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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra रसमकरणम् ] (५५३६) महाकालरसः (२) ( र. का. . । कुष्टा ४० ) www.kobatirth.org चतुर्थी भागः गन्धबद्धं तु सूतेन्द्रं सत्त्वं तालकसम्भवम् । ताम्र भस्म च तुल्यांशमर्क क्षीरेण मर्दयेत् ॥ दिनं च बाकुचीतैले गुञ्जामात्रं च भक्षयेत् । भूतारिवृक्षमूलं च राजवृक्षत्वचा समम् ॥ गुडेन सह कषैकं भक्षयेद नुपानकम् । गलत्कुष्ठहरः ख्यातो महाकाली महारसः ॥ समान भाग पारद और गन्धककी कज्जली, हरताल सत्व और ताम्र भस्म बराबर बराबर लेकर सबको १ - १ दिन आक के दूध और बाबचीके तेल में घोटें । इसमें से १ रत्ती रस खाकर ऊपरसे भूतारि (ग) के पेड़ की जड़ और अमलतास की छालका १ तोला चूर्ण गुड़में मिलाकर खाना चाहिये । इसके सेवन से गलत्कुष्ट नष्ट होता है । (५५३७) महाकालेश्वरो रसः ( भै. र. । कास.; र. चं. । श्वास.; र. का. धे. । सन्निपात. ) मृतं लौहं मृतं बङ्गं मृतार्के मृतमभ्रकम् । शुद्धसूतञ्च गन्धञ्च माक्षिकं हिङ्गुलं विषम् ॥ जातीफलं लवङ्गञ्च त्वगेलानागकेसरम् । उन्मत्तस्य च वीजानि जयपालञ्च शोधितम् ॥ एतानि समभागानि परिचं हरनेत्रकम् । सर्वद्रव्यं क्षिपेत्खल्ले लौहदण्डेन मर्दयेत् ॥ शक्राशनस्य स्वरसैर्भावयेदेकविंशतिम् । गुञ्जामात्रा प्रदातव्या आर्द्रकस्य रसैर्युता ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९१ तदर्द्ध बालवृद्धेषु पथ्यं देयं यथोचितम् । पञ्चकासान् क्षयं श्वासं राजयक्ष्माणमेव च ॥ सन्निपातं कण्ठरोगमभिन्यासमचेतनम् । महाकालेश्वरो हन्ति कानाथेन भाषितः ॥ लोह भस्म, बंग भस्म, ताम्र भस्म, अभ्रक भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, स्वर्णमाक्षिक भस्म, शुद्ध हिंगुल, शुद्ध बछनाग ( मीठा विष ); तथा जायफल, लौंग, दालचीनी, इलायची, नागकेसर, शुद्ध धत्तूर - बीज और शुद्ध जमालगोटेका चूर्ण १ - १ भाग + एवं काली मिर्चका चूर्ण ३ भाग लेकर सबको लोहे के खरल में लोहेकी मूसलीसे घोटकर भांगके काथको २१ भावना दें और १-१ रत्ती की गोलियां बनाकर सुखा लें । इनमें पूर्ण वयस्क रोगीको १ गोली तथा बालक और वृद्धको आधी आधी गोली अद्रक के रसके साथ खिलानेसे पांच प्रकारकी खांसी, क्षय, दवास, राजयक्ष्मा, सन्निपात, कष्ठ रोग, अभिन्यास और मूर्च्छाका नाश होता है । (५५३८) महाकूष्माण्डपाकः ( वृ. यो त । त. १४९ ) कूष्माण्डस्य पचेलिमस्य बृहतःखण्डस्तुलासम्मितां स्तद्वीजान्विगतत्वचश्च विपचेन्मन्देन सप्तार्चिषा । पक्वान्किञ्चिदमूनमूढ हृदयः पिष्ट्वा शिलायां शनैस्तत्कल्कं सुरभीघृतेन For Private And Personal Use Only कुवद्वन्द्वेन संभर्जयेत् ॥ + रस कामधेनुमें टङ्कण अधिक लिखा है ।
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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