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रसमकरणम्
चतुर्थों भागः
२४५
अनुपान-घी और खांड ।
हाण्डीके स्वांग शीतल हो जानेपर सम्पुटमें से पथ्य-दूध, भात या तक भात और शीतल औषधको निकालकर खरल करके रक्खें। जल ।
___ इसे काली मिर्चके चूर्ण और घीके साथ अथवा अपथ्य-उष्ण द्रव्य ।
पीपलके चूर्ण और शहदके साथ सेवन करनेसे ( मात्रा-२ चावल ।)
क्षय, अग्निमांद्य और संग्रहणीका नाश होता है । (५६३५) मृगाङ्करसः (३)
मात्रा-३ रत्ती। (वृ. नि. र. । क्षय.)
पथ्यापथ्य-इस पर ' लोकनाथ रस' के
समान पथ्य पालन करना और पित्तकारक द्रव्योंका रसवलितपनीयं योजयेत्तल्यमार्ग
त्याग करना चाहिये। तदनु युगलभागं मौक्तिकानां शुभानाम् ।। यवजचरणभागं मर्दयेत्सर्वमेतद्
(५६३६) मृगाङ्करसः (४) दिनमपि तुषवारा गोलकं लध्धमत्रे ॥
(हेममृगाङ्करसः) विधाय मुद्रां विदधीच भाण्डे
(र. र. । क्षष. . चुल्यां समुद्रे लवणेन पूर्ण ।
रसभस्म स्वर्णभस्म निष्कं निष्कं प्रकल्पयेत् । दिनं पञ्चानु मृगाङ्कनामा
शङ्खगन्धकमुक्तानां द्वौ द्वौ निष्कौ तु चूर्णयेत् ॥ ___ क्षयाग्निमान्यग्रहणीविकारे ।
मुक्ताभावे वराटी वा रसपादं च टङ्कणम् । योज्यः सदा वल्लिजसर्पिषा वा
वतयारनाल क्वाथेन मदेयेत्महरद्वयम् ॥ कृष्णा मधुभ्यां सततं त्रिगुञ्जः।
तद्गोलकं विशोष्याथ भाण्डे लवणपूरिते । वयं सदा पित्तकरं हि वस्तु लोकेशवत्पथ्यविधिनिरुक्तः ॥
| पचेद्यामचतुष्कञ्च मृगाङ्कोयं महारसः ॥
रोगराजनिवृत्त्यर्थ चतुर्गुञ्जामितं घृतैः । शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक और शुद्ध स्वर्ण पत्र ।
दातव्यं मरिचैः सार्ध पिप्पली मधुनापि वा ।। १-१ भाग, मोतीका चूर्ण २ भाग तथा जवाखार चौथाई भाग लेकर प्रथम पारदमें सुवर्ण डालकर
___पारद भस्म ( या रस सिन्दूर ) और स्वर्ण घोटें और जब दोनों मिल जाएं तो अन्य ओष
भस्म १-१ निष्क तथा शङ्ख भस्म, शुद्ध गन्धक धियां डालकर सबको १ दिन काञ्जीके साथ घोट
और मोतीका चूर्ण; मोतीके अभावमें कौड़ी भस्म कर गोला बना लें। इसे सुखाकर शरावसम्पुटमें
२-२ निष्क और सुहागा चौथाई निष्क लेकर बन्द करके उसे समुद्र नमकके चूर्णसे भरी हुई
सबको एकत्र पीसकर चीतामूलके काथ और हाण्डीमें नमकके बीचमें रक्खें और उस हाण्डीको १ मुक्तापादमिति पाठान्तरम् । . चूल्हे पर चढ़ाकर १ दिनकी अग्नि दें। तत्पश्चात् । २ वरारसेनेति पाठान्तरम् ।
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