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मिश्रप्रकरणम् ]
हृद्रोगं विद्रधिं शोथं नाशयत्याशु तत्पयः ॥ एवन्तु साधिते क्षीरे स्तोकमेवात्र दीयते ।।
चतुर्यो भागः
२० तोले सूखे हुवे ल्हसनमें ४ सेर दूध और ३२ सेर पानी मिला कर पकावें, और जब पानी जल जाय तो दूधको छान लें ।
इसे यथोचित मात्रानुसार थोड़ा थोड़ा सेवन करानेसे वातज गुल्म, उदावर्त, गृध्रसो, विषमज्वर, हृद्रोग, विद्रधि और शोथका नाश होता है । (६४४८) लाक्षादियोग: ( व. से. । मैत्ररोगा. ) लाक्षामधुकमञ्जिष्ठा लोकालानुशारिखा । पुण्डरीकसंयुक्तः सेको रोगहरो हितः ॥
लाख, मुलैठी, मजीठ, लोध, तगर और पुण्डरिया समान भाग ले कर सबको पानीके साथ पीस कर कपड़ेसे निचोड़ कर रस निकालें । इसे आंखमें डालनेसे रक्ताभिष्यन्द नष्ट होता है ।
(६४४९) लाङ्गलीशोधनम् ( वृ. यो. त । त. ४३ ) लागली शुद्धिमायाति दिनं गोमूत्रसंस्थिता । लांगली ( कलियारी ) की जड़को १ दिन गोमूत्र में रखने से वह शुद्ध हो जाती है ।
(६४५०) लाजमण्ड:
(यो. त. । त. १८ ; शा. सं. । खं. २ अ. २) लार्वा तण्डुलैर्धृष्टैर्लाजमण्डः प्रकीर्तितः । श्लेष्म पित्तहरो ग्राही पिपासाज्वर जिन्मतः ॥
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धानकी खीलों या भुने हुवे चावल से जो मण्ड बनाया जाता है उसे लाजमण्ड कहते हैं । लाजमण्ड कफपित्त नाशक, ग्राही तथा पिपासा और ज्वर नाशक होता है ।
( १४ गुने पानी में पका कर तैयार किये हुवे कणरहित माण्डको ' मण्ड' कहते हैं ।) (६४५१) लाजादियूषः
( यो. र. । छर्दि वृ. यो. त. 1 त. ८३ ) लाजामसूरयवमुद्गकृता यवागूRaif हिता मधुयुता बहुपित्तजायाम् । धानकी खील, मसूर, जौ और मूंगके यवागूमें शहद मिला कर पीनेसे पित्तज छर्दि नष्ट होती है।
(६४५२) लाजोदकयोगः
(बृ. मा.; व. से. । तृष्णा ; ग. नि. । तृष्णा. १५) लाजोदकं मधुयुतं घृतं गुडविमिश्रितम् । कामशर्करायुक्तं पिबेत्तृष्णार्दितो नरः ॥ शहद मिला कर
धानकी खीलोंके पानी में
पीनेसे या गुड़में घी मिला कर खानेसे अथवा खम्भारीके फलोंके पानीमें खांड मिला कर पीनेसे तृष्णा शान्त हो जाती है ।
(६४५३) लालादियोगः ( वै. म. र. । पट. १६ )
पित्सु सदा लालां सिचे मुहुर्मुहुः । कुष्ठेष्वपि जगत्यस्माद्विद्यते न महौषधम् ॥
नवीन घाव (व्रण) पर और कुष्ठ पर बार बार लाला ( थूक) लगाना चाहिये ।
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