब्रह्मणा निर्मितं पुरा।
प्र. सं. ५८३० “ यक्ष्मारि लौहम् " फकारपूर्वकं यच्च यच्चाम्लं परिकीर्तितम् ॥
| देखिये। सेव्यं तन्न भवेदन मांसं चानूपसम्भवम् ॥
(६४४३) लोहामृतरसः तिलके समान मोटे लोह पत्रोंको सफेद . (वृ. नि. र. । संग्रहण्य.) आककी जड़ या सरसेकेि कल्कसे लिस करके सङ्ग्राह्य मृतलोहस्य पलान्यष्टादशानि च । धूपमें सुखावें । सूख जाने पर पुनः लेप करके | त्रिकटु त्रिफला दार्वी वहिर्मुस्ता दुरालभा । सुखा लें और फिर उन्हें अग्निमें तपा कर त्रिफला- किराततिक्तकोनिम्बपटोलकटुकामृता । के काथमें बुझावें । इसी प्रकार बार बार लेप करके उस समय तक बुझावें जब तक कि लोहका मध्वाज्याभ्यां लिहेत्कर्षमीसि ग्रहणीं जयेत् । चूर्ण न हो जाय । तदनन्तर उसे लोह खरलमें | वातपित्तकर्फ रक्तं नाशयेद्रोगसश्चयं ॥ घोट कर कपड़ेसे छान लें।
| ख्यातो लोहामृतो नामदेहदाढर्थकरः परः ॥ (इस चूर्णको आककी जड़के काथमें घोट लोह भस्म ९० तोले; सेांठ, मिर्च, पीपल, कर शरावसम्पुटमें बन्द करके गजपुटकी अग्नि हर्र, बहेड़ा, आमला, दारुहल्दी, चीता, नागरदे कर भस्म कर लेना विशेष उत्तम है।) *ककारादि वर्ग-कुष्माण्ड, कर्कटी, मात्रा-१ से ४ माशे तक
कलिंग, कारवेल्ल, कुसुम्भिका, कर्कोटी, कलम्बी, ( व्यवहारिक मात्रा-१ से २ रत्ती । ) | काकमाची ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि
मोथा, धमासा, चिरायता, नीमकी छाल, पटोल, प्र. सं. ६२६३ " लोह रसायनम् " कुटकी, गिलोय, देवदारु, बायबिडंग, और पित्त- | देखिये । पापड़ा; इनका चूर्ण १-१। तोला ले कर सबको |
(६४४४) लोहाभयाचूर्णम् एकत्र मिला कर खरल करें।
(रसे. चि. म. । अ. ९) इसे शहद और घीके साथ सेवन करनेसे
मूत्राम्भः पाचितां शुष्कां लोहचूर्णसमन्विताम्। वातज, पित्तज, कफज और रक्तज संग्रहणीका नाश
सगुडामभयां दद्यात् सर्वशूलपशान्तये ॥ होता है।
हरके चूर्णको गोमूत्रमें पका कर सुखा लें मात्रा-११ तोला
और फिर उसमें समान भाग लोह भस्म मिलाकर व्यवहारिक मात्रा-२ रत्ती ।
सुरक्षित रक्खें । लोहरसायनम्
इसे गुड़में मिलाकर सेवन करनेसे शूल नष्ट (र. र. ; र. का. धे. ; व. से. । मेद. ; च. द.।। होता है। स्थौल्या. ३५)
(मात्रा-३ रत्ती।) इति लकारादिरसपकरणम्
अथ लकारादिमिश्रप्रकरणम् (६४४५) लघुपञ्चमूलादिसिद्धान्नम् । गृह्णाति सर्पान भ्रमतोऽतिघोरान् (व. से. । अतिसारा.)
पुमान् सुपर्णपतिमप्रभावः ॥ लघुना पञ्चमूलेन पिप्पल्या सह धान्यया।
हाथमें लज्जावतीकी जड़का लेप करके या आहारो भिषजा योज्य: सर्वदा हितमिच्छता ॥
" उसकी जड़ हाथमें बांध कर भयंकर सर्पको भी ___ अतिसार रोगमें लघु पञ्चमूल (शालपर्णी,
पकड़ लिया जाय तो वह कुछ भी हानि नहीं पृष्टपर्णी, कटेली, बड़ी कटेली, गोखरु ), पीपल |
पहुंचा सकता। और धनियेके काथके साथ अन्न सिद्ध करके देना चाहिये।
(६४४७) लशुनक्षीरम् (६४४६) लज्जालुमूलयोगः
(च. सं. । चि. अ. ५) (रा. मा. । विषा. २८) | साधयेत् सिद्धशुष्कस्य लशुनस्य चतुष्पलम् । लज्जावतीमूलविलिप्तपाणि
क्षीरे जलाष्टगुणिते क्षीरशेषश्च पाययेत् ॥ वाऽथवा तत्र तदीयमूलम् । वातगुल्ममुदावतं गृध्रसी विषमज्वरम् ।
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मिश्रप्रकरणम् ]
हृद्रोगं विद्रधिं शोथं नाशयत्याशु तत्पयः ॥ एवन्तु साधिते क्षीरे स्तोकमेवात्र दीयते ।।
चतुर्यो भागः
२० तोले सूखे हुवे ल्हसनमें ४ सेर दूध और ३२ सेर पानी मिला कर पकावें, और जब पानी जल जाय तो दूधको छान लें ।
इसे यथोचित मात्रानुसार थोड़ा थोड़ा सेवन करानेसे वातज गुल्म, उदावर्त, गृध्रसो, विषमज्वर, हृद्रोग, विद्रधि और शोथका नाश होता है । (६४४८) लाक्षादियोग: ( व. से. । मैत्ररोगा. ) लाक्षामधुकमञ्जिष्ठा लोकालानुशारिखा । पुण्डरीकसंयुक्तः सेको रोगहरो हितः ॥
लाख, मुलैठी, मजीठ, लोध, तगर और पुण्डरिया समान भाग ले कर सबको पानीके साथ पीस कर कपड़ेसे निचोड़ कर रस निकालें । इसे आंखमें डालनेसे रक्ताभिष्यन्द नष्ट होता है ।
(६४४९) लाङ्गलीशोधनम् ( वृ. यो. त । त. ४३ ) लागली शुद्धिमायाति दिनं गोमूत्रसंस्थिता । लांगली ( कलियारी ) की जड़को १ दिन गोमूत्र में रखने से वह शुद्ध हो जाती है ।
(६४५०) लाजमण्ड:
(यो. त. । त. १८ ; शा. सं. । खं. २ अ. २) लार्वा तण्डुलैर्धृष्टैर्लाजमण्डः प्रकीर्तितः । श्लेष्म पित्तहरो ग्राही पिपासाज्वर जिन्मतः ॥
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५५९
धानकी खीलों या भुने हुवे चावल से जो मण्ड बनाया जाता है उसे लाजमण्ड कहते हैं । लाजमण्ड कफपित्त नाशक, ग्राही तथा पिपासा और ज्वर नाशक होता है ।
( १४ गुने पानी में पका कर तैयार किये हुवे कणरहित माण्डको ' मण्ड' कहते हैं ।) (६४५१) लाजादियूषः
( यो. र. । छर्दि वृ. यो. त. 1 त. ८३ ) लाजामसूरयवमुद्गकृता यवागूRaif हिता मधुयुता बहुपित्तजायाम् । धानकी खील, मसूर, जौ और मूंगके यवागूमें शहद मिला कर पीनेसे पित्तज छर्दि नष्ट होती है।
(६४५२) लाजोदकयोगः
(बृ. मा.; व. से. । तृष्णा ; ग. नि. । तृष्णा. १५) लाजोदकं मधुयुतं घृतं गुडविमिश्रितम् । कामशर्करायुक्तं पिबेत्तृष्णार्दितो नरः ॥ शहद मिला कर
धानकी खीलोंके पानी में
पीनेसे या गुड़में घी मिला कर खानेसे अथवा खम्भारीके फलोंके पानीमें खांड मिला कर पीनेसे तृष्णा शान्त हो जाती है ।
(६४५३) लालादियोगः ( वै. म. र. । पट. १६ )
पित्सु सदा लालां सिचे मुहुर्मुहुः । कुष्ठेष्वपि जगत्यस्माद्विद्यते न महौषधम् ॥
नवीन घाव (व्रण) पर और कुष्ठ पर बार बार लाला ( थूक) लगाना चाहिये ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि
संसारमें इससे उत्तम. अन्य कोई योग | कर लुगदी बनावें और फिर लोधको बारीक पीस नहीं है।
कर उसकी गोली बना कर उसे उक्त लुगदीके
बीचमें रख कर एक बड़ीसी गोली बना लें और (६४५४) लोचनशूलनीपोटली
उसे घीमें भून लें । तदनन्तर बहुत मुलायम रुइको ( यो. र. । नेत्र रोगो.)
कांजीमें भिगो कर उसमें उक्त गुटिका लपेट कर कृतलाजसुराष्टजाहिफेनं
नेत्रोंके ऊपर चारों ओर फिरानेसे नेत्र कोप ( नेत्र रुचिरं नागजगालवोत्थचूर्णम् । दुखना रोग ) नष्ट होता है। सुकुमायुदकेन शुल्वपात्रे
(६४५६) लोधादियोगः (१) मृदितं दृष्टिरुजं जयेत्पटस्थम् ॥
(व. से. । नेत्ररोगा.) फटकीकी खील, अफीम, केसर, सीसेकी
श्वेतलोधं घृते भृष्टं चूर्णितं ताप्य तुत्थकम् । भस्म और पठानी लोध समान भाग ले कर चूर्ण
उष्णाम्बुना विमृदि सेकः शूलहरः परः॥ बनावें।
___घीमें भुना हुवा सफेद लोध, स्वर्णमाक्षिक इसे तांबेके खरलमें घोकुमारके रसमें घोट
और नीला थोथा समान भाग ले कर सबको उष्ण कर कपड़े बांध कर पोटली बनावें।
जलमें घिस कर आंखमें डालनेसे नेत्र शूल नष्ट __इसे आंखों पर फिरानेसे नेत्रपीड़ा नष्ट | होता है। होती है।
__ (६४५७) लोधादियोगः (२) (६४५५) लोधादिगुटिका
( यो. र. । नेत्ररोगा.) (वृ. मा. । नेत्ररोगा.)
शाबरं मधुकं तुल्यं घृतभृष्टं सुचूर्णितम् । पिष्टैनिम्बस्य पत्रैरतिविमल- छागक्षीरोत्थितं सेकः पित्तरक्ताभिघात जित् ॥ तरैर्जातिसिन्धूत्थमित्रै
साबर लोध और मुलैठी समान भाग ले कर रन्तर्गर्भ दधाना पटुतर
चूर्ण बनावें और उसे घीमें भून कर बकरीके दूधमें गुटिका पिष्टलोभ्रेण भृष्टा । पीस लें एवं उसे कपड़ेमें निचोड़ कर रस तूलैः सौवीरसान्द्र्रतिशय
| निकालें । इसे आंख में डालनेसे पित्तरक्तज नेत्राभिमृदुभिर्वेष्टिता सा समन्ता
घात नष्ट होता है। चक्षुष्कोपोपशान्ति चिर
(६४५८) लोध्रादिसेकः (१) मुपरि दृशा भ्राम्यमाणा करोति ॥
(व. से. । नेत्र रोगा.) नीमके स्वच्छ पत्ते, चमेलीके फूल और लोध्रचूर्ण घृते भृष्टं रुजमाश्च्योतनं हरेत् । सेंधा नमक समान भाग ले कर सबको एकत्र पीस | शर्करात्रिफलाचूर्णमिदमाश्च्योतनं परम् ॥
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मिश्रप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
घीमें भुने हुवे लोधके चूर्णको पानीमें पीस | मिला कर छानकर उसकी बूंदें आंखोंमें टपकावें । कर कपड़ेसे उसका रस निचोड़ कर आंख में डालने- इससे पित्तज, वातज और रक्तज नेत्राभिष्यन्द नष्ट से रक्तज नेत्राभिष्यन्द नष्ट होता है। होता है। इसी प्रकार खांड और त्रिफलाका पानी डाल
। (६४६१) लोध्राद्याइच्योतनम् (२) नेसे भी रक्तज नेत्राभिष्यन्द नष्ट होता है ।
(वं. से. ; वृ. मा. । नेत्र रोगा.) (६४५९) लोध्रादिसेकः (२) ( ग. नि. । नेत्र रोगा. ३)
लोधं सपिपि सम्पक्वं खदिराजाजिसर्षपैः । तिरीटत्रिफलायष्टिशर्कराभद्रमुस्त।
नागरारिष्टसिन्धूत्थैर्युक्तं दृषदि चूर्णितम् ॥ पिष्टः शीताम्बुना सेको रक्ताभिष्यन्दनाशनः ॥ !
सिते वाससि तद्वद्धं न्यसेत्स्वच्छाम्लकाधिके । लोध, त्रिफला, मुलैठी, खांड और नागर- तेनाक्ष्णोः पूरणं कार्य कण्डूरोगाश्रुघर्ष जित् ॥ मोथा समान भाग ले कर सबको एकत्र पानीमें ___घीमें पकाया हुवा लोध, खैरसार (कत्था), पीस कर कपड़े बांध कर उसका रस निचोड़ें। । जीरा, सरसों, सोंठ, नीमके पत्ते और सेंधा नमक इसे आंख में डालनेसे रक्तज नेत्राभिष्यन्द
समान भाग लेकर सबको पत्थरपर एकत्र पीस लें।
तदनन्तर उसे सफेद कपड़ेमें बांध कर पोटली नष्ट होता है।
बनावें । इसे स्वच्छ काञ्जीमें भिगो कर आंखोंमें (६४६०) लोध्राद्याश्च्योतनम् (१) । निचोड़नेसे कण्डु (खाज), अश्रु और आंखेांकी (च. द; यो. र. ; वं. से. । नेत्र. ) किरकराहट नष्ट होती है। निम्बस्य पत्रैः परिलिप्य लोभ्रं
(६४६२) लोमनाशनयोगः स्वेद्याग्निना चूर्णमथापि कल्कम् । ( ग. नि. । अधि. १०) आश्च्योतनं मानुषदुग्धयुक्तं ।
उत्पाटय योनिप्रभवाणि रोमापित्तास्रवातापहमय्यमुक्तम् ॥
ण्यभ्यञ्जनं तत्र ततो विधेयम् । लोधको नीमके पत्तोंकी लुगदी (कल्क ) के
कोशातकीबीज समुद्भवेन बीचमें रख कर उस पर कपड़ा लपेट कर उसके ऊपर मिट्टीका लेप कर दें । इस गोलेको कण्डेकी
तैलेन रोम्गामपुनर्भवाय ॥ मन्दाग्निमें दबा दें, जब ऊपरकी मिट्टीका रंग लाल योनिके बालेको उखाड़ कर उस जगह हो जाय तो उसके भीतरसे लोधको निकाल कर | कड़वी तोरीके बीजोंका तेल मलनेसे पुनः बाल पानीके साथ या सूखाही पीस कर स्त्रीके दुग्धमें । नहीं निकलते ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि
(६४६३) लोहादियोगः
मण्डूरका चूर्ण, आमला और जवाकुसमके फूल (व. से. । क्षुद्ररोगा. ; वृ. मा.)
समान भाग ले कर सबको एकत्र पीस लें।
__इसे पानीमें मिला कर शिर पर लेप करें और लोहमलामलकल्कैः सजपाकुसुमैर्नरः सदा थोडी देर पश्चात् स्नान कर लें।
स्नायी। नित्य प्रति इसी प्रकार स्नान करनेसे पलित पलितानीह न पश्यति गङ्गास्नायीव नरकानि ॥ रोग नष्ट हो जाता है ।
इति लकारादिमिश्रप्रकरणम्
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कषायप्रकरणम् ।
चतुर्थों भागः
De6.
अथ वकारादिकषायप्रकरणम् (६४६४) वंशत्वगादिकाथः । बच, अतीस, कूठ, चीता, देवदारु, पाठा, ( यो. र.; वृ. मा. ; वृ. नि. र. ; वं. से.।
| चव, नागरमोथा, चोक (सत्यानाशीको जड़ ),
कटेली, कुड़ेकी छाल, करञ्ज छाल, मूर्वा, कुटकी, आगन्तुव्रणा.)
अरनी, छोटा अमलतास, पीलु, हिज्जलवृक्ष, असना, क्वाथो वंशत्वगेरण्डश्वदंष्टाश्मभिदा कृतः। सतोना, हर', बहेड़ा, आमला और काली मिर्च हिसैन्धवसंयुक्तः कोष्ठस्थं स्रावयेदसृक् ॥ समान भाग लेकर काथ बनावें । ____बांसकी छाल, अरण्डमूल, गोखरु और पाषाण- __ इसमें शहद मिला कर सेवन करनेसे ऊरुभेदके काथमें हींग और सेंधा नमक मिला कर स्तम्भ नष्ट होता है। सेवन करनेसे कोष्ठस्थित रक्त निकल जाता है। ऊरुस्तम्भमें इन्हीं ओषधियोंका चूर्ण बनाकर
| शहदके साथ सेवन करना तथा इन्हीके कषायसे (६४६५) वचादिकषायः (१)
चायल बना कर खाना चाहिये। (ग. नि. । ऊरुस्त. २१ ; वृ. नि. र. ।
(६४६६) वचादिकषायः (२) __ ऊरुस्तंभा.)
(वा. भ. । चि. अ. १) वचा सातिविषा कुष्ठ चित्रको देवदारु च । कफवाते वचा तिक्ता पाठारग्वधवत्सकाः । पाठा तेजोवती मुस्ता स्वर्णक्षोरी निदग्धिका ॥ पिप्पलीचूर्णयुक्तो वा क्याथश्छिन्नोद्भवोद्भवः ।। वत्सको नक्तमालश्च मूर्वा च कटुरोहिणी । कफ तिज ज्वरमें बच, कुटकी, पाठा, तर्कारी प्रग्रहश्चैव पीलूनि निचुलानि च ॥ अमलतास और कुड़ेकी छालके काथमें अथवा असनः सप्तपर्णश्च त्रिफला मरिचानि च। गिलायके काथमें पीपलका चूर्ण मिला कर पीना एतानि समभागानि कषायमुपसाधयेत् ॥ | चाहिये। मधुयुक्तं कषायं तं प्रयोगेण पिबेन्नरः।। (६४६७) वचादिकषायः (३) ऊरुस्तम्भं नुदत्येष वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥
(ग. नि. । ज्वरा. १) एतान्येव तु चूर्णानि माक्षिकेण तु कल्पयेत् ।। वचागुडूची सुरदारु शुण्ठी अनेनैव कषायेण भोजयेत्सिद्धमोदनम् ॥ किरातकं मुस्तकमाटरूषः।
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[वकारादि
सकाकजङ्घा लघुकण्टकारी । (६४७०) वचादिकषायः (६)
क्वाथोऽयमित्युद्धतसन्निपाते ॥ ( वृ. नि. र. । वातातिसा. ; व. से. । अति.) बच, गिलोय, देवदारु, सेठ, चिरायता, वचाचातिविषामुस्तं बीजानि कुटजस्य च । नागरमोथा, बासा, काकजंघा और छोटी कटेली
श्रेष्ठः कषाय एतेषां वातातीसार शान्तये ॥ समान भाग ले कर काथ बनावें।
___ बच. अतीस, नागरमोथा और इन्द्रजौ समान यह काथ प्रबल सन्निपात ज्वरको नष्ट
| भाग ले कर काथ बनावें । करता है।
यह काथ वातातिसारमें उत्तम है । (६४६८) वचादिकषायः (४)
(६४७१) वचादिक्वाथः (१) ( हा. सं । स्था. ३ अ. २)
(व. से. । नेत्र रोगा.) वचायवानी त्रिफला सविश्वा । क्वाथो निशायां कफजे ज्वरे वा।
वचात्रिच्चन्दनकुण्डली च सम्पाचनं स्यान्मनुजस्य दोषे
भूनिम्बनिम्बे रजनी सवासा। शूले प्रतिश्यायकपीनसेषु ॥
प्रस्थं जलस्य क्वथिताष्टभागं
__-पिबेत्सुजीर्णे नकुलान्ध्यरोगे ।। कफज ज्वर, शूल, प्रतिश्याय, और षीनसमें
काचं निशान्ध्यं तिमिरं तथाऽन्यापाचनके लिये बच, अजवायन, हरे, बहेड़ा, आमला और - सेठका काथ बना कर रात्रिके
नेत्रामयांस्तस्य च वत्मसन्धौ । समय पीना चाहिये ।
चिरप्रवृत्तानचिरेण हन्ति
वज्रो यथाद्रीन्सुरराजमुक्तः॥ (६४६९) वचादिकषायः (५)
बच, निसोत, लाल चन्दन, गिलोय, चिरा( वृ. मा. । मुख रोगा. ; व. से.)
यता, नीमकी छाल, हल्दी और बासा, ११-१॥ वचामतिविषां पाठां रास्नां कटुकरोहिणीम् । तोला लेकर सबको एकत्र कूट कर ८० तोले निष्क्वाथ्य पिचुमन्दं च केवलं तत्र योजयेत् ॥ पानीमें पकावें और १० तोले पानी शेष रहनेपर
बच, अतीस, पाठा, रास्ना और कुटकी छान लें। समान भाग ले कर क्वाथ बनावें ।।
इसके सेवनसे. पुराना नकुलान्ध्य, काच, यह काथ अथवा केवल नीमकी छालका काथ नक्तान्ध्य ( रतौंधा ), तिमिर और अन्य वर्म तथा पिलानेसे गलशुण्डिका नष्ट होती है। सन्धिगत रोग शीघ्रही नष्ट हो जाते हैं।
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कषायप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
(६४७२) वचादिक्वाथः (२) वचादि गणके काथसे स्नान करनेसे कफ
और तिमिर रोग नष्ट होता है। (भा. प्र. ; वृ. नि. र. । सन्निपाता.) वचाकवचकछुरासहचरामृताभङ्गुरा
(६४७५) वज्रकाञ्जिकम् सुराहघननागरातरुणदारुरास्नापुराः। (भै. र. । स्त्रीरोगा. ; ग. नि. । सूतिका. ७; वृषातरुणभीरुभिः सह भवन्ति सन्धिग्रह
वृ. मा. ; व. से. ; र. र. ; यो. र. । व्यथोरुजउिमक्लमभ्रमणपक्षघातापहाः॥
___ स्त्रीरोगा. ; वृ. यो. त. । त. १४३; बच, पित्तपापड़ा, जवासा, कटसरैया, गिलोय, अतीस, देवदारु, नागरमोथा, सोंठ, विधारामूल,
यो. त. । त. ७६ ) रास्ना, गूगल, बड़ी दन्तीकी जड़, अरण्डमूल और पिप्पलो पिप्पलीमूलं चव्यं शुण्ठी यमानिका । शतावर समान भाग लेकर क्वाथ बनावें। जीरके द्वे हरिद्रे द्वे विडं सौवर्चलं तथा ॥
यह काथ सन्धिक सन्निपात, जांघोंकी जड़ता | ऐतैरेवौषधैः पिष्टैरारनालं विपाचयेत् । क्लम, भ्रम और पक्षाघातको नष्ट करता है। एतदामहरं वृष्यं कफघ्नं वह्निदीपनम् ॥ (६४७३) वचादिगणः
काञ्जिकं वज्रकं नाम स्त्रीणामग्निविवर्द्धनम् ।
मक्कलशूलशमनं परं क्षीराभिवर्द्धनम् ॥ (सु. सं. । सू. अ. ३८)
| क्षीरपाकविधानेन काअिकस्यापि साधनम् । वचामुस्तातिविषाभयाभद्रदारूणि नागकेशर
ञ्चेति ।
___ पीपल, पीपलामूल, चव, सेठ, अजवायन, एतौ वचा हरिद्रादी गणौ स्तन्यविशोधनौ
| जीरा, काला जीरा, हल्दी, दारुहल्दी, बिड नमक
और काला नमक, समान भाग ले कर सबको आमातीसारशमनौ विशेषादोषपाचनौ ।।। बच, नागरमोथा, अतीस, हर, देवदारु और
एकत्र पीस कर आरनालमें पकावें । नागकेसर; इनके समूहको “वचादिगण " |
यह आमनाशक, वृष्य, कफनाशक, और कहते हैं।
अग्निदीपक है। वचादि गण तथा हरिद्रादि गण स्तन्य इसके सेवनसे स्त्रियोंकी जठराग्नि तीव्र होती शोधक, आमातिसार नाशक और विशेषतः दोष | और मक्कल शूल नष्ट होता है एवं दूध बढ़ता है। पाचक हैं।
वज्रकाञ्जीका पाक क्षीरपाक विधिसे करना (६४७४) वचादियोगः चाहिये।
( यो र. ; व. से. । नेत्र रोगा.) (औषधोंका अधकुटा चूर्ण ५ तोले, कांजी १ बचाद्यैः स्नानमिच्छन्ति श्लेष्मघ्नं तिमिरापहम्।। सेर, पानी ४ सेर ।)
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७६५
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
(६४७६) वटजटाप्रयोगः (६४७९) वत्सकादिक्वाथः (१) (रा. मा. । अतिसारा. १३) ( वृ. मा. । ज्वरातिसा. ; ग. नि. । ज्वराति १;
__ वृ. नि. र. । ज्वराति. ; व. से.। अतिसारा.) गव्येन तक्रेण सह प्रपिष्य न्यग्रोधपादः परिपीयमानाः ।
वत्सकस्य फलं दारु रोहिणी गजपिप्पली। नवोद्गतं हन्त्यतिसारमाशु
श्वदंष्ट्रा पिप्पली धान्यं बिल्वं पाठा यवानिका।।
द्वावप्येतौ सिद्धयोगौ श्लोकार्थेनाभिभाषितौ। बड़की जड़को गायके तक्रमें पीस कर पीनेसे
ज्वरातिसारशमनौ विशेषाद्दाहनाशनौ ॥ नवीन अतिसार शीघ्रही नष्ट हो जाता है। ___ (१) इन्द्रजौ, देवदारु, कुटकी और गज
| पीपल । (६४७७) वटशुङ्गादियोगः
(२) गोखरु, पीपल, धनिया, बेलगिरी, पाठा (व. से. ; ग. नि. । तृषा.)
और अजवायन । वटशुझं सितालोघं दाडिमं मधुकं मधु । ये दोनों काथ ज्वरातिसार और विशेषतः पिबेत्तण्डुलतोयेन छदितृष्णानिवारणम् ।।
दाह नाशक हैं। बड़के अंकुर, सफेद दूब, लोध, अनारकी
___ (६४८०) वत्सकादिक्वाथः (२) कली या पत्ते और मुलैठी समान भाग ले कर
(व. से. । ज्वरा.) सबको एकत्र पीस कर शहदमें मिलाकर चावलेकि पानीके साथ सेवन करनेसे छर्दि और तृष्णाका
वत्सकं पद्मकाष्ठं च नागरं चन्दनामृते ।
पटोल धान्यकं चैव क्वाथो मधुसमायुतः ॥ नाश होता है।
कफपित्तज्वर शूलं दाहं हन्त्यज्रिपाणिषु ॥ (६४७८) वत्सकादिकषायः
इन्द्रजौ, पद्माक, सोंठ, चन्दन, गिलोय, पटोल ( भा. प्र. । म. खं. २ )
और धनिया, समान भाग ले कर काथ बनावें । वत्स कातिविषाशुण्ठी बिल्वहिङ्ग्यवाम्बुदाः।
यह काथ पित्त ज्वर, शूल और दाहको नष्ट चित्रकेण युतः क्वाथ आमातीसारनाशनः ॥ इन्द्रजौ, अतीस, सांठ, बेलगिरी, हींग,
(६४८१) वत्सकादिक्याथः (३) नागरमोथा और चीता समान भाग ले कर काथ | ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ३) बनावें ।
वत्सकश्च सुरदारुरोहिणी इसे पीनेसे आमातिसार नष्ट होता है। धान्यबिल्वमगधात्रिकण्टकम् ।
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कषायप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
५६७
निम्बबीजगजपिप्पलोकी
एलापाठाजाजीकट्वङ्गक्वाथ एष सरणज्वरापहः॥ ___ फलाजमोदासिद्धार्थवचाः॥ इन्द्रजौ, देवदारु, कुटकी, धनिया, बेलगिरी, जीरकहिङ्गुबिडङ्ग पशुगन्धा पञ्चकोलकं हन्ति । पीपल, गोखरु, नीमके बीज, गजपीपल और पाठा
चलकफमेदः पीनसगुल्मज्वरशूलदुर्नाम्नः ॥ समान भाग ले कर काथ बनावें । इसके सेवनसे इन्द्रजौ, मूर्वा, भरंगी, कुटकी, काली मिर्च, ज्वरातिसार नष्ट होता है।
अतीस, मजीठ, इलायची, पाठा, जीरा, सोनापाठा,
त्रिफला, अजमोद, सरसों, वच, जीरा, हींग, बाय(६४८२) वत्सकादिक्वाथः (४)
बिडंग, बनतुलसी और पञ्चकोल (पीपल, पीपला(च. द. । अति. ३; शा. सं. । खं. २ अ. २ ; मूल, चव, चीता, सांठ) समान भाग ले कर काथ वृ मा.; भै. र. ; धन्व. । अतिसा. ; ग. नि.। बनावें । अथवा इनका चूर्ण करके रक्खें। अति. २ ; यो. चि. म.अ. ४ : भा. प्र.। इसके सेवनसे. वोय. कफ. मेद, पीनस. म. ख. २ ; वृ. नि. र. । रक्ताति. ;
गुल्म, ज्वर, शूल और अर्शका नाश होता है । वृ. यो. त. । त. ६४ ; हा. सं. ।
(६४८४) वत्सादन्यादिकषायः (१) ___ स्था. ३ अ. ३)
(३. मा. । वातरक्ता. ; वृ. नि. र.) सवत्सकः सातिविषः सबिल्वः सोदीच्यमुस्तैश्च कृतः कषायः।
वत्सादन्युद्भवः क्वाथ: पीतो गुग्गुलुसंयुतः। सामे सशूले सह शोणिते च।
समीरणसमायुक्तं शोणितं सम्प्रसाधयेत् ॥ चिरप्रवृत्तेऽपि हितोऽतिसारे ॥
गिलोयके काथमें गूगल मिला कर पीनेसे
वातरक्त नष्ट हो जाता है। इन्द्रजौ, अतीस, बेलगिरी, सुगन्धबाला और नागरमोथा Xसमान भाग ले कर क्वाथ बनावें ।
(६४८५) वत्सादन्यादिक्वाथः (२) इसके सेवनसे शूलयुक्त पुराना रक्तातिसार
(भा. प्र. । म. खं. २ ; वृ. नि. र. । ज्वरा.) नष्ट होता है।
वत्सादनीवत्सकवारिवाह (६४८३) वत्सकादिगणः
विश्वम्भरानिम्बविषाः सविश्वाः
ज्वराऽतिसारं त्वरितं जयन्ति ( वा. भ. । सू. अ. १५)
विश्वामृतावत्सकवारिवाहाः॥ वत्सकमूर्वाभाींकटुका
गिलोय, इन्द्रजौ, नागरमोथा, चिरायता, मरिचं घुणप्रिया च गण्डीरम् ।
नीमकी छाल, अतीस और सांठ समान भाग लेकर x भा. प्र. में कचूर अधिक लिखा है।
| काथ बनावें ।
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५६८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
-
यह काथ ज्वरातिसारको अति शीघ्र नष्ट त्रिफला, जीरा, बड़ी कटेली, हल्दी, बांस कर देता है।
| और अडूसेका काथ शहद मिला कर पीनेसे रक्त. सांठ, गिलोय, इन्द्रजौ और नागरमोथेका दोषज भयंकर ज्वर नष्ट होता है । काथ भी ज्वरातिसारको नष्ट करता है ।
(६४८९) वरुणमूलक्वाथ (६४८६) वमनोपगकषायदशकः । ( ग. नि. । ग्रन्थ्य. ; व. से. । गण्डमाला.) । (च. सं. । सू. अ. ४ )
| मधुनाऽऽढयोऽसकृत्पीतः क्वाथो वरुणमूलजः। मधुमधुककोविदारकर्बुदारनीपविदुलविम्बी- | गण्डमालां निहन्त्याशु चिरकालानुबन्धिनीम् ॥ शणपुष्पी दापुष्पी प्रत्यक्पुष्पा इति दशेमानि | बरनेकी जड़के काथमें शहद मिला कर वमनोपगानि भवन्ति ।
पीनेसे पुरानी गण्डमाला भी शीघ्र ही नष्ट हो शहद, मुलैठी. लाल कचनार, सफेद कचनार, | जाती है। कदम्ब, जलवेतस, कन्दूरी, सणपुष्पी, आक और
___ (६४९०) वरुणादिकषायः (१) अपामार्ग । ये दश ओषधियां वमनोपयोगी हैं।
(भै. र. । अश्मर्य. ; वृ. मा. ; ग. नि. । (६४८७) वयःस्थापनकषायदशकः
अश्मर्य. २९; च. द. । अश्मय. ३३ ; व. से.) (च. सं. । सू. अ. ४)
वरुणत्वकशिलाभेदशुण्ठीगोक्षुरकैः कृतः। अमृताभयाधात्रीयुक्ताश्रेयसी
कषायः क्षारसंयुक्तः शर्कराश्च भिनत्यपि ॥ जीवन्त्यतिरसामण्डूकपर्णी
बरनेकी छाल, पाषाण भेद, सोंठ और गोखरु स्थिरा पुनर्नवा इति दशेमानि
समान भाग ले कर क्वाथ बनावें। वयःस्थापनानि भवन्ति ॥
इसमें जवाखार मिला कर पीनेसे अश्मरी और गिलोय, हर्र, आमला, रास्ना, श्रेयसी (रास्ना |
शर्कराका नाश होता है। भेद), जीवन्ती, शतावर, मण्डूकपर्णी, शालपर्णी, और पुनर्नवा; ये दश ओषधियां वयःस्थापक हैं । (६४९१) वरुणादिकषायः (२)
(६४८८) वरादिक्वाथ: ( ग. नि. । अश्मर्य. २९; वृ. यो. त. । त. ( वृ. नि. र. । जीर्ण ज्वरा.)
१०२; ; वृ. मा. ; वै. र. ; च. द. । वराप्यजाजीहती हरिद्रा
अश्मय. ३३ ; यो. र. ; व. से.) घेण्वाटरूपप्रभवः कषायः। वरुणस्य त्वचं श्रेष्ठां शुण्ठीगोक्षुरसंयुताम् । जहासि दूरं मधुना विमिश्रितो यवक्षारगुडं दत्त्वा क्याथं कृत्वा पिबेद्धितम् ॥
रक्तोद्भवं दारुणजूतिवेगम् ॥ अश्मरीं वातजां हन्ति चिरकालानुबन्धिनीम् ॥
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कषायप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः बरनेकी छाल, त्रिफला, सेांठ और गोखरु बरनेकी जड़की छालके क्वाथमें उसीका कल्क समान भाग ले कर काथ बनावें।
मिला कर पीने या सहजनेकी जड़का मन्दोष्ण - इसमें गुड़ और जवाखार मिला कर पीनेसे | क्वाथ सेवन करनेसे अश्मरी निकल जाती है । चिरकालीन वातज अश्मरी नष्ट होती है ।
(६४९५) वरुणादिक्वाथः (२) (६४९२) वरुणादिकषायः (३)
( हा. सं. । स्था. ३ अ. ३५ ) ( वृ. मा. ; ग. नि. । अश्मर्य. २९; वै. र. । वरुणा वृक्षादनी चैव दशमूली शतावरी । अश्मरी ; च. द. । अश्मर्य. ३३; र. र. । अश्मय.) क्वाथपानं वातिके च मुष्कद्धौ हितावहम् ।। पिबेदरुणमूलत्वकषायं गुडसंयुतम् ।
बरनेकी छाल, बन्दा, दशमूल और शतावर अश्मरी पातयत्याशु बस्तिशूलविनाशनम् ॥
समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । बरनेकी जड़की छोलके क्वाथमें गुड़ मिलाकर
इसके सेवनसे वातज अण्डवृद्धि नष्ट होती है। पीनेसे अश्मरी निकल जाती है तथा बस्तिशूल नष्ट
(६४९६) वरुणादिक्वाथः (३) होता है।
(भै. र. । गुल्मा. ; शा. सं. । ख. २ अ. २ __(६४९३) वरुणादिकषायः (४)
यो. र. ; वृ. नि. र. । गुल्मा. ) (ग. नि. । विध्य. ; यो. र. ; व. से. ।
| वरुणो बकपुष्पश्च बिल्वापामार्गचित्रकाः । ... विद्रधि. ; वृ. यो. त. । त. ११० )
अग्निमन्थद्वयं शिग्रुद्वयश्च बृहतीद्वयम् ॥ कासीससैन्धवशिलाजतुहिङ्गचूर्ण
सैरेयकत्रय मूर्वा मेषशृङ्गी किरातकः । मिश्रीकृतो वरुणवल्कलजः कषायः।
अजशृङ्गी च बिम्बी च कराश्च शतावरी ॥ अभ्यन्तरोत्थितमपक्वमतिप्रमाणं
वरुणादिगणक्वाथः कफमेदोहरः स्मृतः । नृणामयं जयति विद्रधिमुग्रशोथम् ॥
| हन्ति गुल्मं शिरःशूलं तथाभ्यन्तरविद्रधीन् ।
। बरनेकी छालके क्वाथमें कसीस, सेंधा, शिला
बरनेकी छाल, अगस्तिके फूल, बेलकी छाल, जीत और हींगका चूर्ण मिला कर पीनेसे प्रवृद्ध |
| चिरचिटा ( अपामार्ग), चीतामूल, दोनों प्रकारकी अपक्व अन्तर्विद्रधि नष्ट हो जाती है ।
अरणीकी छाल, दोनों सहेजनेकी छाल, छोटी और (६४९४) वरुणादिक्वाथः (१) बड़ी कटेली; सफेद, पीली और नीली कटसरैया, ( वृ. मा. । अश्मरी. ; ग. नि. । अश्मय. २९; मूर्वा, मेढासिंगी, चिरायता, अजशृंगी, कन्दूरी, वै. म. र. । पटल ७; च. द. । अश्मय. ३३; । करञ्जुवा और शतावर समान भाग ले कर क्वाथ
व. से. ; वृ. नि. र.) | बनावें । पिषेवरुणमूलत्वक्क्याथ तत्कल्कसंयुतम् ।। इसके सेवनसे कफ, मेद, गुल्म, शिरशूल क्वाथश्च शिग्रुमूलोत्थः कदुष्णोऽश्मरिपातनः ॥ और अन्तर्विद्रधिका नाश होता है।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
(६४९७) वरुणादिक्वाथः (४) लाल चन्दन, पुन्नाग ( सुल्तानचम्पा ), (व से. । अश्मरी. )
पद्माक, खस, मुलैठी, मजीठ, सारिवा, क्षीरकावरुणकभस्मपरिश्रुतसलिलं तच्चूर्ण यावशूक- कोली, सफेद दूर्वा और नील दूर्वा; ये दश ओष
युतम् ।। धियां वर्ण्य हैं। क्वथनीयं तत्तावद्यावच्चूर्णत्वमायाति ॥ (६५००) वर्ड मानपिप्पलीयोगः तद्गुडयुक्तं हन्यात्तदुदारामश्मरी घोराम्। (भै. र. । प्लीह. : च. द.। प्लीहा. ३८ : ग. वह्निसदनं सुकष्टमश्ममयीमश्मरी चाशु॥
नि. । सा. रसा. १ ; यो. चि. म. । अ. ७) ____बरनेकी छालकी .राखको पानीमें घोल कर कई बार छान कर स्वच्छ पानी निकालें । ( जिस
प्र. सं. ३८२८ " पिप्पली वर्द्धमानम् " प्रकार क्षार बनानेके लिये पानी तैयार करते हैं ) | देखिये । तदनन्तर उसमें बरनेकी छालका चूर्ण और जवा- (६५०१) वर्षाभ्वादिक्वाथः खार मिला कर पुनः पकावें । जब शुष्क चूर्ण हो |
(वृ. नि. र. 1 अन्तर्विद्रधि. ) जाय तो निकाल लें। इसे गुड़में मिलाकर सेवन करनेसे घोरतर, |
वर्षाभूवरुणामिभ्यां क्वाथो विद्रधिनाशनः । पत्थरके समान कठिन और पीडादायक अश्मरी | पुनर्नवा और बरनेकी जड़का काथ विद्रतथा अग्निमांद्यका नाश होता है ।
धिको नष्ट करता है। (६४९८) वरुणादिस्वेदः (६५०२) वासकादिकषायः (१) ( ग. नि. । वाता. २०)
(व. से. ; च. द. ; भै. र. । नेत्र रोगा. ; वृ. वरुणैरण्डवातारिमुण्डयः शिग्रुः शतावरी।
यो. त.।त. १३१ ; यो. त. । त. ७१) गोक्षुरः सर्षपश्चैषां स्वेदो वातगदापहः ॥
आटरूषाभयानिम्बधात्रीमुस्ताक्षकूलकैः । ___ बरनेकी छाल, दोनों प्रकारके अरण्डकी छाल, मुण्डी, सहजनेकी छाल, शतावर, गोखरु और रक्तस्रावं कर्फ हन्ति चक्षुष्यं वासकादिकम् ॥ सरसों; इनके क्वाथकी भाप लेनेसे वातव्याधि नष्ट ___ बासा, हरे, नीमको छाल, आमला, नागरहोती है।
मोथा, बहेड़ा और पटोलपत्र समान भाग ले कर (६४९९) वर्ण्यकषायदशकः
| काथ बनावें। (च. सं. । सू. अ. ४)
इसके सेवनसे नेत्रोंसे होने वाला रक्तस्राव चन्दनतुङ्गपद्मकोशीरमधुकमभिष्ठासारिवापयस्या- और कफ नष्ट होता है । यह क्वाथ नेत्रोंके लिये सितालता इति दशेमानि वर्ष्यानि भवन्ति । । विशेष हितकारी है ।
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चतुर्थों भागः
(६५०३) वासकादिकषायः (२) | मिला कर पीनेसे ज्वर और कासको माश
होता है। (ग. नि. । ज्वरा. १)
(६५०७) वासादिकषायः (२) वासकाऽतिविषा कुष्ठं देवदारु महौषधम् ।
(शा. सं. । खं. २ अ. २ ; यो. चि. म. । मुस्ता समांशतः पीतः श्लेष्मज्वरापहः ।।
अ. ४; यो. र. ; ग.नि. । रक्तपित्ता. ८; वृ. मा. | बासा (अडूसा), अतीस, कूट, देवदारु,
___ रक्तपित्ता. ; च. सं. । चि. अ. ४ ; हा. सेांठ और नागरमोथा समान भाग ले कर
सं. । स्था. ३. अ. १०) काथ बनावें।
| आटरूषकमृद्वीका पथ्याक्याथः सशर्करः । यह क्वाथ कफज ज्वरको नष्ट करता है।
क्षौद्राढयः कसनश्वासरक्तपित्तनिबर्हणः ।। (६५०४) वासकादियोगः
बोसा, मुनक्का और हर्र समान भाग ले कर (व. से. । रक्तपित्ता.)
क्वाथ बनावें । वासकस्य रसे पथ्या सप्तधा परिभाविता। इसमें खांड और शहद मिला कर पीनेसे कृष्णा वा मधुना पीता रक्तपित्तं द्रुतं जयेत् ॥ खांसी, श्वास और रक्तपित्तका नाश होता है। ___ हरौंको अथवा पीपलको बासेके रसकी सात
(६५०८) वासादिकषायः (३) भावना दे कर सुखा लें।
(यो. र. ; वृ. नि. र. । कासा.) इन्हें शहदके साथ पीनेसे रक्तपित्त शीघ्रही वासाहरिद्राधनिकागुडूची नष्ट हो जाता है।
___ भार्गीकणानागररिङ्गणीनाम् । (६५०५) वासाकषायः
क्वाथेन मारीचरजोन्वितेन ( शा. सं. । ख. २ अ. २)
श्वासः शमं याति न कस्य पुंसः । रक्तपित्तक्षयं कासं श्लेष्मपित्तज्वरं तथा।
वासा, हल्दी, धनिया, गिलोय, भरंगी, केवलो वासकक्वाथः पीतः क्षौद्रेण नाशयेत् ॥
है| पीपल, सांठ और कटेली समान भाग ले कर केवल बांसेके क्वाथमें शहद मिला कर |
क्वाथ बनावें। पीनेसे रक्तपित्त, क्षय, खांसी और कफ पित्तज
इसमें काली मिर्चका चूर्ण मिला कर पीनेसे ज्वरको नाश होता है।
श्वास नष्ट होता हैं।
___ (६५०९) वासादिकषायः (४) (६५०६) वोसादिकषायः (१)
(व. से. । अम्लपित्ता, ; वृ. मा. ; ग. नि. । (शा. सं.। खं. २ अ.२ ; भा. प्र. । म. खं. २)
अम्लपित्ता. ३८) वासाक्षुद्रामृताक्वाथः क्षौद्रेण ज्वरकासहा ॥ वासानिम्बपटोलत्रिफलासनयासयोजितो जयति
बासा, कटेली और गिलोयके क्वाथमें शहद । अधिककफमम्लपित्तं प्रयोजितो गुग्गुलुः क्रमशः॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
बासा, नीमकी छाल, पटोल, त्रिफला, (६५१२) वासादिकषायः (७) असना और जवासा समान भाग ले कर क्वाथ | ( वृ. मा. । रक्तपित्ता. ; हा. सं. । स्था. ३ बनावें ।
अ. १० ; यो. र.; ग. नि. । रक्तपित्ता. ८ ) इसमें गूगल मिला कर पिलानेसे कफ प्रधान
वासायां विद्यमानायामाशायां जीवितस्य च । अम्लपित्त नष्ट होता है।
रक्तपित्ती क्षयी कासी किमर्थमवसीदति ॥ (६५१०) वासादिकषायः (५)
यदि रोगीके जीवनकी आशा हो और बासा (वृ. मा. । ज्वरा. ; ग. नि. । ज्वरा. १ ; हा. | (असा) मौजद हो तो रक्तपित्त, क्षय और सं. । स्था. ३ अ. २; यो. र. । विषमज्वरा. ;
खांसीके रोगीको कष्ट उठानेकी क्या आवश्यकता र. र. । ज्वरा.)
है । इन रोगोंमें बासा अवश्य लाभ पहुंचाता है । वासाधात्रीस्थिरा' दारुपथ्या नागरसाधितः ।।
(६५१३) वासादिकषायः (८) सितामधुयुतः क्वाथश्चातुर्थिकनिवारणः ॥
(हा. सं. । स्था. ३ अ. २) ___बासा (अडूसा), आमला, शालपर्णी, देवदारु,
वासागडूचीत्रिफला पटोली हर और सोंठ समान भाग ले कर क्वाथ बनावें ।
सठी च तिक्ता मधुना कषायम् । ___ इसमें मिश्री और शहद मिला कर पीनेसे
श्लेष्मप्रभूतेषु रुजेषु सम्यक्चातुर्थिक ज्वर नष्ट होता है।
ज्वरं निहन्यात् कफजं च शीघ्रम् ।। (६५११) वासादिकषायः (६)
बासा (अडूसा), गिलोय, त्रिफला, पटोल, (. मा. । रक्तपित्तो. ; हा. सं. । स्था. ३.
कचूर और कुटकी समान भाग ले कर क्वाथ अ. १० ; यो. र. ; वृ. नि. र.) वासाकषायोत्पलमृत्मियङ्ग
इसमें शहद मिला कर पीनेसे कफज ज्वर ___ लोध्राअनाम्भोरुहकेसराणि । पीत्वा सिताक्षौद्रयुतानि जह्या
शीघ्रही नष्ट हो जाता है। पित्तासृजो वेगमुदीर्णमाशु ॥ ___ (६५१४) वासादिकषायः (९) बासेके क्वाथमें नीलोत्पल, सौराष्ट मृत्तिका, (यो. र. । विषमज्वरा.) फूल प्रियंगु, लोध, सुरमा और कमलकेसरका | | वासापटालत्रिफला द्राक्षाशम्पाकनिम्बजः । चूर्ण तथा मिश्री और शहद मिला कर पीनेसे प्रबल समधु ससितः क्वाथो हन्यादेकाहिकं ज्वरम् ।। रक्तपित्तभी नष्ट हो जाता है।
____बासा, पटोल, त्रिफला, मुनक्का, अमलतास १ फला इति पाठान्तरम्
और नीमकी छाल समान भाग ले कर क्वाथ २ धान्येति पाठान्तरम्
बनावें।
बनावें।
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५७३
कषायप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः इसमें शहद और मिश्री मिला कर पीनेसे | __ बासा (अडूसा), कटेली, गिलोय, नागरमोथा, इकतरा ज्वर नष्ट होता है।
सेठ और आमला समान भाग ले कर क्वाथ (६५१५) वासादिकषायः (१०) ।
बनावें। (वृ. नि. र. । कफवरा.)
__इसमें पीपलका चूर्ण और शहद मिला कर
पीनेसे विषमज्वर नष्ट होता है । वासाविशालादशमूलगौरी महौषधं पुष्करभागियुक्ता।
(६५१८) वासादिक्वाथः (२)
( यो. त । त. ७०) एषां कषायो विनिहन्ति कासं
वासामृतावचाव्याघ्रीपटोलत्रिफलादलैः । कफज्वरं शूलनिवर्त्तनं च ॥
मतिमान्पाययेत्क्याथं सर्वाभिष्यन्दनाशनम् ॥ बासा, इन्द्रायणकी जड़, दशमूल, हल्दी, |
वासा, गिलोय, बच, कटेली, पटोल, त्रिफला सोंठ, पोखरमूल और भरंगी समान भाग ले कर |
और तेजपातका क्वाथ पीनेसे समस्त नेत्राभिष्यन्द क्वाथ बनावें।
नष्ट होते हैं। ___यह क्वाथ खांसी, कफवर और शूलको नष्ट
(६५१९) वासादिक्वाथः (३) करता है।
( वृ. यो. त. । त. ९१ ; ग. नि. । वातरक्ता. (६५१६) वासादिकषायः (११) २० ; वृ. मा. ; व, से. ; वृ. नि. र. । (व. से. । अम्लपित्ता. ; रे. र. ; वृ. मा.;
वातरक्ता.) च. द. । अम्लपित्ता. ५८)
वासागुडूचीचतुरङ्गलानावासामृतापर्पटकनिम्बभूनिम्बमार्कवैः ।
मेरण्डतैलेन पिवेत्कषायम् । त्रिफलाकुलकैः क्वाथः सक्षौद्रश्चाम्लपित्तहा ॥ क्रमेण सर्वाङ्गजमप्यशेष बासा, गिलोय, पित्तपापड़ा, नीमकी छाल,
जयेदमृग्वातभवं विकारम् ॥ चिरायता, भंगरा, त्रिफला और पटोल समान भाग
वासा, गिलोय और अमलतासका गूदा समान
भाग ले कर क्वाथ बनावें । ले कर क्वाथ बनावें।
इसमें अण्डीका तेल मिला कर पीनेसे सर्वाङ्गइसमें शहद मिला कर पीनेसे अम्लपित्त नष्ट में व्याप्त वातरक्तका नाश होता है । होता है।
(६५२०) वासादिक्वाथः (४) (६५१७) वासादिक्वाथः (१)
(हा. सं. । स्थो. ३ अ. ४२) (यो. चि. म. । अ. ४)
वासाविडङ्गपिचुमन्दपटोलपाठा वासाक्षुद्रामृतामुस्ता शुण्ठीधात्री समाक्षिका। शुण्ठीसुरेन्द्रतरुभिर्दशमूलपथ्याः । पिप्पली चूर्णसंयुक्ता विषमज्वरनाशनम् ॥ क्वाथो निहन्ति च मरुत्पभवं च कुष्ठम्
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५७४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
. वासा [अडूसा), बायबिडंग, नीमकी छाल, _ (६५२३) विडङ्गादिक्वाथः (२) पटोल, पाठा, सेांठ, देवदारु, दशमूल और हर्रका ( भै. र. । अर्शा.) काथ वातज कुष्ठको नष्ट करता है ।
विडङ्गपत्रकेशरशुण्ठीसमैला (६५२१) वासादिक्वाथः (५) । कुस्तुम्बुरुधान्यकतिलानाम् । (ग. नि. । श्वयथु. ३३ ; र. र. । अम्लपित्ता.) क्याथो हरीतकीसर्पिर्गुडेन सिंहास्यामृतभण्टाकीक्वार्थ
पीतो निहन्ति गुदे गुदजानि ॥ पीत्वा समाक्षिकम् ।
बायबिडंग, तेजपात, नागकेसर, सोंठ, इलाकृच्छ्रशोथं जयेज्जन्तुः
यची, नेपाली धनिया, धनिया और तिल समान कासं श्वासं ज्वरं वमिम् ॥
भाग ले कर क्वाथ बनावें । बासा (अडूसा), गिलोय और बड़ी कटेली |
इसमें हर्रका चूर्ण, गुड़ और घी मिला कर समान भाग ले कर क्वाथ बनावें ।
पीनेसे अर्शका नाश होता है । इसमें शहद मिला कर पीनेसे मूत्रकृच्छ,
। (६५२४) विडङ्गादिक्वाथः (३) शोथ, खांसी, श्वास, ज्वर और वमनका नाश
( वृ. नि. र. । अतिसारा. ; व. से. ; वृ. मा.) होता है।
विडङ्गातिविषामुस्ता दारुपाठाकलिङ्गकम् । वासादिक्वाथः (६) (महा)
मरीचेन समायुक्तं शोथातीसारनाशनम् ॥ (यो. त. । त. ७१)
बायबिडंग, अतीस, नागरमोथा, देवदारु, प्र. सं. ५०१३ “ महा वासादि काथः"
पाठा. इन्द्रजौ और काली मिर्च समान भाग ले कर देखिये।
क्वाथ बनावें। (६५२२) विडङ्गादिक्वाथः (१)
यह क्वाथ शोथातिसारको नष्ट करता है। (मै. र. । प्रमेहा. ; हा. सं. । स्था. ३ अ. ३१)
। (६५२५) विडङ्गादिक्वाथः (४) विडङ्गसर्जार्जुनकटफलानां
__(यो. र. । प्रमे.) कदम्बरोधासनवृक्षकाणाम् ।
| विडारजनीयष्टीनागरगोक्षुरैः कृतः । जलेन क्वाथश्च हितो नराणां कफप्रमेहेण सदातुराणाम् ॥
| कषायो मधुना हन्ति प्रमेहान्दुस्तरानपि ॥ बायबिडंग, शालवृक्षकी छाल, अर्जुनकी | । बायबिडंग, हल्दी, मुलैठी, सेांठ और गोखरु छाल, कायफल, कदम्ब, लोध और असनावृक्षकी समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । छाल समान भाग ले कर क्वाथ बनावें।
इसमें शहद मिला कर पीनेसे भयंकर प्रमेह यह काथ कफज प्रमेहको नष्ट करता है। भी नष्ट हो जाते हैं।
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कषायप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
५७५
-
(६५२६) विडङ्गादियोगः यह विदारीगन्धादि गण पित्त, वायु, शोष, ( वृ. नि. र. । आमातिसारा.)
गुल्म, अङ्गमर्द, उर्ध्वश्वास और खांसीको नष्ट
करता है। दीप्ताग्निर्बहुदोषो योविबद्धमतिसार्यते । विडात्रिफलाकृष्णाकषायैस्तं विरेचयेत् ॥ . ___ (६५२९) विदार्यादियोगः यदि अतिसारके रोगीकी अग्नि दीप्त हो और
(र. र. । शूला.) दोष अधिक हों तो उसे बायबिडंग, त्रिफला और | विदारीदाडिमरसः सव्योषलवणान्वितः । पीपलके काथसे विरेचन देना चाहिये। क्षौद्रयुक्तो जयत्याशु शूलं दोषत्रयोद्भवम् । (६५२७) विज्जलस्वरसः
। विदारीकन्द और अनारके रसमें त्रिकुटे ( वृ. मा. । अतिसारा.)
| ( सोंठ, मिर्च, पीपल ) और सेंधा नमकका चूर्ण
मिला कर पीनेसे त्रिदोषज शूल शीघ्र ही नष्ट हो दलोत्यः स्वरसः पीतो विज्जलस्य समाक्षिकः।
" जोता है। जयत्याममतीसारं क्वाथो वा कुटजत्वचः ॥
(६५३०) विरेचनोपगकषायदशकः पीले फूलकी खरैटीके पत्तोंके रसमें अथवा कुड़ेकी छालके क्वाथमें शहद मिला कर पीनेसे
(च.। सू. अ. ४) आमातिसार नष्ट होता है ।।
द्राक्षाकाश्म>परूषकाभयामलकविभी(६५२८) विदारीगन्धादिगणः ।
तककुवलवदरकर्षन्धूपीलूनीति दशेमानि विरे
चनोपगानि भवन्ति । (सु. सं. । अ. ३८) विदारीगन्धाविदारी सहदेवो विश्वदेवा । बहेडा, कुवल ( मध्यम आकारका बेर), बदर
___ मुनक्का, खम्भारी, फालसा, हर्र, आमला, श्वदंष्ट्रा पृथपर्णी शतावरी सारिवा कृष्ण
(बड़ा बेर), कर्कन्धू ( छोटा बेर ) और पीलु । सारिवाजीवकर्षभको महासहाक्षुद्रसहा वृहत्यौ
ये दश ओषधियां विरेचनमें प्रयुक्त होती हैं। पुनर्नवैरण्डो हंसपादीवृश्चिकाल्वृषभीचेति । विदारीगन्धादिरयं गणः पित्तानिलापहः ।
(६५३१) विशालादिक्वाथः शोषगुल्माङ्गमर्दोर्ध्वश्वासकासविनाशनः ॥
(ग. नि. । श्वयथु. ३३) शालपर्णी, विदारीकन्द, खरैटी, गंगेरन, | विशाला त्रिफला तिक्ता गवाक्षी रजनी त्रिवृत। गोखरु, पृष्ठपर्णी, शतावर, सारिवा, कृष्णसारिवा, | पटोलमूलं त्रायन्ती तुल्या द्वयंशं महौषधम् ॥ जीवक, ऋषभक, माषपर्णी, मुद्गपर्णी, कटेली, क्वाथोऽयं पित्तशोफन्नः पीतो वाऽऽमलकाकटेला, पुनर्नवा, अरण्डमूल, हंसपादी, वृश्चिकाली
द्रसः॥ और कौंच ।
इन्द्रायन, त्रिफला, कुटकी, महाबला, हल्दी,
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
निसोत, पटोलकी जड़ और त्रायमाणा १-१ भाग (६५३४) विश्वादिकषायः (३) तथा सेठ २ भाग ले कर क्वाथ बनावें। (ग. नि. । शूला. २३; भै. र. ; वृ. नि. र. ; यह क्वाथ अथवा आमलेका रस पीनेसे
व. से. । शूला.) पित्तज शोथ नष्ट होता है।
विश्वामेरण्ड मूलं क्वाथयित्वा जलं पिबेत् । (६५३२) विश्वादिकषायः (१) हिसौवर्चलोपेतं सद्यः शूलनिवारणम् ।। (यो. र. ; वृ. नि. र. । आमातिसारा. ; यो. | सेठ, और अरण्डकी जड़ समान भाग ले त.। त. २१)
कर क्वाथ बनावें। विश्वाभयाघनवचातिविषासुराह
इसमें हींग और काला नमक मिलाकर पीनेसे क्वाथोऽथ विश्वजलदातिविषागृतो वा। शूल नष्ट होता है । आमातिसारशमनः कथितः कषायः (६५३५) विश्वादिकषायः (४) शुण्ठीघनापतिविषामृतवल्लिजो वा ॥
(व. से. ; वृ. नि. र. । ज्वरा.) (१) सांठ, हरं, नागरमोथा, बच, अतीस | विश्वासताब्दभ्रनिम्बैः पञ्चमूलीसमन्वितैः । और देवदारु ।
कृतः कषायो हन्त्याशु वात पित्तभवं ज्वरम् ॥ (२) साठ, नागरमाथा, आर अतीस । सेठ, गिलोय, नागरमोथा, चिरायता और (३) सांठ, नागरमोथा, अतीस और गिलोय। पञ्चमूल ( शालपर्णी, पृष्टपर्णा, कटेली, कटेला,
ये तीनों क्वाथ आमातिसारको नष्ट | गोखरु ) समान भाग ले कर काथ बनावें । करते हैं।
इसके सेवनसे वातपित्त ज्वर नष्ट होता है। नोट-गदनिग्रहमें काथ नं. २ और ३ (६५३६) विश्वादिकषायः (५) संग्रहणी रोगमें लिखे हैं।
(भै. र. ; वृ. मा. । ज्वरा.'; वृ. नि. र. ; (६५३३) विश्वादिकषायः (२)
व. से. । ज्वरा.) (व. से. । शूला. ) | विश्वाम्बुपर्पटोशीरघनचन्दनसाधितम् । विश्वैरण्डयवक्वाथ: सद्यः शूलनिवारणः। | दद्यात्सु शीतलं वारि तृछदिज्वरदाहनुत् ।। तद्वदिन्द्रयवक्वाथो हिङ्गुसौवर्चलान्वितः ॥ सेठ, सुगन्धबाला, पित्त पापड़ा, खस, नाग
सोंठ, अरण्डमूल और इन्द्रजौका काथ शूलको | रमोथा, और लाल चन्दन समान भाग ले कर अत्यन्त शीघ्र नष्ट कर देता है।
| क्वाथ बनावें । ... इन्द्रजौके क्वाथमें हींग और काला नमक इसे ठण्डा करके पिलानेसे पिपासा, छर्दि, मिला कर पीनेसे भी शूल नष्ट होता है। ज्वर और दाहका नाश होता है।
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कषायप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः (६९३७) विश्वादिकषायः (६)
(६५४०) विश्वादिकषायः (९) ( वृ. मा. । अजीर्णा.)
( हा. सं. । स्था. ३ अ. ४)
विश्वोपकुल्यामरिचं शठीनां विश्वाभयागुडूचीनां कषायेण षडूषणम् ।
यवानिकाचित्रहरीतकीनाम् । पिवेच्छ्लेष्मणि मन्देऽग्नौ त्वक्पत्रसृरभी कृतम्।।
क्वाथो यकृत्पाचनकेपि शस्तः सांठ, हर्र और गिलोय के क्वाथमें पीपल,
___ आनाहगुल्मातिविषूचिकानाम् । पीपलामूल, चव, चीता, सेांठ और मरिचका चूर्ण |
सेठ, पीपल, काली मिर्च, कचूर, अजवायन, मिला कर और उसे तेजपात तथा दालचीनीके चीता और हर्र समान भाग ले कर वाथ बनावें। चूर्णसे सुगन्धित करके पीनेसे कफज अग्निमांद्य नष्ट
यह काथ यकृतगुल्मको पचाने में उपयोगी होता है।
है तथा अफारा, गुल्म और विषूचिकाको नष्ट (६५३८) विश्वादिकषायः (७) | करता है। (भै. र. । ज्वरा.)
(६५४१) विश्वादिकषायः (१०)
(ग. नि. । ज्वरा. १) विश्वामृताग्रन्थिकसिद्धतोयं मरुज्ज्वरः स्यात् पिबतः कुतोऽयम् ।
विश्वौषधच्छिन्नरुहाकिरातक्याथोऽथ कुस्तुम्बुरुदेवदारू
तिक्तैः समुस्तैः क्वथितं जलं यः ।
पिबत्यसौ न ज्वरसम्भवानाक्षुद्रौषधैः पाचनमत्र चारु॥
___ माधारतामेति रुजां कदाचित् ॥ सोंठ, गिलोय और पीपलामूलका अथवा
सेठ, गिलोय, चिरायता और नागरमोथा धनिया, देवदारु, कटेली और सांठका क्वाथ वात
समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । ज्वरको नष्ट करता है।
यह क्वाथ ज्वरको नष्ट करता है । (६५३९) विश्वादिकषायः (८) (६५४२) विश्वादिकषायः (११) (वृहद) (ग. नि. । ज्वरा. १)
( वृ. मा. । शूला. ; च. द. ; र. र. । शूला.)
विश्वोरुबूकदशमूलयवाम्भसा च सर्वज्वरमशमनार्थमुदाहरन्ति
द्विक्षारहिङ्गुलवणत्रयपुष्कराणाम् । विश्वौषधेन सह पर्पटकं मुनीन्द्राः। चूर्ण पिबेद्धदयपार्श्वकटीग्रहामसेठि और पित्त पापड़ा समान भाग ले कर पक्वाशयां स भृशरुग्ज्वरगुल्मशूली ॥ क्वाथ बनावें ।
सांठ, अरण्डमूल, दशमूल और इन्द्रजौके यह क्वाथ समस्त ज्वरोको नष्ट करता है । ! क्वाथमें जवाखार, सज्जीखार, हींग, सेंधानमक, ७३
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५७८ भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[वकारादि काला नमक, बिड नमक और पोखरमूलका चूर्ण | (६५४५) वीरता दिक्वाथ: मिला कर पीनेसे हृदय और पसलीका शूल कटी. ( शा. सं. । खं. २ अ. २ ; वृ. नि. र. । ग्रह, आमाशय शूल, पक्वाशय शूल, ज्वर और
मूत्रा ; यो. र.) गुल्मका नाश होता है।
वीरतरुक्षवृन्दा कासः सहचरत्रयम् । (६५४३) विश्वादिद्वादशाङ्गक्वाथः कुशद्वयं नलो गुन्द्रा बकपुष्पोऽग्निमन्थकः ॥ ... (ग. नि. । वाता. १९ ) मूर्वापाषाणभेदश्च श्योनाको गोक्षुरस्तथा । विश्वैरण्ड शिफादारुवचाः शुण्ठी दुरालभा अपामार्गश्च कमलं ब्राह्मी चेति गणो वरः ॥ अभयाऽतिविषा मुस्ता शतमूली वृषोऽमृता। वीरतर्वादिरित्युक्तः शर्कराश्मरीकृच्छ्रहा। अमीषां क्याथपानेन मांसोमश्लेषसन्धिगः मूत्राघातं वायुरोगानाशयेन्निखिलानपि ॥ मज्जास्थिस्नायुसर्वाङ्गवायुर्नश्यति निश्चितम् ॥ अर्जुन वृक्षकी छाल, तुलसी, कांसकी जड़,
सेठ, अरण्डमूल, देवदारु, बच, सोंठ, धमासा, | सफेद, पीले और नीले फूलका पियाबांसा, दो हर्र, अतीस, नागरमोथा, शतावर, बासा और | प्रकारकी कुश, नल, दाभ, अगस्ति पुष्प, अरनी, गिलोय समान भाग ले कर क्वाथ बनावें ।। | मूर्वा, पाषाणभेद, अरलुकी छाल, गोखरु, चिरचिटे
यह क्वाथ मांसगत, 'सन्धिगत, मज्जागत, | (अपामार्ग) की जड़, कमल और ब्राह्मी समान अस्थिगत, स्नायुगत और सर्वाङ्गगत वायुको नष्टः | भाग ले कर क्वाथ बनावें । करता है।
___यह क्वाथ शर्करा, अश्मरी, मूत्रकृच्छ, मूत्रा(६५४४) विष्णुप्रियादिक्वाथ:
घात और समस्त वायु रोगोंको नष्ट करता है । (ग. नि. । कृम्य. ६)
(६५४६) वृषादिक्वाथः (१) विष्णुप्रियारात्रिफणिज्जकार्क
(वैद्यामृत ) . कुठेरकासारिकसिन्दुवारैः।
वृषदारुनिशाकिरातभल्ली कृतः कषायः क्रिमिनाशनाय ।
- रसजाम्भोधरबिल्वजः कषायः । पलाशबीजप्रतिवापयोगात् ।।
मधुना मधुरी कृतो निहन्ति तुलसी, हल्दी, फणिज्जक ( तुलसी भेद- विविधानि प्रदराणि कामिनीनाम् ॥ मरवा ), आककी जड़की छाल, कुठेरक (बन
बासो, देवदारु, हल्दी, चिरायता, भिलावा, तुलसी), कासारि ( कसौंदी) और संभालु समान रसौत, नागरमोथा और बेलगिरी समान भाग ले भाग ले कर क्वाथ बनावें ।
कर क्वाथ बनावें । . इसमें ढाकके बीजोंका चूर्ण मिला कर पीनेसे इसे शहदसे मीठा करके पीनेसे स्त्रियोंका कृमि नष्ट हो जाते हैं।
| अनेक प्रकारका प्रदर रोग नष्ट होता है।
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कायमकरणम् ]
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चतुर्थी भागः
(६५४७) वृषादिक्वाथः (२) (वृ.नि. | जीर्णज्वरा.)
वृषो दुरालभा श्यामा पर्पटः कटुरोहिणी । किरातमथ एतेषां क्वाथः पीतः सितायुतः ॥ रक्तोद्भवं महादाहं तृष्णां मूर्छा मतिभ्रमम् । पित्तज्वरं हरत्याशु पापमीशो यथास्मृतः ॥
बासा, धमासा, गिलोय, पित्तपापड़ा, कुटकी और चिरायता समान भाग ले कर चूर्ण बनावें ।
इसमें मिश्री मिला कर पीने से भयंकर रक्तदाह, तृष्णा, मूछों, मतिभ्रम और पित्तज्वर नष्ट होता है ।
(६५४८) बृहच्चन्दनादिक्वाथः ( यो. चि. म. । अ. ४ ) मलयजपिचुविश्वाश्रीफलं पद्मकं च जलरुहक मुस्ता सारिवा हारहूरा । अतिविषयत्रयष्टीकल्पितस्तुल्यभागे
रति गुरु विवाधां पित्तसन्तापमूर्छाम् ॥ लाल चन्दन, नीमकी छाल, सांठ, बेलकी छाल, पद्मा, कमल, कुटकी, नागरमोथा, सारिवा, मुनक्का, अतीस, इन्द्रजौ और मुलैठी समान भाग लेकर क्वाथ बनावें ।
यह क्वाथ पित्तज ज्वर और मूर्च्छाको नष्ट
करता है ।
(६५४९) वृह्च्छठयादिक्वाथः ( वृ. मा.' ; व. से. । ज्वरा. ) शठी पुष्करमूलं च गुडूची विश्वभेषजम् । तिक्तकं त्रायमाणं च पिप्पलो च दुरालभा ॥
१. त्रिकण्टकमिति पाठान्तरम् ।
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५७९
व्याघ्रीपर्पटको रास्ना अभया कटुरोहिणी । देवदारु च भार्गी च समभागानि कारयेत् ॥ बृहच्छादिको वर्गः सन्निपातज्वरापहः । ari श्वासं दिवा निद्रां रात्रौ जागरणं तथा ॥ मुखशोषं च तृष्णां च दाहं च शमयत्यपि ॥
कचूर, पोखरमूल, गिलोय, सोंठ, पटोल ( पाठान्तर के अनुसार गोखरु ), त्रायमाणा, पीपल, धमासा, कटेली, पित्तपापड़ा, रास्ना, हर्र, कुटकी, देवदारु और भरंगी समान भाग ले कर क्वाथ बनावें ।
यह काथ सन्निपात, खांसी, श्वास, दिनमें नींद आना, रातको नींद न आना, मुखशोष, तृष्णा और दाहको नष्ट करता है ।
(६५५०) वृहच्छठचादिक्वाथः ( यो. चि. । अ. ४ ) सठी पटोलद्विनिशोग्रगन्धा
वासा किरातं दशमूलधारा । सहाचरी भार्गव सभृङ्गी
रास्नेन्द्रबीजं सुरदारुशिग्रुः ॥ दुरालभाधान्यकशुण्ठीपाठा
सुरेन्द्रकन्दं सहरीतकीभिः । त्रायन्ति केन्द्री कटुकागदे च कषायमेषां विहितः सवायौ ॥ श्लेष्मज्वरे काससखासशुले ताधिके रोगिण शीतके च ।
चिरज्वरेदुष्टलग्रहेऽपि नूनं हितोयं सततं सव्यादि ॥ कचूर, पटोल, हल्दी, दारूहल्दी, बच, बासा, चिरायता, दशमूल, गिलोय, कटसरैया,
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५८० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि भरंगी, शतावर, काकड़ासिंगी, रास्ना, इन्द्रजौ, | कचूर, दालचीनी, पीपल, कुटकी, हर्र, सुगन्धबाला, देवदारु, सहजनेकी छाल, धमासा, धनिया, सांठ. | चिरायता, भरंगी, हींग, खरैटी, दशमूल, और पीपपाठा, कटुसूरण, हर, त्रायमाणा, बड़ी इलायची. | लामूल समान भाग ले कर काथ बनावें । कुटकी और कूठ समान भाग ले कर काथ बनावें।
इसमें हींग और अदरकका रस मिलाकर
पिलानेसे सन्निपात नष्ट होता है । यह काथ वातकफज ज्वर, खांसी, श्वास, शूल,
इसके अतिरिक्त यह काथ गलगण्ड, गण्डबात प्रधान रोग, शीत, जीर्णज्वर और दुष्ट मल.
माला, स्वरभेद, गलरोग, कर्णमूलकी सूजन, हनु ग्रहको नष्ट करता है। (६५५१) वृहच्छालिपादिक्याथः ।
रोग, मुख रोग, कफवात ज्वर, कास, शिरो रोग,
शिरका भारीपन और कफ वातज बधिरताको भी (वृ. यो. त. । त. ६४ )
नष्ट करता है। शालिपर्णी पृश्निपर्णी बृहती कण्टकारिका।
(६५५३) वृहत्क्षुद्रादिकाथः बलाश्वदंष्ट्रा बिल्याग्नि पाठानागरधान्यकम् ।।
(वै. र. । ज्वर.) एतदाहारसंयोगो हितं सर्वातिसारिणाम् ।।
| क्षुद्राधान्यकशुण्ठीभिर्गुडूचीमुस्तपद्मकैः । शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, छोटी और बड़ी कटेली,
| रक्तचन्दनभूनिम्बपटोलवृषपौष्करैः॥ खरैटी, गोखरु, बेलछाल, चीता, पाठा, सेठ, और कटुकेन्द्रयवारिष्टभागीपर्पटकैः समैः । धनिया इनके काथसे आहार बना कर देना अति
क्वार्थ पातनिषेवेत सर्बशीतज्वरापहम् ॥ सारमें हितकारी है।
____ कटेली, धनिया, सेठ, गिलोय, नागरमोथा, (६५५२) वृहत् कट्फलादिक्वाथः पनाक, लाल चन्दन, चिरायता, पटोल, बासा, ( भै. र. । ज्वरा,)
पोखरमूल, कुटकी, इन्द्रजौ, नीमकी छाल, भरंगी करफलाब्दवचापाठापुष्कराजाजिपर्पटैः। और पित्तपापड़ा समान भाग ले कर काथ बनावें । शृङ्गीकलिङ्गधन्याकं शटीभृङ्गकणाद्वयम् ॥ | इसे प्रातः काल पीनेसे समस्त शीत ज्वर तिक्ताभयाम्बुकैरानं भार्गी रामठकं बला। नष्ट होते हैं। दशमूली कणामूलं निःक्वाथ्य क्याथमुत्तमम् ॥ वृहत्त्रायमाणादिक्वाथ: हिवाकरसोपेतं सन्निपातविनाशनम् ।
( यो. चि. म. | अ. ४) गलगण्डं गण्डमालां स्वरभेदं गलामयान् ॥ प्र. सं. २२४६ " त्रायमाणादि क्वाथः " कर्णमूलोद्भवं शोथं हन्यानुमुखामयान् । । (वृहद् ) देखिये । कफवातज्वरं कास तथा हन्ति शिरोगदान् ।। (६५५४) वृहत्पञ्चमूल्यादिक्वाथः शिरोगुरुत्वं बाधिर्य निहन्ति कफवातिकम् ॥ (भै. र. । ज्वरातिसारा.) ___ कायफल, नागरमोथा, बच, पाठा, पोखरमूल, पञ्चमूलीशृङ्गवेरशृङ्गाटकञ्चटं धनम् । जीरा, पित्तपापड़ा, काकडासिंगी, इन्द्रजौ, धनिया, जम्बूदाडिमपत्रश्च बला बालं गुचिका ॥
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कवायपकरणम् ]
चतुर्थों भागः
पाठा विल्वं समगा च कुटजत्वक् फलं तथा । (६५५६) वृहत्पिप्पल्यादिक्काथः धान्यकं धातकीक्वायं विषा जीरकसंयुतम् ॥ ( भा. प्र. । ज्वर. ; वृ. नि. र. । वातकफज्वर.) पिबेत् ज्वरातीसारे च सरक्ते वाप्यरक्तके। पिप्पली पिप्पलीमूलं चव्यचित्रकनागरम् । अपि योगशतैस्त्यक्ते चासाध्ये सर्वरूपके ॥ वचा सातिविषाजाजी पाठावत्सकरेणुका ॥
पञ्चमूल (बेल, अरलु, खम्भारी, पाढल, | किराततिक्तको मूर्वा सर्पपा मरिचानि च । अरणी ), सोंठ, सिंघाड़ा, कश्चट ( जल चौलाई ), कट्फलं पुष्करं भाी विडङ्ग कर्कटाहयम् । नागरमोथा, जामनके पत्ते, अनारके पत्ते, खरैटी, | अर्कमलं बृहत्सिही श्रेयसी सदुरालभा। सुगन्धबाला, गिलोय, पाठा, बेलगिरी, मजीठं,
दीप्यकश्चाजमोदा च शुकनासा सहिङ्गुका ॥ कुड़ेकी छाल, इन्द्रजौ, धनिया और धायके फूल एतानि समभागानि गण एकोऽष्टविंशतिः । समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । | एषां काथो निपीतः स्याद्वात्श्लेष्मज्वरापहः ॥
इसमें अतीस और जीरका चूर्ण मिला कर | हन्ति वातं तथा शीतं प्रस्वेदमति वेपथुम् । पीनेसे रक्तसहित तथा रक्तरहित ज्वरातिसार नष्ट प्रलापञ्चाति निद्राश्च रोमहर्षारुची तथा ॥ हो जाता है।
महावातेऽपतन्त्रे च शून्यत्वे सर्वगात्रजे । ___सैकड़ों योगोंसे आराम न होने वाला असाध्य | पिप्पल्यादि महाकाथो ज्वरे सर्वत्र पूजितः। ज्वरातिसार भी इससे नष्ट हो जाता है ।
पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सेठ, बच, बृहत्पञ्चमूल्यादिक्वाथः अतीस, जीरा, पाठा, इन्द्रजौ, रेणुका, चिरायता, ( भा. प्र. । ज्वरा.)
मूर्वा, सरसों, काली मिर्च, कायफल, पोखरमूल, प्रयोग संख्या ३६९८ देखिये । भरंगी, बायबिडंग; काकड़ासिंगी, आककी जड़, (६५५५) वृहत्पटोलादिकाथ:
बड़ी कटेली, गजपीपल, धमासा, अजवायन, (यो. र. । मसूरि; वृ. यो. त. । त. १२६)
अजमोद, कौंच और हींग समान भाग ले कर पटोलं सारिवा मुस्तं पाठाकटुकरोहिणी ।
क्वाथ बनावें । खदिरः पिचुमन्दश्च बळा धात्री विकङ्कतः ॥ यह क्वाथ वातकफ, ज्वर, शीत, प्ररवेद, एषां कषायपानं तु हन्ति वातममूरिकाम् ॥ अत्यन्त कम्पन, प्रलाप, अति निद्रा, रोमहर्ष,
पटोल, सोरिवा, नागरमोथा, पाठा, कुटकी, अरुचि, महावात, अपतन्त्रक, समस्त शरीरकी खैरकी छाल, नीमकी छाल, खरैटी, आमला और
शून्यता और हर प्रकारके ज्वरको नष्ट करता है । विकङ्कत ( कण्टाई ) समान भाग ले कर क्वाथ वृहद्गुडूच्यादिकाथः बनावें।
(वै. र. ; भा. प्र. म. खं. । ज्वरातिसार.) यह क्वाथ वातज मसूरिकाको नष्ट करता है।। प्रयोग संख्या ११७४ देखिये ।
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६८२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
वृहद्गुडूच्यादिकाथः
(६५५९) वृहद्रास्नादिकाथ: (भै. र. । ज्वरा.)
( हा. सं. । स्था. ३ अ. २) प्रयोग संख्या ११८४ देखिये।
रास्ना गुडूची घनपर्पटक पटोली (६५५७) वृहडाव्यादिकाथ:
भूनिम्बवत्सकसठीयुतनागराणाम् ।
तिक्तासुराहगजमागधिका यवास(भै. र. । मूत्रकृच्छ्रा .)
वासाबला गजबला कथितः समांशः ॥ धात्री द्राक्षा च यष्टयाई विदारी सत्रिकण्टका।
काथो निहन्ति मरुतप्रभवामयानां दर्भेक्षु मूलमभया कायित्वा जलं पिबेत् ॥
सश्वासकासजठरातिविचिकानाम् । ससितं मूत्रकृच्छन्नं रुजादाहहरं परम् ॥
श्रेष्ठो नृणां भवति दारुणसन्निपाते आमला, मुनक्का, मुलैठी, बिदारीकन्द, गोखरु, रोगेऽथवा कफसमीरणके प्रदेयः ॥ दाभ, ईखकी जड़ और हर्र समान भाग ले कर
रास्ना, गिलोय, नागरमोथा, पित्त पापड़ा, क्वाथ बनावें।
पटोल, चिरायता, इन्द्रजौ, कचूर, सोंठ, कुटकी, इसमें मिश्री मिला कर पीनेसे मूत्रकृच्छू दाह देवदारु, गजपीपल, जवासा, बासा, खरैटी और और पीड़ा नष्ट होती है।
नागबला समान भाग ले कर काथ बनावें । - (६५५८) वृहद्भार्यादिकाथः
यह क्वाथ वातव्याधि, श्वास, खांसी, उदर( भै. र. । ज्वरा.)
शूल, विसूचिका, भयंकर सन्निपात और कफभार्गी पथ्या कटुः कुष्ठं पर्पटं मुस्तकं कणा।।
वातज रोगांको नष्ट करता है। अमृता दशमूलश्च नागरं काथयेद्भिषक् ॥
वृहद्रास्नादिकाथः इन्ति धातुगतं सर्व बहिःस्थं शीतसंयुतम् ।
(वै. र. । वाता.) सतताय ज्वरं घोरं मन्दाग्नित्वमरोचकम् ॥ प्लीहानं यकृतं गुल्मं श्वयथुश्च विनाशयेत् ।
प्र. सं. ५८८४ रास्नादि क्वाथः (१८) एष भार्यादिको नाम सर्वज्वरहरः परः॥ | देखिये । . भरंगी, हर्र, कुटकी, कूठ, पित्तपापड़ा, नागर- (६५६०) वृहदरुणादिकाथः मोथा, पीपल, गिलोय, दशमूल और सोंठ समान
( भै. र. । अश्मर्य. ) भाग ले कर काथ बनावें ।
वारुणं वल्कलं शुण्ठी बीजं गोक्षुरसम्भवम् । यह क्वाथ समस्त धातुगत और बहिःस्थ सालमूली कुलस्थञ्च कुशादि पञ्चमूलकम् ॥ सन्ततादि शीत ज्वर, अग्निमांद्य, अरुचि, प्लीहा, शर्करा क्षारसंयुक्तं क्वाथयित्वा जले पिबेत् । यकृत, गुल्म और शोथको नष्ट करता है। | अश्मरीमूत्रकृच्छन्नं वस्तिमेहनशूलनुत् ॥
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पायप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
बरनेकी छाल, सेांठ, गोखरु, तालमूली, ___ (६५६३) व्याघ्यादिकषायः (१) कुलथी और कुशादि पञ्चमूल ( कुश, कांस, शर, (हा. सं. । स्था. ३ अ. २)
तद्वयाघ्री गुडूची च रोधं कुष्ठं पटोलकम् । बनावें
ज्वरे कफात्मजे चैतत् पाचनं स्यात्तदुत्तमम् ।। ___ इसमें खांड और जवाखार मिला कर पीनेसे
- कटेली, गिलोय, लोध, कूठ और पटोल समान अश्मरी, मूत्रकृच्छू और बस्ति तथा मूत्रनलीकी
भाग ले कर क्वाथ बनावें। पीड़ा नष्ट होती है।
यह क्वाथ कफज ज्वरमें दोषोंको पकाता है। वृहन्नागरादिकाथः (ग. नि. । ज्वरा.)
(६५६४) व्याध्यादिकषायः (२) प्रयोग संख्या ३३५९ देखिये ।
(हा. सं. । स्था. ३ अ. ३) (६५६१) वृहनिम्बादियोगः
- व्याघ्रीग्रन्थिक चव्यं सुरसा शुण्ठी (व. से. । वातव्या.)
__सदाडिमं रजनी। वृहन्निम्बतरोर्मूलं वारिणा परिपेषितम् ।।
घनचित्रकमेवं हि क्वाथो ग्रहणीकर्फ हन्ति ।। पीतस्तन्नाशयेक्षिप्रमसाध्यामपि गृध्रसीम् ॥ |
.. कटेली, पीपलामूल, चव, तुलसी, सोंठ, अना___बकायनकी जड़की छालको पानीके साथ | रकी छाल, हल्दी, नागरमोथा और चीता समान पीस कर पीनेसे असाध्य गृध्रसी भी नष्ट हो | भाग ले कर क्वाथ बनावें । जाती है। .
___ यह क्वाथ संग्रहणी और कफको नष्ट वृहन्मुस्तादिकाथ: करता है । ( यो. चि. म. । अ. ४)
__ (६५६५) व्याध्यादिकषायः (३), प्र. सं. ५०५१ मुस्तादि काथः (५) देखिये। (६५६२) वेदनास्थापनकषायदशकः
( वा. भ. । चि. अ.१) (च. सं. । चि. अ. ४ )
व्याघ्री शुण्ठयमृता काथः पिप्पलीचूर्णसंयुतः । शालकटफलकदम्बपद्मकतुङ्गमोचरसशि- वातश्लेष्मज्वरश्वासकासपीनसशूलजित् ॥ रीषवक्षुलैलवालुकाशोका इति दशेमानि वेद- कटेली, सेांठ और गिलोय समान भाग ले नास्थापनानि भवन्ति ।
| कर क्वाथ बनावें । शाल, कायफल, कदम्ब, पद्माक, पुन्नाग, । इसमें पीपलका चूर्ण मिला कर पीनेसे वातमोचरस, सिरस, बेत, एलवालुक और अशोक; ये कफ, ज्वर, श्वास, खांसी, पीनस और शूल नष्ट दश ओषधियां वेदनास्थापक हैं।
| होता है।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
(६५६६) व्याध्यादिकषायः (४) । इसमें जवाखार मिला कर पीनेसे हृदय,
( वा. भ. । चि. अ. १) कुक्षि और पसलीका कफज शूल नष्ट होता है। सनिपातज्वरे व्याघ्रीदेवदारुनिशाधनम् । (६५६९) व्याध्यादिकषायः (७) पटोलपत्रनिम्बत्वत्रिफलाकटुकायुतम् ॥
(वृ. नि. र. । विषमज्वरा.) ___कटेली, देवदारु, हल्दी, नागरमोथा, पटोल
व्याघ्री विश्ववितुन्नपुष्करपत्र, नीमकी छाल, त्रिफला और कुटकी समान
रजोभूनिम्बवासामृताभार्गीभाग ले कर क्वाथ बनावें ।
निम्बपटोलपनकपनयह क्वाथ सन्निपात ज्वरको नष्ट करता है।
स्तिक्ताकलिङ्गैः कृतः। (६५६७) व्याध्यादिकषायः (५) क्वाथो हन्ति सचन्दनः (व. से. । श्वासा.)
कफमरुत्पित्तं सदाहं तृषां
कासं पञ्चविध ज्वरं कृमिन्याघ्रीदुरालभाशृङ्गीविल्वमध्यत्रिकण्टकैः। सामृतानिभृतैरेतैयूषः स्याच्वासनुत्परः॥
रुज पाण्डं वर्मि कामलाम् ॥ ____ कटेली, धमासा, काकड़ासिंगी, बेलगिरी,
कटेली, सोंठ, धनिया, पोखरमूल, चिरायत , गोखरु और गिलोय समान भाग ले कर क्वाथ
बासा, गिलोय, भरंगी, नीमकी छाल, पटोल, पनाक, बनावें ।
नागरमोथा, कुटकी, इन्द्रजौ और लाल चन्दन
समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । यह काथ पीनेसे श्वास नष्ट होता है ।
___ यह क्वाथ कफ, वायु, पित्त, दाह, तृषा, ५ (६५६८) व्याध्यादिकषायः (६)
प्रकारकी खांसी, ज्वर, कृमि, पाण्डु, वमन और (व. से.। शुला.)
कामलाको नष्ट करता है। व्याघ्री ससिंहीफलबिल्वमूलं शिलोद्भवं गोक्षुरकश्च तुल्यम् ।
(६५७०) व्याध्यादिकषाय: (८) एरण्डमूलं द्विगुणं च पक्त्वा
(व. से. । ज्वरा. ; वृ. नि. र.) पिबेद्यवक्षारयुतं कषायम् ॥ व्याघ्रीदुरालभाभार्गी शठी शृङ्गी सपौष्करम् । हृत्कुक्षिपाश्र्वानुगतं निहन्या
पक्वाम्बुश्लेष्महदेयमभिन्यासपशान्तये ॥ च्छूलं नराणां कफ प्रवृद्धम् ॥ | कटेली, धमासा, भरंगी, कचूर, काकड़ासिंगी ___कटेली, कटेलीके फल, बेलकी जड़की छाल, और पोखरमूल समान भाग ले कर क्वाथ बनावें । छरीला और गोखरु १-१ भाग तथा अरण्डमूल यह काथ कफ और अभिन्यास ज्वरको नष्ट २ भाग ले कर क्वाथ बनावें ।
करता है।
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चूर्ण प्रकरणम् ]
(६५७१) व्याध्यादिकषाय: (९)
( रा. मा. । ज्वरा. २० )
व्याघ्रीपटोल त्रिफला निशाब्दैः सरोहिणीकैः पिचुमर्दयुक्तैः ।
सदेवकाष्ठैश्च जलं नराणां सर्वज्वरान् हन्ति निपीयमानम् ॥
चतुर्थी भागः
कटेली, पटोल, हर्र, बहेड़ा, आमला, हल्दी, नागरमोथा, कुटकी, नीमकी छाल और देवदारु समान भाग ले कर क्वाथ बनावें ।
सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, नीम की छाल, पटेल, पित्तपापड़ा, इन्द्रजौ, चिरायता, गिलोय और पाठा समान भाग ले कर क्वाथ बनावें ।
यह क्वाथ त्रिदोषज ज्वरको नष्ट करता है । इति वकारादिकषायप्रकरणम्
अथ वकारादिचूर्णप्रकरणम्
(६५७३) वचादिचूर्णम् (१) ( व. से. । अतिसारा. ) aarfaraणा विश्वाकुलकं कुष्ठदीप्यकम् । सविडङ्गं जयेत्पीतमाममुष्णाम्बुना समम् ॥
बच, बेलगिरी, पीपल, सोंठ, पटोल, कूठ, अजमोद और बायबिड़ंग समान भाग ले कर चूर्ण
बनावें ।
(६५७४) वचादिचूर्णम् (२) ( च. सं । चि. अ. १९ ग्रहण्य. ) वचामतिविषां पाठां सप्तपर्णरसाञ्जनम् ।
ex
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इसे पीने से समस्त ज्वर नष्ट होते हैं । (६५७२) व्योषादिकषायः (व. से. । ज्वरा. )
व्योषा त्रिफलारिष्टपटोलीतिक्तवत्सकैः । सभूनिम्बामृतापाठैस्त्रिदोषज्वर जिज्जलम् ||
५८५
श्योनाकोदीच्यङ्गवत्सकत्वग्दुरालभाः ॥ दार्वी पर्यटकं सूत्र यत्रानीं मधुशिग्रुकम् । पटोलपत्रं सिद्धार्थान्यूथिकं जातिपल्लवान् ।। जम्ब्वाविवमध्यानि निम्बपत्रफलानि च । तद्रोगराममन्विच्छन्भूनिम्बाधेन योजयेत् ॥
बच, अतीस, पाठा, सतौना वृक्षकी छाल,
इसे उष्ण जलके साथ पीनेसे आमातिसार रसौत, अरलुकी छाल, सुगन्धवाला, अरलुकी छाल, होता है।
( मात्रा - ३ माशे । )
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कुड़ेकी छाल, धमासा, दारूहल्दी, पित्तपापड़ा, मूर्वा, अजवायन, लाल संहजनेको छाल, पटोलपत्र, सफेद सरसों, जूही के पत्ते, चमेली के पत्ते, जामनकी गुठली, आमकी गुठली, बेलगिरी, नीमके पत्ते और फल समान भाग ले कर चूर्ण बनावें ।
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५८६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
-
इसे भूनिम्बादिके साथ देनेसे संग्रहणी रोग । बच, सञ्चल ( काला नमक ), होग, कूठ नष्ट होता है।
और इन्द्रजौ समान भाग ले कर चूर्ण बना । (६५७५) वचादिचूर्णम् (३)
इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे समस्त
प्रकारके शूल नष्ट होते हैं। (३. मा.। स्त्री. ; व. से.) ।
( मात्रा-२ माशे ।) वचोपकुञ्चिकाजाजीकृष्णादृषकसैन्धवम् ।
(६५७८) वचादिचूर्णम् (६) अजमोदायवक्षारचित्रकं शर्करान्वितम् ॥
( हा. सं. । स्था. ३ अ. २) पिष्ट्वा प्रसन्नयालोडय खादेत्तद् घृतभर्जितम् ।
वचा यवानी च महौषधं च योनिपातिहृद्रोग गुल्माझे विनिवृत्तये ॥
___ शुष्कं च चूर्ण तनुलेपनाय । ___ बच, काला जीरा, सफेद जीरा, पीपल, बासा, शस्तं वदन्ति ज्वरधर्मशान्ति सेंधा, अजमोद, जवाखार, चीता और खांड समान करोति नूनं परिमर्दनेन ॥ भाग ले कर चूर्ण बनावें।
बच, अजवायन और सेठ समान भाग ले ___ इसे प्रसन्ना सुरामें मिला कर घीसे छौंक कर | कर चूर्ण बनावें । पीनेसे योनि शूल, पार्श्व पीडा, हृद्रोग, गुल्म और ज्वर में अधिक पसीना आता हो तो वह इसकी अर्शका नाश होता है।
मालिशसे अवश्य शान्त हो जाता है। ( मात्रा-३ माशे । )
(६५७९) वचादिचूर्णम् (७)
(वा. भ. । उ. अ. १) (६५७६) वचादिचूर्णम् (४)
वचायष्टयाहसिन्धृत्यपथ्यानागरदीप्यकैः। (व. से. । अपस्मारा. ; वृ. मा.) शुद्धयते वाग्घविलीद्वैः सकुष्ठकणजीरकैः॥ यः खादेत क्षीरभक्ताशी माक्षिकेन वचारजः। . बच, मुलैठी, सेंधानमक, हर्र, सांठ, अजअपस्मारं महाघोरं मुचिरोत्थं जयेद ध्रुवम् ॥ मोद, कूठ, पीपल और जीरा समान भाग ले कर
बचके चूर्णको शहदमें मिला कर सेवन करने चूर्ण बनावें। और दूध भातका आहार करनेसे पुराना और भयं- इसे घीके साथ सेवन करनेसे वाणी शुद्ध कर अपस्मार भी अवश्य नष्ट हो जाता है।
| होती है।
(६५८०) वचादिचूर्णम् (८) (६५७७) वचादिचूर्णम् (५)
(भै. र. । गुल्मा. ; ग. नि. । शूला. २३, (ग. नि. । शूला. २३ ; वृ. नि. र.)
गुल्मा. २५; वृ. मा. ; व. से. ; वृ. नि. र.) वचा सुवर्चला हिङ्गु कुष्ठमिन्द्रयवाः समम् । वचाऽभया बिडं शुण्ठी हि कुष्ठाग्निदीप्यकाः। चूर्णमुष्णाम्भसा पीतं सर्वशूलनिकृन्तनम् ॥ द्वित्रिषट्चतुरेकाष्टसप्तपञ्चांशकाः क्रमात् ॥
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चूर्णप्रकरणम् ]
- चतुर्थों भागः
५८७
चूर्ण मध्वादिभिः पीतं शूलानाहोदरापहम् । बच, अतीस, नागरमोथा और इन्द्रजौ समान गुल्मार्शः श्वासकासन ग्रहणीपाण्डुरोगहृत् ॥ भाग ले कर चूर्ण बनावें । ___ बच २ भाग, हर्र ३ भाग, बिड नमक ६ यह चूर्ण वातातिसारमें उत्तम काम करता है। भाग, सेांठ ४ भाग, हींग १ भाग, कूठ ८ भाग, ( मात्रा-२ माशे।) चीता सात भाग और अजमोद ५ भाग ले कर
(६५८३) वचादिचूर्णम् (११) चूर्ण बनावें।
(हा. सं. । स्था. ३ अ. ५; यो. इसे शहद आदि उचित अनुपानके साथ
चि. म. । अ. २) सेवन करनेसे शूल, आनाह, उदर रोग, गुल्म, अर्श, श्वास, खांसी, ग्रहणी और पाण्डु नष्ट
वचाजमोदाक्रिमिजित् पलाशहोता है।
बीजं सठी रामठकं त्रिवृच्च । ( मात्रा-२ माशे।)
उष्णोदके तत् परिपिष्य पेयं
पाताय शीघ्रं शतधा कृमीणाम् ।। __ (६५८१) वचादिचूर्णम् (९)
बच, अजमोद, बायबिडंग, पलाशके बीज, ( भै. र. । गुल्मा. ; वृ. मा. ; व. से. ;
कचूर, हींग और निसोत समान भाग ले कर धन्व. ; र. र.)
चूर्ण बनावें। वचा हरीतकी हिङ्गु सैन्धवं साम्लवेतसम् ।
इसे उष्ण जलमें पीस कर पीनेसे कृमि मर यवक्षारं यमानीश्च पिबेदुष्णेन वारिणा ॥
कर निकल जाते हैं। एतद्धि गुल्मनिचयं सशूलं सपरिग्रहम् ।। भिन्नति सप्तरात्रेण व द्धि करोति च ॥ - (६५८४) वचादिचूर्णम् (१२)
बच, हर्र, हींग, सेंधानमक, अम्लबेत, जवा- (व. से. । बालरोगा.) खार और अजवायन समान भाग ले कर चूर्ण उत्सादनं वचाहिङ्गयुक्तं स्कन्दग्रहे हितम् । बनावें।
____ बच और होंग समान भाग ले कर चूर्ण __इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे गुल्म बनावें । और उपद्रव युक्त शूल नष्ट होता तथा अग्नि दीप्त
इसे मर्दन करनेसे स्कन्द ग्रह विकार नष्ट होती है।
होते हैं। ( मात्रा-१॥ माशा) (६५८२) वचादिचूर्णम् (१०)
(६५८५) वचाद्यं चूर्णम् (१) ( यो. र । अतिसारा.)
( ग. नि. । चूर्णा. ३) वचा प्रतिविषा मुस्ता बीजानि कुटजस्य च । वचा वत्सकबीजं च कुष्ठं चित्रकमेव च । श्रेष्ठो वातातिसारे च योगोऽयं वैधपूजितः ॥ पिप्पली शृङ्गवेरं च पाठा कटुकरोहिणी ।।
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
५८८
यवानी च पटोलेंच सैन्धवातिविषे तथा । हपुषा चाजगन्धा च शठी पौष्करमेव च ॥ एतानि समभागानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् । ततो विडालपदकं पिवेदुष्णेन वारिणा || गुल्मान् पञ्च च हृद्रोगान् कुक्षिशूलं च नाशयेत् ॥
बच, इन्द्रजौ, कूठ, चीता, पीपल, सोंठ, पाठा, कुटकी, अजवायन, पटोल, सेंधानमक, अतीस, हपुषा, बनयवानी, कचूर और पोखरमूल समान भाग ले कर सूक्ष्म चूर्ण बनावें ।
इसे १| तोलेकी मात्रानुसार उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे गुल्म, हृद्रोग और कुक्षिशूलका नाश होता है ।
( व्यवहारिक मात्रा --- ३ माशे ) (६५८६) वचाद्यं चूर्णम् (२)
(ग. नि. । अतिसारा. २ ) वचा त्रिकटुकं पाठा कुष्ठं च कटुरोहिणी । एतत्सोष्णजलं चूर्णं पिबेच्छ् लेष्मातिसारजित्
॥
बच, सांठ, मिर्च, पीपल, पाठा, कूठ और कुटकी समान भाग ले कर चूर्ण बनावें ।
इसे उष्ण जलके साथ सेवन करने से कफा - तिसार नष्ट होता है ।
( मात्रा - ३ माशे । )
(६५८७) वचारसायनः
( वृ. मा. । रसायना. )
मासं वचामप्युपसेवमानाः क्षीरेण तैलेन घृतेन वाऽपि ।
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[ वकारादि
भवन्ति रक्षोभिरधृष्यरूपा मेधाविनो निर्मल स्पष्टवाचः ॥
१ मास तक दूध, तेल या घीके साथ बचका चूर्ण सेवन करने से मेधावृद्धि होती और वाणी स्पष्ट हो जाती है तथा फिर राक्षस भी हानि नहीं पहुंचा सकते |
(६५८८) वज्रक्षार: (१) *
( रसें. सा. सं. । गुल्मा. ; र. र. स. । उ. अ. १९; यो. र. । गुल्मा. ; यो. चि. म. । अ. २; र. रा. सु. 1 यकृ. ; र. । गुल्म.; यो. र. । यकृ. ; वृ. यो. त । त. १०५ ; र. का. धे । गुल्मा. )
सामुद्रं सैन्धवं काचं यवक्षारं सुवर्चलम् । टङ्कणं सर्जिकाक्षारं तुल्यं चूर्ण प्रकल्पयेत् ॥ अर्क क्षीरैः स्नुहीक्षीरैर्भावयेदातपे त्र्यहम् । वेष्टदपत्रेण रुद्ध्वा भाण्डपुढे पचेत् ॥ तं क्षारं चूर्णयित्वाथ ज्यूषणं त्रिफला तथा ।
* इस प्रयोगके बहुत से पाठान्तर हैं। किसी किसी ग्रन्थ में -- ( १ ) अजवायनके स्थान में हल्दी पाठ है।
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(२) चूर्ण तैयार होने पर उसमें १ भाग नीबू का रस मिलानेको लिखा है ।
(३) अजवायन, जीरा और चीतेके स्थानमें चव, राई, बायबिडंग और हींग लिखा है ।
(४) आक के पत्तों पर अर्क मूलके रसका लेप करने के लिये लिखा है ।
(५) त्रिकुट आदि ९ द्रव्यों का चूर्ण क्षारसे आधा लिखा है ।
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चूर्णप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः यमानी जीरको वह्निश्चूर्णमेषाश्च कारयेत् ॥ कफज रोगोंमें गोमूत्रके साथ और सन्निपातज सर्वचूर्णसमं क्षारं सर्वमेकत्र कारयेत् । रोगोंमें कांजीके साथ देना चाहिये । तच्चूर्ण मासयुगलं सलिलेन प्रयोजयेत् ॥ यह चूर्ण अजीर्ण और उससे होने वाले गुल्मे शूले तथाजीणे शोथे सर्वोदरेषु च। समस्त विकारोंको नष्ट करता है। मन्दे वहाबुदावते प्लीनि चापि परं हितम् ॥
(६५८९) वज्रक्षारः (२) वातेऽधिके जलैः कोष्णैर्हितं पित्ताधिके घृतैः।।
(३. यो. त.। त. ९८ ; र. का. धे. । गुल्मा. ; गोमूत्रेण कफाधिक्ये काञ्जिकेन त्रिदोषजे ॥
यो. त. । त. ४६ ) वज्रक्षार इति ख्यातः प्रोक्तः पूर्वं पिनाकिना। सेवितो हरतेऽजीर्ण तथाजीर्णभवान् गदान् ॥ क्षोरं वज्रतरूद्भवं दशपलं तावत्पयोऽप्यनं
प्रत्येकं पलपञ्चकं च लवणं क्षारं च पश्चात्मकम् । समुद्र नमक, सेंधा नमक, काच लवण, जवा- |
विंशत्यर्कदलैयुतं पवितरोभिन्नैश्चतुर्भिः पलैखार, सञ्चल (काला नमक), सुहागा और सजी
मद्भाण्डे गुरुमार्गतो गजपुटे वह्नौ विपक्षीकृतम् ।। खार समान भाग ले कर चूर्ण बनावें और फिर
सञ्चूाथ कटुत्रयं त्रिपलमप्येकं पलं रामलं उसे आक तथा सेहुंड (थोहर) के दूधकी धूपमें
सर्व वस्त्रपुनीतमेतदमले पात्रे सुखं स्थापयेत् । ३-३ भावना दे कर सबका एक गोला बना कर
वज्रक्षार इति प्रणाशयति वै गुल्मानुदग्रान्नृणां सुखा लें । अब इस गोलेको आकके पत्तोंमें लपेट
पीतस्तक्रयुतः प्रभातसमये कर्षप्रमाणं क्रमात् ॥ कर हाण्डीमें बन्द करके पुट दें और उसके स्वांग
| मन्दाग्निं सविषूचिकामरुचितामापाण्डुतां क्षीणतां शीतल होने पर निकाल कर पीस लें।
श्वासं कासमजीर्णशैत्यपवनव्याधीन्बलासोतदनन्तर इस क्षारमें सोंठ, मिर्च, पीपल, हरे,
द्भवान् । बहेड़ा, आमला, अजवायन, जीरा और चीतेका
वज्रक्षार इमानिवार्य भिषजां कीर्ति विधत्ते पर समान भाग मिश्रित चूर्ण इस क्षारके बराबर मिला
मांसं द्रवयति स्फुटं घटिकयोर्द्वन्द्वे किमन्नं पुनः॥ कर खरल करके रक्खें ।
थूहर (सेहुंड) का दूध ५० तोले, आकका मात्रा--२ माशे।
दूध ५० तोले; सेंधा नमक, काला नमक, बिड साधारण अनुपान--पानी ।
नमक, काच नमक और समुद्र लवण तथा जवायह चूर्ण गुल्म, शूल, अजीर्ण, शोथ, हर खार, पलाश क्षार, सज्जी खार, तिल क्षार, और प्रकारके उदर रोग, अग्नि द्य, उदावर्त और मुष्कक ( मोखावृक्ष ) का क्षार २५-२५ तोले, प्लीहाको नष्ट करता है।
आकके पत्ते १०० तोले और थूहरके पत्ते २० विशेष अनुपान--इसे वातकी अधिकतामें | तोले ले कर कूटने योग्य चीजोंको कूट कर सबको उष्ण जलके साथ, पित्तकी प्रधानतामें घृतके साथ, । मृत्पात्र में बन्द करके गजपुटमें पकायें और फिर
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६२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
उसके स्वांग शीतल होने पर औषधको निकालकर । अन्त मगतो दग्धः क्षारोऽयं वडवानलः ।। पीस कर उसमें १-१ पल (५-५ तोले) सोंठ, | त्रिदिनं मदिरायुक्तं पिबेद्वा काञ्जिकैः सह । मिर्च, पीपल और हींगका चूर्ण मिला कर कपड़ेसे | मन्दोष्णेनाथवा पेयमुदरं गुल्मशूलनुत् ॥ छान लें।
हींग, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, ___यह चूर्ण गुल्म, अग्निमांद्य, विसूचिका, अरुचि, | देवदारु, हल्दी, दारुहल्दी, भिलावा, सहजनेकी पाण्डु, क्षीणता, श्वास, खांसी, अजीर्ण, शीत, फली, कुटकी, चव, बच और सेठ १-१ भाग वातव्याधि और कफ रोगको नष्ट करता है। तथा पांचो नमक ( सेंधा, संचल, बिड नमक, यह चूर्ण वैद्योंकी कीर्तिमें वृद्धि करने वाला है। काच लवण, सामुद्र लवण ) सबके बराबर ले कर ___यह मांस जैसे दुर्जर पदार्थको भी दो घड़ीमें | | सबको कूट कर दहीमें पीसें और उसे हाण्डीमें ही गला देता है फिर अन्नकी तो बात ही | बन्द करके ( गजपुटमें ) पकावें । तदनन्तर जब क्या है।
वह स्वांग शीतल हो जाय तो उसमेंसे औषधको मात्रा--१। तोला ।
निकाल कर पीस लें। ( व्यवहारिक माना--१ माशा।)
इसे ३ दिन तक मदिरा, कांजी या उष्ण अनुपान--तक ।
जलके साथ सेवन करनेसे उदर रोग, गुल्म और
शूलका नाश हो जाता है। (६५९०) वटशुङ्गादियोगः
(मात्रा---१ माशा ।) (व. से. । विषा.)
(६५९२) वडवानलचूर्णम् (१) षटशुङ्गं समभिष्ठं जीवकर्षभको सिता। | (शा. सं. । खं. २ अ. ६; ग. नि. । चूर्णा. ३; काश्मय॑मुदकं चैवं पानं मण्डलदष्टके ॥
व. से. । अजीर्णा.) .. बड़के अंकुर, मजीठ, जीवक, ऋषभक, मिश्री और खम्भारी समान भाग ले कर एकत्र पीस लें।
सैन्धवं पिप्पलीमूलं पिप्पली चव्यचित्रकम् । इसे पानीके साथ खिलानेसे मण्डल सर्पका विष |
शुण्ठी हरीतकी चेति क्रमवृद्धानि चूर्णयेत् ।। नष्ट हो जाता है।
वडवानलनामैतच्चूर्ण स्यादग्निदीपनम् ॥
सेंधा १ भाग, पीपलामूल २ भाग, पीपल (६५९१) वडवानलक्षार:
३ भाग, चव्य ४ भाग, चीता ५ भाग, सेठ ६ (र. चं. । उदरा.)
भाग और हर्र सात भाग ले कर चूर्ण बनावें । हिंजु त्रिकटु त्रिफला देवदारु निशाद्वयम् । इसके सेवनसे अग्नि दीप्त होती है। भल्लातकं शिग्रुफलं कटुकी चविकां वचाम् ॥ ( मात्रा-२-३ माशे। शुण्ठी तुल्यं पञ्चपटु तुल्यं दध्ना विषयेत् । अनुपान--उष्ण जल ।)
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चूर्णप्रकरणम् ]
.... चतुर्थों भागः
Aman.
(६५९३) वडवानलचूर्णम् (२) (६५९५) वत्सकादिचूर्णम् (वै. र. । ज्वरा.)
(व. से. । अजीर्णा.) हरीतकीमेषशृढी पिप्पली त्रिवृता शिवा। ।
वत्सक सप्तपर्णश्च करअञ्च दुरालभाम् । सैन्धवं चित्रकं बीजं दाडिमस्य समं मतम् ॥
पाठामारग्वधं मूर्वा षड्ग्रन्यां मदनं दहेत् ॥ चूर्णमेतत्प्रयोक्तव्यं कासे श्वासे च विडग्रहे।
गोमूत्रेणोपयुक्तस्तु क्षारोऽयं वह्निदीपनः । वडवानलमेतद्धि बद्धकोष्ठज्वरापहम् ॥
शूले निरनकोष्ठेऽद्भिः कोष्णाभिश्चूर्णितं हर, मेढासिंगी, पीपल, निसोत, आमला,
पिबेत् ॥ सेंधा, चीता और अनारदाना समान भाग ले कर
इन्द्रजौ, सतौनेकी छाल, करञ्ज, धमासा, चूर्ण बनावें ।
पाठा, अमलतास, मूर्वा, बच और मैनफल समान इसके सेवनसे खांसी, स्वास, मलावरोध और
भाग ले कर चूर्ण बनावें एवं उसे हाण्डीमें बन्द ज्वर नष्ट होता है।
करके भस्म कर लें।
इसे गोमूत्रके साथ सेवन करनेसे अग्नि दी। (मात्रा-४-५ माशे।
होती है। अनुपान--उष्ण जल ।)
इसे प्रातः काल निरन्न [खाली पेट] मन्दोष्ण (६५९४) वडवानलचूर्णम् (३)
जलके साथ सेवन करनेसे शूल नष्ट होता है। ( वृ. नि. र. । अजीर्णा.)
( मात्रा--१ माशा ।) शिवाकरअचित्रकं कणाजटाकटुत्रिकम् ।
(६५९६) वनकार्पासयोगः सशर्करं समांशकं विदं हि वाडवामिकम् ॥
(व. से. । स्त्री रोगा.) हर्र, करज बीज, चीता, पीपलामूल, सांठ, वनकार्यासिकेथूणां मूलं सौवीरकेण च । मिर्च, पीपल और खांड समान भाग ले कर चूर्ण विदारीकन्दस्वरसं पिबेद्वा स्तन्यवर्द्धनम् ॥ बनावें।
बन कपासकी जड़ और ईखकी जड़ समान यह चूर्ण अजीर्णनाशक और अग्निवर्द्धक है। भाग ले कर चूर्ण बनावें । . ( मात्रा-२ माशे । )
इसे सौवीर कांजीके साथ पिलाने या विदारीवडवानलचूर्णम् (४)
कन्दका स्वरस पिलानेसे स्त्रियोंके स्तनोंमें दुग्ध(वडवामुखचूर्णम् )
वृद्धि होती है। (व. से. । अजीर्णा. ; ग. नि. । चूर्णा. ३ ; वा.
(६५९७) वरादिचूर्णम् भ. । चि. अ. ८) .
(वृ. नि. र. । वग्दोषा.) .. प्र. सं. ३९०१ पथ्यादि चूर्णम् (८) | वरावेल्लकणाचूणे लीढं सन्माक्षिकैः सदा। देखिये।
हन्ति कुष्ठान् कृमीन्मेहान्नाडीव्रणभगन्दरान् ।।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
-
हर्र, बहेड़ा, आमला, बायबिडंग और पीपल बाराहीकन्द और भंगरेका चूर्ण १-१ भाग समान भाग ले कर चूर्ण बनावें ।
ले कर दोनोंको एकत्र मिला कर ज़रा घीमें भून इसे शहदके साथ सेवन करनेसे कुष्ट, कृमि, लें और फिर उसमें समान भाग मिश्री मिलाकर प्रमेह, नाडीव्रण और भगन्दरका नाश होता है। सुरक्षित रक्खें। (६५९८) वरुणादिचूर्णम्
इसके सेवनसे वीर्यवृद्धि होती है। ... (व. से. । अश्मर्य.) पलान्यष्टौ तु कुर्वीत क्षाराणां वरुणत्वचः ।
(मात्रा--१ तोला । अनुपान-दूध । ) तदर्द यावशूकात्तु ततोऽप्यधैं गुडाघृतम् ॥ (६६०१) वाराहीकन्दयोगः एकीकृत्य विमृद्यैतत्खादेत्कर्षप्रमाणतः ।
(ग. नि. । सा. रसा. १) धर्माम्बुना सहावश्यं कृच्छाइमरिविनाशनम् ॥
बरनेकी छालका क्षार ४० तोले, जवाखार वाराहीमूलचूर्णस्य शतं मधुयुतं क्रमात् । २० तोले और गुड १० तोले ले कर सबको युवा स्यात्पयसा पीत्वा क्षीरानाज्यभुगादृतः॥ एकत्र मिला कर १० तोले घृतमें मिलावें । बाराहीकन्दके १०० पल चूर्णको यथोचित मोत्रा--११ तोला ।
मात्रानुसार शहदमें मिला कर दूधके साथ सेवन इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे कठिन करने और दूध भात तथा घीका आहोर करनेसे अश्मरी भी नष्ट हो जाती है।
वृद्ध पुरुष भी युवाके समान हो जाता है। (६५९९) वर्षाभ्वादिचूर्णम्
(६६०२) वालकादियोगः (वा. भ. । चि. अ. ३) ।
(ग. नि. । ज्वरा. १) वर्षाभूशर्करारक्तशालितण्डुल रजः। रक्तष्ठीवी पिबेत्सिद्धं द्राक्षारसपयोघृतैः॥ पिबति योऽम्बुयवासकवासकान् - पुनर्नवा, खांड और लाल चावल समान भाग सकटुकान् समहौषधधान्यकान् । ले कर चूर्ण बनावें ।
क्वथितवारियुतान् ज्वरितस्य ते इसे द्राक्षाके रस, दूध और घीमें पकाकर
व्यपनयन्त्यमलं च वितन्यते ॥ पोनेसे रक्तष्ठीवी [खून थूकने वाले] खांसीके रोगीको लाभ होता है।
सुगन्धबाला, जवासा, बासा [अडूसा), कुटकी (६६००) वाराहीकन्दचूर्णम्
सोंठ और धनिया समान भाग ले कर चूर्ण
बनावें। ( न. मृ. । त. ३) वाराहीकन्दभृङ्गाभ्यां पलं षोडशचूर्णितम् । । इसे पके हुवे पानीके साथ पीनेसे ज्वर नष्ट किश्चिदाज्येन भृष्टं च सितायुक्तं च कारयेत् ॥ होता है।
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चूर्णप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः (६६०३) विजयचूर्णम् हृच्छूल, पार्श्वशूल, वातगुल्म, उदररोग, हिक्का, (ग. नि. । चूर्णा, ३; च. द. ; भै. र. ; श्वास, प्रमेह, कामला, पाण्डु, आम, उदावर्त, व. से. । अर्शा.)
- अन्त्रवृद्धि, कृमि, ग्रहणी विकार, महा ज्वर, भूतो. त्रिकत्रयवचाहिपाठाक्षारनिशाद्वयम् ।
न्माद और बन्ध्यत्व रोग नष्ट होता है । चन्यतिक्ताकलिङ्गाग्निशताहालवणानि च ॥
(६६०४) विजयायोगः ग्रन्थिविल्वाजमोदा च गणोऽष्टाविंशतिर्मतः ।
(वृ. नि. र. । वातज्वरा.) एतानि समभागानि श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् ॥ ततो द्विमाषामितं पिबेदुष्णेन वारिणा ।
५" भ्रष्टं तु विजयाचूर्ण मधुना निशि भक्षयेत् । एरण्तैलयुक्तन्तु सदा लिह्यात्ततो नरः॥ | निद्रानाशेतिसारे च ग्रहण्यां पावकक्षये ॥ कासं हन्यात्तथा शोथमर्शा सि च भगन्दरम् । भुनी हुई भांगके चूर्णको रात्रिके समय हृच्छूलं पार्श्वशूलश्च वातगुल्मं तथोदरम् ॥ शहदमें मिला कर सेवन करनेसे निद्रानाश, हिक्काश्वासप्रमेहांश्च कामलां पाण्डुरोगताम् । अतिसार, संग्रहणी और अग्निमांद्यका नाश आमान्वयमुदावत्र्तमन्त्रद्धिं गुदं कृमीन् । | होता है। अन्ये च ग्रहणीदोषा ये मया परीकीर्तिताः । महाज्वरोपसृष्टानां भूतोपहतचेतसाम् ॥
(६६०५) विडङ्गतण्डुलचूर्णम् अप्रजानान्तु नारीणां प्रजावर्द्धनमेव च।
(वा. भ. । कल्प. अ. २) विजयो नाम चूर्णोऽयं कृष्णात्रेयेण पूजितः ॥ विडङ्गतण्डुलवरायावशूककणात्रिकृत् ।
सोंठ, मिर्च, पीपल, हर, बहेड़ा, आमला, सर्वेभ्योऽद्धन तल्लीदें मध्वाज्येन गुडे न वा ॥ दालचीनी, इलायची, तेजपात, बच, हींग, पाठा, गुल्मं प्लीहोदरं कासं हलीमकमरोचकम् । जवाखार, हल्दी, दारुहल्दी, चव्य, कुटकी, इन्द्रजौ, चीता, सोया, पांचों नमक [सेंधा, सञ्चल,
कफवातकृतांश्चान्यान्परिमाटि गदान्वहून् । बिड नमक, काच लवण, सामुद्र लवण], पीपला
बायबिडंगके चावल, त्रिफला, जवाखार और मूल, बेलगिरी और अजमोद; ये २८ ओषधियां पीपल १-१ भाग तथा निसोत सबसे आधा ले समान भाग ले कर चूर्ण बनावें ।
कर चूर्ण बनावें । मात्रा--२ माशे।
इसे शहद और घीके अथवा गुड़के साथ अनुपान---उष्ण जल
सेवन करनेसे गुल्म, प्लीहा, कास, हलीमक, अरुचि इसे अण्डीके तेल में मिला कर चाटना चाहिये। और कफ वातज अनेक रोग नष्ट होते हैं। इसके सेवनसे खांसी, शोथ, अर्श, भगन्दर, I (मात्रा--३ माशे । )
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५९४
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
[वकारादि
(६६०६) विडङ्गादिक्षारः
लिहन्ति ये मन्दहुताशना (. यो. त.। त. १०५ ; व. से. । उदरा.
नरा भवन्ति ते वाडवतुल्यवह्नयः॥ च. सं. । चि. अ. १८)
बायबिडंग, शुद्ध भिलावा, चीता, गिलोय विडङ्गं चित्रकं सक्तून्सघृतं सैन्धवं वचाम् । और सांठ समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । दग्ध्वा कपाले पयसा गुल्मप्लीहापहं पिबेत् ॥ इसे समान भाग गुडमें मिला कर घीके
बायबिडंग, चीता, स., घी, सेंधा, और बच | साथ सेवन करनेसे अग्नि अत्यन्त दीत हो समान भाग ले कर मृत्पात्रमें जला कर भस्म करें। जाती है।
इसे दूधके साथ सेवन करनेसे गुल्म और (मात्रा--३ माशे । ) प्लीहाका नाश होता है।
(६६०९) विडङ्गादिचूर्णम् (३) (६६०७) विडङ्गादिचूर्णम् (१)
(र. र. । हिक्काश्वासा.) (न. से. । उदरा.)
विडङ्गपिप्पली चैलात्वचञ्च प्रतिकार्षिकम् । विडङ्गानि यवानी च चित्रकं चेति तत्समम् ।
त्रिकर्ष मरिचस्यापि नागराचतुष्पलम् ॥ द्विगुणं देवदारु च नागरं सपुननेवम् ॥
सर्वतुल्या सिता योज्या कर्षमात्रं च भक्षयेत् । अथ चैतानि चूणोंनि गवां मूत्रेण पाययेत् ।
कासश्वासज्वरप्लीहपाण्डुरोगक्षयापहम् ॥ उदरीभूतमप्येवं प्लीहानं संप्रणाशयेत् ॥
बायबिडंग, पीपल, इलायची और दालचीनी ___ बायबिडंग, अजवायन और चीता १-१ भाग, तथा देवदारु, सेठ और पुनर्नवा २-२ |
११-१। तोला, काली मिर्च ३।। तोले और सोंठ
२० तोले तथा मिश्री सबके बराबर ले कर चूर्ण भाग ले कर चूर्ण बनावें। - इसे गोमूत्रके साथ सेवन करनेसे प्रवृद्ध प्लीहा
बनावें । नष्ट हो जाती है।
मात्रा--१। तोला । (मात्रा--३ माशे ।)
इसके सेवनसे कास, श्वास, ज्वर, प्लीहा, (६६०८) विडङ्गादिचूर्णम् (२) ।
| पाण्डु और क्षयका नाश होता है । (वृ. मा. ; व. से. । अजीर्णा, ; वृ. नि. र.)
( मात्रा--४-५ माशे ।) विडङ्गभल्लातकचित्रकामृता२। (६६१०) विडङ्गादिचूर्णम् (४) ___ सनागरा तुल्यगुडेन सर्पिषा ।
( व. से. । कृम्य.) १ शुण्ठी सघृतामिति पाठान्तरम् । | लिह्यात्क्षौद्रेण वैडङ्गं चूर्ण कृमिविनाशनम् ।
१ ग. नि. में घृतके स्थानमें अर्कमूल लिखा | सुरसादिगणं वापि सर्वथैवोपयोजयेत् ॥ है ( ग. नि. । उदरा ३२ )
- शहदके साथ बायबिडंगका चूर्ण अथवा २ चित्रकाभयाः इति पाठान्तरम् सुरसादिगण सेवन करनेसे कृमि रोग नष्ट होता है ।
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चूर्णप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
(६६११) विडङ्गादिचूर्णम् (५)
(६६१५) विडङ्गादिचूर्णम् (९) ( ग. नि. । छर्य. १४ ; व. से. ; वृ. मा.)
(व. से. । हृद्रोगा.) विडङ्गत्रिफलाविश्वचूर्ण मधुयुतं जयेत् ।
| कृमिजे च पिबेन्मूत्रं विडङ्गामयसंयुतम् । विडङ्गप्लवशुण्ठीनामथवा श्लेष्मजां वमिम् ॥
हदि स्थिताः पतन्त्येव द्यवस्तात्कृमयो नृणाम् ।।
__ कृमिजन्य हृद्रोगमें बायबिडंग और कूठका बायबिडंग, त्रिफला और सोंठ समान भाग
चूर्ण गोमूत्रके साथ सेवन करनेसे निम्न मार्गसे ले कर चूर्ण बनावें।
कृमि निकल जाते हैं। इसे, अथवा बायबिडंग, नागरमोथा और सेठिके चूर्णको शहदके साथ सेवन करनेसे कफज
(६६१६) विडङ्गादिचूर्णम् (१०)
(यो. र. । कृम्य.) छदि नष्ट होती है।
विडङ्ग पारिभद्राग्रं ब्रह्मवीजं पृथपिवेत् । (६६१२) विडङ्गादिचूर्णम् (६)
मधुना कृमिनाशाय निम्बं वा हिङ्गुना युतम् ॥ (वृ. नि. र. । संग्रहण्य.)
बायबिडंग, नीमकी कोंपल और ढाक (पलाश) विडङ्गयवानी विष्टम्भे पिबेदुष्णेन वारिणा। के बीजोंका चूर्ण पृथक पृथक् शहदके साथ सेवन ___ बायबिडंग और अजवायन समान भाग ले | करनेसे या नीमकी पत्ती और हींग मिला कर सेवन कर चूर्ण बनावें ।
| करनेसे कृमि नष्ट हो जाते हैं। इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे ग्रहणी
(६६१७) विडङ्गादिचूर्णम् (११) रोगान्तर्गत विष्टम्भ नष्ट होता है।
(व. से. । शोथा.)
विडङ्गातिविषादारुनागरेन्द्रयवावचाः । (६६१३) विडङ्गादिचूर्णम् (७)
उष्णाम्बुना पिबेच्छोथी ह्यक्षमात्रं सहोषणम् ॥ (वा. भ. । चि. अ. १९)
बायबिडंग, अतीस, देवदारु, सेांठ, इन्द्रजौ, "माणिभद्र मोदकः” प्रयोग सं. ५१७४ देखिये।
| बच और काली मिर्च समान भाग ले कर चूर्ण (६६१४) विडङ्गादिचूर्णम् (८) बनावें। (यो. र. । बाल.)
इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे शोथ विडङ्गान्यजमोदा च पिप्पलीतण्डुलानि च ।
मात्रा-१। तोला । एषामालिद्य चूर्णानि सुखतप्तेन वारिणा ॥
(व्यवहारिक मात्रा--३-४ माशे ।) बायबिडंग, अजमोद और पीपलके चावल
(६६१८) विडङ्गादिचूर्णम् (१२) समान भाग ले कर चूर्ण बनावें ।
( वृ. यो. त. । त. ६४) इसे उष्ण जलके साथ सेवन करानेसे विडङ्गातिविषामुस्तादारुपाठाकलिङ्गकम् । बालकोंका अतिसार नष्ट होता है।
मरिचेन समायुक्तं शोफातिसारनाशनम् ।।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
विकारादि
बायबिडंग, अतीस, नागरमोथा, देवदारु (६६२१) विडङ्गाद्यं चूर्णम् (१) पाठा, इन्द्रजौ और काली मिर्च समान भाग लेकर (ग. नि. । चूर्णा. ३ ) चूर्ण बनावें।
विडङ्ग चित्रकं मुस्ता ग्रन्थिकं देवदारु च । यह चूर्ण शोथातिसारको नष्ट करता है । वराङ्गचविकाजाजीबिभीतकफलानि च ॥ ( मात्रा--३-४ माशे।)
शुण्ठी खदिरसारश्च मेपशृङ्गी सपिप्पली ।
भार्गी शृङ्गी तथा छत्रा कचूंरं मरिचानि च ॥ (६६१९) विडङ्गादिचूर्णम् (१३) ।
| एतानि समभागानि मूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् । (भै. र. । नाडीव्रगा. ; ग. नि. । कुष्ठा. ३६; उष्णेन वारिणा पीतं हन्ति श्लेष्मगलामयान् ॥
यो. र. ; वृ. नि. र. ; वृ. मा.) हृद्रोगांश्चैव कासांश्च कण्ठरोगांश्च दारुणान् । विडङ्गत्रिफलाकृष्णाचूर्ण लीढं समाक्षिकम् ।। अन्ये च कफजा रोगा विलयं यान्ति तत्क्षणात्।। हन्ति कुष्ठक्रिमीन मेहनाडीव्रणभगन्दरान् ॥ | बायबिडंग, चीता, नागरमोथा, पीपलामूल,
___ यायबिडंग, हर, बहेडा, आमला और पीपल | देवदारु, दालचीनी, चव, जीरा, बहेड़ा, सेठ, समान भाग ले कर चूर्ण बनावें ।
खैरसार (कत्था), मेढासिंगी, पीपल, भरंगी, काक
| डासिंगी, सौंफ, कचर और काली मिर्च समान इसे शहदके साथ सेवन करनेसे कुष्ठ, कृमि,
भाग ले कर चूर्ण बनावें । प्रमेह, नाड़ीब्रण और भगन्दरका नाश होता है।
___ इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे कफज ( मात्रा-३-४ माशे।)
| गल रोग, हृद्रोग, खांसी, भयंकर कण्ठ रोग और (६६२०) विडङ्गादियोगः अन्य कफ रोग नष्ट होते हैं। (ग. नि. । सा. रसा. १)
(६६२२) विडङ्गाद्यं चूर्णम् (२) विडङ्गभल्लातकनागराणि
(ग. नि. । चूर्णा, ३; वा. भ. । चि. अ. ३; येऽश्नन्ति सर्पिर्मधुसंयुतानि ।
च. सं. । चि. अ. १२)
| विडङ्ग नागरं रास्ना पिप्पली हिङ्गु सैन्धवम् । जरानदी रोगतरङ्गिणी ते
भार्गी क्षारश्च तच्चूर्ण पिबेडि घृतमात्रया ।। लावण्ययुक्ताः पुरुषास्तरन्ति ॥ सकफेऽनिलजे कासे हिकायामनिलातिषु ॥ बायबिडंग, शुद्ध भिलावा और सोंठ समान | बायबिडंग, सेठ, रास्ना, पीपल, हींग, सेंधाभाग ले कर चूर्ण बनावें।
नमक, भरंगी और जवाखार समान भाग ले कर इसे घी और शहदके साथ सेवन करनेसे | चर्ण बनावें ।। जरा व्याधिका नाश हो कर सौन्दर्यकी वृद्धि | इसे धीके साथ सेवन करनेसे कफवातज कास, होती है।
| हिचकी और वातव्याधिका नाश होता है ।
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चूर्णप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः (६६२३) विदार्यादिचूर्णम् (६६२५) विदार्यादियोगः (२)
(हा. सं. । स्था. ३ अ. ५० ) ( ग. नि. । वाजीकरणा. ; यो. त.। त. विदारिका गोक्षुरमूसलीनां
८० ; वृ. मा.) धात्रीफलं स्यात्सहसैन्धवानाम् । विदारीकन्दचूर्ण तु घृतेन पयसा नरः । समानि चैतानि च मागधीनां । | उदुम्बरसमं खादन्टद्धोऽपि तरुणायते ॥ _युक्तं सिताढयं पयसा पिबेच्च ।। विदारी कन्दके चूर्णको धीमें मिला कर दूधके
विदारीकन्द, गोखरु, मूसली, आमला, सेंधा- साथ सेवन करनेसे वृद्ध पुरुष भी तरुणके समान नमक और पीपल समान भाग तथा खांड सबके हो जाता है। बराबर ले कर चूर्ण बनावें ।
मात्रा--१॥ तोला । इसे दूधके साथ सेवन करनेसे वीर्य वृद्धि
(६६२६) विशालादिचूर्णम् (१) होती है। ( मात्रा-९ माशे ।)
( यो. र. ; व. से. | उदरा.) (६६२४) विदार्यादियोगः (१) ।
विशालाशङ्खिनीदन्तीत्रिन्नीलीफलत्रयम् ।
निशा विडङ्ग कम्पिल्लं मूत्रेणोदरवान्पिबेत् ॥ (ग. नि. । वाजीकरणा.)
इन्द्रायणकी जड़, शंखाहोली, दन्तीमूल, चूर्ण विदार्या बहुशः स्वरसेनैव भावितम् ।
निसोत, नील, हर्र, बहेड़ा, आमला, हल्दी, बायकृष्णाधात्रीफलरजो द्राक्षामधुकसंयुतम् ॥
.. बिडंग और कमीला समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । शर्करामधुसर्पिा लीढ्वा योऽनु पयः पिबेत् । स नरोऽशीति वर्षोऽपि युवेव परिहृष्यति ॥
| इसे गोमूत्रके साथ पीनेसे उदर रोग नष्ट पीपल, आमला, मुनक्का और मुलैठी समान |
होता है। भाग ले कर चूर्ण बनावें और उसे बिदारीकन्दके |
(मात्रा-२-३ माशे । ) रसकी बहुतसी भावनाएं दे कर सुखा लें। तद (६६२७) विशालादिचूर्णम् (२) नन्तर उसमें उसके बराबर मिश्री मिला कर (वा. भ. । चि. अ. १६ ; च. द. । पाण्डु. ८; रक्खें।
ग. नि. । पाण्डु. ७) इसे शहद और धीके साथ चाटकर दूध विशालां कटुकां मुस्तां कुष्ठं दारुकलिङ्गकः । पीना चाहिये।
कर्षांशा द्विपिचुवा कांद्धांशा घुणप्रिया ॥ इसके सेवनसे ८० वर्षको वृद्ध पुरुष भी पीत्वा तच्चूर्णमम्भोभिः सुखैलियात्ततो मधु । तरुणके समान स्त्रीसमागममें समर्थ हो जाता है। पाण्डुरोगं ज्वरं दाहं कासं श्वासमरोचकम् ॥ ( मात्रा–६ माशे ।)
गुल्मानाहामवातांश्च रक्तपित्तं च तज्जयेत् ॥
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६९८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
विकारादि
इन्द्रायणकी जड़, कुटकी, नागरमोथा, कूट, सांठ, हींग, सुहागा, पीपल और काला नमक देवदारु और इन्द्रजौ ११-१। तोला; मूर्वा २॥ (सञ्चल) समान भाग ले कर चूर्ण बनावें, एवं उसे तोले और अतीस ७॥ माशे ले कर चूर्ण बनावें। सहजनेकी जड़के रसकी भावना दे कर सुखा लें ।
इसे जलके साथ पी कर थोड़ा शहद इसके सेवनसे शूल नष्ट होता और क्षुधावृद्धि चाटना चाहिये।
होती है। इसके सेवनसे पाण्डु, ज्वर, दाह, खांसी,
(मात्रा-१॥-२ माशे । ) श्वास, अरुचि, गुल्म, आनाह, आमवात और रक्तपित्तका नाश होता है।
(६६३१) विश्वादिचूर्णम् (१) (मात्रा-३-४ माशे । )
(व. से. । अजीर्णा.) (६६२८) विशालादियोगः (१)
शुण्ठीचूर्णसमायुक्तं यवक्षारं समालिहेत् । (व. से. । विषा.)
सर्पिषा प्रातरुत्थाय ततो वह्निप्रदीपनम् ॥ विशालाङ्कोटमूलश्च तिलमूलं सिता मधु ।
सेठका चूर्ण और जवाखार समान भाग घृतेनाखुविषं हन्ति पीतमात्रश्च दुस्तरम् ॥
लेकर एकत्र मिलावें। इन्द्रायणकी जड़, अङ्कोटकी जड़, तिलकी इसे प्रातःकाल घीमें मिला कर चाटनेसे अग्नि जड़ और खांड समान भाग ले कर चूर्ण बनावें || दीप्त होती है।
इसे शहद और घीमें मिला कर पीनेसे दुस्तर (मात्रा-१ माशा ।) मूषकविष नष्ट होता है।
(६६३२) विश्वादिचूर्णम् (२) (६६२९) विशालादियोगः (२)
(वै. जी. । वि. ४)
| विश्वाकणाशिवाचूर्णः ससितः समधुः स्मृतः। गन्धवतेलसम्मिश्र विशालामूलज रजः। नस्यवद्विश्वगुडयोहिकाधिकारकारकः ॥ क्षीरेण पीतं सप्ताहाद्धिं हन्ति न संशयः ॥ सांठ, पीपल और आमला १-१ भाग तथा इन्द्रायणकी जड़के चूर्णको अरण्डीके तेलमें
मिश्री ३ भाग ले कर चूर्ण बनावें । मिला कर दूधके साथ पीनेसे १ सप्ताहमें वृद्धि रोग
इसे शहदमें मिलाकर चाटनेसे हिचकी नष्ट (अन्त्रवृद्धि) का नाश हो जाता है ।
होती है। (मात्रा-१-१॥ माशा ।)
सेठ और गुड़की नस्य लेनेसे भी हिचकी (६६३०) विश्वभेषजचूर्णम्
| रुक जाती है। (वृ. नि. र. । अजीर्णा.)
____ (६६३३) विश्वादिचूर्णम् (३) विश्वभेषजं हिङ्गुटकणं मागधी च सौवर्चलं .
त्विदम
(यो. र. । स्त्री रोगा.) शिग्रुपादजै वितं रसःशूलनाशनं क्षुत्प्रबोधनम्।' पीतं विश्वमजाक्षीरैर्नाशयेद्विषमज्वरम् ।
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५९९
चूर्णप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः सेठका चूर्ण बकरीके दूधके साथ सेवन कर- (६६३६) विश्वाद्यं चूर्णम् (१) नेसे विषम ज्वर नष्ट होता है।
(वृ. यो. त. । त. ८८ ) (मात्रा-२ माशे ।)
विश्वाजमोदरजनीद्वयसैन्धवोग्रा(६६३४) विश्वादिचूर्णम् (४) ___ यष्टयाहकुष्ठमगधोद्भवजीरकाणाम् । ( वृ. नि. र. । शूला.)
चूर्ण प्रभातसमये लिहतः ससर्पि
र्वाग्देवता निवसति स्वयमेव वक्त्रे ।। शुण्ठी सुवर्चलं हिडपाठामूलोष्णकं जलम् ।। निपीतं नाशयत्येव सर्वशूलानि देहिनाम् ॥
सेठ, अजमोद, हल्दी, दारुहल्दी, सेंधानमक, ___ सांठ, सञ्चल (काला नमक), हींग, पाठाकी |
बच, मुलैठी, कूठ, पीपल और जीरा समान भाग
ले कर चूर्ण बनावें । जड़, काली मिर्च और सुगन्ध बाला समान भाग ले कर चूर्ण बनावें ।
इसे प्रातः काल धीमें मिलाकर चाटनेसे बुद्धि
| बढ़ती है। यह चूर्ण समस्त प्रकारके शूलोंको नष्ट |
( मात्रा-३-४ माशे । ) करता है।
(६६३७) विश्वाद्यं चूर्णम् (२) (मात्रा-२-३ माशे । )
( ग. नि. । ग्रहण्य. ३) (६६३५) विश्वादिचूर्णम् (५) विश्वा वचा चित्रकदेवदारु(हा. सं. । स्था. ३ अ. १२)
विडङ्गकुष्ठातिविषं च पथ्या। विश्वदुःस्पर्शशृङ्गीसठीपुष्करं
सपिप्पलीमूलमिदं समुस्त
मुष्णाम्बुपीतं ग्रहणीगदघ्नम् ॥ दारुभार्गीकणामुस्तरास्नायुतम् ।।
सेठ, बच, चीता, देवदारु, बायबिडंग, कूठ, शर्करायुक्तमेतं हितं चूर्णितं
अतीस, हर, पीपलामूल और नागरमोथा समान कासनिःश्वासबातोद्भवं हन्ति वै ॥ | भाग ले कर चूर्ण बनावें ।। सेठ, धमोसा, काकडासिंगी, कचूर, पोखर- इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे संहणी मूल, देवदारु, भरंगी, पीपल, नागरमोथा और | रोग नष्ट होता है । रास्ना १-१ भाग तथा खांड सबके बराबर लेकर (मात्रा-३ माशे । ) चूर्ण बनावें ।
(६६३८) विष्णुकान्तायोगः यह चूर्ण वातज खांसी और श्वासको नष्ट । (ग. नि. । रक्तपित्ता. ८) करता है।
क्षीरानभुक:पिवेद्यत्नाद्विष्णुक्रान्तां सशर्कराम् । (मात्रा-६ माशे ।)
। ऊर्ध्वरक्तादितः सम्यग्गव्येन पयसा सह ॥
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% 3D
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि विष्णुक्रान्ता (कोयल) के चर्णमें खांड मिला- इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे ऊरुस्तकर गोदुग्धके साथ सेवन करने और दूध भातका | म्भकी पीड़ा शान्त होती है। आहार करनेसे ऊर्ध्वगत रक्तपित्त नष्ट होता है। (मात्रा-३ माशे ।) वृद्धगङ्गाधरचूर्णम्
(६६४१) वृषद्वादशकचूर्णम्
(व. से. । अजीर्णा.) प्र. सं. १२३४ गङ्गाधर चर्णम् ( वृद्धम् )
पिपल्यतिविषा हिङ्गु गरेन्द्रयवावचा । देखिये ।
पाठाजमोदकटुकावृषसौवर्चलाभयाः ॥ (६६३९) वृद्धदारुकरसायन:
वृषद्वादशकं चूर्णमजीर्णानाहगुल्मनुत् । ( वृ. मा. । रसायना. ; च. द. । रसायना. भगन्दरश्वासकासमूत्रकृच्छ्राशंसां हितम् ॥ ६५ ; न. मृ. । त. ३)
पीपल, अतीस, हींग, सेांठ, इन्द्रजौ, बच, दृद्धदारुकमूलानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ।
पाठा, अजमोद, कुटकी, बासा, सञ्चल ( काला शतावर्या रसेनैव सप्तवारांश्च भावयेत् ॥
नमक) और हर्र समान भाग लेकर चर्ण बनावें ।
इसे सेवन करनेसे अजीर्ण, आनाह, गुल्म, अक्ष मात्रं तु तच्चूर्ण सर्पिषा सह योजयेत् ।
भगन्दर, श्वास, खांसी, मूत्रकृ'छू और अर्शका मासमात्रोपयोगेन मतिमाआयते नरः ॥
नाश होता है। मेधावी स्मृतिमांश्चैव वलिपलितवर्जितः ।।
( मात्रा-२ माशे ।) विधारेकी जड़के को शतावरके रसकी
(६६४२) वृषादिचूर्णम् सात भावना दे कर रक्खें ।
(हा. सं. । स्था. ३ अ. ५०) इसे मास तक शहदके साथ सेवन करने
वृषं बृहत्यौ मगधात्रिकण्टाः से मति, मेधा और स्मृतिकी वृद्धि तथा बलि
तथात्मगुप्ता स शतावरी च । पलितका नाश होता है।
सशर्करं गोपयसा घृतेन मात्रा-११ तोला।
पानं नराणां प्रकरोति बीजम् ॥ (६६४०) वृद्धदादिचूर्णम् . ऋषभक, कटेली, बड़ी कटेली, पीपल, गोखरु,
( ग. नि. । ऊरुस्तम्भा. २१) कौंचके बीज और शतावर १-१ भाग तथा खांड पिबेदुष्णाम्बुना वृद्धदारुनागरचूर्णकम् ।। | सबके बराबर ले कर चूर्ण बनावें । ऊरुस्तम्भसमुद्भूतविकारव्यथयाऽन्वितः ॥ इसे धीमें मिला कर गोदुग्धके साथ सेवन
- विधारकी जड़ और सोंठ समान भाग ले कर | करनेसे वीर्यवृद्धि होती है। चूर्ण बनावे।
(मात्रा-६ माशे ।)
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चूर्णप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः (६६४३) वृहच्छर्करासमचूर्णम् । योज्यं चापलं निहन्ति क्षतजं कासं तथा
श्वासकं (व. से. । कासा.)
पाण्डौ कामलामेहशोषगुदजे शस्तं सदा यक्ष्मिलवङ्गजातीफलपिप्पलीनां
णाम् ।। भागान् प्रकल्प्याक्षसमानमीषाम् ।
तालीस पत्र, हर्र, बहेड़ा, आमला, फूलपलार्धमात्र मरिचस्य दद्या
प्रियंगु, पीपलामूल, नागरमोथा, कचूर, दारुहल्दी, त्पलानि चत्वारि महौषधस्य ॥ सितासमं चूर्णमिदं प्रसह्य
इलायची, तेजपात, नागकेसर, लौंग, सेाठ, पीपल,
काली मिर्च, सुगन्धबाला, चव, मूर्वा, अतीस, रोगानिमानाशु बलानिहन्यात् ।
काकड़ासिंगी, मुनक्का, कूल, हल्दी, चीता, इन्द्रजौ, कासज्वरारोचकमेहगुल्म
बासा, गोखरु, कुटकी, इमली, खट्टे अनारका रस श्वासानिमान्धं ग्रहणीपदोषान् ॥
| तथा पके बेर समान भाग एवं खांड सबके बराबर लौंग, जायफल और पीपल ११-१॥ तोला; | ले कर चर्ण बनावें । काली मिर्च २॥ तोले और सेठ २० तोले तथा माषा-२॥ ताले । खांड सबके बराबर ले कर चूर्ण बनावें ।
( व्यवहारिक मात्रा-६ माशे) यह चूर्ण, खांसी, ज्वर, अरुचि, प्रमेह, गुल्म, इसके सेवनसे क्षतज खांसी, श्वास, पाण्डु, श्वास, अग्निमांद्य और ग्रहणी-विकारको नष्ट | कामला, प्रमेह, शोष, अर्श और यक्ष्माका नाश करता है।
होता है। ( मात्रा-५ माशे)
(६६४५) वृहदग्निमुखचूर्णम् (६६४४) वृहत्तालीसादिचूर्णम् (भै. र. ; च. द, ; र. र. । अग्निमान्या. ; भा. (हा. स. । स्था. ३ अ. १२)
प्र. ; वृ. मा. ; व. से. । अजीर्णा ;
ग. नि. । चर्णो.) तालीशं त्रिफला मियङ्गु मगधामूलं च मुस्ता सठी
द्वौ क्षारौ चित्रकं पाठा करअं, लवणानि च । दार्येलादलनागकेसरलवङ्गानां तथा नागरा । |
4. सूक्ष्मैला पत्रकार भार्गी कृमिघ्नं हिमु पुष्करम् ।। कृष्णा कोलकबालकं सचविका मूर्वा विषा कर्कट
शठी दावी विन्मुस्तं वचा चेन्द्रयवास्तथा । द्राक्षा कुष्ठनिशाग्निवत्सकदृषं गोकण्टतिक्ता तथा॥ क्षाम्लं च सदाडिमाम्लकरसं पकानि बद- । १. विडङ्गमिति पाठान्तरम् ।
राणि च । २. तगरमिति पाठान्तरम् एतेषां समभागचूर्णविहितं योज्या समा शर्करा। ३, कारवीति पाठान्तरम् ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
धात्री जीरकष्टक्षाम्लं श्रेयसी चोपकुञ्चिका ॥ बच, इन्द्रजौ, आमला, जीरा, तिन्तडीक, गजपीपल, अम्लतसमम्लीका यवानी सुरदारु च।। काला जीरा, अम्लबेत, इमली, अजवायन, देवदारु अभयातिविषे श्यामा२ हपुपारग्वधं समम् ॥ (पाठान्तरके अनुसार अनार, त्रिकुटा, भिलावा और तिलमुष्ककशिग्रणां कोकिलाक्षपलाशयोः। | अजमोद भी), हर्र, अतीस, फूलप्रियंगु, (पाठाक्षाराणि लोहकिट्टश्च तप्तं गोमूत्रसेचितम् ।। न्तरके अनुसार चव), हपुषा, अमलतासका गूदा; समभागानि सर्वाणि श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् । इनका चूर्ण तथा तिल, मुष्कक ( मोखा वृक्ष ), मातुलुङ्गरसेनैव भावयेच्च दिनत्रयम् ॥ सहंजना, तालमखाना, और पलाशका क्षार एवं दिनत्रयन्तु शुक्तेन आईकस्वरसेन च । | गोमूत्रमें शुद्ध किया हुवा मण्डूर समान भाग ले अत्यग्निकारकं चूर्ण प्रदीपानिसमप्रभम् ॥ कर चूर्ण बनावें तथा उसे बिजौ रेके रस, शुक्त और उपयुक्तं विधानेन नाशयत्यचिराद्दान् । अदरकके रसमें ३-३ दिन घोट कर सुरक्षित अजीणेकमथोगुल्मं प्लीहानं गुदजानि च ॥ रक्खे । उदराण्यन्त्रद्धिञ्च अष्ठीलां वातशोणितम् । ___यह अत्यन्त अग्नि दीपक है और इसके सेवप्रणुदत्युल्बणान्रोगानष्टवह्निश्च दीपयेत् ॥ नसे अजीर्ण, गुल्म, प्लीहा, अर्श, उदर, अन्त्रवृद्धि, समस्तव्यञ्जनोपेतं भक्तं दत्त्वा सुभाजने ।
अष्ठीला, वातरक्त और अग्निमांद्यका नाश होता है। दापयेदस्य चूर्णस्य बिडालपदमात्रकम् ॥
मात्रा-११ तोला । गोदोहमात्रात्तत्सर्व द्रवीभवति सोष्मकम् ॥
... ( व्यवहा. मा.---१॥ माशा ) यवक्षार, सज्जीखार, चीता, पाठा, करञ्ज
वृहद्गङ्गाधरचूर्णम् ( पाठान्तरके अनुसार बायबिडंग ), पांचों नमक,
(भै. र. । ग्रहण्य.) ( सेंधा नमक, काला नमक, सामुद्र लवण, बिड | __प्र. सं. १२३३ गङ्गाधर चूर्णम् (मध्यम) लवण, काच लवण ), छोटी इलायची, तेजपात तथा प्र. सं. १४९८ गङ्गाधर चूर्णम् ( वृहद् ) ( पाठान्तरके अनुसार तगर ), भरंगी, बायबिडंग, | देखिये। ( पाठान्तरके अनुसार काला जीरा ), हींग, पोख
वृहद्दाडिमाष्टकचूर्णम् . रमूल, कचूर दारुहल्दी, निसोत, नागरमोथा,
(शा. सं. । खं. २ अ. ६; वृ. नि. र. । अति. ) १. अम्लबेतसमम्लीका दाडिमं सकटुत्रय- प्र. सं. २९५८ देखिये। मिति पाठान्तरम् ।
(६६४६) वृहद्वाराहीकन्दचूर्णम् इसके पश्चात् कई ग्रन्थों में यह पाठ अधिक है
(न. मृ.। त. ३) " भल्लातकाजमोदं च यवानी सुरदारु च ।" वाराहीकन्दं शृङ्गाट कन्दं मारिमेव च । २. 'चव्या' इति पाठभेदः ।
चूर्ण सूक्ष्मं कृतं सर्वं पलमानं पृथक् पृथक् ॥
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चूर्णप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः घृतभृष्टं तु तच्चूर्ण पश्चादेतन्महौषधम् । । जीर्ण चापरिहारं स्याद्भोजनं सार्वकामिकम् । चातुर्जात लवङ्गं च पिप्पली नागरं तुगा ॥ नाशयेच्छ्लीपदं स्थौल्यमामवातं च दारुणम् ।। एतान्द्विकर्षकान्भागान्सिता सर्वसमानिका। | कुष्ठगुल्मारुचिहरं वातश्लेष्मरुजापहम् ।। पलाई भक्षयेन्नित्यं ससितं महिषो पयः॥ सांठ, मिर्च, पीपल, हर, बहेड़ा, आमला, दिनान्ते च पिबेन्नित्यं क्लीवत्वनाशनं परम् ।
चव, दारुहल्दी, बरनेकी छाल, गोखरु, मुण्डी प्रमेहव्याधिशमनं वीर्यस्तम्भनकारकम् ॥
और गिलोय, समान भाग तथा बिधारामूल सबके बाराहीकन्द, सिंघाड़ा और बिलाईकन्द; इनका बराबर ले कर चूर्ण बनावें । चर्ण ५-५ तोले ले कर सबको एकत्र मिला कर
मात्रा--१। तोला । घीमें भूनें और फिर उसमें दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर, लौंग, पीपल, सेांठ और बंस
( व्यवहा. मा.-५-६ माशे । ) लोचनका चर्ण २॥२॥ तोले तथा मिश्री सबके | अनुपान-कांजी । बराबर मिला कर सुरक्षित रखें।
इसके सेवनसे इलीपद, स्थूलता, आमवात, मात्रा-२॥ तोले ।
कुष्ठ, गुल्म, अरुचि और वातकफज रोग नष्ट इसे सायंकालको मिश्रीयुक्त भैसके दूधके साथ | होते हैं । सेवन करना चाहिये।
__ औषध पच जाने पर बिना किसी विशेष इसके सेवनसे क्लीवता और प्रमेह नष्ट हो परहेजके यथारुचि आहार कर सकते हैं। कर स्तम्भनशक्ति बढ़ती है । (६६४७) वृहद्वृद्धदारुकसमं चूर्णम् (ग, नि. । चूर्णा. ; यो. त. । त. २७ ; (वृद्धदारचूर्णम् )
यो. र. । क्षय) (च. द. ; व. से. ; भै. र. ; ग. नि. । लीपदा.
प्र. सं. ३६०९ देखिये। २; र. र. ; वृ. मा. । श्लीपदा. ; वृ. यो.. त. । त. १०९)
(६६४८) वृहन्नागरादिचूर्णम् त्रिकटुत्रिफलाचव्यदा-वरुणगोक्षुरम् ।।
(यो. र. । वात गुल्मा.) अलम्बुषां गुडूची च समभागानि चूर्णयेत् ।। नागरार्धपलं पिष्टं द्वे पले लुञ्चितस्य च । सर्वेषां चूर्णमाहृत्य वृद्धदारस्य तत्समम् । तिलस्यैकं गुडपलं क्षीरेणोष्णेन पाययेत् ॥ काभिकेन तु तत्पेयं कर्षमात्रप्रमाणतः॥ | वातगुल्ममुदावर्त योनिशूलं च नाशयेत् ॥
वृहनवायसचूर्णम्
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि सेांठका चूर्ण २॥ तोले, छिलके रहित तिल । दश द्वौ च हरीतक्याः श्लक्ष्णचूर्णीकृताः शुभाग १० तोले और गुड ५ तोले ले कर सबको एकत्र | मस्त्वारनालतक्रेण सर्पिषोष्णोदकेन वा ॥ मिला लें।
पीतं जयत्यामवातं गुल्मं हृद्वस्तिजान् गदान् । इसे गरम दूधके साथ सेवन करनेसे वातज |
प्लीहानं ग्रन्थिशूलादीनशीस्यानाहमेव च ॥ गुल्म, उदावर्त और योनिशूल नष्ट होता है।
विबन्धं वातजान् रोगांस्तथैव हस्तपादजान् । ( मात्रा-१। तोला।)
वातानुलोमनमिदं चूर्ण वैश्वानरं स्मृतम् ।।
सेंधा नमक २ भाग, अजवायन ५ भाग, वृहन्नायिकाचूर्णम्
| सेठ ५ भाग और हर्र १२ भाग ले कर चूर्ण प्र. सं. ६३६१ लाई चूर्णम् (७) देखिये ।
बनावें। वृहल्लवङ्गाद्यं चूर्णम्
इसे मस्तु, आरनाल, तक्र, घी या उष्ण जलके प्र. सं. ६३५२ तथा ६३५३ लवङ्गाचं साथ सेवन करनेसे आमवात, गुल्म, हृद्रोग, बस्तिचूर्णम् (बृहद् ) देखिये।
रोग, प्लीहा, ग्रन्थि, शूल, अर्श, अफारा, मलावरोध,
वातजरोग, एवं हाथ और पैरोंके रोग नष्ट होते हैं । वृद्धलवङ्गायचूर्णम्
यह चूर्ण वातानुलोमन है। ( वृ. नि. र. । अतीसारा.)
(मामा-३ माशा ।) प्र. सं. ६३५० लवङ्गादि चूर्णम् ( वृद्ध ) देखिये ।
( इस योगमें अजमोदके स्थानमें भी अज
वायन ही डाली जाती है। इसी लिये ५ भाग वृहल्लाई चूर्णम्
अजवायन लिखी गई है।) प्र. सं. ६३६१ लाई चूर्णम् (७) देखिये।
नोट-गदनिग्रहके मतानुसार इसमें ४ भाग (६६४९) वैश्वानरचूर्णम् (१) पीपल और होनी चाहिये । (ग. नि. । चूर्णा. ३) ( भै. र. ; वृ. मा. ; व. से. । आमा. ;
(६६९०) वैश्वानरचूर्णम् (२) धन्व. । आमा. ; यो. त. । त. २४ ; च. द. । आमा. २५ ; वृ. यो. त. । त. ९३ ; ग. नि.। (ग. नि. । चूर्णा. ३) चूर्णा. ३)
लवण यवानी दीप्यक माणिमन्थस्य भागौ द्वौ यमान्यास्तद्वदेव हि । ___ कणनागरमुत्तरोत्तर वृद्धम् । भागास्त्रयोऽजमोदाया नागराद् भागपञ्चकम् ॥ सर्वसमांशा पथ्या चूर्णो वैश्वानरः साक्षात् ॥
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चूर्णप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः सेंधा नमक १ भाग, अजवायन २ भाग, यह चूर्ण पाचन और ग्राही हैं। लाल चित्रक ३ भाग, पीपल ४ भाग और सांठ
इसके सेवनसे तृष्णा, अरुचि, ज्वरातिसार, ५ भाग एवं हर्र १५ भाग ले कर चूर्ण बनावें ।
प्रमेह, संग्रहणी, गुल्म, प्लीहा, कामला, पाण्डु और ___ यह चूर्ण अत्यन्त अग्निवर्धक है।
शोथका नाश होता है। (मात्रा-५-६ माशे । अनुपान उष्ण जल । )
(६६५२) व्योषादिचूर्णम् (२) वैश्वानरचूर्णम् (३)
(ग. नि. । स्वरभंगा. १३) (यो. त. । त. २४) प्र. सं ६२१६ "लघु वश्वानर चूणम्
, व्योषं हरीतकी क्षारश्चव्यं भार्गी सचित्रका।
लिवाचणं च मधुना मद्यं तीक्ष्णं च शीलयेत्॥ देखिये ।
___ स्वरभंग रोगमें सांठ, मिर्च, पीपल, हरे, (६६५१) व्योषादिचूर्णम् (१)
| जवाखार, चव, भरंगी और चीता समान भाग ले ( वृ. यो. त.। त. ६५ ; भै. र. । ज्वराति.; यो. कर, चूर्ण बनाकर शहदके साथ सेवन करना तथा र. । अतिसारा. ; धन्व.; व. से. ; वू. नि.
| तीक्ष्ण मध पीना चाहिये। र. ; च. द.)
(६६५३) व्योषादिचूर्णम् (३) व्योषं वत्सकबीजञ्च निम्बभूनिम्बमार्कवम् । चित्रकं रोहिणी पाठां दावीमतिविषां समाम् ॥
(ग. नि. । छर्य. १४) श्लक्ष्णचूर्णीकृतं सर्व तत्तुल्या वत्सकत्वचः । व्योषं त्रिफला दुरालभा सर्वमेकत्र संयोज्य पिबेत्तण्डुलवारिणा ॥
जम्बाम्रास्थि यवाग्रज त्रित् । सक्षौद्रं लिहेदेतत् पाचनं ग्राहिमेषजम् ।
लीहा मधुना निवारयेतृष्णारुचिप्रशमनं ज्वरातीसारनाशनम् ॥ प्रमेहं ग्रहणीदोषं गुल्मं प्लीहानमेव च ।
च्छर्दिश्लेष्मविकारजां नरः॥ कामलां पाण्डुरोगश्च श्वयथुश्च विनाशयेत् ।। सोंठ, मिर्च, पीपल, हर, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च, पीपल, इन्द्रजौ, नीमकी छाल, ।
धमासा, जामन और आमकी गुठली, जवाखार चिरायता, भंगरा, चीता, कुटकी, पाठा, दारु हल्दी
और निसोत समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । और अतीस १-१ भाग तथा कुड़ेकी छाल सबके
इसे शहदके साथ चाटनेसे कफज छर्दि नष्ट बराबर ले कर चूर्ण बनावें।
होती है। इसे शहदके साथ चाटकर तण्डुल जल (आधा आधा माशा चूर्ण थोड़ी थोड़ी देर (चावलोंका पानी) पीना चाहिये । बाद चाटना चाहिये ।)
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भारत
- भैषज्य रत्नाकरः
(६६५४) व्योषादिचूर्णम् (४)
(बृ. मा. । मुख.; भै. र. । नासा. ; च. द. । नासा ५७; ग. नि. । चूर्णा. ३, नासा. ४; व. से. ; धन्व . )
व्योषचित्रकतालीसतिन्तिडी काम्लवेतसम् । सचव्यजाजितुल्यांश मेलात्वक्पत्रपादिकम् ॥ व्योषादिकमिदं चूर्ण पुराणगुड संयुतम् । पीनश्वासकासनं रुचिस्वरकरं परम् ॥
सोंठ, मिर्च, पीपल, चीता, तालीसपत्र, तिन्तड़ीक, अम्लवेत, चव और जीरा ४-४ भाग तथा इलायची, दालचीनी और तेजपात १-१ भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इसे पुराने गुड़में मिला कर सेवन करने से पीनस, श्वास और खांसी का नाश तथा रुचि और स्वरकी वृद्धि होती है ।
( मात्रा - ३ माशे । ) (६६५५) व्योषादिचूर्णम् (५) ( वृ. मा. । मुखरोगा. ; व. से. ) व्योषक्षाराभयावद्विचूर्णमेतत्प्रधर्पणम् । उपजिह्वोपशान्त्यर्थमेभिस्तैलं विपाचयेत् ॥
सोंठ, मिर्च, पीपल, जवाखार, हर्र और चीता समान भाग ले कर चूर्ण बनावें ।
इसे उपजिह्वा पर मलना लाभदायक है । इन्हीं ओषधियोंसे तेल सिद्ध करके प्रयुक्त करना भी हितकारी है।
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[ वकारादि
(६६५६) व्योषादिचूर्णम् (६)
1
( व. से. ; धन्व; यो. र.; वृ. मा. । अर्शो. ; च. द. । अर्शो. ५ ; वृ. यो. त. । त. ६९ ) व्योषान्यरुष्करविडङ्गतिलाभयानां
चूर्गे गुडेन सहितं तु सदोपयोज्यम् । दुर्नाशोफगर कुष्ठशद्विबन्ध -
नेत्यवतां कृमिपाण्डुतां च ॥ सोंठ, मिर्च, पीपल, चीता, शुद्ध भिलावा, बायबिडुंग, तिल और हर्र समान भाग कर चूर्ण बनावें 1
इसे गुड़ में मिलाकर सेवन करने से अर्श, शोथ, गरविष, कुष्ठ, मलावरोध, अग्निमांद्य, कृमि और पाण्डुका नाश होता है ।
( मात्रा - ३ - ४ माशे । ) (६६५७) व्योषादिचूर्णम् (७) (व. से. । ग्रहण्य.) व्योषं साम्रत्वचं वत्सं चूर्णयेत्तण्डुलाम्बुना । निपीतं ग्रहणीदोष कामलापाण्डुरोगजित् ॥ प्रमेहारुच्यतीसारगुल्मशोथज्वरापहम् ॥
सोंठ, मिर्च, पीपल, आमकी छाल और कुड़ेकी छाल समान भाग ले कर चूर्ण बनावें ।
इसे तण्डुलोदक (चावल के पानी) के साथ सेवन करनेसे संग्रहणी, कामला, पाण्डु, प्रमेह, अरुचि, अतिसार, गुल्म, शोथ और ज्वरका नाश होता है ।
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(६६५८) व्योषादिचूर्णम् (८) ( यो. त. । त. ७ ) व्योषवरैला मुस्तविडङ्ग पत्रमखिलसममत्रलवङ्गम् ।
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चूर्णप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः सर्वेभ्यो द्विस्टिताकन्द
(६६६०) व्योषादिचूर्णम् (१०) प्रबलमलहरमुष्णकबन्धम् ॥
(ग. नि. । राजय. ९) ___ सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला,
व्योषचव्यविडङ्गानि चूर्णीकृत्वा लिहेन्नरः । इलायची, नागरमोथा, बायबिडंग और तेजपात १-१ भाग तथा लौंग सबके बराबर एवं
सर्पिमधुभ्यां मुच्येत क्षयरोगाज्जितेन्द्रियः ॥ निसोत इन सबसे २ गुनी ले कर चूर्ण बनावें । ।
सांठ, मिर्च, पीपल, चव और बायबिडंग इसे उष्ण जलके साथ पीनेसे विरेचन हो कर पेट साफ़ हो जाता है।
___ इसे घी और शहदके साथ सेवन करनेसे (मात्रा-६ माशे ।)
जितेन्द्रिय रोगीका क्षय रोग नष्ट हो जाता है। (६६५९) व्योषादिचूर्णम् (९) (६६६१) व्योषाद्यं चूर्णम् (१) ( यो. र. । ग्रहण्य. ; वृ. नि. र. )
(व. से. । बालो.) व्योषं दीप्याजमोदाकृमि
गुडोदकञ्च क्वथितं व्योषसैन्धवसंयुतम् । रिपुदहनं रामठं चाश्वगन्धं सुखोष्णं पाययेदालं कासरोगपशान्तये ॥ सिन्धुत्थं जीरके द्वे रुचक
__सांठ, मिर्च, पीपल और सेंधा नमक समान ___ फलयुतं धान्यकं तुल्यभागम् । भाग ले कर चर्ण बनावें । भृङ्गीचूर्णे लवङ्गं घृतमधु
गुडको पानीमें पकाकर उसमें यह चूर्ण मि. सहितं शाणमात्रं च दद्या
लाकर मन्दोष्ण करके बालकको पिलानेसे खांसी घोप्तिं पुष्टिं च कान्ति बल
नष्ट होती है। ___ मपि कुरुते नाशयेत्सङ्घहण्याम् ॥
(६६६२) व्योषायं चूर्णम् (२) सोंठ, मिर्च, पीपल, अजवायन, अजमोद (इसके स्थानमें भी अजवायन), बायबिडंग, चीता,
(ग. नि. । चर्णा. ३; यो. चि. म. । अ, २) हींग, असगन्ध, सेंधा, सफेद और काला जीरा, | सव्योष क्रिमिजित्सपञ्चलवणं साजाजिकं साभयं विजौ रे नीबूका गूदा, धनिया, अतीस और लौंग सक्षारं सहुताशनं सचविकं सग्रन्थिकं सत्रिवत् । समान भाग ले कर चूर्ण बनावें ।
एतच्चूर्णमुदश्विता प्रपिबतामुष्णेन वा वारिणा मात्रा--५ माशे।
वहिर्वृद्धिमुपैति सर्वगदजिद्भाजिष्णुतामावहेत् ॥ ___ इसे घी और शहदके साथ सेवन करनेसे सोंठ, मिर्च, पीपल, बायबिडंग, पांचों नमक संग्रहणी नष्ट होती और अग्नि, पुष्टि, कान्ति तथा (सेंधा, संचल, बिड नमक, सामुद्र लवण, काच बलकी वृद्धि होती है।
लवण ), जीरा, हर्र, जवाखार, चीता, चव, पीप
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[वकारादि
लामूल और निसोत समान भाग ले कर चर्ण । एतच्चूर्ण घृताढयं त्रिदिवबनावें ।
समशनाद्धन्यते रोगजातं ___ इसे उदश्वित ( आधे पानी वाले तक ) या विश्वं वैश्वानरोऽसौ दहति उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे अग्नि दीप्त होती
सरमसं किं पुनर्भुक्तमन्नम् ॥ और समस्त रोगोंका नाश हो कर तेजोवृद्धि
सांठ, मिर्च, पीपल, इलायची, हींग, भरंगी, होती है।
बिडलवण, जवाखार, पाठा, अजवायन, इमलीकी ( मात्रा-३ माशे ।)
छालकी भस्म, चव, चीता, गजपीपल, दालचीनी, (६६६३) व्योषाद्यं चूर्णम् (३) सेंधा नमक, पीपलामूल और जीरा समान भाग
( यो. र. । अजीर्णा.) ले कर चर्ण बनावें । व्योषैलाहिजुभार्गीबिड
इसे धीमें मिला कर केवल तीन दिन सेवन __ लवण यवक्षारपाठायवानी
| करनेसे समस्त रोग नष्ट हो कर जठराग्नि अत्यन्त चिश्चात्वग्भस्मचव्यं दहन
प्रबल हो जाती है। करिकणात्वक्पटुग्रन्थ्यजाजी। । (मात्रा-३ माशे ।)
इति वकारादिचूर्णप्रकरणम्
- - - अथ वकारादिगुटिकाप्रकरणम् वचादिवटी
(६६६४) वटपरोहादिगुटिका (१) (वृ. नि. र. । शूला.)
( यो. चि. म. । अ. २ ; यो. र. । तृष्णा. ; रस प्रकरणमें देखिये।
वृ. मा. ; ग. नि. । तृष्णा. १६) वज्रकगुटिका
वटपरोह मधुकुष्ठमुत्पलं (ग. नि. ; र. का. धे.। पाण्डु)
सलाजचूर्णैर्गुटिका प्रकल्पयेत् । रस प्रकरणमें देखिये।
सशर्करा सा वदने च धारिता वज्रवटी
तृषां प्रवृद्धामपि हन्ति सत्वरम् ॥ (भै. र. ; र. रा. सु. । कुष्ठा.)
बड़के अंकुर, मुलैठी, कूठ, नीलोत्पल और रस प्रकरणमें देखिये।
धानकी खील तथा खांड; इनका चूर्ण समान भाग
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गुटिकाप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः ले कर सबको पानीके साथ एकत्र पीसकर गालियां| उसमें ४० तोले (आधा सेर ) इन्द्रजौका चूर्ण बना लें।
मिला कर पुनः पकावें । जब उंगलीसे दबानेसे उस इनमेंसे १-१ गोली मुंह में रखनेसे प्रवृद्ध । पर उंगलीका निशान पड़ने लगे तो औषधको तृषा भी शीघ्रही नष्ट हो जाती है ।
निकाल कर गोलियां बना लें । (६६६५) वटप्ररोहादिगुटिका (२) इनके सेवनसे हर प्रकारका अतिसार और (यो. र. । तृष्णा.)
ग्रहणी रोग शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। ये वटी वटपरोहयष्टयावकणामधुकृता वटी।
| अग्निको भी दीत करती हैं। मुखस्था चिरकालोत्थां तृष्णां हन्यात्सुदुस्तराम् ॥ (मात्रा-२-२॥ माशे) ____बड़के अंकुर, मुलैठी और पीपल समान भाग वत्सनाभाद्या गुटिका ले कर सबके चर्णको शहदमें मिला कर गोलियां
- (ग. नि. । गुटिका ४) बनावें।
रस प्रकरणमें देखिये । इनमेंसे १-१ गोली मुंह में रखनेसे चिरका
(६६६७) वल्लभा गुटिका लीन तृषा भी नष्ट हो जाती है ।
(न. मृ. । त. ५) वडवामुखीगुटी
बहुफली मोचरसं मुसल्यौ करहाटकम् । (र. र. स.। उ. अ. १६)
तुगा च मर्कटीवीज कोकिलाक्षमुटङ्गणम् ॥ रस प्रकरणमें देखिये ।
गोक्षुरं ह्यमृतासत्वं जपापुष्पं लिसोरकम् । (६६६६) वत्सकाद्या गुटिका
मस्तगी जातिकोशं च लवङ्ग वंशजातकम् ॥ (ग. नि. । अतिसारा. २; व. से. ) । एतानि समभागानि सिता च द्विगुणा भवेत् । वत्सकस्यामृताश्च द्वे पले प्रस्थमौदकम् । पाकं कृत्वा गुटोर्वद्धवा कोलमात्रप्रमाणतः ।। श्रपयित्वा रसे तस्मिन् पादशेषेऽवतारिते ॥ सायंकाले भक्षयित्वा पिबेददुग्धं तदोपरि । अष्टौ पलानि शक्रस्य यावच्चूणों कृतानि च। नपुंसकत्वरोगन्नं वाजीकरणमुत्तमम् ॥ मुद्रापाकं विदित्वा तु यथा चारन्यवतारितम् ॥ बहुफलो, मोचरस, दो प्रकारकी ( सफेद सद्यः सर्वातिसारांश्च सर्वांश्च ग्रहणीगदान् । और काली ) मूसली, अकरकरा, बंसलोचन, नाशयेद्दोपयेच्चाग्निं कृष्णात्रेयस्य शासनात् ॥ | कौंचके बीज, तालमखाना, उटङ्गणके बीज, गोखरु,
कुड़ेकी छाल और गिलोय १०-१० तोले | गिलोयका सत, जपापुष्प, लिसौड़ो, मस्तगी, ले कर दोनोंको एकत्र कूट कर २ सेर पानीमें | जावत्री, लौंग और बंसलोचन समान भाग ले कर पकावें और आधा सेर शेष रहने पर छान कर चूर्ण बनावें । तदनन्तर सबसे २ गुनी खांडकी
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६१० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[धकारादि चाशनी बनाकर उसमें यह चूर्ण मिला करे साढ़े वातनाशिनी वटी सात सात माशेकी गोलियां बना लें।
( र. चि. । स्त. ९) इनमेंसे १-१ गोली सायंकालके समय खा
रस प्रकरणमें देखिये । कर दूध पीना चाहिये।
(६६६९) वानरी गुटिका यह गुटिका नपुंस्कता-नाशक और उत्तम वाजीकरण है।
(न. मृ.। त. २; यो. र.) (६६६८) वाजीकरणगुटिका
बीजानि हि कपिकच्छोःकुडव
मितानि तु स्वेदयेच्छनकैः। (न. मृ.। त. ५)
प्रस्थे गोभवदुग्धे दुग्धं यावद्भवेद्गाढम् ॥ करवीरस्य बीजानि बृहतीफलमेव च ।।
त्वग्रहितानि च कृत्वा सूक्ष्मं सम्पेषयेत्तानि । वृद्धदारस्य बीजानि वानरीबीजमूलकम् ॥ पिष्टिकायाश्च वटिकाः कृत्वा गव्ये पचेदाज्ये ॥ एतानि समभागानि मूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् । | द्विगुणितशर्करया ता वटिकाः सपकया लेप्याः। सम्पर्य ताम्बूलरसे वटी वल्लयुगं कृतम् ॥ वटिका माक्षिकमध्ये मजनयोगेऽखिलाः स्थाएकैकं भक्षितं पुंसां नपुंसकगदापहम् ।
प्याः ॥ वीर्यवृद्धिकरं पुष्टं बलवाजीकरं परम् ॥ पञ्चटङ्कमितास्तास्तु पात: सायं च भक्षयेत् ।
___ अर्जनके बीज, कटेलीके फल, बिधारेके बीज, अनेन शीघ्रद्रावी यो यश्च स्यात्पतितो ध्वजः॥ कौंचके बीज और कौंचकी जड़, समान भाग ले | सोपि पामोति सुरते सामर्थ्यमतिवाजिवत । कर बारीक चूर्ण बनावें और उसे पानके रसमें | नानेन सदृशं किंश्चिद्रव्यं वाजीकरं परम् ।। घोट कर ६-६ रत्तीकी गोलियां बना लें।
२० तोले कौंचके बीजोंको २ सेर गोदुग्धमें इनके सेवनसे नपुंसकताका नाश और बल, | मन्दाग्नि पर पकायें; जब दूध गाढ़ा हो जाय तो वीर्य तथा पष्टिकी वृद्धि होती है। यह गुटिका | बीजोंको बारीक पीस लें। तदनन्तर उस पिट्टीकी वाजीकरण भी है।
छोटी छोटी (१-१ तोलेकी) टिकिया बना कर वाजीकरो वटकः
उन्हें गायके घीमें तल लें एवं उन्हें दो गुनी खांडकी
चाशनीमें डाल दें ( बालूशाहीकी भांति टिकियों (र. र. रसा. ख. । उप. ६)
पर चाशनी चढ़ावें) जब उन पर खांड़ अच्छी रस प्रकरणमें देखिये ।
तरह चढ़कर सूख जाय तो उन्हें पत्थर, कांच वाजीकरो वटकः आदिके पात्रमें शहदमें डुबा कर रक्खें । मिश्र प्रकरणमें देखिये।
इनमें से २-२ टिकिया नित्य प्रति प्रातः
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गुटिकाप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
सायम् सेवन करनेसे शीघ्रपतन और नपुंस्कता
विजया गुटिका नष्ट होती है।
रस प्रकरणमें देखिये। इनके समान वाजीकर अन्य पदार्थ नहीं है। विजया वटिका (वृहद) वारिभक्तवटिका
(र. चं. । पाण्डवा) ( र. र. । अग्निमां)
रस प्रकरणमें देखिये । रस प्रकरणमें देखिये।
विजया वटिका (६६७०) वार्ताकुगुटिका
( रसे. सा. । ग्रहण्य ) ( धन्व. ; व. से. ; च. द. ; भै. र. । ग्रहण्य. ; रस प्रकरणमें देखिये । वृ. मा. । अजीर्णा. ; ग. नि. । गुटिका. ४)
विडङ्गसाराद्या गुटिका चतुः पलं स्नुहीकाण्डात् त्रिपलं लवणत्रयात् । (ग. नि. । गुटिका. ४) वार्ताकुकुडवश्चार्कादष्टौ द्वे चित्रकात्पले ॥
| प्र. सं. ५१७४ “ माणिभद्रमोदकः" दग्धानि वार्चाकुरसे गुटिकाः भोजनोत्तराः । | देखिये । भक्तं भुक्तं पचन्त्याशु कासश्वासार्शसां हिताः॥ (६६७१) विडङ्गादिमोदकः (१) विसूचिकापतिश्यायहृद्रोगनाश्च ताः मताः ।।
(व. से. । कुष्ठा.) ___ स्नुही (थूहर) का डंडा २० तोले, सेंधा, विडङ्गं बाकुची कृष्णा पथ्या वाराही लागली। संचल और बिड लवण १५-१५ तोले, बैंगन २०
त्रिफला सगुडा चैषां मोदकाः कुष्ठनाशकाः॥ तोले, अर्कमूलकी छाल ४० तोले और चीतामूल
बायबिडंग, बाबची, पीपल, हर्र, बाराही १० तोले ले कर सबको एकत्र जलाकर बैंगनके
कन्द, कलियारीकी जड़, हर्र, बहेड़ा और आमला रसमें खरल करके ( १॥-१॥ माशेकी ) गोलियां
समान भाग ले कर सबके चूर्णको समान भाग बना लें।
गुड़में मिलाकर (६-६ माशेके) मोदक बनालें । इन्हें भोजन करनेके पश्चात् खाना चाहिये। इनके सेवनसे कुष्ठ नष्ट होता है।
इनके सेवनसे भोजन शीघ्र पचता और खांसी (६६७२) विडङ्गादिमोदकः (२) श्वास, अर्श, विसूचिका, प्रतिश्याय और हृदोगका (ग. नि. । शूला. २३ ; वृ. नि. र. । शूला. ; नाश होता है।
व. से. ; वृ. मा. । परिणाम शूला.; यो. र.; विजयश्टी
वृ. यो. त. । त. ९५) ( रसें. सा. सं. । हिक्काश्वासा. ।) विडङ्गतण्डुलव्योष त्रिदन्ती'च चित्रकः । रस प्रकरणमें देखिये।
१ वृहद्दन्तीति पाठान्तरम्
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
- [वकारादि
सर्वाण्येतानि चाहृत्य सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ।। कृता वटीयं चणकप्रमाणा गुडेन मोदकान् कृत्वा भक्षयेत्मातरुत्थितः ।। शूलाग्निमान्द्यानिलरोगहन्त्री॥ उष्णोदकानुपानं तु दद्यादग्निविवर्धनम् ॥ . सेठ. बच. हींग, काली मिर्च जीग गिलोय जयेत्रिदोषजं शूलं परिणामसमुद्भवम् ॥ | और तालीसपत्र; इनको समान भाग चर्ण लेकर सबको
बायबिडंगके चावल, सोंठ, मिर्च, पीपल, एकत्र मिला कर भंगरेके रसमें घोट कर चनेके निसोत, दन्तीमूल और चीता; इनके समान-भाग | बराबर गोलियां बना लें। मिश्रित चूर्णको सबके बराबर गुड़में मिलाकर इनके सेवनसे शूल, अग्निमांद्य और वातज (६-६ माशेके ) मोदक बना लें। | रोगोंका नाश होता है। अनुपान-उष्ण जल ।
विश्वादिवटी इनके सेवनसे अतिकी वृद्धि होती और त्रि
( यो. र. । अतिसा.) दोषज परिणाम शूल नष्ट होता है ।
रस प्रकरणमें देखिये । (६६७३) विडङ्गादिवटिका
विषगटिका (धन्य. । व्रणा.)
(ग. नि. । गुटिका ४) विडङ्गं त्रिफला व्योषचूर्ण गुग्गुलुना सह ।
रस प्रकरणमें देखिये। सर्पिषा वटिकां कृत्वा खादेत् वा हितभोजनः॥
(६६७५) वीर्यस्तम्भकरी वटिका __बायबिडंग, हर्र, बहेड़ा, आमला, सेांठ, मिर्च | और पीपल; इनका चूर्ण १-१ भाग तथा शुद्ध
(र. प्र. सु. । अ. १३) गूगल सबके बराबर लेकर सबको एकत्र मिलाकर | लवङ्गं शुद्धकपूरं जातीपत्रं फलं तथा। । घी डालकर कूटें और ( १-१ माशेकी ) गोलियां | कुङ्कुमं स्वर्णबीजं च धूर्तपणे प्रमूनकम् ॥ बना लें।
मूलं त्वक् चाब्धिशोषस्य सर्वाण्येकत्र मर्दयेत् । ये गोलियां ब्रणमें हितकारी हैं।
गोदुग्धे शोधनीयं च भागमेकं प्रकल्पयेत् ॥
भृङ्गीपत्रभवं चूणे भागैकं स्वर्णगैरिकम् । . विरेचनीगुटिका
भावनां पोस्ततोयेन एकविंशतिसङ्घयया ॥ रस प्रकरणमें देखिये।
कारयेन्मतिमान् वैद्यो वीर्यस्तम्भकरा वटी ॥ (६६७४) विश्वादिवटी
लौंग, शुद्ध कपूर, जावत्री, जायफल, केसर, (वैद्या. । विषय २२)
धतूरेके बीज, धतूरेके पत्ते, धतूरेके फूल एवं समविश्वावचाहिङ्गमरीचजीरा
| न्दर सोखकी जड़ और छाल १-१ भाग ले कर मृतानलैर्किवतोयपिष्टैः। चूर्ण बनावें और उसे गोदुग्धमें घोटकर सुखा लें
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गुटिकाप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः तदनन्तर एक भाग यह चूर्ण, और १-१ भाग | ये गोलियां वीर्यस्तम्भक और बल, वर्ण तथा भांगके पत्तों और सोनागेरुका चूर्ण लेकर सबको | अग्निकी वृद्धि करने वाली हैं। एकत्र मिलाकर उसे पोस्तके रसकी २१ भावना दें वीर्यस्तम्भनी गुटिका और (१-१ माशेकी ) गोलियां बनालें। (न. मृ. । त. ५ ; वृ. यो. त. । त. १४७ ; इनके सेवनसे वीर्यस्तम्भन होता है।
र. चं. । वाजीकरणा.) । (६६७६) वीर्यस्तम्भकवटिका
प्र. सं. २०१७ " जाती फलादि वटी" (र. चं. । वाजीकरणा.)
देखिये। नागफेनयुता जातीपत्री नागलता समा।
वृकोदरी वटी सम्मी यामयुग्मं तु कारयेद् गुटिकोत्तमा ॥ रस प्रकरण में देखिये। सुगन्धैर्मिश्रिता देया दुग्धं तदनुपाययेत् ।।
(६६७८) वृद्धदारुमोदकम् नरः स दशनारीणां भवेत्तृप्तिकरो रतौ ॥
( वै. र. । अर्शी. ; शा. सं. । खं. २ अ. ७ ____ अफीम, जावत्री, और पानेांका चूर्ण समान
वृ. नि. र. । ग्रहण्य.) भाग ले कर सबको २ पहर एकत्र घोटकर (चनेके
वृद्धदारुकभल्लातं शुण्ठो चूर्णन योजयेत् । बराबर) गोलियां बना लें।
सगुडो मोदको हन्यात् पड्विधार्शः कृतां रुजम्।। इनमेंसे एक गोली ( कस्तूरी या कपूरसे )
बिधारा, भिलावा, और सोंठका चूर्ण १-१ सुगन्धित करके दूधके साथ खानेसे पुरुष १०
भाग तथा गुड़ सबके बराबर लेकर एकत्र मिलाकर स्त्रियोंको तृप्त कर सकता है।
| ( ६-६ माशेके ) मोदक बनावें। __ (६६७७) वीर्यस्तम्भकवटी
इनके सेवनसे ६ प्रकारका अर्श रोग नष्ट (यो. र.)
होता है। जातीफलं लवङ्गं च जातीपत्रं सुकुङ्कुमम् ।
वृद्धिवाधिकावटिका मुक्ष्मैला चाहिफेनं त्वाकारकरभं तथा ।।
(भै. र. ; भा. प्र.। वृद्ध्य.] प्रत्येकं कर्षमात्राणि कर्पूरं शाणमात्रकम् । रस प्रकरणमें देखिये। नागवल्लीदलरसैर्वट। चणकसन्निभा ॥
(६६७९) वृष्यगुटिका वीर्यस्तम्भिनी ह्येषा बलवर्णाग्रिदीपनी।
(च. सं. । चि. अ. २ वाजीकर.) जायफल, लौंग, जावत्री, केसर, छोटी इला- घृतपात्रं शतगुणे विदारीस्वरसे पचेत् । यची, अफीम और अकरकरा १।-१। तोले तथा | सिद्धं पुनः शतगुणे गव्ये पयसि साधयेत् ॥ कपूर ३॥ माशे ले कर सबको पानोंके शर्करायास्तुगाक्षीUः क्षौद्रस्येक्षुरकस्य च । रसमें घोट कर चनेके बराबर गोलियां बना लें। पिप्पल्याः साजडायाश्च भागैः पादांशिकैयुतम्॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
गुटिकाः कारयेद्वैद्यो यथा स्थूलमुदुम्बरम् । पिबेदत्यन्तमापन्नो विधिसर्गेण मानवः । तासां प्रयोगात् पुरुषः कुलिङ्ग इव हृष्यति ।। अङ्कोलवटका नाम्ना सर्वातीसारनाशनाः ॥
८ सेर घीको १०० गुने विदारीकन्दके रसमें दारुहल्दी, अङ्कोलकी जड़, पाठामूल, कुड़ेकी पकावें । जब घृत मात्र शेष रह जाय तो छान | जड़की छाल, मोचरस, धायके फूल, लोध और लें । तदनन्तर उसे १०० गुने गायके दूधके साथ | अनारदाना समान भाग ले कर पानीके साथ पीस पकावें और फिर उसमें खांड, बंसलोचनका चूर्ण, कर १।-१। तोलेके वटक बना लें । शहद, तालमखानेका चूर्ण, पीपलका चूर्ण और ___ इनमेंसे एक एक वटक प्रातःकाल शहदके कौंच के बीजोंका चूर्ण घीसे चौथाई मिलाकर बड़े | साथ सेवन करनेसे समस्त प्रकारके अतिसार नष्ट गूलरके समान गोलियां बना लें।
होते हैं। इनके सेवनसे कामशक्ति अत्यधिक बढ़ | | अनुपान-चावलोंका पानी । जाती है।
वृहद्रसेन्द्रगुटिका वृहज्जीरकादिमोदकः
प्र. सं. ६१२३ तथा ६१२४ देखिये ( भै. र. । ग्रहण्य.)
वृहद्रसोनपिण्डः रस प्रकरणमें देखिये। वृहत्कामेश्वरमोदकः
(बृ. यो. त. । त. ९३.) (र. र. । वाजी.)
प्र. सं. ५१७३ महा रसोनपिण्डः देखिये । रस प्रकरणमें देखिये।
वृहन्महोदधिवटी वृहत् खदिरवटिका
महोदधि वटी (बृहत्) देखिये । ( भै. र. ; र. र. ; वृ. मा. ; च. द. । मुखरोगा.) वृहन्माणकादिगुटिका
प्र. सं ५१७० " महा खदिरवटिका" प्र. सं. ५१७६ मानकादि गुटिका (बृहद् ) देखिये।
| देखिये। __ (६६८०) वृहदकोलवटकः
वृहन्मेथीमोदकः (ग. नि. । गुटिका.)
प्र. सं. ५१८५ मेथी मोदकः ( वृहत् ) सदाय॑ङ्कोलपाठानां मूलं तु कुटजस्य च। देखिये । शाल्मलेरथ निर्यासो धातकीरोधदाडिमम् ॥ पिष्टाऽक्षसम्मितान् कृत्वा वटकांस्तण्डुलाम्भसा। वृहल्लवङ्गादिवटी तानेव मधुसंयुक्तानेकैकान् प्रातरुत्थितः॥ प्र. स. ६३५१ लवङ्गादिवटी देखिये ।
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गुटिकापकरणम् ]
चतुर्थों भागः
(६६८१) ,हणी गुटिका
तदनन्तर ८. सेर गायके घीमें यह काथ और (च.। चि. स्था. अ २) मुलैठी, द्राक्षा (मुनक्का), कठूमर, पीपल, कौंचके शरमूलेक्षुमूलानि काण्डेहूं सेक्षुबालिकाम् ।।
बीज, महुवेके फूल, खजूर, और शतावरका कल्क शतावरौं पयस्यां च विदारी कण्टकारिकाम् ॥
( सब चीजें समान भाग मिश्रित, पत्थर पर पिसी जीवन्ती जीवकं मेदां वीराश्चर्षभकं बलाम् ।
हुई १ सेर), एवं ८-८ सेर बिदारीकन्दका रस, ऋद्धिं गोक्षुरकं रास्नामात्मगुप्तां पुनर्नवाम ॥ आमलेका रस और ईखका रस तथा ३२ सेर पृथक् त्रिपलिकान् कृत्वा माषाणामाढकं नवम्। गायका दूध मिला कर पुनः पकावें। विपाचयेज्जलद्रोणे चतुर्भागश्च शेषयेत् ॥ जब जलांश शुष्क हो जाय तो घीको छान तत्र पेष्याणि मधुकं द्राक्षा फल्गु च पिप्पली। लें और उसमें १-१ सेर खांड और बंसलोचनका आत्मगुप्ता मधुकं च खजूरं च शतावरी ॥ चूर्ण, २० तोले पीपलका चूर्ण, ५ तोले काली विदार्यामलकेक्षणां रसस्य च पृथक पृथक । | मिर्चका चूर्ण; २॥-२॥ तोले दालचीनी, इलायची सर्पिषश्चाढकं दद्यात् क्षीरद्रोणञ्च तद्भिषक् ॥ और नागकेसरका चूर्ण एवं १ सेर शहद मिलाकर साधयेद् घृतशेषञ्च सुपूतं योजयेत् पुनः । ।५-५ तोलेके मोदक बनावें । शर्करायास्तुगाक्षीश्चूिर्णैः प्रस्थोन्मितैभिषक इन्हें अग्नि बलोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे पलैश्चतुभिर्मागध्याः पलेन मरिचस्य च । बल वीर्यकी अत्यन्त वृद्धि होती है। यह अत्यन्त त्वगेलाकेशराणाश्च चूर्णरईपलोन्मितै ॥ वृष्य है और इसे सेवन करनेसे मनुष्य घोड़ेके समान मधुनः कुडवाभ्याञ्च द्वाभ्यां तत् कारयेद्भिषक्। | स्त्रीसमागम कर सकता है। पलिका गुडिकाः कृत्वा ता यथाग्नि प्रयोजयेत्।।
वेदविद्यावटी एष वृष्यः परं योगो वृंहणो बलबर्द्धनः।।
रस प्रकरणमें देखिये । अनेनाश्व इवोदीर्णो लिङ्गमर्पयते स्त्रियाम् ॥
वैद्यनाथवटिका शर ( सरकण्डे ) की जड़, ईखकी जड़,
रस प्रकरणमें देखिये। काण्डेक्षु (ईख भेद) की जड़, ईक्षुबाबिका (कांस भेद) की जड़, शतावर, क्षीरकाकोली, विदारीकन्द,
वैद्यनाथवटी कटेलीकी जड़, जीवन्ती, जीवक, मेदा, शालपर्णी,
रस प्रकरणमें देखिये । ऋषभक, खरैटीकी जड़, ऋद्धि, गोखरु, रास्ना, (६६८२) व्योषादिगुटिका (१) कौंचके बीज और पुनर्न गा (साठी) की जड़, १५- (वै. र, ; वृ. नि. र. । कासा. ; शा. सं. । १५ तोले एवं नवीन उड़द ४ सेर ले कर सबको खं. २ अ. ७ ; यो. चि. म. । अ. ३) एकत्र कूट कर ३२ सेर पानीमें पकावें और ८ व्योषाम्लवेतसं नव्यं तालीसं चित्रकं तथा । सेर शेष रहने पर छान लें।
जीरकं तिन्तिडीकं च प्रत्येकं कर्षभागिकम् ॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि त्रिसुगन्धं त्रिशाणं स्याद् गुडः स्यात्कर्षविंशतिः। सर्वैः समा समसिताः क्षौद्रेण गुटिकाः कृताः॥ सर्वमेकत्र सङ्कटय वटिका कर्षसम्मिता ॥ मूत्रकृच्छ्रज्वरच्छर्दिकासशोषभ्रमक्षये। भक्षयेत्पातरुत्थाय सर्वान्कासान् ब्यपोहति । तापे पाण्ड्वामयेऽल्पेऽनौ शस्ताः सर्वविषेषु च।। पीनसं श्वासमरुचिं स्वरभेदं नियच्छति ॥ सोंठ, मिर्च, पीपल, दालचीनी, तेजपात,
सांठ, मिर्च, पीपल, अम्लबेत, चव, तालीस- इलायची, नागरमोथा, बायबिडंग और आमला १पत्र, चीता, जीरा और तिन्तडीकका चूर्ण १।-१।। १ भाग तथा निसोत सबके बराबर ले कर चूर्ण तोला, दालचीनी, तेजपात और इलायचीका चूर्ण बनावें और उसमें उसके बराबर खांड मिला कर ३-३ शाण (प्रत्येक ३॥ माशे ) और गुड़ २५ | आवश्यकतानुसार शहद डालकर घोट कर (६-६ तोले ले कर सबको एकत्र कूट कर ११-१॥ | माशेके) मोदक बना लें । तोलेके मोदक बनावें।
____ इनके सेवनसे मूत्रकृच्छू, ज्वर, छर्दि, कास, ___ इनमेंसे १-१ मोदक प्रातःकाल (उष्ण जलके
| शोष, भ्रम, क्षय, ताप, पाण्डु, अग्निमांध और साथ) सेवन करनेसे हर प्रकारकी खांसी, पीनस, |
| विषविकार नष्ट होता है। श्वास, अरुचि और स्वरभेदका नाश होता है। . (व्यवहारिक मात्रा-६ माशे ।)
__(६६८५) व्योषान्तिकागुटिका (६६८३) व्योषादिगुटिका (२)
(ग. नि. । कासा. १०; वृ. मा. ; र. र. । कासा.) ( यो. र. । अर्शो.)
तालीसवह्निदीप्यमुस्ताचविकाम्लवेतसव्योपैः । गुडव्योषवरावेल्लतिलारुष्करचित्रकैः। तुल्यैस्त्रिमुगन्धियुतैर्गुडेन गुटिका प्रकर्तव्या ॥ अर्शासि हन्ति गुटिका त्वग्विकारं च शीलिता॥ कासश्वासारोचकपीनसहत्कण्ठवाग्विरोधेषु।
सेांठ, मिर्च, पिपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, ग्रहणीगुदोद्भवेषु च शस्ता व्योपान्तिकानाम ॥ बायबिडंग, तिल, शुद्ध भिलावा और चीतेका चूर्ण | । तालीसपत्र, चीता, अजवायन, नागरमोथा, १-१ भाग तथा गुड़ सबके बराबर ले कर चव, अम्लबेत और सांठ, मिर्च, पीपल एवं दाल[६-६ माशेकी ] गोलियां बनावें ।
चीनी, तेजपात और इलायचीका चर्ण १-१ भाग इनके सेवनसे अर्श और त्वग्दोषोंका नाश तथा गुड़ सबके बराबर लेकर सबको एकत्र कूट होता है।
कर ( ६-६ माशेकी ) गोलियां बनावें । ... (६६८४) व्योषादिवटी
इनके सेवनसे खांसी, श्वास, अरुचि, पीनस, - ( वा. भ. । कल्प अ. २)
हृदय कण्ठ और वाणीका अवरोध, ग्रहणीविकार, व्योपत्रिजातकाम्भोदकृमिघ्नामलकैस्त्रिवृत। J और अर्शका नाश होता है।
इति वकारादिगुटिकाप्रकरणम्
-01 -16
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गुग्गुलुपकरणम् ]
चतुर्थो भागः
६१७
अथ वकारादिगुग्गुलुप्रकरणम् (६६८६) वज्रगुग्गुलुः घा त्था भिलावेका तेल डालते रहें । जब सब (र. र. । वातरक्ता.)
चीजें मिल कर एकजीव हो जाएं तो उसे चिकने
पात्रमें भरकर सुरक्षित रक्खें । त्रिकटु त्रिफला दन्ती चित्रकं त्रिता शठी। विडङ्ग मुस्तकं रात्रि बाकुचीन्द्रयवं वचा ।।
___इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे अकोठमूलं कुष्ठश्च राजवृक्षस्य मूलकम् ।
| विविध दोषोंसे उत्पन्न वातरक्त, श्लीपद, शोथ, एतेषां पलिक ग्राह्यं तत्सम गुग्गुलु कुरु ॥
शूल, प्रमेह, मेद, गलरोग, प्लीह, गुल्म, उदररोग, भल्लाततैलं द्विपलं गोघृतेन जडीकृतम् ।
अष्ठीला, खांसी, श्वास, अरुचि, जीर्णज्वर, आनाह, तत्र ताम्रहरितालं द्वयोःकुर्यात पलद्वयम् ।।
संग्रहग्रहणी और पाण्डु, हलीमक तथा कामलाका सर्वमेकीकृतं यत्नात् पेषयित्वा सुपिण्डितम् ।
नाश और बलवर्णाग्निकी वृद्धि होती है। घृतभाण्डे तु संस्थाप्य खादेन्मास चतुष्टयम् ॥ (६६८७) वज्रवल्ल्यादिगुग्गुलुः गुग्गुलुर्वज मायं गहनानन्दभाषितः ।
(र. र. । भना.) देशकालवयोवह्नि दृष्ट्वा वा त्रुटिवर्द्धनम् ॥ वातरक्तं निहन्त्याशु नानादोषसमुद्भवम् ।
वज्रवल्ल्यर्जुनो वासा विशाला लोहटङ्कणौ । श्लीपदं शोथशूलानि मेहमेदोगलामयान् ॥
रसगन्धकसिन्धूत्थाः समभागेन चूर्णयेत् ।। प्लीहगुल्मोदराष्ठीलाकासश्वासमरोचकम् । चूर्णाद्गुणत्रयं ग्राह्यं गुग्गुलुं धृतपिट्टितम् । जीर्णज्वरञ्च सानाहं बलवर्णाग्निवर्द्धनम् ॥ वज्रवल्ल्यादिको नामगुग्गुलुः परिनिर्मितः ॥ संग्रहग्रहणीं दुष्टां पाण्डवादित्रितयं जयेत् ॥ गहनानन्दनाथेन भन्नरोगविनाशनः । सेठ, मिर्च, पीपल, हरे, बहेड़ा, आमला.
| नाना भग्नं निहन्त्याशु बलवर्णाग्निवर्द्धनः ॥ दन्तीमूल, चीता, निसोत, कचर, वायबिडंग, कृमिकुष्ठाक्षिरोगाणां हन्ता ग्रन्थिव्यथापहः । नागरमोथा, हल्दी, बाबची, इन्द्रजौ, बच, अङ्गोठमूल, कटिहृद्रोगशमन आमवातनिषूदनः ।। कूठ और अमलतासकी जड़; इनका चूर्ण ५-५ हड़जोड़ी, अर्जुनकी छाल, बासा, इन्द्रायनकी तोले, शुद् गूगल सबके समान, भिलावेका तेल | जड़, लोहभस्म, सुहागेको खील, शुद्ध पारद, शुद्ध २० तोटे, गायका घी २० तोले, ताम्र भस्म ५ गन्धक और सेंधा नमक समान भाग एवं शुद्ध तोले और शुद्ध हरताल ( या हरताल भस्म ) ५ गूगल सबसे ३ गुना ले कर प्रथम पारे गन्धककी तोले ले कर समस्त ओपधियोंके चर्ण और गूगल- कजली बनावें और फिर गूगलमें थोड़ा थोड़ा को एकत्र मिलाकर कूटें और उसमें थोड़ा थोड़ा। घृत डाल कर कूटें । जब गूगल पतला हो जाय तो
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६१८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
उसमें समस्त ओषधियोंका चूर्ण मिला कर अच्छी भक्षयेत्प्रत्यहं प्रातरुष्णतोयानुपानतः । तरह कूट कर सुरक्षित रक्खें ।
दिने दिने प्रयोक्तव्यं मासमेकं निरन्तरम् ।। . इसके सेवनसे अनेक प्रकारका भग्न रोग नष्ट सामवातं कटीशूलं गृध्रसीं खञ्जपङ्गुताम् । हो कर बल, वर्ण, और अग्निकी वृद्धि होती है। वातरक्तं सशोथश्च सदाहं क्रोष्टुशीर्षकम् ॥
इसके अतिरिक्त यह गूगल कृमि, कुष्ठ, नेत्र- शमयेद्बहुशो दृष्टमपि वैद्यविवर्जितम् ॥ रोग, प्रन्थि, कटि रोग, हृद्रोग और आमवातको अण्डीका तेल, शुद्ध गन्धक, शुद्ध गूगल, हर्र, भी नष्ट करता है।
बहेड़ा और आमला समान भाग ले कर सबको ( मात्रा-१ माशा)
एकत्र मिलाकर अच्छी तरह कूटें। (६६८८) वरादिगुग्गुलः ___ इसे नित्य प्रति प्रातःकाल १ मास तक उष्ण
(भा. प्र. । म. खं. २ उपदंशा.) जलके साथ सेवन करनेसे आमवात, कटिशूल, वरानिम्बार्जुनाश्वत्थखदिरासनवासकैः । गृध्रसी, खञ्जता, पङ्गुता, वातरक्त, शोथ और दाहचूर्णितैर्गुग्गुलुसमैवटका अक्षसम्मिताः ॥ युक्त क्रोष्टुशीर्ष नष्ट हो जाता है। कर्तव्या नाशयन्त्याशु सालिङ्गसमुत्थितान् । यह अनेक बारका अनुभूत प्रयोग है और उपदंशानमृग्दोषांस्तथा दुष्टत्रणानपि ॥ वैद्योंसे त्यक्त रोगी भी इससे स्वस्थ हो जाते हैं। हर्र, बहेड़ा, आमला, नीमको छाल, अर्जुनकी
( मात्रा-३ माशे ।) छाल पीपल, वृक्षकी छाल, खैर और असनाकी छाल तथा बांसा; इनका चूर्ण १-१ भाग एवं
(६६९०) विडङ्गादिवटिकागुग्गुलुः शुद्ध गूगल सबके बराबर ले कर सबको एकत्र (वृ. मा.; वै. र. । व्रणशोथ. ; व. से. । आगन्तु मिलाकर ( आवश्यकतानुसार घी डाल कर ) कूटें व्रण ; धन्वः । व्रणा. ; र. र. ; यो. र. ; वृ. नि.
और सबके अच्छी तरह मिल जाने पर ११-१। र. । व्रगशोथा. ; वृ. यो. त. । त. १११ ) तोलेके वटक बना लें।
विडङ्गत्रिफलाव्योषचूर्ण गुग्गुलुना समम् । इनके सेवनसे उपदंश जन्य लिङ्गके ब्रश और | सर्पिषा चटकी कत्वा खादेद्रा हितभोजनम ॥ रक्तदोषोंका नाश होता है।
दुष्टत्रणापचीमेहकुष्ठनाडीविशोधनः ॥ ( व्यवहारिक मात्रा-३ माशे ।) ___बायबिडंग, हर, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च
(६६८९) वातारिगुग्गुलुः और पीपलका चर्ण १-१ भाग तथा शुद्ध गूगल
( भै. र. ; र. र. ! आमवाता.) सबके बराबर ले कर सबको एकत्र मिलाकर थोड़ा वातारितैलसंयुक्तं गन्धकं पुरसंयुतम् । थोड़ा घृत डालकर करें और सबके अच्छी तरह फलत्रययुतं कृत्वा पिट्टयित्वा चिरं रुजि ॥ । मिल जाने पर (३-३ माशेको) गोलियां बना लें ।
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गुग्गुलुप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
इसके सेवन से दुष्ट ब्रग, अपची, प्रमेह, कुष्ठ । इसके सेवनसे वातरोग, विषूचिका, गुल्म, और नाडी ब्रणका नाश होता है । | शूल, कम्प वायु और गृध्रसीका नाश होता है । (६६९१) विश्वादिगुग्गुलुः (१) । (मात्रा-३ माशे ।) (वृ. नि. र. । वातव्या.)
वृहद्योगराजगुग्गुलुः विश्वैरण्डशिफाशुण्ठीदारुकुष्ठं ससैन्धवम् । प्र. सं. ५७८२ " योगराज गुग्गुलुः (६) रास्नामृतोद्भवं चूणे गुग्गुलुर्द्विगुणस्तथा । बृहद् देखिये । एकैका गुटिका तस्य प्रत्यहं भक्षिता सती।
। (६६९३) व्याधिशार्दूलो गुग्गुलुः पथ्याशिनोतिवेगेन हन्ति विभ्रममारुतम् ॥
(वै. र. । आमवाता.) सोंठ, अरण्डमूल, सोंठ, देवदारु, कूठ, सेंधा,
पिण्डितं गुग्गुलोःप्रस्थं कटुतैलं पलाष्टकम् । रास्ना और गिलोयका चूर्ण १-१ भाग एवं शुद्ध
प्रत्येकं त्रिफला प्रस्थं सार्द्धद्रोणे जले पचेत् ॥ गगल सबसे २ गुना ले कर सबको एकत्र मिला
पादशेषं ततः पूतं पुनरग्नायधिश्रयेत् । कर (आवश्यकतानुसार घी डाल कर ) कूटें । जब
त्रिकटुत्रिफलामुस्तं विडङ्गं सुरदारुच ।। सब अच्छी तरह मिल जाएं तो (३--३ माशेकी)
गुडूच्यग्नित्रिवृदन्ती वचा सूरणमानकम् । गोलियां बना लें।
पारदं गन्धकं चैव प्रत्येकं शुक्तिसम्मितम् ॥ इनके सेवनसे विभ्रम वायु नष्ट होता है।
शुद्धं सहस्र प्रत्यग्रं जयपालफलं बुधः । ( सोंठ दो बार आई है इस लिये २ भाग
स्वगङ्करविनिर्मुक्तं सिद्धे सञ्चूयं निक्षिपेत् ।। लेनी चाहिये)
ततो माषद्वयं जग्वा पिवेत्तप्तजलादिकम् । (६६९२) विश्वादिगुग्गुलुः (२) ।
अग्निं च कुरुते दीप्तं वडवानलसन्निभम् ॥ (वृ. नि. र. । वातव्या. ) धादि वयोवृद्धिं बलं सुविपुलं तथा। शुण्ठी कणा कणामूलं विडॉ दारु सैन्धवम् । आमवात शिरोवातं ग्रन्थिवातं भगन्दरं ॥ रास्ना वहिर्यवानी च मरिचोग्राभया समम् ॥ जानुजङ्घाश्रितं वातं कटीवातं तथैव च । द्विगुणं गुग्गुलोश्चूर्णमाज्ययुक्तं निहन्ति तान्। शोथं द्धिं च शूलादिगुदजानि विनाशयेत् ॥ वातं विषूचिका गुल्मं शूलं कम्पं च गृध्रसीम्॥ हर, बहेडे और आमले का चूर्ण १-१ सेर
सोंठ, पीपल, पीपलामूल, बायबिडंग, देवदारु, ले कर सबको ४८ सेर पानीमें पकावें और १२ सेंधा, रास्ना, चीता, अजवायन, काली मिर्च, बच सेर पानी शेष रहने पर छानकर उसमें १ सेर
और हर्रका चूर्ण १-१ भाग तथा शुद्ध गूगल शुद्र गूगल और १ सेर सरसोंका तेल मिला कर सबसे दो गुना लेकर सबको एकत्र मिला कर थोड़ा। पुन: पकावें । जब गाढ़ा हो जाय तो उसमें निम्न थोड़ा घी डालकर अच्छी तरह कूटें । | लिखित औषधोंका चूर्ण मिला दें
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- भैषज्य रत्नाकरः
६२०
सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, नागरमोथा, बायबिडंग, देवदारु, गिलोय, चीता, निसोत, दन्तीमूल, बच, सूरण (जिमीकन्द ) और मानकन्द; इनका चूर्ण २॥ -२ ॥ तोले; एवं २॥ -२ ॥ तोले शुद्ध पारद और गन्धककी कज्जली तथा छिलके और भीतरकी पत्ती रहित १००० जमालगोटे । इन सबका बारीक चूर्ण मिला कर सुरक्षित रक्खें ।
मात्रा - २ माशे ।
इसे खा कर उष्ण जलादि पीना चाहिये ।
इसके सेवन से जठराग्नि, धातु, आयु और की वृद्धि होती है । यह गूगल आमवात, शिरोगतवायु, ग्रन्थिवात, भगन्दर, जानु और जंघास्थित बायु, कटीगत वायु, शोथ, शूल, वृद्धिरोग, और अर्श आदिको नष्ट करता है ।
(६६९४) व्योषादिगुग्गुलुः
(वृ. मा. | मेदोवृद्ध्य. र. र. । स्थौल्य . ; वैद्या . ) व्योषाग्निमुस्तत्रिफला विडङ्गैर्गुग्गुलं समम् । खादन्सर्वाञ्जयेद्वाधीन्मेदः श्लेष्मामवातजानन् ||
सोंठ, मिर्च, पीपल, चीता, नागरमोथा, हर्र, बहेड़ा, आमला और बायबिडंगका चूर्ण १ - १ भाग तथा शुद्ध गूगल सबके बराबर कर सबको एकत्र मिला कर कूटें |
भारत
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[वकारादि
(६६९५) व्योषादिगुग्गुलुः
( वृ. नि. र. । गण्डमाला. ) षट्पलं व्योषचूर्ण च त्रिफला च पलत्रयम् । काञ्चनारत्वचश्चूर्ण योजयेद्वादशं पलम् गुग्गुलुः सर्वतुल्यः स्यात्सर्वमेकत्र कुट्टयेत् । क्षौद्रं पलशतं देवं गुटिकां कर्षसम्मिताम् ॥ भक्षयेद्गण्डमालार्तो गलग्रन्थींश्च नाशयेत् ॥
सेठ, मिर्च, पीपलका चूर्ण ३० - ३० तोले, हरे, बहेड़े और आमले का चूर्ण १५-१५ तोले, कचनारकी छालका चूर्ण ६० तोले तथा शुद्ध गूगल सबके बराबर ले कर सबको एकत्र मिला कर कूठें और सबके एक जीव हो जाने पर उसे १०० पल (६ । सेर) शहद में मिला कर १-१ 1 तोलेकी गुटिका बना लें ।
इसके सेवन से गण्डमाला और गलग्रन्थियां नष्ट होती हैं ।
(६६९६) व्योषाचा गुटिकागुग्गुलुः ( ग. नि. । गुटिका. ४ ) व्योषं सग्रन्थिकं पथ्यां चित्रकं जीरकद्वयम् । अजमोदां यत्रानीं च वनां चैवमवल्गुजम् || लवणत्रितयं क्षारं समभागानि चूर्णयेत् । यावत्येतानि द्रव्याणि तावन्तं गुग्गुलं शुभम् ॥ पलार्धसम्मतं चात्र योजयेच्चाम्लवेतसम् ।
यह गूगल मेद और कफ तथा आमवातज गुटिकैषा हिता वाते सामे सन्ध्यस्थिमज्जगे ॥ समस्त रोगोंको नष्ट करता है ।
( मात्रा - ३ माशा । )
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नवं करोति भग्नं च जठरानलदीपनम् । पूजिता देवदेवेन कालपादेन शम्भुना ||
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अवलेहप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
सेांठ, मिर्च, पीपल, पीपलामूल, हर्र, चीता, आधा भाग अम्लबेतका चूर्ण ले कर समस्त जीरा, काला जीरा, अजवायन, अजमोद (इसके पदार्थोको एकत्र मिला कर कूटें । स्थानमें भी अजवायन), बच, बाबची, सेंधा नमक, इसके सेवनसे सन्धि, अस्थि और मजागत काला नमक, बिड नमक और जवाखार समान आमवात तथा भग्नरोगका नाश और जठराग्निकी भाग ले कर चूर्ण बनावें ।
वृद्धि होती है। तदनन्तर इस सबके बराबर शुद्ध गाल और (मात्रा-३ माशे । )
इति वकारादिगुग्गुलुप्रकरणम्
अथ वकाराद्यवलहप्रकरणम् वङ्गावलेहः
बड़, सुगन्धबाला ( अथवा छोटी इलायची) ( रसें. सा. सं. । प्रमेहा.) हर्र, पीपल और मुलैठीका चूर्ण समान भाग ले कर रस प्रकरण में देखिये।
सबको शहदमें मिला कर अवलेह बनावें । (६६९७) वटाधवलेहः (१)
यह अवलेह तृषाको नष्ट करता है। (हा. सं. । स्था. ३ अ. १०)
(मात्रा-चूर्ण ३ माशे । शहद १ तोला ।) वटप्रवालान् ककुभस्य नीप
जम्ब्वाम्रकाणां खदिरस्य वापि । (६६९९) वत्सकावलेहः यथा प्रपन्नो मधुनावलेह
(हा. सं. । स्था. ३ अ. ३) आस्यास्रजं वारयते क्षणेन ॥ ___बड़, अर्जुन, कदम्ब, जामन, आम और खैर- वत्सकातिविपान गराभया मेंसे किसी एककी कोंपलोंको पीस कर शहदमें पेपितं च मधुमस्तुसंयुतम् । मिला कर चाटनेसे मुखसे होने वाला रक्तस्राव तुरन्त लेह एष नियतं च मानवं बन्द हो जाता है।
___ रक्तवाहमतिवारयत्यपि ॥ ( मात्रा-६ माशे ।) (६६९८) वटाचवलेहः (२)
इन्द्रजौ, अतीस, सोंठ और हरै समान भाग (वृ. नि. र. । तृष्णा .)
ले कर सबको एकत्र पीस कर शहदमें मिलावें । वटबाला शिवा कृष्णा मधुकं मधुना सह ।
इसमें मस्तु मिला कर चाटनेसे रक्तातिसार नष्ट अवलेहः कृतोमीषां तृषारोगो विनश्यति ॥ | होता है ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
(६७००) वरुणकगुडः
चूर्ण द्रव्य-सांठ, ककड़ी के बीज, गोखरु,
| पीपल, पाषाणभेद, दूर्वा, पेठेके बीज, खी रेके बीज, ( भा. प्र.। म. खं. २ अश्मरी. ; व. से. ; वृ. |
कमलगट्टे, धनिया (अथवा शुद्ध मनसिल), बथुवा, नि. र. । अश्मरी.) सहंजनेकी छाल, मुनक्का, छोटी इलायची, शिलानो जग्धं कृमिभिर्घनं
जीत, हर्र और बायबिडंग; प्रत्येक ५-५ तोला
ले कर चूर्ण बनावें। सुतरुणं स्निग्धं शुचिस्थान
इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे अश्मरी घने पुण्यनिरीक्षिते
शीघ्र ही निकल जाती है। वरुणकं छित्त्वा तुलां ग्राहयेत् ।
(६७०१) वाजीकरो लेहः (१) सङ्गृह्याशु चतुर्गुणासु विपचेत्पादावशेष जलं तत्तुल्येन गुडेन वै दृढतरे भाण्डे पचेत्पुनः।। (र. प्र. सु. । अ. १२) ज्ञात्वैवं घनतां गुडे परिणते प्रत्येकमेषां पलं । शतावरी क्षीरविदारिकां च । शुण्ठये रुकबीजगोक्षुरकणापाषाणभिच्छीतलाः प्रस्थार्थमानां पृथगेव कुर्यात् । कूष्माण्डपुसाक्षबीज
रसं तथा शाल्मलिमध्यमूलात् कुनटी वास्तूक शोभाअनै
प्रस्थं सितार्धाढकमत्र देयम् ॥ दक्षिलागिरिजाभया कृमि
सुपाचितं वै मृदुवदिना तथा हृतां चूर्णीकृतानां क्षिपेत् ॥
दीपलेपोऽपि हि जायते यथा । पथ्याशी प्रतिवासरं गुड
स्वपत्रकैलाः सह केशरेण ममुं युज्याप्रमाणं नरः
पलप्रमाणा हि ततो विदध्यात् ॥ खादेत्तस्य समस्तदोष
लेहे सुशीते मधु विल्वमात्र जनिताऽश्मर्य पतन्ति द्रुतम् ॥
प्रातः प्रभक्षेदिह कर्षमात्रम् ॥ उत्तम स्थानमें उत्पन्न हुवे, कृमियोंसे न शतावर और क्षीरविदारीका चूर्ण ४०-४० खाये हुवे तरुण और स्निग्धतायुक्त बरनेकी छाल तोले; सेंभलकी जड़के बीचकी मूसलीका रस २ ६। सेर ले कर कूट कर ५० सेर पानीमें पकावें सेर और मिश्री २ सेर ले कर सबको एकत्र मिला
और १२॥ सेर पानी शेष रहने पर छान लें। कर पकावें । जब गाढ़ा हो कर करछीको लगने तदनन्तर उसमें ६। सेर गुड़ मिला कर पकावें। लगे तो उसमें तेजपात, दालचीनी, इलायची और जब वह गुड़के समान गाढ़ा हो जाय तो उसमें नागकेसरका चूर्ण ५-५ तोले मिला दें । जब निम्न लिखित ओषधियोंका चूर्ण मिला कर सुर- वह ठंडा हो जाय तो उसमें ५ तोले शहद मिला क्षित रखें।
कर सुरक्षित रक्खें ।
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अवलेहप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
-
मात्रा-११ तोला।
सञ्चूर्ण्य सर्व पृथगेव पालिइसे प्रातःकाल सेवन करना चाहिये । इसके ___कं क्षीरेण पाच्यं दशभागकेन ॥ सेवनसे कामशक्ति बढ़ती है।
सिता प्रदेया दशपालिका च
__ पाकं विदध्यादपि चाग्नियोगतः । (६७०२) वाजीकरी लेहः (२)
मधुप्लुतं भक्षितमर्धयामा(र. प्र. सु. । अ. १२)
कामप्रदीप्तिं कुरुते सदैव ॥ शङ्गाटकस्यापि पलं विधेयं
वीर्यस्य वृद्धिं हि तथाऽग्निदि वाराहिकन्दश्च पलप्रमाणः ।
बलप्रवृद्धिं सहसैव कुर्यात् ॥ चूर्णीकृतं गालितमेव वस्त्राद्
शतावर, गोखरु, दाभकी जड़, सिंघाड़ा, भृष्टं तथाज्येन सितासमेतम् ।। नागबला (गंगेरन) और कौंचके बीजोंका चूर्ण ५-५ लवङ्गकृष्णागरुकेशराणां
तोले तथा दूध १। सेर एवं मिश्री ५० तोले ले पलंपदद्याद्दशभागदुग्धम् । कर सबको एकत्र मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें । लेहं सुजातं खलु भक्षयेत
जब गाढ़ा हो जाय तो उसे अग्निसे नीचे उतार कर्षप्रमाणं नितरां प्रगे वै ॥ कर ठण्डा करके उसमें (५ तोले) शहद मिला कर कामस्य वोधं कुरुते हि शीघ्र
सुरक्षित रक्खें । नारी रमेद्वै चटकायतेऽसौ ॥
इसे खानेसे आधा पहर पश्चात् ही काम सिंघाड़े और बाराहीकन्दका कपड़छन चूर्ण प्रदीप्त हो जाता है। ५-५ तोले ले कर धीमें भून लें और उसमें १।
यह पाक वीर्य, अग्नि और बलकी वृद्धि भी सेर दूध तथा आवश्यकतानुसार मिश्री मिला कर
करता है। मन्दाग्नि पर पकायें । जब गाढ़ा हो जाय तो उसमें ११-१। तोला लौंग, पीपल, अगर और नागकेसर
(मात्रा-१ तोला ) का चूर्ण मिला कर सुरक्षित रखें।
(६७०४) वाजीकरो लेहः (४) इसे प्रातःकाल १। तोलेकी मात्रानुसार सेवन (र. प्र. सु. । अ. १२) करनेसे शीघ्र ही कामोत्तेजित हो कर मनुष्य चिड़ेके माषाणामात्मगुप्तानां बीजानामाढकं नवम । समान बार बार स्त्रीसमागम कर सकता है।
जीवकर्षभको जीवां मेदां वृद्धिं शतावरीम् ॥ (६७०३) वाजीकरो लेहः (३) मधुकं चाश्चगन्धां च साधयेत्प्रसृतोन्मितान् ।
( र. प्र. सु. । अ. १२) रसे तस्मिन् घृतप्राथं गव्यं दशगुणं पयं ॥ शतावरीगोक्षुरदर्भमूलं
विदारीस्वरसप्रस्थं प्रस्थमिक्षुरसस्य च । शङ्गाटकं नागबलात्मगुप्ते । दचा मृद्वमिना साध्यं सिद्धं सपिनिधापयेत् ॥
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६२४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
विकारादि
शर्करायास्तुगाक्षीर्याः क्षौद्रस्य च पृथक पृथक् । मुस्ताधात्रीशुभाभार्गोंत्रिसुगन्धैश्च कार्षिकैः । भागांश्चतुष्पलान् तत्र पिप्पल्याश्चावपेत् पलम् ॥ शैलेय विश्वधन्याकमरिचैश्च पलांशिकैः ॥ पलं पूर्वमतो लीव ततोऽन्नमुपयोजयेत् । पिप्पलीकुडवश्चैव मधु मानी पदापयेत् । यदीच्छेदक्षयं शुक्रं शेफसश्चोत्तमं वलम् ॥ कासं श्वासं क्षयं हिक्कां रक्तपित्तं हलीमकम् ॥
नवीन उडद और कौंचके बीज ४-४ सेर हृद्रोगमम्लपित्तश्च पीनसं च व्यपोहति । तथा जीवक, ऋषभक, जीवन्ती, मेदा, वृद्धि, शता- छिलके और बीज रहित उसीजे हुवे पेठेके वर, मुलैठी और असगन्ध १०-१० तोले ले कर टुकड़े ३ सेर १० तोले ले कर उन्हें २ सेर घीमें सबको एकत्र कूट कर आठ गुने पानीमें पकावें मन्दाग्नि पर पकावें । जब भुन कर लाल हो जाएं और चौथा भाग शेष रहने पर छान लें। तो उनमें ८ सेर बासेका काथ और ६। सेर खांड ___ तदनन्तर २ सेर गोघृतमें यह क्वाथ और मिला कर पकावें । जब अवलेह तैयार हो जाय २० सेर गोदुग्ध तथा २-२ सेर विदारीकन्द तो उसे अग्निसे नीचे उतार कर उसमें नीचे लिखी और ईखका रस मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें। ओषधियोंका चूर्ण और १ सेर शहद मिला कर जब घृत मात्र शेष रह जाय तो छान लें । और
। सुरक्षित रखें। फिर उसमें २०-२० तोले खांड और बंसलोचन
चूर्ण द्रव्य-नागरमोथा, आमला, बंसलो. का चूर्ण, ४० ताले शहद और ५ तोले पीपलका
चन, भरंगी, दालचीनी, तेजपात और इलायचीका चूर्ण मिला कर सुरक्षित रक्खें ।
चर्ण ११-११ तोला; शिलाजीत तथा सेठ, धनिया
और मिर्चका चर्ण ५-५ तोले, एवं पीपलका चूर्ण इसमेंसे ५ तोले औषध खाकर फिर अन्नाहार
२० तोले। करना चाहिये।
इसके सेवनसे खांसी, स्वास, क्षय, हिक्का, इसके सेवनसे लिंगकी शक्ति बढ़ती और शुक्र रक्तपित्त, हलीमक, हृद्रोग, अम्लपित्त और पीनसका क्षय नहीं होता।
नाश होता है। (६७०५) वासाखण्डकूष्माडावलेहः । (६७०६) वासावलेहः (१) ( वृहद. ) (वासाखण्डः)
(भै. र. । राजय.) (र, र. ; व. से. ; वृ. नि. र. । कासो. ; वं. से. । तुलामादाय वासाया जलद्रोणे विपाचयेत् । रक्तपित्ता. ; वृ. मा. । रक्तपित्ता ; भै. र. ; पादशेषे रसे तस्मिन् खण्डं पलशतं न्यसेत् ॥ च. द. । रक्तपि.)
शनैर्मेद्वग्निता सम्यक् सिद्धे तत्र प्रदापयेत् । पञ्चाशच पलं स्विन्नं कूष्माण्डात्प्रस्थमाज्यतः ।
त्रिकटु त्रिमुगन्धश्च कट्पलं मुस्तमेव च ॥ ग्राह्यं पलशतं खण्डं वासा क्वाथ ढके पत्चे ॥ १ ऐलेयमिति पाठान्तरम् ।
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अवलेहमकरणम् ] चतुर्यों भागः
६२५ कुष्ठं कम्पिल्लक श्वेतजीरश्च कृष्णजीरकम् । (६७८७) वासावलेहः (२) त्रिता पिप्पलीमूलं चव्यं कटुकरोहिणी ॥ (वासाहरीतक्यवलेहः) शिवा तालीशधन्याकं प्रत्येकश्च द्विकार्षिकम् । (वृ. यो. त. । त. ७५; भै. र. । रक्तपित्ता. ; चूर्णयित्वा क्षिपेत्तत्र शीते मधु पलाष्टकम् ॥ यो. र. । क्षय. ; वृ. नि. र. । श्वासा. ; ग. अस्य मात्रां ततो लीवा तोयमुष्णं पिबेदनु। नि. । लेहा. ५ ; यो. त. । त. २६; सर्वकासविकारेषु स्वरभङ्गे विशेषतः ॥ वृ. मा. ; वं. से. । रक्तपि,; च. द. । राजयक्ष्मणि दुःसाध्ये वात लेष्माश्रये । । रक्तपि. ; यो. चि. म. । अ. १) आनाहे वह्निमान्ये च हृद्रोगे च क्षतक्षये ॥ तुलामादाय वासायाः पचेदष्टगुणे जले। मूत्रकृच्छे च कृच्छ्रे च शस्तोऽयं लेह उत्तमः ॥ तेन पादावशेषेण पाचयेदाढक भिषक् ।।
६। सेर बासाको कूट कर ३२ सेर पानीमें | चूर्णानामभयानां तु खण्डात्पलशतं तथा । पका और ८ सेर पानी शेष रहने पर छान कर | द्वे पले पिप्पलीचूर्णात्सिद्धे शीते च माक्षिकात्॥ उसमें ६। सेर मिश्री मिला कर पुनः पकावें । जब कुडवं पलमानं तु चातुर्जातं सुचूर्णितम् । गाढ़ा हो जाय तो उसे अग्निसे नीचे उतार कर उसमें क्षिप्वाऽवलोडितं खादेद्रक्तपिसक्षतक्षयी ॥ सोंठ, मिर्च, पीपल, दालचीनी, इलायची, तेजपात, | कासश्वासगृहीतश्च यक्ष्मणा च विशेषेण ॥ कायफल, नागरमोथा, झूठ, कमीला, सफेद जीरा,
६। सेर बासेको १०० सेर पानीमें पकायें काला जीरा, निसोत, पीपलामूल, चव्य, कुटकी, | और २५ सेर पानी शेष रहने पर छान कर उसमें हरं, तालीस पत्र और धनियेका चूर्ण २॥ २॥ तोले
४ सेर हर्रका चूर्ण तथा ६। सेर खड मिला कर मिला दें तथा ठण्डा होने पर १ सेर शहद मिला |
पुनः पकावें । जब लेह तैयार हो जाय तो उसे कर सुरक्षित रखें।
अग्निसे नीचे उतार कर उसमें १० तोले पीपलका इसके सेवनसे हर प्रकारकी खांसी, विशेषतः । चूर्ण और ५-५ तोले दालचीनी, तेजपात, इलायची स्वरभंग, राजयक्ष्मा, अफारा, अग्निमांद्य, हृद्रोग, | तथा नागकेसरका चूर्ण मिलावें । जब वह ठण्डा क्षतक्षय और मूत्रकृच्छूका नाश होता है। हो जाय तो ४० तोले शहद मिला कर सुरक्षित
(मात्रा-१ से २ तोले तक । ) रक्खें। अनुपान-उष्ण जल।
१ वृ. नि. र. में. पीपल आधापल तथा २ पल नोट:-भै. र. में वासावलेहका एक अन्य पाठ भी वंशलोचन लिखी है । हैजिसमें प्रक्षेप द्रव्योंमें बसलोचन अधिक है तथा । यो. त. तथा गदनिग्रहमें ४ पल बंसलोचन काले जीरे और निसोतका अभाव है । प्रक्षेप द्रव्योंका और ८ पल शहद लिखा है पीपल दोनोंमें आधा परिमाण ११-११ तोला है।
पल ही है।
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६२६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
इसके सेवनसे रक्तपित्त, क्षत, क्षय, कास, श्वास और विशेषतः यक्ष्मामें लाभ पहुंचता है।
(६७०८) वासावलेहः (३) (भै. र. । कासा. ; भा. प्र. । म. खं. २ राजयमा. ; भै. र.; व. से.; र. र. । राजय. ;
यो. त.। त. २७) वासकस्वरसमस्थे माणिका सितशर्करा । पिप्पली द्विपलं दत्वा सर्पिषश्च पचेच्छनैः ॥ लेहीभूते ततः पश्चाच्छीते क्षौद्रपलाष्टकम् । दत्त्वावतारयेद्वैद्यो मात्रया लेहमुत्तमम् ॥ निहन्ति राजयक्ष्माणं कासं वासं सुदारुणम् । पाश्वेशूलश्च हृच्छूलं रक्तपित्तं ज्वरन्तथा ।
बासेका स्वरस २ सेर, सफेद खांड ४८ | तोले; घी १० तोले और पीपलका चूर्ण १० तोले ले कर सबको एकत्र मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब गाढ़ा हो जाय तो अग्निसे नीचे उतार लें और ठण्डा होने पर उसमें १ सेर शहद मिला कर सुरक्षित रक्खें ।
इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेने राज यक्ष्मा, खांसी, दारुण श्वास, पार्श्व शूल, हृदय शूल, रक्तपित्त और ज्वरका नाश होता है ।
(६७०९) वासिष्ठहरीतक्यवलेहः ( ग. नि. । लेहा. ५; व. से. । कासा. ) यवाढकं सप्त जलाढकानि
हरीतकीनां च शतं गुरूणाम् । दन्त्यश्वगन्धाचिरिबिल्वमूलं
भल्लातकांश्चापि च पक्कविल्वम् ॥
उभे हरिद्रे गजपिप्पली च ___ मूलानि पत्राणि च चित्रकस्य । पिप्पल्यपामार्गमथात्मगुप्ता
सर्वाणि कुर्यात्पलसम्मितानि ॥ लौहे समादाय पचेत्कटाहे
द्विपञ्चमूलं च यवप्रमाणम् । मृद्वग्निसिद्धांश्च यवान्विदित्वा
शनैः प्रयत्नादवतारयेच्च ॥ निःस्राव्य तेनैव जलेन सम्यक् ___ सार्ध पुराणस्य शतं गुडस्य । भूयो गुरूणामथ तत्र दद्या__ हरीतकीनां च सहस्रमन्यत् ॥ प्रस्थं पुराणस्य घृतस्य चैव
नवस्य तैलस्य च तावदेव । शीते मधु स्नेहसमं च दद्या
त्पलानि चाष्टावथ पिप्पलीनाम् ॥ पथ्ये सलेहे त्वथ भक्ष्यमाणे
सर्वा रुजो नाशयतो हि मासात् । मासद्वयेनैव च नेत्ररोगान्
निहन्ति गार्धे लभते च चक्षुः ॥ मासखिभिर्नाशयतो हि कुष्ठं
विशीर्णतां चाङ्गलिनासिकानाम् । भगन्दरश्लीपदवातगुल्मा___ नर्शा स्यथो मासचतुष्टयेन ॥ केशान्धनान्कुञ्चितदीर्घनीलान् ___ स पञ्चभिश्चैव करोति मासैः। सहस्रसङ्ख्यां च तथोपयुज्य
बलं लभेदुत्तमकुअरस्य ॥
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अवलेहप्रकरणम्
चतुर्थो भागः
६२७
स्वरं मयूरस्य जवं हयस्य
कि जिसमें उंगलियां और नासिका तक गल गई शरच्छशाङ्कस्य तथैव कान्तिम । हो । ४ मासमें भगन्दर, श्लीपद, वातगुल्म और सौभाग्यमेधास्मृतिसत्वतेजः
अर्शका नाश हो जाता है। पांच मास तक सेवन शोभान्वितः पद्मसमानगन्धः ॥ करनेसे केश घने, कुञ्चित, काले और दीर्घ हो जीवेत्समानां च सहस्रमन्य
जाते हैं। प्रयोगकालादिति सिद्धवाक्यम् ।
ये १ हज़ार हरै सेवन करनेसे हाथीके समान न चानपानेऽध्वनि मैथुने वा
बल, मोरके समान स्वर, घोड़ेके समान गति और नरेण किंचित्परिहार्यमस्मिन् ॥
शरदेन्दुके समान कान्ति हो जाती है । समीक्ष्य कल्पं तु रसायनानां
इसको सेवन करनेसे सौभाग्य, मेधा, स्मृति, __ चकार योगं भगवान्वसिष्ठः ।।।
सत्व, तेज और शोभाकी वृद्धि होती और शरीरसे जौ ४ सेर, दशमूल ४ सेर, बड़ी बड़ी हरें
पद्मके समान सुगन्ध आने लगती है एवं आयु १०० नग, तथा दन्तीमूल, असगन्ध, करन की
अत्यन्त दीर्घ हो जाती है। जड़, भिलावा, पक्के बेलकी गिरी, हल्दी, दारुहल्दी, गजपीपल, चीतेकी जड़, चीतेके पत्ते, पीपल, अपा- इसके सेवनमें अन्नपान, माग गमन, और मार्ग और कौंचके बीज ५-५ तोले ले कर (जौके | मैथुनादिका कोई परहेज़ नहीं है। अतिरिक्त) सब चीजोंको अधकुटा करके ५६ सेर (६७१०) विजयायोगः पानीमें लोहेकी कढ़ाई में मन्दाग्नि पर पकावें । जय
(व. से. । रसायना.) जौ उसीज जाएं तो काथको छान कर उसमें ६। सेर पुराना गुड़, १ हजार बड़ी बड़ी हरें, २ सेर
पञ्चाङ्गमिन्द्राशनश्लक्ष्णचूर्ण पुराना धी, और २ सेर नवीन तिलका तेल मिला
पलाष्टकं सप्त सिता पलानि । कर पुनः पकावें। जब गाढ़ा हो जाय तो उसमें ४०
सितार्धमानं मधु तस्य चाई तोले पीपलका चूर्ण मिला दें और फिर ठण्डा होने
घृतं क्षिपेत्सर्वमिदं विमिश्रम् ।। पर ४ सेर शहद मिला कर सुरक्षित रक्खें।
कृत्वा नरो मासचतुष्टयं यत् इसमेंसे नित्य प्रति २ हर्र और (२ तोले)
पयोन्नभक्षी पयसा च भुंक्ते । अवलेह खाना चाहिये।
विहाय रोगान् समलान्मनीषी इसके सेवनसे १ मासमें शरीर रोग-रहित
जीवेच्चिरं यौवनसंस्थितश्रीः॥ हो जाता है। २ मासमें समस्त नेत्ररोग नष्ट हो । भांगके पंचांगका चूर्ण ४० तोले, मिश्री ३५ कर दृष्टि गृध्रके समान तीत्र हो जाती है। ३ मास | तोले, शहद १७॥ तोले और घी ८॥ तोले ले तक सेवन करनेसे वह कुष्ठभी नष्ट हो जाता है | कर सबको एकत्र मिला कर रक्खें ।
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६२८
भारत-भैषज्य-रत्माकरः
[वकारादि
इसे ४ मास तक दूधके साथ सेवन करने बायबिडंगके चावलोंका चूर्ण ४ सेर, पीपलके और दूध भातका आहार करनेसे समस्त रोग नष्ट चावलोंका चूर्ण ४ सेर, मिश्री ६ सेर, घी ८ सेर, हो कर यौबनयुक्त दीर्घायु प्राप्त होती है। तेल ८ सेर, और शहद ८ सेर ले कर सबको __ (६७११) विजयावलेहः
एकत्र मिला कर घृतके पात्रमें भर कर उसका
मुख बन्द कर दें और उसे राखके ढेरमें दबा दें। ( भा. प्र. म. खं. २ । अतिसारा.) त्रैलोक्यविजयाजातीफले तुल्ये कलिङ्गकम् ।
___ यह प्रयोग प्रावट ऋतुमें बनाना चाहिये
और औषधके पात्रको वर्षाके अन्न तक राखमें रहने गृहीत्वा द्विगुणं श्रेष्ठो लेहः सर्वातिसारनुत् ॥ देना चाहिये । एवं वर्षा ऋतु बीतने पर निकालकर ___ भांग और जायफलका चूर्ण १-१ भाग सेवन करना चाहिये। तथा इन्द्रजौका चूर्ण २ भाग ले कर शहदमें मिला
___ इसके सेवनसे १०० वर्षकी जरा रहित आयु कर चाटनेसे हर प्रकारका अतिसार नष्ट होता है ।
प्राप्त होती है। ( मात्रा-१॥-२ माशे।)
(नोट-औषध पात्रको खुले स्थान पर (६७१२) विडङ्गादिलेहः राखमें दबाना चाहिये कि जहां उस पर वर्षाका
(वा. भ. । चि. अ. १८) पानी गिरता रहे ) विडङ्गाद्रिजतु क्षौद्रं सर्पिष्मत्खादिरं रजः । (६७१४) विडङ्गाद्यवलेहः (२) किटिभश्वित्रदळूनं खादेन्मितहिताशनः ।।
( वा. भ. । उ. अ. २८) ___ बायबिडंगका चूर्ण, शिलाजीत, शहद, घी और मधुतैलयुता विडङ्गसारखैरसार- (कत्था) समान भाग ले कर सबको एकत्र |
___ त्रिफलामागधिकाकणाश्च लीढाः । मिलावें।
कृमिकुष्ठभगन्दरप्रमेहइसे सेवन करने और पथ्य पालन करनेसे क्षतनाडीव्रणरोहणा भवन्ति ॥ किटिभ कुष्ठ, श्वित्र और दादका नाश होता है ।
बायबिडंगकी गिरी, हर्र, बहेड़ा, आमला (६७१३) विडङ्गाद्यवलेहः (१) और पीपलके चावल समान भाग ले कर चूर्ण
(च. सं. । चि. अ. १) बनावें और उसमें १-१ भाग शहद तथा तेल विडतण्डलचूर्णानामाढकमाढकं पिप्पली मिला ले । तण्डुलानामध्यढिकं सितोपलायाः सपिस्त- इसे चाटनेसे कृमि, कुष्ठ, भगन्दर, प्रमेह, क्षत लमध्वादकैः षभिरेकीकृतं घृतभाजनस्थं प्रा- और नाडीव्रणका नाश होता है। वृषि भस्मराशाविति सर्व समानं पूर्वेण ॥ (मात्रा-५-६ माशे । )
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अवलेहप्रकरणम् ।
चतुर्थो भागः
६२९
(६७१५) विश्वादिलेहः चनका चूर्ण २ सेर और नवीन शहद ४ सेर ले ( यो. र. । कासा. ; वृ. यो. त. । त. ७८)
कर सबको एकत्र मिलो कर मथनीसे मथें और फिर विश्वाभार्गीकणासोमवल्क द्राक्षा सटी सिता।
घृतसे चिकने किये हुवे मृत्पात्रमें भर कर रख दें। लिह्यातैलेन वातोत्थं कासं जयति दुस्तरम् ।।
इसे अग्निबलोचित मात्रानुसार प्रातःकाल ___ सांठ, भरंगी, पीपल, कायफल, द्राक्षा, कचूर | | सेवन करनेसे बलवीर्य बढ़ता और कामोत्तेजित और मिश्री समान भाग ले कर चूर्ण बनावें और होता है। उसे तेलमें मिला कर चाटने योग्य कर लें।
(६७१८) वृहत्कुलत्थगुडः ____ इसके सेवनसे दुस्साध्य वातजकास भी नष्ट
(र. र. । हिक्कावासा.) हो जाती है।
चतुष्पलं मूलकशुण्ठिकाया(६७१६) विश्वाचवलेहः
स्तथैव शुद्धस्य कुलत्थकस्य । (वृ. मा । कासा.)
तुलां प्रदद्यादशमूलकस्य चूर्णिता विश्वदुःस्पर्शा शृङ्गी द्राक्षा शठी सिता। द्रोणेम्भसः सर्वमिदं पधेच्च । लीदवा तैलेन वातोत्थं कास जयति दुस्तरम् ॥ पूते रसे पादचतुर्थशेषे
सेठ, धमासा, काकड़ासिंगी, द्राक्षा, कचूर प्रस्थप्रमाणं रसमाकस्य । और मिश्री, समान भाग ले कर सबको पीस कर दत्त्वा हविस्तैलपलाष्टकञ्च तेलमें मिला कर चाटनेसे कष्टसाध्य वातजकास भी गुडस्य शुद्धस्य तुलां पचेच ।। नष्ट हो जाती है।
चूर्णैर्युतं जीरकचव्यशृङ्गी- (६७१७) वृष्ययोगः
__ भार्गीत्रिसौगन्धिककट्फलैश्च ।
मुस्तायवानीशठीपुष्करैश्च (च. सं. । चि. अ. २ पाद ४ वाजीकर.)
___ सव्योषकैरर्द्ध पलप्रमाणैः ।। शर्करायास्तुलैका स्यादेका गव्यस्य सर्पिषः । अर्की क्षिपेन्माक्षिक प्रस्थमात्रां प्रस्थो विदार्याश्चूर्णस्य पिप्पल्या प्रस्थ एव च।
पथ्याशिनः स्यादुपयोगकाले । . अर्दाढकं तुगाक्षीर्याः क्षौद्रस्याभिनवस्य च ।
कफोद्भवा ये च विकारजाताः । तत् सर्व मूच्छितं तिष्ठेन्मार्तिके घृतभाजने ॥ श्वासः सकासो हृदयक्षतश्च ॥ मात्रामग्निसमां तस्य प्रात: प्रातः प्रयोजयेत् ।
हृत्पावशूलज्वरवान्तितृष्णाएष वृष्यः परं योगो बल्यो वृंहण एव च ॥ ___ स्वरक्षयारोचकवह्रिसादाः।
खांड ६। सेर, गोघृत १२॥ सेर, विदारीक- ते नाशमायान्त्युपयोगकाले . न्दका चूर्ण १ सेर, पीपलका चूर्ण १ सेर, बंसलो- कुलत्थसज्ञस्य गुडस्य शीघ्रम् ।।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
मूली, सेठ और शुद्ध कुलत्थ २०, २० | पञ्चकोलबला हस्तिपिप्पली साश्मभेदकान् । तोले और दशमूल ६। सेर ले कर सबको ३२ भार्गी पुनर्नवाश्चैव द्विपलांशां यवादकम् ।। सेर पानीमें पकावें और ८ सेर पानी शेष रहने | पचेत्पश्चाहके तोये पादशेष तथोद्धरेत् ।। पर छान लें । तदनन्तर उसमें २ सेर अदरक- | विनीय चाभयां तत्र पुनश्चाग्नावधिश्रयेत् ।। का रस, १ सेर घी, १ सेर तेल और ६ सेरमा
| दत्त्वा गुडतुलां तत्र कषाये कुडवं पृथक् । शुद्ध गुड़ मिला कर पुनः पकावें । जब गाढ़ा हो |
तेलात् पिप्पलिचूर्णाच घृतात् क्षौद्रात्तथैव च ॥ जाय तो उसे अग्निसे नीचे उतारकर उसमें जीरा,
पक्त्वा तल्लेहवत् स्थाप्यं घृतभाण्डे विधानतः। चव, काकड़ासिंगी, भरंगी, दालचीनी, इलायची,
| पथ्यभुङ् नियताहारः खादेद द्वे द्वे हरीतकी ।। तेजपात, कायफल, नागरमोथा, अजवायन, कचूर,
हन्याच ग्रहणीगुल्मपाण्डार्तिविषमज्वरान् । पोखरमूल, सोंठ, मिर्च और पीपलका २॥-२॥
| यक्ष्मार्शः प्लीहवैस्वयंश्वासकासारुचिक्षयान् ॥ तोले चूर्ण मिलावें । एवं जब वह ठण्डा हो जाय तो १ सेर शहद मिला कर सुरक्षित रक्खें ।।
बलवर्णाग्निजननं वलीपलितनाशनम् ।
रसायनमिदं सिद्धमगस्त्यविहितं मतम् ।। इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करने और
हर्र १०० नग, तथा देवदारु, शंखपुष्पी, पथ्य पूर्वक रहनेसे कफज श्वास, कास, हृदयक्षत,
| मुलैठी, कौंचके बीज, दशमूलकी प्रत्येक वस्तु, हृदय शूल, पाच शूल, ज्वर, वमन, तृष्णा, स्वरक्षय, अरुचि और अग्निमांद्यका नाश होता है।
कचूर, पोखरमूल, पीपल, पीपलामूल, चव, चीता,
सेांठ, खरैटी, गजपीपल, पाषाणभेद, भरंगी और वृहत्कूष्माण्डावलेहः
पुनर्नवा ( बिसखपरा ) १०-१० तोले एवं जौ ( भा. प्र. । म. खं. २. रक्तपित्ता.) ४ सेर ले कर हरैरीके अतिरिक्त सब चीजोंको कूट प्र. सं. ८०४ कूष्माण्डकावलेहः देखिये। कर और हरैरोंको कपड़ेमें बांध कर सबको ४० सेर वह वृ. नि. र. का पाठ है उसमें दूध २
| पानीमें पकावें । जब १० सेर पानी शेष रह जाय तुला लिखा है परन्तु भा. प्र. के पाठानुसार १
| तो छान कर उसमें उपरोक्त हरें तथा ६। सेर गुड़, तुला और प्रक्षेप द्रव्यों में जी रेके स्थान पर क्षीरी
| ४० तोले तेल, २० तोले पीपलका चूर्ण, ४० तोले (वंशलोचन) होना चाहिये ।
घी और ४० तोले शहद मिला कर पुनः पकावें ।
जब गाढ़ा हो जाय तो ठण्डा करके घृतसे चिकने (६७१९) वृहदगस्त्यहरीतकी
किये हुवे पात्रमें भर कर सुरक्षित रखें। (व. से. । कासा.)
___ इनमेंसे नित्य प्रति २-२ हर्र सेवन करने अभयानां शतं दारु शङ्खपुष्पी मधुलिकाम् । तथा नियमित पथ्य आहार करनेसे संग्रहणी, गुल्म, स्वयं गुप्तां पञ्चमूल्यौ द्वे शठी पुष्कराहयम् ॥ | पाण्डु, विषमञ्चर, राजयक्ष्मा, अर्श, प्लीहा, स्वरभंग,
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अवलेहप्रकरणम्
चतुर्थों भागः
श्वास, कास, अरुचि, और वलिपलितका नाश तथा जवं हयानां बलमुत्तमं च बल वर्ण और अग्निकी वृद्धि होती है ।
स्वरं मयूरस्य हुताशदीप्तिम् । ( साधारणतः मधुको गरम करना निषिद्ध है स्त्रीवल्लभत्वं विविधप्रभावं परन्तु इस प्रयोगमें अन्य द्रव्योंके साथ उसका
नोरोगतां द्वित्रिशतायुषं च ॥ पाक करना लिखा है।)
न चानपाने परिहार्यमस्ति वृहद्गुडपिप्पली
न चाऽऽतपे नाध्वनि मैथुने च । ( रसे. चि. म । अ. ९ ; र. रा. सु. ; रसे.
प्रयोगकाले सकलामयानां ___ सा. सं.। प्लीहा.)
राजाधिराजश्च रसायनानाम् ॥ प्र.सं. १३०७ “गुड पिप्पली मोदकः"
उत्तम पके हुवे शुद्ध भिलावे ४ सेर ले कर देखिये।
उनके दो दो टुकड़े कर लें और फिर सबको ३२ वृहद्गोक्षुराद्यवलेहः
सेर पानीमें पकावें । जब ८ सेर पानी शेष रह ( वृ. नि. र. । मूत्रकृच्छ्रा .) जाय तो छान कर उसमें ३२ सेर दूध और २ रस प्रकरण में देखिये।
सेर घी मिला कर पुनः पकावें । जब गाढ़ा हो
| जाय तो १ सेर मिश्री मिला कर सबको अच्छी (६७२०) वृहद्भल्लातकलेहः
तरह आलोडित करके चिकने पात्रमें भर कर सुर( यो. र. ; वृ. यो. त. । त. ७०) ।
क्षित रक्खें, और सात दिन पश्चात् काममें लावें । सुपक्वभल्लातकफलानि सम्यग्
इसके सेवनसे समस्त गुद रोग नष्ट होते द्विधा विधायाऽऽढकसम्मितानि ।
और बाल खूब काले घने तथा धुंबराले हो जाते विपाच्य तोयेन चतुर्गुणेन
हैं । दृष्टि अत्यन्त तीव्र हो जाती है, तथा शरीरकी चतुर्थशेषे व्यपनीय तानि ॥
कांति चन्द्रमाके समान, गति घोडेके समान, स्वर पुनः पचेत्क्षीरचतुर्गुणेन
मयूरके समान, और तेज अग्निके समान हो घृतांशयुक्तेन घनं यथा स्यात् ।
जाता है। सितोपला पोडपभिः पलैश्च विमर्घ संस्थाप्य दिनानि सप्त ॥
इसके सेवनसे रोग रहित २-३ सौ वर्षकी ततः प्रयोज्याग्निवलेन मात्रां
आयु प्राप्त हो सकती है। जयेद्विकारानखिलान्गुदोत्थान् । इसके सेवन कालमें अन्न पान, धूप, मार्गकचान्सुनीलान्धनकुश्चिताग्रान- गमन और मैथुनादिके परहेज़की आवश्यकता
सुपर्णदृष्टिं च शशाङ्ककान्तिम् ॥ । नहीं है।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
(६७२१) व्याघीजीरकावलेहः ६। सेर अधकुटी कटेली और कपड़ेमें बंधी (वृ. नि. र. । श्वासा.)
हुई १०० हर्रोको ८ गुने पानीमें पकावें और व्याघ्रीजीरकपात्रीणां चूर्ण मधुयुतं लिहेत् ।
चौथा भाग शेष रहने पर छान कर उसमें ३ सेर ऊर्बवातमहाश्वासतमकैर्मुच्यते क्षणात् ॥
१० तोले गुड़ और उपरोक्त हरें डाल कर पुनः
पकावें। जब गाढ़ा हो जाय तो उसे अग्निसे नीचे ____ कटेली, जीरा और आमला समान भाग ले
उतार कर उसमें दालचीनी, इलायची, तेजपोत, नागकर चूर्ण बनावें और उसे शहदमें मिला कर चाटने
केसर, पीपल और काली मिर्च का चूर्ण ५-५ तोले योग्य बना लें ।
तथा जवाखार ७॥ माशे मिला दें और जब वह ठंडा ___इसके सेवनसे ऊर्ध्व वात, महा श्वास और |
हो जाय तो ६० तोले शहद मिला कर सुरक्षित तमक श्वास शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
रक्खें । व्याघीहरीतकी
इसके सेवनसे खांसीका नाश तथा स्वर, वर्ण,
और अग्निकी वृद्धि होती है। ( वृ. यो. त.। त. ७८; ग. नि. । लेहा. ५; |
(६७२३) व्याध्याद्यवलेहः - भै. र. ; यो. र. ; व. से. ; र. र. ; च.
( यो. र. ; वृ. नि. र. ; व. से. । बालरोगा. ; द.। कासा.)
भा. प्र. । म. खं. २ बालरो. ) प्र. सं. ४८६७ "भृगुहरीतको" देखिये ।
व्याघ्री कुसुमसञ्जातकेशरैरवलेहिका । (मात्रा-१ हर्र, और ६ माशे लेह । ) | मधुना चिरसाताञ्छिशोः कासाव्यपोहति ॥ (६७२२) व्याघ्रीहरातक्यवलेहः ।
शहदमें कटेलीके फूलकी केसर मिला कर
चटानेसे बालकोंकी पुरानी खांसी भी नष्ट हो (ग. नि. । लेहा. ५)
जाती है । व्याघ्रीशतं हरीतक्यो दत्त्वा च शतसम्मिताः। (६७२४) व्योषादिलेहः जले चतुर्गुणे पक्त्वा चतुर्भागावशेषिते ॥
(व. से. । कासा.) आलोड्यातुलां तस्मिन् गुडस्य त्वभयाश्च ताः| व्योषपुष्करमृद्वीकात्रिफलाशठिचित्रकैः । पक्षिप्यास्मिन् घनीभूते त्वगेलापत्रकेसरम् ।। । मधुतैलयुतो लेहः श्लेष्मकासनिबर्हणः ॥ मगधोषणसंयुक्तं पालिकं चार्धकार्षिकम् । सांठ, मिर्च, पीपल, पोखरमूल, मुनक्का, हर्र, यवक्षारं च सञ्चूर्ण्य तस्मिंस्तत्पक्षिपेत्पुनः॥ | बहेड़ा, आमला, कचूर और चीतामूल; इनका चूर्ण मधुनः पलषट्केन युक्तः कासामयापहः। | समान भाग ले कर शहद और तेलमें मिला कर स्वरवर्णावहः पुंसामग्नेर्दीप्तिकरः परम् ॥ । चाटनेसे कफज खांसी नष्ट हो जाती है ।
इति वकारायवलेहप्रकरणम्
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घृतप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
अथ वकारादिघृतप्रकरणम् (६७२५) वचादिघृतम् (१)
क्याथ--बच, गिलोय, कचूर, हर्र, शंख( ग. नि. । बालरोगा. ११ ; व. से. ; वा. .
का पुष्पी, बायबिडंग, सोंठ और अपामार्ग (चिरचिटा) ___ भ. । उ. अ. २ )
२०-२० तोले ले कर सबको १६ सेर पानीमें
| पकावें और ४ सेर शेष रहने पर छान लें। वचा द्विबृहती पाठातिविषाकटुकाधनैः।
कल्क-उपरोक्त ओषधियां ११-१। तोला मरिचैश्च' घृतं सिद्धं शस्तं दशनजन्मनि ॥
ले करे सबको पानी के साथ पीस लें। काथ-बच, छोटी और बड़ी कटेली, पाठा,
१ सेर घीमें उपरोक्त काथ और कल्क मिला अतीस, कुटकी, नागरमोथा और काली मिर्च २०--
कर पकावें । जब पानी जल जाए तो घीको २० तोले ले कर सबको एकत्र कूट कर १६ सेर
छान लें। पानीमें पकावें और ४ सेर पानी शेष रहने पर छान लें।
इसके सेवनसे वाचा शक्ति, मेधा, स्मृति और कल्यः-उपरोक्त ओषधियां ११-१। तोला
अग्निकी वृद्धि होती है। ले कर पानीके साथ पीस लें।
(मात्रा-१ तोला।) १ सेर घीमें उपरोक्त काथ और कल्क मिला (६७२७) वचाद्यं घृतम् (१) कर पकावें । जब पानी जल जाए तो घृतको
(व. से. ; र. र. । गण्डमाला.) छान लें।
वचा शठी हरिद्रे द्वे देवदारु महौषधम् । इसे सेवन करानेसे बच्चोंके दांत आसानीसे
हरीतकी चातिविषा मुस्तकेन्द्रयवाः समाः ॥ निकल आते हैं और दांत निकलनेके समय होने
| एतान्दशपलान्भागांश्चतुर्दोणेऽम्भसः पचेत् । वाले रोग शान्त हो जाते हैं।
पादशेषे जले तस्मिन्घृतप्रस्थं विपाचयेत् ।। ( मात्रा-३ मोशे ।)
कल्कं दत्त्वा पलोनमानैः क्वाथ्यद्रव्यैः सुपेषितैः। (६७२६) वचादिघृतम् (२) प्रक्षिप्य त्रिगुणं क्षौद्रं व्योषचूर्णात्पलानि षट् ॥ ( वा. भ. । उ. अ. १)
यथा कालं पिबेन्मात्रां यथेष्टाहारमेव च ।
गण्डमालां निहन्त्याशु बहुवर्षसमुद्भवाम् ॥ वचामृताशठीपथ्याशङ्खिनीवेल्लनागरैः।
कासं श्वासं प्रतिश्यायं गलगण्डं मुखामयम् ।। अपामार्गेण च घृतं साधितं पूर्ववद्गुणैः ॥
क्वाथ-चच, कचूर, हल्दी, दारुहल्दी, १ मधुरैश्चेति पाठान्तरम् ।
देवदारु, सेांठ, हर्र, अतीस, नागरमोथा और इन्द्रजौ
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[प्रकाराद
५०-५० तोले ले कर सबको एकत्र कूट कर यह घृत अपस्मारको नष्ट करता है। १२८ सेर पानीमें पका और ३२ सेर शेष रहने ।
(माग-१ तोला ।) पर छान लें।
(६७२९) वज्रकवृतम् (१) कल्क-क्वाथकी समस्त ओषधियोंका चूर्ण
(च. द. । कुण्ठा. ४९ ; वृ. मा. ; र. र.) ५-५ तोले, शहद ६ सेर और सोंठ, मिर्च तथा पीपलका चूर्ण १०-१० तोले ।
वासागुडूचीत्रिफलापटोल२ सेर घीमें उपरोक्त काथ और कल्क मिला
करअनिम्बाशनकृष्णषेत्रम् ।
तत्क्वाथकल्केन घृतं विपक कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो
तद्वनकं कुष्ठहरं पदिष्टम् ॥ पीको छान लें।
विशीर्णकर्णाङ्गलिहस्तपादः । इसे सेवन करने और पथ्य पूर्वक रहनेसे
क्रिम्यदितो भिनगलोऽपि मर्त्यः । बहुत वर्षोंकी पुरानी गण्डमाला भी नष्ट हो
पौराणिकी कान्तिमवाप्य जीवेजाती है।
दव्याहतो वर्षशतं च कृष्ठी ॥ इसके अतिरिक्त यह घृत खांसी, श्वास, क्वाथ-बासा, गिलोय, हर्र, बहेड़ा, आप्रतिश्याय, गलगण्ड और मुखरोग में भी हितकारी मला, पटोल, करञ्ज, नीमकी छाल, असना वृक्षकी
छाल और कृष्णबेत १६-१६ तोले ले कर सबको (मात्रा-१ तोला ।)
१.६ सेर पानीमें पकावें । जब ४ सेर पानी रह
जाय तो छान लें। (६६७२.८) धचाचं घृतम् (२)
कल्क-काथकी ओषधियां १-१ तोला (वृ. यो. त.। त. ८ ९ ; व. से. । वातव्या.) ले कर सबको एकत्र पीस लें । वचाशम्पाककैडर्यवयस्थाहिङ्गुचोरकैः ।
१ सेर घीमें उपरोक्त काथ और कल्क मिला सिद्धं पलङ्कषायुक्तं घृतं हन्यादपस्मृतिम् ॥ कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो - बच, अमलतासका गूदा, कैडर्य ( बकायन | घीको छान लें। भेद ), आमला, हींग और चोरक तथा गूगल ५
इसे सेवन करनेसे कुष्ठ रोग नष्ट होता है। ५ तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें ।
जिस कुष्ठीके कर्ण, अंगुली और हाथ पैर ३॥ सेर घीमें यह कल्क और २८ सेर पानी | गल गये हों तथा जिसके कृमि पड़ गए हों वह भी मिला कर पकावें । जब पानी जल जाय तो धीको | इसके प्रभावसे पूर्ववत् कान्तियुक्त हो जाता है तथा
। १०० वर्ष तक रोग रहित जीवित रहता है ।
छान लें।
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घेतप्रकरणम् ]
चतुर्यों भागः
देखिये।
वज्रकघृतम् (२)
(६७३१) वत्सकादिघृतम् (१) (वा. भ. । चि. अ. १८)
(३. नि. र. । अतिसारां.) प्र सं. ५२४६ महावज्रकवृतम् (१) | वत्सकस्य च बीजानि दााश्चैव त्वगुत्तमा । देखिये ।
पिप्पली शृङ्गवेरं च लाक्षा कटुकरोहिणी ।। वज्रकघृतम् (३)
षभिरेतैघृतं सिद्ध पेयं मण्ड विमिश्रितम् ।। प्र. सं. ५२४७ महावज्रकवृतम् (२)
____ कल्क-इन्द्रजौ, दारु हल्दीकी छाल, पीपल,
अदरक, लाख और कुटकी ५-५ तोले ले कर (६७३०) वज्रकघृतम् (४)
सबको एकत्र पीस लें। ( वा. भ. । चि. अ. १९)
क्वाथ-उपरोक्त कल्क वाली ओषधियां वासामृतानिम्बवरापटोल
१-१ सेर ले कर सबको एकत्र कूट कर ४८ व्याघ्रीकरओदककल्कपक्वम् ।
सेर पानीमें पकावें और १२ सेर पानी शेष रहने सर्पिविसर्पज्वरकामलामृक्
पर छान लें। कुष्ठापहं वज्रकमोमनन्ति ॥
३ सेर धीमें उपरोक्त क्वाथ और कल्क मिला कल्क-वासा (अडूसा), गिलोय, नीमकी |
कर मन्दाग्नि पर पकावें जब पानी जल जाय तो छाल, हर्र, बहेड़ा, आमला, पटोल, कटेली और
घृतको छान लें। करञ्ज ५-५ तोले ले कर सबको पानीके साथ
इसे मण्ड (चावलोंके मांड) में मिला कर पीस लें। ___क्वाथ-उपरोक्त कल्क वाली ओषधियां १-१
पीनेसे अतिसार नष्ट होता है। सेर ले कर सबको एकत्र कूट कर ७२ सेर पानीमें ( मात्रा-१ तोला) पकावें और १८ सेर पानी शेष रहने पर छान लें ।
(६७३२) वत्सकादिघृतम् (२) ४॥ सेर घीमें उपरोक्त कल्क और काथ
(वृ. नि. र. । अतिसारा.) मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें जब पानी जल जाय तो घृतको छान लें।
पलं वत्सकसंसिद्धं चतुर्गुणजले घृतम् । इसके सेवनसे विसर्प, ज्वर, कामला, रक्तदोष । पित्तातिसारे भिषजा देयं दीपनपाचनम् ।। और कुष्ठका नाश होता है।
कल्क-५ तोले कुड़ेको छालको पानीके ( मात्रा-१ तोला)
| साथ बारीक पीस लें।
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६३६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
-
____ आधा सेर घीमें यह कल्क और २ सेर पानी गिलोय, शिलाजीत, खीरके बीज, बांसकी जड़, मिला कर मन्दाग्नि पर पका । जब पानी जल तिलक्षार, पलाशक्षार और जूहीकी जड़ १।-१। जाय तो घृतको छान लें।
तोला ले कर संबको एकत्र पीस लें। यह पित्तातिसारको नष्ट करता तथा दीपन | २ सेर घीमें उपरोक्त क्वाथ और कल्क मिला और पाचन है।
कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो ( मात्रा-१ तोला )
घीको छान लें। (६७३३) वरुणादिघृतम् (१)
इसमेंसे नित्य प्रति १। तोला घी सेवन करने
से अश्मरी शर्करा और मूत्रकृच्छ्रका नाश होता है। ( वृ. मा. । अश्मय. ; ग. नि. । अश्मर्य. २९ ; भा. प्र. । म. खं. २ ; र. र. ; धन्व. ; व..
औषध पच जाने पर अन्य किसी पदार्थके से. । अश्मय. ; वृ. यो. त. । त. १०२; ।
खानेसे पहले मस्तुके साथ पुराना गुड़ खाना ___ यो. र.)
चाहिये। वरुणस्य तुलां क्षुण्णां जलद्रोणे विपाचयेत् । (६७३४) वरुणादिघृतम् (२) पादशेष परिस्राव्य घृतपस्थं विपाचयेत् ॥ ( भै. र. । व्रणशोथा. ; व. से. ; यो. र. । वरुणः कदली बिल्वं तृणज पञ्चमूलकम् ।। विद्रधि, ; वृ. नि. र. । अन्तर्विद्र. ; वृ. यो. अमृतां चाश्मज देयं बीजं च त्रपुषस्य च ॥ ।
त. । त. ११०) शतपर्वा तिलक्षारः पलाशक्षारमेव च । सिद्धं वरुणादिगणे विधिना यूथिकायास्तु मूलानि कार्षिकाणि समावपेत् ॥ तत्कल्कपाचितं सर्पिः । अक्षमात्रां पिबेज्जन्तुर्देशकालाद्यपेक्षया । अन्तर्विद्रधिमुग्रं मस्तकशूलं हुताशमान्यश्च ॥ जीर्ण चास्मिन्पिबेत्पूर्वं गुडं जीर्ण तु मस्तुना ।। गुल्मानपि पञ्चविधान् नाशअश्मरीं शर्करां चैव मूत्रकृच्छं विनाशयेत् ॥ यतीदं यथाम्बु वायुसखम् । __ क्वाथ -६। सेर बरनेकी छालको कूट कर |
एतत्मातः प्रपिबेद् भोजनसमये निशास्येऽपि ॥ ३२ सेर पानीमें पकावें । जब ८ सेर पानी शेष वरुणादिगणके कल्क और क्वाथके साथ घृत रह जाय तो छान लें।
सिद्ध करके रक्खें । कल्क - बरनेकी छाल, केलेकी जड़, बेलकी इसके सेवनसे दुःसाध्य अन्तर्विद्रधि, मस्तक छाल, तृणपञ्चमूल (कुशकी जड़, कासकी जड़, शल, अग्निमांद्य और पांच प्रकारके गुल्म रोगका सरकण्डेकी जड़, दाभकी जड़, ईखकी जड़), नाश होता है।
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घृतप्रकरणम् ]
इसे प्रातःकाल, भोजन के समय और रात्रिको सेवन करना चाहिये ।
( मात्रा १ तोला )
चतुर्थी भागः
(६७३५) वरुणाद्यं घृतम्
( भै. र. । अश्मर्य. । वृ. मा. ; ग. नि. । अश्मर्य. २९ ; च. द. ; व. से. ; सु. सं. । चि. अ. ७) गणे वरुणादौ च गुग्गुल्वेलाहरेणुभिः । कुष्ठमुस्ताहमरिचचित्रकैः ससुराह्वयैः ॥ एतैः सिद्धमजासर्पिरूषकादि गणेन च । भिनत्ति कफसम्भूतामश्मरीं क्षिप्रमेव तु ॥
कलक - वरुणादि गणकी ओषधियां, गूगल, इलायची, रेणुका, कूठ, नागरमोथा, काली मिरच, चीता और देवदारु समान भाग मिश्रित १ सेर ले कर सबको एकत्र पीस लें ।
८ सेर बकरीके घी में यह कल्क और इन्हीं ओषधियांका ३२ सेर काथ मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो घृतको छान लें। इसके सेवनसे कफज अश्मरी नष्ट होती है । कादिगणके साथ सिद्ध घृत भी अश्मरीको करता है ।
मधुकं चन्दनं कसर्षपं पद्मकं तथा । काले हरिद्रा च लोमेभिश्च कल्कितैः ॥ विपचेद्धि घृतं वैद्यस्तत्पक्वं वस्त्रगालितम् । पादशं कुङ्कुमं सिक्थं क्षिप्त्वा मन्दानले पचेत् ॥'
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६३७
तत्सिद्धं शिशिरे नीरे प्रक्षिप्याकर्षयेत्ततः । तदेतद्वर्णकं नाम घृतं वक्त्रप्रसादनम् ॥ अनेनाभ्यासलिप्तं हि वलीभूतमपि क्रमात् । निष्कलङ्केन्दुबिम्बा स्याद्विलासवती मुखम् ||
-
कल्क — मुलैठी, सफेद चन्दन, कडु (कंगनोके चावल या फूल प्रियंगु ), सरसों, पद्माक केसर, हल्दी और लोध ११ - ११ तोला ले कर सबको एकत्र पीस लें ।
१ सेर घी में यह कल्क और ४ सेर पानी मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें । जब पानी जल जाय तो घीको छान लें और फिर उसमें २० - २० तोले केसर तथा मोम मिला कर पुनः मन्दाग्नि पर रक्खें । जब मोम आदि अच्छी तरह मिल जाय तो उसे ठण्डे पानी में डाल दें और जब घी जम जाय तो निकाल कर सुरक्षित रक्खें ।
इसे मलने से मुख मण्डलका रंग निखर आता है । यदि गालोंमें झुर्रियां पड़ गई हों तो वे भी इसके कुछ दिनोंके प्रयोगसे नष्ट हो कर मुख निष्कलङ्क चन्द्रमाके समान शोभायमान हो जाता है ।
(६७३६) वर्णकघृतम्
(६७३७) वल्लभकं घृतम्
( भै. र. । क्षुद्र रोगा. ; च. द. | क्षुद्र. ५४ ) ( भै र । हृद्रोगा; वृ. यो. त. । त. ९९ ; ग. नि. । वाता. १९, हृद्रोगा. २७; वृ. मा. ; धन्व. ; र. र. ; बृ. नि. र. ; यो. र. । हृद्रोगा . ) मुख्यं शतार्द्धञ्च हरीतकीनां सौवर्चलस्यापि पलद्वयश्च ।
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[वकारादि पक्वं घृतं वल्लभकेति नाम्ना
__ (२) आधा सेर भिलावेको ४ सेर पानीमें हल्लासशूलोदरमारुतघ्नम् ॥ पकावें और १ सेर शेष रहने पर छान लें। बड़ी बड़ी ५० हरोंकी बकली और १० । अन्य द्रव पदार्थ-अदरकको स्वरसं १ तोले काला नमक ले कर दोनोंको एकत्र पीस लें | सेर, मस्तु १ सेर, शुक्त १ सेर, और खट्टी कांजी और फिर ( ८ सेर ) घीमें यह कल्क और ३२ १ सेर । सेर पानी मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब कल्क--पीपलामूल, सेठ, मिर्च, पीपल, पानी जल जाय तो धीको छान लें । हपुषा, हींग, जीरा, काला जीरा, चव, अजमोद,
इसके सेवनसे हृल्लास ( जी मिचलाना ) शूल | सज्जीखार, जवाखार, पांचों नमक और गजपीपलं और वायुका नाश होता है।
सब समान भाग मिश्रित १० तोले । ( मात्रा-१ तोला )
१ सेर घीमें उपरोक्त दोनों काथ, चारों द्रव
पदार्थ और कल्क मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । (६७३८) वहिषट्प्रस्थवृतम्
जब पानी जल जाय तो घीको छान लें। (व. से. । उदरा.)
इसके सेवनसें जठराग्नि दीप्त होती और प्लीहा, चिरबिल्व त्वचः क्वाथमाईकस्वरसं घृतम्। आध्मान, बातोदर, जलोदर, कफ वातज शूल, अर्श मस्तु भल्लातकक्वाथं शुक्तञ्चवाम्लकाधिकम् ॥ और विशेषतः कृमि रोग, पाण्डु, कुष्ठ और दाद एतैस्तुल्यैर्घतं धृत्वा कल्कैरेतैस्तु पादिकैः। आदिका नाश होता है। ग्रन्थिकव्योषहपुषा हिङ्ग्यजाजीद्वयं तथा ॥
(६७३९) वासाघृतम् (१) चव्याजमोदे सक्षारे तथा लवणपश्चकम् ।
(ग. नि. । कासा. १०) श्रेयसी चेति मृदुना तत्साध्यमनलेन वा ॥ वहिषट्पस्थमेतत्तु जठरानलदीपनम् ।
वासाकषायकल्काभ्यां घृतसमधुशर्करम् । प्लीहोदराध्मानहरं वातोदरदकोदरम् ।।
| सिद्धं तत्पित्तकासनं सर्वपित्तविकारनुत् ॥ कफवातकृते चैव शूलेऽतीव प्रशस्यते ।
१ सेर घीमें ४ सेर बासेका काथ और १० अशासि नाशयत्याशु कृमींश्चैव विशेषतः ॥ तोले बासेका कल्क मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । सपाण्डुराणि कुष्ठानि दद्रुकुष्ठानि यानि च । | जब काथ जल जाय तो घीको छान लें । अन्यान्यपि च कुष्ठानि तानि हन्यादिदं घृतम् ॥ इसमें शहद और खांड मिला कर सेवन ___ क्वाथ-(१) करञ्जकी छाल आधा सेर ले | करनेसे पित्तज खांसी और समस्त पित्तज विकार कर ४ सेरे पानीमें पकावें और १ सेर शेष रहने | नष्ट होते हैं । पर छान लें।
( मात्रा--१ तोला)
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धृतमकरणम् ]
चतुर्थो भागः
-
(६७.४.०) वासावृतम् (२) । घृतमभिनवमेतदाशुपक्वं (ग. मि. । घृता. १ ; च. सं. । चि. स्था. ६ |
जयति सदास्त्रविसर्पकुष्ठान् ।। अ. ५ ; भै. र. ; वृ. मा.; च.-द. ; पं. से. ;
____ क्याथ-बासा, खैरसार, पटोलपत्र, नीमकी यो. र. । रक्त पित्ता. ; वृ. यो. त.। त. ७५)
| छाल, गिलोय, और आमला १-१ सेर ले कर समूलपत्रशाखस्य तुलां कुर्याद्वषस्य च ।
| सबको एकत्र कूट कर ४८ सेर पानीमें पकावें और
६ सेर पानी शेष रहने पर छान लें । जलद्रोणे विपक्तव्यमष्टभागावशेषितम् ॥
__ कल्क--क्वाथकी प्रत्येक ओषधि ५-५ कल्केन वृषपुष्पाणामाढकं सर्पिषः पचेत् ।
तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें । तत्सिद पाययेयुक्त्या मधुपादसमायुतम् ।।
१॥ सेर ताजे धीमें उपरोक्त काथ तथाःकरक श्वासं मतिश्यायं तृतीयक चतुर्थकम् ।
मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय रक्तपित्तं क्षयं चैव विष सपिनियच्छति ॥
| तो घीको छान लें। __ क्वाथ---मूल, पत्र और शाखा समेत ६।
इसके सेवनसे रक्तविकार, विसर्प और कुष्ठका सेर बासे (अडूसे) को कूट कर ३२ सेर पानीमें
नाश होता है। पका और ४ सेर पानी शेष रहने पर छान लें।
(मात्रा--१ तोला ।) ___४ सेर घीमें यह काथ और आधा सेर बासेके
(६७४२) वासायं घृतम् (१) फूलोंका कल्क मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब |
( वृ. नि. र. । क्षय. ; व. से. । राजयक्ष्मा. ) पानी जल जाए तो घीको छान लें। इसमें चौथाई शहद मिला कर सेवन करनेसे
वासामृतारिष्टनिदिग्धिकानां श्वास, खांसी, प्रतिश्याय, तृतीयक और चातुर्थिक
__रसेश्वगन्धेभवलार्जुनानाम् । ज्वर, रक्तपित्त, क्षय और विषविकार नष्ट
सिद्धं स पश्चोषणपुष्कराणां होते हैं।
कल्कैघृतं छागपयस्तु शोषे ॥ (मात्रा--१ तोला ।)
क्वाथ--बासा (अडूसा), गिलोय, नीमकी
छाल, कटेली, असगन्ध, नागबला और अर्जुनकी (६७४१) वासादिघृतम्
| छाल १-१ सेर ले कर सबको ५६ सेर पानीमें (च. द. । विसा. ५२; धन्व. ; वृ. मा. ; वृ. | पकायें और १४ सेर पानी शेष रहने पर नि. र. ; यो. त.। त..६५ ; यो.र. ; ग. नि.। छान लें।
विस्फोटा. ४० ; वृ..यो. त. । त. १२३) कल्क--पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, वृषखदिरपटोलपत्रनिम्बा
सोंठ और पोखरमूल समान भाग मिश्रित ३५ मृसमामलकीकषायकस्कैः ।
तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें।
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६४०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
३॥ सेर घीमें उपरोक्त काथ, कल्क और घृतप्रस्थं विपक्तव्यमेभिर्मात्रामतः पिबेत् । ३॥ सेर बकरीका दूध मिला कर मन्दाग्नि पर हद्वासाघृतं प्रोक्तमेतत्सर्वज्वरापहम् ।। पकावें । जब पानी जल जाए तो घीको छान लें।
कल्क--वासा (अडूसा), गिलोय, नीमकी इसके सेवनसे शोष रोग नष्ट होता है।
छाल, भरंगी, पञ्चमूल (बेल, अरलु, खम्भारी, ( मात्रा--१ तोला ।)
पाढल और अरनी), त्रिफला ( हर्र, बहेड़ा, (६७४३) वासाचं घृतम् (२)
आमला ), शहद, मुनक्का, और पोखरमूल १।-१। (च. द. ; व. से. । ज्वरा. ; धन्व. )
तोला ले कर सबको एकत्र पीस लें। वासां गुडूची त्रिफलां त्रायमाणां यवासकम् ।
| २ सेर घीमें यह कल्क और ८ सेर दूध पक्त्वा तेन कषायेण पयसा द्विगुणेन च ॥
| मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें जब दूध जल जाय पिप्पलीमूलमृद्वीकाचन्दनोत्पलनागरैः।। | तो घीको छान लें। कल्कीकृतैश्च विपचेद् घृतं जीर्णज्वरापहम् ॥ इसके सेवनसे समस्त प्रकारके ज्वर नष्ट
काथ--बासा, गिलोय, हर्र, बहेड़ा, आमला, | होते हैं। त्रायमाणा और जवासा आधा आधा सेर ले कर ( मात्रा--१ तोला) सबको एकत्र कूट कर २८ सेर पानीमें पकावें और ७ सेर पानी शेष रहने पर छान लें ।
वासाद्यं घृतम् (४) (वृहद्)
(व. से. । रक्तपित्ता.) ___ कल्क--पीपलामूल, मुनक्का, सफेद चन्दन, नीलोत्पल और सोंठ ७-७ तोले ले कर सबको
प्र. सं. ५२४८ महावासायं घृतम् देखिये । एकत्र पीस लें।
(६७४५) वासामृतागुग्गुलुघृतम् ३॥ सेर धीमें उपरोक्त कल्क, काथ और (र. र. । नेत्ररोगा.) ७ सेर गोदुग्ध मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब क्वाथ और दूध जल जाय तो घीको छान लें।
वासामृतानिम्बपटोलपत्रं
___ फलत्रयाणां विधिवत्कपाये। इसके सेवनसे जीर्ण ज्वर नष्ट होता है।
भिषक् पचेद्गुग्गुलुकल्कमाज्यं ( मात्रा--१ तोला)
जेतुं नराणां नयनोत्यदोषान् ॥ (६७४४) वासाद्यं घृतम् (३) वृहद्
नेत्रामयान्सर्वसमुद्भवांश्च (व. से. । ज्वरा.)
निहन्ति शीघ्रं नयनाश्रुपातम् । वासामृतारिष्टभागी पश्चमूलफलत्रिकः। | रोगाश्रुशोथं पटलार्बुदश्च . सपायसमधुद्राक्षाकाश्मीरैरक्षसम्मितैः ॥ मलं सकण्डू तिमिरं च काचम् ॥
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घृतपकरणम् ]
चतुर्थों भागः
६४२
-
महद्रुजं चैव तथामवातं
कल्क-बायबिडंग, सञ्चल, चव्य, चीता, सर्वाणि कुष्ठानि च वातरक्तम् । सोंठ, मिर्च, पीपल, चीता, सेंधानमक और जवारसायनं सर्पिरनुत्तमञ्च
खार ५-५ तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें। यथानुपानं भिषजा प्रयोज्यम् ॥
२ सेर घीमें यह कल्क, २ सेर दूध और क्वाथ--वासा (अडूसा), गिलोय, नीमकी । ८ सेर पानी मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । छाल, पटोलपत्र, और त्रिफला (हर, बहेड़ा, जब दूध और पानी जल जाय तो धीको छान लें। आमला) १-१ सेर ले कर सबको एकत्र कूट कर यह घृत जीर्ण कफज ज्वरको नष्ट करता है। ५६ सर पानीमें पकावें और १४ सेर पानी ( मात्रा--१ तोला) शेष रहने पर छान लें।
(६७४७) विजयाघृतम् ३॥ सेर घीमें यह काथ और २५ तोले
(धन्व. । वाजीकरणा.) गूगल मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें जब पानी जल गोदग्ये विजयाकल्क संसिद्ध गोघृतं नवम् । जाय तो घीको छान लें।
रतिवर्द्धनकूष्माण्डखण्डादौ तद्विनिःक्षिपेत् ।। इसके सेवनसे आंखोंसे पानी जाना, नेत्रोंकी नातः परतरं वृष्यं शुक्रस्तम्भकरं भवेत् ।। सूजन, पटल, नेत्रार्बुद, आंखोंका मैल, नेत्रकण्डू,
पत्थर पर पीसी हुई भांगकी पत्ती २० तोले, तिमिर, और काच आदि समस्त नेत्ररोग तथा |
गायका ताज़ा घी २ सेर और गोदुग्ध ८ सेर ले आमवात, कुष्ठ और वातरक्तका नाश होता है ।
| कर सबको एकत्र मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । यह घृत उत्तम रसायन है।
जब दूध जल जाय तो घीको छान लें। (मात्रा--१ तोला ।)
। यह घृत अत्यन्त वाजीकरण, वृष्य और शुक्रविडङ्गघृतम्
| स्तम्भक है। (च. द.। कृम्य. ७ ; वृ. मा. ; व. से. । कृम्य.) | इसे कूष्माण्डखण्डादि कामवर्द्धक अवलेह
प्र. सं. २४५२ त्रिफलाचं घृतम् देखिये। और पाकादिमें डालना चाहिये। (६७४६) विडङ्गाद्यं घृतम्
(६७४८) विदारीघृतम् (१) (ग. नि. । ज्वरा. १ ; वा. भ. । चि. अ. १) (व. से. । भस्म करो. ; वृ. यो. त. । त. ७२ ) विडङ्गसौवर्चलचव्यवसि
| विदारीस्वरसक्षीरे पचेदष्टगुणे घृतम् । व्योषामिसिन्धुद्भवयावशूकैः । माहिषं जोवनीयेन कल्केनात्यग्निनाशनम् ॥ पलांशकैः क्षीरसमं घृतस्य
___विदारीकन्दका रस और दूध ४-४ सेर, प्रस्थं पचेज्जीर्णकफज्वरघ्नम् ॥ भैंसक। घृत १ सेर और जीवनाय गणका कल्क
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भारतत- भैषज्य रत्नाकरः
६४२
१० तोले ले कर सबको एकत्र मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो घृतको छान लें
I
इसे सेवन करनेसे भस्मक रोग नष्ट होता है । (६७४९) विदारीघृतम् (२) ( भै. र. ; व. से. ; भा. प्र. । म. ख. २ । मूत्राघाता. )
विदारी कृषको यूथी मातुलुङ्गी च भृस्तृणम् । पाषाणभेदः कस्तूरी वसुको वशिरोऽनलः ॥ पुनर्नवा वचा रास्ना बला चातिवला तथा । कशेरुविशृङ्गाटतामलक्यः स्थिरादयः ॥ शरेक्षुदर्भमूलञ्च कुशः काशस्तथैव च । पद्वयन्तु संहृत्य जलद्रोणे विपाचयेत् ॥ पादशेषे रसे तस्मिन् घृतप्रस्थं विपाचयेत् । शतावर्यास्तथा धात्र्याः स्वरसो घृतसम्मितः ॥ teri aante काषिकाण्यपराणि च । agart format द्राक्षा काश्मर्य सपरूपकम् ॥ एला दुरालभा कौन्ती कुङ्कुमं नागकेशरम् । जीवनीयानि चाष्टौ न दत्वा च द्विगुणं पयः ॥ एतत्सर्पिर्विपक्तव्यं शनैर्मृद्वशिना बुधैः । मूत्राघातेषु सर्वेषु विशेषात्पित्तजेषु च ॥ शर्करापरिशुलेषु शोणितप्रभवेषु च । हृद्रोगे पित्तगुल्मे च वातासृऋपित्तजेषु च ॥ कासश्वासक्षतोरस्के धनुःस्त्रीभारकर्षिते । तृष्णाच्छर्दिमनःकम्पशोणितच्छर्दिने तथा ॥ रक्ते यक्ष्मण्यपस्मारे तथोन्मादे शिरोग्रहे । योनिदोषे रजोदोषे शुक्रदोषे स्वरामये || एतत्स्मृतिकरं वृष्यं वाजीकरणमुत्तमम् । पुत्र बलवर्णादयं विशेषाद्वातनाशनम् ॥
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[ वकारादि
पानभोजननस्येषु न क्वचित्प्रतिहन्यते । विदारीघृतमित्युक्तं रसायनमनुत्तमम् ॥
क्वाथ -- विदारीकन्द, बासा ( अ सा ), जूही की जड़, बिजा रेकी जड़, गन्धतृण, पाषाणभेद, कस्तूरी, आककी जड़, गजपीपल, चव, पुनर्नवा (बिसखपरा), बच, रास्ना, बला (खरैटी), अतिबला (कंधी), कसेरु, भिसा ( कमलकी जड़), सिंघाड़ा, भुई आमला, शालपर्ण्यादि पश्चमूल (शालपर्णी, पृष्टपर्णी, कटेली, बड़ी कटेली, गोखरु ), शर (सरकण्डे) की जड़, ईखकी जड़, दाभकी जड़, कुशकी जड़ और कासकी जड़ १०१० तोले ले कर सबको ३२ सेर पानीमें पकावें और ८ सेर पानी शेष रहने पर छान लें ।
अन्य द्रव पदार्थ -- शतावरका रस २ सेर; आमलेका रस २ सेर, दूध ४ सेर |
कल्क - - खांड ३० तोले तथा मुलैठी, पीपल, द्राक्षा, खम्भारी, फालसा, इलायची, धमासा, रेणुका, केसर, नागकेसर, जीवक, ऋषभक, ऋद्धि, वृद्धि, मेदा, महा मेदा, काकोली और क्षीरकाकोली ११ - १ | तोला लेकर सबको एकत्र पीस 1
२ सेर घी में उपरोक्त काथ, समस्त द्रव पदार्थ, और कल्क मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें । जब पानी जल जाय तो घीको छान लें।
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इसके सेवन से समस्त प्रकारके मूत्राघात और विशेषतः पैत्तिक मूत्राघात एवं शर्करा, अश्मरी, शूल, रक्तज रोग, हृद्रोग, पित्तज गुल्म, वातरक्त, पित्त विकार, कास, श्वास, उरःक्षत, तृष्णा, छर्दि, रक्तकी वमन, क्षय, अपस्मार, उन्माद, शिरोग्रह,
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घृतप्रकरणम्]
चतुर्थों भागः
योनिदोष, रजविकृति, शुक्रदोष और स्वरभंग २ सेर धीमें उपरोक्त काथ और कल्क मिला आदि रोग नष्ट होते हैं।
कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो यह घृत स्मरणशक्तिवर्द्धक, वृष्य, वाजी- | घीको छान लें। करण, पुत्रोत्पादक, बल वर्ण वर्द्धक और वात- इसके सेवनसे विरेचन हो कर गुल्म नष्ट हो नाशक है।
जाता है। अति व्यायाम और अति स्त्रीप्रसंग द्वारा
(यह तीव्र रेचक है अतः चिकित्सकके पराकृश मनुष्योंको इसे सेवन करना चाहिये । यह
| मर्शसे योग्य मात्रामें पीना चाहिये । ) उत्तम रसायन है।
(६७५१) विन्दुघृतम् (२) ___ इसे पान, भोजन और नस्य द्वारा प्रयुक्त
| ( भै. र. । उदरा. ; ग. नि.। घृता. ; यो. र. ; करना चाहिये।
र. र. ; वृ. मा. ; व. से. ; च. द.। उदरा. ;
यो. चि. म. । अ. ५; र. चि. म. । स्त. ९) (६७५०) विन्दुघृतम् (१)
अर्कक्षीरपले द्वे च स्नुहीक्षीरपलानि षट् । ___ (ग. नि. । घृता. १) पथ्या कम्पिल्लक श्यामा शम्पाकं गिरिमल्लिका। श्यामात्रिवृद्वह्निपलत्रय हि
नीलिनी त्रिवृता दन्ती शङ्खिनी चित्रकं तथा। ___ हरीतकीनां तु शताधमन्यत् । एतेषां पलिकैर्भागघृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ तोयामणान विपाचितेन
अथास्य मलिने कोष्ठे विन्दुमात्रं प्रदापयेत् । प्रस्थं पचेद्व्यघृतस्य वैद्यः॥ यावतोस्य पिबेद्विन्दन् तावद्वारान् विरिच्यते ।। कम्पिल्लकस्यापि पलप्रमाण
कुष्ठगुल्ममुदावत श्वयधु सभगन्दरम् । सनीलिनी बोजपलद्वयं च । शमयत्युदराण्यटौ वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥ चतुष्पलं स्नुक्पयसश्च दत्वा
एतद्विन्दुघृतं नाम येनाभ्यक्तो विरिच्यते ॥ गुल्मापहं विन्दुघृतं विरेकात् ॥
आकका दूध १० तोले, स्नुही (सेंड-थूहर) क्वाथ-काली निसोत, सफेद निसोत और | का दूध ३० तोले तथा हरे, कमीला, काली चीता १५-१५ तोले तथा हर्र ३ सेर १० तोले निसोत, अमलतास, कुड़े की छाल, नीलके बीज, ले कर सबको अधकुटा करके १६ सेर पानीमें निसोत, दन्तीमूल, शंखिनी और चीतामूल ५-५ पकावें और ४ सेर पानी शेष रहने पर छान लें। | तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें।
कल्क-कमीला ५ तोले, नीलके बीज १० २ सेर धीमें उपरोक्त समस्त ओषधियां तथा तोले और थोहर ( स्नुही-सेंड ) का दूध २० ८ सेर पानी मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें।
पानी जल जाय तो घीको छान लें।
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६४४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारांदि
-
इसके जितने बिन्दु पिये जायं उतनेही दस्त | कोशातकी देवदाली नीली च गिरिकणिका। होते हैं।
सातला पिप्पलीमूलं विडङ्ग कटुकी तथा ॥ ___इसके सेवनसे मलिन कोष्ठ स्वच्छ हो जाता हेमक्षीरी च विपचेत कल्क रेतैः पिचून्मितः । है । यह घृत कुष्ठ, गुल्म, उदा त, शोथ, भगन्दर | घृतप्रस्थं स्नुहीशीरे षटपले तु पलद्वये ॥ और आठ प्रकारके उदर रोगोंमें उपयोगी है।
अर्कक्षीरस्य मतिमांस्तत्सिद्धं कुष्ठगुल्मनुत् । इसका (नाभि पर) लेप करनेसे भी विरेचन
हन्ति शूल मुदात्तै शोथाध्मानं भगन्दरम् ॥ हो जाता है।
शमयत्युदराण्यष्टौ निपीतं विन्दुसङ्ख्यया । (६७५२) विन्दुघृतम् (३)
गोदुग्धेनोष्टदुग्धेन कौलत्थेन भृतेन वा ॥ (यो. त. । त. ५३) त्रिता त्रिफला पाठा दन्ती कटुकरोहिणी।
| उष्णोदकेन वा पीत्वा विन्दुवेगैर्विरिच्यते । चतुरङ्गुलमज्जा च तथा च कटुत्रयम् ॥
एतद्विन्दुघृतं नाम नाभिलेपाद् विरेचयेत् ॥ चित्रकं च बृहत्यौ च तथा च गजपिप्पली ।
| कल्क-चीतामूल, शंखिनी, हर्र, कमीला, स्नुहीक्षीरं पलं दद्याद घृतस्याष्टौ प्रदापयेत ॥ सफेद और काली निसोत, विधारा, अमलतासकी यावत्पिबति तद्विन्दूस्तावद्वेगान्विरिच्यते । फलीका गूदा, दन्तीमूल, शुद्ध जमालगोटा, कडवी एतद्विन्दुघृतं सिद्धमृषिभिः समुदाहृतम् ॥
तूंबी, बिंडालका डोढ़ा, नीलके बीज, कोयल, निसोत, हर्र, बहेड़ा, आमला, पाठा, दन्ती
सातला, पीपलामूल, बायबिडंग, कुटकी और मूल, कुटकी, अमलतासके फलोंका गूदा, सेठ,
सत्यानाशीकी जड़ (चोक) ११-१॥ तोलो ले कर मिर्च, पीपल, चीता, छोटी और बड़ी कटेली, गज
सबको एकत्र पीस लें। पीपल तथा स्नुही ( सेहुंड--थोहर ) का दूध ५-५ २ सेर घीमें ६० तोले स्नुही (सेंड-थूहर ) तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें और १ सेर | का दूध, २० तोले आकका दूध, उपरोक्त कल्क धीमें यह कल्क तथा ४ सेर पानी मिला कर और ८ सेर पानी मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें। मन्दाग्निपर पकावें।
___ यह घृत कुष्ठ, गुल्म, शूल, उदावर्त, शोथ, इसके जितने बिन्दु पिये जाएं उतनेही दस्त अफारा, भगन्दर और आठ प्रकारके उदर रोगीको हो जाते हैं।
नष्ट करता है। (६७५३) विन्दुघृतम् (४) __ इसके जितने बिन्दु पिये जाएं उतने ही दस्त ( शा. सं. | खं. २ अ. ९ ; वृ. नि. र.) होते हैं । चित्रकः शङ्खिनी पथ्या कम्पिल्लस्त्रितायुगम्। नाभि पर इसका लेप करनेसे भी विरेचन हो वृद्धदारुश्च शम्पाको दन्ती दन्तीफलं तथा ॥ जाता है।
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चतुर्थो भागः
घृतप्रकरणम् ]
इसे गोदुग्ध, ऊंटनी के दूध, कुलथीके बाथ या उष्ण जलके साथ पीना चाहिये ।
विन्दुघृतम् (५) (महा)
प्र. सं. ५२४९ महा विन्दुघृनम् देखिये ।
(६७५४) विन्दुसाराद्यं घृतम् ( ग. नि. । घृता. १ ) शतावरीवलारास्नादशमूळीत्रिकण्टकान् । अश्वगन्धासमायुक्तान् कुशकाससमन्वितान् ॥ दर्भेलसंयुक्तान् शरमूलविमिश्रितान् । मण्डूक्या च समायुक्तान् द्विपञ्चपलिकान्
भिषक् ॥ पुनर्नवायाः श्वेतायाः शिफां पलशतोन्मिताम् । जलद्रोणे प्रयत्नेन पचेत्सम्यक् चतुर्गुणे ॥ पादावशेषे निःस्राव्य क्वाथमनावधिश्रयेत् । वानीपिप्पलीद्राक्षाशुण्ठीयष्ट्याइसैन्धवान् ॥ द्विपालिकान् विनिःक्षिप्य श्लक्ष्णं पिष्ट्वा विधा
नतः ।
घृतप्रस्थं पचेत्सम्यक् क्षीरप्रस्थद्वयान्वितम् ॥ एरण्डतैलमस्थाढ्यं त्रिंशद्गुडपलैर्युतम् । एतदीश्वरपुत्राणां राज्ञां चैव विशेषतः ॥ स्त्रीसंभोगरतानां च प्राग्भोजनमनिन्दितम् । rore कटिस्तम्भे योनिशूले च दारुणे ॥ बस्तिवाते प्रवृद्धे च वातरोगे सुदुःसहे । घृतमेतत्प्रशंसन्ति सुकुमारं रसायनम् ||
क्वाथ - शतावर, बला (खरैटी), रास्ना, दशमूलकी प्रत्येक वस्तु, गोखरु, असगन्धकी जड़, कुकी जड़, कासकी जड़, दाभकी जड़, ईखकी जड़, शर ( सरकण्डे) की जड़ और मण्डूकपर्णी
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६४५
(ब्राह्मी भेद) ५०-५० तोले; एवं सफेद पुनर्नवाकी जड़ ६ । से लेकर सबको एकत्र कूट कर १२८ सेर पानी में पकावें और ३२ सेर पानी शेष रहने पर छान लें 1
कल्क - अजवायन, पीपल, द्राक्षा ( मुनक्का ), सेठ, मुलैठी और सेंधानमक १०-१० तोले ले कर सबको एकत्र बारीक पीस लें ।
२ सेर घीमें उपरोक्त काथ. कल्क, ४ सेर दूध और २ सेर अरण्डीका तेल एवं १५० तोले गुड़ मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें ।
यह घृत धनवानों, राजाओं और कामी पुरुषोंको भोजन के पहिले खिलाना चाहिये ।
इसके सेवन से उरुशूल, कटिस्तम्भ, दारुण योनि शूल, बस्तिवात और वातज रोगोंका नाश होता है ।
(६७५५) विश्वादिघृतम् ( ग. नि. । घृता. १ ) पलांशै विश्वचव्याग्निपिप्पलीक्षारसैन्धवैः । क्वाथेन चिरविल्वस्य घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ गुल्मोदावर्तपाण्डुत्वग्रहणीश्वासकासजित् । कुष्ठज्वरप्रतिश्यायप्लीहार्शः शमनं परम् ॥
कल्क — सेठ, चव, चीता, पीपल, जवाखार और सेवा नमक ५ - ५ तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें ।
क्वाथ–४ सेर करञ्जकी छालको कूट कर ३२ सेर पानी में पकावें और ८ सेर शेष रहने पर छान लें।
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६४६
२ सेर घी में यह कल्क और काथ मिला कर मन्दाग्नि पर पावें । जब काथ जल जाय तो घीको छान लें।
भारत-भैषज्य - रत्नाकरः
इसके सेवन से गुल्म, उदावर्त, पाण्डु, संग्रहणी, श्वास, खांसी, कुष्ठ, ज्वर, प्रतिश्याय, प्लीहा, और अर्शका नाश होता है ।
( मात्रा - १ तोला ।
(६७५६) विश्वौषधाद्यं घृतम् . ( वृ. मा. । ग्रहण्य. ; ग. नि. | ग्रहण्य. ३ ) विश्वौषधस्य गर्भेण दशमूलजले शृतम् । घृतं निहन्याच्छ्यथुं ग्रहणीमामतामयम् ॥
क्वाथ -- २ सेर दशमूलको १६ सेर पानी में पकावें और ४ सेर शेष रहने पर छान लें ।
T - १ - १॥ तोला
( मात्रा - (६७५७) वृद्धदारकघृतं तैलञ्च ( व. से. ; र. र. | श्लीपदा. ) घृतप्रस्थं विपक्तव्यं सव्योषं वृद्धदारकैः । कल्कैः सौवीरसिद्धं स्याच्लीपदानां नि
1 )
[ वकारादि
कल्क - सांठ, मिरच, पीपल और विधारेकी जड़ ५-५ तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें
1
वृत्तये ॥
अग्निं च कुरुते दीप्तमामवाते च शस्यते । एतैः कटु पचेत्तैलं पानाच्छूली पदनाशनम् ॥ सौवीरं सन्धानविशेषः तदभावे काञ्जिकम् ||
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२ सेर घीमें यह कल्क और ८ सेर सौवीरक कांजी मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब कांजी जल जाय तो घीको छान 1
१ सेर घीमें यह काथ और १० तोले सोंठका कल्क मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो घीको छान लें ।
इसके सेवनसे शोथ और आमयुक्त ग्रहणी पाण्डुरोगामवातघ्नं बलवर्णामिवर्द्धनम् ॥
नष्ट होती है ।
इसे सेवन करनेसे श्लीपद और आमवातका नाश होता तथा अग्निदीत होती है ।
इन्ही ओषधियों से सरसों का तेल सिद्ध करके पीने से भी श्लीपद नष्ट हो जाता है ।
(६७५८) वृद्धदारकाद्यं घृतम् ( र. र. । श्लीपदा. )
द्विपलं वृद्धदारस्य तदर्द्धश्च महौषधम् । पिप्पली त्रिफलादार्वी चित्रकं सपुनर्नवम् ॥ एभिश्चार्द्धपलैर्भागैर्धृतप्रस्थं विपाचयेत् । श्लीपदं नाशयत्याशु गृध्रसीशोथशूलनुत् ॥
कलक - विधारेकी जड़ १० तोले, सांठ ५ तोले और पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, दारूहल्दी, चीता तथा पुनर्नवा (बिसखपरे ) की जड़ २ ॥ - २॥ तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें ।
२ सेर घीमें यह कल्क और ८ सेर पानी मिला कर मंशनपर पकावें । जब पानी जल जाय तो घृतको छान लें 1
यह घृत श्लीपद, गृध्रसी, शोथ, शूल, पाण्डु और आमवातको नष्ट तथा बल, वर्ण और अग्निकी वृद्धि करता है ।
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घृतप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
-
(६७५९) वृद्धदाम्कघृतम् चतुर्गुणेन पयसा विपचेद्गोमयाग्निना। : ( व. से. । स्त्रीरोगा.)
नक्षत्रे पुष्यसम्पन्ने भाण्डे ताम्रमये दृढे ॥ वृद्धदारुकमूलेन घृतं पक्वं पयोन्वितम् ।
कलिशे वापि कल्याणे कृतकौतुकमङ्गलः । एतदृष्यतमं सर्पिः पुत्रकामः पिबेन्नरः ॥
सर्पिरेव नरः पीत्वा स्त्रोषु नित्यं वृषायते ॥ १ सेर घोमें १० तोले विधारेकी जड़का एतन
| एतद्वन्ध्या पिबेन्नारी या च कन्या प्रजायिनी । कल्क और ४ सेर दूध मिला कर मन्दाग्नि पर
या चैवास्थिरगर्भा स्याद्या च भूता पुनः स्थिता। पकावें । जब दूध जल जाए तो घृतको छान लें।
अनायुषं वा जनयेद्या वा जनयते मृतम् । यह घृत अत्यन्त वृष्य है । इसे पुत्रकी सा नारी जनयेत्पुत्रं वेदवेदाङ्गपारगम् ॥ अभिलाषा वाले स्त्री पुरुषोंको सेवन कराना चाहिये । |
रूपलावण्यसम्पन्नमजरश्च शतायुषम् । ( मात्रा-१ से २ तोले तक)
वृहत्कल्याणकं सर्भािरद्वाजेन भापितम् ॥ वृहचाङ्गेरीघृतम् (१)
अनुक्तं लक्ष्मणामूलं क्षिपन्त्यत्र चिकित्सिकाः (व. से. | ग्रहण्य.)
कल्क-नागरमोथा, कूठ, हल्दी, दारुहल्दी, प्र. सं. १७६९ चाङ्गेरी घृतम् देखिये ।
पीपल, कुटकी, काकोली, क्षीर काकोली, बायबिडंग,
हर्र, बहेड़ा, आमला, बच, मेदा, रास्ना, असगन्ध, वृहचाङ्गेरीघृतम् (२)
| इन्द्रायणकी जड़, फूल प्रियङ्गु, दो प्रकारको सारिवा, (व. से. । ग्रहण्य.)
सोया, दन्तीमूल, मुलैठी, नीलोत्पल, अजमोद, प्र. सं. १७७३ चाङ्गेरी घृतम् देखिये ।
| महामेदा, सफेद चन्दन, लाल चन्दन, चमेलीके वृहत्कण्टकारीघृतम्
फूल, बंसलोचन, खांड, हींग और कायफल १-१ (ग. नि. । परि. घृता. ; र. र. ; वृ. मा.। तोला ले कर सबको पत्थरपर पीस लें। कासा. : च. द. | कासा. ११)
३ सेर २४ तोले घीमें यह कल्क और चार प्र. सं. ८२१ कण्टकारी घृतम् देखिये ।
गुना (१३ सेर १६ तोले) दूध मिला कर गायके (६७६०) वृहत्कल्याणघृतम् गोबरके कण्डोंकी अग्नि पर तांबेकी कढ़ाई में पकावें। (व. से. । स्त्री.)
जब दूध जल जाय तो धीको छान लें। मुस्ता कुष्ठं हरिद्रे द्वे पिप्पली कटुरोहिणी । यह घृत अत्यन्त वृष्य है। वन्ध्या स्त्री या काकोली क्षोरकाकोली विडङ्ग त्रिफला वचा। जिसके कन्या ही कन्या होती हों अथवो जिसका मेदारास्नाश्वगन्धा च विशाला च प्रियङ्गुका । गर्भ स्थिर न रहता हो या जिसके अल्पायु अथवा द्वे शारिवे शताहा च दन्तीमधुकमुत्पलप ॥ मृत सन्तान उत्पन्न होती हों; इसके सेवनसे उसे अजमोदा महामेदा चन्दनं रक्तचन्दनम् । भी अत्यन्त बुद्धिमान् , रूप लावण्य सम्पन्न और जातीपुष्पन्तुगाक्षीरीशर्कराहिङ्गुकटफलम् ॥ दीर्घ जीवी पुत्रकी प्राप्ति हो सकती है ।
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६४८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
इस प्रयोगमें कुछ वैद्य लक्ष्मणाकी जड़ भी सेर पानीमें पवें और ८ सेर पानी शेष रहने पर डालते हैं ।
छान लें। ( मात्रा-१ से २ तोले तक)
कल्क-दन्तीमूल, बला (खरैटो), द्राक्षा, वृहत्रिफलाद्य घृतम्
| सहदेवी, शतावर, चीर, शारिवा और काली निसोत __ (र. र. ; ग. नि. । नेत्र.)
२०-२० तोले लेकर सबको एकत्र पीस लें । प्र. सं. २४५७ त्रिफलादि घृतम् (महा)
८ सेर घीमें उपरोक्त काथ, कल्क, ८ सेर देखिये ।
। दूध और विदारीकन्द, तालमूली, संभलकी मूसली
| एवं कुड़ेकी छालका ८-८ सेर रस मिला कर वृहत्पश्चगव्यं घृतम्
मन्दाग्नि पर पकावें। ( भै. र. । उन्मादा. ; र. र. ; वृ. मा,।
___इसके सेवनसे अन्त्रवृद्धि, अन्त्ररोध, दारुण अपस्मार. ; च. द. । अपस्मा. २१)
अन्त्रदाह, वृषणवृद्धि, बध्न, व्रणशोथ, भगन्दर, प्र. सं. ४०५१ पञ्चगव्यं घृतम् देखिये ।
आमवात, वातरक्त एवं मुख, नासिका और शिरकी वृहदग्निघृतम्
पीड़ा तथा वीर्यविकार नष्ट होते हैं । (व. से. । अर्श. ; च. द. । अग्निमान्द्या. ६) ( मात्रा--१ तोला) प्र. सं. १५७ “ अग्निघृतम् ” देखिये ।
(६७६२) वृहदाडिमाद्यं घृतम् (६७६१) वृहद्दन्तीघृतम्
(भै. र. । प्रमेहा.) ( भै. र. । वृद्धि रोगा.)
चतुःषष्टिपलं पकदाडिमस्य सुकुट्टितम् । जलद्रोणे पचेत्सम्यक् दन्न्याः पलशतं भिषक् । चतोणं जलं दत्त्वा चतुर्भागावशेषितम् ।। पादशिष्टं गृहीत्वेमं काथं सर्पिः पयस्तथा ॥ | काथेन वस्त्रप्रतेन घृतप्रस्थं विपाचये । दन्तीमूलं बलां द्राक्षां सहदेवीं शतावरीम् । दाडिमं चविकाजाजी क्रिमिघ्नं रजनीद्वयम् ।। सरलं शारिवां श्यामा प्रत्येकं कुडवोन्मितम् ।। | द्राक्षाखजुंग्युञ्जातमुत्पलं गजपिप्पली । विदायोस्तालमूल्याश्च शालमल्यां कुटजस्य च। अजमोदा महाद्रेका काकोली नागरं वचा ॥ रसाढकं परिक्षिप्य साधयेन्मृदुनाग्निना ॥
देवाहा चविका कुष्ठं काश्मरी मधुपष्टिका । अन्त्रवृद्धिमन्त्ररोधमन्त्रदाहं सुदारुणम् ।। | श्यामेन्द्रवारुणी मूर्वा शुभा शृङ्गी धनीयकम् ॥ मुष्कदि तथा बध्नं व्रणशोथं भगन्दरम् ।। | कुलत्थश्च महामेदो निम्बश्च बृहतीद्वयम् । आमवातं वातरक्तं मुखनामाशिरोरुजः।
दण्डोत्पलं वरा वासा सप्तला सिन्धुनगरकम् ।। रेतःशोणितदोषाश्च हन्ति दन्तीघृतं वृहत् ॥ कल्कश्चैषां युक्तियोगाद ग्राह्यो हि परिभाषया।
क्वाथ-६। सेर दन्तीमूलको कट कर ३२ । प्रमेहं वातिकं हन्ति पैत्तिकं श्लैष्मिकं तथा ॥
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चतुर्थी भागः
घृतप्रकरणम् ]
हृच्छूलं वस्तिजं शूलं मूत्राघातास्त्रयोदश । हिक्कां श्वामश्च कासञ्च यक्ष्माणं सर्वरूपिणम् || स्वरक्षयमुरोरोगं रक्तपित्तमरोचकम् । ये च प्रमेहजा रोगास्तान् सर्वान्नाशयत्यपि ॥ दाडिमाचमिदं सर्वप्रमेहानां निमूदनम् । अश्विभ्यां निर्मितं ह्येतत्प्रमेहकरिकेशरी ॥
क्वाथ --४ सेर पक्के दाड़िमको अच्छी तरह कूट कर १२८ सेर पानी में पकायें और चौथा भाग (३२ सेर) शेष रहने पर छान लें।
कल्क ---- अनार, चव, जोरा, बायबिडंग हल्दी, दारूहल्दी, द्राक्षा, खजूर, मुञ्जातक, नोलोत्पल, गजपीपल, अजमोद, बकायन, काकोली, सोंठ, बच, देवदारु, चव्य, कूट, गम्भारीकी छाल, मुलैठी, अनन्तमूल, इन्द्रायणकी जड़, मूर्वा, बंसलो चन, काकड़ासिंगी, धनिया, कुलथी, महामेदा, नीमकी छाल, छोटी और बड़ी कटेली, दण्डोत्पल, हर्र, बहेड़ा, आमला, बासा, सप्तला (स्नुही भेद) और संभाल समान भाग मिश्रित २० तोले लेकर सबको एकत्र पीस 1
|
२ सेर घीमें उपरोक्त काथ और कल्क मिला कर मन्दाग्निपर पका । जब पानी जल जाए तो घीको छान लें।
इसके सेवन से वातज, पित्तज और कफज प्रमेह, हृदयशूल, बस्तिशूल, १३ प्रकारके मूत्राघात, हिक्का, श्वास, कास, समस्त लक्ष्णों युक्त राजयक्ष्मा, स्वरक्षय, उरो रोग, रक्तपित्त, अरुचि और समस्त प्रमेहजन्य विकार नष्ट होते हैं । ( मात्रा --- १ तोला । )
ર
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बृहदात्रीधृतम् (भै. र. । बहुमूत्रा.)
६४९
प्र. सं. ३२९० धात्रीवृतम् (वृहत् ) देखिये 1
(६७६३) बृहद्धान्वन्तरं घृतम् ( र. र. । प्रमेह . )
दन्तीचित्रकमूलानामष्टावष्टौपलानि च । अभाविंशतिया षट्पलं देवदारु च ।। कदम्बनीपवरुण पम्पाकाम्रपुनर्नवाः । चिरबिल्वञ्च सर्वेषां षट्पलानि पृथक् पृथक् ।। द्वे पञ्चमूल्य संकुट पृथगाढ कसम्मिने । पकवा चतुर्गुणे तोये पादशेषे घृतावकम् ॥ विपचेत्पञ्चलवणैः पञ्चकोलैश्व कार्षिकैः । बृहद्धान्वन्तरमिदं घृतं विंशतिमेहनुत् ॥ आग्नेयं बृंहणं चैव हन्ति नानाव्यथा नृणाम || गुल्मश्वयथुकुष्ठाशैः श्वासहिक्कोदरापहम् । रसायनमिदं सर्पिः श्रेष्ठं ब्रह्माभिपूजितम् ॥
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क्वाथ -- दन्तीमूल और चीतामूल ४०-४० तोले हर्र १०० तोले, तथा देवदारु, कदम्ब, अशोककी छाल, बरनेकी छाल, अमलतास, आमकी छाल, पुनर्नवा (बिसखपरा) और करञ्जकी छाल ३०३० तोले एवं दशमूल ८ सेर ले कर सबको एकत्र कूट कर ८ गुने पानी में पकायें और चौथा भाग शेष रहने पर छान लें ।
कल्क -- सेंधा नमक, सामुद्र नमक, काला नमक (संचल), काच लवण, बिड लवण, पीपल, पीपलामूल, चव, चीता और सांठ ११ - १ तोला ले कर सबको एकत्र पीस लें ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि.
८ सेर घीमें उपरोक्त काथ और कल्क मिला २ सेर घीमें उपरोक्त काथ, कल्क और ४. कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो सेर दूध मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें और जलांश घीको छान लें।
शुष्क हो जाने पर घीको छान लें। . ' इसके सेवनसे २० प्रकारके प्रमेह, गुल्म, .. . इसके सेवनसे.त्रिदोषज ग्रहणी, अर्श, मलावशोथ, कुष्ठ, अर्श, श्वास, हिक्का और उदर रोगोंका रोध, वायु और प्रवाहिकाका नाश होता तथा. नाश होता है।
बलवर्ण और अग्निको वृद्धि होती है । ( मात्रा-१ तोला ।)
यह घृत हृदयके लिये भी हितकारी है ।
(मात्रा--१ तोला।) वृहदासाद्यं घृतम्
(६७६५५) व्याघ्रीघृतम् (व. से. ; रे. र. । रक्तपित्ता.)
(.यो. र. ; भै. र. । स्वरभेदा. ; ग. नि. । प्र. सं. ५२४८ महावासाद्यं घृतम् देखिये ।
स्वरभंगा. ; वृ. मा.। स्व. ; व. से. । वृहन्नाराचकं घृतम्
__ अरोचका. ; वृ. यो. त.। त. ८१ ) ( भै. र. । उदर.)
व्याघ्रीस्वग्सविपक्वं रास्नावाटयालगोक्षुरप्र. सं. ३४८३ नाराचघृतम् (वृहद् )
__ व्यापैः। देखिये ।
सर्पिः स्वरोपघातं हन्यात् कासश्च पञ्चविधम् ।।
शुष्कद्रव्यमुपादाय स्वरसानामसम्भवे । ..(६७६४) वृहन्मसूराद्य घृतम् ।
वारिण्यष्टगुणे साध्यं ग्राह्यं पादावशेपितम् ॥ (व. से. । ग्रहण्य.)
कल्क--रास्ना, पीले फूलकी खरैटी, गोखरु, ममूरस्य तुला क्याथे घृतप्रस्थं विपाचयेत् । | सांठ, मिर्च और पीपल ५-५ तोले ले कर सबको पिप्पली पिप्पलीमूलं चव्यचित्रकनागरम् ॥ एकत्र पीस लें। तन्सिद्धं द्विगुणे क्षोरे ग्रहणीनं त्रिदोषनुत ।
३ सेर धीमें यह कल्क और १२ सेर कटेली दुर्नामानिलविष्टम्भं जयेच्चैव प्रवाहिक म् ॥ का स्वरस डाल कर मन्दाप्ति पर पकावें । जब बलवर्णकरं हृद्यमग्निसन्दीपनं परम् ॥
पानी जल जाय तो धीको छान लें। - क्वाथ-३ सेर १० तोले मसूरको कूट
इसके सेवनसे स्वरभंग और पांच प्रकारकी कर २५ सेर पानीमें पकावें और ६। सेर पानी
खांसी नष्ट होती है।
(मात्रा--१ तोला) शेष रहने पर छान लें।
यदि कटेलीका रस न मिले तो ६ सेर कटेली. ___करक--पीपल, पीपलामूल, चव, चीता और को ४८ सेर पानीमें पकावें और १२ सेर रहने सेठ ४-१ तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें। । पर छान लें।
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धृतप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
(६७६६) व्योषादिघृतम्
इसमें शहद मिला कर सेवन करनेसे कफज . (वृ. मा.। गुल्मा. ; ग. नि. । गुल्माः कास नष्ट होती है। २५; व. से.)
( मात्रा--१ तोला ।) सव्योषक्षारलवणं दशमूलभृतम् घृतम् ।
(६७६८) व्योषाधं घृतम् (२) कफगुल्मं हरत्याशु सहिबिडदाडिमम् ।। ( भै. र. । अर्शी. ; च. द.)
क्वाथ--२ सेर दशमूलको १६ सेर पानीमें व्योषगर्भ पलाशस्य त्रिगुणे भस्मवारिणि । पकावें और ४ सेर शेष रहने पर छान लें। साधितं पिबतः सर्पिः पतन्त्यशांस्यसंशयम् ॥
कल्क-सांठ, मिर्च, पीपल, जवाखार, सेंधा- पलाश छालकी भस्मका (क्षार निर्माण विधिसे नमक, हींग, बिड नमक और अनारदाना १-१॥ बना हुवा ) पानी ३ सेर, घी १ सेर और त्रिकुटे तोला ले कर सबको एकत्र पीस लें। का कल्क १० तोले ले कर सबको एकत्र मिला १ सेर घीमें उपरोक्त काथ और कल्क मला |
कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो कर मन्दाग्नि पर पकावें और पानी जल जाने पर |
| घीको छान लें। घीको छान लें।
___ यह घृत अर्शके मस्सोंको नष्ट कर देता है। इसके सेवनसे कफज गुल्म नष्ट होता है। (६७६९) व्योषाधं घृतम् (३) ( मात्रा--१ तोला ।)
(भै. र. । पाण्डु. ; च. द. ; वृ. मा. ग. नि ; (६७६७) व्योषाधं घृतम् (१)
___ व. से. । पाण्डु. ; च. सं. । चि. अ. २०) (व. से. । कासा. ; वृ. यो. त. । त. ७८ ;
व्योषं बिल्वं द्विरजनी त्रिफला द्विपुनर्नवम् । वृ. नि. र. ; यो. र.)
मुस्तान्ययोरजः पाठा विडॉ देवदारु च ॥ व्योषाजमोदचित्रकजीरकषड्
वृश्चिकाली च भार्गी च सक्षारैस्तैः शृतं घृतम् __ ग्रन्थिकचव्यकल्कितम् ।
सर्वान् प्रशमयत्येतद् विकारान् मृत्तिका- .
कृतान् ॥ सर्पिः कफकासहरं वासकरससाधितं समधु ॥
कल्क–सोंठ, मिर्च, पीपल, बेलकी छाल, सोठ, मिचे, पापल, अजमोद, चौता, जीरा, हल्दी, दारुहल्दी, हरे, बहेड़ा, आमला, सफेद पोपलामूल और चव ११-१। तोला ले कर सबको
और लाल पुनर्नवा, नागरमोथा, लोहचूर्ण. पाठा, एकत्र पीस लें ।
बायबिडंग, देवदारु, वृश्चिकाली और भरंगी १-१ १ सेर घीमें ४ सेर बासेका रस और यह तोला ले कर सबको एकत्र पीस लें। कल्क मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी १४४ तोले ( डेढ़ सेर २४ तोले ) घीमें जल जाय तो घीको छान लें।.. | उपरोक्त कल्क और ४ गुना (७ सेर १६ तोले)
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६५२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
दूध मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब दूध जल कल्क--सोंठ, मिर्च, पीपल, जवाखार, जाय तो घीको छान लें।
| चीतामूल, चव, भरंगी, हर्र, कचूर, सोंठ, खरैटी, इसके सेवनसे मृत्तिकाभक्षण-जन्य समस्त शालपर्णी, विदारीकन्द, मुलैठी और सेंधा नमक विकार नष्ट होते हैं।
१-१ तोला ले कर सबको एकत्र पीस लें। (६७७०) व्योषाचं नावनं घृतम् (ग. नि. । स्वरभङ्गा. १२)
१॥ सेर घीमें यह कल्क और ६ सेर पानी व्योषक्षाराग्निचविकामार्गीपथ्यावधूशिवा
| मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें। जब पानी जल बलाविदारिगन्धाभिविंदार्या मधुकेन च। जाय तो घीको छान लें। सिद्धं सलवणं सपिनस्यं स्वर्यमनुत्तमम् ॥ | इसकी नस्य लेनेसे स्वर सुधरता है।
इति वकारादिघृतपकरणम्
अथ वकारादितैलप्रकरणम् (६७७१) वचादितैलम् (१)
इसे पीनेसे अपची ( कण्ठमाला भेद ) समूल (वा. भ. । उ. अ. ३०) | नष्ट हो जाती है। वचाहरीतकीलाक्षाकटुरोहिणीचन्दनैः।।
(मात्रा--६ माशे।) तैलं प्रसाधितं पीतं समूलामपची जयेत् ॥ (६७७२) वचादितैलम् (२) कल्क--बच, हल्दी, लाख, कुटकी और
(रा. मा. । स्त्री रोगा ६) सफेद चन्दन ४-४ तोले ले कर सबको एकत्र
वचाहरिद्राकटुकाप्रियङ्गुपीस लें।
कृताञ्जलोभिः सहितं विपक्वम् ।
तैलं घृतं गोमहिषीभवं च .. क्याथ-बच, हल्दी, लाख, कुटकी और
नस्येन वृद्धिं स्तनयोविधत्ते ।। लाल चन्दन ६४-६४ तोले ले कर सबको एकत्र
क्वाथ --बच, हल्दा, कुटकी, फूल प्रियंगु कूट कर ३२ सेर पानीमें पकावें और ८ सेर शेष
और लज्जावती १-१ सेर ले कर सबको एकत्र रहने पर छान लें।
कूट कर ४० सेर पानीमें पकावें और १० सेर २ सेर तेलमें उपरोक्त कल्क और क्वाथ मिला पानी शेष रहने पर छान लें। कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय कल्क---काथकी समस्त ओषधियां ५-५ तो तेलको छान लें।
| तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें।
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तैलपकरणम्
चतुर्थों भागः
२॥ सेर तेल अथवा गाय या भैपके घीमें इसकी मालिशसे बाल कोंका शोष रोग नष्ट उपरोक्त काथ और कल्क मिला कर मन्दाग्नि पर होता है। पकावें । जब पानी जल जाय तो छान लें। । (६७७५) वचाद्यं तैलम् (२)
इसकी नस्य लेनेसे स्त्रियोंके स्तन बढ़ते हैं। (व. से. । गुल्मा. ; सु. सं. । अ. ३७) (६७७३) वचादिसूर्यपाकतैलम् | वचापुष्करकुष्ठलामदनामरसिन्धुजैः।
(रा. मा. । बालरोगा. ११) काकोलीद्वययष्टया मेदायुग्मकुटन्नटैः ।। वचाबलामूलकृतेन चूर्ण
पाठाजीरकजीवन्तीभार्गीचन्दनक-फलैः । नोन्मिश्रितं सूर्यकरप्रतप्तम् ।
सरलागुरुबिल्वाम्रवाजिगन्धामिद्धिभिः ।। पाहुः शिशूनां सकलामयन
विडङ्गारबधश्यामात्रिन्माधिकादिभिः । मभ्यञ्जनात्पुष्टिकरं च तैलम् ॥ पिष्टैस्तैलं पचेत्क्षीरे पश्चमूलीरसान्विते ।
१ सेर तिलके तेलमें बच और खरैटीकी गुल्मानाहानिमान्द्या ग्रहणीमूत्रसङ्गिनाम् । जड़का ५-५ तोले बारीक चूर्ण मिला कर धूपमें अनुवासनविधौ युक्तं शस्यतेऽनिलरोगिषु॥ रख दें । जब वह खूब गरम हो जाय तो छान लें। कल्क-बच, पोखरमूल, कूर, इलायची,
इसकी मालिशसे बालकोंके समस्त रोग नष्ट मैनफल, देवदारु, सेंधा नमक, काकोली, क्षीरहोते और वे पुष्ट होते हैं।
फाकोली, मुलैठी, मेदा, महामेदा, नागरमोथा, पाठा, ( औषधे मिला कर तेलको कांच पात्र में भर जीरा, जीवन्ती, भरंगी, सफेद चन्दन, कायफल, कर, उसका मुख बन्द करके ७ दिन तक धूपमें चीर, अगर, बेलकी छाल, आमकी छाल, असगन्ध, रखना चाहिये ।)
चीता, वृद्धि, बायबिडंग, अमलतास, काली निसोत,
निसोत और पीपल १-१ तोला ले कर सबको (६७७४) वचा तैलम् (१)
| एकत्र पीस लें। (ग नि. । बालरो. ११)
क्वाथ–बेलछाल, अरलु की छाल, खम्भाबचावयःस्थातगरकायस्थाचोरकैः शृतम् । रीकी छाल, पाढलकी छाल और अरनी ६ सेर बस्तमूत्रसुराभ्यां च तैलमभ्यअने हितम् ॥ १६ तोले ले कर सबको एकत्र कूट कर ८ गुने
__ कल्क--बच, आमला, तगर, काकोली और (४९॥ सेर ८ तोले ) पानीमें पक.वें और १२ चोरक ५-५ तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें। सेर ३२ तोले शेष रहने पर छान लें।
२॥ सेर तिलके तेल में यह कल्क और ५-५ ३ सेर ८ तोले तिलके तेलमें उपरोक्त कल्क, सेर बकरेका मूत्र तथा सुरा ( शराब) मिला कर क्वाथ और ३ सेर ८ तोले दूध मिला कर मन्दाग्नि धीमी अग्नि पर पकावें। जब शराब और मृत्र जल पर पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो तेलको जाए तो तेलको छान लें।
छान लें।
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६५४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
इसकी बस्ती लेनेसे गुल्म, आनाह, अग्निमांद्य, हैं। इसके अतिरिक्त यह नाड़ीबग (नापूर ) और अर्श ग्रह गी और मूत्रावरोधका नाश होता है। दुष्ट व्रणोंको भी नष्ट करता है। (६७७६) वज्रकं तलम् (१)
(६७७७) वज्रकं तैलम् (२) (वृ. मा. ; वृ. नि. र. ; र. र. ; व. से. ; ___(ग. नि. । तैला. २) च. द. । कुष्ठा. ; वृ. यो. त. । त. १२०)
मूलं शताहाच्चशिरीषाश्वमारासप्तपर्णकरआर्कमालतीकरवीरजम् ।
दन्मिालत्याश्चित्र कास्फोतनिम्बात् । मूलं स्नुहीशिरीषाभ्यां चित्रकास्फोतयोरपि ॥
बीजं कारचं सार्षपं प्रापुनाटं विषलाङ्गलवज्राख्यकाशीसालं मनःशिलाम् । करअबीजं त्रिकटुं त्रिफलां रजनीद्वयम् ।।
श्रेष्ठं जन्तुघ्नं त्र्यूषणं द्वे हरिद्रे ॥ सिद्धार्थकं विडङ्गं च प्रपुन्नाटं च संहरेत् । तैलं पक्वं साधितं तैः समूत्रैमूत्रपिष्टैः पचेत्तैलमे भेः कुष्ठविनाशनम् ।। - स्त्वग्दोषाणां कुष्ठनाडीत्रणानाम् । अभ्यङ्गाद्वज्र नाम नाडीदुरवणापहम् ।। अभ्यङ्गेन श्लेष्मवातोद्भवानां . कल्क-सतौनेकी जड़की छाल, करञ्जमूल,
नाशायालं वज्रकं वज्रतुल्यम् ।। आककी जड़, मालतीकी जड़, कनेरको जड़, स्नुही . (थोहर) की जड़, सिरसकी जड़की छाल, चित्रक
कल्क -सोयेकी जड़, सिरसको छाल, कनेर मूल, कोयलकी जड़, बछनाग, कलियारीकी जड़,
की छाल, आककी जड़की छाल, चमेलीकी जड़, वज्री (सेंड-सेहुंडकी जड़ ), कसीस, हरताल,
चीतेकी जड़, कोयलकी जड़, नीमकी छाल, करञ्जमनसिल, करञ्जबीज, सोंठ, मिर्च, पीपल, हरी,
बीज, सरसों, पवांडके बीज, हरी, बहेड़ा, आमला, बहेड़ा, आमला, हल्दी, दारुहल्दी, सरसों, बाय
बायबिडंग, सोंठ, मिर्च, पीपल, हल्दी और दारुबिडंग और पंवाड़ के बोज समान भाग मिश्रित १
हल्दी समान भाग मिश्रित १ सेर ले कर सबको सेर ले कर सबको गोमूत्रमें पीस लें।
गोमूत्रमें पीस लें। ८ सेर सरसों के तेल में यह कल्क और ३२
___८ सेर सरसोंके तेल में यह कल्क और ३२ सेर गोमूत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब |
सेर गोमूत्र मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब गोमूत्र जल जाय तो तेलको छान लें ।
गोमूत्र जल जाए तो तेलको छान लें। इसकी मालिशसे सब प्रकारके कुष्ठ नष्ट होते यह तेल त्वग्दोष, कुष्ठ, नाड़ीवण और वात
कफज चर्म रोगों में उपयोगी है। १ कई ग्रन्थों में बछनागसे मनसिल तककी ओषधियोंको अभाव है।
इसको मालिश करनी चाहिये ।
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तैलप्रकरणम् ]
... चतुर्थो भागः (६७७८) वज्रकं तेलम् (३) ( महा) पचेत्तैलावशेषं च गोमूत्रेऽथ ! चतुर्गुणे । (ग. नि. । तैला २ ; वा. भ. । चि. अ. तैलावशेष पक्त्वा च तत्तैलं प्रस्थमात्रकम् ॥ १९ ; व. से.)
गन्धकाग्निशिलातालं विडङ्गातिविषा विषम् । एरण्डतायघननीपकदम्बमार्गी
तिक्तको शातकी कुष्ठं वचा मांसी कटुत्रयम् ॥ ___ कम्पिल्लवेल्लफलिनीसुरवारिणीभिः। पोतदारु च यष्टया सर्जिकाक्षारजीरकम् । निर्गुण्डयरुष्करमुराहसुवर्णदुग्धा
देवदारु च कांशं चूर्ण तैले विनिक्षिपेत् ॥ श्रीवेष्टगुग्गुलुशिलापटुतालविश्वैः ॥
वज्रतैलमिति ख्यातमभ्यङ्गात् सर्वकुष्ठनुत् ॥ तुल्यं स्नुगर्कदुग्धं सिद्धं तैलं महावज्रकाहम् ।
स्नुही ( सेंड-थूहर ) का दूध १ सेर, आकअतिशयति वज्रकगुणान् श्वित्रार्थीग्रन्थि- .
का दूध १ सेर, धतूरे और चीतेका. रस १-१
सेर, भैसके गोबरका रस १ सेर, तिलका तैल ५ मालानम् ॥
सेर और गोमूत्र २० सेर ले कर सबको एकत्र अरण्डमूल, रसौत, नागरमोथा, अशोककी
मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब तेल मात्र छाल; कदम्बकी छाल, भरंगी, कमीला, बायबिडंग,
शेष रह जाय तो छान लें। कलियारीकी जड़, इन्द्रवारुणी ( इन्द्रायण ) को
___यह तेल १ सेर ले कर उसमें गन्धक, चीता, जड़, संभाल, भिलावा, मुरामांसी, चोक ( सत्या
मनसिल, हरताल, बायबिड़ङ्ग, अतीस, बछनाग, नाशीकी जड़ ), श्रीवेष्ठ (धूप सग्ल ), गूगल,
कड़वी तूंबी, कूठ, बच, जटामांसी, सेांठ, मिर्च, मनसिल, सेंधा नमक, हरताल और सोंठ समान
पीपल, दारुहल्दी, मुलैठी, सजी, जवाखार, जीरा भाग मिश्रित १ सेर ले कर सबको एकत्र
और देवदारुका ११-१। तोला बारीक चूर्ण मिला पास लें।
कर अच्छी तरह घोट कर रक्खें । ८ सेर सरसोंके तेलमें यह कल्क, ३२ सेर
इसकी मालिशसे समस्त प्रकारके कुष्ठ नष्ट पानी और ८-८ सेर सेहुंड (थूहर) और आकका | होते हैं । दूध मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब दूध और (६७८०) वटावरोहादितैलम् पानी जल जाय तो तेलको छान लें। " ( वृ. मा. । क्षुद्र शेगा. ; यो. त. । त. ७३ )
....यह तेल श्वित्र, अर्श और गण्डमालाको नष्ट | वटावरोहकेशिन्योश्चूनादित्यपाचितम । करने में अत्यन्त प्रभावशाली है।
गुडूची स्वरसे तैलमभ्याङ्गाकेशरोहणम् ॥ ..(६७७९) वज्रीतलम् .
___बड़के अङ्कुर और जटामांसीका चूर्ण ५-५ (शा. सं. । खं २ अ. ९ ; यो. चि. म.। | ताल, तिलका तल १ सर आर गिलोयका स्वरस अ. ६. ; र. र. स. । उ. अ. २० ; र. र.)
४ सेर ले कर सबको एकत्र मिला कर धूपमें रख वनीक्षीरं रविक्षीरं द्रवं धत्तरचित्रजम् । -
दें । जब पानी सूख जाय तो तेलको छान लें। महिषीविभवं द्रावं साशं तिलतैलकम् ॥ १ र. र. स. में. गोमूत्र का अभाव है।
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[धकारादि
इसकी मालिशसे इन्द्रलुप्तके स्थान पर बाल ४ सेर तेलमें यह काथ मिला कर मन्दाग्नि निकल आते हैं।
पर पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको (६७८१) वरुणादितैलम्
छान लें। ( वृ. मा. । कर्ण रोगा.)
इसकी आस्थापन बस्ति देनेसे शर्करा, अश्मरी, वरुणार्ककपित्थाम्रजम्बूपल्लवसाधितम् ।
शूल और मूत्र का नाश होता है। पूतिकर्णापहं तैलं जातीपत्ररसोऽथ वा ॥
(६७८३) वंशावलेखादितैलम् क्याथ-बरना, आक, कैथ, आम आर [ वृ. मा. । कर्ण रोगा.) जामनके पत्ते १-१ सेर ले कर सबको एकत्र कूट वंशावलेखासंयुक्तं मत्रे वाऽजाविक भिषक् । कर ४० सेर पानीमें पकावें और १० सेर पानी तैलं पचेत्तेन कर्ण पूरयेत्कर्णशूलिनः ॥ शेष रहने पर छान लें।
१ सेर तेलमें १० तोले बांसकी छालका कल्क-उपरोक्त पांचों ओषधियां ५-५
कल्क और ४ सेर बकरी या भेड़का मूत्र मिला कर तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें।
मन्दाग्नि पर पकावें । जब मूत्र जल जाय तो तेलको . २॥ सेर तेल में यह काथ और कल्क मिला
छान लें। कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो
इसे कानमें डालनेसे कर्णशूल नष्ट होता है । तेलको छान लें।
(६७८४) वाजिगन्धादि तैलम् ___ यह तेल अथवा चमेलीके पत्तोंका रस कानमें डालनेसे पूतिकर्ण रोग नष्ट होता है।
( यो. र. । बातव्या. ; बृ. मा. । वाता. ; ग. (६७८२) वरुणाद्यं तैलम्
नि. । वाता. १९) ( भै. र. ; च. द. ; व. से. । अश्मर्य. ; भा. वाजिगन्धावलाबिल्वदशमूल्यम्बुमाधितम् ।
प्र. । म. खं. २ अश्मर्य.) गृध्रस्यां तैलमैरण्डं बस्तौ पाने च शस्यते ॥ त्वपत्रपुष्पमूलस्य वरुणात् सत्रिकण्टकात् । असगन्ध, खरैटी, बेलको छाल और दशकषायेण पचेतैलं वस्तिनास्थापनेन च ।।। मूलकी प्रत्येक ओषधि आधा आधा सेर ले कर शर्कराश्मरोशूलनं मूत्रकृच्छविनाशनम् ॥ सबको एकत्र कूट कर ५२ सेर पानामें पकावें और
बरनेकी छाल, पत्र, पुष्प और जड़ मिलित । १३ सेर पानी शेष रहने पर छान लें । ४ सेर, एवं गोखरु ४ सेर ले कर दोनोंको एकत्र । सेर अरण्डी के तेल में यह काथ मिलाकर कट कर ६४ सेर पानीमें पकावें और १६ सेर मन्दाग्नि पर पकावें । जब काथ जल जाय ता शेष रहने पर छान लें।
तेलको छान लें।
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तैलपकरणम् ]
चतुर्थों भागः
इसकी बस्ति लेने और इसे पीनेसे गृध्रसी २ सेर तिलके तेलमें उपरोक्त काथ तथा ८ नष्ट होती है।
| सेर गाय या भैंसका दूध और कल्क मिला कर ( मात्रा-१ तोला।)
मन्दाग्नि पर पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाय
तो तेलको छान लें। (६७८५) वातकुलान्तकं तैलम्
इसकी मालिश करने या नस्य लेने अथवा (र. र. । वाता.)
इसके पीनेसे भग्न, खञ्ज और पङ्गुता आदि वातमूलञ्चैवाश्वगन्धाया गृहीत्वा खण्डशः शतम् ।
| रोगोंका नाश होता है। पश्चाशत् पलमानन्तु जलद्रोणे विपाचयेत् ॥ पादशेषे हरेत्क्वाथ क्वाथांशं तिलतैलकम् ।
(६७८६) वातारितैलम् (१) तैलाचतुर्गुणं क्षीरं गव्यं वा माहिषन्तथा ।
(ग. नि. । पार. तैला. २ ) शतपुष्पा कणा चैला कुष्ठश्च कण्टकारिका । | शतावर्यास्तुलामेकां तुलां गोक्षुरकस्य च । शुण्ठी यष्टी देवदारु शालपर्णी पुनर्नवा ॥ | तुलाधै तिलतैलस्य चैरण्डस्य पलानि षट् ॥ मनिष्ठा पत्रकं रास्ना वचा पुष्करमूलकम् । एरण्डपत्रस्वरसपलानि नव कारयेत् । यवानी भूतिकं मांसी निर्गुण्डी पयस्या बला॥ बुकशिग्रुकतारी सिन्दुवारसुवर्णकात् ॥ वहिगोक्षुरकश्चैव मृणालं बहुपुत्रिका । नीलिकाग्रन्थिपर्णाभ्यां करअकेशरमकात् । मतिकर्षमिदं योज्यं सर्वमेका पाचयेत ॥ षट्पलं गुग्गुलोर्दत्त्वा तैलं मृत मिना पचेत् ।। तैलशेषं समुद्धत्य सिद्ध पातकुलान्तकम् । कौब्ज्याक्षेपकपाङ्गुल्यमुप्तत्वज्मन्दगामिसाः। अभ्यङ्गे योजयेत् पाने नस्यकर्मणि सर्वदा ॥ | पक्षाघातहनुस्तम्भसन्धिरोगादिकानपि ॥ भग्नानां खअपनां शान्तिमानोति नान्यथा| नाशयेत्तत्क्षणादेव तमः सूर्योदये यथा । ___ क्वाथ-३ सेर १० तोले असगन्धको कट | तैलं वातारिनामेदं सर्ववातहरं परम् ॥ कर ३२ सेर पानीमें पकावें और ८ सेर शेष क्वाथ-६। सेर शतावर और ६। सेर रहने पर छान लें।
गोखरुको एकत्र कूट कर ६४ सेर पानी में पकावें कल्क--सोया, पीपल, इलायची, कूट, और १६ सेर पानी शेष रहने पर छान लें । कटेली, सोंठ, मुलैठी, देवदारु, शालपर्णी, पुनर्नवा
कल्क---अरण्डकी जड़, संहजनेकी जड़, ( बिसखपरा ), मजीठ, तेजपात, रास्ना, बच, | अरणी, सफेद संभालू धतूरा, नीलिका, गठीवन, पोखरमूल, अजवायन, कायफल, जटामांसी, संभालू, | करन और भंगरा तथा गूगल ६-६ पल ले कर क्षीरकाकोली, खरटी, चीता, गोखरु, कमलनाल
सबको एकत्र पीस लें । और शतावर १०-११ तोला ले कर सबको एकत्र ६। सेर तिलका तेल और ६० तोले अरण्डका पीस लें।
तेल, ६० तोले अरण्डके पत्तोंका स्वरस एवं उप
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
रोक्त क्वाथ और कल्क एकत्र मिला कर मन्दाग्नि । इसका लेप करनेसे जंघा, बाहू, हाथोंकी पर पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको उंगलियोंके पोरवों तथा पैर और सिरका कम्पन; छान लें।
| कुष्ठ, तीन भगन्दर, अनेक प्रकारके ब्रण, गृध्रसी यह तेल कुब्जता, आक्षेपक, पङ्गुता, सुप्तता, आदि अनेक वातज राग आर कष्टसाध्य नाड़ान गमनशक्तिकी मन्दता, पक्षाघात्, हनुस्तम्भ, सन्धि- | आदिका नाश होता है। गत पीड़ा आदि समस्त वातज रोगांको अत्यन्त
__ (६७८८) वायुच्छायासुरेन्द्रतैलम् - शीघ्र नष्ट कर देता है।
__ (भै. र. ; धन्व. । वातव्या.) ( इसकी मालिशके साथ साथ इसे पीना भी चाहिये । मात्रा-३ से ६ माशे तक )
चाटयालकं पलशतं तत्समं दशमूलकम् । (६७८७) वातारितैलम् (२) (महा)
जलषोडांशके पक्त्वा पादशेष समुद्धरेत् ॥
एतत्काथे पचेत्तैलं द्वात्रिंशत्पलमेव च । (र. सं. क. । उल्ला. ५; र. का. धे. । नाडीत्रणा.)
कल्काथै दीयते तत्र मभिष्ठा रक्तचन्दनम् ॥ सूतेन्द्रं बलितालकं च कुनटी खल्वे समांश दिनं सौवीरेण विमर्च तेन वसनं वर्तीकृतं लेपयेत् ॥
कुष्ठमेला देवदारु शैलजं सैन्धवं वचा । तैलेन प्रविलेपितं च वहुशो वह्नि ततो दीपये
" ककोलं पद्मकाष्ठश्च शृङ्गी तगरपादिका । त्तस्माद्यद्गलितं च तैलमसितं तेनाङ्गलेपः कृतः॥ गुडूची मुद्गपर्णी च माषपर्णी शतावरी । जङ्घाबाहुकराग्रपादशिरसां कम्पानशेषाञ्जये- नागजिह्वा श्यामलता शतपुष्पा पुनर्नवा ॥ स्कुष्ट तीब्रभगन्दरं व्रणगणावोगान्महागृध्रसीम् । एषां तोलद्वयं भागं दत्त्वा तैलन्तु पाचयेत् । अन्यान् रोगगणांश्च वातजनितान्नाडीव्रणान्द एतत्तैलवरं नाम्ना वायुच्छायासुरेन्द्रकम् ।।
स्तरान | सर्ववातविकारेषु हितं पुंसाश्च योषिताम् । विख्यातं भुवनत्रये गदहरं वातारितैलं महत ॥ हीनशुक्रातवानाञ्च नारीणाश्च विशेषतः ।।
पारा, गन्धक, हरताल और मनसिल समान चेतो विकारं हन्त्याशु वायुमाक्षेपसम्भवम् । भाग ले कर सबको १ दिन एकत्र घोट कर कजली
| मर्मवातं श्रमकृतं गात्रकम्पादिकं तथा ॥ बनावें और फिर उसे कांजीमें घोटकर कपड़ेकी
हिक्कां श्वासश्च कासश्च वातपित्तप्तमुद्भवम् । बत्तीपर उसको लेप करके सुखा लें । तत्पश्चात् अपस्मारे महोन्मादे हितं लेपे च भक्षणे ॥ इस बत्तीको बार बार तेलमें भिगोवें और फिर श्रीमद्गहननाथेन रचितं विश्वसम्पदे ॥ उसका एक सिरा चिमटेसे पकड़कर दूसरेमें आग | । क्याथ---(१) ६। सेर बला (खरैटो) को लगा दें; इससे जो काला तेल टपके उसे चीनी या २०० सेर पानीमें पकावें और ५० सेर शेष रहने काच आदिके पात्रमें एकत्रित कर लें। पर छान लें।
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तैलपकरणम् ]
चतुर्थो भागः
६५९
(२) ६। सेर दशमूलको २०० सेर पानीमें | लाक्षारसाढकश्चैव तथैव दधिमस्तुकम् । पकावें और ५० सेर रहने पर छान लें। चन्दनञ्चामृता भार्गी दशमूलं निदिग्धिका ॥ कल्क-मजीट, लाल चन्दन, कूठ, इला
एतेषां विंशतिपलं जलद्रोणे विपाचयेत् । यची, देवदारु, भूरि छरीला, सेंधानमक, बच,
- पादशेषे स्थिते काथे तैलं तेनैव माधयेत् ॥ कंकोल, पद्माक, काकड़ासिंगी, तगर, गिलोय,
कासान् ज्वरान् रक्तपित्तं पाण्डुरोगं हलीमकम् । मुद्गपर्णा, मापपर्णी, शतावर, अनन्तमूल, काली कामलाश्च क्षतक्षीणं राजयक्ष्माणमेव च ॥ सारिवा, सोया और पुनर्नवा २-२ तोले ले कर
श्वासान् पञ्चविधान् हन्ति बलवर्णाग्निपुष्टिकृत् । सबको एकत्र पीस लें।
तैलं वासाचन्दनादि कृष्णात्रेयेण भाषितम् ॥
कल्क-सफेद चन्दन, रेणुका, खट्टाशी ४ सेर तेलमें उपरोक्त काथ और कल्क मिला
( जुन्दबेदस्तर ), असगन्ध, प्रसारणी, दालचीनी, कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो
इलायची, तेजपात, पीपलामूल, नागकेसर, मेदा, तेलको छान लें।
महामेदा, सोंठ, मिर्च, पीपल, रास्ना, मुलैठी, भूरि यह तैल स्त्री और पुरुषों के समस्त वातज | छरीला, कचूर, कूठ, देवदारु, फूलप्रियंगु और रोगोंमें हितकारी है विशेषतः शुक्रक्षीणता और बहेड़ा ५-५ तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें । आर्तवकी हीनतामें अत्यन्त उपयोगी है। इसकी क्वाथ--(१) ६। सेर बासेको कूट कर ३२ मालिश करने और इसे पीनेसे चित्त विकृति, आक्षे- सेर पानीमें पका और ८ सेर रहने पर छान लें। पक, मर्मगत वायु, श्रम जनित गात्रकम्पन, हिक्का, (२) लाल चन्दन, गिलोय, भरंगी, दशमूल, श्वास, वात पित्तज कास, अपस्मार और महा | और कटेली २०-२० पल ( १०-१। सेर ) ले उन्माद, आदिका नाश होता है ।
कर सबको एकत्र कूट कर ३२ सेर पानीमें पकाचे ( मात्रा--३ से ६ माशे तक । ) । और ८ सेर शेष रहने पर छान लें।
८ सेर तिलके तैलमें उपरोक्त कल्क और ____ (६७८९) वासाचन्दनायतैलम्
दोनों काथ तथा ८ सेर लाखका रस और ८ सेर . ( भै. र. । कासरो.)
दहीका पानी ( दहीसे २ गुना पानी मिला कर चन्दनं रेणुका पूतिईयगन्धा प्रसारणी । बनाया हुवा तक ) मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । त्रिसुगन्धि कणामूलं नागकेशरमेव च । जब जलांश शुष्क हो जाय तो तेलको छान लें । मेदे द्वे च त्रिकटुकं रास्ना मधुकशैलजम् । ___ यह तेल कास, ज्वर, रक्तपित्त, पाण्डु, हलीशटी कुष्ठं देवदारु वनिता च विभीतकम् ॥ मक, कामला, क्षत क्षीणता, राजयक्ष्मा और श्वास में एतेषां पलिकैर्भागः पचेत्तैलाढकं भिषक् । . उपयोगी है। इसकी मालिशसे बल वर्ण और वासायाश्च पलशतं जलद्रोणे विपाचयेत् ॥ अग्निकी वृद्धि भी होती है ।
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६६०
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
(६७९०) वासारुद्रतैलम् (भै. र. । कुष्ठा. )
त्रिफला निम्भण्टाकी वृहत्यैौ सपुनर्नवा । हरिद्रे वृषनिर्गुण्डयौ पटोलकनकाइयौ ॥ हरितालं शिला कुष्ठौ लाङ्गलीदाडिमा हृयौ अपामार्गविषं चैव जयन्ती पूतिकट्फलौ || एषां कर्षद्वयैः कल्कैस्तैलप्रस्थं विपाचयेत् । चतुर्गुणे गुडूच्याच रसे वैद्यः समाहितः ।। चतुर्गुणन्तु गोक्षीरं वृषपत्ररसं तथा । दवावतारयेद्वै रुद्रमन्त्रं समाजपेत् ॥ कुष्टं दुष्टवणं विसर्प विद्रधिं तथा । नाडीव्रणं व्रणं घोरं वातरक्तं सुदुर्जयम् ॥ सन्निपातज्वरं चैव शिरोरोगं सुदारुणम् । शोथञ्च गलगण्डञ्च श्लीपदन्त्वर्बुदं तथा ॥ वातरोगानशेषांश्च अन्त्रवृद्धिं सुदारुणम् । पीनसश्वासकासञ्च सुदारुणभगन्दरम् ॥ उपदेशं महाघोरं चक्षु शूलश्च नाशयेत् । चर्मोत्थान् सर्वरोगांश्च तैलमेतद्विनाशयेत् ॥ रुद्रतैलमिदं नाम्ना स्वयं रुद्रेण भाषितम् ॥
कलक - - हर्र, बहेड़ा, आमला, नीमकी छाल, भण्टा ( बड़ी कटेली), छोटी और बड़ी कटेली, पुनर्नवा ( बिसखपरा ), हल्दी, दारूहल्दी, बासा (अडूसा), संभालु, पटोल, धतूरा, हरताल, मनसिल, कूठ, कलियारीकी जड़, अनारकी छाल, अपामार्ग ( चिरचिटा ), मीठा विष ( बछनाग ), जयन्ती, खट्टासी (जुन्दबेदस्तर ) और कायफल २ ॥ - २॥ तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें । २ सेर सरसों के तेल में यह कल्क, ८ सेर
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[ वकारादि
गिलोय का रस, ८ सेर गोदुग्ध और ८ सेर बासेके पत्तों का रस मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो तेलको छान लें।
यह तेल दाद, कु, दुष्ट व्रण, विसर्प, विद्रधि, नाडीव्रण, भयंकर वातरक्त, सन्निपात ज्वर, दारुण शिरोरोग, शोथ, गलगण्ड, श्लीपद, अर्बुद, समस्त वातजरोग, दारुण अन्त्रवृद्धि, पीनस, श्वास, कास, भगन्दर, भयंकर उपदंश, चक्षुशूल और समस्त चर्म रोगको नष्ट करता है ।
(६७९१) विचर्चिकारितैलम् ( भै. र. । कुष्ठा. )
जातीनिम्बार्क कुटजद्राणपुष्पाम्भसा समम् । कल्कै र्निशा विषव्योषकुपीलुककलिङ्गकैः ॥ अश्वमारशिलाताल कासीसैव सनागरैः । पचेत्कोलमितैर्वैद्यः कटुतेलशरावकम् ॥ एतत्तैलं निहन्त्याशु विचर्चीमतिदारुणाम् । नाडीव्रणञ्चोपदेशं चिरोत्थञ्च भगन्दरम् ॥
कल्क --- हल्दी, मीठा विष ( बछनाग ), सोंठ, मिर्च, पीपल, कुचला, इन्द्रजौ, कनेरकी जड़, मनसिल, हरताल, कसीस और सोंठ साढ़े सात सात माशे ले कर सबको एकत्र पीस लें 1
४० तोले सरसों के तेलमें ४०-४० तोले चमेली के पत्तों का रस, नीम के पत्तों का रस, आकका स्वरस, कुड़ेकी छालका रस और द्रोणपुष्पी ( गूमा ) का रस मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें जब जलांश शुष्क हो जाय तो तेलको छान लें 1
इसकी मालिश से अत्यन्त दुखदायी विचर्चिका
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तैलपकरणम् ]
चतुर्थों भागः
नाडीव्रण ( नासूर ), उपदंश और पुराना भग- सेर गोमूत्र मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब न्दर नष्ट होता है।
मूत्र जल जाय तो तेलको छान लें । विजयभैरवतैलम्
इसे लगानेसे यूका (जू) और लिक्षा (लीख) (सूततैलम्)
हमेशाके लिये नष्ट हो जाती हैं । ( र. चं. ; यो. र. ; वृ. नि. र. ; वै. र. ; र. (६७९४) विडङ्गादितैलम् (१) का. धे. । वातव्या ; रसे. चि. म. । अ. ९ ; ( भै. र. । श्लीपदा. ; यो. र. ; वृ. मा. ; धन्वं. ; र. र. स. । उ. अ. २१ ; भै. र. र. र. ; व. से. ; यो. त. । त. ५८ ; वृ. आमवाता.)
यो. त. । त. १०९) प्र. सं. ६७८७ “ वातारि तैलम् ” देखिये। विडङ्गमरिचार्केषु' नागरे चित्रके तथा । (६७९२) विजयभरवतैलम (महा) | भद्रदालकाहे च सर्वेषु लवणेषु च ॥ ( भै. र । आमवाता.)
तैलं पक्वं पिबेद्वापि श्लीपदानां निवृत्तये ॥ फणिफेनयुतश्चैतन्महद्विजयभैरवम् ॥
___ कल्क-बायबिडंग, काली मिर्च, आककी
| जड़की छाल, सोंठ, चीता, देवदारु, एलकाह यदि विजय भैरव तेलमें अफीम मिला दी |
(एलघालुक), सेंधा, काला नमक (संचल), बिड जाय तो उसीका नाम " महा विजय भैरव" |
लवण, सामुद्र लवण और काच लवण १-१ तोला हो जाता है।
ले कर सबको एकत्र पीस लें। (६७९३) विडङ्गतैलम्
९६ तोले तेलमें यह कल्क और चार गुना (भै. र. । कृम्य. ; ग. नि. । शिरो रोगा. १ ; यो. पानी मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी र. ; रा. मा. ; र. र. ; व. से. । कृम्य.; यो. | जल जाय तो तेलको छान लें। त. । त. २४)
इसे पीनेसे स्लीपद रोग नष्ट होता है । सविडङ्गगन्धकशिलासिद्ध सुरभीजलेन कटुतैलम् ।
(६७९५) विडङ्गादितैलम् (२) आजन्म नयति नाशं
( ग. नि. । शिरो रोगा. ; यो. र. ; व. से. । लिक्षासहितांश्च यूकांश्च ॥ शिरो. ; यो. त. । त. ७३ ; वृ. यो. त. । कल्क---बायबिडंग, गन्धक', और मनसिल
त. १३२ ) ५-५ तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें। विडङ्गस्व जिकादन्तीहिङ्गगोमूत्रसंयुतम् ।
१॥ सेर सरसोंके तेलमें यह कल्क और ६ | सम्पयं सार्षपं तैलं कृमिघ्नं नस्यमुत्तमम् ।। १. यो. र. में. गन्धकका अभाव है। १ सारिवार्केषु इति पाठभेदः
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
कल्क--बायबिडंग, सज्जी, दन्तीमूल और कल्क--बायबिडंग, स्नुहो (सेंड) का दूध, हींग ५-५ तोले ले कर सबको एकत्र पोस लें। आकका दूध, गुञ्जा ( चौंटलीके फल ), मजीठ,
२ सेर सरसोंके तेलमें यह कल्क और ८ सेर | बाबची और मूर्वा ५-५ तोले ले कर सबको गो गोमूत्र मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब मूत्र | मूत्रके साथ पीस लें । जल जाय तो तेलको छान लें।
___ ३॥ सेर सरसोंके तेलमें यह कल्क ( और . इसकी नस्य लेनेसे शिरोगत कृमि नष्ट | १४ सेर गोमूत्र ) मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । होते हैं।
जब मूत्र जल जाय तो तेलको छान लें। (६७९६) विडङ्गाद्यं तैलम् (१) इसे शिरमें लगानेसे कृमि नष्ट हो जाते हैं । ( ग. नि. । नासा. ४)
(६७९८) विद्रावणतैलम् विडङ्गसिन्धुयष्टयाहेर्देवदारुकटुत्रिकैः ।
( ग. नि. । तैला. २) पचेनासामयार्तिघ्नं तैलं नस्यप्रयोगतः ।। .
मनःशिलाले सिन्दूरं सौराष्ट्री गन्धकस्तथा । .....कल्क--बायबिडंग, सेंधा नमक, मुलैठी, ससिक्थकं सर्जरसं कासीसं पुरकुन्दरू । देवदारु, सोंठ, मिर्च और पीपल ५-५ तोले लेकर | श्याहःशकिकम्पिल्लं कङ्कुष्ठं चाप्यरुष्करम् । सबको एकत्र पीस लें।
गवां मूत्रेण संसिद्ध कटुतैलं प्रयोजयेत् ॥ काथ---उपरोक्त ओषधियां १-१ सेर ले पामाविचर्चिकादद्रूकण्डूकुष्ठक्रिमीन् व्रणान् । कर सबको एकत्र कूट कर ५६ सेर पानीमें पकावें अभ्यङ्गाच्छमयत्येतन्नाम्ना विद्रावणं मतम् ।। और १४ सेर शेष रहने पर छान लें।
कल्क--मनसिल, हरताल, सिन्दूर, सौराष्ट्री . ३॥ सेर तेलमें यह काथ और कल्क मिला ( सोरठी मिट्टी), गन्धक, मोम, राल, कसीस, कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो
गूगल, कुन्दरु गोंद, कमल, शल्लकी (शिलारस ), तेलको छान लें।
कमीला, कंकुष्ट (मुरदासिंह अथवा उसारे रेवन्द),
और भिलावा १-१ तोला ले कर पीसने योग्य इसकी नस्य लेनेसे नासा रोग नष्ट होते हैं।
चीजोंको एकत्र पीस लें। ___ (६७९७) विडङ्गाद्यं तैलम् (२) .
१॥ सेर सरसे के तेल में उपरोक्त समस्त ओप( ग. नि. । तैला. २) घियां और ६ .सेर गोमूत्र मिला कर मन्दाग्नि पर विडङ्गानि स्नुहीक्षीरमर्कक्षीरं तथैव च ।। पकावें । जब मूत्र जल जाए तो तेलको छान लें । गुञ्जाफलानि गण्डीरं श्यामा निर्दहनी तथा ॥ यह तेल पामा, विचचिका, दाद, खुजली, एतैर्गोमूत्रसम्पिष्टैस्तैलं मूनि निधापयेत् । कुष्ठ, कृमि और व्रणोंको नष्ट करता है । कृमयः पूरणादेव नश्यन्त्यपि विमार्गगाः ॥ इसकी मालिश करनी चाहिये।
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तैलप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः ( नोट--मोम तेल तैयार होने पर छान कर | (६८००) विषतैलम् मिलाना चाहिये । )
( भै. र. ; धन्व. ; यो. र. ; च. द. । कुष्ठा. ;
ग. नि.। कुष्ठा. ३६ ; वृ. मा. ; व. से. ; - (६७९९) विपरीतमल्लतैलम्
वृ. शि. र. ; र. र. । कुष्ठा. ; वृ. यो. (भै. र. । व्रणशोथा. ; भा. प्र. ; च, द. ; धन्व. ;
त.। त. १२०) ... यो. र. । व्रण. ; यो. त. । त. ६० ; वृ. यो. नक्तमालं हरिद्रे द्वे अर्क तगरमेव च । त. । त. १२२.)
करवीरं वचाकुष्ठमास्फोता रक्तचन्दनम् ॥
मालतीसिन्धुवारश्च मञ्जिष्ठां सप्तपर्णकम् ।* . सिन्दूरकुष्ठविषहिङ्गुरसोनचित्र
एषामढेपलान् भागान् विषस्यापि पलं तथा ।। बालाकिलाङ्गलिककल्कविपक्वतैलम् । चतुर्गुणे गवां मूत्रे तैलं प्रस्थं विपाचयेत् । पासादमन्त्रयुतफूत्कृत्नुन्नफेनं
श्वित्रविस्फोटकिटिभकोटलूताविचर्चिकाः ॥ क्लिन्नव्रणप्रशमने विपरीतमल्लः ॥ | कण्डूकच्छुरिकायाश्च ये व्रणा विषदूषिताः। खगाभिघातगुरुगण्डमहोपदंश
ते सर्वे नाशमायान्ति तमः सूर्योदये यथा ॥ - नाडीव्रणव्रणविर्चाचककुष्ठपामाः।
विषतैलमिदं नाम्ना सर्वत्रणविशोधनम् ।। .
कल्क-करंजबीज, हल्दी, दारुहल्दी, एतानिहन्तिविपरीतकमल्लनाम
आककी जड़की छाल, तगर, कनेर, बच, कूठ, तैलं यथेष्ट शयनासनभोजनस्य ॥ .. कोयल, लाल चन्दन, चमेलीके पत्ते, संभाल, कल्क--सिन्दूर, कूठ, मीठा विष (बछनाग),
मजीठ और सतौनेकी छाल २॥-२॥ तोले तथा
मीठा विष (बछनाग) ५ तोले ले कर सबको होंग, ; ल्हसन, चीता, सुगन्धबालाकी जड़ और
एकत्र पीस लें। कलियारीकी जड़ १।-११ तोला ले कर सबको
२ सेर तेलमें यह कल्क और ८ सेर गोमूत्र एकत्र पीस लें।
मिला कर मन्दाग्निपर पकावें जब गोमूत्र जल जाय १ सेर तेलमें यह कल्क और ४ सेर पानी ।
तो तेलको छान लें । यह तैल श्वेत कुष्ठ, विस्फोमिला कर मन्दाग्नि पर पकावें। जब पानी जल
टक, किटिभ कुष्ट, मकड़ी आदि विषैले कृमियोंके
दंश या स्पर्शसे उत्पन्न पिटिका, विचर्चिका, कण्डु, जाय तो तेलको छान लें।
कच्छुरिका और विष-दूषित व्रणोंको नष्ट करता है। यह तेल ब्रण, शस्त्रघात, फोड़े, उपदंश,
१ अर्कस्नुकपय एव चेति पाठान्तरम् । नाडीव्रण, विचर्चिका, कुष्ठ और पामाको नष्ट * रसकामधेनुमें कल्क द्रव्योंमें मनसिल, करता है।
हरताल, सिन्दूर और रसौत अधिक हैं।
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६६४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
यह तेल समस्त प्रकारके व्रणोंको शुद्ध चीतामूल, सहजनेकी छाल, मकोय, कलियारीकी जड़, करता है।
नीमकी छाल, बकायनकी छाल, बांझ ककोड़ेकी (६८०१) विषगर्भतलम (१) (महा) जड़, दशमूलकी प्रत्येक ओषधि, शतावर, करेला, ( वृ. नि. र. । वातव्या. ; यो. र. । वातव्या. )
| सारिवा, गोरखमुण्डी, विदारीकन्द, सेहुंड (सेंड-थोहर),
| आककी जड़, मेढासिंगी, लाल और सफेद कनेर, कनकं तु च निर्गुण्डी तुम्बिनी च पुनर्नवा ।।
बच, काकजंघा, अपामार्ग (चिरचिटा ), बला वातारिश्चाश्वगन्धा च प्रपुनाट सचित्रकम् ॥
(खरटी ), अतिबला (कंधी), नागबला, कटेली, सौभाजनं काकमाची कलिकारी च निम्बकम् ।
महाबला, बासा, गिलोय और प्रसारणी ५-५ महानिम्बेश्वरी चैव दशमलं शतावरी ॥
तोले ले कर सबको एकत्र कूट कर ३२ सेर कारवेल्ली सारिवा च श्रावणी च विदारिका।
पानीमें पकावें और ८ सेर शेष रहने पर छान लें। वज्यकौं मेषशृङ्गी च करवीरद्वयं वचा ॥
कल्क-सांठ, मिर्च, पीपल, कुचला, रास्ना, काकजङ्घा त्वपामार्गबला चातिबलाद्वयम् ।।
कठ, अतीस, नागरमोथा, देवदारु, मीठा विष व्याघ्री महाबला वासा सोमवल्ली प्रसारिणी ॥ पलोन्मितानि चैतानि द्रोणेम्भसि विनिःक्षिपेत् ।
(छनाग,) जवाखार, सज्जीखार, सेंधानमक, काला पचेत्पादावशेषेस्मिन्कल्कस्य कुडवं क्षिपेत् ॥
नमक (संचल), सामुद्र लवण, काच लबण, बिड
लवण, तूतिया, कायफल, पाठा, भरंगी, नौसादर, त्रिकटुं विषतिन्दुं च रास्ना कुष्ठं विषं धनम् ।
त्रायमाणा, धमासा, जीरा और इन्द्रायणकी जड़ देवदारुवेत्सनाभो द्वौ क्षारौ लवणानि च ॥
समान भाग मिश्रित २० तोले ले कर सबको तुत्यकं कट्फलं पाठा भाडौं च नवसागरम् ।
एकत्र पीस लें। प्रायन्ती धन्वयासं च जीरकं चन्द्रवारुणी ॥
२ सेर तेलमें उपरोक्त काथ और कल्क मि. तैलपस्थं समादाय पाचयेन्मृदुवह्निना ।।
लाकर मन्दाग्नि पर पकावें। जब पानी जल जाए विषगर्भमिदं नाम्ना सर्वान्वातान्व्यपोहति ॥
तो तेलको छान लें। वक्षोरुकटिजङ्घानां सन्धान श्रेष्ठमेव च ।
इसकी मालिशसे समस्त वातज रोग; वक्ष, गृध्रसीं च महावातान्सर्वाङ्गग्रहणं तथा ॥
ऊरु, जंघा, कटि और सन्धिगत वायु, गृध्रसी, दण्डापतानकं चैव कर्णनादं च शून्यताम् ।
सवींगग्रह, दण्डापतानक, कर्णनाद और शून्यता वनमध्ये यथा सिंहात्पलायन्ते यथा मृगाः ॥
आदि रोग नष्ट होते हैं। तथाश्वगजभग्नानां नराणां च चतुष्पदाम ।
(६८०२) विषगर्भतैलम् (२) नाशयेन्नात्र सन्देहो विषगर्भप्रलेपनात् ॥ ।
(यो चि. म. । अ. ६) क्वाथ-धतूरा, संभालु, कड़बी तूंबी, पुन- कनकं तु च निर्गुण्डी तुम्बिनी च पुनर्नवा । नवा (बिसखपरा ), अरण्डमूल, असगन्ध, पंवाड़, वातारिश्चाश्वगन्धा च पुन्नाटः सचित्रकः ।।
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तैलपकरणम् ]
चतुर्थों भामः
६६५
सौभाजनं काकमाची कलिहारी तु निम्बकैः। प्रकारकी सारिवा, कायफल, विदारीकन्द, स्नुही महानिम्बेश्वरी चैव दशमूली शतावरी ॥ (सेंड-सेहुंड ), आककी जड़, मेढासिंगी, दो कारेल्ली सारिवे द्वे च श्रीपर्णी च विदारिका। प्रकारके कनेरकी जड़की छाल, काकजंघा, अपामार्ग वज्रार्कमेषशृङ्गी च करवीरद्वयं तथा ॥ | (चिरचिटा ), प्रसारिणी और हरै, बहेड़ा तथा काकजङ्घा त्वपामार्ग तथा स्यात्संप्रसारिणी। आमला समान भाग मिश्रित ६। सेर ले कर सबको त्रिफला तत्समांशेन रसं तैलं समानि च ॥ एकत्र कूट कर ३२ सेर पानीमें पकावें और आठ कृष्णस्य तिलतैलं च तैलमेरण्डसार्षपम् ।। पचेदेकत्र सर्व तत्तैलं सिद्धं च बुद्धिमान् ॥ काले तिलका तेल, अरण्डका तेल और सरत्रिकदृन्यश्वगन्धा च रास्ना कुष्ठं च निम्बकम। सोंका तेल समान भाग मिश्रित २ सेर ले कर देवता लिई नदो भान
उसमें उपरोक्त काथ मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें। तुत्यं कट्फलं पाठा भाी च नवसादरम् ।
| जब पानी जल जाए तो तेलको छान कर उसमें गन्धकं पुष्करं मूलं शिलाजतु सठी वचा ॥
निम्न लिखित ओषधियोंका बारीक चूर्ण मिला देंएतानि कर्षमात्राणि तैलशेषे विनिक्षिपेत् ।।
सेठ, मिर्च, पीपल, असगन्ध, रास्ना, कूठ, प्रमृतं च विपं दद्यात मुक्ष्मचूर्ण विनिक्षिपेत ॥ नीमकी छाल, देवदारु, इन्द्रजौ, जवाखार, सजीविषगर्भमिदं तैलं सर्वव्याधीन व्यपोहति ।।
खार, पांचों नमक (सेंधा, संचल, बिड नमक, कुक्षिभू षष्टिशर्केषु सन्धीनां शोफ एवं च ॥
काच लवण, सामुद्र लवण ), नीला थोथा, कायगृध्रसी च शिरोवायुः सर्वाङ्गस्फुटनं तथा ।
फल, पाठा, भरंगी, नौसादर, गन्धक, पोखरमूल, दण्डापतानकञ्चैव कर्णनादं च शून्यता ॥
शिलाजीत, कचूर और बच १२-१। तोला तथा कम्पनं चार्द्धवातं च बाधिर्य पलितं तथा।
विष (बछनाग) १० तोले । गण्डमालापचीग्रन्थिशिरःकम्पापतन्त्रकम् ॥
___इसकी मालिशसे सन्धियांकी सूजन, गृध्रसी, अनेन सर्ववाताश्च सन्निपातास्त्रयोदश ।
शिरोवायु, सर्वाङ्गस्फुटन, दण्डापतानक, कर्णनाद, वनमभ्यागते सिंहे पलायन्ते यथा मृगाः ।।
शून्यता, कम्पन, अर्धांगवात, वधिरता, पलित, तथा वातेषु सर्वेषु योजनीयं भिषग्वरैः॥
गण्डमाला, अपची, ग्रन्थि, शिरका कांपना, अप
तन्त्रक और सन्निपातादिका नाश होता है । क्याथ-धतूरा, संभालु, कड़वी तूंबी, पुननवा ( बिसखपरा ), अरण्डमूल, असगन्ध, पंवाड़,
(६८०३) विषगर्भतैलम् (३) चीतामूल, सहजनेकी छाल, मकोय, कलियारी, |
( यो. चि. म. । अ. ६) नीमकी छाल, बकायनकी छाल, बांझ ककोड़ेकी विषं च पुष्कर कुष्ठं वचा भाी शतावरी । जड़, दशमूलकी प्रत्येक वस्तु, शतावर, करेला, दो | शुण्ठी हरिद्रे लशुनं विडङ्गं देवदारु च ।।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
अश्वगन्धाजमोदा.च मरीचं ग्रन्थिकं बला। । जाय तो तेलको छान कर उसमें ५ तोले बछनाग रास्ना प्रसारिणी शिग्रु गुडूची हपुषाभया ॥ का अत्यन्त बारीक चूर्ण मिला दें। दशमूलानि निर्गुण्डी मसी पाठा च वानरी। इसकी मालिशसे सन्धिगत वायु, त्रिकग्रह, विशाला शतपुष्पा च प्रत्येकं पलिकान् मितान्।। पृष्ठग्रह, कटिग्रह, पक्षाघात, अग वात, भयंकर चतुरणजला पक्त्वा पादशष शृत नयत् । . शरीर कम्पन; कुब्जता, धनुर्वात, गृध्रसी और प्रतातिलतैलं क्षिपेत्प्रस्थं तथैरण्डं च सापम् ॥ नक आदि समस्त वातज रोग नष्ट होते हैं। धत्तरैरण्डभृङ्गार्करसान् प्रस्थमितान् क्षिपेत् । (६८०४) विषगर्भ तैलम् (४) पाचयेद्गोमयरसैस्तैलशेष समुद्धरेत् ॥
(वृ. नि. र. । वातव्या.) पलमेकं विषं चात्र सूक्ष्मं कृत्वा विनिक्षिपेत् ।। सर्वेषु वातरोगेषु सदाभ्यङ्गे विधीयते ॥
| निर्गुण्डिकारसप्रस्थं प्रस्थमार्कवजादसात् । सन्धिवाते सन्निपाते त्रिकपृष्ठकटिग्रहे।
रसो धत्तरजः प्रस्थो गोमूत्रं प्रस्थ सम्मितम् ॥ पक्षाघाते तथा ङ्गे गात्रकम्पे च दारुणे॥ वचा कुष्ठं हेमबीजं तेजोहा कटफलं तथा। कुब्जके च धनुर्वाते गृध्रस्यां च प्रतानके। पला(शानि सर्वैस्तु वत्सनागः समो मतः॥ विषगर्भमिदं तैलं योजनीयं सदाबुधः ॥
तैलपस्थं पचेयुक्त्या वातरोगेषु शस्यते । । . क्वाथ-विष (बछनाग), पोखरमूल, कूठ,
हेमन्ते हरिणाक्षीणां गाढमालिङ्गनं तथा ॥ बच, भरंगी, शतावर, सांठ, हल्दा, दारुहल्दी,
___कल्क-बच, कूठ, धतूरेके बीज, बड़ी ल्हसन, बायबिडंग, देवदारु, असगन्ध, अजमोद,
मालकंगनी और कायफल २॥-२॥ तोले तथा काली मिर्च, पीपलोमूल, खरैटी, रास्ना, प्रसारणी,
बछनाग ( मीठा विष ) १२॥ तोले लेकर सबको सहंजनेकी छाल, गिलोय, हाऊबेर, हरं, दशमूल
एकत्र पीस लें। की प्रत्येक वस्तु, संभालु, शेफालिका ( सफेद
२ सेर तेलमें यह कल्क और २-२ सेर संभालु ), पाठा, कौंचकी जड़, इन्द्रायणकी जड़ संभालु, भंगरे और धतूरका रस एवं गोमूत्र मिला.
और सोया ५-५ तोले ले कर सबको एकत्र कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब जलांश शुष्क हो कूट कर ८ गुने ( १९॥ सेर ) पानीमें पकावें
जाय तो तेलको छान लें। और चौथा भाग शेष रहने पर छान लें।
इसकी मालिशसे समस्त वातज रोग नष्ट २ सेर तिलका तेल, २ सेर सरसेका तेल |
होते हैं। और २ सेर अरण्डीका तेल तथा उपरोक्त काथ (६८०५) विषगर्भतैलम् (५) एवं २-२ सेर धतूरे, अरेण्ड, भंगरे और आकके | (व. से. । कर्णरोगा. ) पत्तोंका रस एवं २ सेर गायके गोबरका रस एकत्र अर्कस्य पत्रस्वरसं निर्गुण्डीस्वरसं तथा । मिला कर मन्दाग्नि पर पका और जब पानी जल | राजक्षादितोयेन सूर्यावर्त रसं तथा ।।
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तैलप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
चित्रकोद्भवसम्मिश्रं वज्रक्षीरं तथैव च ।
कल्क--धतूरा, कूठ, कलियारीकी जड़, विष तथा हुलहुलतोयेन प्रस्थै केन क्रमेण तु ॥ (बछनाग), चोक ( सत्यानाशीकी जड़ ), रास्ना, तैलपस्थं पचेत्तस्मिन् हरितालपलद्वयम् । कनेरकी जड़की छाल, मालकंगनी, काली मिर्च, सैन्धवश्च पलं योज्यं विषं पादांशकं तथा ॥ बड़ी दन्तीकी जड़, जटामांसी, बच, चीता, सरसों, एतत्तैलं हरेत् क्षिप्रं कर्णशूलञ्च दुस्तरम् ॥ देवदारु, दारुहल्दी, हल्दी, अरण्डमूल, शिलाजीत,
आकके पत्तोंका रस २ सेर, संभालुका रस हर्र, बहेड़ा, आमला और मजीठ ५-५ तोले ले २ सेर, अमलतासके पतोंका रस २ सेर, हुलहुल- | कर बारीक पीस लें । का रस ४ सेर, चीतेका काथ २ सेर तथा सेहुंड | ८ सेर तेलमें उपरोक्त समस्त द्रव पदार्थ (सेंड-थूहर ) का दूध २ सेर एवं तिलका तेल और कल्क मिला कर मंदाग्नि पर पकावें । जब २ सेर ले कर सबको एकत्र मिला तथा उसमें | जलांश शुष्क हो जाय तो तेलको छान लें। १० तोले हरताल, ५ तोले सेंधा नमक तथा २० __इसकी मालिशसे समस्त वातजरोग नष्ट तोले बछनाग मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब | | होते हैं। जलांश शुष्क हो जाय तो तेलको छान लें।
(६८०७) विषगर्भ तैलम् (७) (लघु) इसे कानमें डालनेसे दुस्साध्य कर्णशूल भी
( यो. र. । वातव्या.) शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
धत्तरस्य रसस्य पञ्चकुडवं तैलं तथा कामिक (६८०६) विषगर्भतलम् (६) (लघु) प्रस्थानां च चतुष्टयं गदवचात्रिंशत्परं शाणकाः। ( यो. र. । कुष्टा. ; वृ. यो. त. । त. ८०.) हृद्धात्रीमरिचात्पृथङ् नव विषात्षट् स्वर्णवीजातैलाढके समतुषाम्बु हयारिहेम
पटोः निर्गुण्डिभास्करशिफाक्तया तु सिद्धम्। स्युः सप्ताधिकविंशतिः परिमितं तीब्रानिलधत्तरकुष्ठफलिनी विषहेमदुग्धा
ध्वंसनम् ॥ रास्नाहयारिकटभीमरिचोपचित्राः ॥ । पक्षाघातं हनुस्तम्भं मन्यास्तम्भं कटिग्रहम् । मांसी वचा दहनसर्षपदेवदारु- पृष्ठत्रिकशिरःकम्पं सर्वाङ्गग्रहणं तथा । - दाव:निशारुबुजतुत्रिफलासमङ्गाः। धतूरेका रस और तेल २॥-२॥ सेर तथा पिष्ट्वा क्षिपेत्पलमिता विषगर्भमेत- | कांजी ८ सेर और निम्न लिखित कल्क एकत्र
तैलं समस्तपवनामयनाशनं स्यात् ॥ मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब जलांश शुष्क द्रव पदार्थ--कांजी ८ सेर, कनेरकी जड़का हो जाय तो तेलको छान लें । काथ ८ सेर, धतूरका रस ८ सेर, संभालुका रस | कल्क-कूठ और बच ३०-३० शाण ८ सेर और आककी जड़का काथ ८ सेर। (प्रत्येक ९ तोले ४॥ माशे ), हृद्धात्री (हियावली)
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भारत-भैषज्य - रत्नाकरः
६६८
और काली मिर्च, प्रत्येक २ तोले ९॥|| माशे, बछनाग २२|| माशे, एवं धतूरे के बीज और सेंधानमक २७-२७ शाण (प्रत्येक ८ तोले ५। माशे) ले कर सबको एकत्र पीस लें ।
यह तेल पक्षाघात, हनुस्तम्भ, मन्यास्तम्भ, ग्रिह, पृष्ठ त्रिक और शिरः कम्पन तथा सर्वाङ्गग्रह आदि वातज रोगोंको नष्ट करता है ।
विषगर्भ तैलम् (८) (लघु) ( ग. नि. । कुष्ठा. ३६ ) मरिचाद्यं तैलम् प्र. सं. ५२८६ देखिये । (६८०८) विषतिन्दुकतैलम्
( भै. र. ; धन्व. । वातरक्ता. ) विषतरुफलमज्जमस्थयुग्मञ्च शिग्रु
स्वरसलकुचवारि प्रस्थमेकैकशश्च । कनकवरुणचित्रापत्रनिर्गुण्डिकास्नुक्रस्वरसतुरगगन्धावैजयन्तीरसच || पृथगिति परिकल्प्य प्रस्थयुग्मेन युग्मं विषतरुफलमज्जातुल्यतैलं विपकम् । लशुन सरलयष्टीकुष्ठ सिन्धूत्थयुनं
दहनतिमिर कृष्णाकल्कयुक्तं सुसिद्धम् ॥ हरति सकलवातान् घोररूपानसाध्यान्
प्रतिदिनमुपलेपात् सुप्तवातस्य जन्तोः । कुष्ठमष्टादशविधं द्विविधं वातशोणितम् वैवर्ण्य लग्गतान् दोषान् नाशयत्याशु मर्दनात्॥
क्वाथ - (१) कुचलेके छिलके रहित बीज सेर ले कर कूट कर १६ सेर पानी में पकायें और ४ सेर शेष रहने पर छान लै 1
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[ वकारादि
(२) १ सेर सहजनेकी छालकों कूट कर ८ सेर पानी में पकावें और २ सेर शेष रहने पर छान लें।
(३) लकुच (बदल) की छाल १ सेर ले कर कूट कर ८ सेर पानी में पकायें और २ सेर शेष रहने पर छान लें।
(४) धतूरे के पत्तों का रस या काथ २ सेर । (५) १ सेर बरनेकी छालको कूट कर ८ सेर पानी में पकायें और २ सेर शेष रहने पर छान लें ।
(६) वृद्दद्दन्तीके पत्तों का रस या काथ २ सेर । (७) संभालुके पत्तों का रस २ सेर |
(८) सेहुंड (स्नुही
सेंड) का स्वरस २
सेर ।
( ९ ) १ सेर असगन्धको कूट कर ८ सेर पानी में पकायें और २ सेर शेष रहने पर छान लें 1 (१०) अरणीका काथ या पत्तोंका रस
२ सेर |
कलक --- हसन, धूपसरल, मुलैठी, कूठ, सफेद और लाल सेंधा नमक, चीता, हल्दी और पीपल समान भाग मिश्रित ४० तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें ।
४ सेर तेल में उपरोक्त समस्त काथ और स्वरस तथा कल्क मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान लें।
इसकी मालिशसे भयंकर वातव्याधि, सुप्तवात, अठारह प्रकार कुष्ट, द्विविध वातरक्त, विवता और विकार नष्ट होते हैं ।
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तैलप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः (६८०९) विषादनं तैलम् । हृच्छूले पार्श्वशूले च तथैवाभवभेदके । (ग. नि. । तैला. २)
कामलापाण्डुरोगेषु शर्करास्वश्मरीषु च ॥ कम्पिल्लकनिशायुग्मैः शालनिर्यासचित्रकैः ।
क्षीणेन्द्रिया नरा ये च जरया जर्जरीकृताः । पुरकीटारिसंयुक्तैः पालिकैः मुविचूर्णितैः ॥
| येषाश्चैव क्षयो व्याधिरन्त्रवृदिश्च दारुणा ।। एकीकृत्य समैरेभिविषस्य च पलद्वयम् ।
अदितं गलगण्डश्च वातशोणितमेव च । आतपे स्थापयेद्धीमान कटुतैलपरिप्लुतम् ।।
| स्त्रियो या न प्रसूयन्ते तासाश्चैव प्रदापयेत् ।। विषादनमिदं तैलं लेपासिध्मविचचिके।
गर्भमश्वतरी विन्द्यान्न च मृत्युवशं व्रजेत् । हन्ति पामापचीव्यङ्गदुष्टत्रणभगन्दरान् ॥
एत तैलवरं चैव विष्णुना परिकीर्तितम् ।। कमीला, हल्दी, दारुहल्दी, राल, चीता,
| कल्क-शालपर्णी, पृष्टपर्णी, खरैटी, शतागूगल और बायबिडंगका चूर्ण ५-५ तोले तथा
वर, अरण्डकी जड़, छोटी और बड़ी कटेलीकी जड़, विष (बछनाग) का चूर्ण १० तोले ले कर सबको
गवेधुक (नागबला) की जड़ और कटसरैयाकी जड़ सरसे के तेलमें मिला कर धूपमें रख दें।
५-५ तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें। (४॥ सेर तेलमें उपरोक्त ओषधियां और
२ सेर तेलमें यह कल्क और ८ सेर बकरी १८ सेर पानी मिला कर धूपमें रक्खें। जब पानी
या गायका दूध मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । सूख जाय तो तेलको छान लें।)
जब दूध जल जाए तो तेलको छान लें । इसकी मालिशसे सिध्म, विचर्चिका, पामा, ___ इसकी मालिशसे वातव्याधि-पीड़ित घोडे अपची, व्यङ्ग, दुष्ट व्रण और भगन्दरका नाश
और हाथी भी स्वस्थ हो जाते हैं । पौरुषहीन होता है।
व्यक्तियों में पुरुषत्व आ जाता है। इसके अतिरिक्त (६८१०) विष्णुतैलम् (१)
यह तेल हृच्छूल, पार्श्वशूल, अञवभेदक, पाण्डु, (भै. र. ; धन्व. । वातव्या; वृ. यो. त.। त. ९०)
कामला, शर्करा, अश्मरी, क्षय, भयंकर अन्त्रवृद्धि,
अर्दित, गलगण्ड और वातरक्तको भी नष्ट करता है। शालपर्णी पृश्निपर्णी बला च बहुपुत्रिका। एरण्डस्य च मूलानि बृहत्योः पूतिकस्य च ॥
जो पुरुष वृद्धावस्थाके कारण क्षीण हो गये
हैं और जिन स्त्रियोंके सन्तान नहीं होती उन्हें गवेधुकस्य मूलानि तथा सहचरस्य च ।। एतेषां पलिकैर्भागैस्तैलप्रस्थं विपाचयेत् ॥
| यह तेल सेवन करना चाहिये । आज वा यदि वा गव्यं क्षीरं दद्याचतुर्गुणम् । (६८११) विष्णुतैलम् (२) (मध्यम) अस्य तैलस्य पक्कस्य शृणु वीर्यमतः परम् ॥ (भै. र. ; धन्व. । वात.) अश्वानां वातभग्नानां कुअराणां तथैव च । शतावरी चांशुमती पृश्निपर्णी शटी बला । अपुमांश्च नरः पीत्वा निश्चयेन पुमान भवेत् ॥ । एरण्डस्य च मूलानि बृहत्योः पूतिकस्य च ॥
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६७०
भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[ वकारादि
गवेधुकस्य मूलानि तथा सहचरस्य च ।
२ सेर तेलमें उपरोक्त काथ और कल्क तथा एषां द्विपलिकान् भागान् जलद्रोणे विपाचयेत् ॥ ४-४ सेर गाय और बकरीका दूध एवं २ सेर
शतावर का रस मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो तेलको छान लें ।
पादशेषे च पूते च गर्भश्चैनं समावपेत् । पुनर्नवा वचा दारुं शताह्वा चन्दनागुरुः ॥ शैलेयं तगरं कुष्ठमेलामांसी स्थिरा बला । अश्वाहा सैन्धवं रास्ना पलार्द्धानि च पेपयेत् गव्याजपसोः प्रस्थौ द्वौ द्वावत्र प्रदापयेत् । शतावरीरसंप्रस्थं तैलप्रस्थं विपाचयेत् ॥ अस्य तैलस्य सिद्धस्य शृणु वीर्यमतः परम् । अश्वानां वातभग्नानां कुञ्जराणां तथा नृणाम् ॥ तैलमेतत्प्रयोक्तव्यं सर्ववातविकारनुत । अमांश्च नरः पीत्वा निश्चयेन पुमान् भवेत् ॥ गर्भश्वरी विद्याकिं पुनर्मानुषी तथा । हृच्छूलं पार्श्वशूलञ्च तथैवार्द्धा विभेदकम् ॥ अपचीं गण्डमालाञ्च वातरक्तगलग्रहम् । कामलां पाण्डुरोगञ्च अश्मरीञ्चैव नाशयेत् ॥ तैलमेतद्भगवता विष्णुना परिकीर्तितम् । विष्णुतैलमिदं ख्यातं वातान्तकरणं शुभम् ॥ क्वाथ - शतावर, शालपर्णी, पृष्टपर्णी, खरैटी, अरण्डकी जड़, छोटी और बड़ी कटेलीकी जड़, करजुवेकी जड़, नागबलाकी जड़ और कटसरैयाकी जड़ १०-१० तोले ले कर सबको एकत्र कूट कर ३२ सेर पानीमें पकावें और ८ सेर शेष रहने पर छान लें ।
कचूर,
कल्क–पुनर्नवा (बिसखपरा), बच, देवदारु, सोया, सफेद चन्दन, अगर, भूरि छरीला, तगर, कूठ, इलायची, जटामांसी, शालपर्णी, बला (खरैटी), असगन्ध, सेंधा नमक और रास्ना २॥ - २|| तो ले कर सबको एकत्र पीस लें ।
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यह तेल हाथी, घोड़ों और मनुष्य के समस्त वातज रोगोंको नष्ट करता है ।
इसे पीने से नपुंसक पुरुषमें अवश्यही पुरुषातन आ जाता हैं । इसके प्रभावसे मानुषी (स्त्री) तो क्या अश्वतरी भी गर्भ धारण कर लेती है ।
इसके अतिरिक्त यह तैल हृदयशूल, पार्श्वशूल, अर्धावभेदक, अपची, गण्डमाला, वातरक्त, गलग्रह, कामला, पाण्डु और अश्मरीको भी नष्ट करता है ।
(६८१२) विष्णुतैलम् (३) (बृहद् ) (भै. र. ; धन्व. । वातव्या . ) ranधाजलधरौ जीवकर्षभकौ शटी । काकोली क्षीरकाकोली जीवन्ती मधुयष्टिका ॥ मधूरिका देवदारु पद्मकाष्ठञ्च शैलजम् । मांसी चैला त्वचं कुष्ठं वचाचन्दनकुङ्कुमम् ॥ मञ्जिष्ठा मृगनाभिश्च श्वेतचन्दनरेणुकम् । पर्णिनी कुन्दखोटि ग्रन्थिकञ्च नखी तथा ॥ एतेषां पलिकैर्भागैस्तैलस्यापि तथाढकम् । शतावरीरससमं दुग्धञ्चापि समं पचेत् ॥ विष्णुतैलमिदं श्रेष्ठं सर्ववातविकारनुत् । ऊर्ध्ववातं तथा वातं अंगुलिग्रहमेव च ॥ शिरोमध्यगतं वातं मन्यास्तम्भगलग्रहम् । हन्ति नानाविधं वातं सन्धिमज्जगतं तथा ॥
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तैलमकरणम् ]
यस्य शुष्यति चैकाङ्गं गतिर्यस्य च विह्वला । ये वातप्रभवा रोगा ये च पित्तसमुद्भवा ॥ सर्वांस्तान्नाशयत्याशु सूर्यस्तम इवोदितः ॥
चतुर्थी भागः
कल्क — असगन्ध, नागरमोथा, जीवक, ऋषभक, कचूर, काकोली, क्षीर काकोली, जीवन्ती, मुलैठी, सौंफ, देवदारु, पद्माक, भूरिछरीला, जटामांसी, इलायची, दालचीनी, कूठ, बच, लाल चन्दन, केसर, मजीठ, कस्तूरी, सफेद चन्दन, रेणुका, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, कुन्दरु, गूगल और नखी ५-५ तोले ले कर सबको बारीक पीस लें ।
८ सेर तेलमें उपरोक्त कल्क, ८ सेर शतावरका रस और ८ सेर दूध मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो तेलको छान लें।
यह तेल ऊर्ध्ववात, उंगलीग्रह, शिरोगत वायु, मन्यास्तम्भ, गलग्रह, सन्धिगत वायु, मज्जागत वायु और अन्य वातज तथा पित्तज रोगों को नष्ट है 1
करता
जिसका कोई अंग सूखता जाता हो या जो लड़खड़ाकर चलता हो उसके लिये यह तेल उपयोगी है।
(६८१३) विष्यन्दनतैलम्
( भै. र. | भगन्दरा. ; वृ. मा. ; यो. र.; व. से., ग. नि. । भगन्दरा. ७ः वृ. यो. त. । त. ११६) चित्रकार्कौ त्रिवृत्पाठे मलपूहयमारकौ । सुधां वचां लाङ्गलिकीं हरितालं सुवर्चिकाम् || ज्योतिष्मतीश्च संहृत्य तैलं धीरो विपाचयेत् ।
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६७१
एतद्विष्यन्दनं नाम तैलं दद्याद्भगन्दरे ॥ शोधनं रोपणं चैव सवर्णकरणं
परम् ॥ कल्क-चीतेकी जड़, आकको जड़, निसोत, पाठा, कठगूलर, कनेरकी जड़की छाल, थूहर (सेंड) की जड़, बच, कलियारी, हरताल, सज्जी और मालकंगनी १। - १| तोला ले कर सबको बारीक पीस लें ।
१॥ सेर तेलमें यह कल्क और ६ सेर पानी मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान लें ।
यह तेल भगन्दरको शुद्ध करके भर देता है। तथा उस स्थानके रंगको भी सवर्ण कर देता है । (६८१४) विसर्पनाशनतैलम् ( र. र. स. । उ. खं. अ. २० ) एरण्डतुम्बिनीनिम्बवाकुचीचक्रमर्दकम् । तिक्तकोशातकी वीज मङ्कोलरचञ्चुवीजकम् ॥ गोमूत्रदधिदुग्धैस्तु भावयेतिलजेन च । मूत्रेणाजाप्रभूतेन तैलं पातालयन्त्रजम् ॥ विसर्प नाशयत्याशु श्वेतकुष्ठं च तत्क्षणात् ॥
अरण्डके बीज, कड़वी तूंबीके बीज, नीमके बीज, बाबची, माड़ के बीज, कड़वी तोरीके बीज, अंकोलके बीज और चोंचके बीज समान भाग ले कर सबको एकत्र करके गोमूत्र, दही, दूध और बकरीके मूत्रकी १-१ भावना दे कर तिलके तेलमें भिगो लें और फिर पाताल यन्त्रसे तेल निकालेँ ।
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इसकी मालिश से विसर्प और श्वेत कुष्ठ अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाता है ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
(६८१५) विसर्पहरतैलम् | तालमखानेका पंचांग, शतावर, गोखरु, दो प्रकार
(र. र. स.। उ. अ. २०) का उंटकटारा, बेत, ब्राह्मी, शालपर्णी और खम्भारीएरण्डतुम्बीकटुनिम्बचक्र
की जड़की छाल २०-२० तोले ले कर सबको मर्दोन्थबीजानि च सोमराजी । एकत्र कूटकर ४८ सेर पानीमें पका और १२ अकोलबीजानि समानि कृत्वा सेर शेष रहने पर छान लें। __ पातालयन्त्रेण सुतैलमेषाम् ||
कल्क-उपरोक्त ओषधियां ११-१। तोला प्रगृह्य तेनाऽथ विमर्दयीत
ले कर सबको एकत्र पीस लें । विसर्पकादीनि मृति प्रयान्ति ॥ ३ सेर तेलमें उपरोक्त काथ और कल्क अरण्डके बीज, कड़वी तूंबीके बीज, नीमके मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल बीज ( निबौली ), पंमाड़के बीज, बाबची और जाय तो तेलको छान लें । अंकोलके बीज समान भाग ले कर पाताल यन्त्रसे
वातपित्त-प्रधान विकारांमें इसकी बस्ति देनी तेल निकालें ।
चाहिये। इसकी मालिशसे विसर्पादि नष्ट होते हैं।
यह तेल शर्करा, अश्मरी, शूल और मूत्र (६८१६) वीरतर्वादितैलम् | कृच्छूको नष्ट करता है। (भा. प्र. । म. ख. २ ; व. से. । अश्मर्य. )
वृद्धमरिचाद्यं तैलम् वीरवृक्षामभेदाग्निमन्थश्योनाकपाटलाः ।
( यो. चि. म.) वृक्षादनी सहैरण्डभल्लूकोशीरपद्मकम् ॥
__ मरिचायं तैलम् (३) प्र. सं. ५२८८ कुशकाशशरेक्षुणामास्फोताकोकिलाक्षयोः।
देखिये। शतावरी श्वदंष्ट्रा च सोत्कटाद्वयवजुलाः ॥ कपोतवङ्का श्रीपर्णी काश्मरीमूलसंयुता ।
(६८१७) वृषमूलादितैलम् एतैः कषायैः कल्कैश्च तैलं धीरो विपाचयेत् ॥
( च. सं. । चि. अ. ६ अ. २८ ) वातपित्तविकारेषु वस्ति दद्याद्विचक्षणः। वृषमूलगुडूच्योश्च द्विशतस्य शतस्य च । शर्कराश्मरिशूलनं मूत्रकृच्छविनाशनम् ॥ अश्वगन्धाचित्रकयोः क्वाथे तैलाढकं पचेत् ॥ ___ क्वाथ-अर्जुनकी छाल, पाषाण भेद, | सक्षीरं वायुना भग्ने दद्याज्जर्जरिते तथा ॥ अरणी, अरलुकी छाल, पाढलकी छाल, विदारीकन्द, ___बासेकी जड़, गिलोय, असगन्ध और चीता अरण्डमूल, श्योनाक (अरलु) की छाल, खस, ६।-६। सेर ले कर सबको पृथक् पृथक् कूट कर पभोक, कुशकी जड़, कासकी जड़, शर (सरकण्डे) । ३२-३२ सेर पानीमें पकावें और ८-८ सेर शेष की जड़, ईख की जड़, अपराजिता ( कोयल ), रहने पर छान लें ।
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तैलपकरणम् ] चतुर्थो भागः
६७३ ८ सेर तेलमें उपरोक्त समस्त काथ और ८ । (६८१९) वृहत्किङ्किणीतैलम् सेर दूध मिला कर मन्दाग्निपर पकावें । जब जलांश
(भै. र. । शिरोरोगा.) शुष्क हो जाय तो तेलको छान लें ।
| किङ्किणीप्रस्थमेकञ्च प्रस्थं सहचरस्य च । ___ वायुसे भन्न अंगों पर इस तेलकी मालिश
| कृष्णधुस्तूरकप्रस्थं प्रस्थश्च सिन्धुवारकम् ।। करनी चाहिये ।
पचेत् पात्रं जलं दत्त्वा पादशेष समुद्धरेत् । वृहज्जातिकाचं तैलम् तैलपस्थ विपक्तव्यं द्रव्याणिमानि दापयेत् ।। (भै. र. ; धन्व. । व्रणशोथा. ) यष्टी कणा पयोदश्च गन्धकं कुष्ठमेव च । प्र. सं. २०५३ जात्यादि तैलम् देखिये । समुद्रान्ता तथा शृङ्गी किङ्किणी राजस्वर्णकम् ॥ (६८१८) वृहत्कासीसाद्यं तैलम्
| रास्ना मधुरिका झिण्टोमूलमीश्वरीमेव च । (भै. र; भा. प्र. ; व. से. । अशो.)
विषमाधकमञ्जिष्ठा शोभाञ्जनत्वचं तथा ॥ कासीसं सैन्धवं कृष्णा शुण्ठी कुष्ठश्च लागली। निहन्ति प्रतिकर्णश्च कर्णस्रावं सकण्डुकम् ॥
एषां कर्षद्वयञ्चैव पिष्ट्वा चैव समावपेत् । शिलाभिदश्वमारश्च दन्तीजन्तुघ्नचित्रकम् ।।
कर्णनादं कर्णशोथं वाधिर्य दारुणं तथा । तालकं कुनटी स्वर्णक्षीरी चेतैः पचेद्भिषक ।
| शिरोरोगं नेत्ररोग मन्यास्तम्भं गलग्रहम् ॥ तैलं स्नुह्यर्कपयसा गवां मूत्रं चतुर्गुणम् ॥
| एतान् रोगानिहन्त्याशु वृक्षमिन्द्राशनियथा ॥ एतदभ्यङ्गतोऽर्शा सि क्षारेणेव पतन्ति हि । क्षारकर्मकरं ह्येतन च सन्दूषयेद्वलिम् ॥
__ क्वाथ-१-१ सेर कण्टाई, कटसरैया,
काला धतूरा और संभालको पृथक पृथ कूट कर कल्क---कसीस, सेंधा, पीपल, सेांट, कूठ,
८-८ सेर पानीमें पकावें और २-२ सेर शेष कलियारी, पाषाणभेद, कनेर, दन्तीमूल, बायबि
रहने पर छान कर सबको एकत्र मिला लें। डुंग, चीता, हरताल, मनसिल आर चोक ( सत्यानासीकी जड़ ) समान भाग मिश्रित २० तोले
कल्क-मुलैठी, पीपल, नागरमोथा, गन्धक, ले कर सबको एकत्र पीस लें।
| कठ, धमासा, काकड़ासिंगी, कंटाई, कनक धतूरा, २ सेर तेलमें उपरोक्त कल्क और ८-८ सेर रास्ना, सौंफ, कटसरैयाकी जड़, बांझ ककोड़े की स्नुही ( थोहर ) और आकका दूध एवं गोमूत्र | | जड़, विषमाधूक (बिगमा), मजीठ और सहजनेकी मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें। जब जलांश शुष्क छाल २॥-२॥ तोले ले कर सबको एकत्र हो जाय तो तेलको छान लें।
पीस लें। इसके लगानेसे अर्शके मस्से गिर जाते हैं। २ सेर तेलमें उपरोक्त कल्क और क्वाथ यह तेल क्षारके समान मस्सेको काट देता है और | मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें। जब पानी जल हानि नहीं पहुंचाता।
। जाय तो तेलको छान लें।
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६७४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
यह तेल पूतिकर्ण, कर्ण त्राव, कानको खुजली, क्वाथ-(१) ६। सेर चिरायतेको कूट कर कर्णनाद, कर्णशोथ, भयंकर बधिरता, शिरोरोग, । ३२ सेर पानीमें पकायें और ८ सेर शेष रहने पर नेत्र रोग, मन्यास्तम्भ और गलग्रहको शीघ्रही नष्ट | छान लें । कर देता है।
(२) २ सेर मूर्वाको १६ सेर पानीमें पका (६८२०) वृहत्किरातादितैलम् कर ४ सेर शेष रहने पर छान लें । (धन्व. । वरा.)
(३) २ सेर लाखको १६ सेर पानी में पकायें कैरातस्य तुलामानं जलद्रोणे विपाचयेत् । | और ४ सेर शेष रहने पर छान लें। कटुतैलस्य पात्रार्द्ध तेनैव साधयेद्भिषक् ।।
कल्क-चिरायता, गजपीपल, रास्ना, कूठ, मूर्वा लाक्षा द्वयोः क्वाथो काभिकं दधि
लाख, इन्द्रायणकी जड़, मजीठ, हल्दी, दारुहल्दी,
मस्तु च । एतानि तैलतुल्यानि कल्कानेतांश्च सम्पचेत् ॥
मूर्वा, मुलैठी, नागरमोथा, पुनर्नवा ( बिसखपरा ), भूनिम्वः श्रेयसी रास्ना कुष्ठं लाक्षेन्द्रवारुणी ।
सेंधा, जटामांसी, कटेली, बिड नमक, सुगन्धबाला, मञ्जिष्ठा च हरिद्रे द्वे मूर्वामधुकमुस्तकम् ॥
| शतावर, सफेद चन्दन, कुटकी, असगन्ध, सोया, वर्षाभूः सैन्धवं मांसी वृहती च तथा बिडम् ।।
रेणुका, देवदारु, खस, पद्माक, धनिया, पीपल, हीबेरं शतमली च चन्दनं कटरोहिणी ॥ बच, कचूर, हरे, बहेड़ा, आमला, अजवायन, अजहयगन्धा शताहा च रेणुका सुरदारु च।
| मोद, काकडासिंगी, गोखरु, शालपर्णी, पृष्टपर्णी, उशीरं पद्मकं धान्यं पिप्पली च वचा शठी ॥
दन्तीमूल, बायबिडंग, सफेद और काला जीरा, फलत्रिकं यवान्यौ द्वे शृङ्गी गोक्षुर एव च ।
बकायनकी छाल, हपुषा, जवाखार और सोंठ २॥-- पण्यौँ द्वे तरुणीमूलं विडङ्गं जीरकद्वयम् ॥
२॥ तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें। महानिम्बश्च हवुषा यवक्षारो महौषधम् । __ ४ सेर सरसेांके तेलमें उपरोक्त तीनों काथ, एषां कर्षद्वयं क्षिप्त्वा साधयेन्मृदुवह्निना ।। | ४-४ सेर दही, मस्तु, कांजी और उपरोक्त कल्क यथाहिवर्ग विनिहन्ति ताक्ष्यों
मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल यथा च भास्त्रांस्तिमिरस्य सङ्घम् । जाए तो तेलको छान लें। तथैव सर्वं ज्वरवर्गमेतदभ्यङ्गमात्रेण निहन्ति तैलम् ।
जिस प्रकार गरुड़ सोको और सूर्य अन्धसन्ततं सततादींश्च निखिलान् विषमज्वरान् ।
कारको नष्ट कर देता है इसी प्रकार यह तेल प्लीहाश्रितान सशोथान वा प्रमेहज्वरमेव च ॥ समस्त ज्वरोको नष्ट कर देता है। ज्वरमें इसकी अग्निं च कुरुते दीप्तं बलवर्णकरं परम् ।।
| मालिश करनी चाहिये । पाण्डवादीन हन्ति रोगांश्च किराताद्यमिदं यह सन्तत, सतत आदि विषमज्वर, प्लीहा
वृहत् ॥ दोषके कारण रहने वाला वर, शोथयुक्त ज्वर,
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तैलपकरणम् चतुर्थों भागः
६७५ प्रमेहयुक्त ज्वर आर पाण्डुको नष्ट करके बल वर्ण । मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो और अग्निकी वृद्धि करता है ।
तेलको छान लें। (६८२१) वृहत्पिप्पल्याद्यतैलम्
इसकी मालिशसे समस्त प्रकारके जीर्णज्वर;
एकदोषज, द्विदोषज और सन्निपातज ज्वर, सन्तत, ( भै. र. । ज्वरा. ; धन्व.)
| सतत, अन्येयुः, तृतीयक और चातुर्थिक ज्वर तथा पिप्पली मुस्तकं धान्यं सैन्धवं त्रिफला वचा। महीना महीना भर या १५-१५ दिन पश्चात् आने यमानी चाजमोदा च चन्दनं पुष्कराहयम् ॥ वाला जीर्ण ज्वर आदि समस्त प्रकारके ज्वर नष्ट शटी द्राक्षा गवाक्षी च शालपर्णी त्रिकण्टकम् । होते हैं। भनिम्बारिष्टपत्राणि महानिम्बं निदिग्धिका (६८२२) वृहदगारकतैलम् गुडूची पृश्निपर्णी च वृहती दन्तिचित्रकौ ।
( भै. र. । वरा.) दाव: हरिद्रा वृक्षाम्लं पर्पदं गजपिप्पली ॥ एतेषां कार्षिकैः कलकैस्तैलप्रस्थं विपाचयेत । शुष्कमूलादिकस्याङ्गैरङ्गैरङ्गारकस्य च । दधिकाञ्जिकतक्रैश्च मातुलुङ्गरसैस्तथा ॥
पक्वं तैलं ज्वरहरं शोथपाण्डामयापहम् ॥ स्नेहमात्रासमैरेभिः शनैर्मद्वग्निना पचेत् ।
वृहदङ्गारकं तैलं जलमत्र चतुर्गुणम् ।। सिद्धमेतत् प्रयोक्तव्यं जीर्णज्वरमपोहति ॥ शुष्क मूलादि तैल और अंगारक तैल के एकजं द्वन्द्वजश्चव दोषत्रयसमुद्भवम् ।। कल्क तथा चार गुने पानीके साथ तैल सिद्ध करें । सन्ततं सततान्येास्तृतीयकचतुर्थकान् ॥ इसकी मालिशप्से उबर, शोथ और पाण्डुका मास पक्षजञ्चव चिरकालानुबन्धिनम् । | नाश होता है। सर्वोस्तान्नाशयत्याशु पिप्पल्याद्यमिदं महत् ।। ___(६८२३) वृहद्गुडूचीतैलम् कल्क-पीपल, नागरमोथा, धनिया, सेंधा.
( भै, र. ; धन्य. । वातरक्ता.) नमक, हर, बहेड़ा, आमला, बच, अजवायन, अजमोद, सफेद चन्दन, पोखरमूल, कचूर, मुनक्का,
शतं छिन्नरुहायाश्च जलद्रोणे विपाचयेत् । इन्द्रायणकी जड़, शालपर्णी, गोखरु, चिरायता,
तेन पादावशेषेण तैलप्रस्थं विपाचयेत् । नीमके पत्ते, बकायनकी छाल, कटेली, गिलोय, पृष्ट
क्षीरं चतुर्गुणं दद्यात् कल्कानेतान् प्रयत्नतः । पर्णी, बड़ी कटेली, दन्तीमूल, चीतामूल, दारुहल्दी,
अश्वगन्धा विदारी च काकोल्यौ हरिचन्दनम्। हल्दी, तिन्तडीक, पित्तपापड़ा और गजपीपल १. अङ्गारक तेलका कल्क-मूर्वा, लाख, ११-१। तोला ले कर सबको एकत्र पीस लें। हल्दी, दारुहल्दी, मजीठ, इन्द्रायणकी जड़, कटेली,
२ सेर तेलमें उपरोक्त कल्क और २-२ सेर | सेंधा. कूठ, रारना, जटामांसी और शतावर । दही, कांजी, तक्र तथा बिजौ रको रस मिला कर शुष्कमूलादि तैल (श) में देखिये ।
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- भैषज्य रत्नाकरः
६७६
।
।
शतावरी चातिबला श्वदंष्ट्रा बृहतोद्वयम् । कृमिघ्नं त्रिफला रास्ना त्रायमाणा च शारिवा जीवन्ती ग्रन्थिकं व्योषं बाकुची भेकपर्णिका विशाला ग्रन्थिपर्णे च मञ्जिष्ठा चन्दनं निशा । शताह्वा सप्तपर्णी च कार्षिकाण्युपकल्पयेत् । पानाभ्यञ्जननस्येषु वातरक्ते प्रयोजयेत् ॥ वातरक्तमुदावर्ते कुष्ठान्यष्टादशैव तु । हनुस्तम्भं प्रमेहं च कामलां पाण्डुतां जयेत् ॥ विस्फोटं च विसर्पं च नाडीव्रणभगन्दरम्। विचर्चिकां गात्रकण्डं पाददाहं विशेषतः ।। एततैलवरं श्रेष्ठं बलीपलितनाशनम् । आत्रेयनिर्मितं चैव बलवर्णकरं स्मृतम् ॥
भारत
क्वाथ - ६ । सेर गिलोयको कूट कर ३२ सेर पानी में पकायें और ८ सेर शेष रहने पर छान लें ।
कल्क—असगन्ध, विदारीकन्द, काकोली, क्षीर काकोली, सफेद चन्दन, शतावर अतिबला (कंघी), गोखरु, कटेली, बड़ी कटेली, बायबिडंग, हर्र, बहेड़ा, आमला, रास्ना, त्रायमाना, सारिवा, जीवन्ती, पीपलामूल, सोंठ, मिर्च, पीपल, बाबची, मण्डूकपर्णी, इन्द्रायणकी जड़, गठीवन (गठौना), मजीठ, लाल चन्दन, हल्दी, सोया और लज्जालु ११- १ तोला ले कर सबको एकत्र पीस लें ।
२ सेर तेलमें उपरोक्त क्वाथ, कल्क और ८ सेर दूध मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो तेलको छान
1
इसे पिलाना चाहिये तथा शरीर पर इसकी मालिश करनी और नस्य देनी चाहिये ।
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[ वकारादि
यह तेल वातरक्त, उदावर्त, १८ प्रकार के
कुष्ठ, हनुस्तम्भ, प्रमेह, कामला, पाण्डु, विस्फोटक, विसर्प, नाडीव्रण ( नासूर), भगन्दर, विचर्चिका, कण्डू, पाददाह और बलि पलितको नष्ट तथा बल वर्णकी वृद्धि करता है |
(६८२४) बृहदग्रहणीमिहिर तैलम (भै. र. । ग्रहण्य. )
तैलं प्रस्थमितं ग्राह्यं तक्रं दद्याच्चतुर्गुणम् । कुटजं धान्यकश्चैव ग्राह्यं पलशतं पृथक् ॥ तयोः कथं पचेद् द्रोणे द्यम्बुपादावशेषितम् । एकीकृत्य पचेद्वैद्यः कल्कं कर्षमितं पृथक् ॥ धान्यकं धातकी लोध्रं समङ्गातिविषा शिवा । लव बालकञ्चैव शृङ्गाटकरसाञ्जने ॥ नागपुष्पं पद्मकञ्च गुडूचीन्द्रयवं तथा । प्रियङ्गु कटुकी पद्मकेशरं तगरं तथा ॥ शरमूलं भृङ्गराजः केशराजः पुनर्नवा । आम्रजम्बूकदम्बानां वल्कलानि च दापयेत् ॥ ग्रहणीं हन्ति तच्छीघ्रं वलीपलितनाशनम् । हन्ति सर्वानतीसारान् ग्रहणीं सर्वरूपिणीम् || ज्वरं तृष्णां तथा श्वासं कासं हिक्कां वि
भ्रमिम् । सोपद्रवं कोष्ठरुजं नाशयेत् सद्य एव हि ॥ वशीकरणमेतद्धि पुष्ययोगेन पाचयेत् । ग्रहणीमिहिरं नाम तैलं भुवनमङ्गलम् ॥
क्वाथ - (१) कुड़ेकी छाल ६ । सेर; पाकार्थ जल ३२ सेर । शेष काथ ८ सेर ।
(२) धनिया ६ | सेर | पाकार्थ जल ३२ सेर । शेष काथ ८ सेर ।
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चतुर्थी भागः
तैलमकरणम् ]
कल्क-धनिया, धायके फूल, लोध, मजीठ, अतीस, हर्र, लौंग, सुगन्धवाला, सिंघाड़ा, रसौत, नागकेसर, पद्माक, गिलोय, इन्द्रजौ, फूलप्रियंगु, कुटकी, कमलकेसर, तगर, शर (सरकण्डे) की जड़, भंगरा, काला भंगरा, पुनर्नवा, आमकी छाल, जामनकी छाल और कदम्बकी छाल ११-१२ तोला लेकर सबको एकत्र पीस
1
२ सेर तेलमें ८ सेर तक तथा उपरोक्त दोनों are और कल्क मिला कर मन्दानि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान लें ।
इसकी मालिशसे समस्त प्रकारके ग्रहणी रोग, अतिसार, बलि, पलित, ज्वर, तृष्णा, श्वास, कास, हिचकी, वमन, भ्रम और उपद्रव सहित उदरनाश होता है ।
बृहद्बलातैलम् (२)
प्र. सं. ४६८४ “बलातैलम् " (४) देखिये । (६८२५) वृहद् भृङ्गराजतैलम्
( र. र. । क्षुद्र रोगा. ) भृङ्गराजरसे से केशराजरसे तथा । त्रिफलाया रसे कैसे क्षीरकंसे सुसाधितम् ॥
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६७७
कंसं च तिलतैलस्य लौहपात्रे तु पाकवित् । कल्कं मृणालशालूक मञ्जिष्ठापीतशालकम् ।। नीलिका पद्मवीजञ्च शटी मुस्तं पुनर्नवा
व वाटचालक केशी केशराजं सकेशरम् ॥ मण्डूरं चाम्रवीजञ्च श्यामानन्ता मियङ्गुका । पाकलं मधुकं झिष्टा देवदारु सपद्मकम् ॥ हीरं चन्दनं पत्रं मेथी मधुरिका वरी । न्यग्रोधो रोचना तुत्थं माहेन्द्री केतकी केशी ।। उत्पलं चौण्ड्रपुष्पं च नीलीलताक्षबीजकम् । रास्ना च गैरिकं दाव पुण्डरीकं रसाञ्जनम् || जीवनीयगणा लाक्षा श्रीखण्डं भद्रमुस्तकम् । त्वक्पत्रं वावुषामूलं (?) कृष्णागुरु च लोध्रकम् ।। दत्वा पलोन्मितैर्भागैः शनैर्मृ द्वग्निना पचेत् । शिरोमध्यगतान्रोगान्नेत्ररोगांश्च सर्वशः ॥ हन्ति वातञ्च पित्तं च पलितमकालसम्भवम् । खालित्यमिन्द्रलुप्तञ्च हन्यादेतन्न संशयः ॥ कचान्नीलतन्कुर्यात्सु स्निग्धान्कुटिलांस्तथा ।
इसे पुष्य नक्षत्र में बनाना चाहिये । बृहद्दशमूलतैलम्
देखिये ।
प्र. सं. ३०८३ दशमूल तैलम् ( वृहद् ) नस्याभ्यञ्जनपाने च तैलमेतत्प्रयोजयेत् ॥ यत्र तैरस्यास्य पतन्ति विन्दवः शुभाः । तत्र केशाः प्रजायन्ते नृणां पाणितलेष्वपि ॥
वृहद्बलातैलम् (१)
प्र. सं. ४६८२ बला तैलम् (२) ( वृहत् ) अजाते केशे मस्ते च जाते नष्टे च वा पुनः । तत्रोपजायते केशं हन्ति दारुणकं तथा ॥
देखिये |
८ सेर तिलके तेलमें ८-८ सेर भंगरे और काले भंगरेका रस, ८ सेरे त्रिफलाका काथ, ८ सेर दूध और निम्न लिखित कल्क मिला कर लोह पात्र में मन्दाग्निपर पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान लें।
कलक - मृणाल ( कमलनाल), शालक (कमलकन्द), मजीठ, पीतशाल. नीलिका ( काला
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
संभालू ), कमलगट्टे, कचूर, नागरमोथा, पुनर्नवा, (६८२६) वृहन्मन्दारतैलम् त्रिफला, वाटयालक, (पीले फूलकी खरैटी ),
( भै. र. । वृद्धि.) केशी (जटामांसा), भंगरा, केसर, मण्डूर, आमकी यन्मध्यनारायणनाम तैलं गुठली, काली सर (श्यामा), अनन्तमूल, फूलप्रियङ्गु, तस्याङ्गसङ्घस्तिलज हि तैलम् । कूठ, मुलैठी, झिण्टी, ( कटसरैया ), देवदारु, मन्दारपुष्पस्वरसेन साई पद्माक, सुगन्धबाला, सफेद चन्दन, तेजपात, मेथी, पचेद्विधिज्ञः कमलाभ्मसा च ॥ सौंफ, शतावर, बड़की छाल, गोरोचन, नीलाथोथा, मन्दारतैलं वृहदेतदाशु इन्द्रायणकी जड़, केतकीकी जड़, कौंचकी जड़, बलं च शुक्रं परिवर्द्धयेद्धि । नीलोत्पल, जवाकुसुमके फूल, नीलका पौदा, बहेड़ेके अन्त्रोत्थरोगान् निखिलान् निहन्ति बीज, रास्ना, गेरू, दारुहल्दी, कमल, रसौत, पित्तोत्थवातोत्थकफोत्थितांश्च ॥ जीवनीय गगकी प्रत्येक ओषधि, लाख, श्रीखंड- मध्यम नारायण तैलके कल्क और (४-४ चन्दन, लालचन्दन, नागरमोथा, दालचीनी, तेजपात, गुने ) मन्दार ( आक या पारिभद्र ) के फूलोंके काला अगर और लोध ५-५ तोले ले कर सबको रस एवं कमलके रसके साथ तिल तैल सिद्ध करें एकत्र पीस लें।
___ यह तैल वातज, पित्तज और कफज अन्त्रयह तेल शिरोरोग, नेत्र रोग, वात, पित्त, घार
वृद्धिको नष्ट और बल तथा शुक्रकी वृद्धि अकाल पलित, खालित्य, इन्द्रलुप्त और दारुणक | करता है। नामक शिरोरोगको नष्ट करता है।
वृहन्मरिचाद्यं तैलम् इसके व्यवहारसे बाल काले, स्निग्ध और (यो. त. । त. ४१ ; यो. र.; र. का. धे.। कष्टा. धुंघराले हो जाते हैं।
वृ. यो. त. । त. १२०)
प्र. सं. ५२८८ मरिचाद्यं तैलम् (बृहत् ) इसकी नस्य लेनी, मालिश करनी और इसे | देखिये। पिलाना चाहिये । यदि सिरमें बाल उत्पन्न न हुवे
वृहन्मरिचाद्य विषगर्भतैलम हों या उत्पन्न हो कर नष्ट हो गये हों तो इसके
(ग. नि. । कुष्ठा. ३६ ) व्यवहारसे वे पुनः निकल आते हैं ।
प्र. सं. ५२८८ मरिचाद्यं तैलम् ( वृहद् ) वृहद् भृङ्गराजाद्यं तैलम्
(३) देखिये।
वृहन्माषतैलम् (१) (ग. नि. । तैला. २ )
(वृ. मा. | वाता.) प्र. सं. ४८९९ " भृङ्गराज तैलम् ' (१०) प्र. सं. ५३०५ महामाष तैलम् (२) ( वृहद ) देखिये।
| देखिये।
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तैलप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
६७९
वृहन्माषतलम् (२) सफेद और लाल चन्दन, मजीठ, फूलप्रियंगु, (ग. नि.)
। नीलोत्पल, केसर, शालपर्णी, पृष्टपर्णी, दालचीनी, प्र. सं. ५३१४ माएतैलम् (वृहत् ) (३) इलायची, तेजपात, नागकेसर और सुगन्धबाला देखिये।
समान भाग मिश्रित २० तोले । वृहल्लाक्षादितैलम् (१)
यह तैल बालकोंकी खांसी, श्वास, ज्वर, ( ग. नि. । तैलो. २) अग्निविकार और समस्त त्वग्विकारोको नष्ट प्र. सं. ६२८८ लाक्षादि तैलम् (महा) (४) करता है। देखिये।
(६८२८) व्याघीतलम् (२) वृहल्लाक्षादितैलम् (२) (भै र. : व. से. ; वृ. नि. र. ; यो. र. ; वृ.
प्र. सं. ६२९.० " लाक्षाचं तैलम् " (म मा. ; वै. र. । नासा. ; वृ. यो. त. । त. ध्यम ) देखिये।
१३० ; ग. नि. । नासा. ४ ; भा. प्र. । (६८२७) व्याघ्रीतैलम् (१)
म. खं. २) (भै. र. । बालरोगा.) व्याघ्रीदन्तीवचाशिगुसुरसाव्योषसैन्धवैः । व्याघ्रीवासकविल्वानां केशराजस्य चाम्बुना। पाचितं नावनं तैलं पूतिनासागदापहम् ॥ काधिकेन तथा कल्कैमुस्तमोचरसाअनैः ॥
कटेली, दन्तीमूल, बच, सहजनेकी छाल, शतावादारुयष्टयादबलारास्नानिशायुगैः
| तुलसी, सेांठ, मिर्च, पीपल और सेंधा नमकके चन्दनद्वयमनिष्ठाप्रियत्पलकेशरैः ॥
कल्क तथा ४ गुने पानीके साथ तेल सिद्ध करें । शालपर्णीपृश्निपर्णीचातुर्जातकबालकैः ।
इसकी नस्यसे पूतिनासा रोग नष्ट होता है। मृदः पात्रे पचेत्तैलमरिष्टेन्धनवाहिना ॥ श्वास कासश्च बालानां ज्वरं वश्च वैकृतम् ।
(६८२९) व्योषादितैलम् व्याघ्रीतैलमिदं हन्यात त्वग्दोषान् निखिलानपि।। (भै. र. : धन्व. ; च. द. ; र. र. । गंडमाला. ;
२ सेर तिलके तेलमें २.-२ सेर कटेली, बासे.. व. से. ; यो. र. ; वृ. मा. ; वृ. यो. त.। बेलके पत्ते और भंगरेका रस तथा कांजी एवं
त. १०८; यो. त. । त. ५७) निम्न लिखित कल्क मिला कर मृत्पात्रमें नीमकी व्योषं विडङ्ग मधुकं सैन्धवं देवदारु च । लकड़ीकी अग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय | तैलमेभिः समं नस्यात्सकृच्छामपची जयेत् ।। तो तेलको छान लें।
कल्क-सांठ, मिर्च, पीपल, बायबिडंग, कल्क-नागरमोथा, मोचरस, रसौत, सोया, मुलैठी, सेंधा नमक और देवदारु ५-५ तोले ले देवदारु, मुलैठी, खरैटी, रारना, हल्दी, दारुहल्दी, कर सबको एकत्र पीस लें ।
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६८०
३ ॥ सेर तेलमें यह कल्क और १४ सेर पानी मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान लें ।
भारत-2
त-भैषज्य
इसकी नस्य लेनेसे कृच्छ्रसाध्य अपची (गण्डमाला भेद) का भी नाश होता है ।
(६८३०) व्योषाद्यं तैलम् (१) ( यो. र. | मुख रोगा. ; ग. नि. । मुख रोगा. ५) व्योषक्षाराभयावह्निचूर्णमेतत्प्रघर्षणम् । उपजिहा प्रशान्त्यर्थमेभिस्तैलं च पाचयेत् ॥
सेांठ, मिर्च, पीपल, जवाखार, हर्र और चीता समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । इसे मलनेसे उपजिहा रोग नष्ट हो जाता है । अथवा इन्हीं ओषधियोंसे तेल पका कर व्यवहृत करना चाहिये ।
तेल पकानेके लिये उपरोक्त ओषधियोंका चूर्ण ५- ५ तोले, तेल ३ सेर, पानी १२ सेर । (६८३१) व्योषाद्यं तैलम् (२) (व. से. । नासा. )
व्योषं धान्यककुसुमं गण्डीर कमवल्गुजम् । एभिस्तैलं पक्वं नासार्शो नाशनं सिद्धम् ॥
कल्क - सोंठ, मिर्च, पीपल, धनिया, लौंग, स्नुही (सेंड - सेहुंड) की जड़ और बाबची ५-५ तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें।
1
३॥ सेर तेलमें यह कल्क और १४ सेर पानी या इन्हीं ओषधियोंका काथ मिला कर
[ वकारादि
मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान
1
यह तेल नासाको नष्ट करता है । (६८३२) व्रणराक्षसतैलम् (१) (भै. र. । व्रणा. )
- रत्नाकरः
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सूतकं गन्धकं तालं सिन्दूरच मनःशिला । रसोनञ्च विषं ताम्रं प्रत्येकं कर्षमाहरेत् ।। कुडवं सार्षपं तैलं साधयेत्सूर्यतापतः । नाडीव्रणञ्च विस्फोटमांसवृद्धिं विचर्चिकाम् || दडुकुष्ठापची कण्डूमण्डलानि व्रणांस्तथा । व्रणराक्षसनामेदं तैलं हन्ति गदान् बहून् ॥
कल्क — पारद, गन्धक, हरताल, सिन्दूर, मनसिल, ल्हसन, मीठा विष (बछनाग) और ताम्र चूर्ण ११ - १ | तोला ले कर पारे गन्धककी कज्जली बनावें और अन्य औषधियोंको बारीक पीस लें I
४० तोले सरसोंके तेलमें यह कल्क और २ सेर पानी मिला कर धूपमें रख दें और जब पानी सूख जाय तो तेलको छान ले
1
इसे लगाने से नाडीव्रण, विस्फोटक, मांसवृद्धि, विचर्चिका, दाद, कुष्ठ, अपची, कण्डू, मण्डल और arter नाश होता है ।
(६८३३) व्रणराक्षसतैलम् (२) (बृहद् ) ( भै. र. ; धन्व. । व्रग. ) कुडवं सार्षपं तैलं तदर्द्ध गोघृतस्य च । एकीकृत्य पचेत्तत्तु सूर्यावर्त्तरसेन तु ॥ चित्रपत्रप कल्कं दत्वा तत्र विपाचयेत् । daei araत्विा तु चूर्णमेषां विनिक्षिपे ॥
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आसवारिष्टप्रकरणम् ] चतुओं भागः
६८१ गन्धकं शुद्धसिन्दरं हरितालं मनःशिला। तेलको छान लें और फिर उसके गर्म रहते ही उसमें हरिद्रा गैरिकं राजी कर्द्धि प्रतिभागिकम् ॥ निम्न लिखित ओषधियोंका बारीक चूर्ण मिला दें। भामा पारदशापि कज्जलीकृत्य मिश्रयेत् ।
गन्धक, शुद्ध सिन्दूर, हरताल, मनसिल, सुनसे मिश्रयित्वा तु तसं कृत्वा प्रलेपयेत् ॥ हल्दी, गेरु और राईका चूर्ण ७॥-७|| माशे तथा कन्डू विचचिकां पामां क्लेई कुष्ठं सुदुस्तरम् ॥ पारद ३॥ माशे । प्रथम पारे गन्धकको कजली वातरक्तं व्रणान् सर्वान् विषविस्फोटदद्रुकम् । बना कर उसमें अन्य ओषधियां मिला कर सबको निहन्त्याशु महावित्रं तैलन्तु व्रणराक्षसम् ।। खरल कर लेना चाहिये।
४० तोले सरसका तेल और २० तोले इस तेलको गर्म करके लगानेसे कण्डू , विचगोघृत एकत्र मिला कर उसमें ६ सेर हुलहुलका र्चिका, पामा, क्लेद, कष्ट साध्य कुष्ठ, वातरक्त, रस और ५ तोले भोजपत्रका कल्क मिला कर समस्त प्रकारके व्रण, विषजन्य विस्फोटक, दाद मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो और श्वित्रका नाश होता है ।
इति वकारादितैलप्रकरणम्
अथ वकाराद्यासवारिष्टप्रकरणम् (६८३४) वरुणासवः
राजादनस्यापि पलानि सप्त (ग. नि. । आसवा. ६)
शतावरीमूलपलत्रयं च ॥ शतं पलानां वरुणस्य मूलं
तत्तुल्यकाश्मयकमर्जुनश्च ___ त्वक् शिंशपायाश्च तदर्धमात्रा ।
शृङ्गीशताहा गजपिप्पली च । तावत्तथा पुष्करमूलमुक्तं
बलाशठीनागबलाकरञ्जतदर्धमग्निश्च तदर्धमात्रः॥
त्रायन्तिकाकेबुकमेषशृङ्गयः ॥ कुरण्टको रोहीतकत्वचश्च
कुष्ठं च वासासितकर्बुकं च तावच शिग्रुर्दशमूलकं च ।
विडङ्गकृष्णातिविषाश्च जीरकम् । पलानि विंशत्खलु देवदारोः ।
चव्यं च रास्नोत्पलसारिवा च क्षुद्रा च तुल्या सुरदारुणा च ॥
स्यात्कौटजश्चाऽप्यथ दीप्यकं च ॥ दर्भस्य मूलानि पलानि पञ्च
वातार्यरिष्टाहरनार्यतिक्तं हिंसातरोत्रीणि च कण्टकार्याः। रक्ताऽमृता तेजनीवल्कलं च ।
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सव्याधिघाता हपुषा च भृङ्गी प्रत्येकमेषां हि पलद्वयं तु ॥
पचेज्जलद्रोणचतुष्टये च
तत्पादशेषे पलषट्शतं च । क्षिपेद्गुडं माक्षिकधातकीनां
पलानि त्रिंशत्सकलं पुनस्ततः ॥ निधापयेच्चारुमांसीधूपिते
भाण्डे ततः कुङ्कुमचन्दनद्वयम् । पलं क्षिपेद्वै कतकं सचन्द्रं लवङ्गमाकलकवंशरोचनम् ॥
भार्गी राष्ट्री तगरं कवाबकं जातीफलं पत्रकजातिपत्रिके । लोहं चतुर्जातकबालकं च
प्रत्येकमेषां हि पलं विनिक्षिपेत् ॥
मासं निधेयो यवमध्यतस्ततः
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
पेयो यथाव्याधिबलं समीक्ष्य । होदरं विद्रधिगुल्मका सं श्वास तथा रक्तविकारहिक्के ||
शूलामवातार्बुद पाण्डुरोगं
कुष्ठं तथा छर्दिमरोचकं च । शोफं तथाध्मानभगन्दरं च
शुक्राश्मरीं ग्रन्थिमनेकभेदम् ॥ शोषापतानादितपक्षघात
सन्धिग्रहार्तीच हलीमकं च । निहन्ति वन्ध्यासुतदोऽथ वृष्यः प्राणप्रदोऽयं वरुणासवो हि ॥
पित्तानिल श्लेष्म रुजापहश्च
तालरक्षग्रह भीतिहन्ता ।
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[वकारादि
ग्रन्थान् समालोक्य चिकित्सकानां हिताय नूनं रचितच रोगिणाम् ॥ बरनेकी जड़ की छाल ६ । सेर, शीशमकी छाल ३ सेर १० तोले, पोखरमूल ३ सेर १० तोले, चीता १ सेर ४५ तोले एवं पीली कटसरैया, रुहेड़ेकी छाल, सहजनेकी छाल और दशमूल प्रत्येक ६२|| तोले, देवदारु और कटेली ११ - १1 सेर, दाभकी जड़ २५ तोळे, बालछड़ तथा बड़ी कटेली १५-१५ तोले, खिरनी ३५ तोले, शतावर १५ तोले तथा खम्भारीकी छाल, अर्जुनकी छाल, काकड़ासिंगी, सोया और गजपीपल, १५१५ तोले एवं खरैटी, कचूर, नागबला, करजुवा, त्रायमाणा, केवटी मोथा, मेढा सिंगी, कूठ, बासा, कच्ची हल्दी, बायबिडंग, पीपल, अतीस, जीरा, चव रास्ना, अनन्तमूल, इन्द्रजौ, अजवायन, अरण्डमूल, नीमकी छाल, रक्त खदिर, चिरायता, मजीठ, गिलोय, मूर्वा, दालचीनी, अमलतास, हपुषा और अतीस १०-१० तोले ले कर सबको एकत्र कूट कर १२८ सेर पानी में पकावें और ३२ सेर शेष रहने पर छान लें। तदनन्तर उसमें ६ सेर ५० तोले गुड़ और ३० - ३० पल ( प्रत्येक १५० तोले ) शहद और धायके फूल एवं ५-५ तोले केसर, सफेद और लाल चन्दन, निर्मलीके फल, कपूर, लौंग, अकरकरा, बंसलोचन, भरंगी, सोरठी मिट्टी, तगर, कबाबचीनी, जायफल, तेजपात, जावित्री, लोहभस्म, चातुर्जात ( दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर ) और सुगन्धवालाका चूर्ण मिला कर अगर आर मांसीसे धूपित किये हुवे में भर कर उसका मुख बन्द कर दें और
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आसवारिष्टप्रकरणम् ]
चतुर्थी भागः
जौके ढेर में दबा दें एवं एक मास पश्चात् आसवको छान कर बोतलोंमें भर कर सुरक्षित | करता है ।
रक्खें ।
यह आसव प्लीहोदर, विद्रधि, गुल्म, खांसी, श्वास, रक्तविकार, हिचकी, शूल, आमवात, अर्बुद, पाण्डु, कुष्ठ, छर्दि, अरुचि, शोथ, आध्मान, भगन्दर, शुक्राश्मरी, ग्रन्थि, शोष, अपतानक, अर्दित, पक्षाघात, सन्धिग्रह, हलीमक और वन्ध्यत्व एवं अन्य बहुतसे वातज, पित्तज और कफज रोगोंको नष्ट तथा वीर्य की वृद्धि करता है ।
|
(६८३५) वासकासवः
( यो. र. ; वृ. नि. र. । शोथा; गद निग्रह । आसवा. ६ )
वासकस्य तुले द्वे तु द्विद्रोणेऽपां विपाचयेत् । कृत्वा द्रोणार्धशेषं तु पूते शीते प्रदापयेत् ॥ गुडस्यैकां तुलां तत्र धातक्यास्तु पलाष्टकम् || क्षिपेच्चूर्णीकृतं तस्मिन् त्वगेलापत्र के सरम् ।। कङ्कलव्योपतोयानि पलिकान्युपकल्पयेत् । सम्यक् पक्त्रं ततो ज्ञात्वा पक्षादूर्ध्वं पिवेदमुम् ॥ वासकासव इत्येष सर्वश्वयथुनाशनः ॥
१२|| सेर बसेको कूट कर ६४ सेर पानीमें पकावें और १६ सेर शेष रहने पर छान लें। तदनन्तर उसमें ६। सेर गुड़, ४० तोले धायके फूल, एवं ५ -५ तोले दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर, कंकोल, सांठ, मिर्च, पीपल और सुगन्ध बालाका चूर्ण मिला कर यथा विधि मृत्पात्र में भरकर उसका मुख बन्द करके रख दें और १५ दिन पश्चात् निकाल कर छान लें ।
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६८३
यह आसव समस्त प्रकारके शोथोंको नष्ट
(६८३६) विडङ्गासवः (विडङ्गारिष्ट: )
(ग. नि. । आस. ६; भै. र. ; यो. र. । व्रणशो. ; शा. ध. । खं. २ अ. १० )
विडङ्ग ग्रन्थिकं रास्ना कुटजत्वक्फलानि च । पाठैलवालुकं धात्री भागान् पञ्चपलान् पृथक् ॥ अष्टद्रोणेऽम्भसः पक्त्वा कुर्याद् द्रोणावशेषितम् । पूते शीते क्षिपेत्तत्र क्षौद्रं पलशतत्रयम् ।। धातकी विंशतिपलं त्रिजातं द्विपलं तथा । प्रियङ्गुकाञ्चनाराणां सलोत्राणां पलं पलम् ॥ व्योषस्य च पलान्यष्टौ चूर्णीकृत्य प्रदापयेत् । घृतभाण्डे विनिक्षिप्य मासमेकं विधारयेत् ।। ततः पिवेद्यथा तु जयेद्विद्रधिमुच्छ्रितम् । ऊरुस्तम्भाश्मरीमेहान् प्रत्यष्ठीलाभगन्दरान् ॥ गण्डमाला हस्तम्भं विडङ्गारिष्टसञ्ज्ञितः ॥
बायबिडंग, पीपलामूल, रास्ना, कुड़ेकी छाल, इन्द्रजौ, पाठा, एलवालुक और आमला २५-२५ तोले ले कर सबको एकत्र कूट कर २५६ सेर पानी में पकावें और ३२ सेर शेष रहने पर छान लें | जब वह ठण्डा हो जाय तो उसमें १८ ॥ सेर शहद तथा १०० तोले धायके फूलों का चूर्ण १०- १० तोले दालचीनी, इलायची और तेज - पातका चूर्ण एवं ५-५ तोले फूलप्रियंगु, कचनारकी छाल और लोधका चूर्ण तथा ४० तोले त्रिकुटे (समान भाग मिश्रित सांठ, मिर्च, पीपल) का चूर्ण मिलाकर घृतके चिकने पात्र में भर कर
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
उसका मुख बन्द करके रख दें और १ मास वृहच्चुकसन्धानम् पश्चात् निकोल कर छान लें।
(च. द. । ग्रहण्य. ; वृ मा. । अजीर्णा.) यह आसव चिद्रधि, ऊरुस्तम्म, अश्मरी, प्रमेह, प्र. सं. १८१५ "चुक्रसन्धानम्" (वृहद् ) प्रत्यष्ठीला, भगन्दर, गण्डमाला और हनुस्तम्भको | देखिये । नष्ट करता है।
(६८३८) वृहन्मूलासवः नोट-गदनिग्रहमें काथ्य द्रव्योंमें भरंगी (ग. नि. । आसवा. ६) अधिक है।
महाप्टक्षवटार्काणां विनामूलैः परैः शुभैः । (६८३७) वृश्चीवाद्योऽरिष्टः अष्टोत्तरशतैरम्भस्त्रिंशद्घमिते पचेत् ॥ ( ग. नि. । गुल्मा. २५ ; वृ. मा. ; च. द. । तुलात्रयप्रमाणं च दशमूल्यास्तथैव च । गुल्मा.)
अष्टावशेषमुत्तार्य गुडस्यानु दिनद्वयम् ॥
पलानां विंशतिशतं क्षिपेत्तच्च दृढे घटे। वृश्चीवमुरुबूकं च वर्षाभूङ्घहतीद्वयम् ।।
आतपे तं विनिक्षिप्य धारयेत्रिदिनं ततः ॥ चित्रकं च जलद्रोणे पचेत्पादावशेषितम् ॥
| उद्धृत्य धूपिते पात्रे वस्त्रपूतं क्षिपेद्भिषक् । मागधी चित्रकक्षौद्रलिप्ते कुम्भे निधापयेत् ।
धातकी विंशतिपलां हरीतक्याः पलाष्टकम् ॥ मधुनः प्रस्थमावाप्य पथ्याचूर्णाधसंयुतम् ॥
पूगानां विंचतिपलं पिप्पल्याः पलपञ्चकम् । संस्थापितं दशाहं तु जीर्णभक्तः पिबेन्नरः ।
एलालवङ्गकङ्कोलजातीत्वपत्रकेसरम् ॥ अरिष्टोऽयं जयेद्गुल्मविपक्वं सुदुस्तरम् ॥ पलं पलं समरिचं चूर्णीकृत्य भिषग्वरः ।
श्वेत पुनर्नवा, अरण्डमूल, लाल पुनर्ववा, आसवे निक्षिपेत्तत्र मधुनः कुडवद्वयम् ।। छोटी कटेली, बड़ो कटेली और चीता समान भाग संजातेऽष्टदिने तस्मादुद्धत्यान्यत्र तं न्यसेत् । मिश्रित ६। सेर ले कर सबको एकत्र कूट कर | आसवे सकषाये तु गुडमन्यं प्रदापयेत् ।। ३२ सेर पानीमें पकावें और ८ सेर शेष रहने पर | निष्कास्य पूर्व चूर्ण तु नवं तत्र नियोजयेत् । छान लें । तदनन्तर मधुमिश्रित पीपल और चीतेके नाम्ना मूलासवो ह्येष रोगराजनिकृन्तनः ॥ चूर्णसे लिप्स मटके में यह काथ और २ सेर शहद श्वासामवातविध्वंसी पाण्डुप्लीहोदरापहः । तथा आधा सेर हर्र का चूर्ण डालकर सबको अच्छी | कृमिगुल्म प्रमेहाणां नाशनो वह्निदीपनः ॥ तरह मिला कर मटकेका मुख बंद कर दें । एवं स्नुही ( थूहर-सेंड ), बड़ और आकके दश दिन पश्चात् निकाल कर छान लें। | मूलके अतिरिक्त समस्त अंग (छाल, पत्रादि )
इसके सेवनसे कष्ट साध्य गुल्म नष्ट । पौने सात सात सेर तथा दशमूल १८। सेर ले होता है।
| कर सबको एकत्र कूट कर २४ मन पानीमें पकावे
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लेपप्रकरणम्
चतुर्थों भागः और ३ मन शेष रहने पर छान कर रख दें और ५-५ तोले ले कर सबका बारीक चूर्ण कर लें। २ दिन पश्चात् उसमें ३ मन ५ सेर गुड़ मिला
आठ दिन पश्चात् आसवको छान कर उसमें कर दृढ़ मृत्पात्रमें भर कर धूपमें रख दें एवं ३
पुनः गुड़ और प्रक्षेप द्रव्योंका चूर्ण मिला कर दिन पश्चात् उसे छान कर अगर इत्यादिसे धूपित पात्रमें भर दें तथा उसमें निम्न लिखित प्रक्षेप
दूसरे पात्र में भर कर उसका मुख बन्द करके रख मिलाकर पात्रका मुख बन्द कर दें --
दें । ( एवं १ मास पश्चात् निकाल कर प्रक्षेप-शहद १ सेर तथा धायके फूल
छान लें।) १०० तोले, हर्र ४० तोले, सुपारी १०० तोले,
यह आसव राजयक्ष्मा, स्वास, आमवात, पीपल २५ तोले, इलायची, लौंग, कंकोल, जावत्री, | पाण्डु, प्लीहोदर, कृमि, गुल्म और प्रमेहको नष्ट दालचीनी, तेजपात, नागकेसर और काली मिर्च । तथा अग्निको दीप्त करता है।
इति वकाराद्यासवारिष्टप्रकरणम्
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अथ वकारादिलेपप्रकरणम्
(६८३९) वचादियोगः सबको पानीके साथ पीस कर लेप करनेसे लिङ्ग (यो. त.।त. ५४ ; वृ. मा. ; वृ. नि. र. शोथा.) अत्यन्त स्थूल हो जाता है। वचासर्षपतैलेन मलेपः शोथनाशनः । (६८४१) वटपत्रादिलेपः (१)
बचके चूर्णको सरसोंके तेलमें मिला कर लेप (रा. मा. । मुख रोगा. ५) करनेसे शोथ नष्ट होता है।
परिणतवटपत्रं स्वर्णगन्धा प्रियङ्गु(६८४०) वज्रवल्लीलेपः मधुकमथ सरोज रोधकाश्मीरलाक्षाः । ( धन्व. । वाजीकर.)
सलिलयुतमितीदं चित्रवल्लीप्रपिष्टं किमत्र चित्रं हि वज्रवल्ली
जनयति वदनानां कान्तिमत्त्वं प्रलेपात् ।। वचाश्वगन्धाजलशूकचूर्णम् ।
बड़के पके हुवे पत्ते, रेणुका, फूलप्रियंगु, हेमप्रकाशं बृहतीफलं च
मुलैठी, कमल, लोध, केसर, लाख और इन्द्रायणकी ___ क्रमेण कुर्यान्मुसलममाणम् ॥ | जड़का चूर्ण समान भाग ले कर सबको पानीके
हड़जोड़ी, बच, असगन्ध, सिरवाल और | साथ पीस कर लेप करनेसे मुख कान्तिमान हो कटेलीके पके फलोंका चूर्ण समान भाग ले कर | जाता है।
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६८६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
_(६८४२) वटपत्रादिलेपः (२) बड़के अंकुर और मसूरके चूर्णको पानीके (वृ. मा. । भगन्दरा.; वृ. नि. र. ; व से.। साथ पोस कर लेप करनेसे व्यङ्ग (मुखकी झांई ) भगन्दरा.)
का नाश होता है। वटपत्रेष्टिकाशुण्ठीगुडूच्यः सपुनर्नवाः । । (६८४५) वटादिलेपः (१) सुपिष्ट्वा पिटिकावस्थे लेपः शस्तो भगन्दरे ।। (व. से. । अर्बुदा.) ___ बड़के पत्ते, ईट, सोंठ, गिलोय और पुनर्नवा- | वटदुग्धकुष्ठरोमकलिप्तं बद्धं वटस्य कल्केन । की जड़ समान भाग ले कर चूर्ण बनावें ।। अध्यस्थि सप्तरात्रान्महदपि शमयेत्सिद्धमिदम् ॥
इसे पानीमें पीस कर भगन्दर पर पिडिका- कूट और रोमक लवणके चूर्णको बड़के दूधमें वस्थामें (घाव होनेसे पहिले ) लेप करना घोट कर लेप करके ऊपरसे बड़के अंकुरोंका कल्क चाहिये।
बांध देनेसे सात दिनमें प्रवृद्ध अर्बुद भी नष्ट हो (६८४३) यटप्ररोहादिलेपः
जाता है । यह एक सिद्ध प्रयोग है । (र. र. । उपदंशा. ; यो. र.)
(६८४६) वटादिलेपः (२) वटपरोहार्जुनजम्बुपथ्या
(शा. सं. । खं. ३ अ. ११ ; व. से. । लोध्रो हरिद्रा च हितः प्रलेपः ।
क्षुद्र. ; भा. प्र. म. खं. २ ) सर्वोपदेशेषु च रोहणार्थ
वटस्य पाण्डुपत्राणि मालती रक्तचन्दनम् । चूर्णश्च तज्जं विमलाअनेन ॥
कुष्ठं कालीयकं लोध्रमेभिर्लेप प्रयोजयेत् ॥
तारुण्यपिटिका व्यङ्गनीलिकादिविनाशनम् ॥ बड़के अंकुर, अर्जुनकी छाल, जामनकी छाल,
___बड़के पीले (पके हुवे) पत्ते, चमेलीके फूल, हर्र, लोध और हल्दी समान भाग ले कर पानीमें
लाल चन्दन, कूट, काला चन्दन और लोध समान पीस कर लेप लगानेसे उपदंशके व्रण नष्ट
भाग ले कर सबको पानीमें पीस कर लेप बनावें । होते हैं।
___इसे लगानेसे तारुण्य पिटिका (मुंहासे), व्यङ्ग ___इन्हीं औषधियोंके चूर्ण में १-१ भाग रौप्य (झांई) और नीलिकाका नाश होता है। माक्षिक और रसौतका चूर्ण मिला कर लगानेसे भी |
(६८४७) वत्सनाभलेपः उपदंश व्रण नष्ट होते हैं।
(वृ. नि. र. । गण्डमाला.) (६८४४) वटाङ्कुरादिलेपः वत्सनाभं निम्बुनीरलेपाद्गण्डं विनश्यति । (भा. प्र. म. खं. २ । क्षुद्ररोगा. ; वृ. नि. र.) बछनागको नीबूके रसमें घिस कर लेप करनेवटाङ्कुरा मसूराश्च प्रलेपाद्वयङ्गनाशनम्। । से गण्डमालाकी गांठें नष्ट हो जाती हैं।
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लेपप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः ।
.. (६८४८) वरुणादिलेपः
(६८५१) वसुकादिलेपः ( भा. प्र. म. खं. २.। क्षुद्र.)
(व. से. । व्रण.) व्यङ्गहवरुणत्वस्यादजामूत्रेण पेषिता।
वसुकार्जुनविक्रान्ता मांसीलोधनिशायुगैः। -
तिलवहिशिखारिष्टैलेंपो दुष्टत्रणापहः ॥ बरनेकी छालको बकरीके मूत्रमें पीस पर लेप |... काला अगर, अर्जुनकी छाल, अपराजिता करनेसे व्यङ्ग (चेहरेकी झांई) का नाश होता है । | ( कोयल ), जटामांसी, लोध, हल्दी, दारुहल्दी, (६८४९) वल्मीकमृत्तिकायुद्वर्त्तनम्
तिल, मोरशिखा और नीमके पत्ते समान भाग ले
कर पानीके साथ पीस कर लेप करनेसे दुष्ट व्रण ( रा. मा. । वाता. २१) .
नष्ट होता है। वल्मीकमृन्मूलकबीजयुक्ता
(६८५२) वातनाशकलेपः तुरङ्गगन्धा सहिता प्रलेपात् ।
(वृ. मा. । वाताधि.) उन्मर्दनेनापि च घोरमूरु- | शतपुष्पा देवदारुनागरैरण्डसैन्धवैः।
स्तम्भं विनाशं नयति प्रसह्य ॥ अम्लपिष्टैः समैः कोणैर्लेपो वातातिनाशनः।। बमीकी मिट्टी, मूलीके बीज और असगन्धका
सोया, देवदारु, सांठ, अरण्डमूल और सेंधाचूर्ण समान भाग ले कर सबको पानीमें पीस कर
नमकका चूर्ण समान भाग ले कर सबको कांजीमें लेप करने या इस चूर्णका मर्दन करनेसे धोर ऊरु
पीस कर मन्दोष्ण करके लेप करनेसे वातजनित स्तम्भ रोग भी अवश्य नष्ट हो जाता है।
पीड़ा नष्ट होती है। (६८५०) वल्मीकादिलेपः
(६८५३) वायस्यादिगुटिका .. (यो. र. । उदावर्ता.)
| (पृ. मा. । कुष्ठा. ; च. द. ; ग. नि. ।
__कुष्ठा. ३६ ) . वल्मीकमृत्करअस्य त्वङ्मूलफलपल्लवम् ।
अस्य त्वङ्मूलफलपल्लवम् । वायस्येडगजाकुष्ठकृष्णाभिर्गुटिका कृता । सिद्धार्थ चेति पिष्टानां मूत्रेणाऽऽलेपनं हितम् ॥ वस्तमत्रेण संपिष्टा प्रलेपाच्छित्रनाशिनी ॥ उदावर्तेषु सर्वेषु सम्यग्वातानुलोमनम् ।। ___मकोय, पंमाड़के बीज, कूठ और पीपलका ___ बमीको मिट्टी, करञ्जवेकी छाल, मूल, फल| चूर्ण समान भाग ले कर. सबको बकरीके मूत्रमें और पत्ते तथा सफेद सरसों समान भाग ले कर | पीस कर गोलियां बना लें। सबको गोमूत्रमें पीस कर पेट पर लेप करनेसे वायु इन्हें बकरीके मूत्रमें घिस कर लगानेसे श्वित्र अनुलोम हो कर उदावर्त नष्ट हो जाता है। । ( श्वेत कुष्ठ ) नष्ट हो जाता है।
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६८८
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(६८५४) वार्ताकमूलादिलेप: ( यो. र. । स्नायुक. ) वार्ताकमूलं मूत्र: पत्रैर्वाऽश्वत्थजैश्च वा । सुतप्तैर्बन्धच्छीघ्रं शमयेत्स्नायुकं गदम् ॥
भारत-वैषज्य -:
बैंगनकी जड़को मनुष्य के मूत्र में पीस कर गरम करके स्नायुक (नहरवे ) पर रक्खें और ऊपर से पीपलका पत्ता रख कर बांध दें ।
इस उपचार से नहरुवा शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।
(६८५५) वासादिलेप: (१) ( वृ. मा. । मेदोवृद्धय ; यो. र. ; व. से. । उदरा ; वृ. नि. र. । मेदोरोगा . ) वासादलरसो लेपाच्छ्ङ्कचूर्णेन संयुतः । faravrrit aise गात्र दौर्गन्ध्यनाशनः ॥
बासे ( अडूसे ) के पत्तोंके रसमें शंखका बारीक चूर्ण मिला कर लेप करनेसे अथवा बेलके पत्तोंका लेप करनेसे शरीरको दुर्गन्ध नष्ट हो जाती है ।
(६८५६) वासादिलेप: (२) ( वृ. मा. । कुष्ठा. )
कोमलसिंहास्यदलं सनिशं
सुरभीजलेन सम्पिष्टम् । दिवसत्रयेण नियतं क्षपयति कच्छू विलेपनतः ॥
बासे (अडूसे) के कोमल पत्ते और हल्दीका चूर्ण समान भाग ले कर दोनोंको गोमूत्र में पीसकर
[ वकारादि
लेप करनेसे ३ दिनमें कच्छू ( खुजली भेद ) का नाश हो जाता है ।
- रत्नाकरः
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(६८५७) विकङ्कतादिलेपः
( वृ. मा. । गलगण्डा . ; च. द. । गलगण्डा. ४० ) विकङ्कतारग्वधकाकणती काकादनी तापस वृक्षमूलैः । आलेपयेदेनमलाम्बुभार्गी
कर कालामदनैश्च विद्वान् ॥ विकङ्कत (कंटाई), अमलतास, काकणन्ती (गुंजा) की जड़, काकादनी ( सफेद गुंजा ) की जड़, इंगुदीकी जड़, कड़वी तुंबी, भरंगी, करञ्जकी जड़, मजीठ और मैनफलका चूर्ण समान भाग ले कर सबको बारीक पीस कर कफज ग्रन्थि पर लेप करना चाहिये ।
(६८५८) विडङ्गादिलेपः
(ग. नि. । कुष्ठा. ३६; वृ. नि. र. । त्वग्दोषा. ) विडङ्गैडगजाकुष्ठनिशा सिन्धूत्थसर्षपैः । धान्याम्लपिष्टैर्लेपोऽयं दद्दू कुष्ठविनाशनः ॥
ले कर
बायबिडंग, पमाड़ के बीज, कूठ, हल्दी, सेंधानमक और सरसों का चूर्ण, समान भाग सबको कांजीमें पीस कर लेप करनेसे दाद नष्ट हो जाता है ।
(६८५९) विदार्यादिलेप:
( वृ. मा. । ज्वरा. ; ग. नि. ; हा. सं. । स्था. ३ अ. २; वृ. नि. र. । विषम ज्वरा. ) विदारी दाडिमं लोध्रं दधित्थं बीजपूरकम् । एभिः प्रदिह्यान्मूर्धानं वृड्दाहार्तस्य देहिनः ॥
विदारीकन्द, अनार दाना, लोध, कैथ और बिजौरे नीबूका गूदा समान भाग ले कर सबको
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लेपप्रकरणम् ]
पीस कर शिर पर ( तालु पर ) लेप करनेसे दाह और तृषाका नाश होता है ।
चतुर्थी भागः
(६८६० ) विशाला दिलेपः
( व. से. ; बृ. नि. र. । स्त्रीरोगा . ) लेपो विशालामूलस्य हन्ति पीडां स्तनोत्थिताम् निशावल्कलकल्काभ्यां लेपः प्रोक्तः स्तना
तिहा ॥
- इन्द्रायणकी जड़को पानीमें पीस कर लेप करनेसे या हल्दी और दालचीनी ( पाठान्तर के अनुसार धतूरे के बीज ) को पीस कर लेप करनेसे स्तनकी पीड़ा नष्ट होती है ।
(६८६१) विषादिलेप: (१)
( ग. नि. । कुष्टा. ३६ ) विषधूमव्योपवहिरजनी सर्षपैः ससिन्धृत्यैः । क्षारद्वयगोमूत्रैः प्रसुप्तिकुष्ठापहो लेपः ॥
मीठा विष (बछनाग), गृहधूम, सांठ, मिर्च, पीपल, चीता, हल्दी, सरसों, सेंधा नमक, जवाखार और सज्जीखारका चूर्ण समान भाग ले कर सबको गोमूत्र में पीसकर लेप करनेसे प्रसुप्ति कुष्ठ नष्ट होता है ।
(६८६२) विषादिलेप: (२) ( ग. नि. । कुष्ठा. ३६ )
विपवरुणहरिद्राचित्रकागारधूमं दहनमरिचवः क्षीरमर्कस्नुहीभ्याम् । दहति पतति मात्रं कुष्ठजातीरशेषाः कुलिशमिव सरोषाच्छक्र हस्ताद्विमुक्तम् ।।
१. निशोकनककल्का भ्यामिति पाठान्तरम् ।
८७
६८९
मीठा विष (बछनाग), बरनेकी छाल, हल्दी, चीता, गृहधूम, भिलावा, काली मिर्च और दूर्वा, इनका चूर्ण तथा आक और सेहुंड (सेंड - थोहर) का दूध समान भाग ले कर सबको एकत्र पीस लें ।
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इसका लेप करने से समस्त प्रकार के कुष्ठ नष्ट
होते हैं ।
(६८६३) वृश्चिकदंशहरो लेपः ( यो. त. । त. ७८ ) अजाक्षीरेण सम्पिष्टा शिरीषफलमिश्रिता । उपकुल्या विषं हन्ति वृश्चिकस्य प्रलेपतः ॥
पीपल और सिरस के बीजोंको बकरीके दूधमें पीस कर लेप करनेसे बिच्छूका विष नष्ट होता है । (६८६४) वृषमूलादियोगः ( वै. मृ. | अल. ४ ) वृषस्य मूलं यदि नाभि योनौ मलेपितं स्त्री झटिति प्रसूते । तथा कटिस्थः कदली सुकन्दो
वेगात्प्रसूतिं कुरुतेङ्गनानाम् || बासे (असे) की जड़ को पीस कर नाभि और योनि पर लेप करनेसे प्रसव शीघ्र हो जाता है ।
hot जड़ को कमर में बांधने से भी प्रसव में विलम्ब नहीं होता |
(६८६५) वेतसाद्यलेपः (व. से. । शोथा. ) सवेतसाः क्षीरवतां द्रुमाणां त्वचः समञ्जिष्टलतामृणालाः ।
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६९०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
सचन्दनं पद्मकवालको च
यह मल्हम नासूर, चांदी (घाव) और दुष्ट पैत्ते प्रदेहस्तु सतैलपाकः ॥ ब्रोंको शुद्ध करके भर देता है । बेत, क्षीरीवृक्ष (बड़, गूलर, पीपल, पिलखन,
(६८६७) व्रणहरो लेपः (२) सिरस ) की छाल, मजीठ, कमलनाल, लाल चन्दन,
(यो. चि. म. । अ. ७) पद्माक और सुगन्ध बाला समान भाग ले कर
तप्ते घृते क्षिपेदालमुत्तार्य च जलं क्षिपेत् । सबको महीन पीस कर तेलमें पका कर पित्तज शोथमें लेप करना चाहिये ।।
मथित्वा निर्जलं कृत्वा व्रणादौतत्पयोजयेत् ।।
घृतको गर्म करके उसमें ( आठवां भाग) (६८६६) व्रणहरो लेपः (१)
हरतालका चूर्ण मिला और फिर उसमें पानी मिला (यो. चि. म. । अ. ७)
कर अच्छी तरह मथें तथा पानीको निकाल कर मदनं मस्तकी तुत्थं रालसिन्दूरटङ्कणम् ।
फेंक दें। गुग्गुलं मुरदाशृङ्ग वेरजं रङ्गपत्रिका ॥
यह मल्हम घावोंको नष्ट करता है। कम्पिल्लं कुकर्म काथं माजूमदनकैफलम् । मरीचं हिलं जाङ्गी एला चेति समाः समाः॥ (६८६८) व्रणहरो लेपः (३) लोहपात्रे घृते तप्ते यथायोग्यमिमान् क्षिपेत् ।
( यो. चि. म. । अ. ७) प्रक्षिप्य च जलं पश्चात्मथित्वा जलमुत्सृजेत ॥ तप्ते घृते क्षिपेत्तुत्थं उत्तार्य च क्षिपेदिमान् । तत्सिदं स्थापयेद्भाण्डे व्रणादौ विनियोजयेत । कम्पिल्लं मुरदाशृङ्ग खदिरं रङ्गपत्रिका ॥ नासूरचन्दनादुष्टत्रणशोधनरोपणम् ॥ क्षिप्त्वा जलं मथित्वा तत्सर्वत्रणं विरोहणम् ॥
___ मोम, मस्तगी, नीला थोथा, राल, सिन्दूर, घीको तपा कर उसमें १ भाग नीलेथोथेका सुहागा, गूगल, मुरदासिंग, बिरोजा, मेंहदीके पत्ते, | चूर्ण मिलावें और फिर उसे अग्निसे नीचे उतार कबीला, केसर, कत्था, माजूफल, मैनफल, काली कर उसमें कमीला, मुरदासिंग, कत्था और मेंहदीके मिर्च, हिंगुल, जंगी हर्र और इलायची समान भाग पत्तोंका चूर्ण १-१ भाग मिला दें एवं उसमें पानी ले कर चूर्ण योग्य चीजोंका चूर्ण बनावें । तदन- डाल कर अच्छी तरह मथें और फिर पानी न्तर ( सबसे ८ गुने ) घीको गर्म करके उसमें | निकाल दें। प्रथम गूगल और मोम मिलावें और फिर अन्य यह मल्हम समस्त प्रकारके ब्रोंको नष्ट समस्त ओषधियोंका चूर्ण मिला कर उसे पानीमें । करता है। डाल दें तथा अच्छी तरह फेंट कर (मथकर) पानी (घी समस्त ओषधियोंसे ८ गुना लेना निकाल दें।
। चाहिये ।) इति वकारादिलेपप्रकरणम्
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धूपपकरणम् ]
चतुर्थों भागः
६९१
अथ वकारादिधूपप्रकरणम् (६८६९) वचादिधूपः
वेणुत्वगादिधूपः (वृ. नि. र. । विषम ज्वरा. ; ग. नि.) (यो. र. । मसूरिका. ; वृ. यो. त. । त. १२६)
प्र. सं. ५४३१ “ मसूरिकान्तक धूपः " वचाहरीतकीसर्पिधूपः स्याद्विषमज्वरे । देखिये। बच और हरके चूर्णको घीमें मिला कर धूप
(६८७१) व्रणधूपनयोगाः
(ग. नि. । व्रणशोथा. ४) देनेसे विषम ज्वरमें लाभ पहुंचता है।
। वाताभिभूतान् साम्रावान् धृपयेदुनवेदनान् । (६८७०) विशालादिधूपः यवार्जभूर्जमदनश्रीवेष्टकसुराहयैः ॥
| श्रीवासगुग्गुल्वगुरुशालनिर्यासधूपिताः। (यो. र. । कृम्य.)
कठिनत्वं व्रणा यान्ति नश्यन्त्यास्राववेदनाः ।। विशालायाः फलं पक्वं तप्तलोहे परिक्षिपेत् ।। जौ, जंगली तुलसी, भोजपत्र, मैनफल, तख़मो दन्तलग्नश्चेत्कीटानां पातनः परः॥ श्रीवेष्ट, देवदोरु, श्रीवास, गूगल, अगर और राल
समान भाग ले कर सबको एकत्र पीस लें। इन्द्रायणके पक्के फलके चूर्णको तप्त लोहे पर
वातदोष प्रधान तथा स्राव और तीव्र वेदना डालनेसे जो धुवां निकले वह कृमि वाले दांतको वाले ब्रणोंको इसकी धूनी देनेसे वेदना और स्राव लगानेसे कृमि निकल जाते हैं।
नष्ट हो कर ब्रण शुष्क हो जाते हैं। इति वकारादिधूपमकरणम् ॥
अथ वकारादिधूम्रप्रकरणम् (६८७२) वारुणीपत्रधूमः ताम्बूलपूरितमुखं पथ्यं क्षीरोदनं हितम् ॥ ( वृ. नि. र. । कासा.)
तत्क्षणान्नाशयेत्क्रास सिद्ध योग उदाहृतः ॥ उत्तरावारुणिपत्रं शालितण्डुलतालकम् । इन्द्रायणके पत्ते, शाली चावल और हरताल सम्पेष्य गुटिका कार्या बदराण्डप्रमाणका ॥ समान भाग ले कर सबको एकत्र पीस कर बेरकी मुखीतण्डुलपिष्टेन कर्तव्या छिद्रसंयुता। गुठलीके समान गोलियां बना लें। दीप्ताङ्गारे वटी क्षिप्त्वा मुखमाच्छाद्य यत्नतः॥ चावलोंकी पिट्टीकी चिलम बनाकर उसमें धूममेरण्डनालेन पिबेभुक्तोत्तरं शनैः। अग्नि रख कर उस पर एक गोली रक्खें और अर
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ण्डकी नाल से उसका धुवां पियें। धूत्रपान करते समय चिलम के मुखको भली भांति ढक देना चाहिये | यह धूम्रपान भोजनके पश्चात् करना चाहिये ।
- भैषज्य रत्नाकरः
भारत
इससे खांसी तुरन्त नष्ट हो जाती है । यह एक सिद्ध प्रयोग है । धूम्रपान करनेके पश्चात् पान खाना चाहिये
पथ्य- दूध भात ।
.(६८७४) वचाद्यञ्जनम् ( व. से. । विषरोगा . ) वचोषण शिलादारुनक्तावद्विनिशाञ्जनम् । शिरीषपिप्पलीयुक्तं गरदोषनिसूदनम् ||
इति वकारादिधूम्रप्रकरणम्
三三
अथ वकाराद्यञ्जनप्रकरणम्
बच, काली मिर्च, मनसिल, देवदारु, करञ्जबीज, हल्दी, दारूहल्दी, रसौत सिरसके बीज और पीपल; इनका चूर्ण समान भाग ले कर सबको एकत्र घोट कर बारीक करें ।
इसे आंख में लगानेसे गर विष नष्ट होता है । (६८७५) वदक्षीराद्यञ्जनम्
( व. से. । नेत्ररोगा. ; शा. स. । ख. ३ अ. १३ ; वृ. यो. त. । त. १३१ ; वृ. नि. र. ; यो. र. | नेत्र. )
क्षीरेण संयुक्तो मुख्यः कर्पूरजः कणः । क्षिप्रमञ्जनतो हन्ति कुसुमं च द्विमासिकम् ॥
(६८७३) विदुलीदलयोगः (वै. म. र. । पटल ३ )
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विदुलीदल हरितालव्योषशिलाः केशराजरसपिष्टाः ।
गुटिकीकृता निहन्युः कासरुजं धूमपानेन ||
दुर्गन्धित खैर के पत्ते, हरताल, सोंठ, मिर्च, पीपल और मनसिलका चूर्ण १-१ भाग ले कर सबको भंगरेके रसमें पीस कर गोलियां बना लें | इनका धूमपान करने से खांसी नष्ट होती है ।
[वकारादि
करके चूर्ण को बड़के दूध में घोट कर अंजन बनावें ।
इसे आंख में लगानेसे २ मासका फूला शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।
(६८७६) वातारिपनयोगः
( यो त । त. ७१ ) वातापित्रे पुटपाचितानां ri दलानां वरमल्लिकायाः । सम्मर्दयेत्सिन्धुफलेन कांस्ये
तेनाञ्जनेनाञ्जितलोचनस्य ॥ सोऽक्षिनिष्पन्दमकाण्डकण्डूमथाधिमन्थादिगदान्निहन्ति ॥
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चमेली के पत्तोंको अरण्डके पत्तों में लपेट कर उस पर मिट्टीका एक अंगुल मोटा लेप करके पुट.
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अञ्जनप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
पाक करें और फिर उसमेंसे चमेलीके पत्तोंको मनुष्यलालया घृष्टा ततो नेत्रं तयाअयेत् । निकाल कर उनका रस निकालें और उसे कांसोके सर्पदष्टविषं जित्वा सञ्जीवयति मानवम् ॥ पात्रमें डाल कर उसमें समुद्र फलको घिसें ।
जमाल गोटेकी गिरीको नीबूके रसकी २१ इसे आंखोंमें आंजनेसे आंखका फरकना, भावना दे कर बत्तियां बना लें। आंखोंकी खुजली और अधिमन्थादि रोग नष्ट इसे मनुष्यके थूकमें घिस कर आंखमें लगानेहोते हैं।
से सांपका विष उतर जाता है। (६८७७) विडङ्गाद्यञ्जनम् (६८८०) विचिकानाशनगुटिका ( व. से. । बालरोगा.)
( यो. चि. म. । अ. ३) कृमिघ्नालशिलादावर्वीलाक्षागैरिककाजिकैः। फलत्रिकं व्योषकरअबीज चूर्णाअनं कुकूणे स्याच्छिशूनां पोथकीषु च ॥ रसं तथा दाडिममातुलिङ्गयोः।
बायबिडंग, हरताल, मनसिल, दारुहल्दी, निशायुगं पिष्य कृता च वर्तिलाख और गेरु; इनके समान भाग मिश्रित स्तदञ्जनं हन्ति विषूचिकां च ॥ चूर्णको कांजीमें घोटें और सूख जाने पर बारीक हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च, पीपल, करके रक्खें।
करंजुवेकी गिरी, हल्दी और दारु हल्दी; इनका ___इसे आंखोंमें लगानेसे बालकोंका कुकूणक चूर्ण तथा अनार और बिजौ रे नोबूका रस समान और पोथकी नामक नेत्र रोग नष्ट होता है। भाग ले कर सबको एकत्र खरल करके बत्तियां (६८७८) विषमज्वरान्तकाञ्जनम् ।
बना लें। .. (र. प्र. सु. । अ. ८)
इसका अंजन लगानेसे विषूचिकाका नाश तालकं निम्बतैलेन मर्दितं वटकीकृतम् । । होता है। अअने क्रियमाणे च ज्वरः शान्तिमुपैति हि ॥ वृहचन्द्रोदयावर्तिः हरतालको नीमके तेलमें घोट कर गोली
(भै. र. । नेत्र रोगाः) बना लें।
प्र. सं. १८५८ चन्द्रोदया वर्तिः (लघु) इसका अंजन लगानेसे ज्वर शान्त होता है। देखिये ।। (६८७९) विषहरिवर्तिः
(६८८१) वैदेहिवर्तिः (रसे. चि. म. । अ. ९).
(वृ. यो. त. । त. १३१) जयपालभवां मज्जां भावयेन्निम्बुकद्रवैः। कतकं चन्दनं लाक्षा मरिचं मधुकोत्पलम् । एकविंशतिवारं तु ततो वत्ति प्रकल्पयेत् ॥ | तुत्थाक्षामलकाबीजं मनोहा सुमनः सिता ।।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
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विडङ्गोदधिफेनैला शङ्खनाभिरसाञ्जनम् । इसे आंखमें लगानेसे बालकोंकी आंखोंकी एषा दृष्टिप्रदा वतिर्विदेहेन विनिर्मिता ॥ खाज नष्ट होती है । नित्योपयोगात्पटलं तिमिरं शुक्तिराजिके । (६८८३) व्योषाद्यञ्जनम् (२) शुष्काक्षिरोगौ तोदं च विवृद्धिं चार्ममेव च ॥
(यो. र. ; वै. र. । अग्निमांद्या. ; वृ. मा. । निहन्ति रोगानेतांश्च त्रिदोषानपि दुस्तरान् ।।
___ अजीर्णा. ; व. से. । विषूचिका.) निर्मलीके फल, लाल चन्दन, लाख, काली व्योषं करअस्य फलं हरिद्रां मिर्च, मुलैठी, नीलोत्पल, नीलाथोथा, बहेड़ेकी मूलं समावाप्य च मातुलुङ्गन्यः । गिरी, आमलेकी गिरी, मनसिल, जावत्री, मिश्री, छायाविशुष्का गुटिकाः कृतास्ता बायबिडंग, समुद्र फेन, इलायची, शंखनाभि और ___ हन्युर्विधूची नयनाञ्जनेन ॥ रसौत समान भाग ले कर यथा विधि वर्ति बनावें ।
सेठ, मिर्च, पीपल, कर वेकी गिरी, हल्दी इसे नित्यप्रति आंखमें लगानेसे पटल, तिमिर, और बिजौ रेकी जड; इनके समान भाग मिश्रित शुक्ति, राजिका, शुष्काक्षिपाक, तोद और अर्मादि | चूर्णको पानी में पीस कर गोलियां बना कर छायामें त्रिदोषज नेत्र रोग भी नष्ट हो जाते हैं।
सुखा लें। (६८८२) व्योषाद्यञ्जनम् (१) इन्हें आंखमें लगानेसे विसूचिकाका नाश ( यो. र. । बालरो. ; व. से.)
होता है। व्योष सभृङ्गं च मनःशिलालं
___ (६८८४) व्योषाद्यावर्तिः करअबीजं च सुपिष्टमेतत् ।
(वृ. मा. ; व. से. । नेत्र रोगा. ) कण्ड्वर्दितानामथ वमनां तु. व्योषोत्पलाभयाकुष्ठताक्ष्यैर्वतिः कृता हरेत् ।
श्रेष्ठं शिशूनां नयने विदध्यात् ॥ अर्बुदं पटलं काचं तिमिरामाश्रुनिसुतिम् ॥ सेांठ, मिर्च, पीपल, भंगरा, मनसिल, हरताल सोंठ, मिर्च, पीपल, नीलोत्पल, हर, कूठ और करञ्जवेकी गिरी; इनका समान भाग चूर्ण ले और रसौत समान भाग ले कर यथा विधि वर्ति कर सबको एकत्र पीस कर सुरमेकी भांति बारीक | बनावें । कर लें।
इन्हें आंखमें लगानेसे नेत्रार्बुद, पटल, काच, १ सशृङ्गमिति पाठान्तरम् ।
तिमिर, अर्म और अश्रुस्रावका नाश होता है । इति वकाराधअनप्रकरणम्
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नस्यप्रकरणम् ]
चतुर्यों भागः
अथ वकारादिनस्यप्रकरणम् (६८८५) वन्ध्याकर्कोटकीमूलयोगः । इसकी नस्य लेनेसे प्रतिश्याय नष्ट होता है। ( ग. नि. । सर्प विषा. ३; यो. र. । विषा. ; (६८८८) विडङ्गादिनस्यम् यो. त.। त. ७८)
( भा. प्र. म. खं. २; व. से. । शिरोरोगा. ; वन्ध्याकर्कोटजं मूलं छागमूत्रेण भावितम् ।
वृ. नि. र.) नस्य काधिकसम्पिष्टं विषोपहतचेतसः॥ विडङ्गानि तिलान्कृष्णान्समं कृत्वा तु पेषयेत् ।
बांझ ककोडेकी जड़को बकरीके मूत्रकी नस्यकर्मणि दातव्यमद्धभेदं व्यपोहति ।। भावना दे कर खरल करके रक्खें ।
बायबिडंग और काले तिल समान भाग ले सर्प विषसे मूर्छित पुरुषको, कांजीमें पीस कर
कर दोनोंको एकत्र पीस लें । इसकी नस्य देनेसे होश आ जाता है ।
इसकी नस्य लेनेसे अविभेदक (आधाशीशी)
का नाश होता है। (६८८६) वासादिनस्यम् (र. रे. । रक्तपित्ता.)
(६८८९) विश्वादिनस्यम्
( वृ. मा. । शिरोरोगा.) वासादाडिमपुष्पस्य दूर्वारससमन्वितः । अलक्तकरसोपेतः पथ्यारससमन्वितः ॥
नावनं सगुडं विश्व पिप्पली वा ससैन्धवा । योजितो नस्यतः क्षिप्रं त्रिदोषमपि देहिनाम् ।
भुजस्तम्भादिरोगेषु सर्वपूर्ध्वगदेषु च ॥ नासारक्तप्रवृत्तन्तु हन्यादिति किमद्भुतम् ॥
सेठिके चूर्ण और गुड़को एकत्र मिला कर
उसकी, अथवा समान भाग मिश्रित पीपलके चूर्ण ___ बासे (अडूसे) और अनारके फूलोंका रस, |
और सेंधा नमककी नस्य भुजस्तम्भ और शिरोदूर्वाका रस, लाखका रस और हर्रका रस समान | भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर नस्य देनेसे
(६८९०) व्योषादिनस्यम् त्रिदोषज नासा प्रवृत्त रक्त ( नकसीर ) भी बन्द
(यो. र. । विषूचिका.) हो जाता है।
| व्योष करञ्जस्य फलं हरिद्रानिम्बुकद्रवैः। (६८८७) विडङ्गादिचूर्णम् नस्याअने प्रयोक्तव्ये कुर्याच्च जलसेवनम् ॥ __(व. से. । नासा.)
सांठ, मिर्च, पीपल, करञ्जकी गिरी और विडङ्ग सैन्धवं हिङ्गु गुग्गुलुः समनःशिलाः। हल्दी; इनके समान भाग मिश्रित चूर्णको नीबूके प्रतिश्यायो वचायुक्तं चूर्णमाघ्राय नश्यति ॥ रसमें खरल करें । विचिकामें इसकी नस्य देनी
बायबिडंग, सेंधा नमक, हींग, गूगल, मन- और इसीका अंजन लगाना तथा इन्हीं ओषधियोंसे सिल और बच समान भाग ले कर चूर्ण बनावें। पकाया हुवा पानी पिलाना चाहिये ।
इति वकारादिनस्यप्रकरणम्
गाम ला
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
अथ वकारादिकल्पप्रकरणम् (६८९१) वृद्धदारुककल्पः | पिप्पली।त्रफलादा-महौषधपुनर्नवाः ॥ ( ग. नि. । ओषधि कल्पा.) पृथग्दशपलाः सर्वैस्तुल्यांशो वृद्धदारुकः ।
धान्याम्लपीतं तच्चूर्ण जीणे स्वच्छन्दभोजिनः॥ वसन्ते सङ्गहीतानि शोषितानि तथाऽऽतपे ।
सदुष्टवातान् हन्त्याशु गुल्मोदरगरादिकान् । वृद्धदारुकमूलानि सञ्चूर्ण्य सर्पिपा सह ॥ आप्लाव्य घृतपात्रस्थं धान्ये पक्षमुपेक्षितम् ।
वृद्धदारुक ( विधारे ) की जड़को वसन्त लिह्यादनुपिवन क्षीरं जीणे क्षीरघृताशनः ।।
ऋतुमें उखाड़ कर धूपमें सुखा कर चूर्ण करें और
उसे घीसे तर करके घृतपात्रमें भर कर उसका मुख तत्प्रयोगाअराजी? वृद्धो दारुकतामियात् ।। भग्नास्थिगद्गदशिशुः स्थूलोऽपास्यान्यरूपताम् ॥
बन्द करके अनाजके ढेरमें दबा दें और १५ दिन
| पश्चात् निकाल कर काममें लावें । निरस्ताशेषदोषास्रनखभेदाद्युपद्रवः ।। अपस्मारग्रहोन्मादपापालक्ष्मीविवर्जितः ॥
इसे खा कर ऊपरसे दूध पीना और औषध दीप्ताग्निर्बलवान वाग्मी जीवेवर्षशतानि षट् । पच जाने पर घृतयुक्त दूधका आहार करना
चाहिये । चूर्णितेरश्वगन्धायाः संयुतं त्रिशता पलैः ।। इस प्रयोगसे जरा जर्जरित वृद्ध भी तरुणके तत्तुल्यं दारुकं प्राश्य पयसा सर्पिषाऽथवा। समान हो जाता है तथा बालकोंकी कुरूपता दूर जीर्णे पूर्ववदश्नीयात् स जीवेच्छरदां शतम् ॥ हो कर उनका स्वर सुधर जाता है; टूटी हुई अस्थि वाजिवेगो गजप्राणः सुरूपो भास्करद्युतिः । जुड़ जाती है एवं रक्तदोष, नख भेदादि, अपस्मार,
ग्रह, उन्माद और कान्ति हीनता आदिका नाश यो लियात्सर्पिषा चूर्ण वृद्धदारुकमूलजम् ॥
और अग्नि बल तथा वाणीकी वृद्धि हो कर १०० सप्ताहं यूषभक्ताशी स्यात्स किन्नरतुल्यवाक् ।
वर्षकी आयु प्राप्त होती है।
३० पल असगन्ध और ३० पल विधारा लिहन बा मधुसर्पिभ्या धात्रीस्वरसभावितम ॥ मूलके चूर्णको एकत्र मिला कर रखें। क्षीरेण वा पिबेन्मासं शतं जीवेदरुक् सुखी। इसे यथोचित मात्रानुसार दूध या घीके साथ
सेवन और घी दूधका आहार करनेसे मनुष्य अत्यन्त वृद्धदारुकमूलानां रसं क्षीरेण यः पिबेत् ॥ बलशाली, एवं सुरूप और कान्तिमान हो कर १०० तत्कल्कसिद्धं सर्पिषा स जीवेनिरुजः शतम् । वर्ष तक जीवित रहता है।
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रसपकरणम्
चतुर्थों भागः विधारेको जड़का चर्ण घीके साथ १ सप्ताह | सेवन करनेसे १०० वर्षकी रोग रहित आयु तक सेवन करने और मूंगका यूष तथा भात खानेसे प्राप्त होती है। स्वर किन्नर सदृश मधुर हो जाता है।
पीपल, हरे, बहेड़ा, आमला, दारुहल्दी, विधारा मूलके चर्णको आमलेके रसकी (बहुत सेठ और पुनर्नवामूल; इनका चर्ण ५०-५० सी) भावना दे कर रक्खें । इसे शहद और घीके तोले तथा विधारामूलका चूर्ण सबके बराबर ले कर या दूधके साथ १ मास तक सेवन करनेसे १०० सबको एकत्र मिला कर रखें। वर्षकी रोगरहित आयु प्राप्त होती है । ___ इसे कांजीके साथ सेवन करनेसे दुष्ट वायु,
गुल्म, उदर रोग और गरविषादिका नाश होता है। दूधमें विधारा मूलका स्वरस मिला कर औषध पच जाने पर यथेच्छ आहार करना सेवन करने या विधारा मूलके कल्कसे सिद्ध घृत चाहिये।
इति वकारादिकल्पप्रकरणम्
अथ वकारादिरसप्रकरणम् (६८९२) वङ्गभस्मयोगः (१) बंग भस्म और गोखरुका चूर्ण समान भाग (यो. र.। प्रमेहा.)
ले कर दोनोंको एकत्र मिला कर ३-३ रत्तीकी शाल्मलित्वासोपेतं सक्षौद्रं रजनीरजः। | मात्रानुसार मिश्रीयुक्त गोदुग्धके साथ सेवन करनेसे
। वनभस्म हरेन्मेहान्पश्चानन इव द्विपान् ॥ समस्त प्रकारके प्रमेह नष्ट होते हैं । बंग भस्म और हल्दीका चूर्ण समान भाग
(६८९४) बङ्गभस्मयोगः (३) ले कर दोनोंको एकत्र मिला कर (४ रत्तीकी
(यो. र. ; वृ. नि. र. । प्रमेहा.) मात्रानुसारे ) शहद और सेंभलकी छालके रसमें मिला कर सेवन करनेसे समस्त प्रकारके प्रमेह | गुडूचीरसमधुना वनभस्म प्रमेहनुत् । नष्ट होते हैं।
नागभस्म तथैवापि सर्वमेहनिवारणम् ॥ (६८९३) बङ्गभस्मयोगः (२) बंग भस्म अथवा नागभस्मको गिलोयके रस (यो. र. । प्रमेहा.)
और शहदके साथ सेवन करनेसे समस्त प्रकारके पयो गवां सखण्डकं त्रिकण्टवङ्गवल्लकम् । प्रमेह नष्ट होते हैं। प्रमेहभल्लकं परं बुधा वदन्ति सादरम् ॥ (मात्रा-२ रत्ती)
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६९८ भारत-मैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि (६८९५) वङ्गभस्मयोगः (४) | रगड़ते रहें । इस विधिसे दो पहरमें बंगकी भस्म ( यो. र. ; वृ. नि. र. । प्रमेहा.) हो जाती है । उक्त दोनों छालोंका चूर्ण बंगसे वङ्गं शिलाजतुयुतं तु मतं प्रमेहे
चतुर्थाश लेना चाहिये और उसमेंसे ज़रा ज़रोसा धातुक्षये दुर्बलनष्टशुक्रयोः।
डालते हुवे दो पहरमें (वंग भस्म होने तक ) वह अभ्रण युक्तं तु सतप्रद स्या
सम्पूर्ण चूर्ण समाप्त करना चाहिये । ज्जातीफलार्ककरहाटलवङ्गयुक्तम् ॥
तदनन्तर भस्मके स्वांगशीतल होने पर
उसमें उसके बराबर हरताल मिला कर दोनोंको बंग भस्म शिलाजीतमें मिला कर सेवन करना प्रमेह, धातुक्षय, दुर्बलता और शुक्रनाशमें
| नीबूके रसमें घोट कर टिकिया बनावें । और उन्हें हितकारी है।
सुखा कर शरावसम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें बंग भस्म, अभ्रक भस्म, जायफलका चूर्ण,
पकावें । ताम्र भस्म, स्वर्ण भस्म और लौंगका चूर्ण समान
- इसके पश्चात् उसमें पुनः दसवां भाग हरभाग ले कर सबको एकत्र मिला कर सेवन करनेसे
ताल मिला कर नीबूके रसमें १ पहर मर्दन करके पुत्र प्राप्ति होती है।
टिकियां बनावें और शरावसम्पुटमें बन्द करके
गजपुटमें पकावें। (मात्रा-३ रत्ती ।)
___ इस प्रकार दस पुट देनेसे सेवन करने योग्य (६८९६) वङ्गमारणम् (१)
भस्म तैयार हो जाती है। ( हरबार दसवां भाग (भा. प्र. । पू. खं. १; शा. सं. । .खं. २ अ. हरताल मिला कर नीबूके रसमें घोटना चाहिये ।) ११ ; आ. वे. प्र.। अ. ११ ; यो. __नोट-आ. वे. प्र. में. वंग भस्मके समान अथवा चि. म. । अ. ७)
चौथा भाग या अष्टमांश हरताल मिला कर नींबू मृत्पात्रे द्राविते वङ्गे चिञ्चाश्वत्थत्वचो रजः। | या घृतकुमारीके रसमें घोटनेके लिये लिखा है। क्षिप्त्वा वङ्गचतुर्थांशमयोदा प्रचालयेत् ॥ एवं उसके मतानुसार हरताल केवल प्रथम पुटमें ततो द्वियाममात्रेण वङ्गभस्म प्रजायते । । ही डालनी चाहिये और शेष ६ पुट बिना हरताल अथ भस्मसमं तालं क्षिप्त्वाम्लेन विमर्दयेत ॥ मिलाये ही नींबू या घी कुमारके रसमें घोट घोट ततो गजपुटे पक्त्वा पुनरम्लेन मर्दयेत् । कर देनी चाहिये। तालेन दशमांशेन याममेकं ततः पुटेत् ॥
(६८९७) वङ्गमारणम् (२) एवं दशपुटैः पक्वं वङ्गं भवति मारितम् ॥ (रसे. सा. सं. ; वृ. यो. त.। त. ४१ ; यो. त. ।
बंगको मृत्पात्रमें पिघला कर उसमें समान त. १७ ; आ. वे. प्र.। अ. ११ ; र. मं.) भाग मिश्रित इमली और पीपल वृक्षकी छालका वॉ सतालमर्कस्य पिष्ट्वा दुग्धेन सम्पुटेत् । चूर्ण ज़रा ज़रासा डालते और लोहेकी करछीसे शुष्काश्वत्थभवैर्वल्कैः सप्तधा भस्मतां नयेत् ॥
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
हरतालको आकके दूधमें घोट कर शुद्ध वंगके मार्गकी राख निकल आए और फिर घीकारमें घोट पत्रों पर लेप करके सुखा लें और उन्हें पीपल | कर गजपुटमें पकाना चाहिये ।) वृक्षकी सूखी छालके चूर्णके बीचमें रख कर शराव- (६८९९) वङ्गमारणम् (४) सम्पुट करके उस पर कपरमिट्टी करके सुखा लें (रसे. सा. सं । पूर्व खं.) और गजपुटमें फूंक दें । इसी प्रकार सात पुट वङ्ग खपरके कृत्वा चुल्ल्यां संस्थापयेत्सुधीः । देनेसे वंगकी भस्म तैयार हो जाती है । द्रवीभूते पुनस्तस्मिञ्चूर्णान्येतानि दापयेत् ॥ ( हरताल वंगके बराबर लेनी चाहिये ।) प्रथमं रजनीचूर्ण द्वितीये च यमानिका ।
तृतीये जीरकश्चैव ततश्चिश्चात्वगुद्भवम् ॥ (६८९८) वङ्गमारणम् (३)
अश्वत्थवल्कलोत्थश्च चूर्ण तत्र विनिःक्षिपेत् । (रसे. सा. सं । पूर्व खं.) एवं विधानतो वङ्गं म्रियते नात्र संशयः ॥ विशुद्धवङ्गपत्राणि द्रावयेद्धण्डिकान्तरे ।
शुद्ध वंगको कढ़ाईमें डाल कर चूल्हे पर अपामार्गोद्भवं चूणे तत्तुल्यं तत्र मेलयेत् ॥
चढ़ावें । जब वह पिघल जाय तो उसमें ज़रा ज़रा स्थूलाग्रया लोहदा शनैस्तदभिमर्दयेत् ।।
सा हल्दीका चूर्ण डाल कर लोहेकी करछीसे घोटें । यावद्भस्मत्वमामोति तावन्मय॑न्तु पूर्ववत् ॥
जब ( वंगसे चतुर्थांश ) हल्दीका चूर्ण समाप्त हो ततस्त्वेकीकृतं चूणे कृत्वा चाङ्गारवर्जितम् ।
जाय तो उसी प्रकार अजवायनका चूर्ण डाल कर नूतनेन शरावेण रोधयेच भिषग्वरः ।।
घोटें एवं उसके समाप्त होने पर क्रमशः जीरे, पश्चात्तीबामिना पक्वं वङ्गभस्म भवेद् ध्रुवम् ।।
- इमलीकी छाल और पीपलकी छालका चर्ण डाल
कर घोटें। शुद्ध वंगके पत्रोंको कढाईमें गला कर उसमें
___इस क्रियासे वंग अवश्य मर जाता है । उसके बराबर अपामार्ग (चिरचिटे) का चूर्ण
(नोट-प्रत्येक ओषधिका चूर्ण वंगसे चतुमिला कर लोहेकी करछीसे धीरे धीरे घोटते रहें । ।
र्थाश होना चाहिये । और जरा जरासा डालते जब तक भस्म न हो जाय तब तक निरन्तर घोटते
हुवे निरन्तर चलाते रहना चाहिये। अन्तमें भस्मको रहें और फिर उसे कढ़ाईके बीचमें एकत्रित करके
कढ़ाईके बीचमें एकत्रित करके शरावसे ढक देना उसमेंसे अपामार्गकी राख (जितनी निकल सके
चाहिये और उसके नीचे १ पहर तक तीब्राग्नि उतनी ) निकाल दें और फिर उसे एक नवीन
जलानी चाहिये । तदनन्तर जब वह स्वांग शीतल शरावसे ढक दें तथा उसके नीचे (१ पहर तक) हो जाय तो उसे कई बार पानीसे धो कर घीकुमारतीवाग्नि जलावें तो वंगभस्म तैयार हो जायगी। के रसमें घोट कर कमसे कम तीन बार गज
(नोट-यह भस्म खाने योग्य नहीं होती। पुट में पकाना चाहिये । जितनी अधिक पुट दी इसे प्रथम पानीसे धोना चाहिये कि जिससे अपी. | जाएं उतना ही उत्तम है।)
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७००
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
(६९००) वङ्गमारणम् (५) और उसके स्वांग शीतल होने पर राखमेंसे वंग (र. र. स. । पू. अ. ५)
| भस्मको सावधानी पूर्वक निकाल लें । जो भाग
कच्चा रह गया हो उसे पुनः उसी प्रकार पुट लगा सतालेनार्कदुग्धेन लिप्त्वा वदलानि च ।
कर भस्म कर लें। बोधिचिश्चात्वचः क्षारैर्दद्याल्लघुपुटानि च ॥
(६९०२) वङ्गमारणम् (७) मर्दयित्वा चरेद्भस्म तद्रसादिषुःशस्यते ॥
(र. र. स. पू. अ. ५) __ हरतालको आकके दूधमें घोट कर बंगके
पलाशद्रवयुक्तेन वङ्गपत्रं प्रलेपयेत् । पत्रों पर लेप करके सुखा लें और उन्हें पीपल तथा
तालेन पुटितं पश्चाम्रियते नात्र संशयः ॥ इमलीके क्षारके बीचमें रख कर शरावसम्पुटमें
___ हरतालको पलाश (ढाक) की जड़के रसमें बन्द करके लघुपुटमें पकावें। जब तक भस्म न हो
घोट कर शुद्ध वंगके पत्रों पर लेप करें और उन्हें जाय इसी प्रकार पुट देते रहें ।
सुखा कर शरावसम्पुटमें बन्द करके पुट लगा दें। ( हरताल वंगके बराबर लेनी चाहिये ।) ।
___ इस विधिसे वंग अवश्य मर जाता है। (६९०१) वङ्गमारणम् (६)
(६९०३) वङ्गमारणम् (८)
(र. र. स. । पू. अ. ५) (र. प्र, सु. । अ. ४)
प्रद्राव्य खर्परे वङ्गं षोडशांशं रसं क्षिपेत् । छाणोपरि कृते गर्ने चिश्चात्वचूर्णकं क्षिपेत् ।
| स्वल्पस्वल्पाऽऽलकं दत्त्वा भारद्वाजस्य काष्ठतः। कर्षमानां वङ्गचक्रीं तत्रोपरि निधापयेत् ॥
| मर्दयित्वा चरेद्भस्म तद्रसादिषु शस्यते ॥ चक्री चतुर्गुणेनैव वेष्टितां धारयेत्ततः।
शुद्ध वंगको कढ़ाई में पिघला कर उसमें छगणेन विशुष्केण पुटाग्नि दापयेत्ततः ॥
उसका सोलहवां भाग पारद मिलावें और फिर स्वाङ्गशीतं समुदत्य सर्वकार्येषु योजयेत् ।
उसमें ज़रा ज़रासा हरतालका चूर्ण डाल कर कंघी अनेन विधिना शेषमपक्वं मारयेद्धृवम् ।। ।
( अतिबला ) की गीली लकड़ीसे चलाते रहें । इस एक बड़ेसे उपले ( कंडे ) में गढ़ासा बना क्रियासे ( ४-५ पहरमें ) वंग भस्म तैयार हो कर उस पर २॥ तोले इमलीकी छालका चूर्ण | जाती है । बिछा दें और फिर उस पर शुद्ध वंगका १। (हरताल वंगके बराबर लेनी चाहिये ।) तोलेका पतरा रख कर उसके ऊपर पुन: २॥ तोले (६९०४) वङ्गमारणम् (९) इमलीकी छालका चूर्ण रख कर उसके ऊपर दूसरा (वृ. यो. त.। त. ४१ ; आ. वे. प्र. । अ, ११) कण्डा रख कर दोनोंको सुतलीसे बांध दें । अब | वन्योत्पलोपरिस्थे तु गोणीखण्डे क्षिपेद्रजः । इसे ( शराव सम्पुटमें बन्द करके ) पुट लगादें तिन्तिणीवल्कलस्याथ तिलांस्तत्र विनिक्षिपेत् ॥
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः अङ्गुलाधप्रमाणेन तत्र वदलं न्यसेत् ।
जनकं स्वममेहमणाशि खण्डीकृतं पुनस्तेन क्रमेणैवात्र विन्यसेत् ॥ प्रज्ञाकृद्वीर्यमुच्चैरलघु तिलं तिन्तिणीवल्कं च गोमयांश्चाग्निना दहेत् । रतिरसस्याऽऽस्पदं वृंहणं च ॥ स्वागशीतं ततो ग्राह्यं युक्त्या वङ्गस्य भस्म तत्।। अशुद्धममृतं वङ्गं प्रमेहादिगदप्रदम् । ___ अरण्य (अरने) कण्डे पर कपड़ेका टुकड़ा | गुल्महृद्रोगशूलार्शः कासश्वासवमिपदम् ॥ बिछा कर उस पर इमलीकी छालका चूर्ण बिछावें
(. यो. त.) और उस पर तिलोंकी आध अंगुल ऊंची तह शुद्ध वंगको कढ़ाई में पिघला कर उसमें ज़रा जमा दें । तदनन्तर उस पर शुद्ध वंगके (चावलके | जरासा हल्दीका चूर्ण डालते हुवे लोहेकी करछीसे समान छोटे ) टुकड़े बिछा कर उन पर क्रमशः | चलाते रहें । जब भस्म हो जाय तो उसमें वंगसे तिल और इमलीकी छालके चूर्णकी आध आध चतुर्थांश शोरा डाल कर शरावसे ढकदें और १ अंगुल मोटी तह जमा दें और ( उस पर दूसरा घड़ी तक उसके नीचे मन्दाग्नि जला कर स्वांग उपला रख कर, सुतलीसे लपेट कर उसे शराव शीतल होने पर निकाल लें। सम्पुटमें बन्द करके ) कण्डोंकी अग्निमें फूंक दें।
___ यह भस्म अत्यन्त श्वेत होती है। एवं सम्पुटके स्वांग शीतल होने पर उसमेंसे सावधानी पूर्वक वंग भस्मको निकाल लें।
वङ्ग भस्म तिक्त, उष्ण तथा रूक्ष है। यह (६९०५) वङ्गमारणम् (१०)
| कफ, कृमि, वमन, प्रमेह, मेद वायु, कास, श्वास, (बृ. यो. त. । त. ४१ ; आ. वे. प्र. । अ. ११)
क्षय, अग्निमांद्य, आध्मान और स्वप्नदोषको नष्ट रजनीरजसा वहिस्थायां हण्डयां तु पूर्ववत् । करती है । इसके सेवनसे बल, वीर्य, तेज, कामवङ्गभस्म विधायाथ सोरकं तत्र निक्षिपेत् ॥ | शक्ति और बुद्धिकी वृद्धि होती है। वङ्गं तुर्याशमथ तच्छरावेण पिधापयेत् ।
वंग भस्मके सेवनसे वीर्य वृद्धि और कामोत्तेमन्दमग्निं घटीमेकां दत्वाऽथ स्वागशीतलम् ।।
जना विशेष रूपसे होती है। कुन्देन्दुधवलं वङ्गभस्म ग्राह्यं स्वकार्यकृत् ।
___ अशुद्ध और कच्चा बंग प्रमेह, गुल्म, हृद्रोग,
शूल, अश, कास, श्वास और वमन आदि रोगोंको वङ्गं तिक्तोष्णरूक्षं कफकृमि
| उत्पन्न करता है। वमिजिन्मेहमेदोनिलघ्नम् कासश्वासक्षयातिप्रशमित
वङ्गभस्मानुपानानि हुतभुग्मान्धमाध्मानदारि। कर्पूरसार्द्ध मुखगन्धनाशं जातीफलैः पुष्टिकरं वल्यं वृष्याङ्गभाकृन्मनसिज
नराणाम् ।
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७०२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
तुलसीपत्रसंयुक्तं प्रमेह नाशयेद्धवम् ॥ वंग भस्मको पीपलके चूर्णके साथ सेवन करघृतेन पाण्डुरोगं च टङ्कणैगुल्मनाशनम् । नेसे अग्निमांद्य, हल्दीके चूर्णके साथ सेवन करनेसे हरिद्रया रक्तपित्तनी मधुना बलबुद्धिकृत् ॥ ऊर्ध्व श्वास; चम्पाके फूलोंके स्वरसके साथ सेवन पिप्पल्या चाग्निमान्यत्वं निशया चोर्ध्वश्वासहृत करनेसे शरीरकी दुर्गन्धि और नीमके पत्तोंके रसके चम्पकस्वरसेनैव दुर्गन्धिं नाशयेद् ध्रुवम् ॥ साथ खानेसे दाहका नाश होता है । निम्बकस्वरसेनाढयं देहे दहनशान्तये ।। वीर्यस्तम्भनके लिये वंग भस्ममें कस्तूरी कस्तूरी वङ्गसंयुक्तं भक्षणाद्वीर्य रोधकृत् ॥ मिला कर सेवन करना चाहिये । खदिरक्वाथयोगेन चर्मरोगान् जयेदसौ।।
यदि वंग भस्मको खैरके काथके साथ सेवन पूगीफलस्य सार्द्धनाजीर्ण नाशयते क्षणात् ।।
किया जाय तो चर्म रोगोंका और सुपारीके चूर्णके दुग्धसार्द्धं भवेत्तुष्टिविजया स्तम्भनं भवेत् ।
साथ खानेसे अजीर्णका नाश होता है। लशुनैर्वातजा पीडां नाशयेनात्र संशयः ।।
दूधके साथ वंग भस्म सेवन करनेसे तुष्टि समुद्रफलसंयोगानिर्गुण्डया सह भक्षणात् ।
प्राप्त होती है; भांगके साथ सेवन करनेसे वीर्यस्तकुष्ठं नाशयते क्षिप्रं सिंहनादे मृगा इव ॥
म्भन होता है। देवपुष्पस्य संयोगे समुद्रफलयोगतः।
यदि वंग भस्मको ल्हसनके कल्कके साथ नागपत्ररसैर्लेप्याल्लिङ्गटद्धि प्रजायते ॥ कौब्जेऽपामार्गमूलेन प्लीहे टङ्कणसंयुतम् ।
खाया जाय तो वातज पीड़ा अवश्य नष्ट हो
जाती है। रसोनतैलयुनस्यमपस्मारनिषूदनम् ॥ यवानिकायुतं वाते वाजिगन्धा युतं तु वा ।
समुद्रफलके चूर्णमें वंगभस्म मिला कर संभालुके जलोदरे त्वजाक्षीरसंयुतं गुणकृद्भवेत् ॥
रसके साथ सेवन करनेसे कुष्ठ अत्यन्त शीघ्र जातीफलाश्वगन्धाभ्यां कटिपीडानिवारणम्॥ नष्ट हो जाता है ।।
___वंग भस्म, लौंगका चूर्ण और समुद्र फलका वंग भस्म कपूरके साथ सेवन करनेसे मुखकी
चूर्ण समान भाग ले कर तीनोंको एकत्र मिला कर दुर्गन्धको नष्ट करती है; जायफलके साथ देनेसे
पानके रसमें घोट कर लेप करनेसे लिङ्ग वृद्धि शरीरको पुष्ट करती है; तुलसी पत्रके साथ देनेसे
साथ देनेसे | होती है। प्रमेहको; घृतके साथ पाण्डुको; सुहागेके साथ
___वंग भस्मको कुजतामें अपामार्गकी जड़के गुल्मको और हल्दीके साथ सेवन करनेसे रक्त
साथ; प्लीहावृद्धिमें सुहागेके साथ; वातव्याधिमें पित्तको नष्ट करती है।
अजवायन या असगन्धके साथ; जलोदरमें बकरीके इसे शहदके साथ सेवन किया जाय तो बल दूधके साथ और कमरके दर्दमें जायफल तथा बुद्धिकी वृद्धि होती है।
असगन्धके चूर्णके साथ सेवन करना चाहिये ।
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रसप्रकरणम्
चतुर्थो भागः
७०३
यदि ल्हसनके स्वरससे सिद्ध तेलके साथ | शालयो मुद्गसूपं च नवनीतं तिलोद्भवम् । वंग भस्म मिला कर नस्य ली जाय तो अपस्मार पटोलं तिक्ततुण्डीरं तर्क पथ्याय शस्यते ॥ नष्ट हो जाता है।
___वंग भस्म, कान्त लोह भस्म और अभ्रक (६९०६) वङ्गयोगः
भस्म १-१ भाग ले कर सबको एकत्र खरल करके ( रसे. सा. सं । प्रमेहा. ; र. चं.)
| धतूरे, नीमके पत्ते, अनार और अपामार्ग (चिर
चिटे ) के रसकी १-१ भावना दे कर सुखा लें। वङ्गाभ्रमथ नागाभं नाग वङ्गश्च केवलम् ।
तदनन्तर उसमें उसके बराबर राजावर्त भस्म मिला मेहरोगे प्रयोक्तव्यं शिलाजतु समन्वितम् ॥
लाजतु समान्वतम् ।। कर गोमूत्र, शिलाजीतके पानी और गूगलके पानीमें वंग भस्म, अभ्रक भस्म और शिलाजीत;
पृथक् पृथक् ८-८ दिन खरल करें और उसे अथवा, नागभस्म, अभ्रक भस्म और शिलाजीत; सुखा कर उसमें उसके बराबर नाकुलीकन्दके अथवा नाग भस्म और शिलाजीत या वंग भस्म बीजोंका चूर्ण मिला कर पीत शाल (विजय सार)
और शिलाजीत सेवन करनेसे प्रमेह रोग नष्ट | के रसमें खरल करके, सुखा कर कपड़ेसे छानकर होता है।
शीशीमें भर लें। (मात्रा-३ रत्ती ।)
हल्दीके सतको गोतक्रमें पीस कर उसके साथ (६९०७) वङ्गरसायनम् । १२ रत्तीकी मात्रानुसार यह रसायन सेवन करनेसे ( र. र. स. । पू. अ. ५)
२० प्रकारके प्रमेह अवश्य नष्ट हो जाते हैं। वङ्गभस्मसमं कान्तं व्योमभस्म च तत्समम् । पथ्य -शाली चावल, मूंगकी दाल, नवनीत, मर्दयेत्कनकाम्भोमिनिम्बपत्ररसैरपि ॥ तिलका तेल, पटोल, कड़वी कन्दूरी और तक्र । दाडिमस्य मयूरस्य रसेन च पृथक् पृथक् । ( व्यवहारिक मात्रा--४ रत्ती ) भूपालावर्तभस्माथ ।वनिक्षिप्य समांशकम् ।। गोमूत्रकशिलाधातुजलैः सम्यग्विमर्दयेत् ।।
(६९०८) वङ्गविकारशमनोपायः ततो गुग्गुलुतोयेन मर्दयित्वा दिनाष्टकम् ।।
( र. रा. सु.) विशोष्य परिचूाथ समभागेन योजयेत् ।
मेषशृङ्गीसितायुक्तां यः सेवति दिनत्रयम् । घृष्टं बन्धुकनिर्यासैर्नाकुलीषीजचूर्णकैः॥ ततः क्षिपेत्करण्डान्तविधाय पटगालितम् ।
वङ्गदोष विमुक्तोसौ सुखं जीवति मानवः॥ गोतक्रपिष्टरजनीसारेण सह पाययेत् ॥ ____ मेढासिंगीका चूर्ण और मिश्री एकत्र मिला चतुभिर्वल्लकैस्तुल्यं रम्यं वगरसायनम् । | कर ३ दिन सेवन करनेसे वंग सेवनसे उत्पन्न निश्चितं तेन नश्यन्ति मेहा विंशतिभेदकाः॥ विकार नष्ट हो जाते हैं।
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७०४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि ___ (६९०९) वङ्गशोधनम् (१) मेहाश्मरीविद्रधिमुष्करोगा(र. र. स. । पू. अ. ५ ; र. रा. सु.)
___ मागोऽपि कुर्यात्कथितान्विकारान् ॥
| वङ्गनागौ प्रतप्तौ च गलितौ तौ निषेचयेत् । खुरकं मिश्रकं चेति द्विविधं वङ्गमुच्यते ।
| त्रिधात्रिधा विशुद्धिः स्याद्रविदुग्वेऽपि च त्रिधा। खुरं तत्र गुणः श्रेष्ठं मिश्रकं न हितं मतम् ॥
___अशुद्ध वंगकी भस्म सेवन करनेसे आक्षेपक, धवलं मृदुलं स्निग्धं तद्रावं सगौरवम् ।
कम्प, किलास, गुल्म, कुष्ठ, शूल, वातव्याधि, निःशब्दं खुरवङ्गं स्यान्मिश्रकं श्यामशुभ्रकम् ॥
शोथ, पाण्डु, प्रमेह, भगन्दर, रक्त विकार, विष द्रावयित्वा निशायुक्ते क्षिप्ते निर्गुण्डिकारसे ।
समान उपद्रव, क्षय, कफ ज्वर, अश्मरि, विद्रधि विशुद्धयति त्रिवारेण खुरवङ्गं न संशयः ॥
और मुष्क ( अण्डकोष ) सम्बन्धी रोग उत्पन्न होते वंग दो प्रकारको होती है; एक खुरक हैं। अशुद्ध नाग भस्मसे भी यही रोग उत्पन्न होते ( हिरनखुरी) और दूसरी मिश्रक । इन दोनोंमें | हैं अतः वंग अथवा नागको शुद्ध किये बिना इनकी खुरवंग श्रेष्ठ होती है और मिश्रक त्याज्य । भस्म कदापि न बनानी चाहिये ।
खुरवंग रंगमें सफेद, कोमल, स्निग्ध, जल्दी वंग और नागको तपा तपा कर ( गला गला गल जाने वाली, भारी और शब्द रहित होती है। कर ) ( तेल, तक्र, गोमूत्र, कांजी और कुलथीके मिश्रक वंगका रंग स्याही लिये हुवे सफेद | काथमें ३-३ बार बुझानेके पश्चात् ) ३ बार होता है।
| आकके दूधमें बुझानेसे वह शुद्ध हो जाती है। खुरवङ्गको (तैल, तक्रादिमें बुझानेके प
(६९११) वङ्गावलेहः ३चात् ) गला, गला कर हल्दीका चूर्ण मिले | ( रसे. सा. सं. । प्रमेहा. ; रसे. चि. म. | अ. ९; हुवे संभालके रसमें ३ बार बुझानेसे वह शुद्ध हो |
र. का. धे. ; र. रा. सु. ; धन्व. । प्रमेहा.) जाती है।
वङ्गभस्म द्विवल्लञ्च लेहयेन्मधुना सह । (६९१०) वङ्गशोधनम् (२)
ततो गुडसमं गन्धं भक्षयेत्कर्षमात्रकम् ॥ ( भा. प्र. । पू. ख १) गुडूचीसत्त्वमथ वा शर्करासहितं तथा। वङ्गं विधत्ते खलुशुद्धिहीन
सर्वमेहहरो ज्ञेयो वङ्गावलेह उत्तमः ॥ माक्षेपकम्पौ च किलासगुल्मौ । ६ रत्ती ( आजकल २ रत्ती ) वंग भरमको कुष्ठानि शूलं किल वातशोथं शहदके साथ चाट कर १। तोला ( व्य. मात्रा २
पाण्डं प्रमेहश्च भगन्दरश्च ॥ रत्ती ) शुद्ध गंधकको गुड़में मिला कर खाने या विषोपमं रक्तविकारवृन्दं
गिलोयके सतको खांडमें मिला कर खानेसे समस्त क्षयश्च कृच्छ्राणि कफज्वरश्च । । प्रकारके प्रमेह नष्ट होते हैं।
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स्सप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
(६९१२) वङ्गाष्टकम्
(६९१३) वङ्गेश्वररसः (१) (भै. र. । प्रमेहा.)
(र. रा. सु. । प्रमेहा.) रसं गन्धं मृतं लौहं मृतरूप्यञ्च खर्परम् ।। शुद्ध तालं शुद्धमूतं वङ्गं गन्धकशुद्धकम् । मृताभ्रकं मृतं ताम्र सर्वतुल्यश्च वङ्गकम् ॥
ग्राहयेत्समभागानि अर्कक्षीरे विमर्दयेत् ॥ पुटे लघुपुटे विद्वान् स्वागशीतं समुद्धरेत् । दिनसप्तकपयन्त मदेयेच्च निरन्तरम् । रक्तिद्वयप्रमाणेन मधुना लेहयेन्नरम् ॥
काचकुप्यां क्षिपेन्मुद्रां दत्त्वा चैव भिषग्वरः ।। निशाचूर्ण क्षौद्रयुतं पिबेद्धात्रीरसं ह्यनु ।।
द्वादशप्रहरं देयं मन्दाग्निं च न संशयः । वङ्गाष्टकमिदं ख्यातं महादेवप्रकाशितम् ॥
पुनरेव प्रकर्तव्यो विधिरेष न संशयः ।। प्रमेहान् विशति हन्ति आमदोषं विचिकाम। रसो ग्राह्यो प्रयत्नेन रक्तिका? प्रदीयते । विषमज्वरगुल्मा मूत्रातिसारपित्तजित् ॥
ताम्बूलपत्रसंयुक्तं वातव्याधि विनाशयेत् ।। वीर्यद्धिं करोत्याशु सोमरोगनिबर्हणम् ॥
| उन्मादे नष्टशुक्रे च अग्निहीने च दीयते ।
कुष्ठं व्रणं ज्वरं चैव नाशयेच्च किमदभुतम् ।। शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, लोह भस्म, चांदी भस्म, खपरिया, अभ्रक भस्म और ताम्र भस्म
शुद्ध हरताल, शुद्ध पारद, वंग भस्म और १-१ भाग तथा वंग भस्म ७ भाग ले कर प्रथम
शुद्ध गंधक समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धकपारे गंधककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य
की कज्जली बनावें और फिर सबको एकत्र मिला ओषधियां मिला कर खरल करके सबको शराव
कर सात दिन तक आकके दूधमें घोट कर कपर
मिट्टी की हुई आतशी शीशीमें भर कर उसका मुख सम्पुट में बन्द करके लघुपुटमें पकायें और फिर उसके स्वांग शीतल होने पर निकाल कर पीस कर
बन्द करके ( वालुका यन्त्रमें रख कर ) १२ पहर सुरक्षित रक्खें।
मन्दाग्नि पर पकावें । तदनन्तर उसके स्वांग शीतल
होने पर औषधको निकाल कर पीस कर पुनः मात्रा--२ रत्ती।
आकके दूधमें ७ दिन खरल करके उपरोक्त विधिसे इसे शहदमें मिला कर चाटनेके बाद (३
१२ पहर पाक करें । तत्पश्चात् औषधको निकाल माशे ) हल्दीका चर्ण शहदमें मिला कर चाटना
कर पीस कर सुरक्षित रक्खें । चाहिये और फिर आमलेका रस पीना चाहिये । मात्रा--आधी रत्ती ।
इसके सेवनसे बीस प्रकारके प्रमेह, आमदोष, इसे पानमें रख कर खानेसे वात व्याधि, विषूचिका, विषमज्वर, गुल्म, अर्श, मूत्रातिसार, पित्त । उन्माद, शुक्रहास, अग्निमांद्य, कुष्ठ, बण और और सोमरोगका नाश तथा वीर्यवृद्धि होती है। ज्वरका नाश होता है।
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७०६ भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[वकारादि (६९१४) वङ्गेश्वररसः (२) यह निर्बल कामी पुरुषों में बलकी वृद्धि (बृ. नि. र. । प्रमेहा.)
करता है। शुद्धसूतं समं गन्धं वङ्गं च द्विगुणं भवेत् ।
___ ( मात्रा-१ रत्ती । ) एकत्र मर्दयेत्सर्वं वल्लमेकं प्रमेहिणाम् ॥
(६९१६) बङ्गेश्वररसः (४) शर्करामधुसंयुक्तं पथ्यं च क्षारवर्जितम् । (रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. । शोथा. ; र. एष वङ्गेश्वरो नाम सर्वमेहनिकृन्तनः ॥
| र. स. । उ. अ. १८; रसे. चि. म. । अ. ९; ___ शुद्ध पारद और गंधक १-१ भाग तथा वंग
र. का. घे. । उदररो. ; र. म. ; वृ. यो. त.। भस्म २ भाग ले कर सबको एकत्र खरल करके
त. ९८, १०५ ; धन्व. । शोथा. ; र. र. । कज्जली बनावें ।
यकृत्प्ली.) मात्रा--३ रत्ती।
| सूतभस्म वभस्म भागैकैकं प्रकल्पयेत् । इसके सेवनसे समस्त प्रकारके प्रमेह नष्ट होते हैं।
| गन्धर्क मृतताम्रश्च प्रत्येकञ्च चतुर्गुणम् ॥
अर्कक्षीरैदिनं मध सर्वन्तद्गोलकी कृतम् । इसे खांड और शहदमें मिला कर सेवन करना
रुद्ध्वा तु भूधरे पक्त्वा पुटैकेन समुद्धरेत् ॥ तथा लवण रहित पथ्य आहार करना चाहिये । एष वङ्गेश्वरो नाम्ना प्लीहगुल्मोदराञ्जयेत् । (६९१५) वङ्गेश्वररसः (३)
| घृतैर्गुआद्वयं लिह्यानिष्का श्वेतपुनर्नवाम् ॥ ( र. चि. म. । स्तबक ११)
| गवां मूत्रैः पिबेच्चानु रजनीं वा गवां जलैः ।।
रस सिन्दूर और वंग भस्म १-१ भाग और भागचतुष्क वङ्गं मृतं हि शङ्ख रसं विभागकम् । पृथग् द्विकं हरितालं कामिकपिष्टं शरावसम्पु
शुद्ध गन्धक तथा ताम्र भस्म ४-४ भाग ले कर टके ॥
सबको एक दिन आकके दूधमें घोट कर गोला पुटेद्गजाख्ये यन्त्रे बङ्गेश्वरनामतः प्रसिद्धरसः ।।
बनावें और उसे सुखा कर यथा विधि भूधर पुटमें वङ्गेश्वरोऽयमबले बलदो नृणां हि रसिकानाम्। वंग भस्म ४ भाग, शंख भस्म और रस
यह रस प्लीहा, गुल्म और उदर रोगको नष्ट सिन्दूर १-१ भाग तथा शुद्ध हरताल २ भाग ले | करता है। कर सबको कांजीमें घोट कर टिकिया बना कर इसे २ रत्ती मात्रानुसार घीमें मिलाकर चाटना सुखा लें और विधि पूर्वक शरावसम्पुटमें बन्द करके और बादको ३॥ माशे सफेद पुनर्नवाकी जड़ या गजपुटमें फूंक दें।
हल्दीको पीस कर गोमूत्रके साथ पीना चाहिये।
पकावें।
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रसमकरणम् ]
चतुर्यों भागः
७०७
(६९१७) वङ्गश्वररसः (५)
नीरं तु सन्त्यज्य गृहाण मूतम् । (रे. चं. । प्रमेहा. ; वैद्या.)
तबल्लयुग्मं मधुना समेतं समानभागे शुचिताम्रवङ्गे
___ ददीत पथ्यं मधुरं समुद्गम् ॥
बिल्वोत्थपिण्डं च विपाच्यतके तयोः समानं लवणं प्रसिद्धम् ।
ददीत हिङ्गु दधिवर्जयेच्च । शरावयोः स्थाप्य विधाय मुद्रां
वङ्गं विना रसभस्मेदं लवणस्याददेत्पुटं तस्य गजाभिधेयम् ॥
। विंशतिभागः सर्वरोगोपकारकम् ।। ततो भवेद्भस्म विशेषसौम्यं ___ यथानुपानं ननु सेवनीयम् ।
१ भाग शुद्ध पारद और २ भाग शुद्ध वंग समस्तमेहान्तकमग्निदायि
ले कर प्रथम वंगको पिघला कर उसमें पारद कासापहारि श्वसनापहारि ॥
मिलावें और फिर उसमें २० वा भाग सामुद्र लवण
मिला कर सबको कांजीमें घोट कर टिकिया बना शुक्रस्य दाढर्थप्रविधानदक्षं
कर सुखा लें और उन्हें शरावसम्पुट में बन्द करके प्रमत्तनारी सुखदानबीजम् । इदं हि तत्वं जटिलस्य सेवां
गज पुटमें पकावें । ( जब तक भस्म तैयार न हो
इसी प्रकार पुट देते रहें।) विधाय वैद्येन मया प्रलब्धम् ॥
तदनन्तर उसे पानीमें घोल कर थोड़ी देर ताम्र भस्म और वंग भस्म १-१ भाग तथा | रक्खा रहने दें। जब भस्म नीचे बैठ जाय तो सेंधा नमक २ भाग ले कर तीनोंको एकत्र घोट | ऊपरसे पानीको नितार दें । इसी प्रकार कई वार कर शराव सम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें पकार्वे । | धो कर सम्पूर्ण नमक निकाल दें और भस्मको - इसे यथोचित अनुपानके साथ देनेसे समस्त
सुखा
रक्खें । प्रकारके प्रमेह, अग्निमांद्य, कास और श्वासका नाश इसे ४ रत्ती मात्रानुसार शहदके साथ सेवन होता तथा वीर्य और कामशक्तिकी वृद्धि होती है। करनेसे प्रमेह नष्ट होता है। (६९१८) बङ्गेश्वररसः (६)
औषध खानेके पश्चात् बेलगिरीके कल्कको
तक्रमें पका कर खाना चाहिये । (रसे. चि. म. । अ. ९ ; र. का. धे.। प्रमेहा.)
इस पर मूंगका यूष और मधुर रसयुक्त आहार रसेन वङ्गं द्विगुणं प्रगृह्य
देना चाहिये । तथा हींग और दहीसे परहेज़ विद्राव्य निक्षिप्य समुद्रजश्च । करना चाहिये। विमई येदम्लजलेन गोलं
(६९१९) वनेश्वररसः (७) कृत्वा सुसंवेष्टय पुटेत तीब्रम् ॥
( यो. र.। वाजीकरणा.) ततः क्षिपेत् तज्जलपात्रमध्ये .. रसं वङ्गं समं कृत्वा चतुर्भागं च गन्धकम् ।
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७०८
भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[वकारादि
D
कुमारीरससंयुक्तं दिनमेकं तु मर्दयेत् ॥ मधुमेह, शुक्रहास और गुप्त इन्द्रीकी शिथिलता मन्दमध्यतोब्राग्नौ वालुकायन्त्रगं पचेत् । आदि रोगोंका नाश होता है । अश्वगन्धामृतासारमोचारसशतावरीः ॥ इस पर लवण और अम्ल पदार्थोंसे परहेज़ गोक्षुरधात्री कूष्माण्डी वाराहीपत्रमागधी । | करना चाहिये । त्रिफलाकर्कटीमुस्तायष्टीमधुसमन्वितम् ।। ___ ( व्यवहारिक मात्रा-२ रत्ती । ) सर्वसाम्यसितायुक्तं चूर्ण कर्षाधसंयुतम् ।
(६९२०) वनेश्वररसः (८) गुआचतुष्टयां मात्रां गोक्षीरमनुपानतः ॥
(यो. र. । प्रमेहा. ; नपुंसका. । त. ७; वृ. प्रातरुत्थाय सेवेत लवणाम्लं च वर्जयेत् ।
नि. र. । प्रमेहा.) बहुमूत्रं मूत्रकृच्छू रक्तमूत्रप्रमेहकम् ॥
वर्ष कान्तं च गगनं हेमपुष्पं समं समम् । मधुमेहं नष्टशुक्रं नष्टलिङ्गं च नाशयेत् ।।
कुमारीरसतो भाव्यं सप्तवारं भिषग्वरैः॥ सर्वमेहप्रशमनो वङ्गेश्वर इति स्मृतः ।।
एष वङ्गेश्वरो नाम प्रमेहाविंशतिं जयेत् । (१) शुद्ध पारद और वंग भस्म १-१ भाग | मूत्रकृच्छं सोमरोगं पाण्डुरोग महाश्मरीम् ॥ तथा शुद्ध गन्धक ४ भाग ले कर कञ्जली बना रसायनमिदं श्रेष्ठं नागार्जुन विनिर्मितम् ॥: कर उसे १ दिन घृतकुमारीके रसमें घोट कर सुखा ___वंग भस्म, कान्त लोह भस्म, अभ्रक भस्म लें और कपरमिट्टी की हुई आतशी शीशीमें भर कर और धतूरेके फूलोंका चूर्ण समान भाग ले कर उसे बालुका यन्त्रमें रख कर क्रमशः मृदु मध्यम और सबको घृत कुमारीके रसकी सात भावना दे कर तीवाग्नि दें । तदनन्तर यन्त्रके स्वांग शीतल होने (१-१ रत्तीकी) गोलियां बना लें। पर उसमेंसे औषधको निकाल कर पीस कर सुर- इनके सेवनसे २० प्रकारके प्रमेह, मूत्रकृच्छ, क्षित रक्खें ।
सोम रोग, पाण्डु रोग और अश्मरीका नाश (२) असगन्ध, गिलोयका सत, मोचरस,
| होता है। शतावर, गोखरु, आमला, कुम्हड़ा (पेठा), बाराही. वङ्गेश्वररसः (९) (लघु) कन्द, तेजपात, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, संभल
(वङ्गभस्मयोगः) के फल, नागरमोथा और मुलैठीका चूर्ण १-१
(धन्व. ; र. र. ; भै. र. ; र. चं. । भाग तथा मिश्री सबके बराबर ले कर सबको एकत्र
प्रमेहा. ; यो. त.। त. ५१ ; वृ. यो. त. । त. मिला कर रक्खें।
१०३ ; रसे. चि. म. ; र. रा. सु. । प्रमेहा. ; प्रातः काल ४ रत्ती उपरोक्त रस और ७॥ नपुसका. । त. ७) माशे यह चर्ण गोदुग्धके साथ सेवन करनेसे बहु- प्र. सं. ५६७९ " मेहानलो रसः " (मेहारि मूत्र, मूत्रकृच्छ्, मूत्रके साथ रक्त आना, प्रमेह, रसः) (१) देखिये ।
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रसप्रकरणम् ] चतुर्थों भागः
७०९ (६९२१) वङ्गेश्वररसः (१०) (वृहद) हलीमक, रक्तपित्त, वात पित्त और कफ जन्य ( रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. ; र. चं. ; भै. र. ।
ग्रहणी रोग, आमदोष, अग्निमांद्य, अरुचि, सोमरोग, प्रमेहा. ; रसे. चि. म.। अ. ९ ; धन्व । प्रमेहा.)
बहुमूत्र, अनेक प्रकारका मूत्रमेह, मूत्रातिसार और
| मूत्रकृच्छू आदि रोगोंका नाश होता तथा क्षीण वङ्गभस्मरसं गन्धं रौप्यं कर्पूरमभ्रकम् ।
पुरुष पुष्ट हो जाते हैं। कर्ष कर्ष मानमेषां मूताघ्रिममौक्तिकम् ॥
यह रस ओज, तेज, कामशक्ति, बल, वर्ण, केशराजरसैर्भाव्यं द्विगुनाफलमानतः ।
रुचि और शुक्रकी वृद्धि करता है। प्रमेहान्विंशतिश्चैव साध्यासाध्यमथापि वा ॥ मूत्रकृच्छं तथा पाण्डं धातुस्थश्च ज्वरं जयेत् ।
अनुपान-औषध खानेके पश्चात् दोषोंके हलीमकं रक्तपित्तं वातपित्तकफोद्भवम् ॥
अनुसार बकरी या गायका दूध अथवा निर्मल दही ग्रहणीमामदोषश्च मन्दाग्नित्वमरोचकम् ।।
पीना चाहिये । एतान्सानिहन्त्याशु वृक्षमिन्द्राशनियथा ॥ यह औषध बालकसे ले कर प्रौढ़ मनुष्यों वृहद्धङ्गेश्वरीनाम सोमरोग निहन्त्यलम् । | तकको सेवन कराई जा सकती है । बहुमूत्रं बहुविधं मूत्रमेहं सुदारुणम् ॥
(६९२२) वनेश्वररसः (११) मूत्रातिसारं कृच्छश्च क्षीणानां पुष्टिवर्द्धनः ।
(भैर. । प्रमेहा.) ओजस्तेजस्करो नित्यं स्त्रीषु सम्यग्वषायते ॥
सूतं गन्धं मृतं लौहं मृतमभ्रं समांशिकम् । बलवर्णकरो रुच्यः शुक्रसअननः परः।
हेम वङ्गश्च मुक्ता च ताप्यमेवं समं समम् ।। छागं वा यदि गव्यं पयो वा दधि निर्मलम् ॥
२" सर्वेषां चूर्णितं कृत्वा कन्यारसविमर्दितम् । अनुपानं प्रयोक्तव्यं बुद्धा दोषगति भिषक् ।। दद्याच्च बाले प्रौढे च सेवनाथै रसायनम् ॥
गुञ्जाद्वयप्रमाणेन वटिकां कुरु यत्नतः॥
तद्वङ्गेश्वरो ह्येष रक्तमत्रे प्रशस्यते । वंग भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, चांदी | श्वेतमूत्र बृहन्मूत्रं कृच्छमूत्रं तथैव च ॥ भस्म, कपूर और अभ्रक भस्म १-१। तोला तथा | सर्वप्रकारमेहांस्त नाशयेदविकल्पतः। स्वर्ण भस्म और मोती भस्म पौने चार चार माशे अग्निवृद्धि वयोवृद्धि कान्तिवृद्धिं करोति च ॥ ले कर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और क्षयरोग निहन्त्याशु कासं पञ्चविधं तथा। . फिर उसमें अन्य औषधे मिला कर सबको भंगरेके कुष्ठमष्टादशविधं पाण्डुरोगं हलीमकम् ।। रसमें खरल करके २-२ रत्तीकी गोलियां
शूलं श्वासं ज्वरं हिक्कां मन्दाग्नित्वमरोचकम् । बना लें।
क्रमेण शीलितो हन्ति वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥ इनके सेवनसे साध्य अथवा असाध्य २० शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, लोह भस्म, अभ्रक प्रकारके प्रमेह, मूत्रकृच्छू, पाण्डु, धातुस्थ ज्वर, । भस्म, स्वर्ण भस्म, बंग भस्म, मोती भस्म और
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
स्वर्ण माक्षिक भस्म समान भाग ले कर प्रथम पारे | अष्टांशां विजयां शुद्धां सितां सर्वसमां क्षिपेत् ॥ गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य | गुटिका मधुसर्पिभ्यां कर्षमात्रा विधीयते । ओषधियां मिला कर सबको घृतकुमारीके रसमें प्रभाते वाऽथ मध्या संध्यायां वा विशेषतः ॥ घोट कर २-२ रत्तीकी गोलियां बना लें। एकां खादेदनु पिबेत्पयः शर्करया युतम् ।
यह रस रक्तमूत्रमें अत्यन्त उपयोगी है। बलवृद्धिमवाप्नोति रेतोवृद्धिं विशेषतः ॥ इसके सेवनसे श्वेत मूत्र ( उदकमेह ), मूत्राति- | रेतःस्तम्भं वयःस्तम्भं वलीपलितनाशनम् । सार, मूत्रकृच्छू, प्रमेह, क्षय, पांच प्रकारका कास, | क्षण्यवरातिसारांश्च ग्रहणीं नाशयेदपि ॥ १८ प्रकारका कुष्ठ, पाण्डु, हलीमक, शूल, श्वास, | नारीवश्यकरं चैव नारीद्रवकरं तथा।। ज्वर, हिचकी, अग्निमांद्य और अरुचिका नाश होता | कान्तिदं प्रतिभादं च बुद्धिमेधाविवर्धनम् ॥ तथा अग्नि आयु और कान्तिकी वृद्धि होती है। . | संवत्सरप्रयोगेण सर्वव्याधिविनाशनम् ॥ वङ्गेश्वररसः (१२)
वंग भस्म, लोह भस्म, कस्तूरी, केसर, अभ्रक
भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध हिंगुल, शुद्ध गन्धक, रूमी ( र. चं. ; यो. र. ; वृ. नि. र. । प्रमेहा.)
मस्तगी, अफीम, कबाबचीनी, जावित्री, जायफल, प्र. सं. ६०६० "रस चण्डांशु" देखिये ।।
दारचीनी, चिरौंजी, सेांठ, कौंचके बीज, खरैटीके (६९२३) वनेश्वरादिवटी
बीज (बीजबन्द), बंसलोचन, कपूर, लौंग, पीपल, (वृ. यो. त. । त. १४७) अकरकरा, सीसा भस्म, पान, नागकेसर, नागरवज मृतं मृतं लोहं मृगनाभिश्च कुङ्कुमम् । | मोथा, चीता, चन्दन, चव्य, कचूर, काली मिर्च, अभ्रकं पारदश्चैव हिङ्गुलुर्गन्धकस्तथा ॥ तेजपात, मुलैठी, सेंभलकी छाल, कायफल, पुनर्नवामस्तकी नागफेनश्च कवाबाजातिपत्रकम् । की जड़, मूसली, क्षीरविदारी, शतावर, पीपल, जातीफलं च त्वक्चारं शुण्ठीमर्कटिबीजकम् ॥ असगन्ध, धतूरेके बीज, जटामांसी, मोचरस, बला तुगा च कपॅरो लवङ्गं पिप्पली तथा।। | खरैटीकी जड़, भंगरा, गोखरु, कंकोल, अजवायन आकल्लकरभश्चैव नागो भुजगवल्लरी ॥
और समन्दर सोखके बीज; इनका चूर्ण १-१ नागकेसरमुस्ताग्नि चन्दनं चव्यकं शठी ! भाग, शुद्ध भांगका चूर्ण सबका अष्टमांश और मरिचं पत्रकं यष्टी शाल्मलीत्वक् च कट्फलम्।। खांड सबके बराबर ले कर सबको शहद और घीमें वर्षाभूर्मुसली चैव क्षीरकन्दः शतावरी। घोट कर १०-११ तोलेकी गुटिका बना लें । कृष्णाश्वगन्धा कनकं मांसी मोचरसो बला ॥ इन्हें सुबह, दोपहर या शामको मिश्री मिले भृङ्गराजश्च गोकण्टः कङ्कोलः सयवानिकः। | हुए दूधके साथ सेवन करना चाहिये। समुद्रशोषबीजानि त्रिपञ्चाशद्भिरौषधैः ॥ इनके सेवनसे बल, वीर्यकी वृद्धि होती है; योजयेत्समभागैश्च सूक्ष्मचूर्णीकृतैर्भिषक् । वीर्यस्तम्भन होता और आयु स्थिर रहती है तथा
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रसप्रकरणम्
चतुर्थों भागः
७११
बलि, पलित, क्षीणता, ज्वर, अतिसार और | प्रहणीका नाश होता है।
इसके सेवनसे स्त्रियां वशीभूत हो जाती हैं और कान्ति प्रतिभा बुद्धि तथा मेधाकी वृद्धि होती है।
यह स्त्री द्रावक भी है यदि इसे एक वर्ष तक सेवन किया जाय तो शरीर समस्त रोगोंसे मुक्त हो जाता है। ... ( व्यवहारिक मात्रा-२-३ माशे । )
(६९२४) वचादिवटी
( वृ. नि. र. । शूला.) वचाविश्वाजीरोषणगरलबाल्हीक दहनत्वचा
कार्या वयश्चणतुलिता मार्कवरसैः । यथा भानो सस्तिमिरनिकर कामिनि तथा हरन्त्येताः शूलान्यनिलमनलं ग्लानि
मपि च ॥ बच, सांठ, जीरा, काली मिर्च, शुद्ध बछनाग, हींग, चीता और दालचीनी; इनके समान भाग चूर्णको एकत्र मिला कर भंगरेके रसमें घोट कर चनेके बराबर गोलिया बना लें।
इनके सेवनसे शूल, वायु, और अग्निमांधका नाश होता है।
(६९२५) वज्रकगुटिका (१)
(ग. नि. । गुटिका. ४) शैलस्य धातो रजसां शिलाभ्यः ।
सूर्यप्रतापाज्जतु संनिकाशम् ।
कृष्णं स्रवेन्मूत्रसमानगन्धि
शिलाजतु प्राज्ञतमास्तमाहुः ॥ रूप्यादिधातोर्गलितं दृषद्भय
— स्तेभ्यः प्रशस्तं प्रवदन्ति पूर्वम् । विशोधयेत्तत्सुदिने सुपूते
द्विपश्चमूली सलिले कटाहे ॥ लौहे समालोडय दिवाकरस्य
संतापनं रश्मिभिरेव कुर्यात् । प्रणीततापात्सरवद्गृहीत्वा
पुनः पुनस्तप्तमथोद्धरेच ।। तावत्पदेयं सलिलं क्रमेण
गाढस्य संदर्शनमेव यावत् । सावच्छिलाजत्वभिसनिविष्टं
समुद्धृतं यावदशेषतश्च ॥ अष्टौ पलानस्य विशोधितस्य
ततः क्रमाद्भावयितुं यतेत । द्विपश्चमूल्यौ चिरबिल्वमुस्ता
पटोलनिम्बत्रिफलाः पलांशाः ॥ सपिप्पलीरोहिणिजीरकं च
द्रोणेऽम्भसस्तान्द्विपलान्यथोक्तान् । प्रकाथ्य चैवाष्टमभागशेष ___ तस्मात्सृजेद्भावनमल्पमल्पम् ॥ पात्रेऽथ लौहे परिशोषयेत्तत्
पुनः पुनर्भावितमेव यावत् । पलद्वयं मागधिकर्कटाख्ये
चूर्णीकृते लोहरजासमांशे ॥ . पलं बृहत्याः सनिदिग्धिकायाः सितोपलामष्टपलोन्मितां तु । ..
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
पलत्रयं वेणुजरोचनाया मधुयं तद्विनिवेश कृत्वा ॥ त्रिषष्टिसंख्यान्वटका विधिज्ञः खादेत्रावारिपयोनुपानात् । तैस्तथाभुक्तवति प्रदेया
गार्दिते निष्परिहारिणी च ॥ कुष्ठोदरश्वासगलामयांच भगन्दरान्मूत्रविबन्धगुल्मान् । यक्ष्माणमशसि सकासहिक्कां
giri च हन्याद्विषमज्वरांश्च ॥ दीप्तिं परमां करोति aar हन्यात्पलितानि चैत्र । सेव्या त्वियं वज्रकनामधेया
मुनिप्रदिष्टा वटिका प्रधाना || वर्ज्याः कुलत्थाश्च सकाकमाच्यः
कपोतमांस च सदा प्रयोगे ||
सूर्य के प्रखर तापसे पिघलकर पर्वतों से लाख समान जो पदार्थ निकलता है उसे शिलाजीत कहते हैं । इसका रंग काला होता है और इसमें गोमूत्र के समान गन्ध आती है यह स्वर्ण, रौप्यादि धातुओं का योग होनेके कारण चार प्रकारका होता है और उनमें से लोह संयोग वाला श्रेष्ठ माना जाता है, जिसका रंग बिल्कुल काला होता है ।
लोहे की कढ़ाईमें दशमूलका क्वाथ भर कर उसमें उक्त लोह वाले शिलाजीतको अच्छी तरह मिला देना चाहिये तथा उसे तेज़ धूपमें इस विधिसे रख देना चाहिये कि जिससे उसमें धूल आदि न गिरे तदनन्तर सूर्यके तापसे उस पर जो मलाईसी जमे उसको एकत्रित करते रहें जब पानी
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[ वकारादि
गाढ़ा हो जाय तो और क्वाथ डाल दें एवं यह क्रिया उस समय तक करते रहें कि जब तल मलाई जमनी बिल्कुल बन्द न हो जाय ।
अब दशमूलकी प्रत्येक ओषधि, करजुवेकी जड़, नागरमोथा, पटोल, नीमकी छाल, हर्र, बहेड़ा और आमला ५-५ तोले तथा पीपल, कुटकी और जीरा १०-१० तोले ले कर सबको एकत्र कूट कर ३२ सेर पानीमें पकावें और ४ सेर शेष रहने पर छान लें तथा उसे बोतलोंमें भर कर कार्क लगा कर रख दें तदनन्तर एक लोहखरलमें ४० तोले उपरोक्त शिलाजीत डाल कर उसमें थोड़ा थोड़ा यह काथ डालते हुवे घोटें और जब सम्पूर्ण काथ शुष्क हो जाय तो उसमें १०-१० तो पीपल और काकड़ासिंगीका चूर्ण, १० तोले लोह भस्म, ५-५ तोले कटेली और बड़ी कटेलीका चूर्ण, ४० तोले मिश्री और १५ तोले बसलोचनका चूर्ण तथा आवश्यकतानुसार घी, शहद और मिश्री मिला कर सबकी ६३ गोलियां बना लें । ( घी और शहद इतना मिलाना चाहिये कि जिससे औषध गोलियां बनने लायक हो जाय )
गल
इन्हें मद्य, पानी या दूध के साथ, २ भोजनों के मध्यमें सेवन करनेसे कुष्ट, उदर रोग, श्वास, रोग, भगन्दर, मूत्रविबन्ध, गुल्म, राजयक्ष्मा, अर्श, कास, हिक्का, प्लीहा, विषमज्वर और वली पलितादिका नाश तथा अग्निकी वृद्धि होती है ।
इसके सेवन कालमें कुलथी, मकोय और कपोत मांस से परहेज करना चाहिये ।
( व्यवहारिक मात्रा - ३ माशे )
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रसपकरणम् ]
चतुर्थों भागः
(६९२६) वज्रकगुटिका (२) तोले शहदमें घोट कर गूलरके फलके समान वटक (ग. नि. । गुटिका. ४ ; र. का. धे. । पाण्डु.)
| बना लें।
इसे बायबिडंगके काथ, मूंगके यूष, मद्य, रोहिणी चिरबिल्वं च कुटजं च फलत्रिकम् ।
'... अरिष्ट, आसव, दूध और अनारके रस आदिके मुस्तकं पिप्पलीमूलं यष्टयाहं निम्बनागरम् ॥
| साथ सेवन करनेसे पाण्डु, रक्तविकार, प्रमेह, गलपकेनैषां कषायेण भावयेच्च शिलाजतु ।।
ग्रह, राजयक्ष्मा, खांसी, वात विकार, श्वास, शोष शिलाजतुपलान्यष्टौ तावती सितशर्करा ॥
और उदर विकार इत्यादि रोग नष्ट होते हैं। वांश्याः कर्केटशणयाश्च मागध्याश्च पलं पलम् । धात्रीफलपलार्धं च व्याघीमूलत्वचं तथा ।
(६९२७) वनकपाटरसः (१) पनत्वगेला गन्धार्थ दत्त्वा चूर्णानि कारयेत । ( शा. सं. । खं. २ अ. १२ ; र. प्र. सु. । अ. तं विमध यथान्यायं दद्यान्मधुपलत्रयम् ॥ ८; पृ. नि. र. । संग्रहणी. ; र. र. स.। वर्तयेद्वटकानेतानुदुम्बरफलोपमान् । ___ अ. १६; र. रा. सु. । संग्रहण्य. ; र. मं.) तत्रैव भक्षयेत्कल्के सानुपानं यथाबलम् ॥ मृतं सूताभ्रकं गन्धं यवक्षारं सटङ्कणम् । विडङ्गरसयूषैश्च सुरारिष्टासवादिभिः । अग्निमन्थं वचां कुर्यात् सूततुल्यानिमान्सुधीः ॥ क्षीरैर्वा दाडिमाम्लैर्वा पथ्यभोजी पिबेन्नरः॥ ततो जयन्ती जम्बीरभृङ्गद्रावैविमर्दयेत् । स जयेत्पाण्डुरोगासदुष्टमेहगलग्रहान् । विवासरं ततो गोलं कृत्वा संशोष्य धारयेत् ॥ यक्ष्मकासांश्च वातादीन श्वासशोषोदरामयान् ॥ लोहपात्रे शरावं च दत्वोपरि विमुद्रयेत् । रोगानीकप्रणाशार्थ सृष्टा भगवता पुरा। अधो वह्नि शनैः कुर्याद्यामा तत उद्धरेत् ॥ वज्रकेति समाख्याता वटिकेऽयं महागुणा ॥ | सर्वतुल्यां प्रतिविषां दद्यान्मोचरसं तथा । नैव दद्यात्कृतघ्नाय नास्तिकायोद्धताय च । । *कपित्थविजयाद्रावैर्भावयेत्सप्तधा भिषक् ॥ इष्टाय संप्रयोक्तव्या ब्राह्मणाय विशेषतः ॥ * र. रा. सु. तथा र. र. स. में केवल
४० तोले शुद्ध शिलाजीतको कुटकी, कर- | भांगको सात भावनाः लिखी हैं। कैथ, धातकी जुवा, कुड़ेकी छाल, त्रिफला, नागरमोथा, पीपला- | आदिकी भावनाका अभाव है। मूल, मुलैठी, नीमकी छाल और सोंठके काथकी र. प्र. सुधाकर में भावना दे कर उसमें ४० तोले सफेद खांड; (१) १ भाग विष अधिक है। ५-५ तोले बंसलोचन, काकडासिंगी और पीपलका (२) १॥ पहरकी अग्नि देनेके लिये लिखा है। चूर्ण एवं २॥-२॥ तोले आमले और कटेलीकी | (३) अग्नि देनेके पश्चात् रसमें उसके बराजड़की छालका चूर्ण तथा सुगन्ध योग्य तेजपात, बर केवल अतीस डालनेको लिखा है; मोचरसको दालचीनी और इलायचीका चूर्ण मिला कर १५ । भावना द्रव्योंमें ग्रहण किया है ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
धातकीन्द्रयवामुस्तालोधं बिल्वं गुडूचिका । (६९२८) वज्रकपाटरसः (२) एतद्रसैर्भावयित्वा वेलैकैकं च शोषयेत् ॥ (भै. रे. ; र. चं. ; रसे. सा. सं. । ग्रहण्य.) रसं वज्रकपाटाख्यं शाणैकं मधुना लिहेत् । पारदं गन्धकं चैव अहिफेनं समोचकम् । वह्नि शुण्ठी विडं बिल्वं लवणं चूर्णयेत्समम् ॥ |
" चूण्यत्समम् ।। । खल्लयेत्त शिलाखण्डे क्रमशो वक्ष्यमाणकैः ॥ पिबेहष्णाम्बुना चानु सर्वजां ग्रहणीं जयेत् ॥ त्रिकटुं फलं चैव सममेकत्र कारयेत् ।
पारद भस्म ( अभावमें रससिन्दूर ), अभ्रक | भगभृङ्गद्रवैश्चेतद्भावयेच्च पुनः पुनः ॥ भस्म, शुद्ध गन्धक, जवाखार, सुहागा, अरणी और | रक्तित्रयं ततश्चास्य मधुना सह भक्षयेत् । वच १-१ भाग ले कर सबको एकत्र खरल करके असाध्यां ग्रहणी इन्ति रसो वज्रकपाटकः ॥ ३-३ दिन जयन्ती, जम्बीरी नीबू और भांगके __शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, अफीम, मोचरस, रसमें घोट कर गोला बना और उसे सुखा कर | त्रिकुटा और त्रिफलाका चूर्ण समान भाग ले कर लोह पात्रमें रख कर उसके मुखको शरावसे ढक | प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर दें और सन्धिको गुड़ चूने आदिसे मज़बूत बन्द | उसमें अन्य ओषधियां मिला कर सबको भंगरे और करके आधा पहर तक मन्दाग्नि पर पकावें । तत्प- | भांगके रसकी अनेक भावना दे कर ३-३ रत्तीकी श्चात् उसके स्वांग शीतल होने पर निकाल कर | गोलियां बनावें। उसमें उसके बराबर अतीस और उतनाही मोच- इन्हें शहद के साथ सेवन करनेसे असाध्य रसको चूर्ण मिला कर, कैथ और भांगके रसकी | ग्रहणी रोग भी नष्ट हो जाता है । सात सात भावना दें तथा धायके फूल, इन्द्रजौ,
(६९२९) वज्रधनरसः नागरमोथा, लोध, बेल और गिलोयके रसकी १-१
(र. का. धे. । उदरा.) भावना दे कर सुखा कर रक्खें ।
कण्टकारीरसैः सप्तदिनं भाव्यं तु सोमलम् । मात्रा-३॥ माशे।
एवं वारत्रयं काचकूप्यां सत्त्वं च पातयेत् ।। ( व्यवहारिक मात्रा-१ माशा । ) एतत्सत्वे पादमूतं सगन्धं कज्जलीकृतम् ।
इसे खानेके पश्चात् चीता, सेांठ, बायबिडंग, | कण्टकारीमूषिकायां शरावे पाचयेत्पुनः ॥ बेलगिरी और सेंधा नमकका समान भाग मिश्रित यामाष्टकं वज्रघनो रसः सर्वोदरातिजित् ।। चूर्ण (२ माशे) उष्ण जलके साथ पीना चाहिये। सोमल (संखिये ) को कटेलीके रसमें सात यह सर्व दोषज ग्रहणीको नष्ट करता है। दिन खरल करके कपड़मिट्टीकी हुई ओतशी शीशीमें
डाल कर ( उसका मुख बन्द करके ) बोलुका (४) भावना द्रव्योंमें मोथा, लोध और यन्त्रमें ( मन्दाग्नि पर ) पकावें। जब समझे कि गिलोयकी भावनाका अभाव है।
सोमल उड़ कर ऊपर आ गया होगा तब अग्नि
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रसमकरणम् ]
चतुर्थों भागः
शान्त कर दें और सोमलके फूलको निकाल लें और उसे यथा विधि शरावसम्पुटमें बन्द करके कर पुनः सात दिन कटेलीके रसमें घोट कर इसी लघुपुटमें पकावें। प्रकार उड़ावें । इस विधिसे ३ बार उड़ावें ।
__ मात्रा-१ रत्ती । तदनन्तर उसमें उसके चतुर्थाश पारद और इसे ग्रहणीमें काञ्जीके साथ; पक्तिशूल, कास गंधककी कज्जली मिला कर घोटें तथा कटेलीके | और मन्दाग्निमें अदरकके रसके साथ तथा अम्लकल्ककी मूषा बना कर उसमें रख कर उसे शराव | पित्तमें धारोष्ण दूधके साथ सेवन करना चाहिये। सम्पुट में बन्द कर दें और बालुकायन्त्रमें रख कर (६९३१) वज्रधाररसः ८ पहर ( मन्दाग्नि पर ) पकावें।
(र. र. स. । उ. अ २० ; र. का. धे. । कुष्ठा.) यह रस समस्त उदर रोगोंको नष्ट करता है।
वज्रमूताभ्रहेम्नां च भस्म योज्यं समं समम् । (मात्रा-३ चावलसे १ चावल भर । इसे सर्वाशं तालकं तुल्यं शिधत्तरजद्वैः ।। बहुत सावधानी पूर्वक योग्य चिकित्सककी देखरेख- | मद्यः स्नुह्यर्कजैः क्षीरैदिनकं चाथ भावयेत् । में सेवन करना चाहिये । )
सप्ताहं बाकुचितैलैस्तन्मापैकं तु भक्षयेत् ॥ (६९३०) वज्रधररसः
| वज्रधारो रसः ख्यातः सर्वकुष्ठनिकृन्तनः ॥ (र. र. स. । उ. अ. १६)
__ हीरा भस्म, पारद भस्म ( रससिन्दूर ), रसगन्धकताम्राभं क्षारांस्त्रीन्वरुणा वृपम् ।
अभ्रक भस्म और स्वर्ण भस्म १-१ भाग तथा अपामार्गस्य च क्षारं लवणं द्वि द्वि माषकम् ॥
| शुद्ध हरताल ( या हरताल भस्म ) सबके बराबर चाङ्गेर्या हस्तिशुण्डयाश्च रसे पिष्टं पचेत्पुटे ।
ले कर सबको १-१ दिन सहजने और धतूरेके भक्षयित्वा ततो गुआं ग्रहण्यां काअिकं पिबेत् ॥
. रस तथा स्नुही (सेंड-थूहर ) और आकके दूधमें पक्तिशूले च कासे च मन्दाग्नावार्द्रकद्रवम् ।
घोटनेके पश्चात् सात दिन बाबचीके तेलमें खरल
करें। अम्लपित्ते च धारोष्णं क्षीरं वज्रधरो ह्ययम् ॥
मात्रा-१ माशा। शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म, अभ्रक
यह समस्त प्रकारके कुष्ठोंको नष्ट करता है। भस्म, सज्जीखार, जवाखार, सुहागा, बरनेकी छाल,
( मात्राका निर्णय रोगीके बलाबलका विचार बासा ( अडूसा ) की जड़की छाल, अपामार्ग ( चिरचिटे ) का क्षार और सेंधा नमक २-२
| करके करना चाहिये ।) माशे ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें
(६९३२) वज्रपञ्जररसः और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिला कर सबको (र. र. । रसा. खं. उप. २ ) चांगेरी और हस्तिशुण्डी ( हाथी सुंडी) के वज्रपारदयोभस्म समभागं प्रकल्पयेत् । रसकी १-१ भावना दे कर गोला बना कर सुखा । सूतपादं मृतं स्वर्ण सर्व मध दिनावधि ॥
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७१६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि हंसपाद्या द्रवैरेव तद्गोलं चान्धितं पुटेत् ।
(६९३३) वज्रमारणम् अर्कक्षीरैः पुनम तद्वद्गजपुटे पचेत् ॥
( . यो. त. । त. ४३) भक्षयेत्सर्षपवृद्धं यावन्माषं विवर्धयेत् ।।
त्रिवर्षारूढकासमूलमादाय पेषयेत् । शरण्यः साधकानां तु रसोऽयं वज्रपञ्जरः॥
त्रिवर्षनागवल्ल्या वा निजद्रावैः प्रपेषयेत ॥ चित्रकाकसिन्धूत्थमृततीक्ष्णसुवर्चलम् ।
तद्गोलके क्षिपेद्वजं रुवा गजपुटे पचेत् । समं सर्वं सदा चानु भक्ष्यं स्यात्क्रामणे हितम्॥
एवं सप्तपुरैनूनं कुलिशं मृतिमृच्छति ॥ मासषप्रयोगेण जीवेदाचन्द्रतारकम् ।। वलीपलितनिर्मुक्तो दिव्यकायो महाबलः।।।
तीन वर्षके पुराने कपासके वृक्षकी जड़ या
| इतनीही पुरानी पानकी बेलकी जड़को अपनेही हीरा भस्म और पारद भस्म ४-४ भाग
स्वरसमें पीस कर छोटीसी मूषा बनावें और उसमें तथा स्वर्ण भस्म १ भाग ले कर सबको १ दिन
ही रेको बन्द करके गजपुटमें पकावें । हंसपादीके रसमें घोट कर गोला बनावें और उसे
इसी प्रकार सात पुट देनेसे हीरा अवश्य मर सुखा कर शरावसम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें पकावें । तदनन्तर उसे १ दिन आकके दूधमें घोट
जाता है। कर, गोला बना कर सुखावें और शरावसम्पुटमें (६९३४) वज्रशोधनम् (१) बन्द करके गजपुटमें पकावें ।
( वृ. यो. त. । त. ४३) इसे १ सर्षप भरकी मात्रासे सेवन करना व्याघीकन्दगतं वज्रं मृदा लिप्तं पुटे पचेत् । प्रारम्भ करें और प्रतिदिन (१-१ सर्षप भर ) अहोरात्रात्समुद्धत्य हयमूत्रेण सेचयेत् ॥ बढ़ा कर १ माशेकी मात्रा तक पहुंच जाएं। वजीक्षीरेण वा सिञ्च्यात्कुलिशं विमलं भवेत् ॥
चीता, अदरक, सेंधानमक, और सञ्चल नमक; । हीरेको कटेलीकी जड़के अन्दर रख कर उस इनका चूर्ण तथा लोह भस्म समान भाग ले कर | पर मिट्टीका ( २-३ अंगुल मोटा ) लेप कर दें सबको एकत्र खरल कर लें। उपरोक्त रस खानेके | और सुखा कर पुट पोक करें । १ दिन रात तक पश्चात् (आधा माशा) यह चूर्ण खाना चाहिये । पाक करनेके पश्चात् उसे घोड़ेके मूत्रमें या थूहर
इसे ६ मास तक सेवन करनेसे बलिपलित- | ( सेंड ) के दूधमें बुझावें । इस विधिसे हीरा शुद्ध का नाश हो कर बल और आयुकी वृद्धि हो जाता है । होती है।
(६९३५) वज्रशोधनम् (२) वज्रपाणिरसः (महा)
(वृ. यो. त. । त. ४३) (र. का. धे. । कुष्ठा.; वृ. नि. र. । त्वग्दा.) व्याघ्रीकन्दगतं वज्र दोलायन्त्रेण पाचयेत् । प्र. सं. ५५७१ महा वज्रपाणि रसः देखिये। सप्ताह कोद्रवक्वाथे कुलिशं विमलं भवेत् ।।
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७१७
रस प्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः ही रेको कटेलीकी जड़के अन्दर रखकर पर्पटीरसवत्पक्कं खसत्वेनारुणेन च । दोलायन्त्र विधिसे १ सप्ताह तक कोदों ( कोद्रव ) | पृथग्गंधकतुल्येन ताप्येन च रसांघ्रिणा ॥ के काथमें पकानेसे वह शुद्ध हो जाता है। कृतावापं वरीमुण्डीहस्तिकर्यमृतालिकाः । वज्रवटकमण्डूरम्
| मूविदार्याश्च रसैमंदितं घृतमिश्रितम् ।।
कषाये दशमूलस्य विपक्वं लेहतां गतम् । . ( भै. र. । पाण्डु; हा. सं.। स्था. ३ अ. ८)
रसतुल्यत्रिजाताग्निव्योषयष्टयाहसंयुतम् ॥ . प्र. सं. ५४८५ मण्डूर वज्रवटकः देखिये ।
स्निग्धभाण्डगतं कुष्ठी क्षयी च कृतशोधनः । (६९३६) वज्रवटी
मअिष्ठादिकषायस्य कृत्वा मासं निषेवणम् ॥ ( भै. र. । कुष्ठा. ; र. रा. सु. ; रसे. सा. सं. । माषप्रमाण सेवेत रसोऽयं वज्रशेखरः॥ कुष्ठा. ; रसे. चि. म.।)
१ भाग शुद्ध पारद और २ भाग शुद्ध गंधक शुद्धमूतानिमरिचं सूताद् द्विगुणगन्धकम् ।
की कज्जली बना कर उसे कोयल, नागरमोथा, काकोदुम्बरिकाक्षीरैर्दिनं मधे प्रयत्नतः ॥ साक्षी, शंखाहोली, गोजिका (गोजिया), दूधी, वराव्योषकषायेण वटीञ्चास्य समाचरेत् ।
नील, पलाश, रुदन्ती, जलवेत और मकोयके रसकी लिह्याद्वज्रवटी ह्येषा पामारोगविनाशिनी ॥
१-१ भावना दे कर घृत लिप्त लोह पात्रमें तुषाग्नि
पर पिघलावें-जिस प्रकार पर्पटी बनानेके लिये ___ शुद्ध पारद, चीतेका चूर्ण और काली मिर्चका
पिघलाते हैं चूर्ण १-१ भाग तथा शुद्ध गंधक २ भाग ले कर
और फिर उसमें २ भाग अभ्रक प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर
| सत्वकी भस्म, २ भाग अतीस और भाग
स्वर्णमाक्षिक भस्म मिला कर शतावर, मुण्डी, हस्तिउसमें अन्य ओषधियां मिला कर सबको काकोदु
कर्णी, गिलोय, पाटला, मूर्वा और विदारीकन्दके म्बरिका (कठूमर) के दूध तथा त्रिफले और त्रिकुटे के क्वाथमें १-१ दिन घोट कर (३-३ रत्तीकी)
रसकी १-१ भावना दे कर सुखा कर उसमें
थोड़ासा घी मिला करे चिकना कर लें और उससे गोलियां बना लें।
( आठ गुना ) दशमूलका काथ मिला कर मन्दाग्नि इनके सेवनसे पामा रोग नष्ट होता है।
पर पकावें । जब गाढ़ा हो जाय तो उसमें १-१ (६९३७) वज्रशेखररसः ... भाग दालचीनी, तेजपात, इलायची, चीता, सेांठ, (र. र. स. । उ. अ. २०) ...
मिर्च, पीपल और मुलैठीका चूर्ण मिला कर स्निग्ध
पात्रमें भर कर सुरक्षित रक्खें । विष्णुकान्ता घनरसः साक्षी शंखपुष्पिका।
शरीर संशुद्धिके पश्चात् इसे सेवन करनेसे गोजिहाक्षीरिणी नीली ब्रह्मक्षो रुदन्तिका ।। कुष्ठ और क्षयका नाश होता है । निचुलः काकमाची च रसैरेषां विदितम् । इसे मंजिष्टादि क्वाथके साथ १ मास तक पक्वं तुषकरीपानौ रसद्विगुणगन्धकम् ॥ . . सेवन करना चाहिये। ...
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७१८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
(६९३८) वज्रेश्वररसः (१)
(६९३९) वज्रेश्वररसः (२) __ (र. र. । रसा. खं. । उप. २)
(वज्ररसः) मृत सूताद् द्वादशांशं मृतं वज्रं कल्पयेत् । (र. च. ; र. रा. सु. ; र. र. । रा. य. ; द्वाभ्यां तुल्यं मृतं कान्तं कान्ततुल्यं मृताभ्रकम् ॥
र. र. स. । अ. १४;) तत्सर्वं भृङ्गजैवैर्मर्दितं भावयेत्त्र्यहम् ।
कर्ष खर्परसत्त्वस्य षण्माषे हेम्नि विद्रुते ।
पनिष्कसूतं गन्धाश्मन्यष्टनिष्के प्रवेशितम् ॥ त्र्यहं गोक्षुरकद्रावैः क्षौद्रैपिं ततो लिहेत् ॥
प्रवालमुक्ताफलयोधणं हेमसमांशयोः । रसो वज्रेश्वरो नाम वज्रकायकरो नृणाम् । | क्रमादद्वित्रिचतुनिष्क मृतायःसीसभास्करम् ॥ चतुर्मासेंजरां हन्ति जीवेद्ब्रह्मदिनं किल ॥ शाङ्गेर्यम्लेन यामांस्त्रीन्मदितं चूर्णितं पृथक । भृङ्गराजस्य पञ्चाङ्गं चूर्णयेत्रिफलासमम् ।। द्वौ निष्कौ नीलकटुकोव्योमायस्कान्ततालकात्। पलैक मधुना लेद्यं क्रामकं परमं रसे ॥
अङ्कोलकङ्गणीवीजतुत्थेभ्यश्चतुरः पृथक् ॥ ____ पारद भस्म १२ भाग और हीरा भस्म १ अष्टौ च टङ्कणक्षाराद्वराटानां च विंशतिः । भाग तथा कान्त लोह भस्म और अभ्रक भस्म | महाजम्बीरनीरस्य प्रस्थद्वन्द्वेन पेषयेत् ॥ १३-१३ भाग ले कर सबको ३-३ दिन भंगरे । एतदिष्टशरावस्थं शुद्ध खार्यास्तुषस्य च । और गोखरुके काथमें खरल करके रखें। करीषभारे च पचेदथ माषद्वयं ततः॥ मात्रा--१ माशा।
एतावद्गन्धकात्पादं मरिचाद्भावितादपि ।
मधुनाऽऽलोडितं लिह्यात्ताम्बूलीपत्रलेपितम् ॥ ( व्यवहारिक मात्रा-१ से २ रत्ती तक) गतेऽस्य घटिकामात्रे प्रतियामं च पथ्यभुक ।
इसे शहद के साथ सेवन करनेसे शरीर वज्रके | नो चेदुद्दीपितो वन्हिः क्षणाद्धातून्पचत्यतः ॥ समान दृढ़ हो जाता है।
दिनमेकं निषेव्यैनं त्याज्यान्यामण्डलं त्यजेत् ।
ततः परं यथेष्टाशी द्वादशाब्दं सुखी भवेत् ॥ इसे चार मास तक सेवन करनेसे जराका
एकमेकं दिनं भुक्त्वा वर्षे वर्षे महारसम् । नाश हो कर आयु अत्यन्त दीर्घ हो जाती है ।।
वर्षादौ च त्यजेत्त्याज्यं द्वादशाब्दाजरां जयेत् ॥ अनुपान-भंगरेका पंचांग और त्रिफला एष वज्ररसो नाम क्षयपर्वतभेदनः॥ समान भाग ले कर चूर्ण करके रक्खें।
(१) ७॥ माशे शुद्ध स्वर्णको गला कर उसमें इसमेंसे ५ तोले चूर्ण शहदमें मिला कर उप- १ तोला खपरियाका सत्व (जस्त भस्म) मिलावें । रोक्त रस खानेके पश्चात् सेवन करना चाहिये। (२) ३० माशे पारद और ४० माशे
(व्यवहारिक मात्रा-३-४ माशे।) । गन्धक की कज्जली बनावें ।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
७१९
(३) उक्त दोनों योगोंको एकत्र मिला कर यदि इस प्रकार भोजन नहीं किया जायगा तो उसमें ७॥-७१ माशे प्रवाल और मोतीका चूर्ण प्रज्वलित जठराग्नि धातुओंको भस्म कर डालेगी। मिला दें।
____ इसे केवल १ दिन खा कर ४० दिन तक (४) १० माशे लोह भस्म, १५ माशे शीशा पथ्य पालन करना चाहिये । इसके पश्चात् इच्छाभस्म और २० माशे ताम्र भस्मको पृथक् पृथक् | नुसार आहार कर सकते हैं। ३-३ दिन चाझरी ( चूके ) के रसमें खरल करें। इस प्रकार इस औषधको केवल १ बार
और फिर सबको उपरोक्त योगमें मिला दें । तद- सेवन करनेसे ही मनुष्य १२ वर्ष तक स्वस्थ नन्तर उसमें १०-१० माशे नीलकी जड़, कुटकी | रहता है। अभ्रक भस्म, लोह भस्म, कान्त लोह भस्म, शुद्ध
यदि १२ वर्ष तक, प्रति वर्ष एक दिन यह हरताल और २०-२० माशे अंकोलके बीज,
औषध सेवन करके उपरोक्त विधिसे पथ्य पालन कंगनीके बीज तथा शुद्ध तूतिया; ४० माशे सुहागा
किया जाय तो वृद्धावस्थाका भय नहीं रहता। तथा सौ माशे कौडी भस्म मिला कर सबको
___यह रस क्षय रोगको अत्यन्त शीघ्र नष्ट कर २ सेर बड़े जम्बीरो नीबूके रसमें खरल करें ।।
देता है। जब रस सूख जाए तो सबका गोला बना
(६९४०) वटशुङ्गादियोगः कर सुखा लें और उसे यथाविधि शराव-सम्पुट में
(व. से. । स्त्रीरोगा.) बन्द करके ६४ सेर तुषोंकी अग्निमें पुट दें । तदनन्तर उसके स्वांगशीतल हो जाने पर पुनः २ सेर |
न्यग्रोधशुङ्गासनकं प्रवालचूर्णश्च सवर्णवत्सायाः। जम्बीरी नीबूके रसमें घोट कर उपरोक्त विधिसे
गोक्षीरं परिपीतं पुत्रं प्रकरोति पुष्यः ॥ शरावसम्पुटमें बन्द करें और ६४ सेर उपलोंमें बड़के अंकुर, असना वृक्षकी छाल, और पुट लगा दें। तदनन्तर स्वांगशीतल होने पर प्रवालका चूर्ण समान भाग ले कर सबको एकत्र खरल करके सुरक्षित रक्खें ।
खरल करें। मात्रा-२ माशे । इसमें आधा आधा माशा | इसे अपनेही समान रंगवाले बछड़े वाली शुद्ध गन्धक और काली मिर्चका चूर्ण मिला कर गायके दूधके साथ पुष्य नक्षत्रमें सेवन करनेसे पुत्र उसे शहदमें मिलावें और फिर ताम्बूल पत्र (पान)| प्राप्ति होती है। पर इसका लेप करके खावें ।
(६९४१) वटेश्वररसः ___ यह औषध खानेके घड़ी भर पश्चात् ही क्षुधा |
(र. र. रसा. खं. । उप. २) प्रतीत होगी तब पथ्य भोजन करें और फिर १-१ वटक्षीरस्यहं मध गन्धं शुद्धरसं समम् । पहर पश्चात् पथ्याहार ( दूधादि ) लेते रहें। वटकाष्ठाग्निना पच्यान्मृत्पात्रे यामपञ्चकम् ॥
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७२० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि क्षिपन् क्षिपन् वटक्षीरं तत्काष्ठेनैव चालयेत् ।। (नोट-रस तथा अनुपानचूर्णकी मात्रा समुद्धत्य त्र्यहं भाव्यं देवदालीदलद्रवैः॥ बहुत अधिक है । मात्राका निर्णय बल, प्रकृति उष्णकाले तु गुजैकं ताम्बूलपत्रसंयुतम् । आदिका विचार करके करना चाहिये । ) चन्द्रद्धया सदा भक्ष्यं यावत् षोडशगुञ्जकम् ॥
(६९४२) वडवाग्निरसः (१) चूर्णमुत्तरवारुण्या बाकुच्या देवदालिजम् । ।
(वडवानिमुखरस:) मध्वाज्याभ्यां लिहेत्कर्ष क्रामकं ह्यनुपानकम् ॥ |
(भै. र. ; रसे. सा. सं. । स्थौल्या. ; र. र. वर्षमात्राअरां हन्ति जीवेद्वर्षशतत्रयम् ।
स. । उ. स्था. अ. १८ ; रसें. चि. म. । अ. ९; रसो वटेश्वरो नाम वज्रकायकरो नृणाम् ॥
| यो. र. । मेदो. ; र. र. । स्थौल्या. ; र. चं. ; शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धककी कज्जली
धन्व. र. रा. सु. । स्थौल्या. ; वृ. नि. र. । करके उसे ३ दिन बड़के दूधमें खरल करें और |
मेदो रोगा.) फिर मिट्टीकी कढ़ाईमें डाल कर बड़की लकड़ियोंमें
शुद्धसूतं समं गन्धं तानं तालं समं समम् । ५ पहर तक पकावें । पकाते समय उसमें थोड़ा
अर्कक्षीरैर्दिनं मर्य क्षौ र्लेयं द्विगुञ्जकम् ।। थोड़ा बड़का दूध डालते रहना और बड़के गीले
वडवाग्निरसो नाम्ना स्थौल्यमाशु नियच्छति ।। (ताज़े) डंडेसे चलाते रहना चाहिये। __तदनन्तर स्वांग शीतल हो जाने पर उसे ३
शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक' तथा ताम्र भस्म दिन बिंडालके पत्तोंके रसमें घोट कर सुरक्षित |
और शुद्ध हरताल समान भाग ले कर सबको १
दिन आकके दूधमें घोट कर रक्खें । रेक्खें । इसे उष्ण ऋतुमें १ रत्ती मात्रानुसार पानमें
| इसे शहदके साथ सेवन करनेसे स्थूलता शीघ्र रख कर खाना प्रारम्भ करें और नित्य प्रति १-१ | ही नष्ट हो जाती है । रत्ती बढ़ोते रहें । जब १६ रत्ती पर पहुंच जाएं मात्रा-२ रत्ती। तो फिर प्रतिदिन १-१ रत्ती घटाना आरम्भ करें।
(६९४३) वडवाग्निरसः (२) इसी प्रकार १ वर्ष तक सेवन करें।
(र. र. स.। उ. अ. १६) औषध खानेके पश्चात् इन्द्रायणकी जड़, बाबची और देवदालीका समान भाग मिश्रित चूर्ण
टङ्कणं मरिच तुत्यं पृथक् कर्षत्रयं भवेत् ।
सुन्दरं द्वादशनिष्क त्रिशनिष्कमयोमलम् ।। १। तोलेकी मात्रानुसार शहद और घीमें मिलाकर
चूर्णान्येतानि संयोज्य स्थापयेच्छुद्धभाजने । चाटना चाहिये । इसके सेवनसे जरा व्याधिका नाश हो कर
शुद्धदेहो नरस्तस्य पानं यद्भोजनोत्तरम् ।। शरीर वज सदृश दृढ़ होता और आयु अत्यन्त १. यो. र. ; र. र. स. में गन्धकके स्थानमें दीर्घ हो जाती है।
| बोल (हीरा बोल ) लिखा है।
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चतुर्थी भागः
रसप्रकरणम् ]
अद्यात्पथ्यं ततः स्वल्पं ततस्ताम्बूलभाग्भवेत् । उदराग्निर्नरस्यास्य वडवाग्निसमो भवेत् ॥ बहुना किमुक्तेन रसायनमयं नृणाम् । कान्तं पद्मरसे घृष्टं पुटपकं वरारसे ॥ मार्कवस्वरसे घृष्टं सप्तकृत्वस्त्वयोमलम् ॥
सुहागा, काली मिर्च और शुद्ध तूतियाका चूर्ण ३॥ - ३ ॥ तोले, कान्त लोह भस्म ५ और मण्डूर भस्म १२॥ तोले ले कर सबको एकत्र खरल करके सुरक्षित रक्खें ।
वमन विरेचनादि द्वारा शरीर शुद्धि करके भोजनके उपरान्त इसे यथोचित मात्रा में खा कर स्वल्पाहार करके पान खाना चाहिये ।
इसमें जो कान्त भस्म डाली जाय उसे कमलके रस और त्रिफला के क्वाथमें पृथक् पृथक् घोट कर सात सात पुट दे लेनी चाहियें । इसी प्रकार मण्डूर को भी भंगरे के रसकी सात भावना दे कर डालना चाहिये ।
|
(६९४४) वडवानलौहम्
;
( भै. र. र. रा. सु. । स्थौल्या. : रसे. चि. म. । अ. ९ ; रसे. सा. स. । स्थौल्या. ) सूतभस्म सतालञ्च लौहं ताम्रं समं समम् । मर्दयेत्सूर्यपत्रेण चास्य वल्लं प्रयोजयेत् ॥ मधुना स्थूलरोगे च शोथे शूले तथैव च । मध्वाज्यमनुपानञ्च देयं वापि कफोल्वणे ||
(६९४५) वडवानलगुटिका ( र. र. स. । उ. अ. १८ ) तालं ताप्यं कनककुनटीकान्तगन्धार्कसुतैस्तुल्यांशैस्तैररुणमधुरं दाप्यकं सर्वतुल्यम् । एतैः सर्वैस्त्रिकटु च समं कज्जलीकृत्य सर्व
जाती है।
इसके सेवनसे जठराग्नि अत्यन्त तीव्र हो हिङ्ग्वम्भोभिर्मुनिमित दिनैर्भावयेत्सप्तकृत्वः ॥ जयन्त्याः काकमाच्याश्च निर्गुण्डवाश्चाई -
पारद भस्म, शुद्ध हरताल, लोह भस्म और
૯૧
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७२१
ताम्र भस्म समान भाग ले कर सबको आकके पत्तोंके रसमें घोट कर सुरक्षित रक्खें ।
मात्रा- -३ रत्ती ।
इसे शहदके साथ सेवन करनेसे स्थूलता, शोथ और शूलका नाश होता है ।
यदि कफका प्रकोप हो तो इसे शहद और घीके साथ भी दे सकते हैं ।
कस्य च ।
स्वरसैर्भावयेत्विष्ट्वा सदेव दिने दिने । कर्तव्या मरिचैस्तुल्या छायाशुष्कास्तु गोलिकाः । हन्त्येषा वडवानलाख्यगुटिका संसेवितोष्णाम्बुना ॥ सर्व शुलगदं कृमिं च सकलं वैषम्यवृत्तिं क्षुषः । मन्दाग्निं ग्रहणीगदं श्वयथुरुक्पाण्डुं च गुल्माशेसी ॥ वातश्लेष्मगदं तथोदररुजं श्वासं च कासं ज्वरम् || शुद्ध हरताल, स्वर्ण माक्षिक भस्म, स्वर्ण भस्म, शुद्ध मनसिल, कान्त लोह भस्म, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म और शुद्ध पारद १ - १ भाग; अतीस, शुद्ध बछनाग और अजवायन ८-८ भाग | तथा त्रिकटु ( समान भाग मिश्रित सोंठ, मिर्च,
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७२२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
पीपल ) ३२ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी दोपत्रयोत्थेऽपि च सनिपाते कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका | वाताधिकत्वादिह मूतकोक्तः ॥ चूर्ण मिला कर खरल करके सात दिन हींगके कान्त लोह भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध हरताल, पानीमें घोटें और फिर जयन्ती, मकोय, संभालु शुद्ध गन्धक, समुद्रफेन, पांचों नमक ( सेंधा, तथा अदरकके रसकी १-१ भावना दे कर काली |
| संचल, सामुद्र लवण, विड लवण, काच लवण ), मिर्च के बराबर गोलियां बना कर छायामें सुखा लें। शुद्ध सुरमा, शुद्ध तूतिया, रौप्य भस्म, मूंगा भस्म,
इन्हें उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे शूल, कौड़ी भस्म, वैक्रान्त भस्म, शम्बूक (घोंघों ) की कृमि, अग्निमांद्य, क्षुधावैषम्य, ग्रहणी रोग, शोथ, भस्म, और समुद्रकी सीपको भस्म १-१ भाग पाण्डु, गुल्म, अर्श, वातकफज रोग, उदर रोग. ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और श्वास, खांसी और ज्वरका नाश होता है। फिर उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिला कर (६९४६) वडवानलरसः (१)
खरल करें। तत्पश्चात् उसमें बारहवां भाग पारद
मिला कर पुनः खरल करें और फिर उसे ३-३ ( भै. र. ; र. रा. सु. । ज्वरा. )
दिन थूहर ( सेंड ) और आकके दूध तथा चीतेके कान्तश्च मूतं हरितालगन्धं
रसमें खरल करके गोला बनावें और उसे सुखाकर समुद्रफेनं लवणानि पञ्च । तांबेके सम्पुटमें बन्द करके उस पर कपरमिट्टी नीलाञ्जनं तुत्थकमेव रौप्य
करके सुखा लें और पुटपाक करें। तदनन्तर उसके भस्मप्रवालानि वराटकाध ॥ स्वांगशीतल होने पर उसमें चतुर्थांश ( सबका वैक्रान्तशम्बूकसमुद्रशुक्तिः
चौथा भाग ) शुद्ध बछनागका चूर्ण मिला कर सर्वाणि चैतानि सपानि कुर्यात् । जरा देर चीतेके काथमें पकायें और खरल मूतं भवेद् द्वादशभागिकञ्च
करके रख लें। स्नुह्यर्कदुग्धेन विमर्दयेच्च ॥
इसे वात प्रधान तथा कफ प्रधान ज्वरमें चीते दिनत्रयं वह्निरसैस्ततश्च
और त्रिकुटेके क्वाथके साथ देना चाहिये । निवेशयेत्ताम्रजसम्पुटे तत् ।
सन्निपात ज्वरम भी, वाताधिक्य होनेके कारण मृदा च संलिप्य रसं पुटे
यह रस लाभ पहुंचाता है। त्तद्रसस्ततःस्याद्वडवानलाख्यः ॥
(६९४७) वडवानलरसः (२) तत्पादभागेन विषं नियोज्य
( र. चि. म.। स्त. ८) कृशानुतोयेन पचेत् क्षणं तत् । वातप्रधाने च कफप्रधाने
गधाणा दश ताम्रस्य तेषां पत्राणि कारयेत् । नियोजयेत् त्र्यूषणचित्रयुक्तम् ॥ तानि कण्टकवेध्यानि द्वयालैकाङ्गलानि च ॥
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
७२३
शुद्धमूतस्य गवाणान् स्थाल्यान्तर्विन्यसेद्दश ।। अशःसु सकलेष्वेव गुदरोगे विशेषतः । विंशतिनिम्बुकानां च खण्डानि शतशः क्षिपेत्॥ मन्दाग्नौ चान्यरोगेषु देयोऽयं वडवानलः ।। ततश्च ताम्रपत्राणि लवणं कामिकेन च । तैलक्षाराम्लवयं च भोज्यं मधुरभोजनम् ।
आरनालभृता स्थाली ह्यारोप्य चुल्लिकोपरि ॥ क्रमाद्रोगा विलीयन्ते सेविते वडवानले ॥ हठाद्वह्निः प्रदीयेत त्रिीदनं च दिवा निशम् । दश गद्याण ( ५ कर्ष ) शुद्ध ताम्रके कण्टकसक्षारे वह्निना दग्धे कानिके प्रक्षिपेन्मुहुः ॥ वेधी पत्रोंके २-२ या १-१ अंगुल लम्बे चौड़े जायन्ते तानि पत्राणि श्वेतरूप्यसमानि च । टुकड़े बना लें। तदनन्तर १ हाण्डीमें दश गद्याण शुद्धगन्धक गद्याणशतं पिष्ट्वानुचूर्णयेत् ॥ शुद्ध पारा डाल कर उसके ऊपर २० नीबू छोटे स्थालिकायां क्षिपेच्चूर्ण ततः कर्म प्रसाधयेत् । छोटे टुकड़े करके डाल दें और उन पर उक्त ताम्रएवं विचार्य दातव्यो ताम्रपत्रेषु गन्धकः ।। पत्रके टुकड़े फैला दें। तत्पश्चात् उन पर कांजीमें पिण्डी धत्तरकस्यैव देया मृद्वी तथोपरि। पिसा हुवा ( १२॥ तोले ) सेंधा नमक बिछा कर पिधायास्यं च ढङ्कन्या दद्यात्कर्पटमृत्तिकाम् ॥ हाण्डीको कांजीसे भर दें और ७२ घण्टे तक चुल्ल्यां स्थालों निधायाग्निं षडयामं ज्वालये- तीव्राग्नि पर पकावें। जब कांजी सूख जाए तो
द्धगत् । पुनः डाल दें। इसी प्रकार बार बार कांजी डाल शीतामुत्तारयेत्स्थाली ताम्रमेतावता मृतम् ॥ कर ७२ घण्टे एकावें । विना अत्तरकं पिण्डं यामयुग्मं पुनस्तथा। इस क्रियासे ताम्र पत्र चांदीके समान श्वेत दत्त्वा हस्तिपुटं खल्वे क्षिपेत्तानं रसाऽन्वितम् ॥ हो जायंगे (उन पर पारदकी कलई हो जायगी।) पिष्टवा चूर्ण विधायाऽथ निर्गुण्डीस्वरसेन च। तत्पश्चात् १०० गद्याण शुद्ध गन्धकका आर्द्रककण्टकशैलस्य त्रिफलाया जलेन च ॥ । बारीक चूर्ण करके उसमेंसे थोड़सा एक हाण्डीमें शुष्के शुष्के पुनर्देयाः प्रत्येकं सप्तभावनाः।। | बिछावें और उसके ऊपर ताम्र पत्रोंकी तह जमाकर त्रिकट्सम्बुभवा देयाश्चैकविंशतिभावनाः ॥ पुनः गन्धक डालें । इसी क्रमसे हाण्डीमें सम्पूर्ण सप्तक्षोश्च रसेनैव कनकस्य रसस्य च । ताम्र पत्र और गंधक डालकर हाण्डीके शेष भागको वत्सनाभविषस्यापि सप्त स्युर्भावनाः खलुः॥ धतूरेके पंचांगके अत्यन्त सूक्ष्म पिसे हुवे कल्कसे सर्व शुष्कं च तच्चूर्ण कूप्यां क्षेप्यं प्रयत्नतः। भर दें और उसका मुख ढकनेसे बन्द करके उस रक्षणीयमसौ नाम वडवानलको रसः ।। पर ४-५ कपड़मिट्टी कर दें। अब इस हाण्डीको वल्लैकः शीतनीरेण पञ्चामृतजलेन वा।। | चूल्हे पर चढ़ा कर उसके नीचे ६ पहर तीब्राग्नि प्रत्यहं सततं ग्राह्यः प्रातरुत्थाय रोगिणा ॥ जलावें । तत्पश्चात् हाण्डीके स्वांग शीतल होने पर दद्याविंशतिमेहेषु शूलेषु विविधेषु च ।। उसमेंसे धतूरेके कल्कको निकाल दें और उसका अष्टादशसु कुष्ठेषु ह्यशीतिवातरोगिषु ॥ - मुख बन्द करके २ पहर तीब्राग्नि पर पकावें ।
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७२४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
___ तत्पश्चात् उस हाण्डीको गढ़ेमें रख कर गज- द्वौ क्षारौ कुष्ठमेला च लवङ्ग जीरकद्वयम् । पुट लगा दें और स्वांगशीतल होने पर ताम्र शटी दन्ती त्रिवृच्चैव त्रिफला गजपिप्पली ॥ भस्मको निकाल कर खरल कर लें तथा उसे संभालुके सर्वमेकत्र सञ्चूर्ण्य भावयेत्रिफलाजलैः । रस, अदरकके रस, गोखरुके स्वरस या काथ सप्तधा खलुपाषाणे प्रचण्डातपशोषितम् ॥ शिलाजीतके पानी, और त्रिफलाके क्वाथकी पृथक् बनाया
जाता। पृथक् सात सात भावना दे कर त्रिकुटेके काथकी
पञ्चरक्तीप्रमाणन्तु वटिकां कारयेद्भिषक् ॥ २१ भावना दें और फिर ईखके रस, धतूरेके रस
| एकैकां खादयेत्पातः शृङ्गवेररसाप्लुताम् । तथा घछनागके क्वाथको सात सात भावना दे
। हन्ति कुष्ठं तथा मेद आममारुतमेव च ॥ कर चूर्ण करके सुरक्षित रक्खें ।
श्लीपदं गण्डमालाश्च गलगण्डं भगन्दरम् । मात्रा-३ रत्ती
नाडीदुष्टव्रणश्चैव अन्त्रवृद्धिश्च दारुणाम् ।। अनुपान-शीतल जल या पञ्चामृत (गिलोय,
अम्लपित्तं रक्तपित्तं पक्तिशूलं हलीमकम् । गोखरु, मूसली, मुण्डी और शतावर) का काथ ।
वातरक्तं वातकफमुपदंश सपीनसम् ॥ इसे प्रातःकाल सेवन करना चाहिये ।
पञ्चगुल्मांस्तथानाहं प्लीहशोथज्वरानपि । इसके सेवनसे २० प्रकारके प्रमेह, अनेक
| उदराणि तथा कासारसोऽयं वडवानलः ॥ प्रकारका शूल, अठारह प्रकारके कुष्ठ, ८० प्रकार
__ हिंगुलोत्थ पारद, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म, के वात रोग, अर्श, गुदरोग और अग्निमांद्यादि
कान्त लोह भस्म, वंग भस्म, शुद्ध शिलाजीत, शुद्ध अनेक रोग नष्ट होते हैं।
तूतिया, रसौत, शुद्ध हरताल, शंख भस्म और कौड़ी पथ्यापथ्य-इसके सेवन कालमें तेल, क्षार
भस्म १-१ भाग; शुद्ध जमालगोटा २ भाग तथा और अम्ल पदार्थोंका त्याग करके मधुर रस प्रधान
| हपुषा, पांचों नमक (सेंधा, संचल, विड नमक, काच भोजन करना चाहिये।
लवण सामुद्र लवण ), पीपल, पीपलामूल, चव, (६९४८) वडवानलरसः चीता, सेांठ, बायबिडंग, पीपलामूल, फूलप्रियंगु, (र. र. । कुष्ठा.)
अजमोद, जवाखार, सज्जीखार, कूठ, इलायची, हिङ्गलसम्भवं सूतं गन्धकं मृतताम्रकम् ।। लौंग, सफेद और काला जीरा, कचूर, दन्तीमूल, सम्यक्शुद्ध तथा कान्तं वङ्गं चापि शिलाजतुम्॥ निसोत, हर, बहेड़ा, आमला और गजपीपल; तुत्थं रसाअनं चैव तालकं शङ्खमेव च । इनका चूर्ण १-१ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धकवराटकं चापि तुल्यं जैपालं द्विगुणीकृतम् ॥ | की कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषहवुषां पश्चलवणं पञ्चैव कटुकानि च । धियां मिला कर सबको त्रिफलाके काथको सात विडॉ पिप्पलीमूलं प्रियङ्गुरजमोदकम् ॥ भावना दे कर प्रचण्ड धूपमें सुखा लें तथा
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रसप्रकरणम्
चतुर्थो भागः
७२५.
हरैके काथमें घोट कर ५-५ रत्तीकी गोलियां (६९५०) वडवानलरसा (५) बना लें।
(वै. मृ. । अजीर्णा. विष. ५; र. रा. सु. । इनमेंसे १-१ गोली अदरकके रसमें मिला
अजीर्णा.) कर नित्य प्रातःकाल सेवन करनेसे कुष्ठ, मेद, तालादेको रसादेक एकः सीसकभस्मनः । आमवात, श्लीपद, गण्डमाला, गलगण्ड, भगन्दर, द्वौ भागौ गन्धकाच्छुद्धान्मरिचाच्छोडशांशकः।। नाड़ीबण, दुष्ट व्रण, दारुण अन्त्रवृद्धि, अम्लपित्त, | चूर्ण कृत्वा रक्तिकैका घृतेन सह भक्षिता । रक्तपित्त, पक्तिशूल, हलीमक, वातरक्त, वात कफ, विचिं सर्वशूलानि प्लीहानमुदरं तथा ।। उपदंश, पीनस, पांच प्रकारके गुल्म, आनाह, | गुल्म सङ्घहणीरोगं श्वासकासकफानिलान् । प्लीहा, शोथ, ज्वर, उदर रोग और कासका नाश अग्निमान्धादिकान् रोगान् हन्त्यसौ वडवानलः।। होता है।
- शुद्ध हरताल, शुद्ध पारद और शीशा भस्म (६९४९) वडवानलरसः (४)
१-१ भाग तथा शुद्ध गन्धक २ भाग और काली
मिर्चका चूर्ण १६ भाग ले कर सबको एकत्र ( वै. र. । मेदो. ; र. स. क. । उल्लास ४)
मिला कर खरल करके रक्खें । सूतं ताम्रमयो बोलं मर्दयेत्सूर्यवारिणा ।
मात्रा–१ रत्ती। तल्लमधुना लीदा पिबेच्च सजलं मधु ॥
इसे घीके साथ सेवन करनेसे विषूचिका, मेदुरन्तं जयेन्मासाद्रसोऽयं वडवानलः ॥ | समस्त प्रकारके शूल, प्लीहा, उदर रोग, गुल्म,
रस सिन्दूर, ताम्र भस्म, लोह भस्मx और | संग्रहणी, श्वास, खांसी, कफ, वायु और अग्निमांबोल समान भाग ले कर सबको एकत्र खरल करें धादिका नाश होता है।
और फिर आकके पत्तोंके रसमें घोट कर सुखा कर (६९५१) वडवानलरसः (६) सुरक्षित रक्खें।
(वातनाशनरसः) मात्रा-२-३ रत्ती।
( र. र. स. । उ. अ. २१; र. र. । वातव्या.) इसे शहदके साथ चाट कर शहदका शर्बत सूतहाटकवज्रार्ककान्तभस्म समाक्षिकम् । पीना चाहिये । इसके सेवनसे १ मासमें मेदरोग
तालं नीलाअनं तुत्थमब्धिफेनं समांशकम् ॥ नष्ट हो जाता है।
पञ्चानां लवणानां तु भार्गक विमर्दयेत् ।
वज्रीक्षीरैदिनैकं तु रुध्वा तं भूधरे पुटेत् ।। ___x र. सं. क. में लोहके स्थान पर चांदी * र. रा. सु. में हरतालके स्थान पर वङ्ग लिखी है।
लिखी है।
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७२६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि मापैकं चाकद्रावैर्लहयेद्वडवानलम् । | पादांशममृतं दत्वा चित्रद्रावैः क्षणं पचेत् । पिप्पलीमूलजं क्याथं सपिप्पल्यनुपाययेत् ।। मात्रया योजयेच्चानु दशमूलशृतं पयः ॥ धनुर्वातं दण्डवातं शृङ्खलाकम्पवातनुत् ॥ वातश्लेष्मप्रधाने च दद्यात्यूषणचित्रकम् ।
- रस सिन्दूर, स्वर्ण भस्म, हीरा भस्म, ताम्र | स्वेदं च कटुतुम्बिन्या प्रयुञ्जीतातियत्नतः॥ भस्म, कान्त लोह भस्म, स्वर्ण माक्षिक भस्म, शुद्ध ताम्र भस्म, शुद्ध हरताल, शुद्ध गन्धक, हरताल, काला सुरमा, शुद्ध तूतिया, समन्दर फेन, | समुद्रफेन, अग्नि गर्भाशय ( अग्निजार-अम्बर ), सेंधा नमक, काला नमक ( संचल ), बिड लवण, कान्त लोह भस्म, पांचों नमक ( सेंधा, संचल, सामुद्र लवण, और काच लवण; इनको चूर्ण १-१ | बिड नमक, समुद्र लवण, काच लवण ), स्वर्ण भाग ले कर सबको एकत्र मिलाकर १ दिन सेहुंड भस्म, बच, काला सुरमा और नीला थोथा १-१ (थूहर) के दूधमें घोट कर गोला बनावें और उसे | भाग तथा रससिन्दूर १२ भाग ले कर सबको एकत्र शराव-सम्पुटमें बन्द करके भूधरपुटमें पकावें ।। खरल करें और थूहर ( सेहुण्ड ) के दूधमें घोटकर मात्रा-१ माशा
यथा विधि शरावसम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें इसे अदरकके रसमें मिला कर चाटनेके
पकावें । तदनन्तर स्वांगशीतल होने पर निकाल
| कर उसे अदरकके रसकी १० भावना दें और फिर पश्चात् पीपलका चूर्ण मिला हुवा पीपलामूलका काथ पीना चाहिये।
२ दिन चीतेके काथमें घोट कर उसमें उसका
चतुथाश शुद्ध बछनागका चूर्ण मिला कर ज़रा देर इसके सेवनसे धनुर्वात दण्डापतानक और
चीतेके काथमें पकावें और फिर सुखा कर चूर्ण कम्पवायुका नाश होता है।
करके सुरक्षित रक्खें । व्यवहारिक मात्रा-४ रत्ती।।
__इसे यथोचित मात्रानुसार दशमूल-सिद्ध (६९५२) वडवानलरसः (७) दुग्धके साथ सेवन करनेसे समस्त वातज रोग नष्ट (र. र. स. । उ. अ. १६, २१ ; र. चं.।।
होते हैं। अजीर्णा.)
___ इसे वातकफ प्रधान रोगोंमें त्रिकुटे और
चीते के चूर्णके साथ देना चाहिये तथा कड़वी तूंबीके शुल्ब तालकगन्धकौ जलनिधेः फेनाग्निगर्भाशयैः कान्तायोलवणानि हेमवचयोर्नीलाअनं तुत्थकम्
- योगसे स्वेद देना चाहिये । भागो द्वादशको रसस्य तदिदं वज्राम्बुघृष्टं शनैः
(६९५३) वडवानलरसः (८) सिद्धोऽयं वडवानलो गजपुटे रोगानशेषाञ्जयेत॥ (रसे. सा. सं. । अजीर्णा. ; भै. र. । अग्निमांद्या.)
आईकस्य द्रवैश्वासु दशवाराणि भावयेत् । शुद्धसूतस्य कर्फे गन्धकं तत्समं मतम् । दिनद्वयं चित्रकस्य द्रावेणैव तु भावयेत् ॥ । पिप्पली पञ्चलवणं मरिचञ्च फलत्रएम् ।।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
७२७
-
क्षारत्रयं समं सर्व चूर्ण कृत्वा प्रयत्नतः । अनुपानहोंग, सेंधा, संचल, अनारदाना, निर्गुण्डयाश्च द्रवेनैव भावयेदिनमेकतः॥ और बेलगिरीका चूर्ण समान भाग ले कर सबको वडवानलनामायं मन्दाग्निश्च विनाशयेत् ॥ भंगरेके रसमें घोटें।
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, पीपल, पांचों नमक उपरोक्त रस पानके साथ खा कर ऊपरसे (सेंधा, संचल, काच लवण, विड लवण, सामुद्र। यह चूर्ण सुराके साथ पीना चाहिये । लवण ), काली मिर्च, हर्र, बहेडा, आमला, सज्जी- इसके सेवनसे समस्त प्रकारके शूलों और खार, जवाखार, और सुहागा समान भाग ले कर गुल्मका नाश होता है ।। प्रथम पारे गंधककी कजली बनावें और फिर (६९५५) वडवानलरसः (१०) उसमें अन्य औषधे मिला कर सबको संभालुके
वडवामुखो रसः रसमें घोट कर सुखा कर सुरक्षित रखें।
(यो. र. । गुल्म. ; रसे. सा. सं. । ग्रह.; भै. इसके सेवनसे अग्निमांद्यका नाश होता है।
र. । ग्रहण्य. ; गुल्मा.) ( मात्रा-१-१॥ माशा ।)
शुद्धं मूतं समं गन्धं मृतताम्राभ्रटङ्कणम् । (६९५४) वडवानलरसः (९) सामुद्रश्च यवक्षारं स्वर्जिसैन्धवनागरम् ।। (रसे. सा. सं. ; र. चं. ; धन्व. ; र. का.
अपामार्गस्य च क्षारं पलाशवरुणस्य च ।
प्रत्येकं सूततुल्यं स्यादम्लयोगेन मर्दयेत् ॥ धे. । गुल्मा.)
हस्तिशुण्डीद्रश्वैचाग्नौ मर्दयित्वा पुटेल्लघु । पारदं गन्धकं ताप्यं यवक्षारामभ्रकम् ।। माषमात्र प्रदातव्यो रसोयं वडवामुखः॥ अग्न्यम्बुनाऽहिपत्रेण सम्मर्याय द्विगुञ्जकम् ॥ ग्रहणी विविधां हन्ति सङ्ग्रहग्रहणीं ज्वरम् ।। भक्षयेत्पर्णखण्डेन हिसिन्धुसुवर्चलः ।
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म, अभ्रक दाडिमञ्च तया बिल्वं कापिकं भृङ्गजैवैः ॥ भस्म, सुहागेकी खील, सामुद्र लवण, जवाखार, पिष्ट्वा तु सुरया युक्तं देयं स्यादनुपानकम् । । सज्जीखार, सेंधा नमक, सोंठ, अपामार्ग (चिरचिटे) सर्वगुल्मं निहन्त्याशु शूलश्च परिणामजम् ॥
पाठान्तराणि. शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, स्वर्ण माक्षिक, यवक्षार, ताम्र भस्म और अभ्रक भस्म, समान भाग |
१ पालाश वत्सनाभकम् (बरनेके क्षारकी ले कर प्रथम पारद और गन्धककी कज्जली बनावें
| जगह बछनाग।) और फिर उसमें अन्य औषधे मिला कर सबको २ स्याच्चणकाम्लेन मर्दयेत् । चीतामूलके काथ और पानके रसमें घोट कर २-२ ३ हस्ति कन्याद्रवैश्चाहो आर्द्रयुक्तं पुटेल्लघु । रत्तीकी गोलियां बना लें।
(घृतकुमारी और अद्रककी भावना भी )
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७२८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
का क्षार, पलाशक्षार, और बरनेका क्षारे, १-१ | (६९५७) वडवानलवटी भाग ले कर प्रथम पारे गन्यककी कजली बनावें
( र. का. धे. । अग्निमांद्या. ) और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर नीबू के रसमें घोटें और फिर हाथीसुंडीके रसमें | पारदस्य त्रयो भागास्तावन्तो गन्धकस्य च । घोट कर यथा विधि शरावसम्पुटमें बन्द करके | नागस्य भस्मनस्तद्वच्चत्वारो गगनस्य च ॥ लघुपुटमें पकावें ।
कटुत्रयं त्रिभागं स्यादष्टौ स्युः शंखभस्मनः । मात्रा-१ माशा।
द्वौ क्षारौ सैन्धवं हेम विडं सौवचेलं तथा ॥
| खपरं ग्रावभेदी च पृथग्भागं समाहरेत् । इसके सेवनसे विविध प्रकारका ग्रहणी रोग । और ज्वर नष्ट होता है।
सञ्चूयं शृङ्गवेरस्य नीरेण परिभावयेत् ।।
मातुलुङ्गस्य नीरेण शमीमलरसेन च। (६९५६) वडवानलरसः (स्वल्पः) (११)
| ज्वालामुखीरसेनापि चणकक्षारवारिणा ॥ (रसे. सा. सं. । सन्नि. ज्वरा.)
प्रत्येकं भावनास्तिस्रो दातव्या गुरुयुक्तितः । शुद्धताम्रस्य भागैकं मरिचस्य तथैव च। शृङ्गवेररसेनैव ग्राह्या वल्लमिता वटी ॥ विषं तत्तुल्यकं दद्यात्तत्सर्वं श्लक्ष्णचूर्णितम् ॥ अग्निमान्यं निहन्त्येषा वडवानलसज्ञिता। लागलीरससंयुक्तं तत्सर्वं पुटके पचेत् ।
| मन्देऽग्नावरुचौ गुल्मे अजीर्णं च जलोदरे । रक्तिकाद्वितयं वापि त्रितयं वा प्रकल्पयेत ॥ | विसूच्यां ग्रहणीरोगे तथा वै राजयक्ष्मणि । दोषे व्योषसमायुक्तस्त्रिदोषशमनो भवेत् ।।
वैश्वानरेण विहितो वह्निदीपनकारणात् ।। भक्षयेत्पवने चोग्रे वडवानलसज्ञितम् ॥ __शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक और नाग भस्म ___शुद्ध ताम्र भस्म १ भाग, काली मिर्चका |
३-३ भाग; अभ्रक भस्म ४ भाग, त्रिकुटा (सोंठ, चूर्ण १ भाग और शुद्ध बछनाग १ भाग ले कर
मिर्च, पीपल) ३ भाग, शंख भस्म ८ भाग, एवं सबको एकत्र खरल करके कलियारीके रसमें घोट
जवाखार, सज्जीखार, सेंधा नमक, स्वर्ण भस्म, कर यथा विधि शरावसम्पुट में बन्द करके पुट
विड नमक, संचल नमक, खपरिया और पाषाणभेद लगावें और उसके स्वांग शीतल होने पर पीस कर
१-१ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चर्ण
मिला कर अदरकके रस, बिजौ रेके रस शमीकी मात्रा-२-३ रत्ती।
जड़के काथ, कलियारीको जड़के काथ, और चनाइसे त्रिकुटेके चर्णके साथ देनेसे सन्निपात खारके पानीकी ३-३ भावना दे कर ३-३ रत्तीकी और उग्र वायुका नाश होता है।
गोलियां बना लें।
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रसमकरणम् ]
इन्हें अदरक के रसके साथ सेवन करनेसे अग्निमांद्य, अरुचि, गुल्म, अजीर्ण, जलोदर, विसूचिका, संग्रहणी और राजयक्ष्माका नाश होता है । (६९५८) वडवामुखी गुटी ( र. र. स. । उ. अ. १६) शुल्वायोघन भस्मवेल्लह लिनीव्योषाम्बुनिम्ब
चतुर्थो भाग:
॥
च्छदैः । संयुक्तैश्च हरिद्रया समलवैः सार्धं सशुभ्रामृतैः भृङ्गाम्भोविषतिन्दुकार्द्रकरसैः सम्पिष्य गुआ - मिता | शुष्क asana गुटिका नाम्नोदिता तारया ||
• क्षिप्रं क्षुत्परिबोधिनी खलु मता सर्वामयध्वंसिनी इष्मव्याधिविधूननी कसनहृच्छ्रवासापहा शुलनुत् ॥ क्षुद्वैषम्यहरा च गुल्मशमनी शूलार्तिमूलङ्कषा शोफव्याधिरात्र किं बहुगिरा सर्वामयो
त्सादिनी ॥
ताम्र भस्म, लोह भस्म, अभ्रक भस्म, बायबिड़ंग, कलियारीकी जड़, सोंठ, मिर्च, पीपल, सुगन्धवाला, नीमके पत्ते, हल्दी, फिटकी और शुद्ध बछनाग; इनका चर्ण समान भाग ले सबको एकत्र मिला कर भंगरे के रस, कुचलेके रस या काथ और अदरक के रसकी एक एक भावना दे कर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें ।
कर
इनके सेवनसे शीघ्रहृी अग्नि दीत हो जाती हैं तथा यह वटी कफ, कास, श्वास, शूल, अग्निवैषम्य, गुल्म और शोथको नष्ट करती है I
૯૨
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(६९५९) वत्सनाभाद्या गुटिका (ग. नि. । गुटिका. ४ )
वत्सनाभवल्लयुगं वलषट्कं त्रिकटुकचूर्णस्य । चित्रकवल्ल द्वितयं पिप्पलीमूलस्य वल्लयुगम् ॥ अभया वल्ला द्वादश द्वादशद्विगुणा च गुग्गुलोल्लाः ।
गुटिका धार्या वदने क्षणदायां कफविनाशार्थम् ॥
७२९
शुद्ध बछनाग २ भाग, त्रिकुटा ६ भाग, चीतामूल २ भाग, पीपलामूल २ भाग, हर्र १२ -भाग और गूगल २४ भाग ले कर गूगलमें अन्य समस्त ओषधियोंका चूर्ण मिला कर ( ४-४ रत्ती ) की गोलियां बना लें |
ܬ
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इनमें से १-१ गोली मुंहमें रख कर रस चूसनेसे कफ अध्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाता है । _(६९६०) वरादादियोगः
( र. रा. सु. । ग्रहण्य. )
दग्ध्वा वराटकान् पीतान् त्र्यूषणं टङ्कणं विषम् । गन्धकं शुद्धतं च समं जम्बीरजैद्रवैः ॥ मर्दयेद्भक्षयेन्माषं मरिचाज्यं लिहेदनु । निहन्ति ग्रहणीरोगान् पथ्यं तक्रोदनं हितम् ।।
पीली कौड़ियोंकी भस्म, सांठ, मिर्च, पीपल, सुहागा, शुद्ध बछनाग, शुद्ध गन्धक और शुद्ध पारद समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धक की कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर सबको अम्बीरी नीबू के रस में खरल करके सुरक्षित रक्खें । मात्रा - १ रत्ती ।
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७३०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
इसे खानेके पश्चात् घमें काली मिर्चका । (नोट-एकही ग्रन्थमें एकही स्थान पर चूर्ण मिला कर चाटना चाहिये।
कौड़ीको शीतल भी लिखा है और उष्ण भी। इसके सेवनसे ग्रहणी रोग नष्ट होता है।
कच्ची कौड़ीको घिस कर लेप करनेसे वह शीतल
गुण करती होगी और भस्म उष्ण होगी । इसके पथ्य-तक भात ।
अतिरिक्त और क्या समाधान हो सकता है ? ) (६९६१) वराटिकामारणम्
(६९६२) वराटिकाशोधनम् (आ, वे. प्र. । अ. १०) | ( र. प्र. सु. । अ. ६; आ. वे. प्र. । अ. १०; अङ्गाराग्नौ स्थिता ध्माता सम्यक्मोत्फुल्लिता | र. र. स. । पू. अ. ३ ; रसे. सा. सं.; र. मं.)
यदा। पीता वराटिका मोक्ता सार्धनिष्कप्रमाणिका। स्वागशीता मृता सा तु पिष्ट्वा सम्यक प्रयोजयेत॥ श्रेष्ठा सैव बुधैः प्रोक्ता टङ्कभारा हि मध्यमा ॥ कपर्दिका हिमा नेत्रहिता स्फोटक्षयापहा।
पादोनटङ्कभारा च कथ्यते सा कनिष्ठिका । कर्णस्रावाग्निमान्धघ्नी पित्तासकफनाशिनी ॥
| स्थूला वराटिका प्रोक्ता गुरुश्च श्लेष्मपित्तला॥ कटूष्णा दीपनी वृष्या तिक्ता वातकफापहा ।
| स्वेदिताबारनालेन यामाच्छुद्धिमवाप्नुयात् ॥ परिणामादिशूलनी ग्रहणीक्षयहारिणी ॥ । पीले रंगकी ७॥ माशे वज़नी कौड़ी उत्तम, रसेन्द्रजारणे प्रोक्ता विडद्रव्येषु शस्यते ॥
५ माशेकी मध्यम और ३॥॥ माशेकी कनिष्ठ
५ माशका कौड़ीको अंगारों पर रख कर मावें । जब | हा
| होती है। वह फूल जाय ( उसकी खीलसी हो जायं ) तो जो कौड़ियां बहुत बड़ी और वज़नी हाती अग्निसे सावधानी पूर्वक निकाल कर स्वांगशीतल | हैं वे कफ पित्तकी वृद्धि करती हैं। होने पर पीस कर सुरक्षित रक्खें ।
कौड़ियोंको १ पहर कांजीमें पकानेसे वे शुद्ध कौडी शीतल, नेत्रों के लिये हितकारी एवं | हो जाती हैं । विस्फोटक और क्षयनाशक है तथा कर्णस्राव, अग्नि- | (६९६३) वरुणाचलौहम् मांद्य, रक्तपित्त और कफको नष्ट करती है।
( भै. र. ; रसे. सा. सं. ; र. चं. ; रे. रा. सु. । ___ कौड़ी कटु, उष्ण, दीपनी, वृष्य, तिक्त, वात मूत्रकृच्छ्रा. ; रसे. चि. म. । अ. ९) कफ नाशक, परिणाम शूलादि नाशक, ग्रहणी
द्विपलं वरुणं धात्र्यास्तदर्दू धातकीकुसुमम् । नाशक और क्षयको नष्ट करने वाली है।
हरीतक्याः पलार्द्धश्च पृश्निपर्ण तदर्द्धकम् ।। यह रसजारण और विडद्रव्योंमें उप- कर्षमानश्च लौहाभ्रचूर्णमेकत्र कारयेत् । योगी है।
भक्षयेत्मातरुत्थाय शाणमानं विधानवित् ॥
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७३१
रसप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः मूत्राघातं तथा घोरं मूत्रकृच्छ्रश्च दारुणम् ।। सेंधा नमकको आकके दूधकी भावना दे कर अश्मरी विनिहन्त्याशु प्रमेहं विषमज्वरम् ॥ । धूपमें सुखा कर रखें । बलपुष्टिकरञ्चव वृष्यमायुष्यमेव च ।
मात्रा--७॥ माशे । वरुणायमिदं लौहं चरकेण विनिर्मितम् ॥ |
साथ पीनेसे वमन बरनेकी छाल और आमला १०-१० तोले, जाती है। धायके फूल ५ ताले, हर्र २॥ तोले, पृश्निपर्णी १। तोला, लोह भस्म ११ तोला और अभ्रक
(६९६६) वमनामृतयोगः भस्म १। तोला ले कर सबको एकत्र खरल करें । (र. चं. ; यो. र. । छद्य. ) मात्रा-१ शाण ( ४ माशे)
गन्धकः कमलाक्षश्च यष्टीमधु शिलाजतु । इसके सेवनसे मूत्राघात, दारुण मूत्रकृच्छू,
रुद्राक्षष्टङ्कणश्चैव सारङ्गस्य च शृङ्गकम् ॥ अश्मरी और विषमज्वरका नाश होता तथा बल, वीर्य, पुष्टि और आयुको वृद्धि होती है ।
चन्दनं च तवक्षीरी गोरोचनमिदं समम् ।
बिल्वमूलकषायेण मर्दयेद्याममात्रकम् ॥ (६९६४) वमनकारकरस:
मात्रां चैव प्रकुर्वीत वल्लस्यैव प्रमाणतः । ( र. स. क. । उला. ४)
नानाविधानुपानेन छदि हन्ति त्रिदोषजाम् ॥ राठाकौं मधुकं चैकसाधीद्वपञ्चभागकम् ।
वमनामृतयोगोऽयं कमलाकरभाषितः ।। टकैकाम्बुयुतं दत्तं रसोऽयं वामकः स्मृतः॥
शुद्ध गन्धक, कमलगट्टा, मुलैठी, शिलाजीत, मैनफलके बीज १॥ भाग, आककी जड़की छाल २ भाग और मुलैठी ५ भाग ले कर यथा
रुद्राक्ष, सुहागा, हरिनशृंगकी भस्म, सफेद चन्दन, विधि चूर्ण बना कर रखें ।
तवक्षीर ( तबाखीर), और गोरोचन; सबका चूर्ण मात्रा--१ टंक (४-५ माशे ।)
समान भाग लेकर सबको एकत्र मिला कर बेलकी इसे पानीके साथ देनेसे वमन हो जाती है।
जड़के क्वाथमें १ पहर घोट कर सुखा कर
रक्खें । (६९६५) वमनकारको रसः (र. सं. क. । उल्ला. ५)
मात्रा-३ रत्ती। लवणं भानुदुग्धेन सद्भावितमातपे । इसे उचित अनुपानके साथ देनेसे त्रिदोषज गव्येन पयसा पीतं कर्षार्ध वान्तिकारकम् ॥ । छदि नष्ट होती है।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
(६९६७) वसन्तकुसुमाकररसः वलिपलितहृन्मेध्यः कामदः सुखदः सदा ! (वृ. यो. त । त. ७६ ; भै. र. । रसायना.;
। मेहन्नः पुष्टिदः श्रेष्ठः परं वृष्यो रसायनम् ॥ र. रा. मु.। यक्ष्मा. ; र. चं.। राजयक्ष्मा.;
आयुर्वृद्धिकरं पुंसां प्रजाजननमुत्तमम् । यो. र. ; भै. र. । प्रमेहा. ; नपु. मृ. । त. ५ ;
क्षयकासतृषोन्मादश्वासरक्तविषार्तिजित् ॥ यो. त. । त. २७ ; वृ. नि. र. ; रसे. सा. सं. ।
सिताचन्दनसंयुक्तमम्लपित्तादिरोगजित् । रसायना. ; र. र.; यो. र. ; वृ. नि. र. ।
शुक्लपाण्डामयाञ्शूलान्मूत्राघाताश्मरी हरेत् ॥
योगवाहि विदं सेव्यं कान्तिश्रीबलवर्धनम् । यश्मा. ; धन्व. । वाजीकर. , प्रमेहा. ; र. रा. सु.।
सुसात्म्यमिष्टभाजी च रमयेत्पमदाशतम् ॥ रसायना. ; र. र. स. । उ. अ. १७)*
मदनं मदयेन्मदमुज्ज्वलयपृथाद्वौ हाटकं चन्द्रं त्रयो बङ्गाहिकान्तजम् । प्रमदानिवहानतिविठ्ठलयन् । चत्वारः सूतमभ्रंच प्रवालं मौक्तिकं तथा ॥
सुरतैः सुखदैर्गतिविच्यवनभावना गव्यदुग्वेक्षुवासाश्रीद्विजलै निशा।
भवसारजुषामयमेव सुहृत् ॥ मोचकन्दरसैः सप्त क्रमाद्भाव्यं पृथक्पृथक् ॥
स्वर्ण भस्म २ भाग, चांदी भस्म २ भाग, शतपत्ररसेनैव मालत्याः कुसुमैस्तथा। ..
बंग भस्म ३ भाग, नाग भस्म ३ भोग, कान्त लोह पश्चान्मृगमदैर्भाव्यः सुसिद्धो रसराड् भवेत् ।।
भस्म ३ भाग, रससिन्दूर, अभ्रक भस्म, प्रवाल कुसुमाकरविख्यातो वसन्तपदपूर्वकः।
भस्म और मोती भस्म ( पाठान्तरके अनुसार हीरा वल्लद्वयमितः सेव्यः सिताज्यमधुसंयुतः॥
भस्म भी) ४-४ भाग ले कर सबको एकत्र खरल
करके गोदुग्ध, ईखके रस, बासा (अडूसे) के रस, * र. र. स. में रौप्य और नागका अभाव
सफेद चन्दनके काथ, सुगन्ध बालाके काथ, खसके है तथा अभ्रक २ भाग लिखा है।
काथ, हल्दीके काथ या स्वरस, केलेकी जड़के १ शुद्धमभ्रमिति पाठान्तरम् । (कुछ ग्रन्थोंमें
रस, कमलके रस और चमेलीके फूलोंके रसकी पारदको अभाव है ).
( पाठान्तरके अनुसार केसरके पानीकी भी ) पृथक् २ पवीति पाठान्तरम् ।
पृथक् सात सात भावना दे कर अन्तमें कस्तूरीके - ३ यो. त. में खस और सुगन्धबालाके स्थान- पानी में घोट कर ४-४ रत्तीकी गोलियां बना लें । पर श्वेत कञ्जकी भावना लिखी है ।
___ इसे मिश्री, घी और शहदके साथ सेवन ४ कई ग्रन्थोंमें श्री ( सफेद चन्दन ) खस करनेसे वलिपलित, प्रमेह, क्षय, कास, तृषा, उन्माद, और हल्दीकी भावनाओंका अभाव है तथा लाक्षा- श्वास, रक्त दोष और विष विकारका नाश होता रस और केले के फूलोंकी भावना अधिक लिखी हैं। तथा मेधा, काम शक्ति, पुष्टि, वीर्य और आयुकी
५ मालत्या कुङ्कुमोदकैरितिः पाठान्तरम् ।। वृद्धि होती है ।
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रसप्रकरणम्]
चतुर्थों भागः
७३३
-२र
इसके सेवनसे पुत्रप्राप्ति भी हो जाती है। । काथ और ईखके रसकी ७-७ भावना दे कर
इसे मिश्री और सफेद चन्दनके चूर्णके साथ सुरक्षित रक्खें । सेवन करनेसे अम्लपित्तादि रोग नष्ट होते हैं।
इसके अतिरिक्त यह श्वेत पाण्डु, मूत्राघात इसे शहदके साथ सेवन करनेसे सोमरोग, और अश्मरीको नष्ट तथा कान्तिकी वृद्धि | मूत्रातिसार, प्रमेह, मूत्राघात, तृष्णा, दाह, तालुकरता है।
शोष, अजीर्ण, ज्वर, श्वास, क्षय और कृशता आदि __ यह रस योगवाही है।
रोग नष्ट होते तथा बल, वीर्यकी वृद्धि होती है ।
यह अन्त्यन्त रसायन है। (६९६८) वसन्तकुसुमाकरो रसः
(६९६९) वसन्ततिलकरसः (१) (भै. र. । बहुमूत्रा.)
| ( भै. र. । कासा. ; र. र.। मिश्रा. ; र. रा. सु.। वक्रान्तस्य च भागैकं द्विभागं हेमभस्मनः।
रसायना. ; धन्व. । वाजीकर; रसे. सा. सं. । अभ्रकस्य च भागौ द्वौ मुक्ताविद्रुमयोस्तथा ॥
रसायना.) वङ्गभस्म त्रिभागं स्याद् रसस्य भस्मनस्तथा ।
हेम्नो भस्मकतोलकं घनयुगं लौहात्त्रयः पारदाचत्वारोऽस्य च भागाश्च सर्वमेकत्र मदितम् ॥ - चत्वारो नियतन्तु वङ्गयुगलं चकीकृतं मर्दयेत् । जम्बीराद्भिश्च गोदुग्धैरुशीरोद्भववारिभिः। ।
मुक्ताविद्रुमयो रसेन समता गोक्षुरवासेक्षुणा वृषद्रवैरिक्षुनीरैः सप्तधा भावयेत्पृथक् ॥ सर्वं वन्यकरीषकेण सुदृढं तप्तं पचेत्सप्तधा ॥... भावितो रसराजः स्याद् वसन्तकुसुमाकरः। कस्तूरीघनसारमर्दितरसः पश्चात् सुसिद्धो भवेत् वल्लोऽस्य मधुना लीढः सोमरोगं क्षयं नयेत् ॥ कासश्वाससपित्तवातकफजित् पाण्डु क्षयादीन् मूत्रातिसारं मेहांश्च मूत्राघाताश्मरीरुजम् । ।
हरेत। तृष्णादाहं तालुशोषं नाशयेन्नात्र संशयः ॥ शूलादिग्रहणींविषादिहरणो मेहाश्मरी विंशति बल्यः पुष्टिकरो वृष्यः सर्वरोगनिवर्हणः।। हृद्रोगापहरो ज्वरादिशमनो वृष्यो वयोवर्द्धनः ॥ हन्त्यजीर्ण ज्वरं श्वासं क्षयरोगं कृशाङ्गताम् ॥ श्रेष्ठः पुष्टिकरो वसन्ततिलको मृत्युञ्जयेनोदितः। नातः परतरं किश्चिद्रसायनमिहेष्यते ॥ __ स्वर्ण भस्म १ भाग, अभ्रक भस्म २ भाग,
वैक्रान्त भस्म १ भाग, स्वर्ण भस्म २ भाग, लोह भस्म ३ भाग, शुद्ध पारद ४ भाग, शुद्ध अभ्रक भस्म २ भाग, मोती भस्म २ भाग, विद्रुम | गन्धक ४ भाग, वंग भस्म २ भाग, मोती भस्म (मूंगा) भस्म २ भाग, वङ्ग भस्म ३ भाग और ४ भाग और प्रवाल (मूंगा) भस्म ४ भाग ले कर पारद भस्म ४ भाग ले कर सबको एकत्र खरल | सबको एकत्र खरल करें और फिर गोख रुके काथ, करके जम्बीरीके रस, गोदुग्ध, खसके काथ, बासेके | बासेके रस तथा ईखके रसकी १-१ भावना देकर
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
७३४
गोला बना कर उसे मूषामें बन्द करके लघुपुटमें पकावें । तदनन्तर उसके स्वांगशीतल होने पर पुनः उक्त रस में घोट कर लघुपुट दें । इसी प्रकार सात पुट देनेके पश्चात् कस्तूरी और कपूरके पानीकी १-१ भावना दे कर सुरक्षित रक्खें ।
वीर्य और आयुकी वृद्धि होती है । ( मात्रा - १ रत्ती । ) (६९७०) वसन्ततिलकरसः (२) ( भै. र. । प्रमेहा. ) लहं व माक्षिकञ्च सुवर्णश्चाभ्रकस्तथा । प्रवालतारं मुक्ता च जातिकोषफलं तथा ॥ एतेषां समभागेन चातुर्जातश्च मिश्रितम् । मर्दयेत् त्रिफलाका वटिकां कुरु यत्नतः ॥ रोगांश्च भिषजा ज्ञात्वा अनुपानं यथायथम् । वातिकं पैत्तिकञ्चैव श्लेष्मिकं सान्निपातिकम् ॥ वायुं नानाविधं हन्ति पस्मारं विशेषतः । विसूचिकाक्षयोन्मादशरीरस्तब्धमेव च ॥ प्रमेहान विंशतिश्चैव नानारोगं विशेषतः ॥
इसे सेवन करने से कास, श्वास, पित्त, वायु, कफ, पाण्डु, क्षय, शूल, संग्रहणी, विष, प्रमेह,
(६९७१) वसन्तमालतीरसः ( सुवर्ण वसन्तमालती रसः )
अश्मरी, हृद्रोग और ज्वरादिका नाश होता तथा ( भै. र. ; धन्व. । ज्वरा. ; यो. त. । त. २७ ;
र. चं. । ज्वरा . )
सुवर्णमुक्ता दरदमरिचं भागवृद्धया प्रदिष्टं खर्परस्याष्टौ प्रथममखिलं मर्दयेत् क्षणेन ।
. लोह भस्म, वंग भस्म, स्वर्ण माक्षिक भस्म, स्वर्ण भस्म, अभ्रक भस्म, प्रवाल (मूंगा) भस्म चांदी भस्म, मोती भस्म, एवं जायफल, जावत्री, दालचीनी, तेजपात, इलायची और नागकेसरका चूर्ण समान भाग ले कर सबको एकत्र मिलावें और त्रिफला काथमें खरल करके ( ३-३ रत्तीकी) गोलियां बना लें ।
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[ वकारादि
इन्हें यथोचित अनुपान के साथ सेवन करानेसे वातज, पित्तज, कफज और सान्निपातिक अनेक रोगोंका; विशेषतः वात व्याधि, अपस्मार, विसूचिका, क्षय, उन्माद, शरीरकी स्तब्धता और प्रमेहका नाश होता है ।
व्रजति विलयं निम्बुनीरेण तावद् द्वन्द्वं मधु चपलया मालतीप्राग्वसन्तः ॥ सेवितोऽयं हरेत्तूर्ण जीर्णश्च विषमज्वरम् । व्याधीनन्यश्च कासादीन् प्रदीप्तं कुरुतेऽनलम् ||
स्वर्ण भस्म १ भाग, मोती भस्म २ भाग, शुद्ध हिंगुल ३ भाग, काली मिर्चका चूर्ण ४ भाग. और खपरिया ( अभाव में यशद भस्म ८ भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर प्रथम मक्खनके साथ घोटें और फिर उसमें नीबूका रस डालते हुवे इतना खरल करें कि चिकनाई नष्ट हो जाय ।
मात्रा - २ रत्ती ।
इसे पीपलके चूर्ण और शहद के साथ सेवन करनेसे जीर्ण ज्वर और विषम ज्वर तथा कासादिका नाश हो कर अग्नि दीप्त हो जाती है ।
(
;
६९७२) वसन्तमालिनीरसः (१) (लघु) ( र. चं. ; यो. र. र. रा. सु. । ज्वरा. ) रसकयुगलभाग वल्लि भागमेकम् । द्वितीयमथ सुखल्वे मर्दये क्षणेन ॥
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थी भागः भवति घृतविमुक्तो निम्बुनीरेण यावत् । __(६९७३) वसन्तमालिनीरसः (२) ज्वरहरमधुकुल्या मालिनीमाग्वसन्तः॥
(मालिनीवसन्तः) जीर्णज्वरे धातुगतेऽतिसारे
(र. च. ; र. रा. सु. । ज्वरा.) रक्तान्विते रक्तभन्ने विकारे।
वैक्रान्तमभ्रं रविताप्यरौप्यघोरव्यथे पित्तभवे च दोषे
गन्धः प्रवालं रसभस्म लौहम् । वल्लद्वयं दुग्धयुतं च पथ्यम् ॥
सटङ्कणं शम्बुकभस्म सर्व
समस्तमेतच्च वरीरजन्योः ॥ प्रदरं नाशयत्याशु तथा दुर्नामशोणितम् ।
द्रवैविमर्थ मुनिसङ्ख्यया च विषमं नेत्ररोगं च गजेन्द्रमिष केसरी ॥
कस्तूरिका शीतकरण पश्चात् । वसन्तो मालिनी पूर्वी सर्वरोगहरः शिशोः ।
वल्लप्रमाणो मधुपिप्पलीभ्यां गभिण्यै सत्र देयो वै जयन्त्याः पुष्पकैः सह ॥ ____ जीर्णज्वरे धातुगते प्रदेयः ॥ सर्वज्वरहरः श्रेष्ठो गर्भपोषण उत्तमः॥
छिन्नोद्भवा सत्त्वसितायुतश्च । ___ खपरिया ( अभावमें यशद भस्म ) २ भाग सर्वप्रमेहेषु च योजनीयः । और काली मिर्चका चूर्ण १ भाग ले कर सबको | कृच्छाश्मरी निहन्त्याशु मातुलुङ्गाकद्रवैः । एकत्र मिला कर मक्खनके साथ घोटें और फिर | रसो वसन्तनामाऽयं मालिनीपदपूर्वकः ॥ उसमें नीबूका रस डाल कर इतना खरल करें कि
___वैक्रान्त भस्म, अभ्रक भस्म, ताम्र भस्म, उसकी चिकनाई जाती रहे ।
स्वर्ण माक्षिक भस्म, रौप्य भस्म, शुद्ध गन्धक, इसे पीपलके चूर्ण और शहदके साथ देनेसे | प्रवाल भस्म, पारद भस्म ( रस सिन्दूर ), लोह ज्वर, जीर्ण ज्वर, धातुगत ज्वर, अतिसार, रक्ताति- भस्म, सुहागेकी खील और शम्बुक ( घोंघों) की सार, रक्त विकार और पित्तजन्य घोर पीडाका भस्म समान भाग ले कर सबको एकत्र मिलावें नाश होता है।
और शतावर तथा हल्दीके रस या काथकी ७-७
भावना दे कर कस्तूरी और कपूरके पानीमें घोट मात्रा-४ रत्ती।
कर २-२ रत्तीकी गोलियां बना लें । पथ्यमें दूध भातादि देना चाहिये ।
इसमें पीपलका चूर्ण मिला कर शहदके साथ यह रस प्रदर, रक्तार्श, नेत्र दोष, और बाल- सेवन करनेसे धातुगत जीर्ण ज्वरका तथा गिलोयके रोगोंको भी नष्ट करता है।
सत और मिश्रीके साथ देनेसे प्रमेहका एवं बिजौरे इसे गर्भिणी स्त्रीको जयन्तीके रसके साथ | या अदरकके रसके साथ देनेसे अश्मरीका नाश देनेसे गर्भ पुष्ट होता है।
होता है।
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[वकारादि
(६९७४) वह्निकुमाररसः (१). गठौना, हींग, सुहागा, सेंधा नमक, धनिया, (वृ. नि. र. ; र. रा. सु. । वातव्या. )
जीरा, अजवायन, काली मिर्च, सांठ, लौंग, इला
यची और बायबिडंग; इनका चूर्ण १।-१। तोला, टङ्कणः पारदो गन्धशङ्खौ कपर्दः
लोहभस्म सबके बराबर तथा.२॥ २॥ तोले शुद्ध समोवत्सनाभस्त्रिभागस्तथा ।
पारद और गन्धककी कजली ले कर सबको एकत्र वल्लिजं अष्टभागं वहिपूर्वः कुमारः
मिला कर खरल करें। स्मृतो भृङ्गनीरेण मर्दितः ॥
इसे शहद और घीके साथ सेवन करनेसे वातरोगेषु सर्वेषु श्वसने वह्निमान्यके
यकृत, प्लीहा, उदररोग, अफारा, गुल्म और हलीकफामये प्लीहकासे शूले वाग्निकुमारकः। मकका नाश होता तथा बल, वर्ण, अग्नि, कान्ति
सुहागेकी खील, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, | और. पुष्टिकी वृद्धि होती है। शंख भस्म, और कौड़ी भस्म १-१ भाग, शुद्ध मात्रा-११माशा । आवश्यकतानुसार मात्रा बछनाग ३ भाग और काली मिर्चका चूर्ण ८ में न्यूनाधिकता कर लेनी चाहिये । भोग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें | और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर
(६९७६) यहिचूडिकरसः भंगरेके क्वाथमें खरल करें।
(र. का. धे. । कुष्ठा.) यह रस वात रोग, अग्निमांद्य, कफज रोग, मूतमेकं त्रिधा गन्धं शुद्धत्र्यूषणचित्रकम् । प्लीहा, कास और शूलको नष्ट करता है। प्रत्येकं सूततुल्यं स्यात्सर्वमेकत्र मर्दयेत् ॥ (६९७५) वद्विकुमाररसः (२) काकोदुम्बरिकाक्षीरैर्यामैकं मधुसंयुतम् । ( र. र. । उदर रोगा.)
मापैकं किटिभं हन्ति रसोऽयं वह्निचूडिकः ॥ गुल्मरामठटकानि सैन्धवं धान्यजीरके।
शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक ३ भाग यवानी मरिचं शुण्ठी लवङ्गैला विडङ्गकम् ॥
और सेांठ, मिर्च, पीपल तथा चीतेका चूर्ण १-१
भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें प्रत्येक तोलकं चूणे लौहचूर्णन्तु तत्समम् ।
और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिला कर सबको रसस्य गन्धकस्यापि पलैकं कज्जली शुभा ॥
१ पहर काकोदुम्बरिका (कठूमर ) के दूधमें घृतेन मधुना खाद्यो रसो वह्निकुमारकः।। यकृत्प्लीहोदरानाहं हन्ति गुल्मं हलीमकम् ॥
खरल करें। बलवर्णाग्निजननः कान्तिपुष्टिविवर्द्धनः।
मात्रा-१ माशा । मासमेकं प्रकर्तव्यं युक्त्या वा त्रुटिवर्द्धनम् ॥ इसे शहदके साथ सेवन करनेसे किटिभ कुष्ठ श्रीमद्गहननाथेन रचितो विश्वसम्पदि ॥ | नष्ट होता है।
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रसप्रकरणम् ]
वह्निरसः (महा)
प्र. सं. ५५७२ महावह्नि रस: (१), प्र. सं. ५५७३ महावह्नि रसः (२) तथा प्र. सं. ५५७४ महावहि रसः (३) देखिये ।
(६९७७) वह्निरसः
(वै. मृ. । विषय ५ ; र. रा. सु. । अजीर्णा. ; वृ. नि. र. । अजी.) जातीजातं त्रिकर्ष मरिचमपि पलं चार्द्ध कर्षमाणम् गन्धं सूतं लवङ्गं विषमिदमखिलं चिञ्चिणीसस्यतोये ।
fuge माषैकमात्रा वितरति
दहनं वह्निमान्धे च सद्यो रोगान शूलानिलादीन दहति
कृतगुणो वहिनामा रसोयम् ॥
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चतुर्थी भागः
इनके सेवन से अग्निमांध,
कृष्णा भागवि
सकलं सद्वत्सनाभाश्रयो भागा निम्बुरसैर्विम
सकलं संसेवितं चाग्निकृत् ॥ शंख भस्म २ भाग, कौड़ी भस्म २ भाग, शुद्ध गन्धक आधा भाग, शुद्ध पारद आधा भाग, पीपलका चूर्ण १ भाग, और शुद्ध बछनागका चूर्ण ३ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिला कर सबको नीबू के रस में घोट कर ( ३-३ रत्तीकी ) गोलियां बना लें ।
इनके सेवन से अग्निदीत होती है । (६९७९) वाजीकरो वटकः ( र. र. रसा. खं. । उप. ६ ) वानरीबीजचूर्ण तु माचूर्णकम् । नारिकेलोदकैर्भाव्यं ग्रामान्ते पेषयेत्ततः ॥ विंशत्यंशेन पिष्टस्य मृतमभ्रं विमिश्रयेत् । तद्वृतैर्वकं पक्त्वा मध्वाज्याभ्यां तु भक्षयेत् ॥
प्र. सं. ५५७४ महा वह्निरसः ( ३ ) देखिये । क्षीरं सितां चानु पिवेद्रामाणां रमते शतम् ॥
૯૩
जावित्री और जायफल ३-३ कर्ष, काली मिर्च ४ कर्ष ( ५ तोले ) तथा शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारा, लौंग, और शुद्ध बछनाग ७॥ - - ७॥ माशे ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियों का चूर्ण मिला कर सबको इमलीके फलके पानी में खरल करके १ - १ माशेकी गोलियां बना लें ।
का नाश होता है ।
वह्निवीय रसः ( र. र. । उदररोगा. )
शूल और वातव्याधि
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७३७
वह्निसूतरसः
( र. रा. सु. । ग्रहण्य. )
प्र. सं. २६२ अग्नि कुमार रसः (३) देखिये । (६९७८) वह्निसृतो रसः
( र. प्र. सु. अ. ८ ) भागौ द्वौ वरशङ्खकस्य
afrat दग्धा वराटास्तथा गन्धस्यैव तु चार्धभाग
सहितः सूतस्तथा योजितः ।
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७३८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
छिलके रहित कौंचके बीजोंका तथा छिलके | एकत्र मिला कर तीन दिन अम्ल वर्गके रसमें रहित उड़दका चूर्ण समान भाग ले कर दोनोंको | खरल करें और फिर उसमें समान-भाग-मिश्रित नारियलके पानीमें भिगो कर रख दें और १ पहर | जवाखार, सजीखार और पांचों नमकका चूर्ण पश्चात् पीस कर उसमें उसका बीसवां भाग (८ भाग ) मिला कर ३ दिन संभालुके रसमें अभ्रक भस्म मिला कर ३-३ माशेके वटक बनावें | घोटें । तदनन्तर जब वह सूख जाय तो उसमें और उन्हें घीमें तल लें।
उसका अष्टमांश शुद्ध बछनागका चूर्ण और उतना इनमें शहद और घी मिला कर मिश्रीयुक्त | ही सुहागा मिला कर सबको १ दिन जम्बीरी दूधके साथ सेवन करनेसे कामशक्ति अत्यन्त प्रबल | नीबूके रसमें घोट कर २-२ रत्तीकी गोलियां हो जाती है।
बना लें। (६९८०) वातकण्टकरसः ।
यह रस वातव्याधि और सन्निपातको नष्ट ( रसे. सा. सं. ; धन्व. ; र. रा. सु. । वात.)
| करता है । इसे अदरकके रस अथवा घीके साथ वज्रमृताभ्रहेमातीक्ष्णमुण्डं क्रमोत्तरम् ।
सेवन करना चाहिये। मरिचं मईयेदम्लवर्गेण दिवसत्रयम् ॥
___अनुपान-संभालुकी जड़का चूर्ण और द्विक्षारं पश्चलवणं मर्दितं स्यात्सम समम् ।
शुद्ध भैंसिया गूगल समान भाग ले कर आवश्यकततो निर्गुण्डिकाद्रावैर्मईयेदिवसत्रयम् ॥
तानुसार घी मिला कर एकत्र कूटें और ११-१। शुष्कमेतद्विचूाथ विषञ्चास्याष्टमांशतः।
तोलेकी गोलियां बना लें । औषध खानेके पश्चात् टङ्कणं विषतुल्यांशं दत्त्वा तं जम्बीरद्रवैः ॥
इनमेंसे एक एक गोली धीमें मिला कर देनी भावयेदिनमेकन्तु रसोयं वातकण्टकः ।
चाहिये । एवं स्निग्धोष्ण आहार कराना चाहिये । दातव्यो वातरोगेषु सन्निपाते विशेषतः ॥
(व्य. मा.-३ माशे) द्विगुञ्जामाकद्रावैघृतैर्वा वातरोगिणे ।
सन्निपातमें औषध खिलानेके पश्चात् मूसली. निर्गुण्डीमूलचूर्णन्तु महिषाक्षश्च गुग्गुलुम् ॥
का काथ पिलाना चाहिये। समांशं मईयेदाज्ये तद्वटी कर्षसम्मिता ।
वातकफसङ्ग्रहणीहरलोहम् अनुयोज्यघृतैनित्यं स्निग्धमुष्णश्च भोजयेत् ॥
(र. का. धे. । ग्रहण्य. ) मण्डलं नाशयेत्सर्वं वातरोगे विशेषतः।।
प्र. सं. ६४२७ लोहरसायनम् (६) देखिये । सन्निपाते पिवेच्चानु तालमूलीकषायकम् ॥ X (६९८१) वातकुलान्तकरसः
हीरा भस्म १ भाग, अभ्रक भस्म २ भाग, ( रसे. सा. सं. ; भै. र. ; र. चं. ; धन्व. । स्वर्ण भस्म ३ भाग, ताम्र भस्म ४ भाग, तीक्ष्ण
अपस्मारा.) लोह भस्म ५ भाग तथा मुण्ड लोह भस्म ६ भोग | मृगनामिशिला नागकेशरं कलिवृक्षजम् । और काली मिर्चका चूर्ण सात भाग ले कर सबको | पारदं गन्धकं जातीफलमेलालवङ्गकम् ।।
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रसप्रकरणम् ] चतुर्थों भागः
७३९ प्रत्येकं कार्षिकञ्चव लक्ष्णचूर्णश्च कारयेत् ।। (६९८२) वातगजाङ्कुशरसः (२) जलेन मर्दयित्वा तु वटीं कुर्याद्विरक्तिकाम् ॥ ( भै. र. ; रसे. सा. सं. ; र. चं. । वाता. ; यथाव्याध्यनुपानेन योजयेच्च चिकित्सकः । र. र. स. । उ. अ. २१ ; वृ. नि. र. ; अपस्मारे महाघोरे मूर्छारोगे च शस्यते ॥ धन्व. ; र. रा. सु. । वाता.) वातजान्सर्वरोगांश्च हन्यादचिरसेवनात् । मृतं सूतं मृतं लौहं ताप्यं गन्धकतालकम् । नातः परतरं श्रेष्ठमपस्मारेषु वर्तते ॥ पथ्या शृङ्गो विष व्योषमग्निमन्थञ्च टङ्कणम् ॥ ब्रह्मणा निम्मितः पूर्व नाम्ना वातकुलान्तकः ॥ तुल्यं खल्ले दिनं मद्य मुण्डीनिर्गुण्डिकाद्रवैः । कस्तूरी, शुद्ध मनसिल, नागकेसर, बहेड़ा, ..
| द्विगुआं वटिकां खादेत्सर्ववातप्रशान्तये ॥
| कणाचूर्णयुतश्चैव जिङ्गीकार्थ पिबेदनु । शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, जायफल, इलायची और लौंग ११-११ तोला ले कर सबको एकत्र मिला
साध्यासाध्यं निहन्त्याशु रसो वातगजाङ्कुशः ॥ कर थोड़ा पानी डाल कर खरल करें और २-२
सप्ताहाद्गृध्रसी हन्ति दारुणं सान्निपातिकम् ।
क्रोष्टुशीर्षकवातश्चाप्यपवाहुकसंज्ञकम् ।। रत्तीकी गोलियां बना लें।
मन्यास्तम्भऊरुस्तम्भं हनुस्तम्भं विनाशयेत् । ___ इसे यथोचित अनुपानके साथ सेवन करनेसे | पक्षाघातादिरोगेषु कथितः परमोत्तमः ॥ घोर अपस्मार, मूर्छा और अन्य वातज रोगांका
पारद भस्म, लोह मस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म, नाश होता है । अपस्मारके लिये इससे उत्तम कोई औषध नहीं है।
शुद्ध गन्धक, शुद्ध हरताल, हर्र, काकड़ासिंगी, शुद्ध
बछनाग, सांठ, मिर्च, पीपल, अरनीकी जड़की छाल वातगजसिंहो रसः (महा)
और सुहागा समान भाग ले कर सबको एकत्र (र. रा. सु. । वातव्या.) | मिला कर मुण्डी और संभालुके रसमें १-१ दिन प्र.सं. ४२७४ पञ्चाननो रसः (२) देखिये। घोट कर २-२ रत्तीकी गोलियां बना लें।
र. रा. सु. में गुड़का अभाव है तथा भंगरेके इनके सेवनसे साध्यासाध्य संमस्त वातज रसकी भावना लिखी है।
| रोग नष्ट होते हैं। वातगजाङ्कुशरसः (१)
यह रस दारुण सन्निपातज गृध्रसीको ७ (वातारिरस:)
दिनमें नष्ट कर देता है। (धन्व. ; र. रा. सु. । वातव्या.)
इसके अतिरिक्त यह क्रोष्टुशीर्ष, अपबाहुक, प्र. सं. ५५७५ महा वातगजाङ्कुश रसः । १ गन्धकं तारमाक्षिकमिति पाठान्तरम् । देखिये।
२ पथ्याभृङ्गीविषमितिपाठ भेदः ।
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७४०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि मन्यास्तम्भ, ऊरुस्तम्भ, हनुस्तम्भ और पक्षाघाता- | तदद्ध त्रिसुगन्धश्च त्रैफलं जीरकं तथा । दिमें भी अत्युत्तम गुणकारी है।
कन्यारसेन सम्पिष्य वटी कार्या द्विरक्तिका ॥ अनुपान-औषध खानेके पश्चात पीपलका सेव्या पयोऽनुपानेन सदा पातः सुखान्वितैः । चूर्ण डाल कर जिगिनीका क्वाथ पीना चाहिये। अशीतिं वातजान् रोगान् चत्वारिंशच्च पैत्तिकान्॥
विंशतिं श्लैष्मिकान् रोगान् सेवनादेव नाशयेत्। (६९८३) वातगजाङ्कशरसः (३) (वृहद्)
अभिघातेन ये क्षीणाः क्षीणावियवाश्च ये ॥ ( भै. र.; रसे. सा. सं. ; धन्व. ; र. ग. मु.।
| व्याधीक्षीणा वयःक्षीणाःस्त्रीक्षीणाश्चापि ये नराः। वानगेगा.)
क्षीणेन्द्रिया नष्टशुक्रा वहिहीनाश्च मानवाः॥ मृताभ्रतीक्ष्णकान्तानि ताम्रतालकगन्धकम् । तेषां वृष्यश्च बल्यश्च वयःस्थापन एव च । स्वर्ण शुण्ठी बला धान्यं कट्फलश्चाभया विषम्॥ खानां पंगुकुब्जानां क्षीणानां मांसवर्द्धनः ।। पथ्या शृङ्गी पिप्पली च मरिचं टङ्कणन्तथा। अरोगी मुखमानोति रोगी रोगाद्विमुच्यते । तुल्यं खल्ले दिनं मद्य मुण्डीनिर्गुण्डिजद्रवैः॥ रसस्यास्य प्रसादेन नास्ति रोगाद् भयं कचित्।। द्विगुआं वटिकां खादेत्सर्ववातपशान्तये। वातगजेन्द्रसिंहोऽयं रसो रोगविनाशकः ॥ साध्यासाध्य निहन्त्याशु वानगजाकु " अभ्रक भस्म, लोह भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध
शुद्ध पारद, अभ्रक भम्म, तीक्ष्ण लोह भरम, गंधक, ताम्र भस्म, सीसा भस्म, सुहागेकी खील, कान्त लोह भस्म, ताम भन्म, शुद्ध हरताल, शुद्ध शुद्ध बछनाग, सेंधा नमक, लौंग, हींग और जायगन्धक, स्वर्ण भस्म, सेठ, खरैटी, धनिया, काय- फल १-१ भाग तथा दालचीनी, तेजपात, छोटी फल, हर्र, शुद्ध बछनाग, हरं, काकडासिंगी, इलायची, हर्र, बहेड़ा, आमला और जीरा आधा पीपल, काली मिर्च और महागेकी खील समान आधा भाग ले कर प्रथम पार गन्धककी कज्जली भाग ले कर प्रथम पार गधककी कज्जली बनावें। बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चर्ण और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर मिला कर घृतकुमारीके रसमें घोट कर २-२ सबको मुण्डी और संभालुके रसमें १-१ दिन रत्तीकी गोलियां बना लें। खरल करके २-२ रत्तीकी गोलियां बना लें।
इन्हें प्रातःकाल दूधके साथ सेवन करनेसे इनके सेवनसे समस्त वातज रोग नष्ट होते हैं।
। अस्सी प्रकारके वातज रोग, ४० प्रकारके पित्तज (६९८३) वातगजेन्द्रसिंहः रोग और २० प्रकारके कफज रोग नष्ट होते हैं ।
( भै. र. । आम वाता.) __अभिघात, व्याधि अथवा स्त्री प्रसंग आदिसे अभ्रं लोहं रसं गन्धं ताम्र नागं सटङ्गणम् । क्षीण और क्षीणेन्द्रिय तथा निर्बलअवयव और विष सिन्धुं लवङ्गश्च हिङ्गु जातीफलं समम् ॥ नष्ट शुक्र पुरुष इसके सेवनसे स्वस्थ हो जाते हैं।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः
७४१
यह रस वृष्य, बल वर्द्धक, अग्नि दीपक और (६९८६) वातज्वरारि रसः वयःस्थापक है तथा खञ्जता, पङ्गता, कुब्जता आदि । (र. का. धे । ज्वरा.) रोगांको नष्ट करता है।
गन्धकं दरदं सूतं खल्वे तुल्यं विमर्दयेत् । इसके सेवनसे रोगी रोग मुक्त हो जाते हैं भावयेदाकद्रावैः सप्तधा पिप्पलीजलैः ॥ और स्वस्थ व्यक्तियोंका स्वास्थ्य स्थिर रहता है। । मरिचस्य कपायेण विजयास्वरसेन च ।
कृष्णधत्तूरनीरेण प्रत्येक सप्तभावनाः ॥ (६९८५) वातचिन्तामणिरसः (वृहद्) पिप्पलीमधुना ह्येष रसो वातज्वरापहः।
( भै. र. ; धन्व. । वातव्या.) वातज्वरारिनामायं प्रयुक्तो रससागरे ॥ भागत्रयं स्वर्णभस्म द्विभागं रौप्यमभ्रकम् ।।
शुद्ध गन्धक, शुद्ध हिंगुल और शुद्ध पारद
समान भाग ले कर सबको एकत्र खरल करें और लौहात् पश्च प्रवालश्च मौक्तिकं त्रयसम्मितम् ।।
फिर अदरकके रस, पीपल तथा काली मिर्च के काथ, भस्ममृतं सप्तकञ्च कन्यारसविमर्दितम् ।
एवं भांग और काले धतूरेके स्वरसकी सात वल्लमात्रा वटी कार्या भिषग्भिः परियत्नतः ॥ सात भावनाएं दे कर ( २-२ रत्तीकी ) गोलियां यथाव्याध्यनुपानेन नाशयेद्रोगसङ्कुलम् । बना लें। वातरोग पित्तकृतं निहन्ति नात्र चिन्तनम् ॥ इन्हें पीपलके चूर्ण और शहदके साथ सेवन वृद्धोऽपि तरुणस्पर्धी कन्दर्पसमविक्रमः। करनेसे वातञ्चर नष्ट होता है। दृष्टः सिद्धफलश्चायं वातचिन्तामणिस्त्विह ॥
वातनाशनो रसः ___स्वर्ण भस्म ३ भाग, रौप्य भस्म और अभ्रक
( र. रा. सु. ; धन्व. ; र. चं. ; रसे. सा. सं.। भस्म २-२ भाग, लोह भस्म ५ भाग, प्रवाल
वातरोगा. ; यो. त.। त. ४० ; वृ. यो. भस्म तथा मोती भस्म ३-३ भाग और पारद
त. । त. ९० ; शा. सं. । खं. २ अ. १२) भस्म सात भाग ले कर सबको एकत्र
प्र. सं. ६९५१ वडवानल रसः (६) मिला कर घृतकुमारीके रसमें खरल करके ३-३
देखिये। रत्तोकी गोलियां बना लें।
(६९८७) वातनाशिनी वटी
(र. चि. म. । स्त. ९) इन्हें यथोचित अनुपानके साथ सेवन करनेसे
दशटङ्कमिता ग्राह्या कुचिला मरिचानि च । वातज और पित्तज रोग नष्ट होते हैं तथा वृद्ध पुरुष
दशमांशानि कार्याणि वटिका मापसम्मिता ॥ भी तरुणके समान हो जाता है।
कर्तव्या शोषिता दद्यात्प्रभाते वातरोगिणम् । यह सिद्ध फल अनुभूत प्रयोग है। दण्डापतानकश्चैव पक्षाघातस्तथैव च ॥
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७४२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि ऊरुस्तम्भो गृध्रसी च गलग्रहहनुग्रहौ । पारद भस्म, ताम्र भस्म, शुद्र मनसिल, शुद्ध अपस्माराग्निमान्ये च गुटया नश्येद्धवं गदः ॥ हरताल, शुद्ध बछनाग, काली मिर्च, कूठ, नागबला,
हर्र, गोखरु, विदारीकन्द और अरण्डमूल समान शुद्ध कुचला १० भाग और काली मिर्चका
भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर चीते और चूर्ण १ भाग ले कर दोनोंको एकत्र खरल करके
पुनर्नवा (बिसखपरे) के रसमें खरल करके ५-५ पानीकी सहायतासे उड़दके बराबर गोलियां
माशेकी गोलियां बनावें । बना लें।
इनके सेवनसे वात पित्तज रोगोंका नाश इन्हें प्रातःकाल सेवन करनेसे दण्डापतानक, |
| होता है। पक्षाघात, ऊरुस्तम्भ, गृध्रसी, गलग्रह, हनुग्रह, अप- | स्मार और अग्निमांधका नाश होता है।
( व्यवहारिक मात्रा-६ रत्ती।) वातपित्तग्रहणीहरलोहम्
(६९८९) वातमेहान्तकरसः ( र. का. धे. । ग्रहण्य.)
(र. चं. । प्रमेहा. ; र. प्र. सु. । अ. ८) प्र सं.६४२४ लोह रसायनम् (३) देखिये।
सूतभस्म अपि वङ्गभस्मक
मर्दितं हि दिवसं जया रसे । वातपित्तान्तकरसः
लेहितं च मधुना दिनत्रयं ( रसे. सो. सं. ; र. चं. । ज्वरा.)
वातमेहविकृति प्रणाशयेत् ॥ प्र. सं. ४४०८ पित्तान्तक रसः (२)
पारद भस्म और वंग भस्म, समान भाग ले देखिये।
कर दोनोंको एकत्र मिला कर १ दिन जयाके इसमें मुण्ड लोहकी जगह नागरमोथा लिखा रसमें खरल करें। है एवं भावना द्रव्योंमें शैवाल और पाठाके स्थान पर आमला तथा शतावरका रस लिखा है । शेष
इसे शहदके साथ सेवन करनेसे वातज प्रमेह प्रयोग समान है।
३ दिनमें ही नष्ट हो जाता है। (६९८८) वातपित्तारि रसः (मात्रा-२ रत्ती । ) (र. र. ; र. चं. । वातरो. ; धन्व. । अम्लपित्ता.) (६९९०) वातरक्तान्तको रसः (१) मृतं मृतं मृतं तानं शिला तालं विषोषणम् ।।
( भै. र. । वातरक्ता.; र. चं. ; रसें. सा. सं ; कुष्ठं नागबला पथ्या त्रिकण्टं च विदारिका ॥
र. रा. सु. ; धन्व. ; र. र. । वातरक्ता.) एरण्डं मर्दयेत्तुल्यं द्रवैश्चाग्निपुनर्नवैः। पारद गन्धकं लौई घनं तालं मनःशिला । निष्कमात्र वटि खादेद्वातपित्तहरा भवेत् ॥ शिलाजतु पुरं शुद्धं समभागं विचूर्णयेत् ॥
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रसपकरणम् ]
चतुर्थों भागः विडङ्गं त्रिफलाव्योषमब्धिफेनं पुनर्नवा । (६९९१) वातरक्तान्तको रसः (२) देवदारुचित्रकञ्च दार्वी श्वेतापराजिता ॥
( र. र.। वातरक्ता.) चूर्णमेषां पृथक् तुल्यं सर्वमेकत्र भावयेत् । त्रिफलाभृङ्गराजस्य रसेनैव त्रिधा त्रिधा ।।
लोहं फलत्रिकं चैव शाणमानं समाहरेत् । सम्भाव्य भक्षयेत्पश्चान्माषमा दिने दिने । षट्शाणं बाकुचीबीजं यत्नतः परिकल्पयेत् ॥ कृत्वानुपानं निम्बस्य पत्रं पुष्पं त्वचं समम् ॥ | त्रिचित्रकमूलञ्च शाणं शाणं समाहरेत् । माषमानं घृतैः कुर्यात् सर्ववातविकारनुत । शुण्ठीशाणत्रयं दद्याच्छाणैकं पिप्पली तथा ॥ वातरक्तं महाघोरं गम्भीरं सर्वजं जयेत् ॥ तोलद्वयं गुडूच्याश्च तथा पौनर्नवं दलम् । सर्वोपद्रवसंयुक्तं साध्यासाध्यं निहन्त्ययम् ॥ तथा वासकवल्कञ्च मुस्तं शाणद्वयं तथा ॥ __शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, लोह गस्म, अभ्रक शाणद्वयं घोषावती फलं दद्याद्भिषग्वरः । भस्म, शुद्ध हरताल, शुद्ध मनसिल, शुद्ध शिलाजीत, पिष्टवैकत्र जलं दत्त्वा शुष्कं भक्षयेत्ययत्नतः ॥ शुद्ध गूगल, बायबिडंग, हर्र, बहेड़ा, ओमला, मासमेकं प्रयोगेण प्रातः काले दिने दिने । सोंठ, मिर्च, पीपल, समुद्रफेन' पुनर्नवाकी जड़, मधुना लेहपिष्टश्च वातरक्तं विनाशयेत् ॥ देवदारु, चीता, दारुहल्दी और सफेद कोयल; गम्भीरं द्वन्द्वजं चैव त्रिदोषजमथापि वा। इनका चूर्ण समान भाग ले कर सबको एकत्र नाशयेन्नात्र सन्देहः सर्वकुष्ठं तथैव च ।। मिला कर त्रिफले और भंगरेके रसकी ३-३ |
वातरक्तान्तको नाममयोगो मुनिसम्मतः ॥ भावना दें।
लोह भस्म, हर्र, बहेड़ा और आमला ३॥मात्रा-१ माशा।
३॥ माशे; बाबचीके बीज २२॥ माशे; निसोत अनुपान-नीमके पत्ते, नीमके फूल और और चीतामूल ३॥-३॥ माशे; सांठ ११॥ नीमकी छाल समान भाग ले कर चर्ण बनावें। माशे, पीपल ३॥। माशे; गिलोय, पुनर्नवाके पत्ते इसमेंसे १। माशा चूर्ण घीमें मिला कर उपरोक्त रस
और बासे (अडूसे) की छाल १५-१५ माशे; खानेके पश्चात् चाटना चाहिये ।
नागरमोथा ७॥ माशे और घोषावती (कड़वी
तूंबी ) का फल ७॥ माशे ले कर सबको एकत्र इसके सेवनसे अत्यन्त घोर, गम्भीर और
मिला कर पानीके साथ अच्छी तरह खरल करें सर्व दोषज असाध्य वातरक्तका भी नाश हो
और जब सूख जाय तो बारीक चूर्ण करके सुरजाता है।
क्षित रक्खें। १ कई ग्रन्थोंमें समुद्रफेनके स्थान पर बाबची इसे प्रातःकाल शहदके साथ सेवन करना लिखी है।
| चाहिये।
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७४४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि इसके सेवनसे एक दोषज, द्विदोषज और उसे शरावसम्पुटमें बन्द करके लघुपुटमें पकायें सन्निपातज गम्भीर वातरक्त तथा कुष्टका नाश एवं स्वांगशीतल होने पर खरल करके सुरक्षित होता है।
रखें । (६९९२) वातराक्षसरसः (१) मात्रा-२ रत्ती । ( यो. र. ; र. रा. सु. । वात रोगा. ; वृ. यो. इसके सेवनसे ऊरुस्तम्भ, वातरक्त, गात्रभङ्ग, त. । ४ त. ९०)
आमवात, धनुर्वात, वातजनित शरीर पीड़ा, पक्षामृतं मूतं तथा गन्धं कान्तं चाभ्रकमेव च । घात, कम्पवात, सन्धि वायु, सुप्तिवात, शूल और ताम्रभस्मकृतं सम्यङ्मर्दयित्वा समांशकम् ।। । उन्मादादि समस्त वातज रोगांका नाश होता है। पुनर्नवागुडूच्यग्निसुरसात्र्यूषणंर तथा ।
( पाठान्तरके अनुसार इसमें १-१ भाग एतेषां स्वरसेनैव भावयेत्रिदिनं पृथक् ॥
शुद्ध बछनाग और निरुत्थ स्वर्ण भस्म अधिक होनी दत्त्वा लघुपुटं सम्यक्स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत् ।
चाहिये तथा कान्त लोह भस्म पारद योगसे वातराक्षसनामाऽयं वातरोगे प्रयोजयेत् ॥
निर्मित होनी चाहिये ।) तत्तद्रोगानुपानेन द्विगुनामात्रसेवनात् ।। ऊरुस्तम्भे वातरक्ते गात्रभङ्गे तथैव च ॥
(६९९३) वातराक्षसरसः (२) आमवातं धनुर्वातं वेदनावातमेव च ।।
( वृ. यो. त. । त. ९० ) पक्षाघातं कम्पवातं सर्वसन्धिगतं तथा ॥
सूतभस्मकहिलं वङ्गं च गगनं विषम् । सुप्तिवातं च शूलं च उन्मादं च विनाशयेत् ।।
तानं टङ्कणकं कान्तं मर्दयेत्रिकटुवैः ।। तत्तद्रोगानुपानेन वाताशीतिविनाशनः ॥
पश्चात्कुमारिकातोयैर्वर्षाभूक्वाथभावितः । पारद भस्म, शुद्ध गन्धक, कान्त लोह भस्म, पक्षाघातं हनुस्तम्भं मन्यास्तम्भं कटिग्रहम् ॥ अभ्रक भस्म और ताम्र भस्म, समान भाग सर्वानाक्षेपकादींश्च वातव्याधींश्च नाशयेत् । ले कर सबको एकत्र मिला कर | वातराक्षसनामाऽयं सर्ववातनिकृन्तनः ।। पुनर्नवा, गिलोय, चीता, तुलसी और त्रिकुटे |
पारद भस्म, शुद्ध हिंगुल, वङ्ग भस्म, अभ्रक ( पाठान्तरके अनुसार बासे ) के क्वाथ या स्वरस
| भस्म, शुद्ध बछनाग, ताम्र भस्म, सुहागेकी खील की ३-३ भावना दे कर गोला बनावें और
और कान्त लोह भस्म समान भाग ले कर सबको x वृ. यो. त. में " सूतेन मारितं कान्तं एकत्र मिला कर त्रिकुटेके काथ, घृतकुमारीके रस शातकुम्भं निरुत्थकं " पाठ अधिक है। और पुनर्नवाके काथकी १-१ भावना दे कर १. विषमिति पाठान्तरम् ।
सुखा कर सुरक्षित रखें। २. " सुरसा चाटरूपकः" इति पाठभेदः । इसके सेवनसे पक्षाघात, हनुस्तम्भ, मन्या
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
७४५
स्तम्भ, कटिग्रह और आक्षेपकादि समस्त वात प्रमेहं रक्तपित्तञ्च गुल्मं सङ्ग्रहणीं तथा ॥ व्याधियां नष्ट होती हैं।
साध्यासाध्यानिहन्त्याशु सत्यं श्रीशिव( मात्रा-१-२ रत्ती।)
भाषितम् । (६९९४) वातराजवटी (१) वातराजवटी ह्येषा नन्दिना परिकीर्तिता ॥
(र. रा. सु. । वातव्या. ) ____ शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, लोह भस्म, स्वर्णमुशुद्ध पारदं गन्धं लोहं माक्षिकभस्मकम् ।
माक्षिक भस्म, स्वर्ण भस्म, चांदी भस्म, ताम्र भस्म, स्वर्णतारं ताम्रवङ्गं कान्तं तीक्ष्णन्तु तालकम् ।।
बंग भस्म; कान्त लोह भस्म, तीक्ष्ण लोह भस्म, दरदं वत्सनाभं च चातुर्जातसचित्रकम् ।
शुद्ध हरताल, शुद्ध हिंगुल, शुद्ध बछनाग, दालत्रिकटु त्रिफला भागी ग्रन्थिकं गजपिप्पली॥
चीनी, तेजपात, नागकेसर, इलायची, चीतामूल, कुष्ठं जातीद्वयं दारुपुष्करं चाम्लवेतसम् ।
| सांठ, मिर्च, पीपल, हरं, बहेड़ा, आमला, भरंगी, सठी दारुहरिद्रे द्वे पद्मकं दाडिमं त्रिवृत् ॥
पीपलामूल, गजपीपल, कूठ, जावत्री, जायफल, रास्ना दुरालभा छिन्ना दन्ती जैपालकं विषम्।
देवदारु, पोखरमूल, अम्लबेत, कचूर, देवदारु, कर्षमात्राणि सर्वाणि द्विपलं गिरिज मतम् ॥
हल्दी, दारुहल्दी, पनाक, अनारदाना, निसोत, जातीफलं तुगाक्षीरी वाजिगन्धा सचव्यकम् ।
रास्ना, धमासा, गिलोय, दन्तीमूल, शुद्ध जमालकोलमुशीरं च द्वौ क्षारौ लवणत्रयम् ॥
गोटा और शुद्ध बछनाग १।-१। तोला तथा शुद्ध सर्व सञ्चूर्ण्य विधिवत्सुखल्वे शोभने दिने ।
शिलाजीत १० तोले एवं जायफल, वंसलोचन,
असगन्ध, चव्य, कंकोल, खस, जवाखार, सज्जीखार, निर्गुण्डी वासकं भृङ्ग काकमाची सहाईकम् ॥
सेंधा नमक, संचल लवण और सामुद्र लवण १।तर्कारीसूरणद्रावैः ततोन्मत्तरसस्य च । भावना खलु दातव्या सप्त सप्त क्रमादिह ॥
| ११ तोला ले कर प्रथम पारे गंधककी कज्जली ततः पर्णरसैर्भाव्यः वटिका वल्लसम्मिताम् । ।
बनावें और फिर उसमें अन्य समस्त ओषधियोंका छायाशुष्कं ततः कृत्वा ज्ञात्वा रोगबलाबलम् ॥
बारीक चूर्ण मिला कर संभालु, बासे ( अडूसे ),
भंगरे, मकोय, अदरक, अरनी, सूरण (जिमीकंद), मुदिने शुभनक्षत्रे शिवं दुगो विभाकरम् ।। प्रणम्य योजयेत्सम्यक् यथारोगानुपानतः॥
धतूरे और पानके रसकी सात सात भावना दे कर अशीतिं वातजान् रोगान् चत्वारिंशच्च पैत्ति
३-३ रत्तीकी गोलियां बना कर छायामें सुखा लें।
कान्। इन्हें यथोचित अनुपानके साथ सेवन करनेविंशति श्लैष्मिकान् घोरान् श्वासं कासं से ८० प्रकारके वातज रोग, ४० प्रकारके
__भगन्दरम् ॥ पित्तज रोग, २० प्रकारके कफज रोग, श्वास, कुष्ठं चोरःक्षतं शूलं ज्वरं पाण्डं गलग्रहम् । । कास, भगन्दर, कुष्ठ, उरःक्षत, शूल, ज्वर, पाण्डु,
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- भैषज्य -
७४.६
[ वकारादि
गलग्रह, प्रमेह, रक्तपित्त, गुल्म और संग्रहणीका । उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर २ पहर नाश होता है । पोस्तके डोढेके क्वाथमें खरल करके २-२ रत्तीकी गोलियां बना लें I
(६९९५) वातराजवटी (२)
(र. रा. सु. । वातव्या . )
पारदं गन्धकं शुद्धं चातुर्जातं कटुत्रयम् । जीरकं युगलं चन्द्रं पत्रं तालीसकेशरम् ॥ जातिफलं लवङ्गं च दीप्यकं वह्निवालुकम् | अमृता चन्दनं द्राक्षा मांसी चव्यं वरी वचा ॥ जातिकोशं विडं धान्यं त्रिफला तगरं वृषम् । प्रत्येकं तोलकं ग्राह्यं द्विपलं च हतायसम् ॥ शुद्धं नवाहिफेनन्तु पलमात्रं प्रकीर्तितम् । सर्व सञ्चूर्ण्य विधिवत् मर्दयेत्खाखसद्रवैः ॥ यामयं ततः कार्य्या वटिका वल्लसम्मिता । timiser लं वीक्ष्य यथारोगानुपानकम् ॥ वातव्याधिमुरुस्तम्भं ज्वरं दाहमनिद्रताम् । प्रमेहं रक्तपित्तं च उरःक्षतमरोचकम् ॥ हन्ति सर्वानशेषेण तमः सूर्योदये यथा । अस्य प्रभावाद् मनुजो रमते रमणीशतम् ॥
भारत
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर, सेठ, मिर्च, पीपल, सफेद और काला जीरा, कपूर, तेजपात, तालीस - पत्र, नागकेसर, जायफल, लौंग, अजवायम, चीता, एलवालुक, गिलोय, सफेद चन्दन, दाक्षा ( मुनक्का), जटामांसी, चव्य, शतावर, बच, जावित्री, बिड लवण, धनियां, हर्र, बहेड़ा, आमला, तगर और बासामूलकी छाल ७॥ - ७॥ माशे, लोह भस्म १० तोले और शुद्ध नवीन अफीम ५ तोले ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर
- रत्नाकरः
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इन्हें रोगी बालका विचार करके उचित मात्रा में उचित अनुपानके साथ सेवन करने से वातव्याधि, उरुस्तम्भ, ज्वर, दाह, अनिद्रा, प्रमेह, रक्तपित्त, उरःक्षत और अरुचिका नाश होता है ।
( नोट -- अफीमको पोस्तके डोढेके पानी में घोल कर मिलाना चाहिये | )
(६९९६) वातविध्वंसनरसः (१) ( वृ. नि. र. । वातव्या . ) रसं गन्धं विषं चैव ताम्रं लौहं समाक्षिकम् । एतत्सर्वं समं योज्यं विषं च द्विगुणं भवेत् ॥ जैपालं तालकं चैव रसेन सह योजयेत् । त्र्यूषणं च समं योज्यं सर्वमेकत्र कारयेत् ॥ निर्गुण्डीसूरणद्रावैर्भानोश्च पयसस्तथा । तर्कारी भृङ्गराजश्च तथोन्मत्तरसस्य च ।। भावना खलु दातव्या सप्त सप्त क्रमादितः । द्विगु भक्षयेत्प्रातर्मरिचैश्च समन्वितम् ॥ जानुजङ्घाकटिस्थूणपादगुल्फौष्ठशीर्षकम् । मन्यास्तम्भं हनुस्तम्भं त्रिकस्तम्भं च शुष्ककम् ॥ जिह्वास्तम्भं बाहुभवं त्रिकस्तम्भं च पादजम् । अधोभागे च ये वाताः सर्वाङ्गे विचरन्ति ये । सर्वान्त्रातान जयेदाशु दैन्यं नारायणो यथा ॥
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म, लोह भस्म और स्वर्णमाक्षिक १-१ भाग, शुद्ध बछनाग २ भाग तथा शुद्ध जमालगोटा और शुद्ध हरताल १ – १ भाग एवं त्रिकुटेका चूर्ण सबके
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
७४७
बराबर ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें समीरे च शूले महा लेष्मरोगे
और फिर उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मिला कर ग्रहण्यां तथा सन्निपाते च मौढथे । संभाल और सूरण ( जिमीकन्द ) के रस, आकके स्त्रियः मूतिकावातरोगेषु दद्यादूध तथा अरणीके काथ एवं भंगरे और धतूरेके निषेवेत गुआद्वयं सूतमेनम् ॥ रसकी ७-७ भावना दे कर सुखा कर सुरक्षित शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, नाग भस्म, वंग रक्खें ।
भस्म, लौह भस्म, ताम्रभस्म, अभ्रक भस्म, पीपल, मात्रा-२ रत्ती ।
सुहागा, त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल ) और इसमें ( १ माशा ) काली मिर्चका चूर्ण
सेठ १-१ भाग ले कर प्रथम पारे गंधककी मिला कर प्रातःकाल ( शहद के साथ ) सेवन
कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियांका करना चाहिये।
चूर्ण मिला कर सबको १ पहर खरल करें । तदनइसके सेवनसे जान जंघा. कटि पादगल्फ न्तर उसमें ४॥ भाग शुद्ध बछनागका चूर्ण मिलाहोठ और शिरोगत वात विकार, मन्यास्तम्भ, हनु- | कर त्रिकुटेके काथ, त्रिफलेके काथ, चीतेके काथ, स्तम्भ, त्रिकस्तम्भ, गात्रशुष्कता, जिहास्तम्भ, भंगरेके रस, कूठके काथ, संभालुके रस, आकके बाहस्तम्भ, पादस्तम्भ, अधः शरीरस्थ वाय और दूध', आमलेके रस, अदरकके रस और नीबूके सर्वाङ्गगत वायु आदि समस्त वातज रोग नष्ट रसकी ३-३ भावना दे कर २-२ रत्तोकी होते हैं।
गोलियां बना लें। (६९९७) वातविध्वंसनरसः (२)
___इनके सेवनसे वातव्याधि, शूल, कफ रोग, (र. चं. ; यो. र. । वात रोगा. ; वृ. यो. त.।
ग्रहणी, सन्निपात, मूढवात और सूतिका रोगका
नाश होता है। त. ९०) रस गन्धकं नागवङ्गं च लौह
(६९९८) वातविध्वंसनरसः (३) (लघु) __ तथा ताम्रजं व्योम निश्चन्द्रकं च ।
(र. चं. । वातरोगा. ; रसे. चि. म. । अ. ९) कणा टङ्कणं व्यूषणं नागरं वै
प्रक्षिप्य गन्धं रसतुल्यभागं पृथग्भागमेकं विमर्थे कयामम् ॥
कलाप्रमाणं च विषं समस्तान् । ततो वत्सनाभं चतुःसार्धभागं
___ पाठभेद ___ दृढं मर्दयेद्भावना व्योषजास्त्रिः । १ त्रिकुटेके स्थान पर काली मिर्च वराचित्रकर्मार्कवैः कुष्ठजैस्त्रि
२ अर्क दुग्धके स्थानमें अकरकरेका काथ । त्रिभिर्भावयेन्निर्गुण्डीभानुदुग्धैः।। ३ आमलेकी जगह मनोधात्री (हियावली)। महाधात्रिनैश्चाईकैनिम्बुनीरैः
३ आमलेके स्थान पर भुई आमला । समं भावयेद्वातविध्वंसनोऽयम् । । ४ अदरकके स्थानमें हालो।
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७४८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
कृशानुतोयेन च भावयित्वा
(७०००) वातविध्वंसनरसः (५) वल्लं ददीतास्य मरुत्पशान्त्यै ॥
( रसे. सा. सं. ; र. चं. ; धन्व. ; र. रा. सु. । अपस्मारे तथोन्मादे सर्वाङ्गव्यथनेऽपि च ।
वातरोगा.) देयोऽयं वल्लमात्रस्तु सर्ववातनिवृत्तये ॥
समान भाग शुद्ध पारे और गन्धककी कजली मूतमभ्रकसत्त्वञ्च कास्यं शुद्धश्च माक्षिकम् । बना कर उसमें उसका सोलहवां भाग शुद्ध बछ- | गन्धकन्तालकं सर्व भागोत्तरविवर्द्धितम् ॥ नागका चूर्ण मिला कर चीतेके क्वाथमें घोट कर कज्जलीकृत्य तत्सर्वं वातारिस्नेहसंयुतम् । ३-३ रत्तीकी गोलियां बना लें।
सप्ताह मईयित्वा तु गोलकीकृत्य यत्नतः ॥ इनके सेवनसे अपस्मार, उन्माद, सर्वाङ्ग
निम्बुद्रवेण सम्पीड्य तिलकल्केन लेपयेत् । व्यथा और अन्य वातज रोग नष्ट होते हैं।
अहिलदलेनैव परिशोष्य प्रयत्नतः ॥
प्रपचेद्वालुकायन्त्रे द्वादशपहरं ततः । (६९९९) वातविध्वंसनरसः (४)
जठरस्य रुजः सस्तिथा च मलविग्रहम् ॥ (र. रा. सु.। वातरोगा. )
आध्मानकन्तथानाहं विसूची वह्निमांद्यकम् । पारदष्टङ्कणो गन्धपाषाण
आमदोषमशेषश्च गुल्मं छर्दिश्च दुर्जयाम् ॥ भिद्वत्सनागो वराटस्तथा तालकः।
ग्रहणीं श्वासकासौ च क्रिमिरोग विशेषतः। ज्यूषणं हेमनीरेण तन्मद
हन्यात्सर्लाङ्गशूलश्च मन्यास्तम्भन्तथैव च ।। येद्रक्तिकाभा वटी वातविध्वंसकः ।।
ज्वरे चैवातिसारे च शूलरोगे त्रिदोषजे । सन्निपातके मारुते कफे
पथ्यं रोगानुसारेण देयमस्मिन्भिपग्वरैः। शीतमान्यके श्वाससम्भवे ।
श्रीमता नन्दिनाथेन वातविध्वंसनो रसः ॥ सङ्ग्रहाभिधे शूलजे गदे काससंमृतौ योजयेत्सदा ॥
__ शुद्ध पारद १ भाग, अभ्रक सत्वकी भस्म शुद्ध पारद, सुहागेकी खील, शुद्ध गन्धक,
२ भाग, कांसी भस्म ३ भाग, स्वर्णमाक्षिक पखानभेद, शुद्ध बछनाग, कौड़ी भस्म, शुद्ध हर
भस्म ४ भाग, शुद्ध गन्धक ५ भाग और शुद्ध ताल और त्रिकुटेका चूर्ण समान भाग ले कर प्रथम
हरताल ६ भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें
| खरल करें । जब कज्जली हो जाय तो उसे सात
| दिन अरण्डीके तेलमें खरल करके गोला बनावें अन्य ओषधियां मिलो कर धतूरेके रसमें घोट कर
और उसे सुखा कर उसके ऊपर नीबूके रसमें पिसे १-१ रत्तीकी गोलियां बनावें ।
इनके सेवनसे सन्निपात, वायु कफ, शीत, १ कई ग्रन्थों में पारदका अभाव है । उस अग्निमांद्य, श्वास, संग्रहणी, शूल और कासका दशामें अभ्रकादि ओषधियां क्रमशः १, २, ३, नाश होता है।
| ४, ५ भाग ली जानी चाहिये
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चतुर्थों भागः
७४९
हुवे तिलोंका आध अंगुल मोटा लेप करके सुखा | जठरस्य रुजः सर्वास्तथा च मलनिग्रहम् ।। लें; एवं ( उसे शरावसम्पुटमें बन्द करके ) १२ आध्मानकमथानाहं विधूची मन्दवह्निताम् । पहर बालुका यन्त्रमें पकावें । तदनन्तर जब वह आमदोषानशेषांश्च गुल्मं छदि च दुर्धराम् ॥ स्वांग शीतल हो जाय तो निकाल कर पीस लें ग्रहणी श्वासकासौ च कृमिरोगमशेषतः । और सुरक्षित रखें।
हन्यात्सर्वाङ्गसदनं मन्यास्तम्भं च वाजिनाम् ॥ इसके सेवनसे उदर पीड़ा, मलावरोध, अफारा, ।
ज्वरे चैवाऽतिसारे च मूलरोगे त्रिदोषजे । विसूचिका, अग्निमांद्य, आमदोष, गुल्म, दुर्जय
पथ्यं रोगानुरूपेण दापनीयं भिषग्वरैः ।।
श्रीमता नन्दिना प्रोक्तो वातविध्वंसनो रसः। छर्दि, संग्रहणी, श्वास, कास, कृमि रोग, सागशूल, मन्यास्तम्भ, ज्वर, अतिसार और त्रिदोषज
क्षुधाथिभिः सदा सेव्यः सर्वाहारपरैर्नरैः ॥ शूलका नाश होता है।
___ अभ्रकसत्वकी भस्म १ भाग, कांसी भस्म २ इस पर पथ्य, रोगोचित देना चाहिये । भाग, ताम्र भस्म ३ भाग, स्वर्ण माक्षिक भस्म ४
भाग, शुद्ध गन्धक ५ भाग, शुद्ध हरताल ६ भाग (७००१) वातविध्वंसनरसः (६)
और शुद्र पारद सात भाग ले कर सबको एकत्र (र. र. स. । उ. अ. २१) मिला कर खरल करें और जब कज्जली हो जाय मृतमभ्रकसत्वं च कांस्यं शुल्वं हि माक्षिकम् । तो उसे ७ दिन तक अरण्डीके तेलमें खरल करें। गन्धकं तालकं सूतं भागोत्तरविवर्धितम् ॥ तदनन्तर उसका गोला बना कर सुखा लें और तत्सर्वं कज्जलीकृत्य वातारिस्नेहसंयुतम् ।। उस पर नीबूके रसमें पिसी हुई शुद्ध हरतालका मर्दयेत्सप्तदिवस गोलीकृत्य तु यत्नतः ॥
आध अंगुल ऊंचा लेप करके पुनः सुखावें। जब निम्बुद्रावेण सम्पिष्टतालकल्केन लेपयेत् । गेला अच्छी तरह सूख जाय तो उसे ( शरावअर्धाङ्गुलदलं चैव परिशोष्य प्रयत्नतः ।। सम्पुट में बन्द करके ) १२ पहर बालुका यन्त्रमें प्रपचेद्वालुकायन्त्रे यामानां द्वादशावधि । पकावें । तत्पश्चात् उसके स्वांगशीतल होने पर पटचूर्ण विधायैतद्भावयेत्तदनन्तरम् ॥ औषधको निकाल कर खरल करें और उसे पंचपञ्चकोलकचित्राङ्घिवरुणादिकषायतः। कोल ( पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ), दशमूलकषायेण शृङ्गवेररसेन च ॥ चीतामूल, वरुणादिगण और दशमूलके काथ तथा रक्तामृतं कलांशेन दत्त्वा निष्पिष्य यत्नतः। अदरकके रसकी १-१ भावना दे कर उसमें स्थूलकोलास्थितुलितां छायाशुष्का वटी किरेत॥ उसका सोलहवां भाग शुद्ध बछनागका चूर्ण मिला तत्तद्रोगहरैर्द्रव्यैर्नृणां देया सदा हिता। कर अच्छी तरह खरल करके बड़े बेरकी गुठलीके हन्यादशीतिधा भिन्नान्वातजातान्महागदान् ॥ समान गोलियां बना कर छायामें सुखा लें। गुल्मानष्टविधांश्चापि शूलानष्टविधानपि।। ( व्यवहारिक मात्रा-२ रत्ती।)
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७५०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
इसे रोगोचित अनुपानके साथ सेवन करनेसे रेणुकाका चूर्ण ३ भाग ले कर सबको एकत्र मिला समस्त वातव्याधियां, ८ प्रकारका गुल्म, ८ प्रकार- कर खरल करें । का शूल, जठरपीड़ा, मलावरोध, अफारा, विसू
मात्रा–१ रत्ती । चिका, अग्निमांद्य, आमदोष, दुर्जय छर्दि, ग्रहणी, |
इसके सेवनसे समस्त वातज विकार नष्ट श्वास, कास, साग पीड़ा, मन्यास्तम्भ, ज्वर, होते हैं। अतिसार और त्रिदोषज अर्शका नाश होता है।
(७००४) वातारि रसः (३) इस पर रोगोचित पथ्य देना चाहिये ।
(र. चि. । स्त. ८) (७००२) वातारि रसः (१) उपायैः पूर्वमाख्यातैर्यन्त्रैर्डमरुकादिभिः । (वृ. नि. र. । वातव्या.) ।
येन केनाप्युपायेन भस्मीकुर्याच पारदम् ॥ भागैकं च विषं चैव द्विभागं टङ्कणं तथा। भस्मनो दशगद्याणा दशैव नवसादरात् । चतुर्भागं च मरिचं सहैकत्र प्रयोजयेत् ॥ पञ्च तुर्याः स्फटक्याश्च वत्सनाभविषद्वयम् ॥ आर्द्रकस्य रसैमर्थ वल्लमेकं प्रमाणतः। | मरिचस्य च गद्याणौ मर्दयेत्खल्वके दृढम् ।। मरिचैश्च समायुक्तं सर्ववातनिकृन्तनम् ॥ विधिना जायतेऽनेन रसो वातारि सज्ञकः ॥ __शुद्ध बछनाग १ भाग, सुहागेकी खील २
भाग. सहागेकी खील २ | रक्तिकास्य प्रदातव्या श्लेष्मवातादिरोगिषु । भाग और काली मिर्चका चूर्ण ४ भाग ले कर | अष्टादशप्रमेहेषु प्लीहगुल्मोदरेषु च ॥ सबको एकत्र मिला कर अदरकके रसमें खरल करके आमवाते च मन्दाग्नौ गुल्मयोर्वातरक्तयोः । ३-३ रत्तीकी गोलियां बना लें ।
वाह्याभ्यन्तरमूलेषु समस्तेषु ज्वरेषु च ॥
शृलेऽप्यजीणे शोथे च देयो वातारिसज्ञकः। इन्हें काली मिर्च के चूर्णके साथ सेवन करनेसे
तैलक्षाराम्लवज्यं च भोज्यं मधुरभोजनम् ॥ समस्त वातज रोग नष्ट होते हैं।
दिनाष्टकं घृतं स्तोकं भोजने ग्राह्यमुत्तमम् । ... (७००३) वातारि रसः (२) रोगाः सर्वे विलीयन्ते मासकेन न संशयः॥ ( वृ. नि. र. । वातव्या.)
पारद भस्म १० गद्याण, नौसादर १० रसभस्म च भागैकं गन्धको द्विगुणो भवेत् ।। गद्याण, फिटकी ५ गद्याण, शुद्ध बछनाग २ गद्याण त्रिगुणं च विषं ग्राह्य कणा चैव चतुर्गुणा॥ और काली मिर्चका चूर्ण २ गद्याण ले कर सबको वृत्ता त्रयं तथा प्रोक्तं सर्वमेकत्र कारयेत् । एकत्र खरल करके सुरक्षित रक्खें । गुमा मात्रा प्रदातव्या सर्ववातविकारिणाम् ।। मात्रा-१ रत्ती।
पारद भस्म १ भाग, शुद्ध गंधक २ भाग, इसके सेवनसे कफ वातज रोग, १८ प्रकारके शुद्ध बछनाग ३ भाग, पीपलका चूर्ण ४ भाग और । प्रमेह, प्लीहा, गुल्म, उदर रोग, आमवात, अग्नि
मायाम्।।
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चतुर्थों भागः
७५१
मांद्य, गुल्म, वातरक्त, ज्वर, शूल, अजीर्ण और | (व्यवहारिक मात्रा-२ माशे। ) शोथका नाश होता है।
इसे प्रातःकाल सेवन करना चाहिये और _इसके प्रयोग कालमें तेल, क्षार और अम्ल | औषध खानेके पश्चात् सेठि तथा अरण्डमूलका पदार्थोसे परहेज़ करना तथा मधुर रस युक्त भोजन
काथ पीना; शरीर पर अण्डीके तेलकी मालिश करना चाहिये । प्रारम्भके ८ दिनोंमें धी थोड़ा करके पीठ पर सेक करनी एवं निर्वात स्थानमें खाना चाहिये ।
रहना चाहिये। इसे १ मास तक सेवन करनेसे समस्त
जब इससे विरेचन हो जाय तो स्निग्धोष्ण रोग नष्ट हो जाते हैं।
| भोजन करना चाहिये। (७००५) वातारि रसः (४)
इसे १ मास तक ब्रह्मचर्यव्रत पालन करते (र. र. स. । उ. १८, २१ ; धन्व. ; वृ. नि. | हुवे सेवन करनेसे अन्त्रवृद्धि नष्ट होती है। र. ; वै. र. । वातव्या. ; र. चं. ; र. रा. सु. ;
(७००६) वातारि रसः (५) रसे. सा. सं. । वातव्या. ; भै. र. ।
( र. का. धे. । वातव्या.) वृद्धिरोगा. ) रसभागो भवेदेको द्विगुणो गन्धको मतः।
दिनत्रयं गन्धसमं रसेन्द्र त्रिभागा त्रिफला ग्राह्या चतुर्भागश्च चित्रका
विमर्दयेच्छ्वे तवसुद्रवेण। गुग्गुलुः पञ्चभागः स्यादेरण्डस्नेहमर्दितः।
ताम्रस्य चक्रेण निरुध्य वह्नि क्षिप्त्वात्र पूर्वकं चूर्ण पुनस्तेनैव मर्दयेत् ।।
दद्याद्वरीभृङ्गरसैविमर्थ ॥ गुटिकां कर्षमात्रां तु भक्षयेत्प्रातरेव हि ।
कटुत्रयेणानु पिबेच्च माफ मागरेरण्डमूलानां क्वाथं तदनुपाययेत् ॥
वातारिनामेति मरुत्पशान्त्यै ॥ अभ्यज्यैरण्डतैलेन स्वेदयेत्पृष्ठदेशकम् ।
समान भाग शुद्ध पारेद और गंधककी कज्जली विरेके तेन सआते स्निग्धमुष्णं च भोजयेत ॥ बना कर उसे ३ दिन सफेद आकके रसमें खरल वातारि सज्ञको ह्येष रसो निर्वातसेवितः।।
करें और फिर गोला बना कर उसे ताम्रसम्पुट में मासेन सुखयत्वेव ब्रह्मचर्यपुरः सरः ॥
बन्द करके ( भूधर पुटमें ) पकावें । तदनन्तर ५ भाग शुद्ध गूगलको अरण्डीके तेलमें घोट शतावर और भंगरेके रसकी १-१ भावना देकर कर पतला करें और फिर उसमें १ भाग पारद सुरक्षित रक्खें।
और २ भाग गन्धककी कज्जली, ३ भाग त्रिफले- मात्रा-१ माशा। का चूर्ण और ४ भाग चीतेका चूर्ण मिला कर ( व्यवहारिक मात्रा--२ रत्ती।) अच्छी तरह खरल करके ११-१। तोलेकी गुटिका इसे त्रिकुटेके चूर्णमें मिला कर सेवन करनेसे बना लें।
| वातव्याधिका नाश होता है।
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भारत - भैषज्य रत्नाकर:
(७००७) वातारि रसः (६)
(र. रा. सु. । अतीसारा. ) वात गजाङ्कुश रसः प्र. सं. ६९८२ देखिये । इसमें हरताल और त्रिकुटा नहीं है तथा भावनाद्रव्योंमें मुण्डीकी जगह शुण्ठी पाठ है । शेष प्रयोग समान है ।
वातारि रसः (७)
( र. का. । वातव्या ; र. मं. ; वृ. नि. र. ) वातनाशनो रसः देखिये ।
(७००८) वान्तिद्रसः
( र. चं. ; यो. र. ; र. का. धे. । छद्ये. )
अयः शङ्खो बलिः सुतः खल्वे तुल्यं विमर्दयेत्। कन्याकनकचाङ्गेरीरसैगलं विधाय च ॥ सप्तमृत्कटै लिप्त्वा पुटितो वान्तिहृद्रसः । द्विवल्ल : कृमिरोगेऽपि साजमोदः सवेल्लकः ॥ वान्तिहारेण मुनिना प्रोक्तोऽयं मधुना युतः । पिप्पलक्षारपानीयं पाययेद्वान्तिहृद्भिषक् ॥
लोह भस्म, शंख भस्म, शुद्ध गंधक और शुद्ध पारद समान भाग ले कर सत्रको एकत्र खरल करके कज्जली बनायें और उसे घृतकुमारी, धतूरा, तथा चांगेरीके रसको १–१ भावना दे कर गोला बनावें और उसे शरावसम्पुटमें बन्द करके, उस पर सात कपर मिट्टी करके ( भूधरपुट में ) पकावें ।
मात्रा - ४ रत्ती |
इसे अजमोद और बायबिडंगके चूर्ण में मिलाकर शहद के साथ सेवन करने से कृमि रोग ( और उसके कारण होने वाली वमन ) का नाश होता है ।
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[ वकारादि
मनमें पीपल की छालको जलाकर, बुझाकर वह पानी पिलाना चाहिये ।
पानी में
(७००९) वारिताण्डवरसः ( रसे. सा. सं.; र. रा. सु. । भगन्दरा. ; रसे. चि. म. । अ. ९)
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शुद्धतं द्विधा गन्धं कुमारीरसमर्द्दितम् । त्र्यहान्ते गोलकं कृत्वा ततस्तेन प्रलेपयेत् ॥ द्वयोः समं ताम्रपत्रं हण्डिकान्तर्निवेशयेत् । तद्भाण्डं भस्मनापूर्य्यं चुल्ल्यां तीव्राग्निना पचेत् ॥ द्वियामान्ते समुद्धृत्य चूर्णयेत्स्वाङ्गशीतलम् । जम्बीरस्य रसैः पिष्ट्वा रुद्धा सप्तपुटे पचेत् ॥ गुजैकं मधुनाज्येन लेह्याद्धन्ति भगन्दरम् । मूसली लवणञ्चानु आरनालयुतं पिबेत् ।। भुञ्जीत मधुराहारं दिवास्वप्नञ्च मैथुनम् । वर्जयेच्छीतलाहारं रसेस्मिन्वारिताण्डवे ॥
शुद्ध पारद १ भाग और शुद्ध गंधक २ भाग ले कर दोनोंकी कज्जली बनावें और उसे ३ दिन तूक घृतकुमारीके रस में खरल करके ३ भाग शुद्ध ताम्र पत्रों पर लेप कर दें एवं उन्हें कपरमिट्टी की हुई हाण्डीमें रख कर, उन पर शराब ढक दें और सन्धिको गुड़नेके मिश्रण आदिसे बन्द करके हाण्डीके शेष भागको राखसे भर दें । तदन्
उसे चूल्हे पर चढ़ाकर २ पहर तीब्राझि पर पकावें और फिर उसके स्वांगशीतल होने पर ताम्र पत्रोंको निकाल कर जम्बीरी नीबू के रस में घोटकर यथा विधि गजपुटमें पकावें । इसी प्रकार जम्बीरी नीबूके रसमें घोट घोट कर सात पुट दें । मात्रा - १ रत्ती । यह भगन्दरको नष्ट है 1
करता
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
७५३
इसे शहद और धीमें मिला कर सेवन करना | गिरीकर्णी जयन्ती च तिलपर्णी च भृङ्गजैः । तथा औषध खानेके पश्चात् मूसली और सेंधानमक- | दण्डोत्पलं शिग्रुदन्ती कदम्ब केशराजकः ॥ का चूर्ण कांजीमें मिला कर पीना चाहिये । जयाकृष्णा महाराष्ट्री एभिर्मथै क्रमावः ।
इस पर मधुर रस युक्त आहार करना और प्रतियामं तु तच्छुष्कं कटुतैलेन लोलयेत् ॥ दिवानिद्रा, मैथुन तथा शीतल आहारसे परहेज़ | शरावसम्पुटे रुध्वा वालुकायन्त्रगं पचेत् । करना चाहिये।
यामैकेन समुद्धत्य चूर्णितं तं त्रिगुञ्जकम् ॥
त्र्यूषणं पश्चलवणं क्षारत्रीणि द्विजीरकं । (७०१०) वारिभक्तवटिका
| वाकयवानी च समभाग तु चूर्णयेत् ।। (र. र. । अग्निमान्द्या.)
अनुपानं चतुर्मापं सन्निपातहरं हितम् । रसगन्धकमभ्रञ्च गुडूचीसत्वमेव च। माहिषं दघिसंयुक्तं पथ्यं स्याद्रसवीर्यकृत् ॥ विडङ्ग मरिचं चैव सर्वमेकत्र कारयेत् ॥ साध्यासाध्ये प्रयोक्तव्यो रसोयं वारिसागरः ।। आर्द्रकस्य रसेनापि गुटिकां कारयेद्बुधः ।
१ भाग शुद्ध पारद, २ भाग शुद्ध गंधक भक्षयेन्मासमात्रन्तु अम्लतोयानुपानतः ॥ और ४ भाग अभ्रक भस्मकी कजली बना कर अग्निश्च कुरुते दीप्तं सामाजोणे प्रणाशनम् ॥ उसे १-१ पहर संभालु, मकोय, धतूरा, अदरक,
शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, अभ्रक भस्म, | चीता, कोयल, जयन्ती, चन्दन, भंगरा, दण्डोत्पल गिलोयका सत, बायबिडंगका चूर्ण और काली (सहदेवी), सहजनेकी छाल, दन्तीमूल, कदम्बके मिर्चका चर्ण समान भाग ले कर प्रथम पारे पुष्प, काला भंगरा, अरणी, पीपल और महाराष्ट्री गंधककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य | (जल पीपल ) के रस में पृथक् पृथक् खरल करें ओषधियांका चूर्ण मिला कर, अदरकके रसमें घोट | तथा सूख जाने पर सरसेांके तेलमें उसकी लुगदीकर १-१ माशेकी गोलियां बना लें। सी बना कर उसे शरावसम्पुटमें बन्द करके १
इन्हें कांजीके साथ सेवन करनेसे आमाजीण- पहर बालुका यन्त्रमें पकावें और उसके स्वांग का नाश होता और अग्नि दीत होती है। शीतल होने पर चूर्ण करके रक्खें । ( व्यवहारिक मात्रा--४ रत्तो।)
मात्रा--३ रत्ती।
अनुपान-साठ, मिर्च, पीपल, सेंधा नमक, (७०११) वारिसागरो रसः
| संचल नमक, विड लवण, सामुद्र लवण और ( रसे. चि. म. । अ. ९ ; र. रा. सु. ; र. का. | काच लवण, जवाखार, सञ्जीखार, सुहागा, जीरा,
धे. ; धन्व. ; र. र. । ज्वरा.) काला जीरा, बच, अदरक और अजवायन समान शुद्धं सूतं द्विधा गन्धं चतुर्भागं मृताभ्रकम् । भाग ले कर चूर्ण बनावें । औषध खानेके पश्चात् निर्गुण्डी काकमाची च धत्तराईकचित्रकैः ॥ ! ४ माशे यह चूर्ण खाना चाहिये ।
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भारत-भैषज्य रस्नाकरः
[वकारादि
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इसके सेवनसे असाध्य सन्निपात भी नष्ट हो रक्तपित्तं क्षयं श्वासं ज्वरं प्लीहानमेव च । जाता है।
बालानामपि वृद्धानां तरुणानां विशेषतः ।। इस पर दही युक्त पथ्य देना चाहिये। पार्श्वशूलश्च हच्छूलमम्लपित्तं वमिं तथा। (७०१२) वासावलेहः (वृहद् ) ।
वृहवासावलेहोऽयं महादेवेन निर्मितः॥
- छोटी और बड़ी कटेली .तथा बासा और (भै. र. । रा. य.)
भरंगी २५-२५ पल ( प्रत्येक १२५ तोले ) पञ्चविंशत्पलं ग्राह्यं वृहत्योर्वासकस्य च ।
ले कर सबको एकत्र कूट कर ३२ सेर पानीमें भार्याश्च पञ्चविंशच जलद्रोणे विपाचयेत् ।।
पकावें और ८ सेर पानी शेष रहने पर छान कर पादशेषे रसे तस्मिन् ख डप्रस्थं समावपेत् ।
उसमें १ सेर मिसरी और २० तोले घी मिला कुडवार्द्धश्च हविषो मधुनः कुडवं तथा ॥
कर पुन: पकावें । जब अवलेह तैयार हो जाय सूताभ्रकं पलश्चकं कणाचूर्ण चतुष्पलम् । तो उसे अग्निसे नीचे उतार कर उसमें अभ्रक भस्म कुष्ठं तालीशपत्रञ्च मरिच तेजपत्रक ॥
५ तोले, पीपलका चूर्ण २० तोले, तथा कूठ, मुरामांसीमुशीरश्च लवङ्गं नागकेशरम् ।
तालीस पत्र, काली मिर्च, तेजपात, मुरामांसी, त्वग्भार्गीवालकं मुस्तं प्रत्येकं कर्षसम्मितम् ॥
खस, लौंग, नागकेसर, दालचीनी, भरंगी, सुगन्धश्लक्ष्णचूर्णीकृतं सर्व लेहाभूते विनिक्षिपेत् ।।
बाला और नागरमोथा; इनका चूर्ण ११-१। तोला हन्ति यक्ष्माणमत्युग्रं कासं पञ्चविधं तथा ॥ । मिलावें एवं ठंडा हो जाने पर ४० तोले शहद
x पाठान्तरके अनुसार. मिला कर सुरक्षित रखें। (१) अभ्रक भस्म १ भाग लेनी चाहिये । इसके सेवनसे उग्र राजयक्ष्मा, पांच प्रकारको
(२) भावनाद्रव्यों में दण्डोत्पलाका अभाव है। खांसी, रक्तपित्त, क्षय, श्वास, ज्वर, प्लीहा, पार्श्व.. (३) अनुपानमें तीनों क्षारोंकी जगह १ भाग शूल, हृच्छूल, अम्लपित्त और वमनका नाश शणपुप्पी है तथा चीतेका अभाव है। होता है। धन्वन्तरि तथा र. र. के अनुसार.. यह वृद्धों तथा बालकोंके लिये और विशेषतः
(१) अभ्रक, गंवक और पारद. समान युवकोंके लि हितकारी है । भाग हैं
(मात्रा--२-२॥ तोले । ) + (२) भावना द्रव्योंमें दन्ती, कदम्ब, नागकेसर और जयाके स्थानमें जातीकन्द, भंगरा और .... (७०१३) वासासूतरसः पीपलामूल लिखी है तथा पीपलका अभाव है... ( यो. र. । रक्तपित्ता. ; वृ. यो. त. । त. ७५ ) ..(३) शराव संपुटमें बन्द करनेसे पहिले कटु आटरूपनवपल्लवद्वे तैलमें घोटनेके लिये नहीं लिखा ।
पालिके सरसभस्मवल्लकम् ।
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रसप्रकरणम् ]
कर्षसम्मितं मधुप्रयोजितं प्राश्य नाशयति रक्तपित्तकम् ॥ २ ती पारद भस्म में ५ तोले बासेके कोमल पत्तों का स्वरस और १ तोला शहद मिला कर सेवन करने से रक्तपित नष्ट होता है ।
(७०१४) वासुकिभूषणो रसः (भैर. | प्लीहयद्रो. ) सूतेन वङ्गन्तु समं नियोज्य तत्तुल्यशुल्बेन च गन्धकेन । विमर्दयेदकरसेन यामं
मृदा च संलिप्य पुटं ददीत || वासरसैस्तं परिभावयेच्च
रसो भवेद्वासुकिभूष गोऽयम् । प्लीहश्च गुल्मस्य च शान्तयेऽस्य गुञ्जाञ्च दद्याद् वसुचूर्णयुक्तम् ॥
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चतुर्थो भागः
शुद्र पारद, वंग भस्म, ताम्र भस्म और शुद्ध गंधक समान भाग ले कर कज्जली बनावें और उसे १ पर आके रसमें घोट कर शरावसम्पुटमें बन्द करके लघुपुटमें पकायें । तदनन्तर उसे वासे (अडूसे) के रसकी एक भावना दे कर सुखा कर सुरक्षित रक्खें ।
इसे ( २–३ रत्ती ) सफेद आक की जड़की छालके चूर्ण के साथ सेवन करनेसे प्लीहा और गुल्मका नाश होता है ।
रसगन्धरविक्षीरैस्तिथिवारान्विभावयेत् । यामद्वादशकं वह्निर्वालुकायन्त्रतो पचेत् ॥
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७५५
स्वाङ्गशीतं समुद्धृत्य वज्रीक्षीरेण भावयेत् । दद्यात्सू पूर्ववदत्रं च ततश्च तिथिभावनाः ॥ भावनाः स्युश्च कम्पिल्लवीजतैलेन चानलः । यामषोडशकं सोऽयं विकरालास्यभैरवः ||
( इसके सेवन से ज्वर नष्ट होता है । मात्रा - १ रत्ती । ) (७०१६) विकरालवक्त्र भैरवरसः (२) ( र. का. घे. । ज्वरा. ) ऋतुभागं सोममलं तालं दिनमितं तथा । कन्याद्भिः पञ्चदश च भावनाश्छिक्किकाद्रवैः || अश्वत्थत्वचमध्यस्थं पड्यामं दाहयेत्ततः । अरण्योपलकैः शीतमश्वगन्धाम्बुरोजितः || भावयित्वा रसैस्तत्तु तालं कुठहरं भवेत् ।
(७०१५) विकराल वक्त्र भैरवरस: (१) नित्योदितो रसः सोऽत्र रसं राजीमितं भवेत् ॥
( र. का. . । ज्वरा. )
शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक समान भाग कर कज्जली बनायें और उसे १५ दिन आकके दूधमें खरल करके आतशी शीशी में भर कर १२ पहर बालुका यन्त्र में पकावें । तदनन्तर यन्त्र के स्वांग शीतल होने पर उसमेंसे औषधको निकाल कर १५ दिन थूहर ( सेंड - सेहुंड ) के दूधमें खरल करके १२ पहर बालुका यन्त्र में पकावें । इसके पश्चात् उसे १५ दिन कमीलेके बीजोंके तेलमें खरल करके पूर्ववत् १६ पहरकी अन दें और स्वांगशीतल होने पर निकाल कर रख लें ।
शुद्ध सोमल (संखिया) ६ भाग और शुद्ध हरताल ७ भाग ले कर दोनोंको एकत्र खरल करके घृतकुमारी और नकछिकनीके रसकी पृथक् पृथक्
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
१५-१५ भावना दे कर टिकिया बना लें और | दुर्वारां ग्रहणी हन्ति दुःसाध्यां बहुवार्षिकीम् । उन्हें सुखा कर पीप ठकी छालके चूर्णमें रख कर आमशूलमतीसारं चिरोत्थमतिदारुणम् ॥ शरावसम्पुटमें बन्द करके ६ पहर अरने उपलोंकी प्रवाहिका षडांसि यक्ष्माणं सपरिग्रहम् । अग्निमें पकावें और फिर असगन्धके रसमें खरल शोथश्च कामलां पाण्डुं प्लीहगुल्मजलोदरम् ॥ करके सुरक्षित रखें।
पक्तिशूलमम्लपित्तं वातरक्तं वमि भ्रमिम् । मात्रा-१ राईके बराबर ।
अष्टादशविधान् कुष्ठान् प्रमेहान् विषमज्वरान् ॥ इसके सेवनसे कुष्ठ नष्ट होता है। चतुर्विधमजीर्णश्च मन्दामित्वमरोचकम् ।
जीर्णोऽपि पर्पटी कुर्वन् वपुषा निर्मलः सुधीः॥ (७०१७) विक्रमकेशरी रसः
जीवेद्वर्षशतं श्रीमान् वलीपलितवर्जितः । ( भै. र. ; र. रा. सु. । ज्वरा.) प्रात:करोति नियतं सततं द्विगुजां शुल्वमेकं द्विथा तारं मर्दयेद् विधिवद्भिषक् । यस्ता स विन्दति तुलां कुसुमायुधस्य ॥ पश्चाद्विषं रसं गन्धं मेलयित्वा तु भावयेत् ॥
आयुश्च दीर्घमनघं वपुपः स्थिरत्वं एकविंशतिवारांश्च लिम्पाकवल्कलद्रवैः ।।
___ हानि वलीपलितयोरतुलं बलश्च । रसः सिद्धः प्रदातव्यो गुआमात्री ज्वरान्तकृत् ।। जराव्याधिसमाकोर्ण विश्वं दृष्ट्वा पुरा हरः ॥ सर्वधरहरः ख्यातो रसो विक्रमकेशरी॥
चकार पर्पटीमेतां यथा नारायणः सुधाम् ।। १ भाग ताम्र भस्म और २ भाग चांदी
शुद्ध पारद, हीरा भस्म, स्वर्ण भस्म, चांदी भस्म ले कर दोनोंको एकत्र खरल करें और फिर उसमें १-१ भाग शुद्र पारद, शुद्ध गैरक और
| भस्म, मोती भस्म, ताम्र भस्म और अभ्रक भस्म शुद्ध बछनागवा चूर्ण मिला कर अच्छी तरह घोट
१-१ भाग तथा शुद्ध गंधक ७ भाग ले कर कर कज्जली बनावें एवं जम्बीरी नीबूको छालके
सबको एकत्र खरल करके यथा विधि पर्पटी रसकी २१ भावना दे कर १-१ रत्तीको गोलियां
बनावें । बना लें।
इसके सेवनसे कष्ट साध्य बहुत वर्षोंकी इनके सेवनसे समस्त प्रकारके ज्वर नष्ट
पुरानी संग्रहणी, भयंकर पुराना आमशूल, अतिहोते हैं।
सार, प्रवाहिका, ६ प्रकारकी अर्श, उपद्रवयुक्त
राजयक्ष्मा, शोथ, कामला, पाण्डु, प्लीहा, गुल्म, ... (७०१८) विजयपर्पटी (१)
जलोदर, पक्तिशूल, अम्लपित्त, वातरक्त, वमन, (भै. र. ; र. चं. । ग्रहण्य.) । भ्रम, १८ प्रकारके कुष्ठ, प्रमेह, विषम ज्वर, ४ रसं वज्रं हेम तारं मौक्तिकं ताम्रमभ्रकम् । प्रकारका अजीर्ण, अग्निमांद्य और अरुचिका नाश सर्वतुल्येन गन्धेन कुर्याद्विजयपर्पटीम् ॥ } होता है।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
७५७
-
यदि इसे वृद्ध पुरुष भी सेवन करे तो वह रक्तिकादिक्रमाद्धिर्भक्ष्या नैव दशोपरि ॥ भी बलि पलित-रहित और बुद्धिमान हो कर | आरोग्यदर्शनं यावत्तावद्धासस्ततः परम् । १०० वर्षकी आयु प्राप्त करता है ।
अजीर्णे भोजनं नैव पथ्यकाले व्यतिक्रमे ॥ इसे २ रत्ती मात्रानुसार प्रातःकाल सेवन
घृतसैन्धवधन्याकहिङ्गुजीरकनागरैः। करनेसे काम शक्तिकी अत्यन्त वृद्धि होती ।
शस्यते व्यञ्जनं सिद्धं पित्ते स्वादम्लमाक्षिकम् ॥ और शरीर दृढ़ तथा बलवान हो कर १०० वर्षकी
पटोलफलपत्रश्च कृष्णवार्ताकुजालिका । बलिपलित रहित आयु प्राप्त होती है।
सुस्विन्नपूगैस्ताम्बूलैलाभे कर्पूरसंयुतैः ॥ (७०१९) विजयपर्पटी (२)
क्षुधाकाले व्यतिक्रान्ते यदि वायुः प्रकुप्यति ।
झिझिनीति शिरःशूले विरेके वमथौ तथा ॥ ( भै. र. ; र. रा. सु. । ग्रहण्य. ) | तृष्णायाश्चाधिके पित्ते नारिकेलाम्बु निर्भयम्। गन्धकं क्षुद्रितं कृत्वा भाव्यं भृङ्गरसेन तु ।
नारिकेलपयः पेयं द्विर्भक्ष्यं क्षीरमेव च ॥ सप्तधा वा त्रिधा वापि पश्चाच्छष्क विचूर्णयेत ।। स्वप्ने शुक्रच्युतौ चैव चम्पर्क कदलीफलम् । चूर्णयित्वायसे पात्रे कृत्वा वह्निगतं सुधीः। | वज्यै निम्बादिकं शाकं पाकाम्लं काजिकं द्रुतं भृङ्गरसे क्षिप्तं ततः उद्धृत्य शोषयेत् ॥
सुराम् ॥ तश्च गन्धं पलञ्चकं गन्धार्द्ध शुद्धपारदम्। | कदलीफलपत्रांघ्रित्रपुषालाबुकर्कटी। सूताद्धै भरमरौप्यश्च तदद्धे स्वर्णभस्मकम् ॥
कूष्माण्ड कारवेल्लञ्च व्यायामं जागरं निशि ॥ तदई मृतवैक्रान्त मौक्तिकश्च विनिक्षिपेत् ।। न पश्येन्न स्पृशेद्गच्छेत् स्त्रियं जीवितुमिच्छति। एकीकृत्य ततः सर्व कुर्यात पर्पटिकां शुभाम ॥ यद्यौषधे स्त्रियं गच्छेत् कर्त्तव्या तु प्रतिक्रिया ॥ लौहपात्रे समरसं मर्दितं कजलीकृतम् । दुर्वारा ग्रहणी हन्ति दुःसाध्यां बहुवार्षिकीम् । बदराङ्गारवतिस्थे लौहपात्रे द्रवीकृते ॥ आमशूलमतीसारं सामञ्चैव सुदारुणम् ॥ मयूरचन्द्रिकाकारं लिङ्गं वा यदि दृश्यते । अतीसारं घडीसि यक्ष्माणं सपरिग्रहम् । आद्ययोदृश्यते सूतः खरपाके न दृश्यते ॥
शोथश्च कामलां पाण्डु प्लीहानश्च जलोदरम् ।। मृदौ न सम्यग् भङ्गः स्यान्मध्यभङ्गश्च रूप्यवत्। पक्तिशूलं चाम्लपित्त वातरक्तं वमि कृमिम् । खरे लघु भवेद्भङ्गो रूक्षसूक्ष्मोरुणच्छविः ॥ अष्टादशविधं कुष्ठं प्रमेहान् विषमज्वरान् ॥ मृदमध्यौ तथा खाद्यौ खरस्त्याज्यो विषोपमः। वातपित्तकफोत्यांश्च ज्वरान् हन्ति सुदारुणान् । जराव्याधिशताकीर्ण विश्वं दृष्ट्वा पुरा हरिः॥ जीर्णोऽपि पर्पटी कुर्वन् वपुषा निर्मलः सुधीः ॥ चकार पपेंटीमेतां यथा नारायणोऽमृतम् । जीवेद्वर्षशतं श्रीमान् वलीपलिवजितः । आदौ शङ्करमभ्यर्च्य द्विजातीन् प्रणिपत्य च ॥ प्रातः करोति सततं नियतं द्विगुञ्जां प्रभाते भक्षयेदेनां प्रायक्तिद्वयसम्मिताम् । यस्ता स विन्दति तुलां कुसुमायुधस्य ।
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७५८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि आयुश्च दीर्घमनघं वपुषः स्थिरत्वं देनेसे ही अत्यन्त शीघ्र टुकड़े टुकड़े हो जाती है हानि वलीपलितयोरतुलं बलश्च ॥
| और उसमें रूक्षता तथा ललाई होती है। साधारण शुद्ध गन्धकके चूर्णको भंगरेके
| मृदु और मध्यम पाक वाली पर्पटी सेवन रसकी ७ या ३ भावना दे कर सुखावें और खरल
| करने योग्य होती है परन्तु खरपाक विष समान कर लें।
त्याज्य है।
पर्पटी सेवन करनेसे पूर्व शिवपूजन और तदनन्तर उसे (घृतलिप्त ) लोह पात्रमें
द्विजोंको नमस्कार करना चाहिये । मन्दाग्नि पर पिघला कर भगरेके रसमें बुझा दें और फिर निकाल कर सुखा लें।
___पहिले दिन प्रातःकाल २ रत्ती पर्पटी खानी
चाहिये और फिर प्रतिदिन १-१ रत्ती बढ़ानी ___यह गन्धक ५ तोले, शुद्ध पारद २।। तोले,
चाहिये । जब दश रत्ती भात्रा पर पहुंच जाएं तो चांदी भस्म १॥ तोला, स्वर्ण भस्म ७॥ माशे,
फिर आरोग्य होने तक नित्य १० रत्ती ही खाते वैक्रान्त भस्म ३॥ माशे और मुक्ता भस्म ३॥
| रहें और इसके पश्चात् प्रतिदिन १-१ रत्ती घटा माशे ले कर सबको लोहेके खरलमें डाल कर
कर सेवन करें, और १ रत्ती पर पहुंचनेके पश्चात् कज्जली बनावें और उसे घृतलिप्त लोहपात्रमें
बन्द कर दें। इसकी मात्रा १० रत्तीसे अधिक बेरीकी लकड़ियोकी अग्नि पर पिघला कर यथा
कदापि न बढ़ानी चाहिये । विधि पर्पटी बना लें। ( पर्पटी बनानेकी विधि
इसके सेवन कालमें अजीर्ण हो जाने पर " पर्पटी रस (१)" में देखिये ।)
अथवा भोजनका समय बीत जाने पर भोजन न पर्पटीका पाक करते समय जब मयूरपुच्छकी करना चाहिये । चन्द्रिकाके समान दिखलाई देने लगे तो पाक
व्यञ्जन (यूष, शाकादि) बनानेमें घी, सेंधातैयार समझना चाहिये ।
नमक, धनिया, हींग, जीरा, और सेठिका उपयोग पर्पटीका पाक ३ प्रकारका होता है-(१) | करना चाहिये । मृदु, (२) मध्यम और (३) खर । मृदु और | यदि पित्तकी अधिकता हो तो मधुर और मध्यम पाकवाली पर्पटं में पारद दिखलाई देता है | अम्ल पदार्थ तथा शहद सेवन कराना चाहिये । और खरपाकमें दिखलाई नहीं देता।
पथ्य-पटोल फल (परवल), पटोल पत्र, - मृदुपाक वाली पर्पटी तोडनेसे अच्छी तरह | काला बैंगन, तुरई, और उबाली हुई सुपारी तथा नहीं टूटती और मध्यम पाकवाली भली भांति टूट | कर्पूर युक्त पान । जाती है तथा उसे तोड़ने पर चांदीको सी चमक यदि आहारकालमें भोजन न करनेसे वायु माछम होती है । खरपाक पर्पटी जरासा दबाव । कुपित हो जाय और शरीरमें झनझनाहट, शिर
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्यों भाग:
शूल, अतिसार, वमन, तृषा एवं पित्तकी अधिकता प्रातः काल सेवन किया जाय तो काम शक्ति और आदि उपद्रव प्रकट हो तो नारियलका पानी बलकी अत्यन्त वृद्धि होती है; शरीर दृढ़ हो निर्भय हो कर देना चाहिये । एवं नारियलका जाता है और बलि पलि-रहित दीर्घायु प्राप्त दूध पिलाना और दोनों समय दुग्धाहार कराना | होती है । चाहिये।
विजयपर्पटीरसः ____ यदि स्वप्नमें वीर्यस्राव हो जाय तो सुनहरी |
(र. रा. सु. । सन्निपाता.) छाल वाला केला खिलाना चाहिये।
प्र. सं. ५५७६ “महा विजय पर्पटी रसः" ___ अपथ्य-निंबादि तिक्त शाक, अम्लपाक
देखिये। वाले पदार्थ, कांजी, सुरा, चम्पक (सुनहरे) केलेके फलके अतिरिक्त अन्य हर प्रकारके केलेका फल
(७०२०) विजयभैरवरसः (१) पत्र और मूल, खीरा, लौकी, ककड़ी, पेठा . (विजयानन्दः) (कुम्हड़ा), करेला, व्यायोम और रात्रि जागरण।
( रसे. चि. म. । अ. ९ ; रसे. सा. सं. ; र. ____ यदि जीवनकी इच्छा हो तो इसके सेवन
रा. सु. । कुष्ठा.) कालमें ( कामवासनासे ) स्त्रीको देखना या स्पर्श
सप्तकञ्चुकनिर्मुक्तमूर्द्धलग्नं रसेन्द्रकम् । . तक करना न चाहिये । यदि भूलसे स्त्रीप्रसंग
मृत्कटाहान्तरे तत्र स्थापयेच्च समन्त्रकम् ॥ हो जाय तो तुरन्त उसका प्रतिकार करना
सूताद्विगुणितं तालं कूष्माण्डद्रवशोधितम् । चाहिये।
दोलायन्त्रेण तैलादौ सप्तधा परिशोधितम् ॥ इसके सेवनसे बहुत वर्षों की पुरानी, अत्यन्त दत्त्वाऽऽप्लाव्यद्रवैण्टियाः किश्चिदाप्लाव्य कष्ट साध्य संग्रहणी तथा दारुण आम शूल,
. युक्तितः। अतिसार, ६ प्रकारके अर्श, उपद्रव युक्त रोजयक्ष्मा,
तयोद्विगुणितं भस्म पलाशस्योपरि क्षिपेत् ॥ शोथ, कामला, पाण्ड, प्लीहा, जलोदर, पक्तिशूल, पुनझिण्टीद्रवेणैव सर्वमाप्लाव्य यत्नतः । .. अम्लपित्त; वातरक्त, वमन, कृमि रोग, कुष्ठ, प्रमेह,
खाखशाकरसैर्भूयः परिप्लाव्य च पाकवित् ॥ विषमज्वर और वातज, पित्तज तथा कफज कष्ट पचेदवहितो वैद्यः सालाङ्गारेण यत्नतः । साध्य ज्वरका नाश होता है।
चतुर्विशतियामन्तु पत्त्या शीतलतां नयेत् ॥ - यदि इसे वृद्ध पुरुष भी सेवन करे तो वलि अवतार्य काचपात्रे विधाय तदनन्तरम् । पलित निर्मुक्त, बुद्धिमान और श्रीयुक्त हो कर १०० | प्रयत्नेन कृतप्रायश्चित्तः शोधितदेहकः ॥ वर्ष तक जीवित रहता है । . .
सिता हरीतकीयुक्तं खादेद्रक्तिचतुष्टयम् । यदि इसे दीर्घ काल तक २ रेत्ती मात्रानुसार । रक्तिकैकक्रमेणैव वर्द्धयेद्दिनसप्तकम् ॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
मधूदकं पिबेच्चानु नारिकेलजलश्च वा। । इसे मिश्री और हरके चूर्णके साथ खा कर जिङ्गिनीसम्भवं काथमथवा क्षौद्रनागरम् ॥ ऊपरसे शहदका शरबत या नारियलका पानी अभ्यङ्गं सुरभिस्तैलैः कुर्यात्ताम्बूल चर्वणम्।। अथवा जिंगनीका काथ पीना या शहदमें मिलाकर पवनानलसूर्याशुमत्स्यमांसदधीनि च ॥ सोंठका चूर्ण चाटना चाहिये । शाकं ककारपूर्वञ्च वर्जयेन्मतिमानरः।
पहिले दिन ४ रत्ती दवा खा कर दूसरे वातरक्तमाममिश्रमामञ्चापि सुदारुणम् ॥ सर्वकुष्ठश्चाम्लपित्तं विस्फोटश्च ममूरिकाम् ।
दिनसे सात दिन तक रोज़ाना १-१ रत्ती बढ़ानी विजयाख्यो रसो नाम्ना हन्ति दोषानसृग्दरान्।।
चाहिये और फिर उसी (११ रत्ती) मात्रासे
| सेवन करते रहना चाहिये। १ भाग सप्त कंचुकी रहित और डमरुयन्त्रमें | उड़ाये हुवे विशुद्ध पारदको कपरमिट्टी की हुई इसके सेवन कालमें शरीर पर सुगन्धित मिट्टीकी हांडीमें रक्खें और उसके ऊपर पेठेके रस, तैलकी मालिश करनी और ताम्बूल भक्षण करना तेल, कांजी, त्रिफलाकाथ और चूनेके पानीमें | चाहिये । दोलायन्त्र विधिसे शोधित २ भाग हरतालका | ___ अपथ्य-पवन, अग्निसे तापना, धूपमें चूर्ण बिछा कर उस पर कटसरैयाका इतना रस
| जाना, मछली, मांस, दही और ककारादि शाक डालें कि जिसमें हरताल अच्छी तरह तर हो जाय । तदनन्तरे उस पर ६ भाग पलाशकी राख
वर्ग ( कुष्मांड, कर्कटी, कलिंग, कारवेल्ल, कुसुबिछा कर उसे पुनः कटसरैयाके काथसे तर कर |
भ्भिका, कर्कोटी, कलम्बी, काकमाची ) से परहेज़ दें और फिर उस पर पोस्तके बीजोंका रस इतना करना चाहिये । डालें कि सम्पूर्ण ओषधियां उसमें डूब जाएं। । इसके सेवनसे साम वातरक्त, आमजनित तत्पश्चात् ( हाण्डीके मुखको शरावसे अच्छी तरह अन्य कष्ट साध्य रोग, समस्त प्रकारके कुष्ठ, बन्द करके ) उसे चूल्हे पर चढ़ावें और नीचे २४
| अम्लपित्त, विस्फोटक, मसूरिका और रक्त प्रदरका पहर तक सालके कोयलोंकी अग्नि जलावें। इसके
नाश होता है। पश्चात् हांडीके स्वांगशीतल होने पर उसमेंसे औषधको निकाल कर पलाशकी राखको अलग
विजयभैरवरसः (२) कर दें और पीस कर सुरक्षित रक्खें ।
(र. चं.; र. का. धे. । ग्रहण्य.; रसे. चि. म. । अ. ९) मात्रा-४ रत्ती।
प्र. सं. ३६६३ नीलकण्ठ रसः (५) देखिये इसे सेवन करनेसे पूर्व प्रायश्चित्त और पंच- इसमें वराङ्ग (दालचीनी ) की जगह विडंग कर्मद्वारा शरीर शुद्धि कर लेनी चाहिये । पाठ है।
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चतुर्थी भागः
रसप्रकरणम् ]
(७०२१) विजयरसः (१) ( रसे. सा. सं. । अजीर्णा. ) रसस्यैकं पलं दत्त्वा नागञ्च गन्धकं पलम् । क्षारत्रयं पलं देयं लवङ्गं पलपञ्चकम् ॥ दशमूलीजयाचूर्ण तद्रवेण तु भावयेत् । चित्रकस्य रसेनाथ भृङ्गराजरसेन तु ॥ शिग्रुमूलद्रवैश्चापि ततो भाण्डे निरुध्य च । याममात्रं पचेदग्नौ मर्द्दयेदाद्रकद्रवैः ॥ ताम्बूलीपत्रसंयुक्तं खादेनिष्क्रमितं सदा ||
शुद्ध पारद, नाग भस्म, शुद्ध गंधक, जवाखारे, सज्जीखार और सुहागा ५ - ५ तोले तथा लौंग २५ तोले ले कर प्रथम पारे गंवककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर दशमूल, र्भाग, चीता, भंगरा और सहजनेकी जड़ की छाल काथकी १-१ भावना दे कर गोला बना लें और उसे सुखा कर शराव सम्पुट में बन्द करके १ पहर भूरयन्त्र में और फिर उसके स्वांगशीतल होने पर कर अदरक के रस में खरल करके सुखा कर सुरक्षित रक्खे |
पकायें
निकाल
मात्रा - १ निष्क ( ५ माशे । )
इसे पान के साथ खाने से अजीर्णका नाश होता है।
( व्यवहारिक मात्रा - २ - ३ रत्ती 1 ) (७०२२) विजयरसः (२) ( विजयवटी ) ( २. र. स. । उ. अ. २० ) रसभस्म च गन्धाश्म विशाला कुष्ठकं विषम् । रेणुका पिप्पलीमूलं वाकुचि विपतिन्दुकम् ॥
૯૬
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७६१
अश्वगन्धा पलाशास्थि व्योषादिनवकं वचा । गुडे गुटिकां कुर्यात्समेन मधुमिश्रिताम् ॥ तां भक्षयेत्सितासर्पिःक्षीरशाल्यनभाग्भवेत् । ati वा भुञ्जानो ब्रह्मचर्यपरायणः || खादेत्ता सिताधान्यसर्प र्नागबलरजः । टिका विजयाख्येयं सप्त कुष्ठान्नियच्छति ॥
पारद भस्म, शुद्ध गंधक, इन्द्रायणकी जड़, कूठ, शुद्ध बछनाग, रेणुका, पीपलामूल, बाबची, शुद्र कुचला, असगन्ध, पलाशके बीज, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, नागरमोथा, चीता, बायबिडंग, और बच; इनके समान भाग मिश्रित चूर्णको सबके बराबर गुड़ में मिलाकर और उसमें आवश्यकतानुसार शहद डाल कर ( ३-३ माशेकी) गुटिका बना लें ।
इनके सेवन से समस्त प्रकारके कुष्ठ नष्ट होते हैं।
पथ्य — मिश्री, घी, दूध, शाली चावल और जौ इत्यादि । इसके सेवन कालमें ब्रह्मचर्य व्रत पालन करना चाहिये |
यदि औषध खानेके पश्चात् अधिक गर्मी मालूम हो तो मिश्री, धनिये और नागबलाके चूर्णको धीमें मिलाकर चाटना चाहिये ।
(७०२३) विजयवटी
(र. रा. सु.; रसे. सा. सं. ; धन्व. । हिक्काश्वासा. ) सूतकं गन्धकं लौहं विषमभ्रकमेव च । fas रेणुकं मुस्तमेला ग्रन्थिककेशरम् ॥
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७३२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
त्रिकटु त्रिफला तानं शुल्वं जैपालचित्रकम् । फिर उसे सुखा कर आतशी शीशी में भर कर एतानि समभागानि द्विगुणो दीयते गुडः॥ | बालुका यन्त्रमें २४ पहर पाक करं । तदनन्तर कासे श्व से क्षये गुल्मे प्रमेहे विषमज्वरे । . उसके स्वांग शीतल होने पर शीशीसे रसको निकाल सूतायां ग्रहगीदोषे शूले पाए मये तथा ॥ | कर त्रिकुटा, कचूर, अफीम, और भंगके रसकी हस्तपादादि दाहेषु वटिकेयं प्रशस्यते ॥ १-१ भावना दे कर १-१ रत्तीकी गोलियां
- शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, लोहभस्म, शुद्ध । बना ले । बछनाग, अभ्रक भस्म, बायबिडंग, रेणुका, नागर
इनके सेवनसे हर प्रकारके अतिसार और मोथा, इलायची, पीपलोमल, नागकेसर, सांठ. कष्टसाध्य संग्रहणीका नाश होता है। मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा और आमला १-१ (७०२५) विजयागुटिका (१) भाग, ताम्र भस्म २ भाग तथा शुद्र जमालगोटा (र. सं. क. । उल्ला. ५) और चीतामूल १-१ भाग ले कर प्रथम पार सूतार्कायोविषं गन्धं विडङ्गाम्न्यन्दकेसरम् । गंधककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य रेणुका ग्रन्थिकं वोलं सर्वेषां द्विगुणं गुडम् ॥
ओषधियोंका चर्ण मिला कर खरल करें तथा | कोलप्रमाणां गुटिकां भक्षयेत्पातरेव हि । अन्तमें सबसे दो गुना गुड़ मिला कर ( १-१ | कासे श्वासे क्षये गुल्मे प्रमेहे विषमज्वरे ॥ माशेकी ) गोलियां बना लें।
शोफे पाण्ड्वामये कुष्ठे ग्रहण्य#भगन्दरे । इनके सेवनसे खांसी, श्वास, क्षय, गुल्म, | विजयागुटिका ह्येषा रुद्रप्रोक्ताऽधिका गुणैः ॥ प्रमेह, विषमज्वर, प्रसूत रोग. संग्रहणी, पाण्डु और शुद्ध पारद, ताम्र भस्म, लोह भस्म, शुद्ध हाथ पैरोंकी दाह शान्त होती है।
बछनाग, शुद्ध गन्धक, बायबिडंग, चीता, नागर(७०२४) विजयसिन्दूररसः
मोथा, नागकेसर, रेणुका, पीपलामूल और बोल
। १-१ भाग तथा गुड़ सबसे दो गुना ले कर प्रथम (र. का. धे. । ग्रहण्य.)
पारे गंधकको कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य रसगन्धं नागतालं सप्तधा धृतंभावितम् ।।
ओषधियांका चूर्ण मिला कर खरल करें तथा शुष्कं कुप्यान्तु वह्निः स्याच्चतुर्विंशतियामकम् ॥
अन्तमें गुड़ मिला कर ५-५ माशेकी गुटिका शीतं गृहीत्वा त्रिकटुककरैरहिफेनतः ।।
बना लें। भृङ्गारसेन गुटिका गुञ्जा सर्वातिसारजित् ॥
। इनमें से १-१ गोली प्रातः काल सेवन करनेरसो विजयसिन्दूरो ग्रहणी हन्ति दुर्धराम् ॥ से कास, श्वास, क्षय, गुल्म, प्रमेह, विषमज्वर,
शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, नाग भस्म और शोथ, पाण्डु, कुष्ट, ग्रहणी, अर्श और भगन्दरका शुद्ध हरताल समान भाग ले कर सबको एकत्र | नाश होता है। खरल करके धतूरके रसकी सात भावना दें और । ( व्यवहारिक मात्रा-१-१॥ माशा ।)
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रसप्रकरणम् ] चतुर्थो भागः
७६३ (७०२६) विजयागुटिका (२) । और पोस्तके रसका सर्वथा अभाव है तथा सेवन
(र. का. धे. । भगन्दरा.) | विधि कुछ नहीं लिखी। मृतकाद द्वौ विषं गन्धं त्रियेकांशेऽब्दकेशरम। (७०२७) विजयावटिका (१) रेणुकं ग्रन्थिकं वेल्लं सर्वेषां द्विगुणं गुडम् ॥
( रसे. सा. सं. । ग्रहण्य. ) कोलप्रमाणां वटिकां खादयेत्पातरेव हि । हाटकं रजतं ताम्र यद्यत्र परिदीयते । कासे श्वासे क्षये गुल्मे प्रमेहे विषमज्वरे॥
विजयाख्या तु सा ज्ञेया सर्वरोगनिमूदनी ॥ शोफे पाण्वामये कुष्ठे ग्रहण्य भगन्दरे ।।
यदि ग्रहणी कपाट रस प्र. सं. १६०१ में विजया गुटिका ह्येषा रुद्रप्रोक्ताऽधिका गुणैः ॥ | स्वर्ण भस्म, चांदी भस्म और ताम्र भस्म अधिक
शुद्ध पारद २ भाग, बछनाग ३ भाग, शुद्ध कर दी जाय तो उसीका नाम "विजया वटिका" गन्धक ३ भाग, तथा नागरमोथा, नागकेसर, | हो जाता है। रेणुका, पीपलामूल और बायबिडंगका चूर्ण १-१ यह वटी हर प्रकारके ग्रहणी रोगको नष्ट भाग ले कर प्रथम पारे गंधककी कजली बनावें
करती है । और फिर उसमें अन्य समस्त ओषधियोंका चूर्ण मिला कर खरल करें तथा अन्तमें सबसे २ गुना
(७०२८) विजयावटिका (२) (वृहद्) गुड़ मिला कर ५-५ माशेकी गोलियां बना लें। (र. च. । पाण्डु. ; र. र. स. । अ. १९;
यो. चि. म. । गुटिका. ३; वै. र. । वातव्या.) इनके सेवनसे खांसी, श्वास, क्षय, गुल्म,
पलत्रयं हरीतक्याश्चित्रकस्य पलत्रयम् । प्रमेह, विषमञ्चर, शोथ, पाण्डु, कुष्ठ, संग्रहणी,
एलात्वपत्रमुस्तानां भागोऽर्ध पलिको मतः ।। अर्श और भगन्दरका नाश होता है ।
रेणुकापला प्रोक्ता तदर्धे नागकेसरम् ।। इसे प्रातःकाल सेवन करना चाहिये ।
व्योषं च पिप्पलीमूलं विषं च पलमात्रकम् ॥ ( व्यवहारिक मात्रा-१ माशा ।) रस: पलः पलो गन्धः सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् । विजयानन्दरसः
पुरातने गुडे पक्वे तुलार्धं तद्विनिक्षिपेत् ॥
हिमस्पर्श तु मृदुनीयाघृतेनाक्तकरो बुधः । ( रसे. सा. सं ; र. रा. सु. ; र. चं. । कुष्ठा. ;
बदरास्थिप्रमाणेन विजया गुटिका मता ॥ रसे. चि. म. । अ. ९) निशायां खादयेदेनां शोफपाण्डुविनाशिनीम् । प्र. सं. ७०२० विजय भैरव रसः देखिये। टङ्कणं मेघनादं च भक्षयेद्वेगशान्तये ॥
इस रस और विजय भैरव रसके उपादान (ग. नि. परि. गुटिका. ४ में विजय गुटिकातो समान ही हैं परन्तु निर्माण विधिमें थोड़ा | का लगभग यही पाठ है परन्तु उसमें पारद १ अन्तर है इसमें ( विजयानन्दमें ) कटसरैयाके रस | पल है और गन्धकका अभाव है । )
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-७६४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
हर १५ तोले, चीतामूल १५ तोले, इला- तथा भुनी हुई भांग ८ भाग ले कर सबको एकत्र यची, दालचीनी, तेजपात और नागरमोथा २॥- खरल करें और फिर उसे १० भाग गुड़में मिला २॥ तोले, रेणुका २॥ तोले, नागकेसर १। तोला, कर ५-५ माशेकी गुटिका बना लें । सेठ, मिर्च, पीपल, पीपलामूल, शुद्ध बछनाग, इसे सेवन करनेसे श्वेतकुष्ठ नष्ट होता है । शुद्ध पारद और शुद्ध गंधक ५-५ तोले ले कर*
__ अनुपान-दारुहल्दी, खैरकी छाल और प्रथम पारे गंवककी कजली बनावें और फिर
नीमकी छालका काथ । उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर सबको ३ सेर १० तोले गुड़की चाशनीमें मिला दें एवं
( व्यवहारिक मात्रा-२॥ माशे ।) उसके ठंडा होने पर हाथोंको घी लगा कर उसे (७०३०) विडङ्गलौहम् अच्छी तरह मलें और बेरकी गुठलीके बराबर ( रसे. सा. सं. ; धन्व. ; रे. चं. ; र. रा. गोलियां बना लें।
सु. । कृमिरो.) इन्हें रात्रि के समय सेवन करना चाहिये। रसं गन्धं च मरिचं जातीफललवङ्गकम् । यदि इसके सेवन कालमें किसी प्रकारका विकार यो मनोद्वेग हो तो वह सुहागेको खील और
कणा तालं शुण्ठि वङ्ग प्रत्येक भागसम्मितम् ।। चौलाईके खानेसे शान्त हो जाता है।
सर्वचूर्णसमं लोहं विडङ्गं सर्वतुल्यकम् । इसके सेवनसे शोथ और पाण्डुका नाश
लौहं विडङ्गकं नाम कोष्ठस्य कृमिनाशनम् ।। होता है।
दुर्नाममरुचिश्चैव मन्दाग्निश्च विचिकाम् । (७०२९) विजयेश्वररसः
शोथं शूलं ज्वरं हिक्कां श्वासकासं विनाशयेत् ।। ( यो. र. ; र. रा. सु. ; र. का. धे, । कुष्ठा. ;
शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, काली मिर्च, जायर. चि. म. | स्त. ११)
| फल, लौंग, पीपल, शुद्ध हरताल, सेठ और वङ्ग
भस्म १-१ भाग, लोह भस्म ९ भाग और शुद्धतालं मृतं मूतं तुल्यं ताभ्यां चतुर्गुणम् ।।
बायबिडंग १८ भाग ले कर प्रथम पारे गंधककी भर्जित्वा विजया योज्या सर्वतुल्यं गुडं क्षिपेत् ।।
कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका श्वेतकुष्ठहरं निष्कं रसोऽयं विजयेश्वरः।।
बारीक चूर्ण मिलाकर खरल करें। दार्वी खदिर निम्बानां क्याथं तदनुपाययेत् ॥
इसके सेवनसे उदरकृमि, अर्श, अरुचि, . शुद्ध हरताल और पारद भस्म १-१ भाग
अग्निमांद्य, विशूचिका, शोथ, शूल, ज्वर, हिक्का, * वै. र. में ५-५ तोले लोहभस्म और कास और श्वासका नाश होता है। बंसलोचन अधिक लिखा है।
( मात्रा-४ रत्ती)
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रसप्रकरणम् ]
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चतुर्थी भागः
(७०३१) विडङ्गादिचूर्णम् (१) ( यो. र. । शोफा. )
विडङ्गदन्तीकटुकानिच्चित्रकदारवः । व्योषः सकृष्णा त्रिफला समा देया हायोरजः ॥ द्विगुणं तत्पच्चूर्ण पयसा शोफशान्तये ||
बायबिडंग, दन्तीमूल, कुटकी, निसोत, चीता, देवदारु, त्रिकुटा, पीपल और त्रिफला १-१ भाग तथा लोहभस्म सबसे दो गुनी ले कर यथा विधि चूर्ण बनावें ।
इसे दूध के साथ सेवन करने से शोथ नष्ट होता है ।
( मात्रा - ३ रत्ती । ) (७०३२) विडङ्गादिचूर्णम् (२) ( व. से. । रसायना. ) विडङ्गासनधात्रीणां चूर्ण लोहरजो घृतम् । एतत्संप्राश्य वृद्धोऽपि तारुण्यमधिगच्छति ॥
बायबिडंग, असना वृक्षकी छाल और आमला; इनका चूर्ण तथा लोह भस्म समान भाग लेकर सबको एकत्र मिला 1
इसे घीके साथ सेवन करने से वृद्ध भी तरुणसमान हो जाता है ।
( मात्रा - १ माशा ) (७०३३) विडङ्गादिचूर्णम् (३) ( वृ. मा. ; व. से. । राजय . ) मधुमाया विडङ्गाश्मजतु लोहघृताभयाः । घ्नन्ति यक्ष्माणमत्युग्रं सेव्यमाना हिताशिनः ॥
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७६५
बायबिडंगका चूर्ण, शिलाजीत, लोहभस्म और हर का चूर्ण समान भाग ले कर शहद और धीमें मिला कर चाटने से उग्र राजयक्ष्मा भी नष्ट हो जाती है।
(७०३४) विडङ्गादियोगः (ग. नि. । सा. रसा. १ ) विडङ्गत्रिफला कृष्णा लोहचूर्णाज्यशर्कराः । क्षौद्राः शीलिता घ्नन्ति वार्धक्यं पलितैः सह ॥
बायबिडंग, हर्र, बहेड़ा, आमला, पीपल और लोह भस्म समान भाग ले कर यथा विधि चूर्ण बनावें ।
इसे खांड, घी और शहद के साथ सेवन करने से वृद्धता तथा पलितका नाश होता है ।
(७०३५) विडङ्गादिलौहम् (१)
( रसें. सा. सं. ; धन्व. ; र. चं. । पाण्डुरो. ) विडङ्गत्रिफलाव्योषं शुद्धलौहन्तु तत्समम् । पुरातनगुडेनात्र लेहयेद्दिन सप्तकम् ॥ श्वयथुं नाशयेच्छीघ्रं पाण्डुरोगं हलीमकम् ||
बायबिडंग, हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च और पीपल; इनका चूर्ण १ - १ भाग तथा लोहभस्म ७ भाग ले कर सबको एकत्र खरल करें ।
इसे पुराने गुड़ में मिलाकर सात दिन सेवन करनेसे शोथ, पाण्डु और हलीमकका नाश हो जाता है।
( मात्रा - ३ रत्ती | )
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७६६
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
(७०३६) विडङ्गादिलौहम् (२) ( भै. र. । आमवा. ) वज्रपाण्डादिलौहानां ग्राह्यं पञ्चपलं शुभम् । चूर्ण मृताभ्रकस्यापि लौहार्द्धं पारदं तथा ॥ त्रिगुणा त्रिफला ग्राद्या लौहाभ्राच्छोडषैर्जलैः । पक्त्वाष्टभागशेषन्तु ग्राह्यं काथजलं ततः ॥ तेन लौहाम्रचूर्णञ्च पुन: पाच्यं समं घृतम् । शतावर्या रसञ्चैव क्षीरञ्च द्विगुणं रसात् ॥ ater पचेroff पात्रे चायसि ताम्रके । पचेत्पाकविधिज्ञस्तु वह्निना मृदुना शनैः ॥ सिद्धे च प्रक्षिपेतान् विडङ्गादियथोदितान् । विडङ्गं नागरं धान्यं गुडूचीसवजीरकम् ॥ पलाशवीजं मरिचं पिप्पली हस्तिपिप्पली | त्रिता त्रिफला दन्ती एला चैरण्डकं तथा ।। चविका ग्रन्थिकं चित्रं मुस्तकं वृद्धदारकम् । सर्वेषां चूर्णमेतेषां लौहाभ्रसभं भवेत् ॥ आमवात गजेन्द्रस्य केशरी विधिनिर्मितः । आमवातञ्च शोधञ्चाप्यग्निमान्धं हलीमकम् || कामलां पाण्डुरोगञ्च हन्याद् द्रव्यं रसायनम् ॥
३७॥ - ३७॥ तोले हर्र, बहेड़े और आमले - को एकत्र कूट कर ४५ सेर पानी में पकावें और आठवां भाग शेष रहने पर छान लें। तत्पश्चात् उसमें २५ तोले लोह भस्म और १२|| तोले अभ्रक भस्म, ७५ तोले घी, ७५ तोले शतावरका रस और १५० तोले गोदुग्ध मिला कर लोहे या कुलई की हुई ताम्रकी कढ़ाई में मन्दाग्नि पर पकावें । जब अवलेह तैयार हो जाय तो उसे 1 अग्निसे नीचे उतार कर उसमें निम्न लिखित ओषधियोंका प्रक्षेप मिला कर सुरक्षित रक्खे ।
[वकारादि
प्रक्षेप - रस सिन्दूर १२|| तोले, तथा बायबिडंग, सांठ, धनिया, गिलोय का सत, जीरा, पलाशचीज, काली मिर्च, पीपल, गजपीपल, निसोत, हर्र, बहेड़ा, आमला, दन्तीमूल, इलायची, अरण्डमूल, चव, पीपलामूल, चीता, नागरमोथा और बायबिडंग; इनको समान भाग मिश्रित चूर्ण ३७ ॥ तोले ।
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इसके सेवन से आमवात, शोथ, अग्निमांद्य, हलीमक, कामला और पाण्डु रोगका नाश होता है।
(७०३७) विडङ्गादिलौहम् (३) (र. रा. सुं; रस. सा. सं.; र. र.; च. द. ; धन्व. ; र. च । पाण्डवा. ) विमुस्तत्रिफला देवदारुषडूषणैः । तुल्यमात्रमयश्चूर्ण गोमूत्रेऽष्टगुणेपचेत् ॥ रक्षमात्र गुटिकां कृत्वा खादेद्दिने दिने । कामला पाण्डुरोगार्तः सुखमापद्यतेऽचिरात् ॥
बायबिडंग, नागरमोथा, हरे, बहेड़ा, आमला, देवदारु, पीपल, पीपलामूल, चव्य, चीता, स और मिर्च इनका चूर्ण १ - १ भाग तथा लोह - भम्म सबके बराबर ( १२ भाग ) ले कर सबको एकत्र मिला कर १६ गुने गोमूत्र में पकायें और जब वह गाढ़ा हो जाय तो ११ - १| तोलेकी गुटिका बना लें ।
इनके सेवन से कामला और पाण्डु शीघ्र नष्ट
होता है।
( व्यवहारिक मात्रा - १ माशा ।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
७६७
(७०३८) विडङ्गादिलौहम् (४) बायबिडंग, हरे, बहेड़ा, आमला, नागरमोथा,
(वं. से. ; र. र. ; वृ. मा. । मेदरो.) पीपल, सेट, सफेद जीरा और काला जीरा; इनका विडङ्गनागरक्षारकाललोहरजो मधु ।
चूर्ण १-१ भाग तथा लोहभस्म ९ भाग ले कर यवामलकचूर्णन्तु योगोऽतिस्थौल्यनाशनः॥ सबको एकत्र खरल करके रक्खें । बायबिडंग, सेांठ, जवाखार, लोह भस्म, जौ
इसके सेवनसे दारुण प्रमेह और मूत्रविकारोंऔर आमला; इनका चूर्ण समान भाग ले कर | का नाश होता है। सबको एकत्र खरल करें।
( मात्रा-३ रत्ती ।) इसे शहदके साथ सेवन करनेसे अति स्थूलता
(७०४१) विडङ्गाद्यवलेहः नष्ट होती है।
(ग. नि. । लेहा. ५) (मात्रा-१॥ माशा ।) (७०३९) विडङ्गाद्यलौहम् (१)
विडङ्गत्रिफलामुस्तमधुकं कटुरोहिणी । (र. का. धे. ; व. से. । पाण्डु )
| अयोरजो हरिद्रे च चित्रकं गुडशर्करा ॥ विडङ्गत्रिफलाव्योपं दावीं कृष्णमयोरजः।।
खदिरस्य कषायेण चूर्णान्येतानि साधयेत् । कामला पाण्डुरोगन्नं लिह्यात् क्षौद्रघृतप्लुतम् ॥
| मृद्वग्निसिद्धं तं लेहं लेहयेन्मधुसर्पिषा । ___ बायबिडंग, हर, बहेडा, आमला, सेांठ, काली
स लेहः कामलां हन्यादपि सम्वत्सरोत्थिताम्। मिर्च, पोपल और दारुहल्दीका चर्ण तथा मण्डूर पाण्डुरोगं च नुदति श्वयधुं चापि पैत्तिकम् ॥ भस्म और लोह भस्म १-१ भाग ले कर सबको बायविडंग, हर्र, बहेड़ा, आमला, नागरमोथा, एकत्र मिला कर खरल करें ।।
मुलैठी, कुटकी, हल्दी, दारुहल्दी और चीतामूल; इसे घी और शहदके साथ सेवन करनेसे इनका चूर्ण तथा लोहभस्म १-१ भाग और गुड़ कामला और पाण्डुका नाश होता है। तथा खांड ११-११ भाग ले कर खैरके काथमें ( मात्रा-१॥ माशा ।)
चाशनी बना कर उसमें समस्त चूर्ण मिला कर (७०४०) विडङ्गाद्यलौहम् (२)
ज़रा पका कर रक्खें । ( भै. र. ; च. द. ; र. चं. ; र. रा. सु. ;
इसमें घी और शहद मिला कर सेवन करनेरसे. सा. स. ; र. र. । प्रमेहा.)
से १ वर्षकी पुरानी कामला भी नष्ट हो विडङ्गत्रिफलामुस्तैः कणया नागरेण च ।।
जाती है। जीरकाभ्यां युतं हन्ति प्रमेहानतिदारुणान् ॥ इसके अतिरिक्त यह पित्तज शोथ और पाण्डु लौह मूत्रविकारांश्च सर्वानेव विनाशयेत् ॥ | को भी नष्ट करता है ।
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७६८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
(७०४२) विद्याधरमण्डूरम् चूर्ण १-१ भाग और गोमूत्र तथा त्रिफलेके काथमें ( र. का. धे. । अम्लपित्त.)
बुझा हुवा मण्डूर सबसे दो गुना ले कर सबको त्रिफलाव्योषजन्तुघ्नं दन्त्यग्निग्रन्थिकामृताः ।
एकत्र मिला कर शूरणके रस या काथ, लाल कुष्ठतेजोवतीमुस्तत्रिगल्लातसूरणाः ।।
ईखके रस, अदरकके रस, मुण्डीके रस या काथ, शताहवा नैचुले बीजं भागीं च गजपिप्पली ।
भंगरेके रस, हड़जोडीके रस, बांझ ककोड़ेके रस,
और ताड़के फलके रसकी १-१ भावना दे कर शृङ्गी द्विजीरकं धान्यं वृद्धदारुकपत्रके ॥
उसमें उससे १६ गुना गोमूत्र और ८ गुना सुम्बुरुणि भद्रदारु क्षाराश्च लवणानि च । अजमोदा तालमूली विशाला भूतिकवचा ।।
त्रिफलाका काथ मिला कर पुनः पकावें । जब
गाढ़ा हो कर करछीको लगने लगे तो ठण्डा करके कोशातकी फलं चैतद बृहत्पत्रकगन्धको ।
सुरक्षित रक्खें । यावन्त्येतानि चूर्णानि मण्डूरं द्विगुणं तथा ॥ गोमूत्रे त्रिफलाकाथे निषिक्तं श्लक्ष्णचूर्णितम् ।।
___ इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे कन्दोत्कटशृङ्गवेरश्रावणीकेशराजकः ॥
| उदर विकार, ग्रहणी और अग्निमांद्यादिका नाश रसैः सवज्रवल्लीजैर्वन्ध्यातालस्य सस्यजैः।
| होता है। भावयित्वैव तच्चूर्ण गोमूत्रेऽष्टगुणे पचेत् ॥ (मात्रा-१ माशा । ) चतुर्गुणेन त्रिफलाकाथैदै विविलेपनात ।।
(७०४३) विद्याधररसः उपयुभीत मतीमान् खादेच्चैव यथावलम् ॥ (विनोदविद्याधररसः) ये च कुक्षिगता रोगा ग्रहणीमार्दवादयः। ( रसे. सा. सं. ; भै. र. ; र. रा. सु. । ज्वरा. ; एतद्विद्याधरं नाम मण्डूरं सर्वरोगनुत् ॥ . यो. त. । त. ५९ ; धन्व. । ज्वरा. )
हर, बहेडा, आमला, सेांठ, मिर्च, पीपल, रसो गन्धस्तानं त्रिकटुकटुकीटङ्कणवरा बायबिडंग, दन्तीमूल, चीता, पीपलामूल, गिलोय, त्रिदन्ती हेमधुमणि विषमेतत्सममिदम् । कूठ, मालकंगनी, नागरमोथा, निसोत, शुद्ध समस्तैस्तुल्यं स्याद्विमल जयपालोद्भवरजः । भिलावा, शूरण ( जिमीकन्द), सोया, हिजलबीज, ततः स्नुक्क्षीरेण प्रचुरमुदितं दन्तिसलिलैः ।। भरंगी, गजपीपल, काकड़ासिंगो, सफेद और द्विगुञ्जास्य प्रौढं जयति वटिका साममतुलं काला जीरा, धनियां, विधारामूल, तेजपात, तुम्बुरु, ज्वरं पाण्डु गुल्मं ग्रहणिगुदकीलोद्भवरुजः। देवदारु, जवाखार, सज्जीखार, सुहागा, सेंधानमक, | मरुच्छ्रलाजीर्ण प्रबलमथसामं क्रिमिगदं संचल, बिड लवण, सामुद्र लवण, काच लवण, विबद्धं प्लीहानं प्रबलमपि विद्याधररसः ।। अजमोद, तालकी मूसली, इन्द्रायणकी जड़, अज- शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म, सोंठ, वायन, बच, तोरी, लोध और शुद्ध गंधक; इनका | मिर्च, पीपल, कुटकी, सुहागा, हर, बहे 1,
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्यों भागः
७६९
आमला, निसोत, दन्तोमूल, धतूरा, आककी जड़की भस्म, ताम्र भस्म, (पाठान्तरके अनुसार छाल और शुद्ध बछनोग १-१ भाग तथा शुद्ध स्वर्ण भस्म ) शुद्ध मनसिल और शुद्ध पारद जमालगोटा सबके बराबर ले कर प्रथम पारे गन्धक- समान भाग ले कर प्रथम पारे गंधककी कजली की कन्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओष- बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिला कर धियोंका बारीक चूर्ण मिला कर सबको कई दिन सबको १-१ दिन पीपलके क्वाथ और सेंड तक स्नुही (सेंड-थूहर ) के दूधमें खरल करें । (थूहर) के दूधमें खरल करके आधा आधा रत्तीकी
और फिर दन्तीमूलके काथमें घोट कर २-२ गोलियां बना लें। रत्तीकी गोलियां बना लें।
इसे शहदके साथ सेवन करनेसे गुल्म और इनके सेवनसे आम, ज्वर, पाण्डु, गुल्म, प्लीहादिका नाश होता है । संग्रहणी, अर्श, वातपीडा, अजीर्ण, आमयुक्त कृमि ___अनुपान-गोदुग्ध या गोमूत्र । रोग और प्लीहाका नाश होता है ।
(७०४५) विद्याधरलोहम् ( अनुपान-शीतल जल। यह रस तीब्र
(र. र. । अर्शी.) रेचक है।)
स्वच्छ पत्रीकृतं लोहं पलं लिप्तश्च निर्वपेत् । (७०४४) विद्याधररसः लवणर्माक्षिकोपेतैत्रिफलाकार्षिकोदके ॥
( रसें. सा. सं. ; धन्व. ; र. रा. सु. ; र. | सुषिक्तं लोहमादाय पूर्त सञ्चयं यत्नतः । र. ; वै. र. ; र. म. ; र. चं. । गुल्मा. ; र. प्र. पुटैर्यथाच्याधिहरैव्यैः सम्पादितैः पचेत् ॥ सु. । अ. ८ ; रसें. चि. म. । अ. ९ ; शा. ध.। पिण्डेन शर्करा काथः कलम्ब्या बहुपत्रतः । खं. २ अ. १२ ; र. चि. म. । स्त. ११: ३. करिकर्णपलाशस्य लवणैरप्यरुष्करैः ।। यो. त. । त. ९.८ ; र. का. धे. । उदर रो. ; चतुर्गुणे फलरसे लोहाध घृतयोजितम् । र. र. स. । अ. १८)
पाचयेन्निपुणस्तावद्यावत्सपिविमुञ्चति ॥ गन्धकं तालकं ताप्यं मृतं तानं मनःशिला। षोडशाश क्षिपत्तत्र ततः संशोधित रसम् । शुद्धमूतश्च तुल्यांशं मर्दयेद्भावयेदिनम् ।।
| राजिकापिण्डमध्ये तु व्योषपिण्डस्य मध्यगम् ॥ पिप्पल्याश्च कषायेण वनीक्षीरेण भावयेत् ।
गवां मले तुषाग्नौ च वस्त्रातञ्च काजिकैः। गुआर्द्ध सेवितं क्षौदैर्गुल्मप्लीहादिकं जयेत् ॥
सिद्धं सप्ताहमेवन्तु ततः सञ्चूर्णयेत्पुनः ॥ रसो विद्याधरो नाम गोदुग्धश्च पिवेदनु ॥
| चिश्चाकषायज्येष्ठाम्बुक्षीरनिर्वापितेन तु । शुद्ध गंधक, शुद्ध हरताल, स्वर्ण माक्षिक
द्विगुणेन गन्धकशिलासुश्लक्ष्णरजसा पुनः ॥
पादं विडङ्गमुस्तानि त्रिफलाव्योषजं रजः । १ गोमूत्रमिति पाठान्तरम् ।
लोहादेकीकृतं पिष्टमनुगुप्तं निधापयेत् ।।
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[वकारादि
ततो मात्रां प्रयुञ्जीत यथादोष यथावयः ।। पकावें । तत्पश्चात् स्वांगशीतल होने पर गोलेको आहारपरिहारा च लोहान्तरसमानकम् ॥ निकाल कर ( राई और त्रिकुटेके कल्कको दूर कुलत्थश्च कपोतश्च करमर्दककालिके। करके ) पीस लें और उसमें इमलीके क्वाथ, चावलोंकरीरं कारवेल्लञ्च षट्र ककाराणि वर्जयेत् ॥ के पानी और गोदुग्धमें बुझाया हुवा शुद्र गंधक विद्याद्विद्याधरमतं लोहं सर्वगदापहम् । तथा मनसिलका चूर्ण उससे २-२ गुना तथा न सोऽस्ति रोगः कुक्षिस्थो यमिदं न निहन्ति बायबिडंग, नागरमोथा, चीता, त्रिफला और त्रिकुटा;
च ।। इनका समान भाग मिश्रित चूर्ण उसका चतुर्थांश जलापकारानीसि सर्वोपद्रववन्ति च । मिला कर अच्छी तरह खरल करके सुरक्षित रक्खें । अम्लक ग्रहणी मेहान्गुल्मानुदरमष्टकम् ॥ इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे जल
स्वच्छ और शुद्ध लोहके पांच तोले पत्रों पर दोष जनित रोग, उपद्रवयुक्त अश, अग्लपित्त, शहदमें पिसे हुवे सेंधानमकका लेप करके अग्निमें ग्रहणी, प्रमेह, गुल्म और आठ प्रकारके उदर तपावें और खूब लाल हो जाने पर ११ तोला रोगोंका नाश होता है। त्रिफलाके काथमें बुझा दें। इसी प्रकार सम्पूर्ण
ऐसा कोई उदर विकार नहीं है जिसे यह लोहका चूर्ण होने तक बार बार बुझाते रहें।
नष्ट न कर सकता हो। तदनन्तर उसे अर्शनाशक ओषधियोंके रसमें घोट घोट कर पुट लगावें और भस्म तैयार करें । इसके
(७०४६) विद्याधराभ्रम् पश्चात् उस भस्ममें मैनफलका काथ, खांड, कलम्बी (श्रीविद्याधराभ्रम्) ( कलमी शाक ) का रस, पलाशका रस, स्ति
( भै. र. ; रसे. सा. सं. । शूल ; रसें. चि. म. । कर्णपलाशका रस, सेंधा नमकका पानी, शुद्ध
अ. ८ ; र. का. धे. । शूल ; धन्व. ; र. भिलावेका काथ और त्रिफलेका काथ लोह भस्मसे
र.; वृ. नि. र. । शूला.) चार चार गुना तथा घृत लोहभस्मसे आधा मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब गाढ़ा हो जाय आर
विडङ्गमुस्तत्रिफलागुडूची घृत छोड़ दे तो उसमें लोहका सोलहवां भाग ___दन्ती त्रिद्वह्निकटुत्रिकश्च । पारद भस्म मिला कर गेटें और उसका एक गोला
प्रत्येकमेषां पिचुभागचूर्ण वना कर उसे राई के कल्कमें लपेट दें तथा उसके पलानि चत्वार्ययसो मलस्य ।। ऊपर त्रिकुटेका कल्क लपेट कर सुखा कर उसे गोमूत्रशुद्धस्य पुरातनस्य मजबूत कपड़ेमें बांध कर पोटली बनावें और इस __ यद्वायसो भस्म विशोधितस्य । पोटलीको दोलायन्त्र विधिसे कांजीमें लटका कर कृष्णाभ्रकाच्चूर्णपलं विशुद्धं १ सप्ताह तक अरने उपलों या तुषकी अग्नि पर । निश्चन्द्रिकं श्क्षणमतीच मृतात् ॥
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
७७१
पादोनकर्प स्वरसेन खल्वे
मात्रा-२ से ४ रत्ती तक । शिलातले मन्युमणि दलस्य ।
अनुपान-गोदुग्ध या शीतल जल । सम्मी यत्नादतिशुद्धगन्ध
इसके सेवनसे चिरनष्ट अग्नि भी दीत हो पाषाणचूर्णन पिचून्मितेन ॥
जाती है । इसके अतिरिक्त यह परिणाम शूल युक्त्या ततः पूर्वरजांसि दवा |
अन्नद्रव शूल, यक्ष्मा, अम्लपित्त, ग्रहणी, जीर्ण ज्वर सर्पिर्मधुभ्यामवमयं यत्नात् ।
और उग्र रक्तपित्तको नष्ट करता है। संस्थापये स्निग्धविशुद्धभाण्डे
(७०४७) विद्याधराभ्रम् (वृहद्) ततः प्रयोज्योस्य रसायनस्य ।। वल्लप्रमाणन्त्वथवा द्विवलं
(भै. र. ; र. च. ; धन्व. ; रसे. सो. सं. । शूला.) गव्यं पयो वा शिशिरं जलं वा। शुद्धमूतं तथा गन्धं फलत्रयकटुत्रयम् । पिचेदयं योगवरः प्रभूत
विडङ्गमुस्तकश्चैव त्रिता दन्तिचित्रकम् ॥ __ कालप्रणष्टानलदीपकश्च ॥ आखुपर्णी ग्रन्थिकञ्च प्रत्येकं कर्षसम्मितम् । रोगेषु हन्यात्परिणामशूलं | पलं कृष्णाभ्रचूर्णस्य मृतायश्च चतुगुणम् ॥ शूलं तथान्नद्रवसंज्ञकश्च ।
घृतेन मधुना पिटवा वटीं गुञ्जात्रयोन्मिताम् । यक्ष्माम्लपित्तं ग्रहणी प्रदुष्टां एकैकां वटिकां खादेत् प्रातरुत्थाय नित्यशः॥
जीर्णज्वरं लोहितपित्तमुग्रम् ॥ अनुपानं गवां क्षीरं नीरं वा नारिकेलजम् । न सन्ति ते यान निहन्ति रोगान | सर्वशूलं निहन्त्याशु वातपित्तभवं तथा ॥
योगोत्तमः सम्यगुपास्यमानः॥ एकजं द्वन्द्वजञ्चव तथैव सान्निपातिकम् । बायबिडंग, नागरमोथा, हरं, बहेड़ा, आमला, परिणामोद्भवं शूलमामवातोद्भवं तथा ॥ गिलोय, दन्तीमूल, निसोत, चीता, सांठ, मिर्च काश्य वैवीमालस्थं तन्द्रारुचिविनाशनम् ।
और पीपल १।-१। तोला तथा गोमूत्रद्वारा शुद्ध साध्यासाध्यं निहन्त्याशु भास्करस्तिमिरं यथा । पुराने मण्डूरकी भस्म या लोह भस्म २० तोले, । शुद्ध पारद, शुद्र गंधक, हर्र, बहेड़ा, आमला, अभ्रक भस्म ५ तोले, मण्डूकपर्णीके रसमें शुद्ध सांठ, मिर्च, पीपल, बायबिडंग, नागरमोथा, निसोत, किया हुवा पारद ११॥ माशे और शुद्ध गंधक १। दन्तीमूल, चीतामूल, मूषाकन्नी और पीपलामूल तोला ले कर प्रथम पारद गंधककी कजली बनावें १४-१। तोला, कृष्णाभ्रक भस्म ५ तोले और
और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका महीन चूर्ण लोह भस्म २० तोले ले कर प्रथम पारे गंधककी मिला कर खरल करके सुरक्षित रक्खें । कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका
इसे घी और शहद में मिला कर सेवन करना । बारीक चूर्ण मिला कर घी और शहदमें घोट कर चाहिये।
३-३ रत्तीकी गोलियां बना लें।
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७७२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
जयेत् ॥
इनमेंसे एक एक गोली नित्य प्रति प्रातः (७०४९) विद्यावल्लभो रसः काल गोदुग्ध या नारियलके पानी के साथ सेवन करनेसे वातज और पित्तज तथा कफज और
। ( भै. र. ; र. रा. सु. ; र. का. धे. । ज्वग. ; त्रिदोषज शूल, परिणाम शूल, आम जनित शूल,
रसे. चि. म. । अ. ९) कृशता, विदर्णता, आलस्य, तन्द्रा और अरुचिका रसोम्लेच्छशिलातालाश्चन्द्रद्वयग्न्यर्कभागिकाः। नाश होता है।
पिट्टा तान सुषवी'तोयस्ताम्रपात्रोदरे क्षिपेत् ॥ (७०४८) विद्यावङ्गेश्वररसः न्यस्तं शरावे संरुध्य वालुकायन्त्रगं पचेत् । (विद्यावागीश्वररमः) स्फुटन्ति ब्रीहयो यावत्तच्छिरस्थाः शनैः शनैः॥
( र. का. थे. । प्रमेहा.) सञ्चूर्ण्य शर्करायुक्तं गुआर्द्ध भक्षयेत्ततः । तुल्यानि वङ्गमताभ्रभम्मानि परिकल्पयेत् ।
| विषमाख्यान ज्वरान् हन्ति तैलाम्लादि विवसर्वतुल्यं महानिम्बबीजचूर्ण विमिश्रयेत् ॥ लिह्यारक्षौद्रेण मापैकं पित्तमेह प्रशान्तये ।
शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध हिंगुल २ भाग,
शुद्ध मनसिल ३ भाग और शुद्ध हरताल १२ भाग शाणत्रयं निशाचूर्ण मधुना भक्षयेदनु ॥
ले कर सबको एकत्र खरल करके करेलेके रस में विद्यावङ्गेश्वरो नाम लालामेहस्य शान्तये ॥
घोटें और फिर उसका गोला बना कर उसे ताम्र के वंग भस्म, रस सिन्दूर और अभ्रक भस्म पात्रमें बन्द करके यथा विधि शराब सम्पुटमें बन्द समान भाग ले कर एकत्र खरल करें और फिर करें एवं बालुका यन्त्रमें पकावें । जब यन्त्रके रेत उसमें सबके बराबर बकायनके बीजोंका चर्ण मिला पर धान डालनेसे उनकी खील होने लगें तो अग्नि कर सुरक्षित रखें ।
देनी बन्द कर दें और यन्त्रके स्वांग शीतल होने मात्रा-१। माशा।
पर उसमेंसे गोले को निकाल कर पीस लें । ( व्यवहारिक मात्रा- ५ रत्ती ।)
मात्रा--आधी रत्ती। इसे शहदके साथ सेवन करनेसे पित्तज प्रमेह- इसे खांडमें मिला कर सेवन करनेसे विषमका नाश होता है।
ज्वर नष्ट होता है। यदि इस पर १५ माशे (व्य. मा. २ अपथ्य-तेल, खटाई आदिसे परहेज़ करें । माशे ) हल्दीके चर्णको शहद में मिला कर अनुपान रूपसे सेवन किया जाय तो लालामेह नष्ट
१. मुशली तायैरिति पाठातरम् हो जाता है।
१. सुरभितोयैरिति पाठान्तरम्
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रसपकरणम्
चतुर्थों भागः
७७३
(७०५०) विद्यावागीशरसः कर्ष ज्योतिष्मती तैलं क्रामणार्थ पिबेत्सदा । ( रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. ; र. चं. । प्रमेहा. ; वाक्पातजायत धारा जावचन्द्राक तारकम् ।। रसे. चि. म. । अ. ९)
___अभ्रक सत्वकी भस्म, हीरा भस्म, स्वर्ण मृतमृताभ्रनागश्च स्वर्ण तुल्यं प्रकल्पयेत् ।।
भस्म, चांदी भस्म, ताम्र भस्म, मुण्ड लोह भस्म,
तीक्ष्ण लोह भस्म, कान्त लोह भस्म और शुद्ध महानिम्बस्य चूर्णन्तु चतुर्भिः सममाहरेत् ।। मधुना लेहयेन्माषं लालामेहप्रशान्तये ।।
हरताल समान भाग ले कर सबको एकत्र खरल
करें और फिर उसमें उसके बराबर शुद्ध पारद सक्षौद्रं रजनीचूर्ण लेह्य निष्कद्वयन्तथा ॥
मिला कर प्रथम थोड़ी देर सूखा खरल करके ३ असाध्यं नाशयेन्मेहं विद्यावागीशको रसः ॥
दिन अलि वर्गमें धोटें और फिर उसका गोला __ पारद भस्म (रस सिन्दूर ), अभ्रक भस्म,
बना कर उसे अन्धमूषामें बन्द करके ध्मावें । इस सीसा भस्म और स्वर्ण भस्म १-१ भाग तथा ,
। क्रियासे औषधकी गोली तैयार हो जायगी। वकायनके बीजोंका चूर्ण ४ भाग ले कर सबको
इसे १ वर्ष तक सदा मुखमें रखनेसे जग एकत्र मिला कर खरल करें।
और ( रोगजनित ) मृत्यु का भय नहीं रहता तथा मात्रा-१ माशा।
बुद्धि अत्यन्त प्रखर और आयु अत्यन्त दीर्घ हो ( व्यवहारिक मात्रा-४ रत्ती।) जाती है।
अनुपान-औषध खानेके पश्चात् ७॥ इसके प्रयोगकालमें नित्य प्रति १। तोला माशे ( व्य. मा. २-३ माशे ) हल्दीके चूर्णको मालकंगनीका तेल पीना चाहिये । शहदमें मिला कर चाटना चाहिये ।
( बिना योग्य चिकित्सककी सम्मति लिये इसके सेवनसे असाध्य लालामेह भी नष्ट हो मालकंगनीके तेलकी इतनी वृहद् मात्रा कदापि न जाता है।
पीनी चाहिये ।) (७०५१) विद्यावागीश्वरीगुटिका विद्रुमशोधनमारणम् (र. र. रसा. ख. । उप. ३)
प्रवाल शोधन मारण देखिये । व्योमसत्त्वं मृतं वनं स्वर्णतारार्कमुण्डकम् ।
(७०५२) विध्वंसरसः तीक्ष्णं कान्तं तालकं च शुद्धं कृत्वा विमिश्रयेत॥ ( र. र. स. । उ. अ. १६ ; र. चं. । अजीण. ) सूक्ष्मचूर्ण समं सर्व चूर्णाशं शुद्धपारदम् । विमर्थ गन्धोपलटङ्कणेन त्रिदिनं चाम्लवर्गेण मर्दितं चान्धितं धमेत ॥ सम्भाव्य वारानथ सप्त जात्याः । विद्यावागीश्वरी ख्याता गुटिका वत्सरावधि । तायैः फलानामथ सिद्धसूतो यस्य वक्ते स्थिता तस्य जरा मृत्युन विद्यते ॥ विध्वंसनामा शमनो विधूच्याः ॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
अनुष्य गुमा नव दापनीया
बराबर ले कर प्रथम पारे गंधककी कज्जली बनावें हन्तुं विधूची सितया समेताः । और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर तक्रौदनं स्यादिह भोजनाय
सजीके पानी और दन्तीमूलके क्वाथकी भावना पथ्यं च शाकं किल वास्तुकस्य ॥ दे कर ३-३ रत्तीकी गोलियां बना लें।
शुद्ध गन्धक और सुहागेकी खील समान | इनके सेवनसे नवज्वर, शूल, गुल्म, पाण्डु, भाग ले कर दोनोंको एकत्र मिला कर जायफलके | ग्रहणी, अर्श, कृमि, अजीर्ण, आमवात, प्लीहा, काथकी सात भावना दे कर ९-९ रत्तीकी | उदर और कोष्ठबद्धका नाश होता है। गोलियां बनायें ।
(७०५४) विनोदविद्याधररसः (२) ___इसे खांडमें मिला कर सेवन करनेसे विषूचिका- (र. २. स. । उ. अ. १९ ; र. चं. । का नाश होता है।
उदर रोगा.) पथ्य-तक भात और बथुवेका शाक । | रसेन्द्रबलिटङ्कणैः जयपालबीजैः समः।
( नोट ) पाठान्तरके अनुसार इसमें १ भाग | रसः सुमृदितो भवेत्खलु विनोदविद्याधरः ॥ पारद भी डालना चाहिये ।
पयो गुडयुतो हरेत्सकलरेचनीयामया(७०५३) विनोदविद्याधररसः (१)
उज्वरं च अठरामयान्गुदगदं सशूलं नृणाम् ।
सम्यग्विरेचनाभावे मुद्गक्वाथं पिबेदनु (र. रा. सु. । ज्वरा.)
| मेदाधिक्ये पिबेत्तकं ब— राणां त्वचो रसम् ॥ रसं गन्धं मृतं लोहं त्रिकटु त्रिफला तथा।।
शुद्र पारद, शुद्ध गन्धक और सुहागेकी खील कटुकी त्रिच्च बृहती हेमार्के टङ्कणं विषम् ॥
१-१ भाग तथा शुद्ध जमालगोटा सबके बराएतानि समभागानि समांशं तिन्तिडी फलम्।
बर ले कर प्रथम पारे गंधककी कज्जली बनावें चूर्णयित्वा ततः सम्यकमर्दयेत्स्वर्जकाम्बुना ॥ । और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिला कर पानीके दन्ती क्वाथे ततः सम्यग्बटिका वल्लपात्रजा ।
। गोलियां विद्याधरविनोदाख्यं दद्याच्चैव नवज्वरे ॥ बना लें। शूले गुल्मे तथा पाण्डौ ग्रहण्यर्शकृमीन्हरेत् । इन्हें गुड मिश्रित दूधके साथ सेवन करनेसे अजीर्णत्याधामवाते च प्लीहोदरविबन्धजित् ॥ ज्वर, उदर रोग, अर्श और शूलादि समस्त विरेदातव्यः सर्वरोगेषु नाशयेन्नात्र संशयः॥ | चनीय रोगांका नाश होता है।
शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, लोह भस्म, सेठि, यदि इससे भली भांति विरेचन न हो तो मिर्च, पीपल, हर, बहेड़ा, आमला, कुटकी, निसोत, मूंगका काथ पिलाना चाहिये । कटेली, धतूरा, आक, सुहागेकी खील और शुद्ध मेदवृद्धिमें इसे सेवन करानी हो तो तक घछनाग १-१ भाग तथा इमलीके फल सबके ' और बबूलकी छालका काथ पिलाना चाहिये ।
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७७५
रसमकरणम्
चतुर्थों भागः विनोदविद्याधररसः (३) मूलाति ग्रहणीं च शूलमतुलं यक्ष्मामयं कामलां
" विद्याधर रसः " प्र. सं. ७०४३ सर्वान्पित्तमरुद्गदान्किमपर्योगैरशेषामयान् ।। देखिये ।
विमल सत्व और शुद्ध पारद १-१ भाग ले (७०५५) विन्ध्यवासीयोगः कर दोनोंको एकत्र मिला कर इतना खरल करें (र. र. । राजय. ; च. द. । राजय. १०) | कि जिससे दोनों एक जीव हो जायं । तदनन्तरे व्योषं शतावरी त्रीणि फलानि वै बले तथा ।
उसमें १ भाग शुद्ध गंधक और ५ भाग शुद्ध सर्वमेहहरो योगः सोयं लोहरजान्वितः ॥
मनसिल मिला कर सबको खरल करके आतशी एषवक्षः क्षतं हन्ति कण्ठजां विविधां रुजाम् ।
शीशीमें भर कर बालुका यन्त्रमें पकावें और फिर
उसमें उसका दसवां भाग चांदी भस्म तथा वैकान्त राजयक्ष्माणमत्युग्रं बाहुस्तम्भादितन्तथा ॥
भस्म मिला कर अच्छी तरह खरल करें और वस्त्रसे सेठ, मिर्च, पीपल, शतावर, हरै, बहेड़ा, आमला, बला (खरैटी), अतिबला (कंघी); इनका |
छान कर शीशीमें भर कर सुरक्षित रक्खें । चूर्ण और लोह भस्म समान भाग ले कर सबको
इसमें त्रिकुटे और त्रिफलेका चूर्ण मिला कर एकत्र खरल करें।
घीके साथ सेवन करनेसे ज्वर, शोथ, पाण्डु, प्रमेह, इसके सेवनसे समस्त प्रकारके प्रमेह, उरःक्षत,
| अरुचि, अर्श, ग्रहणी, शूल, क्षय, कामला और अनेक प्रकारकी कण्ठ पीड़ा, उग्र राजयक्ष्मा, बाहु
वातपित्तज समस्त रोग नष्ट होते हैं। स्तम्भ और अर्दितका नाश होता है ।
(७०५७) विमलाशुद्धिः (७०५६) विमलरसायनम्
(र. मं.) ( र. र. स. । अ. २) जम्बीरस्य रसे स्विन्ना मेषशृङ्गीरसेऽथवा । तत्सत्वं मूतसंयुक्तं पिष्टं कृत्वा सुमर्दितम् । रम्भातोयेन वा पाच्यं घस्र विमलशुद्धये ॥ विलीनं गन्धके क्षिप्त्वा जायते त्रिगुणात्मकम्॥ विमलमाक्षिकको १ दिन जम्बीहरी, मेढासिंगी शिलां पञ्चगुणां चापि वालुकायन्त्रके खलु । या केलेके रसमें पकानेसे वह शुद्ध हो जाती है। तारभस्म दशांशेन तावद्वैक्रान्तकं मृतम् ॥
(७०५८) विरेकीरसः सर्वमेकत्र सञ्चूयं पटेन परिगाल्य च । निक्षिप्य कूपिकामध्ये परिपूर्य प्रयत्नतः ॥
(र. प्र. सु. । अ. ८) लीढो व्योषवरान्वितो विमलको युक्तो घृतैः। तुल्यं मूतटङ्कणं पलमितं गन्धात्पलं पिप्पलीसेवितो हन्यादुर्भगकृज्ज्वरान् श्वयधुकं पाण्डु- शुण्ठीग्रन्थिकव्योषकान् द्विपलिकान् प्रत्येकप्रमेहाऽरुचीः।।
भागान् कुरु ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[धकारादि
सर्व रेव समांशनिस्तुषकृतं दन्तीफलं चूर्णयेत् इनके सेवनसे विरेचन अवश्य हो जाता है गुजैकः सितया समं रसवरः संभक्षितो रेचकृत्।। और कृमि रोग तथा ज्वरका नाश होता है ।
शुद्ध पारद २॥ तोले, सुहागेकी खील २॥ अनुपान-शीतल जल । तोले, शुद्ध गन्धक ५ तोले तथा पीपल, सेठ,
(७०६०) विलासिनीवल्लभरसः पीपलामूल और त्रिकुटा; इनका चूर्ण १०-१० | तोले एवं शुद्ध जमालगोटा सबके बराबर ले कर |
। ( वै. जी. । विला. ५ ; र. रा. सु. । रसायना. ; प्रथम पारे गन्धकको कञ्जली बनावें और फिर
र. चि. म. । स्त. ११) उसमें अन्य ओषधियां मिला कर सबको पानीके
समानभागे बलिशूलिवीजे साथ धोट कर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें।
__तयोः समानं कनकस्य वीनम् । इनमेंसे १ गोली मिश्रीके साथ खानेसे विरे
धत्तूरतैलेन विमर्य सम्यग् चन हो जाता है।
विलासिनीवल्लभनामधेयः ।।
मूतो भवेदल्लयुगप्रमाणः ( अनुपान-शीतल जल । )
सितायुतो मेहसमूहहारी। (७०५९) विरेचनी गुटिका
वीर्यस्य बन्धं कुरुते नराणां ( र. प्र. सु. । अ. ८)
निहन्ति दर्प च सुलोचनानाम् ।। पारदं गन्धकं विश्वा टङ्गणं विषमुष्टिकम् ।।
शुद्र गन्धक और पारद १-१ भाग तथा स्वर्जिका मरिचं कृष्णा समभागानि कारयेत् ॥ शुद्ध धत्तरबीज २ भाग ले कर प्रथम पारे गंधककी विडङ्गं चाभया दन्ती त्रिवन्नेपालकं तथा ।
कजली बनावें और फिर उसमें धतूरके बीजोंका पूर्वचूर्णसमान्येव भृङ्गद्रावेण भावयेत् ॥
चूर्ण मिला कर धतूरेके तेलमें अच्छी तरह खरल गुआप्रमाणवटिका भक्षिता शीतवारिणा।
करके ६-६ रतीकी गोलियां बना लें। विरेचयत्यवश्यं हि कृमिरोगान् ज्वरानपि ॥
__इन्हें खांडके साथ सेवन करनेसे समस्त प्रमेह विनाशयति वै सम्यक सत्यं गुरुवचो यथा ॥
| नष्ट होते और वीर्यस्तम्भन होता है। इसके प्रावशुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, सेांठ, सुहागेकी
| से मनुष्य मानगर्विता कामिनियोंका मानमर्दन खील, शुद्ध कुचला, सजीखार, काली मिर्च और |
कर सकता है। पीपल १।-१। तोला तथा बायबिडंग, हर', दन्तीमूल, निसोत और शुद्ध जमाल गोटा २-२ तोले
(७०६१) विश्वतापहरणरसः ले कर प्रथम पारे गंधककी कज्जली बनावें और (वै. जी. । विला. ५; र. रा. सु. ; वृ. फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर
नि. र. । ज्वरा.) भंगरेके रसमें घोट कर १-१ रत्तीकी गोलियां | पथ्याकणार्कविषतिन्दुकदन्तिबीजबना लें।
| तितात्रिद्रसबलीन्सहशान्विमध ।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
७७७
धूर्ताम्बुना सकलवासरमेष मूतः
स्वर्ण, सीसा और ताम्रके कण्टकवेधी पत्र स्याद्विश्वतापहरणाभिनवज्वरघ्नः ॥ ५-५ रत्ती (५-५ भाग ) और शुद्ध पारद ३० हर्र, पीपल, ताम्र भस्म, शुद्ध कुचला, शुद्ध |
रत्ती ले कर सबको एकत्र मिला कर नीबूके रसमें
खरल करें । जब सबकी पिट्ठीसी बन जाय तो उसे जमालगोटा, कुटकी, निसोत,* शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धक
जम्बीरी नीबूके अन्दर रख कर उसे कपड़ेमें बांध की कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओष
कर दोला यन्त्र विधिसे २ दिन कांजीमें पकावें । धियांका चूर्ण मिला कर १ दिन धतूरके रसमें
तदनन्तर नीबूमेंसे औषधको निकाल कर पीस लें
और लोहेके सम्पुट में ऊपर नीचे ३०-३० रत्ती घोट कर (२-२ रत्तीकी) गोलियां बना लें।
शुद्ध गंधक और हरताल रख कर उसे बन्द करें इनके सेवनसे नवीन ज्वर नष्ट होता है ।। एवं उसे लवण यन्त्रमें रख कर ३ दिन मन्दाग्नि (७०६२) विश्वमूर्तिरसः
पर पकावें । इसके पश्चात् यन्त्रके स्वांगशीतल
होने पर उसमेंसे औषधको निकाल कर बारीक ( रसे. चि. म. । अ. ९ ; र. का. धे. ;
पीस कर सुरक्षित रक्खें । र. रा. सु । ज्वरा.)
मात्रा--४ रत्ती। स्वर्णनागार्कपत्राणां गुञ्जाः पञ्च पृथक् पृथक् ।
इसे अदरकके रसके साथ देनेसे सन्निपातात्रयाणां द्विगुणः मूतो जम्बीराम्लेन मर्दयेत् ॥
पत् ।। दिका नाश होता है। पिष्टिं तां निम्धुके क्षिप्त्वा दोलायन्त्रे दिन
इस पर आहार शीघ्र न देना चाहिये । पाचयेदारनालान्तस्तस्मादुद्धृत्य चूर्णयेत् ॥ |
(७०६३) विश्वरूपरस: ऊधिो गन्धकं दवा तालकं च रसोन्मितम
( र. का. घे. । शूला.) लोहसम्पुटकं कृत्वा क्षिप्त्वा चैव प्रपरयेत ॥ त्रिकटुकयवनेष्टं कारवी जीरयुग्म लवणस्य च चूर्णन व्यहं मन्दाग्निना पचेत। | दहनजललवङ्ग पारसीका यवानी। आदाय चूर्णयेत् श्लक्ष्णं दधात गुनाचतपयम॥ सकमलकणमूलं चेतकी क्लीतकानि आर्द्रकस्य रसोपेतं शोघ्रं पथ्यं न दापयेत। टिजरणविडङ्गं सैन्धवं पत्रमुस्तम् ॥ विश्वमतिमो नाना नियमिति मिसित्रिवृदजमोदामेथिकात्वक प्रपथ्या
कलीतरुफलधात्री बिल्वकालिङ्गमूलीम् । * र. रा. सु. में निसोतके स्थान पर अतिविषविडयुक्तं हिङ्गनिर्यासनागं नलिका है।
___ वशीरनलदजातीकोशजातोफलानि ।। १ त्रिगुणः इति पाठभेद ।
दृढ दृशदि समस्तं प्रक्षिपेत्सर्वतुल्या२ तारकमिति पाठान्तरम् ।
निह वरविषतिन्दून्साभयांस्तक्रसिद्धान् ।
द्वयम्।
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७७८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
अनु हिममदयुक्तो माषमात्रः स मूतः
(७०६४) विश्वहितरसः प्रशमयति विकाराञ्छ्ले ष्मवातामजातान् ॥ (र. र. स. । उ. अ. २० ) प्रबलमलविबन्धानाहमाटोपमुग्रं रसेन्द्रलिप्तताम्रस्य पत्रं गन्धकमारितम् ।
ज्वरमरुचिविमचिं शूलमन्नद्रवादीन् । तत्तानं पलमात्रं हि पलमात्रं तु यावकम् ॥ हरति च सहसाऽयं जाठरान् सर्वरोगान् ।
| पलं चूर्णितशुद्धालं मर्दयेत्तु दिनत्रयम् । ___ ग्रहणिगदविमुख्यानाहयक्ष्मातिसारान् ।।
इति सिद्धो रसः प्रोक्तो नाम्ना विश्व हितो मतः।।
| वल्लाभ्यां तुलितः सेव्यो मरीचघृतसंयुतः ॥ गिरीशविहिततन्त्रे मन्त्रयुक्त्या नियुक्तो
___शुद्ध ताम्र पत्रों पर (नीबूके रसमें घुटे हुवे) ... निखिलगुणनिवासो विश्वरूपो रसोऽयम्।। पारदका लेप करके उनके ऊपर नीचे ( २ गुना)
सोंठ, मिर्च, पीपल, ल्हसन, कलौंजी, सफेद | गंधक रख कर शरावसम्पुटमें बन्द करें और और काला जीरा, चीतामूल, सुगन्धबाला, लौंग, | गजपुटमें पकावें । इसी प्रकार कई पुट दे कर खुरासानी अजवायन, कमल, पीपलामूल, हर, भस्म करें । मुलैठी, छोटी इलायची, जीरा, बायबिडंग, सेंधा- यह भस्म ५ तोले, जवाखार ५ तोले और नमक, तेजपात, नागरमोथा, सौंफ, निसोत, शुद्ध हरतालका चूर्ण ५ तोले ले कर सबको एकत्र अजमोद, मेथी, दालचीनी, छोटी हर, बहेड़ा, मिला कर ३ दिन खरल करके रक्खें । आमला, बेलकी जड़की छाल, कुड़ेकी जड़की छाल,
___ मात्रा-६ रत्ती। अतीस, बिड़ नमक, हींग, नागभस्म, सफेद पुन- इसे काली मिर्च के चूर्ण और घृतके साथ नवा, खस, जावत्री और जायफल १-१ भाग | सेवन करनेसे कुष्ट नष्ट होता है। तथा हरॊके साथ मिला कर तक्रमें पकाए हुवे
(७०६५) विश्वादिवटी कुचले सबके बराबर ले कर सबके चूर्णको एकत्र
| (वृ. नि. र. । अतिसारा. ; यो. र. । अतिसारा.) मिलावें और फिर उसमें १-१ भाग कपूर और
विश्वजीरकसिन्धुत्थहिङ्गुजातिफलानि च । कस्तूरी मिला कर खरल करके रक्खें ।
साम्रास्थि शङ्ख खण्डं च दनाम्लेन प्रपेषयेत् ॥ मात्रा-१ माशा।
ईषदङ्गारकैद॑ष्टा वटिका कर्षसम्मिता। . इसके सेवनसे कफ वायु और आम जनित पक्वापक्वमतीसारं सशूलं ग्रहणीगदम् ॥ विकार, प्रबल मलावरोध, आनाह, उग्र आटोप, | चिरोत्थमचिरोत्थं च नाशयेन्नात्रसंशयः ॥ ज्वर, अरुचि, विसूचिका, अन्नद्रवादि शूल, समस्त सांठ, जीरा, सेंधा नमक, हींग, जायफल, उदर रोग, ग्रहणी, यक्ष्मा और अतिसारका नाश आमकी गुठली और शंख भस्म तथा मिश्री समान होता है।
भाग ले कर सबको एकत्र खरल करके खट्टी दहीमें
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थो भागः
७७९
घोटें और फिर थोड़ी देर अंगारों पर पका कर । कर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और . ११-१। तोलेकी गुटिका बना लें। फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर इनके सेवनसे पक और अपक्क, शूल युक्त ।
सबको अच्छी तरह एवं नवीन और पुराना अतिसार तथा संग्रहणी
मात्रा-१ से २ रत्ती तक । रोग अवश्य नष्ट हो जाता है।
इसके सेवनसे वातरक्त, ज्वर, कुष्ट, स्वच,का ( व्यवहारिक मात्रा-३ माशे । )
खुरदरापन, एवं उस वातरक्तका कि जो घुटनों (७०६६) विश्वश्वरो रसः (१) तक फैल गया हो और जिसमें हड़ी निकल आई (भै. र. । वातर. ; रस. चि. म. । स्त. २;
| हो तथा अग्निमांद्य और अरुचिका नाश होता है। रसे. सा. सं. ; र. चं. ; र. रा. सु. ; (७०६७) विश्वेश्वरो रसः (२) धन्व. । वातरक्ता.)
(रसे. सा. सं. । ज्वरा.) रसादश विषात्पञ्च गन्धकादश शोधितात् ।।
| मृतसूतार्कतीक्ष्णश्च तालं गन्धश्च कट्फलम् । तुत्थादश पलाशस्य बीजेभ्यः पञ्च कारयेत् ॥ क्षुद्राश्वमारधुस्तूरकरहाटकनीलितः ।
मेषशृङ्गी वचा शुण्ठा भार्गी पथ्या च बालकम् । दशकं दशकं कुर्याच्छोषयित्वा जटात्वचः ।।
धान्यकं मर्दयेत्तुल्यं पर्पटोत्थद्रवैर्दिनम् । दशकं दशकं दत्त्वा कुचिलादश नूतनात् । मर्च माष लिहेलौदैः कफपित्तमदात्यये ॥ भल्लातकाच दशकं चूर्णयित्वा भिषक्ततः ॥
रसो विश्वेश्वरो नाम प्रोक्तो नागार्जुनेन च । सुदिने च बलिं दत्त्वा वैद्यः पूजापरायणः ।
काकमाचीरसं चानु सैन्धवेन युतं पिबेत् ।। रक्तिकै कमितं दद्यात् सहते यदि वा द्वयम् ॥ वातरक्तं ज्वरं कुष्ठं खरस्पर्शमसौख्यदम् ।।
पारद भस्म, ताम्र भस्म, तीक्ष्ण लोह भस्म, आजानुस्फुटित हन्ति विषजं वास्थिनिःसतम॥ शुद्ध हरताल, शुद्ध गन्धक, कायफल, मेढासिंगी, कुष्ठमष्टादशविधमग्निमान्यमरोचकम् ।
बच, सेांठ, भरगी, हर, सुगन्धबाला, और धनिया विश्वेश्वरो रसो नाम विश्वनाथेन भाषितः ।।
समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर एक
दिन पित्तपापड़ेके रस में खरल करें। शुद्ध पारद १० भाग, शुद्ध बछनाग ५ भाग, शुद्ध गंधक १० भाग, शुद्ध तृतिया १० मात्रा-१ माशा। भाग, ढाक (पलाश ) के बीज ५ भाग, तथा
| इसे शहदके साथ सेवन करनेसे कफ पित्तज कटेली, कनेर, धतूरा, अकरकरा और नील; इनकी मदात्यय ( और ज्वर) का नाश होता है। जड़की सूखी हुई छाल दस दस भाग एवं शुद्ध अनुपान---सेंधा नमक युक्त मकोय का नवीन कुचला और भिलावा १०-१० भाग ले ' क्वाथ ।
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७८०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
-
(७०६८) विश्वेश्वरो रसः (३) शुद्ध पारद, खपरिया ( पाठान्तरके अनुसार (र. का. धे. । ज्वरा.)
हिंगुल ) और शुद्ध गंधक समान भाग ले कर
तीनोंको एकत्र मिला कर ३ दिन अश्वत्थ (पीपल) रसगन्धककर्पूरत्र्यूषणं टङ्कग विषम् ।
की छालके रसमें खरल करें और फिर पीपलाकपर्दिकाभस्म समं सर्वमेकत्र कारयेत् ॥
मूलके क्वाथ, कटेलीके रस, और मकोयके रसमें तुलसीरससंयुक्तं देयं शीतज्वरे ततः।
घोट कर २-२ रत्ती या ३-३ रत्तीकी गोलियां दाहज्वरे सविषमे सन्निपाते तथैव च ॥
बना लें। अयं विश्वेश्वरो नाम सद्यः प्रत्ययकारकः॥
इन्हें गोदुग्धके साथ सेवन करनेसे रात्रि___ शुद्ध पारद, शुद्र गन्धक, कपूर, सोंठ, मिर्च, पीपल, सुहागा, शुद्ध बछनाग और कौड़ी भस्म
ज्वर नष्ट होता है। समान भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर (पीपलामूलके स्थानमें धतूरेकी जडके रसकी खरल करें।
भावना भी प्रचलित है।) _इसे तुलसी पत्रके रसके साथ सेवन करनेसे
(७०७०) विश्वेश्वरो रसः (५) शीत ज्वर, दाह ज्वर, विषम ज्वर और सन्निपात
( भै. र. । हृद्रोगा.) का नाश होता है । इसका प्रभाव शीघ्रही प्रकट हो जाता है ।..
स्वर्णाभ्रलौहवङ्गानां रसगन्धकयोरपि ।
वैकान्तस्य च सङ्गृह्य भागांस्तोलकसम्मितान्।। (मात्रा---४ रत्ती ।)
पार्थस्य सलिले नाथ भावयित्वा यथाविधि । . (७०६९) विश्वेश्वरो रसः (४) । रक्तिकैकप्रमाणेन विदध्याटिकास्ततः ॥ ( भै. र. ; र. चं. ; रसे. सा. सं. ; र. रा.
अयं विश्वेश्वरो नाम रसः फुफ्फुसजान् गदान् । सु. । ज्वरा.)
हृद्रोगांश्च जयेत् सर्वान् संशयोऽत्र न विद्यते॥ पारदं रसकं' गन्धं तुल्यांशं मर्दयेद्रसे। स्वर्ण भस्म, अभ्रक भस्म, लोह भस्म, वङ्ग अश्वत्थजे व्यहं पश्चाद्रसे कोलकमूलजे ।। | भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक और वैक्रान्त भस्म निदिग्धिका रसे काकमाचिकाया रसे तथा । समान भाग ले कर प्रथम पारे गंधककी कन्जली द्विगुझं वा त्रिगुञ्ज वा गोक्षीरेण प्रदापयेत् ॥ बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे मिला कर रात्रिज्वरं निहन्याशु नाम्ना विश्वेश्वरो रसः॥ अर्जुनकी छालके रसमें खरल करके १-१ रत्तीकी (कोलकमूलजे इत्यत्र कानकमूलजे इत्यपि गोलियां बना लें।
पाठः प्रचरति) इनके सेवनसे फुफ्फुस और हृदय सम्बन्धी १ दरदमिति पाठान्तरम् ।
रोग निस्सन्देह नष्ट हो जाते हैं।
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ज्वरम् ।
रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः (७०७१) विश्वोद्दीपकाभ्रम्
(७०७२) विषगुटिका (र. रा. सु. ; मै. र. । अग्निमांद्या.)
(ग. नि. । गुटिका. ४) अभ्र निर्मलमारितं पल मितं चूर्णीकृतं यत्नत- त्रिफला व्योषयष्टयाह विषं तुल्यानि पेषयेत् । श्चव्यं चित्रकमिन्द्रसूरकनकं मालूरपत्रादकम् । भृङ्गाम्बुना तु गुटिकाः कुर्याच्चणकसम्मिताः ॥ म
एकैकां वर्धयेत्तावदष्टावस्मान्न वर्धयेत् ।
. आस्तिकेन कृतो योगो विजयेद्वातजान् गदान् ॥ चैषां सत्वपलैविमर्दितमिदं कर्ष क्षिपेत् टङ्गणम्।।। .
अशीति विशति श्लेष्मभवान्सप्त महाक्षयान् । गुनासम्मितमेतदेव वलितं तत्पारिभद्रद्रवं
अष्टादशैव कुष्ठानि सन्नमग्निं च दीपयेत् ।। मन्दाग्नि चिरजातगुल्मनिचयं शूलाम्लपित्तं
हर, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च, पीपल, मुलैठी
और बछनाग; इनका चूर्ण समान भाग ले कर छदि दुष्टमसूरिकामलसर्फ श्वासश्च कासं तृषां
कास तृषा | सबको एकत्र मिला कर भंगरेके रसमें घोट कर प्लीहानं यकृतं क्षयं स्वरहतिं कुष्ठमहारोचकम् । चनेके समान गोलियां बना लें। दाहं मोहमशेष दोषजनितं कृच्छं सुदुर्नामक
इनमेंसे प्रथम दिन एक गोली खावें और चामं वातविमिश्रितं नयन रोग समुन्मूलयेत्।। फिर प्रतिदिन १-१ गोली बढ़ाते रहें । जब ८ विश्वोदीपकनाम रोगहरणे प्रोक्तं पुरा शम्भुना गोली तक पहुंच जाएं तो मात्रा न बढावें और सर्वेषां हितकारक गदवतां सर्वामयध्वंसनम् ॥ नित्य ८ गोली ही सेवन करते रहें।
५ तोले अभ्रक भस्मको चव्य, चीता, इनके सेवनसे ८० प्रकारके वातज रोग, इन्द्रजौ, मसूर, धतूरा, बेलपत्र, अद्रक, पीपलामूल, । बीस प्रकारके कफज रोग, ७ प्रकारके क्षय, १८ सौंफ, कदम्ब और आककी जड़के ५-५ तोले प्रकारके कुष्ठ और अग्निमांद्यका नाश होता है। रसमें खरल करें और फिर उसमें ११ तोला सुहागे
(७०७३) विषमज्वरान्तकलौहम् (१) की खील मिला कर १-१ रत्तीको गोलियां
( भै. र. ; र. रा. सुं. ; धन्व. ; रसें. सा. बना लें।
सं. । ज्वरा.) अनुपान-नीमका रस ।
पारदं गन्धकं तुल्यं मृतार्द्ध जीर्णताम्रकम् । इसके सेवनसे पुरानी मन्दाग्नि, गुल्म, शूल, | ताम्रतुल्यं माक्षिकञ्च लौहं सर्वसमं नयेत् ॥ अम्लपित्त, ज्वर, छर्दि, दुष्ट मसूरिका, अलसक, जयन्त्याः स्वरसेनैव कोकिलाक्षरसेन च । श्वास, खांसी, तृषा, प्लीहा, यकृत् , क्षय, स्वरनाश, | वासकापर्णरसैः पश्वा च विमर्दयेत ॥ कुष्ठ, अरुचि, दाह, मोह, मूत्रकृच्छ्, अर्श, आमवात | पृथक्कलायमाना तु वटिकां कारयेनिषक । और नेत्र रोगोंका नाश होता है।
विषमज्वरान्तनामायं विषमज्वरनाशनः ।।
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७८२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि वहिदीप्तिकरं हृद्यः प्लीहगुल्मविनाशनः । अग्निश्च कुरुते दीप्तं बलवर्णप्रसादनम् । चक्षुष्यो बृंहणो वृष्यो श्रेष्ठः सर्वरुजापहः ।। विषमज्वरान्तकं नाम्ना धन्वन्तरिप्रकाशितम् ॥ _शुद्ध पारद और गन्धक २-२ भाग, ताम्र
___हिङ्गुलोत्थ पारद २ तोले और शुद्ध गंधक भस्म और स्वर्ण माक्षिक भस्म १-१ भोग तथा
२ तोले ले कर कजली बनावें और फिर रस लोह भस्म ६ भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर कज्जली बनावें और फिर उसे जयन्ती, तालमखाने,
पर्पटीके समान उसका पाक करके उसमें आधा बासे (अडूसे) अदरक और पानके रसकी ५-५ तोला स्वर्ण भस्म; ४-४ तोले लोह भस्म, ताम्र भावना दे कर मटरके समान गोलियां बना लें। भस्म और अभ्रक भस्म; १-१ तोला वङ्ग भस्म,
यह रस विषम ज्वर नाशक, अग्निदीपक, गेरु और प्रवाल (मूंगा) भस्म एवं आधा आधा हृद्य, चक्षुष्य, बृंहण, वृष्य, और प्लीहा तथा गुल्म तोला मोती भस्म, शंख भस्म और शक्ति (सीप) भस्म नाशक है।
मिला कर सबको एकत्र खरल करें और पानीसे (७०७४) विषमज्वरान्तकलाहम् (२)
घोट कर उसका गोला बना कर उसे दो शुक्तियों (पुट पक्व )
में बन्द करके सम्पुट बनावें और उस पर कपर( भै. रे. ; रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. । ज्वरा.)
मिट्टी करके सुखा कर लघुपुटमें स्वेदित करें। हिङ्गलसम्भवं मूतं गन्धकेन सुकज्जलीम् ।
( अग्नि बहुत मन्द होनी चाहिये नहीं तो औषध
निर्वीर्य हो जायगी।) तदनन्तर उसके स्वांग पर्पटीरसवत्पाच्य सूताङ्घिहेमभस्मकम् ॥ लौहं ताम्रमभ्रकश्च रसस्य द्विगुणं तथा ।
शीतल होने पर औषधको निकाल कर पीस कर वङ्गकं गैरिकश्चैव प्रवालश्च रसाईकम् ॥
सुरक्षित रक्खें । मुक्ताशङ्ख शुक्तिभस्म प्रदेयं रसपादिकम् । मात्रा-२ रत्ती। मुक्तागृहे च संस्थाप्य पुटपाकेन साधयेत् ॥
___ अनुपान-पीपल, हींग और सेंधानमकका भक्षयेत्यातरुत्थाय द्विगुनाफलमानतः।
चूर्ण । अनुपानं प्रयोक्तव्यं कणाहिङ्गुससैन्धवम् ॥ ज्वरमष्टविधं हन्ति वातपित्तकफोद्भवम् ।
- इसके सेवनसे आठ प्रकारके ज्वर, प्लीहा, प्लीहानं यकृतं गुल्मं साध्यासाध्यमथापि वा ॥
यकृत, गुल्म, सन्तत, सततादि विषमज्वर, कामला, सन्ततं सतताख्यश्च विषमज्वरनाशनम् । पाण्डु, शोथ, प्रमेह, अरुचि, ग्रहणी, आमदोष, कामलां पाण्डुरोगश्च शोथं मेहमरोचकम् ॥ कास, श्वास, मूत्रकृच्छू और अतिसारका नाश ग्रहणीमामदोषञ्च कासं श्वासं च तत्र तत् ।। होता तथा अग्नि दीप्त एवं बल वर्णकी वृद्धि मूत्रकृच्छातिसारश्च नाशयेदविकल्पतः ॥ . . . ! होती है। :
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
७८३
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(७०७५) विषमज्वरान्तकलौहम् (७०७६) विषमज्वरारि रसः (३) ( वृहद् )
( र. का. धे. । ज्वरा.) ( रसे. सा सं. । ज्वरा.)
शुद्धसूतं तथा गन्धं तानं लौहं मनःशिलाम् ।
समभागं विमर्याथ भावयेत्तुलसीदलैः ॥ शुद्धमूतं तथा गन्धं कारयेत्कज्जली शुभाम् ।
कारवल्लीभृङ्गराजधूतनीरैविमर्दयेत् । मृतमूतं हेमतारं लौहमभ्रश्च ताभ्रकम् ॥
अजामूत्रेण दातव्यो वल्लो विषमशान्तये ॥ तालसत्वं वङ्गभस्म मौक्तिकं सप्रवालकम् ।
विषमारीति नामायं विषमान्मूलनक्षमः॥ सुवर्णमाक्षिकश्चापि चूर्णयित्वा विभावयेत् ॥ निर्गुण्डी नागवल्ली च काकमाची स पर्पटी।
शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, ताम्र भस्म, लोह त्रिफला कारवेल्लश्च दशमूली पुनर्नवा ॥
भस्म और शुद्ध मनसिल समान भाग ले कर गुडूची दृषकश्चापि सभृङ्गकेशराजकः।।
सबको एकत्र खरल करके कज्जली बनावें और एतेषाञ्च रसेनैव भावयेत्रिदिनं पृथक्॥
उसे तुलसी पत्र, करेले, भंगरे और धतूरेके रसकी गुआमानां वटीं कुर्याच्छास्त्रवित्कुशलो भिषक् ।।
पृथक् पृथक् एक एक भावना दे कर ३-३ रत्तीकी पिप्पली गुडकेनैव लिहेच्च वटिका शुभाम् ॥
गोलियां बना लें। ज्वरमष्टविधं हन्ति साध्यासाध्यमथापि वा। | इसे बकरीके मूत्रके साथ सेवन करनेसे अभिघाताभिचारोत्थं जीर्णज्वरं विशेषतः ॥ विषमज्वर नष्ट होता है।
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक; पारद भस्म, स्वर्ण (७०७७) विषमारणम् (१) भस्म, चांदी भस्म, लोह भस्म, अभ्रक भस्म, ताम्र (र. मं. ; रसे. सा. सं. ; आ. वे. प्र.) भस्म, हरताल सत्व, वंग भस्म, मोती भस्म, प्रवाल
समटङ्कण पिष्टं तद्विषं मृतमुच्यते ।। (मूंगा) भस्म और स्वर्ण माक्षिक भस्म समान भाग योजयेत् सर्व रोगेषु न विकारं करोति हि ॥ ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और
शुद्ध बछनागमें समान भाग सुहागा मिला फिर उसमें अन्य औषधे मिला कर संभालु, पान,
| कर खरल कर लेनेसे विष मर जाता है और हानि मकोय, गोपीचन्दन, त्रिफला, करेला, दशमूल,
नहीं पहुंचाता । पुनर्नवा, गिलोय, बासा, भंगरा और काला भंगश इनके स्वरस या काथकी पृथक् पृथक् ३-३
(७०७८) विषमारणम् (२) भावना दे कर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें। ( आ. वे. प्र. । अ. ४ ; यो. र. ; वृ. यो. इन्हें पीपलके चूर्ण और गुड़के साथ सेवन
त.। त. ४३) करनेसे साधारणतः समस्त प्रकारके ज्वरोंका और तुल्येन टङ्कणेनैव द्विगुणेनोषणेन च । विशेषतः विषम ज्वरका नाश होता है । विषं संयोजितं शुद्धं मृतं भवति सर्वथा ॥
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७८४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
शुद्ध घछनागमें उसके बराबर सुहागा और पारद भस्म ( पाठान्तरके अनुसार वंग २ गुना काली मिर्चका चूर्ण मिला कर खरल कर | भस्म ), हल्दीका चूर्ण, सुहागेकी खील, काली लेनेसे विष मर जाता है।
मिर्चका चूर्ण और तूतिया समान भाग ले कर विषमारी रसः ( महा ) सबको एकत्र मिला कर देवदाली ( बिंडाल ) के " महा विषमारी रसः ” देखिये । रसमें खरल करके सुखा कर सुरक्षित रक्खें । (७०७९) विषयोगः
मात्रा-३॥ माशे। (वृ. यो. त. । त. १२८)
अनुपान-मनुष्यका मूत्र । गोमूत्रेण विषं घृष्ट्वा सशूले श्रवणे क्षिपेत् ।।
इसे पिलानेसे स्थावर और जङ्गम भयंकरसे सद्य एव स्रवः शूल: कण्डूः पीडा च शाम्यति।। भयंकर विष भी नष्ट हो जाता है। ____ शुद्ध बछनागको गोमूत्रमें घिस कर कानमें डालनेसे कर्णशूल, कर्णस्राव और कानकी खाजका
(७०८२) विषवज्रपातो रसः (२) शीघ्रही नाश हो जाता है।
(र. चं. ; भै. र. ; धन्व. ; रसे. सा. सं. । विषा.) (७०८०) विषरक्षणम् निशां सटङ्को सजातिकोषं ( आ. वे. प्र. । अ. ४)
तुत्थं समांशं कुरु देवदाल्याः। रक्तसर्षपतैलेन लिप्ते वाससि धारयेत् ।
रसेन पिष्टवा विषवज्रपातो विषं शुद्धं प्रयत्नेन नान्यत्र गुणहानितः ॥
रसो भवेत्सर्वविषापहन्ता ॥ शुद्ध विषको सरसोंके तेल में भीगे हुवे कपड़े- |
निष्कोऽस्य सञ्जीवयति प्रयुक्तो में रखनेसे उसके गुण स्थिर रहते हैं। (७०८१) विषवजूपातो रसः (१)
नृमूत्रयोगेन च कालदष्टम् । (र. का. घे. । विषा. ; वृ. यो. त.। त. १४५)
जटाविषेणाकुलितं तथान्यरसो' निशा टङ्कणमूषणानि
विषैश्च यं हन्ति तथाऽऽतुरं च ॥ ___ तुत्थं समांशं कुरु देवदाल्याः ।
हल्दी, सुहागेकी खील, जावत्री और तूतिया रसेन पिष्टो विषवज्रपातो
समान भाग ले कर सबको एकत्र खरल करके रसो भवेत्सर्वविषोपहन्ता ॥ देवदाली ( बिंडाल ) के रसमें घोट कर, सुखा कर निष्कोऽस्य सञ्जीवयति प्रयुक्तो सुरक्षित रक्खें । नृमूत्रयुक्तेन च कालजुष्टम् ।
मात्रा--३॥ माशे । जटाविषेणाकुलितं तथान्यै
अनुपान-मनुष्यका मूत्र । दुष्टैविषैश्चूर्णितमातुरं च ॥
इसे पिलानेसे स्थावर और जङ्गम समस्त १. रङ्गमिति पाठान्तरम् ।
प्रकारके भयंकरसे भयंकर विष भी नष्ट हो जाते हैं।
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चतुर्थी भागः
रसप्रकरणम् ]
( ७०८३) विषशोधनम् (१) ( आ. वे. प्र. । अ. ४ विषभागांश्चणकवत्स्थूलान कृत्वा तु स्वेदयेत् । गोदुग्धे घटिकाः पञ्च शुद्धिमायाति तद्विषम् ॥ न प्रोक्तं शोधनं यस्य विषस्योपविषस्य वा । गोदुग्वे स्वेदनं तस्य कर्तव्यं शुद्धिकारकम् ॥
बछनागके चने के समान छोटे छोटे टुकड़े करके उन्हें ५ घड़ी तक गोदुग्ध में स्वेदित करें | इस प्रकार विशुद्ध हो जाता है ।
जिस विष या उपविषका शोधन ग्रन्थोंमें न लिखा हो उसे गोदुग्धमें स्वेदित करलेना चाहिये । इससे वह शुद्ध हो जाता है ।
( ७०८४) विषशोधनम् (२)
(रसे.सा.सं.)
अथवा फले क्वाथे विषं शुद्धयति पाचितम् । दोलायां त्रिफला क्वाथे छागीक्षीरे च पाचितम् ॥
विषको दोलायन्त्र विधिसे त्रिफला के काथ और बकरी के दूध में पकाने से वह शुद्ध हो जाता है । ( ७०८५) विषशोधनम् (३) ( रसे. सा. सं.)
गोमूत्र पूर्णपात्रे च दोलायन्त्रे विषं पचेत् । दशतोलकमानेन चादौ वैद्यो दिवानिशम् ।।
१० तोले बछनागको (टुकड़े करके ) दोला यन्त्र विधिसे २४ घण्टे गोमूत्र में स्वेदित करनेसे शुद्ध हो जाता है ।
Rela
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७८५
(७०८६) विषशोधनम् (४)
;
:
( रसे. सा. सं. : र. में; आ. वे. प्र. यो. र : वृ. यो त । त. ४३ ) विषभागांश्चणकवत्स्थूलान्कृत्वा तु भाजने । तत्र गोमूत्रकं दत्त्वा प्रत्यहं नित्यनूतनम् ॥ शोषयेत्त्रिदिनादुद्धृधृत्वा तीव्रातपे ततः । प्रयोगेषु प्रयुञ्जीत भागमानेन तद्विधम् ॥
नागके चने के समान छोटे छोटे टुकड़े करके उन्हें ( कांच, चीनी या मिट्टी के पात्र में ) गोमूत्र में भिगो दें और ३ दिन तक प्रतिदिन मूत्र बदलते रहें । तदनन्तर उसे तेज़ धूपमें सुखा | इस प्रकार विशुद्ध हो जाता है ।
(७०८७) विषादिगुटिका
( र. र. स. । उ. अ. १९ ) विपल्वरसव्योपगन्धकानां पलं पलम् । पद्वयं हरीतक्याचित्रकस्य पलत्रयम् ॥ कौन्ती मुस्ता चतुजतिं कषींशं च विचूर्णितम् । त्रिगुणच गुडः कार्या वटिका मापसम्मिता || भक्षयेत्तां जराग्रस्तो महारोगैश्व पीडितः ॥
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शुद्ध बछनाग, ताम्र भस्म, शुद्ध पारद, त्रिकुटा, और शुद्ध गंधक ५-५ तोले, हर्र १० तोले, चीतामूल १४ तोले तथा रेणुका, नागरमोथा, दालचीनी, तेजपात, नागकेसर एवं इलायची १| - १| तोला ले कर प्रथम पारे गंधककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर उसे सबसे ३ गुने गुड़की चाशनी में मिला कर १-१ | मारोकी गोलियां बना लें। I
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
ये गोलियां वृद्धोंके लिये अत्यन्त उपयोगी सुहागेकी खील, स्वर्ण माक्षिक, सोंठ, शुद्ध हैं और इस अवस्थामें होने वाले महारोगोंको पारद, शुद्ध गंधक, शुद्ध बछनाग और अफीम नष्ट करती हैं।
१-१ भाग तथा शुद्ध हिंगुल सबके बराबर विषूचिकाविजयरसः
(७ भाग) ले कर प्रथम पारे गंधककी कज्जली बनावें ( र. चं. । अजीर्णा.)
और फिर उसमें अन्य औषधे मिला कर जम्बीरी
| नीबूके रसमें खरल करके सरसे के समान गोलियां विध्वंस रसः प्र. सं. ७०५२ देखिये ।
बना लें। (७०८८) विसर्पजित् रसः ( र. र. स. । उ. अ. २०)
इनके सेवनसे विषूचिका और त्रिदोषज तथा कान्तगन्धकतीक्ष्णाभ्रविषताप्यसमन्वितः। उपद्रवयुक्त अतिसार शीघ्रही नष्ट हो जाता है। वन्ध्याकर्कोटकीकन्दे पक्यः सूतो विसर्पजित्॥ पथ्य ---दही भात ।
कान्त लोह भस्म, शुद्ध गंधक, तीक्ष्ण लोह (७०९०) वीरचण्डेश्वरो रसः भस्म, अभ्रक भस्म, शुद्ध बछनाग, और स्वर्ण माक्षिक भस्म समान भाग ले कर :सबको एकत्र
(र. रा. सु. ; र. र. । कुष्ठा.) खरल करके बांझककोड़ेकी जड़में भर दें और | शुद्ध मृतं समं गन्धं कान्तभस्मविषं तथा । उसे शरावसम्पुट में बन्द करके पुट पाक करें। वाकुची त्रिफला चूर्ण निम्बवहिगुडूचिका ।। तदनन्तर उसके स्वांगशीतल होने पर निकालकर | दिनं भृङ्गिद्रवैमध वाकुच्याश्च कषायकैः । ( ककोड़ेकी जड़ समेत ) पीस लें ।
भक्षयेल्लोहपात्रस्थं कट्टैि जिलकः प्रणुत् ।। इसके सेवनसे विसर्प नष्ट होता है।
वीरचण्डेश्वरो नाम्ना षण्मासात् सर्वकुष्ठजित् ॥ (मात्रा--१ रत्ती ।)
__ शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, कान्त लोह भस्म, (७०८९) विसूचीविध्वंसरसः
| शुद्ध बछनाग एवं बाबची, त्रिफला, नीमकी छाल, ( भै. र. । अग्निमांद्या.) चीतामूल और गिलोयका चूर्ण समान भाग ले कर टङ्गणं माक्षिकं शुण्ठी पारदं गन्धकं विषम् ।। प्रथम पारे गन्धकको कज्जली बनावें और फिर गरलं समभागेन सर्वेषां हिङ्गलं समम ॥ उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिला कर १-१ मर्दयेजम्बीरद्रावैर्वटी कार्या प्रयत्नतः ।
दिन भंगरे और बाबचीके रसमें घोट कर सुरक्षित श्वेतसर्षपतुल्या च मृतसंजीवनी तथा ॥
रक्खें । विसूचीं नाशयत्याशु दध्यन्नं पथ्यमाचरेत् ।। इसके सेवनसे ६ मासमें ऋष्यजिवक कुष्ठ त्रिदोषोत्यमतीसारं सर्वोपद्रवसंयुतम् ॥ नष्ट हो जाता है ।
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रसप्रकरणम्
चतुर्थों भागः (७०९१) वीरभद्रभैरवरसः (३) आकका दूध, थूहरका दूध, कमीला,
(र. का. धे. । ज्वरा.) | भिलावा, ढाकके बीज, पारिजात ( हारसिंगार ), सूतटकणमाकल्लनवसारं च चित्रकम् ।।
अमलतासके बीज, जमालगोटा, अलसी और सहत्वक्केशरकणादीप्यं सुरपुष्पं हरीतकी ॥
जनेके बीज, तथा अजवायन, बछनाग और सफेद त्रिच्छम्पाकसेहुण्डज्योतिष्मत्यर्कदन्तिजाः । मैनफलके बीज समान भाग ले कर सबको बकरीके एतन्मूलरजः सर्व प्रति पञ्चविभागिकम् ॥ दूधकी भावना दे कर सुखावें और फिर (पाताल सर्वचूर्णस्य तुल्यं स्याल्लोहं लोहोऽयमीरितः। यन्त्रसे ) तेल निकाल लें । उपरोक्त औषधको इस लिङ्गीद्रवारुणीदन्तीतुम्बीशम्पाकजैः फलैः ॥ तेलकी भावना दे कर सुरक्षित रक्खें । चूर्णितैः क्वथितैर्लोहचतुर्थीशावशेषितैः। ___इसके सेवनसे ज्वर, शूल, और गुल्मादिका सर्वमेनं चूर्णलोहं तैलेनानेन भावयेत् ।। नाश होता है। अर्क सेडुण्डकम्पिल्लभल्लातकपलाशजैः।
(७०९२) वीरभद्राख्यो रसः पारिजातकशम्पाकजयपालातसीभवैः ॥ फलैश्च शिग्रुजैर्दीप्यविषयुक्तैः समैः सरैः।।
(वृ. यो. त. । त. ५९ ; यो. त. । त. २०, अजाक्षीरेण संसिक्तैः शुष्कैस्तैलं समुद्धरेत् ॥
रसे. चि. म. । अ. ९ ; र. का. धे.) वीरभद्रेश्वरो नाम रसोऽयं भैरवाहयः।
त्र्यूषणं पश्चलवणं शतपुष्पा द्विजीरकम् । सर्वज्वरांछूलगुल्मोदरादीन्नाशयेभृशम् ||
क्षारत्रयं समांशेन चूर्णमेषां पलत्रयम् ॥ (१) रस सिन्दूर, सुहागेकी खील, अकरकरा,
शुद्धसूतं मृतं चाभ्रं गन्धकं च पलं पलम् । नवसादर, चीतामूल, दालचीनी, नागकेसर, पीपल,
आद्रेकस्य रसैः खल्वे दिनमेकं पिमर्दयेत् ॥ अजवायन, लौंग, हर्र, निसोत, अमलतासका गूदा,
वीरभद्रो रसः ख्यातो माकः सन्निपातजित् । सेंड (सेहुंड-थूहर ) की जड़, मालकंगनी, आककी
चित्रकाकसिन्धत्थमनुपानं जलैः सह ।। जड़, और दन्तीमूल; इनका चूर्ण ५-५ भाग
पथ्यं क्षीरोदनं देयं द्विवारं च रसो हितः। तथा लोहभस्म सबके बराबर ले कर सबको एकत्र सोंठ, मिर्च, पीपल, सेंधानमक, संचल (काला खरल करें।
नमक), विड नमक, सामुद्र लवण, काच लवण, (२) शिवलिंगी, इन्द्रायणकी जड़, दन्तीमूल, सोया, काला और सफेद जीरा, सज्जीखोर, जवाकड़वी तूंबी और अमलतासका गूदा समान भाग खार और सुहागा समान भाग ले कर यथा विधि ले कर सबको एकत्र मिला कर बारीक कूटें और चूर्ण बनावें । तदनन्तर यह चूर्ण १५ तोले, शुद्ध आठ गुने पानीमें पकायें एवं चौथा भाग शेष रहने पारद ५ तोले, शुद्र गंधक ५ तोले और अभ्रक पर छान लें । तदनन्तर उपरोक्त चूर्णमें उसके भस्म ५ तोले ले कर प्रथम पारे गंधककी कजली बराबर यह काथ मिला कर खरल करें। बना और फिर उस में अन्य औषधे मिला कर १
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
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दिन अदरकके रसमें घोट कर सुखा कर सुरक्षित विद्रधि ज्वरगरं शिरोगदं वरखें ।
नेत्ररोगमखिलं हलीमकम् । मात्रा-२ माशा।
हन्ति वृष्यतममेतदभ्रक ( व्यवहारिक मात्रा-~-३ रत्ती।)
वीरभद्रमतिबल्यमुत्तमम् ॥
भक्षितं विविधभक्ष्यमागलं इसके सेवनसे सन्निपात नष्ट होता है।
काष्ठसङ्घमपि भम्मतां नयेत् ।। अनुपान----चीता, अदरक और सेंधा समान २॥ तोले सहस्रपुटी अभ्रक भस्मको ९० भाग ले कर चूर्ण बनार्वे । रस खानेके पश्चात् यह दिन चीतके म्बरसमें खरल करें और फिर अदचूर्ण पानीके साथ पीना चाहिये ।
रकके रसमें घोट कर ( १-१ रत्तीकी) गोलियां (मात्रा-२.-२॥ माशे ।)
| बना लें।
इनमस नित्य प्रति १ गोली पोनमें रखकर (७०९३) वीरभद्राभ्रकः
। या अदरकके टुकड़े के साथ सेवन करनेसे अग्निमांद्य(भ, र. : र. रा. मुं । अग्निमां.) का नाश हो कर जठराग्नि शीघ्र ही अत्यन्त तीव्र अभ्रक पुटसहस्रमारितं
हो जाती है। कर्पयुग्ममतिनिर्मलीकृतम्। इसके अतिरिक्त यह रस श्वास, कास, वमन, वासराणि नवति विमर्दितं
शाथ, कामला, प्लीहा, गुल्म, उदर रोग, अरुचि, चित्रकस्वरससाधुसिक्तकम् ।।
भ्रम, रक्तपित्त, यकृत , अम्लपित्त, शूल, विसूचिका, शृङ्गवेररसमर्दिता वटी
आमवात, वातरक्त, दाह, शीत. निर्बलता, कृशता, कारिता सकलरोगनाशिनी ।
विद्रधि, ज्वर, गरविष, शिरोरोग, समस्त नेत्ररोग भक्षिता भुजगवल्लिपत्रकैः
और हलीमकको भी नष्ट करता है। शृङ्गवेरशकलेन वा पुनः ॥
यह अत्यन्त वृष्य और बलकारक है तथा वहिमान्यमभिनाश्य सत्वरं
गरिष्ठसे गरिष्ठ पदार्थोकी भारी मात्राको भी शीत्रही कारयेत प्रखरपावकोत्करम । पचा देता है । श्वासकासवमिशोथकामला
(७०९४) वीरविक्रमो रसः प्लीहगुल्म जठरारुचिभ्रमान ॥ (बृ. यो. त. । त. ११८) रक्तपित्तयकृदम्लपित्तकं
पारदं च पलान्यष्टौ गन्धकं तालकं शिला । शूलकोष्ठ जगदान विमूचिकाम् । त्रितयं पारदं साम्यं मर्दितं मूक्ष्मचूर्णितम् ।। आमवातवहुवातशोणितं
काचकूप्यां च पूर्णन वालुका यन्त्रपाचितम् । दाहशीतबल हासकार्यकम् ॥ त्रिदिनं तमहोरात्रं पाकशुद्धं विचक्षणः ॥
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः स्वाङ्गशीतलमादाय एकवारं सुपूजयेत् । गुटिकास्तेन कल्केन कार्याः कोलास्थि गुनामात्र प्रयोक्तव्यं शर्कराव्योपजीरकम् ॥
मातृकाः। लवङ्गं धान्यकं चाऽऽर्द्र निर्गुण्डी ग्रन्थिकं वरा। योगिन्या बहुधातिनामयुतया त्रैलोक्यविख्यातथा पत्रं नागवल्ली गुड़ची माक्षिक गुडम् ॥ .
तया॥ अनुपानं सदा सेवेद्विषमं सान्निपातिकम। निर्दिष्टा हि वृकोदरीति गुटिका सोष्णाम्बुना रतिदोपं महाशीतं व्रणं नानाविधं हरेत् ॥
सेविता। वीरविक्रमनामाऽयं काश्यपेन हि भापितः ॥ निःशेषानिल दोपशोषनरुजः श्लेष्मामरोगोशुद्ध पारद ४० तोले तथा शुद्ध गन्धक,
द्भवम् ।। हरताल और मनसिल मिलित ४० तोल ले कर मन्दानि ग्रहणीं चतुर्विधमहाऽजीणे च तुणे सबको एकत्र खरल करके आतशी शीशीमें भर
जयेत् ॥ और ३ दिन बालुका यन्त्रमें पकायें एवं स्वांग : शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, तीक्ष्ण लोह भस्म, शीतल होने पर औषधको निकाल कर सुरक्षित अभ्रक भस्म, स्वर्ण माक्षिक भस्म, सेठि, मिचे, रख ।
पीपल, पीपलामूल, चव, चीतामूल, सफेद और मात्रा-१ रत्ती।
काला जीरा, संचल ( काला नमक ), संधा नमक,
बायबिडंग; हर और अम्लबेत समान भाग ले कर अनुपान-- खांड सोंठ, मिर्च, पीपल, :
। प्रथम पारे गंधककी कजली बनावें और फिर जीरा, लौंग, धनिया, अद्रक, संभाल, पापलामूल, उसमें अन्य ओषधियों का चूर्ण मिला कर जम्बीरी त्रिफला, तेजपात, पान, गिलोय और गुड़ समान नीबूके रसमें घोट कर वेरकी गुठलीके समान भाग ल कर चूर्ण बनावें । औषध खानेके पश्चात् । गोलियां बना लें। यह चूर्ण शहद में मिला कर चाटना चाहिये। इन्हें उष्णा जलके साथ सेवन करनेसे समस्त
इसके सेवनसे विषम वर, सन्निपात ज्वर, वातज रोग, शोप, कफ रोग, आमजनित विकार, रति दोप, शीत और ब्रणादि रोगोंका नाश अग्निमांद्य, ग्रहणी और चार प्रकारका अजीर्ण होता है।
नष्ट होता है। (७०९५) वृकोदरी वटी.
(७०९६) वृद्धचिन्तामणी रसः (र. र. स. । उ. अ. २१ ; र. चं. । वाता.)
(र. रा. सु. । वातव्या. ) मृतगन्धकतीक्ष्णाभैः सताप्यः समभागिकैः। शुद्धं मूतं विपं गन्धं दरदं टङ्कणं शिवा । रसांशमपरं सब पट्कोलं जीरकद्वयम् ।। यूपणं सैन्धवं जातीफलार्ककरहाटकम् ।। सौवर्चलं ससिन्धुत्थं विडङ्गं च हरीतकी। पारसीकयवानी च जीरकं चाजमोदकम् । अम्लवेतसकं सर्वं वीजपूराम्बुमर्दितम् ॥ शृङ्ग्यश्वगन्धा श्रीपुष्पं समभागं विचूर्णयेत् ॥
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७९०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
भावना त्रितयं दद्याद्धृङ्गराजरसेन च ।
वृद्धतालेश्वररसः (२) नागवल्ली रसेनैव तथाईकरसैविधा ॥
(र. चि. म. । अ. ९) ततः शुष्कं विधायाथ यथारोगे प्रयोजयेत् । प्र. सं. २६५६ “तालकेश्वरो रसः" सामं निरामं विज्ञाय दद्याद्गुनाचतुष्टयम् ।। | देखिये ।। महावातेऽपतन्त्रे च सर्वगात्रेषु शून्यताम् । (७०९७) वृद्धदारायलोहः सर्वज्वरहरः श्रेष्ठः सन्निपातांस्त्रयोदश ॥ ( रसे. सा. सं. ; र. र. ; धन्व. ; र. रा. सु. । इन्ति शीतं तथा स्वेदं श्वासं च प्रबलं कफम्।
आमवाता. ; रसे. चि. म. । अ. ९) प्रलापं चातिनिद्रां च रोमहर्षारुचिं तथा ॥ |
वृद्धदारत्रिवदन्ती गजपिप्पली मानकैः ।
त्रिकत्रयसमायुक्तैरामवातात्मकन्त्वयः ॥ शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, शुद्ध बछनाग, शुद्ध
सर्वानेव गदान्हन्ति केशरी करिणो यथा ॥ हिंगुल, सुहागेको खील, हर्रका चूर्ण, सोंठ, मिर्च, पीपल, सेंधा नमक, जायफल, ताम्र भस्म, स्वर्ण
विधारामूल, निसोत, दन्तीमूल, गजपीपल,
मानकन्द, सांठ, मिर्च, पीपल, हरे, बहेड़ा, आमला, भस्म, खुरासानी अजवायन, जीरा, अजवायन,
| बायबिडंग, नागरमोथा और चीता; इनका चूर्ण काकड़ासिंगी, असगन्ध और लौंग; इनका र्ण समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कजली
१-१ भाग तथा लोहभस्म सबके बराबर ले कर बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण
सबको एकत्र खरल करें। मिला कर सबको भंगरे, पान और अदरकके रसकी
इसके सेवनसे आमवात-जनित समस्त रोग
| नष्ट होते हैं। ३-३ भावना दे कर सुखा कर सुरक्षित रक्खें ।
( मात्रा-३ रत्ती। ) मात्रा-४ रत्ती।
_ (७०९८) वृद्धनवरसादिगुटिका इसके सेवनसे महावात, अपतन्त्रक, शरीरकी
( यो. चि. म. | अ. ३) शून्यता, समस्त प्रकारके ज्चर, १३ प्रकारके सन्नि
विडॉ त्रिफला व्योष चातुर्जातकचित्रकम् । पात, शीत, स्वेद, श्वास, प्रबल कफ, प्रलाप,
स्वर्णमाक्षी तवाक्षीरं जीमूतं वंशलोचनम् ।। अति निद्रा, रोम हर्ष और अरुचि आदिका नाश होता है ।
पक्वायसं पक्वलोहं शर्करापि समन्विता ।
गुटिका मधुसंयुक्ता प्रातरेकां तु भक्षयेत् ॥ वृद्धतालेश्वररसः (१) प्रमेहशोफारुचिरामवातं सकामलं पाण्डुगदं प्र. सं. २६५५ तालकेश्वरो रसः (१६)
सकुष्ठम् । देखिये।
दन्तीकरिकर्णाग्निमानकैरिति पाठान्तरम् ।
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रसप्रकरणम् ]
श्वासं च कासं च निहन्ति गुल्मं दुर्नामकं नाशयते च सद्यः ॥
बायबिडंग, हर्र, बढेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च, पीपल, दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर, चीता, स्वर्णमाक्षिक भस्म, तबाखीर, नागरमोथा, बंसलोचन, तीक्ष्ण लोह भस्म, सप्त धातु भस्म, ( स्वर्ण भस्म, ताम्र भस्म, पित्तल भस्म, चांदी भस्म, सीसा भस्म, बंग भस्म, जस्त भस्म ) और खांड समान भाग ले कर सब के शहद में मिला कर ( ४-४ रत्तीकी ) बना लें।
चूर्णको
गोलियां
(७०९९) बृद्धनवायसचूर्णम्
(र. रा. सु. । पाण्डु . )
करने से
इन्हें नित्य प्रति प्रातः काल सेवन प्रमेह, शोथ, अरुचि, आमवात, कामला, कुष्ठ, श्वास, कास, गुल्म और अर्शका नाश होता है।
पाण्डु,
माक्षीकं त्रिफला त्रिकं
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जन्तुघ्नं मगधाजटा
तुर्थी भागः
त्रिकटुकं मुस्ता चतुर्जातकम् ।
शनि यानि वह्नि
लोहादर्द्धपलं सिता
द्विपलिकां किन्तु सर्वार्द्धतः ॥
चूर्ण सूक्ष्मतम विधाय
क्षौद्रेणानिलजान् रुज
शूलश्लीपदविद्रधि
इसे मथित ( कपड़े से छने हुवे निर्जल वही ) या शहद के साथ सेवन करनेसे समस्त वातज रोग, श्वास, प्रसेक, शूल, श्लीपद, विद्रधि, उदर रोग, आम, अर्श, अग्निमांद्य, आमवात, पाण्डु, कास, क्षय सुरतरुद्राक्षा निशे द्वे शटी | और प्रमेहका नाश होता है ।
( मात्रा - ६ रत्ती । )
बदराजाजीद्वयाम्भोरुहैः ।
हन्यादामसमीरपाण्डु
स्तु सकलाः श्वासप्रसेकामयान् ॥
श्च जठरामर्शा सिमन्दाग्नितां ।
निचयं कासं क्षयं मेहजित् ॥
ममृतं श्रीभोजभेडोवदत् ॥
स्वर्ण माक्षिक भस्म, हर्र, बहेड़ा, आमला, गोखरु, सोंठ, मिर्च, पीपल, नागरमोथा, दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर, बायबिडंग, पीपलामूल, देवदारु, मुनक्का, हल्दी, दारूहल्दी और कचूर, इनका चर्ण ११ - ११ तोला, अजवायन,
चीता, बेर, सफेद और काला जीरा तथा कमलका
एतद्वृद्धनवायसाख्य
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प्र. सं.
मथितेनालोडच वा प्राश्यते । देखिये ।
७९१
र्ण और लोह भस्म २ ॥ - २॥ तोले एवं मिश्री
.
० तोले और मण्डूर भस्म सबसे आधी ले कर यथा विधि चूर्ण बनावें ।
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वृद्धपुष्पधन्वारसः ( यो. र. ) ४४२६ 16
पुष्पधन्वा रसः
19
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
वृद्ध विद्याधराभ्रकम् एक तां वटिकां यस्तु निर्गिलेद् वारिणा सह (र. रा. सु.)
अन्त्रवृद्धिरसाध्याऽपि तस्य नश्यति सत्वरम् ॥ प्र. सं. ७०४७ देखिये
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, लोह भस्म, वंग (७१००) वृद्धिनाशनरसः
भस्म, ताम्र भस्म, कांसी भस्म, शुद्ध हरताल, ( र. चं. । अन्त्रवृद्धि.)
शुद्ध तूतिया, शंख भस्म, कौड़ी भस्म, सेांठ, मिर्च,
पीपल, हर, बहेड़ा, आमला, चव्य, बायबिडंग, रसगन्धौ समौ ताभ्यां द्विगुणं हेममाक्षिकम ।
विधारा मूल, कचूर, पीपलामूल. पाठा, हपुषा, पथ्यारसेन त्रिदिनं रुबुतैलेन वासरम् ॥
बच, इलायचीके बीज, देवदारु, सेंधानमक, काला मर्दितं सिद्धिमायाति रसेन्द्रो वृद्धिनाशनः ।।
नमक (संचल), विड लवण, सामुद्र लपण और ___ शुद्ध पारद और गन्धक १-१ भाग और
| काच लवण समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धकस्वर्ण माक्षिक भस्म ४ भाग, ले कर सबको एकत्र की कजली बना और फिर में अन्य ओषखरल करके कज्जली बनावें और फिर उसे ३ दिन धियोंका वर्ण मिला काके का घोट कर हरेके क्वाथमें तथा १ दिन अण्डीके तेलमें खरल | - माशेकी गोलियां बना लें। करके सुरक्षित रक्खें ।
( व्यवहारिक मात्रा--३-४ रत्ती ।) ( मात्रा-२ रती)
इन्हें पानीके साथ सेवन करनेसे असाध्य इसके सेवनसे वृद्धि रोग ( अन्त्र वृद्धि ) का
अन्त्रवृद्धि भी शीबही नष्ट हो जाती है । नाश होता है।
(७१०२) वृहच्चन्द्रामृतरम: ___ (७१०१) वृद्धिवाधिकावटिका
( रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. : धन्व. : भै. ( भै. र. । वृद्ध य. : वै. र. । अण्डवृदि. : _ भा. प्र.)
र। गजय.) शुद्धस्तं तथा गन्धं मृतान्येतानि योजयेत् । रसगन्धकयोद्यं कर्षमेकं सुशोधितम् । लौहं वङ्गं तथा तानं कांस्यश्चाथ विशोधितम् ॥ अभ्रं निश्चन्द्रकं दद्यात्पलार्द्धश्च विचक्षणः ॥ तालकं तुत्थकञ्चापि तथा शङ्खवराटकम् ।। कपूरं शाणकं दद्यात्स्वर्ण तोलकसम्मितम् । त्रिकटु त्रिफला चव्यं विडङ्गं दृद्धदारकम् ॥ ताम्रश्च तोलकं दद्याद्विशुद्धं मारितं भिषक ॥ कचूरं मागधीमूलं पाठां सहवुषां वचाम् । लौहं कप क्षिपेत्तत्र वृद्धदारकजीरकम् । एलावीज देवकाष्ठं तथा लवणपञ्चकम् ॥ विदारी शतमूली च क्षुरकञ्च बला तथा । एतानि समभागानि चूर्णयेदथ कारयेत् ।। मर्कटयतिबला चैव जातीकोषफले तथा । कपायेण हरीतक्या वटिकां टङ्कसम्मिताम् ॥ लवङ्ग विजयाबीजं श्वेतस्वर्जरसन्तथा ॥
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७९३
रसप्रकरणम् ]
- चतुर्थों भागः शाणभागं समादाय चैकीकृत्य परवतः। | भागी वासा च निर्गुण्डी नागवल्ली जयन्तिका। मधुना मईये तावद्यावदेकत्वागतम् ॥ कार वेल्लं पटोलश्च शक्राशनं पुनर्नवा ॥ चतुर्गुञ्जाममाणेन वटिकां कुरु यत्रतः ।। आर्द्रकश्च ततो दद्यात्मत्येकं वारसप्तकम् ।। भक्षयेटिकामेकां पिप्पलीमधुना सह ॥ चिन्तामणिरसो नाम सर्वज्वरविनाशनः ।। - शुद्ध पारद और गन्धक ११-१॥ तोला,
क ११-१॥ तोला. वातिकं पैत्तिकञ्चैव श्लैष्मिकं सान्निपातिकम् । अभ्रक भस्म २॥ तोले, कपूर ३॥ मोशे, स्वर्ण द्वन्द्वजं विषमाख्यश्च धातुस्थश्च ज्वरंजयेत् ॥ भस्म ७॥ माशे, ताम्र भस्म ७॥ माशे, लोह भस्म | कासं श्वास तथा शोथं पाण्डुरोगं हलीमकम् । १। तोला तथा विधारामूल, जीरा, विदारीकन्द, | प्लीहानमग्रमांसश्च यकृतश्च विनाशयेत् ॥ शतावर, तालमखाना, खरैटो, कौंच के बीज, कंघी, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, लोह भस्म, ताम्र जायफल, जावत्री, लौंग, भांगके बीज और सफेद भस्म, चांदी भस्म, वर्ण भस्म, शुद्ध हरताल, राल; इनका चूर्ण ३॥-३॥ माशे ले कर प्रथम खपरिया, कांसी भस्म, बंग भस्म, प्रवाल (मुंगा) पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें भस्म, मोती भस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म, शुद्ध अन्य ओषधियां मिला कर शहदके साथ अच्छी | कसीस, शुद्र मनसिल, सुहागे की खील और कपूर तरह खरल करके ४-४ रत्तीकी गोलियां समान भाग ले कर प्रथम पारे गंधककी कज्जली बना लें।
बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिला कर इनमेंसे प्रति दिन १-१ गोली पीपलके भरंगी, बासा (अडूसा), संभालु, पान, जयन्ती, चूर्ण और शहद के साथ सेवन करनेसे क्षयका नाश करेला, पटोल ( परवल ), भांग, पुनर्नया (बिसहोता है।
खपरा ) आर अदरकके रसकी पृथक् पृथक् सात वृहच्चन्द्रोदयमकरध्वजः सात भावना दे कर (२-२ रत्तीकी ) गोलियां ( पूर्णचन्द्रोदयो रसः )
बना लें। प्र. सं. १९०८ चन्द्रोदयो रसः (५)
___ इनके सेवनसे वातज, पितज, कफज, साग्निदेखिये।
पातिक, द्वन्द्वज, विषम और धातुगत आदि हर (७१०३) वृहच्चिन्तामणिरसः
प्रकारके ज्वर तथा कास, श्वास, शोथ, पाण्डु,
हलीमक, प्लीहा, अग्रमांस और यकृत् रोगोंका ( रसे. सा. सं. । ज्वरा.)
नाश होता है। रसगन्धकलोहानि ताम्र तारं हिरण्यकम् । हरितालं खपरश्च कांस्यं वङ्गश्च विद्रुमम् ॥
वृहच्चूडामणिरसः मुक्तामाक्षिककाशीशं शिला टङ्कणकं समम् । प्र. सं. १९४० चूडामणि रसः ( वृहत ) करिश्च समं दत्त्वा भावना सप्तसप्तकम् ॥ । देखिये।
१००
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७९४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
(७१०४) वृहज्जीरकादिमोदकः जीरा, काला जीरा, कूठ, सोंठ, पीपल, काली
( भै. र. । ग्रहणी.) | मिर्च, हर्र, बहेड़ा, आमला, दालचीनी, तेजपात, जीरकं कृष्णजीरश्च कुष्ठं शुण्ठी च पिप्पली। इलायची, नागकेसर, बंसलोचन, लौंग, छरीला, मरिचं त्रिफला त्वक् च पत्रमेला च केशरम् ।। सफेद चन्दन, काकोली, क्षीरकाकोली, जावित्री, शुंभा लवङ्गं शैलेयं चन्दनं श्वेतचन्दनम् ।। जायफल, मुलैठी, सौंफ, जटामांसी, नागरमोथा, काकोली क्षीरकाकोली जातीकोषफले तथा । सञ्चल नमक, कचूर, धनिया, देवताड़ (देवदाली) यष्टी मधूरिका मांसी मुस्तं सञ्चलकं शटी। मुरामांसी, मुनक्का, नखी, सोया, पद्माक, मेथी, धन्याकं देवताडश्च मुरा द्राक्षा नखी तथा ॥ देवदारु, सुगन्धबालो, नालुका, सेंधा नमक, गजशतपुष्पा पद्मकश्च मेथी च सुरदारु च ।।
पीपल, कपूर, रेणुका और कुन्दखोटी (शल्लकी सजलं नालुका चैव सैन्धवं गजपिप्पली ॥
वृक्षका निर्यास ); इनका चूर्ण १-१ भाग एवं कपूरं वनिताचैव कुन्दरखोटी समांशिकम् ।
अभ्रक भस्म, वंग भस्म और लोह भस्म २-२ अभ्रवङ्गकलौहानां द्विभागं तत्र दापयेत् ।।
भाग तथा इन सबके बराबर भुने हुवे जीरेका चूर्ण एतानि समभागानि श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् ।
ले कर सबको एकत्र मिलावें और इस समस्त सर्वचूर्णसमं देयं भृष्टजीरस्य चूर्णकम् ॥
चूर्णको इससे दो गुनी खांडकी चाशनीमें मिला सिता द्विगुणिता देया मोदकं परिकल्पयेत् ।
कर उसमें थोड़ा थोड़ा घी और शहद मिलावें घृतेन मधुना मिश्रं मोदकश्च भिषग्वरः ॥
| तथा मोदक बना कर सुरक्षित रक्खें । भक्षयेत्पातरुत्थाय यथादोषबलाबलम् ।।
इन्हें प्रातःकाल मिश्रीयुक्त गोदुग्धके साथ गव्यं सशर्करश्चैव अनुपानं प्रयोजयेत् ॥
सेवन करनेसे समस्त वातज और पित्तज रोग, अशीतिं वातजान् रोगांश्चत्वारिंशच्च पैत्तिकान नाना वर्णवाला अतिसार, विशेषतः आमातिसार, सास्तानाशयत्याशु वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥
आठ प्रकारका शूल, पुरानी अर्श, सतत जीर्णनानावर्णमतीसारं विशेषादामसम्भवम् ।।
ज्वर, विषम ज्वर, 3 सूतिका रोग, प्रदर और हर शूलमष्टविधं हन्ति अरोग चिरोद्भवम् ॥
प्रकारकी दाहको शीघ्रही नाश हो जाता है जीर्णज्वरश्च सततं विषमज्वरमेव च ।
तथा दुर्बल और सन्तान हीन स्त्रियोंको पुत्रप्राप्ति स्त्रीणाश्चैवानपत्यानां दुर्बलानाश्च देहिनाम् ॥
होती है। पुष्पकव पुत्रकृच्चैव बलवर्णकरं परम् । __(७१०५) वृहज्ज्वरचूड़ामणिरसः मृतिकारोगमत्युग्रं नाशयेनात्र संशयः ॥
(रसे. सा. सं. । ज्वरा.) प्रदरं नाशयत्याशु सूर्यस्तममिवोदितः। मुवर्णसिन्दरं स्वर्ण लोहं तारं मृगाङ्कजम् । दाहं सर्वाङ्गिकञ्चैव वातपित्तोत्थितश्च यत् ।। जातीफलं जातिकोषं लवङ्गश्च त्रिकण्टकम् ॥ अयं सर्वगदोच्छेदी जीरकायो हि मोदकः ॥ कर्पूरं गगश्चैव चोचं मुसलि तालकम् ।
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रसपकरणम् ] चतुर्थों भागः
७९५ प्रत्येकं कर्षमानन्तु तुरङ्गश्च द्विकार्षिकम् ॥ वराङ्गवल्कलञ्चैव पिप्पलीमूलमेव च । विद्रुमं भस्मसूतश्च मौक्तिकं माक्षिकं तथा । | सैन्धवश्च विडचव गुडूचीचूर्णमेव च ॥ राजपट्ट शिखिग्रीवं सर्व सञ्चूर्ण्य यत्नतः ॥ कण्टकारी रसोनञ्च धान्यकं जीरकदयम् । खल्ले तु चूर्णमादाय भावयेत्परिकीर्तितः।। चन्दनं देवकाष्ठश्च दार्वीन्द्रयवमेव च ॥ निर्गुण्डी फञ्जिका वासा रविमूलं त्रिकण्टकैः ॥ किराततिक्तकं वालं तोलकञ्च समाहरेत । म्वरमष्टविधं हन्ति साध्यासाध्यमथापि वा ॥ | द्वितोलं मरिचं देयं भावयेदाईकै रसैः ॥ ___स्वर्ण सिन्दूर, स्वर्ण भस्म, लोह भस्म, चांदी | माषा भक्षयेत्पातमधुना मधुरीकृतम । भस्म, कस्तूरी, जायफल, जावत्री, लौंग, गोखरु, ज्वरं नानाविधं हन्ति शुक्रस्थं चिरकालजम् । कपूर, अभ्रक भस्म, दाल चीनी, मूसली और शुद्ध साध्यासाध्यविचारोत्र नैव कार्यो भिषग्वरैः।। हरताल १२-१। तोला तथा शुद्ध गन्धक, प्रवाल |
| अन्तर्धातुगतञ्चैव नाशयेन्नात्र संशयः । भस्म, पारद भस्म, मोती भस्म, स्वर्ण माक्षिक भस्म, | भूतोत्थं श्रमजञ्चापि सन्निपातज्वरन्तथा ॥ राजपट्ट (चुम्बक) भस्म एवं शुद्ध तूतिया २॥-२॥ | असाध्यञ्च ज्वरं हन्ति यथा सूर्योदयस्तमः तोले ले कर सबको एकत्र खरल करके संभालू, | गरुडञ्च समालोक्य यथा सर्पः पलायते । भरंगी, असो, ओककी जड़, और गोखरुके | तथैवास्य प्रसादेन ज्वरः शीघ्रं पलायते । रसकी १-१ भावना दे कर ( २-२ रत्तीकी) बलदं पुष्टिदञ्चैव मन्दाग्निनाशनं परम् ॥ गोलियां बना लें।
वीर्यस्तम्भकरश्चैव कामलापाण्डुरोगनुत् । ___ इनके सेवनसे समस्त प्रकारके ज्वर नष्ट हो सदा तु रमते नारी न वीर्य क्षयतां व्रजेत् ।। जाते हैं।
प्रमेहं विविधञ्चैव विविधां ग्रहणीं तथा । वृहज्ज्वरानुशरसः
अनुपानविशेषेण सर्वव्याधि विनाशयेत् ॥
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, जावित्री और जाय(र. रा. सु. । ज्वरा.)
फल १.--१ तोला; स्वर्ण भस्म ३ माशे; लोह प्र. सं. ५५४२ महा ज्वराङ्कुशः (२)
भस्म और चांदी भस्म ६-६ माशे एवं अभ्रक देखिये ।
भस्म, शुद्ध शिलाजीत, भंगरा, नागरमोथा, काला (७१०६) वृहज्ज्वरान्तको रसः
भंगरा, अपामार्ग ( चिरचिटा ) लौंग, हर्र, बहेड़ा, ( रसे. सा. सं. । ज्वरा.)
आमला, दालचीनी, पीपलामूल, सेंधा नमक, बिड रसं गन्धं तोलकं च जातीकोषफले तथा । नमक, गिलोय, कटेली, ल्हसन, धनिया, सफेद हेमभस्म तु पादैक तोलार्द्ध रूप्यलौहकम् ॥ जीरा, काला जीरा, लाल चन्दन, देवदारु, दारु अभ्रं शिलाजतु चैव भृङ्गराजं च मुस्तकम् ।। हल्दी, इन्द्रजौ, चिरायता और सुगन्धबाला १-१ केशराजमपामार्ग लवङ्गं च फलत्रिकम् ॥ .. तोला तथा काली मिर्च २ तोले ले कर प्रथम पारे
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
गं पककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, काली मिर्चका भोषधियोंको चूर्ण मिला कर सबको एकत्र खरल चूर्ण, सुहागेकी खील, धतूरेके बीजोंका चूर्ण और करके अदरकके रसकी भावना दें।
अभ्रक भस्म समान भाग ले कर प्रथम पारे मात्रा-आधा माशा।
गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य
ओषधियां मिला कर सबको भरंगीके काथमें इसमें इतना शहद मिला कर खाना चाहिये कि जिससे औषध मीठी मालूम होने लगे।
| आधा दिन खरल करके २-२ रत्तीकी गोलियां
बना लें। इसके सेवनसे पुराने शुक्र धातुगत ज्वर,
यह रस उग्र पित्तातिसारको नष्ट करता है। भूतोत्थ ज्वर, श्रम जनित वर, सन्निपात ज्वर और । अन्य सभी प्रकारके ज्वरोंका नाश हो जाता है। (१०८) वृहत्कस्तूरीभैरवो रसः (१) इसकी उपस्थितिमें ज्वरके साध्यासाध्यका विचार ( भै. र. ; र. चं. ; र. रा. सु. ; रसे. सा. करना भी व्यर्थ है । जिस प्रकार सूर्योदयके होते
सं. । ज्वरा.) ही अन्धकार और गरुड़के दर्शनमात्रसे सर्प पला
| मृगमदशशिसूर्यधातकीशूकशिम्बी .. यन कर जाता है इसी प्रकार ज्वर मात्र इसे देखते
रजतकनकमुक्ता विद्रुमं लोहपाठा। . ही अपना रास्ता नापता है।
क्रिमिरिपुधनविश्वा वारितालाभ्रधाग्यो इसके अतिरिक्त यह रस बलकारक, पौष्टिक, रविदलरसपिष्टं कस्तूरीभैरवोऽयम् ॥ अग्निमांद्य नाशक, वीर्य स्तम्भक और कामला तथा कस्तूरीभैरवः ख्यातः सर्वज्वरविनाशनः । पाण्डु नाशक है । यह प्रमेह और संग्रहणीको भी __ आर्द्रकस्य रसैः पेयो विषमज्वरनाशनः ॥ नष्ट करता है तथा विविध अनुपानोंके साथ अनेक द्वन्द्व भौतिकान् वापि ज्वरान् कामादि रोगोंमें प्रयुक्त हो सकता है।
सम्भवान् । इसको सेवन करने वाला पुरुष अधिक स्त्री अभिचारकृतांश्चैव तथा शुक्रकृतान् पुनः ।। प्रसंग करे तो भी वीर्यक्षय नहीं होता । (1) निहन्याद्भक्षणादेव डाकिन्यादियुतांस्तथा।
बिल्वचूर्णजीरकाभ्यां मधुना सह पानतः ॥ (७१०७) वृहत्कनकसुन्दरो रसः
आमातीसारं ग्रहणीं ज्वरातीसारमेव च । ( रसे. सा. सं. ; भै. र. । अतीसारा.) ।
अग्निदीप्तिकरः शान्तः कासरोगनिकृन्तनः ॥ शुद्धमृतं गन्धं मरिच टङ्गणं तथा । क्षपयेद् भक्षणादेव मेहरोग हलीमकम् । स्वर्णवीज समं मर्य भार्गी द्रादिनाईकम् ॥ जीर्णज्वरं नूतनं वा द्विकालीनाञ्च सन्ततम् ॥ मृततुल्यं मृतश्चाभं रसः कनकसुन्दरः। प्रक्षिप्तं भौतिकं वापि हन्ति सर्वान् विशेषतः । अस्य गुञ्जाद्वयं हन्ति पित्तातीसारमुग्रकम् ॥ ऐकाहिकं द्वयाहिकं वा व्याहिकं चतुराहिकम्।।
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रसप्रकरणम् ]]
चतुर्थों भागः
७९७
पाश्चाहिकं षष्ठसस्थं पाक्षिक मासिकं तथा। वह र. रा. सु. का पाठ है और उसमें सर्वान् ज्वरानिहन्त्याशु भक्षणादाकद्रौः॥ कस्तूरीका अभाव है तथा उसके स्थान पर हरताल ___कस्तूरी, कपूर, ताम्र भस्म, धायके फूलोंका | लिखी है परन्तु यह भूल प्रतीत होती है वास्तवमें चूर्ण, कौंचके बीजांका चूर्ण, चांदी भस्म, स्वर्ण इसमें हरतालकी जगह कस्तूरी ही होनी चाहिये । भस्म, मोती भस्म, प्रवाल (मूंगा) भस्म, लोहभस्म, (७१०९) वृहत्काञ्चनाभ्ररसः पाठा, बायबिडंग, नागरमोथा, सांठ और । (भै. र. ; रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. ; सुगन्धबाला; इनका चूर्ण एवं शुद्ध हरताल, अभ्रक ___ धन्व. ; र. र. । राजयक्ष्मा. ) भस्म और आमलेका चूर्ण समान भाग ले कर | काञ्चनं रससिन्दरं मौक्तिकं लौहमनकम् । सबको एकत्र मिला कर आकके पत्तोंके रसमें खरल विद्रम मतवैक्रान्तं तारं ताम्रञ्च वनकम ॥ करके (२-२ रत्ती) की गोलियां बना लें। कस्तूरिका लवाञ्च जातीकोषैलवालुकम् । अनुपान-अदरकका रस ।
प्रत्येकं विन्दुमात्रश्च सर्व मध प्रयत्नतः ॥ इसके सेवनसे द्वन्द्वज ज्वर, विषम ज्वर, भूत कन्यानीरेण सम्म केशराजरसेन च । ज्वर, काम ज्वर, अभिचार जनित ज्वर, शुक्र दोष
अजाक्षीरेण सम्भाव्यं प्रत्येक दिवसत्रयम् ॥ सम्बन्धी ज्वर इत्यादि समस्त प्रकारके ज्वर नष्ट | चतुर्गुञ्जाप्रमाणेन वटिकां कारयेद्भिषक् । होते हैं।
अनुपानं प्रयोक्तव्यं यथा दोषानुसारतः॥ इसे बेलगिरी और जीरके चर्ण तथा शहदके क्षयं हन्ति तथा कास यक्ष्माणं श्वासमेव च । साथ देनेसे आमातिसार, संग्रहणी और ज्वरातिसार- प्रमेहानविंशतिश्चैव दोषत्रयसमुद्भवान् ॥ का नाश होता है।
सर्वरोगं निहन्त्यांशु भास्करस्तिमिरं यथा। इसके अतिरिक्त यह रस अग्निको दीप्त करता
स्वर्ण भस्म, रस सिन्दूर, मोती भस्म, लोह है तथा कास, प्रमेह, हलीमक, नवीन और जीर्ण
भस्म, अभ्रक भस्म, प्रवाल (मूंगा) भस्म, वैक्रान्त ज्वर, नित्य दो बार आने वाले ज्वर, सन्तत ज्वर,
भस्म, चांदी भस्म, ताम्र भस्म, बंग भस्म, कस्तूरी, एकाहिक, तिजारी और चातुर्थिक ज्वर तथा पांचवें
लौंग, जावत्री, और एलवालुक समान भाग ले कर छठे, १५ वें दिन या महना महीना भर बाद
सबको एकत्र मिला कर घृतकुमारी और काले आने वाले ज्वरको भी नष्ट करता है ।
भंगरेके रस तथा बकरीके दूधमें ३.-३ दिन खरल
करके ४-४ रत्तीकी गोलियां बनावें ।। बृहत्कस्तूरीभैरवो रसः (२)
(व्यवहारिक मात्रा-२ रत्ती।) ( मध्यम कस्तूरी भैरवः )
इन्हें दोषोचित अनुपानके साथ सेवन करने( रसे. सा. सं. । ज्वरा.)
से क्षय, कास, यश्मा, श्वास और २० प्रकारके प्र, सं. ५५०६ देखिये।
| प्रमेहोंका नाश होता है।
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७९८
(७११०) बृहत्कामेश्वरमोदकः
( धन्व. । वाजी ; र. र. | वाजी. )
निश्चन्द्रिकाभ्रं पलमात्रभागं
लोहस्य वङ्गस्य तदर्द्धभागम् । जातीफलं कोषफलं च जीरा
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
वानिका चाथ पलममाणम् || af द्विभागं त्रिसुगन्धि कुष्ठं मांसी मुरा कुन्दरु देवदारु । चाम्पेयसिन्धुद्भव वालचव्यं सौभाग्ययष्टिमधुग्रन्थिपर्णम् ॥
तालीशकर्पूरलवङ्गकान्ता
aratलिका युग्म कटुकं च ।
शैलेयपद्मं सरलं सपुष्पं
Tatararaatजधान्यम् ॥
शृङ्गी शताहा त्रिफलाथ मेथी श्यामायं कृष्णतिलं कशेरु ।
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शक्राशनं तत्सदृशं विभागं
सिता च शुभ्रा द्विगुणा विधेया ॥ तत्पाकवेत्ता विधिवदिधानं
लब्ध्वाधिवासं नयनागरेण ।
मध्वाज्यमिश्रं वटकप्रमाणं
खादेन्नरः कौण्डकमङ्गलेन ॥ सर्वानां शमनं विधेयं
विशेषतः सङ्ग्रहकोष्ठदोषम् ॥
निश्चन्द्र, अभ्रक भस्म ५ तोले, लोह और बंग भस्म २ ॥ - २॥ तोले तथा जायफल, कंकोल, जीरा और अजवायन ५-५ तोले, एवं दालचीनी, तेजपात, इलायची, कूठ, जटामांसी, मुरामांसी,
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[ वकारादि
कुन्दुरु, देवदारु, नागकेसर, सेंधानमक, सुगन्ध बाला, चव, सुहागेकी खील, मुलैठी, गठीवन, तालीसपत्र, कपूर, लौंग, रेणुका, काकोली, क्षीर काकोली, सोंठ, मिर्च, पीपल, छरीला, कमल, धूपसरल, सुपारी, गजपीपल, इन्द्रजौ, धनिया, काकड़ासिंगी, सोया, हर्र, बहेड़ा, आमला, मेथी, सफेद सारिवा, काली सारिवा, काले तिल और कसेरु; इनका चूर्ण २॥ -२ ॥ तोले और भांगका चूर्ण सबके बराबर एवं इन सम्पूर्ण ओषधियांसे २ गुनी खांड लेकर यथा विधि चाशनी बना कर उसमें सम्पूर्ण ओषधियोंका चूर्ण मिला कर अन्त में थोड़ा थोड़ा घी और शहद डाल कर (६ - ६ माशेके) मोदक बना लें ।
ये मोदक संग्रहणी और उदर विकारों में विशेष उपयोगी हैं ।
वृहत्क्रव्यादरसः
( यो. र. र. रा. सु. । अजीर्णा ; वृ. यो.
त । त. ७१ )
प्र. सं. १०५२ क्रव्याद रसः देखिये ।
कई ग्रन्थों में विड लवणके स्थान पर काला नमक लिखा है ।
(७१११) वृहत्क्षय केशरीरसः
( भै. र. । राजय . )
मृतमभ्रं मृतं सूतं मृतं लौहञ्च ताम्रकम् । मृतं नागश्च कांस्यश्च मण्डूरं विमलं तथा ॥ वङ्गं खर्परकं तालं शङ्खटङ्गणमाक्षिकम् । वैक्रान्तं कान्तलौहश्च स्वर्ण विद्रुममौक्तिकम् ॥
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रसमकरणम् ]
चतुर्थों भागः
७१९
वराटं मणिरागश्च राजपट्टश्च गन्धकम् । । मन्दाग्नि पर रक्खें तथा बिजौ रेका रस डाल कर सर्वमेका सञ्चूर्ण्य खलमध्ये विनिक्षिपेत् ॥ घोटें । जब रस सूख जाय तो क्रमशः त्रिफला मर्दयेत्त्वग्निभानुभ्यां प्रपुटेत्रिदिनं लघु। काथ, चीतेके काथ, अम्लवेतके काथ, भंगरेके रस, भावयेत्पुटयेदेभिर्वा स्त्रींश्च पृथक पृथक् ॥ कनेरके काथ और अदरकके रसकी पृथक पृथक मातुलुङ्गवरावहिस्वम्लवेतसमाव- . १-१ भावना इसी प्रकार ( मन्दाग्नि पर पकाते हयमाराईकरसैः पाचितो लघुवह्निना ॥ वातपित्तकफोत्क्लेशान् ज्वरान् सम्मर्दितानपि। इसके सेवनसे वातज, पित्तज और कफज सन्निपातं निहन्त्याशु सर्वाङ्गैकाङ्गमारुतान् ॥ | ज्वर, सन्निपात, सर्वाङ्ग वायु, एकाङ्ग वात, ११ सेवितश्च सितायुक्तो मागधी रजसा पुनः। प्रकारका क्षय, शोष, पाण्डु, कृमि, कास, श्वास, मधुकाकसंयुक्तस्तव्याधिहरणौषधैः ॥ प्रमेह, मेद, उदरवृद्धि, अश्मरी, शर्करा, शूल, सेवितो हन्ति रोगान् हि व्याधिवारणकेशरी। प्लीहा, गुल्म और हलीमकका नाश होता है। यह क्षयमेकादशविधं शोषं पाण्डु कृमि जयेत् ॥ बल्य, वृष्य, मेध्य और रसायन है। कासं पञ्चविधं श्वास मेहमेदोमहोदरम् । अनुपान-मिश्री, पीपलका चूर्ण, शहद अश्मरीं शर्करां शूलं प्लीहगुल्मं हलीमकम् ॥ और अदरकका रस अथवा रोगोचित अन्य सर्वव्याधिहरो बल्यो वृष्यो मेध्यो रसायनः॥ | पदार्थ । अभ्रक भस्म, पारद भस्म, लोह भस्म, ताम्र
(मात्रा-१ रत्ती ।) भस्म, सीसा भस्म, कांसी भस्म, मण्डूर भस्म,
(७११२) वृहत्रिफलायं लौहम् विमल (रौप्य माक्षिक) भस्म, वंग भस्म, खपरिया भस्म, शुद्ध हरताल, शंख भस्म, सुहागेकी खील,
(र. र. । शूला.) स्वर्ण माक्षिक भस्म, वैक्रान्त भस्म, कान्तलोह याढकं त्रिफलायाश्च चतुर्गुणजले पचेत् । भस्म, स्वर्ण भस्म, प्रवाल भस्म, मोती भस्म, पादावशिष्टं विज्ञाय कषायमवतारयेत् ।। कौड़ी भस्म, शुद्ध हिंगुल और चुम्बक पत्थर भस्म सुतप्तं निर्वपेल्लोहं गुडूच्य? शतन्तथा । तथा शुद्ध गंधक समान भाग ले कर सबको एकत्र सर्पिषः षोडशपलं तच्चूर्णैः सह योजयेत् ॥ खरल करके चीतेके काथ और आकके दूधकी | गुडूचीकन्दकदली तालमूली यवासकम् । १-१ भावना दें और फिर उसे शरावसम्पुटमें चित्रकं पिप्पलीमूलं चविकाजीरकद्वयम् ॥ बन्द करके ३ दिन तक लघुपुटमें पकावें । तदन- त्वगेलाऽरुष्करो व्योषद्विक्षारलवणत्रयम् । न्तर पुनः चीतेके काथमें और आकके दूधमें खरल विडङ्ग टङ्कणक्षारं यवानी द्विपलिकांशिकान् ।। करके इसी प्रकार पकावें । इसी तरह ३ बार पाक लोहं पचेत् तदैकध्यं यावत् सान्द्रत्वमागतम् । करें और फिर औषधको खरलमें डाल कर उसे भक्षयेन्मधुसर्पियों यथासात्म्यञ्च भोजनम् ।।
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८००
वातजं पित्तजं शूलं कफजं द्वन्द्वजं तथा । परिणामसमुत्थञ्च सन्निपातसमुद्भवम् ॥ अष्टादशविधं कुष्ठं पाण्डुरोगं भगन्दरम् । मन्दानं गुदञ्चैव जयेदेतन्न संशयः ॥
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
८ सेर त्रिफला चूर्णको ६४ सेर पानी में पकावें और १६ सेर शेष रहने पर छान लें। तदनन्तर उसमें ५० पल ( ३ सेर १० तोले ) लोह भस्म और ५० पल गिलोय का चूर्ण, २ सेर घी एवं १० - १० तोले गुडूचीकन्द, केले की जड़, तालमूली, जवासा, चीता, पीपलामूल, चव, सफेद और काला जीरा, दालचीनी, इलायची, शुद्ध भिलावा, सोंठ, मिर्च, पीपल, जवाखार, सज्जीखार, सेंधा नमक, काला नमक (संचल ), विड लवण, बायबिडंग, सुहागा और अजवायनका चूर्ण मिला कर पुनः पकावें । जब गुड़के समान गाढ़ा हो जाय तो अग्निसे नीचे उतार कर रख दें और ठण्डा होने पर स्निग्ध पात्र में भर कर सुरक्षित रक्खें ।
इसे घी और शहद में मिला कर सेवन करने और पथ्य पालन करने से वातज पित्तज, कफज
( मात्रा - १ माशा | )
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[ वकारादि
वृहत्सर्वज्वरहरलोहः
सर्व ज्वर हर लोह ( बृहत् ) देखिये |
वृहदग्निकुमाररसः
( रसे. सा. सं. ; र. चं. । अग्निमांद्या. ) प्र. सं. २६१ अग्निकुमार रस (२९) देखिये ।
वृहदग्निकुमाररसः
( २से. चि. म. । अ. ९ )
प्र. सं. २५४ अग्नि कुमार रस (२२) देखिये ।
बृहद निकुमाररसः
( रसे. सा. सं. । अग्निमांद्या. )
प्र. सं. २५९ अनि कुमार रस (२७) देखिये ।
(७११३) वृहदिच्छा भेदीरसः
( र. चं. ; रसे. सा. सं.; र. रा. सु. ; धन्व. । उदावर्ता ; रसे. चि. म. 1 अ. ९ ) शुद्धं पारदरङ्कणं समरिचं गन्धाश्म तुल्यं त्रिवृत् । विश्वा च द्विगुणा ततो नवगुणं जैपालचूर्ण
क्षिपेत् ॥
और द्वन्द्वज शूल, परिणाम शूल, सान्निपातिक शूल, १८ प्रकारके कुष्ठ, पाण्डु, भगन्दर, अग्निमांद्य और खल्ले दण्डयुगं विमर्ध विधिना चार्कस्य पात्रे अर्शका नाश होता है ।
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ततः ।
स्वेद्यंगोमयवह्निना च मृदुना स्वेच्छावशाद्भेदकः ॥ ममितो रसो हिमजलैः संसेवितो रेचयेत् । यावोष्णजलं पिवेदपि वरं पथ्यं च दध्योदनम् ॥
वृहत्पूर्णचन्द्ररसः
प्र. सं. ४४३३ पूर्ण चन्द्रो रस: ( ४ ) | आमं सर्वभवं सुजीर्णमुदरं गुल्मं विशालं हरेत
देखिये |
वर्दीतिक बलाशहरणः सर्वामयध्वंसनः ॥
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
८०१
शुद्ध पारद, सुहागेकी खील, काली मिर्च, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म, शुद्ध गंधक और निसोत १-१ भाग, सेठ २ भाग लोह भस्म, कौड़ी भस्म, चांदी भस्म और अतीसका और शुद्र जमालगोटा ९ भाम ले कर प्रथम पारे चूर्ण ११-१। तोला ले कर सबको एकत्र खरल गन्धककी कल्जली बबावें और फिर उसमें अन्य करके धनिये और सांठके काथमें पृथक पृथक घोट ओषधियोंका चर्ण मिला कर पानीके साथ खरल | कर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें। करें और उस कल्क (लुगदी) को ताम्र पात्रमें
अनुपान-अधजली, बेलगिरीका चर्ण और रख कर थोड़ी देर कण्डोंकी मृदु अग्नि पर स्वेदित | गुड़ एकत्र मिला कर बकरीके दूध या जामनकी करके १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें।
छालके रसके साथ पीना चाहिये। इनमेंसे १ गोली शीतल जलके साथ खानेसे | इनके सेवनसे अतिसार, घोर ज्वर, ग्रहणी, उस समय तक विरेचन होता रहता है जब तक अरुचि, आमातिसार, शूलयुक्त अतिसार, रक्तातिसार, कि उष्ण जल न पिया जाय।
पिच्छिल (लेसदार) मलवाला अतिसार, भ्रम और पथ्य-~-दही भात ।
शोथका नाश होता है। इसे खानेसे आम, पुराने उदर रोग, प्रवृद्ध वृहद्गर्भचिन्तामणिरसः गुल्म और कफका नाश तथा अग्निकी वृद्धि | ___ प्र. सं. १५५६ गर्भ चिन्तामणि रसः (वृहद) होती है।
देखिये। (७११४) वृहद्गगनसुन्दररसः (७११५) वृहद्गुल्मकालानलो रसः ( रसे. सा. सं. ; र. चं. । अतीसारा. )
( भै. र. । गुल्मरो.) पारदं गन्धकं चाभ्रलोहं चापि वराटकम् । | अभं लौह रसं गन्धं टङ्गणं कटुकं वचाम् । रूप्यं चातिविषं कर्ष समभागं प्रकल्पयेत् ॥ द्विक्षारं सैन्धवं कुष्ठं त्र्यूषणं सुरदारु च ।। धान्यशुण्ठीकृतकार्भावयेच्च पृथक पृथक् । पत्रमेलां त्वचं नागं खादिरं सारमेव च । गुमाप्रमाणां वटिकां कारयेत्कुशलो भिषक् ।। गृहीत्वा समभागेन श्लक्ष्णचूर्ण प्रकल्पयेत् ॥ भक्षयेत्पातरुस्थाय गुरुदेवद्विजाचकः। जयन्तीचित्रकोन्मत्तकेशराजदलं तथा । दग्धविल्वं गुडेनैव कुर्य्यात्तदनुपानकम् ॥ निष्पीडय स्वरसं नीत्वा भावयेत्कुशलो भिषक । अजादुग्धेन वा पेयं जम्बूत्वक्साधितं रसम् । चतुर्गुापमाणेन वटिकाः कारयेत्ततः। अतीसारे ज्वरे घोरे ग्रहण्यामरुचौ तया ॥ उत्थाय भक्षयेत्पातरनुपानं जलं पयः ।। सामे सशूले रक्ते च पिच्छात्रावे भ्रमे तथा । | गुल्मं पञ्चविधं हन्ति यकृत्प्लोहोदराणि च । शोथे रक्तातिसारे च संग्रहग्रहणीषु च ॥ । कामलां पाण्डुरोगश्च शोथश्चैव सुदारुणम् ॥ ૧૦૧
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८०२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि हलीमकं रक्तपित्तं मन्दाग्निमरुचिं तथा। तालमूली शताहा च त्रिकटु त्रिफला तथा । ग्रहणीमार्दवं काश्य जीर्णश्च विषमज्वर ॥ सूक्ष्मैला भूतकेशी च होबेरं नागकेशरम् ।। ... अभ्रक भस्म, लोह भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध
पद्मकं जातीपत्रत्वक मधुयष्टि सरोचना । गन्धक, सुहागेकी खील, कुटकी, बच, जवाखार,
जातीफलमुशीरं च त्रिता रक्तचन्दनम् ।। सज्जीखार, सेंधा नमक, कूठ, सेांठ, मिर्च, पीपल,
धान्याकं कटुका क्षारौ नागवल्ली च शृङ्गिका । देवदारु, तेजपात, इलायची, दालचीनी, नागकेसर
पुष्करावं शठी दारु शीसं लोहं च वङ्गकम् ॥ और कत्था समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धक
द्रव्याणीमानि सङ्गृह्य प्रत्येकं पलमात्रकम् । की कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओष- । खादेगलाग्निं सम्प्रेक्ष्य पथ्यं सेवेत्तु मानवः ॥ धियोंका चर्ण मिला कर सबको जयन्ती, चीते, स्निग्धभाण्डे निधायाथ नित्यं लियात्पलोधतूरे और भंगरके पत्तोंके रसमें खरल करके ४-४
न्मितम् । रत्तीकी गोलियां बनावें ।
अश्मरी मूत्रकृच्छं च मूत्राघातं विवन्धताम् ।।
प्रमेहं विंशतिं चैव शुक्रदोषं तथैव च । अनुपान-जल या दूध ।
धातुक्षये चोष्णवाते वातकुण्डलिकादयः ॥ इसे प्रातःकाल सेवन करना चाहिये। ते सर्व प्रशमं यान्ति भास्करेण तमो यथा ।
इसके सेवनसे ५ प्रकारके गुल्म, यकृत, नातः परतरं किश्चित्कृष्णात्रयेण पूजितः ।। प्लीहा, कामला, पाण्डु, शोथ, हलीमक, रक्तपित्त, गोखरु, और कुशकी जड १००-१०० अग्निमांद्य, अरुचि, ग्रहणी, कृशता, और जीर्ण पल ( प्रत्येक ६। सेर ); पाषाणभेद ४० तोले, . तथा विषम ज्वरका नाश होता है ।
गिलोय २५ तोले; अरण्डमूल और सतावर ९०-- (७११६) वृहद्गोक्षुराद्यवलेहः ९० तोले, कमलकन्द और असगन्ध १००-१००
तोले ले कर सबको एकत्र कूट कर ३२ सेर - ( वृ. नि. र. । मूत्रकृच्छा.)
पानीमें पका और ८ सेर पानी शेष रहने पर गोकण्टकं पलशतं कुशमूलं तथैव च । छान लें । तदनन्तर उसमें २ सेर गोघृत और पाषाणभेदोष्टपलं गुडूचीपलपञ्चकम् ॥
१ सेर शिलाजीत मिला कर पुनः पकावें और जब एरण्डो भीरुरष्टौ च मूलं दशपलं पृथक् । गाढ़ा हो जाय तो उसमें तालमूली, सोया, सोंठ, पद्ममूलं चाश्वगन्धा प्रत्येकं पलविंशतिः ॥
मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, छोटी इलासर्वमेकत्र सङ्कुटय जलद्रोणे विपाचयेत् ।
यची, भूतकेशी (जटामांसी), सुगन्धवाला, नागपादशेष तु साह्य वस्त्रपूतं समाक्षिपेत् ॥ केसर, पद्माक, जावत्री, दालचीनी, मुलैठी, बंसलो. गव्याज्यं प्रस्थमेकं तु शिलाजं च तथा स्मृतम्। चन, जायफल, ग्वस, निसोत, लाल चन्दन, धनिया, घनीभूते तु सञ्जाते द्रव्गाणिमानि दापयेत् ।।। कुटकी, जवाखार, सब्जीखार, पान, काकड़ासिंगी,
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रसपकरणम्
चतुर्थों भागः
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-
-
पोखरमूल, कचूर, देवदारु, सीसा भस्म, लोह वृहद्विषमज्वरान्तकलौहम् भस्म और बंग भस्म ५-५ तोले मिलाकर स्निग्ध प्र. सं. ७०७५ विषमज्वरान्तक लौहम् पात्रमें भर कर सुरक्षित रक्खें ।
( वृहद ) देखिये । मात्रा-५ तोले ।
वृहन्नवायसलौहम् ( व्यवहारिक मात्रा-१-२ तोला )
( वृ. यो. त..त. ७६ ) इसके सेवनसे अश्मरी, मूत्रकृच्छ, मूत्राघात,
प्र. सं. २७०९ त्रिकवादि लौहम् देखिये। २० प्रकारके प्रमेह, शुक्रदोष, धातुक्षय, उष्णवात और वातकुण्डलीका नाश होता है ।
(७११७) बृहन्नृपवल्लभरसः वृहद्ग्रहणीकपाटो रसः
( रसे. सा. सं. । ग्रहण्य.) ( भै. र. । ग्रहण्य.)
रसगन्धकलौहाभ्रं नागं चित्रं त्रिवृत्समम् । प्र. सं. १५९७ ग्रहणी कपाट रसः देखिये। टङ्घ जातीफलं हि त्वगेलाब्दलवङ्गकम् ॥ वृहद्यकृदरिलौहम्
तेजपत्रमजाजी च यमानी विश्वसैन्धवम् । ( भै. र. । प्लीहा.) प्रत्येकं तोलकं चूर्ण मरिचतारयोस्तथा ।। " यकृदरि लौहम् (बृहद)" प्र. सं. ५८२६ निरुत्थकं मृतं हेम तथा द्वादशरक्तिकम् । देखिये।
आद्रेकस्य रसेनैव धायाश्च स्वरसेन च ।। वृहद्रसशार्दूल रसः भावयित्वा प्रदातव्यो माषद्वयप्रमाणवः । प्र. सं. ६०९३ रस शार्दूल रसः बृहद् (२)
भक्षयेत्मातरुत्थाय पथ्यं भक्षेद्यथेप्सितम् ॥ देखिये
अग्निमान्द्यमजीर्णश्च दुर्नाम ग्रहणीं जयेत् ।
आमाजीर्णप्रशमनः सर्वरोगनिमूदनः ।। वृहखातगजाङ्कुशरसः
नाशयेदुदरानोगान्विष्णुचक्रमिवासुरान् ॥ ( रसे. सा. सं.)
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, लोह भस्म, अभ्रकः प्र. सं. ६९८३ वातगजाङ्कुश रसः (वृहद् ) भस्म, सीसा भस्म, चीतामूल, - निसोत, सुहागेकी देखिये ।
खील, जायफल, हींग, दालचीनी, इलायची, नाग. वृहद्वातचिन्तामणि रसः
रमोथा, लौंग, तेजपात, जीरा, अजवायन, सांठ, प्र. सं. ६९८५ वातचिन्तामणि रसः
सेंधा नमक, काली मिर्च और चांदी भस्म ७॥(वृहद् ) देखिये।
७॥ माशे तथा निरुत्थ स्वर्ण भस्म १॥ माशा वृहद्विद्याधराधकम् ले कर प्रथम पार गन्धककी कजली बनावें और प्र. सं. ७०४७ विद्याधराभ्रक देखिये। फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर
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इस पर किसी विशेष प्रकारके
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अदरक और आम समें पृथक् पृथक् खरल करके सुखा कर सुरक्षित रखखें ।
मात्रा - २॥ माशा ।
( व्यवहारिक मात्रा -६ रत्ती )
|
इसे प्रातःकाल सेवन करना चाहिये । इसके सेवनसे अग्निमांथ, अजीर्ण, अर्श ग्रहणी, आमाजीर्ण और उदर रोगोंका नाश होता है ।
आवश्यकता नहीं है ।
देखिये ।
बृहन्मण्डूरवटकः
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
प्र. सं. २७८७ “त्र्यूषणादिमण्डूरवटिका
देखिये |
वृहन्महोदधिरसः
प्र. सं. ५५९२ महोदधि रस: ( वृहत् ) (४) देखिये |
वृहद्वङ्गेश्वरो रसः बङ्गेश्वर रस (बृहद् ) देखिये ।
( ७११८) वेतालरसः
;
( भै. र. र. चं. २, रसे. सा. सं. । ज्वरा. ) शुद्धं सूतं विषं गन्धं मरिनालं समाक्षिकम् । मर्दयेच्छिलया तावद्यावज्जा येत कज्जली ॥ आर्द्रकस्य रसेनाथ कारयेद्वटिका शुभाः । गुञ्जामात्रं प्रदातव्यं द्वादशे सन्निपातके || साध्यासाध्यं निहन्त्याशु सन्निपातं त्रिदोषजम् । ईशेन कथितः शुद्धो वेतालाख्यो महारसः ॥ परहेज़की | कण्ठे ह्यपि गतैः प्राणैर्यमदूतान्निवारयेत् ॥
शुद्ध पारद, शुद्ध वछनाग, शुद्ध गंधक, काली मिर्च का चूर्ण, शुद्ध हरताल और स्वर्ण माक्षिक भस्म समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनायें और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिला कर सबको अच्छी तरह खरल करें । तदनन्तर अदरक के रस में घोट कर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें |
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बृहन्मालिनीवसन्तरस:
प्र. सं. ६९७३ वसन्त मालिनी रस: (२)
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[ वकारादि
इनके सेवन से हर प्रकारका सन्निपात ज्वर नष्ट होता है । यह रस सन्निपातके मृतप्रायः रोगीको भी जिला देता है ।
(७११९) वेदविद्यावदी (१) (भै. र. । प्रमेहा. )
वृहल्लोकनाथरस:
पारदाभ्रककान्तानां नागभस्म समं समम् । दिनं ब्रह्मीरसैर्मर्द्य बालुकायन्त्रगं पुनः ॥
प्र. सं. ६३७४ लोकनाथ रस: (३) उद्धृत्य चूर्णयेच्छ्लक्ष्णं जारिताभ्रं शिलाजतु । ताप्यं मण्डूरवैक्रान्तं काशीशं तुल्यमेव च ।!
देखिये ।
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१. भै. र. में हरताल और माक्षिक नहीं है ।
२. र. चं. में मरिच और माक्षिकका अभाव है।
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रसप्रकरणम् ]
सर्व सर्वसमं चूर्ण कल्पयेच्च ततः पुनः । मुस्तचन्दनपुन्नागनारिकेलस्य मूलकम् ।। कपित्थरजनीदावचूर्ण सर्वसमं भवेत् । वीराणां द्रवै द्वियामं वटकीकृतम् ॥ वेदविद्यावटी नाम्ना भक्षणात्सर्वमेहजित् । मधुधात्रीरसञ्चानु क्षौद्रैर्वापि गुचिका ॥
रस सिन्दूर, अभ्रक भस्म, कान्त लोह भस्म और सीसा भस्म १ - १ भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर १ दिन ब्राह्मीके रसमें खरल करें और फिर आतशी शीशी में भर कर बालुका यन्त्र में पकार्वे । तदनन्तर उसका बारीक चूर्ण करके उसमें १ - १ भाग अभ्रक भस्म, शिलाजीत, स्वर्ण माक्षिक भस्म, मण्डूर भस्म, वैक्रान्त भस्म और शुद्ध कसीस मिला कर खरल करें और फिर नागरमोथा, सफेद चन्दन, जायफल, नारियलकी जड़, कैथ, हल्दी और दारूहल्दी का चूर्ण समान भाग ले कर एकत्र मिला कर उपरोक्त तैयार औषध में यह चूर्ण उसके बराबर मिला दें और २ पहर जम्बीरीके रसमें घोटकर ( ४-४ रत्तीकी ) गोलियां बना लें
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चतुर्थी भागः
होते हैं ।
इनके सेवन से समस्त प्रकारके प्रमेह नष्ट
(७१२०) वेदविद्यावटी (२) (र. का. . । प्रमेहा. )
शुद्धस्य रसराजस्य भस्म वङ्गस्य भस्म च । अर्जुनस्य त्वचं सर्वसमं शाल्मलिजै रसैः ॥
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मर्दयेद्वासरं घर्मे कुर्याद्गुआमितां वटीम् । भक्षयेदनु सक्षौद्रं पिवेच्छाल्मलिजं रसम् ॥ इयं तु वेदविद्याख्या, नकृन्तनी ॥
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पारद भस्म और वंग भस्म १ - १ भाग तथा अर्जुनकी छाल का चूर्ण १ भाग ले कर तीनों को एकत्र मिला कर १ दिन सेंभलकी छालके रसमें खरल करके १-१ रत्तीकी गोलियां बना कर सुखा कर रक्खें ।
इन्हें शहदके साथ सेवन करने से मधुमेहका नाश होता है ।
अनुपान — सेंभलकी छाल का रस । वैक्रान्तगर्भरसः
(७१२१) वैक्रान्तरसायनम् (१)
( र. र. स. | अ. २ )
forest रस और शहद |
अनुपान - आमलेका रस और शहद अथवा भस्मत्वं समुपागतो विकृतको हेम्ना मृतेनान्वितः । पादांशेन कणाज्य वेल्लसहितो गुञ्जामितः सेवितः ॥ यक्ष्माणं जरणं च पाण्डुगुदजं श्वासं च कासामयं । दुष्टां च ग्रहणीमुरःक्षतमुखान् रोगाञ्जयेद्देहकृत् ||
( र. च.; यो. र. । मूत्र कृच्छ्रा . ) प्र. सं. ५६२१ मूत्रकृच्छ्रान्तक रस: (१)
देखिये |
जिन ग्रन्थोंमें वैकान्त गर्भ नामसे लिखा है। उनमें अनुपान रूपसे अपामार्गकी जड़को छाछ में पीस कर पीनेके लिये लिखा है ।
वैक्रान्त भस्म ४ भाग और स्वर्ण भस्म १ भाग ले कर दोनोंको एकत्र खरल करके रक्खें ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
मात्रा-१ रत्ती।
___ कांजी या गोमूत्र, या कुलथीके काथ अथवा इसे बायबिडंग और पीपलके चूर्ण तथा घीके
कोदोंके काथ या केले के रसमें जवाखार और पांचों साथ सेवन करनेसे क्षय, पाण्डु, अर्श, श्वास, कास,
नमक मिला कर उसमें ३ दिन तक वैक्रान्तको दुष्ट ग्रहणी, और उरःक्षतादि रोगोंका नाश
पकानेसे वह शुद्ध हो जाता है। होता है।
कुलथीके काथमें स्वेदित करनेसे वैक्रान्त शुद्ध (७१२२) वैक्रान्तरसायनम् (२) हो जाता है । (र. र. स. । पू. अ. २)
(७१२४) वैक्रान्तशोधनम् (२) सूतभस्मार्धसंयुक्तं नीलवैक्रान्तभस्मकम् । (रसे. सा. सं. ; र. र. स. । अ. २; शा. मृताभ्रसत्त्वमुभयोस्तुलितं परिमर्दितम् ॥
सं.। खं. २ अ. ११) क्षीद्राज्यसंयुक्तं प्रातर्गुआमात्रं निषेवितम् ।। निहन्ति सकलान्रोगान्दुर्जयानन्यभेषजैः ।।
चक्रान्तं वज्रवच्छोध्यं मारणश्चैव त य तत् । त्रिसप्तदिवसैर्नृणां गङ्गाम्भ इव पातकम् ॥
| हयमूत्रेण तत्सेच्यं तप्तं तप्तं त्रिसप्तधा ॥ पारद भस्म आधा भाग, नील वैक्रान्त भस्म |
ततश्चोत्तरवारुण्याः पञ्चाङ्गे गोलके क्षिपेत् । १ भाग और अभ्रक सत्व भस्म १॥ भाग ले कर
रुद्ध्वा मूषापुटे पाच्य उद्धृत्य गोलके पुनः॥ तीनोंको एकत्र मिला कर खरल कर।
क्षिप्त्वा रुवा पचेदेवं यावत्तद्भस्मतां व्रजेत् ।
| भस्मीभृतश्च वैक्रान्तं वज्रस्थाने नियोजयेत् ॥ मात्रा-१ रत्ती।
वैक्रान्तका शोधन मारण वज्रके समान करना इसे प्रातः काल शहद और धोके साथ सेवन
चाहिये। करनेसे ३ सप्ताहमें समस्त कष्टसाध्य रोग नष्ट हो जाते हैं।
वैक्रान्तको तपा तपा कर २१ बार घोड़ेके
मूत्रमें बुझानेसे वह शुद्ध हो जाता है। तदनन्तर (७१२३) वैक्रान्तशोधनम् (१)
इन्द्रायणके पंचांगको पीस कर उसमें उस शुद्ध ( र. र. स. । पू. अ. २) वैक्रान्तको लपेट कर गोला बनावें और उसे मूषामें वैक्रान्तकाः स्युस्त्रिदिनं विशुद्धाः
बन्द करके पुट लगा दें। इसी प्रकार बार बार संस्वेदिताः क्षारपटूनि दत्वा । इन्द्रायणके कल्कके गोलेमें लपेट कर पुट लगा कर अम्लेषु मूत्रेषु कुलत्थरम्भा
भस्म करें। नीरेऽथवा कोद्ववारिपक्वाः॥
वैक्रान्तको वनके स्थानमें प्रयुक्त करना कुलत्थक्वाथसंस्विन्नो वैक्रान्तः परिशुद्धयति ॥ चाहिये ।
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चतुर्थी भागः
रसप्रकरणम् ]
(७१२५) वैक्रान्तशोधन मारणे ( र. प्र. सु. । अ. ५ ; आ. वे. प्र. । अ. १३) कुलित्थक्वाथ संस्विन्नो वैक्रान्तः परिशुध्यति । म्रियतेऽष्टपुटैर्गन्धनिम्बूकद्रवसंयुतः ॥
वैकान्तको कुलथी के क्वाथ में स्वेदित करने से वह शुद्ध हो जाता है।
aat as और नीबूके रसके योगसे आठ पुट देनेसे उसकी भस्म हो जाती है । (७१२६) वैक्रान्तसत्वपातनम् ( आ. वे. प्र. । अ. १३ )
क्रान्तानां पलं चैकं कर्षकं टङ्कणस्य च । रविक्षारैर्दिनं भाव्यं मये शिग्रुद्रवैर्दिनम् ॥ गुञ्जापिण्याकवह्नीनां प्रतिकर्षाणि योजयेत् । एतेन गुटिकां कृत्वा कोष्ठी यन्त्रे धमेद्दृडम् ॥ शङ्खकुन्देन्दुसंकाशं सत्त्वं वैक्रान्तजं भवेत् ॥
५ तोले वैकान्त और १| तोला सुहागेको एकत्र मिला कर क्रमशः आकके दूध और सहजनेकी छाल रसमें पृथक् पृथक् १-१ दिन खरल करें और फिर उसमें ११ - १ तोला गुञ्जा (चौंटली) तिलकी खल ( या हींग ) और चीतेका चूर्ण मिला कर गोली बनावें । इसे कोष्ठी यन्त्र में तीव्राग्निमें धाने स्वच्छ श्वेत सत्व निकल आता है ।
(७१२७) वैक्रान्ताख्यरसः
(र. रा. सु. । अर्शो. ; वृ.नि. र. । अर्शो.) मृतसूताभ्रवक्रान्तकान्तताम्रं समं समम् । सर्व तुल्येन गन्धेन म भल्लातकान्वितम् ॥ दिनैकं तद्रवैरेव वटीं कुर्यात् द्विगुञ्जकाम् ।
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८०७
भक्षयेद्गुदजान्हन्ति द्वन्द्वजं च त्रिदोषजम् ॥ वैक्रान्ताख्यो रसो नाम साध्यासाध्य शिशान्तये ॥
पारद भस्म, अभ्रक भस्म, वैक्रान्त भस्म, कान्त लोह भस्म और ताम्र भस्म १ - १ भाग तथा शुद्ध गन्धक ५ भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर १ दिन भिलावेके तेल में खरल करके २-२ रती की गोलियां बना लें ।
इनके सेवन से हर प्रकारके अर्शका नाश है।
(७१२८) वैद्यनाथरस:
( र. र. स. उ. अ. १४ ; र. चं, । राजय . ) शंखस्य वलयं निष्कं चतुर्निष्का वराटिकाः । क नीलतुत्थं च तालगन्धकटङ्कणम् ॥ तारं नागं रसं चार्धनिष्कांश पूर्ववत् पुटेत् । पूर्णमण्डूरकल्पितलेपने पचेत् ॥ अस्यामा मरिचार्धमाषं ताम्बूलवल्लीरसमर्दितं च । तत्पत्रलिप्तं मधुनाऽवलिह्या
यंगवीनेन घृतेन वाऽपि ॥ arshan निर्गते चापमल्पं
पथ्यं भोज्यं लोकनाथोपदिष्टम् । यामे यामे चैवमामण्डलान्तं
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सेव्यः सद्यः शोषजिद्वैद्यनाथः ॥ शंखनाभिकी भस्म १ निष्क [३॥॥ माशे), कौड़ी भस्म ४ निष्क, नीला थोथा १| तोला, तथा शुद्ध हरताल, गंधक, सुहागा, चांदी भस्म, सीसा भस्म और शुद्ध पारद आधा आधा निष्क लेकर सबको एकत्र खरल करके कौड़ी में भरें और
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८०८
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
उसके मुखको ( दूधमें पिसे हुवे ) मण्डूर से बन्द करके उसे (कौड़ीको) शराबसम्पुट में बन्द कर दें एवं लोकनाथ रसके समान पुटपाक करें और स्वांग शीतल होने पर पीस कर रक्खें ।
४ रत्ती यह रस और ४ रत्ती काली मिर्चका चर्ण, एकत्र मिला कर दोनोंको पानके रसमें घोट कर पान पर लगायें और उसे शहद, मक्खन या के साथ खावें ।
इसके सेवन कालमें भी लोकनाथके समान १ - १ पहरके पश्चात थोड़ा थोड़ा पथ्याहार देना चाहिये ।
इसे ४० दिन तक सेवन करनेसे क्षयका नाश होता है ।
(७१२९) वैद्यनाथवटिका
(र. सा. सं; र. च. । संग्रह. ; धन्व. ; र. र. ; र. रा. सु.; । संग्र. )
[ वकारादि
कांजी, चीते काथ और त्रिफलेके काथ में शुद्ध किया हुवा पारद पांच माशे तथा भंगरेके रसमें शुद्ध किया हुवा गन्धक २ || माशे ले कर दोनोंकी कज्जली बनावें और उसमें संभाल, मुलैठी, अपराजिता, तुलसी, गूमा, भंगरे, नागरमोथे, का भंगरे, भांग और ईखका ५-५ माशे रस मिलाकर खरल करें और सरसोंके समान गोलियां बनाकर सुरक्षित रक्खें ।
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इन्हें ग्रहणी, आमवात, अग्निमांद्य, ज्वर, प्लीहा, उदर रोग आदि में सेवन कराना चाहिये ।
इसके सेवन कालमें अम्ल तक आदि अधिक सेवन करना चाहिये ।
श्रीमान् वैद्यनाथने एक ब्राह्मणको यह प्रयोग
बतलाया था ।
(७१३०) वैद्यनाथवटी (१) ( दधिवटि )
( भै. र. | शोधा. धन्व. । शोथा. ) पक्वेष्टक। हरिद्राभ्यामागारधूमकेन च । शोधितं सूतकं ग्राह्यं तोलकं तुलया धृतम् ॥ भृङ्गराजरसे शुद्धं गन्धकं सूततुल्यकम् । हरितालं विषं तुत्थं एलवालुकमभ्रकम् ॥ ॥ खर्परं माक्षिकं कान्तं सर्वमेकत्र कारयेत् । सर्वार्द्धाञ्जली ग्राह्याभावयेच्च पुनः पुनः ॥ सिन्धुवाररसे चैव ज्योतिष्मत्या रसे तथा । रसेऽपराजितायाश्च जयन्त्याः स्वरसे तथा ॥ रक्तचित्रकमूलोत्थे रसे च परिभावयेत् ।
टिकां सर्वपाकारां योजयेत्कुशलो भिषक् ॥ ततः सप्तवर्दद्यादुष्णेन वारिणा सह ।
रसस्य शाणं संगृह्य काञ्जिकेन तु शोधयेत् । चित्रकस्य र सेनापि त्रिफलायाच बुद्धिमान् ॥ रसा गन्धकं शुद्धं भृङ्गराजरसेन वा । द्वाभ्यां सम्मूच्र्छन कृत्वा स्वरसैः शाणसम्मितैः निर्गुण्डीमधुकः श्वेता कुठे ग्रीष्मसुन्दरैः । भृङ्गाव्दकेशराजैश्व तथा चेन्द्राशनोत्कटैः ॥ सर्षपाभां वटीं कृत्वा दद्यात्तां ग्रहणीगदे । सामवातेऽग्निमान्धे च ज्वरे प्लीहोदरेषु च ॥ अम्लतादिसेवां च कुर्वीत स्वेच्छया बहु । श्रीमता वैद्यनाथेन लोकानुग्रहकारिणा ॥
स्वप्नान्ते ब्राह्मणस्येयं भाषिता लिखिता न तु । अनुपानञ्च कर्त्तव्यं कज्जल्या कणया सह ॥
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रसपकरणम् ]
चतुर्थों भागः ।
सन्निपातज्वरे चैव सशोथे ग्रहणीगदे। व्यवस्था उसकी आयु और दोषोंका विचार करके पाण्डुरोगेऽग्निमान्धे च विविध विषमज्वरे ॥ करनी चाहिये । शुक्रमज्जगते दद्यान्न तु कासे कदा च न । पथ्य--जल रहित दही। . नित्यं दध्ना च भोक्तव्यं सितानित्यं तथैव च। अपथ्य-जल और लवण । स्नातव्यं ह्यभयान्नित्यं वयोदोषानुसारतः। (७१३१) वैद्यनाथवटी (२) अलवणं वारिहीनं दधि पथ्यं सदा भवेत् ॥ (रसे. सा. सं. ; धन्व. । उदावर्ता. ; र. रा. वैधनाथवटी नाम्ना वैद्यनाथेन निर्मिता ॥ सु. । उदाव. ; रसे. चि. म. । अ. ९)
पक्की ईट, हल्दी और घरके धुर्वेमें शुद्ध किया | पथ्या त्रिकटु सूतञ्च द्विगुणं कानकन्तथा । हुवा पारद, भंगरेके रसमें शुद्ध किया हुवा गन्धक
थानकुनीरसैरम्ललोलिकाया रसैः कृता । १-१ तोला तथा शुद्ध हरताल, शुद्ध बछनाग, । गुटिकोदरगुल्मादिपाण्ड्वामयविनाशिनी। शुद्ध तृतिया, एलवालुक, अभ्रक भस्म, खपरिया | क्रिमिकुष्ठगात्रकडूपिडकाश्च निहन्ति च ॥ भत्म, स्वर्ण माक्षिक भस्म और कान्त लोह भस्म | गुडी सिद्धफला चेयं वैद्यनाथेन भाषिता ॥ आधा आधा तोला ले कर पारद गन्धककी कज्जली | हर्र, सोंठ, मिर्च, पीपल और रससिन्दूर बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिला कर १-१ भाग तथा शुद्ध जमाल गोटा २ भोग लेकर सबको संभालु, मालकंगनी पत्र, कोयल, जयन्ती सबको एकत्र खरल करके थानकूनी और अम्लऔर लाल चीतेकी जडके रसकी कई कई भाव- लोनियाके रसमें घोट कर ( ३-३ रत्तीकी) नाएं दे कर सरसोंके समान गोलियां बना लें। गोलियां बना लें। मात्रा-७ गोली।
इनमेंसे १-१ गोली ( शीतल जलके साथ)
सेवन करनेसे विरेचन हो कर उदर रोग, गुल्म, अनुपान-कज्जली (१ रत्ती) और पीपल-पाण्ड, कृमि, कुष्ठ, गात्रकण्डु (खुजली), और का चूर्ण (४ रत्ती ) उष्ण जलके साथ खावें ।। | पिडिका आदिका नाश होता है।
इनके सेवनसे सन्निपात, शोथ युक्त ग्रहणी, (७१३२) वैद्यनाथवटी (३) पाण्डु, अग्निमांद्य और शुक्र मज्जागत विषम ज्वरका (धन्व. ; र. रा. सु. ; भै. र. । ज्वरा.) नाश होता है।
शाणं गन्धमथो रसस्य च तथा कृत्वा द्वयोः ___ यदि खांसी हो तो यह औषध कदापि सेवन
कजली न करानी चाहिये।
| तिक्ताचूर्णमथाक्षमेव सकलं रौद्रे त्रिधा भावयेत् । इसके सेवन कालमें दही और मिश्री युक्त xथानकूनीका अर्थ कोई वैद्य अण्डकपर्णी, पथ्य आहार देना चाहिये तथा रोगीके स्नानकी कोई कौंच और कोई गोरखमुण्डी करते हैं।
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ट१०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
पश्चात्तत्सुषवीरसेन न तु वा काषेऽमले त्रैफले सिद्धं कुम्भपुटे स्वतश्च शिशिरः पिष्टः करण्डे संशोष्य गुटिका कलायसदृशी कार्या बुधैर्यनतः॥
स्थितः। ज्ञात्वा दोषवलं रसेन सुषधीपत्रस्य पर्णस्य वा स्थाद्वैश्वानरपोटलीति कथितस्तीब्राग्निदीप्तिपदः।। एकद्वित्रिचतुः क्रमेण वटिकां दद्यात् कदुष्णा- एकोनविंशतिश्चूर्णैमरिचानां घृतान्वितैः ।
म्बुना । देयोयं वल्लमानेन वयोबलमवेक्ष्य च ॥ हन्ति शूलनिचयं नवज्वरं पाण्डतामरुचिशोथसञ्चयं गिलेद्गल विशुद्धयर्थं दधिभक्तमनुत्तमम् । रेचने च दधिभक्तभोजनं वैद्यनाथमुकुमाररेच- कवलत्रयमानेन दुर्गन्धोद्गारशान्तये ॥
नम् ॥ मध्यंदिने ततो भोज्यं घृततक्रौदनं सिता । __ -३॥ माशे शुद्ध पारद और गन्धककी | रात्रौ च पयसा साधं यद्वा रोगानुसारतः ॥ कज्जली बना कर उसमें १। तोला कुटकीका चूर्ण | विदाही द्विदलं भूरिलवणं तेलपाचितम् । मिला कर उसे करेलीके स्वरस या त्रिफलाके | बिल्वं च कारवेल्लं च वृन्ताक कालिकं त्यजेत् ॥ काथकी धूपमें ३ भावना दें और मटरके समान इयं हि पोटली प्रोक्ता सिङ्घणेन महीभृता । गोलियां बना कर सुरक्षित रक्खें। | मन्दाग्निप्रभवाशेषरोगसङ्घातघातिनी ॥ ... इन्हें दोष बलके अनुसार १ से ४ गोली सिङ्घणस्य विनिर्दिष्टा भैरवानन्दयोगिना । तक करेलीके पत्तोंके रस या पानके रसके साथ लोकनाथोक्तपोटल्या उपचारा इह स्मृताः ॥ अथवा मन्दोष्ण जलके साथ देनेसे शूल, नवीन पोटल्यो दीपनाः स्निग्धा मन्दाग्नौ नितरां हिताः॥ ज्वर, पाण्डु, अरुचि और शोथका नाश होता है। . यह रस मृदुरेचक है।
पीतवर्णा गुरुस्निग्धा पृष्ठतो ग्रन्थिलामला ।
चराचरोत सा प्रोक्ता वराटी नन्दिना खलु ॥ ... रेचन होनेके पश्चात् पथ्यमें दही भात देना
| सार्धनिष्कमिता श्रेष्ठामध्यमा निष्कमानिका।
| पादोननिष्कमाना च कनिष्ठात्र वराटिका ॥ वैरोचनरसः
| निष्फलाश्च ततो न्यूनाः पुंवराटाश्च पित्तलाः । ( र. चं. ; र. र. । अजीर्णा.)
दत्वा दत्वा गुणान्भूयो विकारान्कुर्वते हि ते ॥ प्र. सं. ६३८० लोकनाथ रसः देखिये ।
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक और कौडी भस्म (७१३३) वैश्वानरपोटलीरसः
११-१तोला ले कर तीनोंको एकत्र खरल करके (र. र. स.। उ. अ. १६ ; र. रा. सु.। | कज्जली बनावें और उसे १ दिन गोदुग्धमें खरल अजीर्णा.)
| करके मूषामें बन्द करके कुम्भपुटमें पकार्व एवं भुद्धौ सूतबली चराचररजः कर्षांशतः काली स्वांग शीतल होने पर निकाल कर पीस कर सुरकृत्वा गोपयसा विमर्च दिवसं रुध्वा च मूषोदरे।।' क्षित रक्खें ।
चाहिये।
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
८११
यह अत्यन्त अग्निदीपक है। | पिप्पली पिप्पलीमूलं युक्तं गुञ्जाद्वयं हितम् । मात्रा–३ रत्ती।
हिङ्ग करञ्जबीजं च शुण्ठी लशुनमौषधम् ॥ इसे १९ काली मिरचोंके चूर्ण और घीके एरण्डतैलसम्पिष्टं ककं भक्षयेदनु । साथ सेवन कराना चाहिये, तथा मुख शुद्धि और योगो वैश्वानरो नाम शूलं हन्ति त्रिदोषजम् ॥ दुर्गन्धित डकारोंको रोकनेके लिये ३ ग्रास दही १-१ भाग ताम्र भस्म और काली मिर्च के भात खाना चाहिये ।
चूर्णको एकत्र मिला कर १-१ दिन बिजौ रे इस पर मध्याह्नमें घी, तक्र और मिश्रीके साथ और अदरकके रसमें खरल करके उसमें २ भाग भात, तथा रातको दूध भात या रोगोचित पथ्य
शुद्ध बछनागका चूर्ण और २-२ भाग पीपल तथा देना चाहिये ।
पीपलामूलका चूर्ण मिलावें और २-२ रत्तीकी ___ अपथ्य----विदाही पदार्थ, सब तरहकी | गोलियां बना लें। दालें. अधिक लवण, तेलमें पकाए हुवे पदार्थ, बेल, इनके सेवनसे त्रिदोषज शूल नष्ट होता है । करेला, बैंगन और कांजी।
अनुपान-होंग, करज बीज, सेठ, ल्हसन इसके सेवनसे अग्निमांद्य जनित समस्त विकार और कूठका समान भाग मिश्रित चूर्ण ११ तोला नष्ट होते हैं।
( व्यवहा. मा. ५ रत्ती ) ले कर अण्डोके तेलमें __" लोकनाथ पोटलो' में बतलाए हुवे उप- | पीस कर खाना चाहिये । चार इसके सेवन काल में भी उपयोगी हैं। __(७१३५) बैश्वानररसः (१) इस प्रयोगमें जो कौड़ी ली जायं वे पीली,
(र. र. स. । उ. अ. १९ ; र. का. वज़नी, स्निग्ध, स्वच्छ और पीठकी ओर प्रन्थिल |
धे. । उदरा.) (गांठों वाली) होनी चाहिये । उत्तम कौड़ीके यही | सिगन्धकताम्राणि शिलाजतुकान्तलौहकम् । लक्षण हैं।
त्रिकटुश्चित्रकं कुष्ठं निर्गुण्डी मुसली विषम् ॥ || निष्क (७|| माशे) को कौड़ी उत्तम, | अजमोदा च सर्वेषां द्वौ द्वौ भागौ प्रकल्पयेत् । ५ माशेकी मध्यम, और ३॥ माशेकी कनिष्ठ होती | चूर्णीकृत्य ततः सर्व निम्बक्वाथेन भावयेत् ॥ हैं। इससे हल्की कौड़ी गुणहीन होती है और एकविंशत्प्रकारेण भृङ्गराजेन सप्तधा। . बड़े बड़े कौड़े पित्तवर्धक होते हैं।
मधुना गुटिकां शुष्कां रजन्यां तु पदापयेत् ॥ (७१३४) वैश्वानरयोगः वैश्वानराभिधो योगो जलोदरविशोषणः ॥ ( वृ. नि. र. । शूला.)
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म, शुद्ध भावितं मातुलिङ्गाम्ले तानं च मरिच दिनम् । शिलाजीत. कान्त लोह भस्म, सेठ, मिर्च, पीपल, आईकस्य रसे चैव विषं तुल्यं च चूर्णयेत् ।। । चीतामूल, कूठ, संभालु, मूसली, शुद्ध बछनाग और
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
८१२
अजमोद समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बाचें और फिर उसमें अन्य औषधियोंका चूर्ण मिला कर उसे नीमके काथकी २१ और भंगरेके रसकी सात भावना दे कर सुखा लें और फिर शहद में घोट कर ( ४-४ रत्ती की ) गोलियां बना लें ।
इन्हें रात्रि के समय सेवन करनेसे जलोदर नष्ट होता है ।
(७१३६) वैश्वानररसः (२) ( र. र. स. । उ. अ. १८ ) विष्णुक्रान्ता च जेपालं लाङ्गली सुरदालिका । यवचिञ्चाम्बुसारेण तासां द्विगुणगन्धकम् ॥ पक्ष विमर्दितं सूतं स्वेदयेन्मृदुनाग्निना । गुल्मे गुञ्जात्रयं चास्य सोष्णाम्बुघृतसैन्धवम् ॥ वातजे कफजे लिह्यान्मध्वार्द्रकसमन्वितम् । efeatमाक्षिकं पैत्ते सोऽयं वैश्वानरो रसः ||
कोयल, शुद्ध जमालगोटा, कलियारीकी जड़, और बिन्दाल (देवदाली) १ - १ भाग तथा शुद्ध पारद और गन्धक ८-८ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनायें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर सबको १५ - १५ दिन खिरनीके रस और सुगन्ध बाला के रसमें घोट कर गोला बनावें एवं उसे शरात्रसम्पुटमें बन्द करके मन्दाग्निमें स्वेदित करें और फिर खरल करके सुरक्षित रखें।
मात्रा - ३ रत्ती ।
[ वकारादि
मिला कर उसमें औषध मिला कर खाना और बाद में उष्ण जल पीना चाहिये ।
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तथा कफज गुल्म में शहद और अदरक के रसके साथ एवं पित्तज गुल्म में मिश्री और शहद - के साथ सेवन करना चाहिये ।
(७१३७) व वानररसः (३) ( र. का. . । अजीर्णा . ) शोधितं पारदं गन्धं यवक्षारं च जीरकम् । स्वक्षारं विषं कृष्णां विडङ्गं मरिचं बचा || नागरं पञ्चलवणं समभागं समाहरेत् । विषमुष्टि सर्वतुल्यं जम्बीराम्लेन मर्दयेत् ॥ मरिचस्य प्रमाणेन कर्तव्या वटिका शुभा । तामेकां वटिकां खादेत्प्रातः पथ्याजरणगुडैः ॥ अयं वैश्वानरो नाम रसो मन्दाग्निनाशनः ॥
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, जवाखार, जीरा, सञ्जी, शुद्ध बछनाग, पीपल, बायबिडंग, काली मिर्च, बच, सोंठ, सेंधा नमक, संचल ( काला नमक ), विड लवण, काच लवण और सामुद्र लवण १ - १ भाग तथा शुद्ध कुचला सबके बराबर ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिला कर जम्बरी नीबू के रस में खरल करके काली मिर्च के बराबर गोलियां बना लें 1
इनमें से १-१ गोली प्रातःकाल हर्र और ith चूर्ण तथा गुड़ में मिला कर सेवन करने से
अनुपान -- वातज गुल्म में वृतमें सेंधानमक अग्निमांधका नाश होता है ।
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रसप्रकरणम्
चतुर्थों भागः (७१३८) वैश्वानररसः (४)
प्रत्येकं माषषट्कं स्याद्गृह्यते मूरणं तथा ।
कुष्माण्डकरसं दत्वा दिनमेकं विमर्दयेत ।। (र. का. धे. । अरोचका. )
अन्धमूषागतं कृत्वा यावद्यामचतुष्टयम् । दशटङ्गमिता शुण्ठी मरिचं पिप्पली वचा।
उत्तार्य शीतलं नीत्वा रसं वल्लचतुष्टयम् ॥ सौभाग्यं च तथा सूक्ष्मं सर्वमेकत्र चूर्णितम् ॥ अग्निमान्ये ज्वरे दद्यादुदरे पारदं परम् । सूतकं टङ्कमात्रेण गन्धकं तत्सम विषम्।
अतिपुष्टिकरः सम्यग्दृद्धवैश्वानररसः । एकत्र चूर्णितश्लक्ष्णं कर्तव्यं चैकमागतः॥
___ शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म, और एकभागमितं ग्राह्य सर्व पर्णेन चाम्भसा ।
सीसा भस्म १-१ तोला तथा पीपल, पीपलका कासं श्वासं हरेच्छीघ्रमरुचिं तरक्षणादपि ॥
क्षार, काली मिर्च, इमलीका क्षार, सोंठ, सज्जीखार, गुल्मादिकमहान्याधि यकृच्च ग्रहणीमपि ।।
जवाखार, सुहागा और सूरण (जिमीकन्द) ६-६ नववर्णमितं याति प्रभावो भ्रमिमण्डले ॥
माशे ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें खण्डवातादिकान् सर्वान् सम्यक्कृत्वा व्यपोहति और फिर उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिलाकर वैश्वानरमिति ख्यातं क्षेत्रं च कुरुते ध्रुवम् ॥ सबको कुम्हड़े (पेठे) के रसमें १ दिन घोट कर . सेठ, काली मिर्च, पीपल, बच और सुहागा, | अन्धमूषामें बन्द करें और ४ पहर भूधर पुटमें १०-१० भाग तथा शुद्ध पारा, गन्धक और पकावें । बछनाग १-१ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी
___ मात्रा-१२ रत्ती। कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियाँका चूर्ण मिला कर पानके रसमें घोट कर (१-१ ( व्यवहारिक मात्रा-४ रत्ती ।) माशेकी ) गोलियां बना लें।
इसके सेवनसे अग्निमांद्य, ज्वर और उदर इनके सेवनसे कास, श्वास, अरुचि, गुल्म, | रोगोंका नाश होता है। यह अत्यन्त पौष्टिक है। यकृत्, ग्रहणी, और वातव्याधिका शीघ्रही नाश
(७१४०) वैश्वानरलौहम् हो जाता है।
( मै. र. । शूला.) (७१३९) वैश्वानररसः (५) ( वृद्ध )
द्विपलं तिन्तिडीक्षारं तथापामार्गसम्भवम् । (र. चि. म. । स्त. ७)
शम्बूकभस्मसंयुक्तं लवणञ्च समं तथा ॥ रसं गन्धं मृतं शुल्वं नागं प्रत्येकं तोलकम् ।। चतुर्णा समभागाः स्युस्तुल्यञ्च लौहचूर्णकम् । एकत्र क्रियते मृष्ट्वा पश्चादिमानि निक्षिपेत् ॥ चूर्ण सम्पिष्य खल्लादौ कारयेदेकतां भिषक ।। पिप्पली पिप्पलीक्षारं मरिचं चिञ्चिकाभवम् । शूलस्यागमवेलायां खादेद्रक्तिचतुष्टयम् । नागरं स्वर्जिकाक्षारं यवक्षारं च टङ्कणम् ॥ शूलमष्टविधं हन्ति साध्यासाध्यं न संशयः॥
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भारत-भैपज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
इमलीका क्षार, अपामार्ग (चिरचिटे ) का छालके रस और अरण्ड मूलके रसकी २१-२१ क्षार, घोंघोंकी भस्म और सेंधा नमक १-१ भाग तथा भंगरेके रसकी सात भावना दे कर बेरकी तथा लोह भस्म ४ भोग ले कर सबको एकत्र गुठलीके समान गोलियां बना लें। खरल करके रक्खें ।
इन्हें शहदमें मिला कर सुबह शाम सेवन मात्रा-४ रत्ती।
करनेसे कफोदर शीघ्रही नष्ट हो जाता है । इसे शूलो दौ रेके समय देनेसे हर प्रकारका
___अनुपान–देवदारु और चीतामूलको दूधमें साध्य अथवा असाध्य शूल नष्ट हो जाता है।।
पीस कर पीना चाहिये।
इसके सेवन कालमें त्रिकुटेके साथ पका हुवा (७१४१) वैश्वानरीवटी
दूध और कुलथीके रसके साथ पथ्य भोजन देना ( र. रा. सु. ; रसे. सा. सं. ; धन्व. । उदर. ; - रसें. चि. म. । अ. ९)
व्याधिगजकेशरीरसः शुद्धं सूतं द्विधा गन्धं मृतार्कायः शिलाजतु ।
(यो. र. । ज्वरा.) । रसमानं प्रदातव्यं रसस्य द्विगुणं विषम् ॥
प्र. सं ६९७२ वसन्त मालिनी रसः (लघु) त्रिकटु चित्रकं कुष्ठं निर्गुण्डी मुसलीरजः।
| देखिये । . अजमोदा विषांशेन प्रत्येकं च नियोजयेत् ॥ निम्बपञ्चाङ्गुलकाथैर्भावनांश्चैकविंशतिः ।
(७१४२) व्याधिगजकेशरीरसः
(र. चं. ; वृ. नि. र. । वातव्या.) भृङ्गराजरसै: सप्त दत्वा क्षौद्रविलोडयेत् ॥ भक्षयेद्वदरास्थ्यामां वटिकां तां दिवानिशि। पारदं गन्धकं तालं विषं व्यूषणकं समम् । श्लेष्मोदरं निहन्त्याशु नाम्ना वैश्वानरी वटी॥ त्रिफला टङ्कणक्षारं प्रत्येकं शाणमात्रकम् ॥ देवदारुवनिमूलकल्क क्षीरेण पाययेत् । दन्तीबीजं च टकैकं सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् । भोजनं व्योषदुग्धेन कुलित्थस्य रसेन वा॥ | भृङ्गराजरसेनैव मर्दयेदिनसप्तकम् ॥
काकमाचीरसेनैव निर्गुण्डीरसकैस्तथा । शुद्ध पारा, ताम्र भस्म, लोह भस्म और शुद्ध मरीचाभा वटी कार्या दोषमावेक्ष्य दापयेत् ॥ शिलाजीत, १-१ भाग तथा शुद्र गन्धक, शुद्ध क्षीरेण सह दातव्या ज्वराष्टकनिवृत्तये । बछनाग, सोंठ, मिर्च, पीपल, चीतामूल, कूठ, | अशी तिं वातजान्हन्ति निर्गुण्डीवास्तु केन वा॥ संभालु, मूसली और अजमोद २-२ भाग ले कर
गुडेन सह दातव्या चत्वारिंशच पैत्तिकान् । प्रथम पारे गन्धकको कज्जली बनावें और फिर
अनुपानेन संयुक्तस्तत्तद्रोगहरः स्मृतः ॥ उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिला कर नीमकी
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध हरताल, शुद्ध १ वीरा इति पाठान्तरम् ।
बछनाग, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला
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रसप्रकरणम् ]
चतुर्यों भागः
८१५
-
और सुहागेकी खील ३॥ ३॥ माशे तथा शुद्ध लोह भस्म समान भाग ले कर सबको एकत्र खरल जमोल गोटा ५ माशे ले कर प्रथम पारे गन्धककी | करके रक्खें । कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधि- इसे मिश्री, घी और शहदके साथ प्रातःकाल योंका चूर्ण मिला कर सबको भंगरे, मकोय और | सेवन करनेसे कामलाका नाश होता है । संभालुके रसमें सात सात दिन खरल करके काली
(७१४५) व्योषादियोगः मिर्च के समान गोलियां बना लें।
( ग. नि. । श्वयथु. ३३ ; रसे. चि. इन्हें दूधके साथ सेवन करनेसे आठ प्रकारके
म. । अ. ९) ज्वर; संभालु या बथुवेके रसके साथ सेवन करनेसे
व्योषं त्रिवृत्तिक्तकरोहिणी च ८० प्रकारके वातज रोग और गुड़के साथ सेवन
सायोरजस्तु त्रिफलारसेन । करनेसे ४० प्रकारके पैत्तिक रोग नष्ट होते हैं।
पीता कफोत्थं शमयेद्धि शोथं (७१४३) व्योषादिचूर्णम् (१)
गव्येन मूत्रेण हरीतकी वा॥ (व. से. । राजयक्ष्मा.)
सेठ, मिर्च, पीपल, निसोत और कुटकी; व्योपं शतावरी त्रिणि फलानि द्वे बले तथा। | इनका चूर्ण १-१ भाग तथा लोह भस्म सबके सर्वामयहरो योगः सेव्यो लोहरजोन्वितः ॥ । बरावर ले कर सबको एकत्र खरल करके रक्खें ।
सोंठ, मिर्च, पीपल, शतावर, हरे, बहेड़ा, इसे त्रिफलाके काथके साथ सेवन करनेसे आमला, बला (खरैटी ) की जड़ और अतिबला | अथवा हर के चूर्णको गोमूत्रके साथ सेवन करनेसे (कंघी) को जड़; इनका चूर्ण १-१ भाग तथा | कफज शोथ नष्ट होता है। लोह भस्म सबके बराबर ले कर सबको एकत्र
व्रणगजाङ्कुशः खरल करके रक्खें ।
( र. र. । व्रणा.) ( मात्रा-३ रत्ती।)
प्र. सं. ३६५० नारायण रसः (१) देखिये। इसके सेवनसे क्षय आदि रोग नष्ट होते हैं।
(७१४६) व्रणरोपणरसः (७१४४) व्योषादिचूर्णम् (२)
(र. का. धे. । गण्डमाला.) ( वै. म. र. । पटल १०)
| गन्धेशाहिकणा तुल्यं त्र्यहं जम्बीरमर्दितम् । व्योष धात्री रजनी लोहं च सिताज्यमधु- कुमार्या नरमृत्रेण चित्रकेण च हिङ्गुना ॥
समेतानि । सौवर्चलेन च पृथग्युक्त्या च विविधैः क्रमात् । उपयुज्य कामलातः सुखी भवेद्वासरारम्भे ॥ व्रणरोगेषु संयोज्यो न योज्यः स्त्रीत्रणेषु च ॥
सेठ, मिर्च, पीपल, आमला, हल्दी और | एनं भगन्दरे गण्डमालास्वपि च योजयेत् ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
क्षौद्रेण वा यथायोगं पिप्पलीपुरसंयुतम् ॥
(७१४७) व्रणहररसः पथ्याश्च शालयो मुद्गा गोधूमा घृतसंयुताः॥ शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारद, अफीम, और पीप
(र. चं. । व्रणा.) लका चूर्ण समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धक । रसं गन्धं विषं वह्नि लौहमभ्रं समं समम् । की कजली बनावें और फिर उसमें अन्य सप्तधा पार्थतोयेन काञ्चनाराम्भसा तथा ॥ ओषधियां मिला कर उसे जम्बीरीके रस, घृत-मामिला वर्ष काटक्तिका प्रमिता भिषक । कुमारीके रस, मनुष्यके मूत्र, चातामूलके वाथ, हींगके पानी और काला नमकके पानीमें ३-३
| रसो व्रणहरो नाम व्रणान्हन्ति रसोत्तमः ॥ दिन घोट कर सुरक्षित रक्खें ।
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध बछनाग, इसके सेवनसे समस्त प्रकारके ब्रण, भगन्दर | चीतामूलका चूर्ण, लोह भस्म और अभ्रक भस्म और गण्डमाला आदिका नाश होता है।
समान भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली अनुपान-इसे पीपलके चूर्ण, गूगल और | बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण शहदके साथ देना चाहिये ।
मिला कर सबको अर्जुन और कचनारकी छालके ( मात्रा-१ रत्ती।)
रसकी सात सात भावना दे कर १-१ रत्तीकी पथ्य-घृत युक्त शाली चावल, मूंग और गोलियां बनालें । इनके सेवनसे समस्त प्रकार के गेहूंकी रोटी।
व्रण नष्ट होते हैं।
इति वकारादिरसमकरणम्
। अथ वकारादिमिश्रप्रकरणम् (७१४८) वचादियोगः (१) (७१४९) वचादियोगः (२) (यो. र. । प्रतिश्याया. )
(हा. सं. । स्था. ३ अ. ४९) सवचाचूर्णमाघ्राय वाससा पोटलीकृतम् ।
वचायवानीसह चित्रण
सिन्धूत्थविश्वासहसिन्धुवारम् । कारवी वस्त्रबद्धा वा प्रतिश्यायमपोहति ॥
कल्कं तथोष्णं च स दन्तरोगे कलौंजी और वचके चूर्णको कपड़ेकी पोटली मुखे च गण्डूषशतानि पञ्च ॥ . में बांधकर सूंघनेसे प्रतिश्याम नष्ट होता है। बच, अजवायन, चीता, सेंधानमक, सोंठ.
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मिश्रप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
और संभालु समान भाग लेकर सबको पानीके (७१५३) वरुणपत्रोद्वर्तनम् साथ पीस लें।
(रा. मा. । स्त्री रोगा. ३०) इसे मन्दोष्ण करके मुख में धारण करने से घृष्टानि गव्यशकृता प्रथमं ततश्च अथवा इन्हीं ओषधियों के क्वाथ से ५०० कुल्ले | पिष्टैर्जले वरुणकस्य दलैः प्रकामम् । करनेसे दन्त रोग नष्ट होते हैं ।
उद्वर्तितानि सहसैव नितम्बिनीनां
नाशं प्रयान्ति सुमहान्त्यपि किकिसानि॥ (७१५०) वचागुत्सादनम्
प्रथम रोगस्थान पर गायका गोबर मलें और (वृ. नि. र. । बाला.)
फिर वहां पानीमें पिसे हुवे बरनेके पत्ते खूब मलें वचां वयस्थां जटिलां गोलोमीं चापि धारयेत्। तो स्त्रियों का किक्किस रोग शीघ्र ही नष्ट हो उत्सादनं हितं चात्र स्कन्दापस्मारनाशनम् ॥ जाता है।
स्कन्दापस्मारग्रस्त बच्चे के गले में बच, (७१५४) वर्षाभ्वादिक्षारम् हर्र, सफेद बच या गोलोमी डालनेसे अथवा उसके | (वृ. नि. र. । शोथा, ) । शरीर पर इनका चूर्ण मर्दन करनेसे लाभ होता है। क्षीरं शोथहरं दारुवर्षाभूनागरैः शृतम् । (७१५१) वनकार्पासादियोगः पेयं वा चित्रकव्योपत्रिद्दारुप्रसाधितम् ॥ (व. से. । गण्डमाला.)
देवदारु, पुनर्नवा और सौंठसे अथवा चीता, वनकार्पास मलं तण्डुलैः सह योजितम् । सोंठ, मिर्च, पीपल निसोत और देवदारु से सिद्ध पक्त्वाज्ये पोलिकां खादेदपचीनाशनाय ॥ | किया हुवा दूध शोथको नष्ट करता है। .
वनकपासकी जड़को पीस कर चावलोंकी (समान भाग मिश्रित्त ओषधियोंका अधकुटा पिट्टीमें मिलाकर उसकी धीमें पूरी तल कर खानेसे चूर्ण २ तोले, दूध ३२ तोले, पानी १२८ अपची नष्ट होती है।
तोले ।) (७१५२) वमनयोगः
(७१५५) वाजीकरो वटकः ( ग. नि. । तृष्णा. १५)
(र. प्र. सु. । अ. १२) वारिशीतं मधुयुतमाकण्ठाद्वा पिपासितम् ।।
आत्मगुप्ताफलं शुष्कं निस्तुषं चाष्टपालिकम् ।
मापस्याष्टपलं तद्वज्जलेन परिपेषितम् ॥ पाययेद्वामयेच्चापि तेन तृष्णा प्रशाम्यति ॥
| आर्द्रत्वे चातिरुचिरं शिलापटेन पेपयेत् । ठण्डे पानीमें शहद मिलाकर कण्ठ पर्यन्त
| कुङ्कुमं केशरं चैव जातीपत्रं शतावरी । पिला कर वमन करानेसे तृषा शान्त हो जाती
१ केशादिको नष्ट करनेवाले कृमि विशेष । 108
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि .
-
गोक्षुरेक्षुरबीजानि लवङ्ग मरिचं कणा। अवश्य नष्ट हो जाती है एवं नपुंसक पुरुष भी शृङ्गाटकं कर्षमितं कुर्यादेवं पृथक् पृथक् ॥ | अनेक स्त्रियों से रमण करने और सन्तानोत्पादनमें सूक्ष्मचूर्ण विधायाथ पूर्वषिष्टे निधापयेत् । समर्थ हो जाता है। वटकान् कारयेत्पश्चात् कर्षमात्रान् विपाचयेत् ॥
यह प्रयोग अनुभूत है। घृतप्रस्थत्रयेणैव सुतलय्य निमज्जयेत् ।
(७१५६) वाराहीकन्दयोगः माक्षिके घृतमाने वै मुखं रुन्ध्यादिनत्रयम् ॥ । मध्वाज्यमिश्रितं भक्षेदेकैकं वटकं प्रगे।।
(ग. नि. । सा. रसा. १). सप्तकानि च पञ्चवमाहारं मधुरं भजेत् ॥ सूक्ष्मचूर्णेन वाराह्याः शृतं क्षीर विमन्थितम् । दुग्धोदनं तथा रात्री क्षारमम्लं च वर्जयेत् ।
तदाज्यमधुसंयुक्तं मासमेकं रसायनम् ॥ . रेतः क्षयी नपुंसोऽपि गच्छेच्च प्रमदा शतम् ।। अपुत्रः पुत्रमाप्नोति षण्ढोऽपि पुरुषायते ।।
___बाराही कन्दका बारीक चूर्ण मिलाकर दूध दृष्टप्रत्यययोगोऽयं सत्यमेतदुदीरितम् ॥
| पकावें और उसका दही जमा कर घी निकालें । ____ कौच के छिलके रहित सूखे बीज ८ पल |
इसे शहद मिलाकर सेवन करना चाहिये । और छिलके रहित उड़दकी दाल ८ पल (४० । यह प्रयोग रसायन है । इसे १ मास तक तोले ) लेकर दोनोंको पानीमें भिगो दें और सेवन करना चाहिये । फूल कर नरम हो जाने पर अत्यन्त बारीक पिछी
(७१५७) वार्ताकयोगः पीस लें । तदनन्तर उसमें केसर, नागकेसर, जावित्री, शतावर, गोखरु, तालमखाना, लौंग, काली
( वृ. मा. । अर्शा.) मिर्च, पीपल और सिंघाडेका ११-१। तोला स्विन्नं वार्ताकफलं घोषायाः क्षारजेन सलिलेन । बारीक चूर्ण मिलाकर ११- १॥ तोले के वटक | तद् घृतभृष्टं युक्तं गुडेन वा तृप्तितो योऽत्ति ॥ बना लें और उन्हे ६ सेर घी में तलकर (पकाकर) पिबति च तक्रं नूनं तस्याऽऽश्वेवातिवृद्धगुद. पत्थर या कांचके पात्रमें ६ सेर शहद में डाल
जानि । दें एवं उसका मुख बन्द करके ३ दिन तक रक्खा यान्ति विनाशं पुंसः सहजान्यपि सप्तरात्रेण ॥ रहने दें; और फिर नित्य प्रति १-१ वटक थोड़े
। बैंगन के फलोंको सोयेके क्षारके पानी में घी और शहदमें मिला कर सेवन करें।
सिजा कर घीमें भून लें। पथ्य-मधुरोहार, दूध, भात ।
इन्हें गुड़ में मिलाकर पेट भर खानेके पश्चात् अपथ्य-क्षार और अम्ल । तक पीने से सात दिन में अत्यन्त प्रवृद्ध सहजाशके इसके सेवन से वीर्य क्षीणता और नपुंस्कता। मस्से भी अवश्य नष्ट हो जाते हैं।
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मिश्रप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
८१९
-
वितम् ।
(७१५८) वालुकास्वेदः
(७१६०) वासादिपानकम् (भै. र. । ज्वरा.; भा. प्र. । म. खं. २) ... (हा. सं. । स्था. ३ अ. १०) खपरभृष्टपटस्थितकाञ्जिकसंसिक्तवालुकास्वेदः। वासापत्ररसं विधाय मतिमान् योज्यानि चेशमयति वातकफामयशूलाङ्गभङ्गकम्पादीन् ॥
मानि तु कम्पे शिरोहृदयगात्रव्यथायां जम्भायां पाद- रोधं चोत्पलमृत्तिकासमधुकं कुष्ठं प्रियङ्ग्व
सुप्ततायाम् । पिण्डिकोद्वेष्टनेऽङ्गसादे हनुस्तम्भे च लोमहर्षे । चूर्ण पुष्परसेन पानकमिदं पित्ताश्रयाणां हितं..
बालुका (रेती) को ठीकरे ( या कढ़ाई | कासं कामलपाण्डुरोगक्षतजश्वासापमर्दी भवेत् ॥ आदि ) में खूब गरम करके कांजी में डाल दें
___ लोध, सौराष्ट्री ( गोपीचन्दन ), मुलैठी, कूठ, और फिर उसे तुरन्त ही कपड़े की पोटली में बांध
और प्रियंगु समान भाग लेकर चूर्ण बनावें और कर उससे पीड़ित स्थानों पर सेक करें ।
| उसे बासे ( अडूसे ) के रसमें मिलाकर शहदसे इस सेकसे वायु, कफ, शूल, गात्रको टूटना | मीठा कर लें। ( अङ्गमर्द), कम्प, शिरपीड़ा, हृदय व्यथा, गात्र
इसे पीनेसे पित्त प्रधान कास, कामला, पाण्डु व्यथा, जम्भाई, पैरोंकी सुप्तता, पिण्डलियोंका दर्द, अङ्गसाद, हनुस्तम्भ और लोम हर्षादि का नाश
और क्षतज श्वास का नाश होता है। होता है।
( बासे का रस १ तोला, चर्ण २-१॥ माशे।) (७१५९) वाष्पयोगः
(७१६१) विजयायोगः (वै. म. । पटल ६)
(व. से. । नासा.) अनलेन सुतप्तमृत्सुपिण्डा
पुटपाकं जयापत्रं सिन्धुतैलसमन्वितम् । स्तनजाक्ताजनितः सबाष्पयोगः।। प्रतिश्यायेषु सर्वेषु शीलितं परमौषधम् ॥ अभिघातसमुद्भवं विकारं
भांग के पत्ते, सेंधा नमक और तिलका तेल नयनस्याशु विनाशयेदवश्यम् ॥ समान भाग ले कर सबको हांडीमें बन्द करके पुट
पाक करें। मिट्टीके ढेलेको अग्नि में खूब तपाकर स्त्रीके दूधमें बुझायें; और उससे जो भाफ निकले बह इसे सेवन करने से समस्त प्रकारके प्रतिआंखको लगावें। इससे नेत्रों के अभिघात जन्य श्याय नष्ट होते हैं । विकार अवश्य शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।
( मात्रा-१ माशो।)
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[वकारादि
(७१६२) विजयाशुद्धिः । आधा आधा माशा तथा शहद २ तोले ले कर
(वै. र. । वाजीकरणा.) सबको एकत्र मिला कर पीनेसे त्रिदोषज शूल तुरन्त त्रिप्रक्षालितमोहिनीदलरजः संशोषितं खर्परे
नष्ट हो जाता है। सम्यक् तं मृदुभर्जितं दृढपटे सञ्चूर्ण्य सङ्गा- (७१६५) विदार्यादियोगः (२)
लितम् ।
(ग. नि. । ज्वरा. १) सम्यक्खाखसकोटीराम्चुनि चतुर्भागे विपक्वं
विदारीक्षुरसं सर्पिर्मधु तैलं शृतं पयः ।
गवां दुग्धे चाष्टगुणे जहाति सकलान्दोषान्नृपाणां हितम्॥
पिबेच्चातुर्थकश्वासकासवातकफापहम् ॥ __भांग को ३ बार पानीसे धो कर मिट्टी के '
विदारीकन्दका रस, ईखका रस, घी, शहद पात्रमें डाल कर सुखालें और फिर उसे मंदाग्नि पर |
1 और तिल का तेल (१-१ तोला ) ले कर सबको थोड़ा सेक लें; तदनन्तर उसका चूर्ण करके, उसे |
एकत्र मिला कर, पकाये हुवे दूधमें डालकर पीनेसे कपड़े से छान कर ४ भाग पोस्तके डोटे के पानी चातुथिक ज्वर, श्वास, कास, वायु और कफका और ८ भाग गायके दूधमें पका लें। इस विधिसे नाश होता है । भांग दोष रहित और राजाओंके सेवन योग्य हो (७१६६) विभीतकयोगः जाती है।
( भै. र. । कासा.) (७१६३) विडङ्गादियोगः
विभीतकं घृताभ्यक्तं गोशकृत्परिवेष्टितम् । (व. से. । कृम्य.; वृ. मा.; ग. नि.)
स्विन्नमग्नौ हरेत्कासं ध्रुवमास्यविधारितम् ।। विडङ्गव्योपसंयुक्तमन्नमण्डं पिवेन्नरः। दोपनं कृमिनाशाय वह्निञ्च कुरुते भृशम् ।।
बहेड़े के फलको धीसे तर करके गायके गोबर
में लपेट कर अग्निमें स्वेदित करें। बायबिडंग, सैठ, मिर्च और पीपल; इनका चूर्ण मिलाकर चावलोंका मांड पीनेसे कृमि नष्ट
इसे मुंहमें रखनेसे खांसी अवश्य नष्ट हो होते और अग्नि दीप्त होती है।
| जाती है । (७१६४) विदार्या दियोगः (१)
(७१६७) विशालादियोगः (ग. नि. । शूला. २३)
( यो. र. । कामला.) विदारीदाडिमरसः सव्योषो लवणान्वितः। गोदुग्धेन विशालाया मुनिसङ्खयादलानि तु । क्षौद्रयुक्तो निहन्त्याशु शूलं दोषत्रयोद्भवम् ॥ जीरकेण युतं पेप्यं रसमेकं पलं पिबेत् ॥
बिदारी कन्द और अनारका रस (१-१ | अथवा तज्जटाद्रावं कधिं दुग्धमिश्रितम् । तोला), सेांठ, मिर्च पीपल और सेंधा नमकका चूर्ण ' पाययेत्तु प्रतिदिनमेवमेतदिनत्रयम् ॥
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मिश्रप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः घृतदुग्धौदनं पथ्यं कुर्याद्वै लवणं विना ।
(७१६९) वृन्ताकयोगः कामलां नाशयत्याशु वायुरभ्रं हरेद्यथा ॥
(यो. र. । स्नायु. ; वृ. नि. र.) ___७ नग इन्द्रायणके पत्तों और ( ३ माशे) वृन्ताकं भर्जितं भाण्डे कृत्वा दना सहोपरि। जीरेको गायके दूधमें एकत्र पीस कर ५ तोले रस
। बन्धयेत्स्नायुको बहिः पतति एवं सप्तदिनं निकालें । यह रस पिलानेसे अथवा इन्द्रायणकी जड़का
कार्यम् ॥ ७|| माशे रस दूधमें डाल कर पिलानेसे ३ दिनमें कामला अवश्य नष्ट हो जाती है ।
बैंगनको भूनकर दहीके साथ मिला कर
स्नायुक (नहरवे) पर बांधनेसे वह सात दिनमें पथ्य-घृत, दूध और भात ।
बाहर निकल आता है। अपथ्य-लवण ।
(७१७०) वेल्लादियोगः (७१६८) वृद्धदारुकाश्च्योतनम्
( यो. र. । पीनस.) ___(व. से. । बाला.)
वेल्लगोधूमभोजी च निद्राकाले च शीतलम् । स्वरसं वृद्धदारस्य माक्षिकेण समन्वितम् । जलं पिबति यो रोगी पीनसान्मुच्यते नरः ॥ आश्च्योतनेन बालानां कुकूणामयनाशनम् ॥ ___ सोनेसे पूर्व ( नासिका द्वारा ) शीतल जल
'बिधारेके स्वरसमें शहद मिला कर आंखमें पीने और गेहूंसे निर्मित आहार तथा काली मिर्च डालनेसे बालकोंका कुकूणक रोग नष्ट होता है। | सेवन करनेसे पीनस नष्ट हो जाती है ।
इति वकारादिमिश्रप्रकरणम्
इत्यो३म्
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समाप्तोऽयं
चतुर्थो भागः
कार्तिक शुक्ला ११ संवत् १९९१ वै.
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी
- Humali யாMைilMillimilianurima
l IlmutilatImtimmtumallum thanimt.ms Byiyturumilitarunniliunimillumamilyinanmiliunmanisairatswimmamisplimmunmilliummiswimmiew ,
SnileyimomhimniwidhimmiDinmanimaDHINDI
आप इस प्रदर्शिनीका अध्ययन उसी प्रकार कीजिये जिस प्रकार एक होमयोपैथ डाक्टर अपने मेटीरियामेडिकाका करता है।
फिर आपकी श्री और यशवृद्धि अवश्यम्भावी है।।
HOMmsadrimuansDHNOHRImaominal
TILLEthiHORull
timaharathiRINITIATURMEERINillahaRIMustinatil mummpitinensions aciting anvair uruwunwuniliuminiuin
BAnm
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- चिकित्सापथप्रदर्शिनी
पहिले आप
(१) निर्णय कीजिये कि रोगीको प्रधान रोग क्या है ।
(२) रोगीकी स्थिति अनुसार निर्णय कीजिये कि उसे सस्ता काथ, चूर्णादि देना है या रस भस्म, घृतादि ।
(३) रोगीके मुख्य मुख्य लक्षण कागज पर या अपने स्मृतिपट पर लिख लीजिये ।
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फिर आप
इस चि. प. प्र. में उस रोगका अधिकार निकाल कर सामने रखिये ।
उक्त रोगाधिकारमें अपने निर्णयके अनुसार काथ चूर्ण, अवलेह, घृतादिमें से अभीष्ट प्रकरण निकाल कर सामने रख लीजिये ।
उक्त प्रकरणको ध्यान से पढ़ते जाइये, जिस प्रयोगके सामने आपके कागज पर लिखे हुवे अधिक से अधिक लक्षण मिलें वही प्रयोग अपने रोगीको सेवन कराइये । ( यदि कोई बात रोगी की प्रकृतिके विरुद्ध न हो तो )
इस थोडेसे कार्यके लिये कुछ मिनिट खर्च कर दीजिये
बस फिर आप
यश और श्री के अधिकारी हो जायंगे
यदि सावधानोसे काम लिया जाय तो यह चिकित्सा पथ प्रदर्शिनी नवीन वैद्योंके लिये सफलताको
कुंजी और पुराने अनुभवी वैद्योंके लिये श्रेष्ठ स्मारकका काम देगी ।
वैद्य गोपीनाथ गुप्त
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नम्बर
५०२३ मातुलुङ्गरसादि विसूचिकानांशक योगः सरल योग ।
""
नाम. प्रयोग संक्षिप्त गुण कषाय-प्रकरणम्
६२०० लवङ्गादिकाथः ६५३७ विश्वादिकषायः कफज अग्निमयं ।
६५४०
विसूचिका, आध्मान |
39
५९१२ रामठाद्यं
६२१२ लघुचित्रकादि चूर्णम्
૧૦૪
चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी
१ अग्निमांद्याजीर्णविसूचिकाधिकारः
चूर्णप्रकरणम्
५११५ मरिचाद्यं चूर्णम् अग्निदीपक
५१२९ मातुलुंगााद,,
"
६२१६ : लघुवैश्वानर,, ६२२५ लवङ्गादि
६२२६ लवङ्गांचं,,
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अजीर्ण नाशक, रेचक |
"
19
अत्यन्त अग्निवर्द्धक
१ सप्ताह में अग्निदीत करके अर्श को नष्ट कर
देता है।
अत्यन्त अग्निदीपक
शूल, भयंकर विसूचिका.
अतिसार, वमन. अग्निवर्द्धक, रोचक, सुगन्धित, राजाओंके
६२३४ लशुनाद्यं चूर्णम् विसूचिका में अत्युपयोगी ६२४४ लोलिम्बराज- अफारा, आम, शूल, चूर्णम् गुल्म ( अत्यन्त पाचक)
६५९२ वडवानल चूर्णम् अग्निदीपक
६५९४
"
६५९५ वत्सकादि ६६०८ विडंगादि ६६३० विश्वभेषज ६६३९ विश्वादि चूर्णम् ६६४९ वृपद्वादशक ६६४५ वृहद सुख
""
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"
६२४९
योग्य, पाचक तथा ६६७० वार्ताकुगुटिका
पौष्टिक.
19
""
39
६६५० वैश्वानर चूर्णम् ६६६२ व्योपाद्यं
६६६३
33
13
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अजीर्ण नाशक, अग्नि
दीपक
अग्निदीपक, शूलनाशक
अत्यन्त अग्निदीपक .
क्षुधावर्द्धक, शूलनाशक अग्निदीपक
. अजीर्ण, आनाह, गुल्म
अजीर्ण, अग्निमांथलीहा
( अत्यन्त अग्निदीपक) अत्यन्त अग्निवर्द्धक
अग्निदीपक
29
६२४६ लवङ्गादिगुटिका अग्निदीपक, वृष्य
वटी
अग्निदीपक
भोजनको शीघ्र पचाती
तथा प्रतिश्याय और
सर्वरोगनाशक
गुटिकाप्रकरणम्
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८२६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[अनिमांध
-
विसूचिका आदिको नष्ट करती है।
रसप्रकरणम्
-
घृतप्रकरणम्
५२२३ मस्तुषटपलघृतम् अग्निमांद्य, कफ, गुल्म ६७४८ विदारीवृतम् भस्मक.
तैलप्रकरणम्
५३१७ मिश्याचं तैलम् खल्लीशूल
आसवारिष्ट-प्रकरणम्
५३३८ मुस्तकारिष्टः
भयंकर विसूचिका, अजीर्ण, अग्निमांध.
५५९१ महोदधि रसः अग्निमांध ५५९२ ,, अग्निमांद्य, अफारा, शूल ६०४५ रविसुन्दरवटी अजीर्ण, ज्वर ( अग्नि
वईक) ६१३६ राजवल्लभरसः अजीर्ण, अग्निमांप। ६१३९ राजशेखरवटी अग्निमांध, वायु, शूल ६१४९ रामबाण रसः अजीर्ण ६१५८ रोगेभसिंह श्री- अजीर्ण, शीत
खण्डवट्यौ ६३४० लघुक्रव्याद रसः अजीर्ण ६३५४ लवङ्गाधमोदकम् अग्निमांद्य, अजीर्ण, ६९४३ वडवाग्नि रसः अत्यन्त अग्निवर्द्धक ६९४५ वडवानलगुटिका क्षुधा वैषम्य, अग्निमांध ६९५० वडवानल रसः विचिका, अग्निमांच ६९५२ , , अग्निमांद्य ६९५३ , ,, , ६९५७ , वटी अग्निमांद्य, अरुचि,
विसूचिका ६९५८ वडवामुखी गुटी अग्निवैषम्य ( शीघ्र
अग्नि दीपक) ६९७७ वह्नि रस: अग्निमांध, शूल ६९७८ वहिसूतो रसः अग्नि दीपक ७०१० वारिभक्त बटिका आमाजीर्ण ७०२१ विजय रसः अजीर्ण ७०४२ विद्याधरमण्डूरम अग्निमांद्य, प्रहणी
विकार. ७०५२ विध्वंस रसः विषूचिका
लेप-प्रकरणम्
५८०६ यवपिष्ट लेपः
दुस्तर उदरशूल
अञ्जन-प्रकरणम्
६८८० विचिकानाशन विधुचिका
गुटिका
६८८३ व्योषायननम्
॥
नस्य-प्रकरणम्
६८९० व्योषादिनस्यम् विषूचिका
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अतिसार]
चतुर्थों भागः
८२७
छर्दि
७०७१ विश्वोद्दीपकाभ्रम् पुरानी मन्दाग्नि, शूल, ७१३७ वैश्वानर पोटली अग्निमांद्य
। ७१३९ , , ,, ज्वर, उदर रोग ७०७२ विष गुटिका अग्निमांद्य, क्षय ७०८९ विसूचिकाविध्वंस विषूचिका और त्रिदोषज उपद्रव युक्त
मिश्र-प्रकरणम् अतिसारको शीघ्र नष्ट
करता है । ५६८६ मण्ड योगः क्षुधा तथा रक्त वर्द्धक, ७०९३ वीरभद्राभ्रकः अग्निमांद्य, अरुचि, व
बस्तिशोधक मन आदि. ६१८६ रास्नादिमर्दनम् खल्ली शूल ७१३३ वैश्वानरपोटली अग्निमांद्य ६१८७ रास्नाद्यङ्गमर्दनम् ,
२-अतिसाराधिकारः
कषाय-प्रकरणम् .५०३९. मुदगादिकषायः अतिसार, दाह, छर्दि- ६२११ लोधादि योगः रक्तातिसार
नाशक सरल योग- ६४७० वचादि कषायः वातातिसार ५०४६ मुस्तक काथः प्रवृद्ध अतिसार पर ६४७३ वचादि गणः आमातिसार नाशक, सरल योग
दोष पाचक ५०६० मुस्तादि , पित्त कफज अतिसार ६४७६ वटजटा प्रयोगः नवीन अतिसारको ५०६२ , , अतिसार, शोथ, ज्वर,
शीघ्र नष्ट करता है। हल्लास
६४७८ वत्सकादिकषायः आमातिसार ५०६७ , , पित्तातिसार ६४८२ , क्याथः शूल युक्त पुराना ५०७१ , , पित्त वातज अतिसार
रक्तातिसार ५०७६ , प्रमथ्या रक्तातिसार नाशक
६५२५ विडंगादि क्वाथः शोथातिसार सरल योग
६५२६ , योगः आमातिसार (रेचक) ५७२८ यवान्यादि दीपन दीपन, पाचन
६५२७ विजल स्वरसः आमातिसार कषायः
६५३२ विश्वादि कषायः , ५७३४ यष्टयादि क्वाथः रक्तातिसार
६५५१ वृहच्छालिपादि अतिसार मात्र ५८९८ रोहिण्यादिपाचनः अतिसार
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૮૨૮
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[अतिसार
चूर्ण-करणम्
६७११ विजयावलेहः समस्त प्रकार के
अतिसार. ५०९८ मधुकादि योगः पित्तातिसार ५१५७ मेघनादादिचूर्णम् रक्तातिसार
घृत-प्रकरणम् ५७५८ यवानी चूर्णम् . शूल युक्त अत्यन्त
प्रवृद्ध अतिसार ५२३३ महाचाङ्गेरीधृतम् अतिसार, प्रवाहिका, ५७६८ यष्टयादि चूर्णम् पित्तातिसार ।
अरुचि, शूल, ज्वर, ५९०५ रसाञ्जनादिचूर्णम् , शूल
छर्दि, अग्निमांद्य । ५९१३ राल योगः पुगना अतिसार ६७३१ वत्सकादि ,, अतिसार ६२१३ लघुचेतकीयोगः अतिसार पर उत्तम ६७३२ ,, , पित्तातिसार (दीपन, ६२१९ लध्वीमाई चूर्णम् आम, शूल, विशेषतः
पाचन) रक्तातिसारपर अनुभूत ६२४१ लोध्रादि चूर्णम् पक्वातिसार
रस-प्रकरणम् ६५७३ वचादि , आमातिसार ६५८२ ,, . , वातातिसार में उत्तम
५५२१ मरिचादि वटी समस्त अतिसार ६५८६ वचाद्य , कफातिसार
५५३९ महा गन्धकम् अतिसार, प्रवाहिका,
५५६३ महा रस: वातातिसार गुटिका-प्रकरणम्
५६०९ मुक्ताभस्मयोगः अतिसार (सरलयोग) ५१६७ मलपाचनीगुटिका अतिसार, मल, आम
५६१५ मुरतादि गुटी अतिसार, प्रवाहिका ६६६६ वत्सकाया , हर प्रकार के अतिसार
६११९ रसायनामृतरसः अतिसार, ज्वरादि . संग्रहणीको शीव नष्ट
६३५१ लवङ्गादि वटी प्रवाहिका,कोष्ठस्थ वायु करती है । अग्नि दो
। ६३७६ लोकनाथ रसः समस्त अतिसार . पक है।
। ६३८१ लोकेश्वर , हर प्रकारके अतीसार ६६८० वृहदकोल वटकः समस्त अतिसार
और प्रवृद्ध संग्रहणीको
शीघ्र नष्ट करता है। अवलेह प्रकरणम्
। ७०६५ विश्वादि वटी पक्वापक्व, नूतन,
पुरातन और शूलयुक्त ५१९४ मधु हरीतकी आमातिसार, शूल
अतिसारको अवश्य नष्ट ६६९९ वत्सकावलेहः रक्तातिसार
करता है।
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अपस्मारोन्माद]
चतुर्थों भागः
m
mm
...........--
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७ १०७ वृहत्कनकसुन्दरो उग्र पित्तातिसार ..
मिश्र-प्रकरणम् ::.:६१६९ रक्तचन्दनादि रक्तातिसार, दाह, रसः ७११४ वृहद्गगनसुन्दर आमातिसार, शूल, र योगः
मोह, तृषा क्तातिसार, पिच्छला- ६४४५ लघुपञ्चमूल... अतिसार तिसार, शोथ.
सिद्धान्नम्
-रसः
(३) अपस्मारोन्मादाधिकारः कषाय-प्रकरणम्
५२२५ महाकल्याणघृतम् अपस्मार, उन्माद,
वर, अग्निमांद्य, कास ४९८७ मदनफलादियोगः अपस्मार, (वामक) ५२२६ , उन्माद, अपस्मार, ५००२ मध्वादि योगः : उन्माद,
ज्वर, कृशता ५०४५ मुस्तकमूल योगः अपस्मार
. ५२३४ महाचैतसंवृतम् अपस्मार, उन्माद, ६१९७ लज्जालु योगः "
कास, श्वास, प्रति६२०२ लशुन योगः ,
श्याय चूर्ण-प्रकरणम् - ६२७१ लशुनाचं दोषज तथा आगन्तुक
उन्माद, अपस्मार, वि. ५१०४ मधुवचा योगः पुराना अपस्मार (स.
षम ज्वर रल. योग)
६२७२ , ,, उन्माद, वात कफज ६५७६ वचादि चूर्णम्' 'पुराने और भयंकर
रोग, ज्वरादि । अपस्मारको भी अवश्य
६७२८ वचा , अपस्मार मष्ट करता है।
घृत-प्रकरणम्
अञ्जन-प्रकरणम् । ५४४१ मनःशिलाद्यञ्जनम् उन्माद, अपस्मार
५८२० यष्टयाधञ्जनम् " "
५२१६ मधूक वृतम् .. पित्तापस्मार
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[अम्लपित्त
-
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- --
(४) अम्लपित्ताधिकारः
कपाय-प्रकरणम्
| ६१२२ रसेन्द्र गुटिका सैकड़ों वैद्योंसे न आ५७२२ यवादि काथः अम्लपित्तकी वमन
राम होनेवाला अम्लपित्त ५७२४ , अम्मपित्त, अरुचि,
६१२३ ,, अम्लपित्त, क्षय वमन
| ६३६७ लीलाविलासरसः अम्लपित्त ६५०९ वासादिकषायः कफोल्वा अम्लपित्त
। ६३६९ ,, ,, अम्लपित्त, छर्दि, हृद६५१६ , , अम्लपित्त
यकी दाह
रस-प्रकरणम् ६११६ रसामृत चूर्णम् अम्लपित्त, परिणाम
शूल, अग्निमांच
मिश्र-प्रकरणम् ५१०१ मधुपिप्पली योगः अम्लपित्त (सरलयोग)
(५) अरोचकाधिकारः
चूर्णम्
चूर्ण-प्रकरणम् ५१२३ महापाडवं अरुचि, कण्ठ रोग, ७१३८ वैश्वानर रसः अरुचि, कास
चूर्णम् मुख रोग, कृमि ५७५७ यवानी षाडवं अरुचिको अवश्य नष्ट
मिश्र-प्रकरणम् करता, जिहाशोधक है। ५७०१ मातुलुङ्गादि भरुचि
कवलः रस-प्रकरणम्
५७०५ मुखधावन योगौ ,
५७०७ मुखधावन योगः मतज अरुचि ६०५४ रस केशरी समस्त प्रकारकी अ- ६१८१ राजिकादि शिख- रोचक, दीपक रुचि, शूल
रिणी
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अर्बुद]
चतुर्थो भागः
-
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(६) अर्बुदाधिकारः प-प्रकरणम्
अर्बुदको नष्ट करने ५४१७ मूलकक्षारादिलेपः अर्बुद
वाला सिद्ध योग ५४१८ , बीजादि , अर्बुद, गण्डमाला
रस-प्रकरणम् ६८४५ वटादि , सात दिनमें प्रवृद्ध ६१६१ रौद्र रसः अर्बुद
(७) अशोधिकारः
कपाय-प्रकरणम | ५९२६ रसाअनादि वटी रक्तारी ६५२३ विडङ्गादिकाथः अर्श, शोथ, अतिसार ६२४५ लघुशरण अर्श (अत्यन्त दीपन
__ मोदकः पाचन) चूर्ण-प्रकरणम्
६२५४ लागल्यादि , कफज अर्श ५१०८ मरिचादि चूणम् वातारी
६६७८ वृद्ध दारु , ६ प्रकारका अर्थ ५१२२ महानिम्बबीज रक्तार
६६८३ व्योषादि गुटिका अर्श, त्वग्दोष योगः ५१५३ मुशल्यादि योगः भी
गुग्गुलु-प्रकरणम् ५७५१ यवक्षारादिचूर्णम् अर्शगत अग्निमांप ५७७७ योगराजगुग्गुलुः अर्श, अरुचि, नाभि
५७७७ योगराजलः । ६२३२ लवणोत्तमादि अर्श
शूल, अग्निमांद्य चूर्णम् ६२३८ लाक्षादि योगः रक्तार्श
अवलेह-प्रकरणम् ६६३८ विजय चूणम् अर्श, शोथ; कास, ज्वर ५१८९ मधुपक्व हरीतकी त्रिदोषज भी ६६५६ व्योषादि चूर्णम् अर्श, शोथ, मलावरोध, अग्निमांथ
घृत-प्रकरणम्
५२१४ मधुकादि घृतम् अर्श, अतिसार, संग्रगुटिका-प्रकरणम्
हणी, ज्वर, अरुचि, ५१६३ मरिचादि मोदकः अर्श
गुदभ्रंश, अफारा ५१६४ , वटी रकार्य
६२६७ लघु चव्यादि अर्शनाशक, ग्रहणी ५१६६ मरिचाया गुटिका अर्थ
घृतम्
दीपक
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८३२
भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[अर्श
:
मांद्य
६२७७ लघुकासीसाद्यं अर्शके मस्से ५४७७ मण्डर योगः अर्शके मस्सों पर दघृत.
बाव पड़नेसे होने वाला ६७६८. व्योषायं घृतम् अर्शके मस्सोंको नष्ट
रक्तस्राव शीघ्र बन्द करता है।
हो जाता हैं।
५५५३ महा पर्पटी रसः अर्श, गुदपीडा, आग्नतैल-प्रकरणम् ६७७८ वज्रकं तैलम् अर्श तथा गण्डमालामें-- ५५९६ माणशूरणाद्य अश
अत्युपयोगी है।
५६२७ मूलकुठार रसः अर्श, अग्निमांद्य ६८१८ वृहत्कासीसाधं मस्सेको गिरा देता है। --
६०५९ रस गुटिका अर्श तैलम
७०४५ विद्याधर लोहम् सोपद्रव अर्श
७१२७ वैक्रान्ताख्य रसा- हर प्रकारका अर्श आसवारिष्ट-प्रकरणम्
यनम् ६२९७ लवङ्गासवः अश, शोथ, अरुचि, .: ज्वर, पाण्ड
मिश्र-प्रकरणम्
६१७३ रजनीचूर्ण योगः मस्सोंको काटने वालो धूप-प्रकरणम्
डोरा ६००२ रालादि. धूपः .... अर्शका रक्तस्राव
| ६१८९ रास्नायुपनाहः वेदनाको शमन और
मस्सोंको नष्ट करने रस-प्रकरणम्
वाली पुल्टिस ३४३६ लोहादि मोदकः ..अर्श
७१५७ वार्ताक योगः मस्सोंको नष्ट करता है।
(८) अश्मरिशर्कराधिकारः
कषाय-प्रकरणम्
६४९० वरुणादि कषायः-अमरि, शर्करा ५०३२ मालतीमूल यागः अश्मरी, मूत्र रोकनेसे ६४९१ , पुरानी वातज अश्मरि
___ उत्पन्न पीड़ा ६४९२ ,, , अश्मरि पातक, बस्ति ५७४१ यूथीमूल ,, अश्मरि, शर्करा, सशूल
मूत्रकृच्छ । ६४९४ , क्वाथः अश्मरीपातक
शल नाशक
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अश्मरि ]
६४९७ वरुणादिक्वाथः घोरतर, पत्थर के समान
कठिन और पीड़ादायक अश्मरि; अग्निमांद्य
६५६० वृहद्वरुणादि अश्मरी, बस्ति और मूत्रनलीकी पीड़ा
क्वाथः
चूर्ण-प्रकरणम्
५९०२ रजन्यादि चूर्णम् पुरानी और प्रवृद्ध शर्करा
६५९८ वरुणादि
६७०० वरुणक गुडः
५८७३
५८८०
५८८१
५८८२
૧૦૫
"
""
39
GO
"
39
. अवलेह - प्रकरणम्
कषाय-प्रकरणम्
५०१४ महौषधादिक्वाथः सशोथ आमवात, कटि पीड़ा ५८६७ रास्नादि क्वाथः आमवात, उरुस्तम्भ,
जठररुजा
अनेक प्रकारकी सन्धि
पीड़ा, आमवात.
आमवात
""
12
""
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17
चतुर्थी भागः
कठिन अमरीको भी ष्ट करता है ।
अश्मरीको शीघ्र निकाल देता है ।
""
सर्वांगगत तथा सप्तधातुगत आमवात
६७३५ वरुणाद्यं
(९) आमवाताधिकारः
घृत-प्रकरणम्
५७९० यवादि घृतम्
अश्मरी
६७३३ वरुणादि शर्करा, अश्मरी,
"
"
""
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तैल-प्रकरणम्
६७८२ वरुणाद्यं तैलम् शर्करा, अश्मरी, मूत्र
कृच्छ्र; शूल
६८१६ वीरतर्वादि
५८८६ रास्नादि काथ:
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५८९० रास्ना पञ्चकम
८३३
रस-प्रकरणम्
५४६८ मञ्जिष्ठादिचूर्णम् अश्मरीको अवश्य निकाल देता है ।
५८९२ रास्ता सप्तकम्
त्रकृच्छ्र
कफज अश्मरी
""
मू
५८८८ रास्नादिदशमूलम् आमवात
५८८९ रास्नाद्वादशक - जानुस्थित आमवात,
कषायः
कटि ऊरु और त्रिक
पीड़ा
सशल आमवात, पार्श्व
A
पीड़ा
आमवात, सन्ध्यस्थि मज्जागत वायु आमवात, जंघा उरु पृष्ठ पार्श्व और त्रिशल
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[आमवात
-
चूर्ण-प्रकरणम्
पाक-प्रकरणम् ६६४९ वैश्वानर चूर्णम आमवात, मलावरोध, ५२०८ मेथी पाकः आमवात, वात व्याधि, अफारा आदि
शिरशूल
गुटिका-प्रकरणम्
घृत-प्रकरणम्. ५१७३ महारसोनपिण्डः आमवात. वात- ५९४९ रास्नाचं घृतम् सर्वदोषज आमवात, रोग, योनिशल
पार्श्व शल, पाद शूल, ५९२७ रसोन पिण्डः आमवात, समस्त वा.
मन्या शूलादि तज रोग
तल-प्रकरणम् गुग्गुलु-प्रकरणम्
। ५९५७ रसोनाद्यं तैलम् आमवात ५७७८ योगराजगुग्गुलु: आमवात, वातव्याधि, अस्थि मज्जागत वायु
__ आसवारिष्ट-प्रकरणम् ५७८२ , ,, (वृहद्) आमवात, सन्धिशल, | ५९९८ रसोन सुरा आमवात, आनाह, क्रोष्टुशीर्ष, कटिभग्न
पाण्डु आदि ६६८९ वातारि गुग्गुलुः आमवात, कटिशूल, दाहयुक्त क्रोष्टुशीर्ष,
रस-प्रकरणम् (बहुशोऽनुभृत उत्तम ५६३० मृगशृंगभस्म- हृदय तथा नितम्ब
योगः पीड़ा ६६९३ व्याधिशार्दूलो- आमवात, सन्धिवात, ६१४९ रामबाण रसः आमवात गुग्गुलुः
७०३६ विडंगादिलौहम् आमवात, शोथ, अग्नि६६९६ व्योषाद्या गुटिका सन्धि अस्थि मज्जागत गुग्गुलुः आमवात, भग्न, जठरा- ७०९७ वृद्धदाराबलोहः आमवात जनित समस्त
ग्निदीपक.
योग)
मांध
रोग
(१०) उदररोगाधिकारः कषाय-प्रकरणम्
चूर्ण-प्रकरणम् ५०३५ माहिषक्षीर मूत्र- शोथोदर ५११२ मरिचादिचूर्णम् उदररोग, प्लीहा, गुल्म, योगः
अग्निमांद्य,
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उदररोग]
चतुर्थों भागः
५१२० महाक्षारः गुल्म, प्लीहा, आदि।
(विरचन होकर आम ५९२२ रोहित्कादियोगः प्लहा, गुल्म, कृमि ।
और कृमि निकल जातेहैं) ६५९१ वडवानल क्षारः उद्ररोग, गुल्म, शूल. ६०६७ रस पर्पटी उदर रोग, गुल्म, आम ६६२६ विशालादिचूर्णम् उदर रोग
शूल, मल | ६९१६ बङ्गेश्वर रसः प्लीहा, उदर रोग, गुल्म घृत-प्रकरणम्
६९२९ वज्रघन रसः समस्त उदर रोग
७१३५ वैश्वानर रसः
उदर रोग ५७८९ यवादिघृतम्
जलोदर ६७३८ वहिषट्प्रस्थवृतम् वातोदर, जलोदर. तीहा ७१४१ वैश्वानरी वटी कफोदर
तैल-प्रकरणम् ६२८३ लशुन तैलम् उदर रोग, यकृत् ,
____ प्लीहा, आमवात ।
रस-प्रकरणम् ५५७३ महावीर रसः समस्त उदर रोग
(विरेचक) ५५७४ महावह्नि रसः उदर रोग, मूढवात
(विरेचक) ५६६९ मेघनाद रसः शोथोदर, जलोदर,
मिश्र-प्रकरणम् ५६९७ महा द्रावकम् प्लीहा, यकृदादि ५६९८ ,, ,, गुल्म, उदर, यकृत,
प्लीहा ५६९९ , द्रावकरसः समस्त प्रकारके पुराने
उदर, गुल्म, शोथ,
यकृत् , प्लीहादि ५७०२ मान मण्डः वातोदर, शोथ, ग्रहणी,
पाहु ६१७४ रम्भाक्षार सिद्ध ३ दिनमें उदररोगको
विलेपी नष्ट करती है।
(११) उदावर्ताधिकारः
घृत-प्रकरणम् ५२६५ मूलकाद्यं घृतम् उदावर्तको अवश्य नष्ट
करता है। ६७५५ विश्वादि घृतम् उदावते, चर, गुल्म
तैल-प्रकरणम् ६२८३ लशुन तैलम् उदावर्त, उदर
लेप-प्रकरणम् ६८५० वल्मीकादि लेपः उदावर्त नाशक, वाता
नुलोमन
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ उदावत
उदावर्त ।
उदावर्त, वातज-गुल्म,
मिश्र-प्रकरणम्
५८४४ यवक्षारादि
- यवागू ५६८७ मदनादि फल अफारा, गुदपीड़ा,
| ६४४७ लशुन क्षीरम वतिः उदावर्त, वायु
- *(१२) उपदंशाधिकारः
शोथ
कपाय-प्रकरणम्
५९८३ रसांजनादि लेप उपदंशके व्रण ५७२९ यवासकादि उपदंशके त्रण | ६३१६ लोध्रादि , , , प्रक्षालनम्
६३२१ लोहादि , , ,
६८४३ वटपरोहादि ,, , , गुटिका-प्रकरणम् ५१६९ महाक्षारवटी उपदंश
रस-प्रकरणम् गुग्गुलु-प्रकरणम्
६०४८ २सकर्पूरगुटिका उपदंश
६०४९ , योगः उपदंश ( मुख पाक ६६८८ वरादि गुग्गुलुः उपदंश वग, रक्तदोष
__ नहीं होता)
६०५५ रस गन्धकतैल-प्रकरणम्
- कजलीयोगः उपदंश ५२७८ मधुकादितैलम् उपदंशके व्रण ६०५७ रस गुग्गुलुः उपदंश, कुष्ट, वातज
व्रण लेप-प्रकरणम्
६०८० रसमर्दनयोगः हाथों पर मलनेसे उप५४२६ मोचरसादि लेपः उपदंशके व्रण, गर्मी
दंश नष्ट होता है। ५९८१ रसाञ्जनादि , दुर्गन्धि पोप और खाज ६०९४ रस शेखरः उपदंशके व्रण, वाले उपदंशके वण
विस्फोटक
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उरःक्षत
चतुर्थों भागः
(१३) उरःक्षताधिकारः
रस-प्रकरणम्
कषाय-प्रकरणम्. ५९०० रोहिषादि काथः उरःक्षत सम्बन्धी रक्त
ष्ठीवन
६०८५ रसराजः
उरःक्षत नाशक, काम
चूर्ण-प्रकरणम् ६६३६ लाक्षादि चूर्णम् उरक्षित, रक्तवमन
वर्द्धक
(१४) कर्णरोगाधिकारः
कपाय-प्रकरणम्
६७८१ वरुणादि तैलम् पूतिकर्ण रोग ५८५९ रसोनरस:- ___ कर्ण पीड़ा पर ६७८३ वंशावलेखादि,, कर्णशूल
स्नुही रसश्च सरल योग ६८०५ विषगर्भ तैलम् दुःसाध्य कर्ण शूलको ६२०५ लशुनादिस्वरसः कर्णशूल
शीघ्र नष्ट करता है।
६८१९ वृहत्किङ्किणी पूतिकर्ण, कर्णस्राव, घृत-प्रकरणम्
तैलम् कर्णनाद, कानकी ५७९१ यष्टिमधुकादि पित्तज कर्णशूल
खुजली, कर्ण शोथ,
भयंकर वधिरता घृतम्
लेप-प्रकरणम्
५४१५ मुशल्यादि लेपः कर्णपाली वर्द्धक - तैलप्रकरणम् ५८०३ यष्टयादि तैलम् कर्णशूल, दाह
रस-प्रकरणम् ६२७८ लघुक्षार , बधिरता, कर्णशूल, ७०७९ विषयोगः कर्णस्राव, शूल और कर्णकृमि कर्णस्राव
कण्डूको शीघ्र नष्ट ६२८४ लशुनाद्यं ,, वधिरता
करता है। ६२९१ लाङ्गल्याद्य, कर्णस्राव, कर्णकृमि,
मिश्र-प्रकरणम् और कानके दुष्ट नाड़ी ५७११ मूत्र योगः कर्णशूल ब्राको शीघ्र नष्ट ६१७८ रसाञ्जनादि स्रावयुक्त पुराना करता है।
योगः पूति-कर्ण रोग
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८३८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[कासश्वास
(१५) कासश्वासहिकाधिकारः
गणः
कषाय-प्रकरणम्
५९२१ रेणुकाद्यं चूर्णम् स्वास, हिक्का, ५०२१ मातुलुंगरसादि हिचकी
ज्वर, पार्श्व शूल योगः
६२१४ लघुतालीसादि ,, कास, अरुचि, छर्दि, ५८५५ रम्भादियोगः स्वास
क्षय. ६५०६ वासादिकषायः ज्वर, कास ६५९९ वर्षाभ्वादि , रक्तष्ठीवी कास ६५०८ , , कास, श्वास ६६०९ विडंगादि चूर्णम् श्वास, कास, ज्वर ६५२८ विदारी गन्धादि कास, श्वास अङ्गमर्द ६६२२ विडंगाद्यं , कास, हिक्का, वातव्याधि
६६३२ विश्वादि , हिका ६५६७ व्याघ्रयादिकषायः श्वास
६६३५ विश्वादि , वातजकास, स्वास
। ६६४३ वृहच्छर्करासम , कास, अरुचि, अग्निमांद्य चूर्ण-प्रकरणम्
६६४४ वृहत्तालीसादि , क्षतजकास, श्वासादि ५०९१ मञ्जिष्ठादिचूर्णम् क्षतज कास ५०९४ मधुकादि , पित्तज ,, ५०९६ , , क्षतज ,
गुटिका-प्रकरणम् ५१०२ मधुयष्टिकादि ,, ,, ,, रक्तपित्त, क्षय
१५१६२ मरिचादिगुटिका पीपयुक्त भयंकर कास ५१०६ मधूकादि , कास, सन्धि पीड़ा,
५१७७ मार्कण्डीपत्र , कास अस्थि पीड़ा.
५९२९ राजिकादिगुटी श्वास, कास ५१०९ मरिचादि , सर्वकास
६२४७ लवङ्गादि गुटी , कफ ५१११ ,, , कास श्वासपर सरल
योग
६२४८ " " " " ५११७ मर्कटी बीजयोगः श्वासपर सरल योग
| ६२५० , वटी कासको ८ घडीमें नष्ट
करती है। ५१२५ मागध्याचं चूर्णम् हिक्का, श्वास, पीनस.
६६८२ व्योषादिगुटिका समस्त कास, पीनस, कफ, ज्वर.
स्वरभेद ५१४६ मुस्तादि , कास ५१४९ मुस्ताद्यं
। ६६८५ व्योषान्तिका कास, पीनस, कण्ठा
, ५१५३ मूर्वाचं
गुटिका वरोध , " ५७६७ यष्टयादि , हर प्रकारकी हिक्का
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कासश्वास
चतुर्थों भागः
८३९
अवलेह-प्रकरणम्
५९४५ रास्नाद्यं घृतम् ५ प्रकारकी कास,
शिरोकंरन ५१८८ मधुकादिलेहः क्षतज कास ५१९८ मागधिकादिलेहः कासमें अत्युपयोगी
६२६६ लघुकण्टकारी ,, ५ प्रकारकी खांसी
६७३९ वासा घृतम् पत्तजकास ५१९९ मातुलुङ्गादिलेहः पित्तज कास ६२६० लाक्षायोऽवलेहः पित्तोल्वणक्षतज कास
६७६७ व्योषाद्य घृतम् कफज कास ६७०८ वासावलेहः कास, दारुण श्वास,
तैल-प्रकरणम् पाश्वेशूल, ज्वर ६७१५ विश्वादिलेहः दुःसाध्य वातज कास
६७८९ वासा चन्दनाय कास, ज्वर, क्षय आदि
तैलम् ६७१६ विश्वाचवलेहः , , , ६७१८ वृहत्कुलत्थगुडः कफजकास, श्वास,
आसवारिष्ट-प्रकरणम् पारवे शूल, ज्वर, स्वर | ५३३७ माचिकासवः कास, श्वास, उग्रराजक्षय, तृषा, वमन
यक्ष्मा, गलरोग ६७१९ वृहदगस्त्यहरी- श्वास, कास, अरुचि, तकी ज्वर, स्वर भंग, क्षय
धूम्र-प्रकरणम्
| ५४३६ मनःशिलादि सैंकड़ों योगोंसे न नष्ट ६७२१ व्याघ्री जीरका- तमक श्वास, ऊर्ध्ववात
__धूमः होनेवाली भयंकर कास
३ दिनमें नष्ट हो वलेहः
जाती है। ६७२२ व्याघ्रीहरीतक्य. कास नाशक, स्वर
५४३७
महाकास वलेहः अग्नि वर्द्धक ।
६००५ रात्र्यादि धूमः कास ६७२४ व्योषादि लेहः कफज कास
६.७२ वारुणी पत्र ,, कासको तुरन्त नष्ट
करने वाला सिद्ध योग घृतप्रकरणम्
६८७३ विदुली दल योगः कास ५२१७ मनःशिलादि हिका
नस्य-प्रकरणम् घृतम्
| ५४५२ माक्षिकाविट् हिक्का ५२५५ मातुलुङ्गादिघृत भयंकर हिक्का
नस्यम् ५२५६ ,, ,, श्वास, कास, हिका, | ५४५३ मधुकादि , पार्श्वशूल
५८२१ यवकादि ,, ५७९४ यष्टयादि , क्षतज कास
(अनि
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८४०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[कासश्वास
-
रस-प्रकरणम्
६१५४ रुद्र पर्पटी वातज कास ५५३७ महा कालेश्वरो कास, श्वास, कण्ठ ६३३४ लक्ष्मीविलास क्षयकी खांसी, ज्वर, रोग, ज्वर, क्षय
रसः श्वास ५५८२ महाश्वासारि महाश्वास, पञ्चकास ६३७० लोकनाथपोटली श्वासको ३ दिनमें नष्ट लौहम्
रसः करता है। ५५८६ महाहेमगर्भरसः राजयक्ष्मा, कास ६३७१ लोकनाथपोटली कास, श्वास, निर्ब५६०७ मुक्तादि चूर्णम् हिका, श्वास, कास
लता, शोथ, ज्वर, ५६१० मुक्ताभस्मयोगः हिक्का
अग्निमांद्य ५६६४ मेघडम्बर रसः हिका, श्वास, ज्वर ६३८३ लोबानसत्वयागः श्वास कास नाशक उत्तम ६०५८ रस गुटिका श्वास, कास ६९५९ वत्सनाभोद्या कफको अत्यन्त शीघ्र ६०६८ रस पर्पटी राजयक्ष्माकी खांसी गुटिका नष्ट करती है । ६१०२ रसाञ्जनादिचूर्णम् , । ७०२३ विजय वटी कास, स्वास, दाह, ज्वर ६१२४ रसेन्द्र गुटिका कास, भयंकर श्वास, ७१६६ विभीतक योगः कासको अवश्य नष्ट मलावरोध, अग्निमांद्य
करता है।
(१६) कुष्ठ-वातरक्त-रक्तविकाराधिकारः
कपाय-प्रकरणम् । ४९८३ मंजिष्ठादि (वृद्ध) उपदंश, स्लीपद, वात४९७६ मञ्जिष्ठादिक्वाथः खाज, दाद, खुजली,
रक्त, प्रसुप्ति, आंखोंकी विसर्पादि
गर्मी ४९७८
, समस्त कुष्ट ५०१७ मांस्यादि गणः कण्ड ४९७९ , कण्डू, विस्फोटक,
५०६३ मुस्तादि काथः कफ प्रधान वातरक्त अलसकादि
५०६९ , " , वातरक्त, कण्ड, मण्ड. ४९८०
" " " लादि
(सरलयोग) ४९८१ , , कपालिका कुष्ट, रक्त. ५८६३ राज वृक्षादि कुष्ठ (लघु) मण्डल, वातरक्तादि ।
पाचन-काथः ४९८२
वातरक्त, वातपित्त ५८७८ रास्नादि काथः सवाग गत वातरक्त
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कुष्ठ, रक्तविकार ]
चतुर्थों भागः
-
करता है।
६१९५ लघु मंजिष्ठादि- वातरक्त, कुष्ठ | ६७१२ विडङ्गादि लेहः किटिभकुष्ठ, श्वित्र, दाद काथः
६७१४ विडङ्गाधवलेहः कुष्ठ, कृमि, भगन्दर, ६४८४ वत्सादन्यादि- वातरक्त
नाड़ीत्रण कषायः ६५१९ वासादि क्याथः सागमें व्याप्त वातरक्त
घृतप्रकरणम् ६५२० ,, , वातज कुष्ठ
५२३१ महाखादिरं घृ० समस्त कुष्ठोंमें अत्यु
पयोगी चूर्णप्रकरणम्
५२३२ . गुडूची , भयंकर वातरक्त, दाह, ६२३५ लाक्षादि चूर्णम् १ मासमें कुष्ठको नष्ट
उरुस्तम्भ
५२३५ ,, तिक्तकं ,, कुष्ठ, विसर्प, वातरक्त, ६२३९ लाङ्गल्यादिचूर्णम् व्यथा, पादस्फुटन, मर्म
विस्फोटक, पामा, पीड़ा आदि उपद्रव
पिडिका आदि युक्त वातरक्त. ५२३६ . , कुष्ठ, विस्फोटक, कि६५९७ वरादि , कुष्ट, कृमि, नाडीव्रण
लास कुष्ठ, शोथादि ६६१९ विडङ्गादि , कुष्ठ, कृमि, भगन्दर
५२३७ , , , कुष्ठ, विसर्प, कण्डू,
भयंकर रक्तस्राव गुटिकाप्रकरणम्
५२४० ,, नील , श्वेत कुष्ठ, कृमि ५१७४ माणिभद्रमोदकः कुष्ठ, भगन्दर, अर्श
| ५२४१ , , , श्वेत कुष्ठ में अत्युपयोगी ६६७१ विडङ्गादि , कुष्ठ
५२४२ , , , कुष्ठ, भगन्दर
५२४५ , मार्कर ,, दाद, श्वेत कुष्ठ, शीगुग्गुलु-प्रकरणम्
र्णाङ्ग कुष्ठ ५१८६ महीपाख्यगुग्गुलुः वातरक्त, कुष्ठ, शोथ ६६८६ वज्र , विविध दोषज वातरक्त |
५२४७ महावज्रकवृत गलित कुष्ठ शोथ, कास, ज्वर, ६७२९ वज्रकवृतम् कृमियुक्त भयंकर (बल वर्द्धक)
गलित कुष्ठ
६७३० " , कुष्ठ, रक्तदोष, अवलेहप्रकरणम्
विसर्प, ज्वरे ५७८६ योगसारामृतम वातरक्त, कुष्ठ, रक्त- ६७४१
ट, रक्त- ६७४१ वासादि घृतम् रक्तविकार, कुष्ट, विसर्प पित्त जनित कुष्ठ ।
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८४२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[कुष्ठ, रक्तविकार
तैल-प्रकरणम्
५३२५ मेष शृङ्गी तै० वातज कुष्ठ ५२६७ मञ्जिष्ठादितैल कुष्ठ
५८०० यष्टिमधुकाधं,, उपद्रव तथा सवाग शूल ५२७३ मजिष्ठाद्य सूर्यखुजली
युक्त समस्त शरीरगत पाक तैलम्
वातरक्त, दाह, ज्वर. ५२७७ मधुकादि तैलम् वातरक्त
५९६३ रुद्र गुडुची ,, सपिद्रवयुक्त वातरक्त ५२८० मध्यम गुडूची ,, कष्टसाध्य वातरक्त . ५९६५ रुद्र तैलम् बातरक्त, अस्थिमज्जा५२८१ मनः शिलादि ,, चित्रकुष्ठ, त्वचाकी
गत गलित कुष्ठ, परुषता, दाद, कष्टसा
अस्वेद इत्यादि. ध्य विचर्चिका, सिध्म, | ५९६६ ,,, (महा) वातरक्त, कुष्ठ, दाह, पामा आदिको अत्यन्त
कण्डू, अस्वेद, अधिक शीघ्र नष्ट करता है।
स्वेद. ५२८३ मनःशिलाद्यतैलम् दाद, पामा, विचर्चिका | ६७७६ वज्रकं तैलम् समस्त कुष्ठ, नाडीव्रण
कलास
६७७७ , , वातकफज चर्मरोग ५२८४ भरिचादि तैलम् सिध्म, नवीन किलास ६७७९ वजी , समस्त कुष्ठ ५२८५ ,, ,, कठिन चर्म दल, म- ६७९० वासा रुद्र , दाद, विसर्प, वातरक्त, ण्डल, विसर्प, किलास,
चर्मरोग विचर्चिका, सिम | ६७९१ विचर्चिकारि ,, अति दुःखदायी विच५२८६ मरिचाधं तैलम् दाद, पामा, विचर्चिका
चिका पुराना स्वित्र ६७९८ विद्रावण , पामा, विचर्चिका, दाद, ५२८८ ,, ,, (बृहत्) पामा, विचर्चिका,कण्डू
खुजली ५२९३ महातृणकतैलम् त्वग्रोग। ६८०० विष , श्वेत कुष्ठ, विस्फोटक, ५२९४ ,, ,, ,, समस्त कुष्ठ
मकड़ीका विष, विच५२९८ ,, पिण्ड ,, शरीरकी जकड़ाहट
चिका, कण्डू आदि ज्वर (वातरक्तको अ. | ६८०८ विषतिन्दुक , द्विविध वातरक्त, त्ववश्य नष्ट करता है)
ग्दोष, सुप्ति वात, वि. ५३०२ , भल्लात , समस्त कुष्ठ ।
वर्णता ५३०३ , मार्तण्ड ,, कुष्ट, कृमि, कण्डू, ६८०९ विषादनं , सिध्म, विचर्चिका, पामा
विस्फोटक ६८२३ वृहद् गुडूची ,, वातरक्त, उदावर्त. कुष्ठ ५३२३ मेध्याविकं , दाद, खाज, शूकरदंष्ट्रा ।
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कुष्ठ, रक्तविकार
चतुर्थों भागः
८४३
विकार
आसवारिष्ट-प्रकरणम्
६८५३ वायस्यादिगुटिका स्वित्र ५३३१ मध्वासवः किलास कुष्ठ ६८५६ वासादि लेपः कच्छूको ३ दिनमें नष्ट ५८०५ योगराजासवः वात पित्तज रोग, रक्त
कर देता है। ६८५८ विडङ्गादि लेपः दाद
६८६१ विषादि ,, सुप्ति कुष्ट लेप-प्रकरणम्
६८६२ , , समस्त प्रकारके कुष्ठ ५३४५ मदनादि लेपः दाह, विपादिका ५३४७ , , विपादिका
रस-प्रकरणम् ५३५२ मधुसिक्थकादिलेप पैर फटना ५५३५ महाकाल रसः चपादिक कुष्ठ ५३५६ मनःशिलादिलेपः श्वेत कुष्ठ
५५३६ , , गलत्कुष्ठ
५५४८ महा तालकेश्वर समस्त कुष्ट, वातरक्त, ५३५८ , , , कुष्ठ
त्वग्दोष ५३६६ मरिचादि लेपः सिध्म, नवीन किलास |
५५५० , तालेश्वररसः समस्त कुष्ठ ५३८६ माहेश्वरो , दाद, पामा, खाज
५५५२ , निम्बादिचूर्णम् , , ५४१९ मूलकबीजादि, सिध्म ।
५५५५ ,, ब्रह्म रसः गलत्कुष्ठ ५४२० " " " छ, सिम, काटम, ५५६८ , रौदेश्वर ,, समस्त कुष्ठ
पामा, कपाल कुष्ठ
५५७१ , वज्रपाणि ,, किटिभ कुष्ट ५४२१ ,,, सिम
५५८३ ,, सिद्धेश्वर , सुप्तिकुष्ठ, मण्डल कुष्ठ विपादिकाको नष्ट करके ५८११ यवादि लेपः पैरोंको अत्यन्त कोमल
५५८४ , सूर्यप्रभ ,, पुण्डरीक कुष्ठ करता है।
५५९७ माणिक्य तिलक कुष्ठको शीघ्र नष्ट ५९८७ रसादि , कुष्ठ
रसः करता है ५९८९ , , सिध्म
५५९८ , रसः स्फुटित कुष्ठ, गलत्कुष्ठ ५९९० , , कुष्ठ ।
वातरक्त, विचर्चिका, ५९९२ राजिकादि , चर्मदल
पुण्डरीक कुष्ट, चर्म५९९६ रालादि , दाद
कुष्टादि ५९९७ रास्नादि , वातरक्त | ५६०० , , कुष्ठ, वातरक्त, शीत६३०५ लाक्षादि , दाद
पित्त, कण्डू, ज्वर ६३०६ लाक्षाधुद्वर्तनम् सिम, किटिभ, दाद ५६७१ मेदनी सार रसः श्वित्र कुष्ठ
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८४४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ कुष्ठ, रक्तविकार
५८३७ योगराज लौहः कुष्ठ
६३६४ लाङ्गल्याद्यलाहम् जानु तक फैला और ५८३८ योगामृत रसः सुप्ति कुष्ट, मण्डलकुष्ठ
सर्वाङ्गमें फूटा हुवा ६०६२ रस तालेश्वररसः विचर्चिका, कण्डू , कुष्ठ
वातरक्त
६९३१ वज्रधार रसः समस्त कुष्ठ ६०८८ रसराजः कुष्ठ, विद्रधि (अग्नि
६९३६ वज्रवटी पामा बल वर्द्धक)
६९४८ वडवानलरसः कुष्टादि अनेकरोग ६११२ रसाभ्रगुग्गुलुः गलित् स्फुटित भयङ्कर ६९७६ वह्निचूडिकरसः किटिभकुष्ट
वात रक्त, कुष्टादि । ६९९० वातरक्तान्तकरसः अत्यन्त घोर गम्भीर ६१२९ राजतालेश्चररसः अस्थिगत कुष्ठ, नासा
सर्वदोषज वातरक्त भङ्ग, हस्तभङ्ग, मण्डल ६९९१ , , , गम्भीर वातरक्त, कुष्ठ कुष्ठ (कुष्ठको २ स- ७०१६ विकरालवक्तभैरव प्ताहमें नष्ट करता है।
रसः
७०२० विजयभैरवरसः साम वातरक्त, समस्त ६१३४ राजराजेश्वर ,, दद्रु, किटिभ कुष्ठ,
मण्डल कुष्ठ ७०२२ विजय रसः समस्त कुष्ठ ६१५६ रुद्रवटी समस्त कुष्ठ ७०२९ विजयेश्वर रसः श्वेत कुष्ठ ६३४६ लङ्केश्वर रसः
७०६४ विश्वहित रसः कुष्ठ ६३४७ , , सुप्ति, मण्डल कुष्ठ ७०९० वोरचण्डेश्वररसः ६ मासमें ऋष्य जिह्वक ६३६२ लाङ्गली गुटिका पैरोंमें घाव वाला, जानु
कुष्ट नष्ट होता है। तक फैला हुवा
मिश्र-प्रकरणम् कष्टसाध्य वातरक्त
५७१० मुस्ताद्योद्वर्तनम् दाद, खाज, पामा, ६३६३ , , कुष्ठनाशक, धो मेधा कुष्ठनाशक, ५
विचर्चि का, किटिभ स्मृतिवर्द्धक
कुष्ठादि
(१७) कृमिरोगाधिकारः
तथा उनके समस्त उपद्रव
कषाय-प्रकरणम् ५०२७ मातुलुङ्गादिकल्कः कृमिरोग। ५०६६ मुस्तादि क्वाथः मुख और गुदाकी | ६५४४ विष्णुप्रियादि
ओर जानेवाले कृमि । क्याथः
कृमि
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कृमिरोग]
चतुर्थों भागः
८४५
लेप-प्रकरणम् ५९८८ रसादि लेपः जू (यूका)
चूर्ण-प्रकरणम् ६५८३ वचादि चूर्णम् उदरकृमि मरकर
निकल जाते हैं। ६६१० विडङ्गादिचूर्णम् कृमिरोग ६६१६ " " ""
-
-
धूप-प्रकरणम् ५४२९ मशकहर धूपः डांस, खटमल, मच्छर,
गुटिका-प्रकरणम्
रस-प्रकरणम् ६२५३ लाक्षादि वटी डांस, मच्छर आदि
| ५६१८ मुस्ताचं चूर्णम् कृमि कीटनाशक ७०३० विडङ्गलौहम् उदरकृमि, अरुचि,
__ अग्निमांद्य, ज्वर, शोथ तैल-प्रकरणम् ६७९३ विडङ्ग तैलम् यूका, लिक्षा
मिश्र-प्रकरणम्. ६७९७ विडङ्गाचं तैलम् शिरोगत कृमि । ७१६३ विडङ्गादि योगः कृमिनाशक, अग्नि दीपक
- *(१८) क्षय राजयक्ष्माधिकारः
कषाय-प्रकरणम्
५७७१ यष्ट्यादि चूर्णम् राजयक्ष्माजनित कृशता ६२०६ लाक्षाकूष्माण्ड रक्तक्षय
५९१६ रास्नाद्यं ,, राजयक्ष्मा, श्वोस, कास कल्कः
६२२१ लवङ्गाय , क्षय, अरुचि, उरोग्रह,
गलग्रह, हिक्का, अतिचूर्ण-प्रकरणम्
सार, कास आदि. ५१२१ महातालीसादि क्षय, पीनस, ज्वर, - ६२२७ , , क्षय, अरुचि, कास चूर्णम् स्वरभंगादि
(मुखशोधक) ५७५५ यवादि चूर्णम्
क्षय ६६६० व्योषादि , क्षयको नष्ट कर शरीरको अति शीघ्र हृष्ट
अवलेह-प्रकरणम् पुष्ट और बलवान बना ५१९० मधुपक हरीतकी क्षय, कास, वमन, तृषा देता है।
हिचकी आदि
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८४६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[क्षय, राजयक्ष्मा
-
५६३६
६७०६ वासावलेहः क्षय, स्वरभंग, अफारा,
क्षय, कफ, दाह, (बृहद) मूत्रकृच्छ
अरुचि, कृशता
५६३२ , , क्षय घृतप्रकरणम्
५६३३ मृगाङ्क रसः क्षय ५२१३ मधुकादिघृतम् क्षत क्षीणता ५६३५ , , क्षय, अग्निमांद्य, सं. ५९४२ रास्नादि घृतम् शोष
ग्रहणी ६७४२ वासाद्यं घृतम् शोष
राजयक्ष्मा ५६३७
बहुरूप यक्ष्मा, अग्निआसवारिष्ट-प्रकरणम्
मांध, स्वरभेद, अरुचि, ३८३८ वृहन्मूलासवः राजयक्ष्मा, श्वास,
वमन, मूर्छा, पित्त. प्लीहा (अग्निदीपक) ५६३८ , , राजयक्ष्मा
५६३९ , , , " तैल-प्रकरणम्
५८२७ यक्ष्मकेसरीरसः क्षय ६२७६ लक्ष्मीविलासतैलम् क्षयादि अनेक रोग
५८२८ यक्ष्म हरो , राजयक्ष्मा ५८२९ यक्ष्मान्तकलौह स्वरभङ्ग, सर्व उपद्रव
युक्त और वैद्योंसे त्यक्त रस-प्रकरणम्
क्षय (बलवर्द्धक) ५५०७ मध्वादि लेहः भयङ्कर राजयक्ष्मा ५८३० यक्ष्मारि लौहम् तीब क्षय ५५२८ महा कनक सि- राजयक्ष्मा, श्वास, | ६०३२ रक्तवर्णहेमगर्भरसः राजयक्ष्मा न्दूर रसः कास, शोथ, अग्निमांद्य, ६०३७ रजतादि लौहम् क्षय, पित्त विकार
अरुचि, छर्दि आदि ६०४१ रत्नगर्भपोटलीरसः हरप्रकारका राजयक्ष्मा
(राजयक्ष्माकी परमौषध) ६१२२ रसेन्द्र गुटिका सम्पूर्ण लक्षणयुक्त ५५६० महामृत्युञ्जयरसः क्षय, कास, अम्लपित्त,
क्षय, रक्तपित्त, अरुचि
क्षय, श्वास, रक्तपित्त, बर्द्धक)
अरुचि, कृशता (शरी५५७८ महावीर रसः क्षय, अतिसार, अग्नि
रको पुष्ट करता है) मांद्य.
६१३१ राजमृगाकरसः राज यदमा ५५८६ महाहेमगर्भरसः राजयक्ष्मादि अनेक रोग | ६१३२ , , , हर प्रकारका क्षय ५५९९ माणिक्य रसः राजयक्ष्माको शीघ्र नष्ट ६१३३ , , , क्षय नाशक, अत्यन्त करता है।
बल वर्द्धक
स्वरभंग (अत्यन्त बल
६१२३ "
"
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क्षय, राजयक्ष्मा]
चतुर्थों भागः
८४७
६१५१ रास्नादि लौहम् राजयक्ष्मा नाशक, ६९३७ वज्रशेखर रसः १ मासमें क्षयको नष्ट बलवर्णाग्नि वर्द्धक।
कर देता है। ६१५५ रुद्र रसः मृगाङ्कके समान ६९३९ वजेश्वर रसः क्षयको अत्यन्त शीघ्र ६१६८ रौप्य रसायनम् क्षय, पित्तरोग
नष्ट करता है। ६३३५ लक्ष्मीविलासरसः राजयक्ष्मा, शुक्रक्षय,
६९६९ वसन्ततिलकरसः क्षय, प्रमेह, हृद्रोग
ज्वरादि शोथ, प्रतिश्याय,
| ७०१२ वासावलेहः उग्रराजयक्ष्मा, रक्त. अग्निमांद्य
(वृहद् ) पित्त, पार्श्व शूल वगा ६३५० लवङ्गादि चूर्णम् राजयक्ष्मा, धातुक्षय,
प्लीहा (वृद्ध) अरुचि, हिक्को, अति- ७०३३ विडङ्गादिचूर्णम् उग्र राजयक्ष्मा
सार, स्वरभंग | ७०५५ विन्ध्यवासीयोगः उग्र राजयक्ष्मा, उरः६३७३ लोक नाथ रसः क्षय, अतिसार,
क्षत, कण्ठ पोड़ा कृशता, अरुचि ७१०२ वृहच्चन्द्रामृतरसः क्षय ६३७७ , , , क्षयको ४० दनमें | ७१०९ वृहत्काञ्चनाभ्ररसः क्षय, श्वास, प्रमेह
नष्ट कर देता है । । ७१११ वृहत्क्षयकेसरी ,, क्षय आदि अनेक रोग ६३८० , , , कृशता नाशक, कास
७१२१ वैक्रान्तरसायनम् क्षय, उरःक्षत, ग्रहणी और हिचकीको ३ दिन
७१२८ वैद्यनाथ रसः क्षय में नष्ट कर देता है। | ७१४३ व्योषादि चूर्णम् क्षय ६३८२ लोकेश्वर रसः पौष्टिक, अनेक रोग
मिश्र-प्रकरणम् ] ५८४६ यवादि चूर्णम् क्षय
नाशक
(१९) गण्डमालागलगण्डाधिकारः
कपाय-प्रकरणम्
गुग्गुलु-प्रकरणम् ६४८९ वरुणमूलक्वाथः पुरानी गण्डमालाको ६६९५ व्योषोदिगुग्गुलुः गण्डमाला, गलग्रन्थियां भी शीघ्र नष्ट कर
घृत-प्रकरणम्. देता है। ६७२७ वचाद्यं घृतम् पुरानी गण्डमाला, गल
गण्ड, कास
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८४८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[गण्डमाला, गलगण्ड
तैलम्
तैल-प्रकरणम्
लेप-प्रकरणम् ५२७० मञ्जिष्ठाद्य तैलम् गण्डमाला
| ५४१३ मुण्डीमूल लेपः गण्डमाला ५२८९ महाअजमोदाचं पक्ष अपक्व नूतन | ५४१८ मूलक बीजादि पुरातन और दुर्गन्धित
लेपः गलगण्ड, गण्डमाला स्राव वाली कष्ट साध्य ६८४७ वत्सनाभ लेपः गण्मालाकी गांठोंको अपची
नष्ट करता है। ५३०९ मागध्याचं तैलम् गण्डमाला
६८५७ विकतादि ,, कफज गलगण्ड ६७७१ वचादि तैलम अपचीको समूल नष्ट करता है
रस-प्रकरणम् ६७७८ वज्रकं , गण्डमाला और अर्शमें
५४७८ मण्डूर योगः गलगण्ड
अत्युपयोगी ६८२९ व्योषादि,, कष्ट साध्य अपची
मिश्र-प्रकरणम् आसवारिष्ट-प्रकरणम्
| ७१५१ वनकार्पासादि अपची ६८३६ विडङ्गासवः गण्डमाला आदि
योगः
(२०) गलरोगाधिकारः चूर्ण-प्रकरणम्
अवलेह-प्रकरणम्
५२०४ मृगनाभ्यादि लेहः वाणीका स्तम्भ, स्वर ५१३८ मुण्ड्यादिचूर्णम् स्वरको मधुर करता है
भंग ६६२१ विडंगाचं , कफज गलरोग, कास, हृद्रोग
घृत-प्रकरणम् ६६५२ व्योषादि , स्वर भंग ५७८७ यवक्षारादि घृतम् वातज स्वर भंग
६७६५ व्याघ्री , स्वरभङ्ग, कास
६७७० व्योषाचं नावनं ,, स्वरभङ्ग गुटिका-प्रकरणम्
रस-प्रकरणम् ५१६५ मरिचाद्या गुटिका कण्ठ रोग
| ५४९७ मदनाङ्कुशटङ्कण स्वरभङ्ग ५७७३ यवाग्रजाद्या , समस्त गलरोग सवायजामा समस्त गलरोग
रसः SARG
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गुल्म
चतुर्थों भागः
(२१) गुल्माधिकारः
कषाय-प्रकरणम् ५०२१ मातुलुंगरसादि वातज गुल्म
। ६६०६ विडङ्गादि क्षारः गुल्म, प्लीहा | ६६४८ वृहत्तगरादिचूर्णम् वातज गुल्म, उदावर्त
योगः
गुग्गुलु-प्रकरणम् ५८९५ रोधादि काथः रक्तगुल्म, हृत्क्लेद, यकृत् ।
| ६२५८ लोह गुग्गुलुः गुल्म, शूल, शोथ ६४९६ वरुणादि काथः गुल्म, अन्तर्विद्रधि, | शिरशूल.
अवलेह-प्रकरणम्
५२०० मातुलुङ्गाधवलेहः वात गुल्म चूर्ण-प्रकरणम् ५७४८ यवक्षारयोगः । गुल्म
घृत-प्रकरणम् ५७५४ यवक्षाराचं. ७ दिनमें पुराने गुल्म
५२१९ मरिचाद्यं घृतम् वातज गुल्म चूर्णम् और वातज शूलको ।
| ५२४९ महा विन्दु, गुल्ममें विशेष उपयोगी अवश्य नष्ट कर देता है
५९४० रसोनाचं , गुल्म, ज्वर, अग्निमांद्य
६२७० लशुन , वातज गुल्म ५७६१ यवान्यादि , कफज गुल्म
६७६६ व्योषादि , कफज गुल्म ५७६५ ,..., कफज गुल्म नाशक, वातानुलोमन
तैल-प्रकरणम् ६२२३ लवङ्गादि , पीड़ा युक्त गुल्म, (जीर्ण
६७७५ वचायं तैलम् गुल्म, आनाह, मूत्राउदर विकारोंको शीघ्र
वरोध नष्ट करता है।) ६५८१ वचादि , गुल्म, उपद्रव युक्त शूल
आसवारिष्ट-प्रकरणम् ६५८५ वचाचं , गुल्म, हृद्रोग, कुक्षिशूल ६८३७ वृश्चीवाद्योऽरिष्टः कष्टसाध्य गुल्म ६५८८ वन क्षारः गुल्म, शूल, उदावर्त, प्लीहा
रस-प्रकरणम् ६५८९ ,,
गुल्म, अजीर्ण, अग्निमांद्य ६१२० रसायनामृत- ५ प्रकारका गुल्म, ६६०५ विडङ्गतण्डुल ,, गुल्म, प्लीहा, अरुचि
लौहम् शोथ, जीर्णज्वर १०७
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८५०
६९५४ वडवानल रसः ७०४४ विद्याधर रसः
७११५ वृहद्गुल्मकालानलो रसः
"
५७६० यवान्यादि"
५७६२
५७६३
ܙܕ
कषाय-प्रकरणम्
५०४३ मुशल्यादियोगः ग्रहणी नाशक सरल योग
६५६४ व्याघ्यादिकषायः कफज संग्रहणी
www.
५९१० रामठादि ५९१४ रास्नादि ५९१८ रुचकादि
६२२२ लवङ्गादि
६५७४ वचादि
चूर्ण-प्रकरणम्
५११० मरिचादिचूर्णम् वातज संग्रहणी, अरुचि
५११९ महाक्षारः
ग्रहणी दीपक, अर्श, कृमिनाशक
35
17
"
55
2
"
भारत
"
त- भैषज्य रत्नाकरः
हर प्रकारका गुल्म, शूल गुल्मलीहादि
गुल्म, शोथ
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(२२) ग्रहणी - रोगाधिकारः
कफज संग्रहणी
पित्तज संग्रहणी, प्रवाहिका
संग्रहणी, अतिसार,
क्षय, अर्श
वातज संग्रहणी
कफज
""
ग्रहणी दोष, अग्नि
मांद्य, अ
सार.
संग्रहणी
संग्रहणी, शोध, ज्वर, नाना वर्ण वाला अति
६१८२ रामठाधा वर्तिः
मिश्र-प्रकरणम्
६६३७ विश्वाद्य ६६५७ व्योषादि
६६१२ विडंगादिचूर्णम् संग्रहणी रोगान्तर्गत
विष्टम्भ
संग्रहणी
संग्रहणी, अरुचि, शोथ,
ज्वर
६६५९ व्योषादि संग्रहणी नाशक, अग्नि पुष्टि कान्तिवर्द्धक
५१८४ मेथी मोदकः
५१८५
"
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99
"
39
(वृहद )
""
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गुटिका-प्रकरणम्
५१५९ मदनमोदकः
संग्रहणी, शूल, (अग्निवर्द्धक)
५१७९ मुण्डयादिगुटिका पित्तज संग्रहणी ५१८१ मुस्तकादिमोदकः रक्तग्रहणी, ज्वर, ५१८२ मुस्तकाद्य ग्रहणी, अग्निमांद्य, आम,
अर्श
""
अफारा तथा शूल
नाशक गुदवर्तिः
""
[ गुल्म
५७७५ यवान्याद्यागुटिका संग्रहणी ५७७६ योगराज ६२५२ लवण वटी
निर्बलता, अरुचि
संग्रहणी, अग्निमांध
संग्रहणी, अर्श, छर्दि, अरुचि (आममें अत्युपयोगी)
ܙܕ
अतिसार
दीपन, पाचन
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ग्रहणीरोग
चतुर्थों भागः
८५१
-
गुग्गुलु-प्रकरणम्
५३३० मध्वासवः कफ, पित्त, शोथ, ५७७९ योगराज गुग्गुलुः ग्रहणी, पाण्डु, रक्तार्श
(ग्रहणी दीपक)
समस्त ग्रहणी विकार
५३३५ मंस्त्वासवः ग्रहणी, अश, उदररोग अवलेह-प्रकरणम् ५१९१ मधुपक हरीतकी पीडायुक्त संग्रहणी,
रस-प्रकरणम् आम, जीर्णज्वर
५५०३ मधुपकहरीतकी संग्रहणी, कास, प्रमेह, ५१९२ मधुपाक विधिः संग्रहणी, पुराना अ
पाण्डु 'तिसार, तृषा
५५६४ महाराजनृपति प्रवृद्ध साम संग्रहणी, ५१९५ महाकल्याणको ग्रहणी, मलावरोध, ज्वर |
वल्लभ रसः छर्दि, शूल, अफारा, गुडः निर्बलता
दाह, ज्वर. ५५६५
संग्रहणी, आनाह आदि घृत-प्रकरणम्
५६०३ मार्कण्डेय चूर्णम् संग्रहणी, अग्निमांद्य ५२१८ मरिचाधं घृतम् ग्रहणी विकार, मला- ५६१६ मुस्तादि , संग्रहणी वरोध
६०६३ रसपर्पटिका संग्रहणी, शूल, शोथ, ५२२० मसूर , संग्रहणी
अग्निमाद्य ५२२१ मसूरादि , , प्रवाहिका, अतिसार ६०६४ रस पर्पटी संग्रहणी ५२२४ मेहदग्नि ,, अर्श, गुल्म
ग्रहणी, ज्वर, कास ६७५६ विश्वौषधाद्य, शोथ युक्त आमग्रहणी
| ६१२६ रसेन्द्र चूर्णम् ग्रहणी, रक्तातिसार, ६७६४ वृहन्मसूराय , संग्रहणी, मलावरोध,
सूतिकारोग अर्श, वायु ६१३७ राजवल्लभ रसः ग्रहणी, प्रवाहिका,
पार्श्वशूल, अफारा तैल-प्रकरणम्
६१४३ राजावर्त , ग्रहणी ६८२४ घृहद् ग्रहणी ग्रहणी, अतिसार, ज्वर | ६३४५ लघु सिद्धाभ्रक कष्ट साध्य संग्रहणीको मिहिर तैलम् उदर पीड़ा
रसः शीघ्र नष्ट करता है
६३५२ लवङ्गायं चूर्णम् संग्रहणी, ज्वर, विष्टआसवारिष्ट-प्रकरणम्
म्भ, आध्मान, अरुचि ५३२९ मध्वारष्टः ग्रहणी, शोथ, ज्वर
आदि
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८५२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ग्रहणीरोग
६३५३ लवङ्गा चूर्णम् ग्रहणी, शूल, विष्टम्भ, ६४३३ लोहसार कल्पः हर प्रकारकी ग्रहणी, आम, आनाह
शोथ, शूल ६३५६ लाई चूर्णम् संग्रहणी और सूतिका ६४४३ लोहामृत रसः वातज, पित्तज, कफज, रोगमें अत्युत्तम्
रक्तज ग्रहणी ६३५७ ,, ,, (मध्यम) ग्रहणी, प्रवाहिका ६९२७ वज्रकपाट रसः सर्व दोषज ग्रहणी ६३५८ ,, ,, (लघु) संग्रहणी, शूल, अफारा ६९२८ ,,, असाध्य ग्रहणीको भी ६३५९ , ,, (लघु) संग्रहणीनाशक, दीपक
नष्ट कर देता है ६३६० ,,,, संहग्रणी, अतिसार । | ६९३० वज्रधर रसः ग्रहणी, पक्तिशूल, कास ६३६१ ,,, (वृहत्) संग्रहणी, शोथ, वि- ६९५५ वडवानल रसः विविध प्रकारकी संग्रष्टम्भ, शूल, जीर्ण ज्वर
हणी, ज्वर ६३६५ लाविका चूर्णम् ग्रहणी, शोथ, वमन, ६९६० वराटादि योगः संग्रहणी
(मध्यम) शूल, अरुचि ७०१८ विजय पर्पटी - बहुत वर्षोक पुरानी ६३६६ , , ग्रहणी, आम, शोथ,
कष्ट साध्य संग्रहणी, (वृहत्) शूल
भयंकर पुराना आम ६३७२ लोकनाथ रसः संग्रहणी
शल, प्रवाहिका आदि ६३९६ लोहपर्पटी कष्ट साध्य संग्रहणी, ७०१९ , , ऊपरके समान
आम, उदावर्त, शूल | ७०२४ विजयसिन्दूररसः कष्ट साध्य संग्रहणी ६४२४ लोहरसायनम् वातपित्तज ग्रहणी | ७०२७ विजया वटिका हर प्रकारको ग्रहणी . ६४२५ " "
| ७११० वृहत्कामेश्वर मो६४२६ , ,
दकः - संग्रहणी, उदरविकारवातकफज "
७११७ वृहन्नृपवल्लभरसः ग्रहणी, अजीर्ण उदररोग उग्र वातज, ७११९ वैद्यनाथ वटी ग्रहणी, अग्निमांद्य, ज्वर
पित्तज कफज
, ,
rurur
६४२८
"
"
.
(२३) छदिरोगाधिकारः
कषाय-प्रकरणम्
| ५०३९ मुद्गादि कषायः छर्दि, अतिसार, दाह, ५००८ मरिचादि हिम छर्दि, तृषा
(सरल योग) ५०३८ मुद्गादि कषायः वमनको तुरन्त रोकता
है (सरल योग) ५०४२ मुद्गामलकयूषः छर्दि
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छर्दि]
चतुर्थों भागः
-
५७३९ यष्टयादि योगः रक्त वमन
रस-प्रकरणम् ५८५४ रम्भाकन्द योगः छदि नाशक सरल योग ५५०८ मनः शिलादि- भयङ्कर कफज छर्दि
चूर्णम् चूर्ण-प्रकरणम्
५५१० , , योगः छर्दिको शीघ्र नष्ट क६६११ विडङ्गादिचूर्णम् कफज छर्दि
रता है। ६६५३ व्योषादि , , , ६१२१ रसेन्द्रः छर्दि
६९६६ वमनामृत योगः त्रिदोषज छर्दि अवलेहप्रकरणम्
७००८ वान्तिद्रसः कृमिरोग जनित वमन ५१९७ मक्षिकाविडवलेहः उपद्रव युक्त पित्तज
छर्दि ६२६१ लाजसक्त्ववले- दुःसाध्य पित्तज छर्दिको
मिश्र-प्रकरणम् - हिका शीघ्र नष्ट करता है । ५१५१ मूर्वादि चूर्णम् भयङ्कर छर्दि, उद्गार ६२६२ लाजादि योगः छर्दि, अरुचि ५६९४ मसूरसक्तुयोगः त्रिदोषज छर्दिको शीघ्र
बन्द करता है। घृत-प्रकरणम्
६१७१ रक्तशाल्यादि , कफज छर्दि , ६७३७ वल्लभकं घृतम् हल्लास, शूल ६४५१ लाजादि यूषः पित्तज ,
-
-0* 40(२४) ज्वराधिकारः
कपाय-प्रकरणम्
| ४९९४ मधुकादिक्वाथः भयङ्कर वात पित्त ज्वर४९७७ मञ्जिष्ठादिक्वाथः सन्निपातमें विशेष
को भी अवश्य नष्ट उपयोगी
कर देता है। ४९९१ मधुकादिकषायः पित्तज्वर ४९९५ , , घोर सन्ततादि ज्वर ४९९२ , , सन्निपात (मृदुरेचक) । ४९९८ मधूकादिफाण्टः वातपित्तज ज्वर, दाह, ४९९३ , , ज्वर, दाह, मूर्छा,
तृषा, मूर्छा, बेचैनी; तृषा, रक्तपित्त, भ्रम
रक्तपित्त
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५००० मधूकादिशीतक ० पित्त ज्वर ५००१ मधूदक योगः
५००६ मरिचादिकाथः
५००७
"
वात ज्वर
५००९ मरीच्यादि " ५०१२ महाबलादिकषायः शीत कम्प युक्त ज्वर
२, ३ दिनमें ही नष्ट हो जाता है
५०२८ मातुलुङ्गादि
क्वाथः
५०२९
५०३०
ܙܪ
५०१५ महौषधादिक्वाथः तृतीयक
५०२० मातुलुङ्गमूलादि कफज्वर पाचक
कषायः
शीताङ्ग सन्निपात
५०५०
५०५१
५०५२
५०५४
५०५५
५०५६
""
""
५०४० मुद्गादि कषायः
५०४७ मुस्तादि काथः
५०४९
"9
"
19
""
97
"
93
99
""
""
"
37
37
"
भारत-भैषज्य रत्नाकरः
"
99
शीतला पूर्व रूप में
से उसे रोकता है।
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उपद्रव युक्त कफज्वर
कर्णक सन्निपात
कफ ज्वर
अभिन्यास, अफारा,
शूल
पित्त ज्वर
ज्वरनाशक, अनि दीपक
वात पित्त ज्वर
वात ज्वर
वात कफ ज्वर
सन्निपात, मन्यास्तम्भ,
सन्धिग्रह
वात पित्त ज्वर पर
अनुभूत
कफ ज्वर
चित्तभ्रम, दाह, छर्दि,
मन्थरज्वर
५०५७ मुस्तादि क्वाथः न्यूमोनिया
५०५८
५०६१
५०६४
५०६८
५०७२
५०७३
29
५०७५
पाचन आम
५०७७ षडंगपानीय ज्वर, दाह, तृषा
"
22
""
21
29
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27
"
"
"
33
"
""
""
")
५८५३ रजन्यादि
35
५०८७ ""
39
५०८९ मृद्वीकादि हिमः ५७२१ यवादि काथः
99
५७२५ यवादि काथः ५७२६ शीतकषायः ५७२७ यवान्यादिकाथः
५७३० यवासादिकाथः
५७३३ ष्टयादि
५७३५
५७३६
५०८६ मृणालादि काथः ज्वर
"1
""
"
५०७८ 77 ५०८० मुस्ताद्यष्टादशांग पित्त प्रधान सन्निपात,
काथः
मन्यास्तम्भ, शिरोग्रह, पार्श्वग्रह.
"
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39
55
11
[ ज्वर
रुग्दाह सन्निपात
छर्दि, दाह, अरुचि ज्वर
प्रबल वात पित्त
तीव्र कफ
विषम
चातुर्थिक
39
ܕ
"
99
29
19
"
पित्त उवर
कफ पित्तज्वर, पिपासा दाह, छर्दि (अग्निदीपक) पित्त कफ ज्वर पित्त ज्वर
कफ ज्वर, कास, श्वास
वात ज्वर
वात पित्त ज्वर
विषम ज्वर
उग्र सन्निपात, विषम
ज्वर
सन्निपातमें अत्युपयोगी वमन, स्वेद, प्रलाप, शीताङ्ग, तृषा, तन्द्रा,
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चतुर्थों भागः
दाह, पार्श्वशूल, मला- ६४८० वत्सकादिक्वा० पित्त ज्वर, शूल, दाह
वरोध, कासादि. ६४८३ , गगः ज्वर, पोनस, शूल, कफ ५८५८ रसोन योगः मेलेरिया (विषमज्वर) ६४८८ वरादि क्वाथः रक्तदोषज भयंकर ज्वर ५८६२ रसोनादिकल्कः विषमज्वर, वातरोग ६५०३ वासकादिकषायः कफज़ ज्वर ५८६५ रास्नादि , ज्वर, श्वास, कास, ६५०५ वासा , कफ पित्त ज्वर, क्षय, अग्निमांद्य
रक्तपित्त ५८७० रास्नादि काथः वातपित्त ज्वर ६५१० वासादि , चातुर्थिक ज्वर ५८७१ " "
६५१३ , कफज , ५८५२ , , वात ज्वर
६५१४ , , इकतरा , ५८७४ , , ज्वर, मन्यास्तम्भ, कटि- ६५१५ , , कफज्वर, कास, शल
पीड़ा, सन्धिपीड़ा, स- ६५१७ , क्वाथः विषमज्वर गि पीड़ा
६५२१ , , ज्वर, श्वास, कास, ५८७५ ॥ ॥ कर्णक सन्निपात
वमन, शोथ मूत्रकृच्छ्र ५८५६ " , " " | ६५३५ विश्वादि कषायः वातपित्त ज्वर ५८७७ , , सन्निपात, सन्धिपँह | ६५३६ , , पिपासा, छर्दि, ज्वर, ५८९३ रोधादि क्वाथः पित्त ज्वर ५८९७ रोहिण्यादि- कास, दाह, तृषायुक्त ६५३८ । , वात ज्वर कषायः ज्वर
६५३९ , , समस्त ,, ६१९३ लघुपंचमूलयोगः ज्वरगत मूत्रकृच्छ्र
६५४१ , " ६१९६ लघु रास्नादि- वातज ज्वर, दारुण
६५४७ वृषादिक्वाथः पित्तज्वर, दोह, तृषा, क्वाथः सन्निपात
मूर्छा, भ्रम ६२०४ लशुनादिकाथः घोर सन्निपात
६५४८ वृहचन्दनादि पित्तज्वर, मूर्छा
काथः ६४६६ वचादि कषायः सन्निपात
६५४९ वृहच्छठ्यादि , सन्निपात, खांसी, श्वास ६४६७ , , प्रबल सन्निपात
मुखशोष, तृषा, दाह, ६४६८ , " कफ, ज्वर, शूल,
दिवा निद्रा, रातको प्रतिश्याय
नींद न आना. ६४७२ , क्वाथः सन्धिक, सन्निपात, | ६५५० , , , वात कफ ज्वर, खांसी जांघोंकी जड़ता, भ्रम,
शल, शीत, दुष्ट मलपक्षाघात
ग्रह, जीर्णज्वर.
दाह
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८५६
६५५२ वृहत्कटफलादि क्वाथः
पन, वधिरता.
६५५३ बृहत्क्षुद्रादिकाथः शीत ज्वर ६५५५ वृहत्पटोलादि वातज मसूरिका
६५५६ वृहत्पिप्पल्यादि,, वातकफ, ज्वर,
६५५९ वृहद्रास्नादि "
६५६६
६५६९
39
"
"2
श्वास, कास.
६५६३ व्याध्यादिकषायः कफ ज्वर पाचक
६५६५
""
""
"2
""
"5
73
सन्निपात, स्वरभेद, कर्णमूल, शिरका भारी
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
शून्यता.
भयंकर
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शीत,
प्रस्वेद, अत्यन्त कम्पन
प्रलाप, अति निद्रा,
रोमहर्ष, शरीर की
सन्निपात,
६५७०
६५७१
समस्त ज्वर
"
६५७२ व्योषादि क्वाथः त्रिदोषज ज्वर
वातकफ ज्वर, श्वास,
कास, शूल
सन्निपात
ज्वर, वमन, दहि, तृषा,
कास
कफ, अभिन्यास ज्वर
चूर्णप्रकरणम्
५१०० मधुपिप्पली योगः ज्वर, कास, हिक्का, प्लीहा ( सरलयोग) ५१०५ मधूकादि चूर्णम् ज्वर, वमन, मुंह से लार बहना, हिक्का ५११६ मरिचाद्योद्भूलनम् सन्निपातमें अधिक पसीना आना
[ ज्वर
५१२६ मातुलुङ्ग केसरा- ज्वरे, मुखशोष, मुखदि योग: ५१३७ मुखधावनयोगः ५७५६ यवानिका घुडूल
की जड़ता, अरुचि मुखशोधक, रुचिवर्द्धक अधिक पसीना आना
नम्
६२१७ लघुसुदर्शन
चूर्णम्
६५७८ वचादि चूर्णम् ६५९३ वडवानल चूर्णम् ६६०२ वालकादि योग: ज्वर
६६३३ विश्वादि चूर्णम् विषम ज्वर (सरलयोग)
६६८४ व्योषादिवटी
५२११ मञ्जिष्टाद्यं
५२५०
घृतप्रकरणम्
५२१० मञ्जिष्ठाद्यं घृतम् दुष्ट ज्वर, हिक्का, श्वास
अरुचि, उदावर्त शोथ,
शोष.
५२२७ महा कल्याण,
५२२८
"
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गुटिका-प्रकरणम्
""
५२५१. "
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19
"
समस्त ज्वर, त्रिदोष
नाशक
प्रस्वेद
ज्वर, कास, मलावरोध
"
"
ज्वर, छर्दि, कास, तांप,
मूत्रकृच
कफ ज्वरमें विशेष
उपयोगी
ज्वरनाशक, आयुवर्द्धक विषम ज्वर, शोथ,
कृशता
षट्पलकं, विषमज्वर, प्लीहा, अग्नि
मांध
," ज्वर, प्लीहा, शूल,
दुर्बलता
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ज्वर]
चतुर्थों भागः
८५७
५२५२ महाषट्पलकं घृ० जीर्ण ज्वर, प्लोहा, । ६८२१ वृहत्पिपल्याचं समस्त जीर्णज्वरे, विहिक्का, प्रतिश्याय.
तैलम षमज्वर, सन्निपात, ५९५० रोहिण्यादिघृतम् ज्वर, तृषा, भ्रम, मू.
पुनरावर्तक ज्वर, », शूल
बारीके ज्वर ६२६२ लघुषट्पलकं , ज्वर, प्लीहा
६८२२ बृहदङ्गारक , ज्वर, शोथ, पाण्डु ६२६९ लशुन , ज्वर, कास, अरुचि, छर्दि, कृशता, पार्व
आसवारिष्ट-प्रकरणम् शूल, प्लीहा, शोथ। ५३३९ मृगमदासवः सन्निपात ज्वर, हिक्का ६७४३ वासाचं , जीर्ण ज्वर
| ५३४० मृतसंजीवनीसुरा सन्निपातमें शरीरका ६७४४ , , समस्त ज्वर
ठंडा होजाना ६७४६ विडङ्गाय , जीर्ण कफ ज्वर
लेप-प्रकरणम्
५३४९ मधुकादि लेपः शिरकी तपन, कम्प, तैल-प्रकरणम्
मोह, वमन, हिक्कादि ५७९८ यवादि तैलम् ज्वर, प्रबल दाह,
ज्वरके उपद्रव अङ्ग प्रहर्ष ५३५० मधुकादि , आंखोंके ऊपरकी मसू६२८५ लाक्षादि , ज्वर, अस्थि वेदना,
रिकाको नष्ट करता है। निद्रा
| ५३७८ मातुलुङ्गकेसरादि जिह्वा, तालु, गले और ६२८६ , , बालकोंका ज्वर, नि
योगः क्लोमका सूखना र्बलता
५३७९ मातुलुङ्गरसादि तालुशोष, दाह
योगः ६२८७ , ,(मध्यम) जीर्णज्वर, विषम ज्वर,
५३८१ मातुलुङ्गादिलेपः मसूरिकोको शीघ्र पका क्षय
देता है। दाहनाशक। ६२८८ , , (महा) दाह, ज्वर, प्रलाप,
५४१४ मुद्गादि लेपः दाह तोलु शोष
५९७६ रक्ताश्वमारपुष्पा- शिर पीड़ा ६२८९ , ,, (लघु) दाह, शीत, ज्वर
दि लेपः ६८२० वृहत्किरातादि सन्तत सतत आदि
५९९९ रास्नादि लेपः कर्णशल तैलम् विषम ज्वर, प्लीहादोषज
६८५९ विदार्यादि ,, दाह, तृषा ज्वर, शोथ
१०८
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८५८
धूप-प्रकरणम्
५४३० मसूर धूपः ज्वर
५४३१ मसूरिकान्तकधूपः मसूरिका
५४३२ मार्जारविष्ठा
५४३३ माहेश्वर
५४३५
""
५८१९ यवादि
६००३ रालादि
६००४ रुगादि धूपः
६८६९ वचादि
رو
11
ܕ
"
19
""
""
""
"
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भारत
- भैषज्य रत्नाकरः
ज्वर
सुरावेश ज्वर
ज्वर
ज्वर सम्बन्धी कम्पन
अञ्जन-प्रकरणम्
५४३९ मनः शिलाद्यन्ञ्जनम् सन्निपातको तन्द्रा
विषम ज्वर
५४४० 29 29
६०१७ राजिकाद्यञ्जनम् ज्वर
६०१८ रास्नाद्यञ्जनम् तन्द्रिक सन्निपात
६३२२ लशुनाद्यञ्जनम् ज्वर
६३२३
मसूरिकामें कृमि उत्पन्न नहीं होते, हो गये हों तो नष्ट हो जाते हैं।
ज्वर
विषम ज्वर
कफ वातज्वर, रक्तपित्त
तथा अतिसार युक्त
ज्वर
६३२६ लोहभस्माद्यञ्जनम् सन्निपातकी तन्द्रा
६८७८ विषमज्वरान्त
विषम ज्वर
काञ्जनम्
""
५४५५ मधूकादिनस्यम् बेहोशी
५४५८ मरिचादि कर्णक सन्निपात
५४६०
तन्द्रिक
५४६१
""
५४६३ मातुलुङ्गादि,,
भुननेत्र कफको ढीला करके निकालती है । शिर
ܕܪ
19
नस्य-प्रकरणम्
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५४६५ मोहान्धसूर्य, ६०२४ रेचनसञ्ज्ञक
६०२५
"
""
39
"2
27
५५०६ मध्यम कस्तूरी भैरवरसः ५५०९ मनः शिलादि -
" "
ज्वराङ्कुशः
५५१७ मन्थानभैरवरसः
"
५५१९
५५२३ मल्लचन्द्रोदयः
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रस-प्रकरणम्
"
[ ज्वर
तन्द्रा
बेहोशी
पीड़ा, हृदयशूल तथा
कण्ठ, पार्श्व और
मुखकी वेदना सन्निपातकी मूर्च्छा
सन्निपात
सन्निपात और विसू
चिका में अत्युपयोगी है।
५५२६ मसूरिकारि रसः सर्वदोषज सर्वदेहगत
मसूरिका
"
वात प्रधान सन्निपात,
कफ, शोथ
विषमज्वरको अवश्य करता है । घोरनवीनज्वर, भयंकर सन्निपात, शीतज्वर,
पूर्ववर
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ज्वर ]
५५४१ महाज्वराङ्कुशः
५५४२
५५४३
५५४४
५५४५
५५४६
"
99
99
29
39
99
ܕ
रसः
"
"
"
रसः
५५५६ महा भैरवरसः
५५६६ महाराज वटी
रसः
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चतुर्थी भागः
मेलेरिया (एकाहिक,
तृतीयक आदि )
जीर्णज्वर, मेलेरिया, जदोषजज्वर
मेलेरिया, अन्तर्वेग, धातुगत और विषमज्वर
५५४७ महातालकेश्वर दाहपूर्वज्वर, शीतज्वर, विषमज्वर
समस्तज्वर
दाहपूर्वज्वर, पित्तज्वर,
५५७६ महाविजयपर्पटी सन्निपात
शीतज्वर सन्निपातज जीर्णज्वर में शीघ्र गुणकारी है ।
सन्निपात में अत्युत्तम धातुगत ज्वरोको अवश्य नष्ट कर देता है ।
५५७७ महाविषमारीरसः शीतपूर्व तथा दाहपूर्व
ज्वर
५५८० महाशीतज्वराङ्कुश धातुगतज्वर, चित्तभ्रम सन्निपात, पित्त
५५८१ महाश्लेष्मकाला
नल रसः
शोताङ्ग सन्निपात ५६०४ मार्तण्डभैरवरसः कष्ट साध्य सन्निपात ५६०८ मुक्त पश्चामृतरस: जीर्णज्वर, क्षयादि ५६१३ मुद्राघोटको रसः ज्वरको अत्यन्त शीघ्र नष्ट करता है ।
५६४६
५६४२ मृत्प्राणदायीरसः नवीनज्वर, स्नायुगत
वायु
५६४३ मृत्सञ्जीवनरसः सन्निपात में होनेवाला जिह्वास्तम्भ, गलग्रह, पिच्छिलास्यता, मन्या
स्तम्भ, शिरोग्रह, जिबाकी शुष्कता
५६४५ मृत्सञ्जीवनोरसः सन्निपात, दाहपूर्व -
""
५६४८ मृत्सञ्जीविनी गुटिका ५६४९ मृत्सञ्जीविनी व
टिका ५६५२ मृतोत्थापनरसः
५६६७
५६६८
५६५३
"
५६५४ मृत्युञ्जय रसः
५६५६
५६५७
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""
39
9.
"
५६५८
५६६२
59
"
५६६५ मेघनाद रसः
37
"3
"
""
99
"" 35
"" 19
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८५९
ज्वर, शीतज्वर
मृत्प्रायः सन्निपात
रोगी भी बच जाता है ।
ऊपरके समान
सन्निपात
मृत्प्रायः सन्निपात रोगी
भी बच जाता है ।
ऊपरके सामान
नवीनज्वर, सन्निपात
विषमज्वर
सन्निपात, शूल, यकृत् मलावरोध, शोथ, हिक्का,
श्वास समस्तज्वर
31
25
विषम तरुण जीर्ण
ज्वर, दाह, तृषा
समस्तज्वर
विषमज्वर
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ज्वर
५६८२ मोरेश्वर रसः सन्निपात्, कृशता | ६३३७ लक्ष्मीविलासरसः जीर्णज्वर, निरामज्वर, ६०३६ रघुनाथ रसः विषमज्वर, अग्निमांद्य,
वायु, विषमज्वर कास
| ६३४२ लघुपोटलीरसः घोरसन्निपात, वायु, ६०४२ रत्नगिरि रसः १ पहरमें ज्वरको उ.
अग्निमांद्य, बलक्षीणता तारता है। ६३४८ लङ्केश्वररसः शीतज्वर ६०४६ रविसुन्दरो रसः वातज्वर, शिरका भा- ६३५५ लहरीतरङ्गो,, सन्निपात, प्रचण्डराजरीपन
यक्ष्मा ६०४७ ,, ,, हर प्रकारका ज्वर ६३८४ लोह गुटिका वातपित्त ज्वर ६०५४(अ)रसकेश्वररसः धातुगतज्वर, रक्तस्राव,
६९४६ वडवानलरसः वात कफप्रधान ज्वर पित्त, भ्रम
६९५६ , , , सन्निपान, उग्रवायु ६०६५ रसपर्पटी कफवर
६९७१ वसन्तमालतीरसः जीर्ण ज्वर, विषम ज्वर, ६०६६ "" सन्निपात, शोथ, कफ
कासादि, अग्निमांद्य ६१०८ रसादि वटी नवीन ज्वरको १ दिन ६९७२ , , , जीर्ण ज्वर, पित्तजनित में नष्ट करती है।
(लघु) घोर पीड़ा, गर्भिणीका ६१०९ , , नवीन ज्वर ६११० रसोधु लनम् अधिकस्वेद, शरीरका ६९७३ , , , धातुगत जीर्ण ज्वर,
, प्रमेह ठण्डा होना ६१४५ रामज्वरापहारी विषम, जीर्ण और ६९८६ वातज्वरारिरसः वात ज्वर
रसः नवीनज्वर | ७०११ वारिसागरो , असाध्य सन्निपात ६१४६ रामवाण रसः शीतपूर्व, दाहपूर्वज्वर, | ७०१५ विकरालवक्तभै- ज्वर बारीके ज्वर
रख रसः ६१४८ , ""
८ प्रकारके ज्वरोंको ७०१७ विक्रमकेशरीरसः समस्त वर
शीघ्रा नष्ट करता है।। ७०२५ विजया गुटिका विषम ज्वर, कास, ६१५० रामरसः आमज्वर, शूल, वायु,
श्वास, शोथ विष्टम्भ
७०४३ विद्याधर रसः आमज्वर, पाण्डु, अ. ६१५९ रोमबेधरसः शरीरपर मालिश कर
जीर्ण, आमयुक्त कृमि, नेसे सन्ततादि विषप्त
प्लीहा. ज्वर नष्ट होते हैं। । ७०४९ विद्यावल्लभोरसः विषम ज्वर
ज्वर
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ज्वर]
चतुर्थों भागः
७०५३ विनोदविद्याधर- नवज्वर, शूल, अजीर्ण | ७१०५ वृहज्ज्वरचूड़ा- समस्त ज्वर कोष्ठ बद्धता
मणि रसः ।। ७०५६ विमलरसायनम् ज्वर, शोथ, अरुचि, ७१०६ वृहज्ज्वरान्तको- शुक्र धातुगत जीर्ण
___ शूल, वायु, पित्त । रसः ज्वर, बल्य ७०६१ विश्वतापहरण नवीन ज्वर ७१०८ वृहत्कस्तूरीभैरव विशेषतः लौट लौटकर
रसः
आने वाले ज्वर ७०६२ विश्वमूत्ति रसः सन्निपात ७११८ वेतालरसः सन्निपातमें अत्युपयोगी ७०७३ विषमज्वरान्तक विषम ज्वर, प्लीहा,
मिश्र-प्रकरणम् अग्निमांद्य
५६९२ मधुसर्पिरादि विषम ज्वर, क्षतज ७०७४ , , ,, ज्वर, प्लीहा, यकृत,
योगः कास, हृद्रोग __ (पुटपक्क) शोथ, आम, अरुचि,
५७१२ मूलिकाबन्धनम् शिर पर बांधनेसे ज्वर कासादि
उतरता है ७०७५ विषमज्वरान्तक विशेषतः विषम ज्वर
५७१७ मेघनादमूल , " लौहम् (बृह.)
" " "
| ५८४९ यवादि योगः ज्वरकी दाह । ७०७६ विषमज्वरारिरसः विषम ज्वर
६४५० लाज मण्डः ज्वर, पिपासा, कफ, ७०९१ वीरभद्रभैरव ,, ज्वर, शूल
पित्त ७०९२ वीरभद्राख्यो ,, सन्निपात
७१३२ वैद्यनाथ वटी नवीन ज्वर ७०९४ वीरविक्रमो , विषमज्वर, सन्निपात ७१५८ बालुका स्वेदः अङ्गमर्द, शिरपीड़ा,शूल ७१०३ वृहच्चिन्तामणि समस्त ज्वर, कास, ७१६५ विदार्यादियोगः चातुर्थिक ज्वर, कास, रसः प्लीहा, शोथ
वायु, कफ - *(२५) ज्वरातिसाराधिकारः
-
काय-प्रकरणम्
६४८५ वत्सादन्यादि ज्वरातिसारको अत्यन्त ६४७९ वत्सकादिक्काथः ज्वरातिसार, विशेषतः
शीघ्र नष्ट करता है। दाह
। ६५५४ वृहत्पञ्चमूल्यादि रक्त सहित या रक्त६४८१
क्वाथः " "
रहित अनेक योगोंसे "
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८६२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ज्वरातिसार
न आराम होनेवाला ज्वरांतिसार ।
रस-प्रकरणम् ५६४४ मृतसञ्जीवनरेसः ज्वरोतिसार ५६५० मृतसञ्जीवनवटी , विसूचिका
चूर्ण-प्रकरणम् ६६५१ व्योषादिचूर्णम् ज्वरातिसार, तृषा, अ
रुचि, शोथ
मिश्र-प्रकरणम् ५७०९ मुष्टियोगः
ज्वरातिसार
(२६) तृषाधिकारः
-
कषाय-प्रकरणम्
लेप-प्रकरणम् ४९९९ मधुकादिफाण्टः तृषा, दाह, मूर्छा, भ्रम। ५९७५ रक्तचन्दनादि तृषाको अवश्य नष्ट ६४७७ वटशुङ्गादियोगः छर्दि, तृषा
लेपः करता है।
रस-प्रकरणम् गुटिका-प्रकरणम्
५५८९ महोदधि रसः तृषा ६६६४ वटप्ररोहादिगुटि० प्रवृद्ध तृषा
६१०४ रसादि गुटी प्रवृद्ध तृषा ६६६५ ,, , , पुराना तृषा रोग
मिश्र-प्रकरणम् अवलेहप्रकरणम्
६४५२ लाजोदक योगः तृषा (सरलयोग) ६६९८ वाद्यवलेहः तृषा
७१५२ वमन योगः , (२७) दन्तरोगाधिकारः
तैल-प्रकरणम्
लेप-करणम् ६२९० लाक्षाधं तैलम् दन्त चालन, दालन, ६३०८ लाङ्गली लेपः पैरके अंगूठे पर लेप शीताद आदि
करनेसे दांतके कृमि ६२९३ लोध्राचं , दन्त नाड़ी
निकल जाते हैं।
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दन्तरोम]
चतुर्थों भागः
८६३
धूप-प्रकरणम्
गुटिका-प्रकरणम्
५१७० महाखदिर वटि० दन्त पौष्टिक ६८७० विशालादिधूपः दन्त कृमि
५१८० मुण्ड्यादिगुटि० दन्त कृमि, दन्त शूल (२८) दाहाधिकारः
६३११ लामन्जकाद्युद्वर्तनम् दाह
कषाय-प्रकरणम् ६२०८ लाजादि काथः दाह, पित्त ज्वर ।
लेप-प्रकरणम् ५३६९ मसूरादि लेपः पैरोंकी दाह
रस-प्रकरणम् ६१०६ रसादि गुटी दाह
(२९) नासारोगाधिकारः
कषाय-प्रकरणम्
६७९६ विडङ्गाचं तैलम् नासा रोग ४९८४ मण्डूकपर्ष्यादि पीनस पर सरल योग ६८२८ व्याघ्री , पूतिनासा रोग ६४६८ वचादि कषायः प्रतिश्याय, पीनस, कफ | ६८३१ व्योषाचं , नासार्श ज्वर
नस्य-प्रकरणम्
६०२२ रक्तकरवीरयोगः नासार्श चूर्ण-प्रकरणम्
६०२३ रक्ताम्रस्वरसादि पीनसको ३ दिनमें ६६५४ व्योषादि चूर्णम् पीनस, श्वास नाशक, योगः नष्ट करता है।
रुचि स्वर वर्द्धक ६३२८ लाङ्गल्यादिनस्यम् पीनस, पूतिनासा रोग
६८८७ विडंगादि चूर्णम् प्रतिश्याय अवलेह-प्रकरणम्
रस-प्रकरणम् ५९३७ राज रसायनम् सैंकड़ों योगोंसे आराम
५४६९ मणिपर्पटी रसः समस्त नासा रोग न होने वाली पीनस३ दिनमें नष्ट हो जाती है।
मिश्र-प्रकरणम्.
७१४८ वचादि योगः प्रति श्याय तैल-प्रकरणम्
७१६१ विजया ,, , , ५९५५ रसामनायं तैलम् प्रतिश्याय | ७१७० वेल्लादि, पीनस
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८६४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[निद्रानाश
(३०) निद्रानाशाधिकारः
चूर्ण-प्रकरणम् ६६०४ विजया योगः निद्रानाश, अग्निमांद्य, अतिसार
.
(३१) नेत्र-रोगाधिकारः
कषाय-प्रकरणम्
। ५२४३ महा पटोलाद्यं लाल रेखाएं, पटल, ५०१३ महावासादिक्वाथः नेत्रकण्डु, तिमिर, नेत्र
घृतम्
वण, शुक्र, नक्तान्थ्य, दाह, पिल्ल, व्रण
पिल्ल, दूरदृष्टि, दृष्टिकी ५७३२ यष्टयादिक्वाथः नेत्ररोग
मन्दता आदि ५७४० यष्टयाद्याश्च्योतनम् दाहयुक्त सबण नेत्रशुक्र ५९४४ रास्नाद्यं धृतम् तिमिर ६४७१ वचादिक्वाथः पुराना नकुलान्ध्य, काच ६७४५ वासामृता गुग्गु. आंखोंसे पानी जोना, नक्तान्ध्य
घृतम् नेत्रशोथ, नेत्रमल, नेत्र ६४७४ , योगः कफ, तिमिर
कण्डू, तिमिर आदि ६५०२ वासकादिकषायः नेत्रगत रक्तस्राव, कफ ६५१८ , क्वाथः समस्त नेत्राभिष्यन्द,
तैल-प्रकरणम्
५२९९ महापिप्पल्याचं तिमिर, नक्तान्ध्य, नेत्रचूर्ण-प्रकरणम्
तैल कण्डू, नेत्रस्राव, दूरदृष्टि
आसन्नदृष्टि आदि ५६०७ मुक्तादि चूर्णम् तिरि, काच, खाज, नेत्राभिष्यन्द
लेप-प्रकरणम्
५३६४ मरिचादि लेपः अर्म गुग्गुलु-प्रकरणम्
५८१६ यष्टयादि , हर प्रकारकी नेत्रपीड़ा ६२५७ लोहादि गुग्गुलुः नेत्रशुक्र
५९८२ रसाञ्जनादि, समस्त नेत्ररोग
५९८४ , , कफाभिष्यन्द घृत-प्रकरणम्.
६३१३ लोध्रादि , नेत्राभिष्यन्द ५२१५ मधुकादि घृतम् अभिघातज नेत्ररोग ५२२२ मसूरादि , तिमिर
नेत्रपीड़ा
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RATATARATI
नेत्ररोग]
चतुर्थों भागा अञ्जन-प्रकरणम्
६०२० रोपणीकुसुमिका- तिमिर, अर्जुन, शुक्र, ५४३८ मञ्जिष्ठाद्यञ्जनम् क्लेद, रक्तजपीडा, वर्तिः मांस वृद्धि
अर्म, पिल्ल ६०२१ रोहिण्यादिवटी पित्तज, अर्म, नेत्रत्रण ५४४२ मनःशिलाधञ्जनम् तिमिर
६३२४ लाक्षादि योगः पिल्ल ५४४३ ,, ,, काच, शुक्र, अर्म, ६३२५ लामज्जकाद्यञ्जन सत्रग नेत्र शुक्र तिमिर
६८७५ वटक्षीराद्यञ्जनम् २ मासके फूलेको ५४४५ मरिचादिचूर्णा- आंखोंकी खुजली, कोच,
___ शीघ्र नष्ट करता है। अनम् कफविकार
६८७६ वातारिपत्रयोगः आंख फरकना, नेत्र५४४६ मरिचायञ्जनम् नेत्रस्राव
कण्डू, अधिमंथ ५४४७ , , नक्तान्ध्य
६८८१ वैदेहीवर्तिः पटल, तिमिर, शुक्ति, ५४४८ मालत्याद्यञ्जनम् ,
राजिका, शुष्काक्षि५४४९ मुक्तादिमहा,, समस्त नेत्ररोग
पाक, तोद ५४५० मेषशृङ्गयोद्य,, नेत्रोंको स्वच्छ करता ६८८४ व्योषाद्या वर्तिः नेत्रार्बुद, पटल, काच,
लिमिर, अश्रु स्राव ५४५१ , , काच, नेत्रमल ६००६ रक्तचन्दनाद्या- नेत्र रोग
रस-प्रकरणम् ६००७ रक्ताञ्जनम् ६ प्रकारका तिमिर ५५०१ मधुका लोहम् समस्त नेत्र रोग ६००८ रसकेश्वरवर्ति रूक्षता, फला, दमास. ५५९५ माक्षिकादि वटी उपद्रव युक्त समस्त
नेत्र रोग अर्जुन आदि ६००९ रसाञ्जनादिगुटि० नक्तान्ध्य । ६०१० रसाञ्जनाद्यञ्जनम् पित्त विदग्ध दृष्टि
मिश्र-प्रकरणम् नक्तान्ध्य
| ५६८९ मधुकादि योगः तिमिर
अञ्जन नामिका ५७१८ मेघनादमूलयोगः तीन नेत्र पीड़ा ६०१३ , , क्लेद, कण्डू, पलकोंके | ६१९० रोचनादिचूर्णम् लगण
बाल गिरना ६१९१ रोधाद्याश्चोतनम् नेत्र पीड़ा, लाली ६०१४ , , नेत्र पटल ६४४८ लाक्षादि योगः रक्ताभिष्यन्द ६०१५ , , क्लेद, कण्ड, पिल्ल | ६४५४ लोचन शूलनी नेत्र पीड़ा ६०१६ रसादि वर्तिः समस्त नेत्र रोग
पोटली ૧૦૯
-
वर्तिः
"
६०११ , ६०१२ ॥
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[नेत्ररोग
६४५५ लोधादिगुटिका नेत्राभिष्यन्द । ६४६० लोध्राद्याश्च्योतन पित्तज, वातज, रक्तज ६४५६ , . योगः नेत्र शूल
नेत्राभिष्यन्द ६४५७ , . , पित्तक्तज नेत्र निन्द ६४५८, सेकः रक्तज
६४६१ , , नेत्रकण्डू, अश्रु, किर
किराहट
(३२) पाण्डुरोगाधिकारः
कषाय-प्रवरगम्
रस-प्रकरणम् ४९८६ मण्डूकीरसयोगः कार पर स लयोग । ५४७० मण्डूर गुटिका पाण्ड, कामला
५४८० , योगः पाण्डुको ७ दिनमें चूर्ण-प्रकरणम्
नष्ट करता है। ५१०३ मधुयष्टियोगः पाडु (स लयोग) । ५४८२ , लवणम् पाण्डुमें अत्युत्तम ५१५२ मूर्वाचं चूर्णम् पाण्डु
५४८३ , वटकः पाण्डु, शोथ, अर्श ६६२७ विशालादि, पाण्डु, ज्वर, दाह, अ- | ५४८५ ,, वज्रवटकः पाण्डु अग्निमांद्य अरुचि
५४८६ मण्डूराघवलेहः घोर पाण्डु भी शीघ्र ७१४४ व्योषादि , कामला
___ नष्ट होता है।
५५०० मदेभसिंह रसः ज्वर, पाण्डु, तृषा, अ. घृत-प्रकरणम्
ग्निमांद्य ५२६४ मूर्वाद्यं घृतम् पाण्डु, ज्वर, शोथ,
५५०४ मधुमण्डूरम् पुराना पाण्डु (रक्त
वर्द्धक) ५९३९ रजनी त्रिफला पाण्डु
५५४९ महातालेश्वररसः पाण्डु, कामला, हलीमक घृतम् ६७६९ व्योषाधं घृतम मृत्तिका भक्षण जनित ,
५६१७ मुस्तादि चूर्णम् पाण्डु
५८३६ योगराजगुटिका पाण्डु, कास, अजीर्ण, पाण्डु
अरुचि. - आसवारिष्ट-प्रकरणम्
६१३८ राजशेखरवटी पाण्डु, पित्तविकार, ५३२७ मण्डूरारिष्टः पाण्डु, अर्श, शोथ
अग्निमांद्य ६३०० लोहासवः पोण्डु, शोथ, अरुचि |
६३४४ लघुशिवगुटिका पाण्डु, ज्वर, प्लीहा । ६३८८ लोहचूर्ण वटकः पाण्डु, कामला, हलीमक
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पाण्डु ]
६३९८ लोह भस्म योगः कामला
६४००
६४०६
17
"" 75
"
मलादि, पाण्डु, शोथ (अग्नि
दीपक)
६४३४ लोह सुन्दर: ६४३९ लोहायो मोदकः ६४४१ लोहामृतम्
६९२६ वज्रक गुटिका ७०२८ विजया टिका ७०३५ विडङ्गादिलाहम्
""
५०१० महानिम्बबीजयोगः ५०४४ मुष्ककादिगणः ५०४८ मुस्तादि काथः ५८९४ रोघ्रादि ६२१० लोधादि
६५२२ विडंगादि
६५२५
"
"
"3
कषाय-प्रकरणम्
29
22
शुष्क पाण्डु
पाण्डु
גי
100)
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चतुर्थी भागे:
"9
"
भयंकर प्रमेह
<
पाण्डु, रक्तविकार, कास ७०९९ शोथ, पाण्डु शोथ, पाण्डु, हलीमकको ७ दिनमें नष्ट करता है ।
८६७
७०३७ विडङ्गादि लौहम् कामला, पाण्डुको शीघ्र
नष्ट करता है । पाण्डु, कामला पुरानी कामला, पाण्डु पित्तज, शोथ
पाण्डु, कामला, कासादि
७०३९ विडङ्गाय लौहम् ७०४१ " लेहः
चूर्ण-प्रकरणम् ६२२४ लवङ्गादिचूर्णम् २० प्रकार के प्रमेह
७०९८ वृद्धनवरसादि
गुटिका
नवायसचूर्णम् पाण्ड्वादि अनेक रोग
""
(३३) प्रमेहाधिकारः
७१६७ विशालादि योग: कामला
प्रमेहपर उत्तम (सरल ५२३८ महादाडिमाद्यं योग) घृतम् प्रमेह, शुक्रदोष, अश्मरि ६७६२ वृहदाडिमाचं प्रमेह, मूत्राघात
६७६३ वृहद्धान्वन्तरं
प्रमेह
कफज मेह
मिश्र-प्रकरणम्.
५६८५ मणिबन्धदहनम् कामला
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घृत-प्रकरणम्.
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तैल-प्रकरणम्
५३२६ मेहमिहिर तैलम् मूत्र रोग, हाथ पैरों की
दाह, स्त्री समागम ज
नित क्षीणता ।
५३३२ मध्वासवः
16:01
प्रमेह, मूत्राघात, पथरी (शुक्रवर्द्धक)
प्रमेह, बस्तिशूल, अरुचि प्रमेह, श्वास, उदर रोग
आसवारिष्ट-प्रकरणम् प्रमेह
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८६८
५३३३ मध्वासवः
५९६९ रोघ्रासवः
६२९८ लवङ्गासवः
प्रह
५५८७ महासेतु रसः ५५९४ माक्षिकादिचूर्णम् शुक्रमेह
५६२९ मृगमाला रसः
प्रमेह
५६५५ मृत्युञ्जय"
५६६६ मेघनाद ५६७३ मेहकेसरी,,
लेप-प्रकरणम्
५८१४ यष्टचादि लेपः पित्तरक्तज प्रमेहकी दाह
"
रस-प्रकरणम्
५५२७ मस्कमृगाङ्कोरस: मधुमेह
रसः
५५३० महाकल्कनामक प्रमेह, श्वास, कास, (बल वीर्यवर्द्धक) ५५३८ मद्दा कुष्माण्ड- प्रमेह, शुक्रदोष, अनिमांद्य, मलावरोध शिरपीड़ा ( वाजीकरण)
पाक:
५६७४ मेहद्विरदसिंहो ५६७५ मेहनाशन ५६७६ मेह भैरवो
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"
-भैषज्य - रत्नाकरः
15
[ प्रमेह
कफ पित्तज प्रमेह, ५६७७ मेहमुद्गरो रसः साध्यासाध्य समस्त प्रअरुचि
कफज तथा पित्तज प्रमेह दुर्जय प्रमेह, धातुक्षीणता
भारत
प्रमेह, बहुमूत्र, नपुंस्कता (अत्यन्त कामो
त्तेजक)
प्रमेह
पुरानामेह, मधुमेह, (शुक प्रवाहको ३ दिनमें (ष्ट करता है | )
प्रमेह
समरत प्रमेह
समस्त प्रमेह, शुक्रक्षय, शोथ
५६७८ मेहाङ्कुश रसः
५६७९ मेहानलो
५६८० मेहारि
५६८१ "
५८३९ योगीश्वरो
५८४१ योगेश्वररसः
""
29
""
"
६०६० रसचण्डांशु
६१२७ रसेन्द्रनाग रसः
६१३० राजमृगाङ्क,"
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६१४७ रामबाण रसः
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६१५३ रुजादन वटी ६१६७ रौप्य रस वटी
मूत्रकृच्छ्र
६०३३ रक्तसुतशेखररसः प्रमेह, अग्निमांद्य, अ
रुचि, शिरोग्रह आदि
समस्त प्रमेह
प्रमेह, प्रमेह पिडिका, वातव्याधि
६३७० लोकनाथपोटली ६३७९ लोकनाथ रसः
मेह, मूत्रकृच्छ्र
प्रमेह, अतिसार
पुराना प्रमेह
समस्त
"
39
""
त्तज रोग
पाण्डु, पि
६१४४ राजावर्तावलेहः प्रमेह, हृद्रोग, अर्श,
वृषण पीड़ा, वीर्यविकार समस्त प्रमेोंको अवश्य नष्ट करता है । प्रमेह, कफ, गुदवायु पूतिमेह ( सूज़ाक ) में उतम है।
असाध्य प्रमेहको भी नष्ट कर देता है । प्रमेह, बहुमूत्र,
अश्मरी
मेहनाशक, दीपन, वृष्य, रोचक
प्रमेह (वीर्यवर्द्धक) प्रमेह, मूत्रकृच्छ्र, कास
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६८९३ """
प्रमेह]
चतुर्थों भागः ६४३५ लोहादि चूर्णम् समस्त प्रमेह ६९२० वङ्गेश्वर रसः प्रमेह, सोमरोग, मूत्र६८९२ वङ्गभस्मयोगः , ,
कृच्छ्र, अश्मरी | ६९२१ " ,
साध्यासाध्य प्रमेह, मू
त्रक , धातुस्थज्वर, ६८९४ """
बहुमूत्र ६८९५ , , ,
प्रमेह, धातुक्षय, शुक्र- ६९२२ , , रक्तमूत्र, उदकमेह, मूनाश (पुत्रदाता)
त्रातिसार, क्षय ६९०६ वङ्गयोगः समस्त प्रमेह ६९४७ वडवानल रसः प्रमेह, अग्निमांद्य, अर्श ६९०७ ,, रसायनम् समस्त प्रमेहोंको अव- ६९६७ वसन्तकुसुमाकर प्रमेह, क्षय, कासादि श्य नष्ट करता है।
रसः (बलवीर्य कामवर्द्धक) ६९११ वङ्गावलेहः समस्त प्रमेह | ६९६८ वसन्तकुसुमाकर सोमरोग, मूत्रातिसार, ६९१२ बङ्गाष्टकम् प्रमेह, मूत्रातिसार, पित्त
रसः तृषा, दोह, ज्वर,
कृषता सोमरोग
६९७० ,, तिलकरसः प्रमेह, वातव्याधि ६९१३ बङ्गेश्वर रसः शुक्रस्राव, ज्वर, वात
| ६९८९ वातमेहान्तकरसः वातज प्रमेहको ३ दिनमें व्याधि
नष्ट करता है। ६९१४ , , समस्त प्रमेह
| ७०४० विडङ्गाद्य लौहम् दारुण प्रमेह, मूत्रवि६९१५ , , निर्बल कामी पुरुषोंके
कार लिये उत्तम
७०४८ विद्यावङ्गेश्वररसः पित्तजप्रमेह ६९१७ , ,
प्रमेह, अग्निमांद्य (वृष्य, | ७०५० विद्यावागीशरसः असाध्य लालामेह
वाजीकर) | ७११९ वेदविद्या वटी समस्त प्रमेह ६९१८ , , प्रमेह
। ७१२० ,,, मधुमेह
(३४) बालरोगाधिकारः
-D HA-16कषाय-प्रकरणम्
चूर्ण-प्रकरणम् ५०५३ मुस्तादि काथः बालकोंका अतिसार ।
| ५११४ मरिचादियोगः शोथ ५०५९ , , बच्चोंकी तृषा, दाह, ज्वर ५०७९ ,
५१४५ मुस्तकादिचूर्णम् खांसी हिमः बच्चोंकी दाह, वमन, ,
| ५१४७ मुस्तादि , संग्रहणी
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[बालरोग
५१५४ मूर्वाद्युद्वर्तनम् शरीरको पुष्ट तथा ग्र
घृत-प्रकरणम् होंको नष्ट करता है।
५७९७ यष्टयाधं घृतम् बाल शोष ५१५५ , , ग्रहदोष | ५९४३ रास्नादि , बल वर्ण वर्द्धक, ग्रहनाशक ५७६४ यवान्यादिचूर्णम् संग्रहणी ५९४६ रास्नाद्य , पौष्टिक ५९०४ रजन्यादि , संग्रहणी, वातज पीड़ा, ५९५१ रोहिण्यादि ,, ,,
पाण्डु, चरातिसार | ६२७३ लाक्षाधं , विसर्प और गण्डमालामें ६२२० लवङ्गचतुःसमम् आमातिसार, शूल
अत्युपयोगी ६२४० लाजादि चूर्णम् प्रवाहिकाको शीघ्र नष्ट | ६७२५ वचादि , दन्तोद्भेदगदान्तक, दांत करता है।
आसानीसे निकल आते ६२४२ लोधादि योगः अतिसार ६२४३ , , ज्वरातिसार
तैल-प्रकरणम् ६५८४ वचादि चूर्णम् स्कन्दग्रह
६७७३ वचादि सूर्यपोक पौष्टिक, अनेक रोग ६६१४ विडङ्गादि ,, अतिसार
तैलम नाशक ६६६१ व्योपाद्यं , कास
६७७४ वचाद्य
बालशोष
६८२७ व्याघ्री , बालज्वर, कास, स्व- अवलेह-प्रकरणम्
ग्विकार ५२०१ मिश्यादि लेहः वमन, खांसी, ५२०३ मूर्वाद्यवलेहः स्तन्य विकार
लेप-प्रकरणम्
बाल शोथ ५७८४ यवान्यादिलेहः छर्दि, अतिसार, ज्वर । ५४१६ मुस्तादि लेपः
| ६००० रेचन योगः रेचक ५७८५ यष्ट्यादिलेहः ज्वर ५९३३ रक्तप्रवाहिका रक्त प्रवाहिका
धूप-प्रकरणम् ___ न्तकलेहः
| ५४२८ मर्केटपुरीषादिधूपः स्कन्दापस्मार ५९३४ रजन्योदिलेहः अतिसार, ज्वर, श्वास, | ५४३४ माहेश्वर धूपः ग्रहदोष
पाण्डु ६२६४ लोध्राद्यवलेहः ज्वरातिसार
अञ्जन-प्रकरणम् ६७२३ व्याघ्यायवलेहः पुरानी खांसी ५४४४ मनःशिलाद्यावर्तिः समस्त नेत्र रोग
६०१९ रोनाद्यञ्जनम् " ,"
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बालरोग]
चतुर्थो भागः
६८७७ विडङ्गाद्यञ्जनम् कुकूणक, पोथकी ६८८२ व्योषाद्यञ्जनम नेत्रकण्डू
मिश्र-प्रकरणम् ५७१५ मृत्पिण्डप्रयोगः नागि शोथ ५७२० मोचरसादियवागू अतिसार ६१७७ रसाञ्जनादियोगः गुद पोक ७१५० वचाद्यत्सादनम् स्कन्दापस्मार ७१६८ वृद्धदारुकारच्यो. कुकूणक
तनम्
रस-प्रकरणम् ५६६३ मृद्विरेचन रसः मृत्तिका विरेचन
(३५) भगन्दराधिकारः
तैल-प्रकरणम्
लेप-प्रकरणम् ५८०४ यष्टयादि तैलम् भगन्दर, कुष्ठ, प्रमेह ! ६८४२ वटपत्रादि लेपः अपक्वभगन्दर पिडिका
रस-प्रकरणम् ६८१३ विष्यन्दन ,, भगन्दरशोधक, रोपण, ६१५७ रूपराजरसः भगन्दरको शीघ्र नष्ट सवर्णकारक
करता है। ७००९ वारिताण्डवरसः भगन्दर
७०२६ विजया गुटिका भगन्दर, शोथ, कासादि -O -40(३६) भग्नरोगाधिकारः
कषाय-प्रकरणम्
गुग्गुलु-प्रकरणम् ५८६१ रसोनादि कल्कः छिन्न भिन्न स्थान च्युत ६२५५ लाक्षा गुग्गुलुः अस्थिभङ्ग, सन्धिच्युत अस्थि
अस्थिकी पीड़ा ६६८७ वज्रवल्यादि भग्न रोग, ग्रन्थि
गुग्गुलुः
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८७२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मदात्यय
(३७) मदात्याधिकारः चूर्ण-प्रकरणम्
रस-प्रकरणम् ५०९९ मधुत्रिफलागुडाईक
५५३२ महाकल्याणवटी वातज तथा कफपित्तज योगः मद, मूर्छा
मदात्यय ६११७ रसामृतम् मदात्यय
६१४२ राजावर्त रसः समस्त प्रकारके मदाघृत-प्रकरणम्
त्यय ५२५८ माषघृतम् सुरापानकी गन्धको
| ७०६७ विश्वेश्वरो रसः कफपित्तज मदात्यय तत्काल नष्ट करता है।
मिश्र-प्रकरणम् तैल-प्रकरणम्
५६८८ मद्यमदप्रतीकारः शराबका नशा नहीं ५२७४ मथित तैलम पानात्यय
चढ़ता
(३८) मलावरोधाधिकारः
कषाय-प्रकरणम्
चूर्ण-प्रकरणम् | ५११८ मलशोधनचूर्णम् मृदुरेचक | ५१५६ मृदुविरेचनयोगः सुखविरेचक
५०८८ मृद्वीकादिकाथः रेचक
(३९) मुखरोगाधिकारः
कषाय-प्रकरणम् ६४६९ वचादि कषायः गलशुण्डिका
६५७९ वचादि चूर्णम् वाणीशोधक ६६५५ व्योषादि , उपजिह्वा
गुटिका-प्रकरणम् | ५१७० महा खदिर गले, ओष्ठ, जिह्वा और वटिका तालुके रोग ( दन्त
पौष्टिक)
चूर्ण-प्रकरणम् ५१३९ मुण्ड्यादिचूर्णम् मुखको दुर्गन्ध ५७४७ यवक्षार योगः तालु पाक
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मुखरोग]
चतुर्थों भागः
५१८० मुण्ड्यादिगुटिका दन्तकृमि, दन्त शूल | ६८३० व्योपायं तैलम् उपजिह्वा ५१८३ मुस्तादि वटी मुखकी तीव्र दुर्गन्ध
लेप-प्रकरणम् घृत-प्रकरणम्
| ५३७० मसूरादि लेपः सान्दर्य वर्द्धक ५२५७ मालत्याधं घृतम् समस्त मुख रोग ५३७७ माजूफलादिलेपः तारुण्य पिडिका ६७३६ वर्णक , चेहरेक रगको निखा- ५३८२ मातुलुङ्गादि , , , व्यङ्ग, रता और झुर्रियोंको
कालक (वर्ण्य) ष्ट करता है।
५३९१)
से मुखकान्तिकरालेपाः सौन्दर्य वर्द्धक तैल-प्रकरणम्
५४११) ५२६८ मञ्जिष्टादितैलम् नीलिका, मुंहासे, पि- |
५९७७ रक्षोध्नादि लेपः अत्यन्त सौन्दर्य वर्द्धक डिका, वलि, पलित | ५९९५ रालादि लेपः होठोंका तोद, परुषता, (सौन्दर्यवर्द्धक)
रक्तस्राव , स्त्रियोंके कपोलोंको पुष्ट । ६३१४ लोधादि लेपः तारुण्य पिडिका और कान्तिमान करता
६८४१ वट पत्रादि ,, सौन्दर्य वर्द्धक
६८४४ वटाङ्कुरादि , व्यङ्ग ५२७२ मञ्जिष्टाचं , मुंहके मस्सोंको नष्ट
६८४६ वटादि , तारुण्य पिडिका, व्यङ्ग करता और कान्ति ब
नीलिका ढ़ाता है।
६८४८ वरुणादि , व्यङ्ग ५२७३ , , मुखपिडिका, तिल, कालक, व्यंग, श्यामता
रस-प्रकरणम् ५२७९ मधुयष्टयादितैलम् कान्ति वर्द्धक ५२९७ महा पद्मकं , चेहरेको निखारता और | ५६११ मुखरोगहरोरसः भयङ्कर मुखपाक
____ कोमल करता है। ५६१२ मुख रोगारि , मुख रोग ५८०२ यष्टयादि , मुखसे लार बहना, ६१२८ रसेन्द्र वटो मुख रोग, ज्वर, वात रोग
५२६९,
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८७४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मूर्छा
(४०) मूर्छाधिकारः
कषाय-प्रकरणम् ५०१६ महौषधादिक्काथः मद, मूर्छा
अवलेहप्रकरणम् ५२०५ मृणालाधवलेहः मूर्छा
रस-प्रकरणम् | ५६२४ मूछन्तक रसः मूर्छा
५६२५ मूहिर , मूर्छा, दाह । ६०८३ रस योगः मूळ
(४१) मूत्रकृच्छू मूत्राघाताधिकारः
कषाय-प्रकरणम्
__ चूर्ण-प्रकरणम् ५००३ मन्थादि योगः अभिघातज मूत्रकृच्छू ५१४४ मुष्टि योगौ मूत्राघात, अश्मरी
(सरल योग) ५७४७ यवक्षार योगः मूत्रकृच्छ, अश्मरी ५०८२ मूत्रविरेचनीयो मूत्र रेचक
५७४८ , , , , द. म. क.
५७४९ , , समस्त प्रकारके मूत्रकृच्छ्र ५७२३ यवादि काथः मूत्र कृच्छ, गुल्म
(सरल योग) ५७३७ यष्ट्यादि क्वाथः , , दाह, तृषा, मूत्रावरोध
अवलेह-प्रकरणम् ५७४१ यूथीमूल योगः रक्तनाव, उष्णवान,
। ७११६ वृहद् गोक्षुराद्यव- मूत्रकृच्छ्, मूत्राघात, मूत्रकृच्छ, शूल युक्त
अश्मरि ___ मूत्राघात, शर्करा, अश्मरि ५८११ रक्तनारिकेल- मूत्रकृच्छ जलयोगः
घृत-प्रकरणम् ६१९३ लघुपंचमूलयोगः ज्वरगत मूत्रकृच्छ ६७४९ विदारी घृतम् पैत्तिक मूत्राघात, छर्दि ६५६० वृहद्वरुणादिकाथः मूत्रकृच्छ, बस्ति तथा
___ मूत्रनलीकी पीड़ा ६५४५ वीरतर्वादिकाथः मूत्रकृष्ट मूत्राघात, वायु
रस-प्रकरणम् ६५५७ वृहद्धात्र्यादि ,, ,, दाह, पीड़ा ५६१९ मूत्रकृच्छ्र हरः पित्तज मूत्रकृच्छको १
सप्ताहमें नष्ट करता है।
शर्करा
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मेदरोग] चतुर्थों भागः
८७५ ५६२० मूत्रकृच्छहरलौ- मूत्रकृच्छको अवश्य न- ६१०१ रससिन्दूरयोगः मूत्राघात
हम ष्ट करता है। ६३८७ लोहचूर्णम् ३ मात्रामें मूत्रकृच्छूको ५६२२ मूत्रकृच्छ्रान्तकरसः , " "
नष्ट करता है। ५६२२, " " " " "
६९८३ वरु गाद्यलौहम् मूत्राधात, दारुण मूत्र६०७० रस भस्म योगः साध्यासाध्य हर प्रकार
कृच्छू, अश्मरि, ज्वर का मूत्रकृच्छ्
( बलवर्द्धक)
(४२) मेदरोगाधिकारः
गुटिका-प्रकरणम्
लेप-प्रकरणम् ५१८४ मेथी मोदकः मेदमें अत्यन्त गुणकारी ५४२५ मोचरसादिलेपः शरीरकी दुर्गन्ध
६८५५ वासादि , शरीरकी , गुग्गुलु-प्रकरणम् ६६९४ व्योषादिगुग्गुलुः मेद, कफ, आमवात
रस-प्रकरणम्
५६२६ मूर्ति रसः मेद, कफ, अग्निमांद्य अवलेह-प्रकरणम्
५६७२ मेदोहर रसः प्रवृद्ध मेद
६०७१ रसभस्मयोगः मेद जन्य स्थूलता ६२६३ लौहरसायनम् मेदनाशक, बलवर्द्धक
६९४२ वडवाग्नि रसः स्थूलताको शीघ्र नष्ट
करता है। तैल-प्रकरणम्
६९४४ वडवाग्नि लौहम् स्थूलता, शोथ, शूल ५३०६ महासुगन्धतैलम् स्वेद, शरीरकी दुर्ग- ६९४९ वडवानलरसः एक मासमें मेदको न्ध आदि
नष्ट कर देता है।
७०३८ विडङ्गादिलौहम स्थूलता आसवारिष्ट-प्रकरणम् ६२९९ लोहारिष्टः स्थूलता, विषमञ्चर,
मिश्र-प्रकरणम् हृद्रोग
| ५६९० मधु योगः अत्यन्त मेदनाशक
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८७६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ यकृत्प्लीहा
(४३) यकृल्लीहाधिकारः
चूर्ण-प्रकरणम् । ५९५३ रोहितकंवृतम् अत्यन्त प्रवृद्ध प्लीहाको
शीघ्र नष्ट करता है। ५७४५ यवानिकादिचूर्णम् प्लीहा ६२१८ लघुहिङ्ग्वादि , , शूल ।
आसवारिष्ट-प्रकरणम् ६२२८ लवणत्रिफलादि,, यकृत, प्लीहा, विष्टम्भ, ५९७० रोहितकोरिष्टः प्लीहा, गुल्म, पाण्डु
अग्निमांद्य ५९७१ रोहितकासवः , ६२३० लवणादियोगः यकृत् , प्लीहा, उदर ५९७२ , , ज्वर, पाण्डु रोग
५९७३
" ,,, अरुचि ६२३३ लशुन योगः प्लीहा ६६०७ विडङ्गादिचूर्णम् प्रवृद्ध प्लीहा
रस-प्रकरणम् ५५५९ महामृत्युञ्जयरसः यकृत, प्लीहा, गुल्म
५५६१ ,, ,, लौहम् तिल्ली, उग्रञ्चर, खांसी गुटिका-प्रकरणम्
५८२२ यकृत्प्लीहारिलौहम् प्लीहा, यकृत् , गुल्म ५१७५ मानकादिगुटिका यकृत, प्लीहा, गुल्म, अर्श ५८२३ , , , , पुराना यकृत् ५१७६ , , , , ज्वर, अरुचि ६०८४ रस राजः , यकृच्छूल ज्वर
६१६० रोहीतक लौहम् ,, और अग्रमांसमें अवलेह-प्रकरणम्
अत्युपयोगी ५९३८ रोहितकावलेहः प्लीहा, यकृत्
६३७४ लोकनाथरसः , यकृत् , वातष्ठीला ६३७८ ,, , , , गुल्म
६४२० लोहमृत्युञ्जय रसः प्लीहा, यकृत् , अन्तघृत-प्रकरणम् ५९५२ रोहितकवृतम् यकृ छूल, प्लीहाशूल, ६९७५ वह्निकुमार रसः यकृत् , प्लीहा, उदररोग
अरुचि
७०१४ वासुकीभूषणोरसः प्लीहा, गुल्म - *
विद्रधि
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रक्त पित्त]
८७७
चतुर्थों भागः (४४) रक्तपित्ताधिकारः
कपाय-प्रकरणम्
अवलेह-प्रकरणम् ४९९० मदयन्तिकामूल रक्तपित्त नाशक सरल ५२०२ मुस्तायो लेहः हर प्रकारका रक्तपित्त कपायः योग
६६९७ वङ्गावलेहः मुखसे होनेवाला रक्त४९९६ मधूकादि कल्कः रक्तपित्त
स्राव ५०३१ मातुलुङ्गादियोगः नासागत रक्तपित्त (स- ६७०५ वासाखण्ड कुष्माण्ड रक्तपित्त, कास, क्षय रल योग)
६७०७ वासावलेहः रक्तपित्त, क्षतक्षय, ५०४१ मुद्गादि शीत- प्रबल रक्तपित्त
राजयक्ष्मा कषायः ५०७० मुस्तादि क्वाथः अधोगत रक्तपित्त
घृत-प्रकरणम्. (वामक)
५२३९ महादूर्वाद्यघृतम् नकसीर, रक्तवमन, ५०९० मेघनादादि क्वाथः रक्तपित्त
अर्शका रक्त तथा अन्य ५७३८ यष्टयादि क्षीरम् , ,,
हरप्रकारका रक्तस्राव ६५०४ वासकादि योगः रक्तपित्तको शीघ्र नष्ट। ५२४८ महा वासाद्य ,, भयंकर रक्तपित्त,
खांसी, स्वरभेद ६५०७ वासादि कषायः रक्तपित्त, कास, श्वास | ५२६० माहेश्वर ,, रक्तपित्त ६५११ , , प्रबल रक्तपित्त ६७४० वासाद्य , ,क्षय, कास, प्रतिश्याय ६५१२ , , रक्तपित्त, क्षय, कास
नस्य-प्रकरणम् चूर्ण-प्रकरणम्
६८८६ वासादि नस्यम् नासा प्रवृत्त त्रिदोषज ५०९७ मधुकादि योगः रक्तपित्त
रक्तपित्त ६२३७ लाक्षादि , क्षतज रक्तस्राव ६३३८ विष्णुकान्तायोगः उर्ध्व गत रक्तपित
रस-प्रकरणम् गुटिका-प्रकरणम्
५६२८ मृगज रसः रक्तपित्त ५१६१ मधुकायोगुटिका रक्तपित्त, छदि, मूकी, ६०२७ रक्तपित्तकुलक- रक्तपित्त में अत्यन्त गुज्वर, तृषा
ण्डन रसः णकारी | ६०२८ रक्तपित्तहररसः रक्तपित्त
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८७८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रक्तपित्त
६०२९ रक्तपित्तान्तक रक्तपित्त
मिश्र-प्रकरणम् लौहम्
| ५७१९ मोचरस सिद्ध गुद प्रवृत्त रक्तस्राव ६०३० रक्तपित्तान्तको भयंकर रक्तपित्तको भी |
क्षीरम् शीघ्र नष्ट करता है।
५८४७ यवादि मन्थ रक्तपित्त, दाह, तृषा ६११८ रसामृत रसः रक्तपित्त, ज्वर, अ
६१७० रक्तपित्ते कति- कुछ सरल योग म्लपित्त ७०१३ वासा सूत रसः रक्तपित्त
पययोगाः
रसः
__ (४५) रसायनवाजीकरणाधिकारः
-
कषाय-प्रकरणम्
६६०० वाराहीकन्दचूर्णम् वीर्य वर्द्धक ४९८५ मण्डूकपर्ष्यादि- रसायन
६६०१ , , योगः वृद्धभी युवाके समान रसायनम्
हो जाता है।
६६२० विडंगादियोगः जरा, व्याधि (सौन्दर्य चूर्ण-प्रकरणम्
वर्द्धक) ५०९२ मदनप्रकाशचू- बल वीर्य वर्द्ध क, प्रमेह । ६६२३ विदार्यादिचूर्णम् वीर्य वर्द्धक
र्णम् नाशक, अत्यन्त कामो- ६६२४ , योगः वृद्धको भी तरुणके त्तेजक
समान स्त्री समागममें ५०९३ मधुक
___ समर्थ बना देता है। अत्यन्त कामवर्द्धक
, ५१३२ माष
६६२५ बल, वीर्यवर्द्धक, बलि
, ,
,
६६३६ विश्वाचं चूर्णम् बुद्धि वर्द्धक पलित नाशक
६६३९ वृद्धदारुक. ५१३३ माषचूर्णयोगः
मति, स्मृति, बुद्धि अत्यन्त कामवद्धक
रसायनः वर्द्धक ५१३४ माषपण्यांदिचू- " " " ६६४२ वृषादि चूर्णम् वीर्य वर्द्धक
६६४६ वृहद्वाराहीकन्द- क्लीवता, प्रमेह, (स्त५१४२ मुषल्यादि , काम वक
चूर्णम् म्भक) ५७६६ यष्टिमधुकयोगः अत्यन्त कामोत्तेजक ५९०८ रसायन चूर्णम् , बल वर्द्धक,
गुटिका-प्रकरणम् ६५८७ वचा रसायनम् मेधा वर्द्धक वाणी शो- ५१६० मदनवर्द्धनो मो- काम शक्ति वर्द्धक
दकः
__णम्
घक
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रसायन वाजीकरण]
५१७१ महामदनमोदकः काम वर्द्धक
५१७२ महारतिवल्लभो मोदकः
५१७८ माषादिमोदकः
५७७४ यवादि वटकः
५९२५ रतिवल्लभमोदकः
५९२८ राज योगः
६६६७ वल्लभा गुटिका
६६६८ वाजीकरण
६६६९ वानरी गुटिका ६६७५ वीर्यस्तम्भकरी
वटिका
६६७६ वीर्यस्तम्भक
वटिका
६६७७
ܕܕ
او
वटी
६६७९ वृष्य गुटिका ६६८९ वृंहणी गुटिका
६२५६ लोह गुग्गुलुः
५१९३ मधु हरीतकी
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शुक्र दोष, दारुण नपुंसकतो
कामाग्नि रक्षक
कामशक्ति वीर्यवर्द्धक कष्ट साध्य नपुंसकता, शुक्रदोष
वीर्य की कमी, नपुंस
कतो, प्रमेह, वायु
चतुर्थो भागः
नपुंसकता (उत्तम वा
जीकरण)
गुग्गुलु -प्रकरणम्
रसायन
नपुंसकता ( बलवीर्य
वर्द्धक, उत्तेजक) अत्युत्तम वाजीकरण
स्तम्भक
अत्यन्तस्तम्भक, वा
जीकरण
स्तम्भक, बल वर्ण तथा
अग्निवर्द्धक
अवलेह - प्रकरणम्
अत्यन्त काम वर्द्धक
अत्यन्त वृष्य,
वाजीकरण
रसायन, अनेक रोग
नाशक
५२०६ मलाई पाकः ५२०७ मुशली पाकः
६७०४ "
६७०१ वाजीकरो लेहः कामोत्तेजक
"7
६७०२ ६७०३ "
11
39
"
19
"
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"
६७०९ वहिरीतक्य
वहः
६७१० विजया योगः
६७१३ विडङ्गाद्यवले हः ६७१७ वृष्य योगः
६७३० वृहत् भल्लातक लेहः
५२५९ मापादि घृतम्
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६२६५ लघुअश्वगंधाद्यं घृतम् ६७२६ वचादि घृ०
वाजीकरण, वीर्यवर्द्धक धातुक्षय, अग्निमांद्य, प्रमेह, नपुंस्कता (अत्यन्त कामोत्तेजक)
८७९
अत्यन्त कामोत्तेजक
आधा पहर पश्चात् कामको उद्दीप्त कर देता है ।
लिंगकी शक्ति बढ़ती है
और वीर्य क्षय नहीं होता ।
अनेक रोग नाशक
घृत-प्रकरणम्
(काया कल्प ) समस्त रोग नाशक, यौवन और आयुवर्द्धक |
रसायन
बलवीर्यवर्द्धक, का
मोत्तेजक बालोंको काला, दृष्टिको
ती और वीर्य तथा
आयुकी वृद्धि करता है ।
लिंग शक्ति और वीर्य
वर्द्धक
बल्य, पौष्टिक
मेधा, स्मृति, अग्नि और वाणी वर्द्धक ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[रसायन वाजीकरण
६७४७ विजया घृ० अत्यन्त वाजीकरण, ५४८७ मदन कामदेवो रज तथा वीर्यको नष्ट वृष्य, स्तम्भक
रसः
और वीर्यकी वृद्धि क
रता है। कामोत्तेजक तैल-प्रकरणम्
| ५४८८ मदनकामदेवो बल, सौन्दर्य, तेज और ५३०७ महासुगन्धितैलम कामोत्तेजक, कपुंस्कता
रसः अत्यन्त कामवर्द्धक नाशक ५९५४ रतिवल्लभाख्य , पुरानी नपुंस्कताको भी | ५४८९ " "
नष्ट करता है । अत्य- ५४९० मदन कामो रसः बल, वीर्य तथा कामधिक काम वर्द्धक ।
वर्द्धक ५९५८ राज
५४९१ मदनकामेश्वर ,, जब तक नीबूका रस
न पिया जाय स्तम्भन आसवारिष्ट-प्रकरणम्
रहता है। ५३३६ महा द्राक्षासवः अत्यन्त कामोत्तेजक,
वीर्य वर्द्धक
| ५४९२ मदनमञ्जरी गु- अत्यन्त कामवर्द्धक
टिका ५३४१ मृतसंजीवनीसुरा अत्यन्त वाजीकरण, स्वास्थ्य रक्षक, वीर्य,
५४९३ मदनमुन्मद रसः ॥ " " स्मृति तथा अग्निवर्द्धक ५४९४ मदनसन्दीपन- अत्यन्त कामोत्तेजक, ५९६७ रसायनारिष्टः रसायन, पौष्टिक, बल्य,
स्त्री दोषसे उत्पन्न हुई
चूर्णम् बलिपालत नाशक
क्लीवता नाशक; वीर्य
हीन, प्रमेही और लेप-प्रकरणम्
व्याधि पोडित तथा ५३५५ मनःशिलादिलेपः स्त्री द्रावक
वृद्धोंकेलिये अत्युपयोगी ५३६२ मरिचोदि लेपः लिंगवद्धक, स्तनपोष्टिक ५४९५ मदनसुन्दररसः अत्यन्त कामोत्तेजक ५३७३ महाराष्ट्रयादि स्त्री द्रावक
५४९६ ,, , , वृष्य ६८४० वज्रवल्ली लेपः लिंगको अत्यन्त स्थूल
| ५४९८ मदनानन्दमोद- अत्यन्त काम, वीर्य करता है।
कम् और अग्निवर्द्धक रस-प्रकरणम्
५४९९ मदनोदय रसः अत्यन्त वीर्य वर्द्धक ५४६६ मकरध्वजो रसः वाजीकरण ५५०५ मधुयष्टयादि वीर्य वर्द्धक, नपुंस्कता ५४६७ , रसायनः सर्व रोग नाशक । चूर्णम् नाशक
८
.
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रसायन वाजीकरण]
५५२० मन्मथाभ्र रसः
५५२४ मल्ल चन्द्रोदयः
५५२९ महाकनकसुन्दर
रसः
५५३१ महाकल्प रसः
५५३३ महा कामेश्वरः ५५३४ महाकामेश्वरो
मोदकः
विकासकारक, अत्यन्त कामोत्तेजक 1
त्वचा, बाल, दांत
आदि गिरकर नवीन निकल आते हैं । कामवर्द्धक अत्यन्त कामवर्द्धक,
अग्निवर्द्धक तथा क्षय और प्रमेह नाशक, बुद्धिवर्द्धक
बल वीर्य तथा बुद्धिवर्द्धक, सब रोगनाशक नपुंस्कता, बल, पलित (अत्यन्त कामवर्द्धक)
५५६९ महा लक्ष्मी वि- शुक्रक्षय, लिंगशैथिल्य,
लास रसः
५५५४ महाबलविधाना
भ्रकम् ५५६७ महाराज वटी
५५८८ महेश्वर रसः
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चतुर्थी भागः
५६०२ मानिनीमान
૧૧૧
(अत्यन्त कामोत्तेजक, दृष्टिवर्द्धक)
मर्दनरसः
५६१४ मुशली पाकः
स्त्री द्रावक
अत्यन्त बलकारक, अत्यन्त वाजीकरण, बलवर्द्धक, दुष्ट प्रयोग
अत्यन्त वाजीकर, बल
वीर्य, पौरुष वर्द्धक
जनित नपुंस्कतानशिक | ५६४० मृतकन्दर्पजीवन अत्यधिक कामोत्तेजक वीर्यवर्द्धक
बलिपलित
नाशक,
आयु वर्द्धक, इन्द्रिय
अत्यन्त वीर्यवर्द्धक, का मोत्तेजक, उत्साहवर्द्धक
रसः
५६५९ मृत्युंजय रसः
५६६० "
५६६१ "
27
५६७० मेथी पाकः
६०३१ रक्त रसः
"
६०३८ रतिकाम रसः ६०३९ रतिवल्लभपूग
पाक:
६०६९ रस पोटली ६०८१ रस माणिक्यम्
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33
अत्यन्त कामवर्द्धक बल्य,
करण, रसायन
अत्यन्त वाजीकरण
अत्यन्त वीर्यवर्द्धक, अग्नि बल वर्द्धक;
६०४० रतिवल्लभोमादक: अत्यन्त ओज, बल,
वीर्य और दृष्टिवर्द्धक, वाजीकरण
६०९१ रसवीरमहारसः ६१११ रसाभ्रकम्
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८८१
अत्यन्त कामोत्तेजक,
बल्य, पौष्टिक
समस्त रोग नाशक
22
"
अत्यन्त वाजी
बलकारक
वाजीकरण, बलवर्द्धक, अग्निवर्द्धक
जरानाशक, आयुवद्भक अत्यन्त अग्निवर्द्धक.
वृद्धावस्था के कारण उत्पन्न पलित रोगको नष्ट करता है 1
६११३ रसा गुटिका रसायन, अनेक रोग
नाशक
५६०१ मानसोल्लास चू० वृष्य, अग्निदीपक, का मोत्तेजक कामोत्तेजक, स्तभ्मक, ६१२५ रसेन्द्रचूडामणि अत्यन्त काम वर्द्धक,
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८८२
भारत-भैपज्य-रत्नाकरः
[रसायन वाजीकरण
-
रसः
रसः स्तम्भक
६४२२ लोह रसायनम् रसायन (समस्त ६३३१ लक्ष्मणा लौहम् वृष्य, वाजीकरण, कृ
शक्तियोंको बढ़ाता है) पता नाशक. जिनके ६४२३ , , रसायन कन्या ही कन्या होती ६४३८ लोहादि योगः वीर्य स्तम्भक हों उन्हे पुत्र प्राप्त | ६४४० लोहाघो रसायनः रसायन
होता है। ६९१९ वंगेश्वर रसः लिंग शैथिल्य, रक्त६३३३ लक्ष्मी विलासः वृद्धोंको युवाके समान
मत्र, मधुमेह करता है, अत्यन्त ६९२३ वङ्गेश्वरादि वटी स्तम्भक, बल वीर्य वकामोत्तेजक
र्द्धक, स्त्री द्रावक ६३३६ लक्ष्मीविलास अत्यन्त वाजीकरण, ६९३२ वा पञ्जरे रसः वलि पलित नाशक, वीर्यवर्द्धक, नपुंस्कता
बल ओयु वर्द्धक तथा बहु मूत्र नाशक | ६९३८ वज्रेश्वर रसः शरीरको दृढ करता है। ६३३८ लघुकामेश्वर बल वीर्य कामवर्द्धक । ६९३९ , , १ दिन खानेसे १२ वर्ष गुटिका
तक स्वास्थ्य ठीक ६३३९ , , मोदकः वीर्यवर्द्धक, स्तम्भक,
रहता है। स्त्री द्रावक
६९४१ वटेश्वर रसः शरीरको दृढ करता है। ६३४१ ,, चन्द्रोदयरसः अत्यन्त वाजीकरण, ६९६९ वसन्ततिलक ,, बल वीर्यवर्द्धक अनेक बल वीर्य अग्निवर्द्धक
रोग नाशक ६३६८ लीलाविलास ,, अत्यन्त वाजीकरण, पौ-६९७८ वाजीकरोवटकः अत्यन्त काम वर्द्धक
ष्टिक, नपुंस्कता तथा | ७०३२ विडंगादिचूर्णम् वृद्धको तरुणके समान बहु मूत्र नाशक
करता है। ६३७५ लोकनाथ रसः अत्यन्त पौष्टिक; अत्य- | ७०३४ , योगः जरा तथा पलित नाशक
न्त कामोत्तेजक, उ- ७०६० विलासिनो वल्लभ स्तम्भक, मानिनी मान त्साह, सौन्दर्य तथा रसः
भञ्जक स्वर वर्द्धक । ६३९७ लोहभस्मयोगः जराव्याधि नाशक, ग
कल्प-प्रकरणम् रविषके प्रभावको रो- ६८९१ वृद्धदारुककल्पः अत्यन्त बल, रूप और कने वाली।
आयुवर्द्धक ६४२१ लोह योगः रसायन
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रसायन वाजीकरण]
मिश्र-प्रकरणम्
५७०३ माष पायसः
५७०४ माषादि योग:
५७०८ मुशल्यादि,”
५०३४ माषादि क्वाथः ५०८४ मूर्वादि ५८५६ रसोन कल्कः
५८८३ ”
५८६० रसोन सप्तकम्
५८७९ रास्नादि काथः
ور
29
""
अत्यन्त वाजीकरण
71
""
कषाय-प्रकरणम्
५००५ मरिचादिकषायः वात व्याधि नाशक सरल योग ५०११ महानिम्ब योगः असाध्य गृध्रसी (सरल योग)
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""
५०३३ माष बलादि " पक्षाघात, मन्यास्तम्भ, अर्दित,
पक्षाघात
उरुस्तम्भ
सर्वाङ्ग एकाङ्ग वात, अदित, ऊरुस्तम्भ, गृसी इत्यादि अपतन्त्रक, गृध्रसी, कटि पृष्ठ शूल, वातोदर पक्षाघात, कुब्जता, हनुप्रह, गात्र शुष्कता, मूकता, गद्गद्ता इत्यादि.
चतुर्थी भागः
(४६) वातव्याध्यधिकारः
पक्षाघात, जानुशूल, गृध्रसी.
६१७२ रक्तापामार्गयोग स्तम्भक
६१७९ रसाला
अति स्वादिष्ट, रोचक, कामोत्तेजक
७१५५ वाजीकरो वटकः अत्यन्त कामोत्तेजक
७१६२ विजया शुद्धिः
५८८५ १
५८८४ रास्नादि क्वाथः (महा) सर्वांग कम्प, श्ली
पद, मेदवायु, अन्त्रवृद्धि
अंगव्यथा
५८८७ "
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,
39
६२०१ लशुन योगः ६२०३ लशुनादि क्वाथः ६४६५ वचादि कषायः ६४९८ वरुणादि स्वेदः ६५४३ विश्वादिद्वादशाङ्ग क्वाथः
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(,, ) प्रस्वेत, शीत,
८८३
कम्प, सुप्ति, जिह्वास्तम्भ
सन्धि अस्थि मज्जागत
वायु, मन्यास्तम्भ, वातरक्तादि
वात व्याधि
वात कफ
ऊरुस्तम्भ
वात व्याधि
मांस सन्धि मज्जा स्नायु और सर्वाङ्गगत वायु
६५६१ वृहन्निम्बादियोगः असाध्य गृध्रसी
चूर्ण-प्रकरणम
५९०१ रक्त चन्दनादि सर्वांगगत वायु
चूर्णम्
५९०९ रसोन पञ्चकः ५९१५ रास्नादिचूर्णम्
वातव्याधि
समस्त वातज रोग
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८८४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वातव्याधि
५९१७ रास्नाचं , त्वक, अस्थि, स्नायु ६७५४ विन्दुसारायं ,, कटिस्तम्भ, दारुणयोनि और सन्धिगत वायुको
शूल,बस्तिगत वायु आदि शीव नष्ट करता है ६६४० वृद्धदार्वादि ,, ऊरुस्तम्भकी पीड़ा
तैल-प्रकरणम्
५२९१ महाकल्याणक धनुस्तम्भ, अर्दित, गुग्गुलु-प्रकरणम्
तैलम् कम्प, कुब्जता ५७८० योगराजगुग्गुलुः समस्त वातज रोग, |
| ५३०० महा बला , आमवात, गृध्रसी, आ(महा) अश, अपस्मारादि
ढयवात ५७८१ योगराजगुग्गुलुः समस्त वातज रोग
५३०१ महा बलाचं ,, अर्दित, भग्न, आमवात, (महा)
पक्ष संकोच, शरीरका ५९३१ रास्नादि , गृध्रसी
सूखना, मन्यास्तम्भादि ५९३२ , , वातव्याधि, शिरोरोग,
५३०४ महा माष , अर्दित, हनुग्रह, अप___ कर्णरोग, नाडीव्रण
बाहुक, गृध्रसी, मन्या६६९१ विश्वादि , विभ्रम वायु
स्तम्भादि, व्यायाम ज६६९२ , , कम्पवायु, गृध्रसी, शूल
नत सन्धि शैथिल्य. पाक-प्रकरणम्
५३०५ ,,
. पक्षाघात, अपतन्त्रक, ५९३५ रसोन पोकः बहिरायाम, अन्तरायाम,
अर्दित, अपबाहुक, विअपस्मार, अपतन्त्रक,
श्वाची आदि आनाह
५३०८ महा सुगन्धि वातव्याधमें शीघ्र प्रआढयवात, हनुग्रह,
लक्ष्मीविलास तैलं भावशाली, पुष्टिकान्ति आक्षेप, सन्धिभग्न,कटि
मेधा, बुद्धिवर्धक स्तम्भ इत्यादि. ५३१२ माष , पक्षाघात
, अर्दित, भयंकर घृत-प्रकरणम्
कर्णशूल, ऊर्ध्व जत्रुगत ५२६२ मुण्डयादिघृतम् वात व्याधि
समस्त रोग ५९४१ रास्नादि , समस्त वातज रोग ५३१४ ,, , अर्दित, मन्यास्तम्भ, ५९४७ रास्नाचं
पक्षाघात, गृध्रसी, ककष्ट साध्य वातव्याधि
र्णशूल और शुक्रक्षय ५३१५ मोष , अंगसंकोच
५३१३,
(वृहद)
५९४८,
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वातव्याधि]
चतुर्थो भागः
८८५
५३२० मूलकाद्यं तैलम् अत्यन्त प्रबल वातव्याधि
ध्रसी शिरोवायु, कम्पादि ५३२१ , , गृध्रसी, कम्प,कटिस्त- ६८०३ विषगर्भ तैलम् सन्धिवात, त्रिकग्रह, म्भ, पंगुता
कटिग्रह, ५९५६ रसोन , वातज रोगोंको शीघ्र ६८०६ ,, , समस्त वातज रोग
नष्ट करता है। ६८०७ ,, , पक्षाघात, हनुस्तम्भ, ५९५९ राल पक्षाघात
शिरो कम्पादि ५९६० रास्ना वातव्याधि, शिरोग्रह,६८१० विष्णु अनेक वातज रोग
अपस्मार, । ६८११ विष्णु , मनुष्यों और पशुओंके ५९६१ रास्नादि , वातव्याधि, स्वास,
समस्त वातज रोग, कास, मूत्रावरोध
नपुंस्कता अविभेदक ५९६२ रास्नापूतिक, धनुर्वात, अन्तरायाम,
(गर्भस्थापक) गृध्रसी, अक्षिस्तम्भ, ६८१२ ,
ऊर्ध्व वात, उंगलीग्रह, जिह्वास्तम्भ, पादहर्ष
अंग सूखना, लड़खड़ा६२७९ लघुनारायण ,, वातव्याधि,
ती चाल ६२८० लघु माष , बाहुकी पीड़ा ६८१७ वृषमूलादि , वात भंग ६२८१ ,, माषादि , वात व्याधि ६७८४ वाजिगंधादि , गृनसी
नस्य-प्रकरणम् ६७८५ वातकुलान्तक ,, भंग, खंज, पंगुता आदि ५४५७ मरिचादि नस्यम अपतन्त्रककी बेहोशी ६७८६ वातारि , कुब्जता, आक्षेपक, पंगुता, सुप्तिवात, पक्षा
रस-प्रकरणम् घात आदि ५५२५ मल्लपञ्चरत्नरसः समस्त वातज तथा ६७८७ वातारि तैलम् अंगोंका कम्पन, गृ
वातकफज रोग, (महा)
ध्रसी आदि ५५७२ महावह्नि रसः मूढ वात ६७८८ वायुच्छायासुरेन्द्र आक्षेपक, चित्तविकृति, ५५७५ ,, वातगजांकुश वातकफज रोग
- तैलम् मर्मगत वायु, अपस्मार ५६०५ मार्तण्डेश्वर वातादि अष्ट महा रोग, ६८०१ विषगर्भ , पक्ष, जंधा, उरु और
क्षय, कास संधिगत वायु, सींग- ५६३४ मृगाङ्क समस्त वातज रोग,हिक्का ग्रह, शून्यता
५६४७ मृत सञ्जीवनो वातव्याधि, उरुस्तम्भ, ६८०२ , , सन्धियोंका सूजन,
ओमवात
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वातव्याधि
-
५८४० योगेन्द्र अपस्मार, इन्द्रियनाश,
धनुर्वात, गात्रभंग मूर्छा
६९९३ वातराक्षसरसः पक्षाघात, कटिस्तम्भ, ६०८६ रसराजः अर्दित, उद्गार, शिर
आक्षेपक चकराना, अधिक प. | ६९९४ वातराज वटी वातव्याधि आदि अनेक सीना आना, हाथ पै
रोग रोका ठंडा रहना ६९९५ , , दाह, अनिद्रा, उरुस्तम्भ ६१०३ रसादि गुटिका पक्षाघातको शोघ्र नष्ट ६९९६ वातविध्वंसनरसः मन्योस्तम्भ, हनुस्तम्भ, करता है
गात्रशुष्कता, जिह्वास्तम्भ ६१०५ , गुटी स्पर्शवात
६९९७ , , , वात व्याधि, सूतिका६९५१ वडवानल रसः धनुर्वात, दण्डापतानक,
___ रोग, कफ कम्प ६९९८ , ,
सर्वांग व्यथा, अपस्मार ६९७४ वह्रिकुमार रसः वातरोग, अग्निमांद्य,
६९९९ ,, ,,
वायु, शीत, कफ, अकोस, कफ
निमांध ६९८० वातकण्टक रसः वातव्याधि, सन्निपात | ७००० , , , मन्यास्तम्भ, मलावरोध, ६९८२ वातगजाङ्कुश , साध्यासाध्य समस्त
अफारा वातज राग, (त्रिदोषज । ७००१ , , , समस्त वातव्याधि, गुल्म, गृध्रसीको ७ दिन में
जठर पीड़ा नष्ट करता है।)
७००२ वातारि रसः समस्त वातज रोग ६९८३ , , , समस्त वोतज रोग
७००३ , ६९८४ वातगजेन्द्रसिंहः अभिघात, व्याधि अ
७००४ , , वात कफज रोग, प्रमेह थवा अधिक स्त्री प्रसं
७००६ , , वात व्याधि गसे उत्पन्न अंगोंकी ७०९५ वृकोदरीवटी वात कफज रोग, आमक्षीणता
विकार ६९८५ वातचिन्तामणि- वातज राग, पित्तज- ७०९६ वृद्धचिन्तामणि- शरीरको शून्यता, अरसः रोग, (सिद्धप्रयोग)
ति निद्रा, रोमहर्ष, ६९८७ वातनाशिनीवटी दण्डापतानक, पक्षा
अपतन्त्रक घात, गृध्रसी ७१४२ व्याधिगजकेसरी वातपित्तज रोग, ज्वर ६९८८ वातपित्तारिरसः वातपित्तज रोग
रसः ६९९२ वातराक्षसरसः कम्पवात, सुप्तिवात,
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वातव्याधि]
चतुर्थों भागः
-
मिश्र प्रकरणम्
६१८० रसोन वटकः हनुस्तम्भ ५७०० महाशाल्वणयोगः वातज पीड़ा नाशक ६८४९ वल्मीकमृत्तिकाद्य- घोर उरुस्तम्भको भी प्रसिद्ध स्वेद
अवश्य नष्ट करता है। ५८५० यवान्यादि पेया कमर, हृदय, पार्व और
काष्ठकी पीड़ा ! ६८५२ वातनाशक लेपः वातज पीड़ा
दूर्तनम्
(४७) विद्रधि.
कषाय-प्रकरणम्
लेप-प्रकरणम् ६४९३ वरुणादिकषायः प्रवृद्ध अपक्व अन्तर्वि- |
५८०९ यवादि लेपः अपक विद्रधि दधि
रस-प्रकरणम् ६५०१ वर्षाभ्वादिक्काथः अन्तर्विद्रधि ६०५६ रसगन्धकयोगः अन्तर्विद्रधि, बाह्यविद्रधि
मिश्र-प्रकरणम् घृत-प्रकरणम्
| ५१३० मानक मूलादि कष्ट साध्य अन्तर्विद्रधि ६७३४ वरुणादि घृतम् दुस्साध्य अन्तर्विद्रधि
योगः
(४८) विरेचनाधिकारः
चूर्ण-प्रकरणम् ६६५८ व्योषादि चूर्णम् विरेचक
गुटिका-प्रकरणम् ५९३० रेचनी वटी आमनाशक ६१३५ राजवल्लभ गुटिका नाभि पर लेप करने
तथा सूंधनेसे विरेचन होता है।)
घृत-प्रकरणम् ५२४६ महावज्रकवृतम् तीब्र रेचक ६७५० विन्दु घृतम् ६७५१ ॥ " तीन रेचक (नाभिपर
लेप करनेसे भी रेचन
होता है। ६७५२ ,, , तोब रेचक
६७५३ "
".
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८८८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[विरेचन
रस-प्रकरणम्
७०५८ विरेकी रसः विरेचक ५५२२ मलभेदी रसः विरेचक
७०५९ विरेचनी गुटिका कृमि, ज्वर, (रचक) ६१५२ रुक्मिश रसः कष्ट रहित रेचन, वि. ! ७११३ वृहदिच्छाभेदीरसः तीव्र रेचक
शेषतः आमवात नाशक! ७१३१ वैद्यनाथ वटी उदर रोग, गुल्म, पा७०५४ विनोदविद्याधर उत्तम रेचक
ण्डु, कृमि, कुष्ठ.
(४९) विषरोगाधिकारः
कषाय-प्रकरणम्
५९८५ रसादि लेप चूहेका विष ५०१८ मातुल फल योगः पागल कुत्तेका विष ६३१० लाङ्गल्यादि , विपैले कीटोंके काट
नेसे उत्पन्न विस्फोटक चूर्ण-प्रकरणम्
६३१२ लूताविपहरोलेप मकडी आदिका विष ५११३ मरिचादि चूर्णम् सर्प विष (सरल योग) ६८६३ वृश्चिकदंश ,, , बिच्छका विष ५१५० मुस्तादि योगः दारुण कृत्रिम विष ६२३१ लवणादि , हर प्रकारका ,
अञ्जन-प्रकरणम् ६५९० वटशुंगादि ,, मण्डल सर्पका ,, | ५३६० मनःशिलादिवर्तिः बिच्छूका विष ६६२८ विशालादि ,, दुस्तरे मूषक , ६८७४ वचाद्यञ्जनम् गरविष
६८७९ विषहरी वर्तिः सर्पविष घृत-प्रकरणम्
६८८५ वन्ध्या कर्कोटकी- सर्प विषकी मूर्ती ५२६६ मृत्यु पाशच्छेदी मूषक, सर्प, मकड़ी । मूल योगः . घृतम् इत्यादिका विष, मूर्छा
नस्य-प्रकरणम् लेप-प्रकरणम्
। ६३२९ लाङ्गल्यादि न० सर्प विष ५३४३ मञ्जिष्ठादि लेपः मकडीका विष ५३५४ मनशिलादिगुटिका बिच्छूका विष
रस-प्रकरणम् ५३६७ मरिचोदि लेपः मक्षिका दंश ५५६२ महा मृत्युञ्जया सर्प विष, अजीर्ण ५३६८ ,, , वरटी (भिर्र) का विष ५९७८ रजन्यादि , मकड़ीके विषको शीघ्र ६०८२ रस योगः .. चूहेका विष
नष्ट करता है ! ७०८१ विषवत्रपातोरसः स्थावर और जंगम विष
-
--
गुटिका
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विषरोग]
चतुर्थों भागः ७०८२ विषवज्रपातोरसः भयंकरसे भयंकर विष ५६९६ महा गन्ध हस्ती- विषनाशक विचित्रयोग
नामागदः मिश्र-प्रकरणम्
५७१६ मृत्सञ्जीवनोऽगदः , , " " ५६८४ मञ्जिष्ठाद्योऽगदः विष ५६९५ महाऽगदः सर्पादिका भयंकर विष
६४४६ लजालुमूलयोगः सर्प विषका प्रभाव (अत्यन्त प्रभावशाली)
नहीं होने देत'
(५०) विसर्प.
कषाय-प्रकरणम्
ष्ठको अत्यन्त शीघ्र नष्ट ४९८८ मदनकफलादि विसर्पनाशक (वामक)
करता है। योगः
६८१५ विसर्प हर तैलम् विसर्पादि ५०६५ मुस्तादि क्वाथः हर प्रकारका विसर्प ६१९४ लघुपंच मूलादि- पित्त विसर्प
लेप-प्रकरणम् काथः
५३७१ मसूरादि लेपः विसर्प चूर्ण-प्रकरणम्
५३८७ मांस्यादि ,, अग्नि विसर्प ५९११ रामठादि योगः विसर्प
५३८९ , , विसर्प
५४२४ मृणालादि , पित्तज विसर्प अवलेह-प्रकरणम्
५९९८ रास्नादि , वातज ,, ५१८७ मञ्जिष्ठा भयायोगः विसर्प, रक्तविकार, खाज - तेल-प्रकरणम्
रस-प्रकरणम् ६८१४ विसर्प नाशन विसर्प और श्वेत कु- ७०८८ विसर्पजिरसः विसर्प
(५१) वृद्धयधिकारः कपाय-प्रकरणम्
चूर्ण-प्रकरणम् ५८६८ रास्नादि काथः अन्त्रवृद्धि
५१४० मुण्ड्यादि चूर्णम् अन्त्र वृद्धि ५८६९ ,, , वृद्धि रोग
६६२९ विशालादि योगः १ सप्ताहमें अन्त्र वृ. ६४९५ वरुणादि , वातज अन्त्र वृद्धि
द्धिको नष्ट कर देती है।
૧૧૨
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वृद्धि घृत-प्रकरणम्
लेप-प्रकरणम् ५२६१ मांस्यादि घृतम् अन्त्रवृद्धि, वातवृद्धि, ५८१० यवादि लेपः अण्डवृद्धि
मेदो वृद्धि, मूत्र वृद्धि, ६३०४ लाक्षादि ,, अन्वृद्धि, शोथ
पित्तवृद्धि ६७६१ वृहद्दन्ती घृतम् अन्त्र वृद्धि, वृषण वृद्धि
- रस-प्रकरणम् अन्त्ररोध, दारुण अ- ! ५५९० महोदधि रसः अन्त्रावरोध, अन्त्रवृद्धि न्त्र दाह
आदि
७००५ वातारि रसः अन्त्रवृद्धि तैल-प्रकरणम्
७१०० वृद्धिनाशनरसः ,,, ६८२६ बृहन्मदार तैलम् अन्त्र वृद्धि, (बल शुक्र. ७१०१ वृद्धिवाधिकावटी असाध्य अन्त्रवृद्धि भी वर्द्धक)
शीघ्र नष्ट हो जाती है।
(५२) व्रणाधिकारः
कपाय-प्रकरणम् ६४६४ वंशत्वगादिकाथः कोष्ठस्थ रक्तस्रावक
५३७२ महागौर्याचं धृ० शिरोव्रण, आगन्तुक
व्रण, विषमनाड़ीत्रण आदि
गुटिका-प्रकरणम् ६६७३ विडङ्गादिवटिका व्रणमें उपयोगी
५७९५ यष्टयादिघृतम् ताज़े घावको अत्यन्त
शीघ्र भर देता है। ६२७५ लाङ्गली , अग्निदग्ध व्रण, कीटदंश
जनित व्रण, मर्माश्रितव्रण, पुराना दुष्ट नाड़ीव्रण
गुग्गुलु-प्रकरणम् ६६९० विडङ्गादिवटिका- दुष्टव्रण, अपची नाडी
व्रण
घृत-प्रकरणम् ५२१२ मञ्जिष्ठाद्यं धृतम् अग्निदग्ध व्रण ५३५३ मधुच्छिष्टाय ,, , ,
तैल-प्रकरणम् ५२९२ महाकषायतैलम् पुराने घावको शीघ्र
भर देता है।
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व्रण]]
चतुर्थों भागः
५३२४ मेषरोममषी तै० पुरानेसे पुराना नाडीव्रण | ६३०७ लाङ्गलीकन्दलेपः नष्टशल्यको निकालता है ६२८२ लजालुमूल ,, पाक रहित शस्त्राघातको ६८५१ वसुकादि लेपः दुष्ट ब्रण
शीघ्र भर देता है। ६८६६ व्रणहरो लेपः नाड़ीत्रण, दुष्टत्रण (शो ६२९२ लिकुचादितैलम् व्रणशोधक, रोपण ।
धन, रोपण) ६७९९ विपरीतमल्ल ,, शस्त्राघात, फोड़े, उप-६८६७ ,, , बगनाशक
६८६८,
समस्त प्रकारके व्रण
चिका
भगंदर
६८३२ व्रणराक्षस , नाडीव्रण, खुजली, वि
धूप-प्रकरणम् स्फोटक, ब्रण
.५४२७ मनःशिलादिधूपः दुर्गन्धित पीपयुक्त वण, ६८३३ ,, ,, समस्त व्रण, पामा, कण्डू, विचर्चिका ५८१८ यवादि धूपः वातजवणकी तीव्र वेदना
और स्राव लेप-प्रकरणम् ५३५९ मनःशिलादिलेपः सवर्णकारक ५३८३ मातुलुङ्गादिलेपः वातज व्रणशोथ
रस-प्रकरणम् ५८०७ यवभस्मादिलेपः अग्निदग्ध वणको शीघ्र ६०३४ रक्तारि रसः व्रण, नाडीव्रण, अभिघानष्ट करता है।
तसे होनेवाला रक्तस्राव ५८०८ यवादि लेपः व्रणको फोडता है। ७१४६ व्रणरोपणरसः व्रण, गण्डमाला, भगन्दर ५८१२ , , व्रणकी दाह, पीड़ा ७१४७ , हर , समस्त प्रकारके व्रण ५८१३ यष्टयादिलेपः रोपण ५९८० रसाञ्जनादिकल्कः नाडीव्रण
मिश्र-प्रकरणम् ६३०२ लशुनादि लेपः वगके कृमि । ६४५३ लालादि योगः नवीन वण, कुष्ठ
- - (५३) शिरोरोगाधिकारः
-
कषाय-प्रकरणम्
घृत-प्रकरणम् ५०३६ मुण्डितिकायोगः अविभेदक, सूर्यावर्त ५७९३ यष्टयादिधृतम् पित्तज शिरोरोग ५८६४ रास्नादशमूलकाथः , शिरशल, ज्वरादि ६२७४ लाक्षारसादि , भ्रशूल,शंखशूल,सूर्यावर्त
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८५२
तैल-प्रकरणम्
५२७१ मञ्जिष्ठाद्यंतैलम् पलित और इन्द्रलुप्तमें अत्युपयोगी, बालोंको
"
५२७६ मधुकादि तैलम् ५२८७ मरिचाद्यं
दारुणक रोग
वातकफज शिरो रोग
५२९० महा कनक ५२९५ नील समस्त शिरोरोग ना
शक, नेत्र हितकारी ।
खिजाब (केशरंजक)
पलित
"
"3
५२९६ ५३१० मार्कव
५३११ मालव्यादि,, ५३१६ मांसी
५८०१ यष्टिमधु
५९६४ रुद्र
६२९५ लोहकिट्टाद्यं ६७९५ विडङ्गादि
59
"
""
""
"
12
99
39
"
99
६८२५ वृहदभृंगराज
तैलम्
"
-------
५३४८ मदनादि लेपः
५३६१ मरिचादिगुटिका
५३६३ "
लेपः
५३६५ "
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
गिरनेसे रोकता तथा
दीर्घ और घुंघराले करता है; शिरशूल तथा नेत्रशूल नाशक । केश वर्द्धक
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इन्द्रलुप्त, दारुणक रोग
अरुषिका
केशवर्द्धक
लेप-प्रकरणम्
रोग
३ दिनमें नष्ट करता है।
दारुणक
शिरोगत कृमि
अकाल पलित, इन्द्रलु, (बालोंको दीर्घ, घने और काले करेता है )
केश वर्द्धक
शिर पीड़ा
22
99
इन्द्र लुप्त
[ शिरोरोग
५३७५ माकन्दबीजादिलेप: अत्यन्त केश वर्द्धक ५३७६ माजूफलादि केशर ंजक (खिजाब)
५३८५ माषमस्यादि
५३८८ मांस्यादि
५३९०
-
"
५४२२ मृणालादि
५४२३
५८१५ यष्टचादि
५९७४ रक्तचन्दनादि ६३०३ लाक्षादि ६३२० लोहादि योगः
"
६८८८ विडंगादि
६८८९ विश्वादि
""
""
""
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"
"
""
"
"
"7
"
19
"
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"
नस्य--प्रकरणम्
५४५४ मधुकादिनस्यम् वात पित्तज शिर शूल
५४५६ मनः शिलादि
५४६२ महौषधादि
इन्द्रलुप्त, पलित
केशवर्द्धक
बालों को गिरने से रोकता और लम्बे, काले तथा घुंघराले करता है ।
शिर पीड़ा
13
इन्द्रलुप्त (केशपौष्टिक)
शिरपीड़ा
दारुणक
""
सफेद बालोंको जड़ से का करता है ।
अर्धावभेद
सूर्यावर्त, अर्धावभेदक
अर्धावभेदक
शिरोरोग, भुजास्तम्भ
रस-प्रकरणम्
५५७० महालक्ष्मीविलास वात कफज शिरो रोग
रसः
५६०६ मिहिरोदयवटी अर्द्धावभेदक, अनन्त - वात, सूर्यावर्त, शंखक ६०६१ रसचन्द्रिकावटी शिरोरोग, पीनस,
-
मिश्र-प्रकरणम्
६४६३ लोहादि योगः पलित
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शीतपित्त]
चतुर्थों भागः (५४) शीतपित्ताधिकारः
कषाय-प्रकरणम्
रस-प्रकरणम् ५८३१ यवान्यादियोगः शीतपित्त
५७३१ यष्ट्यादि काथः शीतपित्त
(५५) शूल
योगः
५०२४
"
"
"
पसली
"
कपाय-प्रकरणम् | ५१४८ मुस्तादि चूर्णम् कफजशूल, आम ५०२२ मातुलुङ्गरसादि पसली और हृदयका | ५७४६ यमान्यादि , वातजशूल
शूल, अपान वायुका ५७५३ यवक्षारादि , शूल, गुल्म, अग्निमांद्य रुकना, मलावरोध ५७५९ यवान्यादि , शूल
५९१९ रुचकादि ,, पार्श्वशूल, विसूचिका बस्तिका शूल (सरल | ६२२९ लवण योगः कफजशूल, योग)
६५७७ वचादि चूर्णम् समस्त प्रकारके शल ५०२५ , , , , कफजशूल, यकृत्क्षय ६६३४ विश्वादि , , , ,
जन्यशूल ५८५७ रसोनयोगः वातकफजशूल, (अग्नि
गुटिका-प्रकरणम् दीपक)
६६७२ विडंगादिमोदकः त्रिदोषज परिणामशल ६५२९ विदार्यादियोगः त्रिदोषज शूल
। ६६७४ विश्वादिवटी शूल, अग्निमांध, वायु ६५३३ विश्वादिकषायः शीघ्र शूलनाशक ६५३४ , , शूल
अवलेह-प्रकरणम् ६५४२ , , हृदय, पार्श्व, आमाशय
और पक्वाशयका शूल ६२५९ लशुनयोगः आमशूल ६५६८ व्याघ्यादि , हृदय, कुक्षि और पसलीका कफज शूल
लेप-प्रकरणम्
५३४४ मदनफलादिलेपः शूल चूर्ण-प्रकरणम्
५३४६ मदनादि , , ५१०७ मन्दारमूलिकाचं वातज शल | ५८०६ यवपिष्टलेपः दुस्तर उदर शूलको भी
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८९४
चतुर्थों भागः
शूल ]
-
-
रुचि
नष्ट करता है। । ६३९९ लोहभस्म योगः पक्तिशूल ५९८६ रसादि लेपः समस्त प्रकारके शूल, ६४४२ लोहामृतम् ,,,
उदर शूल
६४४४ लोहाभयाचूर्णम् शूल ५९९१ रसोनादिलेपः वातज शूल ६९२४ वचादि वटी शूल, वायु, अग्निमांद्य ५९९३ राजिकादिलेपः , "
७०४६ विद्याधराभ्रम परिणामशूल, अन्नद्रव
शूल, पुरानाअग्निमांध नस्य-प्रकरणम्
७०४७ , ,
परिणामशूल, आमशुल, ५४५९ मरिचादिनस्यम् शल
कृशता, आलस्य, अ. रस-प्रकरणम् ५४७९ मण्डूर योगः त्रिदोषज शूल ७०६३ विश्वरूप रसः अन्नद्रव शूल, प्रबल ५४८१ " , परिणाम शूलको अव
मलावरोध, वायु श्य नष्ट करता है। ७११२ बहत्रिफलाचं समस्त शूल, अग्निमांद्य ५४८४ , वटिका पक्तिशल
लौहम् ५५५१ महात्रिपुरभैरव परिणाम शूल ७१३४ वैश्वानर योगः त्रिदोषज शल ५५८१ महेश्वर रसः शूल, अग्निमांद्य, पाण्डु | ७१४० , लौहम् हर प्रकारका साध्या५६५१ मृतोत्थापनरसः हृदयशूल, पार्श्वशूल,
साध्य शल शिरशूल ६०७९ रसमण्डूरम् शल, अम्लपित्त
मिश्र प्रकरणम् ६३४३ लघुशंखभस्म शूल
। ५८४५ यवशक्तुयोगः पुराना परिणाम शूल ६३८५ लोहगुटिका परिणाम शूल ७१६४ विदार्यादियोगः त्रिदोषज शलको तुरन्त ६३८९ लोहत्रिफलायोगः समस्त प्रकारके शूल ।
नष्ट करता है।
(५६) शोथ
कषाय-प्रकरणम् ६५२४ विडंगादिक्वाथः शोथातिसार ६५३१ विशालादिक्वाथः पित्तजशोथ
चूर्ण-प्रकरणम् ६६१७ विडङ्गादिचूर्णम् शोथ ६६१८ , , शोथातिसार
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शोथ ]
चतुर्थों भागः
८९५
-
घृत-प्रकरणम्. ५२५३ माणक घृतम् शोथ
तैल-प्रकरणम् ५७९९ यवादि तैलम् वातज शोथ
रस-प्रकरणम् ५४७१ मण्डूरचूर्णम् असाध्य शोथ ६११४ रसाभ्रमण्डूरम् सर्व दोषज एकांग स.
वांग शोथ, श्वास, कास,
तृषा, छर्दि, ज्वर ७०३१ विडङ्गादिचूर्णम् शोथ ७१३० वैद्यनाथ वटी , ७१४५ व्योषादियोगः कफज शोथ
आसवारिष्ट--प्रकरणम् ६८३५ वासकासवः समस्तशोथ
लेप-प्रकरणम् ५८१७ यष्ट्यादि लेपः भिलावेकी सूजन ६८३९ वचादि योगः शोथ ६८६५ वेतसाद्यो लेपः पित्तजशोथ
मिश्र-प्रकरणम् - ६१८८ रास्नाद्युद्वर्तनम् शोथ
७१५४ वर्षाभ्वादिक्षीरम् ,
(५७) श्लीपदाधिकारः
चूर्ण-प्रकरणम् ५९०३ रजन्यादिचूर्णम् पुराना श्लीपद ६२१५ लघुवृद्धदारुकसमं इलीपद, वातरोग
चूर्णम् ६६४७ वृहद्वृद्धदारुक- स्लीपद, स्थूलता
समं चूर्णम्
तैल-प्रकरणम् ६७९४ विडङ्गादितैलम् श्लीपद
घृत-प्रकरणम् ६७५७ वृद्धदारुकघृतम् श्लीपद आमवात ६७५८ वृद्धदारुकोचं ,, श्लीपद, शोथ, आमवात
लेप-प्रकरणम्
| ५३४२ मञ्जिष्ठादिलेपः पित्तज दलीपद
(५८) स्त्रीरोगाधिकारः
कषायप्रकरणम् ४९८९ मदयन्तिकादि योनि दृढीकरण ४९९७ मधूकादिकषायः गर्भिणीका ज्वर
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८९६
५००४ मयूरशिखामूल योगः
५०१९ मातुलुङ्गबीजयोगः ५०३७ मुद्गयूष योगः
५०७४ मुस्तादि गणः
५०८५ मूषिककर्णीयोगः
५७४२ योनिशूलहरो
योगः
५७४३ योनिसङ्कोचक
क्वाथः
६५४६ वृषादि क्वाथः
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गर्भस्थापक ( सरल
योग )
"
"
सर्व सूतिका रोग योनिशोधक, स्तन्यशोधक, कफनाशक वन्ध्यत्व
योनिशल, योनि दाह
योनिको वालिकाकी
योनि समान दृढ़ करता है । योनिसङ्कोचक रक्त प्रदरके वेगवान रक्तको रोकता है ।
५७४४ योग: ५८५२ रक्तशालि पिष्ट योगः ५८९६ रोधादिगणः
13 17
५८९९ रोहित्कादि
कल्कः
योनिदोष, कफ, मेद ३ दिनमें प्रदरको नष्ट करता है । ६१९२ लक्ष्मणामूलयोगः वन्ध्यत्व ६१९८ लज्जालुयोगः ६१९९ लज्जावत्यादियोगः
गर्भपात निवारक
".
६४७५ वज्रकांजिकम्
मक्कल शूल नाशक, स्तन्य वर्द्धक, अग्नि
दीपक
अनेकविध प्रदर
19 "
चूर्ण-प्रकरणम्
५०९५ मधुकादिचूर्णम् कफज प्रदर ५१२७ मातुलुङ्गमूलादि गर्भस्थापक
योगः
५१२८ मातुलुङ्गादिचू०
५१३१ मालती योगः
५१३६ माषादि चूर्णम् ५१४१ मुद्रपुष्पादियोगः
"
५१५८ मेथिकाद्यचूर्णम ५७५० यवक्षार योगः मक्कल शूल ५७६९ यष्ट्यादिचूर्णम् स्तनका व्रण गर्भिणीकी
५७७०
""
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[ स्त्रीरोग
सुखप्रसव कारक प्रसूताकी उदवृद्धि सोमरोग
योनिसंकोचक, जल
स्रावशोषक
गर्भावरोधनाशक
प्रसव पीड़ा
५९०६ रसाञ्जनादियोगः रक्त प्रदर
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५९०७ 12
17
वन्ध्यत्व
५९२० रेणुकादि योग: ६५७५ वचादि चूर्णम् योनिशूल ६५९६ वनकार्पासयोगः स्तन्यवर्द्धक
५२३० महाकल्याणकं
घृतम
ܕ
33
गुटिका-प्रकरणम्
५१६८ मलयूफलमोदकम् प्रदर
५९२३ रक्तबोलादिगुटिका मक्कलशूल, प्रसूताका, अत्यधिक रक्तस्राव
५९२४ रजः प्रवर्तिनीवटी नष्टार्तव कष्टार्तव,
पीडितार्तव
वमन,
घृत-प्रकरणम्
५२०९ मञ्जिष्ठादिघृतम् योनिशूल, गर्भिणीके
लिये हितकारी वन्ध्यत्व, गर्भसम्बन्धी समस्त विकार, कन्या
ही कन्याएं अथवा मृत्
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स्त्रीरोग]
चतुर्थों भाग:
८९७
-
घृतम
या अल्पायु सन्तान ) ६३१७ लोमनाशनयोगः योनिके लोम नष्ट उत्पन्न होना आदि
करता है ५२५४ मातुलुङ्गमूल- वन्ध्यत्व
६३१८ ,
६३१९ , ५२६३ मुद्गादिघृतम् रक्तप्रदर
६८६० विशालादिलेपः स्तन पीड़ा ५७८८ यवादि घृतम् सूतिका रोग ।। ६८६४ घृषमूलादियोगः सुख प्रसवकारक ६७५९ वृद्धदारुकघृतम पुत्रदाता, वृष्य । ६७६० वृहत्कल्याणघृतम् नं. ५२३० के समान
नस्य-प्रकरणम् तैल-प्रकरणम्
५४६४ मुण्डीतैलनस्य स्तनोंको दृढ करती है ५३१८ मुण्डी तैलम् स्तनोंको कठोर करता है, ६३२७ लक्ष्मणामूल- पुत्रदाता ५३२२ मृणालादितैलम् योनिकी शिथिलता, नस्यम्
___पिच्छिलता, दुर्गन्ध ६२९४ लोमनाशकतैलम् बालोको निकलनेसे
रस-प्रकरणम् रोकता है।
५५०२ मधुकाधवलेहः वेदना युक्त अनेक ६७७२ वचादि तैलम् स्तनवर्द्धक
प्रकारका भयंकर प्रदर,
योनिशूल, दाह, रक्त आसवारिष्ट-प्रकरणम्
स्राव ६२९६ लक्ष्मणारिष्टः वन्ध्यत्वादि
५५५७ महाभ्रवटी
५५५८ , सूतिका रोग, कृशता, लेप-प्रकरणम्
स्थूलता आदि
५५७९ महाशार्दूलरसः गर्भिणीके ज्वर, दाह, ५३५१ मधुकादि लेपः रक्त प्रदर
छदि आदि अनेक रोग ५३७४ माकन्दफलादि अत्यन्त यानिसंकोचक लेपः
६०३५ रक्तोदर कुठार जलोदर, [ तीब्र रेचक ] ५३८० मातुलुङ्गादिलेपः मक्कलशूलकी शिरपीडा ६०४३ रत्नप्रभावटिका समस्त स्त्री रोग ५३८४ मायाफलादिलेपः योनिको दृढ और बलि ६०४४ रत्नभागोत्तररसः वन्ध्यत्व के लिये अत्युरहित करता है
त्तम, गर्भिणी रोग ६३०९ लाङ्गल्यादिलेपः सुखप्रसवकारक
नाशक, कामवक ૧૧૩
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[स्त्रीरोग
६०९२ रसशार्दूलरसः सूतिका रोग, शोथ .
मिश्र-प्रकरणम् ६०९३ , सूतिका रोग ५६९१ मधुयोगः- गर्भिणी के रक्तस्रावको ६३३० लक्ष्मणा लौहम् समस्त स्त्री रोग
३ दिनमें बन्द करता ६३३२ लक्ष्मीनारायण सूतिकारोग, शूल
| ५७१३ मूलिकादिधारण योनि शूल, रजोरोध रसः
५७१४ मूषकपुरीषयोगः प्रदर ६३४९ लवङ्गादिचूर्णम् गर्भिणीकी संग्रहणी,
| ५८४८ यवादि यूपः सूतिका रोग अनेक प्रकारका अति
६१७५ रम्भाफलयोगः सोम रोगमें अत्युपयोगी सार, शूल, शोथ ६९४० वटाङ्गदियोगः पुत्रदाता । ६१८३ रोस्नादि पयः .. योनिशूल ७१०४ वृहज्जीरकादि सूतिका रोग, प्रदर; ६१८४ , , , , मोदकः निर्बल तथा सन्तान ६४६२ लोमनाशनयोगः योनि के लोम समूल हीन स्त्रियोंको विशेष
नष्ट करता है। उपयोगी । ७१५३ वरुणपत्रोद्वर्तनम् किक्किस
(५९) स्नायुक रोगाधिकारः चूण--प्रकरणम्
करता है। ५७७२ योगराजः स्नायुकको सात दिनमें | अवश्य नष्ट कर देता है।
मिश्र-प्रकरणम् लेप-प्रकरणम्
७१६९ वृन्ताक योगः स्नायुकको सात दिनमें ६८५४ वार्ताकमूलादिलेप: स्नायुकको शीघ्र नष्ट |
बाहर निकाल देता है।
(६०) हृदयरोगाधिकारः चूर्ण--प्रकरणम्
रस-प्रकरणम् ६६१५ विडंगादिचूर्णम् कृमिजन्य हृद्रोग, (कृमि
निम्न मार्गसे निकल | ७०७० विश्वेश्वररसः हृद्रोग, फुफ्फुस रोग जाते हैं ।)
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मिश्राधिकार]
चतुर्थों भागः
पारीशष्ट (१) (६१) मिश्राधिकारः
**6 ५१२४ महा सरस्वती अत्यन्त स्मृति वर्द्धक । ६००७ रसराजः बहु संख्यक रोग चूर्णम्
६०९० रसविकारशम- रस सेवन जन्य विकार ६६८३ मृणालकल्पः बल वीर्यवर्द्धक, पलित नोपायः
रोग नहीं होने देता, ६०९५ रस सार रसः
रोगोंसे रक्षा करता है। ६१८५ रास्नादिवस्तिः अनेक रोग ५६९३ मरिचशोधनम्
६९०८ वंगविकारशमनो- अशुद्ध वंगभस्म जनित
पायः विकार ५७५२ यवक्षारादियोगः परदेशका पानी नहीं ।
६९६४ वमनकारकरसः वामक लगता
६९६५ ५८३४ यशदविकारशम
७०८६ विषादि गुटिका वृद्धों के लिये अत्युनोपायः
पयोगी वृद्धावस्था के ६००१ राजवल्लभधूपः सुगन्धित धूप .
समस्त रोगनाशक ।
परिशिष्ट (२) (६२) धातु तथा विषोपविष शोधन मारण
** ५४७२ मण्डूर मारणविधिः
५५११ मनःशिलाशोधनम् ५४७३
५५१२ ५५१३ ५५१४...
५४७४
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९००
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[धातुप्रकरण
-
५५१६ मनःशिलासत्वपातनम्
६१६३ रौप्यभस्म हरताल गंधक योगसे ५८३२ यशदमारणम्
२-३ पुटी भस्म ५८३३ "
६१६४ रौप्यमाक्षिक शो५८३५ यशद शुद्धिः
धनमारणे ६०५० रस कर्पूरविधिः
६१६५ रौप्यमाक्षिक सत्वपातनम् ६०५१
उपदंश, कुष्ठ ६०५२ ,
उपद्रव युक्त उपदंशको ६१४० राजावर्त भस्मविधिः शीघ्र नष्ट करता है। । ६१४३ राजावर्त सत्व
पातनम् ६०५३ (अ) , रेचक, उपदंशनाशक | ६३८६ लोहचूर्ण प्रकारः ६०७२ रसभस्मविधिः
६३९० लोहद्रुतिः ६०७३
मुखरोगनाशक, काम ६३९१ चर्द्धक
६३९२ , ६०७४ ६०७५ सफेदभस्म
६३९४ ॥ मुखरोगनाशक सफेद । ६३९५ लोहनिरुत्थिकरणम भस्म
६४०१ लोहभस्मविधिः हिंगुल योगसे बिना ६०७७
पुटके भस्म ६०७८
अत्यन्त कामवईक, ६४०२ , , , गंधक योगसे योगवाही
६४०३ , , , भातके योगसे ५ पुटी ६०९६ रस सिन्दूरम्
६४०४ ,, ,, ३० पुटी अन्यन्त लाल ६०९७
भस्म ६०९८
६४०५ , , , ४० पुटी ६०९९
६४०७ लोह मारणम् नवसार योगसे बिना रससिन्दूर निर्माण तथा
अग्नि दिये सेवन विधिः
२ पुटी ६१६२ रौप्यभस्म पारद गंधक योगसे ६४०९ , बालुका यन्त्रद्वारा १० ६४१० "
१२ पुटी पुटी भस्म
गंधक योगसे बिना अग्नि
६४०८ "
३ पुटी
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धातुप्रकरण]
चतुर्थों भागः
पुटी
कढ़ाई में
६४१७ ॥
६४१२ ,, , गुड़ गंधक योगसे २० ६९०२ वंग मारणम् ___हरताल योगसे
६९०३ ,, , हरताल पारद योगसे ६४१३ ,, , १० पुटी अत्यन्त लाल भस्म
६९०४ ६४१४ लोह मारणम् ४ पुटी भस्म
६९०५ , "
हल्दी चूर्ण शोरक यो६४१५ लोह मारणम् पारद गंधक योगसे
गसे श्वेत भस्म (सोमामृत) बिना अग्नि ६९०९ वंग शोधनम् संभालू रस द्वारा
योगसे ३ दिनमें ६९१० , , अर्क दुग्ध द्वारो ६४१६ ,, , हिंगुल योगसे ७ पुटी ६९३३ वज्र मारणम सात पुटो भस्म
भस्म
६९३४ वज्र शोधनम्
६९३५ , , ६४१८,
कासीस योगसे बिना अग्नि ६९६१ वराटिका मारणम् ६४१९ ॥
शोरा गंधक योगसे लाल ६९६२ , शोधनम् भस्म
७०५७ विमला शुद्धिः ६४२९ लोहविकार शमनोपायः
७०७७ विष मारणम् ६४३० लोह शोधनम्
७०७८ , ६४३१ " "
७०८० ,, रक्षणम् विषको दीर्घकाल तक ६४३२ ॥ "
सुरक्षित रखनेकी विधिः ६८९६ बंग मारणम्
हरताल योगसे १० ७०८३
पुटी भस्म ६८९७ , ,
हरताल अर्क दुग्ध यो- ७०८५ , "
गसे ७ पुटी भस्म ७०८६ ६८९८ , ,
अपामार्ग योगसे ७१२३ वैक्रान्त , ६८९९ , , हल्दी जी रे आदिके ,, | ७१२४ ६९०० , "
हरताल तथा अर्कदुग्ध,, ७१२५ ,, , ६९०१ " "
इमलीकी छालके योगसे ७१२६ वैक्रान्त सत्व पाकण्डोंके सम्पुट द्वारा
तनम् इत्यो३म्
विष शोधनम्
७०८४ "
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भारत भैषज्य रत्नाकरके लिए वैद्य सम्मेलनके सभापति, आयुर्वैदिक कालेजों के प्रिन्सिपल तथा वैद्यक पत्रों और
विद्वानों की आई हुई सम्मतियों में से कुछ निखिल भारतवर्षीय वैद्य सम्मेलन इलाहाबाद और मैसूर के सभापति, अष्टांग आयुर्वेद विद्यालय कलकत्ता
___ के भूतपूर्व प्रिन्सिपल और भारतके अग्रगण्य वैद्यराज महापहोपाध्याय कविराज गणनाथ सेन सरस्वती M. A., L. M. S. "भारत भैषज्य--रत्नाकर, एक अमूल्य संग्रह है। इसका रचनाशैली बड़ी ही उत्तम है। मैं हरेक वैद्यसे इसे खरीदनेके लिए सुफारिश करता हूं । यह ग्रन्थ तैयार करने में बहुत परिश्रम किया गया है। निखिल भारतवर्षीय पञ्चदश वैद्य सम्मेलन हरिद्वारके अध्यक्ष; हिन्दु युनिवर्सिटी बनारसके आयुर्वेदिक
कालेजके भूतपूर्व आचार्य, भारतके प्रख्यात वैद्यराज श्रीयुक्त पं. यादवजी त्रीकमजी आचार्य, बम्बई से लिखते हैं भारत भैषज्य रत्नाकरमें प्रयोगोंका अकारादि क्रमसे उत्तमरूपेण संग्रह किया गया है। संस्कृत पाठके साथ सरल हिन्दी भाषामें टीका भी दी गई है । इस एक ही ग्रन्थको पास रखनेसे शास्त्रीय प्रयोगोंको देखनेके लिए अन्य ग्रन्थकी आवश्यकता नहीं रहती।
भारतके स्वनामधन्य अद्वितीय चिकित्सक छठे वैद्य सम्मेलन के अधिपति श्रीयुक्त पं. लक्ष्मीरामजी स्वामी आचार्य आयुर्वेद मारतण्ड, जयपुर स्टेट-- नवीन शैलीसे सुन्दररूपेण संगृहीत, जिसे पहिले कभी न देखा हो ऐसा ग्रन्थरत्न "भारत भैषज्य रत्नाकर' का सूक्ष्मावलोकन करनेसे प्रतीत होता है कि चिकित्सकों के लिए उपयोगी इस ग्रन्थको संग्रहीत करके कर्त्ताने सचमुच वैद्य--जगतको उपकृत किया है । भिन्न भिन्न ग्रन्थोंमें पाठभेद होनेके कारण प्रयोगों में जो विभेद देखा जाता था वह इसके द्वारा दूर हो गया है। मेरी दृष्टिमें इस ग्रन्थ के संग्रहकार अत्यन्त प्रशंसा के पात्र हैं।
अखिल भारतबर्षीय वैद्य सम्मेलन फतेहपुरके अध्यक्ष, महाराष्ट्रके अग्रगण्य वैद्यराज
श्रीयुक्त कृष्णशास्त्री देवधर प्राणाचार्य, नासिकसे लिखते हैं" भारत भैषज्य रत्नाकर' अपूर्व ग्रन्थ है और समस्त वैद्यों के लिये उपयोगी है यह एक ही ग्रन्थ पास रखनेसे चिकित्साकार्य में अनेकों ग्रन्थों का काम देता है । समस्त वैद्यों और वैध-विद्यार्थीयों के लिये यह एक पास रखने योग्य पुस्तक है।
निखिल भारतवर्षीय वैद्य सम्मेलन करांची के सभापति पञ्जाब प्रान्तीय वैद्य सम्मेलन के प्रधान और पटियाला स्टेट के राजवैद्य
श्रीमान् पं. रामप्रसादजी वैद्यरत्न, पटियाला-- ___ पुस्तकका संग्रहक्रम बहुत अच्छा है । विद्वानो के अतिरिक्त सुन्दर भाषा टीका होने के कारण सर्व साधारण के लिए हितकारी हैं। चिकित्सकों के लिए यह पुस्तक विशेष रूपसे संग्रह करने योग्य है।
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निखिल भारतवर्षीय आयुर्वेद विद्यापीठके भूतपूर्व सेक्रेटरी. ओनररी फिजिशीयन प्रीन्स वेल्स हास्पिटल कानपुर, श्रीयुक्त डा. प्रसादीलाल झा. L. M. S., आयुर्वेद निधि, भिषग्रत्न ___ भारत भैषज्य रत्नाकर अत्यन्त ही उपयोगी ग्रन्थ है । इसके तैयार करने में बहुत ही परिश्रम और व्यय किया गया प्रतीत होता है । इसमें बहुसंख्यक पुस्तको के प्रयोगों का संग्रह होने के कारण यह वैद्यों, डाक्टरों, आयुर्वेद विद्यापीठ आयुर्वेदिक कालेजों के विद्यार्थीयों, भ्युनिस्पेल्टियों और डिस्ट्रिक्ट बोर्डो के औषधालयों, आयुर्वेदिक फार्मसीओं और केमिस्टों के लिए बड़ा ही उपयोगी है। मैं सबसे इस ग्रन्थके खरीदनेके लिए हृदयसे प्रेरणा करता हूँ । ग्रन्थ मुझे स्थायी रूपसे उपयोगी सिद्ध हुवा है।
हिन्दु युनिवर्सिटी बनारसकी आयुर्वेदिक रसायनशालाके सुपारण्टेन्डेन्ट; यू. पी. गवर्नमेन्ट के बोर्ड आफ मेडिसिनके मेम्बर कविराज श्री प्रतापसिंहजो भिषग्मणि, लिखते हैं
यह लिखते अत्यन्त हर्ष होता है कि रसवैद्य नगीनदास छगनलाल शाह (उंझा) गुजरात वाले आयुर्वेदकी अत्यन्त सेवा कर रहे हैं। इनकी रसशाला तथा मासिक पत्र तो काम कर ही रहे थे, किन्तु अब आपने यह भारत भैषज्य रत्नाकर नामक ग्रन्थ सम्पादन कर परम उपयोगी कार्य किया है। ऐसे ग्रंथ के प्रकाशन और प्रचार की वैद्यसमाजमें बहुत आवश्यक्ता थी वह इसके सम्पूर्ण होनेसे पूरी हो जायगी, पुस्तक बहुत उपयोगी और उपादेय है । आशा है वैद्यसमाज इसे अपनाकर संपादकका उत्साहवर्धन करेगा।
ग्वालियर स्टेट आयुर्वेद विद्यालय, श्री-१०८ कालीकमली वाले के आयुर्वेद विद्यालय, ललित हरि आ. ३. कालेज पीलीभीत, जगन्नाथ पुरी संस्कृत महाविद्यालय, गुरूकुल विश्वविद्यालय कागड़ी श्रीमद् दयानन्द आयुर्वेदिक कालेज लाहौर, बडोदरा स्टेट की आयुर्वेदिक कालेज, पाटण आदि कालेजों के प्रिन्सिपलोंने मुक्त कंठसे प्रशंसा की है।
निखिल भारतवर्षीय आयुर्वेद महामण्डल की मुखपत्रिका
वैद्य सम्मेलन पत्रिकाआयुर्वेद क्षेत्र में कार्य करनेवाले वैद्य को इस पुस्तक को अवश्य रखना चाहिये, क्यों कि इस एक ही ग्रन्थ में प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध सभी ग्रन्थों के प्रयोग प्रत्येक रोग पर लिखे हुए हैं अतएव जिन वैद्योंको चिकित्सा काम में अधिक लिप्त रहना पड़ता है उनका अन्य ग्रन्थों में विभिन्न औषधियों के अन्वेषणा से बच कर केवल इसी से अनायास सब कार्य चल सकता है।
इसके सिवाय, वैद्य, अनुभूत योगमाला, आरोग्य रत्न, चिकित्सक, आंध्र मेडीकल जनरल, कल्पद्रुम, वैद्य कल्पतरू आदि वैद्यक पत्रोने मुक्त कंठसे प्रशंसा की है
पता-ऊंझा फार्मसी, अहमदाबाद, Ahmedabad.
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