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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [लकारादि मोथा, धमासा, चिरायता, नीमकी छाल, पटोल, प्र. सं. ६२६३ " लोह रसायनम् " कुटकी, गिलोय, देवदारु, बायबिडंग, और पित्त- | देखिये । पापड़ा; इनका चूर्ण १-१। तोला ले कर सबको | (६४४४) लोहाभयाचूर्णम् एकत्र मिला कर खरल करें। (रसे. चि. म. । अ. ९) इसे शहद और घीके साथ सेवन करनेसे मूत्राम्भः पाचितां शुष्कां लोहचूर्णसमन्विताम्। वातज, पित्तज, कफज और रक्तज संग्रहणीका नाश सगुडामभयां दद्यात् सर्वशूलपशान्तये ॥ होता है। हरके चूर्णको गोमूत्रमें पका कर सुखा लें मात्रा-११ तोला और फिर उसमें समान भाग लोह भस्म मिलाकर व्यवहारिक मात्रा-२ रत्ती । सुरक्षित रक्खें । लोहरसायनम् इसे गुड़में मिलाकर सेवन करनेसे शूल नष्ट (र. र. ; र. का. धे. ; व. से. । मेद. ; च. द.।। होता है। स्थौल्या. ३५) (मात्रा-३ रत्ती।) इति लकारादिरसपकरणम् अथ लकारादिमिश्रप्रकरणम् (६४४५) लघुपञ्चमूलादिसिद्धान्नम् । गृह्णाति सर्पान भ्रमतोऽतिघोरान् (व. से. । अतिसारा.) पुमान् सुपर्णपतिमप्रभावः ॥ लघुना पञ्चमूलेन पिप्पल्या सह धान्यया। हाथमें लज्जावतीकी जड़का लेप करके या आहारो भिषजा योज्य: सर्वदा हितमिच्छता ॥ " उसकी जड़ हाथमें बांध कर भयंकर सर्पको भी ___ अतिसार रोगमें लघु पञ्चमूल (शालपर्णी, पकड़ लिया जाय तो वह कुछ भी हानि नहीं पृष्टपर्णी, कटेली, बड़ी कटेली, गोखरु ), पीपल | पहुंचा सकता। और धनियेके काथके साथ अन्न सिद्ध करके देना चाहिये। (६४४७) लशुनक्षीरम् (६४४६) लज्जालुमूलयोगः (च. सं. । चि. अ. ५) (रा. मा. । विषा. २८) | साधयेत् सिद्धशुष्कस्य लशुनस्य चतुष्पलम् । लज्जावतीमूलविलिप्तपाणि क्षीरे जलाष्टगुणिते क्षीरशेषश्च पाययेत् ॥ वाऽथवा तत्र तदीयमूलम् । वातगुल्ममुदावतं गृध्रसी विषमज्वरम् । For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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