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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [मकारादि (५६३३) मृगाङ्करसः (१) नमकके बीचमें रखकर ४ पहर पाक करें । तदनन्तर (रसे. सा. सं. ; र मं ; भै. र. । यक्ष्मा. ; यो. जब हाण्डी स्वांग-शीतल हो जाय तो सम्पुट में से तं. । त. २७; र. का. धे. । क्षय. ; र. चं.; .
औषधको निकालकर सुरक्षित रक्खें । र. रा. सु. । राजयक्ष्मा. ; वृ. यो. त.। इसे काली मिर्चके (आधा माशा) चूर्ण या १०
तं. ७६; यो. र. । राजयक्ष्मा.) पिप्पलीके चूर्णमें मिलाकर शहदके साथ सेवन करस्याद्रसेन समं हेम मौक्तिकं द्विगुणं भवेत् ।
नेसे राजयक्ष्माका नाश होता है । गन्धकञ्च समं तेनी रसतुल्यन्तु टङ्कणम् ।।
। मात्रा-४ रत्ती । ( ४ रत्तीकी २-३ मात्रा तत्सर्वं गोलकं कृत्वा काञ्जिकेन च पेषयेत् ।
करें।) भाण्डे लवणपूर्णथ पचेद्यामचतुष्टयम् ॥ परहेज-बैंगन, बेल, तेल और करेला न मृगाङ्कसंज्ञको ज्ञेयो राजयक्ष्मनिकृन्तनः। | खावें । स्त्री समागमका नाम भी न लें और क्रोध गुनाचतुष्टयश्चास्य मरिचैः सह भक्षयेत् ॥ न करें। पिप्पलीदशकै पि मधुना सह लेहयेत् ।
(५६३४) मृगाङ्करसः (२) वृन्ताकबिल्वतैलानि कारवेल्लश्च वर्जयेत् ।
(र. चं. । वात.) स्त्रियं परिहरेद्रं कोपश्चापि विवर्जयेत् ॥
श्वेतमल्लस्तु भागैको तत्समं तालकं शिला । शुद्ध पारद १ भाग और शुद्ध स्वर्णके पत्र दो
कांक्षिका मल्लभागा तु सर्व खल्ले विचूर्णयेत्॥ भाग लेकर दोनोंको एकत्र मिलाकर घोटें । जब
। जब पञ्चरत्नस्य विधिना पाचयेन्मन्दवहिना । स्वर्ण पारदमें मिल जाय तो उसमें २ भाग मोतीका |
स्वर्णाभो ऊर्ध्वगो ग्राह्यो मृगाङ्को रस उत्तमः ॥ चूर्ण और १ भाग ( या ४ भाग ) शुद्ध गन्धक
सर्ववातगदे चैव हिकाया कुष्ठरोगिणे । एवं १ भाग सुहागा मिलाकर सबको काञ्जीमें घोट
घृतशर्करया देयो दुग्धानं पथ्यमुत्तमम् ॥ कर गोला बनावें और उसे सुखाकर शराव सम्पुट में
तक्रान्नं वा शीतवारि उष्णद्रव्यं विवर्जयेत् ॥ बन्द करके सेंधा नमकके चूर्णसे भरी हुई हाण्डीमें
शुद्ध सफेद सोमल (संखिया), शुद्ध हरताल, * रसपादमिति पाठान्तरम् ।
शुद्ध मनसिल और फिटकरी समान भाग लेकर १. 'गन्धकञ्च समं तेन ' का अर्थ कई सबको एकत्र पीसकर "मल्ल पञ्च रत्न" में कथित टीकाकारोंने " गन्धक मोतीके बराबर " किया विधिके अनुसार मन्दाग्निपर पाक करें और फिर है परन्तु इसका अर्थ — गन्धक पारदके समान' ऊपरके पात्रमें लगे हुवे सुनहरे रंगके फूल (जौहर) भी हो सकता है और अनेक ग्रन्थोंमें “रस प्रमा- को छुड़ाकर सुरक्षित रक्खें । णाबलिः " पाठ है भी । कई टीकाकारोंने गन्धक यह रस समस्त वातज रोगों, हिक्का और ४ भाग भी लिखा है।
कुष्ठको नष्ट करता है।
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