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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः ।
[लकारादि
हुलहुलके रसकी १-१ भावना दे कर (३-३ | धीमान् यशस्वी वाग्मी च श्रुतधारी महाबलः। रत्तीकी ) गोलियां बना लें।
| भवेत् समां प्रयुञ्जानो नरो लोहरसायनम् ।। इनके सेवनसे प्लीहा, यकृत् , गुल्म, अष्ठीला, । अनेनैव विधानेन हेम्नश्च रजतस्य च । अग्रमांस, शोथ, उदर रोग, वातरक्त, कमठ और | आयुःप्रकर्षकृत् सिद्धः प्रयोगः सर्वरोगनुत् ॥ अन्तर्विदधिका नाश होता है ।
तीक्ष्ण लोहे के चार चार अंगुल लम्बे और (६४२१) लोहयोगः तिलके समान मोटे पत्रोंको अग्निमें तपा कर लाल . (ग. नि. । रसायना.)
करें और त्रिफलाके काथमें बुझा दें। इसी प्रकार तीक्ष्णायस्त्रिफलाचूर्ण घृतक्षौद्रविमिश्रितम् ।
गोमूत्र, यवक्षारके पानी, सेंधा नमकके पानी, खादतः प्रशमं याति जरा मृत्युश्च निश्चितम ॥ इंगुदी ( हिंगोट ) के क्षार के पानी और पलाश
तीक्ष्ण लोह भस्म और त्रिफलाका चूर्ण समान | क्षारक पानाम बुझाव । भाग ले कर एकत्र मिलावें ।
___तदनन्तर उन्हें कूट कर सूक्ष्म चूर्ण कर लें इसे घृत और शहदके साथ सेवन करनेसे | और उसमें शहद तथा आमलेका रस मिला कर वृद्धावस्था और अकाल मृत्यु नहीं आती ।
अवलेहके समान बना लें, एवं उसे घृतभावित १: (६४२२) लोहरसायनम् (१)
मृत्पात्रमें भर कर उसका मुख बन्द करके अनाज. (च. स. । चि. अ. १ ; ग. नि. । रसायना.)
के ढेर में दबा दें और हर महीने निकाल कर त्रिफलाया रसे मूत्रे गवां क्षारे च लावणे । | (लोहे या लकडी आदिके डण्डेसे ) उसे अच्छी क्रमेण चेङ्गदीक्षारे किंशुकक्षार एव च ॥
| तरह चला दिया करें । इस प्रकार जब एक वर्ष तीक्ष्णायसस्य पत्राणि वह्निवर्णानि वापयेत । | हो जाय तो उसे निकाल कर घी और शहदके चतरङ्गलदीर्घाणि तिलोत्सेधतननि च ॥ साथ नित्य प्रति प्रातः काल सेवन करें । जव ज्ञात्वा तान्यञ्जनाभानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्। औषध पच जाय तब सात्म्य आहार करना तानि चूर्णानि मधुना रसेनामलकस्य च ॥ चाहिये । युक्तानि लेहवत् कुम्भे स्थितानि घृतभाविते । लोहके समान ही स्वर्ण, रौप्यादि अन्य संवत्सरं निधेयानि यवपल्ले तथैव च ॥ धातुओंका भी प्रयोग करना चाहिये। दद्यादालोडनं मासे सर्वत्रालोडयन् बुधः। इस रसायनके सेवनसे मनुष्य रोग, जरा संवत्सरात्यये तस्य प्रयोगो मधुसर्पिषा ॥ और मृत्यु ( अकाल मृत्यु ) के हमलेसे सुरक्षित प्रातः पातबलापेक्षी सात्म्यं जीर्णे च भोजनम्। रहता है; उस पर अभिघातका कोई प्रभाव नहीं एष एव च लोहानां प्रयोगः संप्रकीर्तितः॥ पड़ता; उसका शरीर हाथीके समान बलशाली हो नाभिघातैर्न चातकैजेरया न च मृत्युना। जाता है तथा समस्त इन्द्रियां भी अत्यन्त बलवान स धृष्यः स्याद्गजप्राणः सदा चातिबलेन्द्रियः ॥ हो जाती हैं । इसे सेवन करने वाला मनुष्य धीमान,
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