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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१२ भारत-भैषज्य रत्नाकरः [रकारादि सततमेव विपद्य शिलालले तथा कान्ति बढ़ती है । यह नेत्रराग-नाशक और बलिवसां च समां कुरु तद्भिषक् ॥ अत्यन्त कामवर्द्धक है । दिनमितं मुविमर्च व कन्यका रसमाणिक्यम् स्वरस ऐनकरेऽति विशोषयेत् । माणिक्य रस देखिये। तदनु मूतवरस्य तु कज्जली __ रुचिरकाचघटे विनिवेशय ॥ (६०८२) रसयोगः (१) दिवसयुग्मयधः कृतवह्निना स (आविषान्तकः) च भवेदरुणः कमलच्छविः। ( यो. र. । विघा.) सकलरोगविनाशनवह्निवल | रसं गन्धं विपञ्चैव त्र्यूषणं टङ्करोहिणी । कुलकरः परमोऽपि हि कान्तिकृत् ।। पुनर्नवारसैभर्य गोमूत्रे च द्विगुञ्जकम् ।। नयनरोगविनाशकरो भवेत् पिबेदाखुविषार्तानां सर्वं हरति तद्विपम् । सकलकामुकविभ्रमकारकः। | विषदंष्ट्रोद्भवानन्यान्हन्यादाखुविपान्तकः ॥ स खलु कर्मविपाक जरोगहा ___शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध बछनाग, विशदनागयुतः खलु पारदः ।। सोंठ, मिर्च, पीपल, सुहागेकी खील और कुटकी १ भाग शुद्र सीसा और ४ भाग पारदको समान भाग ले कर प्रथम पारद गन्धककी कजली एकत्र मिला कर दोनेांको अच्छी तरह घोटें और | बनावें और फिर उसमें अन्य ओपधियोंका चूर्ण जब सीसा पारदमें मिल जाय तो उसमें ५ भाग मिला कर सबको पुनर्नवा ( बिसखपरे ) के रसमें शुद्ध गन्धक मिला कर कज्जली बना लें और फिर | घोट कर २-२ रत्तीकी गोलियां बनावें । उसे १ दिन घृतकुमारीके रसमें घोट कर धूपमें इन्हें गोमूत्रके साथ पीनेसे चूहेका विष तथा सुखा लें। अन्य दंष्ट्राविष नष्ट होते हैं। तदनन्तर उसे कपड़मिट्टी की हुई आतशी शीशीमें भर कर उसे बालुकायन्त्रमें रख कर २ (६०८३) रसयोगः (२) दिन क्रमवर्द्धित अग्नि पर पकावें । इसके पश्चात् (र. च. ; वृ. नि. र. । मूर्छा. ) जब शीशी स्वांगशीतल हो जाय तो उसमेंसे औष- कणामधुयुतं मूतं मूळयामनुशीलयेत् । धको निकाल कर सुरक्षित रक्खें । शीतसे कारगाहादि सर्व वा पीडनं हितम् ।। इसका रंग लाल होगा और यह कमल सदृश ___ पारदभस्म ( या रससिन्दूर ) को पीपल के शोभायमान होगी। चूर्ण और शहदके साथ सेवन करनेसे मूर्छा नष्ट इसके सेवनसे अग्नि और बलकी वृद्धि होती । होती है। For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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