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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
३१५
रसमें घोटें । तदनन्तर ४ भाग शुद्ध जशदके पत्रों | घर्षणाल्लोहदण्डेन वह्निरुत्तिष्ठति ध्रुवम् । पर इस कज्जलीका लेप करके उन्हें शराव सम्पुटमें | | यथा यथा भवेत् घृष्टिर्भस्मीभावस्तथा तथा ॥ बन्द करें और गजपुटमें फूंक दें। भस्मी भूतं पृथक् कृत्य घर्षयेत्तत्पुनः पुनः ।
इस विधिसे एकही पुटमें यशदकी भस्म हो नेत्रयोगेषु सर्वेषु भस्मीभूतमिदं शुभम् ॥ जाती है।
__ यशदको लोह-पात्रमें पिघला और फिर
उसके नीचे खूब तेज़ अग्नि कर दें । जब वह खूब जस्त कसेला, कड़वा, शीतल और कफ पित्त नाशक है। आंखोंके लिये अन्यन्त हितकारक है
तप्त हो जाए तो उसमें १-१ करके नीमके पत्ते
डालें ओर लोहेके डण्डेसे घोटते रहें। इससे उसतथा प्रमेह, पाण्डु और श्वासको नष्ट करता है।
में से ज्वाला निकलेगी और जस्तकी भस्म होती मात्रा-२ रत्ती।
जायगी ज्यों ज्यों भस्म होती रहे उसको अलग
निकालते रहें। और अन्तमें सबको खरल करके रखें । यशद भस्मकोनेत्र रोगामें-पुराने गोघृतके साथ;
यह भस्म आंखमें डालनेके लिये उपयोगी है। प्रमेहमें-पानके साथ;
(५८३४) यशदविकारोपायः अग्निमांधमें-अरणीकी जड़के काथके साथ;
(र. रा. सु.) त्रिदोषमें दालचीनी, इलायची और तेजपा- | अपक्वं जसदं रोगान् प्रमेहाजीर्णमारुतान् । तके चूर्णके साथ;
वमि भ्रमिं करोत्येनं शोधयेन्नागवत्ततः ॥ पित्तज ज्वरमें-खजूर और चावलेांके शीत
बालाभयां सितायुक्तां सेवयेद्यो दिनत्रयम् । कषायके साथ; शीत ज्वरमें-अजवायन और लौंगके साथ; |
जसदस्य विकारोस्य नाशमायाति नान्यथा ।। रक्तातिसारमें-खजूर और चावलेोके हिमके
अशुद्ध और अपक्क जस्त खानेसे प्रमेह,
| अजीर्ण, वायु, वमन और भ्रम इत्यादि रोग उत्पन्न साथ
अतिसार और वमनमें-मिश्री और जीरके / होत है। चूर्णके साथ सेवन करना चाहिये ।
यशदका शोधन भी नागके समान ही करना (५८३३) यशदमारणम् (२) चाहिये । (र. रा. सु.)
___छोटी हर्रका चूर्ण और मिश्री मिला कर ३ जसदं लोहजे पात्रे द्रावयित्वा पुनर्धमेत् । दिन तक सेवन करनेसे यशदके विकार शान्त अत्यन्ततप्ते निम्बस्य पत्रमेकं विनिक्षिपेत् ॥ हो जाते हैं।
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