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(५८३५) यशदशुद्धि: (र. रा. सु. )
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भारत- त- भैषज्य - रत्नाकरः
खर्परं द्विविधं प्रोक्तं जसदं शवकं तथा । जसदं प्रोक्तं खर्परं च गुणात्मकम् ॥ जसदं गालयेत्पूर्व दुग्धमध्ये तु ढालयेत् । एकविंशतिवारांश्च खर्परं शुद्धिमिष्यते ॥
खपरिया के दो भेद हैं, उन्हीं में से एकका म यशद है। दूसरे भेदको 'शवक' कहते हैं ।
यद्यपि खपरिया और यशद ( जसत ) एकही वस्तु के दो भेद हैं परन्तु खपरिया यशदकी अपेक्षा अधिक गुणदायी होता है ।
जस्को पिघला कर दूध में बुझावें । इसी प्रकार २१ बुझाव देने से वह शुद्ध हो जाता है । (५८३६) योगराजगुटिका
( च. सं. । चि. अ. २० पाण्डु ; वै. क. दु. 1 स्क्र. २; च. द. ; र. रा. सुं. । पाण्डु.; भै. र. 1 पाण्डु ; ग. नि. ) त्रिफलायास्त्रयो भागास्त्रयस्त्रिकटुकस्य च । भागाश्वित्रकमूलस्य विडङ्गानां तथैव च ॥ पञ्चाश्मजसुनो भागास्तथा रूप्यमलस्य च । माक्षिकस्य विशुद्धस्य लौहस्य रजसस्तथा ।। अष्टौ भागाः सितायाश्च तत्सर्वं श्लक्ष्णचूर्णितम्। माक्षिकेणफ्लुतं स्थाप्यमायसे भाजने शुभे ॥ उदुम्बरसमां मात्रां ततः खादेद्यथाग्निना । दिने दिने प्रयोगेण जीर्णे भोज्यं यथेप्सितम् ॥ वर्जयित्वा कुलत्थां काकमाचीकपोतकान् । योगराज इति ख्यातो योगोऽयममृतोपमः ॥
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[ यकारादि
रसायनमिदं श्रेष्ठं सर्वरोगहरं परम् । पाण्डुरोगं विषं कासं यक्ष्माणं विषमज्वरम् ॥ कुष्ठान्यजरकं मेहं श्वासं हिकामरोचकम् । विशेषाद्धन्त्यपस्मारं कामलां गुदजानि च ॥
हर्र, बहेड़ा, आमला १–१ भाग; सोंठ, मिर्च, पीपल १ – १ भाग; चीतेकी जड़ १ भाग, बायबिडंग १ भाग; शुद्ध शिलाजीत ५ भाग, रौप्यमल ( रूपामक्खी भस्म ) ५ भाग, स्वर्ण - माक्षिक भस्म ) ५ भाग, शुद्ध लोह ( भस्म ) ५ भाग, शुद्ध चांदी ( भस्म ) ५ भाग और मिश्री ८ भाग लेकर महीन चूर्ण बनावें ।
इसे मधुमें मिला कर स्वच्छ और उत्तम लोहपात्रमें भर कर सुरक्षित रक्खें ।
इसे अग्नि बलोचित मात्रानुसार सेवन करने से पाण्डु, विष, खसी, यक्ष्मा, विषम ज्वर, कुष्ठ, अजीर्ण, प्रमेह, श्वास, हिचकी और अरुचिका नाश होता है ।
कामला और अर्शमें
अपस्मार,
यह प्रयोग विशेष उपयोगी है।
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साधारण मात्रा - १ तोला ।
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इस प्रयोगमें किसी विशेष परहेज़ की आवश्यकता नहीं है । औषध पच जाने पर यथारुचि आहार करना चाहिये । केवल कुलथी, मकोय और कपोत मांसका त्याग कर देना चाहिये ।
( व्यवहारिक मात्रा - ४ रत्ती ) योगराज लोहम् ( र. र. । कृमि . ) "त्रिफलादि लेहः " प्र. सं. २७४५ देखिये ।
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