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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] चतुर्थो भागः ४१३ मू में शीतल सेक ( ठंडा पानी छिड़कना छिन्नारसेन च वरीसलिलेन सप्तआदि ) और अवगाहन तथा शरीर पीडन वारं ततो मधुहविमरिचेन साकम् ॥ हितकारी है। लिह्यादुरक्षितहरं रसराजकाख्यं __ (६०८४) रसराजः (१) ___माषप्रमाणमतनूद्भवहेतुमेनम् ॥ (भै. र. । प्लीहा.) मोती भस्म, प्रवाल भस्म, पारद भस्म, स्वर्ण गन्धकेन मृतं ताम्र शुद्धगन्धकतुल्यकम् ।। भस्म, चांदी भस्म, अभ्रक भस्म, कान्तलोह भस्म द्वयोः पादं शुद्धरसं मर्दयेच्छूरणद्रवैः ।। और बंग भस्म समान भाग ले कर सबको एकत्र पुटेल्लघुपुटे विद्वान् स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत् । मिला कर सात सात बार गिलोय और शतावरके गुञ्जा? विलिहेव क्षौद्रैः प्लीहगुल्मविनाशनम।। रसमें धोट कर सुखा लें । यकृच्छ्रलं बरं हन्ति कान्तिपुष्टिविवर्द्धनः।। __ मात्रा-१ माशा। रसराज इति ख्यातो रोगवारणकेशरी ॥ अनुपान----शहद, घी और काली मिर्चका गन्धक योगसे बनी हुई ताम्र भस्म २ भाग, | चूर्ण । शुद्ध गन्धक २ भाग और शुद्ध पारद १ भाग ले | इसके सेवनसे उरःक्षत नष्ट होता और कामकर सबको एकत्र मिला कर जिमीकन्दके रसमें | वृद्धि होती है। खरल करें और फिर उसे शरावसम्पुटमें बन्द ( व्यवहारिक मात्रा--१ रत्ती ।) करके लघुपुट में फूंक दें। तदनन्तर 'पुटके स्वांग (६०८६) रसराजः (३) शीतल होने पर उसमेंसे औषधको निकाल कर ( भै. र. । वातव्या.) पीस लें। मात्रा--आधी रत्ती। पलैक मूछितं सूतं व्योमसत्वञ्च कार्षिकम् । सुवर्ण तत्सम ज्ञेयं कन्यारसविमर्दितम् ॥ अनुपान---शहद । इसके सेवनसे प्लीहा, गुल्म, यकृच्छूल और लौहं रूप्यं मृतं वङ्गं वाजिगन्धालवङ्गकम् । ज्यर नष्ट होता तथा कान्ति और पुष्टिकी वृद्धि जातीकोषं तथा क्षीरकाकोलीश्च तदर्द्धकम् ।। होती है। काकमाचीरेसेनैव सर्व सम्मर्दयेद् दृढम् । गुञ्जाद्वयप्रमाणेन वटिकां कारयेद्भिषक् ॥ __(६०८५) रसराजः (२) क्षीरश्च शरातोयमनुपानं प्रयोजयेत् । ( यो. र. ; र. रा. सु. ; वृ. नि. र. । पक्षाघातादिते वाते सोद्गारे सापतानके । क्षयरोगा. ; वृ. यो. त. । त. ७७ ) अङ्गभङ्गे तथा कुब्जे धनुस्तम्भे तथैव च । मुक्तापवालरसहेमसिताभ्रकान्त- शिरसो घूणिते स्वेदे हस्तपादादिशीतले ॥ वङ्गं मृतं सकलमेतदहो विभाव्यम् । । मनोविभ्रमकम्पे च आध्माने नेत्रवैकृते । For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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