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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि
मोथा, धमासा, चिरायता, नीमकी छाल, पटोल, प्र. सं. ६२६३ " लोह रसायनम् " कुटकी, गिलोय, देवदारु, बायबिडंग, और पित्त- | देखिये । पापड़ा; इनका चूर्ण १-१। तोला ले कर सबको |
(६४४४) लोहाभयाचूर्णम् एकत्र मिला कर खरल करें।
(रसे. चि. म. । अ. ९) इसे शहद और घीके साथ सेवन करनेसे
मूत्राम्भः पाचितां शुष्कां लोहचूर्णसमन्विताम्। वातज, पित्तज, कफज और रक्तज संग्रहणीका नाश
सगुडामभयां दद्यात् सर्वशूलपशान्तये ॥ होता है।
हरके चूर्णको गोमूत्रमें पका कर सुखा लें मात्रा-११ तोला
और फिर उसमें समान भाग लोह भस्म मिलाकर व्यवहारिक मात्रा-२ रत्ती ।
सुरक्षित रक्खें । लोहरसायनम्
इसे गुड़में मिलाकर सेवन करनेसे शूल नष्ट (र. र. ; र. का. धे. ; व. से. । मेद. ; च. द.।। होता है। स्थौल्या. ३५)
(मात्रा-३ रत्ती।) इति लकारादिरसपकरणम्
अथ लकारादिमिश्रप्रकरणम् (६४४५) लघुपञ्चमूलादिसिद्धान्नम् । गृह्णाति सर्पान भ्रमतोऽतिघोरान् (व. से. । अतिसारा.)
पुमान् सुपर्णपतिमप्रभावः ॥ लघुना पञ्चमूलेन पिप्पल्या सह धान्यया।
हाथमें लज्जावतीकी जड़का लेप करके या आहारो भिषजा योज्य: सर्वदा हितमिच्छता ॥
" उसकी जड़ हाथमें बांध कर भयंकर सर्पको भी ___ अतिसार रोगमें लघु पञ्चमूल (शालपर्णी,
पकड़ लिया जाय तो वह कुछ भी हानि नहीं पृष्टपर्णी, कटेली, बड़ी कटेली, गोखरु ), पीपल |
पहुंचा सकता। और धनियेके काथके साथ अन्न सिद्ध करके देना चाहिये।
(६४४७) लशुनक्षीरम् (६४४६) लज्जालुमूलयोगः
(च. सं. । चि. अ. ५) (रा. मा. । विषा. २८) | साधयेत् सिद्धशुष्कस्य लशुनस्य चतुष्पलम् । लज्जावतीमूलविलिप्तपाणि
क्षीरे जलाष्टगुणिते क्षीरशेषश्च पाययेत् ॥ वाऽथवा तत्र तदीयमूलम् । वातगुल्ममुदावतं गृध्रसी विषमज्वरम् ।
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