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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि
समान बल आ जाता है । सुकुमारता और उत्सा- । इसे १ मास पश्चान निकाल कर ५ माशेकी हकी वृद्धि होती है । शरीर षोडश वर्षीय युवकके मात्रानुसार सेवन करनेसे १८ प्रकारके कुष्ट और समान सुन्दर हो जाता है और बहुत सी सन्तानें । विशेषतः गलत्कुष्ट नष्ट होता है। उत्पन्न करनेकी शक्ति प्राप्त होती है । आयु अत्यन्त | पथ्य-घी, चावल और दूध । दीर्घ हो जाती है । मुखकी कान्ति चन्द्रमाके समान |
(व्यवहारिक मात्रा-२-३ रत्ती ।) देदीप्यमान हो जाती है।
महाभक्तपाकवटी यह औषध शोष, यकृत् , अतिसार, प्लीहा, |
( रसे. सा. सं.। अजीर्णा. ) अपस्मार, सिध्म, यक्ष्मी, कास, श्वास, विसर्प,
प्रयोग संख्या ४९३५ "भक्त विपाकवटी" ग्रहणी, गुल्म, अश्मरी, शोथ, प्रदर, जलोदर,
देखिये। भस्मक, वमन, पामा, स्लीपद, प्रमेह, विबन्ध, भगन्दर, कुष्ठ, विषम ज्वर, पाण्डु, कान मुख उदर
महाभूताङ्कुशरसः नेत्र और मस्तकके रोग तथा मूत्रकृच्छ्र एवं आम
(र. का. धे. । उन्मादा.) वात, रक्त पित्त, अग्निमान्य, वातज रोग, कफज प्रयोग सं. ४९६१ " भूताङ्कुश रस (२)" रोग और पित्तज रोगोंको शीघ्र ही नष्ट कर देखिये । इस (महा भूताङ्कुश ) में देती है।
(१) अभ्रक और मुक्ताके स्थानमें स्वर्ण भस्म (५५५५) महाब्रह्मरसः
और (२) समन्दरझागके स्थानमें अफीम पड़ती ( र. का. धे. । कुष्ठा.)
है तथा रसाञ्जन और तुत्थका अभाव है। शेष
प्रयोग समान है। पलाशबीजचूर्ण च गोघृतेन समन्वितम् ।। ताभ्यां तुल्यं मृतं मूतं स्निग्धभाण्डे निरोधयेत॥ (५५५६) महाभैरवरसः धान्यराशौ स्थितं मासं निष्कैकं भक्षयेत्सदा । (र. का. धे.। सन्निपाता.) भक्षयेच्च यथाशक्ति महाब्रह्मरसो ह्ययम् ॥ रसेन्द्रविषशुल्बाभ्रलोहैर्वासारसप्लुतैः । पथ्यं घृतौदनं क्षीरं गलत्कुष्ठहरं परम् । सप्तकृत्वस्त्रिदोषान्तकृद्रसो भैरवो महान् ॥ अष्टादशानि कुष्ठानि हन्ति मृत्युनरामयान् । ककं वा द्वयं दद्याज्जातीफलसमायुतम् ।।
पलाश (ढाक) के बीजोंका चूर्ण और गोघृत रोगी वैद्योत्तमैस्त्यक्तः सोऽपि जागर्ति तत्क्षणात् १-१ भाग तथा पारद भस्म ( अभावमें रस पारद भस्म ( या रस सिन्दूर ), शुद्ध बछसि दूर ) २ भाग लेकर सबको एकत्र घोट कर नाग, ताम्र भस्म, अभ्रक भस्म और लोह भस्म चिकने पात्र में भरकर उसका मुख बन्द कर दें तथा समान भाग लेकर सबको बासेके स्वरसकी सात अनाजके ढेरमें दबा दें।
भावना देकर सुखाकर रक्खें ।
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